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________________ अंका १६ और उसका समाधान ७१९ उपश्वरण आदिको संसारक कहा जाता है, परन्तु न तो व्यवहार अवश्य है और न देवपूजनादि क्रियाएँ संसारयक है किन्तु ये सब क्रियायें कही है। ऐसा भगवान् कुन्दकुन्दने रमणसारमे भावसंग्रह में आचार्य पद्मनन्दिने पद्मनन्दि पंचविशत्रिकामे राष्ट लिखा है। अन्य शास्त्रों मोही हक है। आमा देव भी इन धार्मिक ऐसी अवस्था में शास्त्रों का पूर्वापर अविरोध समन्वय करनेके लिये यह कहना और समझना होगा कि व्यवहार गयको अनत कहनेका बाशय यात्राका यही है किमार्थ है, मोसाक है परन्तु आत्माका निश्चयरूप पूर्ण नहीं है। वह मिश्रित पर्याय है. केवल शुद्ध पर्याय नहीं है शुद्धाशुद्ध है और स्थायी नहीं है। किन्तु धर्म गुणस्थानक हो क्रियात्मक रहता है आगे भावात्मक हो जाता है। इसलिये साधक होनेपर भी बहु पूर्ण शुद्ध नहीं है । स्थायी भी नहीं है, इसलिये उसे अद्भूत कहा गया है । यही अर्थ व्यवहारधर्मका आपकी इन पंक्तियोंसे सिद्ध होता है। 'आत्माको सब अवस्थाको उदयमें रखकर उसका विचार किया जाता है तो ये आत्माको प अवस्थाओं में अनुगामी न होनेसे उन्हें असद्भूत कहा है। परन्तु जबतक वे आत्मायें उपलब्ध होते है तबलक उनके द्वारा आत्मायें यह आत्मा है, यह आत्मा अप्रमादा है ऐसा व्यवहार तो होता ही है। इसलिये त्रिकाली आत्म में पर नहीं है और जयस्वे भिन्न है इन गब प्रयोजनोंको ध्यान रखकर उनका अद्भुत व्यवहार नय अन्तर्भाव किया है। इन पंक्तियों यह बात आपने स्वयं प्रकट कर दी है कि व्यवहार नयको अद्भूत कहने का अर्ध अवस्थ नहीं है, किन्तु शुजा पर्याय है अवस्थाओंमें नहीं रहती हूँ अर्थात् निश्चयको प्राप्ति होनेपर वह अवस्था छूट जाती है। इन पंक्तियों आपने जो उसको ज्ञायक स्वरूप आत्मासे भिन्न बताया है यह बात शास्त्रविरुद्ध है। क्योंकि सातवें गुणस्थान एवं सूक्ष्म कीोदय के साथ दसवें गुणस्थानक होनेवाले उपशमभाव या कमान शायक आरमा से भिन्न नहीं हैं, किन्तु वे सब आत्माही के नाम हैं ये परमशुद्ध आधिक नायके अंश रूप है वह स्वायो सब I आगे अपने जो यह बताया है कि कार्यके प्रति आमाकी सहज योग्यता को उसका मुख्य कारण न मानकर कार्यको उत्पत्ति परसे मानता आ रहा है।' आदि सो हम आपसे स्पष्ट करना चाहते हैं कि वह सह गोग्यता क्या है जो बिना व्यवहार निश्कप्राप्त करा देवे ? बिना महाव्रतादिव्यवहारवारको धारण किये परतन्त्र एवं रागद्वेषविशिष्ट आत्मा कमका य कर सकता है क्या ? अथवा माँ मंदिरादिकका स्थान किये बिना कोई मनुष्य सम्पनत्व को भी प्राप्त कर सकता है क्या ? यदि यह कहा जाय कि माँस-मंदि रादि सेवन और जोवको मारना आदि दो जड़ घरोरकी क्रियाएँ हैं, उनसे आत्मा का कोई सम्बन्ध नहीं है, ऐसी दशायें कौन-मो वह सहज योग्यता है जिससे उन एवं अशुद्ध मूलक वस्तुओंको छोड़े बिना आत्माको शुद्ध पर्याय ले जा सके । हो तो शास्त्र - प्रमाणसे प्रकट कीजिये । शास्त्रकारोंने तो आत्माको शुद्धता और मोक्ष प्राप्ति में मूल हेतु व्यागको ही बताया है । अष्ट मूलगुण, अणुव्रत महाव्रत आदि उसीके फल-स्वरूप आत्मशुद्धि के साधक सिद्ध होते है। ऐसा ही आगम है । आगे समयसारीको गाथा नं० २७ का प्रमाण देकर वापने जो यह लिखा है कि देह और उसकी क्रिया के साथ उसे आत्मा मानकर जिसकी एकत्वबुद्धि बनी हुई है या जिसने नयज्ञानका विशेष परिचय नहीं किया है उसकी इस दृष्टिको दूर करने के अभिप्राय से इसे भो व्यवहारमयका विषय बताकर
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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