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________________ । जयपुर (खानिया ) तवचर्चा विषयसन्निधिप्रधावतां सुखदुःखपरिणति भाव्यभावकभावेनानुभवश्च जीषः पुद्गलकर्म करोत्यनुभवसि चेत्यज्ञा निनामा संसारमसिद्धोऽस्ति तावद् व्यवहारः । ८२६ — आत्मख्याति टोका समयसार गाथा ८४ अर्थ- जैसे एक तरफ तो मिट्टी घडेको अन्तर्व्याप्यव्यापकभाव से अर्थात् उपादानोपादेयभावके आधार पर निश्चित हुए व्याध्यव्यापकभावरूप अन्वयव्यतिरेकव्यापिसे करती है तथा वहीं मिट्टी भाव्यभावकभावसे अर्थात् उस घटरूप परिणमन में अपने रूपको समाप्ती हुई तन्मयता के साथ उस घटका भोग भी करती है और दूसरी तरफ कुम्हार भी वाहव्ययापकभावसे अर्थात् निमित्तनैमित्तिकभाव के आधारपर निश्चित हुए व्याप्यव्यापकभावरूप अन्वयव्यतिरेकव्याप्ति से घटकी उत्पत्ति अनुकूल व्यापार करता हुआ करता है तथा वही कुम्हार भाव्यभावभावसे उस घड़े भरे हुए जलके उपयोग से उत्पन्न तृप्तिको अनुभव करता हुआ उस घड़का ही अनुभव करता है— इस तरह मनुष्योंका अनादिकालसे व्यवहार चला आ रहा है। वैसे ही एक तरफ तो पुद्गलद्रव्य कर्मको अन्तयष्यिव्यापकभाव से अर्थात् उपादानोपादेयभावके आधारपर निश्चित हुए व्याध्यव्यापकभावरूप अन्वयव्यतिरेकव्याप्ति से करता है तथा वही पुद्गल द्रव्य भाव्यभावकभाव से अर्थात् उस कर्मरूप परिणमन में अपने रूपकी समाता हुआ तन्मयता के साथ उस फर्मका भोग करता है और दूसरी तरफ जोव भो बहियप्यव्यापकभावसे अर्थात् निमित्तनैमित्तिकभाव के आधारपर निश्चित हुए व्याप्यव्यापक भावरूप अन्वयव्यतिरे से अपनी विकाररूप परिणतिके कारण पुद्गलकर्मकी उत्पत्तिके अनुकूल परिणाम करता हुआ उस पुद्गलकमंको करता है तथा वही जीव भाव्यभावकभावसे उस पुद्गलकर्मके उदयसे प्राप्त विषयोंकी समीपता से आनेवाली सुख-दुःखरून पश्थितिको अनुभव करता हुआ उस कर्मका ही अनुभव करता है - इस तरह विकाररूप परिणति में वर्तमान प्राणियोंका भी अनादिसे व्यवहार चला मा रहा है । इस टीका में इस बात को स्पष्ट तौरपर बतला दिया गया है कि उपादानोपादेयभावके आधारवर स्थापित मन्तव्यापकभावकी तरह निमित्तनैमितिकभावके आधारपर स्थापित बहिर्व्याप्यव्यापकभाव भी वास्तविक ही है, कल्पनारोपित नहीं है । ऐसा कौन है जो आबालवृद्ध अनुभवगम्य कुम्भकार आदि निमितभूत वस्तुओंके संकलन, बुद्धि और शक्ति के आधारपर होनेवाले घटादिकी उत्पत्तिके प्रति अनुकूलता के रूपको लिये हुए स्थाधित व्यापारों को कल्पनारोपित कहने को तैयार होगा ? और जब ये आपार कल्पनारोपित नहीं हैं तो पदादि कार्योंके प्रति अनुकूलता लिये हुए कालप्रत्यासतिरूप सहकारी कारणताको कल्पनारोपित कहनेको भो कौन तैयार होना ? निमित्तभूत पृथक-पृथक् वस्तुओं में यथायोग्य कर्तृत्व, करणत्व, संप्रदानत्व, थपादानत्व और अधिकारणत्यके रूपमें पृथक्-पृथक् पायो जानेवाली यह कालप्रत्यासतिरूप सहकारी कारणता ( निमित्तकारणता ) उन पृथक्-पृक्क वस्तुओं को क्रमशः कर्ता, करण, संप्रदान, आपादान और अधिकरण कारकों में विभक्त कर देती है, इसलिये इनमें पाये जानेवाले कर्तृत्व, करणत्व, संप्रदानत्व, अपादानत्व और अधिकरणत्व रूप निमित्तकारणता को भी कल्पनारोपित नहीं कहा जा सकता है । ऐसी स्थिति में इनको उपचारित कहनेका एक ही कारण है कि कर्तृत्वादि ये सब धर्म कार्यभूत वस्तुसे भिन्न अन्य वस्तुओं में विश्वमान वास्तविक निमित्तनैमित्तिक भावके आधारपर निश्चित होते हैं। इसलिये कार्यकारणभाव के प्रकरण में जहाँ भी उपचार या
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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