________________
शंका २ और उसका समाधान
५५५ बो-धो प्रकारके हैं। उन दोनों दिव्य तथा भावरूप अतिक्रमण और अप्रत्यारूपान) के त्याग देनेरूप इस उपदेश द्वारा आरमा अकारक बतलाया गया है। जब तक मारमा प्रध्य भावरूपसे अप्रतिम और अप्राममान करता है तब तक वह रागद्वेष आदिका कर्ता है, ऐसा समझना चाहिये । इसकी टोकामें श्री अमृतवन्द्रसूरिने लिखा है वह भी देखने योग्य है
तत: परद्रव्यमेवात्मनो रागादिभावनिमिशमस्तु, तथा सति तु रागादीनामकारक एवात्मा। तथापि थावधिमित्तभूतं हव्यं न प्रतिकामति ने प्रत्याचष्टे च ........... यावत्त भाषन प्रतिक्रामति न प्रत्याच तादत्तरकसैंव स्यात् । यदैवं निमित्तभूतं दध्यं प्रतिक्रामसि प्रत्याचप्ठे व सदैव नैमित्तिकभूतं भानं प्रतिकामति प्रत्याचष्टे च यदा........ साक्षादक व स्यात् ।।
___ अर्थ-इसलिये परद्रा ( अन्य जर चेतन पदार्थ ) ही आत्मामें राग द्वेषादि भाव उत्पन्न करनेके कारण हैं। यदि ऐसा न हो तो यात्मा रागादिभावोंका अकर्ता ही हो जावं । फिर भी जब तक बात्मा रागदेषादिके निमित्त मत पर पदार्थाका प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान नहीं करता है तब तक यह नमित्तिक भूत राग द्वेष आदि भावोंका प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान नहीं कर सकता 1 जब तक वह अपने उन नमित्तक भावोंका प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान नहीं करता है तब तक उन रागद्वेषादि भावोंका कर्ता ही है । जब आत्मा निमित्तभूत परपदार्थों का प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान करता है तब ही नैमित्तिकभूत (पर पदार्थोके निमित्तसे होने वाले ) राग तुषादि भावोंका प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान करता है। जब भाव प्रतिक्रमण मात्र प्रत्याख्यान करता है तब ही वह आत्मा रागद्वेषादिका अकर्ता हो जाता है।
आचार्य कुन्दकुन्द तथा श्री अमृतचन्द्रसूरिके इस कथनसे दो बातें सिद्ध होती है :
(१) राग द्वेष आदि विकृत परिणामों से मुक्ति पाने के लिये प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान आदि व्यवहारधर्म अति आवश्यक है।
(२) भाबशुद्धिके लिये पहले पर पदार्थोंका त्याग करना परम आवश्यक है।
आपने जो अपने अभिप्राय की पुष्टि के लिये छालाकी सोधी हालका पद्यांश (कोटि जन्म तप तप ज्ञान बिन कम मर जे। ज्ञानीके छिन माहि ब्रिगुप्ति ते सहज र ते) उपस्थित किया है, वह आपके अभिप्राय के विरुद्ध जाता है, क्योंकि उससे यह सिद्ध नहीं होता कि 'सिर्फ ज्ञान द्वारा ही कर्मनिर्जरा होकर आत्मशुद्धि होती है। आप पद्य के अन्तिम अंश पर प्रान दें। वहाँ कर्मनिर्जराके लिये ज्ञानके साथ गुप्तिाप व्यवहार चारित्रको भी अनिवार्य आवश्यक रखा है। अत: यदि उस पद्य का अभिप्राय केवल ज्ञानद्वारा ही कमनिर्जरा माना जायगा तो ग्रन्थकार श्री पं० दौलतरामजीका इस पद्य संबंधी अभिप्रायका धात होगा। उन्होंने तो व्यवहार धर्मको भी महत्व देते हये इसी चौथो हाल में श्रावकके १२ व्रतोंका तथा छठी हाल में मुनिचर्याक २८ मूलगुणोंरूप व्यवहारधर्म वा व्यवहारचारित्रका पठनीय एवं मननीय सुन्दर विवेचन किया है। अतः यह पद्य आपके अभिप्रायके विरुद्ध है।
शान सफल कब होता है श्री कुन्दकुन्दाचार्यने समयसारमें भेदविज्ञानको सफलता पर प्रकाश डालते हुये लिखा है
णादूण आसवाणं असुचि विवरीयभाषं च। दुक्खस्स कारणं ति य तदो णियत्ति कुणदि जीवो ॥७२॥