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जयपुर ( खातिर ) स्वचर्चा
आत्माकी सब अवस्थाओंको लक्ष्यमें रखकर उसका विचार किया जाता है तो वे आत्माको सब अवस्थाओंमें अनुगामी न होने से उन्हें अद्भुत कहा है । परन्तु जब तक वे आत्मामें उपलब्ध होते हैं तबतक उनके द्वारा आत्मामें यह आत्मा प्रमादी है, यह बारमा अप्रमादो है ऐसा व्यवहार तो होता ही है, इसलिए त्रिकाली आत्मामें यह नहीं है और शावरुस्वरूप आत्मासे वे भिन्न है इन सब प्रयोजनों को ध्यान में रसकर उनका अद्भूत व्यवहार में किया है उसमें भी ये दोनों प्रकारके ( प्रमत्तभाव और अप्रमत्तभाव ) भाव बुद्धिपूर्वक बुद्धि में आवें ऐसे ) भी होते है और अबुद्धिपूर्वक ( बुद्धि न आयें ऐसे ) मी होते है, अतएव जो अबुद्धिपूर्वक होते हैं उनमें अन्यकी अपेक्षा विवक्षित न होने से उन्हें अनुपचारित कहा गया है तथा जो प्रमत और अमभाव बुद्धिपूर्वक होते हैं उनमें बुद्धिपूर्वकत्वको अपेक्षा असे परसापेक्षपको अपेक्षा उपचरित कहा गया है। इसप्रकार विचार करनेपर अद्भूत व्यवहारयके दो भेद प्राप्त होते है - अनुचरित असद्भूत पवहार और उपचार बवद्भूत व्यवहारमय जो प्रमत्त और अप्रभाव अबुद्धिपूर्वक होते हैं वे अनुपचारित असद्भूत व्यवहारमयके विषय है और बी प्रमत्तम और अप्रमत्तभाव बुद्धिपूर्वक होते हैं उन्हें तपचरित बसद्भूत व्यवहारनयका विषय कहा है। यह तो अध्यात्मकी अपेक्षा अनून व्यवहारमय दो मेवोंकी भीमाना है।
आमे सद्भूत व्यवहारनयकी और उसके भेदोंकी गोमांसा करती है यह तो सुनिश्चित है कि अखंड आत्मामें जान है, दर्शन है और चारित्र है । ये गुण त्रिकाली हैं । यदि आत्मामें इनका सर्वथा अभाव माना जाता है तो अपने विशेषाने आत्मा ही भाव प्राप्त होता है इसमें सन्देह नहीं। इसलिए यह तो मानना ही पड़ता है कि वे धर्म आत्मा है, परन्तु वे ऐसे नहीं हैं कि ज्ञान अलग हो, दन अलग हो और चारित्र अलग हो । किन्तु पूरे आत्माको ज्ञान रूप से देखने पर वह ज्ञान है, दर्शनरूपसे देखनेपर वह दर्शन है और चारित्ररूपसे देखनेपर वह चारित्र है, इसलिए आत्मायें उनका यदुभाव होनेपर भी वे भेदरूपसे नहीं है यह सिद्ध होता है इस प्रकार आत्मा उनका सद्भाव होने से उन्हें सद्भूत मानकर उन द्वारा आत्माका अलग-अलग व्यवहार होनेसे उन्हें व्यवहारका विषय माना है । इसप्रकार आत्मा ज्ञान है, दर्शन है, चारित्र है ऐसा जानना सद्भूत व्यवहार होकर भी इसमें अन्य किसीकी अपेक्षा विवक्षित न होनेसे इन द्वारा आत्माको ग्रहण करना अनुपचरित सद्भूत व्यवहारमय है ।
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अब यह देखना है कि जो यहाँ बारमाको लायकरूप कहा है सो वह परको अपेक्षा यक है कि स्वरूपसे शायक हैं। यदि एकान्त से यह माना जाता है कि वह परको अपेक्षा ज्ञायक है तो ज्ञानकभाव आत्माका स्वरूप सिद्ध न होनेसे ज्ञायकस्वरूप आत्माका सर्वथा अभाव प्राप्त होता है । यह तो है कि ज्ञायकमात्र स्व-परप्रकाशक होनेसे परको जानता अवश्य है पर वह परको अपेक्षा मात्र जायक न होनेसे स्वरूपसे ज्ञायक है। फिर भी उसे ज्ञायक कहने से उसमें ज्ञेवकी ध्वनि आ जाती है, इसलिए उसपर ज्ञेमको विवक्षा लागू पड़ जानेसे उसे उपचरित कहा है। इस प्रकार आत्माको शासक कहना यह सद्भूत व्यवहार है और उसे शेयको अपेक्षा शायक ऐसा कहना यह उपचरित है। इस प्रकार जब ज्ञेयकी विवक्षासे ऐसा कहा जाता है कि आत्मा ज्ञायक है तब वह उपचरित सद्भूत व्यवहारनयका विषय होता है। इस प्रकार विचार करनेपर सद्भूतव्यवहार भी दो प्रकारका सिद्ध होता है— एक अनुपचारित मद्भूत व्यवहारमय और दूसरा उपचारित सद्भूत व्यवहारन |
यहाँ पर इतना विशेष जान लेना चाहिये कि ज्ञेयको विवक्षा न करते हुए सहज स्वभाव से जो ज्ञायकगाय है जिसको नियमसारमें कारण परमात्मा या परम पारिणामिक भाव कहा गया है वह निश्चयनका