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शंका ११ और उसका समाधान
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का होता है कि ऐसा स्वीकार करनेपर भी अपर पक्ष 'बाह्येतरोपाधि' की समता सिद्धान्तको भो for नहीं मानता। हमारे स्वालसे अपर पनके द्वारा प्रस्थापित यह नया मत ही इस सभ्यकी घोषणा करता है कि दास्यं स्वतन्त्ररूपसे अपने कार्यको करता है तथापि विवक्षित परद्रव्यकी पर्याय उसकी प्रसिद्धिका हेतु है, इसलिए उपचार से उसकी भी कारक साकल्य में परिगणना की गई हैं।
आचार्य ने जो 'न जातु रागादिनिमितभावं' इत्यादि कलश लिखा है उसमें 'संग' पद ध्यान देने योग्य है। यह शब्द ही इसका खण्डन करता है कि अन्य में सद्भिनकी कार्यकरण शक्ति वस्तुतः होती है। आचार्यश्यं दस द्वारा यह बतला रहे है कि इरा जीवने अनादिस परके द्वारा हिताहिल होगा' ऐसा मानकर जो अपने विकल द्वारा परका संग किया है वही विकल्प इसक संसारी बने रहनेका मुख्य कारण है । वे कहते हैं कि 'स्व' का संग तो अनपायी हैं, वह अपराध नहीं है। अपराध यदि है तो परका संग करना ही है। परमें निमित्त व्यवहार होने का यही कारण है । आप्तपरीक्षा पृ० ४४-४५ में आचार्य विद्यानन्दीने बाह्य और आभ्यन्तर उपाविरूप सामग्री के साथ या एकदेशरूप सामग्री के साथ जो कार्यका अन्यव्यतिरेक बचलाया है वह ठीक ही बतलाया है, क्योंकि जिस प्रकार आभ्यन्तर उपाधि के साथ कार्यको आभ्यन्तर व्याप्ति उपलब्ध होती है उसी प्रकार बाह्य उपाधिके साथ भो कार्यको वाह्म aur जिनागम में स्वीकार की गई है। बाह्य उपाधिके साथ कार्यकी बाह्य व्याप्तिका उपल होना ही तो इस तथ्य गमक है कि इस कार्यका कोई यथार्थ उपादान अवश्य है जिसने स्वयं स्वतन्त्र रूपसे कर्ता, करण और आश्रय आदि बनकर परिणामस्वभावी होनेसे इस कार्यको उत्पन्न किया है। स्पष्ट है कि जिनागम में जो निमित्त उपादानको स्वीकृति है और उनकी कार्यके प्रति जो बाह्य आभ्यन्तर व्याप्ति बतलाई है वह भिन्न-भिन्न प्रयोजन से हो बतलाई है, अतएव उसे सभ्यक् प्रकारसे जानकर उसका उसी रूप में पान होना चाहिए, तभी वह व्याख्यान यथार्थ माना जा सकता है ।
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रहो लोककी बात सो जो चतुर जानकार होता है वह संयोग काल में होनेवाले कार्यों में बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकारको उपाधिका विचार करता है, कल्पनाको तरंगों के आधारसे कार्यकारण परम्पराका विचार करनेवाले पुरुषों की बात निराली है | आगम में दोनों की मर्यादाका निर्देश किया है, अन्वयव्यतिरेक के farm इसका परिज्ञान होता है। किन्तु जो बाह्य सामग्रीको विकलताको देखकर यह अनुमान करता हूँ कि केवल बाह्य सामग्री अभाव में यह कार्य नहीं हो रहा है और उस समय उपादान शक्ति की जो विकलता हूँ उसे नहीं अनुभवता उसका जैसा अनुमान करना ठीक नहीं है। इसलिए त्रकृत में यही निर्णय करना चाहिए कि जिस समय प्रत्येक द्रव्य निश्चय उपादान होकर अपने कार्य के सम्मुख होता है उस समय निमित्त व्यवहार के योग्य बाह्य सामग्रीका सद्भाव नियमसे होता है । यहीं जिनागम है और यही मानना परमार्थ सत्य है ।