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शंका १६ और उसका समाधान स्पष्ट हो जाता है कि तीर्थप्रवृत्तिके निमिसका ज्ञान कराने के लिए व्यवहार दिखलाना अन्य बात है और उसे परमार्थरूप मान लेना अन्य बात है। व्यबहारनय व्यबहाररूप निमित्तका ज्ञान कराता है इसमें सन्देह नहीं और इसी लिए अध्यात्म भागमम उसका प्रतिपादन भी किया गया है । पर इस परसे यदि कोई अपर गलके मतानुसार व्यवहारनयको अन्यके धर्मको अन्य का कहनेवाला न मान कर उसके विषयको परमार्थरूप ही मान ले तो इस जीव का शरीर और रागादिभात्रोंसे मुक्त होना त्रिकालमें नहीं बन सकेगा और ये जीयके स्वरूप सिद्ध हो जानेपर बन्धव्यवस्था भी नहीं बन सकेगी। क्या अपर पक्षने इस तथ्यपर ध्यान दिया ? वह एकान्तका परिहार करने के लिए 'तमन्तरेण' इत्यादि टीका बचनको तो उदघृत करता है पर उसकी मान्यताके अनुसार जो एकान्तको प्रसक्ति होती है उसको ओर अणुमात्र भी ध्यान नहीं देता । अतः उक्त वचनके आधारपर अगर पनको प्रकृतमें ऐसे ही अनेकान्सको स्वीकार कर लेना चाहिए कि निश्चय भूतार्थरूप है, अभूतार्थरूप नहीं। अभूतार्थरूप तो मात्र व्यवहार है जिसे व्यवहार नयसे तीर्थप्रवृत्तिका निमित्त जानकर जिनदेवने निर्दिष्ट किया है। हां यदि अभूतार्य व्यवहारको तीर्थप्रवृत्तिका प्रहार हेतु भी नहीं स्वीकार किया जाय तो क्या आपत्ति आती है इसे आचार्य अमृतचन्द्रने 'समन्तरेण' इत्यादि वचन द्वारा स्पष्ट किया है। अतः निश्चय और अयवहार दोनों हो परमार्थहम है ऐसा एकान्त आग्रह करना उचित नहीं है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। ब्यवहारनय अन्यके धर्मको अम्पका कहता है इसके लिए समयसार गाया ५६ को आत्मध्याति टोका तथा आचार्य जनसेनकृत टीकापर दृष्टिपात कीजिए।
८. जीव परतन्त्र क्यों है इसका सांगोपांग विचार इसी प्रसंगमें अपर पक्षने जीवको परतन्त्र कौन बनाये हुए है इसकी सिद्धि करते हुए आचार्य विद्यानन्दिका 'जीवं परतन्त्रीकुर्वन्ति' इत्यादि बचन उद्धृत किया है। आचार्य विद्यानन्ति दर्शनप्रभावक महान् आचार्य हो गये हैं इसमें अणुमात्र भी सन्देह नहीं । उनका नामस्मरण होते ही उनके प्रति श्रद्धासे मस्तक नत हो जाता है।
अपर पक्षने अपनी पिछली प्रतिकामें यह वाक्य लिखा है-'इस जीवको कर्म परबश बनाये हुए है। उसीके कारण यह परतन्त्र हो रहा है।' हमने इस वाक्यको एकान्त आग्रहका पोषक समझकर यथार्थ क्या है इसका पिछले उत्तरमें निर्देश किया था। किन्तु अपर पक्षने इस वचनको आचार्य विद्यानन्दिका बतलाकर पर्यायान्तरसे यह सूचित किया है कि हमारे द्वारा आचार्य विद्यानन्दिके वचनपर ही आपत्ति उठाई गई है। अपर पक्षने अपनी प्रस्तुत प्रतिशंकामें आचार्य विद्यामन्दिके मूल वाक्यको पुनः उपस्थित किये जाने का संकेत तो किया है पर पिछली प्रतिशंकामें यह वाक्य दृष्टिगोचर नहीं होता। इसी प्रकार हमारे जिन वचनोंपर यह प्रतिशंका उपस्थित की गई है उनके विषय में यह तो लिखा है कि 'आपके द्वितीय बस्तब्य में निम्न वाक्यों को पढ़कर बहुत आश्चर्य हुवा।' और साथ ही यह भी लिखा है कि 'आपके निम्न वाक्पों पर आर्ष प्रमाण सहित विचार किया जाता है। परन्तु जिन वाक्योंपर विचार करने की अपर पक्ष यहाँ पर प्रतिज्ञा कर रहा है वे वाक्य यहां उद्धृत नहीं किये गये हैं। अस्तु,
आचार्य विद्यानन्दिके उक्त बचनको अपने पक्षमें समझकर अपर पक्षने उस आधारसे एक मत तो पह बनाया है
'प्रगढ़ है, जीवका क्रोधादि परिणाम स्वयं परतन्त्रता है, परतन्त्रताका कारण नहीं ।'