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________________ ७६२ जयपुर (खानिया) तस्वचर्चा इस प्रकार अन्य-चचित विषयों के साथ परमागममें निश्वयनय और व्यवहारमयका किस रूपमें विवेचन हुआ है इसका संक्षेपमें स्पष्टीकरण किया । ५. समयसार गाथा १४३ का यथार्थ तात्पर्य समयसार गाथा १४३ में 'जो प्रमाण, नय और निक्षेपके समस्त विकल्पोंसे मुक्त होकर परमात्मा, ज्ञानात्मा, प्रत्यज्योति, आत्मण्यातिरूप अनुभतिमात्र समयमार हो जाता है वह दोनों नयोंके कथनको आनता तो है परन्तु किसी नयपक्षको ग्रहण नहीं करता अर्थात् समस्त नय विकल्पोंसे मुक्त हो जाता है।' यह कहा गया है, किन्तु अपर पक्ष इस गाथाका इस रूपमें अर्थ करता है जिससे यह मालूम पड़े कि इस गाथा द्वारा प्राचार्यने दोनों मयोंके कथनको एक समान मानने की प्रेरणा की है। इसे हम उस पक्षका अतिसाहस हो कहेंगे । समयसारकी वह गाथा इस प्रकार है दावि . पिये जाणइ णवरं तु समयपडिबद्धो । ण दुणयपक्वं गिम्हदि किंचि वि णयपक्खपरिहीणो ॥१३॥ समयप्रतिबद्ध अर्थात चित्स्वरूप मात्माको अनुभवनेवाला जीव धोनों नयोंके कथन को मात्र जानता ही है। परन्तु वह नयपक्षसे अर्थात नयों के विकल्पसे रहित होता है, इसलिए नयपक्षको नहीं ग्रहण करता ।।१४३॥ उक्त गाथाका यह सहो अर्थ है। किन्तु अपर पक्षने अपने अभिप्रायकी पुष्टि के लिये इसका यह अर्थ किया है जो पुरुष आत्मासे प्रतिबद्ध है अर्थात् आत्माको जानता है वह दोनों हो नयोंके कथनको केवल जानता है परन्तु नयपक्षको फुछ भी ग्रहण नहीं करता, क्योंकि वह नयों के पक्षसे रहित है अर्थात् किसी एक नयका पक्ष (बाग्रह) नहीं करना चाहिए। इस प्रकार ये वो अर्थ है । अब इनमें से कौन ठीक है इसका निर्णय करना है। श्री पद्मनन्दि आचार्य पचनन्दिपंचविंशतिका निश्चयपंचाशत् में लिखते है बद्धो पा सको वा चिरपी नयविचारविधिरेषः । सवनयपक्षरहितो भवति हि साक्षात्समयसार ॥५३॥ चतन्य आत्मा बद्ध है अथवा मुक्त है यह नयविचारका विधान है। किन्तु जो साक्षात् समय सार है वह सब भयपक्षासे रहित है ॥५३॥ यहाँ पर 'नयपक्ष' शब्दका अर्थ विकल्पमात्रसे है इसका स्पष्टीकरण अगले इलोकसे हो जाता है नव-निक्षेप-प्रमितिप्रभृतिविकल्पोजिमतं परं शाम्सम् । शुन्दानुभूसिगोचरमहमेकं धाम चिद पम् ।।५।। जो नय, निक्षेप और प्रमाण आदि विकल्पोंसे रहित है, उत्कृष्ट है, शान्त है, एक है और शुब अनुभतिरूप है वही चैतन्यधाम आत्मा में है॥५४।। इससे स्पष्ट है कि अपर पक्षने उक्न गायाका जो आशय लिया है वह ठीक नहीं है। यदि वह उक्त गाथाओंको दोनों संस्कृत टोकाओं पर दृष्टिपात कर लेता तो वह उस परसे ऐसा विपरीत आशय कभी भी ग्रहण नहीं करता ऐसा हमारा विश्वास है।
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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