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________________ शंका ६ और उसका समाधान ४३७ कथनमात्र है जो व्यवहार नयकी भाषाका अवलम्बन लेकर बोला जाता है। इसी बात को स्पष्ट करते हुए स्वयं बाचार्य महाराज गाथा १०७ में लिखते हैं उप्पादेदि करेदि य बंधदि परिणाम एदि गिण्हदिय । आदा पुग्गल षहारणयस्स वत्तब्वं ॥ १०७ ॥ परिणमाता है तथा ग्रहण आत्मा पुद्गल द्रव्य के परिणामको उत्पन्न करता है, करता है, बाँधता करता है ऐसा व्यवहारमय ( असद्द्भूत व्यवहार नय) का वचन है ॥ १०७ ॥ यहाँ ऐसा समझना चाहिए कि एक द्रव्यकी पर्यायका दूसरा द्रव्य उत्पादक है इस प्रकार यहाँ किया गया मह उत्पादादिरूप व्यवहार उपचार कैसे हैं इसे राजा प्रजाका दृष्टान्त देकर गया १०८ तथा उसकी टीका में ऐसा लिखा है कि 'तथापि न परतुष्यात्मककर्मकर्त्ता स्यात् तथापि पर द्रव्यात्मक कर्मका कर्त्ता नहीं है | सो उसका तात्पर्य यह है कि अज्ञानी जीव अपने को पर couको पर्यायका निमित्तकर्ता मानता है, किन्तु वस्तुस्थिति यह नहीं है । इस प्रकार उक्त कथनसे यह फलित हुआ कि अपर पक्षने जो यह लिखा है कि 'व्यवहाररूप अर्थ सापेक्ष निश्चयरूप अर्थको जाननेवाला ज्ञान निश्चयनय है।' सो उसका ऐसा लिखना यथार्थ नहीं है, किन्तु जो ज्ञान एक ही द्रव्य भावको उसीका जानता हूँ और उपचाररूप अर्थका निषेध करता है वह निश्चयनय है, क्योंकि प्रत्येक वस्तुका वस्तुत्व हो ऐना होता है कि जो अपने स्वरूपका उपादान करता है और अन्यका अपोहन करता है। यदि प्रत्येक वस्तुमें इस प्रकारकी व्यवस्था करनेका गुण न हो तो उस वस्तुका स्तुत्व हो नहीं बन सकता। इसी तथ्यको ध्यान में रखकर युक्त्यनुशासन लोक ४२की eter आवार्य विद्यानन्द लिखते है - स्वपररूपोपादानापोट्न व्यवस्था पाथत्वाद्वस्तुनो वस्तुस्वस्य । स्वरूपके उपादान और पररूपके अपोनको व्यवस्था करना ही वस्तुका वस्तुत्व है । प्रत्येक द्रव्य भावाभावात्मक माना गया है। यह प्रत्येक वस्तुका स्वरूप है। यह उभयरूपता वस्तुमें है इसकी सिद्धि करने के लिए ही यह कहा गया है कि प्रत्येक द्रव्य स्वचतुष्टयकी अपेक्षा भावरूप है और पर चतुष्टयकी अपेक्षा अभावरूप है। इसका यदि कोई यह अर्थ करे कि स्वचतुष्टयकी अपेक्षा वस्तुका स्वरूप भावरूप है और परचतुष्टयकी अपेक्षा उसका स्वरूप अभावरूप है तो उसका ऐसा अर्थ करना संगत नहीं है, क्योंकि कोई भी धर्म किसी भी वस्तुमें स्वरूपसे स्वतः सिद्ध होता है। हो, अपेक्षा विशेषका आलम्बन लेकर उन धमकी सिद्धि करना दूसरी बात है | आचार्य भट्टाकलंकदेव अष्टसहस्री पृष्ठ १९५ में लिखते हैं अन्यस्य कैवल्यमितरस्य वैकल्यं, स्वभावपरभावास्यां भाषाभावव्यवस्थितेर्भावस्य । किसी एकका अला होना उरामें दूसरेकी त्रिकलता ( रहितपना ) है, क्योंकि प्रत्येक पदार्थ स्वभाव और परभावकी अपेक्षा भावाभावरूप व्यवस्थित है । इससे स्पष्ट है कि निश्चय कथन स्वरूपनिष्ठ व्यवस्था करनेवाला होनेके कारण जहाँ अपने स्वरूपका प्रतिपादन करता है वहाँ वह अपने से भिन्न अन्यका निषेध भी करता है। भगवान् कुन्दकुन्दने समयसार गाथा २७२ में इसी तथ्यको ध्यान में रखकर निश्चयनमको प्रतिषेधक और व्यवहारनयको प्रतिषेध्य बतलाया है । यद्यपि वहाँ उनके कथनमें इससे भी आगे जाकर मर्मकी बात कही गई है, किन्तु उस कथनमें यह भाव पूरी तरहसे निहित है, क्योंकि उस गाथा द्वारा जिसना भी पराश्रित व्यवहार है उस सबका निषेष किया गया
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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