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________________ शंका ६ और उसका समाधान स्वीकारकर लेगा आचार्य विद्यानन्द अपनी अष्टमहसी पृष्ठ ११२ में उत्पाद, व्यय और श्रीव्यको स्वाभावान्तर निरपेक्षरूपसे जो व्यवस्था कर रहे है उस पर भी थोड़ा दृष्टिपात कोजिए। इससे वस्तुस्थितिको हृदयङ्गम करने में विशेष सहायता मिलेगी। स्वयमुत्पिस्सोरपि स्वभावान्तरापक्षणे विनश्चरस्यापि तदपेक्षणप्रसङ्गात् । एतेन स्थास्नीः स्वभा. बान्तरानपेक्षणमुर्क, विरसा परिणामिनः कारणान्तरानपेक्षोत्पादादिश्यव्यवस्थानात्तद्विशेषे एवं हेतुव्यापारोपगमात् । यदि स्वयं उत्पन्न होनेवाला पदार्थ स्वभावान्तरको अपेक्षा करे तो विनाश होनेवालेको भी स्वभावान्सरको अपेक्षा करमेका प्रसङ्ग उपस्थित होता है। इस कथनसे स्थानशील पदार्थ स्वभावान्तरको अपेक्षा नहीं करता यह कह दिया गया है, क्योंकि बिरसा परिणमन करनेवाले पदार्थों में कारणान्तर निरपेक्ष होकर उत्पादादित्रयकी व्यवस्था है। उनके विशेष में हो हेनका ध्यापार स्वीकार किया गया है। यह स्वामी विमानन्तिका वनन नै । इमसे हम गह बात अच्छी तरहसे जान लेते हैं कि प्रत्येक उत्पादमें जो बाह्य और शाम्यन्तर हेतुको स्वीकृति है उसका अभिप्राय क्या है। उत्पाद स्वभावसे उत्पाद है, वह कथञ्चित व्यय और प्रौष्यरूप भी हैं। व्यय स्वभावसे व्यय है, वह कवञ्चित उत्पाद और ध्रौव्य स्वरूप भी है। ध्रौव्य स्वरूपसे धौव्य है, वह कञ्चित उत्पाद और व्यय स्वरूप भी है। उत्पाद, काय और धोव्यकी यह व्यवस्था स्वभावतः परनिरपेक्ष होकर स्वतःसिद्ध है। फिर भी जो हेतुका पापार स्वीकार किया गया है वह केवल एक पर्यायसे दूसरी पर्याय व्यतिरेक दिखलाने के लिए ही स्वीकार किया गया है 1 कथन थोड़ा सूक्ष्म और वस्तुस्पी है। हमें भरोसा है कि अपर पक्ष इसके हार्दको हृदयङ्गम करेगा। इससे अपर पक्षको यह भी समझने में सहायता मिलेगी कि-'येन कारणेन यस्कार्य जायते सेनैव तरकार्य, न तु कारणान्तरेण ।'--जिस कारणसे अर्थात् उपादान कारणसे बाह्य सामग्रीको निमित्तकर जो कार्य उत्पन्न होता है उस कारणले ही अर्थात उपादान कारणसे ही बाह्म सामग्रीको निमित्तकर वह कार्य उत्पन्न होता है। कारणान्तरसे नहीं । अष्ट० स० टि. १४ पृ० ११२ । हमने अपने दूसरे उत्सरको लिखते हुए तत्वार्थदलोकत्रातिकके एक उद्धरण में आये हुए 'सहेतुकस्व प्रतीतः पदमें पठित 'प्रतीत' पदकी ओर अपर पक्षका ध्यान आकृष्ट किया था 1 किन्तु अपर पक्षने उसके अभिप्रायको ग्रहण न कर उस पर टिप्पणी करना ही उचित समक्षा है। हम आशा करते है कि वह पुनः उस ओर ध्यान देनेको कृपा करेगा। इसके हार्दको समसने के लिए हम समयसार गाथा ९८ को आत्मख्याति टोकामें आये हुए 'प्रतिभाति पद को ओर अपर पक्षमा पुनः ध्यान आकृष्ट करते हैं। इनकी टीकाम कहा गया है कि यह जीव अपने विकल्प और हस्तादि क्रियारूप व्यापार द्वारा घट आदि पर द्रव्य स्वरूप बाह्य कर्मको करता हुआ प्रतिमासित होता है, इसलिए यह उसका व्यामोह हो है। __ स्पष्ट है कि परमध्यके किसी भी कार्यमें बाह्य सामग्री निश्चयकी प्रतीतिका हेतु होनेसे ध्यघमार कारणरूपसे ही स्वीकार की गई है। यही पूरे जिनागमका सार है। इससे बन्ध-मोक्षम्यवस्था जिनागममें किस रूप में स्वीकार की गई है इसका स्पष्टीकरण हो जाता है। ९. जगतका प्रत्येक परिणमन क्रमानुपाती है अपर पक्षने हमार पिछले इस कथनपर टिप्पणी की है, जिसमें हमने बतलाया था कि अपर पक्षकी मान्यता ऐसी प्रतीत होती है कि 'जब जैसे निमित्त मिलते हैं तब वैसा कार्य होता है। हमारा यह वक्तव्य
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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