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________________ ५५८ जयपुर (खानिया) तत्त्ववर्धा अमृतचन्द्रमूरि मामन्म मुनिचारित्रका आचरण करते रहे-यह वार्ता इस बातका प्रमाण है कि व्यवहारपारित्रको आत्मशुद्धिके लिये अनिवार्य आवश्यक समझते थे। मुलिचारिबके बिना धर्मध्यान तथा शुषलध्यान नहीं होते । सिद्धान्तको यह बात भी व्यवहारचारित्रको अनिवार्य आवश्यकताको प्रमाणित करती है। विकारका कारण द्रव्यमै निष्कारण विभाव (विकार ) नहीं होता है। विकार परनिमित्त हुआ करता है, जैसे कि जलके शीतल स्वभावमें उरणतारूप विकार अग्निके निमित्त होता है इसी बातको श्री विद्यानन्दस्वामी ने अष्टसहस्रो ग्रन्थमें पत्र ५१ पर लिखा है दोषावरणयोहोमिनिश्शेषास्त्यतिशायनात् । कविद्यथा स्वहेतुम्यो बहिरन्तमलमयः ॥४॥ इस कारिकाको व्याख्या करते हए दोषो हि तावदशानं ज्ञानावरणस्योदये जीवस्य स्याददर्शनं दर्शनावरणस्य, मिथ्यास्त्रं दर्शनमोहस्य, विविधमचारित्रमनेकप्रकारचारित्रमोहस्य,.......... इत्यादि लिखा है, जिसका अर्थ यह है कि जीवके अज्ञानदोष ज्ञानावरणकर्म के सदय होने पर होता है, दर्शनावरणकर्मके तदरसे प्रदर्शन, दर्शनमोहनीय कमके उदयसे मिथ्यात्व, चारित्रमोहनीय कर्मके उदयसे अनेक प्रकारका क्रोध, मान, राग-द्वेष आदि अचारित्र भाव होते है। इसके अनुसार आत्माके विकारी भाव ज्ञानावरणादि द्रध्यकों के निमित्तमे ही होते हैं । इसी बातको पुष्टि श्री विद्यानन्दस्वामीने आप्तपरीक्षामें भी को है। न चायं भावयन्धो व्यबन्धमन्तरेण भवति, मुक्तस्यापि तत्सङ्गात् । -पृष्ठ ५ अर्थ--यह भावबन्ध ( रागद्वेष अज्ञान आदि ) व्यबंध ( ज्ञानावरण आदि कर्मके ) बिना नहीं होता है; क्योंकि यदि दिना व्यबंधके भावबन्ध हो तो मुक्त जीवोंके भी राग द्वेष आदि भावबन्धके होनेका प्रसंग आजायगा। ___ श्री विद्यानन्दस्वामीने भावबन्ध और द्रव्यबंधके विषय में स्पष्टीकरण करते हुए आप्तपरीक्षाकी 'भावकर्माणि' आदि ११४ वीं कारिकाको व्याख्या में लिखा है तानि च पुद्गलपरिणामारमकानि जीवस्य पारतनयनिमिरास्वात्, निगमादिवत् । क्रोधादिभिः भिचार इति चेत् न, तेषां जीवपरिणामामो पास्तव्यस्वरूपत्वात् । पारतनयं हि जीवस्य क्रोधादिपरिणामोन पुनः पारसन्न्यनिमितम् । अर्थ-वे पौद्गलिक द्रव्यकर्म (जानावरणादि ) आत्माकी परतन्त्रताके निमित्त कारण है जैसे कि मनुष्यके पैरोंमें पड़ी बेड़ो मनुष्यकी परन्त्रताका कारण है। ___शंका-क्रोधादि आत्माके भाव ( भावकर्म ) भी आत्माके बंधके कारण है, इसलिये उनके साथ व्यभिचार आता है ? समाधान-ऐसी बात नहीं है, क्योंकि आत्माके क्रोधादि भाव स्वयं परतन्त्रतास्वरूप है, इसलिये मात्माके के भाव स्वयं परतन्त्ररूप है, आत्माको परतंत्रताके निमित नहीं हैं ।। -पृष्ठ १४६
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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