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________________ ५०२ जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा है | अध्यात्मके स्वरूपका प्रतिपादन करनेवाला जितना भी आगम साहित्य उपलब्ध होता है उसमें तो एकरूपता ही है। किन्तु यह भी निर्णीत कि चारों अनुयोगोके आगम साहित्य में एकरूपता है। यहाँ यह निवेदन है कि जहाँ ठीक तरहसे आदाय रामझ में न आये यह आगम के आशयको स्पष्ट समझने का प्रयत्न होना चाहिए 1 प्रमाणभूत आगमको मतके रूप प्रस्तुत करना उपयोगी नहीं है । अब रहो जन्य-जनकत्व शक्तिकी बात सो प्रत्येक द्रव्यमें स्वाश्रित जन्यत्व और जनकत्व शक्तियों है । छह निश्चय कारकोंमें निश्चय कर्ता-कर्म शक्तिका उल्लेख हुआ है वह इसी अभिप्रायसे हुआ है । इतना अवश्य है कि विवक्षित द्रव्यको जम्प जनकरयशक्ति उसीमें पाई जाती है तथा अन्य अव्योंकी भी अपने अपने में पाई जाती है । एक द्रव्यमें जन्मदावित हो और उसको जनशक्ति किसी दूरारे द्रव्यमें हो ऐसी व्यवस्था वस्तुरूपके प्रतिकूल है ऐसा बागमका अभिप्राय है । तृतीय दौर : ३ : शंका ७ मूल प्रश्न- 'केवली भगवान की सर्वज्ञता निश्चय से हैं या व्यवहार से १ यदि व्यवहारसे है तो वह सत्यार्थी है या असत्यार्थी ?" प्रतिशंका ३ इसका उत्तर तथा प्रत्युत्तर देते हुए आपने इस प्रकार कहा है १. जाणदि पर्सादं सव्वं चचहारणयेण केवली भयवं । केवलकाणी जाणदि पस्सदि नियमेण अपानं ॥१५९॥ अर्थ - यवहारनयसे केवली भगवान् सबको जानते हैं बोर देखते हैं, निश्चवनयसे केवलज्ञानी नियमसे आत्मा को जानते और देखते हैं । २. सर्वज्ञता नामका एक धर्म है जो कहींपर होना चाहिए सभी परकी अपेक्षा आशेप करना ठहरता है । ३. आत्मज्ञता में सर्वज्ञताका धर्म समाया हुआ है । ४. केवल जिनमें जो सर्वज्ञता है उसे मात्र परके आश्रवसे स्वीकार करने पर तो वह असद्भूत ही हरती है इसमें संदेह नहीं । ५. श्री समयसार के परिशिष्ट सर्वशत्व और सर्वदशिव शक्तिको स्वीकार किया है जिससे स्वभावकी अपेक्षा सर्वशता बन जाती है ।
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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