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शंका १६ और उसका समाधान
७६३ इसमें सन्देह नहीं कि मोक्षमार्गको दृष्टिसे विकल्पमात्र हेय है। परन्तु उसमें उसना विशेष है कि व्यवहारनय और व्यवहारनयका विषय ये दोनों तो सर्वथा हेय हैं ही, क्योंकि जिस प्राणीकी इनमें उपादेय बुद्धि होती है. वह नो मोक्षमार्गमें प्रयोजनभूत कथा सुननेका भी पात्र नहीं। किन्तु सविकल्प निश्चयनय और उसके विषयमें इतना विवेक है कि निश्चयनय स्वयं एक विकल्प होनेसे वह तो हेय है, परन्तु उसका विषयभूत आत्मा उदादेय है, क्योंकि तत्स्वरूप अनु भूतिका नाम ही समयसार है । अतः उक्त गाथा द्वारा आचार्य यह बतला रहे हैं कि समयप्रतिबद्ध अर्थात् ज्ञायकस्वरूप आत्मानभतिकसि परिणत आत्मा दोनों नयोंके कथनरूप न्य-पर्यायको मात्र जानता तो है परन्तु उनके विकल्पलाएसे नहीं परिणमला । यहाँ अपर पक्ष कह सकता है कि यदि ऐसी बात है तो निश्चयनय उपादेय है ऐसा कथन क्यों किया जाना है? समाधान यह है कि अध्यात्म में निश्चयनय और उ विषयमें अभेदको स्वीकार करके ही यह कथन किया जाता है ।
इतने विवेचन में यह स्पष्ट हो जाता है कि अपर पशने समयसार गाथा १४३ का जो आशय लिया है वह ठीक नहीं है।
जिसके
५. विविध विषयोंका स्पष्टीकरण अब इस बात का विचार न कि जहां व्यवहारको गोनाहक दो पा पुन्य आदि कहा है उसका क्या तात्पर्य है ?
१. इसके लिए सर्वप्रथम हम जयघवला पु०१ पृ० ८ का 'ण व यवहारणी चप्पलओ' यह उदाहरण लेते हैं। आचार्य बीरसेनने यह बचन गौतम स्थविरने मंगल क्यों किया इस तथ्य के समर्थन में लिखा है । विचारणीय यह है कि यदि मोक्षमार्गमें निश्चयनय और व्यवहारनय समानरूपसे पूज्य होते तो उनके चित्त में 'व्यवहारनय चपल नहीं है। इस प्रकारका वचन लिखकर उसके समर्थन करनेका विकल्प ही नहीं उठना चाहिए था। हमने यथासम्भव उपलब्ध पूरे जिनागमका आलोडन किया है, परन्तु इस प्रकारका विकल्प निश्वयन यके विषय में आचार्मने उठाया हो और फिर उसका समाधान किया हो यह हमारे देखने में अभी तक नहीं आया ओर न हो अपर पक्षने ही कोई ऐसा आगमप्रमाण उपस्थित किया जिससे उक्त बातका समर्थन होता हो। स्पष्ट है कि आमार्य वोरसेनने 'गच ववहारणी चप्पलओ'यह वचन व्यबहारनयसे बभिप्रायविशेषको पानमें रख कर ही लिखा है । वह अभिप्राय विशेष क्या हो सकता है इसका समाधान यह है कि वे इस वचन द्वारा निश्चयमूलक व्यवहारका समर्थन कर रहे हैं। ऐसा व्यवहार जो अन्तरंग में निश्चयको लिये हुए हो साधकके सविकल्प अवस्था में होता ही है। प्राचार्य उक्त बचन द्वारा ऐसे व्यवहारको बहजीवानग्रहकारी लिखकर उसका समर्थन कर रहे हैं, कोरे व्यवहारका नहीं। इसका आवाय यह है कि सबिकल्प अवस्था में साधकके देव-गुरु-शास्त्रको भक्ति-वन्दनारूप, पाँच अणुव्रत-महाव्रतरूप व्यवहार अवश्य होता है। किन्तु अन्तरंगमें वह निश्चयस्वरूप परिणतिको ही उस अवस्थामें उपादेय मानता रहता है । गुणस्थान परिपाटोसे आगे बढ़नेका यदि कोई मार्ग है तो एकमात्र यही मार्ग है, इसो तथ्यको ध्यानमें रखकर आचार्य अमृतचन्द्रने समयसारकलशमें लिखा भी है
भेदविज्ञानतः सिडाः सिद्धा ये किल कंचन । अस्पैमावतो बद्धा बदा ये किल केचन ॥१३॥