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________________ ७३४ जयपुर ( स्वानिया) तस्वचर्चा अर्थ-यद्यपि पदार्थ नाना धमोसे युक्त है तथापि नय एक धर्म को कहता है, क्योंकि उस समय उस धर्म को विवक्षा है, शेष धौ की विवक्षा नहीं है। अथवा नयका लमण विकलादेश है। कोई भी एक नय वस्तुके पूर्ण स्वरूपको नहीं कह सकता । न तो एकधर्ममुजेन वस्तुका कथन करता है। अत वस्तुःस्वरूप उतना ही नहीं है जितना कि निश्चयन या चन्द र कान मसा। वस्तस्वरूप तो दोनों नयाँके कपन मिलानपर पूर्ण होता है। प्रतिपक्षी दो धर्मों को विवक्षा भेदसे ग्रहण करनेवाले दो मल नय हैं जिनको द्रश्याबिक और पर्यायार्षिक नय कहते है। पंचास्नकायको गाथा चारको टोकामें श्री अमृतचन्द्रसूरिने भी लिखा है'भगवानने दो नए कहे है-व्यायिक और पर्यायाथिक । भगवानका उपदेश एक नय अधीन नहीं है, किन्तु दोनों नयोंके अधीन होता है। न्याथिकनय निश्चयनय है और पर्यायाधिकनय व्यवहारमय है, क्योंकि समयसार गाथा ५६ को टोकामें 'व्याधित निश्चयतय और पर्यायाधित व्यवहारलय' कहा है। दोनों नयोंका विषय परस्पर प्रतिपक्षी है इस बातको श्री कुंदकुंद भगवान भी समयसारमें कहते है जीवे कम्मं बद्धं पुढें चेदि चवहारणयमणिदं।। सुखणयस्स दु जीवे अबजुपुटुं हवह मं ।।१४१॥ अर्थ-जीवमें कर्म बद्ध है तथा स्पर्शता है ऐसा व्यवहारनयका वमन है। जीवमें कर्म न बघता है और न स्पर्शता है ऐसा निश्चयनयका वचन है। इसी बातको श्री अमृतवन्द्र सुरि कलश ७. से ८९ तक २० कलशों द्वारा दो परस्पर प्रतिपक्ष धर्मों को कहकर यह कहते हैं कि एक नयका विषय एक धर्म है और दूसरे नमका विषय दूसरा धर्म है। उन कलशोंमें कथन किये गये प्रतिपक्ष धर्म इस प्रकार है-(१) बद्ध-अबद्ध (२) मूल-अमूढ (३) रागीअरागी (४) वेषी-अद्वेषो (५) 'कर्ता अकर्ता (६) मोक्ता-प्रभोक्ता (७) जोव-मोव नहीं (4) सूक्ष्म-सूक्ष्म नहीं () हेतु-हेतु नहीं (१०) कार्य-कार्य नहीं (११) भाव-प्रभाव (१२) एक-अनेक (१३) शान्त-अशान्त (१४) नित्य-अनित्य (१५) वाच्य-अदाच्य (१६) नाना-अनाना (१७) चेत्य-अत्म (१८) दृश्य-अदृश्य (१६) वेद्यमवेद्य (२०) भात-भात । अर्थात् 'जीन बद्ध है' यह व्यवहार नय (पर्यायाथिक नय) का पक्ष है। 'जीव अवश है' यह निश्चय नयका पक्ष है । इसी प्रकार अन्य विकल्पोंके विषयमें भी जानना चाहिये । जन दोनों नयोंमेंसे प्रत्येक नयका विषय, वस्तुके दोनों परस्सर प्रतिपक्ष धर्मोमेंसे, एक-एक धर्म है तो उन दोनों नयों में किसो एक नयको यथार्थ और दूसरेको अयथार्य कहना कैसे सम्भव हो सकता है, क्योंकि जो नम परपक्षका निराकरण नहीं करते हा ही अपने पक्षके अस्तित्वका निश्चय करने में व्यापार करते है उनमें समोचीनता पाई जाती है। कहा भी है णिययवाणिज्जसरचा सन्नणया परवियालणे मोहा । ते उण पा दिवसमओ विभयह सच्चे व अलिए वा ।।१।२२८॥ --सन्मतितर्क अर्थ-ये सभी नय अपने-अपने विषयके कथन करने में समीचीन है और दूसरे नयोंके निराकरण करनेमें मूढ़ है। अनेकान्तरूप समयके ज्ञाता पुरुष ( सम्यग्दृष्टि ) यह नय सच्चा है और यह नय झूठा है इस प्रकारका विभाग नहीं करते। अधोत-दोनों नयोंके विषय दोनों धर्म एक वस्तुके होनेसे दोनों हो नम अपनी-अपनी विवक्षावे सत्य हैं।
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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