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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा
नसामर्थ्यादिज्ञानादिर्दोषः स्वपस्परिणामहेतुः
अष्टवती पृ० ४१
कारिकामे आचार्यते 'दोषावरणयो:' ऐसा द्विवचन दिया है, जिससे आवरण पौद्गलिक कर्मसे भिन्न ही अज्ञानादि विभाव दोष पद वाच्य जो कि स्वजीवके परिणाम तथा परन्पुद्गलके परिणामरूप दोनों परिणामसे जन्य है ।
इसी भावको विशद करते हुए श्री विद्यानन्द स्वामी लिखते हैं-
न हि शेष एव आवरणमिति प्रतिपादने कारिकायां दोषावरणयोरिति द्विवचनं समर्थम् । ततस्तत्त् सामर्थ्यात् आवरणात्पौद्गलिकज्ञानावरणादिकर्मणां भिन्न एवाज्ञानादिदोषोऽम्यते, सद्धेतुः पुनरावरणं कर्म जीवस्य पूर्वस्वपरिणामश्च ।
अर्थ — दोन ही आवरण हैं ऐसा अभिप्राय कारिका में दिये हुए विवेचनसे नहीं हो सकता। इसलिये आवरण पृद्गल कर्मसे भिन्न जोवगत कुज्ञानादि विभाव ही दोय मानना चाहिये। तथा उसके हेतु आवरण कर्म पर कारण जीवसे भिन्न है तथा जीवका पूर्व परिणाम भी जनक है यह स्वकारण है |
उपरोक्त भाष्य में अकलंकदेवने स्वयं निमित्त कारण ज्ञानावरणादि पुद्गल कर्मको निमित्त कारण पर शब्द तथा स्व शब्दसे पूर्व पर्यायविशिष्ट जोवको उपादान कारणरूपसे उल्लेख किया है । यही अभिप्राय विद्यानन्दने स्वरचित अष्टसहस्री में 'तद्धेतुः पुनरावरणं कर्म पूर्वस्वपरिणामश्च' इस वाक्य से विदा किया। है । महर्षि कुन्दकुन्द ने भी इसी बात का समर्थन समयसार में किया है—
जीवपरिणाम हेतु कम्मन्तं पुग्गला परिणमति ।
पुग्गलकम्मणिमित्तं तच जीवो चि परिणम ॥ ८०॥
अर्थात् पुद्गल जोबके परिणामके निमित्त से कर्मरूपमें परिणमित्त होते हैं, तथा जोन भी गुद्गल कर्मके निमित्त से परिणमन करता है ।
इसी
का विस्तृत विवेचन स्वयं महर्षि कुन्दकुन्दने ही आगे चलकर किया है
सम्म पडिणिबद्धं मिच्छतं जिणचरेहि परिकहियं ।
तस्सोदर्येण जीवो मिध्यादिट्टि सि गायत्री ॥ १६१॥ पारस पडिणिबद्ध अण्णाणं जिणवरंहि परिकहियं । तरसोदयेण जीवी अण्णाणी होदि णायस्त्री ॥ १६२ ॥ चारितपखिणि कसायं जिणवेरहि परिकहियं ।
सस्सादयेण जीवो अवरितो होदि णायच्वो ॥ १६३ ॥
अर्थात् सम्यक्त्व को रोकनेवाला मिथ्यात्व है ऐसा जिनवरोंने कहा है, उसके उदयसे जीव मिश्रश्रादृष्टि होता है ऐसा जानना चाहिये । ज्ञानको रोकनेवाला अज्ञान है ऐसा जिनवरोंने कहा है उसके उदयसे जीव अज्ञानी होता है ऐसा जानना चाहिये | चारित्रको रोकनेवाला कषाय है ऐसा जिनवरने कहा है उसके उदयसे जीव अचारित्रवान् होता है ऐसा जानना चाहिये ।
मिध्यात्व, अज्ञान और कषाय ये तीनों पीद्गलिक हैं। यदि इनको पौगलिक न माना जायेगा तो फिर कार्यकारणभाव नहीं बन सकेगा । आचार्य अमृतचन्द्र सूरिने भी इसी बात को स्वीकार किया है—