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________________ ७२४ जयपुर (खानिया) तस्वचर्चा उसमें वायके सद्भूत और और और परिमेोनिर्देश किया उप उपचाव गया था। इसलिये यह आक्षेप तो समीचीन नहीं कि प्रश्नमें जो पूछा गया उसका उत्तर नहीं दिया गया। इतना है कि प्रश्नकर्ता अपने मनमें यदि किसी हेतुको ध्यान में रखकर प्रश्न करता है तो जिस हेतुसे उसने प्रन किया है उसका भी उल्लेख होना चाहिये । अस्तु, हमारे द्वारा लिखी गई 'यह जीव अनादि अज्ञानवश संयोगको प्राप्त हुए पर पदार्थों न केवल एकबुद्धिको करता आरहा है, अपितु स्वहाय होनेपर भी परकी सहायता के बिना मेरा निर्वाह नहीं हो सकता, ऐसी मिथ्या मान्यतामदा अपनेको परतन्त्र बनाये हुए चला आ रहा है। इन पंक्तियो २ उक्त प्रकारको मिथ्या धारणाको कल्पना को संज्ञा दी गई है यह पढ़कर आश्चर्य हुआ। बथवा अदेव देवबुद्धि, अगुरु गुरुबुद्धि और अशास्त्र में शास्त्रदृद्धि तथा इसी प्रकार अनात्मीय पदार्थोंमें आत्मबुद्धि, जिसे कि सभी शास्त्रकार मिथ्या श्रद्धा के रूप में मिथ्यादर्शन लिखते आये है, उसे आजकल यदि कल्पना माना जाता है सो आश्चर्य भी नहीं होना चाहिये। जीवादि सात पदार्थीको विपरीत श्रद्धा का नाम ही तो मिथ्यात्व है, इसे मागमका अभ्यासी प्रत्येक व्यक्ति जानता है, फिर वैसी मान्यता कल्पनारमक कैसे हुई ? विचार कीजिए। इसी प्रकार लेख अप्रासंगिक और भी अनेक चिन्तनीय विचार रखे गये हैं। आत्माकी नर नारकादि पर्याय स्वयं मात्माको अवस्था है। यदि पर द्रव्यरूप कमौका आत्माके साथ होनेवाले बन्चका शास्त्रकार व्यवहार नयसे सद्भाव स्वीकार करते हैं और हमारी ओरसे उस कक्षा के भीतर रहकर उत्तर देकर शास्त्रमर्यादाकी सोमा बनाये रखो जाती है तो इसमें हानि हो क्या है ? इस सम्बन्ध स्वयं आचार्य अमृतचन्द्र लिखते है सर्वा परैः सह वरचतः समस्तसम्बन्धशून्यत्वात् । - प्रवचनसार ३, ४ टीका अर्थ - आत्मा तत्त्वतः परद्रव्योंके साथ सब प्रकार के सम्बन्धसे शून्य है । प्रदिशंकास्वरूप लिखे गये अनेक आगयोंका नाम है। इनमें पंचाध्यायीका नाम लिखकर उसका नाम अलग क्योंकर दिया गया यह मेरी समझ के बाहर हैं। यह कोई प्रशंसनीय कार्य नहीं हुआ सूचना देना में अपना धामूलक प्रधान कर्तब्य मानता हूँ जिन प्रबंकि इस सूची में नाम है उनमें समयसारके साथ मूळाचार, भावसंग्रह, श्यणसार, धवलसद्धान्त, तस्यार्थवार्तिक और मोम्मटसार इस आगमशास्त्रोंका भी नाम है । इनमें समयसार अध्यात्मकी मुख्यतासे प्रतिपादन करनेवाला आगम ग्रन्थ है, शेप आगम ग्रन्थ व्यवहारको मुख्यतारो लिखे गये है। पंचास्तिकायनें आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं एवमनया दिशा व्यवहारनयेन कर्मग्रन्थप्रतिपादित जीवगुणमार्गणास्थानादिप्रपंच चित्र विकल्प-गाथा १२३ टीका रूपैः । इस उल्लेख से स्पष्ट है कि जिन शास्त्रोंमें जीवस्थान, गुणस्थान और मार्गणास्थान आदिरूप विविध भेदों का कथन किया गया है, जिनमें कर्मग्रन्थ मुख्य हैं, वे व्यवहारनयको मुख्यतासे लिखे गये हैं । अतएव इनमें निमिलोंकी मुख्यतासे प्रतिपादन करते हुए जो यह कहा गया है कि उनके कारण जोव संसारमें परिभ्रमण करता है या जीव कमके कारण हो संसारका पात्र बना हुआ है।' तो ऐसे कथनको पर मार्थभूत न कह कर व्यवहारको अपेक्षा स्वीकार किया जाता है तो उस परसे विपरीत अर्थ फलित म यही फलित करना चाहिए कि यह संसारो जीव एकमात्र अपने अज्ञान के कारण ही संसारका पात्र बना हुआ है।
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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