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शंका १६ और उसका समाधान पदके अनुरूप बाह्य क्रियाएँ भी होती है। इतना अवश्य है कि थान्नको गुणस्थानके अनुरूप शुद्ध परिणतिके साथ शुभोपयोगको मुरूपता होलो है और साधुके शुद्धोपयोगको मुख्यता और शुभोपयोगकी गौणता होती है। शुभोपयोग या बाह्य क्रियाएँ तभो जात्मधर्ममें बाधक है जब यह जीव इनसे निश्चयधर्म की प्राप्ति मानता है, किन्तु आगमका अभिप्राय यह है कि मोक्षमागमें राषिक आत्मा सदाकाल स्वभावका ही माश्रय लेनेका उद्यम करता है। परन्तु उपयोग की अस्थिरता के कारण उसके आत्मान भूतिस्वरूप ध्यानसे च्युत होनेपर सस समय उसको सहज प्रवृत्ति शुभोपयोग होती है और शुभोपयोगके साथ बाह्य क्रियाएं भी होती है । शुभो. फ्योग संसारका कारण है और शद्धोपयोग मोक्षका कारण है यह इससे स्पष्ट है कि शभोपयोगके होनेपर कर्मबन्धकी स्थिति-अन भागमें वृद्धि हो जाती है और द्धोपयोग होनेपर उसकी स्थिति-अनुभागमें हानि हो जाती है। श्री समयसारजो में जो खबहारको प्रतिषिद्ध और निश्चयको प्रतिषेधक कहा है वह इसी अभिप्रायसे कहा है। गया
एवं ववहारणी पडिसिद्धो जाण णिच्छयणपुण ।
णिच्छयण यासिदा पुण मुणिणो पाति णिच्वाणं ॥२२॥ अर्थ-इस प्रकार व्यवहारनय निश्चयके द्वारा निषिद्ध जानो। परतू निश्चयनयका आश्रय लेने वाले मुनि निर्वाणको प्राप्त होते है ।।२७२।।
अतएव जो मोबमार्गपर आरूढ़ होना चाहता है उसे मुख्यतासे स्वभावका आश्रय लेने का ही उपदेश होना चाहिए, क्योंकि वह आत्माका कभी भी न छूटनेवाला स्वभावधर्म है तथा आत्मा में जो विशुद्धि उत्पन्न होती है वह स्वभावके आश्रय लेनेसे ही होती है, व्यवहारका आथव लेनेसे नहीं। प्रत्युत स्थिति यह है कि ज्यों ही साधक आत्मा स्त्रभावके स्थानमें शुभ और तदनुरूप क्रियाओंको निश्चयसे उपादेय मानकर उससे मोक्षप्राप्ति होती है ऐसो श्रद्धा करता है त्यों हो वह सम्यक्त्वरूपो रत्नपर्वतमे चुत हो जाता है । व्यवहार धर्म गुणस्थान परिपाटीसे होकर भी उत्तरोत्तर गुणस्थानोंमे छूटता जाता है और स्वभावके जाश्रयसे उत्पन्न हुई विशुद्धि उसरोत्तर वृद्धिको प्राप्त होतो हुई अन्त में पूर्णताको प्राप्त हो जाती है, इसलिये जो छूटने योग्य है उसका मुख्यतासे उपदेश देना न्याय्य न होकर स्वभावका आश्रय लेकर मुख्यतासे उपदेश देना ही जिनमार्ग है ऐसा यहाँ समझना चाहिये।
प्रतिशंका २ में अनेकान्तकी पुष्टिके प्रसंगले 'निरपेक्षाः नया मिथ्या यह वचन उद्धृत किया गया है पर यह बदन वस्तुमिद्धिके प्रसंगमें आया है और प्रकृतमें माममार्गको सिदि की जा रही है। अतएव प्रकृति में उसका उपयोग करना इष्ट नहीं है, यहाँ गुण-पर्यायात्मक वस्तुका निषेध नहीं किया जा रहा है। यहाँ तो यह बतलाना मात्र प्रयोजन है कि अपनी दृष्टि में किसे मुख्यकर यह संसारी जीव मोझमार्गका अधिकारी बन सकता है। अतएव यह उपदेश दिया जाता है कि पर्याय बुद्धि तो तू अनादि कालसे बनाए चला आ रहा है। एक बार पुण्य-पापके, निमित्त के और गुण-पर्यायके विकल्पको छोड़कर स्वभावका आश्रय लेनेका प्रयत्न तो कर । अब विचार करके देखो कि ऐस उपदेशम एकान्त कहाँमा। क्या इसमें पुण्य-पापके सद्भावको या गण-पर्याय सदभावको अस्वीकार किया गया है.या उनका विकल्प दूर कराने का प्रयत्न है। इसी कारण आचार्य कुन्दकुन्द समयसारमै विद्वानोंको शिक्षा देते हुए कहते हैं
मोत्तण जिच्छयद ववहारेण पिसा पवति । परमदमस्सिदाण दुजदीण कम्मक्खओ विहिओ ॥१५६॥