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________________ ८०४ जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा यवहारादो पंधो मोक्यो जम्हा सहावसंजुत्तो। सम्हा कर (कुरु) तं गउणं सहावमाराहणाकाले ॥७॥ यतः व्यवहारसे बन्ध है और स्वभाव संयुक्त मोश है, इसलिए स्वभाव आराधमाके कालमें व्यवहारको गोण करो।1७७।। प्रताय इस गाथाके प्रकाशमें माथा ६८ का इतना हो बापाय है कि सम्यग्दष्टिको भेवोपचारका गद्यार्थ ज्ञान होता है, इसलिए वह मोक्षका अधिकारी है। उदाहरणार्थ जिसे ऐसा यथार्थ ज्ञान है कि मोहनीय कर्म मोड-राग-द्वेषको उत्पन्न करता है यह उपचरित कथन है वही यथार्थको जानकर स्वभावके आलम्बन से मोक्षका अधिकारी होता है, अन्य मिध्यादष्टि नहीं, क्योंकि वह उपचारको भी आरोपित न जानकर यथार्थ जानता है, इसलिए वह कर्मबन्धनसे त्रिकालमें मुक्त नहीं हो सकता ।। समयसार गाया २७२ में 'पराश्रितो व्यवहारनन्यः' और 'भारमाश्रितो निश्चयनया' यह लिखकर व्यवहारनयमान का प्रतिषेध किया है । आत्मख्याति टीकाके याद है तत्रैव निश्चयनयेन पराश्रितसमस्तमध्यघसानं बन्धुहस्वेन ममक्षोः प्रतिषेधया व्यवहारनय एवं किल् शरदः, स्वाति नपत्रिकाममोकन । प्रतिपध्य एवं चार्य, आत्माश्रितनिइचयनयाश्रितानामेव मुच्यमामत्वात् । इस टीकाका पं0 जयचन्द्रजी कृत अनुवाद इस प्रकार है सो बैसे परके आश्चित समस्त अध्यवसान पर और आपको एक मानना यह बन्धका कारण होनेसे मोक्षके इच्छुकको छुड़ाता जो निश्चयनय उसकर उसी तरह निश्चयनयसे व्यवहारनय ही छुड़ाया है । इस कारण जैसे अध्यबसान पराश्रित है उसी तरह व्यवहारनय भी पराश्रित है इसमें विशेष नहीं है। इसलिए ऐसा सिद्ध हुआ कि यह म्यवहारनय प्रसिपेघने योग्य ही है, क्योंकि जो श्रास्माधित निश्चयनयके आश्रित पुरुष हैं उनके ही कमौसे घटनापना है।। इससे स्पष्ट है कि समयसार गाथा २७२ में निश्चयनयके द्वारा समस्त व्यवहारनयको प्रतिषिद्ध ठहराया गया है। और इसे स्वीकार करने पर पूर्वापर विरोध भी नहीं आता, क्योंकि समयसार गाथा १२ में यह नहीं कहा गया है कि अपरम भाव ( सविकल्प अवस्था ) में स्थित जीवों के लिए व्यवहारनव आश्रय करने योग्य है। आचार्य अमृतचन्दने जो 'ये तु प्रथम-' इत्यादि वचन लिखा है बह, 'जहाँ जितनी शुद्धि उत्पन्न होती है वहाँ तयुक्त आत्माका भी अनुभव होता है' यह बतलाने के लिए ही लिखा है। मालूम नहीं कि गाथा २७२ की टीका में और १२ को टोकाम इतना स्पष्ट कथन होनेपर भी अपर पक्षने पूर्वापरके विरोधका भय दिखलाकर अपना अभिलषित अर्थ कैसे फलित कर लिया ! बया गाथा १२ में व्यवहारनयको आश्रय करने योग्य बतलाकर १२ गुणस्थानतक वह निश्चयनयकं द्वारा प्रतिषित नहीं है यह कहा गया है। यदि नहीं तो गाथा २७२ के साथ इसका पूर्वापर विरोध कहां रहा, अर्थात् नहीं रहा । अपर पक्षने भावार्थ लिखकर जो भाव व्यक्त किये है उस सम्बन्ध में यह निवेदन है कि व्यवहारनय प्रयोजनवान् है इसका यह अभिप्राय लेना चाहिए कि जब यह जीव विकल्प अवस्थामें रहता है तब उस गुणस्थानके अनुरूप उसका व्यवहार नियमसे होता है। ऐसे व्यवहार के साथ उस गुणस्थानके अनुरूप शुद्धि बनी रहने में किसी प्रकारको बाधा उपस्थित नहीं होती। गुणस्थान परिपाटोके अनुसार व्यवहारका ज्ञान कराने के लिए उसका उपदेश भी दिया जाता है। किन्तु कोई भी मुमा व्यवहार करते रहनमें इष्टार्थको सिद्धि न मान स्वयं परमार्थस्त्ररूप बनने के लिए स्वभावका पालम्बन करनेको उद्यमशील रहता है।
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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