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________________ शंका १३ और उसका समाधान अर्थ-मुनियोंको प्रशस्त चर्या तथा गृहस्थोंकी प्रशस्त चर्या उत्तम है । वे मुनि तया गृहस्थ अपनी उसी प्रशस्त चर्याद्वारा मोशसुखको प्राप्त करते हैं । टीकाम श्री अमृत चन्द्रसूरिका भाव भी गाथाके अभिप्रायका पोषक है एवमेष शुद्धामानुरागयोगिप्रशस्तचर्यारूप उपवर्णितः शुभोपयोगः तदय शुद्धात्मप्रकाशिका समस्तविरतिमुपेयुषी कषायणसद्भावाप्रवर्तमानः शुद्धात्मवृत्ति-विरुदरागसंगतत्वाद्गौणः श्रमणानां, गृहिणां तु समस्त विरतेरभावेन शहात्मप्रकाशनस्याभावाकषायसनावाप्रवतमानोऽपि स्फटिकसंपणाकतेजस इधसा रागसंयोगेन शुद्धात्मनोऽनुभवात्मतः परमनिर्वाणसौख्यकारणत्वाच्च मुण्यः । अर्थ-इस तरह यह शुद्ध आत्माका अनुरागरूप शुभ आचार है । यह शुभाचार शुद्ध आत्माको प्रकाशक सर्व विरतिवः ले मुनियों के कषाय अंश रहनेसे शुभ प्रवृत्ति में वर्तमान मुनियोंके शुद्धात्मानुभवके विरोधो राग भाव होनेसे गौण है । गृहस्थोंके सकल चारित्रके अभाव द्वारा शुद्धात्माका प्रकाश न होनेसे और कवायके सद्भावसे तथा रागयुक्त अशुद्ध आत्माका अनुभव होते रहने से परम्परासे परम निर्वाणसुखका कारण होनेसे मुख्य है। इस तरह टीकाकार श्री अमृल चन्द्रसूर अपनी टोकामें श्री कुन्दकुन्द आचार्यके अभिप्रायको स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि मुनिचर्या तथा श्रावक-चर्यारून शुभोपयोग-पुण्याचरण सरागचारित्र या व्यवहार चारित्र मोक्षका कारण है, अतः उपादेय है । इन दो प्रमाणोंसे यह बात सिद्ध होती है कि भोपयोग, पुण्य अथवा व्यवहार चारित्र एक ही अर्थ वाचक पर्याय शब्द हैं । इनको सरागनारिम या सराग धर्म भी कहा जाता है। यह पण्य भाव या शभोपयोग राग भावके सहयोगसे पुण्य कर्मबन्धका कारण है. उसीके साथ-साथ अपनी मथासम्भव विषयमोगोंसे तथा पापक्रियाओंसे एवं मिथ्यात्वको विरक्तिके कारण संवर और निर्जराका भी कारण है । यही विरक्ति मक्ते-२ शुद्ध परिणति में परिणत हो जाती है। इस दृष्टिसे शुभोपयोग या पुण्य भाव शदोपयोगका कारण है। सातवें गुणास्थानका पुण्य भाव ही आठवें गुणास्थानके शुद्धोपयोगमै परिणत हो जाता है। अर्थात् सातिशय अप्रमत्त (सातवें) गुणस्थानके अन्तिम समयको पर्याव शुभोपयोगमयो है और उससे दूसरे समयको आत्मपर्याय शुद्धो. पयोगमयी होती है । इन कारण शुभांपनांग शुद्धोपयोगका साक्षात् कारण भी है और पांचवें छठे गुणस्थानका शुभोपयोग शुद्धोपयोगका परम्परा कारण है । ___इस कार्यकारणभावसे पुण्यभाव या शुभोपयोग परम उपयोगी है। संबर और निर्जराका कारण होनेसे धर्मरूप है । निश्चय धर्म या गुनोपभोग यदि फल हैं तो शुभोपयोग उसका पूर्ववर्ती पुष्ष है। इस कारण सम्बष्टिका पुण्य परम्परासे मुक्तिका कारण होनेसे प्रत्येक व्यक्तिके लिये ग्राह्य या उपादेय है । आठदे गुणस्थामसे नीचेवाले प्रत्येक ब्यक्तिके लिये रंचमात्र भी हेय या त्याज्य नहीं है। इसी बातको पुष्ट करते हुए श्री परम आध्यात्मिक श्री देवसेन बाचायने भावसंग्रह ग्रन्थमें लिखा है : सम्मादिट्ठी पुण्णं ण होह संसारकारण णियमा । मोमवस्स होड़ हडं जड चिणियाणं पा सो कुणह॥ अर्थ---सम्यग्दृष्टिका पुण्यभाव नियमसे संसारका कारण नहीं है । सम्यग्दृष्टि जोव यदि निदान न करे. तो उसका पुण्य मोक्षका कारण होता है। अतः मक्षिका कारणभूत पुण्य त्याज्य किस तरह हो सकता है। ८३
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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