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जयपुर ( खानिया) तत्त्वपर्धा श्री अमृतचन्द्रसूरि तत्त्वार्थसार ग्रन्थमें लिखते है
धातिक्रमक्षयोत्पनं केषवं सर्वभावगम् ॥१-३०॥ अर्द-धातिकोका क्षय हो जाने पर समस्त पदाथोंको जाननेवाला केवलज्ञान उत्पन्न होता है। श्री वीरसेनाचार्य धवल सिद्धान्त अन्य लिखते हैसिरोहितस्य रस्नाभोगस्य स्वावरणविगमत भावि षोपलम्भात् ।
-पुस्तक १ पृष्ठ ५२ ई-तिरोहित अर्थात कर्म पटलोंके कारण पर्यायरूपसे अप्रकट रन (सभ्यरज्ञान आदि) समूहका अपने आवरण कमके अभाव हो जानके कारण आविर्भाव पाया जाता है अर्थात जैसे जैसे कर्म पटलोंका अभाव होता जनानो चमेतीत रलह प्रकट हेता जाता है।
इन आर्षग्रन्थों के वाइयोंसे यह बात प्रमाणित होती है कि द्रव्यकर्मोका क्षय हो जानेपर ही आत्माके केबलशानादि गुण प्रकट होते हैं।
इसलिये आपकी यह बात सिद्धान्त अनुसार विपरीत क्रम है कि पहले भावकर्म यानी राग द्वेष मोह अज्ञान आदिका नाश होता है तदनंतर मोहनीय आदि ट्रम्पकर्मों का नाश होता है ।
सिद्धान्तविरुद्ध इस विपरीत कार्यकारण मान्यताका सुधार अपेक्षित है ।
आपने जो यह लिखा है कि 'मागममें सर्वत्र यह तो बतलाया है कि यदि संसारी आत्मा अपने बद्ध पर्यायरूप राग द्वेष मोह आदि अज्ञान भावोंका अभाव करने के लिये अन्तरल पुरुषार्थ नहीं करता है और केवल जिसे आगममें उपचारसे क्यवहारधर्म कहा है उसी में प्रयत्नशील रहता है तो उसके द्रव्यकोको निजरान होने के समान है। इसी आयको ध्यानमें रखकर श्रो छहलालाम जो यह कहा है कि
कोटि जन्म तप तपे, ज्ञान विन कर्म झरे ।
ज्ञानी छिन माहि, त्रिगुप्ति ते सहज टरै ते ॥ आत्मशुद्धिको प्रक्रिया में आपकी यह मान्यता मेल नहीं खाती, क्योंकि आगमानुसार व्यवहारधर्मको प्रगति हो निश्चयधर्मकी उपलब्धि कराती है। श्री कुंदकुंद आचार्यने आत्मशुद्धि के लिये द्रव्यप्रतिक्रमण ( भूतकालमें जिन जड़ चेतन पदार्थोके निमित्तसे राग ममता आदि रूप दोष लगा हो उन पदार्थों का त्याग) और द्वन्य प्रत्याख्यान ( भविष्य कालमें होनेवाले राग द्वेष आधिक विषयभत जड़ चेतनरूप पर पदार्थाका त्याग ) पूर्वक भावप्रतिक्रमण और भावप्रत्याख्यानके क्रम पर प्रकाश डालते हुए श्री कुन्दकुन्द आचार्यने समयसारमें लिखा है
अप्पडिकमणं दुविहं अप्परचक्रवाणं तहेव विष्णेयं । एणुषएसेण य अकारी अगिणी या ॥२८३ ।। अपष्टिक्कमणं दुविहं ब्बे भावे तहा अपञ्चपखाणं । एएणुवएसेण 4 अकारो प्रष्णिश्रो चया ॥२८॥ जाव अपटिक्क्रमणं अपरचक्रवाणं च दबभावाणं ।
कुम्वइ आदा तावं कत्ता सो होइ पायथ्यो ॥२४५|| अर्थ-अतिक्रमण (जड़-चेतन पदार्थोसे भूतकालीन राग-प्रेष आदिका न छोड़ना) तथा अप्रत्याश्यान (जड़-चेतन पदायोंके साथ होनेवाले भविष्यकालीन राग-द्वेषादि भावोंका न छोड़ना) द्रव्य और भाषके भेदसे