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शंका ६ और उसका समाधान कुमाल पर्यायको घटका उपादान मानने में कुछ धापति नहीं आती है । इसी प्रकार घट-निर्माणको यवि पिण्ड, स्थास, कोश, कुशूल और घटरूप पर्यायों में विभाजित न करके इन सब पर्यायोको ही केवल अखण्ड एक घट-निर्माण कार्य मान लिया जाय तो उस हालत में मिट्रीकी ही तो घटरूप पर्याय मनती है, अत: तक भी घटका उपादान कहना असंगत नहीं है।
__ जिस प्रकार काल द्रश्य की क्षणवर्ती पर्याय समय कहलाती है और घड़ी, घण्टा, दिन, सप्ताह, पक्ष, मास, वर्ष आदि भी कालकी यथासम्भव संख्यात शीर असंख्चात हामयरूप पर्यायोंके अखण्ठ पिण्डस्वरूप ही तो माने जा सकते है। इस तरह जैसे समयके बाद समय, इसके अनन्तर दिन के बाद दिन, इसके अनम्बर सप्ताह के बाद सप्ताह, इसके अनन्तर पक्षके बाद पक्ष, इसके अनन्तर मासके बाद मास और इसके भी बनार वर्ष के बाद वर्ष आदिका व्यवहार कालमें किया जाता है और वह सर समयके समान हो वास्तविक कहलाता है वैसे ही मिट्टोको पचासम्भव भसंख्यातक्षणिक पर्यायोंके समहरू पिण्ड पर्मायके निर्माणके बाद
यात क्षतिपय अनहरून स्पास पायका निर्माण, इस स्थास पर्यायके निर्माण के बाद असंहपाप्त क्षणिक पर्यायोंके समूहका कोश पर्यायका निर्माण, इस कोश पर्वायके निर्माण के बाद असंख्यातक्षणिक पर्यायोंकि समूहरूप कुशूल पर्यायका निर्माण और इस कुल पर्यायके निर्माण के बाद अप्रख्यात क्षणिक पर्यायोंके समूहरूप घट पर्यायका निर्माण स्वीकार करके घट पर्यावकी अव्यवहित पूर्व पर्यायरूप कुशलको घट पर्यायका उपादान, कुशल पर्यायको अव्यवहित पूर्व पर्यायरूप कोशको कुशल पर्यायका उपादान, कोशकी अव्यवहित पूर्व पर्यायरूप स्थानको कोष पर्यायका उपादाम, स्थासको अभ्यरहित पूर्य पर्यायस्प पिण्डको स्थास पर्यायका उपादान तथा पिण्डकी अव्यवहित एवं पर्यायरूप मिट्रीको पिण्ड पर्यायवल उपादान मामना असंगत नहीं है । क्या आप क्षणिक पर्यायको ग्रहण करनेवाले ऋजुसूत्र मयको और उस पर्यायके आश्रषभूत कालको पर्यायरूपक्षणको वास्तविक मानने को तैयार है? यदि हाँ, तो हमें प्रसन्नता होगो, और क्याणिक पर्यायों के उत्तरोत्तर वृद्धिंगत समूहोंको ग्रहण करनेवाले व्यवहार, संग्रह तथा नराम नोंको तथा क्षणिक पर्यायोंके इन समूहों के आश्रयभूत काल के घड़ी, घण्टा, दिन, सलाह, पक्ष, मास और वर्ष आदि भेदोंको आप अवास्तविक ही मान लेना चाहते है? यदि हाँ, लो समय और समयके समूहोंमें तथा क्षणिक पर्यायों और इन पर्यायोके समूहोंमें बास्तविकता और अवास्तविकताका यह वषम्य कैसा ? और यदि समय और सदाश्रित वस्तुकी क्षणिक पर्यायको भी व्यवहारनयका विषय होनेके कारण अवास्तविक अर्थात् उपचरित या कल्पनारोपित ही मान लेना चाहते हैं तो फिर आपके मतसे क्षणिक पर्यायोंके आधारपर उपादानोपादेयभावको बास्तबिकता कैसे संपात हो सकती है। इन सब बातोपर आप निन्द मस्तिष्कसे विचार कीजिए। इसी प्रकार व्यवहारनयकी विषयभूत यदि क्षणिक गणिों और उनके आश्रयभूत कालके अखण्ड क्षणोंको आप वास्तविक ही मानते हैं तो व्यवहारको फिर अवास्तविक, उपचरित या कल्पनारोपिस कैसे माना जा सकता है ? इसपर भी ध्यान दीजिए।
एक बात और भी विचारणीय है कि मतिज्ञान और श्रुतज्ञाल, क्षायोपशामिक होने के कारण किसी भी वस्तुको समयवती अखपड़ पर्यायको ग्रहण करने में सर्वश्रा असमर्थ ही रहा करते है। इन ज्ञानीका विषय अस्तूको कमसे-कम अन्तमहर्तवती पर्यायोंका समूह ही एक पर्यायके रूप में होता है, इस प्रकार इन ज्ञानोंको सपेक्षा मिट्टो, पिण्ड, स्थास, कोश, कुशल और घटम उपादानोपादेयव्यवस्था असंगत नहीं मानी पा सकली है।
केबलझान वस्तुको समयवर्ती पर्यायको विभक्त करके जानता है ऐसा आप मानते हैं। लेकिन यहाँकर