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शंका ११ और उसका समाधान अइसयमादसमुख्य विसयातीदं अपोयममणंतं ।
अन्युच्छिप च सुहं सुधुचओगप्पसिद्धार्ण |॥१३॥ शुद्धोपयोगसे निष्पन्न हुए आत्माओंका सुख अतिशय, आत्मोत्पन्न, विषयातीत, अनुपम, अनन्त और अविच्छिन्न है ॥१३॥
इसकी टोकामें आचार्य अमृत चन्द्र लिखने है
आसंसारापूर्वपरमाद्भुताहादरूपवादात्मानमेवाश्रिय प्रवृत्तत्वात्पराश्रयनिरपेक्षस्वादन्यन्तविलक्षणत्वासमस्तायतिनिरपामित्वान्नरन्तयनवतमानत्वाच्चातिशयवदात्मसमुत्थं विषयातीसमनीपम्यमनंतमन्युच्छिन्न शुद्धोपयोगनिःपन्नानां सुखमतस्तस्सर्षथा प्रार्थनीयम् ॥१३॥
(१) अनादि संसारसे जो पहले कभी अनुभव नहीं आया ऐसे अपूर्व परम अद्भुत आहादप होने से अतिशय, (२) आत्माका ही आश्रय लेकर प्रवर्तमान होनेसे आत्मोपन्न, (३) पराधयसे निरपेक्ष होनसे विषयातीत, पन्त हिमाण हो.मेरा बाप () सपरत मी काल में कभी भी नाशको प्राप्त न होनेसे अनन्त और (६) बिना ही अन्तरके प्रवर्तमान होनेसे अविच्छिन्न सुख शुद्धोपयोगसे निष्पन्न हुए आरमाओंके होता है, इसलिए वह सर्वथा प्रार्थनीय है ।।१३।।
यहीं माथामें उक्त सुखको 'आदपमुत्थ' कहा है जिसका तात्पर्य आत्मासे उत्पन्न अर्थात प्रत्याय' ही होता है, 'स्व-पर-प्रत्यय' नहीं। इस पदको व्याख्या करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र लिखते है -'आत्मानमेवाश्रित्य प्रवृत्तवान ।' इसका अर्थ है 'आत्माका ही प्राश्रय लेकर प्रवर्तमान होनेसे ।' इससे स्पष्ट विदित होता है कि प्रत्येक व्यकी जो स्वभाव पर्याय होती है, आगममें उसे स्वप्रत्यय ही कहा है। वह स्वप्रत्यय ही क्यों है इसका खुलासा मचायं अमृतचन्द्र के 'पराश्रय निरपेक्षत्वात्' इस वचनसे हो जाता है। इस प्रकार निश्चित होता है कि जिस पर्यायकी उत्पत्ति में पराश्रय निरपेक्षता हो और स्वयं अपने आश्रयसे उत्पन्न हुई हो वह स्वप्रत्यय होनेसे स्वभाव पर्याय है। स्वभाव पर्यायका आगममें इससे भिन्न कोई दूसरा लक्षण वा दूसरा नाम दष्टिगोचर नहीं होता । उदाहरण के लिए पद्मनन्दि पंचविशतिकाके धर्मोपदेश प्रकरणके इश दलोक पर दष्टिपात कोजिए
सतताम्यस्तभोगानामग्यससुखमाग्मजम् ।
अप्यपूर्व सदित्यास्था चित्तं यस्य स तत्ववित् ।।१५०॥ इम पर दृष्टिगत करनेसे विदित होता है कि इसमें जिम अपूर्व सुखका निदंश है उसे आत्मजआत्मोत्य ही बतलाया गया है।
कविवर राजमल्लजो इसो तथ्यको पुष्टि करते हए अध्यात्मकमलमार्तण्डमैं लिखते है कि जो फ्यायें द्रब्यान्तरनिरपेक्ष हाती है वे स्वभा गुण पर्यायें है। वह वचन इस प्रकार है
धर्मद्वारण हि ये भावा धर्माशात्मका हिव्यस्य ।
ध्यान्तरनिरपेक्षास्ते पर्यायाः स्वभावगुणतनवः ॥१४॥ आत्मोत्थ और स्व प्रत्यय पदका अर्थ एक ही है वह हम पूर्वमें ही लिख आये हैं। इस तथ्यको और भी विशदएपमें समझने के लिए पंचास्तिकास गाथा २६ को आवार्य अमृतचन्द्रकृत टीकाके इस वचन पर भी दृष्टिपात कीजिए