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शंका १० और उसका समाधान पृथक् किया गया है उसके स्वीकार करने में हेतभेद अवश्य है-जहाँ प्रथममें आकाशक्षेत्रको अपेक्षा एक क्षेत्रमें छहों द्रष्योंकी अवस्थिति व्रतलाना मात्र मुख्य प्रयोजन है वहीं दूसरेमें निमित्तमित्तिकताका ज्ञान कराना मुख्य प्रयोजन है । उसमें सर्वप्रथम जोव और कर्मक परस्पर विशिष्टतर अवगाहको जो बन्ध ( उभयवन्ध ) कहा है वह किस अपेक्षासे कहा गया है इसपर दृष्टिपाल कर लेना चाहते हैं। प्रवचनसार गाथा १७४ की टोकामें आचार्य अमृतचन्द्र कहते है
एकावगाहभावावस्थितकम-पुद्गलनिमित्तीपयोगाधिरूढरागद्वेषादिभावसम्बन्धः कर्मपुद्गलबन्धव्यवहारसाधकस्त्वस्त्येव ॥ १७ ॥
तथापि एकावगाहरूपसे रहनेवाले कर्मपुद्गल जिनके निमित्त हैं ऐसे उपयोगाधिरूढ़ राग-द्वेषादि भावोंके रााणका सम्बन्ध कर्मपुद्गलोंके साथके बन्धरूप न्यबहारका माधक अवश्च है ॥१७४।।
यहाँ जीव और कमरे एक क्षेत्रावगाहरूप विशिता अथगाहको स्पष्ट शब्दाम बन्धव्यवहार कहा गया है यह तो स्पष्ट ही है। अन्द इस व्यवहारको आगममें किस रूपगें स्वीकार किया गया है इसके लिए बुहद्रव्यसंग्रह गाथा १६ को टोकापर दृष्टिपात कीजिये
कमयन्धपृथग्भूतस्वशुद्धात्मभावनारहितजीवस्यानुपचरितासद्भूतव्यवहारण द्रव्यपन्धः ।
कर्मबन्धरो पृथग्भूत गिज शुद्धात्म भावनासे रहित जीनके अनुगचरित असद्भूत व्यवहारनयसे द्रष्यबन्ध है।
इस प्रकार जीव और कर्मवा नो बन्ध कहा जाता है वह अनुपपरित असदभूत व्यवहारनयसे ही कहा जाता है यह उक्त आगम प्रमाणोंसे स्पष्ट हो जाता है।
अब पुद्गल-पुद्गलका जो एकरवपरिणामलक्षण बन्द कहा है इसका क्या तात्पर्य है इसपर विचार करते है । धवला पु० १३ पृ० १२ में एकत्वका अर्थ करते हुए लिखा है
पोमालव्वभावेण परमाणुपोग्गलम्स सेसपोग्गलेहि सह प्रयत्नवलंभादो । पुद्गल ट्रस्परूपसे परमाणु पुद्गलका शेष पुद्गलोंके साथ एकत्ल पाया जाता है।
इससे मालूम पड़ता है कि बन्धप्रकरणमें जो दो पुद्गल द्रक्ष्योंका एकत्त्रपरिणाम कहा है उसका प्राशय ही इतना है कि दोनों पुद्गल अपने स्वरूपको न छोड़ते हुए यथासम्भव सदृश परिणामरूपसे परिणम जाते हैं। वे अपने स्वरूपको नहीं हो छोड़ते है इसका स्पष्टोकरण वहीं पृ० २४ में इन शब्दोंमे किया है
तदो सरूवापरिच्चाएण सम्वष्यणा परमाणुस्स परमाणुम्मि पवंसो सवफासी। इसलिए अपने-अपने स्वरूपको छोड़े विना परमाणुका परमाणु में सर्वात्मना प्रवेश सर्वस्पर्श कहलाता है।
इससे यह ज्ञात होता है कि स्कन्ध अवस्थामें रहते हुए भी कोई भी परमाणु अपने-अपने स्वचतृष्टयका त्याग नहीं करते । जैरो प्रत्येक परमाणु अपने-अपने द्रव्य, क्षेत्र, भावहासे अवस्थित रहते हैं वैसे ही प्रत्येक समयमें होनेवाली अपनी-अपनी पर्यायरूपसे भो वे अवस्थित रहते है ।
अब हमें इस बातका विचार करना है कि स्कन्ध अवस्था में भी यदि प्रत्येक परमाणु अपनी-अपनों पर्यायरूप परिणत होता रहता है तो स्कन्द अवस्था कैसे बनती है ? समाधान यह है कि शब्दमय और एवंभूतनयके विषयभूत भावबन्धपूर्वक हुए द्रक्ष्यबन्यको अपेक्षा नैगम, संग्रह, व्यवहार और स्थूल अजुसूधनयसे