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________________ शंका १६ और उसका समाधाम यद्यपि प्राथमिकापेभ या प्रारम्भप्रस्तावे सविकल्पावस्थायां निश्चयसाधकत्वाद् व्यवहारनयः सप्रयोजनस्तथापि विशुद्धज्ञानदर्शनलक्षणे शुन्धारमनि स्थितानां निष्प्रयोजन इसि भावार्थः । इसका तात्पर्य यह है कि प्रारम्भिक शिष्यके लिये प्रथम सविकरूप अवस्था, निश्चयनयका साधक होनेसे व्यवहारनय प्रयोजनवान् है, किन्तु जो विशुद्धज्ञान-दर्शनमयी आत्मामें स्थित हैं उनके लिये निष्प्रयोजन है । इसी बातको श्री अमृतचन्द सूरि पंचास्तिकायके अन्त में लिखते हैं न्यवहारनयेन मिससाध्यसाधनभावमवलम्न्यानादिभेदवासितबुन्द्रयः सुखेनैवायतरन्सि तीर्थ प्राथमिकाः। अर्थ----जो जीव अनादि कालसे भेदभावकर वासितबुद्धि है वे व्यवहारनयका अवलम्बन लेकर भिन्न साध्य-साधनभावको अंगीकार करते है, ऐसे प्राथमिक शिष्य सुखसे तीर्थ में प्रवेश करते हैं। आगमके आधार पर यह कहा जा चुका है कि यदि विवक्षित नम अपने प्रतिपक्षी नयके सापेक्ष है तो सुनय अथवा सम्यक् नय है जो सम्यग्दृष्टि के होते है। मिथ्यादृष्टिके वही नय पर निरपेच होनेसे कुनय अथवा मिथ्या नय होते हैं। इसी बातको श्री देवसेन प्राचार्य ने भी नयचकसंग्रहमें कहा है भेदुवयारी णियमा मिच्छादिट्टीणं मिस्टरूवं तु । सम्मे सम्मो भणिो तेहि दुबंधो व मुक्खो वा ॥१८॥ अर्थ-भेदोपचार ( व्यवहारनय ) मिथ्यादृष्टि के नियमसे मिय्यारूप ही होता है और सम्मग्दृष्टिके सम्यक्त्वरूप कहा गया है। मिथ्या व्यवहारनयले बन्ध होता है और सम्यग्दृष्टि व्यवहारनयसे मोक्ष होता है। समग्रतार बध अधिकारमें यह कहा गया है कि अध्ययसानके द्वारा बन्ध होता है। गाथा २७१ को टीकामें कहा गया है 'स्व-पर विवेकसे रहित ( मिथ्या) बुद्धि ब्यबसाय-मति-विज्ञान, चित्त-भाव-परिणामको अध्यवसाय कहते हैं। गाथा २७२ में निश्च अनयके द्वारा अध्ययसानहत मिथ्या व्यवहारतयका प्रतिषेध किया गया है। जैसा कि टोकाके 'पराश्रितव्यबहारमयस्यैकान्तनामुच्यमानेनाभव्येनाश्रियमाणत्वात् ।' (पराधित व्यवहारनयके तो एकान्तसे कर्मसे नहीं छुटनेवाले अभव्य करि आश्रयमानपता है) इन शब्दोंसे स्पष्ट है। गाथा २७३ के 'अभब्यो अण्णाणी मिच्छदिट्ठी' गाया २७४ के 'अमविय' और गाथा २७५ की टीकाके 'भभव्यः' से स्पष्ट है कि गाथा २७१ आदिमें मिथ्यादृष्टियोंको बुद्धि-वत शील-ज्ञान व अज्ञान आदिकी अपेक्षा कथन है और उन्हींका प्रतिषेध है, क्योंकि सम्यग्दष्टिका ज्ञान, श्रद्धान, प्रत, शील आदिरूप चारित्र तो मोक्षका कारण है उसका प्रतिषेध नहीं हो सकता । यदि २७२ गाथामें सम्यम्व्यवहारनयका प्रतिषेध मान लिया जावे तो पूर्वापर विरोधका प्रसंगा जायगा, क्योंकि समयसार गाथा १२ में तथा उसकी टोकामे पूर्ण ज्ञान-चारित्र होने तक अर्थात् साधक अवस्थामें सम्यग्व्यवहारनयको प्रयोजनवान् बतलाया गया है। ___ श्री समयसार गाथा १२ तथा उसको टोकामें भी प्रगट किया गया है कि जो पूर्ण दर्शन-ज्ञानचारित्रवान् हो गये उन्हें शुद्ध ( निश्चय ) नय प्रयोजनधान् है और जब तक दर्शन-ज्ञान-पारित्र पूर्ण नहीं होते हैं तब तक व्यवहारमय प्रयोजनवान् है । दर्शन-ज्ञान-चारित्रको पूर्णता १३ ३ गुणस्थान में होती है, अतः १२ में गुणस्थान तक व्यवहारनय प्रयोजनवान है।
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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