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शंका ६ और उसका समाधान
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भी तो यही कहते है कि गेहूँसे जो गेहूँ की अंकुरादिरूपसे पर्याय बनती है वह बाह्य निमिलोंका सहयोग मिलने पर ही बनती है। अर्थात् यदि बाह्य निमित्तोंके सहयोग के अभाव में ही गेहूँसे उक्त अंकुरादिरूप पर्यायी उत्पत्ति स्वीकार की जाती है तो फिर कोठी में रखे हुए गेहूँमे भी निमित्तको सहायता के बिना उक्त अंकुरादिरूप पर्यायकी उत्पत्ति होने लगेगी। तात्पर्य यह है कि कोठी में खखे हुए गेहूँ में हमारे समान आपने भी गेहूँ को अंकुरोत्पत्तिकी योग्यता ( उपादान शक्ति ) को उक्त लेखद्वारा स्वीकार कर लिया है, क्योंकि उक्त लेखमे आपने मही तो लिखा है कि गेहूँ पर्याय विशिष्ट पुद्गल द्रव्य बाह्य कारण सापेक्ष गेहूँ के अंकुर आदि कार्यरूप परिणत होता है । अब यदि कोठी में रक्खे हुए उस गेहूँसे गेहूँ का अंकुर उत्पन्न नहीं हो रहा है तो इसका कारण सिर्फ बाह्य-निमित्तांके सहयोगका प्रभाव ही हो सकता है, अन्य कोई नहीं। इस प्रकार कार्यके प्रति जब निमित्त कारणकी आप हो सार्थकता सिद्ध कर देते हैं तो वह जैसे अकिचित्कर नहीं रह जाता है वैसे ही वह कल्पनारोपित भी नहीं रहता है। हमारा प्रयास मापसे इतनी हो बात स्वीकृत करानेका है ।
वैसे आपके इस मन्तव्य से हम सहमत नहीं हो सकते हैं कि 'पुद्गलरूप द्रव्यशक्ति ही गेहूँरूप पर्याय विशिष्ट होकर गेहूँरूप पर्यायको उत्पन्न करती है - ऐसा कार्यकारणभाव यहाँपर स्वीकार किया गया है किन्तु गेहूँ नामका पुद्गल द्रव्य अनुकूल निमित्तके सहयोग से मेरूप अंकुरोत्पत्तिके योग्य विशिष्ट को प्राप्त होनेपर अनुकूल निमित्त सहयोग से ही रूप अंकुरोत्पति अपने में कर लेता है ऐसा ही कार्यकारणभाव यहाँ पर ग्रहण करना उचित है। अतः इस रूपसे भी चनेसे गेहूं की उत्पत्तिके प्रसक्त होनको आपत्ति उपस्थित नहीं होती है ।
यह जो आपने कहा है कि 'गेहूँ स्वयं द्रव्य नहीं है, किन्तु पृद्गल द्रव्यकी एक पर्याय है' सो इसके विषय में भी हमारा कहना यह है कि गेहूँ एक पुल द्रव्यको पर्याय नहीं है, किन्तु अनेक पुद्गल द्रव्य मिश्रित होकर एक गेरूप स्कन्ध पर्यायरूपताको प्राप्त हुए हैं, इसलिए जिस तरह आत्मा कर्म- नोकर्मरूप पुद्गलोंके साथ मिश्रित होकर दोनोंका एक पिण्ट बना हुआ है उसी प्रकार नाना अणुरूप पुद्गल द्रव्योंका भौ परस्पर मिश्रण होकर एक गेहूँरूप पिण्ड वन गया है । आगम में यद्यपि गुद्गल स्कन्धोंको पुद्गल द्रव्यको पर्याय भी कहा गया है परन्तु इसका आशय इतना ही है कि नाना अणुरूप द्रव्योंने मिलकर अपनी एक स्कन्ध पर्यायरूप स्थिति बना ली हैं। यदि आप गेहूँ आदि स्कन्धोंको गुद्गल द्रव्यकी पर्याय स्वीकार करते हैं तो यह हमारे लिए तो अनिष्ट नहीं है । परन्तु ऐसा माननेपर आपके सामने बन्धरूप संयोगको वास्तविक स्थिति स्वीकार करनेका प्रसंग उपस्थित हो जायगा, लेकिन श्री पं० फूलचन्दजी जॅनने अपनी जैनतस्वमीमांसा पुस्तक में संयोगको अवास्तविक ही स्वीकार किया है वह कथन निम्न प्रकार है
'जीवकt संसार और मुक्त अवस्था है और वह वास्तविक है— इसमें सन्देह नहीं । पर इस आधारसे कर्म और आत्माकं संश्लेष सम्बन्धको वास्तविक मानना उचित नहीं है। जीवका संसार उसकी पर्यायही है और मुक्ति भी उसीकी पर्याय में हैं। ये वास्तविक हैं और कर्म तथा आत्माका संश्लेष सम्बन्ध उपचारित है । स्वयं संश्लेष सम्बन्ध यह शब्द ही जीव और कर्मके पृथक-पृथक होने का ख्यापन करता है।' - जैनतत्त्वमीमांसा विषयप्रवेश प्रकरण पृष्ठ १८
यहाँपर उन्होंने ( पं० फूलचन्दजीने ) संश्लेष सम्बन्धको उपचरित माना है और उपचरित शब्दका अर्थ आप सब कल्पनारोपित ही करते हैं ।
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