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शंका १६ और उसका समाधान
৩৮৩ अ६-वह शुभोपयोग गृहस्थोके तो, सर्वविरतिके अमावसे शुद्धात्मप्रकाशनका अभाव होनेसे कषायके सद्भाव के कारण प्रवर्तमान होता हआ भी मुख्य है, क्योंकि जैसे ई घनको स्फटिकके सम्पकसे सूर्यके तेजका अनुभव होता है, उस प्रकार गृहस्थको रागके संयोगसे शुखात्माका अनुभव होता है, क्रमशः परम निर्वाण सौख्यका कारण होता है।
आपने यह लिखकर 'शुद्धाशुद्ध पूरे परिणामको शुभ कहकर ऐसा अर्थ फलित करनेकी चेष्टा की गई है सो यह कथनकी चतुराई मात्र ही है।' उपर्युक्त आर्ष वाक्योंको कथनकी चतुराई कहनेका साहम किया है सो यह बड़े खेदकी बात है और यह आर्ष वाक्योंपर अश्रद्धाका घोतक है।
जिनभक्तिसे आप कमका क्षय होना नहीं मानते, किन्तु समयसारके रययिता श्री कुंदकुंद भगवान् कहते है कि जो जिनेन्द्रको नमस्कार करता है वह संसार भ्रमणका नाश करता है
जिणवरचरणंबुरुहे मंति जे परमभत्तिराएण । ते जम्मवेल्लिमूलं खणति वरमावसस्येण ॥१५१।।
--माघपाहुए अर्थ----से पुरुष परम भक्ति अनुराग करि जिनवरके चरणकमलकू नमे हैं ते पुरुष श्रेष्ठ भावरूप शस्त्र करि जन्म (संसार) रूपी बेलका मूल जो मिथ्यात्वादि कर्म को खणे (जय) करें है।
इससे स्पष्ट है कि जिनेन्द्र भक्तिसे कर्मोके राजा मोहनीय कर्मका क्षय होता है । आपने जो परमात्मप्रकाश गाथा ६१ उद्धृत को है उसको टोकामें लिखा है किदेवशास्त्रमुनीनो भवस्या पुण्यं भवति कर्मक्षयः पुनर्मुख्यवृत्या नैव भवति ।
अर्थ-देव-शास्त्र-मुनियोंकी भक्तिसे पुण्य होता है, किन्तु मुस्यतासे कर्मक्षय नहीं होता । अर्थात् गौणरूपसे कर्मक्षय होता है। मिश्रित असण्ा पर्यायमें पापोंसे नियत्ति भी होती है और रागांश है। यहाँ पर रागांशको मुख्य करके तथा नियत्ति अंशको गौण करके यह कथन किया गया है। जैसे तत्त्वार्थसूत्रमें सम्यक्त्वको देव आयु का आस्रव बतलाया है।
आध्यात्मिक दृष्टिसे प्रथम द्वितीय और तृतीय गुणस्थानोंमें तो एक अशुभोपयोग होता है और असंयतसम्यग्दृष्टि चतुर्थ गुणस्थानसे प्रमत्तसंमत छटे गुणस्थानतक केवल एक शुभोपयोग और अप्रमत्तसंयत सातवें गुणस्थानसे एक शुद्धोपयोग होता है।
-प्रवचनसार गाथा हटीका श्री जयसेन आचार्य । श्री ब्रह्मदेव सूरिने बृहद्रव्यसंग्रह गाथा ३४ को टोकामें लिखा है कि शुद्धोपयोगका साधक शुभोपयोग है जो चौथेसे छटे गुणस्थान तक होता है । अतः शुभोपयोग मात्र बन्धका ही कारण नहीं हो सकता।
असंयतसम्यग्दृष्टि-श्रावक-प्रमत्तसंयत्तेषु पारम्पर्येण शुद्धोपयोगसाधक उपयुपरि तारतम्येन शुभोपयोगी वतते ।
अर्थ-असंयतसम्यग्दृष्टि, श्रावक और प्रमत्तरांयत (चौथे, पांचवें एवं छरे गुणस्थान) में उत्तरोत्तर तारतम्य लिये शुभोपयोग होता है जो शुद्धोपयोगका साधक है।
किन्तु दूसरी दृष्टि से ४ थे से १२ गुणस्थान तक शुभोपयोग और १३ वैसे शुद्धोपयोग होता है।