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जयपुर (स्वानिया ) तस्वचर्चा
इन दोनों प्रकार के संयमवरणोंसे पक्षमादि गुणस्थानोंमें प्रतिसमय गुणश्रेणी निर्जरा होती है जिसे करणानुयोग के विशेषज्ञ भली-भाँति जानते हैं । कर्मनिर्जरा तथा आत्माको पवित्रता के कारण है, इसीलिये व्रतोंको पुण्यभाव कहा जाता है। इस सम्बन्धमं विशेष कथन प्रश्न नं० ४ में किया जा चुका है, पुनरुक्ति दोषसे यहाँ नहीं किया गया है ।
इस प्रकार पाप छोड़ा जाता है और पुण्य अपनी चरम सीमाको पहुँचकर स्वयं अथवा आमाके शुरु स्वभावरूप परिणमन होनेपर स्वतः छूट जाता है ।
मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी । मंगलं कुन्दकुन्दायों जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ॥
शंका १४
पुण्य अपनी चरम सोमाको पहुँचकर अथवा आत्मा के शुद्ध स्वभावरूप परिणत होने पर स्वतः छूट जाता है या उसे छुड़ाने के लिए किसी उपदेश या प्रयत्नकी जरूरत है ?
प्रतिशंका ३ का समाधान
हमारी ओरसे इस प्रश्नका प्रथम बार जो उत्तर दिया गया था उसमेंसे यह अंश तो प्रतिशंका २ में स्वीकार कर लिया गया है कि 'आत्माके शुद्ध स्वभावरूप परिणत होने पर पूण्य स्वयं छूट जाता है ।' किन्तु पाप स्वयं छूट जाता है' यह कथन दूसरे पक्षको मान्य नहीं है । पर पक्षने अपने इस अभिप्रायका समर्थन प्रतिशंका २ में तो किया ही है, प्रतिशंका ३ भी इसी अभिप्रायके समर्थन में लिखी गई है। साथ ही इसमें कुछ ऐसी बातें और लिखी गई हैं जिनका उद्देश्य समाजको भ्रममें डालना प्रतीत होता है । अस्तु,
हम दूसरे पक्ष की ऐसी बातोंका उत्तर तो नहीं देंगे, किन्तु इतना अवश्य ही स्पष्टोकरण कर देना चाहते हैं कि प्रमाण प्ररूपणाके समान नयप्ररूपणा भी जिनागमका अंग है । अतएव जिनागममें जहाँ जिस नयखे प्ररूपणा हुई है वहाँ उसे उस नयसे समझना वा अन्यके लिए प्रतिपादन करना क्या यह वास्तव में जिनागमको अवहेलना है या उससे विपरीत अर्थ फलितकर अपने विपरीत अभिप्रायको पुष्टि करना यह वास्तव में जिनागमकी अवहेलना है, इसका दूसरा पक्ष स्वयं विचार करें ।
पापमाद, पुण्य भाव और शुद्ध भाव ये तोनों आत्माकी परिणतिविशेष हैं। इनमें से आत्मा जब जिस भावरूपसे परिणत होता है तब तन्मय होता है। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए प्रवचनसार में कहा है
जीवो परिणमदि जदा सुहेण असुहेण वा सुहो असुहो । सुद्रेण सदा सुद्धो हवदि हि परिणामसमाची ||९||
जो परिणाम
होता है और जब शुद्धभावरूपसे परिणमता है तब शुद्ध होता है ||६||
होनेसे जब शुभ या अशुभ भावरूप परिणमता है तब शुभ या अशुभ (स्वयं)
यह वस्तुस्थिति है | इसे दृष्टिपथ में रखकर हमें मूल प्रश्न पर विचार करते हुए सर्व प्रथम यह देखना है कि चरम सीमाको प्राप्त हुए पुण्यका क्षय और बात्माके शुद्ध स्वभावको प्राप्ति ये दोनों क्या हैं, इन