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शंका १३ और उसका समाधान
६६५ और निश्चय दोनोंको मत छोड़ो, क्योंकि व्यवहारमय के बिना तो तीर्थ-व्यवहारमार्गका नाश हो जायगा और निश्चयतय के बिना तत्त्व (वस्तु) का नाश हो जायेगा ।
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भावार्थका उत्तरार्थ :- जहतिक यथार्थ ज्ञान श्रद्धानकी प्राप्तिरूप सम्यग्दर्शनको प्राप्ति नहीं हुई हो बहाँतक तो जिनसे यथार्थ उपदेश मिलता है ऐसे जिन वचनोंको सुनना, धारण करना तथा जिन वचनों को कहनेवाले श्री जिनगुरुकी भक्ति, जिनबिम्बके दर्शन इत्यादि व्यवहार मार्ग में प्रवृत्त [होना] प्रयोजनवान् है । जिन्हें श्रसन- ज्ञान तो हुआ है, किन्तु साचात् प्राप्ति नहीं हुई उन्हें पूर्वऋति कार्य परद्रव्यका अलम्बन छोड़ने अणुव्रत, महात्रतका ग्रहण समिति, गुप्ति और पंच परमेशीका ध्यान रूप प्रवर्तन तथा उसी प्रकार प्रवर्तन करनेवालोंको संगति एवं विशेष जाननेके लिये शास्त्रोंका अभ्यास करना, इत्यादि व्यवहार मार्ग में स्वयं प्रवर्तन करना और दूसरोंको प्रवर्तन कराना - - ऐसे हारनयका उपदेश अंगीकार करना प्रयोजनवान् है । व्यवहारनयको कथंचित् समस्या कहा गया है, किन्तु यदि कोई उसे सर्वथा असत्यार्थ जानकर छोड़ दे तो वह शुभोपयोगरूप arrant ही छोड़ देगा और उसे शुद्धोपयोगको साक्षात् प्राप्ति तो नहीं हुई है, इसलिये उल्टा अशुभ प्रयोग ही आकर भ्रष्ट होकर, चाहे जैसी स्वेच्छारूप प्रवृत्ति करेगा तो वह नरकादिगति तथा परम्परासे निगोदको प्राप्त होकर संसार में ही भ्रमण करेगा। इसलिए बुद्धन का विषय को साक्षात शुद्ध आत्मा है उसकी प्राप्ति जबतक न हो तबतक व्यवहार भी प्रयोजनवान् है - ऐसा स्वाद्वाद मतमें श्री गुरुमों का उपदेश है ( सोनगढ़ निवासी श्री हिम्मतलालकृत टोका हिन्दी अनुवादसहित] मारोठसे प्रकाशित समयसारके पृष्ठ २५ से २७ तक । ) सम्यग्दर्शन-ज्ञान-वारिकी पूर्णता १३ गुणस्थानतक साम्रक अवस्था है और वहाँतक प्राप्त हो जानेपर साधक ( मार्ग ) का कोई प्रयोजन नहीं रह जाता है।
भावार्थ विशेष ध्यान देनेयोग्य है, क्योंकि इसमें गाथा तथा टोकाका भाव स्पष्ट किया गया है । पण्डितश्वर जयचन्दजोने भो भावार्थमे यहो आशय प्रगट किया है ।
उपरोक्त कथनसे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि मिध्यादृष्टिके द्वारा किया हुआ व्यवहार भो सम्यक्त्वकी प्राप्ति के लिये साधन है। इस विषयको आगम प्रमाणसहित आगे स्पष्ट किया जायगा ।
टीका के अन्त में दो गई प्राचीन गायासे स्पष्ट हो जाता है कि व्यवहार धर्मके बगैर शुद्ध आत्माको प्राप्ति नहीं हो सकी। शुद्ध आत्माको प्राप्त किये बगैर तज्जन्य सुखका अनुभव भी नहीं हो सकता है । जैसे मिठाई का स्वरूप जानने मात्र से मिठाईका स्वाद और सज्जन्य सुन्न नहीं प्राप्त हो सकता है। निश्चयके वगैर साध्य नहीं रहेगा और माध्य बगैर साधन किसका किया जायगा । अतः व्यवहार व विश्वव दोनों आवश्यक है। पुष्यरूप व्यवहार प्राथमिक अवस्था में कार्यकारी है, क्योंकि यह निश्चयरूप साध्यका साधन है । कहा भी है----
व्यवहारनयेन
भिन्नसाध्यसाधन भात्रमवलम्ब्यानादिभेदवासितबुद्धयः सुखेनैवावतरन्ति तीर्थ
प्राथमिकाः ।
गुणस्थान में होती है । अतः उपरोक्त कथनानुसार १२ व्यवहारधर्म प्रयोजनवान् है । सो ठीक है, क्योंकि साध्य के
- पंचास्तिकाय पृ० २४५ - २४६ रायचन्द ग्रन्थमाला गर्थात् जो जीव अनादि कालसे लेकर भेदभाव कर वासितबुद्धि है, वे प्राथमिक व्यवहार अवलम्ब होकर मिन साध्यसाधनभावको अंगीकार कर तोर्थको प्राप्त करते हैं ।
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