SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 66
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जयपुर (खानिया) तस्वचर्चा माननेपर उनको ग्रहण करनेवाला नत्रज्ञान मिथ्या कैसे है और कञ्चितरूप उन धर्मों द्वारा वक्तुको ग्रहण करनेवाला नयज्ञान समीचीन कैसे है इसका विचार किया गया है । तात्पर्य यह है कि प्रत्येक वस्तु परस्पर विरुद्ध अनेक धर्मवाली होनेपर भी जो नय दुसरे धर्मकी अपेक्षा किये बिना मात्र एक धर्मस्वरूप वस्तूको स्वीकार करता है वह नय मिध्यानय माना गया है। और जो नय इतर धर्मसापेक्ष एक धर्म द्वारा वस्तुको ग्रहण करता है वह सम्यक तय माना गया है। यह वस्तुस्थिति है। इसके प्रकाशमें प्रकृतमें विचार करनेपर विदित होता है कि प्रत्येक वस्तुम जो कर्ता आदि अनेक कारक धर्म है ये वस्तुसे ध्यापिक नयको अपेक्षा अभिन्न है, क्योंकि जो 'द्रव्यको ससा है वही उन धौकी सत्ता है। अतएव अभेवरूपसे वस्तुको पण करनेवाला जो नय है वह निश्चयनय है। तथा संज्ञा, प्रयोजन और लक्षण आदिवी अपेक्षा भेद उपजाकर इन धर्मों द्वारा यस्तुको ग्रहण करनेवाला जो नय है वह सदभूत व्यवहारमय है। इस प्रकार एक ही वस्तु, कञ्चित् अभेष्ठ तथा कथञ्चित भेदकी विवक्षा होनेपर इन नयोंकी प्रवृत्ति होती है इसलिए ये दोनों ही नय सम्यक् नय है । अब रहा असद्भूत व्यवहारनय सो उसका विषय मात्र उपचार है जो परको आलम्बनकर होता है, इसलिए उसको अपेक्षा उक्त दोनों नयोंमें सापेक्षता किसी भी अवस्था नहीं बन सकती। यदि भापर पक्षने समयसारकी रचनाशली पर थोड़ा भी ध्यान दिया होता तो उसने अपनी इसी प्रश्नकी प्रतिदका ३ में जो निश्चयनय और व्यबहारनयके लक्षण स्त्रोकार किये है उन्हें वह भूलकर भी स्वीकार न करता । इसके झिए समयसार माथा ८४ और ८५ पर दृष्टिपात कीजिए। समयसार गाथा ८४ में पहले आत्माको व्यवहारनयते पुद्गल झोका कर्ता और भोक्ता नवलाया गया है, किन्तु यह व्यवहार असदभूत है, क्योंकि बज्ञानियोंका अनादि संसारसे ऐसा प्रसिद्ध व्यवहार है; इसलिए गाथा ८५ मे दूषण देते हुए निश्चयनयका अवलम्बन लेकर उसका निषेध किया गया है। इसी प्रकार गाथा ९८ में ब्यबहारनयसे घट, ५८, रथ आदि द्रव्य तथा नाना प्रकारकी इन्द्रियां, कर्म और नोकर्म इत्यादि कार्योंका कर्ता आत्माको बतलाकर गाथा ६६ में दूषण देते हुए उस असद्भूत व्यवहारका निषेध किया गया है। यद्यपि माथा १०० में अज्ञानी आत्माके योग और उपयोगको घट, पट आदि कार्योंका उपचरित असदभुत व्यवहारनयकी अपेक्षा निमित्तका कहकर इसो बातको दृढ़ किया है, पयोंकि उसी गाथाकी टोकामें ऐसा लिखा है कि 'तथापि न परदच्यात्मककमकर्ता स्यात् ।' उसका तात्पर्य यह है कि अज्ञानी अपनेको पर द्रव्यको पर्यायका निमित्तका मानता है। परन्तु वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है। एक या दूसरे ट्रब्यके कर्मका यथार्थ का क्यों नहीं है एतद्विषयक सिद्धान्तका उद्घाटन करते हुए गाथा १०३ में आचार्य लिखते हैं जो जम्हि गुणे दग्धे सो अण्णम्हि त्रु ण संकदि दवे । सो अण्णामसंकतो कह तं परिणामए दबं ।। १०३ ॥ जो द्रव्य अपने जिस द्रव्य स्वभाव में तथा गुणमें वर्तता है वह अन्य द्रव्यमें तथा गुणमें संक्रमित नहीं होता । इस प्रकार अन्यमें संक्रमित नहीं होता हुआ वह उस अन्य द्रव्यको कैसे परिणमा सकता है अर्थात् कभी नहीं परिणमा सकता ।। १०३ ॥ एक द्रव्य दूसरे द्रव्यको क्यों नहीं परिणमा सकता इसके कारणका निर्देश करते हुए इसी गाथाको टोका आचार्य अमृतचन्द्र कहते है कि प्रत्येक वस्तुस्थितिकी सीमा अचलित है, उसका भेदना अशक्य है । अतएव प्रत्येक वन्तु अपनी-अपनी सीमा में ही पतनी है । कोई भी वस्तु अपनी-अपनी सीमाका उल्लंघनकर अन्य वस्तु में प्रवेश नहीं कर सकता, इसलिए एक द्रष्य दूसरे व्यको परिणमाता है यह
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy