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________________ ७३० जयपुर (खानिया ) तत्वचर्च अनुसार जो देष, शास्त्र, गुरु, अहिंसादि अणुव्रत और महावत आदिरूप शुभ विकल्प होता है जो कि रागपर्याय है उसको यहाँ व्यवहारधर्म कहा गया है। परमात्मप्रकाशमें कहा है __ देवहं सत्यहं मुणिवरह भत्तिए पुण्णु हवेइ । कम्मखत पुणु होइणवि अज्जउ संति भणे ॥६॥ देव, शास्त्र और गुरुको भक्तिसं पुण्य होता है। परन्तु इससे कर्मक्षय नहीं होता है ऐसा शान्ति जिन कहते है ॥६॥ नयचक्रमें भी कहा है देवगुरुसस्थभत्तो गुणोषयारकिरिबाहि संजुसी । पूजादाणाहरदो उपजोगो सो सुही तस्स ॥३११॥ अर्थ-~ो आरमाका उपयोग देव, गुरु, शास्त्रको भक्ति तथा गृण-उपचार क्रियासे युक्त और पूजा-दान आदिमें लोन है वह शुभ उपयोग है ॥३११।। इससे स्पष्ट है कि आगममें व्यवहारधर्म से जीवकी आशिक विशद्धि के साथ होनंबाला रागांश ही लिया गया है । अतएव जन्म रागांशकी दृष्टि से विचार करते है तो पही प्रतीत होता है कि वह एकमात्र बन्धमार्ग ही है । जहाँ कहीं आगममें उसे निर्जराका हेतु लिखा भी है तो वह केवल उसके साथ होनेवाले बात्माके निश्चय रत्नत्रयस्वरूप शुद्ध परिणामका रागांशमै उपचार करके ही लिखा है। अतएव नागमके 'व्यवहारधर्म मोक्षका हेतु है ऐसे वचनको पढ़कर उसका कथन मात्र उपचारसे जानना चाहिये, परमार्थसे नहीं । आगममें व्यवहार-निश्चयकी मुख्यतासे अनेक प्रकारके वचन उपलब्ध होते हैं सो शब्दार्थ, नयार्थ, मतार्थ, आगमार्थ, भावार्थ इनको समझकर ही वहाँ व्याख्यान करना चाहिये । अनेन प्रकारेण शब्दनयमतागमभावाथों व्याख्यानकाळे यथासम्भवं सर्वग्न ज्ञातव्य इति । -परमात्मप्रकाश १,२ पृ.८ अनेन प्रकारेण शब्दनयमतागमभावाचं व्याख्यानकाले सर्वत्र योजनीयं ।। -पजास्तिकाय गाथा १ जथनीय टीका पूष्ट । कई स्थानोपर प्रतिशंका २ में मिली हुई शुद्धाशुद्ध पर्यायको शुभ कहा गया है। इससे स्पष्ट विदित होता है कि यह प्रतिशंकामें स्वीकार कर लिया गया है कि जितना रागांश है वह मात्र बन्धका कारण है, पर उसे निर्जराका हे सिद्ध करना इष्ट है, इसलिये पूरे परिणामको शुभ कहकर ऐसा अर्थ फलित करने की चेष्टा को गई है सो यह कयनकी चतुराई मात्र हो है। यस गुणस्थानमें रागभाव है वह आगमसे ही स्पष्ट है और वह बन्धका ही कारण है, परन्तु सातवें गुणस्थानसे लेकर ऐसा रागांश अबुद्धिपूर्वक होता है, इसलिये वहाँ शुद्धोपयोगकी सिद्धिमें कोई बाधा नहीं आती। प्रतिशंकामें एक मत यह प्रगट किया गया है कि यदि व्यवहारधर्मको निश्चयधर्मका सापक महीं माना जाता है तो श्रावक-मुनिकी क्रियाएं निष्फल हो जाती हैं। सो मेरी नम्र सम्मतिमें ऐसा भय करनेका कोई कारण नहीं है, क्योंकि जब वह आत्मा शुद्धीपयोगझे च्युत होकर शुभोपयोगमें आता है तब उसके उस
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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