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________________ ५८६ जयपुर (खानिया ) तत्वचर्चा एक बात और है और वह यह कि आध्यात्मिक दृष्टि से व्यवहारनयके इस लक्षणमें "भित वस्तु पदसे पर द्रव्य और उनके धमाका सहप नहीं हुआ है । वे तो आरमासे सर्वथा भिम है ही, इसलिए उनका प्रश्न ही नहीं है। उनमें तो जिस किसी भी प्रकार स्व व्यवहार होता है उसका तो त्याग करना ही है। साथ एक मात्मामें गुणभेद या पर्यायभेद द्वारा कथनला जितना भी व्यवहार होता है, आलम्बनको दृष्टिसे उसकी भी उपेक्षा करदो है, क्योंकि धम-धर्मीका स्वमावसे अभेद हैं, तो भी संज्ञा, लक्षण आदि रूपस भेव उत्पन्न कर उन द्वारा समझाने के लिए अखण्ड यस्तुका कथन किया जाता है। अत एवं प्रकुतमें 'भिन्न वस्तु' पदसे कहे गये गुणभेद और पर्यायभेदका हो ग्रहण होता है, क्योंकि दृष्टिमें अभेदकी मुख्यता होनेपर गुणभेद और पर्यायभेद भिन्न वस्तु हो जाते है। आलापपद्धतिमें इसी दृष्टिको साधकर उक्त दोनों नयों और उनके भेषांका निरूपण हुआ है, क्योंकि वहाँ 'भिन्न वस्तु' पदसे पर बस्तृका ग्रहण न होकर गुणभेद और स्त्राश्रित पर्यायभेदका ही मुख्यतासे ग्रह्ण हुआ है । ऐसी अवस्थामें आध्यात्मिक दृष्टि से जीव किससे बँधा है ऐसा प्रश्न होनेपर उसका यह उत्तर होगा कि उपचरित असद्भत व्यवहारनयको अपेक्षा जीव अपने रागादि भावोंसे बँधा है, क्योंकि जीव कोंसे बंधा है इसे तो आध्यात्मिक दृष्टि स्वीकार ही नहीं करती। यही कारण है कि हमने प्रकृतमें आगमिक दृष्टिको ध्यानमें रखकर उक्त प्रश्नका समाधान किया है । निश्चयनय और व्यवहारनयके आलापपद्धति में ये लक्षण दिये हैंअभेदानुपचारतया वस्तु निश्चीयत इति निश्चयः 1 भेदोपचारसया वस्तु व्यचड्डियत इति व्यवहारः। अभेद और अनुपचाररूपसे वस्तु निश्चित की जाती हैं यह निश्चय है तथा भेद और उपचाररूपसे वस्तु व्यवहृत की जाती है यह भाबहार है। दूसरी बात यह है कि अपर पक्षने अधिकतर प्रायः सभी प्रश्न दो द्रश्या निमित्त नैमित्तिक व्यवहारको मुख्यतासे किये हैं, इसलिए हमें आगामक दृष्टिको ध्यानमें रखकर उत्तर देना पड़ा । १६ वे प्रश्नमें अवश्य हो यनय-म्यवहारमयके स्वरूप पर प्रकाश डालने के लिए कहा गया था, इसलिए उस प्रश्नका उत्तर लिखते समय हमने अवश्य ही अध्यारमष्टिको मुख्यता प्रदान की है। किन्तु उसके प्रति अपर पक्षने जैसी उपेक्षा दिखलाई वह उस पप द्वारा आगे उपस्थित कियं गये दोनों प्रपोंसे स्पष्ट है। तीसरी बात यह है कि अध्यात्ममें केवल आध्यात्मिक दृष्टिसे ही व्यवहारका प्रतिपादन नहीं हुआ है । किन्तु आगमिक दृष्टिको ध्यान में रखकर भी व्यवहारका प्रतिपादन हुभा है, क्योंकि परमार्थ दृष्ट्रियालेके लिए दोनों प्रकारका व्यवहार हेय है यह ज्ञान कराना उसका मुख्य प्रयोजन है । इसलिए भी हमने अपने उत्तरामें उक्त पद्धतिको अपनाया है। ऐसी अवस्थामै अपर पक्षके यह लिखनेको कि 'जत्र निश्चयका लक्षण अध्यात्मकी अपेक्षासे ग्रहण किया जा रहा है तब व्यवहारनयका लक्षण भी अध्यात्मनयवाला लेना चाहिए। कोई सार्थकता नहीं रह जाती। . ४. कर्मबन्धसे छूटनेका उपाय (ई) यदि वह बद्ध है तो छूटनेका उपाय क्या है ? यह मूल प्रश्नका चौथा खण्ड है। इसका उत्तर हमने निश्चय-क्यवहाररूप दोनों नयोंसे दिया था। प्रथम सत्तर हमने लिखा है
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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