Book Title: Auppatiksutram
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ESon gsaxxi नैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालजी-महाराजविरचितया-पीयूपवर्पिण्याख्यया व्याख्यया समल कृतम् हिन्दीगुर्जरभाषानुवादरहितम् औपपातिक-सून्नम् । AUPAPAATIKA SUTRA PARS नियोजक संस्कृत-प्राकृतज्ञ-जैनागमनिष्णात-प्रियव्याख्यानि पण्डितमुनि श्रीकन्हैयालालजी-महाराजः । 25 LTobamSURANUSROJURawunnua प्रकागका अ. भा. श्वे. स्था. जैनशास्त्रोद्धार समिति-प्रमुखः “श्रेष्ठि-श्रीशान्तिलाल-मगलदासभाई-महोदयः मु. राजकोट (सौराष्ट्र) प्रथम आवृत्ति : प्रति १००० चीर संवत २४८५ विक्रम संवत २०१५ ईस्वीसन् १९५९ मूल्यम्-रू. -०० Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • પ્રાપ્તિ સ્થાન : શ્રી અ. ભા. ચે, સ્થાનકવાસી જૈન શાસ્રોÇાર સમિતિ ગ્રીનલેાજ પાસે, રાજકોટ ✩ પ્રથમ આવૃત્તિઃ પ્રત ૬૦૦૦ વીર સવત .. ૨૪૯૫ ૨૦૧પ વિક્રમ સતત : ઇસ્વી સન : ૧૯૫૯ મુદ્રકઃ ગુણુવંત કે. ક્રાઠારી મુદ્રણુસ્થાન સુભાષ પ્રિન્ટરી, ૐ ટકારિયા રોડ, અમદાવાદ. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय १ मङ्गलाचरण | २ शास्त्रोपोदघात | ३ चम्पानगरी-वर्णन | ४ पूर्णभद्रचैत्य-वर्णन । ५ वनपण्ड-वर्णन | विषयानुक्रमणिका **** 3031 ... ६ वृक्ष-वर्णन | ७ अशोकवृक्ष-वर्णन | ८ तिलकादिवृक्ष-वर्णन । ९ पद्मलता - आदिका वर्णन.... १० पृथ्वीशिलापट्टक वर्णन ११ कूणिक राजाका वर्णन । १२ धारिणी देवीका वर्णन | १३ भगवान के विहार आदि समाचार लाने के लिये नियुक्तप्रवृत्तित्र्यात - पुरुष और उसके अधीन पुरुषोंका वर्णन । १४ उपस्थान शाला में स्थित राजा क्रूणिक का वर्णन । १५ भगवान महावीर स्वामी का वर्णन ।.... १६ भगवान के आगमन के समाचार को जान कर प्रवृत्तिव्यापृत का राजा कूणिक के समीप जाना और उपनगर ग्राम में भगवान के आगमन वृत्तान्त का निवेदन करना । ... ... ... १९ पूर्णभद्र - उद्यान में भगवान का आगमन । २० भगवान के अन्तेवासियों (शिष्यों) का वर्णन | ... .... **** १७ भगवान का आगमन वृत्तान्त सुन कर कूणिक राजा को हर्प होना, और अपने राजचिह्नों को छोड़ कर, भगवान की तरफ मुँह कर, दोनों हाथ जोड कर सिद्धों को और भगवान महावीर स्वामी को 'नमोत्थु णं' देना, और कूणिक राजा द्वारा प्रवृत्तिव्यापृत का सत्कार । १८ पूर्णभद्र - उद्यान में भगवान के पधारने का वृत्तान्त निवेदन करने के लिये प्रवृत्तिव्यापृत को कूणिक की आज्ञा । ... ¡ ... 98. .... पृष्ठ **** १ - ३ ३-४ ४-१९ २०-२६ २६-२८ २९-४१ ३९-४१ ४२-४४ ४४-४५ ४५-४९ ४९-५८ ५८-६२ ६३-६५ ६५- ६७ ६८-१०४ १०५ - ११० १३८ .... १३९ - १४१ १४२-२०३ १११-१३७ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय २१ भगवान के शिष्यों का वायाभ्यन्तर नप-उपधान का वर्णन ।... २२ भगवान महावीर स्वामी के अनेकविध शिष्यों का वर्णन | २३ असुरकुमार देवो का भगवान के समीप आगमन, और उनका वर्णन २४ नागकुमारादि भवनवासी देवों का भगवान के समीप आगमन, और उनका वर्णन | १५ व्यन्तर देवों का भगवान के समीप आगमन, और saet वर्णन | .... **** *** ... WORK .... २६ ज्योतिष्क देवों का भगवान के समीप आगमन, और उनका वर्णन | ३३५-३४१ **** २७ भगवान के समीप वैमानिक देवों का आगमन, और उनका वर्णन ... ३४०-३४६ २८ चम्पा नगरी के वासी लोगो का भगवान के दर्शन की उत्सुकता, और उनका भगवान के समीप जाना | 7225 पृष्ट २८३-३०६ ३०६-३२१ ३६३-३६५ ... २९ प्रवृत्तिव्यात द्वारा कृणिक का भगवान के आगमन का परिज्ञान, और राजा कृणिक द्वारा प्रवृत्ति व्याटत. का सत्कार | ..... ३० राजा कूणिक - द्वारा बलव्यात ( सेनापति) का आह्वान, और उसे हाथी, घोटा, रथ आदि तथा नगर के सजवाने का आदेश | ३६६-३६९ ३१ चलत्र्यात - द्वारा हस्तिव्यात को हाथी सजाने का आदेश और हस्तिव्यात - द्वारा हाथियों का सजाना । ३२ बलव्यापृत-द्वारा यानशालिक को यान - सजाने का आदेश, और यानशालिक - द्वारा यानो को सजाना । ३३ बलव्यापृत-द्वारा नगरगुप्तिक को नगर सजाने का आदेश, और नगरगुप्तिक- द्वारा नगर को सजाना । ३४ आभिषेक्य हस्तिरत्न - आदि का निरीक्षण कर के बलव्यात का कूणिक राजा के पास जा कर उन्हें भगवान के दर्शन के लिये जाने की प्रार्थना करना । .... ३२२-२३० ... करना, दण्डनायक होना, और सभी दर्शन के लिये ३३०-३३३ ३५ कूणिक राजा का व्यायामादि करके स्नान आदि से परिवेष्टित हो गजराज पर आरुढ प्रकार के ठाट-चाट के साथ भगवान के प्रस्थान करना, उचित प्रतिपत्ति के साथ भगवान के समीप पहुँचना, और पर्युपासना करना । - ३३८-३३८ ३२-३६३ ३७८-३७७ • ३८५-- ३८८ ३७७-३८२ ३८३-३८५ ,३८८-४३५ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय ३६ सुभद्रा आदि रानियों का अपनी २ दासी आदि परिवार के दर्शन के साथ सज-धज कर पूर्णभद्र उद्यान में भगवान के लिये उचित प्रतिपत्ति के साथ जाना और खडी २ भगवान की पर्युपासना करना | .... .... 1402 ३७ भगवान की धर्मदेशना ।.... ३८ अनगार - धर्म की निरूपणा । ३९ भगवान के पास बहुतों की प्रव्रज्या लेना और बहुतों का गृहस्थ .... धर्म स्वीकार करना । ४० परिपद का अपने २ स्थान पर जाना । ४१ कूणिक राजा का अपने स्थान पर जाना । ४२ सुभद्रा आदि रानियों का अपने २ स्थान पर जाना ... **** ... 779 **** .... ... **** १ गौतमस्वामी का वर्णन | २ गौतमस्वामी का भगवान के समीप जाना । ३ पापकर्म के विषय में गौतमस्वामी का प्रश्न, और भगवान ... ... ॥ इति समवसरण नामक पूर्वार्ध की विषयानुक्रमणिका || ॥ अथ उत्तरार्ध की विषयानुक्रमणिका ॥ *** का उत्तर । ...* ४ मोहनीय कर्म के धन्ध के विषय में गौतमस्वामी और भगवान का प्रश्नोत्तर | ५ मोहनीय कर्म के वेदन करते हुए के कर्मबन्ध के विषय में गौतमस्वामी और भगवान का प्रश्नोत्तर | ६ त्रस - प्राणघातियों के नरक में उपपात के विषय में गौतम .... **** ... **** .... .... पृष्ठ ४३५-४४२ ४४२-४७३ ४७४-४८३ ... ४८४-४८६ ४८६-४८८ ४८९-४९० ४९१-४९३ ४९४-४९८ ४९९-५०२ और भगवानका प्रश्नोत्तर | **** ७ असंयतों के उपपात -विषय में गौतम स्वामी और भगवान का प्रश्नोत्तर, तथा असंयतों के देवरूप में उपपात होने में भगवान द्वारा हेतु का कथन । ५०८-५१२ ८ अण्डुबद्धक- आदि के विषय में गौतम और भगवान का प्रश्नोत्तर । ५१३-५२० ९ प्रकृतिभद्रक - आदि के उपपात - विषय में गौतम और भगवान का प्रश्नोत्तर | ५०२-५०३ ५०४ ५०५-५०६ ५०७ ५२१-५२३ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ , .. विषय १० अन्तःपुरिका-आदि स्त्रियों के विषय में गौतम और भगवान का प्रश्नोत्तर। .... .... ५२४-५२८ ११ दकद्वितीय आदि मनुष्यों के उपपात के विपय में गौतम और भगवान का प्रश्नोत्तर। .... ... ... .... ५२८-५३१ १२ वानप्रस्थ-आदि तापसों के विषय में गौतम स्वामी और भग वान का प्रश्नोत्तर । .... ... .... ....५३२-५३६ १३ प्रवजित श्रमण के उपपात के विपय में गौतम स्वामी और भगवान का प्रश्नोत्तर। .... .... .... .... ५३६-५३८ १४ सांख्य-आदि परिव्राजको का और उनके भेद कर्ण-आदि ब्राह्मण परिवाज कों का और शीलधी-आदि क्षत्रिय परिव्राजकों का वर्णन । ५३९-५४१ १५ कर्ण-आदि और शीलधी-आदि का सकल-वेदादि-शास्त्र भिज्ञता का वर्णन। .... .. .... .... ५४१-५४३ १६ कर्ण-आदि और शीलधी-आदि परिवासकों के आचार का वर्णन । ५४३-५५६ १७ कर्ण-आदि और शीलधी-आदि परिव्राजकों की देवलोकस्थिति का वर्णन । ... ... ... ... .. ५५७-५५८ १८ अम्बड परिव्राजक के शिष्यों का विहार । .... .... ५५८-५६३ १९ अम्बड परिव्राज के शिष्यों का संस्तारक-ग्रहण । .... ५६३-५७३ २० अम्बड परिव्राजक के शिष्यों की देवलोकस्थिति का वर्णन!.... ५७३-५७४ २१ अम्बड परिव्राजक के विपय में भगवान और गौतम का संवाद। ६७४-६२५ २२ आचार्य, कुल और गण-आदि-विरोधी प्रवजित श्रमणों के विषय मे भगवान का कथन । .... ... ... ६२५-६२८ २३ जलचर आदि संज्ञि-पञ्चेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक-पर्याप्तक के विषय - में भगवान का कथन । ... .... ... ६२८-६३१ २४ द्विगृहान्तरिक-त्रिगृहान्तरिक-आदि आजीवक के विषय मे भगवान का कथन । .... .... ६३१-६३३ २५ आत्मोत्कर्पिक-परपरिवादिक आदि प्रव्रजित श्रमणों के विषय मे भगवान का कथन । ... ६३४-६३५ २६ बहुरत-आदि निहनवों के विषय में भगवान का कथन। .... ६३६-६४० २७ अल्पारम्भ-आदि मनुष्यों के विपय में भगवान का कथन । ... ६४०-६५४ २८ अनारम्भ-आदि मनुष्यों के विषय मे भगवान का कथन । .... ६५५-६५८ २९ ईर्यासमिति-आदि-युक्त साधुओं के विपम में भगवान का कथन । ६५८-६६३ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय पृष्ठ ३० सर्वकामविरत-आदि साधुओं के विषय में भगवान का कथन। ६६४-६६५ ३१ केवलिसमुद्धात के विषय में गौतम स्वामी और भगवान का प्रश्नोत्तर । .. ६६५-६९१ ३२ केवली के सिद्धिगति-प्राप्ति का क्रमनिरूपण । .... .... ६९१-६९७ ३३ सिद्धस्वरूपवर्णन । .... .. ... .... ६९८-७०० ३४ सिद्धों के साद्यपर्यवसितत्व-आदि का वर्णन । .. .... ७०१-७०२ ३५ सिद्धिगति पाने वालों के संहनन और संस्थान का वर्णन । .... ७०२-७०३ ३६ सिद्धिगति पाने वालों के उच्चत्व और आयु का वर्णन । .... ७०४-७०५ ३७ सिद्धों के निवासस्थान के विपय मे गौतमस्वामी और भगवान का प्रश्नोत्तर । ७०६-७११ ३८ ईपत्प्राग्भारा पृथिवी के स्वरूप का वर्णन । .... .... ७११-७१२ ३९ ईपत्प्राग्भारा पृथिवी के बारह नाम। .... ७१३ ४० ईपत्याग्भारा पृथिवी के स्वरूप का वर्णन । ... ...... ७१४-७१५ ४१ सिद्धस्वरूप-वर्णन। .... .... ७१६-७१७ ४२ शास्त्रोपसंहार । ... .... ... .... ७१८-७३७ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन यह मानव सामाजिक प्राणी है। समाज की सुव्यवस्था ही मानवजाति की उन्नति का मूल मन्त्र है। समाजकी सुव्यवस्था मानवजीवन की नैतिकता के अपर सुव्यवस्थित है । नैतिकता को अनुप्राणित करने वाला धर्म है। धर्मानुरूप नैतिकता ही मानव के ऐहिक और आमुष्मिक शुभ-दायिनी होती है। धर्म से ही मानव ऐहिक और पारलौकिक शुभ फलका अधिकारी होता है । इसी धर्मानुप्राणित नैतिकता के ऊपर मानवसमाजरूपी भित्ति सुव्यवस्थित है। परन्तु कालक्रम से उस में दुर्वलता आने लगती है। मानवसमाजरूपी भित्ति लर-खराने लगती है, 'अब गिरी-तब गिरी' जैसी दशा उपस्थित हो जाती है। ऐसी स्थिति में कोई एक महाप्राण महामानव का प्रादुर्भाव होता है, जो समाजमें धर्मानुरूप नैतिकता को सजग कर मानवको दुर्गति के गर्तमें पड़ने से बचाता है। हम जब आज से अढाई हजार वर्ष पूर्वकाल की ओर दृष्टि देते हैं तो उस समय की सामाजिक परिस्थिति बिलकुल अस्तव्यस्त दिखायी देती है । उस समय धर्मानुप्राणित नैतिकता विलुप्त सी होती जा रही थी। जिस के फलस्वरूप छोटी २ गुटबन्दी, नरसंहार, पशुहत्यायें -आदि की जड़ बलवती होती जा रही थी। ऐसे समय में महाप्राण महामानव भगवान् महावीर स्वामी का प्रादुर्भाव हुआ । भगवान् महावीर स्वामी ने मानवसमाज को सुव्यवस्थित करने के लिये आजीवन दुष्कर तपश्चरण किया, समाज को सुव्यवस्थित करने के लिये उन्होंने नियम बनाये, लोगोंमें धर्मानुरूप नैतिकता की वृद्धि के लिये आर्यावर्त में विहरण कर धर्मोपदेश दिया, 'जीवमात्र को सुख-शान्ति मिले' ऐसा सर्वोत्तम धर्मका प्रचार किया। । उनका धर्मोपदेश केवल मानव के लिये ही हितकारक नहीं, अपि तु जीवमात्र के लिये हितकारक था । उनका धर्मोपदेश त्रस-स्थावर जीवों में भ्रातृत्व-भावना का संचार करता था। उसी धर्मोपदेश की प्रतिध्वनि आज भी हमे सुनायी देती है खामेमि सचजीवे, सव्वे जीवा खमंतु मे। मित्ती मे सव्वभूएसु, वे मज्झ न केणई ॥ मैं सभी जीवों से क्षमा चाहता हूँ, सभी जीव मुझे क्षमा करें। मेरा सभी जीवों के साथ मैत्रीभाव है, किसी के भी साथ वैरभाव नहीं। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 भगवान् महावीर स्वामी ने जो उपदेश दिया वह भगवान् महावीर स्वामी और गौतम गणधर के संवादरूप में संगृहीत हुआ । इस संग्रहको 'आगम ' नाम से कहा जाता है । स्थानकवासी - मान्यता - अनुसार इस समय यत्तीस आगम उपलब्ध हैं, ११ अङ्ग, १२ उपान, ४ मूल, ४ छेद और १ आवश्यक । यह प्रस्तुत आगम उपान है और यह आचाराग का उपाङ्ग है । क्यों किआचाराङ्ग के प्रथम अध्ययन के प्रथम उद्देशक में कहा गया है-' एवमेगेसिं णो णायं भव-अत्थि मे आया ओववाइए, नत्थि मे आया ओववाइए, के अहं आसी ?, के वा इओ चुए इह पेच्चा भविस्सामि !' अर्थात्-कितनेक जीवों को यह ज्ञात नहीं होता है कि मेरी आत्मा औपपातिक है, या मेरी आत्मा औपपातिक नहीं है, मैं पूर्व मे कौन था ?, और फिर यहाँ से च्युत होकर क्या होऊँगा ? | वहाँ पर जो आत्माको औपपातिक कहा है, उसीका यहाँ पर विशद - रूप में प्रतिपादन किया गया है । इसीलिये इस आगमका नाम 'औपपातिक' रखा गया है । 'उपपात' शब्दका का अर्थ - देवजन्म, नारकजन्म और सिद्धिगमन है । ' उपपात' को लेकर बनाया गया सूत्र 'औपपातिक' कहलाता है । इस सूत्र में 'जीवोंका किन कर्मों के करने से नरक में जन्म होता है, किन कर्मों से देवलोक में जन्म होता है, और किस प्रकार कर्मक्षय करने से सिद्धिगति प्राप्त होती है । ' - इसका विस्तारपूर्वक प्रतिपादन होने से 'औपपातिक' यह नाम सार्थक है । इस औपपातिक सूत्रका प्रारम्भ - भाग वर्णनात्मक है । इस में नगर, चैत्य, वनषण्ड, राजा, रानी, साधु, देव, देवी, समवसरण, धर्मकथा - आदिका वर्णन बहुत सुन्दर ढंग से किया गया है । इसके अध्ययन से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि तात्कालिक भारत का सब से अधिक शक्तिशाली राजा कूणिक का भगवान महावीर स्वामीके प्रति कैसा अनन्य भक्तिभाव था । तभी तो उन्होंने अपने राज्यसंचाल विभाग में एक सा विभाग खोला था, जिसका अधिकारी और उसके हाथ के नीचे काम करने वाले अन्य हजारों कार्यकर भगवान के विहार का समाचार राजा के पास सर्वदा पहुँचाते रहते थे । राजा की ओर से उन्हें पूरी जीविका का प्रबन्ध था, और समय समय पर राजा पूर्ण रूप से पारितोषिक प्रदान कर उनका सत्कार भी करता था । जनसमुदायका भी भगवान के प्रति अनन्य भाव था, तभी तो भगवान के आगमनका समाचार पाते ही जनसमुदाय उनके दर्शन के लिये उमड़ पडता था । आबालवृद्ध स्त्रीपुरुष भगवान के दर्शन - निमित्त उद्यान में पहुँचते थे । भगवान उन्हे धर्मोपदेश देते थे, उसका प्रभाव यह पडता कि कितनेक सर्वविरति और कितनेक देशविरति होते थे, और कितनेक सुलभवोधि हो जाते थे । भगवान के बताये हुए उपदेशानुसार अपने जीवन को परिवर्त्तित Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर वे देश, समाज सभीका कल्याण करते थे, और अपने इहलोक और परलोक की सिद्धिको भी प्राप्त करते थे। ____ द्वितीय भाग में भगवान् गौतमस्वामी और भगवान् महावीरका प्रश्नोत्तररूप संवाद है। इस संवाद के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि किन कर्मों से जीव नरकगामी होते हैं, किन कर्मों से देवलोकगामी होते हैं, और कैसे सिद्धिगामी होते हैं। इस प्रकार यह सूत्र परमोपादेय है। वर्णन की दृष्टि से यह तो समस्त जैनागमों का वर्णनकोश ही है। क्यों कि अन्य आगमों में जहाँ कहीं भी नगर, चैत्य, राजा, रानी आदिका वर्णन आता है, वहाँ संक्षेप में ही आता है, और वहाँ 'औपपातिक सूत्र' से ही वर्णनात्मक सन्दर्भ लेनेके लिये निर्देश किया जाता है । इस दृष्टि से भी इसकी अत्यन्त उपादेयता है। सभी जीव सर्वदा यही चाहते हैं कि 'सर्वदा मे मुखं भूयाद दाखं माऽस्तु कदाचन' अर्थात्-मुझे सर्वदा सुख मिले, दुःख कभी भी नही मिले। सुख अहिसादि सत्कर्म से या आत्यन्तिक कर्मविमोक्ष से ही मिलता है, और दुःख हिसादि असत्कर्मों से मिलता है। नरकादिक दुख जिन कमों से मिलते हैं तथा देवलोकादिक सुख जिन कमों से मिलते हैं उन कर्मों का परिज्ञान इस शास्त्र के अध्ययन से होता है। नपरिज्ञा से सुखदायी और दुःखदायी कर्मों को जानकर जीव प्रत्याख्यानपरिज्ञा से दुःखदायी कर्मों को छोड़कर, आसेवनपरिक्षा से सुखदायी कर्मों का आसेवन करता है, और क्रमिक आत्मविशुद्धि से सिद्धिगामी होता है। इस दुष्टि से तो इसकी उपयोगिता अद्वितीय ही है। ऐसे अनुपम इस सूत्र की सर्वजनगम्य व्याख्या की नितान्त आवश्यकता थी। इस अभावको दूर करने के लिये पूज्य श्री १००८ घासीलालाजी म. सा. ने इस सूत्र की 'पीयूषवर्पिणी' नामक सरल संस्कृत व्याख्या रची है। जो साधारण संस्कृतज्ञों के लिये भी सुबोध है। हिन्दी और गुर्जर-भाषी जनताको इस सूत्रका अभिप्राय सरलतया ज्ञात हो, इसलिये इसका हिन्दी-गुर्जर अनुवाद भी किया गया है। इस प्रकार मूल, संस्कृत व्याख्या, हिन्दी और गुजराती अनुवाद-सहित यह 'औपपातिकसूत्र' मुद्रित हो कर आप शानप्रेमी महानुभावों के समक्ष प्रस्तुत है । आप इस के स्वाध्याय से अपने जीवन का चरम उत्कर्ष साधन कर इस दुर्लभ मानव जीवन को सफल करे, यही हमारी आन्तरिक भावना है । इति शम् । अहमदाबाद -मुनि कन्हैयालाल ता. २४-१०-५८. Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ઙા ૧૦,૦૦૦ આપના આદ્ય સુરક્ખીશ્રી, સમિતિના પ્રમુખ; દાનવીર શેઠશ્રી શેઠ શા તિલા લ t મગ ળ દા સ તા ઈ અ મ ા થા દ Page #12 --------------------------------------------------------------------------  Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ-રચિત “ સૂની ટીકા શ્રી–વધમાન-શ્રમણ-સંઘના આચાર્ય પૂજ્યશ્રી આત્મારામજી મહારાજશ્રીએ આ પેલ સમ્મતિ પત્ર તે મ જ અન્ય મહાત્માઓ, મહાસતીજીઓ, અદ્યતન-પદ્ધતિવાળા કોલેજના પ્રોફેસરે તે મ જ શાસ્ત્રજ્ઞ શ્રાવકના અભિપ્રા. કે ગ્રીન લેજ પાસે | ગરેડીયા કુવાડ રાજકેટ સૌરાષ્ટ્ર શ્રી અખિલ ભારત પે સ્થા જેને શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( श्री दशवैकालिकसूत्रका सम्मतिपत्र. ) ॥ श्रीवीरगौतमाय नमः ॥ वि स १९९० फाल्गुनशुक्रलयोदशी - मनले ( अलवर स्टेट) * सम्मति - पत्रम्. मए पडियमणि - हेमचंदेण य पडिय - मूलचन्दवास - चारा पत्ता पडियरयणमुणि- घासीलाले विरइया सकय-हिंदी-भाषाहि जुत्ता सिरि- दसवेयालिय-नामare आयरमणिमजूसा वित्ती अवलोइया, इमा मणोहरा अत्थि । एत्थ सहाण असत्तो अत्यो वणिओ, विजजणाण पाययजणाण य परमोवयारिया इसा चित्ती दीसह । आयारविसए वित्तीकत्तारेण अट्सयपुत्र उल्लेहो कडो, तहा अहिंसाए सरून जे जहा - तहा न जाणति तेर्सि इमाए वित्तीए परमलाही भविस्सर, कसुणा पत्तेयविसयाणं फुडरूवेण वाण कड, तहा मुणिणो अरहत्ता इमाए वित्तीए अवलोणाओ अयजुत्ता सिज्झइ । सक्यछाया सुत्तपयाण पयच्छेओय सुवोहदायगो अस्थि, पत्तेयजिण्णासुणो इमा वित्ती ददुव्वा । अम्हाण समाजे एरिसविज्ज-पुणिरयणाण सन्भाव समाजस्स अहोभग्ग अत्थि । किं १, उत्त विज्जमुणिरयणाण कारणाओ, जो अम्हाण समाजो मुत्तपाओ, अम्हकेर साहिच च लुतप्पाय अत्थि, तेसि पुणोवि उदओ भविस्स, जस्स कारंणाओं भवियप्पा मोक्खस्स जोग्गो भवित्ता पुणो नित्राण पाविहिs | अओह आयारमणि- मजूसाए कतुणो पुणो पुणो धन्नावा देमि - ॥ मह } -1 C इइ उवज्झाय- जरण-भ्रूणी आयारामो ( पचनईओ) Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमवेत्ता जैनधर्मदिवाकर उपाध्याय श्री १००८ श्री आत्मारामजी महाराज तथा न्याय व्याकरण के ज्ञाता परम-पण्डित मुनिश्री १००७ श्री हेमचद्रजी महाराज, इन दोनों महात्माओंका दिया हुआ श्री उपासकदशाह सूत्रका प्रमाणपत्र निम्न प्रकार है— सम्मइवत्तं सिरि-चीरनिव्वाण सवच्छर २४५८ आसोई (पुण्णमामी) १५ सुकवारो उहियाणाओ । मए मुणिहेमचदेण य पंडियरयणमुणिसिरि-यासीलालविणिम्मिया सिरि-उवासगत्तस्स अगारधम्मसजीवणी - नामिया नित्ती पडियमूलचन्द वासाओ अजोवत सुयासमीईण, इय वित्ती जहा णाम तहा गुणेवि धारेइ, सच्च, अगाराण तु इमा जीवण (मजमजीरण) दाई एव अथि । नित्तिकत्तणा मूलमुत्तरस्र भावो उजुसेलीओ फुडीकओ, भहय उवासयस्स सामण्णविसेसधम्मो, णयसियवाययाओ, कम्मपुरिस हवाओ, समणोवासयत्स धम्मदढत्ता य, इचाइविसया असि फुडरीइओ वणिया, जेण कतुणो पटिहाए सुट्टप्पयारेण परिचओ होड, तह इइहासदिट्टिओवि सिरिसमणस्स भगनओ महावीरस्स समए ऋमाण - भरहवासरस य कत्तुणा विसयप्पयारेण चित्त चित्तित, पुणो सक्यपाठीण, वट्टमाणकाले हिन्दीणामियाए भासाए भासीग य परमोवत्यारो कडो, उमेण कणो अरिहत्ता दीसह, कत्तुणो एय कज परमप्पमसणिज्जमत्थि । पत्तेयसत्यभान अस्स सुत्तस्स अवलोयणमईव लाप्पय, अवि उ सावयस्य उ इम सत्थ सञ्चरसमेव अस्थि, अओ कत्तुणो अणेगकोडीसो धन्नवाओ अत्थि, जेहिं अचतपरिस्समेण जइणजणतोवरि असीमोवयारो रुडो, अह य सावयस्य वारस नियमा उ पत्तेयजणस्स पढगिज्जा अथि, जेसिं पहायओ वा गहणाओ आया निव्वाणाहिगारी भवइ, तहा भवियन्व - यावाओ पुरिसकारपरक्कमवामो य अवरसमेव दसणिज्जो, किं बहुणा ! इमीसे वित्तीए पत्तेयविसयस्स फुडसदेहिं वणण कय, जइ अन्नोवि एव अम्हाण पसुतपाए समाजे विज्ज भवेज्जा तया नाणस्स चरित्तस्स तहा सघस्स य खिप्प उदओ भविस्सइ, एव ह मन्ने ॥ भवईओउवज्झाय - जइणमुणि- आयाराम- पंचनईओ, Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिपत्र " , त ( भाषान्तर ) ॥ श्रीनीरनिर्माण I २४५८ आसोज शुक्ला (पूर्णिमा) १५ शुक्रवार लुधियाना मैने और पंडितमुनि हेमचन्द्रजीने पंडितरत्नमुनिश्री घासीलालजीकी रची हुई उपासरुदगाग सूत्रकी गृहस्थधर्मजीवनी नामक टीका पडित मूलचन्द्रजी व्याससे आद्योपान्त सुनी है । यह वृत्ति यथानाम तथागुणवाली अच्छी बनी है । 'सच यह गृहस्थोंके तो जीवनदात्री - सयमरूप जीवनको देनेवाली ही है। टीकाकार ने मूलसूत्र के भाव का सरल रीति से वर्णन किया है, तथा श्रावक का सामान्य धर्म क्या है ? और विशेष धर्म क्या है? इसका खुलासा इस टीकामें अच्छे ढंग से T लाया है । स्याद्वाद स्वरूप कर्म - पुरुषार्थ - नाद और श्रावकको धर्मके अन्दर दृढ़ता किस प्रकार रखना, इत्यादि विषयोका निरूपण इसमे भलीभाँति किया है। इससे टीकाकारकी प्रतिभा खूब झलकती है । ऐतिहासिक दृष्टिसे श्रमण भगवान् महावीरके समय भारतवर्ष में जैनधर्म किस जाहोजलाली पर था ' इस विषयका तो ठीक चित्र ही चित्रित कर दिया है । फिर संस्कृत जाननेवालोको तथा हिंदीभाषा के जाननेवालोको भी पूरा लाभ होगा, क्योंकि टीका संस्कृत है उसकी सरल हिन्दी करदी गई है। इसके पढनेसे कती योग्यता पता लगता है कि वृत्तिकारने समझानेका कैसा अच्छा प्रयत्न किया है। टीकाकारका यह कार्य परम पासनीय है । इस मूत्रको मध्यस्थ भाव से tet eat परम लाभकी प्राप्ति होगी । क्या कहें भावको (गृहस्थी ) का तो यह सूत्र सर्वत्र ही है, अत टीकाकारको कोटिश धन्यवाद दिया जाता है, जिन्होंने अत्यन्त परिश्रम से जैन - जनताके ऊपर असीम उपकार किया है। इसमे श्रावकके रह नियम प्रत्येक स्त्री-पुरुष के पहने योग्य हैं, जिनके प्रभाव से अथवा यथायोग्य 1 - 4 ग्रहण करनेसे आत्मा मोक्षका अधिकारी होता है। तथा भवितव्यतावाद और 1 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JwงเPloyeezy! J Uะเu y\UกงPig วันที่ કા ૬,૦૦૦ આપનાર આધ મુબીશ્રી 14-02-05 : ก ดีใจ Mthai-fiel ด.- 6-542 - 454 คดีคนใกก (વ) શેઠ હરખચંદ કાલીદાસ વારીયા ભા ણ ૧ ૩ -4888 เสียใจ Page #18 --------------------------------------------------------------------------  Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरुषकारपराक्रमवाद हर एकको अवश्य देखना चाहिये। कहां तक कहें, इसटी कामे प्रत्येक विषय सम्यक् प्रकार से बताये गये है । हमारी सुप्तमाय ( सोई हुईसी) समाजमे अगर आप जैसे योग्य विद्वान फिर भी कोई होगे तो ज्ञान, चारित्र तथा श्रीसका शीघ्र उदय होगा, ऐसा मैं मानता हूँ आपका उपाध्याय जैनमुनि आत्माराम पंजाबी. + इसी प्रकार लाहोर में विराजते हुए पण्डितवर्य विद्वान मुनिश्री १००८ श्री भागचन्दजी महाराज तथा प. मुनिश्री त्रिलोकचन्दजी महाराजके दिये हुए, श्री उपासकदशाङ्ग मूत्रके प्रमाणपत्रका हिन्दी सारांश निम्न प्रकार है 1 श्री श्री स्वामी घासीलालजी महाराज - कृत श्री उपासादशाह सूत्रकी संस्कृत टीका न भाषाका अवलोकन किया, यह टीका अतिरमणीय व मनोरन्जक है, उसे आपने बडे परिश्रम व पुरुषार्थ से तैयार किया है सो आप धन्यवाद के पात्र । आप जैसे व्यक्तियोकी समाजमे पूर्ण आवश्यकता है। आपकी इस लेग्वनीसे समाजके विद्वान् साधुवर्ग पढकर पूर्ण लाभ उठायेंगे, टीकाके पढनेसे हमको अत्यानन्द हुवा, ओर मनमे ऐसे विचार उत्पन्न हुए कि हमारी समाजमें भी ऐसे २ सुयोग्य रत्न उत्पन्न होने लगे- यह एक हमारे लिये बडे गौरवकी बात है । वि. स. १९८९ मा. आश्विन कृष्णा १३ वार भौम लाहोर. Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -ज्ञाताधर्मस्थान सून की, 'अनगारधर्माऽमृतरर्पिणी टीका पर, र , जैतदिवाकर, साहित्यरत्त जैनागमरनाकर, परमपूज्य श्रद्धेय : TE , जैनाचार्य श्री, आत्मारामजी महाराजा E TIF सम्मतिपन्न !,' PERITTE लुधियाना, ता. ४-८-५१. मैने आचार्यश्री, घासीलालजी म. द्वारा निर्मित नगारधर्माऽमृत-वर्पिणी' टीका वाले श्री ज्ञाताधर्मकथा सूत्रका मुनि श्री रत्नचन्द्रजीसे आद्योपान्त श्रपण किया। यह नि सन्देह कहना पडता है कि यह टीका आचार्यश्री घासीलालजी म ने बडे परिश्रम से लिखी है । इसमें प्रत्येक शब्दका प्रामाणिक अर्थ और कठिन स्थलों पर सारपूर्ण विवेचन आदि कई एक विशेषतायें है । मूल स्थलोको सरल बनानेमे काफी प्रयत्न किया गया है, इससे साधारण तथा असाधारण सभा सस्कृतज पाठकों को लाभ होगा, ऐसा मेरा विचार हैं। . - HTTERT IITFITTE ___मै स्वाध्यायप्रेमी सज्जनों से यह आशा करुगा कि वे 'वृत्तिकारक परिश्रम को सफल बनाकर शास्त्रमें दीगई अनमोल शिक्षाओं से अपने जीवनको शिक्षित करते हुए परमसाध्य मोक्षको प्राप्त करेगे । म ' Fr[ RIPTIPE श्रीमान्जी जयवीर ' आपकी सेवामे पोष्ट-द्वारा पुस्तक मेज रहे है और इसपर आचार्य श्रीजी की जो सम्मति है वह इस पत्रके साथ भेज रहे है, पहुँचने पर समाचार देवे ।। "," " . श्री आचार्यश्री आत्मारामजी म. ठाने ६ सुसाशान्तिसे: विराजते है । पूज्य श्री “घासीलालजी मसा. ठाने ४ को हमारी ओरसे बन्दना' अर्जकर सुखशाता पूछे । - पूज्य श्री घासीलालजी' म जी का लिखा हुआ विपाकसूत्र महाराजश्राजी देखना चाहते है, इसलिये १ कापी आप भेजने की कृपा करें, फिर आपको वापिस भेज देवेगे। आपके पास नहीं हो तो जहा से मिले वहासे १ कापी जरूर भिजवाने का कष्ट करे, उत्तर जल्द देनेकी कृपा करें । योग्य सेवा लिराते रहे। युधियाना ता ४-८-५१ निवेदक" प्यारेलाल जैन Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमारिधि - जैनधर्मदिवाकर - उपाध्याय - पण्डित – मुनि श्रीआत्मारामजी महाराज (पनान)का आचाराद्गमूत्र की" आचारचिन्तामणि टीका पर सम्मति-पत्र । मैने पूज्य आचार्यवर्य श्रीघासीलालजी (महाराज)की बनाई हुई श्रीमद् आचाराहस्त्र के प्रथम अध्ययन की आचारचिन्तामणि टीका सम्पूर्ण उपयोगपूर्वक सुनी। यह टीका-न्याय सिद्धान्त से युक्त व्याकरण के नियम से निबद्ध है। तथा इसमे प्रसंग २ पर क्रम से अन्य सिद्धान्त का संग्रह भी उचित रूप से मालूम होता है। टीकाकारने अन्य सभी विपय सम्यक् प्रकार से स्पष्ट किये है, तथा मौढ विषयों का विशेपरूप से सस्कृत भाषा में स्पष्टतापूर्वक प्रतिपादन अधिक मनोरंजक है, एतदर्थ आचार्य महोदय धन्यवाद के पात्र है। ." में आशा करता हूँ कि-जिज्ञासु महोदय इसका भलीभाति पठन द्वारा जैनागम-सिद्धान्तरूप अमृत पी-पी कर मन को हर्पित करेंगे, और इसके मनन से दक्ष जन चार अनुयोगों का स्वरूपज्ञान पायेंगे। तथा आचार्यवर्य इसी प्रकार दसरे भी जैनागमों के विशद विवेचन द्वारा श्वेताम्बर स्थानकवासी समाज पर महान उपकार कर यशस्वी बनेंगे। वि स २००२ । जैनमुनि-उपाध्याय आत्माराम मृगगर सुदि १ लुधियाना (पजाब) ।। 1. T i - * - शुभमस्तु । वीकानेरपाला समाजभूपण शास्त्रज्ञ भेरुदानजी शेठिआका अभिमाय . "आप जो शास्त्रका कार्य कर रहे है' यह बडा उपकारका कार्य है । इससे जैनर्जनता को काफी लाभ पहुंचेगा. ', ' (ता २८-३-५६ का पत्र में से) Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री ॥ जैनागमवारिधि- जैनधर्मदिवाकर-- जैनाचार्य-पूज्य-श्री आत्मारामजीमहाराजाना पञ्चनद-(पजाम )स्थानामनुत्तरोपपातिकमूत्राणा मर्थवोधिनीनामकटीकायामिदम् सम्मतिपत्रम्. आचार्यवर्थे श्री घासीलालमुनिभि सङ्कलिताअनुत्तरोपपातिकमूत्राणामर्थबोधिनीनानी संस्कृतवृत्तिरुपयोगपूर्वक सकलाऽपि स्वशिष्यमुखेनाऽश्रावि मया, इयं हि वृत्तिर्मुनिवरस्य वैदुष्य प्रकटयति । श्रीमद्भिर्मुनिभि सूत्राणामर्थान् स्पष्टयितु य प्रयत्नो व्यधायि तदर्थमनेकशो धन्यवादानहन्ति ते । यथा चेय वृत्ति सरला सुबोधिनी च तथा सारवत्यपि । अस्या स्वाध्यायेन निर्वाणपदमभीसुभिर्निर्वाणपदमनुसरद्भिर्ज्ञान-दर्शन-चारित्रेषु प्रयतमानर्मुनिभि श्रावकैश्च ज्ञानदर्शनचारित्राणि सम्यक् सम्प्राप्याऽन्येऽप्यात्मानस्तत्र प्रवर्तयिष्यन्ते । 'आशासे श्रीमदाशुकविर्मुनिवरो गीर्वाणवाणीजुपा विदुषा मनस्तोपाय जैनागमसूत्राणा सारावबोधाय च अन्येषामपि जैनागमानामित्थ सरला सुस्पष्टाश्च वृत्तीविधाय तास्तान सूत्रग्रन्थान् देवगिरा मुस्पष्टयिष्यति। अन्ते च "मुनिवरस्य परिश्रम सफलयितु सरला सुबोधिनी चेमा सूत्रवृत्ति स्वाध्यायेन सनायिष्यन्त्यवश्य सुयोग्या हसनिभा पाठका ।" इत्याशास्ते---- विक्रमाब्द २००२ श्रावणकृष्णा प्रतिपदा लुधियाना. उपाध्याय आत्मारामो जैनमुनि । ऐसेही - मध्यभारत सैलाना-निवासी श्रीमान् रतनलालजी डोसी श्रमणोपासक जैन लिखते हैं कि - श्रीमान की की हुई टीकावाला उपासकदशाग सेवक के दृष्टिगव हुवा, सेवक अभी उसका मनन कर रहा है। यह ग्रन्थ सर्वाग-मुन्दर एवम् उच्चकोटि का उपकारक है। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ የ निरयावल्का मूत्रका आगमवारिधि-सर्वतन्त्रस्वतन्त्र - जैनाचार्य-पूज्यश्री आत्मारामजी महाराजकी तरफ का आया हुवा सम्मतपत्र लुधियाना ता ११ नवम्बर ४८ श्रीयुत गुलानचन्दजी पानाचदजी ! सादर जय जिनेन्द्र | पत्र आपका मिला । निरयानलिका विषय पूज्यश्रीजीका स्वास्थ्य ठीक न होने से उनके शिष्य प. श्री हेमचन्द्रजी महाराजने सम्मतिपत्र लिख दिया है, आपको भेज रहे है | कृपया एक कौपी निरयावलिका की और भेज दीजिये और कोई योग्य सेवा - कार्य लिखते रहें । भवदीय. गुजरमल-चलवतराय जैन ॥ सम्मतिः ॥ (लेखक जैनमुनि प श्री हेमचन्द्रजी महाराज ) सुन्दरोधिनीटीकया समलङ्कृतं हिन्दी - गुर्जर भापानुवादसहितं च श्रीनिरयावलिका मेधाविनामल्पमेधसा चोपकारक भविष्यतीति सुदृढ मेऽभिमतम्, सस्कृतटीय सरला सुधा सुललिता चात एव अन्वर्थनाम्नी चाप्यस्ति । सुविशदत्वात् सुगमत्वात् प्रत्येक दुर्योधपदव्याख्यायुतत्वाच्च टीकैपा संस्कृतसाधारणज्ञानवतामप्युपयोगिनी भाविनीत्यभिमैमि । हिन्दी - गुर्जर भापानुवादावपि एतद्भापाविज्ञाना महीयसे लाभाय भवेतामिति सम्यक् सभावयामि । जैनाचार्य - जैनधर्म दिवाकर पूज्यश्री - घासीलालजी - महाराजाना परिश्रमोऽय प्रशसनीयो, धन्यवादाश्च ते मुनिसत्तमाः । एवमेव श्रीसमीरमलजी - श्रीकन्हैयालालजी - मुनिवरेण्ययोर्नियोजनकार्यमपि श्लाघ्य, तावपि च मुनिवरौ धन्यवादा स्वः । } 'सुन्दरमस्तावनाविषयानुक्रमादिना समलङ्कृते सूत्ररत्नेऽस्मिन् यदि शब्दकोपोऽपि दत्तः स्यात्तर्हि वरतर स्यात् । यतोऽस्यावश्यकता सर्वेऽप्यन्वेषक विद्वासोऽनुभवन्ति । पाठकाः सफलयिष्यन्तीत्याशास्महे । इति । सूत्रस्यास्याध्ययनाध्यापनेन लेखकनियोजकमहोदयाना परिश्रम Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री उपासकदशाह सूत्र पर जैनसमाज के अप्रगण्य पैनधर्मभूषण महान विद्वान सतो एव विद्वान धावकोने सम्मति भेजी है, उन के नाम निम्न लिखित हैं। (१) लुधियाना-सम्वत् १९८९, आश्विन पूर्णिमा का पत्र, श्रुतज्ञान के भडार आगम रत्नाकर जैनधर्मदिवाकर श्री १००८ श्री उपाध्याय श्री आत्मारामजी महाराज, तथा न्यायव्याकरणवेत्ता श्री १००७ तच्छिष्य श्री मुनि हेमचन्द्रजी महाराज (२) लाहौर-वि० स० १९८९ आश्विन वदि १३ का पत्र, पण्डित रत्न श्री १००८ श्री भागचन्दजी महाराज तथा तच्छिष्य पण्डितरत्न श्री १००७ श्री त्रिलोकचदजी महाराज . (३) खीचन से ता ९-११-३६ का पत्र, क्रियापात्र स्थविर श्री १००८ श्री मारतरत्न श्री समरथमलजी महाराज (४) बालाचोर-ता १४-११-३६ का पत्र, परम प्रसिद्ध भारतरत्न श्री १००८ श्री शतावधानीजी श्री रतनचन्दजी महाराज (५) बम्बई-ता १६-११-३६ का पत्र, प्रसिद्ध कवीन्द्र श्री १००८ श्री कवि नान चन्द्रजी महाराज (६) आगरा-ता १८-११-३६, जगद्-वल्लभ श्री १००८ श्री जैनदिवाकर श्री चौथमलजी महाराज, गुणवन्त गणीजी श्री १००७ श्रीसाहित्यप्रेमी प्याग्चन्दजी महाराज (७) हैद्राबाद (दक्षिण) ता २५-११-३६ का पत्र, स्थविरपदभूषित भाग्यवान पुरुष ' "श्री ताराचन्दजी महाराज तथा प्रसिद्ध वक्ता श्री १००७ श्री सोभागमलजी महाराज (८) जयपुर-ता २६-११-३६ का पत्र, संप्रदाय के गौरववर्धक शातत्वभावी श्री १००८ श्री पूज्य श्री खूनचन्दजी महाराज 18) माला-ता २९-११-३६ का पत्र, परम प्रतापी पजाब केसरी श्री १००८ श्री पूज्य श्री काशीरामजी महाराज Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) सेलाना-ता २९-११-३६ का पत्र, शास्त्रों के ज्ञाता श्रीमान् रतनलालजी ढोमी (११) खीचन-ता ९-११-३६ का पत्र, पडितरत्न न्यायतीर्थ मुश्रावक श्रीयुत् माधवलालजी ' ता २५-११-३६ सादर जय जिनेन्द्र आपका मेजा हुवा उपासफदशाग मूत्र तया पत्र मिला । यहाँ विराजित प्रवर्तक वयोटद्ध श्री १००८ श्री ताराचदजी महाराज पण्डित श्री किशनलालजी महाराज आदि ठाणा १४ मुखशाति में विराजमान हैं । आपके वहा विराजित जैनशासाचार्य पूज्यपाद श्री १००८ श्री घासीलाळजी महाराज आदि ठाणा नव से हमारी वन्दना अर्ज कर मुखशाति पूछे। आपने उपासकदशाग मूत्र के विपय मे यहा विराजित मुनिवरों की सम्मति मगाई उसके पिपय में वक्ता श्री सोमागमलजी महाराज ने फरमाया है कि वर्तमान में स्थानकवासी समाज में अनेकानेक विद्वान मुनि महाराज मौजूद हैं मगर जैनशास्त्र की वृत्ति रचने का साहस जैसा घासीलालजी महाराज ने किया है वैसा अन्य ने किया हो ऐसा नजर नहीं आता। दूसरा यह शास्त्र अत्यन्त उपयोगी तो यों है कि संस्कृत माकृत हिन्दी और गुजराती भापा होने से चारों भाषा वाले एक ही पुस्तक से लाभ उठा सकते हैं । जैन समाज मे ऐसे विद्वानों का गौरव बढे यही शुभ कामना है। आशा है कि स्थानकवासी सघ विद्वानों की कदर करना सीखेगा। योग्य लिखें, शेप शुभ। भवदीय . जमनालाल रामलाल कीमती आगरा से: श्री जैनदिवाकर प्रसिद्धवक्ता जगवल्लभ मुनि श्री चोथमलजी महाराज व पडितरत्न सुव्याख्यानी गणीजी श्री प्यारचन्द जी महाराज ने इस पुस्तक को अतीव पसन्द की है। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ श्रीमान् न्यायतीर्थ पण्डित . .. ... . ' - 1 माधवलालजी खीचन से लिखते हैं कि:उन पंडितरत्न महाभाग्यवत पुरुषों के सामने उनकी अगाधतचगवेषणा के विषय मे-मैं नगण्य क्या सम्मति दे सकता है। परन्तु : हगिरी मेरे दो मित्रों ने जिन्होंने इसको कुछ पढा है बहुत सराहना की है। वास्तव मे ऐसे उत्तम व सबके समझाने योग्य; अन्यों की बहुत आवश्यकता है और इस समाज का तो ऐसे ग्रन्थ ही गौरव बढ़ा सकते है-ये दोनों अन्य वास्तव में अनु“पम हैं ऐसे ग्रन्यरत्नों के समकाश से यह समाज अमावास्या के. घोर अन्धकार 'में दीपावली का अनुभव करती हुई महावीर के अमूल्य, वचनों का पान करती पहुई अपनी उन्नति में अग्रसर होती रहेगी।- Fr T ... । ता २९-१:१-३६ . अम्बाला (पजाब) पत्र आपका मिला। श्री श्री १००८ , पजाब केसरी पूज्य श्री काशीरामजी महाराज की सेवा में पढ कर सुना दिया। आपकी भेजी हुई उपासकदशाङ्ग सूत्र तथा गृहिधर्मकल्पतरु की एकएक प्रति भी प्राप्त हुई। दोनो पुस्तकें अति उपयोगी तथा अत्यधिक परिश्रम से लिखी हुद है, ऐसे ग्रन्थरत्नों के प्रमाशित करवाने की बड़ी आरश्यकता है। इन पुस्तकों से जैन तथा अजैन सवका उपकार हो सकता है। आपका यह पुरुषार्थ सराहनीय है। आपका • शाशिभूपण शास्त्री - अध्यापक, जैन हाई स्कूल अम्बाला शहर. - Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ બિeeeeeeeeSeeSeeeeeeeea ૩ ૫,૫૧ આપનાર આદ્ય મુરબ્બીશ્રી, - - - - - පළවළළමළS છે ક ન લા લ ભા વ સાર શા મ ી દા સ અ મ દ વા દ hadhilila living India hulriri haritri"li Nandi'livil Tirt a R Page #28 --------------------------------------------------------------------------  Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भातस्यभागी गम्यमूर्ति तस्ववारिधि धैर्यवान श्री जैनाचार्य पूज्यवर श्री श्री १००८ श्री ननन्दजी महाराज सायने मूत्र श्री उपासकदशागनी को देखा । आपने फरमाया कि पण्डित मुनि घामीलालजी महाराज ने उपासमदशाग सूनको टीका लिम्बने में वटा ही परिश्रम किया है । इस समय हम प्रकार प्रयेक मूोकी मशोधनपूर्वक सरल टीका और शुद्ध हिन्दी अनुवाद होने से भगवान निर्गन्धों के प्रवचनों के अपूर्व रस का लाम मिल सफता है वालाचोर से भारतरत्न शतावधानी पडित मुनि श्री १००८ श्री रतनचन्दजी महाराज फरमाते है कि - उत्तरोत्तर जोता मूल सूननी मस्कृत टीकाओ रचवामा टीकाकारे स्तुत्य प्रयास कयों छे, ने स्थानकवासी समाज माटे मगरूरी लेना जेवु छे, चलो कराचीना श्री सवे सारा कागलमा अने सारा टाइपमा पुस्तक उपावी प्रगट कयु छे, जे एक प्रकारनी साहित्यसेना वजावी छे बम्बई अहेर में विराजमान करि मुनि श्री नानचन्द जी महागजने फरमाया है कि पुस्तक सुन्दर हे, प्रयास अच्छा है। खीचन से स्थविर क्रियापार मुनि श्री रतनचन्दजी महाराज और पडितरत्न मुनि समरयमलजी महाराज फरमाते हैं कि-विद्वान महात्मा पुरपोका प्रयत्न सराहनीय है। जैनागम श्रीमद् उपासकदशाङ्ग सत्र की टोका, एव उसकी सरल सुबोधनी शुद्ध हिन्दी भाषा बटी ही सुदरता से लिखी है। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ श्री वीतरागाय नमः ॥ ' श्री श्री श्री १००८ जैनधर्मदिवाकर जैनागमरत्नाकर श्रीमज्जैनाचार्य श्री पूज्य घासीलालजी महाराज 'चरणवर्दन स्वीकार हो। । अपरञ्च-समाचार यह है कि आपके भेजे हुए ९ शास्त्र मास्टर शोभालालजी के द्वारा प्राप्त हुए, एतदर्थ धन्यवाद ! आपश्रीजीने तो ऐसा कार्य किया है जो कि हजारों वर्षों से किसी भी स्थानकवासी जैनाचार्य ने नहीं किया। आपने स्थानकवासी जैनसमाज के ऊपर जो उपकार किया है वह कदापि भुलाया नहीं जा सकता और नहीं भुलाया जा सकेगा। ____ हम तीनों मुनि भगवान महावीर से अथवा शासनदेव से प्रार्थना करते हैं कि आपकी इस वज्रमयी लेखनी को उत्तरोत्तर शक्ति प्रदान करें ता कि आप जैनसमाज के ऊपर और भी उपकार करते रहे, और आप चिरञ्जीव हो । .. हम हैं आप के मुनि तीन डदेपुर _ मुनि सत्येन्द्रदेव-मुनि लखपतराय-मुनि पद्मसेन इतवारा बाजार नागपुर ता १९-१२-५६ प्रखर विद्वान जैनाचार्य मुनिराज श्री घासीलालजी महाराज-द्वारा जो आगमोद्धार हुआ और हो रहा है सचमुच महाराजश्री का यह स्तुत्य कार्य है । हमने प्रचारकजी के द्वारा नौ सूत्रों का सेट देखा और कई मार्मिक स्थलोको पढा, पढकर विद्वान मुनिराजश्री की शुद्ध श्रद्धा तथा लेग्वनीके प्रति हार्दिक प्रसन्नता फूट पड़ी। वास्तव में मुनिराजश्री जैनसमाज पर ही नहीं, इतर समाज पर भी महा उपकार कर रहे हैं । ज्ञान किसी एक समाज का नहीं होता है, वह सभी समाज की अनमोल निधि है, जिसे कठिन परिश्रम से तैयार कर जनता के सम्मुख रक्खा जा रहा है, जिसका एक एक सेट हर शहर गाव और घरघर में होना आवश्यक है। साहित्यरत्न मोहनमुनि सोहनमुनि जैन Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 । ૧૫ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રનું સમ્મતિપત્ર, શ્રમણમ ધના મહાન આચાય . આગમવારિધિ સતન્ત્ર સ્વતંત્ર જૈનાચાય પૂજ્યશ્રી આત્મારામજી મહારાજે આપેલા સમ્મતિપત્રને ગુજરાતી અનુવાદ મે તથા પતિ મુનિ હેમચન્દ્રજીએ પડિત મુલચ છ વ્યાસ-નાગૌર મારવાડ વાળા દ્વારા મળેલી પરિત્ન શ્રી ધામીલાલજીમુનિ વિરચિત સંસ્કૃત અને હિન્દી ભાષા સહિત શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રની આચારમણિમ જૂષા ટીકાનુ અવલેાકન કર્યું આ ટીકા સુદર ખની છે. તેમા પ્રત્યેક શબ્દને અથ સારી રીતે વિશેષ ભાવ લઈ ને સમજાવવામા આવેલ છે તેથી વિદ્યાનેા અને સાધારણ બુદ્ધિવાળા માટે આ ટીકા પરમ ઉપકાર કરવાવાળી છે ટીકાકારે મુનિના આચાર વિષયના સારા ઉલ્લેખ કરેલ છે, જે અહિંસાના સ્વરૂપને યથારૂપથી નથી જાણુતા, તેમને માટે અહિંસા શુ વસ્તુ છે ?' તેનુ સારી રીતે પ્રતિપાદન કરેલ છે વૃત્તિકારે સૂત્રના પ્રત્યેક વિષયને સારી રીતે મમાવેલ છે. આ વૃત્તિના અવલેાકનવી વૃત્તિકારની અતિશય ચેાગ્યતા સિદ્ધ થાય છે આવૃત્તિમા એક બીજી વિશેષતા એ છે કે મૂલસૂત્રની સ કૃતછાયા હોવાથી સૂત્ર, સૂત્રના પદ અને પદચ્છેદ સુમેધદાયક અનેલ છે પ્રત્યેક જીજ્ઞાસુએ આ ટીકાનુ અવલેાકન અવશ્ય કરવુ જોઈએ વધારે શુ કહેવુ ?, અમારા સમાજમા આવા પ્રકારના વિદ્વાન મુનિરત્નનુ હાવુ એ સમાજનુ અહાભાગ્ય છે અદ્યતન સુપ્તપ્રાય-સુતેàા મમાજ અને લુપ્તપ્રાય એટલે લેાપ પામેલુ સાહિત્ય એ બન્નેને આવા વિદ્વાન મુનિરત્નેાના કારણે ફરીથી ઉદય થશે જેનાથી ભાવિતાત્મા મેાક્ષને ચેાગ્ય બનશે અને નિર્વાણુ પદને પામશે. આ માટે અમે વૃત્તિકારને વારવાર ધન્યવાદ આપીએ છીએ : વિક્રમ સ વત ૧૯૯૦ ફાલ્ગુન શુકલ તેર મગળવાર ( અલવર સ્ટેટ ) તિ ** ઉપાધ્યાય જૈનમુનિ આત્મારામ પંચનદીય Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ લીબડી સંપ્રદાયના સદાનદી મુનિશ્રી છોટાલાલજી મહારાજને અભિપ્રાય શ્રી વીતરાગદેવે, જ્ઞાનપ્રચારને તીર્થંકરના ગોત્ર બાધવાનું નિમિત્ત કહેલ છે જ્ઞાનપ્રચાર કરનાર, કરવામાં સહાય કરનાર અને તેને અનુદાન આપનાર જ્ઞાનાવરણીય કર્મને લય કરી, કેવળ જ્ઞાનને પ્રાપ્ત કરી પરમપદના અધિકારી બને છે શાસ્ત્રજ્ઞ, પરમશાન્ત અને અપ્રમાદી પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ પોતે અવિશ્રાન્તપણે જ્ઞાનની ઉપાસના અને તેની પ્રભાવના અનેક વિકટ પ્રસ ગેમાં પણ કરી રહ્યા છે તે માટે તેઓશ્રી અનેકશિ ધન્યવાદના અધિકારી છે, વદનીય છે તેમની જ્ઞાનપ્રભાવનાની ધગશ ઘણા પ્રમાદિઓને અનુકરણીય છે જેમ પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ પિતે જ્ઞાનપ્રચાર માટે અવિશ્રાન્ત પ્રયત્ન કરે છે તેમજશાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિના કાર્યવાહકે પણ એમાં સહાય કરીને જે પવિત્ર સેવા કરી રહેલ છે તે પણ ખરેખર ધન્યવાદના પૂર્ણ અધિકારી છે એ સમિતિના કાર્યકરોને મારી એક સૂચના છે કે – શાસ્ત્રોદ્ધારક પ્રવર પડિત અપ્રમાદી સ ત ઘાસીલાલજી મહારાજ જે શાસ્ત્રોદ્ધારનું કામ કરી રહેલ છે, તેમાં સહાય કરવા માટે-પડિતે વિગેરેના માટે જે ખર્ચો થઈ રહેલ છે તેને પહેચી વળવા માટે સારૂ-સરખુ ફડ જોઈએ એના માટે મારી એ સૂચના છે કે – શાસ્ત્રોદ્ધારસમિતિના મુખ્ય કાર્યવાહકે, જે બની શકે તે પ્રમુખ પિતે અને બીજા બે ત્રણ જણાએ, ગુજરાત, નૌરાષ્ટ્ર અને કચ્છમાં પ્રવાસ કરી મેમ્બરે બનાવે અને આર્થિક સહાય મેળવે જે કે અત્યારની પરિસ્થિતિ વિષમ છે વ્યાપારીઓ, ધ ધાદારીઓને પોતાના વ્યવહાર સાચવવા પણ મુશ્કેલ બન્યા છે છતા જે સભાવિત ગૃહ પ્રવાસે નીકળે તો જરૂર કાર્ય સફળ કરે એવી મને શ્રદ્ધા છે આર્થિક અનુકૂળતા થવાથી શાસ્ત્રોદ્ધારનું કામ પણ વધુ સરલતાથી થઈ શકે પૂજ્યશ્રી શામીલાલજી મહારાજ જ્યા સુધી આ તરફ વિચરે છે ત્યા સુધીમાં એમની જ્ઞાનશકિતને જેટલો લાભ લેવાય તેટલો લઈ લે કદાચ સૌરાષ્ટ્રમાં વધુ વખત રહેવાથી તેમને હવે બહાર વિહરવાની ઈચ્છા થતી હોય તે શાન્તિભાઈ શેઠ જેવાએ અમદાવાદ પધરાવવા માટે વિનતી કરવી, અને ત્યાં અનુકૂળતા મુજબ બે-ત્રણ વર્ષની સ્થિરતા કરાવીને તેમની પાસે શાસ્ત્રોદ્ધારનું કામ પૂર્ણ કરાવી લેવું જોઈએ છેડા વખતમાં જામજોધપુરમાં શાસોદ્ધાર કમિટી મળવાની છે તે વખતે ઉપરની સૂચના વિચારાય તે ઠીક Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૯ કરી શાસ્ત્રો દ્વાચ્છ પૂજ્ય ઘામલાલજી મહારાજને એમની આ સેવા અને પરમ કલ્યાણકારક પ્રવૃત્તિને માટે વાવાર અભિન દન છે શાસનનાયક દેવ તેમના શરીરાદિને સશક્ત અને દીર્ધાયુ છે જેથી તેઓ સમાજ ધર્મની વધુ ને વધુ સેવા કરી શકે ૐ અસ્તુ ચાતુર્માસ સ્થળ લી બડી કે મ ૨૦૧૦ શ્રાવણ વદ ૧૩ ગુરુ દાન દી રેનમુનિ છોટાલાલજી શ્રીવધમાન સંપ્રદાયના પૂજ્યશ્રી પૂનમચંદ્રજી મહારાજને અભિપ્રાય શાઅવિશારદ પૂજ્ય આચાર્ય મહારાજ શ્રી ઘામલાલજી મહારાજશ્રીએ જૈનઆગ ઉપર જે સસ્કૃત ટીકા વગેરે રચેલ છે તે માટે તેઓશ્રી ધન્યવાદને પાત્ર છે તેમાં આગ ઉપગ્ની વતત્ર ટીકા રચીને થાનકવાસી જૈન સમાજનું ગૌરવ વધાર્યું કે આગમ ઉપગ્ની તેમની સાસ્કૃતીક, ભાષા અને ભાવની દષ્ટિએ ઘણુંજ સુદર છે સસ્કૃતરચના માધુર્ય તેમજ અલ કાર વગેરે ગુણોથી યુક્ત છે. વિદ્યાનેએ તેમજ જેનસમાજના આચાર્યો, ઉપાધ્યાયે વગેરેએ શાસ્ત્રી ઉપર રચેલી આ અમૃતરચનાની કદર કરવી જોઈએ, અને દરેક પ્રકારને સહકાર આપવો જોઈએ આવા મહાન કાર્યમાં પડિતરત્ન પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ જે પ્રયત્ન કરી રહ્યા છે તે અલૌકિક છે તેમનુ આગમ ઉપરની સમસ્કૃત ટીકા વગેરે ચવાનું ભગીરથ કાર્ય શીધ્ર સફળ થાય એ શુભેછા સાથે અમદાવાદ તા ૨૨-૪-૫૬ રવિવાર, મુનિ પૂર્ણચંદ્રજી મહાવીર જય તી ખ ભાત સપ્રદાયના મહાસતીજી શારદાબાઈ સ્વામીને અભિપ્રાય લખતર તા ૦૫–૪–૫૬ શ્રીમાન શેઠ શાતીલાલભાઈ મગળદાસભાઈ પ્રમુખ સાહેબ, અખિલ ભારત એ સ્થા જૈનશાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ મુ અમદાવાદ અમે અત્રે દેવગુની કૃપાએ સુખરૂપ છીએ વિ.મા આપની સમિતિ–દ્વારા પૂજ્ય આચાર્ય મહારાજ શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ સાહેબ જે સૂત્રોનું કાર્ય કરે છે તે પછીના સૂત્રોમાંથી ઉપાસદશાગ સૂત્ર, આચારાગ સૂત્ર અનુત્તરપાતિક સૂત્ર, Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દશવૈકાલિક સૂર વિગેરે સૂત્રે જોયા તે સૂ મસ્કૃત હિન્દી અને ગુજરાતી ભાષા એમાં હોવાને કારણે વિદ્વાન અને સામાન્ય જનેને ઘણ જ લાભદાયક છે તે વાચન ઘણુજ સુ દર અને મને જક છે આ કાર્યમાં પૂજ્ય આચાર્યશ્રી જે અગાથ પુરુષાર્થથી કાર્ય કરે છે તે માટે વારંવાર ધન્યવાદને પાત્ર છે આ સૂ સમાજને ઘણુ લાભનું કારણ છે હંસ-સમાન બુદ્ધિવાળા આત્માએ સ્વપરના ભેદથી નિખાલસ ભાવનાઓ અવલોકન કરશે તે આ સાહિત્ય સ્થાનકવાસી સમાજ માટે અપૂર્વ અને ગૌરવ લેવા જેવું છે માટે દરેક ભવ્ય આત્માઓને સૂચન કરૂ છુ કે આ સૂત્રો પોતપોતાના ઘરમાં વસાવવાની સુદર તકને ચૂક નહિ આવા શુદ્ધ પવિત્ર અને સ્વપરપન ને પુષ્ટીરૂપ સૂત્રો મળવા બહુ મુશ્કેલ છે. આ કાર્યમાં આપશ્રી થા સમિતિના અન્ય કાર્યકરે જે શ્રમ લઈ રહ્યા છે તેમાં મહાન નિર્જરાનુ કારણ જોવામાં આવે છે તે બદલ ધન્યવાદ. એજ લી શારદાબાઈ સ્વામી ખ ભાત સ પ્રદાય બરવાળા - પ્રદાયના વિદુષી મહાસતીજી મેઘીબાઈ સ્વામીને અભિપ્રાય ધ ધુકા તા ૨૭-૧-પદ શ્રીમાનશેઠ શાન્તીલાલ મ ગળદાસ પ્રમુખ અ ભા ધે તથા જૈનશાસ્ત્રોદ્ધારસમિતિ મુ રાજકેટ અત્રે બિરાજતા ગુ ગુ ના ભડાર મહાસતીજી વિદુષી મોઘીબાઈ સ્વામી તથા હીરાબાઈ આદિ ઠાણા બને સુખશાતામાં બિરાજે છે આપને સૂચન છે કે અપ્રમત્ત અવસ્થામાં રહી નિવૃત્તિ ભાવને મેળવી ધમ ધ્યાન કરરોજી એજ આશા છે વિશેષમાં અમને પૂજ્ય આચાર્ય મહારાજ શ્રી ઘામલાલજી મહારાજના રચેલા સૂત્રો ભાઈ પોપટલાલ ધનજીભાઈ તરફથી ભેટ તરીકે મળેલા તે સૂત્રો તમામ આયાત વાચા, મનન કર્યો અને વિચાર્યા છે ને સૂત્ર સ્થાનકવાસી સમાજને અને વીતરાગમાર્ગને ખૂબજ ઉન્નત બનાવનાર છે તેમાં આપણી શ્રદ્ધા એટલી ન્યાયરૂપથી ભરેલી છે તે આપણા સમાજ માટે ગૌરવ લેવા જેવું છે હસ સમાન Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રૂા. ૫,૨૫૧ આપનાર આદ્ય સુરીશ્રી, - - - *. - જ , કે કે ઠારી હ ર ગ વી દ ભા ઇ જે ચ દ એ જ કે ટ Page #36 --------------------------------------------------------------------------  Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આત્મા જ્ઞાનઝરણાઓથી આત્મરૂપ વાડીને વિકસિત કશે ધન્ય છે આપને અને મમિતિના કાર્યકરને જે સમાજ ઉત્થાન માટે કંઈની પણ પરવા કર્યા વગર જ્ઞાનનું દાન ભવ્ય આત્માઓને આપવા નિમિત્તરૂપ થઈ રહ્યા છે. આવા સમર્થ વિદ્વાન પાએવી પૂર્ણ કાર્ય પુરૂ કરાવશે તેવી આશા છે એજ લિ બરવાળા સપ્રદાયના વિદુષી મહાસતીજી મેઘીબાઈ સ્વામી ના ફરમાનથી લી ખેડીદામ ગણેશભાઈધ ધુકા સ્થાનકવાસી જૈન સંઘના પ્રમુખ અધતન પદ્ધતિને અપનાવનાર વડેદરા કેલેજના એક વિદ્વાન પ્રેફેસરનો અભિપ્રાય. સ્થાનકવાસી સંપ્રદાયના મુનિશ્રી ઘારીલાલજી મહારાજ જૈનશાસ્ત્રોના સંસ્કૃત ટીકાદ્ધ, ગુજરાતીમાં અને હિન્દીમાં ભાપાત કરવાના ઘણા વિકટ કાર્યમાં વ્યાપ્ત થયેલા છેશાસ્ત્રો પિકી જે પ્રસિદ્ધ થયા છે તે હું જોઈ શક છુ મુનિશ્રી પિતે સસ્કૃત, અર્ધમાગધી, હિન્દી ભાષાઓના નિષ્ણાત છે, એ એમને ૮ પરિચય કરતા સહજ જણાઈ આવે છેશાસ્ત્રોનું સંપાદન કરવામાં તેમને પોતાના શિષ્ય વર્ગને અને વિશેષમાં ત્રણ પઠિતેને સહકાર મળે છે, તે જોઈ મને આન દ થયે સ્થાનકવાસી મ પ્રદાયને અને એ પડિતેને સહકાર મેળવી આપી મુનિશ્રીના કાર્યને સરળ અને શિષ્ટ બનાવ્યું છે સ્થાનકવાસી-સમાજમાં વિદ્વત્તા ઘણી ઓછી છે તે દિગબર, મૃર્તિપૂજક તાબર વગેરે જનદર્શનના પ્રતિનિધિઓના ઘણા સમયથી પરિચયમાં આવતા હુ વિરોધના ભય વગર કહી શકુ પૂ મહારાજના આ પ્રયાસ સ્થાનકવાસી સ પ્રદાયમાં પ્રથમ છે એવી મારી માન્યતા છે સંસ્કૃત સ્પષ્ટીકરણે સારા આપવામાં આવ્યા છે ભાષા છે એમ હું ચોક્કસ કહી શકું છું ગુજરાતી ભાષાતરે પણ શુદ્ધ અને સરળ થયેલા છે અને વિશ્વાસ છે કે મહારાજશ્રીના આ સ્તુત્ય પ્રયાસને જનસમાજ ઉત્તેજન આપશે અને શાસ્ત્રોના ભાષાતરને વાચનાલયમાં અને કુટુંબમાં વસાવી શકાય તે પ્રમાણે વ્યવસ્થા કરશે પ્રતાપગ જ, વડેદરા કામદાર કેશવલાલ હિમતરામ, તા ૨૭-૨-૧૯૫૮ એમ એ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ સુબઇની એ કૉલેજોના પ્રોફેસરાના અભિપ્રાય મુખઇ તા ૩૧-૩-૫૬ શ્રીમાન શેઠ શાંતીલાલ મગળદાસ પ્રમુખશ્રી અખિલ ભારત વેથા જૈનશાસોદ્ધાર સમિતિ, રાજકાટ પૂજ્યાચાર્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજે તૈયાર કરેલા આચારાગ, દશવૈકાલિક આવશ્યક, ઉપાસક શાગ વગેરે સૂત્રો અમે જોયા. આ સૂત્રો ઉપર સસ્કૃતમાં ટીકા આપવામા આવી છે અને સાથે સાથે હિન્દી અને ગુજરાતી ભાષાતરા પણ આપવામા આવ્યા છે, સસ્કૃત ટીકા અને ગુજરાતી તથા હિન્દી ભાષાતરા જોતા આચાર્ય શ્રીના આ ત્રણે ભાષા પરના એકસરખા અસાધારણ પ્રભુત્વની સચેટ અને સુરેખ છાપ પડે છે. આ સૂત્રગ્રંથેામા પાને પાને પ્રગટ થતી આચાર્યશ્રીની અપ્રતિમ વિદ્વત્તા મુખ્ય કરી દે તેવી છે ગુજરાતી તથા હિન્દીમા થયેલા ભાષાતરમા ભાષાની શુદ્ધિ અને સરળતા નાધપાત્ર છે. એથી વિદ્વજન અને સાધારણ માણુસ ઉભયને સ તાપ આપે એવી એમની લેખિનીની પ્રતીતિ થાય છે. ૩૨ સૂત્રોમાથી હજુ ૧૩ સૂત્રો પ્રગટ થયા છે ખીજા સાત સૂત્રો લખાઇને તૈયાર થઈ ગયા છે આ બધા જ સૂત્રો જ્યારે એમને હાથે તૈયાર થઈને પ્રગટ થશે ત્યારે જૈનસૂત્ર-સાહિત્યમા અમૂલ્ય સ પત્તિરૂપ ગણાશે એમા સ શય નથી આચાર્યશ્રીના આ મહાન તાને જૈન સમાજના-વિશેષત સ્થાનકવાસી સમાજને સ પૂર્ણ સહકાર સાપડી રહેશે એવી અમે આશા રાખીએ છીએ રમણુલાલ ચીમનલાલ શાહ સેન્ટ ઝેવિયર્સ કૉલેજ, સુખઇ, પ્રા તારા રમણલાલ શાહ. સાફીયા કોલેજ, સુખઇ. રાજકોટની ધમેન્દ્રસિહજી કાલેજના પ્રોફેસર સાહેબને અભિપ્રાય જયમહાલ જાગનાથ પ્લાટ રાજકાય, તા ૧૮૪–૫૬ પૂજ્યાચાર્ય ૫ મુનિ શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ આજે જૈનસમાજ માટે એક એવા કાર્યમા વ્યાપ્ત થયેલ છે કે જે સમાજ માટે બહુ ઉપયોગી થઈ પડશે મુનિશ્રીએ તૈયાર કરેલા આચારાગ, દશવૈકાલિક, શ્રીવિપાકશ્રુત વિમે જોયા Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૩ આ સૂત્રો નેતા પહેલી-૪ નજરે મહાગજશ્રીના સસ્કૃત, અર્ધમાગધી, હિન્દી તથા ગુજરાતી ભાષા ઉપરના સાધારણ કાબૂ જણાઇ આવે છે. એક પણ ભાષા મહારાજશ્રીથી અન્તથી નથી આપણે જાણીએ છીએ કે એ સૂત્રો ઉચ્ચ અને પ્રથમ કોટિના છે તેની વસ્તુ ગભીરુ, વ્યાપક અને જીવનને તલસ્પશી છે. આટલા ગહન અને મર્વગ્રાહ્ય સૂત્રેાનુ ભાષાતર ! ઘામીલાલજીમહાગજ જેવા ઉચ્ચ કોટિના મુનિરાજને હાથે વાય છે તે આપણા અહેઊભાગ્ય છે ય ત્રવાદ અને ભૌતિકવાદના આ જમાનામાં જ્યારે ધમ ભાવના ઓસરતી ત્વય છે એવે વખતે આવા તત્ત્વજ્ઞાનઆધ્યાત્મિકતાથી ભરેલા સૂત્રોનુ ભરળ ભાષામા ભાષાતર દરેક જીજ્ઞાસુ, મુમુક્ષુ અને સાધકને માર્ગદર્શક થઈ પડે તેમ છે. જૈન અને જૈનેતર, વિદ્વાન અને સાધારણ માણસ, માધુ અને શ્રાવક દરેકને સમજણ પડે તેવી સ્પષ્ટ, સરળ અને શુદ્ધ ભાષામા સૂત્રો લખવામા આવ્યા છે . મહારાજશ્રીને જ્યારે જોઈ એ ત્યારે તેમના આ કાર્ય મા મ ફળાયેલા ોઇએ છીએ એ ઉપરથી મુનિશ્રીના પરિશ્રમ અને ધગશની કલ્પના કરી શકાય તેમ છે તેમનુ જીવન સૂત્રોમા વણાઈ ગયુ છે મુનિશ્રીના આ અસાધારણ કાર્ય મા પેાતાના શિષ્યાના તથા પ ચિંતાના સહકાર મળ્યા છે મને આશા છે કે જે દરેક મુમુક્ષુ આ પુસ્તકાને પેાતાના ઘરમા વસાવશે અને પેાતાના જીવનને સાચા સુખને માર્ગે વાળશે તે મહારાજશ્રીએ ઉઠાવેલા શ્રમ સ પૂર્ણ પણે સફળ થશે રસિકલાલ કસ્તુરચંă ગાધી એમ એ એલ એલ ધર્મેન્દ્રસિંહજી કૉલેજ રાજકોટ ( સૌરાષ્ટ્ર ) સુબઇ અને ઘાટકોપરમાં મળેલી સભાએ ભીનાસર કેન્ફરન્સ તથા સાધુસ મેલનમાં મેાકલાવેલ ઠરાવ હાલ જે વખતે શ્વેતાખરસ્થાનકવાસી જૈન સલ માટે આગમ–સશાધન અને સ્વતંત્ર ટીકાવાળા શાસ્ત્રોની અતિઆવશ્યકતા છે અને જે મહાનુભાવાએ આ વાત દીર્ઘ દ્રષ્ટિથી પહેલી પેાતાના મગજમા લઈ તે પાર પાડવા મહેનત લઇ રહ્યા છે તેવા મુનિ મહારાજ ફિતરત્ન શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ કે જેઓને સાદડી અધિવેશનમા સર્વાનુમતે સાહિત્યમત્રી નીમ્યા છે તેઓશ્રીની દેખરેખ નીચે અ ભા ને સ્થા જૈનશાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ જે એક મેાટી વગવાળી કમિટી છે તેની મારફતે કામ થઇ રહ્યુ છે જેને પ્રધાનાચાર્યશ્રી તથા પ્રચાર મત્રીશ્રી Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૪ તથા અનેક અનુભવી મહાનુભાવોએ પિતાની પસદગીની મહેર છાપ આપી છે અને છેલ્લામાં છેલ્લા વડેદરા યુનિવસીટીના પ્રોફેસર કેશવલાલ કામદાર (એમ એ) એ પિતાનુ સવિસ્તર પ્રમાણપત્ર આપ્યું છે તે શાસ્ત્રોદ્ધારકમિટીના કામને આ સમેલન તથા કેન્ફરન્સ હાર્દિક અભિનંદન આપે છે અને તેમના કામને જ્યાં જ્યાં અને જે જે જરૂર પડે-પડિતની અને નાણાની પાસેના ફડમાથી અને જાહેર જનતા પાસેથી મદદ મળે તેવી ઈચ્છા ધરાવે છે આ શાસ્ત્ર અને ટીકાઓને જ્યારે આટલી બધી પ્રશ સાપૂર્વક પસંદગી મળી છે ત્યારે તે કામને મદદ કરવાની આ કોન્ફરન્સ પોતાની ફરજ માને છે અને જે કાઈ ત્રુટી હેય તે ૫ ૨ શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજની સાનિધ્યમાં જઈ બતાવીને સુધારવા પ્રયત્ન કરે છે કામને ટલ્લે ચઢાવવા જેવું કંઈ પણ સત્તા ઉપરના અધિકારીઓની વાણી કે વર્તનથી ન થાય તે જોવા પ્રમુખ સાહેબને ભલામણ કરે છે (સ્થા જૈન પત્ર તા ૪-૫-૫૬) સ્વત વિચારક અને નિડર લેખક “જૈન સિદ્ધાતના તત્રીશ્રી શેઠ નગીનદાસ ગીરધરલાલને અભિપ્રાય | શ્રી સ્થાનકવાસી શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ સ્થાપીને પૂ શ્રી ઘામલાલજી મહારાજને સૌરાષ્ટ્રમા બેલાવી તેમની પાસે બત્રીસ સૂત્રો તૈયાર કરાવવાની હિલચાલ ચાલતી હતી ત્યારે તે હિલચાલ કરનાર શાસ્ત્રજ્ઞ શેઠ શ્રી દામોદરદાસભાઈ સાથે મારે પત્રવ્યવહાર ચાલતે ત્યારે શેઠ શ્રી દામોદરદાસભાઈએ તેમના એક પત્રમા મને લખેલું કે આપણા સૂત્રોના મૂળ પાઠ તપાસી શુદ્ધ કરી સસ્કૃત સાથે તૈયાર કરી શકે તેવા સ્થાનકવાસી સ પ્રદાયમા મુનિશ્રી ઘાસીલાલજી મ સિવાય મને કેઈ વિશેષ વિદ્વાન મુનિ જેવામાં આવતા નથી લાબી તપાસને અને મે મુનિ શ્રી ઘાસીલાલજીને પસંદ કરેલા છે . શેઠ શ્રી દામોદરદાસભાઈ પોતે વિદ્વાન હતા, શાસ્ત્રજ્ઞ હતા તેમ વિચારક પણ હતા શ્રાવકે તેમજ મુનિએ પણ તેમની પાસેથી શિક્ષા વાચના લેતા, તેમ જ્ઞાનચર્ચા પણ કરતા એવા વિદ્વાન શેઠશ્રીની પસદગી યથાર્થ જ હોય એમ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૫ નવાઈ નથી અને પૂ શ્રી ધામીલાલજીના બનાવેલા સૂત્રો શ્વેતા સૌ ફાઇને ખાત્રી થાય તેમ છે કે દામેાદરદાસભાઈએ તેમજ સ્થાનકવામીસમાજે એવી આશા શ્રી ઘાસીલાલજી મ. પાસેથી રાખેલી તે ખરાખર ફળીભૂત થયેલ છે શ્રીવ માન ~ શ્રમણુસ ધના આચાર્ય શ્રીઆત્મારામજી મહારાજે શ્રી ઘામીલાલજી મ ના સૂત્ર માટે ખાસ પ્રશંસા કરી અનુમતિ આપેલ છે તે ઉપરથી જ શ્રી ઘામીલાલજી મ ના સૂત્રોની ઉપયોગિતાની ખાત્રી થશે આ સૂત્રો વિદ્યાથીને, અભ્યાસીને તેમજ સામાન્ય વાચકને સર્વને એક સરખી રીતે ઉપયેગી થઈ પડે છે. વિદ્યાર્થીને તેમજ અભ્યાસીને મૂળ તથા સસ્કૃત રીકા વિશેષ કરીને ઉપયેગી થાય તેમ છે ત્યારે મામાન્ય હિન્દી વાચકને હિન્દી અનુવાદ અને ગુજરાતી વાચકને ગુજરાતી અનુવાદથી આખુ સૂત્ર સરળતાથી સમન્તઈ જાય છે. કેટલાકાને એવા ભ્રમ છે કે સૂત્રે વાચવાનુ આપણુ કામ નહિ, સૂત્રો આપણને સમજાય નહિ મા ભ્રમ તદ્ન ખોટી છે. બીજા કોઈપણુ શાસ્રીય પુસ્તક કરતાં સૂત્રો સામાન્ય વાચકને પણ ઘણી સરળતાથી સમજાઈ જાય છે. સામાન્ય માણુસ પણ સમજી શકે તેટલા માટે જ ભ મહાવીરે તે વખતની લેાકભાષામા (અર્ધમાગધી ભાષામા) સૂત્રો ખનાવેલા છે. એટલે સૂત્રો વાચવામા તેમજ સમજવામા ઘણા સરળ છે. માટે કોઈ પણ વાચકને એવા ભ્રમ હોય તે તે કાઢી નાખવા અને ધર્મનુ તેમજ ધર્મના સિદ્ધાંતનુ સાચુ જ્ઞાન મેળવવા માટે સૂત્રો વાચવાને સૂકવું નહિ, એટલુ જ નહિ પણ જરૂરથી પહેલા સૂત્રોજ વાચવા. સ્થાનકવાસીઓમાં આ શ્રી સ્થા. જૈન શાસ્રોદ્ધાર સમિતિએ જે કામ કર્યું છે અને કરી રહી છે તેવું કાઇ પણ મસ્થાએ આજ સુધી કર્યું નથી સ્થા જૈન શાોદ્ધાર સમિતિના છેલ્લા રિપેાટ પ્રમાણે ખીજા છ સૂત્રો લખાયેલ પડયા છે, એ સૂત્રો અનુચે ગદ્વાર અને ઠાણાગ સૂત્રો લખાય છે તે પણ થૈડા વખતમાં તૈયાર થઈ જશે તે પછી બાકીના સૂત્રો, હાથ ધરવામા આવશે તૈયાર સૂત્રો જલ્દી છપાઈ જાય એમ ઈચ્છીએ છીએ અને સ્થા મધુ સમિતિને ઉત્તેજન અને સહાયના આપીને તેમના સૂત્રો ધરમા વસાવે એમ ઈચ્છીએ છીએ જૈન સિદ્ધાન્ત મે ૧૯૫૫ * Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮ “ જૈન સિદ્ધાંતના › તંત્રીશ્રીના અભિપ્રાય. સ્થાનકવાસીઆમાં પ્રમાણભૂત સૂત્રો ખહાર પાડનારી આ એકની એક સસ્થા છે. અને એના આ છેલ્લા રિપોટ ઉપરથી જણુાય છે કે તેણે ઘણી સારી પ્રગતિ કરી છે તે જોઈ આનદ થાય છે મૂળ પાઠ, ટીકા, હિન્દી તથા ગુજરાતી અનુવાદ સહિત સૂત્રો બહાર પાડવા એ કાઇ સહેલુ કામ નથી એ એક મહાભારત કામ છે. અને તે કામ ઓ શાઓદ્ધારસમિતિ ઘણી સફળતાથી પાર પાડી રહી છે તે સ્થાનકવાસી સમાજ માટે ઘણા ગૌરવને વિષય છે અને ર્કાિત ધન્યવાદને પાત્ર છે '' સમિતિ તરફથી નવ સૂત્રો બહાર પડી ચૂકયાં છે, હાલમા ત્રણ સૂત્રો છપાય છે નવ સૂત્રો લખાઈ ગયા છે અને જમુદ્દીપપ્રપ્તિ તથા ન દીસૂત્ર તૈયાર થઈ રહ્યા છે વ્હાલમા મત્રી શ્રી સાકરચંદ ભાઇચ≠ સમિતિના કામમાં જ તેમના આખા વખત ગાળે છે અને સમિતિના કામકાજને ઘણે વેગ આપી રહ્યા છે તેમની ખત માટે ધન્યવાદ અને આ મહાભારત કામના મુખ્ય કાર્યકર્તા તે છે વાવૃદ્ધ પડિંત મુનિશ્રી દાસીલાલજી મહારાજ મૂળ પાઠનું સંશોધન તથા મસ્તૃત ટીકા તેઓશ્રીજ તૈયા૨ કરે છે. મુનિશ્રીને આ ઉપકાર આખાય સ્થા. જૈન નમાજ ઉપર ઘણું મહાન છે. એ ઉપકારના બદલે તે વાળી શકાય તેમજ નથી પરંતુ આ સમિતિના મેમ્બર બની, તેના બહાર પડેલા સૂત્રી ઘરમા વસાવી તેનુ અધ્યયન કરવામા આવે તે જ મહારાજશ્રીનુ થૈડું ઋણ અદા કર્યું ગણાય ભગવાને કહ્યું છે કે વઢમ બાળ સગો ચાપહેલુ જ્ઞાન પછી દયા, દયા ધર્મને યથાથ સમજવા હોય તે ભગવાનની વાણીરૂપ આપણા સૂત્રો વાચવાજ જોઇએ તેનુ અધ્યયન કરવુ જોઈએ અને તેને ભાવાય યથાર્થ સમજવા જોઇએ એટલા માટે આ શાસ્રદ્ધા સમિતિના સર્વ સૂત્રો દરેક સ્થા જૈને પાતાના ઘરમા વસાવવાજ ોઇએ. સધર્મજ્ઞાન આપણા સૂત્રોમાજ સમાયેલુ છે, અને સૂત્રો સહેલાઇથી વાચીને સમજી શકાય છે, માટે દરેક સ્થા. જૈન આ સૂત્રો વાચે એ ખાસ જરૂરતુ છે “ જૈન સિદ્ધાંત ” ડીસેમ્બર-પદ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રૂા. ૫,૦૦૧ આપનાર આધ મુરબ્બીશ્રી, -- ); NO S -- () શેઠ ધા રસી ભા ઇ છ વ ણ ભાઈ મે લાપુર Page #44 --------------------------------------------------------------------------  Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૯ શ્રી ઉપાઞકદશાંગ સૂત્રને માટે અભિપ્રાય મૂળ સૂત્ર તથા મુનિશ્રી ધામીલાલજીએ ખનાવેલ સસ્કૃત છાયા તથા ટીકા અને હિંદી તથા ગુજરાતી અનુવાદ સહિત પ્રકાશક-અ. ભાવે સ્થાનક્વાસી જૈન શાઓહાર ર્સ્પતિ, ગરેડીઓ કુવા રાડ, ગ્રીન લેાજ પાસે, રાજકોટ (સૌરાષ્ટ્ર). પૃષ્ઠ ૬૧૬ બીજી આવૃત્તિ બેવડુ (માટ્ટુ) ક. પાકુ પુઠુ જેકેટ સાથે સને ૧૯૫૬ કિંમત ૮-૮-૦ અગસત્ર આપણા મૂળ બાર અગ સૂત્રોમાનુ ઉપાસકદાગ એ સાતમુ છે, એમા ભગવાત મહાવીરના દશ ઉપાસકે શ્રાવકેના જીવનચરને આપેલા છે, તેમા પડેલુ ચરિત્ર આનદ શ્રાવકનુ આવે છે આનદ શ્રાવકે જૈનધમ અંગીકાર કર્યો અને ખાર વ્રત ભગવાન મહાવીર પામે અગીકાર કરી પ્રતિજ્ઞાપ્રત્યાખ્યાન લીધા તેનુ સવિસ્તર વર્ષોંન આવે છે તેના અતગત અનેક વિષચા જેવા કે, અભિગમ, લેાકાલેશ્ર્વરૂપ, નવતત્ત્વ, નરક, દેવવેક વગેરેનું વર્ણન પણ આવે છે આનંદ શ્રાવકે બાર વ્રત લીધા તે બારે વ્રતની વિગત, અતિચારની વિગત વગેરે અધુ આપેલુ છે. તે જ પ્રમાણે બીજા નવ શ્રાવકની પણ વિગત આપેલ છે આનદ શ્રાવકની પ્રતિજ્ઞામાં અસ્તિત્ત્વાર્ શબ્દ આવે છે મૂર્તિ પૂજકા મૂર્તિ પૂજા સિદ્ધ કરવા માટે તેને અથ અરિહંતનુ ચૈયા (પ્રતિમા) એવા કરે છે પણ તે અર્થ તદ્દન ખાટી છે અને તે જગ્યાએ આગળ પાછળના સંબધ પ્રમાણે તેને એ ખાટો અથા ધ એસતા જ નથી તે મુનિશ્રી ઘાસીલાલજીએ તેમની ટીકામા અનેક રીતે પ્રમાણા આપી સાબિત કરેલ છે અને અતિ વૈચાર ના અર્થ સાધુ વાય છે તે બતાવી આપેલ છે આ પ્રમાણે આ સૂત્રમાથી શ્રાવકના શુદ્ધ ધર્મની માહિતી મળે છેતે ઉપરાંત તે શ્રાવકાની ઋદ્ધિ, રહેઠાણ, નગરી વગેરેના વણુને ઉપરથી તે વખતની સામાજિક સ્થિતિ, રીતરિવાજ, રાજ્યવ્યવસ્થા વગેરે ખાખતાની માહિતી મળે છે એટલે આ સૂત્ર દરે શ્રાવકે અવશ્ય વાચવુ જોઈએ, એટલુ જ નહિ, પણુ વારવાર અધ્યયન કરવા માટે ઘરમા વસાવવુ જોઇએ પુસ્તકની શરૂઆતમાં વમાન શ્રમણુ સઘના આચાર્ય શ્રી આત્મારામજી મહારાજનુ સુમતિપત્ર તથા બીજા સાધુએ તેમજ શ્રાવકાના સમતિપત્ર આપેલા છે, તે સૂત્રની પ્રમાણભૂતતાની ખાત્રી આપે છે . “ જૈન સિદ્ધાંત ” જાન્યુઆરી, પછ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સેંકડો સટીફીકેટ ઉપરાંત હાલમાં મળેલા કેટલાક તાજા અભિપ્રાયે શા સ્ત્રો ધારના કાર્યને વેગ આપો તવીસ્થાનેથી (જનજાતિ) તા. ૧૫--૫૭ પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ ઠાણું ૪ હાલમાં અમદાવાદ મુકામે સરસપુરનો રથા જૈન ઉપાશ્રયમાં બિરાજમાન છે. તેઓશ્રી શાસ્ત્રોદ્ધારનું કાર્ય ખૂબ જ ખત' અને ઉત્સાહથી વૃદ્ધવ પણ કરી રહ્યા છેતેઓશ્રી વૃદ્ધ છે છતા પણ આ દિવસ 'શાએની ટીકાઓ લખી રહ્યા છે આજ સુધીમાં તેમણે લગભગ ૨૦ જેટલા શાસ્ત્રની ટીકાઓ લખી નાખી છે અને બાકીને સૂત્રની ટીકા જેમ બને તેમ જલદી પૂર્ણ કરવી એવા મને રથ સેવી રહેલ છે, સ્થા. જૈન સમાજમાં શાસ્ત્રો ઉપર સાસ્કૃત ટીકા લખવાને આ પ્રથમ જ પ્રયાસ છે અને તે પ્રયાસ સંપૂર્ણ બને એવી અમે શાસનદેવ પ્રત્યે પ્રાર્થના કરીએ છીએ આજ સુધી ઘણા મુનિવરેએ શાસ્ત્રોનું કામ શરૂ કરેલ છે પણ કેઈએ પૂર્ણ કરેલ નથી પૂજ્યશ્રી અમુલખીજી મહારાજે બત્રીસે શાસ્ત્રો ઉપર હિન્દી અનુવાદ કરેલ અને સપૂર્ણ બનેલ ત્યારબાદ આચાર્ય શ્રી આત્મારામજી મહારાજશ્રીએ હિન્દી ટીકા કેટલાક શાસ્ત્ર ઉપર લખેલ પણ ઘણા શાસ્ત્રો બાકી રહી ગયા પૂજ્ય હસ્તિમલજી મહારાજે એક બે શાસ્ત્રો ઉપરની ટીકાઓને અનુવાદ કરેલ પૂજ્ય શ્રી જવાહિરલાલ મહારાજશ્રીએ સૂયગડાગસૂત્ર ટીકા સહિત હિન્દી અનુવાદ સાથે પ્રકાશિત કરેલ શ્રી સાભાગ્યમલજી મહારાજે આચારાગની હિન્દી ટીકા લખેલ પણ સ પૂર્ણ શાઓ ઉપર સસ્કૃત ટીકા હજી સુધી સ્થા જૈન સાધુઓ તરફથી થયેલ નથી જ્યારે પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજશ્રીએ ૨૦ શા ઉપર સાસ્કૃત ટીકા તેને હિન્દી ગુજરાતી અનુવાદ કરાવેલ છે આથી હવે આશા બધાય છે કે તેઓશ્રી બત્રીસે બાવીસ શાઓ ઉપર સાસ્કૃત ટીકા લખવામાં સફળ થશે અને શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિએ આજ સુધી ૧૦ થી ૧૨ શાસ્ત્રો છપાવી પણ દીધા છે અને હજી પણ તે શાસ્ત્રો વિશેષ જલદી છપાય તે માટે શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ સંપૂર્ણ પ્રયત્ન કરી રહેલ છે તે ધન્યવાદને પાત્ર છે જૈનશાએદ્ધારસમિતિના રૂ ૨૫૧ ભરીને લાઈફ મેમ્બર થનારને તમામ શા શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ તરફથી ભેટ મળે છેઆ રીતે એક પથ અને દો કાજ બંને રીતે લાભ થાય તેમ છે રૂ ૨૫૧ થી પ૦૦ રૂપિયાની કિંમતના શાએ મળે એ પણ મટે લાભ છે અને પ્રવચનની પ્રભાવના કરવાને ધર્મલાભ પણ મળે છે Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આ સાલે પૂજ્ય ઘાસીલાલજી મહારાજના સુશિષ્ય ૫. મુનિશ્રી કન્વેયાલાલજી મહારાજ મલાડ મુકામે ચાતુર્માસ બિરાજે છે અને તેઓશ્રી શાસ્ત્રોના મેમ્બર કરવા માટે અથાગ પ્રયત્ન કરીને પ્રવચનની સેવા બજાવી રહ્યા છે અને અત્યાર સુધીમાં મુંબઈ તેમજ પરાઓના લગભગ ૪૦ જેટલા ગુહ લાઈફ મેમ્બર બની ગયા છે અને મુંબઈમા લગભગ ૩૦૦ જેટલા મેમ્બરો થાય તે ઈચ્છવા યોગ્ય છે શ્રીમત ગૃહસ્થ હજાર રૂપિયા પિતાના ઘર ખર્ચમા તેમજ મિજશેખના કામમાં તેમજ વ્યાવહારિક કામમાં વાપરી રહ્યા છે તે આવી શાસ્ત્રોદ્ધાર જેવા પવિત્ર કાર્યમાં રૂપિયા વાપશે તે ધર્મની સેવા કરી ગણાશે અને બદલામાં ઉત્તમ આગમ સાહિત્યની એક લાયબ્રેરી મળી જશે જેનુ વાચન કરવાથી આત્માને શાંતિ મળશે અને ચાઆજ્ઞા--પ્રમાણે વર્તવાથી જીવન સફળ થશે Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * શતાવધાની સુનિશ્રી જયંતીલાલજી મહારાજશ્રીને અમદાવાદને પત્ર “સ્થાનકવાસી જૈન તા ૫-૯-૫૭ના અ માં છપાએલ છે જે નીચે મુજબ છે. સૂત્રના મૂળ પાઠમાં ફેરફાર હોઈ શકે ખરે? તા ૭-૮-૫૭ના જ અત્રે બિરાજતા શાસ્ત્રોદ્ધારક આચાર્ય મહારાજશ્રી ઘામલાલજી મહારાજ પાસે, મારા ઉપર આવેલ એક પત્ર લઈને હુ ગયો હતો, તે સમયે મારે પૂ મ સા સાથે જે વાતચીત થઈ તે સમાજને જાણ કરવા સારૂ લખું છું શાનું કામ એક ગહન વસ્તુ છે અપ્રમાદી થઈ તેમા અવિરત પ્રયત્નો કરવા જોઈએ, સપૂર્ણ શાસ્ત્રનું જ્ઞાન તેમજ દરેક પ્રકારની ખાસ ભાષાઓનું જ્ઞાન હોય તેજ આગમેદ્ધારનું કાર્ય સફળતાથી થાય આ પ્રકારને પ્રયત્ન હાલ અમદાવાદ ખાતે સરસપુર જૈન સ્થાનકમાં બિરાજતા પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ કરી રહ્યા છે શા-લેખનનું આ કાર્ય થઈ રહ્યું છે, તેમાં અનેક વ્યક્તિઓને અનેક પ્રકારની શાકાઓ થાય છે તે પૈકી શાસ્ત્રના મૂળ પાઠમાં ફેરફાર થાય છે ? કરવામાં આવે છે? એ પ્રશ્ન પણ કેટલાકને થાય છે અને તે પ્રશ્ન થાય તે સ્વાભાવિક છે, કેમકે અમુક મુનિરાજે તરફથી પ્રગટ થયેલ સૂત્રોના મૂળ પાઠમાં ફેરફાર થયેલા છે જેથી આ કાર્યમાં પણ સમાજને શીકા થાય પણ ખરી રીતે જોતા, અત્યારે જે શાસ્ત્રોદ્ધારનું કામ ચાલી રહ્યું છે તે વિષે સમાજને ખાત્રી આપવામાં આવે છે કે, શાસ્ત્રોદ્ધારસમિતિ તરફથી અત્યાર સુધીમાં પ્રગટ થયેલા આગમના મૂળ પાઠમા જરાપણ ફેરફાર કરવામાં આવેલ નથી અને ભવિષ્યમાં જે સૂત્રો પ્રગટ થશે તેમાં ફેરફાર થશે નહિ તેની સમાજ નેધ લે શતાવધાની શ્રી જયત મુન-અમદાવાદ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 “ શ્રી અખિલ ભારત શ્વેતામ્બર સ્થાનકવાસી જૈન શાસ્રાદ્ધાર સમિતિને ટુંક પરિચય '' સ્થાનકવાસી સમાજની આ એકની એક સસ્થા છે કે જેણે અત્યાર સુધીમા તેર સૂત્રેા છપાવી બહાર પાડી દીધા છે. સાત સુત્રો છષય છે અને બીન્ત કેટલાક છાપવા માટે તૈયાર થઇ ચૂકયા છે. આ પ્રમાણે આ સસ્થાએ મહાન પ્રગતિ સાધી છે તેને ટુંક પરિચય આ પત્રિકામા આપેલ છે તે વાચી જઈ સર્વ સ્થા જૈન ભાઈબહેન એ. આ સસ્થા ને યથાકિત મદદ કરી તેના હાય ને હજી વિશેષ વેગવાન બનાવવાની જરૂર છે I ܐ ‘ખાલી ધડા વાગે ઘણા’ એમ સ્થા ટ્રાન્ફરન્સ જેમ ખેાટા અણુગા ફૂંકનારી સસ્થાની ફાઈ કિંમત નથી, ત્યારે ન કામ કરનારી આ નાઓદ્ધાર સમિતિને દરેક પ્રકારે ઉત્તેજન આપવાની દરેક સ્થાવામી જૈનની અનિવાર્ય ફરજ છે અને આ સર્વાં સૂત્રો તૈયાર કરનાર પૂજ્ય મુનિશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજના સ્થાનકવાસી સમાજ ઉપર ઘણેા મહાન ઉપકાર છે. વાવૃદ્ધ હોવા છતા તેઓશ્રી જે મહેનત લઈ સૂત્રો તૈયાર કરાવે છે તેવુ કામ હજી સુધી ખીજા કોઈ એ કર્યું નથી અને ખીજુ કાઈ કરી શકશે કે નહિ તે પણ શકાભર્યું છે પૂજ્ય મુનિશ્રીના આ મહાન્ ઉપકારના વિચિત બદલો સમાજે આ શાસ્ત્રોદ્ધાર સ્લમતિને અની શકતી સહાય કરીને વાળવાના છે. સ્થાનકવાસી સમાજ જ્ઞાનની કદર કરવામા પાછા હેઠે તેમ નથી એવી અમે આશા રાખીએ છીએ • “ જૈનસિદ્ધાત ” પત્ર એકટોમ્બર ૧૯૫૭ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રી દશવૈકાલિક તથા ઉપાસક દશાંગ સંયો - ગુજરાતી ભાષામાં અનુવાદ થયેલા પૂજ્ય શ્રી ઘારીલાલજી મહારાજ વિરચિત ઉપરોકત બે સુત્રો જૈનધર્મ પાળતા દરેક ઘરમાં લેવા જ જોઈએ તે વાચવાથી શ્રાવક ધમ અને શ્રમણ ધર્મના આચારનું જ્ઞાન પ્રાપ્ત થઈ શકે છે અને શ્રાવકે પિતાની નિરવા અને એષણીય સેવા શ્રમણ પ્રત્યે બજાવી શકે છે વર્તમાનકાળે શ્રાવકેમ તે જ્ઞાન નહિ હેવાને લીધે અંધશ્રદ્ધાએ શ્રમણવર્ગની વિયાવચ્ચ તે કરી રહેલ છે પરંતુ “કk૫શુ અને અકલ્પશુ એનું જ્ઞાન નહિ હોવાને લીધે પિોતે સાવદ્ય સેવા અપી પિતાના સ્વાર્થ ખાતર શ્રમણવર્ગને પોતાને સહાયક થવામા ઘસડી રહ્યા છે અને શ્રમણવર્ગની પ્રાય કુસેવા કરી રહ્યા છે તેમાથી બચી લાભનુ કારણ થાય અને શ્રમણને યથાતથ્ય સેવા આપી તેમને પણ જ્ઞાન-દર્શન-ચારિત્રની આરાધના કરવામાં સહાયક થઈ, પોતાના જ્ઞાન દર્શનચારિત્રની આરાધના કરી સુગતિ મેળવી શકે શ્રમણની યથાતથ્ય સેવા કરવી તે અવશ્ય ગૃહસ્થની ફરજ છે પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મ શાસ્ત્રોદ્ધારને અનુવાદ 'ત્રણ ભાષામાં રૂડી રીતે કરી રહ્યા છે અને રૂપિયા ૨૫૧ ભરી મેમ્બર થનારને રૂ ૪૦૦-૫૦૦ લગ ભગ ની કીમતના બત્રીસે આગમ ફ્રી મળી શકે છે તે તે રૂા ૨૫ ભરી મેમ્બર થઈ બત્રીસે આગમે દરેક શ્રાવકઘરે મેળવવા જોઈએ બત્રીસે શાસ્ત્રોના લગભગ ૪૮ પુસ્તકે મળશે તે તે લાભ પિતાની નિર્જરા માટે, પુન્યાનુબ ધી પુન્ય માટે જરૂર મેળવે ઉપરોક્ત અને સુત્રોની કીમત સમિતિ કઈક ઓછી રાખે તે હરકોઈ ગામમાં શ્રીમત હોય તે સૂવો લાવી અરધી કીમતે, મફત અથવા પૂરી કી મતે લેનારની સ્થિતિ જોઈ દરેક ઘરમા વસાવી શકે --એક ગૃહસ્થ નોંધ –ઉપરની સૂચનાને અમે આવકારીએ છીએ આવા સૂત્રો દરેક ઘરમા વસાવવા યોગ્ય તેમજ દરેક અવકે વાચવા લાગ્યા છે. તત્રી “રત્નત” પત્ર તા ૧-૧૦-૧૭ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૫ શ્રી સ્થા. જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિની કાર્યવાહક કમીટીને અહેવાલ. મે મહિનાની શરૂઆતમાં શા મારગમિતિની મીટીંગ અમદાવાદમાં મળી હતી તેને હેવાલ અમને મળે છે તેમાં સમિતિએ સરસ કામ કર્યું છે આ ઉપરથી સમજી શકાય છે કે સ્થાનકવાસી સમાજમાં આજ સુધી કોઈએ પણ નથી કરી શકહ્યું એવું મહાભારત કામ ૫ શ્રી ઘામીયાલજી મહારાજ તથા શાસ્ત્રોદ્ધારસમિતિ ઘણી સફળતાથી કરી રહી છે અને તેઓ છેડા વખતમાં માથે લીધેલ સર્વ કામ પૂર્ણ રીતે પાર ઉતારશે એવી અમને ખાત્રી છે આવા ઉત્તમ કાર્ય માટે સમસ્ત સ્થાનકવાસી જૈનોએ શાઓઢારસમિતિને પિતાનાથી બની શકે તે રીતે સંપૂર્ણ ટેકે આપવો જોઈએ, તે તેમની ફરજ બની રહે છે જેને માટે સૂત્રે એ પહેલી ફરજીઆતની વસ્તુ છે સવના આધારે જ ધર્મજ્ઞાન મળે છે આજ સુધી જે આપણને અપ્રાપ્ય હતા તે આપણા જૈનસૂત્રો પૂ શ્રી બાસીલાલજી મહારાજે તથા શાસ્ત્રોદ્ધારસમિતિએ સુલભ કરી આપ્યા છે તે હવે સ્થાનકવાસી જનોએ શાસ્ત્રોદ્ધારસમિતિના સભાસદ બની સમિતિનું કામ બનતી ઉતાવળે પૂરૂ થાય તેમ કરવાની ખાસ જરૂર છે વાચકેમાથી જેઓથી બની શકે તેમણે પહેલા વર્ગના શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિના સભ્ય બની જવું જોઈએ તેથી સમિતિના કામને ઉત્તેજન મળવા ઉપરાત સભ્યને અને આ સેટ મફત મેળવવાનો લાભ મળશે અને સૂત્રો વાચીને ધમરાધન કરવાને જે લાભ મળશે તે તે અમૂલ્ય જ છે. માટે સમિતિના સભ્ય થઇ જવાની અમારી દરેક ગ્યા જેનને ખાસ ભલામણ છે. જૈન સિદ્ધાત” જુલાઈ-૧૯૫૮ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિના આગમો અંગે અભિપ્રાય. દક્ષિણ, ઉત્તરપ્રદેશ, દિલ્હી અને પજાબમાં ઉગ્ર વિહાર કરીને હાલમાં ગુજરાતસૌરાષ્ટ્રમાં વિચરી રહેલા ઉગ્ર વિહારી પૂ મહાસતીજી શ્રી ભાકુવરજી તથા પ્રસિદ્ધ વ્યાખ્યાની વિવિધભાષાવિશારદા પૂ મહાસતીજી શ્રી સુમતિકવરજીને, પૂજ્ય શ્રી ૧૦૦૮ શ્રી ઘાસીલાલજી મ સા નિર્મિત જેનાગમોની સરસ્કૃત ટીકા તથા હિન્દી-ગુજરાતીભાષાતર પર અભિપ્રાય નમે સિદ્ધાણ શાસ્ત્રવિશારદ શ્રદ્ધેય પડિત રત્ન પૂજ્ય આચાર્ય મુનિશ્રી ઘારીલાલજી મહારાજ સાહેબ જેનાગના એક વિદ્વાન, વૃદ્ધવિચારક અને ઉત્તમ લેખક છે સાહિત્યસર્જન એ તેમના જીવનનો એક ઉત્તમ સ૫ છે. સામાજિક- - અપચાથી દૂર રહી, અથાગ પરિશ્રમ દ્વારા વિરચિત, સપાદિત અને અનુવાદિત તેમના અનેક ગ્રંથ પ્રકાશિત થયા છે, જે તમામ જૈનોને માટે ચિતન, મનન અને અધ્યયન-અધ્યાપન માટે એક અપૂર્વ સાધનરૂપ છે ઓવું ઉત્તમ સાહિત્ય તૈયાર કરીને તેઓશ્રીએ સાહિત્યનેવીના મહાન પદને દીપાવ્યું છે ? આગમના રહસ્યોથી અનભિજ્ઞ અજાણ) આજની પ્રજામાં શ્રદ્ધેય શ્રી મહારાજ સાહેબનું સાહિત્ય અત્યંત ઉપયોગી છે, તેમ હું માનું છું ! અમદાવાદ તા ૧-૫-૫૮ આર્યાન્નુમતિકુવર નકશ000 છીkgram Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ અલવરથી શ્રી શ્રમણ સ ઘના ઉપાધ્યાય કવિ મુનિશ્રી અમર દજી મહારાજને કલ્પસૂત્ર માટે આવેલ પત્ર શ્રીયુત ભાગીલાલજી-અમદાવાદ. 39 જયવીર આપને ત્યા મગજમાન પરમ શ્રદ્ધેય શ્રી શ્રી ૧૦૦૮ શ્રી પૂજ્યપાદથી ઘાસીલાલજી મહારાજ આદિ બધા મતાની સેવામા વદન સુખશાન્તિ નિવેદન છે આપે મેકલેલ કલ્પસૂત્ર” મેળવોને શ્રદ્વેષ વિજીએ પ્રમન્નતા પ્રગટ કરી છે અને માદર યથાયોગ્ય અભિનદનપૂર્વક લખાવ્યુ છે કે “તપસૂત્રનું પ્રકાશન બહુ જ ઉત્કૃષ્ટ કેટનુ છે તેની ટીકા સુદર વિસ્તારપૂર્વ૰ સારી રીતે લખેલ છે ટાઇમ મળતા અધ્યયન કરવા માટે પ્રયત્ન કરવામા આવશે છાપવામા આવેલ આવૃત્તિ માટે ટિકેટ ધન્યવાદ આપવામાં આવે છે કવિશ્રીજીનું સ્વાસ્થ્ય સારી રીતે ચાલે છે પહેલાની અપેક્ષાએ કઈ સારૂં છે. આ પત્ર વિલમ્બથી લખવામા આવેલ છે તે ક્ષમા કરો અલવર (રાજસ્થાન) તા ૯-૮-૧૯૫૮ 11111117331T1 } ભવદીય રતનલાલ સચેતી (હિન્દીના ગુજરાતીમાં અનુવાદ) Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ઉ૬ શજી * '' શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિના આગમ અંગે અભિપ્રાય. * દક્ષિણ, ઉત્તરપ્રદેશ, દિલ્હી અને ૫ જાબમાં ઉગ્ર વિહાર કરીને હાલમાં ગુજરાતસૌરાષ્ટ્રમાં વિચરી રહેલા ઉગ્ર વિહારી પૂ મહાસતીજી શ્રી રભાકુવરજી તથા પ્રસિદ્ધ વ્યાખ્યાની વિવિધ ભાષાવિશારદા પૂ મહાસતીજી શ્રી સુમતિક વિરજીને, પૂજ્ય શ્રી ૧૦૦૮ શ્રી ઘાસીલાલજી મ સા નિર્મિત જેનામાની સસ્કૃત ટીકા તથા હિન્દી-ગુજરાતીભાષાતર પર અભિપ્રાય – * નમો સિદ્ધાણું શાસ્ત્રવિશારદ શ્રદ્ધેય પડિત રત્ન પૂજ્ય આચાર્ય મુનિશ્રી ઘાડીલાલજી મહારાજ સાહેબ જેનાગના એક વિદ્વાન, વૃદ્ધવિચારક અને ઉત્તમ લેખક છે સાહિત્યસર્જન એ તેમના જીવનને એક ઉત્તમ સક૫ છે. સામાજિક - પ્રપ થી દૂર રહી, અથાગ પરિશ્રમ દ્વારા વિચિત, સપાદિત અને અનુવાદિત તેમના અનેક ગ્રંથ પ્રકાશિત થયા છે, જે' તેમામ જૈનોને માટે ચિ તન, મનન અને અધ્યયન-અધ્યાપન માટે એક અપૂર્વ સાધનરૂપ છે આવું ઉત્તમ સાહિત્ય તૈયાર કરીને તેઓશ્રીએ સાહિત્યસેવીનો મહાન પદને દીપાવ્યું છે ? આગમના રહસ્યથી અનભિજ્ઞ (અજાણુ) આજની પ્રજામાં શ્રદ્ધેય શ્રી મહારાજ સાહેબનું સાહિત્ય અત્યંત ઉપયોગી છે, તેમ હું માનું છું ! અમદાવાદ તા ૧–૫–૫૮ આર્યા-સુમતિકવર provછળ Socછass છ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 ॥ श्री वीतगगाय नमः ॥ 'जैनाचार्य'-'जैनधर्मदिवाकर'-पूज्य-श्री-घासीलालजीमहाराजविरचित-पीयूपवपिण्यारयया व्याख्यया समलड्कृतम् औपपातिकसूत्रम्.. (मङ्गलाचरणम्) मालिनीछन्द । भविननहितकारं ज्ञानवित्तकसार, कृतभवनिधिपार नष्टकर्मारिभारम् । अपहरणसमीरं दुःखदावाग्मिनीर, विमलगुणगभीर नोमि वीर सुधीरम् ॥१॥ ओपपातिकसूत्रकी पीयूपवर्पिणी टीका का हिन्दी-भापानुवाद । मङ्गलाचरणजानावरण आदि चार घातिया कर्मों के सर्वथा चिनाग से उद्भूत केवल ज्ञानरूपी अनत अचिन्य अन्तरगविभूतिनिगिष्ट, भव्यनीया के अमाध आत्मकल्याण का उज्वल मार्गप्रदर्शन करनेसे सदा हितकारक, स्वय ममाररूपी अपार पारावार से पार होकर अन्य जीवोंको भी वहासे पार करनेवाले, तृणादिक को उडानेवाली वायुकी तरह पापपुज को उडानेके लिये अनाधगतिवाले, आधि, व्याधि एव उपाधिजन्य अनेक दु सोको राशिरूपी प्रचण्ड अग्निकी ज्वालाको ध्वस्त करने के लिये निर्मल सलिल जैसे, ऐसे धीर वीर अन्तिम तीर्थकर श्रीनीग्प्रभुको--जो क्षायिकगुणों से सदा ओतप्रोत बने हुए है- मैं भक्तिपूर्वक नमन करता हूँ ॥ १ ॥ ઔપપાતિકસૂત્રની પિયુષવર્ષિણી ટીકાને ગુજરાતી-અનુવાદ भगवान्यજ્ઞાનાવરણ આદિ ચાર ઘાતિયા કર્મોના સર્વથા વિનાશથી ઉત્પન્ન થયેલ કેવળજ્ઞાનરૂપી અનત અચિત્ય અતર ગવિભૂતિરૂપ, ભવ્યજીના અબાધ આત્મકલ્યાણના ઉજ્જવલ માર્ગ પ્રદર્શન કરવાથી સદા હિતકારક, પિતે સ સારરૂપી અપાર સમુદ્ર પાર કરીને બીજી જાને પણ તેમાથી પાર કરવાવાળા, જેમ વાયુ તૃણને ઉડાડી નાખે તેમ પાપપુજને ઉડાડવામાં અબાધ ગતિવાળા, આધિ વ્યાધિ તેમજ ઉપાધિજન્ય અનેક દુ બની શશિરૂપી પ્રચડ અગ્નિની જવાલાને શાત કરવા નિર્મલ જળ જેવા, એવા ધીર વીર અતિમ તીર્થંકર શ્રી વીરપ્રભુ કે જે નિર્મલ સાયિક ગુણોથી સદા ઓતપ્રોત બનેલા છે તેમને હું ભક્તિપૂર્વ4 નમન કરૂ છુ (૧) Page #56 --------------------------------------------------------------------------  Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका पहलापरणम्. आर्या-गाथा। जयण मुत्पत्ति, मदोरग वधए मुहे नि । जो मुकरागदोसो, वदे ते गुरुवरं मृद्ध ॥ ४ ॥ अनुष्टुप् । जैनी सरस्वती नवा, घासीलालेन तन्यते । औपपातिस्मृत्रस्य, वृत्तिः पीयूपवर्पिणी ॥ ५ ॥ अयोपपातिकमत्रम्-ओपपानिकमिति क पदार्थ ? इनिचेदुष्यते-देवजन्म नैरयित्र जन्म मिद्विगमनश्चेतित्रयम् उपपात , तमुपपातमधिकृत्य पृतमभ्ययनम् औपपातिफम्, एतत् औपपानिम्नुपान, कम्मात् । अस्य आचाराङ्गस्य समीपवर्त्तिवात्, तत्र हि प्रय में सदा उन गुरुदेव को नमस्कार करता हूँ कि जिन्होंने छहरूाय के जीवों की यतनानिमित्त अपने मुन्थ पर टोरासहित मुखपत्तिको सदा याघ रखा है । तथा मिनफी दृष्टि मे शत्रु और मिन एवं निन्दफ और यन्वा दोनों समान है। ऐसे रागडेप से मठा परे रहनेवाले शुद्ध गुरुदेव को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ४ ॥ श्री जिनेन्द्र के मुखकमल से निर्गत द्वादमागीलप वाणी को नमन कर में घासीलाल मुनि औपपातिकसूत्रफी पीयूपवर्षिणीनामक टीका ग्चता हूँ ॥५॥ प्र०-- 'औपपानिक' इस पदका क्या अर्थ है। उ०- देवोझा जन्म, नाझियोग जन्म एव सिद्धिगति मे गमन, वे तीन उपपात हैं । इनको लेफर रचे गये मूत्रका नाम औपपातिक है । यह अग नहीं है उपान है। હુ બદા તે ગુરૂદેવને નમસ્કાર કરું છું કે જેમણે છકાયના જીવોની યતના નિમિત્ત પિતાના મુખપર દોગ હિત મુખપત્તિને સદા બાધી રાખે છે, તથા જેમની દષ્ટિમા શત્રુ અને મિત્ર તેમજ નિદક તથા પ્રશાસક બને સમાન છે એવા રાગદ્વેષથી સદા પર રહેવાવાળા શુદ્ધ ગુરૂદેવને હું નમસ્કાર કરૂ છુ (૪) શ્રી જિનેન્દ્રના મુખકમલથી નીકળેલી દ્વાદશાગરૂપ વાણીને નમન કરીને હું ઘાસીલાલ મુનિ ઓપપાતિસૂત્રની પીયૂષવર્ષિી નામે ટીકા ચુ છું (૫) પ્ર- પાતિક એ પદને શું અર્થ છે? ઉ૦- દેવના જન્મ, નારકિઓના જન્મ તેમજ સિદ્ધિગતિમા ગમન એ રણ ઉપપાત છે તેમને લઈને બનાવેલા સૂત્રનું નામ ઓપપાતિક છે આ અગ નથી, ઉપાગ છે તેને ઉપાગ એ માટે કહે છે કે તે આચરાગસૂત્ર Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसन्ततिलका । संसिच्य धर्मतरुसद्मचिराऽऽलनालम् । आनन्तराऽऽगमसुधारसनिर्झरेण, स्वर्गापवर्गसुखराशिफल वितीर्य, our frea मोक्षं गतं तमिह गौतममानमामि ॥ २ ॥ द्रुतविलम्वितम् । विमलवोधिदोधविवोधकम् । गुरुवरं सदयं मणमाम्यहम् ॥ ३ ॥ अनन्तरागमरूपी निर्मल सुधारस के प्रवाह से वर्मरूपी वृक्षके सम्यग्दर्शनरूप वाल (tri) को सींचकर जिन्होंने भव्यजनोंके लिये उसके फलस्वरूप स्वर्ग एव मोक्ष के सुखरूप फलों को वितरित कर (देकर) उन्हे कल्याणस्थानमे लगाया, ऐसे मोक्षप्राप्त उन गौतमस्वामी को मैं भक्तिपूर्वक नमन करता हू ॥ २ ॥ कमलफोमलमज्जुपदाम्बुर्ज, मुखसुशोभिसदोरकवस्त्रि, जिनके उभय सुन्दर चरणकमल कमल जैसे कोमल है । जो निर्मe aft अर्थात् सम्यFast तथा श्रुतचारित्ररूप बोको देने वाले है। जिनके मुखके ऊपर दोरासहित मुखपत्ति छहकाय के जीवोंकी रक्षा के निमित्त सदा बधी हुई रहती हैं, ऐसे दयाल गुरुवर को मैं भक्तिपूर्वक नमन करता हू ॥ ३ ॥ અન તરાગમરૂપી નિમ ળ અમૃતના પ્રવાહથી ધરૂપી વૃક્ષના સમ્યગ્દર્શનરૂપ આલવાલ (કયારી) ને સિચન કરીને જેમણે ભવ્યજના માટે તેના ફલસ્વરૂપ સ્વગ તેમજ મેક્ષના સુખરૂપ ફ્લેટનું વિતરણ કરી તેમને કલ્યાણુ-સ્થાનમાં લગાયા એવા મેાક્ષપ્રાપ્ત તે ગૌતમમ્વામીને હું ભક્તિપૂર્વક નમન ३३ ४ (२) જેમના તે સુદર ચરણકમલ કમલ જેવા નમળ છે, જે નિલએાધિ એટલે સમ્યકત્વને તથા શ્રુતચાગ્નિરૂપ બેધને આપવાવાળા છે, જેના મુખ ઉપર રારાર્વિત મુર્ખત્ત કાયના જીવાની રક્ષાના નિમિત્ત સદા ખાધેલી રહે છે એવા દયાળુ ગુરૂવને હું ભક્તિપૂર્ણાંક નમન કરૂ છુ (૩) Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -- पीयूषयपिणी-दोष स १ चम्पावर्णनम् होत्था, रिथिमियसमिद्धा प्रमुइयजणजाणवया आडण्णतस्मिन काले तस्मिन ममरे अब मनम्यर्थे नृतीया प्रास्नौया काल्ममययोलोंकोतो पयायवे कय युगपनिर्देश । क्थ न या पुनरक्तिटोप । अत्र समाधानमाह-'काल' इति वर्तमानावसर्पियाधतुयांकरक्षण , ममयस्तु हीयमानल लग । यत्र काले मा चम्पाऽभूत् स कोगिको राजा चव, श्रीपर्दमानम्यामी च भगवान आसीत् । अथवा 'तेण' इति तृतीयैकवचनान्त-तेन काटेन तेन ममयेन हेतुमतेन मनसर्पिगीचतुर्थाऽऽरकलक्षगन उपलक्षिना चम्पानामिका नगर्ग आसीन । ननु सा नगरी मप्र यपि वर्तते तहिं औपपातिकमूत्रप्रापणासाहेऽपि 'आमीत् इनि ‘अग्नि इति वक्तव्यम्, तकदमुक्तम् आसीत् । इति चेत्, उच्यते--अवमर्पिणीचा कालस्य प्रस्तुतोपामग्रन्थनकाटे वर्णनीयचम्पानगरी ताहगी वक्ष्यमाणविशेषगविशिष्टा नाऽभूदिति · अस्ति' इत्यनुक्त्वाऽऽमीदियुतम् । चम्पापुरी वयेते-'ऋद्ध-स्थिमिय-समिटा सदन्तिमितममुद्रा ऋदा-विभवमानादिभिवृद्धिमुपगता, स्तिमिता-स्वपरचक्रभयरहिता, स्थिति यावत, समृदा धनधान्यसमेधिता एभिनिमि पदै कर्मचारयसमास , ऋद्रा चामौ स्तिमिता चासौ समृदा चेति तथा, विभवविस्तीर्गा प्रशान्तिसम्पना चेयर्थ , 'पमुडय-जण-जाणत्रया' प्रमुद्रितजनजानपदा, प्रमुदिता प्रमोद प्राता जना=नागरिका आनपदा -अशेपदेशवामिनो यस्या सा तथा, इष्टप्रभृतपिणी काल के चतुर्थ आरे में और हीयमान उस समय में चम्पा नाम की नगरी थी, उसमें कोणिक राजा राज्य करते थे, और भगवान विचर रहे थे। वह नगरी कैसी थी? इसका वर्णन करते है-वह नगरी (द्धि-स्थिमिय-समिद्धा)ऋद्ध-विभवण्य मयनादिका की विशिष्ट वृदि से सपन्नथी। स्तिमित-इममे निवास करने वाले लोगों को स्वचक और परचक्र का भय बिलकुल ही नहीं था। जनता यहा की मुख की नींद सोतीऔर मुख को नींद से उठती थी।समृदा~ यह नगरी अखड धन एव धान्य से सदा परिपूर्ण थी। (पमुइय-जण-जाणवया) इसीलिये यहा के समस्त नागरिक जन एव अशेप देशनिवामी माना सर्वदा आनठ मे मान ચોથા આરામાં અને હીયમાન તે સમયમાં ચા નામે નગરી હતી, તેમાં કેણિક રાજા રાજ્ય કરતા હતા અને ભગવાન મારા વિચારી રહ્યા હતા તે નગરી કેવી હતી ? તેનું વર્ણન કરવામાં આવે છે તે નગરી (દ્વિत्यिमिय-समिद्धा) ऋतु-विसवतेभर सपनाहिनी विशिष्ट वृद्धिधातनगमपन्न इता स्तिमित-तमा निवास १२वावोसन खयह तय पश्यना (AR ભય નહોતે ત્યાની પ્રજા સુખે નિદ્રા કરતી અને સુખે નિદ્રાથી ઉઠતી હતી સરા मा नगरी मम धन धान्यथा महा परिषु ती (पमुइय-अण-आणेवया) Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - औषपातिकमरे माध्ययनस्य प्रथमोदेशके-'एवमेगेसि णो णाय भवइ-अस्थि मे आया औववाइए, नस्थि मे आया ओक्वाइए, के अह आसी? के वा इओ चुए इह पेच्चा भविस्सामि?' इत्यादि, अाऽऽचारागसूत्रे यदात्मन औपपातिकत्वमुपात्तम् तदेवाऽत्र प्रतन्यते, तेन तदुपदिष्टार्थस्य सविस्तर पुष्टिकरणरूप सामीप्यमिह वर्तते, अत एवाचारागोपागता मिध्यति । अस्योपाङ्गस्य अयमुपोद्घात - मूलम्-तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नयरी टीका-'तेणं कालेण' इत्यादि। 'तेणं कालेण तेण समएण' इसे उपाग इसलिये कहा है कि यह आचारागसूत्रका समीपवर्ती है, अर्थात् आचाराग सूत्र के प्रथम अध्ययन के प्रथम उद्देश मे "एवमेगेसि णो णाय भवइ-अस्थि मे आया ओववाइए, नत्थि मे आया ओववाइए, के अह आसी ? के वा इभो चुए इह पेचा भविस्सामि?" अर्थात्-किन्ही किन्ही जीवों को यह ज्ञान नहीं होता कि मेरा आत्मा उत्पत्तिशील है या मेरा आत्मा उत्पत्तिशील नहीं है? मै पहले कौन था और यहासे मरकर परलोक मे कौन होऊँगा १, इत्यादि सूत्र जो कहा है, और इसमें आत्मा के जिस औपपातिकपने का कथन करने में आया है इसीकी इस उपाग मे विस्तारके साथ पुष्टि करने में आई है, अत यह पुष्टिकरणरूप समीपता इसमें है, इसीलिये इसमें आचारागसूत्र की उपागता सिद्ध होती है। इस उपागका उपोदात इस प्रकार है-'तेण कालेण' इत्यादि । (तेण कालेण तेण समएणं चपा नाम णयरी होत्था) उस अवसસમીપવતી છે એટલે આચારાગસૂત્રના પ્રથમ અધ્યયનના પ્રથમ ઉદેશમા " एवमेगेसि णो णाय भवइ-अस्थि मे आया ओववाइए, नथि मे आया ओरवाइए, के अह आसि? के वा इओ चुए इह पेच्चा भविस्सामि " सटो- अर्थ અને એ જ્ઞાન નથી હોતુ કે મારે આમ ઉત્પત્તિશીલ છે કે નથી, હું પ્રથમ કોણ હતા અને અહિથી મૃત્યુબાદ પરભવમાં હુ કેણ થઈશ ઈત્યાદિ સૂત્ર જે કહેલું છે, તથા એમાં આત્માનું જે ઔપપાતિકપણાનું કથન કરવામાં આવ્યું છે તેની આ ઉપાગમા વિસ્તાર સહિત પુષ્ટિ કરવામાં આવી છેઆમ આ પ્રિકરરૂપ સમીપતા આમા છે તે માટે આમા આચારાગસૂત્રની ઉપાગતા सिद्ध याय छ Bun Sund मा आरे छ-'तेणं कालेण' त्या (तेणं फालेण तेण समएण चंपा णाम णयरी होत्था) ते मपसीना Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ F पीयूषवर्षिणी-टीका स १ चम्पावर्णनम् " , कुक्कुड-संडेय-गाम-पउरा उच्छु-जव - सालिक लिया गो-महिस-गवेलगप्पभूया आचारवंतचेsय जुवड - विविह-सण्णिविद्य बहुला उक्कोडि'कुकुड- सडेय - गामपउरा' कुक्कुटपाण्डेयग्रामप्रचुरा-कुक्कुटाक्ष पाण्डेया लघुगोपतयक्ष कुकुटपाण्डेया, तेषा आमा = ममृग ते प्रचुरा = प्रभूता यस्या मा तथा । 'उच्छु-जत्रमालि-कलिया' क्षुयवालिका शालिभि करिना = युक्ता, अनेन प्रजाया पोषगहतुरभिहित । रिक्तोदरागा हि कार्यक्षमता न भवति ।' गो-महिस- गवेलग-प्पभूया गोमहिपगवेलकप्रभूता - गानो, महिष्य, गवेलका = मेपा, ते प्रभूता यस्या मा तथा 1 'यारवत चेडयजुवड - विविध-सप्णिविट्ठ-बहुला' आकाग्वच्चेययुवनिविविधमन्निविष्टबहुला - आकारवन्ति =मुन्दराकृनिकानि यानि उद्यानानि तथा युवतीना विविधानि सन्निपिष्टानि=नर्तक्यादीना मनिवेशनानि भवनानि बहुलानि यन्या सा तथा, है, अत सेतुसीमा को हुई थी । ( कुक्कुट - सडेय - गामपउरा ) इस नगरी में कुक्कट एव छोटे-छोटे मॉढ नहुत थे । (उन्छु - जव-सालि= कलिया )इक्षु, जव एव गाली का ढेर का ढेर यहा के खेतों में लगा रहता था इससे प्रजाजन के पोषण म किसी भी प्रकार की बाधा किमी भी समय उपस्थित नहीं होती थीं। बात भी ठीक है-भूखे पेट कुछ भी नहीं हो सकता । ( गो-महिस-गवेग-प्पभूया ) गाय और भैंसों को पक्ति की पक्ति इस नगरी म दृष्टिपथ होती थी, इससे दूध और घी का अभाव जनता में कभी भी दिखलाई नहीं पटता था । मेप भी यहाँ अधिक मात्रा में थे ( आयारबतचेsय - जुबड - विविध-सण्णिविट्ट - बहुला) यहा बडे २ सुन्दर उद्यान थे, एव युवति नर्तकियों के अनेक भवन भी थे । (उकोडिय - गायगठिभेयग-भड - तक्कर-खडक्ख ७ પ્રકારના વિવાદ પેદા થાય છે એટલે મૈતુસીમા શ્વામા આવી હતી (कुक्कुड- सडेय - गामपरा ) मा नगरीमा भुर्गा तेभन नाना नाना साद घाला हुता ( उच्छु- जव - सालि - कलिया) शेरडी, ४व तेभ४ शासीमोना ढगये ढगला सही ना ખેતરમા લાગેલા રહેતા હતા, તેથી પ્રજાજનના પોષણમા કોઈ પણ પ્રકારની ખાધા ટાઈપણ સમયે ઉપન્થિત થતી નહેાતી વાત પણ ખરાખર કે ભૂખ્યા पेटे मेथी अर्थ थाय नहि (गो-महिस-गवेलग - पभूया ) गाय भने ले सोनी હારની હાર આ નગરીમા નજરે જોવામા આવતી હતી તેથી દૂધ અને ઘીને અભાવ જનતામા કઢી પણ લેવામા આવતા ન હતા ઘેટા પણ અહી વધારે प्रभाशुभा हता (आयारव तचेइय - जुवइ-विनिह-सण्णिविट्ठ-बहुला) त्या भोटा भोटा સુદર ઉદ્યાન (ભાગ) હતા તેમજ યુવતી નકએ (નાચ કરનારએ)ના અનેક भवन पशु ता (उकोटिन- गायगठिभेयग-भद-तक्कर - खडरक्स - रहिया) भा Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - औपपातिकपत्रे जण-मणुस्सा हलसयसहस्स-संकिष्ट-विकिट-ल-पण्णत-सेउसीमा वस्तुसौलन्यात्प्रमोदमाननिखिलजनेति यावत् । 'आइण्णनण-मणुस्मा' आकर्णिजन मनुष्या, सख्यातिरेकात् सकुलतया परस्परोपमघटितमनुष्यप्राणिपरिपूर्णेयर्थ । अत्र जनेति ___ जातसामान्यवाचित्वात्प्राणीति निर्वक्ति, ततो मनुष्यचासो जनभेति फर्मधारये राजदन्ता धोनामाकृतिगगत्वात् मनुष्यभन्दस्य एरप्रयोग , तेन आकोर्णाच्यामा-आकर्णिजनमनुष्या, आर्य यात्-आकोर्णगन्दस्य पूर्वप्रयोग , 'हलसयसहस्स-सकिट-विक्टि-लट-पण्ण नसेउसीमा' हलगतसहस्रसकृष्टविकृष्टरष्टप्रजमसेतुसीमा, गतानि च सहस्राणि च शतसहस्राणि, हलाना शतसहस्राणि, अथवा शतमितानि सहस्राणि लक्षमिति यावत् , तैर्हलशतसहस्र सकृष्टा विकृष्ठा-द्विवार कृष्टा त्रिवार कृष्टा अत एव लटा-मृष्टा प्रतनुकृतलोष्टा मनोज्ञा प्रज्ञप्ता इयमस्य कर्पकस्ये '-ति निदिष्टा सेतुसीमा क्षेत्रपालीरूपा मीमा यस्या सा तथा, सेतुभङ्गे कृपीचलाना सीमाविवादो मा भूदिति सेतुसीमा प्रजमा, इति भाव , बने हुए थे। (आइण्ण-जण-मणुस्सा) यहा की मेदिनी (भूमि) सदा अधिक से अधिक मानवजनसख्या से आकीर्ण बनी रहती थी-मार्गों पर बड़ी भीड़ लगी रहती थी । (हलसयसहस्स-सकिट-विकिह-लह-पण्णत्त-सेउसीमा.) यहा की भूमि सैकडों अथवा हमारों अथवा लाखों हलों द्वारा जोती जाती थी, दो तीन बार जुतने से खेतों की मिट्टी बिलकुल पिस सी जाती थी, प्राय वह ककर पत्थर रहित थो, इससे वह बहुत ही मनोज्ञ प्रतीत होती थी। यह इस कर्पक की भूमि है, यह इस कर्षक की भूमि है। इस प्रकार से वहा प्रयेक किसान के खेतको सीमा निर्धारित मेडद्वारा फरने में आई थी। खेत मे मेडद्वारा सीमा निधारित यदि न की जाय तो इससे किसानों मे अपने खेत की सीमा के बारे में अनेक प्रकारसे विवाद उपस्थित हो जाता આથી અહીના સમસ્ત નાગરિકજન તેમજ બાકીના બધા દેશનિવાબી મનુષ્પો सहा आनभा भी था ता (आइण्णजण-माणुस्सा) महीनी भूमि महा पधारेने पधारे भानवसभ्यायी सरी हेती ती (हलसयसहस्स-सकिद-विकिट्ट-ल-एण्णत्त-सेउसीमा) मनी भूमि मे४ २१ અથવા લાખે હળાથી ખેડાતી હતી બે ત્રણ વાર ખેડવાથી ખેતરની માટી બિલકુલ પીસાઈ જતી હતીમુખ્યત કાકરા પત્થર રહિત હતી તેથી તે બ જ મનેઝ પ્રતીત થતી હતો આ આ ખેડૂતની ભૂમિ છે, આ આ ખેડતની ભૂમિ છે એ પ્રકારે ત્યા પ્રત્યેક ખેડૂતના ખેતરની સીમા મેડન્સીમાચિહ્ન દ્વારા નકકી કરવામાં આવી હતી ખેતરમાં મેડીમાચિક દ્વારા જે નક્કા ન કરવામાં આવે તે તેથી ખેડૂતોમાં પિતા પોતાના ખેતરની સીમાના અનેક Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पीयूषयषिणी-ठोका. स १ चम्पाथर्णनम्, गड-णदृग-जल्ल-मल्ल-मुठिय-वेलंवग-कहग-पवग-लासग-आइक्खगलंख-मंख-तूणइल्ल-तुंववीणिय-अणेगतालायराणुचरिया आराअनेककोटिकौटुम्बिकाकर्गिनिर्दृतमुखा, अनककोटिग्यारयेयै कौटुम्बिा -अनक-पुत्रादिपरिवारवद्विराकार्गा-ज्यामा चामी निर्वृतमुरा-मम्पनमोरया चंति तथा, जनताया बाहुल्येऽपि मुखमामग्री न तर दुर्लभेनि भाव । 'गड-गहग-जल्ल-मल्ल-मुट्टिय-वेलवग-कहगपरग-लासग-आउखग-लख-मग्व-तूणटल्ल-तुवीणिय-अणेगतालायराणुचरिया' नट-नत्तेक-जल्ल-मल्ल-मौष्टिक-विडम्चक-कथक-प्लवक-लासका-चक्षक-लद-मन-- तूगावत्तुम्बागिकानेकतालाचरानुचरिता, तर नटा नाटककारका , नर्तका नेकविधनृत्यनिष्णाता , जल्लापरिक्रीडनगाग, मल्ला:-मल्लझाडाकारका , मौष्टिका-मुष्टिनिश्चिन्तर्राति से मुविकी निद्रा लिया करती थी। (अणेगकोडिकुटुंबियाइण्णणि बुयाहा ) कोड़ा कुटुम्बा से इस नगरी के व्याप्त होने पर भी उन्हे यहा किसी भी प्रकार के कष्टका अनुभव नहा होता था । उन्हे यहाँ प्रयेक जीवनोपयोगी सामी मुलभ थी। (गड-गट्टग-जल्ल-मल्ल-मुट्ठिय-वेलवग-कहग-पगलासग - आइक्खग - लख-मख - तूणइल्ल-तुपवीणिय-अणेगतालायराणुचरिया) नट-नाटक करनेवालों से, नर्तक भनक प्रकारको नृत्यक्रिया में निष्णात व्यक्तियों से,जल्ल रस्सी पर चढकर विविध प्रकार के खेल तमासे दिखलाकर जनता का मनोरजन करनेवाले नटोसे,मल्ल-मल्लकीडा मंनिपुण पहलवानों से, मौष्टिक-मुष्टि से प्रहार करनेवाले मौष्टिकों से, विडम्बक-वेप एवं भाषा मादि द्वारा दूसरा की नकल करके स्वय हसनेवाले तथा दूसरों को भी उनके चित्तको अनुरजित करके हसानवाले बहुरूपिया से, कथक-अनेक प्रकार की निश्चित ते सुभनी निद्रा सेता तो ( अणेगकोष्ठिकुटुंथियाइण्णणि चुयसुहा) ४२ माथी २ नव्या हापा छत पर तेभने सही કોઈપણ પ્રકારના કદને અનુભવ થતો નહિ તેમને અહી પ્રત્યેક જીવનउपयगी थी •तु हर भगती ती (गड-गट्टा-जल-मल्ल-मुद्विय वेलयग-कहग-पवग-लासग-आइक्सग- लम्ब-मंग्वपूणदल्ल-तुंगवीणिय-अणेगतालायराणुचरिया) नट-नाट ४ापामाथी नर्तक-मन: ४२नी मृत्ययासमा નિષ્ણાત એવા પાત્રોથી, કદ-દેરડા પર ચડીને વિવિધ પ્રકારના ખેલનમામા ખાડીને જનતાને મરજન કરવાવાળા નથી, માં--ત્મલક્રીડામાં નિપુણ પહેલ पानाथी, मौष्टिक-मुध्थिी प्रहार ४२वावाणा भौष्टिशथी, विडम्बक लेप तेभा लाषा બિલ) દ્વારા બીજાઓની નકલ કરીને પિતે હસે તથા બીજાઓને પણ ખુશી Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औषधावियो य-गायगंठिभेयग-भड-तकर-खंडरक्ख-रहिया खेमा णिस्वदवा सुभिक्खा वीसत्थसुहावासा अणेगकोडिकुडंवियाइण्ण-णिवुय-सुहा 'उकोडिय-गायगठिभेयग-भड-तकर-खंडरक्ख-रहिया औकोटिकगात्रप्रन्थिमेतकभट-तस्कर--खण्डरक्ष-रहिता, उन्कोटरकोचर्यवहरन्ति ते औत्कोटिफारचग्राहिण , गात्रा फरिप्रदेशादे सकाशाद् अन्धि मिन्दन्तीति गारग्रथिभेदका गुप्तरीत्या प्रन्थिहारिण , भटा-हठाल्छण्टाका , तस्करा -चौरा खण्डरक्षा शुल्कपाला, देशसीमाया स्थित्वा ये राजकर गृहन्ति ते, एतै रहिता-एतेषामुपदवैर्वर्जिता सवोपद्रवविरहितेत्यर्थ , अतएव 'खेमा' क्षेमा-कुशलत्वरूपा अशुभाभावात् , 'णिरुषवा' निरुपद्रया, स्वचक्रपरचक्रोभयचकृतोपद्रवविरहिता। 'सुभिक्खा' सुभिक्षा-सु-सुलमा भिक्षा भिक्षणा यत्र सा तथा, 'वीसत्यमुहावासा' विधस्तमुखावासा-विश्वस्त-विश्वासमुपगत निश्चित सुरस आवासे निवासस्थाने यस्या सा तथा, 'अणेगकोडिकुडुवियाइण्ण-णिन्चुय-सुहा' रहिया) इसमें किसी भी प्रकारका भय नहीं था, न तो लाच लेने वाले जन यहा थे और न गुप्तरीति से गाठ कतरनेवाले अन्थिच्छेदक लुटेरे यहा थे । न यहा भट-- जबरदस्तो लटने वाले डाक थे और न तस्कर-चोर हा थे । ऐसा भी कोई यहा नहीं था जो देशकी सीमा में खड़ा होकर राजा के टक्स को लोगों से जोर-जुल्म द्वारा अपहरण करनेवाला हो । तात्पर्य यह है कि यह नगरी समस्त प्रकार के उपद्रवों से रहित थी। इसीलिये यहा पर (खमा णिरुबद्दवा मुभिक्खा वीसत्यमुहावासा) क्षेमा कुशलता बनी रहती थी, निरुपद्रया-स्वचक्र और परचक्र का भय यहा नहीं था । मुभिक्षा-भिक्षुओको भिक्षा भी सदा सुलभ थी। विश्वस्तसुखावासायहा का निवास जनता को सुखकारक था। मकानका दरवाजा खोलकर भी रात्रि को जनता કોઈ પણ પ્રકારને ભય નહોતે નતે લાચ લેવા વાળા અને અહી હતા કે ન તે ખીસાકાતરૂ લુટારા અહીં હતા નહોતા અહી ભટજબરદસ્ત લૂટવાવાળા ડાકઓ કે નહતા તસ્કરચાર કે એવા પણ કોઈ અહીં નહતા કે જે દેશની હદમાં ઉભા રહીને રાજાના કરને લોકો પાસેથી જે રજુલમથી પડાવા લેવાવાળા હોય તાત્પર્ય એ છે કે આ નગરી સમસ્ત પ્રકારના ઉપદ્રથી રહિત हती सटसा भाटे महा (खेमा जिरवद्दवा सुभिक्सा वीसस्थसुहावासा) क्षेमादुशलता आयभरती ती, निरुपद्रवा-बय अने परस्य ना लय सही नहाती समिक्षा-भिभुभाने मिक्षा ५ मा ती विश्वस्तसुखावासा-महीना निवास જનતાને સુખકારક હ મનના, બારણું ઉઘાડા રાખાને પણ લેકે રાત્રિમાં Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषपिणो-टीका सू. १ चम्पावनम . भप्पगासा उबिद्ध-विउल-गंभीर-खायफलिहा चक-गय-मु. वप्पिणगणोपपेता , तत्र आग्मन्ति-कीडन्ति यत्र ते आरामाः मालतीप्रभृतिलनावाततरुसमूहसमेता प्रदेशा, उद्यानानि-कुमुमस्तरकाऽवनतलघुतम्पग्मिण्डितानि स्थानानि, अटा:-कूपा , तडागाः जलाशयविशेषा, दीपिका पाप्य वप्पिणा:-जलझोडास्थानानि क्षेत्राणि वा, 'वप्पिग' इति देशीय गन्द , एतेषा गणाः-समूहा , गुणा वारमगीयतादय , तै उपपेता=युक्ता सा, 'नदणरणसन्निभप्पगासा'नन्द्रनयनमनिभप्रकाशानन्दनवन-मेरोद्धितीयवन, तसन्निभप्रकाग तप्रकाशसटश प्रकागो यस्यामा तथा,नन्दनयनसदृशसुखसम्पन्ना चम्पानगरी-इयर्थ । 'उबिद्ध-चिउल-गभीर-ग्वायफलिहा' उद्विमूविपुलगम्भीरग्वातपरिखा-उद्विद्धम्-उत्-उकग विद्धम् अयध सानितम् 'अतिउण्ड ' इति भाषाप्रसिद्ध ' विपुल-विस्तृतम्, गम्भीरम् अदृश्याधस्तलम्, ग्वातम्उपरिविशालम् सङ्कुचिताधस्तलम् , परिसा च-चतुर्दिन गोलाकारग्नातरूपा 'खाई' इति भाषाप्रसिद्धा यस्या सा तथा, खातपरिखापरिवेष्टितेयर्थ । 'चम-गय-मुसुटि-ओरोह-सयग्धिजमलकवाडघणदुप्पवेसा' चक्रगदामुसुण्ढयवरोधशततीयमलकपाटघनदुष्प्रवेशा, ववेया नदणवणसन्निभप्पगासा ) आरामो-मालतीलता आदि के समूहों से एव वृक्षराजि मे मटित प्रदेशो-से, उद्यानों-पुप्पोके गुच्छों के भारसे अवनत छोटे २ वृक्षा से परिमण्डित स्थानों से, आट-कूपों-से, तडाग-सरोनरों से, दीपिका बापियों से, वप्पिणजलक्रीडा करनेके विशेष स्थानों से वह नगरी सुशोभित थी, इसलिये मेरु के नदनवन जैसी वह शोभाका धाम बनी हुई थी। (उन्धिद्ध-विउल-गभीर-खायफलिहा, चक्कगय-मुमुढि-ओरोह-सयग्वि-जमलकवाडघगदपपवेसा)उद्विद्ध-इस नगरी के चारों ओर जो गोलाकार साई यीवह बहुत ही गहरी थी, विपुल विस्तृत थी, गभीर-जिसका अधस्तल अदृश्य था ऐसी थी, एव यातपरिखा-ऊपर विस्तृत और नीचे मकुचित थी । इसका जो चारों ओर का લતા આદિના સમૂહથી તેમજ વૃક્ષરાથિી શોભતા પ્રદેશથી, ઉદ્યાને પુષ્પના ગુના ભારથી લચી પડેલા નાના નાના વૃક્ષોથી વી ટાએલા સ્થાનેથી, અવટકૂવાઓથી, તડાગ લવરથી, દીઈિના વાથી વકિપણ-જલક્રીડા કરવાના સ્થાન વિશેષથી તે નગરી સુશોભિત હતી તેથી મેરૂના નદનવન જેવી તે શોભાનું धाम मनी 5 ती (उविद्ध-विउल-भीर-सायफलिहा, चका-य-मुसुढि-ओरोह-सग्धि-जमलकवाडघणटुप्पोसा ) मा नगरानी व्यारे १२ २ ४२ ખાઈ હતી તે ઘણું જ ઉડી હતી, વિસ્તારવાળી હતી, ગ ભાર–જેનું તળિયું અદય હેતુ એવી હતી, તેમજ ઉપર પહોળી અને નીચે સ કુચિત Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकपत्रे मुज्जाण-अगड-तलाग-दीहिय-वप्पिणगणोववेया नंदणवण-सन्निप्रहरणशीला , विडम्बका:=पभाषादिभि परानुकरणेन हसनहासनशीला , कथकाःविविधकथाकारका गायका वा, प्लवका उत्प्लवनशीला -नयादितरणगीला वा, लासका: - रासमीडाकारिण , आचक्षका शुभाशुभशकुनाभिधायका , लङ्काः-दार्धवाशिरसि क्रीडनशीला , महा:-चित्रफलक दायित्वा भिक्षाग्राहिण , तूणारन्तः तूगाभिधानवाद्यवादकाः, तुम्बवीणिकाः-वीणावादका , अनेके च ते तालाचराः-काष्ठकरतालादिभिस्तालान् ददतो लोकानाऽऽचरन्ति अनुरञ्जयन्ति ये ते तथा, एतैर्नटादितालाचरान्तैरनुचरितायुक्ता यासा तथा । 'आरामु-ज्जाण-अगड-तलागदीहिय-चप्पिणगणोववेया' आरामोद्यानावटतडागढापिकाकथाकहानियों के कहने मे कुशलमतिवाले कथाकारकों से, अथवा विविध प्रकार कीगानकला में निपुण सगीतविद्याके जाननेवालों से, प्लवक-कूदनेवालसि अथवा तैरने की कलामें पारगत अनेक तैराकोंसे, लासक-रास रचनेमे निपुण व्यक्तियों से,आचक्षक-शुभ और अशुभ शकुन को प्रकट करने मे विशेषदक्ष नैमित्तिका से, लस-बडे बडे यासों के अग्रभाग पर चढकर वहा अनेक प्रकारकी क्रीडा करके दिसानेवाले नटो से, मस-सुन्दर चित्रों को दिखलाकर जनतामे भिक्षा ग्रहण करनेवाले भिक्षुकोसे, तूणइल्ल-तूणा नामके वाद्यविशेष को बजाने वाले बाजीगरों से, तुम्बवीणिक-वीणा के बजाने मे विशेष पटु वीगावादको, एव तालाचर-काष्ठ-- करताल आदिद्वारा ताल देकर लोगोंको अनुरजित करनेवाले तालाचरों में अनुचरिता-वह नगरी कभी भी शून्य नहीं रहती थी। ( आरामु जाण अगंड-तलाग-दीहिय-चप्पिणगणो ४शन सावे सेवा ७३पामाथी, कथक-मने अनी ४था-पात उवामा કુશલમતિવાળા કથાકારોથી, અથવા વિવિધ પ્રકારની ગાળામાં નિપુણ એવા सभातथी, प्लवक-पानी विधामा पूर्ण निपुणता प्रास रेसी डाय तेका छनारासाथी, अथवा तपानी जमापा गत मने साथी, लासक-रास २यपामा નિપુણ વ્યક્તિઓથી, આચશુભ અને અશુભ શકુન કહેવામાં બહુજ દક્ષ એવા નૈમિત્તિકેથી, મોટા મોટા વાસની ટોચ ઉપર ચઢીને ત્યા અનેક પ્રકારની કીડા કરીને દેખાડવાવાળા નટોથી, મ-સુદર સુંદર ચિત્રોને દેખાડીને લોકે पाथी लिक्षा अड ४२वापामा लिक्षुमाथी, तृणइल-तूप। नामना वाचविशेष मा ५५ गशथी, तुम्पीणिक-पीर नामा विशेष प्रवीण मेवा वी418 थी, तेमा तालाचर-४१४४२तास माहिदा तानाजीने भुशी ४२वापामा ताटायरथी अनुचरिता-ते नगरी ४ही पर शून्य रहेता नहाती (आरामु-ज्जाणअगह-तलाग-दीहिय-यपिण-गणोववेया नदणवणसन्निभप्पगासा) साराभा-भारती Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका सु. १ चम्पावर्णनम. भप्पगासा उव्वड - विउल-गंभीर-खायफलिहा चक्क -गय-मु वपिगगगोपपेताः, तन आरमन्ति कीडन्ति यन ने आरामाः = मालतीप्रभृतिनाबाततरुसमूहममेता प्रदेशा उद्यानानि कुसुमन्त काननम्परिमण्डितानि स्थानानि, अवटा:=कृपा, तडागाः =जन्दायविशेषा, dafone are afपणा:-जल्कोडा · स्थानानि क्षेत्राणि वा 'सि' इति देशीय तेषा गणाः समूहा, गुगा वा= रमणीयतादय, ते उपपंतायुक्ता मा, 'नदणवणसन्निभप्पगासा' नन्दनवनमन्निभप्रकाशानन्दनवन - मेरोद्वितीयवन तसनिभप्रकाश प्रकाशमा प्रकाशो यस्या मा तथा, नन्दनवन सहासुखसम्पन्ना चम्पानगरी-इयर्थ । ' उचिह्न - विउल- गभीर - खायफलिहा ' उडिविपुलगम्भीरवातपरिवा-उद्दिम् उत्कर्षेग विदम् = अयप खानितम् 'अतिउण्ड ' इति भाषाप्रसिद्ध 'पिपुल - विस्तृतम्, गम्भीरम् = अय्यास्तन्म्, खातम् = उपरिविशालम् सङ्कुचिताधस्तलम्, परिसा च चतुर्दिक्षु गोलाकारमातम्या ' खाई ' इति भापाप्रसिद्धा यत्या सा तथा, खातपरिखापरिवेष्टिते यर्थ । 'चक्र-गय-मुमुहि ओरोह-सयग्निजमलकवाडवणदुष्पवेसा' चक्रगदामुमुण्ठ्चवरोधशतघ्नीयमल कपाटघनदुष्प्रवेशा, • ११ ववेया नदणवणसन्निभप्पगासा ) आराम - मालनीउता आदि के समूहों मे एव वृक्षराजि मे मटित प्रदेशों मे उद्यानों- पुष्पोंके गुच्छों के भारने अवनत छोटे २ वृक्षों से परिमण्डित स्थानों मे, अवट-कूपों मे, तडाग-सरोवरों से, दीर्घिका वापियों से, वप्पिणजrhist करनेके विशेष स्थानों में वह नगरी सुशोभित थी, इसलिये मेरु के नंदनवन जैमी वह शोभाका धाम बनी हुई थी । ( उन्निद्ध-विउल-गंभीर-खायफलिहा, चकगय-मुमुदिनीरोह-सयग्नि जमलकवाडप दुष्पवेसा) उद्विद्ध - इस नगरी के चारों ओर जो गोलाकार खाई थी वह बहुत ही गहरी थी, त्रिपुल-विस्तृत थी, गभीर-जिसका अधस्तल मदृश्य था ऐसी थी, एव वातपरिखा - ऊपर विस्तृत और नीचे मकुचित थी । इसका जो चारों ओर का લતા આદિના સમૂહોથી તેમજ વૃક્ષગથિી ગાભતા પ્રદેશોથી, ઉદ્યાના પુષ્પાના ગુમ્બેના ભારથ લચી પડેલા નાના નાના વૃક્ષેાથી વી ટામેલા સ્થાનેથી, અવટકૂવાઓથી, તડાગ મળવાથી, દ્રીધિંડા-વાવાની વિષ્ણુ-જલક્રીડા કરવાના સ્વાન વિશેષથી તે નગરી સુગેભિત હતી તેથી મેના નદનવન જેવી તે શેલાનુ धाभ अनी गध हुती (उच्चिद्ध-विउन गभीर- सायफलिहा, चम-गय-मुसुंदि-ओरोह-सयग्यि-जमलकवाडघण दुप्पवेसा ) या नगरीनी यारे और ने गौणाभर ખાઈ હતી તે ઘણીજ ઉડી હતી, વિસ્તારવાળી હતી, ગભાર જેનું તળિયુ અદૃશ્ય હતુ એવી હતી, તેમજ ઉપર પહેાળી અને નીચે સ કુચિત Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પર औपपातिकको सुंढि-ओरोह-सयग्घि-जमलकवाडघणदुप्पवेसा धणुकुडिल-वंकपागार-परिक्खित्ता कविसीसगवट्टरइयसंठियविरायमाणा अद्यालयता-चक्राणि-रथानानि, गदा गस्त्रविशेषा मुमुदयः-अलविशेषा एव, अवरोध - रथ्याद्वारे प्रतिभित्ति , शतघ्न्यः -या उपरितनदेशानिपातिता सय पुरुषगतानि मन्ति ता, यमलकपाटानि-समभागद्रयोपेतानि कपाटानि, तान्येव घनानि-सान्द्रागि-दृढानि वा"घन सान्डे दृढे दाढ्य विस्तारे मुद्गरेऽम्युदे।" इति हमकोशात् । एतै परचक्रादीना दुष्प्रवेशा-दु खेन प्रवेष्टुयोग्या परचक्रादिपराभवरहितेत्यर्थ , 'धणुकुडिलबकपागारपरिक्खित्ता' धनु कुटिलवक्राकारपरिक्षिप्ता-कुटिल च तद्नु –धनु कुटिलम्,आपत्वाद्विशेषणस्य परनिपात , कुटिलधनुषोऽपेक्षयाऽपि वक्रेण प्राकारेण परिक्षिप्ता युक्तेत्यर्थ , 'कत्रिसीसगवट्टरइयसठियविरायमाणा' कपिशीर्षकवृत्तरचितमस्थितविराजमाना, ता-कापशीर्षका आकाराप्रभागा 'कगुरा, इति भाषाप्रसिद्धा वृत्तरचिता =गोलाकारेण निर्मिता मस्थिता -सुन्दरमस्थानयुक्तास्तैर्विराजमाना-सुन्दरकपिशीर्षकतया शोभागालिनीत्यर्थ , अट्टालय-चरिय-दार-गोपुर-तोरण-समुण्णय-मुविभत्त-रायमग्गा' अट्टालफचरिकाद्वारगोपुरतोरणसमुन्नतसुविभक्तराजमार्गा, कोट था वह चक्र, गदा, मुसुदी, और अवरोध-रध्याद्वार के पासकी दोहरी भीत से, शतघ्नी-जिनके उपर से गिराने पर मैकडों व्यक्ति चूर्णित हो जाते है ऐसे अनविशेषों से या तोपों से, और यमलकपाटघन-मजबूत,सम युगल कपाटों से युक्त था, अत एव दुष्पवेशा उस नगरी मे शत्रु प्रवेश नहीं कर सकते थे। (धणुकुडिल-चक-पागार-परिक्खित्ता) इस नगरी का प्राकार (किला) कि जिससे यह परिवेष्टित थी वह वक्र हुए धनुष मे भी अधिक वक्र था । (कविसीसगवट्टरइयसठियचिरायमाणा अद्यालय-चरिय दार-गोपुर-तोरण-समुष्णय-सुविभत्तरायमग्गा) कपिशीर्षक-कोट के कगूरे गोल आकार के थे एव रग-विरगे थे। इस कोट के હતી તેની ચારે કોર જે કેટ હતું તે ચક્ર, ગદા, મુઢી, અને અવરોધ-દ્વારના પાસેની બેવડી ભીત-થી, શતાની–જેને ઉપરથી પાડી નાખવાથી તે કડે વ્યક્તિ ચૂરેચૂરા થઈ જાય છે એવા અસ્ત્રવિશેષથી, અથવા તેથી, અને મજબૂત સમ યુગલ કપાટેથી યુક્ત હતી આ કારણથી તે નગરીમા શત્રુ પ્રવેશ કરી શકતા नाता (धणुकुडिल-वक-पागार-परिक्खित्ता) मा नगीना प्राधार (Hिeal) नाथी त घरायसी ती ते ४ प्येता धनुषयी ५९ पधारे पाता (कविसी सगवट्टरइयसठियविरायमाणा अट्टालय चरिय-दार गोपुर तोरण-समुण्णय-सुविभत्त-रायमगा) ना BARI माना 6 २२२ रुत मारना ઉપર અદાલિકાઓ (અગાસીઓ) બનાવેલી હતી કેટના મધ્યભાગમા જ્યા દરવાજા Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषयषिणी-टीका स १चम्पावर्णनम् चरिय-दार-गोपुर-तोरणसमुण्णयसुविभत्तरायमग्गा छेयायरियरइयदढफलिहइंदकीला विवणिवणिछेत्तसिप्पियाडपणणिव्वुयसुहा तन-मालका -प्राकारोपरिवर्तिस्थलविशेगा, चरिकाः अस्तप्रमागा सतिदुर्गातराल्वतिमार्गा 'दार द्वागगि-प्रमिदानि, गोपुगगि-गोपुगगि हि नगरस्य मौन्याय प्रतिद्वागने निर्मितानि विचित्रगोमासम्पन्नानि प्रोगद्वागगि तोग्णानि असिद्धानि, एतैरहालकादिभि – उन्नता -दर्शनीय गादिगुगसम्पन्ना मुरिभक्ता -तत्तत्स्याने गमनाय विमागरूपेग रचिता राजमागा यस्या सा। 'छेयायरियरट्यदढफलिइदकीला' ठेकाचार्यरचितदृढपरिघेन्द्रकीला छेकाचार्यग निपुणगिल्पिना, रचित कृत , परिघ = अर्गला, इन्द्रकील =मयोजितकपाटद्वयदृढीकरणाय लोहमयकीलविशेष यटा-कपाटदृढीकरगाय लौह्मयकण्टकपिशेष , यस्या मा तथा, 'विवणिवणिन्छेत्तसिप्पियाइण्णणिव्यमूहा' विपगिनगिकक्षेत्रगिस्याकीर्णनिर्वृतमुखा, तन-विपणीना-हटाना वणिजा च 'छेत्त' क्षेत्र-स्थानरूपा या सा, प्रचुरहाप्रचुरुयापारिंगगसम्पने यर्थ , तथा-गिम्पिमि = कुम्भकारतन्तुनायादिभि -आकीर्गा=परिपूर्गा, अतएव जनाना प्रयोजनसिया निवृतऊपर अट्टालिकाएँ बनी हुई थीं, कोट के मध्यभाग मे जहा पर दरनाजे थे वहा आठ हाथ-प्रमाण चौडा मार्ग या। कोटमे प्रधान तरसाजे थे, जहा से नगरी मे प्रवेग किया जाता था। द्वारा पर तोर ग बहुत उन्नत थे । भिन्न २ स्थानो पर पहुँचने के लिये अलग २ मार्ग बने हुए थे। (छेयायरियरदयदहफलिहदकीला) निपुण शिल्पीके द्वारा रचित-कृत अर्गला से एव इन्द्रकीला-दोनों किंगाडाको परम्पर में दृढ करने के लिये लगाये गये लोहनिर्मित कीलों से इस नगरीके द्वार युक्त थे । (विवणिवाणिछेत्तसिप्पियाइण्णणिव्वुयसुहा) इसके बाजार अनेक दुकानों एव व्यापारियोंसे आकीर्ण रहते थे । नगरीमें कुमार और तन्तुवाय-जुलाहे बहुत थे, इससे હતા ત્યા આઠ હાથના માપના પહોળા રસ્તા હતા કોટમાં મુખ્ય દરવાજા હતા જેમાથી નગરીમાં પ્રવેશ કરાતે હતે હારે ઉપર તરફ ઘણા સરસ હતા, જુદા જુદા સ્થાને પર પહોંચવા માટે જુદા જુદા માર્ગ બનેલા હતા (छेयायरियरइयदढफलिहइदकीला) निपुण शिपाथी सनावद मा ( भागબીયા)થી તેમજ ઈદકીલા-બને કમાડેને પરસ્પરમાં દઢ કરવા માટે લગાડવામાં આવેલ લેઢાના બનાવેલ કલા (ભેગળ) થી આ નગરીના દ્વારે યુક્ત sal ( विवणिवणिछेत्तसिप्पियाइण्णणिव्वुयसहा) सनी २ मन आना તેમજ વ્યાપારીઓથી ભરચક રહેતી હતી નગરીમા કુ ભાર અને વણકર Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ tearneas प्रेक्षणीया, शोभासन्भारगालितया नगर्ग परयद्भिर्निमेषा प्रायो न पात्यते । 'पासाईया' प्रासादाया- प्रसादो मन प्रसन्नता प्रयोजन यस्या मा प्रासानीया हार्दिकोल्लासकारिणीति यावत् ' दरिसणिज्जा' दर्शनीया रमणीयतया क्षणे क्षण द्रष्टु योग्या, 'अभिरूचा ' अभिरूपा - अभिमतमनुकूल रूप यस्या सा तथा, 'पडिरूवा' प्रतिरूपा - रूप्यते एपोऽयमिति निश्रीयतेऽनेनतिरूपमाकार - अभिमतम् असाधारण रूप यस्या या अभिरूपा-सर्वथा दर्शकजननयनमनोहारिणीति निष्कर्ष ॥ सू १ ॥ शोभा - अपलक - निर्निमेष दृष्टि से ही देखने योग्य श्री - यह नगरी इतनी अधिक सुन्दर थी की जिसे निर्निमेष होकर लोग निहारा करते थे फिर भी नहीं अघाते थे । (पासाईया) देखकर मनमे बडाही प्रसन्नता होती थी । ( दरिसणिजा) प्रदर्शिनी की वस्तु जैसी यह बनी हुई था । अति रमगीय होने की वजहसे यह क्षग २ मे देखनेके कामिल थी । (अभिरुवा पडिरूपा ) इसका रूप अनुकुल या - मनको रुचे ऐसा था । इसीलिये यह अभिरूप एन प्रतिरूप था - दर्शकजनके मनको सन प्रकारसे आनंद प्रदान करनेवाला थी । भावार्थ अवसर्पिणी कालके चतुर्थ आरेमें चपा नामकी नगरी थी । इसमे ऊचे २ मकान थे । उसे यह मंडित थी । किसीभी प्रकारका यहा भय नहीं था । जनता हरएक प्रकारसे निर्भय होकर इसमे निर्विघ्न से रहा करती थी । नगरीमें ऐसा कोई भा स्थल नहा था जो भाग्यगाली जनसमूह से आकीर्ण न हो। इसके નગરીની શાભા નિર્નિમષ દૃષ્ટિએ જ જોવા લાયક હતી ( દેખાઈ આવતી હતી ) આ નગરી એટલી તે વધારે સુદર હતી કે આખનું મટકું भार्या वगर या ४ ४रता ता छता थाडता नहोता ( पासाईया) लेने मनभा यूपत्र प्रसन्नता थती हुती ( दरिमणिज्जा ) अहर्शनीनी वस्तु नेवा એ અની ગઈ હતી. અતિરમણીય હોવાને કારણે એ ક્ષણે ક્ષણે જોવા ચેગ્ય हती (अभिख्या पडिना) तेनु उप अनुज तु-मनने ये भेषु तु, તેથી તે તે અભિરૂષ તેમજ પ્રતિરૂપ હતી જેનાર લેાકાના મનને મ પ્રકારથી આનદ પ્રદાન કરાવે તેવી હતી ભાવાર્થ-અવસર્પિણી કાલના ચાચા આરામા ચપા નામે નગરી હતી તેમા ઉંચા ઉંચા મકાન હતા ઋદ્ધિથી તે ચેાભની હતી કેઇ પણ પ્રકારના અહી ભય નહેલા હરેક પ્રકારથી નિર્ભય ખીને તેમા નિવિંન્ને રહેતા હતા. નગરીમાં એવુ કાઈ પણ સ્થળ નહેતુ કે જે ભાગ્યશાળી જનસમૃહુથી Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूपयर्षिणी-टोका सू १ चम्पायर्णनम वाहिरकी जमान हजाग हलो से जुता करती थी । प्रयेक मौसमका धान्य उममे होता या । गाय-भैमांका इसमें कमी नहा यो । नगरीकी मीमामे गाव बहुत नजदीक बसे हुए थे। इक्षु आदि की उपज इसम अधिक मात्रामे होनी थी। पडे सुन्दर एव विशाल बगीचे थे । इसमे जनताको कष्ट देनेवालाका नामोनिया तक भी नहीं था । न यहा लॉच लेने वाले थे, न प्रन्थिच्छेदक थे, न उचो लुटेर ही थे। इसमें नर्तकियोंके स्थान भी अनेक थे। भिक्षुआको प्रयेक समय यहा भिक्षा मुलभ थी। कुलपरम्परासे श्रीमत लोगोंका यहा अभार नहीं था । मनोविनोद के साधन भी इस नगरीमे जगह२ पर ये। नट थे, नाटककार थे, मल्लयुद्ध करनेवाले ये, मुष्टियुद्ध करनेवाले थे । कथाकहानी सुनाकर लोगोमें मुप्त शुदपुरपार्थको जगानेवाले जनभी यहा ये { रास रचाकर मानवों का आनदित करने वाले खिलाटी व्यक्ति भी यहा रहा करते थे । तात्पर्य यह कि प्रयेक मनोविनोद की सामग्री यहा सतत प्रस्तुत न्हा करती थी। नगरी के वाहिर-भीतर का प्रदेश आरामा, उद्यानों, कुना, वावडी एव जलाशय-तालाव आदि से सुशोभित था। ભરેલુ ન હોય તેની બહારની ભૂમિ હારે હળથી ખેડાયા કરતી હતી પ્રત્યેક મોસમના ધાન્ય તેમાં ઉત્પન્ન થતા હતાં ગાયભે સોની તેમા બેટ નહેતી નગરીની સીમામાં ગામડા બહુ નજીકમાં વસેલા હતા શેરડી આદિની ઉપજ તેમાં વધારે પ્રમાણમા થતી હતી મોટા સુદર તેમજ વિશાલ બગીચા હતા તેમાં લેકને કઇ દેવાવાળાનું નામનિશાન પણ નહોતુ ન તે અહીં લાચ લેવા વાળા હતા કે ન ખિસ્સાકાતરૂ હતા વળી લુટારા પણ નહોતા તેમાં નાચનારીઓના સ્થાન પણ ઘણા હતા ભિક્ષુઓને પ્રત્યેક સમય અહીં મહેજે ભિક્ષા મળી રહેતી હતી કુળપર પરાથી શ્રીમત લોકોને અહી -અભાવ નહેાતે મને વિનોદના સાધન પણ આ નગરીમા ઠેકઠેકાણે હતા નટ હતા, નાટ્યકાર હતા, મલ્લયુદ્ધ કરવાવાળા હતા, મુખિયુદ્ધ કરવા વાળા હતા, કથાવારતા સંભળાવી લોકમાં ઢકાઈ રહેલો શુદ્ધ-પુરૂષાર્થ જાગૃત કરાવવાવાળા લડે પણ અહી હતા રાસ રચાવીને માનવેને આનંદિત કરવાવાળા ખેલાડી વ્યક્તિઓ પણ અહી રહેતા હતા તાત્પર્ય એ કે પ્રત્યેક મનોવિદની સામગ્રી અહી સતત પ્રસ્તુત રહ્યા કરતી હતી નગરીની બહાર તેમજ અદરના પ્રદેશ આગમ ઉવાને કુવા વાવડી તેમજ જલારા–તળાવ આદિથી સુશોભિત હતા. Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -. - .. - - - - - - .. - - - . - - - - - - - - - - - - औपपातिकमरे इस नगरी के बाहिर एक विशाल और बहुत गहरी साई थी। नगरी का कोट वक्र धनुषकी अपेक्षा भी अधिक वक्र था, जिसमें प्रयेक आत्मरक्षग के साधन थे । किले में बडे २ दरवाजे थे, दरवाजों मे वन जैसे मजबूत कियाड थे, किंवाडों में नुकीले कीले लगे हुए थे। कोट के ऊपर जो अालिकाएँ थीं उनमे अनेक प्रकार के अस्त्र __ और शस्त्रों का स्प्रह किया गया था। वह वहा सदा सुरक्षित रहता था । नग रीमे विस्तृत बाजार थे, बाजार में बड़ी २ दुकाने थीं, दुकानों में क्रय विक्रय की बहुमूल्य प्रत्येक आवश्यकीय वस्तुएँ सगृहीत थीं । नगरी के राजमार्ग हर समय ___ अपार जनको भीड से, हाथियों से, पालकियों से, रथों से, और तामजाम आदि से सकु लित बने रहा करते थे । यहा के मकान धवल चुनासे पुते हुए रहने के कारण बडे ही सुहावने मालूम होते थे, तात्पर्य यह है कि यह नगरी बहुत ही सुन्दर और चित्त को लुभानेवाली थी। सब प्रकार से यहा जनताको आराम था। किसी भी त्रिलोकगत वस्तु का यहा अभाव नहीं था। अमरावती जैसी यह भली मालम તેની શી આ નગરીની બહાર એક વિશાલ અને ઘણી ઉડી ખાઈ હતી નગરીને ફરતો વાકુ ધનુષ કરતા પણ વધારે વાકે કેટ હતું જેમાં દરેક આત્મરક્ષણના સાધન હતા કિટલામા મેટા મેટા દરવાજા હતા દરવાજામાં વજ જેવા મજબૂત કમાડ હતા કમાડમાં આગળીઆ તથા ભેગળો લગાવેલા હતા કેટના ઉપર જે અટારિઓ હતી તેમાં અનેક પ્રકારના અસ્ત્રો તથા શસ્ત્રો ને સંગ્રહ કરેલ હતું તે ત્યાં સદા સુરક્ષિત રહે તે હેતે નગરીમાં વિસ્તૃત બજાર હતી બજારમાં મેટા મેટી દુકાને હતી દુકાનમાં જ્ય-વિયની બહુમૂલ્ય ( કિમતી ) પ્રત્યેક આવશ્યકીય વસ્તુઓ સ ઘરેલી હતી નગરીના રાજમાર્ગ દરેક સમય અપાર માણસની ભીડથી, હાથીઓથી, પાલખીઓથી, થી અને તામામ આદિથી ભરચક રહ્યા કરતા હતા અહીના મકાન સફેદ ચુનાથી પિતાયેલા રહેવાના કારણે ખૂબ જ નિકદાર લાગતા હતા તાત્પર્ય એ કે આ નગરી બહુજ સુંદર અને ચિત્તને ખેચવાવાળી હતી દરેક પ્રકારથી અહી લોકોને આરામ હતો કે ઈ પણ ત્રિકગત ( ત્રણ લોકમા થતી ) વસ્તુને અહી અભાવ નહેતો અમરાવતી જેવી આ સરસ લાગતી હતી Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - पीपवपिणी-स १ चम्पावर्णनम् शका-काल और समय तो एक हो अर्थ के वाचक है फिर स्त्र में " तेण कालेणं तेणं समएणं ऐसा प्रयोग सूरकार ने क्यों किया र उत्तर यह है-'काल' गन्न से अरमर्पिणो कालके चतुर्थ आरे का ग्रहण होता है, और 'समय' शब्द से यहाँ होयमान लिया जाता है, तथा घडी घटा पक्ष मास सवत्सर आदिरूप से परिवर्तित होने वाला परिणमन लिया जाता है, अथवा-जिस प्रकार सरत् और मिती सातो आदिम लीखी जाती है, ठीक इसीप्रकार यहा पर भी समझना चाहिये । यह चपा नगरी तो अब भी है फिर " अस्ति" ऐसा न कहकर सूत्रकार 'आसीत् ' इस भूतकालिक क्रिया का प्रयोग क्यों करते है ? अर्थात्-- जिस समय औपपातिकमूनकी रचना हुई उस समय मेभी वह नगरी थी, फिर 'अस्ति' ऐसा न कहकर 'आसीत्' ऐसा क्यों कहा ? इसका उत्तर यह है कि जिस समय इस उपाग रूप आगम की वाचना हुई थी, उस समय यह नगरो सूत्र में कहे हुए विशेषगों से सर्वथा युक्त नहीं थी, न इस समय वैसी है, इमलिये 'अस्ति' क्रियापदका प्रयोग न करके मूलकार ने आसीत इस मृतकालिक क्रियापदका प्रयोग किया है । सू १॥ શકા -કાલ અને મમય તે એકજ અર્થના વાચક છે છતા સૂત્રમાં " तेण कालेण तेण समण्ण" या प्रयोग सूत्रधार भय छ ? Sir કાલ’ શબ્દથી અવસર્પિણી કાલના ચેથા આરાને અર્થ ગ્રહણ થાય છે, અને “સમય” શબ્દથી અહી હીયમાન લેવાય છે, તથા ઘડી કલાક પક્ષ માસ સ વત્સર આદિ રૂપથી પરિવર્તિત થનાર પરિણમન લેવાય છે અથવા જે પ્રકારે સ વ તથા મિતી ચોપડા આદિમાં લખવામાં આવે છે તેવી જ રીતે અહી યા પણ समान २१ २२ पा नगरी तोडल छ छत • अस्ति' सभ न ४ता ' आमीत्' म भूतलिपियानो प्रयोग भ ४२ छ ? એટલે કે જે સમયે ઓપપાતિક-મૂત્રની રચના થઈ તે સમયમાં પણ તે નગરી હતી તે પણ શક્તિ એમ ન કહેતા આણીત કેમ કહ્યું? તેને જવાબ એ છે કે, જે સમયે આ ઉપાગરૂપ આગમની વાચના થઈ હતી તે સમયે આ નગરી સૂત્રમાં કહેલા વિશેષણોથી સર્વથા યુક્ત ન હતી અને આ સમયે પણ તેવી નથી રહી એ માટે અતિ ક્રિયાપદને પ્રગ ન કરતા સરકારે આ એવા ભૂતકાલિક ક્રિયાપદને પ્રયોગ કર્યો છે (૧) Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - औषपातिकमरे इस नगरी के बाहिर एक विशाल और बहुत गहरी साई थी। नगरी का कोट वक्र धनुपकी अपेक्षा भी अधिक वक्र था, जिसमें प्रत्येक आत्मरक्षग के साधन थे । किले मे बडे २ दरवाजे थे, दरवाजों मे बन जैसे मजबूत किवाड थे, किवादों में नुकीले कीले लगे हुए थे। कोट के ऊपर जो अट्टालिकाएँ थीं उनमे अनेक प्रकार के अस्त्र और गस्त्रों का स्ग्रह किया गया था। वह वहा सदा सुरक्षित रहता था। नगरीमे विस्तृत बाजार थे, बाजारों में बडी २ दुकाने थीं, दुकानों में क्रय विक्रय की बहुमूल्य प्रत्येक आवश्यकीय वस्तुएँ सगृहीत थीं । नगरी के राजमार्ग हर समय अपार जनकी भीड से, हाथियों से, पालकियों से, रथों से, और तामजाम आदि से सकुलित बने रहा करते थे । यहा के महान धवल चूनासे पुते हुए रहने के कारण बडे ही सुहावने मालूम होते थे, तात्पर्य यह है कि यह नगरी बहुत ही सुन्दर और चित्त को लुभानेवाली थी। सब प्रकार से यहा जनताको आराम था। किसी भी त्रिलोकगत वस्तु का यहा अभाव नहीं था। अमरावती जैसी यह भली मालम होती थी। આ નગરીની બહાર એક વિશાલ અને ઘણું ઉડી ખાઈ હતી નગ રીને ફરતે વાકુ ધનુષ કરતા પણ વધારે વાકે કેટ હતો જેમાં દરેક આત્મરક્ષણના સાધન હતા કિલ્લામાં મોટા મોટા દરવાજા હતા દરવાજામાં વજ જેવા મજબૂત કમાડ હતા કમાડમ આગળીઆ તથા ભગળે લગાવેલા હતા કેટના ઉપર જે અટારિઓ હતી તેમાં અનેક પ્રકારના અસ્ત્રો તથા શસ્ત્રો ને સંગ્રહ કરેલ હતું તે ત્યા સદા સુરક્ષિત રહેતે હતે. નગરીમા વિસ્તૃત બજાર હતી બજારમાં મોટી મોટી દુકાને હતી દુકાનમાં ય-વિક્રયની બહુમૂલ્ય ( કિમતી ) પ્રત્યેક આવશ્યકીય વસ્તુઓ સ ધરેલી હતી નગરીના રાજમાર્ગ દરેક સમય અપાર માણસેની ભીડથી, હાથીઓથી, પાલખીએથી, રથાથી અને તામજામ આદિથી ભરચક રહ્યા કરતા હતા અહીના મકાન સફેદ ચુનાથી પિતાયેલા રહેવાના કારણે ખૂબ જ નકદાર લાગતા હતા તાત્પર્ય એ કે આ નગરી બહુજ સુંદર અને ચિત્તને ખેચવાકાળી હતી દરેક પ્રકારથી અહી લોકોને આરામ હતો કોઈ પણ ત્રિલોકગત ( ત્રણે લોકમાં થતી ) વસ્તુને અહી અભાવ નહોતે અમરાવતી જેવી આ સરસ લાગતી હતી Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ पीयूपयपिणी-टीका सू २ पूर्णभप्रचैत्यवर्णनम्, सच्छत्ते सज्झए सघंटे सपडागे पडागाइपडागमंडिए सलोमहत्थे क्रयवेयदिए लाउल्लोइयमहिए गोसीससरसरतचंदणददरविदितम् । ' सन्उत्ते' मन्छाम्-उमण्डितम् । 'सज्झए ' मध्वज-बजोच्छाय मश्रीकम् । 'सबटे' सघण्टम् । 'सपडागे' सपताकम् । 'पडागाउपडागमडिए' पताकाऽतिपताकामण्डितम्-पताका लघुपताका अनिपताका विशालपताका , ताभिर्मण्डितम्। 'सलोमहत्ये' मगेमहात-मृदुप्रमा निकया महितम्। 'कयवेयदिए' कृतनितर्दिकम् चितवेदिकम् । 'लाउल्लोइयमहिए'-लापितोलोचितमहितम् , तर लापित-गोमयादिभिरङ्गणमित्यादेर्लेपनम्, उल्लोचितम-पष्टिकादिन्यैर्भित्यादीना चाफचिस्ययुक्तकरणम् । था, (फित्तिए) लोगों द्वारा गीतरह तरह की किंवदतियों (दन्तकथाओ) से यह कीर्तित हो रहा या। (णाए) ऐमा कोई भी जन नहीं था जो उसके नामसे अपरिचित हो। सर्वत्र जनों में यह रयातिप्राप्त स्थान था। (सन्छत्ते ) वह उनसहित था। (सज्झए ) ध्वजाओं से युक्त या, (सघटे) घटाओं से विशिष्ट या (सपडागे) पतकाओं से उसकी शोभा अपूर्व बन रही थी। उसमें (पडागाइपडागमडिए) कोई २ छोटी पताकाए थीं और कोई २ विशाल पताकाएँ थीं, जिनसे वह मडित था । ( सलोमहत्ये) मृदुप्रमा निका-मयूरपिच्छकी पाठी से ही उमझी सफाई होती थी, अत इतस्तत वे ही वहा रग्बी हुई रहती यौं, कठिन बुहारिया नहा । (कयवेयदिये) इसमे वेदिका बनी हुई थी (लाउल्लोइयमहिय) इसके आगन की जमीन लापितगोमय से लिपी हुई रहती थी, उसकी भाते उल्लोचित-सफेद सदिया से पुती घो। पुराणे। छ में 34थी प्रसिद्धि-मोटिमा मापी गयो ता (कित्तिए) લકા દ્વારા પણ જાતજાતની કિવદંતિઓથી–દતકથાઓથી તે કીર્તિત (अध्यात) 25 २हो तो (णाए) सवा ४ ५ मा नहाता है જે એના નામથી અપરિચિત હોય સર્વત્ર લોકોમાં આ ખ્યાતિ પામેલું સ્થાન तु (सच्छत्ते) ते माहित तु (सज्झाए ) साथी युत तु ( सघटे ) घटायाथी विशिष्ट तु (सपडागे) पतासाथी तेनी शाला सर्व थ६२डी ती तमा (पडागाइपडागमंडिए) 35 नानी पता। हती मने विशाल ५४मा तीरथी ते शामतु तु (सलोमहत्ये) मृदुप्रभा निशा-मारना पीछानी भी छीथी तनी सराई थती ती, આથી અહી તહી તે ત્યા રાખવામાં આવતી હતી, કઠણ સાવરણી નહિ (कयवेयदिए) तमा हिनावेसी डती (लाउल्लोइयमहिए) तेना मागाना भूमि लापित-छtथी दीपामेसी २ती ती तनी सीता उल्लोचित-स३६ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - औपपातिकसने मूलम्---तीसे णं चंपाए णयरीए बहिया उत्तरपुरथिमे दिसीभाए एत्थणं पुषणभद्दे णामं चेडए होत्था, चिराईए पुवपुरिसपण्णत्ते पोराणे सदिए वितिए कित्तिए णाए टीका-'तीसेण' इत्यादि । 'तीसेणचपाए णयरीए' तस्या सलु चम्पाया नगर्या -न करोऽष्टादशविधस्तन्निवासिना राज्ञे देयो यस्यामा नगरो, अब ककारम्य गकाररूपोवर्णविपर्याम पृ. पोदरादित्वात्, अष्टादशविध करोऽस्माभिरन्तकृदमागसूत्र प्रथमसूत्रस्य मुनिकुमुदचन्द्रिकाठीकायामुक्तस्ततो विज्ञेय । 'वहिया वाद्ये, 'उत्तरपुरत्यिमे उत्तरपौरस्त्ये-उत्तरस्या पूर्वस्या अन्तरालेऐशान्ये कोण इति यावत् । ' दिसीभाए ' दिग्भागे । 'पुण्णभद्दे णाम चेइए होत्या' पूर्णभद्र नाम चैत्य-व्यन्तरायतनमासीत् । तत् कीदृशम् ? इत्याह-'चिराईए । चिरादिकम् चिरकालिकम् अतएव-'पुचपुरिसपण्णत्ते' पूर्वपुरुषप्रज्ञन्तम्, पूर्वपुरुषै प्राचीनपुरुषै प्रजप्तम-कथित बहुकालत प्रसिद्धम् इत्यर्थ । यत पोराणे-पुरातनमतिप्राचीनम् 'सदिए' शन्दित-गब्द -प्रसिद्धि सञ्जातो यस्य तत्-अन्दितम्प्रसिद्धिप्राप्तम् । 'चित्तिए' वित्तिकम्-वित्त-प्रसिद्धिरस्यास्तीति वित्तिकम् प्रसिद्धमित्यर्थ । 'फित्तिए' कीर्तितम्-प्रवर्णितम् ‘णाए' प्रख्याततया ज्ञात-सकलजन तीसे ण चपाए णयरीए०' इत्यादि। (तीसे ण चपाए गयरीए) उस चपा नगरी के (बहिया) बाहिर (उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए) उत्तर और पूर्व दिशा के बीच ईशानकोणमें (पुण्णभद्दे णाम चेइए होत्था) पूर्णभद्र नाम का एक चैय-यक्षालय था। (चिराईए पुन्यपुरिसपण्णत्ते ) वह बहुत प्राचीन था । बडे-बूढे पुराने पुरुष भी इसको तारीफ करते आ रहे थे। इसलिये यह (पोराणे ) बहुत पुराना था। (सदिए ) इसी प्रकार से इसकी प्रसिद्धि भी चली आरही यो। और इसी कारण से वह (वित्तिए) बहुत पुराना है-इस रूपसे प्रसिद्रि-कोटि मे आ गया तीसे ण चंपाए णयरीए० ४त्यादि (तीसे ण चंपाए णयरीए) ते या नगीना (बहिया) महार (उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए) उत्तर भने पूर्व हिशानी ये-शानभा (पुण्णभद्दे णाम चेइए होन्था) मनामना : येत्ययालय उत। (चिराईए पुव्वपुरिसपण्णते) मे ઘણે પ્રાચીન તે ઘણુ બુદ્દા પુરાણા પુરૂષ પણ તેની પ્રશંસા કરતા આવતા ता, ते भाटे ते (पोराणे) भो। पुराणो तो (सदिए) मेवी शतनी प्रसिद्धि पक्ष साक्षी भापती ती अने से रथीत (वित्तिए) Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीguafont-टीका व २ पूर्णभद्रचेत्यवर्णनम् २३ दामकलावे पंचवण्णसरससुरभिमुक्कपुप्फपुंजोवयारकलिए कालागुरुपवरकुंदुस्कतुरुक्क धूवडज्यंतमघमघंत गंधुनुयाभिरामे सुगंधवर अथात्-उपर्यधोनिस्सृतानुलप्रलम्बमानकुमुममाला कलाप = समूहो कलापोपेतम् । यत्र तत्. 'पचरणसरसमुर हिमुफपुजीवयारकलिए ' vaahare 3 सुरभिमुक्तपुष्पपुञ्जोपचारकलितम् पञ्चनांनि कृगनालपीतरक्तचेत कान्तियुक्तानि मरसानि मुरमणि-सुगन्धीनि च तानि मुक्तानि - विकीर्णानि यानि पुष्पाणि तेषा पुलैरुपचाग - रचनाविशेषा ते रुलित युक्त विधिवर्णकुसुमरचनासम्पन्नमियर्थ, 'कालागुरुपवरकुदुरुतुरुकवडत मयमत्रतायाभिरामे' कालागुरुप्रनरकुन्दरुकतुरकधूपदद्यमानातिशयगन्धोद्भूताऽभिरामम- कालागुरु कृष्णागुरु, प्रबरकुन्दुरुफ श्रेष्ठगन्धद्रव्यविशेष, तुरुष्क = सिन्हक 'नान इति भाषायाम्, धूपगन्धद्रव्यमयोगजन्य पदार्थ, एते दद्यमाना अग्नी प्रक्षिप्यमाणास्तेपा 'मघमघत' अतिशयितो यो गन्ध 'उदय' उद्धृत =सत प्रसूत तेन अभिरामम् = मनोहरम् 'मुगधवरगधमहदामकलावे ) यक्षायतन में भीतों के ऊपर और नीचे सर्वन विस्तीर्ण एव गोलाकार लटकते हुए कुसुमकी मालाओं के कलाप की सजावट हो रही थी । ( पचवण्णसरसरभिमुकपुप्फपुजोवयारकलिए ) प्रतिस्थान पर यहा पचवर्ण के सरस एव सुगंधित पुष्पों के पुजों से अनेक प्रकारकी रचना रचने मे आई थी । ( कालागुरुपवरकुदुरुतुरु मधूडिज्यतमघमघ तग युद्धयाभिरामे ) उस यक्षा--- यतनमे कृष्णागुरु, प्रबरकुन्दुरफ-श्रेष्ठगन्धद्रव्यविशेष, तुरुष्क-सेन्हारस लोगन और धूप ये सब सुगंधित पदार्थ अग्नि से समय २ पर प्रक्षिप्त हुआ करते थे, इसलिये चहा अद्भुत विशेष गध भरी रहती थी, इसलिये वह सदा अतिशय मल्लदामफलावे ) यक्षायतनभा लीतोनी उपर तथा नीचे सर्वत्र विस्तीर्थ તેમજ ગાલાકાર લટકાવેલી પુષ્પાની માળાએના કલાપની સજાવટ (શેાભા ) यह रही हती ( पचवण्ण सरससुरभिमुकपुष्कपुजोवयारकलिए ) ६२४ स्थान પર અહી પચ વહુના સરસ તેમજ સુગંધિત પુષેાના ઢગલાથી અનેક પ્રકાरनी रथना मनाववाभा भावी हुनी (कालागुरुपवरकुटुरुष तुरुक्क धूवडज्झतमघमत याभिरामे) ते यक्षायतनमा कृष्णागु, प्रवरमुन्डुष्ठ-श्रेष्ड गधद्रव्य विशेष, તુરૂપક-સેહાર-લેખાન અને ધૂપ, એ બધા સુગધિત પદાથ અગ્નિમા વારવાર નાખવામા આવતા હતા, તેથી ત્યા બધુજ સુગધભી રહેતી હતી આથી તે મઘમઘતું -બધી તરફથી સુગ ધીથી સુગેાભિત મની રહેતુ સા Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨ औपपातिकमरे - - दिषणपंचंगुलितले उचियचंदणकलसे चंदणघडसुकयतोरणपडिदुवारदेसभाए आसत्तोसत्तविउलवटेवग्धारियमल्लताभ्या महित युक्तम् । 'गोसीससरसरत्तचदणददर दिण्णपचालितले' गोशीर्पमरसरक्तचन्दनप्रचुरदत्तपञ्चाङ्गुलितलम्, गोगीर्ष-गोरोचन सरन रक्तचन्दनम्, एतेन चन्दनस्य पीतवर्णता रक्तता च व्यन्यते, तेन पातरक्तसरसचन्दनेन दर्दर-प्रचुर यया स्यात्तथा दत्त पञ्चानामङ्गलीना तलच्यायतपञ्चाङ्गुलपागितल चपेटारूपम् अङ्कन चिह्न यत्र तत् तथा । 'उचियचरणकलसे' उपचितचन्दनकलगम्-मङ्गलार्थ न्यस्तचन्दनलिमघटम् । 'चंदणघडमुफयतोरणपडिदुवारदेसभाए। चन्दनघटसुकृतनोरगप्रतिद्वारदेशमागम्-चन्दनघटाश्च सुष्टु कृततोरगानि च प्रतिहारदेशभागे यस्य तत्तथा, यत्र प्रतिद्वारे चन्दनलिसकलशा सुन्दरतोरणानि च सन्तीयर्थ , 'आसत्तोसत्तविउलपबग्धारियमल्लदामालावे' आसक्तोसक्तविपुलवृत्ताऽमतारितमाल्यदामकलापम्--आसक्तो भूमिनसक्त उसक्त ~ उपरिममक्त , विपुलो विस्तार्ण , 'चट्टो' वृत्तो-तुलो गोलाकार, उपरिदेशात्-अवतारित प्रलम्बमानीकृत ,'मलदामालावे' माल्यानि-कुसुमानि, तेपा दामानि-माला पुष्पमाला , तेवा माल्यवान्ना रहती थी। इस कारण सूब महित-चमकती रहती थी। (गोसीससरसरत्तचदणददरदिण्णपचालितले ) भित्तियों में जगह २ पर गोरोचन और सरस रक्तचदन के प्रचुरमात्रा मे हाथे लगाये हुए थे । ( उपचियचदणकलसे) उस रक्षालयमे मगल के निमित्त चन से लिम कलश स्थापित थे। (चदणघडकयतोरणपडिदुवारदेसभाए) प्रयेक द्वारों पर चढन के घट रसे हुए थे, एच अच्छी तरह से बनाए गये सुन्दर तोरण दरवाजों के ऊपर सुशोभित हो रहे थे, अथवा चदन के छोटे २ कलशो से दरवाजों पर तोरणों की रचना करने में आई थी। ( नासत्तोसत्तविउलबटवग्धारियमडीया पातायतीखती ती तार तेजून महित-यमती नीती (गोसीससरसरत्तचदणददरदिण्णपचालितले) सीतमाशे गायन भने सरस २४तयहनना थापा भूम प्रमाणभा दगावता उता (अचियचदणकलसे) ते यक्षालयमा भगसना निमित्त न्यन use Aयापित त (चदणघड सयतोरणपडिदुवारदेसमाए ) प्रत्ये: द्वारे ७५२ यहाणा बट रामेला હતા તેમજ સરસ રીતે બનાવેલા સુદર તેરણ દરવાજાની ઉપર સુશોભિત લટકી રહેલા હતા અથવા ચંદન લગાવેલા નાના નાના કળથી દરવાજા ५२ ताशनी स्थना ४२वामा मापी उनी (आमतोसत्तविलवटaran Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषयपिणी टीका. सू २ पूर्ण भद्रचेत्यवर्णनम् जानपदस्य = जनपढजातस्य आहुस्स आणि पाहुणिने अच्चणिजे बंदणिजे नम॑सणिजे पूयणिजे सकारणिजे सम्माणणिजे कलाणं मंगलं देवयं चेइयं विणणं पञ्जवासणिजे दिव्वे सच्चे सच्चोवाए सष्णिहियपाडिहेरे विश्रुतकार्त्तिकम् - बहुजनस्थ= पौरस्य, अर्थात्-नागरिकाणा देवनामिना च विश्रुतकीर्तिकम् - प्रमिद्रियुक्तम्, 'बहुजणम्स' बहुजनस्स, 'आहुस्स' आहोतु तु दानशीलस्य बहुजनम्य, 'आहुणिज्जे' आहवनीयम् आह्वयते दीयते sम्मै इनि आहवनीय-सम्प्रदानरूपम्, " पाहुणिज्जे' प्रावीयम् प्रकृष्टतया 'सम्प्रदानरूपम्,‘अचणिज्जे' अर्चनीयम् - आत्मानम्, 'बदणिज्जे' चन्दनीय - स्तुनियोग्यम्, 'नममणिजे ' नमस्यनायम्, 'पूयगिज्जे' पूजनीय - प्रशमनीयम्, 'सकारणिज्जे ' सत्करणीयम्, 'सम्माणणिज्जे ' सम्माननीयम्, ' कलाण " कल्याणम् ' मगलं ' मङ्गलम् 'देवय' दैवतम्, 'चेश्य 'चेयम्' विणण' विनयेन, 'पज्जुवास णिज्जे ' पर्युपासनीयम्, 'दिव्वे' दिव्यम्, 'सच्चे' सत्य 'सच्चोवा ए' सयावपात - सफलसेवम्, वयस्स विस्यकित्तिए) इस यक्षायनन का प्रसिद्धि अनेक पुरसामियों एव नगरनिवासियों तक थी । ( बहुजणम्स आहुस्स आहुणिज्जे ) बहुत लोग इस मे दान दिया करते थे । ( वदगिने णमसणिज्न अवणिजे पूयणिजे सकारणिजे सम्माण णिज्जे ) यहा के लोग इस यक्षको वन्दनीय, नमस्करणीय, अर्चनीय, पूजनीय, सकरगीय, और सम्माननीय मानते थे । ( कलाग मंगल देवयं चेइय विगण पज्जुवासणिज्ने दिव्वे सच्चे सचोवाए सणिहियपाडिहेरे जागसहस्सभागपडिन्छए० ) तथा कल्याण, मगले, दैवत मानते थे, और चैत्य अर्थात् लोगों की अभिलाषा को जानने वाले मानते थे, विनय से उपासना करने के योग्य मानते थे, दिव्य और सय मानते थे, सफल सेवा मानते थे, जगह २ इसके वयस्स निस्यकित्तिए) मा यक्षायतननी प्रभिद्धि भने पुग्वा सीओ तेभ अनेङ नगरवानीओ। सुधी थहोथी हती ( बहुजणस्स आहुस्स आहुणिज्जे ) घया बोजे खेभा द्वान भाय्या उरता उता ( वदणिज्जे णमसणिज्जे अञ्चणिन्जे पूयणिज्जे सकारणिज्जे सम्माणणिज्जे ) महीना बोजे या यक्षने वहनीय, નમસ્કરણીય, અર્ચનીય, પૂજનીય, સત્કરણીય, અને સમ્માનનીય માનતા હતા (कल्याण मंगल देजय चेइय निणएण पज्जुवासणिज्जे दिव्वे सच्चे सच्चोवाए सण्णिहियपाडिहेरे जागसहस्सभागपडिच्छए ) तथा उदयालु, भगल, दैवत માનતા હતા અને ચૈત્ય અર્થાત્ લાની અભિલાષાને જણવાવાળા માનતા હતા, વિનયથી ઉપાસના કરવા યોગ્ય માનતા હતા, દિવ્ય અને મત્ય માનતા હતા, સફલ - २५ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औषपातिकमत्रे गंधगंधिए गंधवटिभूएणड-गट्टग-जल्ल-मल्ल-मुट्टिय-वेलंचग-पगकहग-लासग-आइक्खग-लंख-मंख-तणडल-तुंवचीणिय-भुयगमागह-परिगए बहुजणजाणवयस्स विस्सुयकित्तिए बहुजणस्स गधिए' सुगन्धवरग-वगधितम्-नानाविधपुष्पसम्पादितगन्धद्रव्यै मुवासितम् । 'गवटिभूए' गन्धपतिभूत-गन्धद्रव्यगुटिकासदृशम्-सौरभ्यातिशयात् गन्धद्रव्यनिर्मितवद् भासमानम् । 'पटगट्टगे'-त्यादि, अत्रैव प्रथमसूने व्याख्यातम्, नवरम्--' भुयगमागहपरिगए' भोजकमागधपरिगतम् , भोजका -सेवकाः मागधा स्तुतिपाठका , तै परिगत व्याप्तम्। 'पहुनगजाणत्रयस्स विस्सुयकित्तिए' बहुजनजानपदस्य सुगधि से सुशोभित बना रहता था। (सुगंधपरगधिए) अनक प्रकार के सुगधित पुष्पों को गध से भी वह सदा सुवासित होता रहता था (गवटिभूए) इसलिये यह गधी बत्ती जैसा हो रहा था। ऐसा ज्ञात होता था कि यह सुगधित द्रव्यों के चूर्ण से ही मानो पिरचित किया गया है। (गड-गट्टग-जल्ल-मल्ल-मुट्ठिय-वेलवय-इत्यादि ) नृत्य करने वालों से, नाटक करने वालों से, डोरी पर नाचने वालों से, मुष्टियुद्ध करने वालों से, बदर की तरह कूदने वालों से, भाड के जैसी नकल करने वालों से, तथा कहानी कहने वालों से, राम रचने वाला से, शुभाशुभ प्रकट करने वालों से, वासके अपभाग पर खेलने वालों से, चित्रपट दिसला कर आजीविका कग्न वालों से, चोगा वजारे वालों से, तुवी बजाने वालों से, भोजकों-सेवकों-से, और मागधों-स्तुतिपाठकोसे वह मदिर सदा युक्त बना रहता था । (बहुजणजाण तु (सुगधवरगधिए) मने प्रा॥ सुधित पानी थी पतमेश सुवासित तु तु (गधनट्टिभूष) मेथी ते गधना वाती થઈ રહ્યું હતું એમજ લાગતુ હતુ કે એ સુગધિત દ્રવ્યેના ચૂર્ણથી જ જાણે मना युछ (गड-जग-जल-मल्ल-मुष्ट्रिय-वेलअय-इत्यादि ) नृत्य नारामाथी, નાટયકારેથી, દોરા ઉપર નાચવાવાળાએથી, મુખિયુદ્ધ કરનારાઓથી, વાદરાની પેઠે કૂદવાવાળાઓથી, ભાડ (ભવાયા) જેવી નકલ કરવાવાળાએથી, તથા વાર્તા કહેવાવાળાઓથી, રામ કરનારાઓથી, શુભાશુભ પ્રકટ કરનારાઓથી, વાગની ટોચ પર રમનાગઓથી, ચિત્રપટ દેખાડીને આજીવિકા કથ્થાવાળાઓથી, વીણા વગાડનારાઓથી, તુ બુર વગાડનારાઓથી, ભેજવાથી અને भाजपा-तुतिमाथी ते भ६२ मा १२५४ २हेतु तु ( बहुजणजाण Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूपपणी टीका. सू २ पूर्णमद्रस्यवर्णनम् आहुस्स आहुणिने पाहुणिने अच्चणिजे बंदणिने नम॑सणिजे पूयणिजे सकारणिजे सम्माणणिजे कलाणं मंगलं देवयं चेइयं विणणं पचवाणिजे दिव्वे सच्चे सञ्चोवाए सविणहियपाडिहेरे विश्रुतकीर्त्तिकम् — बहुजनस्य=पौरस्य, जानपदस्य=जनपदजातम्य अर्थात्-नागरिका देशनामिना च विश्रुतकीर्त्तिकम् - प्रमिद्रियुक्तम्, 'बहुजणम्स' बहुननम्म, 'आहुम्स' आहोनु – दातु –दानगरम्य बहुजनन्य, 'आहुणिज्जे ' आहवनीयम् आहूयते दीयते डम्मै इतेि आहवनीय-मम्प्रदानरूपम्, 'पाहुणिजे ' प्राहव गीयम् प्रकटनया मन्प्रदानरूपम्,'अचणिज्जे' अर्चनीयम् - आदग्पानम्, 'चंदणिज्जे' वन्दनीय-स्तुतियोग्यम्, 'नमसणिजे ' नमम्यनीयम्, 'पूयणिज्जे' पूजनीय श्रगमनीयम्, 'सकारणिज्जे' मकरणीयम्, 'सम्माणणिज्जे ' सन्माननीयम्, 'कलाण' कल्याणम 'मगलं ' मङ्गलम् 'देवय’दैवनम्, 'चेय 'चैयम्' विणण ' विनयेन, 'पज्जुवामणिज्जे ' पर्युपासनीयम् 'दिव्वे' दिव्यम्, 'सचे' मय, 'सचोवाए' मायावपात - मफलसेनम् यस विम्यत्तिए) इस यनायतन की प्रसिद्धि अनेक पुग्नामियों एवं अनेक नगरनिवामियों तक थी । ( बहुजणस्स आहुम्स आहुणिज्जे ) बहुत लोग इस मे दान दिया करते थे । ( वदणिने णमंसणिज्जे अवणिने पूयणिजे सकारणिज्जे सम्माणणिजे ) यहा के लोग हम यक्षको वन्दनीय, नमस्करणीय, अर्चनीय, पूजनीय, सत्करणीय, और सम्माननीय मानते थे । ( कल्ला मगल देव चेयं त्रिणरणं पज्जुवासणिजे दिव्वे सच्चे सचोवाए सणिहियपाढिहेरे जागसहम्सभागपडिन्छए० ) तथा कल्याण, मंगल, दैवत मानते थे, और चैय अर्थात् लोगों को अभिलाषा को जानने वाले मानते थे, विनय से उपासना करने के योग्य मानते थे, दिव्य और सय मानते थे, सफल सेवा मानते थे, जगह २ इसके वयम् विम्यकित्तिए) मा यक्षायतननी प्रसिद्धि भने पुरवासीयो भ अने! नगरवासीओ सुधी पोथी हुती ( बहुजणस्स आहुस्स आहुणिजे ) या बोटो सेभा हान साध्या इश्ता हता ( वणिज्जे णमसणिज्जे अचणिज्जे पूयणिज्जे सकारणिज्जे सम्माणणिब्जे ) महीना होने या यक्षने पहनीय, નમસ્કાય, અર્ચનીય, પૂજનીય, સત્કરણીય, અને સમ્માનનીય માનતા હતા (कल्याण मंगल देवय चेद्रय विणएण पज्जुवामणिज्ने दिवे सच्चे सच्चेोपाए सण्णिहियपाहिछेरे जागमहसभागपढिच्छए) तथा दयालु, भगव, हैवत માનતા હતા અને ચૈત્ય અર્થાત્ લેકની અભિલાષાને જાણવાવાળા માનતા હતા, વિનયથી ઉપાસના તવા ચેોચ્ચ માનતા હતા, દિવ્ય અને સત્ય માનતા હતા, સાલ - २५ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ औपपातिकमरे तिव्वच्छाए घणकडियकडिच्छाए रम्मे महामेहणिकुरंब 'घणकंडियकडिच्छाए' 'घनकटितकडिच्छायः।-परस्पर शाखानामनुप्रवेशाद् धन-सान्द्र , कटित कटाच्छादित इव निबिड -बहुलनिरन्तरच्छाय इत्यर्थ । रम्य -रमणीयगुणयुक्त । 'महामेहणिकुरवभूए' महामेघनिकुरम्यभूत -महान्त -विशाला, मेयाः-जलधरा , तेषा निकुरम्बम्-महामेघनिकुरम्बम् सजलजलदवृन्दम् तथाभूत तसदृश -महामेघनिकुरम्वभूतः-महाजलदवृन्दोपम सश्रीक श्यामतमो वनपण्ड इति यावत् ॥ सू ३॥ पर इतनी चिकनी थी कि लोगों को इसकी प्रभा में भी चिकनाई लक्षित होती थी । वर्णादिक से यह तीत्र एव तीत्र छायावाला था । (घणाडियाडिच्छाए रम्मे 'महामेहणिकुरवभूए ) यहा जितने भी वृक्ष थे उन सबकी शाखाएँ एक दूसरे वृक्षों की शाखाओं से परस्पर में मिल गई थीं, इससे यहा छाया की अयत सघनता रहा करती थी। यह वन बडा ही सुहावना लगता था । ऐसा मालूम पडता था कि मानो महामेघों का यह एक विशाल समुदाय ही है। अथवा (किण्हे ) इत्यादि पदों की व्याख्या इस प्रकार भी हो सकती है-अत्यत सधन होने से इस वनखड मे मूर्य की किरणों का प्रवेश तक भी नहीं हो सकता था इसलिये इसमे चारों ओर अधकार छाया रहता था, अत यह काला जैसा प्रतीत होता था। जैसे मयूर का कठ नीला होता है यह भी उसी तरह नीला था । इसमे हरे२ पत्तों की प्रचुरता थी इसलिये इस वनको काति भी तोते को पाखों-जैसी हरी ज्ञात होती थी। वन का હતી કે લોકેને જેની પ્રભામા પણ ચિકાશ લાગતી હતી વર્ણાદિક(રૂપરગ)થી से तीन तभन तात्रछायावाणे! उता (घणकडियकडिच्छाए रम्मे महामेहणिकुरवभूए ) डी रेसा वृक्षा u ते अधायनी माय એક બીજા વૃક્ષની શાખાઓ સાથે પરસ્પર મળી ગઈ હતી આથી અહી છાયા બહુ જ ઘાટી થઈ રહી હતી આ વન ઘણુ જ શોભાયમાન લાગતું હતું એમ જણાતું હતું કે જાણે મહામેને એ એક માટે સમુદાય જ છે सया (किण्हे) त्याहि पानी व्याभ्या अभ प २५ श छ , सत्यत ઘાટુ હેવાથી આ વનખડમાં સૂર્યના કિરણને પ્રવેશ માત્ર પણ થઈ શકતો નહિ એથી તેમાં ચારે તરફ અધિકાર છવાઈ રહેતો હતો તેથી તે કાળા જેવું પ્રતીત થતું હતું જેમાં મોરને કઠ લીલો હોય છે તેમ આ પણ લીલું હતું એમાં લીલાછમ પાદડા બહું જ હતા, તેથી આ વનની કાતિ પણ પિપટની પાછે જેવી લીલી જણાતી હતી વનને સ્પર્શ કડો એ કારણથી Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९ पीयूपपिणी-टीका र ४ घृक्षवर्णनम् ..--मूलम्-ते णं पायवा मूलमंतो कंदमंतो खंधमंतो तयामंतो सालमंतो पवालमंतो पत्तमंतो पुप्फमतो टीका:-'तेण पायवा' इयादि। 'त' तसम्बन्धिन -तच्छन्दस्य लक्षणया तसम्बन्धिन इत्यर्थ , तच्छन्देन बुद्धिस्थविपयपरामात् वनसण्डस्य परामर्श । वनखण्डसम्बन्धिन इत्यर्थ , पादपा वृक्षा , कीदृशास्ते वृक्षाः' इत्यत्राऽऽह'मूलमतो' मूल्यन्त -मूलानि सन्ति पाम् इति मूल्यन्त मूल्सम्बद्धा वृक्षा इत्यर्थ । 'कदमतो' कन्दवन्त -मूलानामुपरि प्रन्थिरूपा कन्दा , ते सन्ति येपा ते तथा । 'खधमतो' स्कन्धवन्त -शाखाविभागस्थान स्कन्ध , ते स्कन्धा सन्न्येपा ते स्कन्धवन्त । 'तयामतो' त्वग्यन्त -स्वचो-चकलानि सन्त्येपामिति ते तथा । 'सालमतो' शालावन्त -शाला शाखा सन्येषामिति । 'पवालमतो' प्रवालवन्त -प्रवालायालस्पर्श गीत इसलिये या कि यहा लताओं का कुज अधिक था। मासन के समान यह स्पर्श में चिकन था। प्रभा के प्रकर्ष से इसकी प्रभा भी तीन थी। कृष्ण एव कृष्णावभास इन दो विशेषणों से सूत्रकार का यह अभिप्राय है कि यहा पर जो कृष्णता थी वह गाढ थी। ॥ सू० ३॥ 'ते ण पायवा०' इत्यादि-- (ते ण पायवा मूलमतो) उस वनखड के ये वृक्ष जमीन के भीतर गहरी फैली हुई बडी २ जडों वाले थे। (कदमतो खधमतो तयामतो सालमतो पपालमतो पत्तमतो पुप्फमतो फलमंतो वीयमतो) कद-मूलों के ऊपर गाठ-वाले थे । स्कव-गाखाओं के रहने के स्थानवाले थे। त्वचा-छाल युक्त थे। शालाओ--गासाओं से विशिष्ट थे । प्रवाल-कॉपल सहित थे। पत्रों से भरे हुए थे, पुष्पों से युक्त थे । હતું કે અહી લતાઓના કુ જ વધારે હતા માખણના જે તેને સ્પર્શ ચિકણે હતે ઉજાસ વધારે હોવાથી તેને ઉજાસ પણ તીવ્ર હરે કૃષ્ણ તેમજ કૃષ્ણવભાસ એ બે વિશેષણોથી સૂત્રકારને એ અભિપ્રાય છે કે અહીં જે કાળાશ હતી તે ઘેરી હતી (સૂ ૩) 1 'ते ण पायवा' त्यादि !! (ते ण पायवा मूलमतों) मे नम उमा ! वृक्ष भीननी २०४२ 6. ३साए गयेसा मोटा मोटा भूगपाता (कदमतो सधमतो तयामतो सालमतो पवालमतो पत्तमतो पुप्फमतो फलमंतो बीयमतो) ४६-भू ५२ 18-4 oal, ક ધ-શાખાઓને રહેવાના સ્થાનરૂપ હતા ત્વચા-છાલયુક્ત હતી, શાલાઓશાખાએથી વિશિષ્ટ હતા, પ્રવાલ-કુપળવાળા હતા, પત્ર-પાદડાથી ભરેલા Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकस्ने तिव्वच्छाए , घणकडियकडिच्छाए रम्मे महामेहणिकुरंव ‘घणकडियफडिच्छाए' 'घनकटितकडिन्छायः'-परस्पर शासानामनुप्रवेशाद् धन - सान्द्र , कटित -कटाच्छादित इव निविडबहुलनिरन्तरच्छाय इत्यर्थ । रम्यं -रमणीयगुणयुक्त । 'महामेहणिकुरंवभूए' महामेधनिफरम्यभूत --महान्त -विशाला, मेघाः-जलपरा , तेषा निकुरम्बम्-महामेघनिकुरम्यम् सजलजलदवृन्दम् ' तथाभूत तसदृश --महामेरनिकुरम्वभूतः महाजलदवृन्दोपम सश्रीक श्यामतमो वनपण्ड इति यावत् ॥ सू ३॥ पर इतनी चिकनी थी कि लोगों को इसकी प्रभा में भी चिकनाई लक्षित होती थी । वर्णादिक से यह तोत्र एव तीन छायावाला या । (घणकडियफडिन्छाए रम्मे महामेहणिकुरवभूए ) यहा जितने भी वृक्ष थे उन सकी शाखाएँ एक दूसरे वृक्षों की शाखाओं से परस्पर मे मिल गई थीं, इससे यहां छाया की आयत सघनता रहा करती थी । यह वन बडा ही सुहावना लगता था। ऐसा मालूम पड़ता था कि मानो महामेघों का यह एक विशाल समुदाय ही है। अथवा (किण्हे ) इत्यादि पदों की व्याख्या इस प्रकार भी हो सकती है-अत्यत सघन होने से इस वनखड मे मूर्य की किरणों का प्रवेश तक भी नहीं हो सकता था इसलिये इसमे चारों ओर अधकार छाया रहता था, अत यह काला जैसा प्रतीत होता था। जैसे मयूर का कठ नीला होता है यह भी उसी तरह नीला था । इसमे हरे२ पत्तों की प्रचुरता थी इसलिये इस वनको काति भी तोते की पाखों-जैसी हरी जात होती थी । वन का હતી કે લેકેને જેની પ્રભમાં પણ ચિકાશ લાગતી હતી 'વર્ણાદિક(રૂપરંગ)થી ये तीन मा तछायावा तो (घणकडियकडिच्छाए रम्मे महामेहणिकुरबभूए ) सही रक्षा वृक्षा ता' ते मायनी सामान्य એક બીજા વૃક્ષની શાખાઓ સાથે પરસ્પર મળી ગઈ હતી આથી અહી છાયા બહુ જ ઘાટી થઈ રહી હતી આ વન ઘણુ જ ભાયમાન લાગતુ હતુ એમ જણાતું હતું કે જાણે મહામેઘને એ એક મોટે સમુદાય જ છે मया (किण्हे) छत्याहि होनी व्याच्या गभ ५५५ मत्यत ઘા હોવાથી આ વનખ ડમાં સૂર્યના કિરણને પ્રવેશ માત્ર પણ થઈ શકતો નહિ એથી તેમાં ચારે તરફ અધિકાર છવાઈ રહેતો હતો તેથી તે કાળા જેવું પ્રતીત થતુ હતું જેમ મેરને કઠ લીલો હોય છે તેમ આ પણ લીલું હત એમાં લીલાછમ પાદડા બહું જ હતા, તેથી આ વનની કાતિ પણ પોપટની પાછે જેવી લીલી જણાતી હતી વનને સ્પર્શ ઠડે એ કારણથી Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पीयपपिणी-टीका स ४ घृक्षयर्णमम मूलम्-ते णं पायवा मूलमंतो कंदमंतो खंधमंतो तयामंतो सालमंतो पवालमंतो पत्तमंतो पुप्फमतो टीकाः-'ते ण पाया' इयादि। 'ते' तसम्बन्धिन -तच्छन्दस्य लक्षणया तसम्बन्धिन दर्थ, तन्देन बुदिस्यविषयपरामगांत् वनसण्डस्य परामर्श । वनखण्डसम्बन्धिन इयर्थ , पादपा वृक्षा , कीडगारते वृक्षाः' इत्यत्राऽऽह'मृलमतो' मूलपन्त -मूलानि सन्ति पाम् इति मूलपन्त मूलमम्बद्धा वृक्षा इत्यर्थ । 'कंदमतो' कन्दवन्त -मूलानामुपरि प्रन्धिरूपा कन्दा , ते सन्ति येपा ते तथा। 'खंघमंतो' स्कन्धवन्त -गासाविभागस्थान स्कन्ध , ते स्कन्धा मन्येपा ते स्कन्धवन्त । 'तयामतो' त्वगमन्त चो-चकानि सन्न्येपामिति ते तथा । 'सालमतो' शालावन्त -गाला शाखा सन्न्येपामिति । 'पवालमतो' प्रवाल पन्त -प्रवालाबालस्पर्श गीत इसलिये था कि यहा लताओं का कुज अधिक था। मक्सन के समान यह स्पर्श में चिकन था। प्रमा के प्रार्प से इसकी प्रभा भी तीन थी । कृष्ण एव कृष्णावभास इन दो विशेषणों से सूत्रकार का यह अभिप्राय है कि यहा पर जो कृष्णता थी वह गाढ थी। ।। सू० ३॥ 'ते ण पायवा०' इत्यादि-~ (ते ण पायवा मूलमतो ) उस वनखड के ये वृक्ष जमीन के भीतर गहरी फैली हुई वडी २ जडों वाले थे। (कदमंतो खंधमतो तयामतो सालमतो पवालमंतो पत्तमंतो पुप्फमतो फलमतो बीयमतो) कद-मूलों के ऊपर गाठ-बाले ये । स्कंध-शाखाओं के रहने के स्थानमाले थे। स्वचा-ठाल युक्त थे। शालाओं-गासाओं से विशिष्ट थे । मवाल-कोपल सहित थे। पत्रों से भरे हुए थे, पुष्पों से युक्त थे। હતું કે અહીં લતાઓને કુજ વધારે હતા માખણના જે તેને સ્પર્શ ચિકણે હતે ઉજાસ વધારે હોવાથી તેને ઉજાસ પણ તીવ્ર હતો કૃષ્ણ તેમજ કૃષ્ણવભાસ એ બે વિશેષણથી સૂત્રકારને એ અભિપ્રાય છે કે અહી જે કાળાશ હતી તે ઘેરી હતી (સૂ ૩) __ 'ते ण पायवा' त्याटि, (ते णं पाया मूलमतो) वन उभा । वृक्ष भीननी २५४२ 631 ३ गये। भारी मोटर भूपता (कदमतो सधमतो तयामंतो सालमतो पवालमतो पत्तमतो पुप्फमतो फलमतो वीयमतो) ४६-भू ५२ 13-पास ता, સ્ક ધ-શાખાઓને રહેવાના સ્થાનરૂપ હતા ત્વચા-છાલયુક્ત હતા, શાલાએ શાખાએથી વિશિષ્ટ હતા, પ્રવાલ-કપળવાળા હતા, પત્ર–પાદડાથી ભરેલા Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिक क्षेत्रे , पत्त-पल्लव-कोमल-उज्जल-चलंत - किसलय- सुकुमाल पवाल-सोहियवरंकुर - ग्गसिहरा णिच्चं कुसुमिया णिच्चं मऊरिया णिच्चं पल्लविया न्धकार - गम्भीर - दर्शनीया - नवेन हरितेन भासमानो - दीप्यमानो य पत्रभार -पत्रसमूह, तेन अन्धकारा =सान्धकारा, अतएव गम्भीरदर्शनीया - गम्भीरम् -' इदमीदृग्' इति विवेक्तुमशक्य यथा स्यात्तथा दृश्यन्ते इति गम्भीरदर्शनीया । 'उवणिग्गय-णव-तरुण-पत्त-पल्लव-कोमलउज्जल - चलत-किसलय- सुकुमाल पवाल-सोहिय-बरकुर-ग्गसिहरा उपनिर्गत नवतरुणपत्र-पल्लव-कोमलो -ज्ज्वल-चलकिसलय - सुकुमार - प्रवाल- शोभित - वराऽङ्कुराऽप्रशिखरा - तत्र - उपनिर्गतानि - सद्य प्रकटितानि, नवतरुणानि - नवीनागततरुणतासम्पन्नानि पत्रपलानि - पत्ररूपाणि गुच्छरूपाणि तै, तथा कोमलोज्ज्वलै – मृदुनिर्मले, चलद्भि, किसलयै सद्योजातै पत्रविशेषै सुकुमारप्रवालै कोमलपल्लवै, शोभितवराऽङ्कुराणि= सुन्दराङ्कुर-शोभितवराऽङ्कुराणि=सुन्दराङ्कुर-युक्तानि अग्रशिखराणि - उपरितनभागा येषा ते तथा । अत्र विशेषणे अङ्कुरप्रवालपल्लवकिसलयपत्राणि स्वल्पबहुबहुतरादिकालकृतावस्था मेदाद्भिन्नानीति ' णिच कुसुमिया' नित्य कुसुमिता – सदा सर्वर्तुसजातकुसुमोपेता न तु ऋतुभेद - भाव 1 ३२ " मल-उज्जल चलत-किसलय सुकुमाल पवाल-सोहिय-वरकुर - नग सिहरा ) इनके जो पत्र एव पल्लव थे वे नवीन निकलने की वजह से नवीनतरुणता - सपन्न थे, कुम्हलाये या मुर्झाये हुए नहीं थे । इन पर जो किसलय- कोपले थीं वे कोमल थीं उजल थीं तथा मृदु पवन के झोके से हिलती रहती थीं । इनमें जो प्रवाल थे वे बहुत ही कोमल थे । इस प्रकार पत्रों से, पल्लवों से, कोंपलों से और प्रवालों से इनके उत्तम अकुर शोभित हो रहे थे, इन अकुरों से इन वृक्षों का अग्रभाग लहलहा रहा था । [ णिच्च कुसुमिया ] ये वृक्ष सदा सर्व ऋतुओं के पुष्पों से फूले रहते थे । अशस्य तु (अणिग्गय ण-तरुण पत्त-पल्लव- कोमल उज्जल चलत-किसलय - मुकुमालपनाल - सोहिय- चरकुर - गासिहरा ) सेना ने पान तेभन पटवता ते नवीन ઉગવાના કારણથી નવીન તoતા–સપન્ન હતા કરમાઇ ગયેલા કે ચીમડાઈ ગયેલા નહેાતા તેના પર જે કિસલય–કુ પળેા હતા તે કામળ હતા, ઉજ્જવળ મઢ પવનની લહેરીથી હલતા હતા તેમા જે પ્રવાલ તે બહુ જ કામળ હતા આ પ્રકારે પત્રાથી, પલવાથી, કુપળાથી અને પ્રવા લેાથી તેમના ઉત્તમ કુરૈશ ચાભી રહેતા હતા એ અકુરાથી એ વૃક્ષાના भागजना लाग सुशोलित हतो ( णिच्च कुसुमिया ) मे वृक्ष हमेशा सर्व ऋतुयोना पुष्पोथी जिसी रहेसा रहेता हुंता ( णिन्च मऊरिया) सर्वहा से હતા તથા હતા Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषयपिणी टीका र ४ वृक्षयर्णनम णिचं थवडया णिचं गुलडया णिचं गोच्छिया णिचं जमलिया णिचं जुबलिया णिचं विणमिया णिचं पणमिया णिचं कुसुमियप्रतिनन्धितकुमुमा । 'णिच मऊरिया' नित्य मयूरिता -मयूग सन्येषामिति मयूरिताः निय मयूरयुक्ता इयर्थ । 'णिज पल्लविया' निय पल्लविता -सन्दा पल्लरमम्पन्ना । 'णिच यटया' निय स्तमकिना -निय स्तनकनन्त , गुच्छ्यन्त इत्यर्थ । 'णिच गुलइया' निय गुल्मिता जातियूयिकानसमल्लिकादिलतान्त , ' णिच गोच्छिया' नि य गुन्छिता सदापुष्पगुच्छयुक्ता । 'णिच जमलिया' निय यमलिता समपक्तितया स्थिता -अथवा यमला युग्मतया जाता , ते सन्ति येपा ते यमलिता । 'णिच जुबलिया' निय युगन्दिता-युगलनया स्थिता । 'गिच विणमिया' निय पिनमिता - फलपुष्पादिमारेण नता । ' पिच पणमिया' निय प्रगमिता केचित् प्रकर्षण नम्रीभूता । [गिच मऊरिया ] सर्वदा इन वृक्षों पर मोर रहते थे । (णिञ्च पल्लविया ) ये वृक्ष नियपल्लरित रहते थे, अकाल में पतझड इनमे नहा होता था। (णिच थवइया) गुच्छा से ये हमेगा अन्चित बने हुए रहते ये[णिच गुलइया । इनपर सदा नवमल्लिका आदि लताए लिपटी रहती थीं । 'णिच गोन्छिया' ये हमेशा फूलों और फलों के गुच्छों से युक्त रहते थे। णिच जमलिया णिच जुबलिया' ये जितने भी वृक्ष यहा पर थे वे सर जोडे सहित एक सी कतार मे आजू-बाजू सड़े हुए थे । "णिच विणमिया' ऐसा कोई सा भी समय नहीं था कि जन ये फल एव पुष्पादिक के भार से झुके न रहते हो। 'णिच पणमिया' कोई २ वृक्ष तो ऐसे भी थे जो पुष्पादिको के भार से विलकुल जमीन तक भी झुके हुए थे। [ णिच्च-कुसवृक्षा ५२ भा२ रहेता उता (णिन्च पल्लविया) ये वृक्षा हमेशा ५८सवित रह्या ४२ता तो हुमा ५४ तेमना पान मरत नहाता (णिच्च यवइया) सुधाथी ते भेश मम२ २डेता हुता (णिच्चं गुलइया) तमना ५२ सहा नप. भदिसा माति सताया (aal) वाटायेती रहती उती (णिच्च गोच्छिया)त भैयूडी मने जाना शुरछाथी युत २ता उता (णिच्चं जमलिया णिन्च जुरलिया) मेरमा वृक्षा मही त पा लेने मे डारमा मानुगुमा मा u (पिच्चं रिणमिया) सवा ७५Y समय નહતું કે જ્યારે તેઓ ફક્ત તેમજ પુષ્પાદિકના ભારથી ઝુકેલા ન રહેતા હોય (णिच पणमिया) वृक्ष तो सेवा पशु ताने पुण्याहना सारथी जिस भीन सुधी नभी गयेसा हुता (णिच्च-कुसमिय-मऊरिय Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसने पत्त-पल्लव-कोमल-उज्जल-चलंत-किसलय-सुकुमाल-पवाल-सोहियवरंकुर-ग्गसिहरा णिच्चं कुसुमिया णिचं मऊरिया णिचं पलवियों न्धकार-गम्भोर-दर्शनीया -नवेन हरितेन भासमानो-दीप्यमानो य परमार -पत्रसमूह , तेन अन्धकारा =सान्धकारा , अतएव-गम्भीरदर्शनीया-गम्भीरम्-'इदमीदृग्' इति विवेत्तुमशक्य यथा स्यात्तथा दृश्यन्ते इति गम्भीरदर्शनीया । 'उवणिग्गय-णव-तरुण-पत्त-पल्लव-कोमलउज्जल-चलत-किसलय-सुकुमाल-पवाल-सोहिय-घरकुर-ग्गसिहरा' उपनिर्गत-नवतरुणपत्र-पल्लव-कोमलो-ज्वल-चलकिसलय-सुकुमार - प्रवाल - गोमित - वराऽङ्कुराऽप्रशिखरातत्र-उपनिर्गतानि-सद्य प्रकटितानि, नवतरुणानि-नवीनागततरुणतासम्पन्नानि पत्रपल्लगानिपत्ररूपाणि गुच्छरूपाणि तै, तथा कोमलोज्ज्वलै -मृदुनिर्मलै , चलद्धि , ' फिसलय - सद्योजातै पत्रविशेषै सुकुमारप्रवाल - कोमलपल्लवै , शोभितवराऽमुराणि=सुन्दराङ्कुर-- युक्तानि अग्रशिखराणि-उपरितनभागा येषा ते तथा । अत्र विशेषणे अङ्कुरप्रवालपल्लाफिसलयपत्राणि स्वल्पबहुबहुतरादिकालकृतावस्थाभेदाद्भिन्नानीति । भाव । 'णिच कुसुमिया' नित्य कुसुमिता -सदा सर्वर्तुसजातकुसुमोपेता -न तु सतुभेदमल-उज्जल-चलत-किसलय सुकुमाल-पवाल-सोहिय-वरकुर-ग्गसिहरा) इनके जो पत्र एव पल्लव थे वे नवीन निकलने की वजह से नवीनतरुणता-सपन्न थे, कुम्हलाये या मुझये हुए नहीं थे। इन पर जो किसलयकोंपले थीं वे कोमल थीं उज्जल थीं तथा मृदु पवन के झोके से हिलती रहती थीं । इनमे जो प्रवाल थे वे-बहुत, ही कोमल थे । इस प्रकार पत्रों से, पल्लवों से, कोंपलों से और प्रवालों से इनके उत्तम अकुर शोभित हो रहे थे, इन अकुरों से इन वृक्षों का अग्रभाग लहलहा रहा था । [णिञ्च कुसुमिया ] ये वृक्ष सदा सर्व ऋतुओं के पुष्पों से फूले रहते थे । भशय तु (उपणिग्गय ण-तरुण पत्त-पल्लव-कोमल उज्जल-चलत-किसलय-सुकुमालपवाल-सोहिय-चरकुर-गसिहरा) मेना पान तभ०४ ५८स तात नवीन ઉગવાના કારણથી નવીન તરૂણતા- પન્ન હતા કરમાઈ ગયેલા કે ચીમડાઈ ગયેલા રહેતા તેના પર જે કિસલય-કુપળે હતા તે કોમળ હતા, ઉજ્જવળ હતા તથા મદ પવનની લહેરીથી હલતા હતા તેમાં જે પ્રવાલ હતા તે બહુ જ કોમળ હતા આ પ્રકારે પત્રથી, પલથી, કુપળાથી અને પ્રવાલાથી તેમના ઉત્તમ અકુરે શેભી રહેતા હતા એ અ કુરાથી એ વૃક્ષોને मागणना लाग सुशोलित तो (णिन्च कुसुमिया) से वृक्षो मेया सर्व अतमान प्याथी मिली २९सा रहेता उता (णिच्च मऊरिया) सही से Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषयपिणी टोका स ४ वृक्षयर्णनम् णिचं थवडया णिचं गुलडया णिचं गोच्छिया णिचं जमलिया णिचं जुवलिया णिचं विणमिया णिचं पणमिया णिचं कुसुमियप्रतिबन्धितकुमुमा । 'णिच मऊरिया' निय मयूरिता -मयूग सन्येपामिति मयूरिताः निय मयूयुक्ता इत्यर्थ । 'गिन पहविया' निय पल्लपिता -सर्वदा पल्लयसम्पन्ना । ‘णिञ्च यवदया' निय स्तनकिता -निय स्तनकान्त , गुच्छयन्त इत्यर्थ । ‘णिच गुलइया' निय गुन्मिता जातियूयिकानसमल्लिकादिलतावन्त , ' णिच गोच्छिया' निय गुन्छिता मदापुप्पगुन्छयुक्ता । ‘णिच जमलिया' निय यमलिता समपक्तितया स्थिता -अथवा यमला युग्मतया जाता , ते सन्ति येपा ते यमलिता । 'णिच जुबलिया' निय युगठिता-युगलनया स्थिता । 'गिच विणमिया' निय विनमिता - फलपुष्पादिमारेग नता । ' पिच पणमिया' निय प्रणमिता -केचित् प्रकर्षण नम्रीभूता । [णिच मऊरिया ] सर्वढा इन वृक्षों पर मोर रहते थे । (णिच्च पल्लरिया) ये वृक्ष नित्यपल्लवित रहते थे, अकाल में पतझड इनमें नहीं होता था। (णिच थवइया) गुच्छा से ये हमेगा अन्वित बन हुए रहते ये [णिच गुलइया ] इनपर सदा नसमल्लिका आदि लताए लिपटी रहती थीं । 'णिच्च गोन्छिया' ये हमेशा फूलों और फलों के गुच्छा से युक्त रहते थे । ' णिच जमलिया णिच जुपलिया' ये जितने भी वृक्ष यहा पर थे वे सन जोडे सहित एक सी कतार मे आजू-बाजू सड़े हुए थे । "णिच विणमिया' ऐसा कोई सा भी समय नहीं था कि जब ये फल एव पुप्पादिक के भार से झुके न रहते हो। 'णिच पणमिया' कोई २ वृक्ष तो ऐसे भी ये जो पुप्पादिको के भार से बिलकुल जमीन तक भी झुके हुए थे । [ णिच्च-कुसवृक्षा ५२ भा२ रहेता उता (णिच्च पल्लविया) के वृक्ष उमेश५८सक्ति रह्या उता उता हुभा पर तमना पान पता नहाता (णिच्च थवइया) शु-छाथी ते उभेश सम२ २४ता ता (णिच्च गुलइया) तमना ५२ सहा नवभतिजी माह बताया (aal) पीटायेसी २४ता हती (णिच्च गोच्छिया) ते भेशा से मने गाना शुरछाथी युवत रहेता उता (णिच्च जमलिया णिन्च जुपलिया) मा वृक्षा मडी हुतात धान्न न ४ डारमा मान्नुपान्तुमा ता (णिच्च विणमिया) मेवो ७५ अभय નહતું કે જ્યારે તેઓ ફુલ તેમજ પુષ્પાદિકના ભારથી ઝુકેલા ન રહેતા હોય (णिन्च पणमिया) 03 वृक्ष तो सेवा पर ता २ पुण्यानि भारथी जिसस भीन सुधी नभी गयेसा ॥ (णिच्च-कुसमिय-मऊरिय Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकत्रे पत्त-पल्लव-कोमल-उज्जल-चलंत-किसलय-सुकुमाल-पवाल-सोहियवरंकुर-ग्गसिहरा णिच्चं कुसुमिया णिचं मऊरिया णिचं पलविया न्धकार-गम्भोर-दर्शनीया -नवेन हरितेन भासमानो-दीप्यमानो य पत्रमार -पत्रसमूह , तेन अन्धकारा =सान्धकारा , अतएव-गम्भीरदर्शनीया-गम्भीरम्-'इदमीदृग्' इति विवेक्तुमशक्य यथा स्यात्तथा दृश्यन्ते इति गम्भीरदर्शनीया । 'उवणिग्गय-णव-तरुण-पत्त-पल्लव-कोमलउज्जल-चलत-किसलय-सुकुमाल-पवाल-सोहिय-वरकुर-ग्गसिहरा' उपनिर्गत-नवतरुणपत्र-पल्लव-कोमलो-ज्ज्वल-चलत्किसलय-सुकुमार - प्रवाल - शोभित - वराऽङ्कुराऽप्रशिखरा - तत्र-उपनिर्गतानि–सद्य प्रकटितानि, नवतरुणानि-नवीनागततरणतासम्पन्नानि पत्रपल्लगानिपत्ररूपाणि गुच्छरूपाणि तै, तथा कोमलोज्ज्वलै -मृदुनिर्मले , चलद्धि , 'किसल्यै - सद्योजातै पत्रविशेषै सुकुमारप्रवालै - कोमलपल्लवै , शोभितवराऽङ्कराणि-सुन्दराकुर-- युक्तानि अप्रशिखराणि-उपरितनभागा येपा ते तथा । अत्र विशेषणे अङ्कुरप्रवालपल्लवकिसलयपत्राणि स्वल्पबहुबहुतरादिकालकृतावस्थाभेदाद्भिन्नानीति । भाव । 'णिच्च कुसुमिया' नित्य कुसुमिता -सदा सर्वर्तुसजातकुसुमोपेता न तु ऋतुभेदमल-उज्जल-चलत-किसलय-सुकुमाल-पवाल-सोहिय-वरकुर-ग्गसिहरा) इनके जो 'पत्र एव पल्लव ये वे नवीन निकलने की वजह से नवीनतरुणता-सपन्न थे, कुम्हलाये या मुझये हुए नहीं थे। इन पर जो किसलय-कोपले थीं वे कोमल थीं उज्जल थीं तथा मृदु पवन के झोके से हिलती रहती थीं । इनमे जो प्रवाल थे. वे बहुत, ही कोमल थे । इस प्रकार पत्रों से, पल्लवों से, कोपलों से और प्रवालों से इनके उत्तम अकुर शोभित हो रहे थे, इन अकुरों से इन वृक्षों का अग्रभाग लहलहा रहा,था ; [णिच कुसुमिया ] ये वृक्ष सदा सर्व ऋतुओं के पुष्पों से फूले रहते थे । म४य तु (पणिग्गय-ण-तरुण पत्त-पल्लम-कोमल उज्जल चलत-किसलय-सुकुमालपपाल-सोहिय-चरकुर-गसिहरा) सना २ पान तभ० ५८स तात नवीन ઉગવાના કારણથી નવીન તરૂણતા-સપન હતા કરમાઈ ગયેલા કે ચીમડાઈ ગયેલા નહોતા તેના પર જે કિસલય-કુપળો હતા તે કેમળ હતા, ઉજ્જવળ હતા તથા મદ પવનની લહેરીથી હલતા હતા તેમાં જે પ્રવાલ હતા તે બહુ જ કોમળ હતા આ પ્રકારે પત્રોથી, પલથી, કુપળાથી અને પ્રવાલોથી તેમના ઉત્તમ અ કુરે શેલી રહેતા હતા એ આ કુરાથી એ વૃક્ષોને मान ला सुशोलित Sat (णिन्च कुसुमिया) मे वृक्ष हुमेशा · सर्व तमान प्याथी मिली २७। २२ता ता (णिच्च मऊरिया) सामे Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयपपिणी टीका स . घृक्षवर्णनम. सुरम्मा संपिडिय-दरिय-भमर-महयरि-पहकर-परिलित-मत्तछप्पयकुसुमासव-लोल-महुर-गुमगुमंत-गुंजंत-देसभाया अभितर-पुप्फशन्नोन्नत-मधुर-श्वग्नानिता । नर-गुका प्रसिद्धा , नहिण =मयुग , मदनगाला-सारिकाविशेषा 'मैना' इति प्रसिद्धा, कोकिला -प्रमिद्धा , कोभगका -पक्षिविशेषा , भृङ्गारका -पशिविगेषा , कोण्डका -पतिपिगपा , जोपनीनका -चकोरपभिण , नन्दीमुसा - पक्षिविरोपा, कपिला -पतिविगेगा , पिगलालका -पक्षिविशेषा, काण्डका -पक्षिविशेपा , चक्रवाका --चकवा इति प्रमिता , कलह्मा , मारमा -प्रमिद्धा, शुकादिसारमान्ता येऽनके पगि गान्तेपा मिथुनानि स्त्रीपुसयुग्मानि, तैरिरचिता =कृता शब्दोन्नता उनतान्दाः-दागा मधुग्यगन्तैनारिता -विविधपतिकृतमधुरम्वनियुक्ता पादपा इत्यर्थ, 'मुरम्मा मुरम्या -अताप मगाया । सपिडिय-दरिय-भमर-महुयरि-पहकर-परिलितमत्तछप्पय कुमुमासालोल-महुर-गुमगुमत-गुजत-देसभाया' मम्पिण्डित-दर-भ्रमरमधुकरी-प्रकर-परिमिलन्मत्तपट्पद-कुमुमासव-लोल-मधुर-गुमगुमेति गुनदेशभागा , ता-सम्पिण्डिता परस्परममिनिता ,दृप्ताना मन्मताना भ्रमगणा मधुकरीगा-भ्रमरीगा प्रकरा =समूहास्तै प्रफरै परिमिलतो ये मत्तपट्पदा , त एव पुन कुमुमाऽऽसरलोलाश्च पुष्परमाऽऽस्वादवहिण-मयूर, मदनगार-मैना, कोकिल-कोयल, कोभगक-पक्षिविशेष, भृगारक-पक्षिविशेष, कोटलक-पक्षिविशेप, जीवजीन-चकोर, नदीमुस-पक्षिविशेष, कपिल-तीतर, पिंगलाक्षक-बटेर, कारण्ट, चक्रवाक-चकना, कलहस-वतक, सारस-इत्यादि अनेक पक्षियो जोडो की उन्नत एव मधुरस्वग्याली ध्वनियों से युक्त थे। [मुरम्मा) इसलिये बड़े ही आनदप्रट थे, देसनेवालों को बहुत ही सुहावने लगते थे। ( सपिडियदरिय-भमर-महुयरि-पहकर-परिलित-मत्तछप्पय-कुसुमासव-लोल-महुर--गुमगुमत-गुजत-देसभाया) मद से उन्मत्त भ्रमर और भ्रमरियों के समुदाय जो पुष्पों के रस के पान से उन्मत्त बने हुए थे, अथवा पुप्पों के रस को पान करने के लिये णाइया)ये हा पोपट पहि-मयूर, भहनास-भेना आडिस-या, ल४पक्षिविशेष, मृगा-पक्षिविशे५, स-पक्षिविशेष, ०१०- २, नहीभुप-पक्षिविशेष, पिता-ततर, विशालाक्ष४-मटे२, ४१२३४, २४१४-२०१ा, ઉલહેસ–વતક, સારસ ઇત્યાદિ અનેક પક્ષીઓના જેડાની ઉન્નત તેમજ मधु२ परवाणी पाणीथी युतता (सरम्मा) तथा भूम का भान भय उता जनारन गहु सुह२ सागताता (संपिडिय-दरिय-भमर-महुयरि-पहकर-पारलित मत्तठप्पय-कुसुमासर-लोल-महर-गमगमत-गुजत देस भाया) महथी उन्मत्त भ्रभर અને ભમરીઓને સમુદાય જે પુના રન પીને ઉન્મત્ત બન્યા હતા અથવા Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओपपातिकसू मऊरिय-पल्लविय-थवइय-गुलइय-गोच्छिय - जमलिय - जुवलियविणमिय- पण मिय- सुविभत्त-पिंड - मंजरी - वर्डिसय-धरा सुय-वरहिणमयणसाल - कोइल को भगक-भिंगारग - कोडलग - जीवजीवगणंदीमुह- कविल- पिंगलक्खग - कारंड - चक्कवाय - कलहंस-सारसअणेग-सउणगण-मिहुण-विरइय-सद्गुण्णइय - महुर - सर-णाइया 'णिच्च - कुसुमिय-मऊरिय-पल्लविय - थवइय-गुलइय-गोच्छिय - जमलिय- जुबलियविणमिय- पणमिय- सुविभत्त - पिंड - मजरी - बर्डिसय-धरा' निय-कुसुमित-मयूरित- पल्लवित - स्तनकित - गुल्मित - गुच्छित - यमलित - युगलित-विनमित-प्रणमित- युनिभक्तपिण्ड - मञ्जर्यवतसकघरा, अत्र -- कुमुमितादि-प्रणमितान्त प्रतिपद पूर्वं व्याख्यातम्, कुसुमितादय प्रणमितान्ता ये पादपान्ते कीदृगा इत्याह- मुविभत्त इत्यादि, सुविभक्ता पृथक्-पृथक् स्थिता पिण्डा = पिण्डीभूता - घनीभूता या मञ्जर्यस्ता एवावतसका - शिरोभूषणभूता इव तासा धरा - धारका इत्यर्थ । पुनस्ते पादपाः कीदृशाः ? इत्याह- ' सुय-वरहिण -मयणसालकोइल - कोभगक- भिंगारग - कौडलग - जीवजीवगणंदीमुह-कविल- पिंगलक्खगकारड-चक्कवाय- कलहस-सारस- अणेग - सउणगण - मिहुण-निरय-सदुष्णइयमहुर-सर-गाइया' शुरु चर्हि - मदनगाला - कोकिल को भगक-भृङ्गारक-कोण्डलक-जीवञ्जीवकनन्दीमुख-कपिल पिङ्गलाक्षक-कारण्ड-चक्रवाक - कलहस -सारसाऽनेक शकुनगण-मिथुन - विरचितमिय-मऊ रिय-पल विय-थवय- गुलइय-गोच्छिय- जमलिय- जुबलिय-विणमिय-पणमिय सुविभत्त-पिंड- मजरी - वर्डिसय-धरा ] इस प्रकार ये सब के सब कुसुमित, मयूरित, पल्लवित, स्तबकित, गुल्मित, गुच्छित, यमलित, विनमित, युगलित और प्रणमित वृक्ष, पृथक् पृथक् घनीभूत मजरीरूप शिरोभूषणों से सदा युक्त वने हुए थे । (मुय-वरहिण-मयणसाल-कोइल-को भगकभिंगारग कोडग - जीवजीवग नदीमुह-कविल- पिंगलक्खग - कारड - चक्कवाय- कलहससा रस अग- सउणगण-मिण विरइय- सदुष्णय-महुर-सर-गाइया) ये वृक्ष गुरु -[ तोता] पह्नविय - थवइय- गुलइय-गोन्डिय - जनलिय जुनलिय निगमिय पणमिय सुविभत्त पिंड मजरी - वडिस - धरा) या अरे ते तभा नभाभ वृक्षो कुसुमित, भक्ति, पदसवित સ્તકિત, કુમિત, શુચ્છિન, યમલિત, યુગલિત, વિમિત અને પ્રણમિત થઈ लुहा लुहा घाटा भन्३य शिरोभूषणोथी सहा युन्त मनेला उता ( सुय वर द्दिण-मयणसाल-कोइल कोभगक भिंगारग कोडग - जनजीवग-दोमुह-कपिल पिंगलक्स ग-कारड-चधयाय- कलहस - साग्म अणेग-सउगगण मिहुण-विरइय-सदुष्णइय-महुर-सर ३४ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ पीयूषषिणी टीका र ४ वृक्षवर्णनम वेसिय-रम्म-जाल-हरया पिंडिमणीहारिमं सुगंधि सुह-सुरभिमणहरं च महयागंधद्धणि मुयंता णाणाविह-गुच्छ-गुम्म-मंडवगविनिर्मितमण्डपैर्य रम्या =रमगीया गोभिता = शोभासप नाश्च ते तथा । 'विचित्तमुहकेउभूया' विचित्रमुखकेतुमूता -विचित्रमुसाना सिंविधमुसाना घ्राणनयनरमनाहृदयप्रमोदाना केतुभूता । 'वात्री-पुक्खरिणी-दीडियामु य सुनिवेसिय-उम्मजाल-हरया' वापी-पुष्फरिगी-दीपिकामु च मुनिवेशित-म्य-जाल-गृहका , तर-चापीपु-- चतुष्कोणरूपासु पुष्फरिगीपु-गोलाकारामु कमलपतीपु वा, दीपिकासु आयामरूपासु 'मुनिवेसिय' सुनिवेशिता -सुष्टुप्रकारेण रचिता , 'रम्मजालहरया' रम्या -सुन्दग जालगृहा -गवाक्षा ‘जाली झरोग्या' इति मापाप्रसिद्धा यैस्ते तथा । 'पिडिमणीहारिम 'इयादि, पिण्डिमनिहारिमा-शुभपुद्गलसमूहरूपेग दूरदेशगामिनीम् । 'मुगधि' सुगन्धि-गोभनगन्धवतीम् । 'सुहसुरभिमणहर' शुभमुरभिमनोहरा श्रेष्ठसुगन्धमनोहारिणी हो रही थी। (विचित्तमुहकेउभूया) विचित्र सुसों के केन्द्र बने हुए थे। (वावी-पुक्खरिणी-दीहियास यमुनिवेसिय-रम्म-जाल-हरया)वनपण्ड में जितनी भी वापी-चारकोने वाली बावडिया एव पुष्फरिणी-गोलाकार तथा कमलनियों से युक्त वावडिया तथा दीपिकाये-रम्बे आकारवाली वावडिया थीं, इन सन पर वृक्षों के यथायोग्य सनिवेशसे स्थान २ पर सुन्दर जाली-झरोखे बने हए थे । अर्थात् वावडियों के ऊपर रहे हुए ये वृक्ष जाली-झरोखे के आकारवाले दीसते थे । इस वनखड में कितनेक ऐसे भी वृक्ष थे जो (पिडिमणीहारिम ) शुभ पुद्गलों के समूहरूप से दूर २ तक फैलनेवाली, (मुगधिं) तथा जिसमें अच्छी गन्ध आती थी तभनी शाला मनोभी थ६ २७ती उती (विचित्तसुहकेउभूया) विचित्र सु भानु न्द्र माना गयाइता (वावी पुस्सरिणी-दीहियासु य सुनिवेसिय-रम्म-जाल हरया) વિનડમાં જેટલી એ વાવો-ચાર ખૂણાવાળી વાવડિઓ તેમજ પુષ્કરિણું–લાકાર તથા કમલિનીઓથી યુક્ત વાવડિઓ તથા દીધિકાઓ–લાબા આકારવાળી વાવડિઓ હતી એ બધી ઉપર વૃક્ષોના યથાયોગ્ય સ નિવેશથી ઠેકઠેકાણે સુદર જાળી–ઝરેખા બનાવેલા હતા અર્થાત્ વાવડિઓની ઉપર ઝૂકી રહેલા એ વૃક્ષે જળ ઝરેખાના આકારવાળા દેખાતા હતા આ વનખ ડમાં કેટલાક भवा ५५ २ तi २ (पिडिमणीहारिम) शुम गाना समूड३५था ६२ ६२ सुधा सा नारी (सुगधि) तथा मा सारी सुगध मावता Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिष सूत्रे ३६ फला वाहिरपत्तोच्छणा पत्तेहि य पुप्फेहिय ओच्छन्नवलिच्छत्ता साउफला निरोयया अकंटया णाणाविह-गुच्छ गुम्म-मंडवग-रम्मसोहिया विचित्तसुहके भूया बावीपुक्खरिणीदीहियासु य सुनिलोलुपा तेषा मधुर यथा तथा गुमगुमेत्यव्यक्तनादानुकरणे तैर्मधुरभृङ्गसङ्गीतैर्गुञ्जन् देशभागो येषा पाढपाना ते तथा । ' अर्भितरपुप्फफला ' अभ्यन्तरपुष्कफला - अभ्यन्तरे पुष्पफलमभृता । बाहिरपत्तोच्छण्णा' बाह्यपत्रावच्छिना हि मजातपनसमूहप्रच्छन्ना । ' पत्तेहि य' पत्रैश्र, 'पुप्फेहि य 'पुष्पैच, 'ओच्छन्नालिच्छते' अवच्छनप्रतिच्छन्न – सर्वथाऽऽच्छादित । 'साउफला ' स्वादुफला ' निरोयया ' नीरोगका गीतनिद्यदातपादिजनितोपघातरहिता , अकटया अकण्टका कण्टकरहिता, “ 6 नानाविध -- गुच्छ - गुल्म-मण्डपक पाणाविह गुच्छ - गुल्म- मडवग-रम्म- सोहिया ' रम्य–शोभिता –नानाविधैर्बहुप्रकारैः = पुष्पस्तनक-लताप्रतान अव्यक्तनाद से गूँजते [ बाहिर पत्तोच्छण्णा ] थे । (पत्तेहि य पुष्फे हि य ओच्छन्नमालूम होता था कि ये ( साउफला ) ये पत्र और लालायित हो रहे थे, उनके ' गुमगुम' इस प्रकार के रहते थे । [ अभितरपुप्फफला ] भीतर मे पुष्प एव फल से तथा बाहिर में पत्तों से ये वृक्ष व्याप्त हो रहे वलिच्छत्ते ) इसलिये देखनेवालों को ऐसा पुष्पों से ही आच्छादित हो रहे हैं । माठे फलवाले थे, ( निरोयया ) नारोग थे अर्थात् इनको न तो कभी विद्युत्पात का भय था और न कभी आतप-जनित पीडा का ही त्रास था । [ अकटया ] कटक-रहित थे । [ णाणाविह- गुच्छ - गुम्म - मडवग - रम्म - सोहिया ] ये अनेक प्रकार के गुच्छगुल्मों- पुष्प स्तव से मंडित लताप्रतानो के निकुजों से युक्त थे, इससे इनकी शोभा निराली પીવાને માટે અખી રહેતા હતા તેના ગણગણાટના અવ્યક્ત નાદથી ચુજીત हृता (अभितरपुष्पफला) हरना लागभा पुष्य तेभन साथी ( वाहिरपत्तोच्छण्णा) તથા મહાના ભાગમા પાનથી આ વૃક્ષા વ્યાસ બની રહેલા હતા (पत्तेहि य पुष्फे हि य ओच्छन्नवलिते) साथी नेनारागने मेभ भातु तु या वृक्षो धान भने पुण्योथी हमेसा रहे छे (साउफला) से भी जवाजा उता, (निरोयया) निरोग लेता अर्थात् तेमने न तो उट्टी विरजी पडवानो लय हतो ने न तो तउठानी थीडाना त्रास हतेो (अकटया) डाटा रहित उता (नाणाविह गुन्- गुम्म-मडग रम्म सोहिया ) मे मने अहारना शुभ्छ શુક્ષ્મા-પુષ્પ સ્તવકેાથી શાભતા લત્તાપ્રતાનાના નિફન્નેથી યુક્ત હતા તેથી " गुच्छगुल्ममण्डपकै Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूपयर्षिणी-टीमा र ५ अशोकवृक्षवर्णनम् यणा सुरम्मा पासाईया दरिसणिज्जा अभिरुवा पडिरूवा ॥१०॥ मूलम्-तस्स ण वणसंडस्स वहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एक्के असोगवरपायवे पण्णत्ते, कुस-विकुस-विसुद्ध-रुक्खमूले अभिरूपा -मुन्दगकृतिमन्त , 'पडिस्बा ' प्रतिम्पा -अभिमतरूपपन्त =सकल जनचित्ताकर्षका वनपग्टम्य वृक्ष सन्तीयर्थ ।मू०४।। टीका-समोरक्षवर्णनमाह- 'तम्स णं वणसंडस्स' दयादि । तम्य सलु वनपण्डन्य-पूर्वपणितवनपण्टम्य 'बहुमयदेशभाए' बहुमव्यदेशमागे-सर्वथा मध्यभागे इयर्थ, 'पत्य णं' अर ग्वल-वनषण्टमध्यप्रदेशे 'मह' महान्अतिशयममुन्नत 'एके एक प्रधान असोगवरपायवे' अगोकवरपादप: अशोक-नामक श्रेष्ठवृक्ष 'पण्णत्ते' प्रजम , कीदृशः सः दयाह 'कुसविकुसविमुद्वरुक्रवमूले कुश-पिकुशविशुझमूलः-कुश दमाः, पिकुमाः कुशमिनास्तत्मदृशाम्तृगविशेषा एव, तैपिशुद्रनिरहित-नृगार्जितमि यर्थः, समूल-वृक्षाऽध:म्थल यम्य अशोकपादपम्य स तथा । पुनः कीदृशः मः ? आऽध्-'मूलमते' मूलपान् , 'कदमते' कन्दवान् 'जाव' यावच्छदात्हृदय-आहादक, दर्शनीय, मुन्दर आकृति से युक्त एव यथेच्छरूपविशिष्ट प्रतिभामित होते ये ॥ मू० ४ ॥ 'तम्स ण वगसडम्स०' इत्यादि [ तम्स ा वगसडस्स बहुमझदेसभाए ] इस वनखड के ठीक बीचोपीचवाले प्रदेश म (एत्व ण) टसके मिवाय अन्यत्र नहीं (मह एक्के असोगवरपायवे पगत्ते ) एक विस्तृत अशोक नामका श्रेष्ठ वृक्ष था । (कुस-विकुस-विसुद्धरुक्खमूले) इसका अयोभाग कुरा एव कुश-जैसे अन्य तृणादिको से रहित था।(मूलमते હદયાલદક, દર્શનીય, સુદર આકૃતિથી યુક્ત તેમજ યથેચ્છરૂપવિશિષ્ટ ભાગતા હતા ( ૪) तस्स ण वणसडम्म त्याह, (तस्स ण रणसंडस्म बहुमझदेसभाए) मा बनम उना मराम२ च्यावन्यना भागमा (एत्य ण) तेना सिवाय मी? नडि (मह एक्के असोगवरपायचे पण्णत्ते) म. पिण मी नामनु श्रे४ वृक्ष तु (कुस-विकुस-विसुद्ध-रक्समूले) તેની નીચેનો ભાગ કુશ તેમજ કુરેશ જેવા અન્ય તૃણાદિકેથી રહિત હેતે (मूलमने कंमते जार परिमोयणे) 2 साना विषयनु पर्जुन याथा भूत्रमा Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे ३८ " घरग- सुहसेउ-उ-बहुला अणेग-रह- जांण-जुग्ग-सिविंय - परिमोगाँ 'महयागधद्धणि' महागन्धभागिम् - गन्ध एव भागि अर्थात् गन्धतृपि महती चासो गन्धधागिस्ता ' मुयता' मुञ्चन्त पुन कीदृशा वृक्षा 'अनाह-' णागाविह गुच्छ गुम्म-मंडनग- घरग सुहसेउ-उ-बहुला' नानाविध-गुच्छ गुल्म- मण्डपक-गृह-युग्मसेतु-केतु बहुल:नानाविधगुच्छगुल्माना मण्डपका, गृहका मुसा सुखकारका सेतन = मागा केतवथ पताका बहुला = प्रचुरा येषु ते तथा, 'अणेग-रह- जाग-जुग्ग सिविय-परिमोयणा' अनेकरथ- जान-युग्य-शिबिका प्रनिमोचना, अनके रथा, यानानि = अथादानि, युग्यानि शकटादीनि, शिनिका - पुस्पवाह्ययानविशेषा - ' पालखी ' इति प्रसिद्धा, तासा स्थादिशिविकान्ताना परिमोचन - ‍ -स्थापन यत्र तादृगा, क्रीडाद्यर्थमागताना जनाना रथादयस्तन तिष्ठन्तीति भाव । सुरम्मा सुरम्या - अतियरमणीया । पासाईया ' प्रसादीया दरिसणिज्जा ' दर्शनीया द्रष्टु योग्या, । ' अभिरूवा सुगधी से जो मडित थी, और इसीलिए ( सुहसुरभिमणहर ) जो अपनी इस शुभसुरभिसे मन को आनदित करती थी ऐसी ' ( महयागधद्वणि) निमिष्टे गधत्राणि - सुगंध की परम्परा को (मुयता) छोडते थे। (णाणाविह - गुच्छ - गुम्म - गडवग- घरग-सुहसेउकेउ - बहुला ) इस प्रकार ये वृक्ष गुच्छों और गुल्मों से बने हुए अनेक मडप, घर, सुन्दर मार्ग और पातकाओं से सदा मुशोभित थे ('अणेग-रह- जाग-जुग्ग- सिवियपरिमोयगा ) इनके नाचे वनक्रीडा के निमित्त आये हुए व्यक्तियों के अनेक रथ, यान, युग्य – तागा-वगैरह, पालखी आदि सनारियों के साधन रखे जाते थे (सुरम्मा, पासाईया, दरिसणिज्जा, अभिरुवा, पडिरुवा, ) इसलिये ये वृक्ष बडे ही सुरम्य, " 2 4 हृदयप्रसादकारका, + " हती सुगधथी ने सरेसी हुती मने तेथी ४ ( सुहसुर भिमणहर ) ने पोतानी આ શુભ સુવાસથી મનને આનદિત કરતી હતી એવી (महयागंधद्वणि) વિશિષ્ટ गंधप्राशि-सुगधनी पर पराने ( मुयता ) छोड़ता હતા हि-गुरु-गुम्म-मडवर्ग - घरग- सुहसेज येउ नहुला ) से भरे थे वृक्षो શુ અને ગુલ્માથી અનેલા અનેક મ ડપ, ઘર, સુદર મા અને પતાકાઓથી सहा सुशोभित रहेता हुता (अणेग-रह- जाण - जुग्ग- सिविय - परिमोयणा), खेभनी નીચે વનક્રીડાને નિમિત્તે આવેલી વ્યક્તિઓના અનેક રથયાન, ખગી, ટાગા बगेरे, पासणी आहि सवारियोना भाधन राभवाभा भावता उता (सुरम्मा, पासाईया, दरिसणिज्ज्ञा, अभिरूवा, पढिरुवा) मेथी ते वृक्षो महुन सुरभ्य, Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूपिणी टीका स ६ अशोकवृक्षवर्णनम् ४१ धवेहि चंढणेहिं अज्जुणेहिं णीवेहिं कुडएहिं कलंयेहि सव्वेहिं फणसेहि दाडिमेहि सालेहि तालेहिं तमालेहि पियएहि पियगूहिं पुरोगेहि रायस्वखेहिं नंदिस्तखेहिं सव्वओ समंता संपरिक्खत्ते ॥ सू०६॥ ति 'उलेहिं' नकुळे 'लउएहिं' लकुचे निहारादिदेशेषु (बहर) इति रयातै - 'उत्तोवेहि' उनोपे - वृक्षविशेपे । 'सिरी मेहिं' गिरीपै प्रसिद्धे पुष्पवृक्ष । 'सत्तत्रणेहिं' समपर्ण, 'दरिणेहिं' दधिवर्गे वृक्षविशेषै । 'लोद्वेहिं' लो-खेतरक्तकुमुमयुक्तैर्नृविशे । 'वेर्हि' घने प्रसिद्वै । 'चदणेहिं' चन्द्रनै 'अज्जुणेहिं ' अर्जुने वृक्षनि । 'णीरेहिं' नापै = कदम् | 'कुड एहिं' - कुटज - गगनमलिकापाये । 'कहि' कम्ने । 'सव्वे हिं' सत्र्यै वदैर्वृक्षनि । 'फणसे' पनमै । 'दाडिमेहिं' दाडिमै । सालेहिं' गाले । 'तालेहिं' ताले । 'तमालेहिं' तमालै । 'विहिं' प्रिये 'पियगृहिं' प्रियङ्गुभि वृक्षनिशेपै । 'पुरोवगेहिं' पुगेपगैर्नृक्षभेदे' । 'रायरुसखेहि' राजवृक्षैरश्वत्यैः । ' णादिरुस्खे हि ' नन्दिवृक्षै । 'सव्वओ' मर्पत सर्वदिक्षु - 'समता' समन्तात् परित । ' सपरिक्खित्ते' सम्परिक्षिम - सम्यक प्रकारेण वेष्टित || मू० ६ ॥ 1 66 चटहर दविणेहिं लोद्धेहिं धवेहि ) लकुच, ( विहार आदि देगा मे इसे कहते है ) उप-वृक्षविशेप, गिरीप, सप्तपर्ण, दधिवर्ण, लोभ, धन ( चढणेहिं अज्जुणेहिं, णीवेहि, कुडएहिं कहिं सव्वेहिं, फणसेहिं, दाडिमेहिं ) चंदन, अर्जुन, नीप, कुटज, कदम्न, सज्य, पनस, ढाटिम - अनार के वृक्ष, ( सालेहिं तालेहिं तमालेहिं पिएहिं पियमूर्हि पुरोवगेहिं रायरुक्खेहिं नदिरुरखेहिं ) शाल, ताल, तमाल, प्रिय, प्रियगु, पुरोपग, पीपल और नदिवृक्ष, इन वृक्षों से यह अशोक वृक्ष ( सव्वओ ,, सत्ताण्णेहिं हिरणेहिं, लोद्धेहिं बवेहिं ) समुय, ( मिहार आदि देशोभा तेने वृक्ष, उडुर टुडे छे ) छत्राष-वृक्षविशेष, शिरीष, सप्तयर्थ, दधिवाणु, बोध, धव, ( चणे, अज्जुणेहि, णीवेहि, कुडएहि, कलवेहिं, सव्वेहिं, फणसेहिं, दाडिमेहिं ) शहन, अर्जुन, नीय, मुग, उहभ्ण, सव्य, पनस, हाउभ-अनाग्ना ( मालेहिं तालेहिं तमालेहिं पिएहिं पियगृहिं, पुरोगेहिं राजरुम्सेहि नदिम्+खेहि ) गास, तास, तमास, प्रिय, प्रियगु, युरोपण, पीपल भने नहिवृक्ष, मे वृक्षोथी ते गोड वृक्ष (सव्यओ समता सपरिक्सित्ते ) सर्व दिशाओोभा थारे Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिक सूत्रे मूलमंते कंदमंते जाव परिमोयणे सुरम्मे पासाईए दरिसणिजे अभिरू पडिवे ॥ सू. ५ ॥ ४० ताना जनाना मूलम् - से णं असोगवरपायवे अण्णेहिं बहूहिं तिलएहिं बउलेहिंलउएहिं छत्तावेहिं सिरीसेहिं सत्तवण्णेहिं दहिवण्णेहिं लोहिं स्कन्ध-त्वक्- गाला-प्रबाल - पत्र - पुष्प - फल - बीजानामपि ग्रहणम्, ' परिमोयणे ' परिमोचनः – अनेकरथादिवाहनाना परिमोचन स्थापन यत्र स तथा, क्रीडाद्यर्थमागरथादयस्तत्र तिष्ठन्तीति भावः । ' सुरम्मे ' सुरम्यः - अतिशय - रमगीयः । ‘पासाईए’ प्रासादीयः - प्रसादाय हितः प्रसादीय: स एव, मनः प्रसन्नताहेतुभूतः 'दरिस णिज्जे ' दर्शनीयः - द्रष्टु योग्य: । ' अभिरुवे ' अभिरूप:- अभिमत रूप यस्य स तथा । 'पडिरूवे' प्रतिरूप - प्रति विशिष्टम् - असाधारण रूप यस्य स तथा ॥ मू०५|| टीका- ' से ण असोगवरपायवे ' इत्यादि । स खच्चशोकवरपादपः= पूर्ववर्जितः अशोकनामकः श्रेक्षः, अन्यैः बहुभिःबहुविधैर्वक्षैर्वेष्टितः तथाहि 'तिलएहिं ' , कदमते जाव परिमोयणे ) जो वृक्षों के निपयका वर्णन चतुर्थ सूत्रमें आया है, उस समस्त वर्णन से यह युक्त था । इसलिये यह भी [ सुरम्मे पासाईए दरिसणिज्जे अभिरू पडिरूवे ) सुरम्य, चित्ताह्नादक, दर्शनीय, अभिरूप एव विशिष्ट आसाधारण शोभा - सपन्न था ॥ सू ५ ॥ ' से ण असोगवरपायवे० ' इत्यादि ( से ण असोगवरपायवे ) यह सुन्दर अशोक वृक्ष ( अण्णेहिं बहूहिं ) अन्य अनेक प्रकारके वृक्षों से परिवेष्टित था, उनमे से कितनेक वृक्षोंके नाम ये है - (तिलएहिं बउलेहिं ) तिलक, वकुल ( लउएहिं छत्तोवेहिं सिरीसेहिं सत्तवण्णेहिं કરવામા આવેલુ છે એ સમસ્ત વર્ણનથી તે યુક્ત હેતુ તેથી તે પણ (सुरम्मे पासाईए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे) सुरभ्य, शित्ताइसाह, દર્શનીય, અભિરૂપ તેમજ વિશિષ્ટ અસાધારણ શાભા–સ પન્ન હતુ (સૂ ૫) ' से ण असोगवरपायवे ' त्याहि ( सेण असोगवरपायवे ) मा सुदुर अशो४ वृक्ष ( अण्णेहिं बहूहिं ) मन्य અનેક પ્રકારના વૃક્ષેાથી વીટળાએલુ હતુ તેમાથી કેટલાક વૃક્ષેાના નામ આ પ્રમાણે (तिलएहिं बउलेहिं ) तिसह, अमुल ( लउएहिं छत्तोवेहि सिरीसेहिं Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूपयपिणी टोका स ७ तिलकादिवृक्षयर्णनम दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा ॥ सू० ७॥ मूलम्-ते णं तिलया जाव णंदिरुक्खा अण्णेहि वहहिं पउमलयाहिं णागलयाहिं असोगलयाहिं चंपगलयाहिं ते तथा, क्रीडादर्थमागताना जनाना रथात्यस्तत्र तिष्ठन्ताति भावः । 'मुरम्मा' सुरम्या:-अतीवरमणीयाः । 'पासाईया' प्रामादीयाः-दृढयोप्लासकाः, 'दरिसणिज्ना' दर्शनीयाः द्रष्टु योग्या 'अभिरूया' अभिरूपा:-अभिमतसुन्दराकृतिमन्तः । 'पडिया' प्रतिरूपा:--असाधारणसौपन्तः ॥ मू० ७ ॥ टीका-~-अयमा वक्तन्योऽयं -यथाऽशोकवरपादपो वहुविधैम्तिलकादिवृक्ष परितो वेष्टित , तथैव ते वेष्टकक्षा अपि अन्याभिर्वस्यमाणाभि बहुविवाभिलताभि परिवेष्टिता अमूवन । कास्ता परिवेष्टनसाधनीभूता लता इत्यवाह-' ते ण' ते खलु अशोकनरपादपस्य परिवेष्टका 'तिलया जायणदिरुस्खा' तिलका यावनन्दिवृक्षा पञ्चविंशतिजातीया इयर्थः, ते पुन कीदृशा ? इत्याह-'अण्णेहिं वहहिं ' अन्याभिहीभि - जिस प्रकार रया से लेकर शिनिकापर्यन्त के वाहन रखे जाते थे वैसे ही ये सन वाह्न इन वृक्षों के भी अधोमाग मे रखे हुए रहते थे। (सुरम्मा पासाईया दरिसणिज्ना अभिरुवा पडिरूबा) ये वृक्ष भी सुरम्य, प्रासादीय, दर्शनीय, अमिरूप एव प्रतिरूप-असाधारण सौन्दर्यवाले थे । मू ७ ॥ 'ते ण तिलया जार' इत्यादि, जिस प्रकार अशोक वृक्ष अनेक प्रकारके तिलकादिक वृक्षों से चारों ओर से घिरा हुआ था उसी प्रकार ये तिलकवृक्ष से लेकर नदिवृक्षतकके समस्त अशोकवृक्षको परिवेष्टित करनेवाले वृक्ष भी (अण्णेहिं वहहिं पउमलयाहि) अन्य अनेक વાહન રાખવામાં આવતા હતા, તે જ પ્રકારે તે બધા આ વૃક્ષની નીચે पर राजपामा मापता उता (सुरम्मा पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूपा पडिरूवा) मे वृक्ष पर सुरभ्य, प्रासाहीय, शनीय, गलि३५ तेभ०४ प्रति३५-- અસાધારણ સૌન્દર્યવાળા હતા (સૂ ૭) 'ते ण तिलया जाय' छत्याल, જે પ્રકારે અશોક વૃક્ષ અનેક પ્રકારના તિલકાદિક વૃક્ષથી ચારે બાજુથી રાએલ હતુ તે જ પ્રકારે આ તિલક વૃક્ષથી માંડીને નદિવૃક્ષ સુધીના સમસ્ત વૃક્ષો 27 म४ वृक्षने पीटा गयेसा हुतात प ( अण्णेहि बहूहि, पउमलयाहि । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. औपपातिकमत्रे मलम्-ते णं तिलया वडला लउया जाव णंदिरुक्खा कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूला मुलमंतो कंदमतो एएसि वपणओ भाणियव्वो जाव सिवियपडिमोयणा सुरम्मा पासाईया टीका-तस्य पूर्ववर्णितस्याऽशोकवृक्षस्य परिवेष्टका तिलका पूर्ववर्णिताऽशोकवृक्षवद् वर्गनीयाः, तथा बकुला लकुचा यावत्--गब्दस्योपादानात् नन्दिवृक्षेभ्यः पूर्वववर्तिनः छत्रोपगिरीपसप्तपर्णादयो राजवृक्षान्ताः सर्वं वृक्षा ग्राह्या , नन्दिवृक्षाः, एते वृक्षाः कीदृशाः । इत्याह-'कुसविकुसविसुद्धस्खमूला' कुश-विकुश विशुद्भवृक्षमूलादर्भादितृणापनयनात् निर्मलतरुतलाः, एतेपा पदाना 'वण्णओ' वर्णक -वर्णनम् , 'भाणियो ' भणितव्यः चतुर्थमूत्रवत् कथनीय इति यावत् , 'जाव' यावत् 'सिवियपरिमोयणा' शिविकापरिमोचना:-रथादिशिनिकान्त-वाहनाना परिमोचन स्थापन यत्र समता सपरिक्खित्ते) सब दिशाओं मे चारों ओर से अच्छी तरह घिरा हुआ था ॥ सू ६॥ 'ते ण तिलया बउला' इत्यादि, (ते ण तिलया बउला लउया जाव) यह सब तिलकबकुल लकुचवृक्ष से लगाकर नदिवृक्ष-पर्यन्त-वृक्षसमूह (कुस-विकुस-विसुद्ध-रुक्खमूला) अपने २ नीचे भाग मे कुस एव अन्य कुस जैसी घास आदि से रहित था (मूलमतो कदमतो एएसि वण्णओ भाणियव्यो जाब सिवियपरिमोयणा) पहिले ४ चतुर्थमूत्र में जो “ मूलमंत कदमत" इत्यादि पद वृक्षा के वर्णन करने मे कहे गये है उन सभी पदों का अध्याहार इन वृक्षोंके वर्णन करने मे भी कर लेना चाहिये। उन वृक्षों के नीचे બાજુથી સારી રીતે ઘેરાયેલું હતુ (સૂ ૬) 'ते ण तिलया बउला' छत्याल, (ते ण तिलया बउला लउया जाव) साधा तिवमा सयवृक्षथी माडीने नहि सुधीना वृक्षसभूह (दुस-विकुस-विसुद्ध रबसमूला) पातपाताना नीयनाभाभा जुस तेभर भी इसका घास माहिया २डित ता (मूलमतो कदमतो एएसिं वण्णओ भाणियव्यो जाव सिरियपरिमोयणा) याथा सूत्रमा મૂલમત કદમત” ઈત્યાદિ વૃક્ષોના વર્ણન કરવામાં જે પદ કહેલા છે તે બધા પદોને અધ્યાહાર આ વૃક્ષના વર્ણનમા પણ કરી લેવું જોઈએ તે વૃક્ષની નીચે જે પ્રકારે રથી માડીને શિબિડા (પાલખી) સુધીના Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - पीयूषषिणी टीका सु ९ पालतादिवर्णनम. जाव वसियधराओ पासाईयाओ दरिसणिनाओ अभिरुवाओ पडिरुवाओ ।। सू. ९॥ मूलम्-तस्स णं असोगवरपायवस्स हेटा ईसि कुमुमिता सदामातपुष्पा । 'जार वडिसयघरानो' यारठरतमकथग -गिगेभृषणमृपिता इव दृश्यमाना , याप छन्दोपादानात-'मजरियलबध्यवरायगुलटय०' दयादि द्रष्टव्यम्, मयूरितपल्लपितस्तपकितगुन्मिताटानि विशेषगानि लताम्यपि यो यानि, अतएव-ताम्यो लता--'पामाईयाओ' प्रामादीया -चित्तप्रमन्ताकारिण्य । 'दरिसणिजाओ' दर्शनीया इटु योग्या : 'अभिरुवामा' अभिपा, अभिमत-रूपवय 'पडिस्वायो' प्रतिरूपा -प्रतिविशिष्टरूपाय ॥ ९॥ टीका-'तम्स ण असोगवरपायवस्स' दयादि । तम्य अयोफरपादपन्य 'ईसि खपसमल्लीणे' ईपत स्कन्धपग्रीन --वृक्षम्कन्धममीपपती य 'हेवा' अग्रोकयुक्त थीं। (जार वसियाराओ) अतण्व प्रेमी ज्ञात होती थी कि माना इन्होंने शिगेभूपग ही धारण कर रखा है । यहा यावत् 'शद से “ मग्नि-पल्लवित-स्तवकित-गुल्मित " इयादि विशेषगोका ग्रहग हुआ है। अतएव ये रता भी (पामाईयाओ दरिसपिज्जानो अभिरुवाओ पडिस्चाओ) देखने वाले के चित्तको प्रमन्न करनवाल देवने योग्य, अमिरूप एव असाधारण शोभा से युक्त थीं । म् ९ ॥ _ 'तस्स णं असोगवरपायवस्स हेट्ठा' इत्यादि, (तस्स पा असोगवरपायवस्स हेडा) उस उत्तम अशोकक्ष के नीचे (इसि ग्वधसमल्लीणे) म्कन्ध (पेड) से कुछ दूरी पर (एत्य ण) किन्तु उमीके अप बित सुप्याथी यु हती (जाव वटिसयधराओ) तेथी मेम सातुडतु કે જાણે તેઓએ શિભૂષણ (મુકુટ ) જ ધારણ કરેલા છે અહી યાવત. थी 'मयरित पल्लरित स्तरफित गुल्मित ' त्या विशेषो। सीधेदा छ तेथी दातामा ५९ (पामाईयाओ दरिसणिज्जाओ अभिरुवाओ पटिस्वाओ)लनाગઓના ચિત્તને પ્રસન્ન કરવાવાળી, જેવાગ્ય, અભિરૂ૫, તેમજ અસાધારણ શોભાયુકત હતી (સૂ ૯) “ नस्म णं असोगररपायवस्स हेवा" ALE, इतम असोगवरपायवस्स हेदा) त्तम मी वृक्षनी नीये (ईसि सधसमल्टी) न्य (वृक्ष) यी १२६२ ( एत्य ण) ५ तना मान्यता Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ - LitilH ओपपातिक चूयलयाहि वणलयाहि वासंतियलयाहि अइमुत्तयलयाहिं कुंदलयाहिं सामलयाहि सव्वओ समंता संपरिस्खिता ॥ सू ८॥ ___ मूलम्-ताओ णं पउमलयाओ णिचं कुमुमियाओ बहुविधाभि । 'पउमलयाहि पालताभि । 'गागलयाहि-नागलताभि । 'असोगलयाहिं' अगोफलतामि ।'चपगलयाहिं ' चम्पफलताभि , 'चुयलयाहि आम्रलतामि , 'वणलयाहिं' वनलतामि , ' वासंतियलयाहि । वासन्तिफलताभि , 'अडमुत्तयलयाहि' अनिमुक्तक मतामि 'कुदलयाहिं' कुन्टलतामि । 'सामलयाहि । श्यामलतामि , द्वमाभिर्दशजातीया ' भिलताभि, 'सबभो समता सपरिक्खित्ता' सर्वत समन्तात्सम्परिक्षिमा -सर्वदिक्षु परित सम्यक परिवेष्टिता ॥ मू० ८॥ 'ताओ ण पउमलयाओ' ता खल पालता --यामिस्तिलकादिनन्दिवृक्षान्ता वृक्षा परितो वेष्टिता ता लता कीदृश्य । अाह-णिञ्च कुसुमियाओ' नित्य प्रकारकी पद्मलताओं मे (णागलयाहिं ) नागलताओं से, (चपगलयार्हि) चपकलताओं से (चूयलयाहिं) आम्र-लताओं से, (वणलयाहि) वनललाओं से (वासतियलयाहिं ) पासतीलताओं से, (अइमुत्तयलयाहि ) अतिमुक्तलताओं से (कुदलयाहिं) कुन्दलताओं से और (सामलयार्हि) श्यामलताओं से (सबओ समता सपनिरिग्वत्ता) समस्त दिशाओंमे चारों ओर से घिरे हुए थे | स ८॥ 'ताओ ण पउमलयाओ' इत्यादि, ये पमलता आदि लताएँ कि जिनसे तिलकसे प्रारभार नदिवृक्ष तकके समस्तवृक्ष परिवेष्टित बने हुए थे, वे (णिञ्च कुसुमियाओ) नित्य प्रफुल्लित पुष्पों स मी मन: प्रारनी पावतामाथी ( णागलयाहि ) नातामाथी ( चपगलयाहि ) यक्षतामाथी (यलयाहि ) भाभ्रदातासाथी (वणलयाहि ) वन सतामाथी (वासतियलयाहिं ) पास तीसतामाथी ( अइमुत्तयलयाहि) अति भुत दातासाथी (युदलयाहि ) सतासाथी भने ( सामलयाहि ) श्याम सामाथी ( सव्यओ समता सपरिक्सित्ता) समस्त हिशयामा यारे २थी शयेसा ॥ (सू ८) " ताओ ण पउमलयाओ" इत्यादि - આ પઘલતા આદિ લતાઓ કે જેનાવડે તિલકથી માંડીને નવૃિક્ષ सुधीन सभात वृक्षो वीणा मेशा (णिच्चं कुसुमियाओ) नित्य Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूपपणी-टीका स. १० पृथ्वीशिलापट्टकवर्णनम असणा-सणबंधन-णीळुप्पलपत्तनिकर-अयसिकुसुम-प्पगासे मरगयमसार- कलित्तणय णकीय-राविपणे णिघणे अट्ठसिरे आय હ 1 नामको वृक्ष: । धनः- नीलजलधरः । कृपाण :- खङ्गः, उपलय-नीलकमलम्, हलधरकौशेय - बलभद्रकौशेय चल्देववत्रम् | आकाश दूरतया-नालाऽनभासम् । केशाः तरुगसम्वद्रा एव तेषामतिकृष्णचात् । कारागी-फनलगृह यत्र पाने फजल स्थाप्यते, कजलकृपिका इति यावत् । सञ्जन - खञ्जननामा कृष्णपक्षिविशेष । गृहभेदः महिपशृङ्गखण्डः । रिष्टक-नीलवर्गरत्न । जम्बूफलम् - अतिपकम् - जम्बूफल नन्तिम भवति । 'असणग' असनक:बीयकाभिधानो वृक्षविशेषः । धन-वृन्तम् । नीलोत्पलपननिकरःनीलकमल्पसमूहः । अतसीम 'अलसी फूल' उति भाषाप्रमिद्ध पुष्पम् । अत्र - अञ्जना - चतसीमान्ताना प्रकाr sa rai यम्य स तथा, अञ्जनादिसदृशय्यामवर्णवान् पृथिवी शिलापट्टक इत्यर्थः । तथा-'मरगय-मसार-फलित-णयणकीय-रासिवण्णे' मरकन-मसार- कटिन-नयनकनीनिका-गणिवर्गः । तत्र मरकत नीलमणिः पन्ना इति भाषायाम् । मसार:- पाषाणस्य चिकीकरणाये freetees ra अथना - कपप:- कसौटीति लोकेख्यातः, कटिन-कृष्णचर्मण एव निर्मितम् । नयनकनीनिका -नयकनीनिका- एतेषा राशि:= पुनः, तस्य वर्ण व वर्णा यस्य स तथा गिद्धघण' स्निग्धघन:- सजलमेघ इव चलदेवका चत्र, आकाग, केश - युगपुरुष के नाल, कजलाङ्गी - काजल रखने की डिबिया, खजनपक्ष, शृगभेद--महिप के युग का टुकडा, रिटक-नीलवर्ण का रत्न, जम्बूफल-अतिशय पका हुआ जामुन, असनक-वीयक नामक वृक्षविशेष, सगबन्धन-सनके फूल का वेंट, नीलोत्पलपaनिकर-नीलकमल के पत्रों का समूह, और अतसीकुसुम - अलसी का पुष्प -- इन सन के प्रकाश जैसा था । अर्थात् पृथिवीशिलापट्ट अञ्जन से लेकर अलसी फूल के समान श्यामवर्ण था । [ मरगय-मसार - कलित्त गयणकीय-रासिवण्णे ] ईथाणु-तलवार, दुवसय-नीसम्भल, इलधरौशेय-यस हेवनावस्त्र, आकाश, देशयुवान पुषनावा, सागी - राणवानी उण्णी, अन्न-मननपक्षी, ભૃગભેદવ્સે સના થી ગુના उटभ, रिटउ-नीसवर्णाना रत्न, १४ जुइलઅતિશય પાડેલ જાબુ, અસનક–ખીયક નામે વૃક્ષવિશેષ, સનમન્ધન-મનના ફૂલાના બેટ, નીશ્ચાત્યલપત્રનિકર-નીલ કમલના પાનને મમૂહુ અને અતઞીકુસુમ-અળમીના પુષ્પ એ મધાના પ્રકાશ જેવા હતા. અર્થાત્ પૃથિવીચલાપટ્ટે અજનથી માડીને અળસીના ફૂલના જેવા શ્યામવર્ણના હતા Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकखत्रे' " खंधसमल्लीणे एत्थ णं महं एक्के पुढविसिलापट्टए पंण्णत्ते विक्खंभायामउस्सेहसुप्पमाणे किण्हे अंजण- घण - किवाण- कुवलय-हलहर-कोसेजा-गास-केस - कजलंगी खंजण-सिंगभेद - रिट्टय-जंबूफलवृक्षस्य अध प्रदेश, आसीदिति शेष ' एत्थ ण मह एके पुढ विसिलापट्टए पण्णत्ते ' अत्र - अस्मिन् - अध प्रदेशे 6 मह ' महान्, एक्के' एक ' पुढविसिलापट्टए ' पृथ्वी गिलापक --- पृथ्वी गिलापीड इत्यर्थ । ' पण्णत्ते ' प्रज्ञप्त कथित । स पृथ्वीगिलापीठ कीदृश' इत्याह--'विक्खभा-याम - उस्सेह - सुप्पमाणे ' विष्कम्भाss-यामोत्सेध- सुप्रमाण, विष्कम्भ – पृथुत्व-परितो विशालवम् । 'आयामो' दीर्घ'वम् । 'उत्सेध ' -उच्च वम् । एतैर्विष्कम्भाssयामोत्सेधै सु-सुष्टुप्रमाण यस्य स निष्कम्भाssयामोसेधमुप्रमाण, 'कस्यापि ' प्रमेयस्य त्रिधा परिमाण भवति, तेषु विष्कम्भ पृथुत्व - स्थूलव, आयामो दैर्घ्यम्, उत्सेध उच्चैस्त्वम्, एतैखिभि प्रमाणै मुटु युक्त नातिन्यूननात्यधिकप्रमाणयुक्त इति भाव । तथा - 'किण्हे' कृष्ण – कृष्णवर्ण नील इति यावत् । कीदृश कृष्ण 2 अत्राह - ' अजणघण- किवाण - कुवलय- हलहरकोसेज्जा - गास केस - कज्जलंगी खजण - सिंगभेदरिद्र्य - जंबूफल-असणग- सगवधण - पीलुप्पलपत्तनिकर-अय सिकुसुम - पगासे ' अञ्जन-घन-कृपाण – कुवलय - हलधर कौणा - काग - केश - कजलागी खञ्जन, शृङ्गमेद - रिप्टक --जम्बूफला–सनक—गणनन्धन-नीलोपलपत्रनिकराऽ-तसी - कुसुम - प्रकाशः, तत्र -अञ्जन: ४६ 1 प्रदेश मे (मह) विशाल ( एक्के पुढ विसिलापट्टए पण्णत्ते ) एक पृथिवीशिलापट्ट था । (विवखभा-याम - उस्सेह - मुप्पमाणे ) यह लम्बाई, चौडाई, एव ऊचाई में बराबर प्रमाणवाला था, हीनाधिक-प्रमाणवाला नहीं था । (किण्हे) वर्ण इसका कृष्ण - श्याम था । (अजण- घण- किवाण- कुवलय हलहरकोमेज्जा - गास केस - कज्जलगी खजण सिंगभेदरिट्ठय-जबूफल - असणग- सणवधण - गीलुप्पलपत्तनिकर- अय सिकुसुम-प्पंगासे ) अत इसका प्रकाश अजनवृक्ष, धन- नीलमेघ, कृपाण - तलवार, कुवलय-नीलकमल, हलधरकौशेय 7 पृथिवीशिया भागमा (महं ) विशास ( एक्के पुढनिसिलापट्टए पण्णत्ते ) मे यह तो ( विक्सभा याम उस्सेह सुप्पमाणे ) मे समाई होनांध तेभन उया भा सरमा भायवाणी हुतो सोछा पधारे भायनो नहोतो (किन्छे) वालु तेन दृष्ण-श्याम ( अणो ) इतो ( अजण घण किवाण कुवलय हलहरकोसेज्जा गास केस कज्जलगी सजण सि गभेद रिट्ठय- जवूफल-असणग-सणबधण नीलुप्पल पतनिकर अयसिकुसुम पगासे) आभ तेनो अाश साल् नेवो, नीसभेध, Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषयपिणी-टीका सू ११ पृश्यीशिलापट्टयर्णनम् णग-रूय-चूर-णवणीय-तूल-फरिसे सीहासणसंठिए पासाईए दरिसणिजे अभिरुवे पडिरूवे ॥ सू. १०॥ मूलम्-तत्थ णं चंपाए णयरीए कूणिए णामंराया परिवसइ ईहामृगादिपालतान्ताना भक्तयः-रचनापिशेपाश्चित्राणि, तामिश्विनः सुन्दरः । 'आईणगरुय-पूर-णवणीय-तूल-फरिसे' आजिनक-स्त-यूर-नवनीत-तूल-स्पर्भः। तत्र आजिनकचर्ममयवत्रम्, रूत-मृदुकार्पासविशेषः, बूरो-वृक्षविशेषः, नवनीतम्-'मक्खन' इति प्रमिदम्, तूलम्-अजैतूलम् , प्रतेपा म्पर्य डर स्पा यम्य शिलापट्टकस्य स आजिनकरुन-चूर-नग्नीत-तूल-स्पर्ण-अत्यन्तकोमल इलयः, 'सीहासगसठिए' सिंहासनमस्थित सिंहासनाकारः । 'पासाईए' प्रागटीयः-हृदयहर्पकः । 'दरिसणिने' दर्शनीयः-नेत्रालादजनकः 'अभिरुवे' अभिरूपः, 'पडिरूव' प्रतिरूपः ॥ सू १०॥ टीका-'तत्य ण चपाए णयरीए 'इत्यादि-तत्र सलु चम्पाया नगर्याम्, चमर, कुञ्जर हाया, वनलता एव पद्मलता इन मरके चित्रों से यह सुन्दर था । (आईणग-रुय-चूर-गवणीय-तूल-फरिसे) इसका स्पर्ग आजिनक-चर्ममयवत्र, रूत-रुई, पूर-वृक्षपिरोप, नग्नीत-मक्खन और तूल-अतूल इनके स्पर्श क ममान था । तात्पर्य यह अयन्त कोमल स्पर्शवाल था। (सीहासनसठिए ) इसका आकार सिंहासन जैसा था । [पासाईए दरिसणिजे अभिरुवे पडिरूवे ] हृदय को हर्प देनेवाला, नेत्रोको आह्लादित करनवाला, एव सुन्दर-आकृति सपन्न यह पृथिनीशिलापट्ट अपूर्व शोभासपन था ॥ सू० १० ॥ 'तत्थ ण चपाए णयरीए' इत्यादि, (तत्थ ण चपाए णयरीए ] उस चपानगरा मे (ऋणिए णाम राया) तो (आईणग रूय-चूर-णपणीय-तल-फरिसे) तना २५श मानिन-यम भयवस, ૨-મૃદુકપાસ, બૂર–વૃક્ષવિશેષ, નવનીત–માખણ અને તૂલ-અતૂલ (આકડાનુ ૩) તેના જેવું હતું. મતલબ કે તે અત્યન્ત કામળ સ્પર્શવાળે હતો (सीहासनसठिए) तेना भाजार सिंहासन र ती (पासाईए दरिसणिज्जे अभिरून पडिरूवे) इत्यने ५ पभाउना२, नेत्राने मामा २४ तमा सुहर આકૃતિસ પન આ પૃથિવીશિલાપદ અપૂર્વ શાભાયુક્ત હતે (સૂ ૧૦) 'तत्य ण चपाए णयरीए' (त्याहि, ५ ण चपाए णयरीए) त य पानगरीमा (कूणिए णाम राया) Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - m man औपपातिकमा सयतलोवमे सुरम्मे ईहामिय-उसभ-तुरग-णर-मगर-विहग-बालगकिण्णर-रुरु-सरभ-चमर-कुंजर-वणलय-पउमलय-भत्ति-चित्ते आईश्यामः । आकारस्तस्य कीदृश इत्याह-'असिरे' अएशिरस्क:-अष्टकोग इत्यर्थः । 'आयसयतलोरमे आदर्शतलोपमः-आदर्शतलस्य-दर्पगतलस्योपमा यस्य स तथा मुरम्मे अतीवरमगीयः। 'हामिय उसम-तुरग नर-मगर-विहग-पालग-किष्णार-रुल्सरम-चमरकुजर-वणलय-पउमलय-भत्ति-चित्ते' हामृग-पम-तुरग-नर-मकर-विग-व्यालककिलर रुरु-गरम चमरपुर बनलता-पपलता-भक्ति-चिरः। तर ईहामृगा:-काः 'भेदिया' इति भापाप्रसिद्धा । वृषभाः-अलीपर्दा, तुरगा:-अश्वाः, नरा:-मनुष्या, मकराः पाहाः, विहगा:-पक्षिगः, व्यालका:-सर्पा:, किनरा:-यन्तरदेवाः, रुरवः-- मृगाः शरभा:-अष्टापदाः, कुञ्जगः-हन्तिनः, उनलता:-प्रसिद्धा, पमलता -कमललताः, -- -- - मरकत-पन्ना, मसारपत्थर को चिकना करने वाला पत्थर अथवा कसौटी, कटित्रकृष्णचमडे की बनी हुई वस्तुविशष और नयनकीका-नेत्र की कनानिका-इनसब के पुज जैया इसका वर्ग या। (गिद्धयणे ) वह सजल-मेघ के समान श्याम था । [असिरे ] आठ इसके कोन थे। [ आयसयतलोवमे } इसका तलभाग आदर्श-काचदर्पण जैसा चमकीला था । (सुरम्भे) इससे यह देखने में विशेषकर स्मगीय लगा था। (ईशामिय उसम-तुरग-नर-मगर विहग-वालग किष्णर-रुरु-सरम-चमर-कुजर-वणलयपउमलय-भत्ति चित्ते) दहामृग-वृक-भेटिया, वृपभ--बलावर्द,तुरग-अश्व, नर-मनुष्य, मकर-आह, विहग-पक्षी, व्यालक-सर्प, फिलर-यन्तरदेव, रुर-मृग, सरम--अष्टापद, (मरगय मसार-कलित्त जयणकीय-रासि-यपणे) १२४त-पन्ना, मसा२-पत्थरने थिए! કરવાવાળા પત્થર અથવા કટી, કટિવ-કૃષ્ણ ચામડાની બનાવેલી વસ્તુવિશેષ અને નયનકીકા--આપની કનીનિકા-એ બધાના પુજ જે તેને વર્ણ तो (णिद्वघणे) त ४८ मेघना वो श्याम तो (अट्रसिरे) 218 तेना ए! उता (आयसयतलोपमे) मेनो तजियानी माग माश- ५-६ वा ચમકીલો હતો (કુ) તેથી તે જોવામાં વિશેષ કરીને રમણીય લાગતું હતું. (इहामिय-सम-तुरग-नर-मगर-बिग-बालग-किण्णर-हर-सरम-चमर कुजर - वणलय - पउमलय-भत्ति-चित्त) डाभृग-३४, वृषभ- 401, तु२५---१, नर-मनुष्य, भ७२ बाल विस-पक्षी, व्यास , नियन्त२५, ३३, स२म-माई, શમર, કુજર-હાથી,વનલતા તેમજ પદ્મલતા એ બધાના ચિત્ર વડે એ સદર Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषधषिणी-टीका ८ ११ फणिवर्णनम हिसित्ते माउपिउसुजाए दयपत्ते सीमंकरे सीमंधरे खेमंकरे खेमंधरे मणुस्सिदे जणवयपिया जणवयपाले जणवयपुरोहिए नीतिदयादाक्षिण्यादिभि समृद्ध =सम्पन्न , 'मुइये मुद्रित =प्रसन्न , अथवा 'मुइये' इति निद्रोपमातृकाथों देशोगन । उक्त च 'मुटये जे होट जोणिसुद्धे' इति । निटोंपमातृक -निहापाया मातुरपय पुमान । 'यत्तिए' क्षत्रिय -शुद्धक्षत्रियगोगोपन्न । 'मुद्धाहिसित्ते' मूदाभिषिक्त -मर्वरपि प्रयन्तगजै प्रतापमसहमानैर्नान्यथाऽस्माक गतिरिति पग्भिाव्य मूर्दभिर्मस्तकैरभिषिक्त सम्मानितो मूद्राभिषिक्त । 'माउपिउमुजाए' मातापित्रमुजात - मातृभक्त पितृनिदेगकारको मिनीतश्च 'दयपत्ते' टयाग्राम --निसर्गकारुणिक । 'सीमफरे' सीमाकर -सीमा कुलमर्यादा, तस्या कर कारक । 'सीमंधरे' सीमापर =कुलमर्यादाधारक 'खेमंकरे 'क्षेमद्दर : लल्यवस्तुपालनगील । 'खेमधरे' क्षेमधर -क्षेमस्य धारक , लन्धस्य परिपालन क्षेम - चित्त ररा करते थे। अथवा निटोंप माता के ये पुन ये। (सत्तिए) शुद्ध क्षत्रिय पश मे ये उपन्न हुए थे । (मुद्धाहसिते ) उनके प्रबल प्रताप को सहन करने म असमर्थ हो उनके राज्य की चतुर्दिग्वती सीमाओं के राजा लोग उनके चरणों म अपना शिर नमाते थे। (माउपिउमुजाए) यह माताके भक्त एव पिता की आजा के परमपालक थे। (दयपत्ते सीमकरे सीमधरे खेमकरे खेमधरे ) ये स्वभाव से दयाल थे, यह कुलमर्यादा के कारक थे, तथा उमफा आराधक भी थे, लन्ध वस्तु के पालक एव उसके धारक भी थे । अर्थात्-प्रजा-हित के योग्य वस्तुओं को प्राप्त करते थे, और प्राप्त वस्तुओं का रक्षण करते थे, उन पर स्वय समृद्ध (मुइये) ते सहा प्रसन्नचित्त २॥ ४२ता उता मया निर्दोष भाताना ते पुत्र छत (सत्तिए ] शुद्ध क्षत्रिय मा ते उत्पन्न यया उता (मुद्धाहिसित्ते) तमना अस तापने मन ४२वामा समर्थ, तमना રાજ્યની ચારેબાજુની સીમાઓના રાજાલકે તેમના ચરણોમાં પોતાના १२ नभावता ता (माउपिउसुजाए) त भाताना Hd, तभी पिताना मानाना ५२म पास इता (दयपत्ते सीमकरे सीमधरे खेमकरे सेमवरे ) આ વભાવે દયાળુ હતા તેઓ કુળમર્યાદાનું પાલન કરતા કરતા અને સારાધક પણ હતા મેળવેલી વસ્તુના પાલક તેમજ તેના ઘરાક પણ હતા અર્થાત્ પ્રજાહિતને ચગ્ય વસ્તુઓને પ્રાપ્ત કરતા હતા અને Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकमरे महया - हिमवंत-महंतमलय-मंदर-महिंदसारे अचंतविसुद्धदीह-रायकुल-वंस-सुप्पसूए णिरंतरं रायलक्षण-विराडयंगपञ्चंगे बहुजणवहुमाणपूइए सव्वगुणसमिद्धे खत्तिए मुइए मुद्धा'कूणिए णाम राया परिसट' कृणिको नाम राजा परिवसति स्म, कूणिको भूप कीदृश । इयाह-'महयाहिमवत-महंतमलय-मदर-महिंदसारे' महाहिमवन्महामलयमन्दरमहेन्द्रसार महाहिमवन्महामलय-मन्दर-महेन्द्राणाम् एतनामौलाना सार शक्तिरिव सारो यस्य स तथा। 'अञ्चतविसुद्ध-दीह-रायकुल-स-सुप्पमूए' अत्यन्तपिशुद्ध-दीर्घ-राजकुल-वा-सुप्रसूत अयन्तपिशुद्धौ सर्वातिगायिनिर्मलौ दार्थीअतिपुगतनौ यौ राजा कुलशौ-मातापितृवशी तन सु-मुटु प्रसूत =प्रादुर्भूत -समुत्पन्न इति यावत् , 'णिरतर' निरन्तरम्, 'रायलखण-विरायगपञ्चगे' राजलक्षणविराजिताङ्गप्रत्यग -राजलक्षणे = सामुद्रिकशास्त्रोक्तैर्विराजितमग-हस्तादिक प्रत्यङ्गम्अगुल्यादिक यस्य स तथा । 'बहुजणबहुमाणपूइए' बहुजनवहुमानपूजित - बहुभिर्जनैबहुमानरतिशयसत्कृत , ' सव्वगुणसमिद्धे सर्वगुणसमृद्ध -सर्वे =अशेपै गुणे = कूणिक नाम के राजा [ परिवसइ ] राज्य करते थे। ( महया-हिमवत-महतमलयमदर-महिंदसारे) यह महाहिमरत पर्वत, महामलय पर्वत, मेर पर्वत, और महेन्द्रपर्वत के तुल्य श्रेष्ठ थे। (अचतविसुद्ध-दीड-रायकुल-चस-मुप्पमूए ) अयत पिशुद्ध एव अतिप्राचीन मातापिता समधी कुल एच वशमे इनका जन्म हुआ था। (णिरतर-रायलक्खण-विराइयगपञ्चगे)असडित राजचिह्नों से इनके अग एव उपाग मुशोभित थे। (बहुजणवहुमाणपूइए) अनेकजनों द्वारा ये बहुमानपूर्वक सत्कृत होते रहते थे। ( सच्चगुणसमिद्धे ) अनेक नीति, दया एव दाक्षिण्याटिक सद्गुणों से समृद्ध थे। ( मुइये ) ये सदा प्रसन नामै २ (परिवसइ) २०य ४२०॥ ता (मह्या-हिमवत-महत-मलय-मदरमहि द-सारे) मे भाडिभपत पर्वत, महाभलय पति, भे३ पर्वत, मने भाईपर्वतारम २४ ता (अच्चत विसुद्ध दीह रायकुल बस सुप्पसूए) सत्यत વિશુદ્ધ તેમજ અતિ પ્રાચીન માતાપિતા સ બ ધી કુળ તેમજ ५शमा भनी म थयो त (णिग्तर-राय लक्रमण विराइयगपञ्चगे) पति शिनाथी तमना २५ सभा 64131 सुशालित ! (बहुजणबहमाण-पूइए) मने Ratan ते मान पूर्व म१२ यामत त (सव्वगुणसमिद्धे) मने नीति तेभ क्षिय माहि साथी पधारे Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पीयूपिणी टीका. स् ११ फूणिकर्ण नम चतुष्टयकारकेषु जनेषु परमार्थचिन्तकतयाऽप्रेमर । 'पुरिससीहे' पुरुषसिंह , पुरुष सिंह इर, सिंह इव निर्भयो चलवाश्च इयर्थ , 'पुरिसरग्वे' पुरुपत्र्यात्र-ज्यानसदृशशूर इत्यर्थ , "पुरिसासीविसे ' पुरुपागीविप -अअध्यकोपवाद भुजङ्गतुन्य । 'पुरिसपुंडरीए' पुरुपपुण्डरीक -पुरुष पुण्डर्गकमिव श्वेतकमलमिव मृदुहृदयवत्वात , जनाना सुखकरत्वाच । __'पुरिसबरगघहत्थी' पुस्पारगन्धहस्ती-विपक्षपक्षमर्दकतया राजा पुरुपवरगन्धहस्तीत्युच्यते । 'अड्डे' आढय -प्रचुग्धनस्यामि वात् , 'दित्ते' स -दर्पवान्-शत्रुविजयकारित्वात्, स्वदेशस्वधर्माभिमत वाच। 'वित्ते' वित्त -प्रख्यात , 'विच्छिण्ण-विउल-भवगसयणा-सण-जाण-चाहणादणे' विस्तीर्ण-विपुल-भवन-गयनाऽऽ-सन-यान-वाहनाकीर्ण , मनुष्यों का ग्रहण हुआ है। उनमे श्रेष्ठ ये इसलिये थे कि ये कोग एव सैन्यबल आदि से समृद्ध थे। पुरुप शब्द से चारों पुरुषार्थों को साधन करनेवाले मनुष्यविशेष का ग्रहण हुआ है, उनमें ये प्रधान इसलिये थे कि ये परमार्थ के चिन्तक थे। ( पुरिससीहे पुरिसनग्ये पुरिसासीविसे पुरिसपुडरीए पुरिसवरगंधहत्थी अड्डे दित्ते वित्ते विच्छिण्ण-विउल-भवण-सयणा सण-जाण-वाहणा-इण्णे) पुरुषसिंह ये इसलिये थे कि पुरुषों मे ये सिंह के समान निर्भय एव बलिष्ठ थे। पुरुषव्याघ्र ये इसलिये थे कि ये पुरुषों में व्याघ्र के समान शूर थे। पुरुषाशीविष ये इसलिये ये कि ये पुरुषों में सर्प के समान अवस्यकोपवाले थे । पुरुषों में पुडरीक तुल्य ये અને પુરૂમા પ્રધાન-મુખ્ય હતા “નર” આ શબ્દથી અહીં સાધારણ મનુષ્યોને અર્થ લેવાય છે તેમનામાં શ્રેષ્ઠ તેઓ એટલા માટે હતા કે તેઓ કેશ તેમજ સૈન્યબલ આદિથી સમૃદ્ધ હતા “પુરૂષ” શબ્દથી ચારે પુરૂષાર્થીને સાધન કરવાવાળા મનુષ્ય વિશેષને અર્થ ગ્રહણ કરાયે છે તેમનામાં તેઓ પ્રધાન (મુખ્ય) એટલા માટે હતા કે તેઓ પરમાર્થના ચિન્તક હતા (पुरिससीहे पुरिसवग्धे पुरिसासीविसे पुरिसपुडरीए पुरिसवरगधहत्थी अढे दित्ते वित्ते निच्छिण्ण विउल भवण सयणा सण-जाण वाहणा-इण्णे) ५३५सि તેઓ એટલા માટે હતા કે પુરૂમાં તેઓ સિહના જેવા નિર્ભય તેમજ બલિષ્ઠ હતા પુરૂષશ્વાઘ તેઓ એટલા માટે કહેવાતા કે તેઓ મા વાઘના જેવા શૂરા હતા પુરૂષાશીવિષ એટલા માટે હતા કે પુરૂષોમાં જેવા સફળ-કેપવાળા હતા પુરૂમા ડરીક તુલ્ય તેઓ એ મનુ હદય ગરીબ પ્રતિ દયા-કમલ હતુ, તેમજ સાધા તેઓ સપના જેવા સફળ-કેપવાળા હેત ૩ માટે હતા કે તેમનું હૃદય ગરીબ પ્રતિ કે Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओपपातिकसूत्रे सेउकरे केउकरे णरपवरे पुरिसवरे पुरिससीहे पुरिसबग्घे पुरिसासीविसे पुरिसपुंडरीए पुरिसवरगंधहत्थीअड्ढे दित्ते वित्तेविच्छिण्णतस्य फारको धारकश्चेतिभाव । 'मणुस्सिटे' मनुप्येन्द्र --मनुष्येषु इन्द्र इव परमैश्वर्यवान् । 'जणश्यपिया' जनपदपिता-जनपदस्य-जनपदवासिना जनाना पिनयशिक्षाप्रदानाद्रक्षणात् भरणपोपण-शीलतया च पितेव-पिता। 'जणवयपाले' जनपदपाल --जनपदवासिजीवमात्रप्रतिपालक । 'जगवयपुरोहिए' जनपदपुरोहित - जनपदस्य-जनपदवासिना जनाना शान्तिकारितया पुरोहित व पुरोहित , 'सेउकरे' सेतुकर -मार्ग सेतुः मर्यादाऽपि सेतु , तदुगयस्य कर कर्त्तति यावत् । 'केउकरे' केतुकर =चिह्नकारक , अद्भुतकार्यकरणात्, ‘णरपवरे' नरप्रवर -नरा साधारणा तेपु प्रवर कोगसैन्यबलशालितया श्रेष्ठ , 'रिसवरे' पुरुपवर -पुरुपेषु-पुरुषार्थदेख-रेख रखते थे । [मणुसिंदे जणवयपिया जणवयपाले जणवयपुरोहिए ] मनुष्यों मे ये इन्द्र समान परमैश्वर्यशाला थे। जनपदनिवासियों को विनय सवधी शिक्षा के दाता होने से एव उनका अच्छी तरह से रक्षण करने से तथा भरणपोषण करने से ये देश के पिता तुल्य थे। इसीलिये ये जनपदपालक ऐसा विरुद धारण किये हुए थे। और इसीलिये ये प्रजाजन के लिये पुरोहित-सबसे पहिले हित में सावधान रहने वाले थे। [ सेउकरे ] ये उन्मार्गगामी मनुष्यों को मार्ग पर लाते थे और उन्हें मर्यादा मे स्थिर करते थे। [ केउकरे ] ये अक्षत कार्यों के करने वाले थे। [ गरपवरे ] ये मनुष्यो मे श्रेष्ठ थे, (पुरिसवरे ) और पुरुषों मे प्रधान थे। " नर " इस शब्द से यहा साधारण १स्तुमानु २क्षा ४२ता ता तेमना ५२ गते भरे रामता त (मणुस्सिदे जणवयपिया जणययपाले जणग्यपुरोहिए ) मनुष्यामा ते छन्द्र समान પરમ એશ્વર્યશાલી હતા જનપદ નિવાસીઓને વિનય સ બ ધી શિક્ષા દેવા વાળા હોવાથી તેમજ તેમનું સારી રીતે રક્ષણ કરવાથી તથા ભરણપોષણ કરવાથી તેઓ દેશના પિતા–તુલ્ય હતા તે માટે જ તેઓ જનપદપાલક એવું બિરદ ધારણ કરતા હતા અને એટલા માટે જ પ્રજાજનને માટે પુરોહિતગર્વથી पडदा खितमा सावधान २वावा ता (सेउकरे) तसा भागाभी मनुष्याने भाग ५२ सापता ता मन भने माहामा निय२ ४२ता ता (केउकरे) तसा मात डायो ४२ ना२। उता (णरपपरे) ते मनुष्यामा श्रेष्ठ उता (पुरिसवरे) Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूपिणी टीका. स् ११ फूणिकवर्णनम् चतुष्टयकारकेषु जनपु परमार्थचिन्तकतयाऽग्रेसर । 'पुरिससीहे' पुरपसिंह , पुस्प सिंह इन, सिंह व निर्भयो चल्याश्च टयर्थ , 'पुरिसवग्वे' पुरुषत्र्यान -व्यानसदृशशूर इत्यर्थ, 'पुरिसासीविसे ' पुरुषाशीविष -अपन्ध्यकोप याद भुजगातुन्य । 'पुरिसपुडरीए' पुस्पपुण्डरीक -पुरुप पुण्डरीकमिव श्वेतरुमलमिव मृदुहृदयवत्वात , जनाना सुखकरत्वाच । 'पुरिसवरगधहत्थी' पुरपवरगन्धहस्ती-विपनपक्षमर्दकतया राजा पुरुषवरगन्धहस्ती त्युच्यते । 'अड्ढे' आद्य -प्रचुग्धनस्वामि वात, 'दिने' म -दर्पवान्-शत्रुविजयकारि वात, स्वदेशम्वधर्माभिमत वाच । 'विते' चित -प्रग्यात , 'विच्छिण्ण-विउल-भवणसयणा-सण-जाण-वाहणाटण्णे' विस्तीर्ण-विपुल-भवन-शयनाऽऽ-सन-यान-वाहनाफकीर्ण , मनुष्या का ग्रहग हुआ है। उनमें श्रेष्ठ ये इसलिये थे कि ये कोग एव मैन्याल आदि से समृद्ध थे। पुरुष शब्द से चारों पुरुषार्थों को साधन करनेवाले मनुष्यविशेष का ग्रहण हुआ है, उनमे ये प्रधान इसलिये थे कि ये परमार्थ के चिन्तक थे। ( पुरिससीहे पुरिसबग्घे पुरिसासीविसे पुरिसपुडरीए पुरिसवरगधहत्थी अड्ढे दित्ते वित्ते विच्छिण्ण-विउल-भवण-सयणा-सण-जाण-वाहणा-इण्णे) पुरुपसिंट ये इसलिये थे कि पुरुपो मे ये सिंह के समान निर्भय एव बलिष्ठ थे। पुरुपत्र्याघ्र ये इसलिये ये कि ये पुरुपा मे व्यान के समान शूर थे। पुरुषाशीविष ये इसलिये ये कि ये पुरुषों में सर्प के समान अवस्यकोपवाले थे । पुरुषों में पुडरीक तुल्य ये અને પુરૂમા પ્રધાન-મુખ્ય હતા “નર” આ શબ્દથી અહી સાધારણ મનુષ્યોને અર્થ લેવાય છે તેમનામાં શ્રેષ્ઠ તેઓ એટલા માટે હતા કે તેઓ કેશ તેમજ સૈન્યબલ આદિથી સમૃદ્ધ હતા “પુરૂષ” શબ્દથી ચારે પુરૂષાર્થોને સાધન કરવાવાળા મનુષ્ય વિશેષને અર્થ ગ્રહણ કરાવે છે તેમનામાં તેઓ પ્રધાન (મુખ્ય) એટલા માટે હતા કે તેઓ પરમાર્થના ચિન્તક હતા (पुरिससीहे पुरिसवग्धे पुरिसासीविसे पुरिसपुडरीए पुरिसवरगधहत्थी अड्ढे दित्ते वित्ते पिच्छिण्ण विउल-भवण-सयणा सण-जाण वाहणा इण्णे) ५३५भिड તેઓ એટલા માટે હતા કે પુરૂષોમાં તેઓ સિહન જેવા નિર્ભય તેમજ બલિષ્ઠ હતા પુરૂષવ્યાઘ તેઓ એટલા માટે કહેવાતા કે તેઓ ના જેવા શરા હતા પુરૂષાશીવિષ એટલા માટે હતા કે પુરૂષમા જેવા સફળ-કેપવાળા હતા પુરૂમા પુ ડરીક તુલ્ય તેઓ એ મનું હૃદય ગરીબ પ્રતિ દયા-કોમલ હતુ, તેમજ સાધા વાધના તેઓ સર્ષના જેવા સફળ-કેપવાળા હતા પરામ માટે હતા કે તેમનુ હદય ગરીબ પ્રતિ દયા-કમલ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओपपातिकसूत्रे सेउकरे केउकरे णरपवरे पुरिसवरे पुरिससीहे पुरिसवग्धे पुरिसासीविसे पुरिसपुंडरीए पुरिसवरगंधहत्थी अड्ढे दित्ते वित्तेविच्छिण्णतस्य कारको धारकश्चेतिभाव । 'मणुस्सिटे' मनुष्येन्द्र -मनुष्येषु इन्द्र इन परमैश्वर्यवान् । 'जणश्यपिया' जनपढपिता-जनपरस्य-जनपढगासिना जनाना विनयशिक्षाप्रदानाद्ररक्षणात् भरणपोषण-शीलतया च पितेन--पिता। 'जणयपाले' जनपदपाल -जनपदवासिजीवमात्रप्रतिपालक । 'जगण्यपुरोहिए' जनपदपुरोहित - जनपदत्य-जनपदवासिना जनाना शान्तिकारितया पुगेहित टव पुरोहित , ' सेउकरे' सेतुकर -मार्ग सेतुः मर्यादाऽपि सेतु , तदुभयस्य कर कति यावत् । 'केउकरे' केतुकर =चिह्नकारक , अद्भुतकार्यकरणात् , 'णरपवरे' नरप्रवर -नरा साधारणा तेषु प्रवर =कोशसैन्यबलशालितया श्रेष्ठ, 'पुरिसवरे' पुरुषवर -पुरुषेषु-पुस्पार्थदेख-रेख रखते थे । [ मणुस्सिदे जगवयपिया जणवयपाले जणवयपुरोहिए ] मनुष्यों मे ये इन्द्र समान परमैश्वर्थशाली थे। जनपदनिवासियों को विनय स्बधी शिक्षा के दाता होने से एव उनका अच्छी तरह से रक्षण करने से तथा भरणपोषण करने से ये देश के पिता तुल्य थे। इसीलिये ये जनपदपालक ऐसा विरुद धारण किये हुए थे। और इसीलिये ये प्रजाजन के लिये पुरोहित-सबसे पहिले हित मे सावधान रहने वाले थे। [सेउकरे 1 ये उन्मार्गगामी मनुष्यों को मार्ग पर लाते थे और उन्हे मर्यादा मे स्थिर करते थे। [ केउकरे ] ये अक्षत कार्यों के करने वाले थे। परपवरे ] ये मनुष्या में श्रेष्ठ थे (पुरिसवरे) और पुरुषों मे प्रधान थे। " नर" इस शब्द ने यहा साधारण पस्तुमानु २क्ष ४२ तमना ५२ त मरेम रामता ता (मणुस्सिदे जणायपिया जणयपाले जणयपुरोहिए ) मनुष्योभा ते न्द्र समान પરમ એશ્વર્યશાલી હતા જનપદ નિવાસીઓને વિનય સ બ ધી શિક્ષા દેવા વાળા હોવાથી તેમજ તેમનુ સારી રીતે રક્ષણ કરવાથી તથા ભરણપોષણ કરવાથી તેઓ દેશના પિતાતુલ્ય હતા તે માટે જ તેઓ જનપદપાલક એવુ બિરદ ધારણ કરતા હતા અને એટલા માટે જ પ્રજાજનને માટે પુરોહિત-સર્વથી पडसाहितभा सावधान २२पापाता (सेउकरे) तसा भागाभी मनुष्याने भार्ग ५२ सावता उता भने भने भाडामा थि२ ४२ता ता (केउकरे) तमा माभुत आयो ४२ना। ता (गरपवरे) तेया मनुष्यामा श्रेष्ठता (पुरिसवरे) Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूपपिणी-टीका. स ११ फूणिकयर्णनम बहु-दासी-दास-गो-महिस-गवेलगप्पभूए पडिपुतण-जंत-कोसकोहागारा--उधागारे वलवं दुबलपच्चामिले ओहयकंटयं निहयभत्तपाणे' पिच्छतिप्रचुरभक्तपान –पिच्छर्दिते दत्ते प्रचुर बहुल भक्तपाने आहारपानीये येन स तथा, वितीर्णाहुतरान्नजल टयर्थ । 'बहु-दासी-दास-गो-महिसगवेलगप्पभूए' बहु-नामी-दास-गो-मन्पि-गवेलकप्रभृत -बहनो दाम्यो दामा गावो महिन्यो गवेलका =मेपाश्च, तै प्रभूत =सुवृद्धिमुपगत । 'पडिपुण्ण-जत-कोस-कोट्ठागारा-उपागारे' प्रतिपूर्ण-यन्त्र-कोश-कोष्टागाग-ss-युपाऽऽगार , तन-यन्त्र-शिल्पादिसाधनरूप-जलयन्त्रादिक अन्तरप्रक्षेपणादिरूप च, कोगो-नानार-रत्नादिभाण्डागारम् , कोष्टागार-धान्यगृहम् , आयुधागार-विविधयवानगृह च प्रतिपूर्ण यस्य स तथा । 'बलब' वल्वान् - तनुबल-धननल-सैन्यबलमम्पन्न । 'दुव्वलपचा मित्ते' दुर्बलइनके रसोई घर में इतना भक्तपान बनता था, कि सबके भोजन कर लने पर भी बहुतसा बच जाता था, जो गरानों को दे दिया जाता था। (बहु-दासी-दास-गोमहिस-गवेलग-प्पभूए) इनकी सेवा के दिये बहुत से टासी दाम इनके पाम सदा रहते थे। और उनकी पशुशाला में गाय, भस तथा मपाका झुण्डका झुण्ड रहता था। (पडिपुग्ण-जत कोस-कोट्ठागारा-उपागारे) उनका यन्त्रागार यन्त्रा से-गिन्य के माधना से, फुहारा के साधनों से, तथा पयर फेकने के सापनों से परिपूर्ण था, उनका फोग सुवर्णमुद्रा रन आदि से भरा रहता था, जनेक प्रकार के वान्यों से इनका कोष्टागार परिपूर्ण या, तया उनका शस्त्रागार अनक प्रकारों के अस्त्रशस्त्रा से सदा भग रहता था। (बलव) ये राजा विशेष बलमान थे, अथात् तनुनल એટલી તે રઈ બનતી હતી કે બધા ભેજન કરી લીધા પછી પણ ઘણીએ माधवधी ५उती ती मान मापी हेवामा भारती (बहु-दासीदाम-गो महिस गवेल्ग-प्पभूए) तभनी येपा भाटे धामी तमनी पासे અર્વદા રહ્યા કરતા હતા તેમની પશુશાલામાં ગાય ભેસ તથા ઘેટાના टमाना टा२ता उता (पडिपुण्ण-जत-कोस कोष्ठागारा उधागारे) तमना यत्राગાર યત્રોથી-શિ૫ના સાધનથી, ફુવારાના માધનથી, તથા પત્થર ફેંકવાના સાવનોથી પરિપૂર્ણ હતા તેમને પ્રજાને નાના સિક્કા અને આદિથી રહેતું હતું અનેક પ્રકારના ધાથી તેમનો કોઠાર પરિપૂર્ણ હતા - તેમનું શસ્ત્રાગાર અનેક પ્રકારના અસ્ત્રશસ્ત્રોથી સદા ભરેલું રહેતું Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - औपपातिकमरे विउल-भवण-सयणा-सण-जाण-वाहणाइण्णे बहुधपण-बहुजायरूवरयए आओगपओगसंपउत्ते विच्छड्डिय-पउरभत्तपाणे निस्तीर्गानि-विस्तारमुपगतानि, विपुलानि-प्रचुरागि, भवनानि गृहा , गयनानि-गया , आसनानि, यानानि-रथा , वाहनानि-अधान्य , तैगकीर्ण परिपूर्ण बहुधण्णाहुनायरूवरयए' बहुधान्यबहुजातम्परजत -बहूनि धान्यानि यस्य स बहुधान्य , बहूनि जातरूपरजतानिजानरूपाणि मुनगानि रजतानि-रूप्याणि च यस्य स बहुमातरूपरजत, बहुधान्यथासौ बहुजातरूपरजतश्चेति तथा, बहुधान्यवहुमुवर्णरजत-परिपूर्ण इत्यर्थ । 'आओग-पओग-सपउत्ते' आयोग-प्रयोगसम्प्रयुक्त -आयोगो धनलाभ, तस्य प्रयोगो व्यवहार , तर सम्प्रयुक्तोव्यात -कृतोद्यम इत्यर्थ । 'विन्छडियपउरइसलिये थे कि इनका हदय गरीबों के प्रति दया-कोमल था, एव साधारण से भी साधारण मनुष्य के लिये ये सुखकारी थे। पुरुषों में उत्तम गधहस्ती के तुल्य ये इसलिये थे कि ये शत्रुओं के मर्दक थे। प्रचुर धनका स्वामी होने से ये आढय थे। शत्रुओं के जीतनेवाले होने से ये दस थे। स्वदेश एव स्वधर्म का पालक होने से ये वित्त-प्रायात थे। उनके अनेक विस्तृत प्रासाद थे। बहुत अधिक अनेक प्रकार के शय्या, आमन, यान और वाहन इनके पास थे । [बहुधण्ण-बहुजायस्वरयए] इनका कोशागार गालि गोधूमादि धान्यों से भग रहता था । तथा इनका भण्डार सोने चान्दी से सदर भरा रहता था । [ आओगपओगसपउत्ते ] धनके लाभके व्यवहार में ये सदा उद्यमशील रहते थे । (विच्छड्डिय-पउर-भत्त-पापो) રણમાં પણ સાધારણ મનુષ્યને માટે તેઓ સુખદાતા હતા પુરૂમાં ઉત્તમ ગધહસ્તીના જેવા તેઓ એ માટે હતા કે તેઓ શત્રુઓને મર્દન કરનારા હતા ઘણા ધનના સ્વામી હોવાથી તેઓ આક્ય હતા શત્રુઓને જીતવાવાળા હેવાથી તેઓ દસ હતા સ્વદેશ તેમજ સ્વધર્મના પાલક હોવાથી તેઓ વિત્ત-પ્રખ્યાત હતા તેમના અનેક મોટા મોટા મહેલે હતા બહુજ વધારે અનેક પ્રકારની શયા, મન, યાન (રથ) અને વાહને તેમની પાસે उता (पहधण्ण-बहुजायच-रया) भनी 19811२ (B8२) शादिर म આદિ ધાન્યથી ભરેલા રહેતા હતા તથા તેમને ભડાર સોના ચાદીથી સદા ल२५२ रहेता तो (आओग-पओग-सपउत्ते) धनना सामना व्यवहारमा तमा उमेश धमीस २३ता sit (विच्छड़िय-पउर-भत्त-पाणे) मना २२१७१५५ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूष पिंणी - ११ कृणिकवर्णनम् मलियसत्तुं उद्धियसत्तुं निजियसत्तुं पराइयमुत्तुं ववगयदुभिक्खं मारिभयविप्पमुक्कं खेमं सिवं सुभिक्खं पसांत डिंवडमरं रज्जं पसासेमाणे विहरइ ॥ सू. ११ ॥ ५७ कण्टका, प्रतापभयाद अविद्यमाना यहा उपघात - निहनन - मलनोद्धारणक्रियाभिनिर्मूलीटता कण्टका यस्मिन् तत्तथा । ' ओडयसत्तु' उपहतशत्रु-उपहता =पत्तिहरणादिभिस्पघात प्राप्ता वो यत्र तत् उपहतानु राज्य शासन था, 'निहयसत्तु ' निहतानु निहता = नन्धादिभिर्दण्ड प्राप्ता शनवो यत्र तत्तथा, ' मलियसत्तु ' मतिधुप्रहारानिभिर्मलिता = मथिता शरवो यत्र तत्तथा, 'उद्भियसत्तु' उद्धृतगत्रु - स्वदेशहिष्कृतगनु । ' निज्जियसत्तु' निर्जितशत्रु-त सैन्यमहारादिभि परिभूतशत्रु । 'पराइयसत्तु' पराजितशत्रु पराजिता गयो यत्र तत्तथा वशीकृतात्रु इत्यर्थ । 'ववगयदुभिक्ख' व्यपगतदुर्भिक्षम् - दुर्लभा भिक्षादुर्भिक्षा, व्यपगता-दुर्भिक्षा यस्मात् तद् व्यपगतदुर्भिक्ष भिक्षादौर्लभ्यरहितमित्यर्थ, 'मारिभयविप्पमुकं ' मारीभयनिप्रमुक्तम् = मरकीभयरहितम् । ‘खेम ' क्षेमम्-क्षेमयुक्त सकुगलम् 'सिप' शिव-निरुपद्रवम् । 'सुभिक्ख' सुभिक्ष- सुलभा भिक्षा यत्र तत्तथा । 'पसातडिंवडमर ' प्रशान्त " इन उपायों द्वारा तस्कर आदि काटों से रहित होकर सर्वथा अकटक बना हुआ था । ( ओहयस नियत्तु मलियसत्तु उडियसत्तु निजियसत्तु पराग्र्यसत्तु ) इसी प्रकार इनका राज्य उपहतशत्रु, निहतानु, मथितशत्रु, उद्धृतशत्रु, निर्जितशत्रु एवं पराजितशत्रु था। [ ववगयदुभिक्ख मारिभयनिष्पमुक्क] इनके राज्य में भिक्षुकों को भिक्षा की दुर्लभता नहा थी । मरकी का भय भी जनता को पीडित नहीं करता था । अत राज्य में सर्जन ( क्षेम ) कुशलता का सद्भाव था । (सिव ) यहा की जनता मे कुशलता छाने का एक यह भी था कि यहां किसी भी कारण न्यु तु ( ओहयसत्तु निहयसत्तु मलियसत्तु उद्वियसत्तुं निज्जियसत्तं पराइय सत्तु) थे प्रारे ४ तेनु रान्न्य उपहतशत्रु, निडुतशत्रु, भथितशत्रु, उद्धृत शत्रु, निर्भितशत्रु तेम ४ पशक्तिशत्रु हेतु ( बवगयदुभिक्स मारिभयविप्पમુજ) તેના રાજ્યમા ભિક્ષુકાને શિક્ષા મળવી દુર્લભ નહાતી મરકીના ભય अमने हुम भापती नहि सा राज्यमा सर्वत्र (क्षेम) कुशजताना सहभाव उता (सिव) महीनी अलभा दुशणता छवाई वानु मे शु એ પણ હતુ કે અહી કાઇપણ પ્રકારના ઉપદ્રવ નહાતા ઉપદ્રવના અભાવ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसने कंटयं मलियकंटयं उद्धियकंटयं अकंटयं ओहयस निहयसतुं प्रत्यमित्र -दुर्बला बलहीना प्रत्यमित्रा =गायो यस्य स दुर्वलप्रत्यमित्र । अत पर सर्वागि विशेषगानि राज्यस्य, प्रशासदिति क्रियाया वा सन्ति, तस्माद् विशेषणाना नपुसकत्व द्वितीयैकवचनान्तत्व च। 'ओहयकटय' उपहतकण्टकम्--उपहता = मपत्तिहरणादिभि उपघात प्राप्ता कण्टका कण्टकवत् अन्त प्रविष्टतया वेदनाप्रदा तस्करादयो यस्मिन् राज्ये, शासने वा, तत् तथा। 'निहयझटय' निहतकण्टकम्निहता बन्धनादिमिर्दण्ड प्राप्ता कण्टका यत्र तत् 'मलियकटय ' मलितकण्टकम्मलिता प्रहारादिभिर्मथिता कण्टका यत्र तत्। 'उद्धियकटयं' उदृतकण्टकम्उद्धृता =निजजनपदाबहिष्कृता कण्टका यत्र तत् तथा । 'अझटय' अकण्टकम्धनबल एव मैन्यबल से मपन्न थे । (दुबलपचामित्ते) इनके जितने भी वैरी थे वे सब दुर्बल-बलहीन थे ।राज्य भी इनका (ओहयकटय निहयकटय मलियकटय उद्धियकटय) उपहत कटक-भीतर प्रविष्ट होकर चुभनेवाले काटोकी तरह पजाको पीडित करनेवाले तस्कर आदिकों से सर्वथा रहित था । निहतकटक इमलिये कि जितने भी राज्य में चोर आदि थे वे सब बधनद्वारा वरकर कारावास में बन्द कर दिये गये थे । मलितकटक इसलिये था कि राज्य मे जो भी चोर आदि थे वे सन प्रहारों द्वारा मथित कर दिये गये थे। उद्धतफटक इसलिये था कि राज्य के समस्त चोर आदि अपने जनपद से बाहर कर दिये गये थे। इसप्रकार इनमा राज्य ( अकटय ) तु (वलव) मा रात विशेष मणवान उता अर्थात् तनुस (शारीरि४ मण) धनमस तेभा सैन्यस्थी सपन्न उता (दुव्बलपच्चामित्ते) तमना । वेशातयामास सडीन उता तेभनुशन्य ५४ (ओहयकटयं नियकटय मलियकंटय उद्धियकटय)पडत४८४२४२मारता रही हुज्या ४२ तेवा घटना પ્રજાને દુખપીડા કરનાર તસ્કર આદિથી સર્વથા રહિત હતુ નિહતક ટકએટલા માટે કે રાજ્યમાં જે કઈચાર આદિ હતા તેઓ બધાને બ ધનથી બાધીને કારાવાસમા પુરી મુકેલા હતા મલિતક ટક એટલા માટે હતુ કે રાત્યમાં જે કોઈ ચેટર આદિ હતા તેઓ બધાને પ્રહારોથી મથિત કરવામા (મારવામા) આવ્યા હતા ઉદધૃતક ટ૮ એટલા માટે હતુ કે રાજ્યના તમામ ચોર આદિને પિતાના દેશથી બહાર કરી દેવામાં આવ્યા હતા આ પ્રકારે તેમનું રાજ્ય (अकटय) ये पायो । त२४२ माहि सामान ढीने सर्वथा नि४४ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषयपिणी-टीका सू १२ धारिणीवर्णनम रीरा लक्खण- चंजण-गुणोत्रवेया माणु- म्माण-प्पमाण- पडिपुण्णसुजाय - सव्वंग - सुंदरंगी समि-सोमाकार कंत पिय- दंसणा सुरूवा ५९ नातिर्पानानि नातिकृशानि पञ्च इन्द्रियाणि यत्र तदहीनपरिपूर्णपञ्चेन्द्रिय तादृग गरीर यस्या सा अहानपरिपूर्णपञ्चेन्द्रियशरीरा-न्यूनाधिकवै कन्यादिदोषरहितलक्षणसहित-पञ्चेन्द्रियपूर्णसुतारा इति यावत् । 'लवण-वजण -गुणोववेया' लक्षण व्यञ्जनगुगोपपेता, तत्र-लक्षणानि चिह्नानि हस्तग्वादिरूपाणि स्वस्तिकादीनि व्यञ्जनानि-मगतिलानि, तायेव गुणा प्रस्तरूपा तैरपपेता = सुसम्पन्ना | 'माणु- म्माण- पमाणपरिपुरण सृजाय सव्वग दरगी' मानोन्मान प्रमाण- प्रतिपूर्ण सुजात सर्वाङ्ग सुन्दराङ्गी, मान=जलात्रिपरिपूर्णकुण्डात्रिप्रविष्टं पुरषादौ यदा द्रोणपरिमित जलादि निस्सरति तदा स पुरादिर्मानवानुच्यते, तस्य शरीरावगाहनाविशेषो मानमन गृद्यते । उन्मानम्= ऊर्ध्वमान यत् तुलायामागेष्य तोलनेऽर्धभारप्रमाण भवति तत् । प्रमाण = निजाङ्गुलीभिरटोरुग्णताङ्गुल्पिरिमितोच्छ्राय, मान च उन्मान च प्रमाण चेति मानोन्मानप्रमाणानि, तै प्रतिपूणानि==पन्नानि, अत एव सुजातानि यथोचितावयवमनिवेशयुक्तानि, सर्वाणि= सर गनि, अङ्गानि = मस्तकादारभ्य चरणान्तानि यस्मिंस्तत् तादृगम् - अत एव सुन्दर दीर्घ और पाचों इन्द्रियों से परिपूर्ण था । ( लक्खण - वजण - गुणोववेया ) लक्षणहस्तरेसादिकरूप एव व्यजन - मसतिल आदिरूप चिह्नों से यह सुम्पन्न थी । ( माणुम्माण - प्पमाण- पडिपुण्ण- सृजाय - सव्वग - मुदरगी ) मान, उन्मान एवं प्रमाण से परिपूर्ण होने के कारण यथोचित अवयवों की रचना से इसके मस्तक से लेकर चरणतक के समस्त अग एन उपाग बडे ही सुहावने थे, अत इसका शरीर सर्वांगसुन्दर था । ( ससि– सोमाकार - कत - पियदसणा ) चद्रमा के तुल्य इसका स्वरूप झापु टुडे नहि तेषु मने पायेय इन्द्रियोथी परिपूर्य हेतु (लक्राणबजण-गुणोनवेया) लक्षायु-इभ्त रेणाहिन्३य तेम ४ व्यन्नन-भसा तल माहि ३५ विक्षोधी ते सुभपन्न हुती (माणु-+माण- पमाण पडिपुण्ण-सुजाय सव्वगसुदरगी) भान, उन्भान तेभ न प्रभाथी परिपूर्ण होवाना नरो यथो ચિત અવયવાની રચનાથી તેના માથાથી લઈને પગ સુધીના સમસ્ત અગ તેમ જ ઉપાગે ઘણા જ સુદર હતા તેથી તેનુ શ॰ીર સર્વાંગસુદર હતુ સમાન તેનુ સ્વરૂપ હાવાથી તે (ससि मोमाकार-क्त पियदसणा ) सदभा Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे मूलम् तस्स णं कोणियस्स रन्नो धारिणी णामं देवी होत्था, सुकुमालपाणिपाया अहीण-पडिपुण्ण-पंचिदियस ५८ 1 , डिम्बडमरम् - विघ्नकलहाभ्या रहितम् एव यथा स्यात्तथा, एवभूत चा रज्ज राज्य - ' पसासेमाणे ' प्रशासत् - पालयन ' विहर: विहरति तिष्ठति ॥ सू ११ ॥ ; टीका ---तस्स णं कोणियस्स रन्नो' तस्य सल कोगिकस्य राज ' धारिणी णाम देवी होत्था ' धारिणी नाम देवी - रात्री आसीत् सा धारिणा राज्ञी कीदृशी ? अत्रोच्यते--' सुकुमालपाणिपाया ' सुकुमारपाणिपादा-पानी च पादौ च पाणिपादम्, प्राण्यङ्गत्वादेकवद्भाव, तत सुकुमार = कोमल पाणिपाद यस्था सा तथा, सुकोमलकरचरणा । 'अहीण-पडिपुण्ण-पर्विदिय-सरीरा' अहीन परिपूर्ण-पञ्चेन्द्रिय-गगेरालक्षणतोऽहोनानि= सम्पूर्णलक्षणानि, स्वरूपत परिपूर्णानि=नातिहूस्वानि नातिदीर्घाणि अभाव भी इसलिये था कि ( सुभिक्ष ) ( पसातडिवडमर ) विघ्न और कलहका अथवा ऐसे [ रज्ज पसासेमाणे विहरइ ] राज्य करते थे ॥ सू० ११ ॥ । प्रकार का उपद्रव नहीं था । उपद्रव का इसमे लोगों को खाद्यसामग्री सुलभ थी यहाँ नाम भी नहीं था । इस प्रकार, राज्य का पालन करते हुए कोणिक राजा 6 तस्स ण कोणियस्स रनो' इत्यादि, ܕ ( तस्स ण कोणियस्स रनो ) उस कोणिक राजा की ( धारिणी णाम ) धारिणी नाम की ( देवी ) रानी ( होत्था ) थी । ( सुकुमालपाणिपाया ) इसके हाथ और पैर दोनों ही बडे सुकुमार थे । ( अहीण-पडिपुण्ण-पर्चिदिय-सरीरा ) इसका शरीर लक्षगसे अहीन एव स्वरूप से परिपूर्ण-न अतिहस्व और न अतिपशु भेटला भाटे तो (मुभिक्य) तेभा बोडीने भावानी सामग्री सुसल हृती (पसातडि बडमरं) विन भने सह (कुमानु નામ નિશાન જ नहोतु या प्रारे अथवा सेवा (रज्ञ पसामेमाणे विहरइ ) राज्यनु પાલન કરતા થકા કાણિક રાજા રાજ્ય કરતા હતા (સ્ ૧૧) "तस ण कोणिस्स रण्णो" इत्याहि (तस्स ण कोणिस्स रण्णो ) ते अणि शन्तनी (धारिणी णाम) धारिएनामनी (देवी) शशी (होत्था) उती (सुकुमाल - पाणि-पाया) तेना हाथ अने यग मन्नेय मडु पेपर (अभण) उता (अहीण-पडिपुण्ण-पचिदिय- सरीरा) तेनु शरीर વષોાથી અહીન તેમ જ સ્વરૂપથી પરિપૂર્ણ-બહુ નાનુ નહિ તેમ બહુ મોટુ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूपयपिणी-टोका सू १२ धारिणीवर्णनम रीरा लक्खण-बंजण-गुणोववेया माणु-म्माण--प्पमाण-पडिपुषणसुजाय-सव्वंग-सुंदरंगी समि-सोमाकार-कंत-पिय-दंसणा सुरुवा नातिपीनानि नातिकृशानि पञ्च इन्द्रियागि यत्र तदहीनपरिपूर्णपनेटिय, तादृश शरीर यस्या सा अहीनपरिपूर्णपञ्चेन्द्रियगरीरा-न्यूनाधिकवैफल्यादिदोपरहितलक्षणसहितपञ्चेन्द्रियपूर्णसुन्दरशरीग इति यावत् । 'लवण-वजण-गुणोवरेया' लक्षण-ज्यन्ननगुगोपपेता. तत्र-लक्षणानि-चिहानि हस्तरेग्वादिरूपाणि स्वस्तिकादीनि, व्यसनानिम्मातिलादीनि, तान्येव गुणा -प्रारतरूपा तैरुपपेता-मुमम्पन्ना । 'माणु म्माण-प्पमाणपडिपुण्ण सुजाय सम्बंग-मुदरगी' मानो मान-प्रमाण-प्रतिपूर्ण-मुजात-सात-मुन्दराम, मान जलादिपरिपूर्णकुण्टादिप्रपिट पुरपादौ यदा द्रोणपरिमित जल्गटि निस्सरनि तदा स पुरपादिर्मानवानुच्यते, तस्य गरीगवगाहनाविशेषो मानमन गृह्यते । उन्मानमःऊर्वमान यत् तुलायामारोप्य तोलनेऽर्धभागप्रमाण भवति तत् । प्रमाण-निजामुलीमिरटोतरशताङ्गुलिपरिमितीच्याय , मान च उन्मान च प्रमाण चेनि मानोन्मानप्रमाणानि, तै प्रतिपूर्णानिम्मपन्नानि, अत एव मुजातानि यथोचितावयवमनिवेगयुक्तानि, सर्वाणि= सर गनि, अगानि-मस्तकादारभ्य चरणान्तानि यस्मिन्तत् तादृशम्-अत एव मुन्दरदीर्ध और पाचौ इन्द्रियों से परिपूर्ण था। (लखण-चजण-गुणोपरया) लक्षणहस्तरेखादिकरूप एव व्यजन-मसतिल आदिप चिही से यह मुम्पन थी । (माणुम्माण-प्पमाण-पडिपुण्ण-भुजाय-सन्यग-मुदरगी) मान, उन्मान एव प्रमाण से परिपूर्ण होने के कारण यथोचित अवयवों की रचना से इसके मस्तक से लेकर चरणतक के समस्त अग एव उपाग बडे ही मुहावने थे, अत इसका शरीर सागसुन्दर था। (ससि-सोमाकार-कत-पियदसणा) चद्रमा के तुल्य इसका स्वरूप सामु न मने पायेय धन्द्रियोथी परिपूर्वा तु (लक्सणचजण-गुणोववेया) क्षा-स्त ३६४३५ तेम ४ व्यान-मसा त माहि ३५ यिनीया सुमपन्नती (माणु-म्माण-प्पमाण पढिपुण्ण-सुजाय सव्वगसुदरगी) भान, उन्मान ते प्रमाणुथी परिपूर्ण पान ४२0 क्यो ચિત અવયવોની રચનાથી તેના માથાથી લઈને પગ સુધીના સમસ્ત અગ તેમ જ ઉપાગે ઘણું જ સુંદર હતાતેથી તેનું શરીર સમસુદર હતુ (मसि-सोमाकार-कत पियदसणा) यद्रमा समान तेनु स्व३५ पाथी ते Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औषपातिकमंत्र करयल-परिमिय-पसत्थ-तिवली-वलियमज्या कुंडल्लु-लिहिय-गंडलेहा कोमुइय-रयणियर-विमल-पडिपुण्ण-सोमवयणा सिंगारागारमङ्ग-वपुर्यम्या सा तथोक्ता 'ससि-सोमामार-कत-पिय-दसणा' शगि सौम्याकारकान्त-प्रियदर्शना, शीव चन्द्र इव सौम्य =मुन्दर आकार यरूप यस्या सा तथा, कान्ता कमनीया-मनोहरा, प्रिय हुत्याहादक दर्शन यस्या सा तथा । तत पदनयस्य कर्मधारय । 'मुख्वा' सुरूपा-योभन रूप यस्या सा तथा । 'करयल-परिमिय-पसत्य-तिवली-चलिय-मज्झा' करतल-परिमित-प्रशस्त-रिवली-चलितमध्या-करतलेन परिमित -प्रमाणित -मुष्टिग्राह्य इत्यर्थ , स चासौ प्रारत शुभ , निपलीवलित =उदरोपरि वर्तमाना तिरेखा त्रिवलिस्तया वलितो-युक्तो मध्यो मध्यभागा यस्या सा तया । 'कुडलु-लिहिय-गडलेहा' कुण्डलो-ल्लिपित-गण्डलेखा, कुण्डलाभ्यामुल्लिखिता घृष्टा गण्डलेखा-कपोलमण्डले रचिता पत्रावली यस्या सा तथोक्ता, 'कोमुइय-रयणियर-विमल-पडिपुण्ण-सोमवयणा' कौमुदित-रजनीकर-विमल-परिपूर्णसौम्यवदना, कौमुदित शरच्चन्द्रिकासहितो यो रजनीकर =पूर्णचन्द्रस्तद्वद् विमल होने से यह देखनेवालों के लिये बडी ही कान्त-मनोहर लगती थी, इसलिये इसका दर्शन हृदय का आह्लादक होता था । (सुरुवा) और यही कारण था कि जिसकी वजह से यह सुरूपा थी। (करयल-परिमिय-पसत्य-तिवली चलियमज्झा) इसका मध्यभाग--कटिप्रदेश करतलपरिमित अर्थात् मूठी में आसके इतना पतला था, प्रशस्त था, तथा इसका उदर त्रिवलीयुक्त था। ( कुडलु-ल्लिहिय-गडलेहा कोमुइय-रयणियर-विमल-पडिपुण्ण-सोमवयणा )इसके कपोल्मटल पर जो पत्रावळी रचित थी वह कानो मे पहिरे हुए दोनो कुण्डली से उल्लिखित-घृष्ट होती रहती थी। इसका जो सौम्यवदन-सुन्दर मुख था वह चन्द्रिका से समन्वित रजनीकर अर्थात् નાગઓ માટે ઘણી જ કાત મનહર લાગતી હતી તેથી તેનું દર્શન હૃદયને मासा यतु तु (सुरुवा) भने ४ थी ते सु३॥ हती (फरयल परिमिय-पसत्य तिपली-बलियमज्झा) तेना मध्यमा-रिप्रदेश ४२तसપરિમિત એટલે મુઠ્ઠીમાં સમાઈ શંકે એવો પાતળો હતો, પ્રશસ્ત હતા તથા पर विपक्षी (ary Rel) पाणु तु (कुडलु लिहिय गडलेहा कोमुइय रयणियरविमल पडिपुण्ण सोमवयणा) तेन पालम 6 ( गाल) ५२२ मत्राक्षी શોભા વધારવા બનાવેલ રચના) બનાવેલી હતી તે તેના કાનમાં પહેરેલા બને કુડલથી ઘસાતી હતી તેનું જે સૌમ્ય વદન ચુખ હતું તે ચદ્રિકાથી Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूपयर्पिणी-टीका स १२ धारिणीयर्णनम् चारुवेसा संगय-गय-हसिय-भणिय-विहिय-विलास-सललिय-संलाव -णिउण-जुत्तोवयार-कुसला सुंदर-घण-जधण-वयण-कर-चरणपरिपूर्ण मौम्य वदन मुस यम्या सा तथा । 'सिंगारागारचाम्वेपा' शृङ्गाराऽऽगारचारपा, गृङ्गारम्य शृङ्गाग्रसस्य अगारमिव गृहमिव चार योभनो वेपो=नपथ्यववादिरचना यस्याः सा तथा । 'सगय-गय-हसिय-भणिय-विहिय-विलाससललिय-सलाम-णिउण-जुत्तोश्यार-कुसला'-सद्गत-त-हसित-भगित-निहितविलास-सललित-मनाप-निपुण-युक्तोपचार-कुगलग, पगतेयु-ममुचितेपु गत-हमितभगिन-पिहित-पिलास-सललित-म्लापेषु निपुणा, तर-गत=गमन गजहसादिनत्, हमित=स्मित, भणित-चचन कोकिल्पीणादिस्वरेण च युक्त, विहित चेष्टित, विलासोनेरचेष्टा, सलरितम्लाप --वक्रोक्त्यायलदांग्ण सहित परस्पग्भाषण, तेषु निपुणा-चतुरेत्यर्थ , तथा--युक्तोपचारेषु सयवहारेपु कुगला दक्षेन्यर्थः, ततः पदद्वयचन्द्रमा के समान निलकुल विमल था। [सिंगारागारचारुवेसा] इसका नेपथ्य अर्थात् वेप गृगार का धर था । [ सगय-गय-हसिय-भणिय-विहिय-विलाससललिय-संलाव-णिउण-जुत्तोवयार-कुसला] दसकी गति गज एव हसादिका की गति जैसी मनोमुग्धकारी थी, इसका स्मित बहुत सुन्दर था, एव इसका भाषण कोकिल और वीणा आदि के स्वर जैसा कर्णप्रिय था, इसकी चेष्टाएँ और विलास अति मनोहर थे, तथा सललितमलाप-परस्परमभाषण वक्रोक्ति आदि अल कारों से युक्त था । मतलब कहने का यह है कि यह इन गमनादिक क्रियाओं में विशेष चतुर यी । साथ २ योग्य सयवहारों म भी यह कुशल यी। [मुदर-थण-जयण-वयणशोलता यमा समान मिसटी निर्भ तु [सि गारा-गार-- चारुवेसा] तेना नेपथ्य अर्थात् २५ तो शानु ५२ हेतु (सगय गय हसिय भणिय विहिय पिलास सललिय सलाव णिउण जुत्तोवयार - कुसला) तेना ચાલ ગજ (હાથી) તેમ જ હસ આદિકની ગતિ જેવી મને મુગ્ધકારી હતી તેનું સ્મિત (હસવું) અતિ સુન્દર હતું તેની બોલી કેયલ અને વીણા આદિના સ્વર જેવા કર્ણપ્રિય હતા તેની ચેષ્ટાઓ અને વિલાસ અતિ મનહર હર તથા સલલિતસ લાપ-પરસ્પર સ ભાષણ–વક્રોકિત આદિ અલ - કારોવાળા હતા કહેવા મતલબ એ છે કે તે ગમન (ચાલ) આદિક ક્રિયાએમા બહુ ચતુર હતી સાથે સાથે ઉચિત સદ્વ્યવહારમાં પણ તે કુશ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - - - - - भोपपातिकम नयण-लावण्ण-विलास-कलिया पामाईया दरिमणिजा अभिरुवा पडिरूवा, कोगिएणंरण्णा भंभसारपुत्तेण सद्धि अणुरता अविरत्ता, इटे सह-फरिस-रस-रूव-गंधे पंचविहे माणुस्सए कामभोए पञ्चाभवमाणी विहरइ ॥ सू. १२ ॥ स्य कर्मधारय । 'सुदर-थण-जघण-बयण-कर-चरण-नयण-लावण्ण-विलास कलिया' सुन्दर-स्तन-अघन-बदन-कर-चरण-नयन-लागण्य-पिलास-कलिता 'पासाईया' प्रासादीया-'दरिसणिज्जा' दर्शनीया । 'अभिस्या' अभिरूपा 'पडि रूवा' प्रतिरूपा, 'कोणिएण रण्णा भभसारपुत्तेण' कोणिकेन राजा भभसारसुद्रण 'सद्धिं' साद-सह । 'अणुरत्ता' अनुरक्ता-अनुरागवती, 'अविरत्ता' अविरक्ता-पत्यो प्रतिकृलेऽपि कोपरहिता, 'इटे' इप्टान्-मनोऽनुकुलान्, 'सद-फरिस-रस-रूव-ग' शब्द-स्पर्श-रस--रूप-गन्धान , 'पचविहे' पञ्चविधान् , 'माणुस्सए काममोए' मानुष्यकान्-मनुष्यसम्बन्धिन कामभोगान् , 'पञ्चणुभवमाणी' प्रत्यनुभवन्ती-भुनाना 'विहरई' विहरति स्म इति ॥ मू० १२ ॥ कर-चरण नयण-लावण्ण-विलास-कलिया ] इमके पयोधरयुगल पुष्ट, जघन कदलाम्तभ जैसे, वदन राकागशि जैसा अर्थात् पूर्णिमा के चन्द्र जैसा था, कमल जैसे कोमल इसके कर चरण थे, नयनलावण्य अनुपम, एव विलास मनोहर था । [पासाईया ] यह राजा के चित्त को प्रतिसमय प्रमुदित करती रहती थी । द्रष्टव्य वस्तुओं मे यह मा एक [दरिसणिज्जा ] द्रष्टव्य वस्तु थी। [ अभि रूवा पडिरूवा ] अभिरूप एव प्रतिरूप थी। (कोणिएण रण्णा भभसारपुत्तेग . सद्धिं अणुरत्ता अविरत्ता इहे सद्द-फरिस-रस-रूव-गवे पचविहे माणुम्सर कामभोए पचणुभवमाणी विहरइ ] यह रानी अपने प्रियपति कोगिक राजा के साथ, कुती [सुदर-थण-जघण-चयण-कर-चरण-नयण-लावण्ण - विलास - कलिया] તેના બન્ને સ્તને પુષ્ટ, જઘન કેળના ત ભ જેવા, વદન-મુખ રાકાશશિઅર્થાત્ પૂર્ણિમાના ચદ્ર જેવુ હતુ કમળ જેવા સુવાળા હાથ પગ હતા नत्रनु सापश्य अनुपम तम ४ विसास मनाउ२ &0 (पासाईया) सतना ચિત્તને હરવખત ખુશી કરતી રહેતી હતી જોઈ શકાય તેવી વસ્તુઓમાં તે पास (दरिसणिज्जा) नेवासाय ती [अभिरुवा पडिरुवा] मलि३५ मा प्रति३५ ती (कोणिएण रण्णा भभसारपुत्तेण सद्धिं अणुरत्ता अविरत्ता Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूपयर्पिणी-टीका र १३ मगरमवृत्तिश्यावृतपुरुषपर्णनम्, मृलम्-तस्स णं कोणियस्स रपणो एके पुरिसे विउलकयवित्तिए भगवओ पवित्तिवाउए भगवओ तदेवसियं पवित्ति णिवेदेड ॥ सू०१३॥ टीका-'तग्स ण कोणियम्स रणो' इत्यादि । तस्य पल कोणिकम्य गन 'पये.' क 'पुरिसे' पुरुप 'दिउलायरित्तिए' विपुलतत्तिक: पुला अधिका ता वृत्तिराजीविका यस्मै स पिपुलगतवृत्तिक-दत्तप्रचुरजीरिक , भगाओ' भगवत मर्मविधैश्वर्यस्तो महागीरस्य 'पवित्तियाउए' प्रवृत्तिन्यापूत -प्रवृत्ती यााया ना तो विटत्य फ प्रामे नगरे वा समवसत । एतद्पायाम्-ज्यात नियुक्त 'भगवनी' भगरत - महावीरस्य तदेवसिय तदैवसिकी-तस्मिन् दिवसे भवा तदेवमिकी-ताम् , अर्थात् अस्मिन् दिवसेऽम्मानगराद् विहत्याऽस्मिनगरे भगवान् विराजते, इत्येतद्रूपा दियमसम्बन्धिनी 'पवित्ति' प्रवृत्ति वार्ता "णिवेदेई' निवेदयतिकथयतीति ॥ म० १३॥ जो भभसार (गिक) का पुत्र था, अनुरक्त होतो हुई, उसके क्रोधित होने पर भी प्रतिकूलता से चिमुस बन, इच्छित शब्द, स्पर्श, रस, रूप एव गन्धरूप पाचों इन्द्रियों के मानवोचित प्रधान कामभोगों का अनुभव करती हुई आनद से, अपना समय व्यतात करती या ॥ सू० १२॥ 'तस्स ण कोणियस्स ' इत्यादि, । तस्स ण कोगियस्स रणो ] उन कोणिक राजा के यहा { एके पुरिसे ] एक ऐसा पुरुष नियुक्त था जिसे राजा की ओर से [विउलफयवित्तिए ] बडी इठे सद-फरिस-रस-रुव-गधे पंचविहे माणुस्सए कामभोए पच्चणुभरमाणी विहरइ) 2. २ पोताना प्रियपति पशु रात के समभार (yिs) ને પુત્ર હતો તેની સાથે અનુરકત પ્રેમાળ હતી રાજ કોધિત થાય તે પણ તે પ્રતિકૂળતાથી વિમુખ હતી, એટલે અનુકળ હતી મનને ગમે તેવા શદ, સ્પર્શ, રસ, રૂ૫ તેમ જ ૩ ધરૂષ પાચ ઈતિઓના માનચિત મુખ્ય કામને અનુભવ કરની આન દથી પોતાનો સમય વ્યતીત ४२ली ती (सू १२) "तस्स ण कोणियस्स" छत्यादि (तस्स ण कोणियस्स रणोदित साने त्या एके पुरिसे ] ४ - - Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिक मूलम् तस्स णं पुरिसस्त वहवे अण्णे पुरिसा दिवणभइ-भत-वेणा भगवओ पवित्तिवाउया भगवओ तद्देवसिअं पवित्तिं णिवेदेंति । सू० १४ ॥ ટ્ टीका--तस्स ण पुरिसस्स' इत्यादि, तस्य भगवद्वार्ताहरस्य पुरुषस्य भृत्यस्य ' वहवे अण्णे पुरिसा' बहवोऽन्ये पुरषा -- राजसेवका, ते कादृशा' इत्याह-'दिण्ण - भइ भत्त-वेयणा' दत्त-मृति-भक्त-बेतना -भृति स्वर्णमुद्रादिरूपा, भक्तममिलती थी । ( भगवओ परिचिनाउए ) भगवान् आजीविका "" कन कहा से निहार कर किस ग्राम में समवसृत हुए है इस समाचार को जानने के लिये वह नियुक्त किया गया था । तथा [ भगवओ तद्देवसिय परित्ति fract ] भगवान् के दैनिक वृत्तान्त का भी - अर्थात् आजदिन भगवान् इस नगर से विहार कर इस नगर में विराज रहे हैं इस प्रकार को उनकी दैनिक विहारवार्ता का भी ध्यान रसता था । यह वृत्तान्त राजा के निकट निवेदन करता था ॥ सू० १३ ॥ ' तस्स पणं पुरिसस्स वहवे' इत्यादि, t [ तस्स - पुरिसंस्स बहवे अण्णे पुरिसा ] इम पुरुष के हाथ के नीचे और भी बहुत से अनेक पुरुष कि जिन्हे ( दिष्ण - भइ - भत्त - वेयणा ) इसकी तरफ से सुवर्णमुद्रादिरूप भृति, एवं अन्नादिरूप भक्त इस प्रकार दोनों तरह का येथे। ५३ष राभेो। तो डेनेने गल तरथी ( निउलकयवित्तिए) भोटी भालुविडा भजती इती [ भगवओ पवित्तिवाउए ] ભગવાન ક્યારે કયાથી વિહાર કરી કયા ગામમા સમવત થયા છે” એ સમાચાર જાણવાને भाटे तेनी निभायुद्ध ४रेसी हुती तथा [ भगवओ तद्देवसिय पविति णिवेदेइ ] ભગવાનને દૈનિક વૃત્તાન્ત=અર્થાત્ જરાજ ભગવાન આ નગરથી વિહાર કરીને આ નગરમાં મિગજે છે એ પ્રકારની તેની દૈનિક ( દિવસ મ બધી ) વિહારવાર્તા નું પણ ધ્યાન રાખતા હતા આ વૃત્તાન્ત રાજાની પાસે નિવેદન उरतो तो ( सू १३ ) 16 तस्स ण पुरिसस्स बहवे ' धत्याहि ( तस्स ण पुरिसम्स बहवे अण्णे पुरिसा) ते पुरुषना हाथ नीचे मील घायुषो हता भने ( दिण्ण-भइ-भत्त-वेयणा ) तेना तरस्थी સુવર્ણ મુદ્રારૂપ ભૂતિ તેમજ અન્નાદિરૂપ ભક્ત-ખારાક એમ બન્ને પ્રકારનું વેતન Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूपयर्पिणी-टोका म १५ स्थानशालागतकूणिकपर्णनम्. मूलम्-~तेणं कालेणं तेणं समरणं कोणिए राया __ भंभसारपुत्ते वाहिरयाए उबट्टाणसालाए अणेग-गणणायग-दंड अनरूपम्-इट द्वितिर वेतन-जाविका रत्त येभ्य , ते दत्तमृति-भक्तरेतना 'भगवओ पवित्तिवाउना'-भगवत प्रवृत्ति यात्रता -भगवनिहारसमवसरगादिवृत्तान्त-निवेदन नियुक्ता, भगरतस्तदैवमिकी प्रवृत्ति निवेदयन्ति-कथयन्तानि यारत् , नोकेन मृत्येन तादृगप्रतिबन्धविहारिणो भगवत विहारममयमरणातानिवेदन मुलभम् इति हेतोपत्र कार्ये वहवो नियुक्ता इति भाव ॥ मू० १४ ॥ टीका-'तेण कालेण तेणं समएण' इत्यादि, तस्मिन काले तस्मिन् समये 'कोणिए राया भभसारपुत्ते' कोगिको गजा भभसारपुत्र --अय कोणिको नृपो भभमारस्य-श्रेणिकापरनामरता नृपम्य पुन , 'बाहिरियाए उबट्टाणसालाए' बाह्यायामुपस्थानशालायाम-नाये ममागृह-'अणेग-गणणायग-दडणायग-राई-सर-तलवर-माडवेतन लिया जाता था। (भगवओ) वे भगवान् महावीर के ( पवित्तिवाउया ) विहार और ममवमरण आदि वृत्तान्त का निवेदन करन के लिये नियुक्त थे, [भगवओ नदेवसिय पवित्ति णिति ] इसलिये वे भगवान् की विहाग्मवधी एव समवमरणमधा नाता प्रतिदिन आफर के निवेदन करते थे । सू० १४ ॥ तेण कालेण तेण समएण' इत्यादि । (तेण कालेण तेण समएण ) उस काल उस समय (कोणिए राया भभसारपुत्ते) मभसार-णिक नृप के पुत्र कोणिक राजा (वाहिरयाए उवट्ठाणसालाए) बाहर की उपस्थान शाला मे (अणेग-गणणायग-दडणायग(५२) मापामा मातु (भगरओ) तया सापान महावीरन (पवित्तिपाउया) विहार भने समक्सर माहि वृत्तांतनु निवन ४२५॥ भाट राणेसा हुता ( भगनमो तद्देनेसिय पवित्ति णिवेदेति ) तथा तया सापाननी विहार બધી તેમજ સમવસરણ એ બધી વાર્તા દરરોજ આવીને નિવેદન કરતા हता (सू १४) " तेण कालेण तेण समएण" त्याहि. (तेण कालेण तेण समएण) ते डरते समये (कोणिए राया भभसारपुत्ते) म समा२-श्रेपि न पुत्र आणि गल (नाहिरयाए उवट्ठाणसालाए) महा२नी यान शालामा (अणेग-आणणायग-दडणायग-राई-सर-तलपर-माड Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - - - - औपपातिकसूत्रे णायग-राई-सर-तळवर-माडंबिय-कोडंविय-मंति-महामंति-गणगदोवारिय-अमच्च-चेड-पीढमद-नागर नेगम-सेहि-सेणावइ-सस्थवाह-दूय-संधिवाल सद्धि संपरिबुडे विहरइ ॥ सू० १५ ॥ निय-कोविय-मत्ति महामति गणग-दोगारिय-अमन्च-वेड-पीढमद-नागर नेगम-सेटिसेणावह सत्यगह-दूय-संधिकाल सदि अनेक-गगनायक-दण्डनायक राजेश्वर-तत्रर-माडम्बिक-कौटुम्बिक मन्त्रि-महामन्त्रिमाणक-दीपारिका-ऽमात्य-चेट-पीठमर्द-नागर-नैगम-श्रेष्ठि-सेनापति-सार्थवाह-दूत-सन्धिपालै सार्धम् , तर अनेके ये गणनायका समुत्पन्ने प्रयोजने ये गण कुर्वन्ति ते गणनायका , गणप्रधाना इत्यर्थ , दण्डनायका-दण्डनातार , राजान-मण्डलाऽधिपा, ईश्वरा-ऐश्वर्यसम्पन्ना युवराजा , तल्चरा-तल-सौवर्णपदबन्ध , परितुष्टनरपतिप्रदत्तेन तेन तलेन बरा , तलपरा --सन्तुष्टभूपप्रदत्तपट्टयन्धसुशोभितराजकन्या इत्यर्थ, 'माडरिय' माडम्बिका , ग्रामपञ्चशतीपतय इत्यर्थ , यद्वा-सार्धकोश-दयपरिमितप्रान्तविल्छिय विच्छिद्य स्थिताना प्रामागामधिपतय , कोडुपिय-कौटुम्बिका बहुकुटुम्बभरणतत्परा , मन्त्रिण - राई-सर-तलवर-माडविय-कोडविय-मति-महामति-गणग-दोपारिय-अमञ्च चेडपीढमह-नागर-नेगम-सेहि-सेणावइ-सत्यवाह-दय-सधिवाल सद्धिं सपरिवुढे विहरइ) अनेक गणनायकों से-अयोजन उपस्थित होने पर जो गण तैयार करते थे ऐसे लोगों से, दण्टनायको से, माण्डलिक राजाओं से, ईश्वरों से युवराजों से, तलवरों से राजाने संतुष्ट होकर जिन लोगों को सुवर्णका पट्टबन्ध दिया, उस पट्टबन्ध से सुशोभित राजातुल्य पुरुपों से, माइनिकों से-पाँच सौ ग्रामों के अधिपतियों से, अथवा ढाई ढाई कोगमा अन्तर जिन दो गामों के बीच मे होता है ऐसे अनेक गामों के अधिपतियों से, कौडम्भिकों से-कुटुम्ब के भरण-पोषण मे तत्पर व्यक्तियों से विय-कोडुपिय-मति-महामति-गणग-दोबारिय-अमच्च-चेड़-पीढमद नागर-नेगम-- सेद्वि-सेणायइ-सत्यवाह-दूय-संधिवाल सद्वि सपरिवुडे विहरइ) मने गनायકેથી પ્રોજન ઉપસ્થિત થાય ત્યારે જે ગણું તૈયાર કરતા હતા તેવા લોકેથી, દડનાયકેશી, માડલિક રાજાએથી, ઈશ્વરેથી યુવરાજોથી, તલવથી રાજાએ સ તુષ્ટ થઈને જે લોકોને સુવર્ણ પદૃબ આપે હોય તે પબધથી સુશોભિત રાજ જેવા પુરૂથી, માડમ્બિકાથી પાચ ગામના અધિપતિઓથી અથવા અહી અહી ગાઉનું અતર જે બે ગામોની વચ્ચે હોય એવા અનેક ગામના અધિપતિઓથી, કૌટુંબિકેથી કુટુંબના सरए ५२ व्यतिमाथी, मानसाथी,यिनी सभी (निर्णय ) Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ पीयूपयपिणी-टीका सू. १५ उपम्यानशालागतकृणिकयनम् . कर्तव्यालोचन मन्त्र , सोऽम्यास्तीति मन्त्री, बहुमल्यका मन्त्रिण , विचारकारका इत्यर्थ , महामन्त्रिण -मन्त्रिमण्डलप्रधाना -सूक्ष्मातिमूक्ष्मविचारका इत्यर्थ , गणग-गणका -ज्योतिपिका -शुभाशुभफादेशकारिण , ' दोबारिय' दौवारिका द्वारपाला , अमात्या -राज्यहितचिन्तका -अष्टादशाना प्रकृतीना-नागरिकगीना महत्तरा इति यावत् , चेटा दासा , पीठमा -अगमवाहका --आमनसमीपनतिन -सेनका, नागरा =नगरवासिनो नागरिका, नगमा -पौरवगिज , शेष्ठिन -लक्ष्मीकृपासूचकपालकृतका प्रधानन्यवहारिण ' सेणावड' मेनापतय -चतुरङ्गसेनायाश्चतुर्विमा अधिपा , सार्थवाहा -साथ समानत्र्यवसायिसमूह वाहयन्ति योगक्षेमाभ्या रक्षन्ति इति अथात्-समूहन दूरदेश गवा क्रयविक्रयकर्तार । दूता-मन्देशहग , मन्धिपाला-युध्यमानेन राज्ञा कृत सन्धि त पालयन्तीति सन्धिपाला । एतेपा द्वन्द्व विधाय तैर्गगनायकादिमन्धिपालाऽन्तै सार्द्धम् , अत्र आर्पनात् सन्धिपालगन्दोत्तरवर्तितृतीयाविभक्तेलोप , 'सपरिखुढे' सम्परिवृत -स-- सम्यक् समन्ताद्वेष्टित 'विहरई' विहरति-सुग्वेन काल नयति स्मेति भाव ॥ सू० १५ ॥ मन्त्रियों से कर्तव्य की समीक्षा करनेवाले विचारवान पुरुपों से, महामन्त्रियों से समातिमू मविचारशील मन्त्रिमण्डल के प्रधानों से, गणों से शुभ, अशुभ फल पा निवेदन करनेवाले ज्योतिपियों से, दौवारिकी से द्वारपालों से, अमात्यों से राज्य के हित चिन्तको से अर्थात् अठारह प्रकृतियों-जातियों के मुखियों से, चेटों से दासों से, पीठमईकों से अङ्गमईको से अर्थात् समीप में रहनेवाले सेनको से, नागरों सेनागरिक पुरुपों से, नैगमों से-पौरवणिगजनों से, प्ठियों से लक्ष्मी की कृपा का सूचक पट्ट से सुशोभित मुरय मुरय सेठों से, सेनापतियों से-चतुरङ्गिणी सेना के नायकों से, सार्थवाहों से, दूतों से, तथा-सन्धिपालों से शत्रु राजाओं के साथ सन्धि करने के लिये नियुक्त अधिकारी पुरुपों से परिवृत होकर वठे हुए थे । सू० १५॥ કરનારા વિચાગ્યાન પુરૂથી, મહામ ત્રિઓથી સૂક્ષ્માતિસૂમ વિચારશીલ મત્રિમ ડલના પ્રધાનેથી, ગણકેથી=શુભ અશુભ ફલના નિવેદન કરવાવાળા જ્યતિષિએથી, દૌવારિકેથી દ્વારપાળોથી, અમાત્યોથી, રાજ્યહિતચિતકેથી અર્થાત્ અઢાર પ્રકૃતિ-જ્ઞાતિઓના મુખિઓથી, ચેટેથી=દાસેથી, પીઠમકેથીઅગમર્દકેથી અર્થાત પાસે રહેવાવાળા (હજુરીઆ) વકેથી, નાગરોથી= નાગરિક પુરૂષાથી, નિગમોથી=પર વણિક જનથી, શ્રેષ્ઠિઓથી=લકમીની કૃપાના સૂચક પટ્ટથી સુશોભિત મુખ્ય મુખ્ય શેઠેથી, સેનાપતિઓથી ચતુરગિણી સેનાના નાયકેથી, સાર્થવાહોથી, દતથી તથા અધિપાસેથી શત્રુ રાજાઓની સાથે સંધિ વરવાને માટે નિમણુંક કરેલા અધિકારી પુરૂથી વીટળાઈને બેઠા હતા (સૂ ૧૫ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ taurfara मूलम् -- तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महा ------ टीका' तेण कालेण ' इत्यादि । अधुना चरमतीवर भगवन्त , श्री महावीरस्वामिन वर्णयति - ' ते ' इति सत्रेण । स गर्छु भगवान् वचनागोचरगुणनिकररुचिरो महावीरोऽप्रतिनन्धविहारकमेण पूर्णमद्रमुवान समवमर्तुकाम चम्पाया नगर्या समीप ग्राममुपागत इति वर्ण्यते ' तेण कालेन तेण समएण इत्यादि । तस्मिन् खलु काले चतुरिकलक्षगे तस्मिन् समये = कोगिकभूपशामनसमये, 'समणे' श्रमण - श्राम्यति - ती तपसि यतते इति श्रमण | 'भगन' भगवान् समग्रैश्वर्यसम्पन्न, 'महावीरे' महावीर - महावीरनाम्ना प्रसिद्ध धरमतीर्थकर, गुगनिष्पन्नमिद नाम, अधुना महावीरशब्दयुत्पत्तिमाह-निशेपन शिवपदमियर्ति गच्छतीति वीर अपना विदारयति ' तेण कालेन तेण समएण समणे भगवं महावीरे' इत्यादि, अब चरमतीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी का 16 इत्यादि १६ वे सूत्रद्वारा वर्गन किया जाता है । इसमे सर्वप्रथम प्रशस्त गुणों के समूह से विराजित वे प्रभु अप्रतिबंध विहार करते नाम के उद्यान मे पधारने के निमित्त चपानगरी के समीपवता ग्राम मे पधारे । ते काले " वचन - अगोचर हुए पूर्णभद्र आरे के उस श्रमण - तीत्र ( तेण कालेन तेण समरण ) अवसपिंगी कालके चतुर्थ कि जिस समय मै कोणिक राजा राज्य करते थे, ( समणे ) करनेवाले ( भगव ) भगवान - समग्र ऐश्वर्य रापन्न ( महावीरे ) महावीर - जो रागमनरूप से शिवपद को प्राप्त करते हैं वे वीर है, कर्मशत्रुओं का जो समय मे तपस्या अपुन - विदारण " तेण कालेन तेण समरण समणे भगन महावीरे " इत्यादि. 37 हवे यरभ तीर्थजरे लगवान महावीर ग्वाभीनु पनि " तेण कालेण' ઇત્યાદિ ૧મા સુત્રદ્વારા કરવામા આવે છે તેમા મથી પ્રથમ વચન અગાચર-પ્રશસ્ત ગુણ્ણાના નગૃહથી વિરાજમાન તે પ્રભુ અપ્રતિબન્ધ વિહાર કરતા કરતા પૂર્ણ ભદ્ર નામના ઉદ્યાનમા પધારવાના નિમિત્તે ચ પાनगरीना नलुङना गाभा यधाया ( नेण कालेन तेण समरण) अवसर्पिणी કાલના ચાથા આરાના તે સમયે કે જે સમયમા ણિક રાજા રાજ્ય रता हुता, (समणे ) श्रभयु - तीव्र तपस्या स्वावाजा ( भगन ) लगवानसमय भैश्वर्यस यन्न ( महानीरे ) महावीर ने अपुनरागमन - ३५थी शिव પદ્મને પ્રાપ્ત કરે છે તે વીર છે, કશત્રુઓને જે નાશ કરે છે તે વીર છે. Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयृपर्षिणी टोका न १६ भगवन्महावीरस्वामिवर्णनम् ६९ वीरे आइगरे तित्थगरे सयंसंबुद्धे पुरिसुत्तमे पुरिससीहे पुरिस रिपुमय मिति वीर | यहा - अनन्यानुभृतमहातप श्रिया विराजते इति वीर, या जन्तरङ्गमोहमहाननिलनामनन्ततपोनी यापारयति इति नार सामान्यजिन, तदपेक्षया महाचासौ वार महावीर । महत्यगुणयुक्तनीरमस्य निपरिषहोपमर्गनिपातेऽपि निवात् जन्मममने निजाद्गुष्ठेन मेगेथालनाच। 'जाइगरे' आदिकर आदी प्रथमत स्वनामनापेभया श्रुतचारिनधर्मलक्षण कार्य करोति तच्छील आदिकर । 'तित्थगरे' तीर्थकर तीर्यते- पार्यते ससारमोह महोद करते हैं-वे चीर है, जो अनन्य सदृश तपस्या की शोभा से विराजमान होते है चोर है, जिन्होंने अन्तरग - अन्त स्थित मोहके महाचल का नाश करने के लिये अपने अनन्त तप वार्या प्रयोग किया है वे चीर है । इस प्रकार के वीरों - सामान्य जिनकी अपेक्षा भगवान महत्त्व गुणों से युक्त है, इसलिये वे महावीर हैं। अनेक परिपह उपसर्ग उपस्थित होने पर भी वे निथल थे, जन्म समय में अपने अगूठे से मेरु को हिलाया था यही इनका महत्व है । ऐसे अन्तिम तीर्थंकर महावीर प्रभु जोन निम्नलिखित विशेषण से सपन्न है वे चपानगरी के समीपस्थ ग्राम में पधारे, इस प्रकार इस सूनका सव लगाना चाहिये । वे महावीर प्रभु कैसे हे ' इस बात को नीचे लिखे हुए विशेषणों द्वारा सरकार स्पष्ट करते हैं। वे प्रभु (आइगरे ) जाकिर - स्वशासन की अपेक्षा श्रुतचारिनरूप धर्म की आदि करने वाले हैं, ( तित्थयरे ) तीर्थकर है - जिसको प्राप्त कर जीव ससाररूपी महासमुद्र पार करते है જે અનન્ય-મશ તપસ્યાની ાભાવડે વિરાજમાન છે તે વીર છે જેએએ આ તર ગ~~અ ત સ્થિત મેાહના મખલના નાશ શ્વાને માટે પેાતાના અનત તપવીય ( ખલ )ના પ્રયાગ કર્યો છે તે વીર છે એ પ્રકારના વીરાની—સામાન્ય જીનેાની અપેક્ષા ભગવાન મહત્ત્વ ગુણાથી યુક્ત છે, તેથી તેએ મહાવીરુ જે અનેક પરીષહ ઉપનગ ઉપસ્થિત થતા પણ તે નિશ્ચળ રહેતા, જન્મ સમયે પેાતાના અ ગુહાવર્ડ મેરૂ પર્વતને હલાવ્યેા હતેા એજ તેમનુ મહત્ત્વ છે એવા અતિમ તીર્થંકર મહાવીર પ્રભુ કે જે નિમ્ન લિખિત વિશેષણાથી નપન્ન છે તે ચપાનગરીના નજીકના ગામમા પધાર્યા એ પ્રકારે આ સૂત્રના સમય ઘટાવવા જોઈએ તે મહાવીર પ્રભુ જેવા છે તે વાતને નીચે લખેલા વિશેષણેાદ્વારા સત્રકાર સ્પષ્ટ કરે છે ते प्रभु (आइगरे ) माहिर शास ननी अपेक्षा श्रुतथास्त्रिय धर्मने माहि उवावाजा छे, ( तित्थयरे ) तीर्थ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आँपपातिकत्र 3 धिर्येन तत् तीर्थम् चतुर्निध सङ्घ तकरशीलयात तीर्थकर । 'सयसमुद्धे' स्वयसम्बुद्ध - स्वय परोपदेशमन्तरेण सम्बुद्ध - सम्यक्तया बोध प्राम स्वयसम्बुद्ध । ' पुरिमुत्तमे ' पुरुषोत्तम - पुरुषेषु उत्तम श्रेष्ठ ज्ञानायनन्तवत्यात्पुरुपोत्तम । ' पुरिससीहे ' पुरुपसिंह - पुस्पेषु सिंह - रागद्वेपादिशत्रुपराजये दृष्टाऽद्भुत पराक्रमात् इति यद्वा-पुरुष सिंह इव इति पुरपसिंह । ' पुरिसररपुडरीए' पुरुपवरपुण्डरीकम् - पुण्डरीक धवलकमल, वरञ्च तत्पुण्डरीक वरपुण्डरीक = धन लकमलप्रधान, पुरुषो वरपुण्डरीकमिवेत्युपमि - तसमासे पुरुषनरपुण्डरीकम्, भगवतो वरपुण्डरीकोपमा च निर्निर्गताऽसिलाऽशुभमलीमस त्वात् सर्वे शुभानुभावै परिशुद्धत्वाच्च यद्वा यथा पुण्डरीक पाजातमपि सलिले वर्द्धितमपि चोभयसम्नन्धमपहाय निर्लेप जलोपरि रमणीय सदृश्यते निजानुपमगुणगगबलेन सुरासुर-नर-निकर- गिरोवारणीयतयाऽतिमहनीय परमसुसाssस्पदञ्च भवति F 05 + ऐसे चतुर्विध सघरूप तीर्थ के कर्त्ता हैं ( सयसमुद्धे ) परोपदेश के बिना स्वयमेव बोध को प्राप्त हुए है, इसलिये स्वयसद्ध हैं, ( पुरिमुत्तमे ) ज्ञानादिक अनन्तशुद्ध गुणों की जागृति - विष्टि होने से पुरुषों मे उत्तम है, ( पुरिससी हे ) रागद्वेषादिक शत्रुओं के पराजित करने मे अद्वितीय - पराक्रम प्रदर्शित करने के कारण पुरुपसिंह है । ( पुरिसवरपुडरीए) पुरुषवरमुदरीक-समस्त प्रकार की मलिनता के अभाव से पुस्यों में श्रेष्ठ शुभ्र कमल जैसे है । यहा भगवान् को जो वरपुडरीक की उपमा दी गई है उसका भाव यह है कि जिस प्रकार कमल कीचड से उद्भूत होने पर एव जल मे वर्द्धित होने पर भी इन दोनों (कीचड और जल ) के सबध से रहित होकर निर्लेप होता है, जल से भिन्न होकर उसीमे रहता हुआ भो जैसे કર છે. જેને પ્રાપ્ત કરીને જીવ સ સારરૂપી મહાસમુદ્ર પાર કરે છે એવા अतुर्विध सघस्य तीर्थना र्ता छे ( सयसबुद्धे ) परोपदेशना वगर पोतानी भेणे शोधने आप्त यो छे तेथी स्वयसमुद्ध छे ( पुरिसुत्तमे ) ज्ञानाहिङ अनन्त शुद्ध गुणोनी लगृति- विशिष्ट होवाथी पु३षामा उत्तम (पुरिससी है) રગ દ્વેષાદિક શત્રુઓને પરાજિત કરવામા અદ્વિતીય પરાક્રમ અનાવવાના કાર गुथी पु३ष-सिद्ध छे ( पुरिसनरपुडरीए ) ३षवर उरी - समस्त अजरनी મલિનતાના અભાવથી પુરૂષામા શ્રેષ્ઠ શુભ્ર કમલ જેવા છે. અહીં ભગવાનને જે વરપુ ડરી ની ઉપમા આપેલી છે તેના ભાવ એ છે કે જે પ્રકારે કમલ કીચડથી ઉત્પન્ન થાય છે તેમજ જલમા વધતુ જાય છે છતા પણ એ અને ( કીચડ અને જલ)ના સખ ધથી રહિત થઈ તે નિલેપ રહે છે જલથી જુદા Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूपfर्पणी टीका व १६ भगवन्महावीरस्वामिवर्णनम् ७१ वरपुंडरीए पुरिसवरगंधहत्थी लोगुत्तमे लोगनाहे लोगहिए लोगतथाऽय भगवान कर्मपदानातो भोगाऽम्भोपति सनपि निर्लेपस्तदुभयमतिवर्तते, गुणसम्पदाम्पतया च केवलादिगुणभानादसि भयजनशिरोधारणीयो भवतीति । 'पुरिसवरगधत्थी' पुरुषारगन्धहस्ती गन्धयुक्तो हस्ती गन्धहस्ती चरथासी गन्ध हस्ती चरगन्धहस्ती पुरुषो वरगन्धहस्तीय- पुरुषवरगन्धहस्ता, गन्धहस्तिलक्षण यथायस्य गन्ध समानाय पलायन्ते पर गजा | त गन्धहस्तिन विद्यान्नृपतेविजयावहम् ॥ इति ॥ अत एव यथा गन्धहस्तिगन्धमानाय अन्ये गजा इतस्ततो द्रुत पलाय्य क्यापि तदचिन्यातिशयप्रभानवशाद् विहरणसमारणगन्धसम्बन्धगन्धतोऽपि - इति निलीयन्ते सुन्दर दिसता है और मुर, अमुर एव नरों द्वारा अपन गिरपर धारण किये जाने से अतिमहनीय एव अयत प्रशमनीय होता है, उसीप्रकार प्रभु भी कर्मरूप पक से उद्भूत होन पर एव भोगरूप जट में वर्द्धित होने पर भी इन दोनों से निर्लिस ही है एवं ज्ञानादिकगुणरूपी सम्पत्ति के स्थान होने से अर्थात् केवलज्ञानादिक गुणों से निष्टि होने से समस्त भव्यजनों द्वारा गिरोधार्य है । ( पुरिसत्ररहस्थी ) भगवान् पुरुषों में गधहस्ती जैसे हैं । जिसकी गध से अन्य गज दूर भाग जानें उसका नाम गधहस्ती है । यह हस्ती जिम राजा के पास होता है वह नियम से शत्रुओं के बीच में रहने पर भी विजयलक्ष्मी प्राप्त करता है | हमा प्रकार प्रभु के बिहार की गंध से भा उस २ स्थान से उमर-मरकी आदि उपद्रव રહીને પણ તેમાજ રહેતા છતા જેમ સુદર લાગે છે અને સુર, અસુર તેમજ મનુષ્યદ્વારા પોતપેાતાને માથે ધારણ કરવામા આવતા અતિમહુનીય તેમજ અત્યત પ્રશસનીય અને છે, તેમ પ્રભુ પણ કરૂપ ૫૭ ( કીચડ ) થી ઉત્પન્ન થયા છત્તા તેમજ ભાગરૂપ જલમા વૃદ્ધિ પામ્યા છતા પણ એ બન્નેથી નિકે પજ વ્હેલા છે તેમજ જ્ઞાના િગુણરૂપી સ પત્તિનુ હાવાથી અર્થાત્ ડેવલ જ્ઞાનાદિક ગુણેાથી વિશિષ્ટ હાવાથી સમન્ત ભવ્ય જીવે द्वारा शिरोधार्य अनेसा हे ( पुरिसवरगधहत्थी ) लगवान् यु३पोभा गधडस्ती જેવા છે, જેની ગધથી ખીજા હાથીએ દૂર ભાગી જાય તેનુ નામ ગધહસ્તી છે. આ હાથી જે રાજાની પાસે હોય છે તે નિયમથી શત્રુઓની વચમા રહેવા તા પણુ વિજયલક્ષ્મી પ્રાપ્ત કરે છે એવી જ રીતે પ્રભુના વિહારની ગંધથી પણ સ્થાન Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओपपातिकसूत्रे टमर-मरकादय उपद्रवा दाग दिक्षु प्रस्वन्तीति, गन्धगजाश्रितराजगद् भगनदाश्रितो भव्यगग सर्वदा विजयवान् भवतीति भवयुभयोर्युक्त सादृश्यम् । 'लोगुत्तमे' लोकोत्तम -लोकेपु=भव्यसमाजेषु उत्तम =उत्कृष्टतम , चतुस्लिंगादतिशयपञ्चरिंगदाणीगुणोपेतत्वात् । 'लोगनाहे ' लोकनाथ -लोकाना=मव्याना नाथ =नेता--योगक्षेमकरत्वात् । 'लोगहिए' लोकहित -लोक =एकेन्द्रियादि सर्वप्रागिगगस्तस्मै हित -तदोपायप्रदर्शकत्वात् । 'लोगपईवे ' लोकप्रदीप -लोकस्य भन्यजनसमुदायस्य प्रदीप , तन्मनोऽभिनिविष्टानादिमिथ्या पतम पटलव्यपगमेन विशिष्टात्मतत्त्वप्रकाशकवात्, यथा प्रदीपस्य सकलजीवार्थ तुल्यप्रकाशकत्वेऽपि चक्षुष्मन्त एव तत्प्रकाशसुसमाजो भवन्ति न त्वन्धास्तथा भव्या एव भगवदनुभावसमुद्भूतपरमानन्दसन्दोहभाजो भवन्ति नाभन्या इति भी इतस्तत भाग जाते है । एव भगवान का भक्तजन भी सर्वदा विजयशील रहा करते है । (लोगुत्तमे) चौतीस अतिशय और पैंतीस वाणीगुगों से युक्त होने के कारण भगवान भव्यरूपी लोक मे उकृष्टतम है। (लोगनाहे) लोका के अर्थात् भव्यों के योगक्षेम करनवाल होन से भगवान लोकनाथ है । ( लोगहिए ) सभी प्रागियों की रक्षा के उपाय निसलाने के कारण भगवान् लोको के अर्थात एकेन्द्रिय आदि सभा प्रागियो के हितकारक है। इसलिये वे लोकहित हे । ( लोगपईवे) भगवान् लोगों के भन्यों के मन में बसे हुए अनादिमिथ्यात्व पुञ्ज को दूर कर विशिष्ट आत्मतत्व प्रकाशित करन के कारण लोकप्रदीप है । जैसे-प्रदीप यद्यपि सभी जीवों के लिये तुल्यप्रकाश देने वाला है, तथापि नेत्रवान् मनुष्य ही उसके प्रकाश का आनन्द ले सकता है, उसी प्रकार भव्यलोग ही તે તે સ્થાનમાથી ડમર, મરકી-આદિ ઉપદ્રવ પણ આમતેમ ભાગી જાય છે, તેમજ सजवानना सताने ५५ सहा वियशी २४ा उछ (लोगुत्तमे) यात्रीस અતિશયે અને પાત્રીસ વાણી ગુણોથી યુક્ત હોવાના કારણે ભગવાન ભવ્યરૂપી शोभा Gटतम छ, (लोगनाहे) सोना अर्थात नव्याना योगक्षेम ४२॥ वाणा हावाथा भगवान नाय छ (लोगहिए) तमाम प्राणीमानी २क्षाना ઉપાય બતાવનાર હોવાના કારણે ભગવાન લોકોના અર્થાત્ એકેન્દ્રિય આદિ तमाम प्राणीमाना ति४१२४ छ ते भाटखोलित छ (लोगपईवे) लगवान લોકોના–ભવ્ય જેના મનમાં વસેલા અનાદિ મિથ્યાત્વપુજને દૂર કરીને વિશિષ્ટ આત્મતત્ત્વ પ્રકાશિત કરનારા હોવાના કારણે લોકપ્રદીપ છે જેમકે પ્રદીપ જે કે બધા જેને માટે સમાન પ્રકાશ આપવાવાળો હોય છે, તે પણ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूपयर्षिणी टीका स् १६ भगवन्महावीरस्थामियर्णनम. पईवे लोगपज्जोयगरे अभयदए चक्खुदए मग्गदए सरणप्रतियोपयितु प्रदीपदृष्टान्त अनाण्य लोकपदेन भत्र्याना ग्रह्णम् । 'लोगपज्जोयगरे ' लोकप्रद्योतकर -लोकगदेनात्र लोक्यते-दृश्यते केवल्गलोकेन यथावस्थिततयेति युपत्या लोकालोकयोरुभयोर्ग्रहणम् तेन गोकस्य-लोकालोकल गणस्य मापदार्थम्य प्रद्योत -लोकालोकप्रद्योतस्त रगती येव गीगे लोकालोकप्रद्योतकर सर्वलोकप्रकाशकरगगीत । ताजीचे कर्तरि ट प्रयय । 'अभयदये ' अभयदय - न भयम्-अभयम् , भयानामभानो वा-अमयम्-अमोमल मग आमनोऽवस्थापिगेपो मोक्षसापनमूतमुकृष्टपैर्यमिति यावत, दयते-ददाताति न्य अभयस्य दय अमयदय, यहा-अभया-भयरहिता-दया-सर्पजीनसपटप्रतिमोचनस्वरूपाऽनुकम्पा यस्य सेोऽभयन्य । 'चक्खुढये' चक्षुर्दय -चक्षुर्मान-निविलवस्तुतत्वाऽप्रभा-कतया भगवान के प्रभार-जनित परमानन्द के भागी होते है, अभव्य नहा । (लोगपज्जोयगरे) भगवान् लोकालोकरक्षण मभी पदार्थों के प्रकाशक है, उमलिये वे लोकप्रद्योतकर है। (अभयदए ) भगवान् अभयढय है-आत्माकी अभीभपरिणनि का ना अभय है। दूसरे गट में दसे मोशका साधनभूत उदृष्ट धैर्य भी कहते है। प्रभुम दसे प्रदान करते है, अत वे अभयदय कह गये हे । अथवा भयरहित दया जिनके पास है वे अभयदय ह । भगवान की दया समस्त जीवा को मकटो से छुडान वाली होती है, दमलिये प्रभु अभयदय हे । (चक्खुदये) भगवान चक्षुदेय है। जिम प्रकार हरिणादि जगली जानवर्ग से युक्त वन में चोरों द्वारा टूटे गये और નેત્રવાળે મનુષ્ય જ તેના પ્રકાશને આનદ લઈ શકે છે, તે પ્રકારે જ ભવ્ય લેડ જ ભગવાનના પ્રભાવજનિત પરમાનન્દના ભાગી થાય છે, અભવ્ય નહિ (लोगपज्नोयगरे) मावान् म सक्षए तमाम पहायोंना प्राश छ, तथा तेसो प्रद्योत छ (अभयदये) भगवान मलयहाता छे मात्माना ક્ષેભહિતપણાની પણિતિનુ નામ અભય છેબીજા શબ્દમાં તેને મોક્ષના સાધનભૂત ઉદ ધય પણ કહે છે પ્રભુ તેને પ્રદાન કરવાવાળા છે તેથી તેઓ અભયદય છે અથવા ભયરહિત દયા જેની પાસે છે તે અભયદય છે ભગવાનની દયા સમસ્ત છેને કટથી ઇંડાવવાવાળી डाय छे ते जराथी प्रभु समयक्ष्य (चक्खुदो) भगवान यय छ જે પ્રકારે હણિ આદિ જગલી જાનવરોથી યુક્ત વનમાં ચદ્વારા લુટવામ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भपपातकसूत्रे चक्षु सादृश्यात् तस्य दयो दायकचक्षुर्दय यथा हरिणादिशरण्येऽरण्ये गुण्टाकलुण्टितेभ्य पट्टिकादिदानेन चक्षपि पिधाय हस्तपादादि बद्ध्वा तैर्गर्ते पातितेभ्य कविपट्टिकापनोदेन चक्षुर्दत्वा मार्ग प्रदर्शयतीति तथा भगवानपि भवारण्ये रागद्वेपलुण्टाक - लुण्टताss मगुणधनेभ्यो दुराग्रहपट्टिकाऽऽच्छादितज्ञानचक्षुभ्यमिध्यात्वगर्ते पातितेभ्यस्तदपनयनपूर्वक ज्ञानचक्षुर्दत्वा मोक्षमार्ग प्रदर्शयति । एतदेव प्रकारान्तरे गाऽऽह ' मग्गदए ' मार्गदय - सम्यग्रत्नत्रयलक्षण गिवपुरपथ, यद्वा - विशिष्टगुणस्थानप्रापक क्षयोपगमभावो ७४ 7 आखों के ऊपर पट्टी बाधकर एवं हाथ पैर बाधकर खड्डे में पटके गये प्राणियों को कोई दयालु सज्जन उनकी आखों की पट्टी सोल कर एव उन्हें खड्डे से निकाल कर मार्ग दिसलाता है और इस अपेक्षा जैसे वह उन्हे व्यावहारिकरूप से चक्षु का दाता कहा जाता है उसी प्रकार भगवान् भी इस ससाररूप अरण्य में रागद्वेप आदि चोरों द्वारा जिनका आत्मगुणरूपी धन हरण किया जा चुका है एव दुराग्रहरूपी पट्टी द्वारा जिनके ज्ञानरूपी ने ढके हुए है तथा जो मिथ्यात्वरूपी खड्डे में पडे है ऐसे प्रागियों को उस मिथ्यात्वरूपी खड्डे से निकालकर ज्ञानरूपी चक्षु देकर उन्हें मुक्तिमार्ग दिखलाते है, अत प्रभु चक्षुर्दय है । इसी बात को प्रकारान्तर से सूनकार पुन प्रदर्शित करते है - ( मग्गदए ) वे प्रभु मार्गदय हे - सम्यग्दर्शनादि त्नत्रय मुक्ति का मार्ग है, अथवा विशिष्ट गुणस्थानों का प्रापक क्षयोपशमभाव भी मार्ग है । प्रभु इसके दाता है । ( सरणदए ) कर्मरूपी शत्रुओं से वशीकृत होने के कारण આવેલા અને આખાના ઉપર પટ્ટી માધીને તેમજ હાથ પગ માધીને ખાડામા નાખી દેવામા આવેલા પ્રાણિઓને કાઇ દયાળુ સજ્જન તેમની આખાની પટ્ટી ખેાલીને તેમજ તેમને ખાડામાથી ખહાર કાઢીને રસ્તે મતાવે છે અને તે અપેક્ષાએ તે જેમ તેના વ્યાવહારિકરૂપથી ચક્ષુને દાતા કહેવાય છે, તેજ પ્રકારે ભગવાન પણ આ ઞ સારરૂપ અરણ્યમાં રાગદ્વેષ આદિ ચારા દ્વારા જેના આત્મગુણુરૂપી ધન હુગ્ણ કરવામા આવી ચુકેલુ છે તેમજ દુરાગ્રહરૂપી પટ્ટીઢારા જેના જ્ઞાનરૂપી નેત્ર ઢાકી દીધેલા છે તથા જે મિથ્યાત્વરૂપી ખાડામા પડયા છે તેવા પ્રાણિઓને તે મિથ્યાત્વરૂપી ખાડામાથી કાઢીને જ્ઞાનરૂપી ચક્ષુ આપીને તેમને મુક્તિમાર્ગ બતાવે છે તેથી પ્રભુ ચક્ષુ ય છે આ વાતને प्राशन्तरथी सूत्रार ने अहर्शित उरे छे, ( मग्गदए ) तेथे। (प्रभु) भागદૃય છે-સમ્યગ્દર્શનાદિ રત્નત્રય મુક્તિને માગ છે અથવા વિશિષ્ટ ગુણસ્થાનાને आप्त उशवनार क्षयोपशमलाव पशु भार्ग हे प्रभु तेना होता है ( सरण Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयपपिणो-टोका सू १६ भगवन्मदायीरस्वामियर्णनम् दए जीवदए वोहिदए धम्मदए धम्मदेसए धम्मनायए धम्म मार्ग , तस्य दय -दाता, 'सरणदए । अरणढय -ारण-परित्राण कर्मरिपुवगीकृततया व्याकुलाना प्रागिना रनणस्थान या तम्य दय । 'जीवढए' जीवढय-जीवेपु-एकेद्रियादिसमस्तप्राणिषु दया-सइटमोचनल पणा यस्येति, यद्वा-जीवन्ति मुनयो येन स जीर -स्यमजीरित तस्य दय । 'बाहिदए । बोधिढय-बोधि-निनप्रणीतधर्ममूलमूता तत्वार्थश्रद्धानलक्ष्णसम्यग्दर्शनन्दपा तस्या दय । 'यम्मदए' धर्मदय -धर्म -दुर्गनिप्रपतजन्तुसरक्षणलक्षण श्रुतचाग्निामकन्तस्य व्य । 'धम्मदेसए' धर्मदेशक - धर्म =प्राप्रतिपादितलक्षगस्तस्य देशक =उपदेशक । 'धम्मनायए' धर्मनायक - व्याकुल हुए प्राणियों को प्रभु निर्भय स्थान के प्रदायक है, (जीवदए ) भगवान् की ढया केवल सजी पचेन्द्रिय नीवों तक ही सीमित (व्याम ) नहीं है किन्तु एकेन्द्रिय से टेकर समस्त सन्नी अमनी पचेन्द्रिय प्राणियोतक भी वह एकरस होकर यह रही है, इसलिये वे जीवदय है । अथवा-मुनिजन जिम जीवनसे जीते है ऐसा जो सयमरूप जीवित है उसके प्राता होने से प्रभुको जीपदय कहा गया है । (चोहिदए) भगवान ममकिनरूपी बोरको देने वाले है । (धम्मदए) दुर्गति में गिरते हुए प्राणियांफो जो धारण अर्थात् रक्षण करे वह श्रुतचारित्रात्मक धर्म ही धर्म है। भगवान उस धर्मक दाता है। (चम्मदेसए) भगवान् उक्तस्वरूप धर्मके उपदेशक है । (धम्मनायए) भगवान उस धर्मके नायक-नेता अर्थात् प्रभवस्थान है । g) કર્મરૂપી શત્રુઓથી વશ કરાએલા હવાના કારણે વ્યાકુલ થએલા प्राणिमाने प्रभु निर्भय याननी प्राय: छे (जीनदये) भगवाननी या કેવલ સન્ની પચે દ્રિય જીવો સુધી જ વ્યાસ (મર્યાદિત નથી, પર તુ એકેદિયથી માડીને સમસ્ત ચગી અસની પચેદ્રિય પ્રાણીઓ સુધી પણ તેઓ એનગ્ન થઈને વહે છે, તે માટે તેઓ જીવદય છે અથવા મુનિજન જેવુ જીવન જીવે છે તેવું આયમરૂપ જીવન જે છે તેના પ્રદાતા હોવાથી પ્રભુને ०१६य उडेसा छ (बोदिये) भगवान् समलित३पी माधने वापाका ( यम्मदए) गतिमा ५उता प्राश्मिाना 60 मर्यात् २क्षए। ४३ ते श्रुतस्यास्त्रिात्म धर्म र भगवान् त धना होता ले ( धम्मदेसए) भगवाने ७५२ ४९सा १३५ धर्मना उपदेश छ (वम्मनायए) भगवान ते धर्मना नायनेता अर्थात् प्रसपायान छे (धम्मसारही) सजवान धर्म३५ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओपपातिक ७६ सारही धम्मवरचाउरंत चक्कवट्टी दीवो ताणं सरणगई पडट्ठा धर्मस्य नायक = नेता प्रभन इति यावत् । 'धम्मसारही ' धर्ममारथि -म्य साथि, भगति सारथित्वारोपेण धर्मे स्वत्वारोपो ययत इति परम्परितरूपकालद्वारस्तस्माद् यथा सारथी स्थद्वारा तत्स्थमध्वनीन सुखपूर्वकमभीष्ट स्थान नयति उन्मार्गगमनादितश्र प्रतिरुणद्रि तथा भगवान धर्मद्वारा मोक्षम्यानमिति भाव | 'धम्मार - चाउरत चक्रवही ' धर्म वरचातुरन्तचकर्ता - दान - शील- तपो - भावै चतसृणा नरकादिगताना चतुर्णी या कपायाणामन्तो नाशो यस्मात्, अथवा - चतस्रो गतार्थतुर कषायान् वाऽन्तयति नागयताति, यद्वा-चतुर्भिर्दानगीलतपोभायै कृत्वाऽन्तो रम्योऽयवा चचारो दानादयोऽन्ता - अवयवा ( धम्मसारही ) भगवान् धर्मरूप रथका सचालन करनेवाले हैं । भगवानमे सारथिचका आरोप करनेसे धर्ममे रथत्वका आरोप व्यञ्जित होता है, इसलिये यहाँ परम्परितरूपक अलकार समझना चाहिये । इसका अभिप्राय यह है कि, जैसे सारथी स्थद्वारा रथ पर बैठे हुए पथिकोंको सुनपूर्वक उनके अभीष्ट स्थानमे पहुँचाता है, उन्मार्गगमन आदिसे उनको रोकना है, उसी प्रकार भगवान भी धर्मरूप रथमें भव्य प्राणियों को बैठाकर उसके द्वारा उन्हें उनका अभीष्ट मोक्ष स्थानतक सुसपूर्वक पहुँचा देते हैं और उन्हे उन्मार्गसे रोकते है । इसलिये भगवान् धर्मसारथि कहे गये है । ( धम्मवरचाउरतचक्कवट्टी ) दान, शाल, तप, एव भाव उन धर्मके जिन चार पायों द्वारा चार नरकादि गतियाका अथवा चार कोधादि रुपायाका नाश होता है, अथवा चार गतियोंका एव चार कपायाका जो नाग करता है, अथवा दान, शील, तप एव રથના સચાલન કરવાવાળા છે ભગવાનમાં સારથિત્વના આરોપ કરવાથી ધર્મમા રથત્વના આરેાપ વ્યજિત (પ્રગટ) થાય છે તેથી અહી પર પતિ૩૫૮ અલ કાર સમજવે જોઇએ તેના અભિપ્રાય એ છે કે જેમ સારથી રથ દ્વારા રથ પર બેઠા બેઠા પથિકાને સુખપૂર્વક તેના અભીષ્ટ સ્થાને પહેાચાડે છે, આડા—અવળા માર્ગથી તેને રેકે છે, તે જ પ્રકારે ભગવાનપણુ ધર્મરૂપ રથમા ભવ્ય પ્રાણિઓને બેસાડીને તે દ્વારા તેમને તેમના અભીષ્ટ માસ સ્થાનસુધી સુખપૂર્વક પહેચાડી દે છે અને તેમને ખેાટા માથી શકે છે આથી लगवान धर्मसारथि उडेवाय छे ( धम्मचरचाउरतचक्क्यट्टी हान, शीस, तय, તેમજ ભાવ એ ધર્મના જે ચાર પાયા છે તે વડે ચાર નરકાà ગતિના અથવા ચાર કષાયાને નાશ થાય છે અથવા ચાર ગતિને તેમજ ચાર Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ugustणो-टीका १६ गमावीरस्वामिवर्णनम यम्य, यद्वा-चवारि दानादीनि अन्तानि स्वरूपाणि यस्य, 'अन्तोऽवयचे स्वरूपे च' इति हमचन्द्र । स चतुरन्त स एव स्वार्थिके प्रज्ञाद्यणि चातुरन्त चातुरन्त एवं चक जन्मजरामर गोन्दकचेन कतुल्यवान वरच तत्-चातुरन्तचक वरचातुरन्तचक्रम्, चरपदेन राजचापेक्षयाऽस्य वेष्टव व्यय लोकसाधकत्वात्, धर्म एव चरचातुरतच धर्मरचातुरन्त ताम्य धर्माऽतिरिक्तस्यासम्भवात् । अतएव मोगताति-धमाभासनिगम तेषा तात्विकार्थप्रतिपादकवाभावेन श्रेष्टवाभावात् धर्मचरचातुरन्तचक्रेग वर्तितु गी यस्येति धर्मवरचातुरन्तचक्रवर्ती, चक्रवर्त्तिपदेन षट्खण्डाधिपतिसाहय्य व्यायते, तथाहि चवार उत्तरदिगि हिमवान् शपदिक्षु चोपाधिभेदेन समुद्रा अता सीमानस्तेषु स्वामिवेन भवधातुरन्त चक्रेण - रत्नभूत-प्रहरणविशेषसदृशेन चानिरत्नेन वर्तितु शील यम्य स चक्रवर्ती, चातुरन्तथासौ चक्रवर्ती च चातुरन्तचक्रवर्ती, , + , वरचातुरन्तचक " ऐसा पद चकका अपेक्षा श्रे प्रकट करनेके 2 64 भाव इन चारको लेकर जो रम्य-श्रेष्ठ है, अथवा दानादिक चार जिसके अवयव है, अथवा दानादिक चार जिसके स्वरूप है, वह चतुरन्त है, चतुरन्त गन्दसे स्वार्थ में अणू प्रयय करने पर चातुरन्त " बन जाता है, चातुरन्तही जन्म, जरा और मरणका उच्छेदक होनेसे एक चक है, इसे चर शब्दके साथ सवधित करने पर बन जाता है, वर पद इस चातुरन्तचकको राजलिये दिया गया है । राजचक तो केवळ इस 44 लोककाही साधक होता है तन कि यह चातुरन्तचक इहलोक और परलोक इन दोनों " antar साधक माना गया है। अन इस मिलाने पर " धर्मबरचातुरन्तचक्र " इस 'वरचातुरन्तचक्र " पदको धर्मके साथ प्रकारका पढ निप्पन्न हो जाता है, - કાર્યના જે નાશ કરે છે અથવા દાન શીલ, તપ તેમજ ભાવ એ ચારને લઈને જે રમ્ય- શ્રેષ્ઠ છે અથવા દાનાદિક ચાર જેના અવયવે છે અથવા દાનાદિક ચાર જેનુ સ્વરૂપ છે તે ચતુરન્ત છે ચતુરન્ત શબ્દથી સ્વાર્થ મા જ્ઞા પ્રત્યય ગ્યાથી ચાતુરન્ત અને છે ચાતુરન્ત જ જન્મ જરા અને મચ્છુને નાગ તખ્તાર હેાવાથી ચક્ર છે, તેને વર શબ્દની સાથે જોડવાથી ‘ વચાતુરતચક' એવુ પદ આની જાય છે વર પદ્મ આ ચાતુરન્તચક્રને રાજચક્રની અપેક્ષાએ શ્રેષ્ઠ પ્રકટ કરવા માટે આપેલુ છે રાજ્યકતા કેવલ આજ લેાકને સાધક અને છે જ્યારે આ ચાતુરન્તચક્ર હિલેાક અને પરલેક એ બન્ને લેારોને સાધક માનવામા આવે છે. હવે આ ‘વરચાતુરન્તચક ’ પદ્મને ધર્મની સાથે તેડવાયા ધર્મવરચાતુરન્તચક્ર' આ પ્રકારનું પદ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिक ' स्थित अप्पsिहय-वर-नाण- दंसण-धरे वियदृच्छउमे जिणे जावए तिष्णे धर्मेण - न्यायेन वरः श्रेष्ठ इतरतीयिंकाsपेक्षयेति धर्मपरः, धर्मा पुण्य-यम- न्याय स्वभानाssचारसोमपा, इत्यमर, स चासौ चातुरन्तचक्रवर्ती च । या चातुरन्त च तचक चातुरन्तचक्र, वरश्च तच्चातुरन्तचक वरचातुरन्तचक धर्मों परचातुरन्तचकमिन धर्मरचातुरन्तचक्र, तेन वर्तितु वर्तयितु वा गोल यस्य स तथा । 'दीवो' द्वीप - मसारसमुद्रे निमज्जता द्वीपच्यत्वात् । 'ताण' त्राण कर्मकदर्थिताना भग्याना रक्षणसमर्थ । अत एव तेपा ' सरणगई ' गरणगति – आश्रयस्थानम् । ' पड्डा' प्रतिष्ठा - कालजयेऽप्यविनाशिवेन अप्प डिहय-बर- नाण- दसग - परे ' अप्रतिहत रज्ञानदर्शनधर-प्रतिहत जिसका अर्थ " धर्मही वरचातुरन्तचक है " ऐसा होता है । अन्य सौगतादिक धर्म धर्मवरचातुरन्तचक नहीं है, क्योकि उनमे तात्त्विकता का अभाव है । इसका भी कारण एक यही है कि वे यथावस्थित अर्थका यथार्थ प्रतिपादन नहीं करते है । इस धर्मवरचातुरन्तचकके अनुसार जिसके वर्तन करनेका स्वभाव है वह धर्मपरचातुरन्तचक्रवर्ती है, अत एव भगवान् धर्मारचातुरन्तचक्रवर्ता है | भगवान् ससार समुद्रमे इननेवाले प्राणियों के द्वीपतुल्य है, इसलिये वे स्वय ( दीवो) द्वीप है । ( ताण ) कर्मों से कति भयोंके प्रभु रक्षक है इसलिये त्राता कहे गये है, और इसी कारण वे ( स गई ) भव्योंके लिये गरणस्वरूप है । ( पट्टा ) प्रभु स्वय प्रतिष्टास्वरूप इसलिये है कि तीनों कालो म भी उनका कभी भी विनाश नही होता है । ( अप्प - डिहय - बर - नाग - दसणधरे ) प्रभुका अनतज्ञान एव अनत दर्शन अप्रतिहत- निराનિષ્પન્ન થાય છે. જેનેા અધમ જ વચાતુરન્તાક’ છે એવેશ થાય છે બીન્ત સૌગત આદિ, ધર્માંધ વરચાતુન્તચક્ર નથી, કેમકે તેમા તાત્ત્વિ તાને અભાવ છે તેનુ પણ કારણ એક તે એ છે કે તેએ યથાવસ્થિત અને યથાર્થ (અરાખર) પ્રતિપાદન કરતા નથી આ ધર્મવ ચાતુરન્તચક્રને અનુસરીને જેના વર્તન કરવાના સ્વભાવ છે તે ધર્મવરચાતુરન્તચક્રવર્તી છે એટલે જ ભગવાન ધર્મવરચાતુરન્તચક્રવત્તી છે ભગવાન ઞ સાર સમુદ્રમા डूमवावाजा प्राणियोना द्वीप नेवा छे तेथी तेथे पोते ( दीनो) द्वीप है ( ताण ) भोथी हर्थित लभ्योना प्रभु २४ हे ते भाटे तेसो त्राता रहे वाय छे, अने ते जरथुथी तेथे (सरणगई ) लव्याने भाटे शरशुम्भ्व३४ छे ( पट्टा ) अलु पोते प्रतिष्ठा-स्व भेटला भाटे छेत्र अजमा पशु तेभनो ही विनाश यतो नथी (अव्पडिय - वर नाण-दमण - वरे ) प्रभुनु ७८ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषयपिणो-टीका सू १६ भगयन्महावीरस्वामियर्णनम् ७९ तारए बुद्धे बोहए मुत्ते मोयगे सव्वन्नू सव्वदरिसी सिव-मयलभित्ताद्यावग्यस्मलित न प्रतिहतम्-अप्रनिहन, ज्ञानञ्च दर्शनञ्चति जानदर्शने, वरे श्रेष्ठ च ते ज्ञानदर्शने-परनानदर्शन-केवलज्ञानफेवलदर्शन, अप्रतिहते वरज्ञानदर्शन-अप्रतिहतवरनानदर्गन, धरताति धर -अप्रतिहारज्ञानदर्शनयोर्धर --अप्रतिहतपरज्ञानदर्शनधर - आवग्णरहित केवलजानकेननधारी। 'वियहन्छउमे' व्यावृत्तच्छमा-छाद्यतेआत्रियते केवलज्ञान के दर्शनाचा मनोऽननति उम-धानिककर्मन्द-ज्ञानावरणीयादिरूप कर्मजातम्, व्यावृत्त-नित्त म यस्मात् स व्यावृत्तच्छमा। 'जिणे' जिन - रागद्वेपशत्रुविजेता । 'जायए' जापफ -जापयति गगद्वेपादिगवून जयन्त भव्यजीवगण धर्मदेशनादिना प्रेरयताति जापक । 'तिण्णे ताग-स्वय ‘मारोघ तीर्ण -उत्तीर्ण । 'तारए' तारक -तारयति-जन्तोऽन्यान भव्यजावान् प्रेरयताति तारक । 'बुद्ध' वुद्र -स्वय परग एव वर श्रेष्ट है जथात् प्रभु आपरणरहित केवलज्ञान, केवलदर्शन के धारक हैं। (वियहन्छउमे ) केवलज्ञान एव कैलानादिक जिसके द्वारा आवृत होते है वह यहा उा गटस गृहात हुआ है, अत इस दृष्टि से 'छम' शब्दका अर्थ घातिक कर्म होता है, यह उम प्रभुका आमासे मया निवृत्त हो चुका है, इसलिये प्रभु व्यायना हे । (जिणे ) गगारिक अन्तरग शत्रुओं पर विजय पान से प्रभु जिन है। (जापए) जाननेवाले भायजोगों को प्रभु ने अपनी धर्मदेशना द्वारा आत्मकन्याग के मार्ग का भोर प्रेरित किया, इसलिये प्रभु जापक-जितानेवाले है । (तिण्णे) ससारसमुद्र से पार होन की वजह से प्रभु स्वय तीर्ण है। (तारए) भगवान ने समारसमुद्र से पार होन के इच्छाले जीयो को प्रेरित किया इसलिये અન તજ્ઞાન તેમજ અનત દર્શન અપ્રતિહત–નિરાવરણ તેમજ વર શ્રેષ્ઠ છે અર્થાત પ્રભુ આવરણહિત કેવલજ્ઞાન અને કેવલ દર્શનના ધારક છે (रियट्टच्छउमे) उपसनान तर उपस शनाहि ना द्वारा तय छ તે અહી જ નાદથી લેવામાં આવેલ છે આમ એ દષ્ટિથી છદ્મ શબ્દનો અર્થ ઘાતિકર્મ થાય આ છ પ્રભુના આત્માથી સર્વથા નિવૃત્ત થયેલ છે માટે પ્રભુ વ્યાવૃત્ત-છ% છે (શિ) ગગાદિક અતર ગ શત્રુઓ પર विश्य भेगवायी प्रभु किन छ (जायए) तावा भव्य छवाने प्रसुभे પિતાની ધર્મદેશના દ્વારા આત્મકલ્યાણના માર્ગના તરફ પ્રેરિત કર્યા તે માટે પ્રભુ 445-- 0 4 D (तिपणे) १ मार समुत्थी पार थवाना ॥२ प्रभु पात तley (तारए) मावाने स सार समुद्रया पार पाना पायाने Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 औपपातिकमत्रे बोध प्राप्त । 'बोहए' बोधक बुध्यमानान् अन्यान् भव्यजीवान् प्रेरयतीति बोधक 'मुत्ते' मुक्त -अमोचि स्थय कर्मपनरादिति मुक्त । 'मोयए' मोचक-मुध्यमानानन्यान् भन्यजीवान् प्रेरयतीति मोचक । 'सवण्णू' सर्वज -सर्व सफलद्रव्यगुग-पर्यायलक्षग यस्तुजात याथातथ्येन जानातीति सर्वन । 'सव्वदरिसी' सर्वदर्शी-सर्व समस्त पदार्यस्वरूप सामान्येन द्रष्टु शीलमस्याऽमो सर्वदगी । 'सिव' शिन निखिलोपद्रवरहितत्याच्छिव-कन्यागमय, स्थानमित्यस्य विशेषगमिदम्। शिवादीना सर्वेषा द्वितीयान्तानामगेतनेन सपाविउकामे इत्यनेन सम्बध । 'अयल' अचल स्वाभाविकप्रायोगिकचलनक्रियाशून्यम्। 'अरुय' अरुजम्-अविधमाना रुजो यस्य तारक है। (युद्धे) स्वय बोव को प्राप्त होने के कारण भगवान् बुद्ध है, (बोहए ) वुभ्यमान अनेक भव्य जीरों को प्रेरित करने से वे बोधक है, (मत्ते) भगवान ने स्वय कर्मरूपी पीजरे से मुक्ति प्राप्त की, इसलिये मुक्त हैं । (मोयगे) और कर्मरूपी पोंजरे से मुक्त होने की इच्छावाले जोगों को उन्हों ने मुक्त किया इसलिये वे मोचक है । (सवण्ण) सफलद्रव्यों के समस्त गुण और पर्यायाँ को युगपत् हस्तामलकवत् यथार्थ जानन से प्रभु सर्वज्ञ हैं । (सन्नदरिसी) __ तथा सामान्यरूप से त्रिकालवर्ता समस्त द्रव्यों के द्रष्टा होने से प्रभु सर्वदर्शी हे । (सिव-मयल-मरुय-मणत-मक्खय-मन्यावाह-मपुणरावत्ति सिद्धिगडणामय ठाण सपाविउकामे ) निखिल उपद्रव रहित होने से शिव-कन्यागमय, स्वाभाविक एव प्रायोगिक चलनक्रिया से शून्य होने के कारण अचल, गरार तथा मन से પ્રેરિત કર્યા તેથી તેઓ તારક છે (ફુઢ) પતે બેધ પામેલા छापानी रो लापान भुद्ध छे (वोहए) सुध्यमान भने सय वाने माध भाटे प्रेरित ४२पायी तमामा छ (मुत्ते) पाने पोते भी पाराभाथी भुमि प्राप्त तथा तेसो भुत छ (मोयगे) अने मेंરૂપી પી જરામાંથી મુકત થવાના ઈછાવાળા જીવોને તેઓએ મુકત કર્યો તેથી तेसी भाय: छ (सवण्णू) मस द्रव्यो (पहाथीना) मभन्त गुएर भने પર્યાયને યુગપત્ હસ્તામલકવતું યથાર્થરૂપે જાણવાથી પ્રભુ સર્વજ્ઞ છે (सव्वदरिसी) तथा सामान्य ३५यी त्रिसरती सभरत द्रव्याना द्रष्टा हावाथी प्रासशी छ (सिव-मयल-मरुय-मणत-मक्सय-मव्वापाह-मपुणरापत्ति सिद्धिगइणामधेय ठाण संपाविउकामे) स४॥ उपद्रव २डित डावाथी शिपच्याए મય, સ્વાભાવિક તેમજ પ્રાદેશિક ચલન ક્રિયાથી શૂન્ય હેવાના કારણે અચલ, Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूपयपिणी-टोका सू १६ भगवन्मदायीरस्थामिषणनम मस्य-मणत-मक्खय-मव्वावाह-मपुणराविति सिद्धिगडणामधेय ठाणं संपाविउकामे अरहा जिणे केवली सत्तहत्थुस्सेहे समचउ तत्-अपियमानगरीरमनस्कत्यात्-आधिव्यापिहितम् इयर्थ । 'अणत' अनन्तम्अविद्यमानोऽन्तो नागो यम्य तत् । अत एप 'अस्वय' अभय-नास्ति लंगतोऽपि क्षयो यस्य तत्-अग्निागी यर्थ । 'अन्वागह-अव्याराध न विद्यते व्यागाधा-पीडा द्रव्यतो भारतच यत्र तत। 'अपुणरावित्ति' अपुनरावृत्ति-अविद्यमाना पुनरावृत्ति -सारे पुनरपतग्ण यम्मात तत्, यत्र गना न कदाचिद्रप्या मा पिनिवर्तते, समाम्नातमन्यवाऽपि-न स पुनगवर्तत, न म पुनगवर्तत-इति । दयमुक्तशिपचाढिविशेषगविगिट-सिद्धिगटनामोय' मिद्धिगतिनामधेय-सिद्रिगतिरिति नामधेय= प्रगस्त नाम यस्य तत् , 'ठाण' म्यानम्-स्यीयतऽस्मिन् ति स्थान लोकाग्रलक्षगम् । 'सपाविउकाम सम्प्राप्तुकाम सम्यक् प्राप्तु प्रयननान् इयर्थ । 'अरहा' अग्हा --अविद्यमान रह -तिरोहित पस्तुजात यस्य सोऽग्हा , ' अरहस्' इति सकागन्त गद , केवलनानगलात् हस्तामलकीकृतलोकालोकवर्तिवस्तुकलाप इति यावत । 'जिणे' निन -रागहेपादिविजेता । 'केवली' केली केवलज्ञानसम्पन्न । 'सत्तहत्थुस्से हे'सप्तहस्तोसेध -उसेप उचैस्च रहित होने के कारण अरज-आपित्र्यापिहित, अनन-नागरहित, अतण्य अक्षय, अत्र्यानाप-द्रव्यपीडा एव भावपीटासे सर्वथा निर्मुक्त, अपुनगवृत्तिस्वरूप-जहा प्राप्त होने पर पुन मसार मे वापिस जीप का आना न हो ऐसे स्वरूपवाले, सिद्भिगति इस प्रशस्त नाम से प्रसिद्ध स्थान-लोकाग्रस्थान को प्राप्त कग्न वाले [ अरहा] केवलज्ञान के चल मे लोकालोकार्ति ममस्त वस्तुजात. को हस्तामलकवत जानन वाल वे प्रभु है, एव (जिणे) रागद्वेपादिके विजेता है [ केवली ] केवलज्ञान-पन्न है । [ सत्तશરીર તથા મનથી હિત હેવાના કારણે અરૂજ-આધિ-વ્યાધિ-રહિત, અન ત–નાશ રહિત, અને તેટલા માટે અક્ષય, અવ્યાબાધ-વ્યપીડા તેમજ ભાવપીડાથી સર્વથા નિમુક્ત, અપુનગવૃત્તિસ્વરૂપ-ત્યા પહોંચ્યા પછી ફરીથી સંસારમાં પાછા જીવનમાં આવવું ન થાય એવા સ્વરૂપવાળા સિદ્ધિગતિ એ प्रशत नामयी अभिद्ध स्थान-बाडा स्थानने प्रात ४२वावा (अरहा) उस જ્ઞાનના બળથી લાવતી સમસ્ત વસ્તુજાતને હસ્તામલડવત્ જાણવાāાળા ते प्रभु, तभा (जिणे) ३५ माहिना वि- (कवली) सज्ञानसपन्न (सत्तहत्थुस्सेहे) मात डाय या (सम-चउरस-सठाण-सठिए) Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे रंस-संठाण-संठिए वन-रिसह-नाराय-संघयणे अणुलोमवाउवेगे कंकग्गहणी कवोयपरिणामे सउणिपोस-पिट्टतरोरुपरिणए पउमुसप्तहस्त उत्सेधो यस्य स सप्तहस्तोत्सेध -सप्तहस्तोच्छित इत्यर्थ । 'सम-चउ-रससठाण-सठिए' सम-चतुरस्र-मस्थान-मस्थित -समा:-तुल्या अन्यूनाधिका , चतलोऽस्रया-हस्तपादोपर्यधोरूपाश्चत्वारोऽपि विभागा [शुभलक्षणोपेता] यस्य (मस्थानस्य) तत् समचतुरस्र-तुल्यारोहपरिणाह तच मस्थानम्-आकारविशेप इति समचतुरस्रसस्थान, तेन सस्थित -युक्त । 'वज-रिसह नाराय-सघयणे' वापभनाराचसहनन -- वज-कीलिकाकारमस्थि, ऋपम -तदुपरिवेष्टनपट्टाऽऽकृतिकोऽस्थिविशेप, नाराचम्उभयतोमर्कटबन्ध , तथा च द्वयोरस्थ्नो परिवेष्टितयोरुपरि तदस्थित्रय पुनरपि दृढीकर्तुं तत्र निखात कीलिकाऽऽकार वज्रनामकमस्थि यत्र भवति तद् वजम्पभनाराच तत् स्हनम्-सहन्यन्ते दृढीक्रियन्ते गरीरपुद्गला येन तत्महननम्-अस्थिनिचयो यस्य स वजऋपभनाराचसहनन । 'अणुलोमवाउवेगे' अनुलोमवायुवेग -अनुलोमोऽनुकूलो वायुवेग =शरीराऽन्तर्वर्ती वायुवेगो यस्य स तथा, वायुप्रकोपरहितदेह इत्यर्थ , 'ककग्गहणी' ककग्रहणी–कङ्क पक्षिविशेष , तस्य ग्रहणीव ग्रहणी यस्य स कड्पग्रहणीककगुदाशयवद् गुदाशयवान् । 'कवोयपरिणामे' कपोतपरिणाम -कपोतस्येव परिणाम आहारपरिपाको यस्य स तथा, यथा कपोतस्य जाठराऽनल पाषाणकणानपि पाचयति तथा तस्यापि जाठरानलोऽन्तप्रान्वादिसर्वविधाऽऽहारपरिपाचक । 'सउणिहत्थुस्सेहे ] सात हाथ उँचे है। ( समचउरस-सठाण-सठिए) समचतुरस्रसस्थानवाले [वज-रिसह-नाराय-सघयणे ] वज्र-उपभ-नाराच-सहनन से युक्त [अणुलोमवाउवेगे] अनुकूल गरीरान्तर्वर्ती वायु के वेग से समन्चित, [ ककग्गहणी] ककपक्षी के गुदागय के समान गुदाशयवाले, [कवोयपरिणामे | कपोत की जठराग्नि जिस प्रकार ककर पत्थर के कगों को भा पचा देती है उसी प्रकार प्रभु की जठराग्नि भी सब प्रकार के आहार को पचा देती है ऐसी जठराग्नि वाले, सभयतरस स स्थानकात (वज्ज-रिसह-नाराय-सघयणे) १०--नारायसहननथी युत (अणुलोमवाउवेगे) मनु शरीरातती वायुना वेगथी समत(ककरगहणी) 53 पक्षीन गुहाशयनारा गुशिया कियोयपरिणामे) पातना १४नि २ ४२ ४३२१-पत्थरनी ठणीयाने पण પચાવી દે છે તે જ પ્રકારે પ્રભુને જઠરાગ્નિ પણ અન્ત પ્રાન્તઆદિ સર્વ પ્રકા Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूपपपिणी-टीका स १६ भगवन्महावीरस्यामिवर्णनम् प्पल-गंध-सरिस-निस्सास-सुरभि-वयणे छवी निरायंक-उत्तम-पस पोस-पितरोरु -परिणए' शकुनि-पोस-पृष्टान्तरोरुपरिणत -शकुने पक्षिण पोमवत् पुरीपसम्पर्फरहितो निरुपलेप पोस -गुदागयो यस्य स शकुनिपोस , पृष्टच अन्तरे चपृष्ठोदरयोरन्तरालवर्तिनी अने-पाश्वाविति यावत् , ऊरू च ज। एतेपा प्राण्यगत्वासमाहारद्वन्द्वे-पृष्ठा-उत्तरोरु पृष्ठपार्वजम् तत् परिणत-विशिष्टपरिणामवत्-सुजात यस्य स तथा, शकुनिपोसश्चासौ पृष्टान्तरोरुपरिणतच स शकुनिपोसपृष्ठाऽन्तरोरुपरिणत -निर्लेपमलद्वारमुन्दरपृष्टपार्धजावान्-इयर्थ । 'पउमु-प्पल-गधसरिस-निस्सास-सुरभि-वयणे' पद्मोपल-गन्ध-सदृश-नि श्वास-सुरभि-मदन --पाकमलम् , उत्पल-नीलकमल तयोर्गन्ध, अथना पद्म-पद्मकाभिधान गन्धद्रव्यम् , उपल च उपलकुष्ट तयोर्गन्ध , तेन सदृश -समो यो नि श्वास -- श्वासोल्ट्वासपवन तेन सुरभि-सौरभमय वदन-मुख यस्य स तथा, परिमलमयपदार्थसौरभसम्भारसम्मृतश्वासोच्यासमुरभितमुख इति भाव । 'छवी' छपिछविमान्-दीमिदेदीप्यमानगरीर इत्यर्थ । 'निरायफ-उत्तम-पसत्य-अइ. सेय-निरुवम-पले' निरात होत्तमप्रशस्ताऽतिश्वेतनिरुपमपल , तत्र-आतको रोगो निर्गती यस्मात् तन्निरातक नीरोगम् , उत्तमम्-उकृष्टतमम् अत एव प्रशस्तम् , अतिश्वेतम्( सउणिपोस-पिद्वतरोरु-परिणए ) शकुनि-पक्षी के गुदाशय की तरह पुरीष के उत्सर्ग के मसर्ग से रहित गुदाशयवाले, एव सुन्दर पृष्ठ, पार्श्व और जघावाले (पउमु-प्पल-निस्सास-सुरभिवयणे) पद्म-कमल एव उत्पल-नीलकमल अथवा पद्म-पाकनामक गध द्रव्य और उत्पल-उत्पलकुष्ट-सुगन्धद्रव्य विशेष, इनकी सुगध के समान उच्वासवायु से सुरभितमुसवाले [वी ] कान्तियुक्त शरीरवाले, [निरायफ-उत्तम-पसत्य-अइसेय-निरुवम-पले ] रोगमुक्त, सर्वोत्तमगुणयुक्त, २ना माहारने पयावी छ सपा शिपाया छ (सउणि-पोस-पितरोरुपरिणए) शनि-पक्षीना शुशयनी पे भजन समाथी २डित ગુદાશયવાળા તેમજ સુદર પૃષ્ઠ (પીઠ) પાર્થ (પડખા) અને જ ઘા पास (पउमु-प्पल-निस्सास-सुरभि-वयणे) ५६भ-४भ तभ०४ ५८-नसभा , અથવા પદમ–૫) નામક ગધ દ્રવ્ય અને ઉત્પલ-ઉત્પલ કુદસુગન્ધ દ્રવ્ય વિશેષ, मेमनी सुगधना २१ पास पायथी सुरलित-सुगधित भुमाया (ज्वी) तयुत शरीरका (निरायक-उत्तम-पसत्य-अइसेय-निस्वम-पले) रोगमुत, Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिक स्थ-अइसेय-निरुवम-पले जल-मल - कलंक सेय-रय-दोस- वज्जियसरीर-निरुवलेवे छाया - उज्जोइयग- पञ्चंगे घण-निचिय सुबद्ध-लक्खणुपण - कूडागारनिभपिंडिय - सिरए सामलिवोंड-घणनि चिय-च्छोडियरोगमुक्तमत्तम ८४ । - शरीर-निरुपलेवे' गन्द मल - Ja अतिशयशु गुणयुक्त, निरुपमम्-अनुपम पल माप यस्य गुणयुक्तश्वेतनिरपम-मासनान्-इत्यर्थ । 'जल्ल मल्ल-कलक - सेय-रय-दोस वज्जियजल-मल - फलब - स्वेट - रजोदोप- वर्जित गरीर-निरपलेप, तन-जल - शरीरमल शुप्फस्वेदरूप 'जल्ल ' इति देशीय गरीग्गत प्रयत्नविशेषापनेय कठिनीभूत रज, कलङ्ग – दुष्टमगतिलादिरूप, खेद - प्रस्वेद, रज-धूलि, तेपा यो दोप - मलिनीकरण तेन वर्जितम् अतन निस्लेपनिर्मल शरीर यस्य स तथा विविधमलकलङ्घ स्वेटरेणुदोपरहिततया निर्लेपनिर्मलशरीरवानित्यर्थ । " छाया - उज्जोग्य-गपच्चगे ' डायोदयोतिताङ्गप्रत्यङ्ग छाययाकान्त्या उद्योतितानि - चारुचिक्ययुक्तानि अङ्गप्रत्यङ्गानि - अङ्गोपाङ्गानि यस्य स तथा, अनुपमकान्त्या देढोप्यमानाऽङ्गप्रयङ्ग इयर्थ । 'घण-निचिय-मुबद्ध-ल+खणु णयकूडागारनिभ-पिंडिय सिरए' घन - निचित-मुद्र - लक्ष गोन्नत - कृटाssकारनिभ - पिण्डितशिरस्क, तन-घनम्-अतिशयेन निचित घननिचितम् - अतिनिबिडम्, सुष्ठु - अतिशयेन म श्वेत एव निरुपम मासनाले [ जल-मल - कलक - सेय-रय - दोस - वज्जिय - सरीरfreeda ] विविध प्रकार के मैल - शुकस्वेदरूप जल कठिनीभूत रज स्वरूप मल्ल, दुष्ट मा तिल आदिकाल फलमा, एच- स्वेत अवेद रज-धूलि के दोष से चर्जित शरीर होने से निर्मल गरीवाले, [ छायाउज्जोइयगपच्चगे ] कान्ति से चमकते हुए अगोपागवाले, ( घणनिचिय - सुबद्ध-लक्ग्वणु-ण्णय-क्रडागारनिभ-पिंडिय-सिरए) अतिनिनिट, स्पष्टरीति से प्रकटित शुभलक्षण -- पन्न, उन्नत कृटाकार तुत्र्य एव सर्वोत्तमगुणुयुक्त, श्वेत, तेभर निउयम भागवाणा ( जल-मल - कलक - सेयरय-दोस - वजिय-सरीर- निरजलेवे ) विविध अजरना भेटल-सुनयेला परमेवा इथ જલ, ઋણુ બનેલ રજસ્વરૂપ મલ, દુષ્ટ મસા તલ આદિ રૂપ લ, તેમજ સ્વેદ-પ્રસ્વેદ રજ ધૂળના દોષથી વિર્જિત શી હાવાથી નિળ શરીરવાળા (छाया - उज्जोइयगपच) अतिथी यभारा भारता यागवाणा (घण-निचियसुनद्व-लक्सणु-ण्णय- कूडागारनिभ - पिंडिय- सिरए) अतिनिषिङ, स्पष्ट तिथी પ્રકતિ શુભલક્ષણ—સ પન્ન, ઉન્નત ફૂટાકાર તુલ્ય તેમજ નિર્માણ નામના Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषपिणी टीका स १६ भगयन्महावीरस्यामिवर्णनम् मिउ-विसय-पमत्थ-सुहुम-लक्वण-सुगंधि-सुंदर-भुयमोयग-भिंगनेल-कजल-पहह-भमरगण-णिद्ध-निकुरुव-निचिय-कुंचिय-पयाबद्धानि-अस्थितानि प्रकटतया विद्यमानानि लक्षणानि शिर मम्बन्धिशुभलक्षणानि यत्र तत् मुबदलभगम , उननम-मध्यभाग उच्च यत कट तस्य य आकारम्तन्निभम्उन्नतकुटाकाग्मदृगमिति भार । पिण्डित-निमागर्म गा “योजित गिगे यस्य स घन निचिन-मुपद्ध-लक्ष गोनत-मटाकारनिभ-पिण्डित-गिाम्क । 'सामलियौंड-घगनिचिय छोडिय-मिउ-विसय पसत्थ-मुहम-लक्खण-मुगधि-गुदर भुयमोयग-भिंग-नेल-कजल-पह-भमरगग-णिद्र-निकुरुष-निचिय-कुचिय-पयाहिणावत्त-मुद्ध-सिरए' यामलिबोण्ड-धननिचित-न्छोटिन-मृदु निगह-प्रगात-मूक्ष्म-नाग-मुगन्धि-सुन्दर-भुजमोचक-भृङ्ग-नैलकलन प्रष्ट - भ्रमग्गग - निग्य - निकुरम्य - निचित - कुचित - प्राभिगाऽऽवते - मूर्द्धगिरोज शामलि वृशिर, तम्य गोण्ड-फल, घननिचितम्-अनिनिविट, छोटितस्फोटित-तृल्ल्याप्त शाल्मलि फलपण्ट नद्वत मृदव --मदुला:-इति आत्मलिण्डघननिचितच्छोन्तिमृदव , अपनले शिगेभाग कठिन , उपग्भिागे गान्मलिफलपण्डगत-तूलवन्मृदुला केगा इति भाव । तथा-पिशदा -निर्मला , प्रास्ता -उत्तमा सदमा -- तनुतरा , लक्षगा --मुल्क्षगवन्त , मुगन्यय --गोगनगन्धयुक्ता, मुन्दरा -मनोहरा , तथा भुजमोनकरत नीलग्नविशेष इस, भृङ्गवत्-भ्रमग्वन् , एव नैलरत्-नाली विकारवद्निर्मागनाम कर्म हाग सुरचित ऐसे मस्तकगले, [ सामलिगोंड-यणनिचिय-च्छोडिय-मिउ-विसय-पसत्य-सुहुम-लकवण-सुगधि-मुदर-भुयमोयग-मिंग-नेलकजल-पट्ट-भमरगण-गिद्ध-निकुम्व-निचिय ~ कुचिय - पयाहिणावत्त-मुद्धसिरए] मरवृक्ष के फलान्तर्गत तूल के समान मृदुल निगढ-निर्मल, प्रशस्त-उत्तम, सदम-तनुतर ( पतले ), लक्षग-सुलक्षणयुक्त, सुगन्ध-शोभनगध पन्न, सुन्दर-मनोहर तथा नाल रत्नशिप की तरह लच्छेदार, नीलगुलिका की तरह नीले, कजल की भथा सुश्थित सेवा भ-si (सामलिबोड-धणनिचिय - च्छोडिय-मिउरिसय-पसत्य-सुहम-लसण-सुगधि सुदर-भुयमोयग-भिग-नेल-कज्जल-पहनु भमर गण-निद्ध-निकरुष-निचिय-कुचिय-पयाहिणावत्त-मुद - सिरए ) सेभर वृक्षना કુલની અંતર્ગત રૂના જેવા કે મળ, વિશદ-નિર્મળ, પ્રશસ્ત-ઉત્તમ, સૂક્ષમ હળવ, પાતળા, લક્ષણ–સુલક્ષણયુક્ત, સુગધ-શોભનગ ધન પન્ન, સુદ-મનહર થા નીલ રત્નવિશેષની પેઠે લકેદાર, નીલલિતાની જેમ લીલા, કાજળના Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकमरे हिणावत्त-मुद्धसिरए दालिमपुप्फप्पगास-नवणिज्ज-सरिस-निम्मल. सुणिद्ध-केसंत-केसभूमी छत्तागारुत्तिमंगदेसे णिव्वण-सम-लहमठ्ठ-चंदद्ध-सम-णिडाले उडुवइ-पडिपुण्ण-सोम्मवयणे अल्लीण. नीलीगुलिकायत्, कन्नलपत्-मपीवत् , प्रदृष्ट-भ्रमर-गगवत्-सोल्लास-भ्रमर-वृन्दवत् स्निग्ध-कान्तियुक्तम्-अतीवस्याममित्यर्थ , निकुरम्न-समूहो येपा ते भुजमोचक-भृङ्ग-नैलकजल-प्रहष्ट-भ्रमर-गणस्निग्धनिपुरम्बा , ते च पुनर्निचिता परस्पर शिष्टा कुञ्चिता = वक्रीभूता -कुण्डलवदर्तलाकारा प्रदक्षिणाऽऽपत्ता -प्रदक्षिणम् आवर्तन्ते ते तथा मूनिमस्तके, शिरोजा -केशा यस्य स तथा शाल्मलि-फलखण्डव कोमलातिश्यामल-कृष्णमणि-- भ्रमरकज्जलपत्कृष्णतर-परस्परश्लिष्ट-प्रदक्षिणावर्त कुश्चित-मस्तककेशवानिति यावत् । केशोत्पत्तिस्थान वर्ण्यते-'दालिम-पुष्फ-प्पगास-तवणिज-सरिस-निम्मल-मुणिद्धकेसत-केसभूमी' दाडिम-पुष्प-प्रकाश-तपनीय-सदृश-निर्मल-मुस्निग्ध-केशान्तकेशभूमि, ता-दाडिम-पुष्प-प्रकागा रक्तवर्णेत्यर्थ, तपनीयसदृशी-अग्निप्रतप्त सुवर्णसदृशान, तथा निर्मला-उज्जरला, मुस्निग्धा-सुचिकगा, केशान्ते केशसमीपेकेशमूले केशभूमि --केगोत्पत्तिस्थान-मस्तकवक् यस्य स तथा, पूर्वोक्तमेव-विशेषण प्रकारान्तरेणाह-'छत्तागारुत्तिमगदेसे' छत्राऽऽकारोत्तमाङ्गदेश -छाऽऽकार --वर्तुलोनत वगुगयोगाच्छाऽऽकृति -उत्तमाङ्गदेश -मस्तकप्रदेशो यस्य स , अयुनतोत्तमाङ्गवान् इति तरह काले, प्रहष्टभ्रमरगग की तरह कान्तियुक्त, परस्पर मे मश्लिष्ट-विरले नहीं, टेढे कुण्डल की तरह बर्तुल आकारयुक्त दक्षिणावर्त केशों से युक्त थे, अर्थात्घुघरवाल्वाले थे । [दालिमपुप्फ-प्पगास - तपणिजसरिम - निम्मल-सुणिद्धकेसत-केस-भूमी] भगवान् के मस्तक की त्वचा दादिम के पुष्प के समान लाल, तथा ताये हुए सुवणे के समान निर्मल एव स्निग्ध-चिकण थी। (छत्तागारुत्तिमगदेसे) भगवान का मस्तक छत्र समान गोलाकार था। (णित्रण-समજેવા કાળા, પ્રહણ ભ્રમરાની પેઠે તાતિયુક્ત, પરસ્પરમા મશ્લિષ્ટ, વિલ નહિ, વાકા કુડલની પેઠે વર્તુળ આકારવાળા દક્ષિણાવર્ત કેશથી યુક્ત ભગવાન હતા सात धुघरवास पाता (दालिमपुप्फ-पगास तवणिज्ज सरिस निम्मलमणिद्ध-केसत क्स भूमी) भगवान्ना मन्तनी क्या [ याम1] हाउभ। પુષ્પના જેવી લાલ, તથા તાવેલા સુવર્ણના જેવી નિર્મળ તેમજ સ્નિગ્ધ शिडी ती, (छत्तागारुत्तिमगदेसे) मवाननु भस्त छननी पेठे गोसार Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७ पीयूपवपिणो-टीका स. १६ भगयन्महापीरस्याप्रियर्णनम् . पमाणजुत्त-सवणे सुस्सवणे पीण-मंसल-कबोल देसभाए आणामिय-चाव-रुहल-किण्हव्भराड-तणु-कसिण-गिह-भमुहे अवदाभाव , 'गिबग-सम-ल-मट्ठ-बद्ध-सम-गिडाले निर्वग-सम-लष्ट- मृष्ट-चन्द्राईसम-ललाट तत्र-निर्वग-अतहित तया वगकिगरहित, सम-विषमतारहित, लट-सुन्दर,मृष्ट-शुद्ध चन्द्राऽईसमम्-अष्टमा-चन्द्र-मण्डलाऽऽकारम् , लाट-मालस्थल यम्य म, अष्टमीचन्द्र-मण्डल-समानाकार-सुन्दर ललाट-इति भाव । 'उडुवइ-पडिपुण्ण-सोम्मवयणे' उटुपति-प्रतिपूर्ण-मौम्यवदन उडुपति -गाग्यपूर्णचन्द्रस्तइत् परिपूर्ण-प्रमाममूहसम्मृत, सौम्य-सुन्दर, वदन-मुख यस्य म तथा, गारदपूर्णचन्द्र-समान-सुन्दर-मुख इत्यर्थ । 'अल्लीण-पमाणजुत्त-सवणे आलीन प्रमाणयुक्त-श्रवण -समुचितप्रमाणकर्गयुक्त , अत एव-'मुस्सवणे' मुश्रवण , योभनर्गवान् 'पीण-मसल-कवोल-देसभाए' पीन-मासलकपोल-देशभाग -पीनो-पुष्टौ, मासली मासपूर्णी कपोलदेशभागो-कपोलावयवी यस्य स तथा-सुपुष्टकपोच्युक्त इति भार । 'आणामिय-चाव रुटल-किण्हाभराट-तणुकसिण-णिद्ध-भमुहे' आनामित चाप-रचिर-कृष्णानराजि-तनु-कृष्ण-स्निग्ध-भू -आनामित चाप चक्रीकृनधनु , तद्वदरचिर-सुन्दरे तथा कृष्णा-भ्रराजी इव श्याममेघपती इव ___ तनू-सूक्ष्मे, कृष्णेश्यामे, स्निग्धे-चिकणे- ध्रुवौ यस्य स तथा, वकृष्णमूदमचिक्कग लह-मट्ठ-चदद्ध-सम-गिडाले ) भगवान का भालस्थल ब्रग के चिह्न मे रहित, विषमता मे वर्जित, सुन्दर, शुद्ध एव अष्टमी के चद्रमा के समान था । [ उडुवइ-पडिपुण्ण-सोम्मत्रयणे ] प्रमु का मुस शरद कतु के पूर्णचन्द्रमण्टल समान मुन्दर और आहादक था। [ अल्लीण-पमाण-जुत्त-सवणे ] कान प्रमागयुक्त थे। [ मुस्सवणे ] इमलिये भगवान मुन्दर कानवाले थे । (पीण-मसल-कवोल-टेसभाए) भगवान के पुष्ट एव भरे हुए सुन्दर कपोठ थे । (आणामिय-चाव-रुटल-फिण्डभराट-तणु-कसिण-गिद्ध-भमुहे ) वक्रित धनुप के समान सचिर, तथा कृष्णमेध तु (णिव्यण-सम लट्ठ मट्ट चदद्ध-सम-णिडाले) लगवाननु साट नाना ચિહ્નથી રહિત, વિષમતાથી વર્જિત, સુંદર, શુદ્ધ તેમજ અષ્ટમીના ચદ્ર नारे तु (उडुपइ-पडिपुण्ण-सोम्म-चयणे ) प्रभुनु भुम २२४सतुना पूय द्रभ स ममान सुह२ तथा माइया तु (अल्लीण- पमाण-जुत्तसवणे) डान भापम२ उता (सस्सपणे) तथा भगवान सुहानवाणा जता (पाण-मसल कपोल-देसभाए) सपना पुष्ट तभी ससा सुह२ गाडी ना (आणामिय-चार-इल-किण्हव्मराइ-तणु-कसिण-णिद्व-भमुह) 43 ययता ધનુષના જેમ રૂચિ, તથા કૃષ્ણમેઘ (કાળા વાદળા) ની હારના જેવી Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औषपातिकमरे लिय-पुंडरीय-णयणे कोआसिय-धवल-पत्तलच्छे गरुलायय-उज्जु __ तुंग-णासे उवचिय-सिलप्पवाल-विवफल-सण्णिभाहरोह्र पंडुर ससि-सयल-विमल-णिम्सल-संख-गोक्खीर-फेण-कुंद-दगरय-मुणा - - भूयुक्त इत्यर्थ । 'अबदालिय-पुंडरीय णयणे' अदलित पुण्डरीक-नयन -अपलितेविकसिते, पुण्डरीके-श्वेतकमले डर नयने-नेरे यस्य स , विकसितश्चेतकमलमदृशनेत्र इति भाव । 'कोआसिय-धाल-पत्तलच्छे विकसित धवल-पालाऽक्ष कमलपद विकसिते धवले-श्वेते, परले--पदमयुक्ते, अभिमानो यस्य स , विशालनगानित्यर्थ । 'गरुला-यय-उज्जु-तुग-गासे' गरुदा-यव- तुग-नासिक -गरुटस्येव-गस्टपक्षिचञ्चुवदआयता-दीघा, मज्वी-सरला, तुङ्गा-उन्नता, नासिका यस्य स तथा, गरुडचञ्चुवीर्घसरलोचनासिकानान् इत्यर्थ । 'उचिय-सिलप्पाल-रिफल-सण्णिभा-हरोहे' उपचित शिलाप्रवाल बित्रफल-सन्निमाऽधरोष्ठ -उपचित कृतमस्कार यच्छिलाप्रपाल-विद्रुम, विम्बफल-रक्तातिरक्त तयो सन्निभ -सदृशो रस्न अधरोष्ठो यस्य स , अतिरक्तोष्टवान्इत्यर्थ । 'पडुर-ससि-सयल-विमल पिम्मल-सख-गीकावीर-फेण-कुद-दगरय मुणालिया-धवल-दतसेढी' माण्डर-गशि-शकल-विमल निर्मल-टाग्य गोक्षीर-फेन-कुन्ठ-ठककी पक्ति के समान काला, पतली और चिकनी भगवान की भौहें थीं । (अरदालिय- पुडरीय-णयणे) विकसित श्वेतकमल के ममान नेत्र थे। (कोआसियधवल-पत्तलरछे) वे नेत्र-विकसित, स्वच्छ एव पदमल-सुन्दर पीपी वाले थे । (गरुला-यय-उज्जु-तुग-णासे) गरड पक्षी की चचु समान दीर्घ, सरल एव उन्नत नासिका थी । ( उचिय-सिलपवाल-पिंधफल-सणिभाहरोहे) र स्कारयुक्त विद्रुम एव रक्तातिरक्त अतिशय लाल कुरफल के समान अधगेष्ठ था । (पडुर-ससिसयल-विमल-गिम्मल-मख-गोक्खीर-फेण-कुद-दगरय-मुगालिया-. ४ी, पातमी मन xिet सभरे ती ( अपदालिय-पुडरीय-णयणे) भीवेता श्वेत उभजन ने नेत्र ता (कोआमिय-धवल-पत्तलच्छे ) ते नर विसमा ७ तेभर ५६ (सुदर पाशुपाणी ) खत (गरला-ययT-तुग-णासे) ३७ पक्षीनी याय समान सामी १२० तेभर नासिका ती (उवचिय--सिलप्पबाल-चिंचपर मणिभा-हरोष्टे) सारयु વિક્રમ તેમજ રકતાતિરક્ત-અતિશય લાલ કુદુર ફલના જે અધરેષ્ઠ (8) तो ( पडुर-समिसयल-विमल-णिम्मल-सब-गोपीर-फेण--कुद-दग Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूपवर्षिणी-टोका व १६ भगवन्महावीरस्यामिवर्णनम्. ८९ लिया-धवल- दंतसेढी अखंडदंते अप्फुडियढंते अविरलदंते सुणिवदंते सुजायदंते एगढंतसेढीविव अगदंते हुयवह- णितरजो- मृणालिका धवळ-दन्तयेगि पाण्डुर-वेत यत्-शशिफल - चन्द्रखण्ड, तद् विमला, तथा निर्मल-अतिस्वच्छ, यस प्रसिद्ध, गोक्षीर- गोदुग्धम्, फेन जलोपरिवर्तमानो नवनीतसम , कुन्द-नामक वेतकुमुमम्-टकरज-जलकग, मृगालिका-निसिनी तद् ववलामहाश्वेता, दन्तश्रेणिदन्तपक्तिर्यस्य स तथा, शुभ्रातिशुभ्रदन्तपङ्क्तिमादन्तकन्याभावात् ' अप्फुडियदते ' अस्फुटितदन्त दन्तपङ्क्तौ दन्ताना देशतोऽपि भङ्गाभाव 'अविरलद ते ' अविरलदन्त - अन्तरावकाशरहितदन्त 'मुदिते' सुस्निग्धदन्त - चिक्कणदन्तान्, 'सुजायदते' सुजातदन्त सुन्दरदन्तान् दत्यर्थ । ' एगदतसेढीवित्र अणेगःते ' एकदन्तश्रेणीनाऽनकदन्त, ' हुतवह- गिद्धत-पोय-तत्त-तवणिज्न-रत्ततल - तालुजी ' हुतरह - निष्मात-चीत तमतयनाय -- रकतर - तालुजिह -हुत हन- वह्निनापूर्व निम्मात - निःशेपेग नयोजित पश्चाज्जलादिना धीतम्, अत एव तप्त-वहिताप प्राप्त - नियर्थ । 'आवडते' अन्त-दन्तपट्को । कुसुम, धवल - दतसेही ) वेत चन्द्रसडके के समान निमल, तथा निर्मल शख, गोक्षीर, फेन, जनकग, एवं मृणाल के समान धवल दन्तपक्तियाँ थीं । ( अखडडने ) भगवान के दॉत असण्ड थे, ( अप्फुडियदंते ) अत्रुटित थे, ( अविरलडते ) काग रहित थे । ( गुणिद्धदते ) चिक्कग थे, ( सुजायदते ) सुन्दर थे, । (एगी अणेगते ) एक दॉत की श्रेणी के समान सभी दाँतमाम होते थे । ( हुयवह- गिद्धत - चोय - तत्ततवणिज्न - रततल - तालुजीहे ) पहले अग्नि म तपाये गये पश्चात् जलादिक द्वारा धोये गये पुन अग्नि मे तपाये - मुगालिया - धवल-दत- सेढी) श्वेत शुद्रण उना लेवी विभस, तथा निर्माण શખ, ગાયનું दूध, लु, श्वेतपुष्य, सन् ( पाणीना युद्ध ) तेभन भृणास ना लेवी सह हातनी द्वार हुती ( असडदते ) भगवानना हात अमर हुता ( अप्फुडियढते ) तूटया વગરના દાત હતા ( अविरलते ) અવકાશ ( पोस ) હિત हता, ( सुणिद्धते ) ( सुजायते ) सुदर हता, ( एगदतसेढी विन अगदते ) श्रेणी ( हार ) ना प्रेम जधा हात हेमाता हुता (हुत ह-द्वित-धोय-तत्ततणिज्ज-र --रत्ततल तालुजी ) पडेसा व्यग्निभा तथावेसा पाछसथी भजाहिद्वारा ચિકણા हता, એક દાતની ज Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकमरे धोयतत्ततवणिज-रत्ततल-तालुजीहे अवडिय-सुविभत्त-चित्त-मंसू मंसल-संठिय-पसत्थ-सदूल-विउल-हणुए चउरंगुल-सुप्यमाण-कंधुवर-सरिसग्गीवे वरमहिस-वराह-सीह-सदल-उसभ-नागवर-पडियत्तपनीय-सुवर्ण तद्वद् रक्ततरम्-अतीवरक्त, ताल च जिता च यस्य स तथा, अतिरक्ततालजिह्वाचान् इत्यर्थ । 'अवद्विय-मुविभत्त-चित्त-मसू' अवस्थित-मुग्मिक्त-चिरश्मश्रु अवस्थितानि-अवर्द्धनशीलानि, सुविभक्तानि-द्विभागाभ्या विभक्ततया स्थितानि, चित्राणि-शोभासम्पन्नानि श्मश्रूणि-'दाढी मूछ' इति भाषाप्रसिद्धानि यस्य स , अवर्धनशील-सुविभक्त-सुशोभितस्मश्रुवान् इत्यर्थ । 'मंसल-संठिय-पसत्य-सददल-विउलहणुए' मासल-सस्थित--प्रशस्त-शार्दूल-विपुल-हनु-तत्र-मासल -पुष्ट , सस्थित -सुन्दराsSकार, प्रशस्त -अतिरमणीय ,शार्दूलस्येव व्यावस्येव, विपुल -दीर्घ हनु -चिचुक यस्य स तथा-शार्दुल-वत्सुन्दर-सुविशालचिवुक इति भाव । 'चउरगुल-सुप्पमाण-कंचुवरसरिस-ग्गीवे' चतुरङ्गुल-सुप्रमाण-कम्बुवरसदृश-ग्रीव-भगवदगुल्यपेक्षया चतुरकुलसुप्रमाणा कम्खुवरसदृशी-उन्नततया त्रिवलिसद्भावाच श्रेष्ठशवसदृशी ग्रीवा यस्य सतथा, चतुरझुलप्रमाणोपेतश्रेष्ठशङ्खसदृशग्रीवावान् इत्यर्थ । 'घर-महिस-वराह-सीह- सलउसम-नागवर-पडिपुण्ण-पिउल-खंधे' वरमहिष-वगह सिंह-शार्दूल-वृषभ-नागवर-परिपूर्णगये सोने के समान अयतरक्त ताल और जिह्वा थी। (अवट्ठिय-सुविभत्त-चित्तमन) अवर्द्धनशील एव दोभागों से विभक्त होकर अलग २ रही हुई दाढी एव मूछे थीं। (मसल-संठिय-पसत्य-सद्ल-विउल-हणुए) पुष्ट, सुन्दर आकार युक्त, एव अतिरमणीय सिंह जैसी विपुल दादी थी। (चउरगुल-मुप्पमाणकंवरसरिस-ग्गीवे) भगवान की अगुली की अपेक्षा चार अगुलप्रमाणवाली एव शख के समान त्रिवलीविशिष्ट ग्रीवा थी। वरमहिस-वराह-सीह-सल-उसमछाला सुपधुनी पेठे सत्यत ale dug सने म त (अवट्ठिय-सुधिभत्त-चित्त-मसू) सनी लेभा मे मामाथी विमा ४२ मा माग रहेसी हादी तमा भुछ। ती [ मसल-सहिय-पसत्य-सद्दूल-विउल ए] पुट, सु४२ सा२पाणी तभी मति २भधीय सिसकी विपुल साहीती (चरगुल-सुष्पमाण-कधुवरसरिम-गीवे) सपानना माकानी અપેક્ષાએ ચાર આગળાને માપવાળી તેમજ શખની પેઠે ત્રિવલી ( ત્રણ पाणी 18 (१२६) ती [ वरमहिस-वराह-सीह-सदूल-उसभ नाग Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयपपिणी टीका सू १६ भगवन्मदायीरस्वामियर्णनम् पुण्ण-विउलक्खंधे जुगसन्निभ-पीण-रइय-पीवर-पउट्ठ- सुसंठियसुसिलिट-विसिट्ट-घण-थिर-सुवद्ध-संधि-पुरवर-फलिह-वट्टिय-भुए विपुलस्कन्ध -श्रेष्ठमहिपपराह सिंहव्यात्रवृप गजवरागामिव प्रतिपूर्णी-प्रमाणयुक्तौ-विपुलौ बिस्ती # सामुद्रिकशास्त्रोक्तलक्षणयुक्तो स्कन्धौ यस्य म तथा, 'सिंहल्यागदिवत्सामुदिकोक्तलायगयुक्तग्रमागमहितविशालम्कन्धवान् इति भाव । 'जुगसन्निभ-पीण-रइयपीचर-पउढ-मुसठिय-मुसिलिट्ठ-विसिट्ठ-पग-थिर-मुवद्ध-सधि-पुरवर-फलिह-घट्टियभुए' युगमनिम-पीन-रतिद-पीचर-प्रकोष्ठ-सुसस्थित मुश्लिट-विशिष्ट-घन - स्थिर-सुबद्ध-सन्धि-पुरवरपरिघ-वर्तितभुज , युगेनाकटापायामस्थितकाप्टेन सनिभी-तुन्यो, पीनौ-पुष्टी, रतिदौ प्रातिप्रदी, पीपरप्रकोष्ठौ-कफोणे 'खूणी' इति प्रसिद्धादधस्तान्मणिपन्धपर्यन्त प्रकोष्ठ , पीरो पुष्टौ प्रकोप्छौ ययोर्भुजयोस्तो, सुसस्थितौ-सुन्दरमस्थानवन्तौ, पुन कीदृशौ ।-मुश्लिष्टा मयुक्ता , विशिष्टा -प्रधाना ,धना -सघना , स्थिरा -दृढा -सुबद्धा =सुप्छु बद्धा स्नायुभि सन्धय -सस्थिसयोगस्थानानि ययोस्ती-मुश्लिष्टविशिष्टयनस्थिरसुवद्धसन्धी, पुन -पुग्नपरिघवत् नगरश्रेष्ठा-लावत् वर्तितौ-चतुलो बाहू-मुजौ यस्य स तथा, मुन्दरनगरार्गलानत् दृढदीर्घमुजवान् इति भाव । 'भुयगीसरविउल-भोग-आयाण-पलिहउच्छ्ट-दीड-वाहू-भुजगेश्वर-विपुल-भोगा -दान-पर्यवक्षिप्त-दीर्घनागवर-पडिपुण्ग-विउल-खधे) श्रेष्ठ महिप, वराह, सिंह, शार्दूल, वृषम, एव श्रेष्ठ हाथी के रूप जैसे विपुल स्कन्ध थे, (जुगसन्निभ-पीण-रइय-पीवर-पउट्ठसुसंठिय-सुसिलिट्ठ-विसिट्ठ-घण-थिर-सुनद्धसधि-पुरवर-फलिह-बटियभुए) गाडी के जुए के समान प्रीतिप्रद, पीपरप्रकोप्टयुक्त-पुष्टपौचावाली, सुन्दर आकृतिमपन्न ऐसे, एव मुश्लिष्ट-स्युक्त-मिली हुई, विशिष्ट–उत्तम, घन-गठीली, मजबूत, स्थिर-स्नायुओं से मुसद्ध ऐसी लधियों वाली, तथा नगर की परिघा-भोगल-जैसी वर्तुल मुजायें यौं । ( मुयगीसर-विउलभोग-आयाण-पलिहउन्बूढ-दीह-वाहू) वाञ्छित वस्तु वर-पटिपुण्ण-विउल-सधे ] श्रेष्ठ पास, १२, मि, शाईस, ६, तमा श्रेष्ठ छायाना वा विपक्ष माध हुती (जुगसन्निभ-पीण-रइय-पीवरपठट्ठ-सुसठिय-सुसिलिट्ठ-विसिट्ठ-घण-थिर-सुबद्ध-संधि-पुरवर-फलिह-घट्टियभुए ) ગાડાના ધસરા જેવી પુષ્ટ, પ્રીતિપ્રદ, પીવર પ્રકેષ્ઠ-પુષ્ટ કાર્ડ વાળી, સુદર આકૃતિવાળી તેમજ સુશ્લિષ્ટ યુક્ત-મિલિત, વિશિષ્ટ–ઉત્તમ, ઘન-ભરાઉં, સ્થિર--મજબૂત સ્નાયુઓથી સુસ બદ્ધ સધિઓવાળી તથા નગરની ભગળ सभ गाणा२ सुना ती [भुयगी-सर-विउलभोग-आयाण-पलिहउच्छूढ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकमरे भुयगीसर-विउल-भोग-आयाण-पलिहउच्छढ-दीह-वाह रततलो. वइय-मउय-मंसल - सुजाय लक्खण-पसत्थ-अच्छिद्दजाल -पाणी पीवर-कोमल-वरं-गुली आयंवतंव-तलिण-सुइ-रुडल-णिद्ध-णखे बाहु, भुजगेश्वर -सर्पराज , तस्य विपुलभोग -विगालदेह , म च आदानाय-वान्छितवस्तुग्रहणाय 'पलिहउच्छूढ' पर्यनक्षिप्त प्रेरित -सर्वथा टाइमप्रसारित , तद्वत् टी-लम्बीविशालौ, बाहू-भुजौ यस्य स तथा, लम्बविशाल पाहुमान-टन्यर्थ । 'रत्ततली-बइयमउय-मसल-सुजाय-लखणपसत्य-अच्छिद्द-जाल-पाणी' रक्ततलो पचित-मृदु-मासलसुजात-लक्षणप्रगन्ता-च्छिद्रजाल पाणि , तर रक्तनली-रक्ते तले ययोस्ती तथा, तलमागे रक्तवर्णयुक्तौ इत्यर्थ , उपचितौ पृष्ठभागे उन्नतौ, मृदुको-कोमलौ, मासली-पुष्टौ, सुजाती-मुन्दरौ प्रशस्तलक्षणौ-शुभचिबयुतौ, अच्छिद्रजालौ-च्छिद्रजालपर्जितो, पागी-हस्तौ यस्य स तथा, 'पीवर-कोमल वर-गुली' पीवर-कोमल-वरागुलि -पीचरा -पुष्टा, कोमला -मृदुला , धरा -श्रेष्ठा , अगुलयो यस्य स तथा, 'आयप-तप-तलिण-सुइ-रुदल-णिद्ध-णखे' 'आताम्र-ताम्र तलिन-शुचि रुचिर-स्निग्धनरस -आताम्रताम्रा =ईपद्रक्ता , तलिना =प्रतला शुचय =शुद्धा , सचिरा मनोजा , स्निग्धा =सरसा , नसा यस्य स तथा, 'चदपाणिलेहे' चन्द्रपाणिरेस -चद्राकारा पाणौ रेखा यस्य स , चन्द्ररेखाचिह्नितहस्तवानित्यर्थ , को ग्रहण करने के लिये फैलाये हुए सर्पराज के गरार समान दीर्घबाहु थे। (रत्ततलो-वइय-मउय-मसल-सुजाय लक्षण-पसत्य-अच्छिद्दजाल-पागी) तलभाग में लाल, पृष्ठभाग में उन्नत, कोमल, पुष्ट, शुभचिह्ना से युक्त, एव छिद्रों से रहित हाथ थे। (पीवर-कोमल घर-गुली) हाया का अगुलिगा पुष्ट, कोमल एव सुन्दर था। (आयपतर-तलिण-मुद-स्टल-गिद्ध-णखे) ईपद्रक्त, पतले, शुद्ध, सुन्दर, एव चिकने नग्य थे। (चदपाणिलेहे) हाथों मे चन्द्ररेखा थी। दीह-याहू] | Uति पन्तु सेवाने भाटे ३वारसा सपना शरीर समान an माई त (रत्ततलो-वइय-मध्य-मसल-सुजाय-लम्सण-पसत्य अच्छिद-जाल-पाणी] तशीयाना मागमा सास, पाना मागमा उन्नत, કોમળ, પુષ્ટ, શુભ ચિહનેથી યુક્ત તેમજ છિદ્રો વગરના હાથ હતા इपीवर-कोमल-यर-गुली ] सायानी माजीसा १४, ओमण तेभर सुहर ती [आयरतर-तलिण-सुइ-रुइल-पिव-गसे] परत पाता , शुद्ध, सुहर तभ४ यिनपत (चदपाणिलेहे ) डायामा यन्द्ररमा ती Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषषिणी टीका स १६ भगवन्महारस्थामिवर्णनम. चंदपाणिलेहे सूरपाणिलेहे संखपाणिलेहे चक्रपाणिलेहे दिसासोत्थियपाणिलेहे चंद-सूर-संख-चक्क-दिसासोत्थिय-पाणिलेहे कणग-सिलायलुज्जल - पसत्थ-समतल-उवचिय-विच्छिष्णपिहलवच्छे सिरिवच्छंकियवच्छे अकरंडुय-कणग-रुयय-निम्मल'ससपाणिलेहे' गड्गपाणिग्य ठाइसंग्वायुक्तहस्त इयर्थ , 'चक्पाणिलेहे' चक्रपाणिरेस -चक्रग्मायुक्तहस्त , 'दिसासोत्थियपाणिलेहे ' दिक्वस्तिकपार्गिरेख – दक्षिणाऽऽवर्तस्वस्तिकाऽऽकार-सा-युक्त-हस्तमान् इति भाव । 'चर-सर-सख-चक्कदिसासोत्थिय-पाणिलेहे' चन्द्रसूरगड्यचक्रटिक्स्वस्तिकपागिरेस चन्द्रसूर्यादिहस्तरेखा हस्ते विद्यमाना प्रशस्तफलप्रदा भवन्ति, ताभिश्चन्द्रादिरेसाभिश्चिह्नितहस्तवानि यर्थ , 'कणग-सिलायलु-जल-पसत्य-समतल-उवचिय-विच्छिण्ण-पिडुलबच्छे' कनकगिलातलो-जवल-प्रशस्त-समतलो-पचित-विस्तीर्ण-पृथुल-वक्षस्क - कनकगिलातलवत् सौवर्णपटिकावत् , उ बल देदी-यमान प्रशस्त सुलक्षगोपेत समतलम्च-उन्नताऽऽनतरहितम् , उपचित-पुष्ट, विस्तीर्णपृथुलम् , अतिविशाल, वक्ष -उरस्थल यस्य स तथा, (मरपाणिलेहे) सूर्यरखा थी, ( सखपाणिलेहे ) शखरेसा थी, (चकपाणिलेहे) चक्ररेखा थी, (दिसासोत्थियपाणिलेहे) दक्षिणावर्त स्वस्तिक रेखा थी, (चद-- मूर-संग्व-चक-दिसासोत्थिय-पाणिलेहे) इस प्रकार चन्द्रमा, सूर्य, शख, चक्र एव दक्षिणावर्त स्वस्तिक की रेखायों से भगवान के हाय सुशोभित थे। (कणगसिलायलु-ज्जल-पसत्य-समतल-उवचिय-विच्छिण्ण-पिहुल-वच्छे) कनक शिला के समान-सुवर्ण के पाट के समान देदीप्यमान, शुभलक्षणों से युक्त, सम, पुष्ट, विस्तीर्ण एव अतिविशाल वक्षस्थल था। वह वक्षस्थल (सिविच्छकियवच्छे) (सृरपाणिलेहे ) सर्य रे ती [ससपाणिलेहे ] २५२॥ ती (चक्क पाणिलेहे ] यरेमा ती, (दिसासोत्थियपाणिलेहे) दक्षिणावर्त पति४ रेमा डती (चद-सूर-सस-चक-दिसासोत्थिय-पाणिलेहे ) से प्रारं यद्रमा, सूर्य, શ ખ, ચક્ર તેમજ દક્ષિણાવર્ત સ્વસ્તિકની રેખાઓથી ભગવાનના હાથ सुभालित ता (कणग-सिलायलु-ज्जल-पसत्य-समतल-उपचिय-पिच्छिण्ण पिहुल-वच्छे) ४ शिक्षा समान-मोनानी पटना २७ वीप्यमान, શુભલક્ષણવાળું, સરખુ, પુષ્ટ, વિશાળ તેમજ બહુ પહોળુ વક્ષસ્થળ [છાતી] तु ते पक्षस्थ (सिरिवच्छंकियवच्छे ) श्रीवत्सना शिवायु तु भने Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - -- - - ९४ औपातिकमत्रे सुजाय-निरुवहय-देह-धारीअसहम्स-पडिपुण्ण-वरपुरिस-लक्षणधरे सण्णयपासे संगयपासे सुंदरपासे सुजायपासे मियमाइय'सिरिबच्छंकियवन्' थापसावितरक्षक -श्रीरसेन=शुभचिहरिशेपेग अङ्कितचिहिनत-वक्ष - हायस्थल यस्य स तथा, 'अफरडुय-कणग-स्यय-निम्मल-मुजायनिरुवहय-देह-धारी, अफरण्डुक-कनक-रचक-निर्मल-मुजात-निरुपद्दत-देहधारी, अकरण्डक -- करडुय ' इति देशोय पद, अदृश्यमान करण्डक पृष्ठभागास्थिक यस्य देहस्य स अकरण्डुक, तथा कनकरुचक -सुवर्णवर्णयुक्त, तथा-निर्मल, सुजात, निस्पहत =रोगादियाधारहितो यो देहस्त देह धरतीत्येव जीलो य स तथा, ' अg सहस्स-पडिपुष्ण-चरपुरिस-लक्खण-धरे । अष्टसहस्र-प्रतिपूर्ण-वरपुरुप-लक्षगधर - अष्टोत्तर सहस्रम्-अष्टसहस्र, प्रतिपूर्णम्-अन्यून, वरपुरुषाणा लक्षण-स्वस्तिकादिकम्, तस्य धर -धारक , महापुरुषाणामष्टोत्तरसहस्रपरिमितानि मुलक्षगानि सन्ति, तेषा सर्वेषा धारक --इति भाव । 'सण्णयपासे' सन्नतपार्श्व-सन्नतौअधोऽधोऽग्नतौ पार्थी-पार्श्वभागौ यस्य स सन्नतपार्श्व , ' सगयपासे' सङ्गतपार्श्व -सङ्गतौ-प्रमाणोचितो, पाभुजमूलादध प्रदेशौ यस्य स , प्रमाणयुक्तपार्श्वप्रदेशवानिति भाव । 'सुदरपासे' सुन्दरपार्श्व-दर्शनीयपार्श्वयुक्त , 'सुजायपासे' सुजातपार्श्व -सुन्दरपार्श्ववानित्यर्थ । श्रीवत्सके चिह्न से युक्त था। और प्रभुका शरीर (अफरडुय-कणग-रुयय-निम्मलमुजाय-निरुवहय-देह-पारी) अफरण्डुक-अदृश्यमान पृष्ठभाग की हड्डीयुक्त, तथा सुवर्ण के जैसा निर्मल एव रोगादिक बाधा से रहित था। भगवान् (अट्ठसहस्सपडिपुण्ण-वर-पुरिस-लक्रवण-धरे) न्यूनतारहित ऐसे १००८ स्वस्तिकादिक उत्तम पुरुषों के योग्य लक्षणों के धारक थे। भगवान के शरीरका पार्श्वभाग (सणणयपासे सगयपासे सुंदरपासे सुजायपासे मियमाझ्य-पीण-रइय-पासे) क्रमिक अवनत प्रभुनु श२ ( अकरडय-कणग-यय-निम्मल-सुजाय-निरुवहय-देह-धारी ) અરડુક-અદૃશ્યમાન-ન દેખાય તેવી રીતે વાચા-બરડા-ની રેડવાળુ તથા નાના વર્ણ જેવુ નિર્મળ તેમજ ગાદિકની પીડા વગરનું હતુ ભગવાન (अदृसहस्स पडिपुण्ण घर-पुरिस-रसण-धरे) न्यूनताडित सेवा १००८ સ્વસ્તિક આદિક ઉત્તમ પુરૂને એગ્ય લક્ષણોના ધારક હતા ભગવાનના शरीरना ५७मानी ला (सण्णयपासे सगयपासे सुंदरपासे सुजायपासे मियमाइय पीण इय पासे) भथी नभेडा ता, ति प्रभा । उता, सुहर Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषषिणो-टोका स १६ भगवन्महावीरस्थामिवर्णनम पीण-रडय-पासे उज्जुय-सम-सहिय-जच्च-तणु-कसिण-णिद्धआइज-लडह-रमणिज-रोम-राई झस-विहग-सुजाय-पीण-कुच्छी झसोयरे सुइकरणे पउम-वियड-णामे गंगावत्तग-पयाहिणावत्त'मियमाइय-पीण-रइय-पासे' मितमानिक-पोन-रतिद-पार्थ, तत्र-मितमात्रिकोसमुचितपरिमाणवन्तौ, पीनी-पुष्टी, रतिदौ-रम्यौ, पा-कक्षाभ्यामधो चामदक्षिगगरीरभागौ यस्य म तथा, 'उज्जुय-सम-सहिय-जच्च-तणु-कसिण-णिद्ध--आइज-लडहरमणिज-रोमराई। जुक-सम-महित-जाय-तनु-कृष्ण-स्निग्धा-ऽऽदेय-ललितरमणीय-रोमराजि, ऋजुकाणा-सरलाना, समनहिताना--मिलिताना, जायानास्वजातीयेपूत्तमाना, तनुना-सूक्ष्माणा, स्निग्धाना-सरसानाम्, आदेयानाम् उपादेयाना, 'लदह ' ललिताना रमणीयाना-मनोरमाणा रोग्गा राजि -पतिर्यस्य स तथा, सग्लसूदम-कृष्ण-सरम-रम्य-रोमराजिमान् इयर्थ । 'झस-विहग-गुजाय-पीण-कुच्छी झप-विहग-सुजात-पीन-कुक्षि मत्स्य-पक्षिगोरिव मुजात =सुन्दर , पीन -पुष्ट , कुक्षि उदर यस्य स तथा, 'झसोयरे' झपोदर -मीनवत्सुन्दरोटरवान् इति भाव । 'सुइकरणे" शुचिकरण -शुचीनि-पवित्राणि, करणानि-इन्द्रियाणि यस्य स , इन्द्रियाणा मलवाहित्वेऽपि भगवतिगयाद्-निर्मलतया निर्मल-निरुपलपेन्द्रियवान् इति भाव । 'पउम-वियडथा, उचित प्रमाण से युक्त या, सुन्दर था, शोभन था, तथा-परिमित मात्रावाला, पुष्ट एप रम्य था। रोमराजि (उज्जुय-सम-सहिय-जच्च-तणु कसिण-णिद्ध-आरज-लडहरमणिन-रोम-राई) सरल, परस्पर मे मिलित, उत्तम, पतली, काली, चिकनी, उपादेय एव अयन्त मनोहर थी। उनकी कुक्षि (झस-विहग-सुजाय-पीण-कुच्छी) मत्स्य एव पक्षी के समान सुन्दर और पुष्ट थी। (झसोयरे) उनका उदर मत्स्य के जैसा सुन्दर या। (सुइकाणे) इन्दियो यद्यपि स्वभारत मलवाहिनी है, तथापि अतिगय के प्रभाव હતો, શેભન હતું, તથા મર્યાદિત ઘાટને પુષ્ટ તેમજ રમ્ય હતે રેમરાજિ (NNR S५२ना पनी पति) (उज्जुय-समसहिय-जन्य-तणु-कसिण--णिद्धआइज्ज-लडह- रमणिज-रोम-राई ) सरभी, ५२२५२मा भणी गयेसी, उत्तम, પાતળી, કાળી, ચિકણી, ઉપાદેય તેમજ બહુજ મને હર હતી તેમની કાખ (Dis) (झस-विहग-सुजाय-पीण-युच्छी) मत्स्य तेभन पक्षीनवी मुहर मने पट खुती (झसोयरे) तभनु ६२ (पट) मा सीना सु२ तु (मुइकरणे ) ४दियो माथी भसवाहिनी छ तो ५ मतिशयना Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकस नरंग-भंगुर-रवि-किरण तरुण-बोहिय-अकोसायंत-पउम-गंभीर-वियड-णाभे माहय-सोणंद-मुसल-दप्पण-णिकरिय-वर-कणगच्छरुसरिस-दरवइर-वलियमझे पमुइय-वरैतुरग-सीह-वर-वट्टिय-कडी णामे पम-पिफट-नाम-पनकोशवद् पिकटा-गम्भीरा नाभिर्यस्य स तथा, 'गगावत्तगपयाहिणावत्त-तरग-भगुर-रवि-किरण-तरुण-गोहिय-अकोसायत-पउम-गभीर-वियडणामे' गङ्गाऽऽवर्तक--प्रदक्षिणाऽऽपर्त-तरग-भङ्गुर-रवि-किरण-तरुण-बोधितविकसत्पद्म-गम्भीर – विकट-नाम-तत्र - गङ्गाऽऽर्तकसम्बन्धिप्रदक्षिणावर्ततरगवद्गुरा चक्राकारवर्तुला, रविकिरणतरुणबोधितविकसत्पद्मवद् गम्भीरा, विकटा=विशाला च नाभिर्यस्य स तथा, 'साहय-सोणद-मुसल-दप्पण-णिकरिय-परकणगन्छरुसरिस-बरसइर-बलिय-मज्झे' म्हत-सोनन्द-मुसल-टर्पग-निकरित-चरकनकसरुसदश-वरवन-चलित-मध्य -महत--क्षिममध्य यत्-सोनन्त=निकाष्ठिका, मुसल -प्रसिद्ध , दर्पग-दर्पगदण्ड, निकरितवरकनकत्सरु =निकरित-सारीकृत सर्वथा मशोपित यद् वरकनक-श्रेठसुनर्ग, तस्य सह-समुष्टि , एतेपामितरतरयोगद्वन्द , तै सदृश -चरसे भगवान का इन्द्रियाँ निर्लेप रहता थीं। (पउमरियडगामे) नाभि पनकोश के समान गभार था, (गगावत्तग-पयाहिणावत्त-तरंग-भगुर-रवि-किरण-तरुण-योहिय-अकोसायतपउम-गभीर-वियड-गाभे) तथा-गगावर्तक-सबधी प्रदक्षिणावर्तयुक्त तरग की तरह भगुर, चकसमान गोल, म याह्नकाल्के सूर्यको किरणों द्वारा विकसित पम के समान गभीर एव विशाल थी । (साहय-सोणद-मुसलन्दप्पण-णिकरिय-वरकणगच्छरसरिस-वरवइर-बलिय मज्झे) कटिप्रदेश निकाष्ठिका के मध्यभाग समान, मूसल के मध्यभाग समान, दर्पण के दण्ड के मध्यभाग समान, चलते हुए सोनेकी प्रमाथी सगवाननी छद्रियो नि ५ २२ती उती (पउमरियडणाभे) नालि पशवी मीर ती (गगावत्तग-पयाहिणावत्त-तरग-भगुर-रवि किरणतरुण-बोहिय-अकोसायत-पउम-गभीर-वियड-णाभे) तथा जापत समाधी પ્રદક્ષિણાવર્તયુક્ત તર ગની પેઠે ભ ગુર, ચકના જેવી... ગોળ, મધ્યાહ્નકાળના સૂર્યના કિરણેથી વિકલા પદ્મ સમાન ગણી તેમજ વિશાળ હતી ( साहय सोणढ-मुसल दप्पण णिकरिय वरकणगन्ज-सरिस-वरवइर-बलिय-मझे) કટિપ્રદેશ ત્રિકાષ્ઠિકા (ઘેડી અથવા તિરપાઈ)ના મધ્યભાગ જે, મૂસલના મધ્યભાગ જેવું, દર્પણના દડના મધ્યભાગ જે, ચળકતા સોનાની ખ; Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीपूषवर्षिणो-टोका सू १६ भगय महावीरस्वामिवर्णनम् वर-तुरग-सुजाय-गुज्झ-देसे आइण्ण-हउव्व णिरुवलेवे वरवारण-तुल्ल-विकम-विलसिय-गई गय-सलण-सुजाय-सन्निभोरू वन इव वलित =क्षाम -कृश, मध्य =मध्यभागो यस्य स तथा, 'पमुइय-वरतुरगसीह-चर-चहिय-कडी' प्रमुदित-चरतुरग-सिंहवर-वर्तित कटि -प्रमुदितस्य रोगादिरहिततया प्रमन्नस्य, वरतुरगस्य-श्रेष्टहयस्य, ताशस्य सिंहस्य चेत्र वग=श्रेष्ठा वर्तितावर्तुला, कटिर्यस्य स तथा, 'वर-तुरग-सुजाय-गुज्झ-देसे' वर तुरग-सुजात-गुह्यदेश -- वरस्य श्रेष्ठस्य अश्वस्येव सुजात -मुन्दरो गुह्यदेशो यस्य स तथा। 'आइण्णहउन्च णिरुवलेवे' आकर्णिहय इव निरपलेप -आकीर्ण =पुलक्षणयुक्त उत्तम-जातीयो यो ह्य =अच, स इव निरपलेप =निर्गत उपलेपात्-मलिनसम्पर्कात् इति निरपठेप -निर्मल इत्यर्थ । 'वर चारण-तुल्ल-विषम-विलसिय-गई' वर-वारण-तुन्य-विक्रम-विलसितगति -वरवारणस्य श्रेष्ठगजस्य तुन्य =ममान विक्रम =पगक्रम , तथा तत्तुच्या विलमिताचरणसचरणग्णनरहिता गतिर्गमन यस्य स , गजेन्द्रवदतुलरलगाली ललितगमनशीलश्चेति मावः । 'गय-ससण-सुजाय-सनिमोरू' गज-श्वसन-सुजात-सन्निभोरु -गजश्वसनस्यहस्तिशुण्डादण्डस्य सुजातस्य सुष्ठत्पन्नस्य हस्तिश्वसनस्यैव सन्निभौ-सदृगौ खड्गमुष्टि के मध्यभाग समान और ब्रजके मध्यभाग समान पतला था । तथा (पमुइय-चरतुरग-सीहरर-वट्टिय-कडी) कटिप्रदेश रोगादिकरहित होने से प्रसन्न श्रेष्ठ घोडे के समान और सिंह के समान गोल था। (वर-तुरग-मुजाय-गुज्झ-देसे) गुह्य प्रदेश सुन्दर घोडे के गुह्य प्रदेश के समान था। (आइण्णहउच्च णिरुषलेवे) आकीर्ण जातीय घोडेके गुह्य प्रदेश के समान भगवानका गुह्य प्रदेश निरुपलेप था। तथा (वर-वारण-तल्ल-विकम-विलसियलाई) भगवानका पराक्रम उत्तम हाथी के समान था, तथा उनकी गति भी उसीके समान सुन्दर थी। (गय-ससण-जाय-सनिभोस)हस्तिशुण्डा મુઠીના મધ્યભાગ છે અને વજીના મધ્યભાગ જેવો પાતળો હોં તથા (पमुइय-चरतुरग-सीह-चर-पट्टिय-कडी) टिंप्रदेश २ माहिथी रहित पाथा प्रसन्न श्रेष्ठ घोरानी पेठे सने सिडनी पे गो हतो (वरतुरग-सुजाय-गुज्झ-देसे) गुहेश सु४२ घोसना गुबप्रशना नवा उत। (आइण्णहउव्य णिरुपलेवे ) Alf-पान घोडाना शुह्यप्रदेशना । सागपानना गुह्यप्रदेश नि३५५ तो तया (वर-वारण-तुल्ल-विषम-विलसिय-गई) ભગવાનનું પરાક્રમ ઉત્તમ હાથીના જેવું હતું, તથા તેમની ચાલ પણ તેના Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ औपपातिकसूत्रे समुग्ग- णिमग्ग- गूढ - जाणू एणी - कुरुविंदा चत्त-बट्टा - णुपुत्र-जंघे संठिय-सुसिलिट - विसिह - गूढगुल्फे सुपट्टिय कुम्म चारु-चलणे एणी-कुर विन्द ऊरू यस्य स तथा, सुन्दर - गजशुण्डादण्डसदृशोहयुगल वानिति भाग, 'समुग्गणिमग्ग गूढ - जाणू समुद्ग-निमग्न- गूढ जानु समुद्ग - सम्पुटक-तम्योपतिनाथस्तनरूपयोर्भागयो संधिवत् निमग्नगूढे = अश्यन्तावृते मामपुटे इत्यर्थ, तादृशे जानुनी 'घटना' इति प्रसिद्धे यस्य स तथा, उपचित नाददृश्यमान जान्वस्थिक इत्यर्थ । ' एणी - कुरुविंदावत्त- वहा - णुपुन्न- जघे' वर्न वृत्तानुपूर्व्यजएण्या - हरिण्या इव कुरुविन्द - तृणविशेष, वनै = यूनलनक च, ते इव च वृत्ते - वर्तुले, आनुपूर्व्येण तनुरूपे जो यस्य तथा यद्वा-पणी - कुरुविन्दावर्त्त वृत्तानुपूर्व्यजङ्घ – इति छाया, तन – एण्या इव कुरुविन्दावर्त्त = भूषणविशेष इव च वृत्ते = वर्तुले आनुपूर्येण तनुस्वरूपे जङ्घे यस्य स तथा, 'सठिय-मुसिलिट्ठ - विसिद्ध - गूढ गुप्फे' सस्थित - सुश्लिष्ट-विशिष्ट—गूढगुल्फ -सस्थितौ -मुसस्थानवन्ती, स सुलिप्टोदण्ड के समान उन प्रभुकी दोना जघाऍ थीं । (समुग्ग-निमग्ग- गूढ-जाणू) डिब्बे के समान प्रभुके घुटने गुप्तढकनी से युक्त एवं अन्तर रहित होनेसे सुन्दर थे । अर्थात् उपचित होनेसे प्रभुके जानु की अस्थियाँ दृष्टिगोचर नहीं होती थीं । (एणी - कुरुविंदा - वत्त- वट्टा - णुपुव्व - जघे) एणी - हिरणी की जङ्घा समान, तथा कुरुविन्द-तृणविशेष और डोरी के बलके समान अथवा कुरुविन्दावर्त्त नामक भूषणके समान गोल पतली - ऊपर से मोटी नीचे की ओर उतरतीं २ पतली प्रभुकी दोनो जघाऍ थीं । (सठिय-मुसिलिट्ठ - विसिद्ध - गूढ - गुप्फे ) शोभन आकारयुक्त, अच्छी હસ્તિશુ ડાદ ડના જેવીજ સુદર હતી ( गय ससण-सुजाय - सन्निभोरु ) (हाथीना सूढ़ना) नेवी ते प्रभुनी भन्ने धाम हुती ( समुमा - णिममा गूढ " जाणू) उमानी पेठे असुना घुटशो गुप्त ઢાકણવાળા તેમજ અત્તર રહિત હાંવાથી સુદર હતા, અર્થાત્ ઉચિત હેાવાથી પ્રભુના ઘુંટણુના હાડકા हेमाता नडुता (एणी कुरुविंदा--वत्त वट्टा-णुपुव्व--जये) मेली - हिरलीनी , समान, तथा मु३वि तृणुविशेष, भने होरीनी पक्ष समान, अथवा વિન્હાય નામક ભૂષણ સમાન ગેાળ પાતળી ઉપરથી જાડી તેમજ નીચેની તરફ ઉતરતી ઉતરતી પાતળી પ્રભુની બન્ને धाओ हुती ( सठिय-सुसि लिट्ठ विसिटू - गूढ गुप्फे ) शोलायमान भाअश्वाजा, सारी रीते भणेसा तेभन् धा ३ / 3 - Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूपयर्पिणी-टीका स् १६ भगव-महावीरम्यामियर्णनम् अणुपुव्व-सुसंहयं-गुलीए उपणय-तणुतंव-णिद्ध-णक्खे रत्तुप्पलपत्त-मउय-सुकुमाल-कोमल-तले नग-नगर-मगर-सागर-चकमुमिलितो, गढी-मासल वातदृन्यौ गुन्फो यन्य स तया, पुष्टतया तिरोहितगुन्फ । 'मुप्पटट्ठिय-कुम्म-चरुचलणे' मुप्रतिष्ठित-कृर्गचारु-जग्ण -सुप्रतिष्ठितौ शोभनरूपेण स्थिती, कर्मवत्-कच्छपरन् चार मुन्दरी चग्गी यस्य स तथा, सकोचिताक पपृष्ठयचरणवानिति भाव । 'अणुपुत्र-मुसहय-गुलीए' आनुपूर्व्य-सु-हताऽङ्गुलोक -आनुव्यंग-क्रमेण हीयमाना वर्द्धमाना वा, तथा सुमहता -पिभिन्ना अपि ममिलिता अगुल्य =चरगानुन्यो यस्य स तथा, 'उण्णय-तणु-ता-णिद्धणरखे' उनत-तनुताम्र-स्निग्ध-नस -समुन्नत-प्रतल-रक्तचित्रण-नस-युक्त इयर्थ, 'रतुप्पल-पत्त-मउय-मुरुमाल-कोमल-तले' रक्तोपल-पर मृदुक-सुकुमार-कोमलतल रक्तकमलदल्यदनिकोमलारणवर्णचरणतलपानि यर्थ । 'नग-नगर-मगर-सागर-चकावरगमगल-किय-चलणे नग-नगर-मकर-सागर-चकाइ-बराद-मगलाहित-चरण ,तन-नग =पर्वत , रोति से मिलित एव गृढ-मासल-पुष्ट होनेसे अन्य ऐसे प्रभुके दोनों पैरोंके गुल्फ ये । (मुप्पइद्विय-कुम्म चारु-चलणे) प्रभुके पार सकुच कर बैठे हुए कच्छ के समान मुन्दर ये । (अणुपुत्र-सुसहय-गुलीए) अनुक्रमसे उचित आकाररयाली एव भिन्न २ होने पर भी परस्पर मे समिलित प्रभुके चरणोकी अगुलिया थीं। (उभय-तणु-तर-गिद्ध-णस्खे) समुन्नत, प्रतल, रक्त एव चिक्कग प्रभुके नस थे । (रत्तुप्पल-पत्त-मउय-सुकुमाल-कोमल-तले) रक्तकमलके दलके समान अति कोमल लालपर्णके प्रभुके चरणोंके तले ये । (नग-नगर-मगर-सागरचक क-परग-मगल-फिय-चलणे) नग-पर्वत, नगर-पुर, मकर-जलचरजीवविशेप, ગૂઢ માલ પુષ્ટ હોવાથી ન દેખાય એવા પ્રભુના બન્ને પગના ગોઠણો હતા (सुप्पइट्ठिय कुम्म-चार चलणे) प्रमुनी ५॥ मन्याईन डेमा अयमानी 8 सुह२ हता (अणुपुच सुसह्य गुलीए) मनुभयो लयित माजावाजी તેમજ જુદી જુદી હોવા છતા પણ પરસ્પરમાં જોડાએલી પ્રભુના ચરણેની स्या हुती (उन्नय तणु तर -णिद्ध-णखे) समुन्नत, प्रता, साद तभ 26 प्रसुना न उता (रत्तुप्पल पत्त-मउय-सुकुमाल- कोमल तले), રક્ત કમલના દલના જેવા અતિશય કમળ લાલ વર્ણના પ્રભુના ચરણેના Atul ता (नग-नगर-मगर-सागर- चक वरग-मगल-किय-चलणे ) નગ પર્વત, નગરપુર, મકર-જલચર જીવ વિશેષ, સાગર-સમુદ્ર અને ચક Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकत्रे वरंग-मंगलं- किय-चलणे विसिहरुवे हुयवह- निद्धूम-जलिय - तडितडिय तरुण-रवि-किरण - सरिस - तेए अणासवे अममे अकिंचणे १०० नगर-पुर, मकर = जलचरजीविशेष, सागर = समुद्र, चक-प्रसिद्धम्, एतान्येव अङ्कालक्षणानि, तथा वराङ्गाथ==शुभसूचकस्वस्तिकादिलक्षणानि, मङ्गल शुभलक्षणविशेषथ, तैरलङ्कृतौ मुशोभितौ चरणो यस्य स तथा नगनगरमकरादिचिह्न – स्वस्तिका - दिचिह्न मङ्गलचिहरूप-शुभलक्षणसुशोभितचरणयुगवानिति भाव । 'विसिगुरूचे' विशिरूप-अतिसुन्दर, 'हुयत्रह- निद्धम- जळिय तडितडिय तरुण-रवि-किरण-सरिस तेए' हुतवह निर्धूम - ज्वलित - तडितडि तरुग - रवि-किरण सदृग तेजस्क, हुतवहनिद्भूमज्वलितस्य=अग्नेर्निर्धूमज्वालाया, तडितडित - धारावाहिकतया पुन पुनर्विद्योतितविद्युत तथा तरुण रविकिरणाना --सदृश= समान तेज -दीप्तिर्यस्य स तथा, अणासवे > अनासव -- अविद्यमाना आस्रवा यस्य स तथा, कर्मागमरहित इत्यर्थ, 'अममे' अमम ममत्वरहित 'अकिंचणे' अश्विन -नास्ति 6 - AL = सागर-समुद्र और चक्र इनके शुभ चिह्नों से, स्वस्तिकादि शुभ चिह्नों से तथा मङ्गल नामक शुभ चिनसे सुशोभित प्रभुके दोनों चरण थे । (विसिट्टरूपे) प्रभुका रूप विशिष्ट - असाधारण अर्थात् अनुपम था । (हुयत्रय - पिडूम- जलिय - तडितडिय तरुण-रवि-किरण सरिस - तेए) निर्धूम अग्नि के समान, बार बार चमकली हुई बिजला के समान तथा मध्याहृनकालिक रविकिरणों के समान प्रभुका तेज था । (अणासवे) नवीन कर्मोंके आस्रवसे प्रभु सर्वथा रहित थे । ( अममे ) प्रभुके किसी भी पर पदार्थमे ममत्व नहीं था । (अचिणे) प्रभु अकिंचन-परिग्रहरहित थे । (छिन्नसोए) भगवानन अपनी भवपरम्पराको नष्ट कर दिया था । એના જીભ ચિહ્નોથી-સ્તિદિ શુભચિહ્નોથી, તથા મ ગળનામક ચિહ્નથી सुशोलित प्रभुना भन्ने यर हुता (विसिटुरूचे) प्रभुनु ३५ विशिष्ट असाधा २ अर्थात् अनुपम तु ( हुयवह णिडूम जलिय तडि तडिय नरुण रवि - किरण- सरिस तेए) घुभाडा वगरना अग्निना वु, वारपार गणती विनહીના જેવુ તથા મધ્યાહ્ન કાળના સૂર્યના કિરણે! જેવુ પ્રભુતુ તેજ હતુ (अणासवे) नवीन दर्भाना यासवथी अलु सर्वथा रहित हुना ( अममे ) असुन अप पर यहार्थमा भभत्व नहोतु (अकिंचणे) अलु अभिव्य-परि शुद्ध वगरना उता ( जिन्नसोए ) लगवाने पोताना लवपर परानो नाथ वरी 7 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषषर्षिणी-टीका व १६ भगवन्महावीरस्वामिवर्णनम छिन्नसोए निरुलेवे ववगय-पेम-राग-दोस- मोहे निग्गंथस्स पवयणस्स देसए सत्यनायगे पट्टावए समणगपई समणग १०१ किश्चन यस्य स तथा, परिग्रहप्रन्थिरहित । 'छिन्नसोए ' टिनस्रोता -निवर्तितभवप्रवाह, 'निरुवलेवे' निरुपलेप - उपलेपो - मालिन्य, तद् द्विविध द्रव्यरूप भावरूपञ्च, तादृशाद् द्विविधादुपलेपात्-निर्गतो निरुपलेप, द्रव्यतो निर्मलगरीर, भावत कर्मवन्धहतुभूतोपलेपरहित । पूर्वोक्तमेवार्थ विशेषत स्पष्टयनाऽऽह 'ववगय-पेम-राग-दोस- मोहे ' व्यपगतप्रेमरागद्वेपमोहः- प्रेम च रागथे द्वेपथ मोहथेति प्रेमरागद्वेपमोहा, प्रेम-आसक्तिलक्षणम्, राग - विषयेषु अनुरागरूप, द्वेष - अप्रीतिरूप मोह - अज्ञानरूप, एते प्रेमादयो व्यपगता - विनष्टा यस्य स तथा, 'निग्गयस्स पवयणस्स देसए ' निर्मन्थस्य प्रवचनस्य देशक-निर्मन्यस्य निर्गत प्रत्याद् द्रव्यत सुवर्णादिरूपार, भावतो मिथ्याचादिलक्षणात् निर्मन्थ तस्य निर्मन्यस्य, प्रवचनस्य - प्रकर्षेण - उच्यते--परमकल्याणाय कथ्यते इति प्रवचनम् - तस्य प्रवचनस्य देशक -उपदेशक - निरारम्भ- निष्परिग्रह- धर्मोपदेश इति भाव । ' सत्यनायगे ' सार्थनायकः - सार्थस्यमोक्षप्रस्थितमव्यसमृहस्य, नेता - स्वामी यर्थ 'पइट्ठावए ' प्रतिष्ठापक - श्रुतचारिनलक्षणधर्ममस्थापक । ' समणगपई' श्रमणकपति - श्राम्यति = सोसाह 6 कर्मनिर्जरार्थं (fread) द्रव्य एव भाव रूप दोनों प्रकारकी मलिनता से प्रभु इसी बात को पुन विशेष रूपसे इन विशेषणों से पेम-राग-दोस- मोहे) भगवानने अपनी आत्मा से कर दिया था । ( णिग्गथरस पत्रयणस्स देस) प्रभु निर्प्रन्ध सूत्रकार स्पष्ट प्रेम, राग द्वेष थे । (सत्थणायगे) मोक्षकी ओर प्रस्थित भन्यसमूहक भगवान नेता थे । ( पड़grar) raatva धर्मके प्रभु स्थापक थे । (समणगपई) भगवान् तप एव दीघा तो ( णिरुवलेवे ) द्रव्य तेभन लाव३य भन्ने प्रहारनी भसिनताथी પ્રભુ વર્જિત હતા આ વાતને ફરીને વિશેષ રૂપથી તેમના અ ગેટના વિશેષષ્ણેાથી સૂત્રકાર स्पष्ट ४२ छे ( ववगय पेम -राग-दोस मोहे ) लगवाने પેાતાના આત્મામાંથી પ્રેમ, રાગ, દ્વેષ તેમજ મેાહુના નાશ કર્યાં હતા ( णिग्गथस्स पवयणस्स देसए) प्रभु ( सत्यणायगे ) भोक्षना तर३ बजेसा ( पइसावए ) श्रुत शास्त्रिय धर्मना निर्भन्थ પ્રવચનના ઉપદેશક હતા अव्ययभूना लगवान नेता अलु सस्थापक इता ( समणगपई ) હેતા वर्जित थे । करते है - (ववगय एव मोहको नष्ट प्रवचनके उपदेशक Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओपपातिकसूत्रे विंद-परियढिए चउतीस-बुद्धा-इसेस-पत्ते, पणतीस-सञ्चवयणाश्रम कुर्वन्ति तप--स्वाध्यायादिपु इनि अमगा --त एव श्रमगका , तेषा पति - चतुर्विधसदाधिपतिरिति भाव , 'समणग-विंद-परियढिए' श्रम गम-वृन्द-परिगर्दकश्रमणकाना चतुर्विधाना, वृन्द-सम-तस्य परिवईक-निकारी । अथवा ' परिया' पर्यटक -अप्रेसर, यद्वा पयायक-नै परिपूर्ण । 'चउत्तीस-युद्धाइमेस पत्ते' चतुस्लिंगद्-चुदातिरोप-प्राप्त =चतुर्मिगत्-चतुलिंग-रयका ये बुदाना तीर्थकरागाम् अतिशेषा -अतिशया तान् प्राप्त , तर-अमृद्धिस्वभावक केगश्मश्रुगेमनग्ममिति प्रथमोऽतिशय , अन्येऽप्यतिगया समवायाङ्गसूत्रेऽभिहितास्ततोऽवगन्तत्र्या । 'पणतीस--सचरयणा:सेस-पत्ते' पञ्चत्रिंशसत्यवचनाऽतिगेपप्रान -पञ्चरिंग सरयका ये सयवचनस्य अतिशेपा -अतिगया तान् प्राप्त , अथात् पञ्चरिंगवाणीगुणयुक्त इति भाव । पञ्चविंशद्वाणीगुणा आचारागसूत्रस्य मत्कृताऽऽचारचि तामगिर्टीकाया प्रथमाध्ययने स्वाध्याय आदि क्रियाओमे कर्मनिर्जराके लिये परिश्रम करनेवाले श्रमणों के स्वामी ये। (समणग-बिंद-परि यडिए) चतुर्विध पिके घे प्रभु बर्द्धक थे । अथवा उसके अग्रेसर या उससे परिपूर्ण थे । (चउत्तीस युद्धाइसेस-पत्ते) तीर्थकरोंके चौतीस अतिगयोंसे प्रभु विराजमान थे। इनमे नग, केश एव श्मश्रु-दाढी-उका नहीं बढना यह पहला अतिशय है, अवशिष्ट अतिशय समवायाग सूत्र से जान लेना चाहिये । ' (पणतीस सञ्चवयणा-दसेस-पत्ते) वागाके पैतास गुणों से प्रभु युक्त थे । ३५वाणीगुणरूप अतिशय आचाराग सूत्रके प्रथम अध्ययनकी आचारचितामगि टीका मे कहे हैं, अत वहा से जान लेना चाहिये । (आगासगएण चक्वेग) आकाशगत ભગવાન તપ તેમજ સ્વાધ્યાય આદિ નિયાઓમાં કમનિજેરાને માટે પર श्रम ४२वा श्रमशोना स्वाभी छत (समणग विद परियड्ढिए) यतु વિધ સંઘના તે પ્રભુ વિદ્ધક હતા અથવા તેના અગ્રેસર છે તેનાથી પરિ पूर्णता (चउत्तीसबुद्वा इसेसपत्ते) तीथशन यात्रीस गतिशयोथी प्रभु બિરાજમાન હતા તેમાં નખ કેશ તેમજ મચ્છુ-દાઢી મૂછનુ ન વધવું એ પહેલે અતિશય છે, બાકીના અતિશય સમવાયાગ સૂત્રથી જાણી લેવા न (पणतीस सन्च रयणाइसेस-पत्ते ) पाणीना पात्रीस सुशोथी प्रभु યુક્ત હતા ૩૫ વાણી ગુણરૂપ અતિશય આચારાગ સૂત્રના પ્રથમ અધ્ય નની આચાર ચિતામણિ ટીકામાં કહેલા છે, એટલે ત્યાથી તે જાણી લેવા Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३ - _पीयूपयपिणी-टीका स् १६ भगयन्महायोरसामियर्णनम् इसेस-पत्ते आगासगएणं,चवणं आगामगएणं छत्तेणं आगासमियाहिं चामराहि आगामगएणं फालियामएणं सपायवीडेणं सीहासणेण धम्मज्झएणं पुरओ पकढिजमाणेणं चउदसहि समणसाहस्सीहि छत्तीसाए अजियासाहस्सीहि सद्धि संपडिबुडे याग्याता , 'आगासगएण चवेग' आकागगनेन चक्रेग । 'आगासगएणउत्तेण' आकागगतन ओण। 'नागाममियाहिं' आकाशमिताभ्या प्राप्ता-या, 'चामराहि' चामगभ्यान-मनिगरप्रभागाचमादिभिम्परक्षित दति भार | 'आगासगएण फलिनामएण' आकाागतेन म्फटिकमन-आकाशस्थितेन स्फटिकनिर्मितेन 'सपायवीढण' साढपीठन-पादम्यापनपीठमहितेन 'सीहासणेण' सिंहामनेन, 'यम्मझएण' धर्मध्वजन, 'पुरो' पुरत -अग्रत , ' पढिन्नमाणेण ' अतिशयमहिम्ना प्रकटयमानन 'चउमहिं समणसाहस्सीहिं ' चतुर्दशभि -अमगसाहस्रीमि श्रमगाना चतुर्दशमहढे 'उत्तीसाए पनियासाहस्सीहि ' पट्त्रिंशता आर्यिकासाहस्रामि -आयिकाणा पटरिंगसही 'सर्द्धि' सा-मह । 'सपडितुडे' मम्परिमृत - चकसे, (आगासगरण उत्तेण) आकाशगत रा से (आगासमियाहि चामराहि) आकाशगत चामर्ग से वे प्रभु उपलक्षित थे। (आगासगएण फलियामएण सपायवीटेण - मीहासणेण धम्मज्झएण पुरओ पफढिजमाणेण) आकागगत, स्फटिकमय एव पादपाठसहित ऐसे सिंहासन से एव अतिशय का महिमा से प्रकटित और आग २ चलनवाले ऐसे धर्मध्वजा से युक्त, तथा-(चउन्सहिं समगसाहस्सीहि उत्तीसाए अज्जियासाहस्सीहिं सद्धि सपरिवुढे) १४ हजार अमणों के, एव ने (आगासगएण चक्केण ) मागत यया ( आगासगएणं छत्तण) PAISA छत्राथी (आगासमियाहिं चामराहिं ) मागत यामशथी त प्रभु सक्षित (Sudi) छत (आगामगएण फल्यिामएण सपायपीढेण सीहा मणेण धम्मज्झएण पुरओ पढिञ्जमाणेण ] मात, टिमय तमा પાપીઠ નહિત એવા સિંહાસનથી તેમજ અતિશયની મહિમાથી પ્રગટિત भने २मा मा यासन अवा तथा युत [चदसहि समणसा हम्मोहिं उत्तीमाए अस्जियामाहम्मीहिं मद्धिं सपरिसुडे ] १४ श्रमाना तभना 'ત્રીસહજાર આર્થીઓના પáિારથી યુક્ત ભગવાન શ્રી મહાવીર પ્રભુ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औषपातिकब पुव्याणुपुत्रि चरमाणे गामाणुग्गामं दूइजमाणे सुहंसुहेणं विहरमाणे चंपाए णयरीए वहिया उवणगरग्गामं उवागऍ चंप नगरि पुण्णभदं चेइयं समोसरिउकामे ॥ सू० १६ ॥ १०४ भगवान् श्रीमहावीर, पुत्राणुपुत्र' पूर्वानुपूर्व्या-तीर्थकर परिपाट्या - तीर्थङ्गरपरम्परया । ' चरमाणे ' चरन् - विहरन्, 4 गामाणुग्गाम' ग्रामानुप्रामम् एकस्माद् ग्रामाद् ग्रामान्तरम्, 'दुइज्जमाणे ' द्रवन्- गच्छन् एकस्माद् ग्रामादनन्तर ग्राममनुलधयन्नित्यर्थ, 'सुहसुण ' सुरासुखेन-नयमचाधारहितेन, ' विहरमाणे ' विहरन् - अप्रतिनद्धविहार कुर्वन्, 'चपाए नयरीए ' चम्पाया नगर्या, ' बहिया' बहि 6 उगगरग्गाम ' उपनगरग्रामम् नगरसमीपवर्त्तिन ग्रामम् । उत्रागए ' उपागत -समवमृत, किमर्थमुपागत इत्याह- ' चप गयरिं ' चम्पाया--चम्पानाम्या नगर्यां ' पुण्णभद्द वेश्य समोस रिकामे ' पूर्णभद्र = पूर्णमदनामक चैत्यम् = उद्यान समबसर्तुकाम - आगन्तुकाम सन् उपागत इति सम्बन्ध ॥ सू०१६ ॥ " " उत्तीसहजार आर्यिकाओं के परिवार से युक्त भगवान् श्रीमहावीर प्रभु (पुन्त्राणुपुत्रि चरमाणे ) तीर्थंकरों की परपरा के अनुसार विहार करते हुए ( गामाणुग्गामं दूइज्माणे ) एकप्राम से दूसरे ग्राम पधारते हुए ( सुहसुद्देण विहरमाणे ) सुख सुख से विचरते हुए (चपाए णयरीए वहिया उवणगरग्गाम उवागए ) चपानगरी के बाहरभाग की ओर स्थित, परन्तु वहा से बहुत दूर नहीं, किन्तु थोडी दूर पर रहे हुए ऐसे ग्राम में पधारे, यहा आने का कारण उनका यह था कि प्रभु (चप यरिं पुण्णभद चेश्य समोसरिउकामे) चपानगरी के पूर्णभद्र नामक उद्यान में पधारनेवाले थे ॥ सू० १६ ॥ (पुव्याणुपवि चरमाणे ) तीर्थ ४रोनी पर पराने अनुसरीने विहार पुश्ता ४२ता (गामाणुग्गाम दूइज्जमाणे ) ४ ગામથી બીજે ગામ પધારતા ( सुहसुहेण विहरमाणे ) सुभ सुभेयी वियरता ( चपाए जयरीए बहिया उबनगरग्गाम उवागए ) थपा नगरीनी महारना लाग तर परंतु मेनाथी जहु ક્રૂર નહિ પણ જરા દૂર આવેલા એવા ગામમા પધાર્યા અહીં આવવાનુ अरणु तेभने मे हुतु दे ते प्रभु ( चप णयरिं पुण्णभद्द चय समोसरिकामे) ચંપાનાીતા પૂર્ણભદ્ર નામના ઉદ્યાનમાં પધારવાવાળા હતા [સ ૧૬] Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूपवर्षिणो- दीका व १७ प्रवृत्तिव्यापृतस्य कूणिकरामसमीपगमनम् १०५ मुपागत तदनन्तर- तपश्चात, से मूलम् - तए णं से पवित्तिवाउए इमीसे कहाए लट्टे समाणे हट्ट तुट्ट-चित्त-माणंदिए -चित्त-माणंदिए पोइमणे परमसोमणस्सिए टीका- 'तए ण' इयादि तत यल-यदा भगवान् - चम्पानगरीसमीपग्राम - पवित्तिवाउए ' म प्रवृत्तित्र्यापृत = स पूर्वोक्त - भगवद्यार्त्ताऽऽनयन नियुक्त इमीसे कहाए ' अस्था कथाया 'लट्ठे समाणे ' लम्धार्थ सन्-ज्ञातभगवदागमनवृत्तान्त सन्, 'हट्ट तुदु-चित्त-माणदिए ' दृष्ट-तुष्ट-चित्ता-नन्दित - दृष्टतुष्ट अतितुष्टम्, यद्वा दृट - हर्पितम् तुष्टम् प्राप्तसन्तोपतादृश चित्त यस्य स दृष्टतुष्टचित्त, अत एव आनन्दित = आनन्द प्राप्त सजातमानसोल्लास इत्यर्थ । सुने 'चित्तमाणदिए ' इत्यत्र मकार प्राकृतत्वात् । 'पीइमणे ' प्रीतिमना - प्रीति -तृमिर्मनसि यस्य स प्रीतिमना - तृप्तमानस | 'परमसोमण स्सिए ' परमसौमनस्थित - परमम्-उत्कृष्ट च तत् सौमनस्य प्रसन्नचित्तता चेति परमसौमनस्य तदस्य सजात परमसौमनस्थित परमानुरागपूर्णमनस्क ' ' 'तर ण से पवित्तिवाउए ' इत्यादि ( तए ण ) जव भगवान् चपानगरी के समीपवर्ती ग्राम में पधारे तब ( से पत्रित्तिवाउए ) भगवान की वार्ता के लाने के लिये नियुक्त किया हुआ वह पुरुष ( इमीसे कहाए ) इस समाचार को ( लद्धडे समाणे ) जानकर कि भगवान् चपानगरी के समीपवर्ता ग्राम में आकर विराजमान हो चुके है, ( हट्ट तुटुचित्त - माणदिए ) इससे उसके चित्त म अत्यन्त हर्ष और सन्तोष हुआ । अत वह अत्यन्त आनंदित हुआ, ( पीइमणे ) मन मे प्रेम छा गया, (परमसोमणस्सिए) अयत अनुराग से उसका मन भर गया ( हरिस - वस - विसप्पमाण - हियए) अपार " 'तए ण से पवित्तिवाउए' इत्याहि (तए ण) न्यारे भगवान य पानगरीना सभीपवर्ती गाममा पधार्या त्यारे ( से पवितिनाउए ) भगवाननी वार्ता- समाचार सह वा भाटे निभायेला ते ३ ( इमी से कहाए ) थे सभायारने (लट्टे समाणे ) लएया है लगवान ચ પાનગરીના સમીપવતી ગામમાં આવીને બિરાજમાન થઇ ચૂકયા છે, ( हट्ट तुट्ठ चित्त माणदिए ) साथी तेना भनभा अत्यंत હું અને સતાષ थयो भने तेथी ते महु आनह पाभ्यो, ( पीइमणे ) मनमा प्रेम छवाई गयो, (परम सोमण स्सिए) अत्यंत अनुरागथी तेनु મન ભરાઈ ગયુ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ औपपातिकस 1 - , हरिस-वस- विसप्पमाण-हियए हाए कयवलिकम्मे कय- कोउयमंगल- पायच्छित्ते सुद्धप्पवेसाई मंगलाई वत्थाई पवर परिहिए अप्प-महग्घा-भरणा-लंकिय- सरीरे सयाओ गिहाओ पडिणिक्ख'हरिस-वस-विसप्पमाण- हियए' हर्ष-यश- निसर्प हृदय हर्पवशन विसर्पत्-परित उच्छलद हृदय यस्य स तथा भगवदर्शनादमन्दानन्दतरङ्ग समुच्छलितचित्त इत्यर्थ । " व्हाए ' स्नात - कृतस्नान, ' कयपलिकम्मे ' कृतनलिकर्मा - स्नाने कृते पशुपस्यापर्थं कृतान्नभाग ' कय- कोउय-मंगल-पायच्छित्ते ' कृत-कौतुकमङ्गल- प्रायश्चित्त - कृतानि कौतुकमङ्गलान्येव प्रायश्चित्तानि -दु स्वप्नादिविघातार्थमवश्यकरणीयत्वात् येन स तथा, तत्र कौतुकानि =मपीतिलकादीनि मङ्गलानि तु सिद्धार्थदध्यक्षतादीनि । 'सुद्धप्पवेसाई' शुद्धप्रवेश्यानि - शुद्धानि प्रक्षालितत्वात् निर्मलानि, प्रवेश्यानि राजसभाप्रवेशाऽऽर्हाणि - राजसभायोग्यानि 'मगलाइ ' मङ्गलानि - मङ्गलकारकाणि, 'वत्थाइ' वस्त्राणि - विविधरूपप्रकाराणि – 'पत्रर'-प्रवराणि - मूल्यतो महार्घाणि, रूपत उज्ज्वलानि मृदूनि सान्द्राणि च, प्राकृतत्वाद् निमक्तेर्लोप, 'परिहिए ' परिहित गरारे यथास्थान योजित | 4 'अप्प - महग्घा भरणा-लकियसरीरे ' अल्प-महार्घा भरणा - डलकृत - शरीर - अल्पानि= हर्ष से उसका हृदय उछलने लगा। फिर उसने कोणिक राजा के पास जाने की तैयारी की। उसने ( हाए ) स्नान किया, ( कयवलिकम्मे ) पश्चात् पशुपक्षी आदि के लिये अन्न का विभागरूप बलिकर्म किया, ( कय- कोउय-मगल- पायच्छिते ) दुस्वप्नादि निवारण के लिए मपीतिलकादि किये और दही अक्षतादि धारण किये । (सुद्धप्पवेसाइ मगलाई वत्थाइ पवर परिहिए ) पश्चात् उसने स्वच्छ, राजसभा में जाने योग्य, मागलिक, बहुमूल्य, तथा रूप से उज्ज्वल वस्त्रों को धारण किये । (अप्प - महग्घा - भरणा - लकिय - सरीरे ) वस्त्र पहिर चुकने के अनन्तर फिर उस ( हरिस यस विसप्पमाण हियए) यही तेथे अशिड रामनी पासे , ( कयबलिकम्मे ) पछी पशु जलिर्भ ( कय - कोउय-मगल - पायच्छित्ते ) हु स्वप्नाहि રણને માટે મષી-તિલક અાદિ કર્યા અને દહી અક્ષત આદિ ધારણ કર્યા (सुद्धप्पवेसाइ मगलाइ बत्याइ पवर परिहिए ) भी तेथे स्वच्छ, शन्टसलाभा પહેરી જવા ચાગ્ય, માલિક, બહુમૂલ્ય તથા રૂપથી ઉજ્જવલ વો ધારણ अर्था (अप्प - महग्घा भरणा लकिय सरीरे) वस्त्र पहेरी सीधा पछी तेरो सोछा अपार हर्षथी तेनु हृदय भवानी तैयारी जरी पक्षि याहि ने भाटे तो छजवा साग्यु ( ण्हाप ) स्नान અન્નના વિભાગરૂપ होषना - निवा Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पीयपपिणी-टीका सु १७ प्रवृत्तियापृतस्य कूणिकराजसमीपगमनम १०७ मइ, पडिणिक्वमित्ता चपाए णयरीए मझमझेणं जेणेव कोणियस्स रण्णो गिहे जेणेव वाहिरिया उवहाणसाला जेणेव कूणिए राया भिंभसारपुत्ते तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छि परिमागतो न्यूनानि, महागि-महान् अतिशय --अधमूल्य येपा तानि, आभियन्तै सम्यग् धार्यन्त इयाभरणानि- अलकारा , तैरलकृत गरीर यस्य स तथा, अन्पनहुमूल्यभूषणभूषितदेह इत्यर्थ , 'सयाओ गिहाओ' स्वकार गृहाद्, 'पडिणिक्खमइ' प्रतिनिष्क्राम्यति-निर्गच्छति। 'पडिणिक्खमित्ता' प्रतिनिक्रम्य-निर्गय, 'चपाए णयरीए' चम्पाया नगर्या, 'मज्झमझण' मध्यमध्येन-चतुर्विंगपेक्षमध्यभागेन, 'जेणेव कोणियस्स रण्णो गिहे। यौव कोगिकस्य गनो गृह-भवनम्, 'जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला' यौव बाह्या उपस्थानशाला-आस्थानमण्डप , 'जेणेव कूणिए राया भिंभसारपुत्त' यत्रैर कोणिको राजा भिसारपुत्र , 'तेणेव उवागच्छइ' तत्रैवोपागच्छति, “उवागच्छित्ता' उपागय, 'करयलपरिगहिय' भार से अन्य एव बहुमूल्य आमरण भी गरीर पर धारण किये। इस प्रकार सज-धज कर वह (सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमइ) अपने घर से निकला, (पडिणिक्खमित्ता चपाए णयरीए मझमज्झेण जेणेव कोणियस्स रणो गिहे) घर से निकलकर यह चपानगरी के ठीक मध्य के मार्ग से होकर जहा कोणिक राजा का प्रासाद था, (जेणेव वाहिरिया उवट्ठाणसाला) जहा पर बाहरी उपन्यानगला थी, और (जेणेव कृणिए राया भभसारपुत्ते तेणेव उवागच्छद) उम उपस्थानगाला में, जहाँ भभसार के पुत्र कोणिक राजा बैठे हुए थे, वहा पहुँचा। (उवागच्छित्ता) वहाँ पहुँचते ही सर्वप्रथम उसने (करयलपरिग्गहिये વજનના તેમજ બહુમૂલ્ય આભરણ પણ શરીર ઉપર ધારણ કર્યા આ शार उगन ते (सयाओ गिहाओ पडिणिसमई) पाताने घरथी नीन्यो (पडिणिसमित्ता चपाए गयरीए मज्झमझेण जेणेव कोणियस्स रण्णो જિ) ઘેરથી નીકળીને તે પાનગરીના બરાબર મધ્યભાગમા થઈને જ્ય आyिs aने महेस तो (जेणेच बाहिरिया उबढाणसाला) मने त्या मा ७५स्थान सा नी, तथा (जेणेव कूणिए राया भंभसारपुत्ते तेणेव उपागच्छइ) તે ઉપસ્થાન–શાલામાં જ્યા ભભસારના પુત્ર કોણિક રાજા બેઠા હતા ત્યા पाय। (उयागच्छित्ता) त्या पहायता स प्रथम तेरे (करयलपरिग्गहि Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ - औपपातिक त्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कडे जएणं विजएणं वद्धावेड, वडावित्ता एवं बयासी ॥ सू०१७॥ मूलम्-जस्स णं देवाणुप्पिया दंसणं कंखंति, जस्स करतलपरिगृहीत-करतलेन करतल परिगहीत-परम्पर सशिष्टम् । 'सिरसावत्स' शिरआवर्तम्-गिरसि=शिरसोऽप्रभागे आ-ममताद वर्तते-परिभाम्यति इति गिरआवर्तस्तम् । 'अनलि' समिलिनकम्युगम् । 'मत्थए' मस्तके ललाटदेश, 'कट्ट'-कृवा 'जएण' जयेन-जय =उ कर्पप्रामिरूप तेन-'जय जय महाराज' इति रूपेण, 'विजएण' विजयेन-विशिए प्रचण्डअनुनिग्रहरूपो जयो विजय तेन-अर्थात्-विजयम्व विजयस्व महाराज इति रूपेग 'बद्धावेड' गर्द्धयति-जयेन विजयेन वर्द्धन्वेति वृद्धिकामनाम्पामाशिष प्रयुक्त स्म, वर्द्धयित्वा 'एव चयासी' एव वक्ष्यमाणप्रकारण अवादीत् ॥ सू० १७ ॥ टीका-भगवद्विहारादिवानिवेदक पुस्प कोणिकनृप झिमवादीत् । इत्याह'जस्स ण' इत्यादि, यस्य भगवत श्रीमहावीरस्य गलु-निश्चयेन, हे देवानुप्रिया । 'दसण' दर्शन सबहुमान रूपावलोकन भवन्त 'कखति' काक्षन्तिसिरसावत्त मत्थए अजलि कटु जएण' विजएण बद्धावेड, बद्धावित्ता एव वयामी) दोनों हाथ जोडकर और अञ्जलिरूप मे परिणत उन्हे मस्तक के दॉये-बाये घुमाकर पश्चात् उन्हे मस्तक पर लगाफर अर्थात् नमस्कार कर " जय हो महाराज की, विजय हो महाराज को "-उस प्रकार जय विजय शब्दों द्वारा राजा को बधाया। बधाने के बाद फिर वह इस प्रकार बोला-सू० १७|| 'जस्स ण देवाणुप्पिया' इत्यादि-- (देवाणुप्पिया) हे देवानुप्रिय । (जस्स ण) जिनके सदा आप (दसण करखति) दर्शनों की इच्छा किया करते है (जस्स ण देवाणुपिया य सिरसावत्त मत्थए अजलिं कट्ट जण्ण विजण्ण बद्धावेद बद्धावित्ता एव वयासी) બંને હાથ જોડીને અને તેમને મસ્તકની જમણી અને ડાબી બાજુએ રવીને અ જળિ રૂપમાં પરિણત કરી માથે લગાવીને અર્થાત્ નમસ્કાર કરીને જય હે મહારાજાને, વિજય હે મહારાજાને” એ પ્રકારે જય વિજય શબ્દો દ્વારા રાજાને વધાવ્યા અને વધાવ્યા પછી તે નીચે પ્રમાણે બેલે (સૂ ૧૭) 'जस्स ण देवाणुप्पिया' त्याहि(देवाणुप्पिया 1 ) 3 हेवानुप्रिय । (जस्स ण) मना सह! आप (दसण Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - - - - पीयूषयषिणी-टीका स १८ भगवदुपनगरमामागमनवृत्तान्तनिवेदनम् १०९ णं देवाणुप्पिया दंसणं पीहंति, जस्स णं देवाणुप्पिया दसणं पत्थंति, जस्सणं देवाणुप्पिया दंसणं अभिलसंति, जस्सणं देवाणुअप्राप्त प्राप्तुमिच्छन्ति 'जस्स खलु देवाणुप्पिया दमण पीहति' हे देवानुप्रिया । यस्य भगवत श्रीमहापीरस्य गल दर्गनाय भवन्त म्पृहयन्ति=कदा मे भगवदर्शन भविष्यतीयुत्कण्ठा सतत धरन्ति, प्राप्त सत् पुनम्त परित्यक्तु नेच्छन्तीति भाव । हे देवानुप्रिया । यस्य भगवत गलु 'दसण' दर्शन 'पत्यति' प्रार्थयन्ति-भवन्तो याचन्ते-हे भगवन । भवदर्शनादेव मम जमन सफलता स्याढतो भवन्तश्चग्णपङ्कज दर्शयन्तु-उनि हसि पुन पुन प्रार्थना उर्वन्ति, यद्वा-अस्मत्सदृशेभ्यो जनेभ्य सतत याचन्ते-भगवदर्शन कारयतेति भाव । 'जस्स ण देवाणुप्पिया दसण अभिलसति' यस्य खल्लु देवानुप्रिया दर्शनमभिलप्यन्ति कदाऽह भगासमीपमुपगय तपर्युपासन करिष्यामीयमिलापमन्त करणे उपन्तो भान्त मन्ति। 'जम्स ण देवाणुप्पिया दसणं पीहति) जिनके आप देनानुप्रिय दर्शन करने की सदा स्पृहा रखा करते है-कन मुझे भगवान् के दर्शन हेग इस प्रकार की उकठा निरन्तर किया करते है, (जस्स ण देवाणुप्पिया दसण पत्थति) हे देवानुप्रिय ' जिनके दर्शना की याचना किया करते है, अर्थात्-ह भगवन् । आपके दर्शन से ही मेरा जन्म सफल होगा, इसलिये आप कृपा करके अपने चरणकमल का दर्शन दाजिये, इस प्रकार । एकान्त मे आप बार २ प्रार्थना किया करते है, अथवा-हमारे जैसे लोगों से आप प्रार्थना करते है कि मुझे भगवान का दर्शन कराओ। (जस्स ण देवाणुणिया दसण अभिलसेंति ) हे देवानुप्रिय । आप जिनके दर्शनों की चित्तमें सदा अभिलापा धारण किये रहते हैं कि कब मै प्रभु के चरणोंमें उपस्थित होकर उनकी - कसति) शनी या ४२॥ छ।, (जस्स ण देवाणुप्पिया । दसण पीहति) જેમના આ૫ દર્શન કરવાની મદા નૃહા રાખે છે કે જ્યારે મને ભગવાન नना शन थरी- जानी Great नित२ ४ाउछौ , (जरस ण देवा णुम्पिया । दसण पत्थति) हे देवानुप्रिया मनाशनानी यायना ४ा ४२। છે, અર્થાત્ હે ભગવાન્ ! આપના દર્શનથી જ મારે જન્મ સફલ થશે. એ માટે અપ કૃપા કરીને આપના ચરણ કમલના દર્શન આપશે એ પ્રકારે એકાતમા આપ વાર વાર પ્રાર્થના કર્યા કરે છે, અથવા–અમારા જેવા લોકો પાસે આ૫ પ્રાર્થના ४२। छ। उ भने मनपानना हैशन शो (जस्स ण देवाणुप्पिया । दसण अभिलसति) हेवानुप्रिय। आप नाशनानी भनमा सह। लिलाषा धारस्य Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० anurasa प्पिया नामगोयस्सवि सवणयाए हट्ट - तुट्ट - जाव - हियया भवति, से णं समणे भगवं महावीरे पुव्वाणुपुत्रि चरमाणे गामाणुगामं दूइजमाणे चंपाए णयरीए उवणगरग्गामं उवागए चंप णयरिं पुष्णभदं चेइयं समोसरिउकामे । तं एवं देवाणुप्पियाणं पियट्टयाए पियं णिवेदेमि, पियं ते भवउ ॥ सू० १८ ॥ नामगोयस्सवि सवणयाए हट्ट तुदु-जाब - डियया भवति ' यत्य भगवत वलु हे देवानुप्रिया ! नामगोत्रस्यापि - नाम - ' महावीर ' इति, गोत्र वश काश्यप गोनम् इति तयोरित्यर्थ, श्रवगतया - श्रवणेन इत्यर्थ, स्वार्थिकस्ताप्रत्ययः प्राकृत शैलीप्रभव इति, हृष्ट-तुष्ट-यावत् - हृदया भवन्ति, ' से ण समणे भगव महावीरे' स खलु श्रमणो भगवान् महावीर - अतिगयमहिमान्चित श्रमण - साधु, भगवान् -परमैश्वर्यसम्पन्न महावीर इति अन्वर्थनामा 'पुन्त्राणुपुत्रि चरमाणे गामाणुगाम दूइजमाणे चपाए यरीए उत्रणगरग्गाम उवागए ' पूर्वानुपूर्व्या चरन् ग्रामानुग्राम द्रवन्-चम्पाया नगर्या उपनगरग्राम-नगरसमीपवर्तिन ग्रामम् उपागत -समागत । किमर्थम् अग्राह'चंप णयरिं पुण्णभद्द चेइय समोसरिउकामे ' चम्पा नगरी पूर्णभद्रनामकम् उपासना करूँगा, (जस्स ण देवाणुप्पिया नामगोयस्सवि सन्रणयाए हट्ट -तुजाव - हियया भवति ) हे देवानुप्रिय । जिनका नाम तथा गोत्र- या सुनकर भी • आपका हृदय ह तुष्ट हुआ करता है, (मेण समणे भगव महावीरे) वे श्रमण भगवान् = परमैश्वर्य सम्पन्न, गुगनिष्पन्न नामवाले महावीर (पुन्त्राणुपुर्वित्र चरमाणे 1. गामाणुगाम दूइजमाणे चपाए णयरीए उवणगरग्गाम उवागए ) पूर्वानुपूर्वरूप से विहार करते हुए, एक ग्राम से दूसरे ग्राम में विचरते हुए आज चपा नगरी के समीप ग्राम में पधारे हुए हैं, (चप णयरिं पुण्णभद्द चेइय समोसरिउकामे ) और કર્યા કરી છે કે કયારે હુ પ્રભુના ચરણામા ઉપસ્થિત થઇને તેમની ઉપાસના ४३, ( जस्स णं देवाणुप्पिया । नामगोयस्सवि सवणयाए हट्ठ-तुट्ठ-जाव-हियया भवति ) हे देवानुप्रिय । हेभनु नाम तथा गोत्र-वश सालणीने पशु आयनु हृदय हृष्ट-पुष्ट य लय छे, (से ण समणे भगव महावीरे) ते श्रम लगवान् परमेश्वर्यं स पन्न, गुलुनिष्यन्न नाभवाला भडावीर ( पुव्वाणुपुवि चरमाणे गामाणुगाम दूइज्जमाणे चपाए णयरीए उवणयरग्गामं उवागए ) पूर्वानुपूर्वी ३५थी વિહાર કરતા કરતા એક ગામથી બીજે ગામ વિચરતા વિચરતા આજ य पानगरीनी सभीपना गाभा पधाय छे ( चपं जयरिं पुण्णभद्द चेइय i 2 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषवर्षिणी-टीका सू १९ तवृत्तान्तश्रवणेन कूणिकस्य हर्ष १११ मुलम्-तए णं से कूणिए राया भंभसारपुत्ते तस्स पवित्तिवाउयस्स अंतिए एयम सोचा णिसम्म हह-तु-जाव उयान ममवमर्तुकाम त एवं देवाणुप्पियाण पियट्ठयाए ' तदेव देवानुप्रियागा प्रियार्थनया उन्कण्ठाविषयचाउनुकूलार्थनया, एवम् अमुना प्रकारेग तद् वृत्तम् 'पिय णिवेदेमि' प्रिय-प्रीतिकारक निवेढयामि-मविनय कथयामीति भाव । 'पिय ते भवउ' प्रिय ते मरतु मू० १८॥ टीका-'तए ण से ऋणिए राया मंभसारपुत्ते' इत्यादि । तत = तदनन्तर खल्ल म कृगिको राजा मममारपुत्र 'तस्स पवित्तिवाउयरस अतिए' तस्य प्रवृत्तित्र्यापृतस्य भगवद्विहारनिवेदकम्य पुरुपस्य अन्तिके-समीपेन्तन्मुग्वादिति भाव , 'एयम' तमर्थम्-भगवदागमनरूपम्-'सोचा ध्रुवा-प्रगविषय 'कृवा, "णिसम्म' निगम्य-दृति वा 'हठ्ठन्तुद्ध-जाव-हियए' हा-तुष्ट-यावद्-हृदय हपनिचम्पानगरी के पूर्णमद्रचैय में पधारेंगे, (तं एव देवाणुप्पियाणं पियट्टयाए पिय णिवेटेमि पियं ते भवउ ) इमलिये ह देवानुप्रिय । मै आपको यह प्रिय आमहितकारी समाचार आपके हितके लिये मविनय निवेदन करता है। आपका कन्याण हो ॥ सू० १८॥ ___ 'तए ण से कूणिए राया' इयादि--- (तए णं मे कणिए राया मंमसारपुत्ते) उसके बाद भमसार का पुत्र वह कोगिक राजा (तस्स पवित्तिवाउयस्स अंतिए ) उम सदेशवाहक के मुख से (एयमट्ट सोचा) ' भगवान पार है ' इस कर्णप्रिय समाचार को सुनकर (णिसम्म ) और हृदय मे अच्छी तरह धारण कर (ट्ठ-तुद्ध-जाव-हियए) समोसरिउकामे ) भने य पानगीना पूल थत्यमा पधारशे (त एवं देवागुप्पियाणं पिय णिवेदेमि पिय ते भरउ) माथी पानुप्रिय । आपने આ પ્રિય આત્મહિતકારી સમાચાર આપના હિતને માટે સવિનય નિવેદન ४३ ७ मापनु अत्याधु यायो (स् १८) __ 'तए ण से कूणिए राया' इत्यादि (तए ण से कूणिए राया भंमसारपुत्ते) त्या२५ सालसाना पुत्र आ@ि४ २ (तस्स पवित्तिवाउयस्स अतिए) त मशवानी भुभयो (ण्यम सोचा) भगवान पधार्या से ४५प्रिय समाचार सालजीने (णिसम्म ) अन एयभा भागते धारण २ (ह-तुह-जाव-हियण) Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - औपपातिकबडे हियएधारा-हय-नीव-सुरहि-कुसुमंव चंचुमालइय-उसविय-रोमकूवे वियसिय-वर-कमल-णयण-वयणे पयलिय-वर-कडग-तुडिय केऊरशयेन प्रमुदितहदय , 'धारा हय-नीव-मुरहि-कुसुमव चंचुमालइय-उसविय-रोमकू' धारा-हत-नीप-मुरभि-कुमुममिय रोमावितो-च्छित-रोमकृप, तर-धारामिजलधरजलधाराभि आहत मसिक्त यत्-नीपस्य-कदम्बस्य मुरभि परिमलयुक्त कुसुम-पुष्पम तदिव 'चचुमालइय' इति देशीय शब्द, रोमाञ्चित इत्यर्थ , अतएव-उच्छित --उच्चता गतो रोमकृपोरोमस्थान यस्य स उच्छ्रितरोमकूप , तत पदद्वयस्य कर्मधारय । 'रिमसिय-वर-कमल-णयण-चयणे' रिकसित वर-कमल नयन-बदन -विकसितवरकमलवन्नयनवदन यस्य स तथा, 'पयलिय-वर-कडगतुडिय-केऊर-मउड-कुंडल-हार-विरायत-रइय-बच्छे' प्रचलित-वर कटक-त्रुटित-केयूरमुफुट-कुण्डल हार-विराजमान-रचित-चक्षक -प्रचलितानि-प्रकम्पितानि वर-कटक-त्रुटितकेयूर-मुकुट-कुण्डलानि यस्य स तथा, ताम्बरौ=श्रेष्ठी, कटको वलयो, त्रुटिते. वाहरक्षकभूषणे, केयूरो-नाहुभूपण भुजगन्धरिशेपो, मुकुट-शिरोभूषणम्, कुण्डलेकर्णभूषणे-इति, तथा हार =अष्टादशसरिकादिक , विराजमान =गोभमान , रचित =विन्यस्त - बहुत ही दृष्ट तुष्ट एव आनन्दित हुए, (धारा-हय-नीव-सुरहि-कुसुमव चचुमालइय. ऊसविय-रोमकूवे ) जिस प्रकार बरसात का धारा से सींचे जाने पर कदम्ब के सुगन्धित फूल एकदम विकसित हो जाते है, उसी प्रकार भगवान् के पधारने का समाचार सुनकर राजा के रोम खडे हो गये, (वियसिय-वर-क्रमल-गयण-वयणे) उनके नेत्र और मुख दोनो कमल के समान विकसित हो गये। (पयलिय-वरकडग-तुडिय-केजर-मउड-कुडल-हार-विरायत-रदय-बच्छे) अपार हर्ष के मारे कम्पित इनके शरीर पर धृत श्रेष्ठ दोनों वलय, दोनो त्रुटित-बाहुरक्षाभूषण, घ हट तुट तेमा मान हित यया [धारा-य-नीव-सुरहि-कुसुमव चचु. मालय- ऊसपिय-रोमकूवे) मारे १२साहनी धारथी सी याये।। ४४मना સુગધિત કુલ એકદમ ખીલી નીકળે છે તે જ પ્રકારે ભગવાનના પધારવાના સમાચાર સાભળીને રાજાના રમે રેમ આનદથી પુલકિત થઈ ઉભા થયા, (वियसिय बर-कमल-जयण-बयणे) तमना नेत्र तथा भुप भन्ने ४मसना रेभ विश्सी गया (पलिय-पर-फडग-तुडिय-केकर-मउड-कुडल-हार-विरायतरइय-पच्छे) अपार अपने सपने पायमान यता तमना शरी२ ५२ पारण्य કરેલા છેબન્ને વલય (કડા), બને ત્રુટિત-બાહુરક્ષક ભરણ, બને કેયૂર Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूपपपिणी टीका सू १९ कृणिकस्य तत्कालीविताचरणम् मउड-कुंडल-हार-विरायंत-रइय-वच्छे पालंवपलंबमाण-घोलंतभूसणधरे ससंभमं तुरियं चवलं नरिंदे सीहासणाओ अन्भुटेइ, अन्भुहिता पायपीढाओ पच्चोरुहड,पच्चोरुहित्तावेरुलिय-वरिट-रिट्ठपरिगृत वासि-उस स्थले यस्य स तथा, तत पदद्रयस्य कर्मपाग्य । 'पालय-पल्यमाण-पोलत-भूसण-परे' प्रालम्ब-प्रलम्बमान-पूर्णमान-भूपण-- धर - प्रालम्ब कण्ठाभरणविशेष, स एव प्रलम्बमान-लम्बाकार पूर्णमान दोलायमान भूषण तस्य धर -धारक , एतादृशश 'नरिंदे' नंगेन्द्र कृणिकनृप 'ससभम' ससम्भ्रम-सादर यथा स्यात्, "तुरिय' चरित-भीनतया यया स्यात् , 'चवल' चपल-चञ्चलतया यथा स्यात् तथा 'सीहासणाओ अत्भुटेड' सिंहासानदभ्युत्तिष्ठतिअवतरति, 'अमुहिता' अभ्युथाय-अवतीर्य 'पायपीढाओ पञ्चोम्हइ' पादपीठाप्रत्यागेहनि-अवतरति, प्रत्ययस्य-असतीर्य पादपीठादयोऽवतार्य 'पाउआओ ओमुअइ' पादुके अअमुञ्चति, कीदृशे पादुके । त्याह-' वेरुलिय' दयादि, 'वेलिय-चरिठ्ठटोना केयूर-चाजूवन्द, मुकुट, दोनों कुण्डल, एव १८ लरका हार, जो वक्षस्थल मे धारण किया हुआ था और जिसकी शोभा से वक्ष स्थल सुशोभित हो रहा था, ये सन के सन आभूषणादि कपित हो उठे । (पल्य-पालनमाण-पोलत-भूसण रे) हर्प-जनित कम्प से चलायमान उनका प्रलम्बमान कण्टाभग्ण उनकी शोभा को बढा रहा था। बाद मे ( ससभम तुरिय चक्ल नरिंदे) गजा वडे ही सभ्रम से-आदरपूर्वक, अर्थात् एकदम जैसे बैठे थे वैसे ही, गीत्र ही चचल जैसा होकर (सीहासणाओ अन्भुटेड) अपने सिंहासन से उठे, और (अन्भुद्वित्ता पायपीढाओ पचोरुहइ ) उठ कर पादपीठ पर पैर रखकर नीचे उतरे, (पञ्चोरुहिता वेरू(બાજુબ ધ), મુકટ, બને કે ડલ તેમજ ૧૮ સરને હાર જે વક્ષ સ્થળ ઉપર ધારણ કરવામાં આવ્યું હતું, અને જેની શેભાથી વક્ષ સ્થલ સુશોભિત થઈ રહ્યું तु, ते तमामे तमाम माभूषा माहि हुदी रहा तो, ( पालंब पलनमाण घोलत-भूसण-बरे) पथा उत्पन्न यता ४ थी यसायमान यता तेना मामा પહેરેલા લાબા લટતા હાર તેની શોભામાં વધારે કરી રહ્યા હતા પછી (ससंभम तुरिय चरल नरिंदे) शत पास प्रभथी-माथी अर्थात् अमरवा मेसा त तपाv Saqat या थने (सीहासणाओ अब्भु?ई) पाताना विडामा ५२वी या, मन (अव्भुद्वित्ता पायपीढाओ पन्चोरहइ ) हीने पाहा: ५२ ५1 रामाननीय उता, (पन्चोरहित्ता-वेलिय-चरिट्ठ-रिट्ठ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ औपपातिकत्रे " अंजण- निउणो-वय- मिसिमिसंत-मणि रयण-मंडियाओ पाउयाओ ओमुयइ, ओमुत्ता अवहद्दु पंच रायककुहाई, तंजहा-खग्गं १, छत्तं २, उप्फे ३, वाहणाओ ४, बालवीयणं ५ । एगसाडियं रिट्ठ- अजण- निउगोत्रिय - मिसिमिसंत- मणि- रयण-मडियाओ' चेहर्य-चरिष्टरिष्टथ-जन- निपुणाऽनरोपित - चिकिचिकायमान- मणिरत्न- मण्डिते, तन-परिष्टानि = श्रेष्ठानि बैडुर्याणि रिष्टानि अञ्जनानि - एतन्नामकानि रत्नानि ययो पादुकयोस्ते धैर्य-चरिष्टरिष्टाञ्जने, वैर्यादिभिश्वितिते इत्यर्थ, पुन ' निपुणावरोपित - चिकिचिकायमानमणि - रत्न- मण्डिते - निपुणेन = शिल्पकलाकुशलेन अनरोपितानि=परिकर्मितानि - सस्कारितानि यथास्थानजटितानि यानि चिकचिकायमानानि = चाकचिक्यमयानि मणिरत्नानि तैर्मण्डिते, तत पदद्वयस्य कर्मधारय, अवमुच्य, 'अनहद्दु पच रायककुहाइ ' अपहृत्य पञ्च राजककुदानि - अवतार्थ पञ्चमख्यकानि राजचिह्नानि, तान्येव पृथक् परिसख्याति-तथथा - तानि - इमानि १' खग्र्ग' सङ्ग त्यजति, २ - 'छत्त ' छत्र-जहाति । ३ - उप्फेस - मुकुटम् - अवतारयति, ४ वाहणाओ - उपानहौ, पूर्वपरित्यक्ते पादुके अत्र ' वाहणाओ ' इति पदेन गृह्येते त्यजति । ५--' वालवीयण लिय-वरिटू-रि-अजण-निउणो विय- मिसिमिसत-मणि-रयण-मडियाओ पाउयाओ ओमुयइ ) नीचे उतर कर इन्होंने फिर दोनों पैरों से पादुकाऍ उतारों, ये पादुकाएँ श्रेष्ठ वैदुर्य, रिष्ट एव अजन नाम के रत्नों से खचित थीं, तथा शिल्पकला कुशल ऐसे कारीगरा द्वारा यथास्थान निवेशित चमकते हुए अनेक रत्नों से मंडित था । ( ओमुत्ता अवहट्टु पच रायककुहाइ ) पादुकाएँ उतारने के बाद इन्होंने पाच राजचिह्नों का भी परित्याग कर दिया। वे पाच गजचिह्न ये है - ( सम्ग छत्त उप्फेस वाणाओ वालवीयण ) खर्गे, छन, उप्फेस = मुकुट, दोनों पैरों के जूते - पादुकाएँ अजण-निडणो-विय - मिसिमिसत-मणि- रयण-मंडियाओ पाउयाओ ओमुयइ) नीचे ઉત્તરીને પછી તેમણે મને પગમાંથી પાદુકાઓ ઉતારી નાખી, એ પાદુકાઓ શ્રેષ્ઠ વૈર્ય, રિષ્ટ તેમજ અજન નામના રત્નોથી જડેલી હતી તથા શિલ્પકલામા કુશળ એવા કારીગરો દ્વારા યથાસ્થાન એસાડેલા ચમકાર મારતા અનેક રત્નાથી તે શૈાભિત હતી ( ओमुत्ता अवहट्टु पच रायककुहाइ ) पाहुनओ ઉતાર્યા પછી તેમણે પાચ રાજચિહ્નોના પણ પરિત્યાગ કર્યું તે પાચ arka zu yığ, dal-(um sa cher argument arezitan) છત્ર, ઉફેસ-મુકુટ, ખન્ને પગના જેડા-પાદાએ તેમજ ચામર પછી Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूपयर्षिणी टीका म १९ कृणिकस्य तत्कालोचिताचरणम् ११५ उत्तरासंगं करेड, करित्ता अंजलिमउलियहत्थे तित्थगराभिमुहे सत्तदृपयाई अणुगच्छड, अणुगच्छित्ता वामं जाणं अंचेड, अंचित्ता दाहिणं जाणुं धरणितलंसि साहटु तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणितलंसि बालन्यजन-चामयुगल त्यजति । त्यस्त्या 'एगसाडिय उत्तरासग करेड' एकशाटिकमुत्तगसङ्ग कगेति, एकगाटिकम्-अस्फाटिनमयोजित स्यूतरहितम् उत्तरासगम्=उत्तरीयवत्र मुग्योपरि यतनाथ करोति-धरति 'करित्ता' वा 'अजलिमउलियहत्ये' अनलिमुकुदितहस्त -अनलिना अनलियन्यनेन मुकुलितो-कमलमुकुलतुल्यौ, हस्तौ यस्य स तथा उद्धाञ्जलिपुट इत्यर्थ । 'तित्थगराभिमुहे' तीर्थङ्कराभिमुस –यस्या तिगि महावीरप्रमुर्वतते तस्या दिगि कृतमुप 'सत्तद्रुपया अणुगन्छइ' सम अष्ट पदानि अनुगच्छति-आनुकूल्येन व्रजति-सिंहासनात्प्रभुसम्मुस सप्ताटपदानि गच्छति, 'अणुगच्छित्ता' अनुगम्य 'वाम जाणु अंचेइ' याम जानु आकुञ्चयति-उज़ करोति, 'अचित्ता' वाम जान्वाकुल्य-उवाकय, 'दाहिण जाणु धरणितलसि साह?' दक्षिण जानु धरणितले सत्य-अध सस्थाप्य, 'तिरपुत्तो' त्रिकृव -निरावृत्त-त्रिवारमिति यावत्-'मुद्धाणं धरणितलसि एव दोनों चामर । फिर (एफसाडिय उत्तरासग करेइ) पश्चात् अस्फाटित, अयोजित-पिना सीये ऐसे उत्तरीयात्र को मुस के ऊपर यतनानिमित्त धारण किया । (करित्ता) धारण कर (अजलिमउलियहत्थे तित्थगराभिमुहे सत्तट्ठपयाइ अणुगच्छड ) बद्ध कमल के समान अञ्जलिपुट करके जिस दिगामे तीर्थकर विराजमान थे उस ओर सन्मुस होकर सात आठ पग आगे गये, (अणुगन्छित्ता वामं जाणु अचेड) जाकर वहा उन्होंने अपने वाये घुटने को ऊपर किया और (दाहिण जाणु धरणितलसि साह१ ) दाहिने घुटने को जमीन पर रखकर (तिखुत्तो (एगसाडिय उत्तरासग करेइ) मटित, (२८या १२) मयारित भ्यूत રહિત (સીવ્યા વગરનું ) એવા ઉત્તરીય અને મુખ ઉપર યતન નિમિત્ત पा२५ यु (करिता) पा२९५ ४गने (अजलिमउलियहत्ये तित्यगराभिमुहे सत्तट्ठपयाड अणुगच्छइ) १५ भनी पेठे मसिएट परीने हिशामा તીર્થકર બિરાજમાન હતા તે તરફ સન્મુખ થઈને સાત આઠ પગલા આગળ गया, (अणुगच्छित्ता वाम जाणु अचेइ ) ४४ने त्या तभणे पाताना समे। दीय ५२ राज्यो मन (दाहिण जाण धरणितलसि साहट्ट) मा ढी यथुने समान ७५२ समीन (तिम्खुत्तो मुद्धाण धरणितलसि निसेइ) न पार Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ औपपातिकसूत्रे निवेसेड, निवेसित्ता ईसिं पच्चुण्णमड, पच्चुण्णमित्ता कडगतुडिय - थंभियाओ भुयाओ पडिसाहरइ, पडिसाहरिता करयलजाव-कहु एवं वयासी || सू. १९ ॥ निवेसेड' मूर्दान धरणितले निवेशयति-निजमस्तक भूमिसलग्न करोति । 'निवेसित्ता' निवेन्य, 'ईसि पच्चुण्णमड' ईपत् प्रयुनमति - अपनमी भूतकायो भवति, 'पन्चुण मित्ता' प्रयुन्नम्य-अन्यनत्रीभूतका यो भूवा 'कडग-तुडिय-पभियाओ भुयाओ पडिसाहरइ' कटकत्रुटितस्तम्भितौ भुजी प्रतिम्हरति, फटकयुटिताभ्या कङ्कण-भुजरक्षकाभ्यास्तम्भितौ स्तम्भरूपौयौ भुजौ तो प्रतिसंहरति उच्चै नयति उथापयती यर्थ, 'पडिसाहरिता' प्रतिमहत्य-उत्थाप्य, 'करयल जाव कट्टु ' करतल यावत् कृत्वा, अत्र यावच्छन्देनपरिगृहीत- परस्पर समिलित गिरआवर्त मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वेति बोध्यते, 'एवं वयासी' एव वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत् ॥ सू० १९ ॥ मुद्धा धरणितलंस निवेसेइ ) तीनवार अपने मस्तक को जमीन पर झुकायाजमीन से माथे को लगाया । ( निवेसित्ता ईसि पच्चुण्णमइ ) लगाने के बाद फिर ये थोडे से उठे, (पच्चुणमित्ता कडग-तुडिय-थमियाओ भुयाओ पडिसाहरड़ ) उसके पश्चात् इन्होंने अपने दोनों हाथों को कि जो raण एव भुजरक्षक अलकारों से स्तम्भित थे, उँचा किया, ( पडिसाहरिता करयल - जाव - कट्टु एव वयासी ) ऊँचे करने के बाद फिर ये मस्तक पर अजलिपुट रख कर इस प्रकार बोलेभावार्थ-संदेशहर से प्रभु के आगमन की वार्ता सुनकर कोणिकराजा मार अतिशय आनन्द के कारण उल्लमिन हो गये । इस समाचार को सुनते हो ये रोमाञ्चित हो उठे । कमल के समान मुस आनन्दातिरेक से सिल उठा । नयनों ने पोताना भक्ताने भीनयर नभाष्यु-कभीनने भाथु असभ्यु ( निवेसित्ता ईसिं पच्चुण्णमइ ) मडाडा पछी तेथे ४ या (पन्चुण्णमित्ता कडग तुडिय-थभियाओ मुयाओ पडिसाहरड ) त्यार पछी तेयो योताना जन्ने हाथ કે જેક કણ તેમજ કડા ભુજરક્ષક વગેરે અલ કારાથી સ્વભિત્ત હતા તે तथा य ( पडिसाहरिता करयल जाव कट्टू एव क्यासी) या ४रीने पछी તેઓએ મસ્તક ઉપર અજલિપુટ રાખીને આ પ્રમાણે કર્યુ - ભાવાસ દેશવાહકદ્રારા પ્રભુના આાગમનના સમાચાર સાભળીને કૈાણિક રાજ અતિશય આનદ થવાના કારણે ઉલ્લાસમા આવી ગયા એ સમાચાર સાભળતા જ તેઓ માચિત થઇ ગયા. કમલની પેઠે મુખ આન દેના Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूपवपिणो-टीका सु २० कृणिकता मिद्वाना महावीरस्य च स्तुति ११७ मूलम्-णमोत्थु णं अरिहंताणं भगवंताणं आइगराणं तित्थटीका-'नमोथु ण' इयादि 'नमोत्यु ण' नमोऽस्तु खलु, 'अरिहताणं' अरिहन्तृभ्य - अरीन्-रादिरूपान्-शत्रून् नन्ति-नागयन्तीति व्युपत्याऽत्र मिदाटतोरुभयोररिहन्तृपदेन ग्रहण बोध्यम्, तेभ्य , 'भगवताण' भगरम्य , भगः-१ ज्ञान-सर्वार्थविषयकम् , मा मुग्व का माथ दिया । हतिक के कारण उनका सम्पूर्ण गरीर कम्पित होने लगा, इस हतु धारण किये हुए आभूपगादिक भी चचल हो उठे। ये एकदम सिंहासन से उठे, उठकर पादपीठपर पैर रसकर नीचे उतरे। मगि-वैडूर्य-सचित दोनों पादुकाएँ उतारी । खा आदि राजचिह्नों का परित्याग कर ये एकगाटिक उत्तरासग कर जिस दिशा की तरफ वे महावीर प्रभु निगजमान थे उस दिशाकी ओर सात आठ पैर आगे जाकर नमस्कारविधि के अनुसार प्रमुकी परोक्ष वदना करने लगे। उसमें यह पाठ बोले--॥ सू० १९ ॥ 'नमोत्थु ण' इत्यादि (नमोत्यु ण अरिहताण) रागादिकरूप शत्रुओं पर विजय पानेवाले अरिहतों को नमस्कार हो। (भगवताण) भगवान के लिये नमस्कार हो, भग जिनके हो घे भगवान है। भग गन्न के दस (१०) अर्थ है । वे इस प्रकार है-ज्ञान અતિરેકથી ખિલી ઉઠયું નેત્રોએ પણ મુખને સાથ આપે હર્ષાતિરેક થવાના કારણે તેમનું આખું શરીર ધ્રુજવા લાગ્યું અને તેથી શરીર પર ધારણ કરેલા આભૂષણાદિક પણ ચ ચલ (ચલાયમાન થઈ ગયા તેઓ એક્રમ આસન ઉપરથી ઉઠયા અને ઉઠીને પાદપીઠ પર પગ રાખીને નીચે ઉતર્યા મણિરૃર્ય જડેલી અને પાદુકાઓ ઉતારી ખડગ આદિ રાજચિહ્નો પરિત્યાગ કરી તેઓ એક શાટિક ઉત્તરાસ ગ ધારણ કરી જે દિશા તરક તે મહાવીર પ્રભુ બિરાજમાન હતા તે દિશા તરફ સાત આઠ પગલા આગળ જઈને નમસ્કાર વિધિ અનુસાર પ્રભુની પક્ષ વદના કરવા લાગ્યા तभा 1 13 मास्या (सू १८) 'नमोत्थुण' इत्यादि (नमोत्थु ण अरिहताणं) सा४ि३५ शत्रुस। ५२ विय भ वाणा मरिताने नभ-२ (भगवंताण) लगवानने नभन्४२ है। मेने लग હોય તે ભગવાન છે ભગ શબ્દના ૧૦ અર્થ છે, તે આ પ્રકારે છે १ ज्ञान-ममन्त मना पहायने युगपत लगुना२ जान, Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ w औपयातिको पुरुपवरपुण्डरीकश पुरपवरपुण्डरीकञ्चेयादिरी येक पुरपवरपुण्डरीकागि तेभ्य । भगवतो वरपुण्डरीकोपमा च विनिर्गताऽसिलाऽशुममलोमस वासर्व शुभानुमावै परिशुदुत्वाच, यद्वा यथा पुण्डरीकागि पहाजातान्यपि सलिले वर्धितान्यपि चोभयसम्बन्धमपहाय निलेपानीव जलोपरि रमणीयानि सन्दृश्य ते निजानुपमगुणगगवलेन मुरासुरनरनिकरगिरोधारणीयतयाऽतिमहनीयानि परममुसाऽऽस्पदानि च भवन्ति, तयेमे भगवन्त कर्मपट्वान्नाता भोगाऽम्भोगड़िता सन्तोऽपि निलेपास्तदुभयमतियर्तन्ते, गुणसम्पदास्पदतया च केलादिगुणभावादखिलभन्यजनशिरोधारगीया भवन्तीति, विस्तरस्तु शास्त्रान्तरेऽवलोकनीय । 'पुरिसवरगंवहत्यीग' पुरुषवरगन्धहस्तिन्य - उपमा से युक्त किया है उसका कारण यह है कि प्रभु की आत्मा से समस्त अशुभ मलिन कर्म नष्ट हो गये है एव शुभ अनुभावों से प्रमु सभी प्रकार से शुद्ध हैं। धवल कमल जिस प्रकार कीचड से उद्भूत होने पर और जल में वर्दित होने पर भी उन दोनों से अलिस रहता है, जलके ऊपर बहुत ही रमणीय प्रतिभासित होता है, तथा सुर असुरादिको द्वारा शिरोधार्य होने से वह अतिमहनीय एव परम सुन्य काआस्पद होता है उसी प्रकार प्रमु भी नामकर्म के उदय से, कर्मरूप पफ से पैदा होने पर एव भोगरूप जल से सवदित होने पर भी इन दोनों के सबध से सर्वथा निर्लेप रहा करते है, एव गुणरूपसपत्ति के आस्पद होने से तथा केवलज्ञान की जागृति होने से वे अखिल भव्यजनों द्वारा शिरोधार्य भी होते है। (पुरिसवरगधहत्थीण) पुरुषों में उत्तम गधहस्ती के समान जो होते है वे पुरुपवरगधहस्ती कहे जाते है, જે વરપુ ડરીકની ઉપમા આપી છે તેનું કારણ એ છે કે પ્રભુના આભામાથી સમસ્ત અશુભ કાલિમાં નષ્ટ થઈ ગયી છે તેમજ શુભ અનુભવથી પ્રભુ સારી રીતે શુદ્ધ છે, શ્વેત કમલ જે પ્રકારે કીચડથી ઉત્પન્ન થાય છે અને જલમાં વધે છે છતા પણ તે બનેથી અલિપ્ત રહે છે, જલની ઉપર બહુજ રમણીય પ્રતિભામિત થાય છે, તથા સુર અસુર આદિથી ગિર૫ર ધારિત હોવાથી તે અતિમહનીય તેમજ પરમ સુખને આપનાર બને છે, તેવી જ રીતે પ્રભુ પણ નામ કમના ઉદયથી, કર્મરૂપ પકથી પેદા થવા છતા તેમજ ગરૂપ જલથી સવર્ધન પામવા છતા પણ એ બન્નેના સ બ ધથી સર્વથા નિલા રહ્યા કરે છે તેમજ ગુણરૂપ સંપત્તિના આપનાર હેવાથી તથા કેવલ નાનની જાગૃતિ થવાથી તેઓ તમામ ભવ્યજને દ્વારા શિધાર્થ પણ થઈ लय (पुरिस-वर-गध-हवीण) ५३याम तम गन्तीना पाहाय Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टोका स्रु २० कुणिकता सिद्धांना महावीरस्य च स्तुति १२१ पुरिसवरगंधहत्थीणं लोगुत्तमाणं लोगनाहाणं लोगहियाणं लोगगन्धयुक्ता हस्तिनो गन्धहस्तिन, वराध ते गन्धहस्तिनो वरगन्धहस्तिन, पुरुषा वरगन्धहम्तिन इव पुरुषवरगन्धहस्तिनम्तेम्य, गन्धहस्तिलक्षण यथा- यस्य गन्ध समानाय पलायन्ते परे गजा । त गन्धहस्तिन विद्यान्नृपतेर्विजयावहम् ॥ इति । प्रच्छन्नस्थान अतएव यथा गन्धहस्तिगन्धमानाय गजान्तराणीतस्ततो द्रुत पलाय्य प्राप्नुवन्ति, तद्वदचिन्यातिशयप्रभाववशाद् भगवद्विहरणसमीरणगन्धसम्बद्धगन्धतोऽपि - इति- उमर - मरकादय उपद्रवा द्राग् दिक्षु प्रद्रवन्तीति, गन्धगनाऽऽश्रितराजद् भगवदाश्रितो भव्यगण सर्वदा विजयवान् भवतीति भवत्युभयेो सादृश्यम् ।' लोगुत्तमाण' लोकोत्तमेभ्य, लोकेषु - भव्य समाजेषु उत्तमाश्चतुस्त्रिंशदतिउनके लिये नमस्कार हो, गहस्तीका लक्षण इस प्रकार है 46 यस्य गन्धं समाघ्राय पलायन्ते परे गजाः । त गहस्विनं विद्यान्नृपतेर्विजयावहम् " ॥ जिसकी गंध को सूघकर भी अन्य हाथी भाग जाते हैं वह गधहस्ती कहलाता है । यह जिस राजा के पास होता है वह अवश्य ही युद्ध में विजय प्राप्त करता है । तात्पर्य यह है कि - जिस प्रकार गंधहस्ती की गध को सूघकर अन्यगज भाग जाते है उसी प्रकार प्रभु के विहार की गध सूघ कर अर्थात् प्रभुके बिहार की वायु के सबध से इति, उमर और मरकी आदि उपद्रव बिलकुल शात हो जाते हैं । (लोगुत्तमाण) છે તે પુરૂષવરગ ધહસ્તી કહેવાય છે તેમને નમસ્કાર હા ગંધહસ્તીનુ લક્ષણ अरे हे 66 'यस्य गन्ध समाधाय पलायन्ते परे गजा त गन्धहस्तिन विद्यान्नृपतेर्विजयावहम् ” જેની ગંધ સુધવામાત્રથી બીજા હાથી ભાગી જાય તે ગંધહસ્તી કહેવાય છે તે જે રાજાની પાસે હાય છે તે અવશ્યમેવ યુદ્ધમા વિશ્વય પ્રાપ્ત કરે છે. તાત્પર્ય એ છે કે જે પ્રકારે ગંધહસ્તીની ગંધને સુધીને બીજા હાથી ભાગી જાય છે તેવી જ રીતે પ્રભુના વિહારની ગંધને સુધીને અર્થાત્ પ્રભુના વિહારના વાયુના ઞ ખધથી ઇતિ ઠુમર અને મરકી આદિ उपद्रव मिसङ्कुल शात यई लय छे (लोगुत्तमाण) यात्रीश अतिशयो तेभ४ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे. शयपानद्वागीगुणोपेतत्यात्, तेभ्य 'लोगनाहाण लोकनाथेभ्य, लोकानां = योगक्षेमकारित्वादिति लोकनायास्तेभ्य । "लोगहियाण भन्याना नाथा = नेतारो लोकस्य = भन्यजनसमुद्रायस्य विशिष्टात्मतत्वप्रकाशक लोकहितेभ्य लोक - एकन्द्रियादि सर्वप्राणिगणस्तम्मे हिता रक्षोपा पथप्रदर्शकबा लोकहितास्तेभ्य । 'लोगपई राण' लोकप्रतीपेभ्य, प्रदीपास्तन्मनोऽभिनिनिष्ठानादिमिया तम पटल यपगमेन त्वात्प्रदीपतु यास्तेभ्य । यथा प्रदीपस्य सकलजनार्थं तुल्यप्रकाशकत्रेपि चक्षुष्मन्त एव तत्प्रकाशसुखभाजेो भवन्ति नास्तथा भञ्या एव भगवदनुभागममुदभूतपरमानन्दसन्दोह भाजेो भवन्ति नाऽभच्या इति प्रतिनधि प्रदीपटान्त, अत एव चा, लोकपदेन भन्यानामेन ग्रहम् । 'लोगपज्जोयगराण' लोकप्रयोतकग्भ्य - चौतीस अतिशयों एवं पेंतीस वाणी के गुणों से युक्त होने से प्रभु लोकोत्तम कहलाते है, ऐसे उनके लिये 'नमस्कार हो । ( लोगनाहाण ) भव्यजीवों के योगक्षेम-कारी होने से लोकनाथ प्रभु को नमस्कार हो । ( लोग हियाग ) एकेन्द्रिय प्राणियों से लेकर पचेन्द्रिय पर्यन्त समस्त जीवों से व्याप्त इस ग्लोक के लिये रक्षाके उपायभूत मार्ग के प्रदर्शक होने से लोकहितस्वरूप प्रमुक्के लिये नमस्कार हो । (लोगपवाण) भव्यजनों के मन मे अनादिकाल से ठसाठस भरे हुए मिथ्यात्वरूपी अन्धकार के पटल के विनाश से निशिष्ट आत्मतत्त्व के प्रकाशक होने से भगवान् प्रदीपतुच्य है, जिस प्रकार दीपक सकल जीवों के लिये समान प्रकाशक होता हुआ भी चक्षुष्मान जीवों के लिये विशेष आनदप्रद होता है उसी प्रकार प्रभु को लखकर भव्य जीव ही अमन्द आनद के सद्रोह से सुखी हुआ करते हैं, ऐसे लोक के प्रदापस्वरूप को नमस्कार ? LET 1-1 પાત્રીશ વાણીના ગુણાથી યુકત હાવાથી પ્રભુ લેાકેાત્તમ કહેવાય છે, ' તેમને नमस्कार है। (लोगनाहाण ) लव्य लवोना योगक्षेम डरनार होवाथा बोडनाथ अलुने नमस्४२ हो (लोगहियाण) भेडेद्रिय आणिशोथी भाडीने पथेद्रिय પન્ત સમસ્ત જીવાથી વ્યાપ્ત આ લાકના માટે રક્ષાના ઉપાયભૂત માના अहर्श होवाथी बोडडितस्य प्रभुने नभस्वार से (लोगपईनाण) लव्य बनाना મનમા અનાદિકાલથી સાઠસ ભરેલા મિથ્યાત્વરૂપી અ ધકારના સમૂહના વિનાગથી વિશિષ્ટ આત્મતત્વના પ્રકાશક હોવાથી ભગવાન પ્રદીપ સમાન છે, જેમ દીવા બધા જીવાને સમાન પ્રાળક હોય છે છતા ચક્ષુવાળા જીવાને વિશેષ આન પ્રશ્ન થાય છે તેવી રીતે પ્રભુને જોઈ ભવ્ય જીવા જ ઘણે! આનદ મેળવીને सुख आप्स ४रे छे, मेवा बोडना अहीयस्पश्यने नमार है। [लोयपज्जोयगराण ] 2 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूपरपिणी टोका स २० पू.णिककृता सिद्धाना महायोरस्य च स्तुति' १२३ पर्डवाणं लोगपज्जोयगराणं अभयदयाणं चाखुदयाणं मग्गदयाणं लोकगदेनाऽत्र लोक्यते-दृ-यते केपलाऽऽलोफेन यथानस्थिततयेति व्युपत्या लोकालोकयोरुभयोर्ष गम् , तेन लेकस्य-लोकालोकलमणस्य सकल्पढार्थस्य प्रद्योत -लोकालोकप्रद्योतस्त कर्तुं शील येपा ते लोकालोकप्रद्योतकरा लोकालोकसफलपदार्थप्रकागार गगीगम्तेभ्य । 'अभयदयाण' अभयदयेभ्य -न भयम् अभयम्, भयानामभानो वा अभयम् , अभोभलक्षग आमनोऽप्रस्थापिगेपो मोक्षमाधनभूतमुकृष्टधैर्यमिति यापत, दयन्ते ददनानि दया , दयधातो कतीरे पचादिवाढच्, अभयम्ग दया अभयदया , यदा अभया भयविरहिता दया सर्वजीचमटप्रतिमोचनम्वरूपा अनुकम्पा येपा तेऽभयदयास्तेभ्य । 'चाबुढयाण' चक्षुर्दये-य चक्षु-ज्ञान-निविलयस्तुतत्वाऽवभासकतया चक्षुसादृश्यात , तम्य न्या -दायकाच-सुर्दयाम्तेभ्ग , गया हरिणादिशरण्येऽरण्ये लुण्टाफहो। (लोयपनोयगराण)लोकालोकपरूप सफलपढायों को प्रकाश करनेके स्वभावपाले लोकप्रद्योतकरी के लिये नमस्कार हो। (अभयदयाण) अभयदयों के लिये नमस्कार हो। आत्मा को अक्षोभलक्षण अवस्थानिशेष का नाम अभय है, इसे मोक्षसाधनरूप उत्कृष्ट धैर्यस्वरूा जानना चाहिये । इसे प्रदान करनेनाले होने से प्रभु अभयदय कहे गये है। अथवा-जिनकी दया भयरहित है अर्थात भगवान् द्वारा प्रतिपादित दया समस्त जीवों के सकटोको दूर करनेवाली है, भगवानने इस प्रकार की दयाका स्वरूप प्रकट किया है कि जिससे जीवों के ऊपर कोई भी सकट नहीं आ सकता है। (चक्खुदयाण ) ज्ञानरूपचक्षु के दातार को नमस्कार हो। प्रभु चक्षुर्दय इसलिये कहे गये हे कि जिसप्रकार हरिणादि जन्तुओं से व्याप्त जगल मे लुटेरो से टूटे गये કાલેક સ્વરૂપ સકલ પદાર્થોને પ્રકાશ આપવાના સ્વભાવવાળા લોકપ્રદ્યો ने नभ२ हा अभयदाण] समययाने नभ२४॥२ . मात्भाना मानલલણ અવસ્થાવિશેષનું નામ અભય છે, એને મેક્ષ સાધનરૂપ ઉત્કૃષ્ટ ધર્યસ્વરૂપ જાણવા જોઈએ એનું પ્રદાન કરવાવાળા હોવાથી પ્રભુ અભયદય કહેવાય છે અથવા–જેમની દયા ભયરહિત છે અર્થાત્ ભગવાન દ્વારા પ્રતિપાદિત દયા સમસ્ત જીવોના સંકટને દૂર કરવાવાળી છે ભગવાને એ પ્રકારે દયાનું સ્વરૂપ પ્રકટ કર્યું છે કે જેથી જી ઉપર કોઈ પણ સકટ ન આવી શકે (चम्खुदयाण) शान३५ यक्षुना होतारने नभन्डार हा प्रभु यचय मेरा માટે કહેવાય છે કે જે પ્રકારે હરિણ આદિ જાનવરથી વ્યાપ્ત જગલમાં લુટારાથી લુટાયેલા ૫છી આખે પર પાટા બાંધીને ખાડા આદિમા ધક્કા Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ औपपातिक सूत्रे लुण्टिभ्य पट्टिकादिदानन नक्षपि पिधाय हस्तपादादि या तैर्गर्त पातितेभ्य कश्चिपट्टिकायपनोदनेन च देवा मार्ग प्रदर्शन तथा भगवन्तोऽपि भवाऽरण्ये रागद्वेषलुण्टा कलुण्ठिताss/मगुणधनेभ्यो दुगग्रहपटिकादितज्ञानचक्षुर्म्या मिथ्यामार्गे पातितेभ्यस्तदपनयनपूर्वक ज्ञानचक्षुर्दच्या मोक्षमार्ग प्रदर्शयन्ति । एतदेव भद्यन्तरेणाऽऽह ' मग्गदयाण ' मार्गद्रयेभ्य -मार्ग = सम्यगुरननयलक्षग गनपुरपथ, यद्वा-निशिष्ट पश्चात् आखों पर पट्टी बाधकर गर्त आदि में धका देकर पटके गये मानवों के लिये कोई दयालु मानव उनकी आसोंकी पट्टी सोलकर चक्षुर्दाता बन उन्हें मार्गका प्रदर्शन कराता है, उसी प्रकार प्रभु भी इस अगरण भवरूप अरण्य मे रागद्वेष आदि लुटेरों द्वारा आत्मगुणरूप धनों के अपहरण होने से दीनहीन बने हुए समस्त ससारी जीवोंको कि जिनको ज्ञानरूप आसों पर दुराग्रहरूपी पट्टी कर्माने वाघ रसी है और इसीसे जिनका ज्ञानरूप नेत्र आच्छादित हो रहा है और इसीके वजह से जो उन्मार्गरूपी गर्त मे धकेल दिये गये है, प्रभुने अपने दिव्य उपदेश द्वारा उन्हें सत् ज्ञान दिया, इससे उनका दुराग्रह नष्ट हो गया, और ज्ञानरूप अन्तरग नेत्र निर्मल हो जाने से प्रभुने उन्हे मोक्षमार्ग दिखाया । इसलिये प्रभु उनके चक्षुर्दाता समान माने गये है । इसी विषय को विशेष स्पष्ट करने के लिये सूत्रकार प्रकारान्तर से कहते है - कि ( मग्गदयाण ) मोक्षमार्ग मे लगानेवालों के लिये नमस्कार हो । यहा रत्नत्रय यही मोक्षमार्ग है, अथवा — गुणस्थानोंकी प्राप्ति करानेवाला क्षयोपशम દઇને નાખી દેવાયેલા માણસને જેમ કાઈ દયાળુ માણસ તેની આખાના પાટા ખેાલીને ચક્ષુર્દાતા બની તેને માગ ખતાવે છે તેજ પ્રકારે પ્રભુ પણ આ અશરણ ભવરૂપ અરણ્યમા રાગદ્વેષ આદિ લૂંટારા દ્વારા આત્મગુરૂપ સપત્તિ લુટાઈ જતા દીનહીન અનેલા સમસ્ત સ સારી જીવાતે કે જેમની જ્ઞાનરૂપ આખા પર દુરાગ્રહરૂપી પાટા કર્મોંએ ખાધી રાખેલા છે અને તેથીજ જેના જ્ઞાનરૂપી નેત્રઢડાઈ ગયા છે અને એજ કારણથી જે ખાટા મારૂપી ખાડામાં ધકેલાઈ ગયા છે તેમને પ્રભુએ પેાતાના દિવ્ય ઉપદેશ દ્વારા સત્ જ્ઞાન આપ્યુ, તેથી તેમના દુરાગ્રહે નાશ પામ્યા અને જ્ઞાનરૂપ અતરગના નેત્ર નિર્મળ થઈ જવાથી પ્રભુએ તેમને મેાક્ષમાર્ગ દેખાડયે તેથી પ્રભુ તેમના ચક્ષુદાંતા સમાન મનાય છે. આજ વિષયને વિશેષ સ્પષ્ટ કરવા માટે સૂત્રકાર अाशतरथी हे छे F ( मग्गदयाण ) भोक्ष भार्गभा सगाडवावाजाने नमस्कार હો અહી રત્નત્રય એ જ મેાક્ષમાગ છે અથવા ગુણસ્થાને)ની પ્રાપ્તિ કરા Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " पीयूपवर्षिणी- टीका. व. २० कृणिककृत्ता सिद्धाना महावीरस्य च स्तुति' १२५ सरणदयाणं जीवदयाणं वोहिदयाण धम्मदयाणं धम्मदेसयाणं गुणस्थानप्रापक क्षयोपगमभावो मार्गस्तस्य दया - दातारस्तेभ्य । सरणदयाण गरदयेम्य - गर=पारिवाण- कर्मरिपुनगीकृततया व्याकुलाना प्राणिना रक्षगस्थान वा तस्य दयास्तेभ्य । 'जीवदयाणं ' जीवदयेम्य -- जीत्रेषु - एकेन्द्रियादिसमस्तप्राणिषु दया–सङ्कटमोचनलक्षणा येषामिति, यद्वा - जीवन्ति मुनयो येन स जीन -सयमजीवितं तस्य दयास्तेय | ' बोहिदयाण' बोधिदयेभ्य - बोधिर्जिनप्रणीतधर्ममूलभूता- तवार्थश्रद्धानलक्षणसम्यग्दर्शनरूपा तस्या दया वोधिदयास्तेभ्य । ' धम्मद्रयाण' धर्मदयेम्य - धर्म - दुर्गतिप्रपतन्तुमरक्षणलक्षण श्रुतचारित्रात्मकस्तस्य दयास्तेभ्य । भावरूप मार्ग है, भव्य जीवोंके लिये प्रभु इसके दातार है । इसलिये प्रभु मार्गदय है । (सरणदयाण) शरणदातारों के लिये नमस्कार हो । प्रभु शरणदातार इसलिये है कि उन्होंने कर्मरूपी रिपु द्वारा वगोकृत होनेके कारण व्याकुल बने हुए समस्त प्राणियों को निर्मय स्थान में पहुॅचनेका उपदेश दिया, अथवा तुम्हारी रक्षा कैसे हो सकती है इसका उपाय बतलाया । ( जीवदयाण) जीवों के ऊपर दया रसने का उपदेश देनेवालों के लिये, अथवा-सयमरूप जीवन को प्रदान करनेवालों के लिये नमस्कार हो । ( बोहिदयाण ) बोधिके दातारोको नमस्कार हो । प्रभुने समस्त ससारी जीवों को जो मोक्षाभिलापी थे उन्हें तत्त्वार्थ के श्रद्धान करने रूप बोधि को प्रदान किया, क्योंकि आत्मकल्याण के मार्ग में सर्वप्रथम यही एक प्रधान साधक है । इसलिये प्रभु इस अपेक्षा से बोधिदातार कहे गये है । ( धम्मदयाण) धर्मके વનારા ક્ષયે।પશમભાવરૂપ માર્ગ છે. ભવ્ય જીવાનેમાટે પ્રભુ તેના દાતાર છે तेथी प्रभु भागध्य छे (सरणदयाण) शरशुहातारीने नभस्अर हो अभु शरशुદાતાર એટલા થાટે છે કે તેમણે કરૂપી રિપુદ્વારા વશીભૂત થઈ જવાના કારણે વ્યાકુલ બની ગયેલા સમસ્ત પ્રાણિયાને નિર્ભય સ્થાનમા પહેાચવાના ઉપદેશ કર્યાં, અથવા તેમની રક્ષા કેમ થઇ શકે તેના ઉપાય મતાન્યેા (जीवयाण) वना पर हया राणवाना उपदेश देवावाजा अथवा भयभय लवन प्रदान ई२वा वाजाने नभस्टार हो ( बोहिदयाण ) मोधिना हाताशेने નમાર હો પ્રભુએ સમસ્ત સસારી જીવેશને જે મેાક્ષાભિલાષી હતા તેમને તત્ત્વાર્થશ્રદ્ધાનરૂપ આધિપ્રદાન કર્યું, કેમકે આત્મકલ્યાણના મામા સૌથી પ્રથમ આજ એક મુખ્ય સાધન છે એ માટે પ્રભુ એ અપેક્ષાએ એધિ हातार उड़ेवाय छे ( धम्मदयाण ) धर्मना हातारीने नभस्जर हो दुर्गतिभा Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकमा - - - - धम्मनायगाणं धम्मसारहीणं धम्म-वर-चाउरंत-चक-बट्टीणं दीवो इहोक्तेषु विशेषणेषु त दयन्ते इत्यपन्याग्यानम् , ' अधीगर्यदयेशाम् ' इति कर्मणि शेपचविवक्षाया पप्यु पत्ते । ओपवाऽविवक्षाया तु, द्वितीयाया सत्वेऽपि 'कमण्यण' इत्यणुपत्या अभयदायेभ्य इरयाधनिएप्रयोगापत्ते?वारत्वात । 'धम्मदेसयाण' धर्मदेशकेभ्य -धर्म प्राप्रतिपादितलक्षण , तम्य देशका उपदेशकास्तेभ्य । 'धम्म नायगाण' धर्मनायकेभ्य --धर्मस्य नायका नेतार -जनानामन्त करणे धर्मप्रचारकरणाद् इति यावत-धर्मनायकास्तेभ्य । 'धम्मसारहीण' धर्मसारयिभ्य --धर्मस्य सारथय धर्मसारथयस्तेभ्य , भगवासु सारथिवाऽऽरोपेण धर्मे रथत्वागेपो व्ययते इति परम्परितरूपकमलबारस्तस्माद्यथा सारथयो रथद्वाग रथस्थान् पथिकान् मुखपूर्वकमभीष्ट स्थान नयन्त्युन्मार्गगमनादितच प्रतिस्न्धते, तथा भगवन्तो धर्मद्वारा मोक्षस्थानदातारोको नमस्कार हो। दुर्गति में पड़ने से जीवोंको रोकनेवाला एक सर्वन वीतराग प्रभु द्वारा प्रतिपादित श्रुतचारितरूप धर्म ही है। प्रभुने ऐसे ,धर्मका जीवों को अपनी दिव्यवाणी द्वारा उपदेश दिया, अत वे धर्मके दातार कहलाये। (धम्मदेसयाण) धर्मदेशकों के लिये नमस्कार हो। (धम्मनायगाण) धर्मके नायकों के लिये नमस्कार हो। प्रमु धर्म के नायक इसलिये कहलाये है कि उन्होंने , जनता के अन्त करण में धर्मका प्रचार किया है। (धम्मसारहीण ) धर्मके सारथियों को नमस्कार हो। यहा परम्परितरूपकालकार है। क्यों कि भगवान मे सारथिव का, जन आरोप किया गया है तो धर्ममें रथत्वका आरोप प्रकट होता है। इसलिये जिसतरह सारथी रथ द्वारा रथस्य पथिक को सुखपूर्वक अभीष्ट स्थान पर पहुँचा .. ढिया , करता है, પડવાથી જીવેને રોકવાવાળા એક સર્વજ્ઞ વીતરાગ પ્રભુદ્વારા પ્રતિપાદિત થત ચારિત્રરૂપ ધર્મજ છે પ્રભુએ એવા ધમને જીને પિતાની દિવ્યવાણી દ્વારા उपदेश माथ्यो, भाटे साधना र वाया (धम्मदेसयाण ) धर्मशिडी ने नभ२४१२ । (धम्मनायगाण') घना नायने नमार हो प्रभु ધર્મના નાયક એટલા માટે કહેવાય છે કે તેમણે જનતાના આ તે કરણમાં धभनो प्रयास ज्या छ (धम्मसारहीण) धर्मना साथियाने नभा२ 'डोઅહી પર પરિત-રૂપક અલકાર છે, કેમકે ભગવાનમાં 'સારથિત્વને આપ કરવાથી ધર્મમાં રથને આપ પ્રકટ થાય છે આ માટે જેવી રીતે અરજી રદ્રારા રથમાં બેસનાર પથિકને ‘સુખપૂર્વક અભીષ્ટ સ્થાને પહોંચાડી દે છે તેમજ બેટા માર્ગેથી તેની રક્ષા કરે છે તેવી જ રીતે પ્રભુએ પણ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ● पीयूuafont-टीका स २० कृणिककृता सिद्धाना महावीरस्य च स्तुति १२७ मितिभाव । ' धम्म - पर चाउरंत-चब-बहीण 'धर्म-पर-वातुरन्त चक्र चर्तिभ्य दानशीलतपोभावैधनसूणा नरकादिगतीना चतुणी वा रुपायाणामन्तो नागो यस्मात्, अथवा चतस्रो गतीचतुर कषायान् वा अन्तयति = नागयतीति यहा -- चतुर्भिर्दानगीलतपोभावै कृपा अन्तोग्य, ' मृताववसिते रम्ये समाप्तावन्त इष्यते ' इति forestra | arar चारो दानादयोऽन्ता = अवयवा यस्य, या चत्वागे दानादय अन्ता स्वरूपाणि यस्य, 'अन्तोsara स्वरूपे च' इति हमचन्द्र स चतुरन्त स एव चातुरन्त स्वार्थिक प्रजायण, चातुरन्त एव चक , 3 एव उन्मार्ग गमन से उसकी रक्षा करता है, उसी प्रकार प्रभु ने भी धर्मद्वारा जीपों को उनके अभीष्ट स्थानरूप मुक्तिस्थान में पहुँचाया है, एवं कुमार्ग-कुधर्म - से उनकी रक्षा की है । (धम्म-वर चाउरत - चकबड्डीण ) दान, शील, तप एव भाव इन चार का सहारा लेकर चार नरकादिगतियों का, अथवा चार क्रोधादिक कपायों का जिससे नाग होता है, अथवा-चार गतियों एवं चार कपायों का जो विनाश करता है, अथवा दान, शील, 'तप एव भाव इनको लेकर जो रम्य है, अथवा ये चार दानादिक जिसके अवयव है, अथवा-ये चार दानादिक जिसके निजस्वरूप है वह चातुरन्त है । अन्त के कोपों मे " मृताववसिते रम्ये समाप्तान्त इष्यते " " अन्तोऽवयवे स्वरूपे च इस प्रकार अनेक अर्थ हे । उन्हीं अर्थों को लेकर यहा £6 "1 अन्त शन्द के है । स्वार्थ में अण प्रत्यय शन्द " अर्थ का स्पष्टीकरण किया गया " ऐसा पद निप्पन्न हो जाता 1 करने से “ चातुरन्त ધર્મેદ્રારા જીવેાને તેમના અભીષ્ટ સ્થાનરૂપ મુકિતસ્થાનમા પહોંચાડયા છે तेभर हुमार्ग दुधमंथी तेभनी रक्षा उरी छे ( धम्मवर चाउरत चछ वट्टीण ) દાન, શીલ, તપ, તેમજ ભાવ એ ચાતે આશ્રય લઈને ચાર નરકાદે ગતિ એના, અથવા ચાર ક્રોધાદિ કાયાના જે વિનાશ કરે છે, અથવા होन, શીલ, તપ તેમજ ભાવ એ લઈને જે રમ્ય છે, અથવા એ ચાર દાનાદિક જેમના અવયવ છે, અથવા એ ચાર દાનાદિક જેના નિજસ્વરૂપ છે તે ચાતુરન્ત છે અન્ત શબ્દના કાર્યમા " मृतावसिते रम्ये समाप्तावन्त " अन्तोऽवयवे स्वरूपे च ” એ પ્રકારે અનેક અર્થ છે તે અર્થા इप्यते " લઈને મહી ત શબ્દના અર્થનું સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવેલુ છે સ્વાર્થમાં જ્ઞ પ્રત્યય કરવાથી σε चातुरन्त ” એવુ પદ્ય નિષ્પન્ન થઈ જાય છે આ પાતુરન્ત જ એક ચક્ર છે, કેમકે ચક્ર જે પ્રકારે બીજાના ઉચ્છેદ કરે છે Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकत्रे 7 जन्मजरामरणोच्छेदकवेन चतुन्यवात् वर च तचातुरन्तचक परचातुरतचक्रम्, चरपदेन राजचकाsपेक्षयाstr श्रेत्व व्यज्यते लोकद्रयसाधकचात् धर्म एव वरचातुरन्तचक धर्मवरचातुरन्तचक्र, तादृगस्य धर्मातिरिक्तस्याऽसम्भवात्, अतएव सौगतादिधर्माssभासनिरास, तेपा तात्विकार्थप्रतिपादकचाभावेन श्रेष्टवाभावात्, धर्मवरचा तुरन्तचकेण वर्तितु गोल येपामिति धर्मवरचातुरतचकार्तिनस्तेभ्य | चक्रवर्तिपदेन पट्खण्डाधिपतिसादृश्य व्यश्यते, तथा हि चचार = उत्तरदिशि हिमवान् शेषदिक्षु चोपाधिभेदेन समुद्रा अन्ता सीमानस्तेषु स्वामित्वेन भवाथातुरता, चक्रेण रत्नहै । यह चातुरन्त ही एक चक है, क्यों कि चक जिस प्रकार पर का उच्छेदक होता है उसी प्रकार यह "चातुरन्तचक्र" भी जीवों के जन्म, जरा एव मरण का उच्छेदक है । इसलिये इसमें नक की उपमा सार्थक होती है। 'वर' शब्द का अर्थ उत्कृष्ट है, यह चातुरतचक में उत्कृष्टता धोतित करता है । राजचक की अपेक्षा यह च उत्कृष्ट है । क्यों कि यह लोक में हित का साधक होता है । धर्म ही एक उत्कृष्ट चातुरन्त चक्र है, अन्य नहीं । इस कथन से अन्य सौगतादिक समत धर्म में धर्माभासता होने से तात्विक अर्थ को प्रतिपादन करने का अभाव कथित हुआ है, अत उनमें श्रेष्ठता नहीं है । इस धर्मवरचातुरन्तचक के अनुसार जिनका नर्तन करने का स्वभाव है वे धर्मवरचा तुरन्तचक्रवर्ती कहे गये हैं । " चक्रवर्ती " पद से पट्खड के अधिपति का सादृश्य अभिव्यक्त होता है । "चत्वारः अन्ताः- चतुरन्ताः " यहा अन्त शब्द का अर्थ सीमा होता है । उत्तरदिशा मे हिमवान् एव शेष तीन दिशाओं में उपाधि के भेद से तीन समुद्र ये चतुरन्त पद से गृहीत १२८ તેજ પ્રકારે આ ચાતુરન્તચક્ર પણ જીવેાના જન્મ, જરા તેમજ મરણને ઉચ્છેદ કરે छेथे भाटे भाभा यऊनी उपमा भार्थ थाय छे 'वर' शब्हनो अर्थ उत्सृष्ट છે. આ પદ ચાતુરન્તુચક્રમાં ઉત્કૃષ્ટતા ઘોતિત કરે છે. રાજ્યકની અપેક્ષાએ આ ચક્ર ઉત્કૃષ્ટ છે કેમકે આ બન્ને લેાકમા હિતનું સાધક થાય છે ધર્મજ એક ઉત્કૃષ્ટ ચાતુરન્તચક્ર છે, બીજી નહિ ! આ કથનથી ખીજા સૌગત આદિક ગમત ધર્મીમાં ધર્માંલાગતા હૈાવાથી તાત્ત્વિક અને પ્રતિપાદન કરવાત અભાવ કહેવામા આવ્યે છે, માટે તેમા શ્રેષ્ઠતા નથી આ ધર્મવર ચાતુરન્તચક્ર અનુસાર જેનું વર્તન કરવાને સ્વભાવ છે તે ધવરચાતુરન્ત ચક્રવતી કહેવાય છે "थपती" पहंथी पट (छ) पडना अधिपतिनु LI અભિવ્યક્ત થાય चत्वार अन्ता चतुरन्ता. " सही भन्त માદૃશ્ય શબ્દના અર્થ સીમા થાય છે ઉત્તરદિશામા હિમવાન તેમજ શેષ ( બાકીની ) Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषपिणी टीका सु. २० कृणिककृता सिद्धाना महावीरस्य च स्तुति १२९ भूतप्रहर गनिशेषमदृशमम्यक्चाग्निरूपग्नन वर्तितु गील येषा ते चकार्तिन चातुरताच ते चकर्त्तिन चातुरन्तचक्रवर्तिन, धर्मेण - न्यायेन वग श्रेष्टा इतरतीर्थिकाsपेयेति धर्मग, धमा प्रागातिपातादिनिवृत्तिदानशीलादिरूपा, 'धर्माः पुण्ययम-न्याय-स्वभावाऽऽचार - सोमपा - इयमर, तैर्नग = श्रेष्टा अन्यतीर्थिकापेयेति धर्मवग, ते च ते चातुरतचकरत्तिनचेति पर्मवरचा तुरन्तचक्रवर्त्तिन । यहा चातुरतच तच चातुरन्तचक, वरन तचातुरन्तचना वरचातुरन्तचक, धर्मो वरचातुरन्तचक्रमिव धर्मपरचातुरन्तचक तेन वर्तितु वर्तयितुवा गील येषा ते धर्मरचातुरन्तचक्रवर्त्तिनस्तेभ्य, 'दीवो' द्वीपेभ्य -मसारसमुळे निमनता द्दीपतुल्यवात् । 'ताण' नाणम्य - कर्मकद - , वर्तन करने का और प्राणाति किये गये है । इन चार सीमाओं के जो स्वामी है वे चातुरन्त हैं । चक्रगद का अर्थ ग्नरूप प्रहरण- शेष है । चकन के चौदह रनों में एक रत्न चक भी होता है । चक्रवर्ती के चकरनसदृग सम्यञ्चारित्ररूपी रत्न से जिनका स्वभाव हे वे चकती है । धर्म अन् का अर्थ न्याय पातादि-निवृत्ति, दान, शीव, आदि भी है । धर्म से न्याय से, पातादि-निवृत्ति, दान, शील-आदि से जो अन्यतीर्थिका का वे धर्मरचातुरन्तचकरता हैं । अथवा चातुरन्तचक्रसदृग धर्म से जिनका वर्त्तने का स्वभाव है वे धर्मरचातुरन्तचक्रवर्ती हैं । ऐसे धर्मारचातुरनचक्रवर्तियों के लिये नमस्कार हो । 'दीवो' मारसमुद्र मे डूबते हुए प्रागियों के जो द्वीप के समान आधार है ऐसे प्रभु के लिये नमस्कार हो । ( ताग ) कर्मों से कदर्थित प्राणियो अथना- प्राणातिअपेक्षा उत्तम है ત્રણ દિશામા ઉપાધિના ભેદ્યથી ત્રણ સમુદ્ર એ ચતુરન્ત પદ્મથી લેવાયુ છે આ ચાર સીમાએના જે સ્વામી છે તે ચાતુરન્ત છે. ચક્ર શબ્દના અર્થ રત્નરૂપ પ્રહરણ અર્થાત્ શસ્ત્રવિશેષ છે. ચક્રવતીના ચૌદ રત્નામા એક રત્ન ચ પણ હાય છે ચક્રવતી ના ચક્રરત્નમદૃશ સમ્યા રિત્રરૂપી રત્નથી વર્તન કરવાના જેના સ્વભાવ છે તે ચક્રવતી છે ધર્મ શબ્દને અ ન્યાય અને પ્રાણાતિપાતાર્દિનિવૃત્તિ, દાન, શીલ આદિ પણ છે ધર્માંથી, ન્યાયથી અથવા પ્રાણાતિપાતાર્દિનિવૃત્તિ, દાન, શીલ આદિથી જે અન્યતીથિકાની અપેક્ષાએ ઉત્તમ કે તે ધર્મવરચાતુરન્તચક્રવતી છે અથવા વરચાતુરન્તચક્રસદૃશ ધર્મથી જેને વવાના સ્વભાવ છે તે ધર્માંવરચાતુરન્તચક્રવતી છે એવા ધર્મવરચાતુન્તચક્રવત્તી આને નમસ્કાર હો (दीपो ) भसारसमुद्रमा डूमता आश्रयाने द्वीपना समान ने साधार Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० औषपातिकसूत्रे ताणं सरणगई पडद्या अप्पडिहय-वर-नाण-दसण-धराणं वियहर्थिताना भव्याना रक्षसक्षणेभ्य । अतण्व तेषा भत्र्याना 'मरणगई। अरणगतिभ्य - आश्रयस्थानेभ्यः, 'पइट्ठा' प्रतिष्ठाभ्य -कालयेऽपि अपिनागिनान् स्थितेभ्य , 'दीवो' इत्यादीनि 'पइट्ठा' इत्यन्तानि चतुर्थ्यर्थं प्रथमान्तानि, अकवचन नपुमकव स्रौत्व चाविवक्षितम् । 'अप्पडियहय-वर-नाण-दसण-धराण' अप्रतिहतपर-ज्ञान दर्शन-धरेभ्य -प्रतिहत-भित्यायावरणस्पलित-न प्रतिहतम्-अप्रतिहत, ज्ञानञ्च दर्शनश्चेति ज्ञानदर्शने, यतोऽप्रतिहते अतएव वरे-श्रेष्ठे च ते ज्ञानदर्शने वरनानदर्शने केलज्ञानकेवलदर्शने, अप्रतिहते वरज्ञानदर्शने अप्रतिहतपरजानदर्शने, तयोर्धरा - अप्रतिहतवरज्ञानदर्शनधरा - सम्यूगारगरहितकेवलनानकेवलदर्शनधारिगस्तेभ्य । 'वियदृच्छउमाण' व्यावृत्तच्छमभ्य - छायते-आनियते केवलज्ञानकेवलदर्शनगुणाद्यामनोऽनेनेति छद्म-जानावरणीयादिक कर्माप्टक, व्यावृत्त-निवृत्त छम येभ्यस्ते व्याव के जो त्राता है ऐसे प्रभु के लिये नमस्कार हो। (सरणगई) भव्यों के लिये आश्रयस्थानस्वरूप प्रभु के लिये नमस्कार हो । (पइहा) कालत्रय में भी अविनश्वरस्वरूप प्रभु के लिये नमस्कार हो (दीवो) यहा से लेकर (पइद्वा) तक के समस्त विशेषण चतुर्थी विभक्ति के अर्थ मे प्रथमान्त प्रयुक्त हुए है । यहा एकवचन, नपुसकत्व एव स्त्रीच अविवक्षित है। (अप्पडिहय-वर-नाणदसण-धराण) जो अप्रतिहत अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन के धारक है, उनके लिये नमस्कार हो। (वियदृच्छउमाण) जिनके द्वारा आत्मा का स्वभावभूत केवलज्ञान एव केवल दर्शन आवृत होता है ऐसे आठों ही कर्म 'छम' शब्द से गृहीत हुए है, यह छद्म जिनकी आत्मा से सदा के लिये दूर हो चुका है सेवा प्रभुन नभ२४१२ डो (ताण) ४ाथी अथात प्राणियाना र त्रा मर्थात रक्षा छे सेवा प्रभुने नभ-४।२ डो (सरणगई ) सव्याने भाटे माश्रय स्थानस्व३५ प्रभुने नभ२७१२ डो (पइट्ठा) त्राणे ४मा अविनाशी२१३५ प्रभुने नम २४१२ डो (दीयो) पडी थी बधने (पइट्ठा) सुधीनामा विशेष यतुथा वितिन અર્થમાં પ્રથમાન્ત વપરાયેલા છે, અહી એકવચન નપુસકત્વ (નાન્યતર જાતિ) सभी सीव [ न ति ] मविपक्षित छ [अप्पटिहय पर नाण दसण धराणे] 2 અપ્રતિહત અનતજ્ઞાન અને અને તે દર્શનના ધારક છે તેમને નમસ્કાર हो (वियट्रच्छउमाण) भनी । मामाना स्वाभूत पर शान तम०४ કેવલ દર્શન આવૃત થાય છે એવા આઠેય કમ “છ” શબ્દથી ગૃહીત થાય Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - । 'मोयगाण, सत्ताण , मुक्त और व्यावृत्तठमपाले पीयूपगपिणी टीका सु २० फूणिककृता मिद्वाना मदायीरम्य च स्तुति १३१ च्छउमाणं जिणाणं जावयाणं तिण्णाणं तारयाणं युद्धाणं वोहयाणं मुत्ताणं मोयगाणं सव्वण्णूणं सव्वदरिसीणं सिव-मयलतछमानस्तेभ्य । 'जिणाण' जिनभ्य -स्थय रागद्वेपशत्रुनेतृभ्य , 'जायपाण' जापकेभ्य -जापयन्ति कर्मगनून् जयन्त भव्यजीनगण धर्मदेशनादिना प्रेरयन्तीति जापका, जिधातोणी 'कीड़जीना णो' दतिसूत्रेण आने पुकि जापि इति ण्यन्ताद्धातोवुलि जापकपदसिद्धि , तेभ्यो जापकेभ्य । 'तिन्नाण' तर्णेभ्य - स्वय ससारौघससारार्णव तीर्गा -उत्तीणास्तेभ्य । 'तारयाण' तारकेभ्य -तारयन्त्यन्यान् इति तारकान्तेभ्य । 'बुद्धाण' बुद्धेभ्य --स्थय चोर प्राप्तेभ्य । 'बोहयाण' बोधकेभ्य -योधयन्यन्यान् इति चोधकास्तेभ्य । 'मुत्ताण' मुक्तेभ्य -अमोचिपत स्वय कर्मबन्धादिति मुक्तास्तेभ्य । 'मोयगाण' मोचकेभ्य -मुच्यमानान अन्यान् प्रेरयऐसे व्यावृत्तछमनाले सिद्ध प्रभु के लिये नमस्कार हो। (जिणाण) राग द्वेष आदि अतरग गनुओं के विजेता से प्रभु के लिये नमस्कार हो। (जावयाण) जो मगनुओं के जीतने के लिये उद्यत भव्यगणों को धर्मदेशनादि द्वारा प्रेरित करते हैं वे जापक है, ऐसे जापक सिद्ध प्रभु को नमस्कार हो। (तिन्नाण) स्य “सार समुद्र से जो पार हुआ है वे तीर्ण है, ऐसे तीर्ण मिद प्रभु को नमस्कार हो । (तारयाण) जो पर को पार कर देते हे चे तारक है, ऐसे तारक प्रमु को नमस्कार हो। (युद्धाण ) रपय बोध को प्राप्त जो होते है वे बुद्ध कहलाते है उनको नमस्कार हो। (योहयाण ) पर को बोध करने वाले प्रभु के लिये नमस्कार हो । ( मुत्ताणं ) मुक्त प्रभु के लिये नमस्कार हो। (मोयगाण) છે આ છા” જેમને આત્માથી સદાને માટે દૂર થઈ ચુકેલા છે એવા વ્યાवृत्तवा मि प्रभुने नभ-४१२ डी (जिणाण) रागद्वेष या मत२ भनुमान विता वा सि प्रभुने नभर है। (जावयाण) २ ४भशत्रुએને જીતવાને માટે ઉદ્યત તૈયાર) ભવ્યગણોને ધર્મદેશના આદિ દ્વારા रित ४२ छे ते १५४ छ मेवा 14s नि प्रभुने नम२४१२ । (तिन्नाण) પિને સસાર સમુદ્રથી પાર થએલા છે તે તીર્ણ કહેવાય છે એવા તીર્ણ સિદ્ધ प्रभुने नभ.२ डी (नारयाण) - भीतने पा२ छ त ता२४ छ साता२४ प्रभुने नभ२४॥२ को (खद्वाण) पात माधन प्रात थयेसा छे ते मुछ उपाय छ भने नभ-४२ डो (पोहयाण) जीतने माघ ४२वावा प्रमुन नमा२ डो (मुत्ताण) भुत प्रभुने नभन्ना२ डो (मोयगाण) मानने Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओपपातिकमा मरुय-मणंत-मस्खय-मव्वाबाह-मपुणरावित्ति सिद्धिगडनामधेय न्तीति मोचकास्तेभ्य , सबन्नूण' मरेभ्य --स-माद्र यगुण पर्यायलक्षण वस्तुजात याथातथ्येन जान तीति सर्वजारतेभ्य , सम्पदरिसीण' सर्वदर्शिभ्य -- सर्व समस्त पदार्थम्वरूप सामान्येन द्रष्टु शील येया ते मशिनरतेभ्य , स्थानविशेषणमाह-'सि' शिव-निखिलोपावरहित गाव्यि-गल्याणमयम्, 'अयल ' अचलम् स्वाभाविकप्रायोगिफचलनक्रियाशून्यम्, 'अरुय' अरुजम् अविद्यमाना रजा यत्र तत् , अरिदमानशरीरमनकत्वाद् आधिव्यापिरहितमि यथ, 'अगत' अनन्तम्अविधमानोऽन्तो नाशो यस्य तत्, अत एव-अखिय' अक्षयम्-नान्ति लेगतोऽ पि क्षयो यस्य तत्-अविनाशीयर्थ , 'अन्यागाह' अत्र्यानाधम्-न विद्यते व्यागाधा--- पीडा द्रव्यतो भावतश्च यत्र तत् । 'अपुणरावित्ति' अपुनरावृत्ति न मसारे पुनरावृत्ति =पुनरवतरण यस्मात् तत् , यत्र गवा न कदाचिदप्यान्मा निवर्तते, समानातमन्यदूसरों को मुक्त कराने वाले सिद् प्रभु के लिये नमस्कार हो। (सवण्णूणं सबदरिसीण) सर्वज- समस्त गुणपर्यायस्वरूप वस्तुसमूह के युगपत् यथार्थ जाता के लिये नमस्कार हो, एवं यथार्थ द्रष्टा के लिये नमस्कार हो। विशेषाकार बोध का नाम ज्ञान एव सामान्याफार बोध का नाम दर्शन है। (सिव-मयल-मस्यमणत-मरवय-मन्बावाह-मपुगरावित्ति सिद्धिगहनामय ठाण सपत्ताण) निखिल उपद्रवों से रहित होने के कारण गिर-कल्याणमय, अचल स्वाभाविक एवं प्रायोगिक क्रिया से शून्य, अरुज-शारीरिक एवं मानसिक व्याधि और आधि से सर्वथा परिवर्जित, अनन्त, अविनाशी, अतएव अक्षयस्वरूप, अव्याबाध-द्रव्य और भाव दोनों प्रकार की पीटा से निर्मुक्त, अपुरावृत्ति--जहा जाकर फिर मसार मे भुत ४२वायाण सिद्ध प्रमुने नमार डो (सरण्णूण मव्वदरिमीण) સર્વજ્ઞ સમસ્ત-ગુણ-પર્યાય-સ્વરૂપ વસ્તુમમૂહના યુગપત્ યથાર્થ જ્ઞાતાને નમસ્કાર હો, તેમજ યથાર્થ કાને નમસ્કાર હો વિશેષાકાર બંધનું નામ ज्ञान तम भाभा-याst धनु नाम दर्शन छ (सिर मयल-मस्य-मणत-मक्सय-मयामाह-मपुणरावित्ति सिद्धिगइनामधेय ठाण मपत्ताण) स४१ पदयाथी રહિત હોવાના કારણે શિવ-કલ્યાણમય, અચલ–સ્વાભાવિક તેમજ પ્રાયોગિક કિયાઓથી શૂન્ય, અરૂજ-શારીરિક તેમજ માનસિક વ્યાધિ અને આધિથી સર્વથા રિવતિ સુકત), અનંત, અવિનાશી અને તેથી અક્ષય-સ્વરૂપ,અવ્યાબાધ દ્રવ્ય અને ભાવ બન્ને પ્રકારની પીડાથી નિમુન, અપુનરાવૃત્તિ-જ્યા જઈને પાછુ Pre Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूपयर्षिणी-ठोका म २० कृणिरफना मिद्वाना महावीरस्य व स्तुति १३३ ठाणं संपत्ताणं, नमोत्थु णं समणस्त भगवओ महावीरस्स त्रापि- 'न म पुनगवर्तते न म पुनगवर्तते '-इति । इत्यम्-उक्तशिववादिविशेषणविशिष्टम् । 'मिद्रिगटनामवेय' मिद्विगतिनामधयम् , सिद्विगतिरिति नामधेय-नाम गम्य तत. मिद्रिगतिनामकम् 'ठाण म्यानम-स्यीयतेऽम्मिन इति स्थानलेकाग्रल गणम , ' सपत्ताग ' मम्प्राप्ता -ममाश्रितभ्य । ट्यदरधि-समुच्चयेन सर्वमिदापे या विशेषगोपादानपूर्वक नमकारवायमभिवाय सम्प्रति भगन्महावारोदेश्यक नमका मभि पत्ते-नमोत्यु ण' नमोऽस्तु पल-समणस्स भगवओ महावीरस्स' अमणाय भगवने-महावागय, अब अमणगदेनायमयों योदव्य --परकृतस्थान-निवासादग्गसम , पर्गपोपमध्यप्रकम्प पादगिग्मिम , तपस्तेजोमर नादनलसम , गम्भीरत्वाद्जान का अपतग्ग नहीं होने से मिद्विगति नामक स्थान को-लोक के अग्रभाग म स्थित मुक्ति थान को-प्राप्त हुए श्री मिद्रां को नमस्कार हो । यहा तक के इन विशेषगों से समन्न मिद्रों की अपेक्षा से नमस्कार का कथन किया गया है। अन भगवान महावार को उय कर क यहा से नमस्कार करने का कथन सूतकार करते है-( नमोत्थु ण समणस्स भगवओ महावीरस्स जादिगरस्स तित्थगरस्स जाव सपारिउकामम्स मम पम्मायरियस्स धम्मोवदेसगम्स ) श्रमण भगवान महावीर के लिये नमस्कार हो। श्रमण गन्द से मनकार ने प्रभु महावीर में इन विशेषताओं का कथन किया है, वे कहते है भगवान महावार मर्प की तरह परकृत स्थान में निवास करने के कारण सर्प-सदृश है। परीपह एव उपसगा के आने पर भी प्रभु अप्ररुप थे, अत वे गिरिसम हे । तप एव तेजके धारक होने से प्रभु अग्नि-जैसे प्रतापशाली है। गाभीर्य एच ज्ञानाटिकरूप સંસારમાં જીવને અવતવુ ન થાય એવા સિદ્ધિગતિ નામના સ્થાનને લોકનાં અગ્રભાગમાં રહેલા મુક્તિસ્થાનને પ્રાપ્ત થયેલ શ્રીસિદ્ધ પ્રભુને નમસ્કાર હો અહી સુધીના આ વિશેષણોથી સમસ્ત સિદ્ધોની અપેક્ષાએ નમારનું કથન કર્યું છે હવે ભગવાન મહાવીરને ઉદ્દેશીને અહી થી નમસ્કાર કરવાનુ કદન मत्र ४२-(नमोत्थु ण समणस्स भगवओ महावीरस्स आदिगरम तित्य गरम्म जान मपानिकामस्स मम धम्मायग्यिस्स धम्मोस्टेसगरस) भए लगवान् મહાવીરને નમસ્કાર હે શ્રમણ શબ્દથી સૂવારે પ્રભુ મહાવીરમાં આ વિશે પતાઓનું કથન કર્યું કે તેઓ કહે છે કે ભગવાન મહાવીર સર્પની પેઠે બીજાએ કરેલા નિવાસસ્થાનમાં રહેવાને કારણે સર્ષ જેવા છે “હું તેમજ ઉપસર્ગો આવતા પણ પ્રભુ પ્રજી જતા નહિં, માટે તે પર્વત Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨૪ अपपातिक आदिगरस्स तित्थगरस्स जाव संपाविउकामस्स मम धम्मायज्ञानादिरनारयात् मर्यादाधारकात सागरसम । निगलम्बन नाद गगनसम | सुख गयोरदगितविकारभावाद् वृक्षसम । अनियतवृत्तियाद् भ्रमग्सम | साम्भयोग्निवात् मृगसम । सर्वसहत्वाद धरगिसम । कामभोगोदभवनेऽपि विषयविरक्ततया पदजलोपरि वर्तमानकमलान्निर्लेपयात कमलसम । लोकालोकयोरभिशेष नेन प्रकाशकचादनिसम | सर्वना" प्रतिहतगतियात्पवनसम । स एवभूतो भगनानस्तीति भान । भगवते - समयैश्वर्ययुक्ताय, महानाराय - महाथासौ बार 'वीर विकान्ती - अम्माद्वातोरिगुपध वाकप्रत्यये वीर - रुपायादिमहारिपुनिजेता इयर्थ, तस्मै महावीराय = अस्यामवसर्पिण्या चतुर्निंगतितमचरमतीर्थङ्कराय । 'आदिगरस्स' आदिकराय 'तित्थगरस्स' तीर्थकराय, 'जात्र सपाविकामस्स' यावत् सम्प्राप्तुकामाय - यावच्छब्दात्- 'सयमवुद्रस्स' इत्यारभ्यरत्नों से भरे हुए होने के कारण, एक मयादा के धारक होने के कारण प्रभु समुद्रतुल्य है । गगन की तरह निरालय, वृक्षकी तरह सुस एव दुख में अदर्शितविकारभावयुक्त, भ्रमर की तरह अनियतवृत्तिमपन्न, मृग को तरह इस भडार वे प्रभु हैं कारण पक से साररूपा भय से अयत नस्त, धरिणी की तरह क्षमा के प्रभु कामभोग से उपन्न है तो भी विषयों से विरक्त होने के उत्पन्न एव जल से मार्जित कमल को तरह बिलकुल वैषयिक भावों से निर्लिप्त इसलिये वायु जैसे अप्रतिहत- विहारी है, भगवान् है । प्रभु एक है, इसलिये प्रभु कमल जैसे हे । प्रभु लोक और अलोक के समानरूप से प्रकाहै, इसलिये रवितुल्य हे । प्रभु सर्वत्र हैं । प्रभु समग्र ऐश्वर्यसम्पन्न है, इसलिये महावीर है, જેવા છે તપ તેમજ તેજના ધારક હોવાથી પ્રભુ અગ્નિ જેવા પ્રતાપશાલી છે 'ગાભીય તેમજ જ્ઞાનાદિક૩૫ રત્નાથી ભરેલા હેાવાના કારણે, તેમજ મર્યાદાના ધાર હોવાના કારણે પ્રભુ સમુદ્ર સમાન છે. આકાશની પેઠે નિરા લખ, વૃક્ષની પેઠે સુખ તેમજ દુ ખમા ન દેખાય જેના વિકાર એવા, ભ્રમરની પેઠે નિયતવૃત્તિસ પન્ન, મૃગની પેઠે આ – સ સારરૂપી ભયથી અત્યત ત્રાસી ગયેલા, ધરનીની પેઠે ક્ષમાના ભડાર, તે પ્રભુ છે પ્રભુ કામ ભાગથી ઉત્પન્ન થયેલા છે તે પણ વિષયેાથી વિરન હેાવાના કારણે કીચડથી પેઢા થયેલ તેમજ જલથી વધેલા મળની પેઠે બિલકુલ વિષયના ભાવેશથી નિલેપ છે, તેથી પ્રભુ કમલ જેવા છે પ્રભુ લેાક અને અલાકના સમાનરૂપથી પ્રકાશક છે તેથી વિ (सूर्य) समान छे प्रभु समय-भैश्वर्य - सपन्न छे તેથી ભગવાન છે પ્રભુ એક મહાન વીર છે, કેમકે તેમણે કષાય આદિક Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषयषिणी टीका स २० कृणिकता मिद्वाना महावीरस्य च स्तुति १३५ 'सिद्धिगइनामधेय ठाण इयविधि ग्राह्यम् । अतावान् विशेष -'ठाण सपत्ताण' स्थान मप्राप्तेभ्य -इति प्रागुक्तम् . यह तु 'सपापिउकामस्स' प्राप्तुकामायमोक्षगामिने-टत्युच्यते, चरमस्य तार्यकरस्य कृणिकनृपशासनकाले विद्यमानवात । 'मम धम्मायरियस्स' मम धमाऽऽचार्याय-ज्ञानाचारादिपञ्चविनाचारपारकाय, न तु कलाचार्याय, क्यों कि उन्होंने कपायादिक अन्तरग शत्रुआ पर विजय प्राम का है । महावार प्रभु इस अपसर्पिगी कार के चौनीसमें अन्तिम तीर्थकर ह । “आदिगरस्स" इस पद-द्वारा प्रभु में अपने शासन की अपेक्षा धर्म की आदिकर्तृता प्रकट का गयी है । भगवान महावार चतुर्विध :घ के स्थापक है । "जाव" पदसे " मयसयुद्धस्स" यहा से लेकर “सिद्धिगटनामधेय ठाण" यहा तकका पाठ सगृहीत किया गया है। यहा इस पाठ में इतनी विशेषता पहिले पाठ की अपेक्षा जान लेनी चाहिये कि पहिले पाठ में "ठाण सपत्ताण-स्थान समाप्तेभ्यः" ऐसा पढ रसा गया है और यहा पर "ठाण सपारिउकामम्स-स्थान समाप्तुकामाय " ऐसा पाठ __ रखा है, क्योंकि प्रभु महावीर अभी उस सिद्विगतिनामक स्थान का प्रामि करनेवाले है। 'मम यम्मायरियस्स-कोणिक कहते है कि ये अमग भगवान महावीर प्रभु, ___ जो कि ज्ञानाचारादि पाँच प्रकार के आचारो के धारक होने के कारण मेरे धर्माचार्य है, कलाचार्य नहीं, उनके लिये नमस्कार है। इससे यह सूचित होता है कि जो जानाचारादि पाँच प्रकार के आचारा के धारक है वे ही धर्माचार्य कहे जाते है। અતર ગ શત્રુઓ પર વિજય પ્રાપ્ત કર્યો છે મહાવીર પ્રભુ આ અવસર્પિણી खाना यावीसभा मतिम तीर्थ४२ छ. “आदिगरस्स" ये ५४थी प्रमुभा પિતાના શાસનની અપેક્ષાએ ધર્મના આદિકર્તાપણુ પ્રગટ કર્યું છે ભગ पान महावीर यतुविध सघना सन्या५ छ 'जाव' ५४थी “ सयसद्वस्स" मही थी बने “सिद्विगइनामधेय ठाण" गाडी सुधीन। 8 सेरामा व्या છે અહી આ પાઠમાં એટલી વિશેષતા પહેલા પાઠની અપેક્ષાઓ જાણવી. न पडेसा पाउमा " ठाण सपत्ताण "-स्थान सप्राप्तेभ्य " मेषु यह १५सयु छ भने माडी “ ठाण सपाविउकामस्स-स्थान समाप्नुकामाय ” । પાઠ લીધે છે, કેમકે પ્રભુ મહાવીર હજુ તે સિદ્ધિગતિનામક સ્થાનને પ્રાપ્ત उपाय छ मम धम्मायरियस्स" ४ि४ छ ३ ते श्रमण भगवान् કે જે જ્ઞાનાચારાદિ પાચપ્રકારના આચારના ધારક હોવાના કારણે મારા ધર્માચાર્ય છે, કલાચાર્ય નથી, એવા પ્રભુ ને નમસ્કાર હો આથી એમ સૂચિત થાય છે કે જે જ્ઞાનારારાદિ પાચપ્રકારના આચના ધારક હોય Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकमूत्रे रियस्स धम्मोवदेसगस्स, वदामि णं भगवंतं तत्थ गयं इहगए, पासउ मे भगवं तत्थगए इहगयंति-कटु बंदह णमंसह, वदित्ता धर्माचार्यत्वमेव प्रकटीकरोनि-'धम्मोपदेसगरस' धर्मापदेशकाय, सुनचारिबन मगरूपधर्मप्ररूपकाय, 'पदामिण भगत तत्यगय दगए' वन्दे गलु भगत तरगतमिहगत -टह गत -चम्पानगरास्थितोऽहम् कोगिक ,तगत चम्पा नगराममाप--ग्राम स्थित भगर त महावीर, वन्दे-पूर्वोक्तस्तुला सुतिविषय करोमि । 'पासउ मे भगा तत्यगए दहगय तिक्?' पश्यतु मा भगवान् तगत दहगतमिति कृचा-मनन गात् तत्रगतो-दूरस्थितो भगवान् इहगत व्यवधानेन स्थित मा पश्यतु इति कृपा-प्रत्युत्वा-'पदइ णममद, वदित्ता णमसित्ता' वन्दते-स्तौति, नमस्यति-पञ्चागनमनपूर्वक प्रगमति, वन्दि ना नमस्थिना 'धम्मोवदेसगस्स' भगवान वार श्रुतचारित्ररूप धर्मका उपदेया करते हैं, इसलिये वे धर्मोपदेशक है, अत ऐसे वीरप्रभु के लिये नमत्कार हो। कोगिक गजा इस प्रकार कहकर प्रमुवार को परोक्ष वदन करते है फि-(तत्थगय दहगएत्ति कटु बदइ णमसइ) वे वीरप्रभु कि जिन्हें मै उस समय नमस्कार कर रहा हू, यद्यपि मेरे प्रयक्ष नहीं है तथापि वे इस चपानगर। के पास के ग्राम मे निराजमान है और मै यहा पर ह, अत यहा चपानगरी मे रहा हुआ भै उपनगरग्राम मे पिराजमान वीर प्रभु को नमस्कार करता हूँ। " पासउ मे भगव तत्थगए इहगय" वे प्रभु वहा पर विराजमान होते हुए व्यवधान से रिथत मुझे अपने ज्ञानरूपा नेत्र द्वारा देसे। इस प्रकार कहकर कोगिक राजाने प्रभु को वढन किया एत्र नमस्कार कियापंचागनमनपूर्वक नमस्कार किया। (वदित्ता नमसित्ता सीहासणवरगए पुरत्याभिमुहे छ भने १ यायाय उकामा आवे छ “धम्मोवदेसगस्म" सगवान મહાવીર શ્રુતચારિત્રરૂપ ધર્મના ઉપદેશક છે તેથી તેઓ ધર્મોપદેશક છે, માટે એવા મહાવીર પ્રભુને નમસ્કાર હે કેણિક રાજા આ પ્રકારે કહીને प्रभु वीरने परोक्ष पहन रे छेउ (तत्थगय इहगएत्ति कट्ट वदइ णमसइ) તે વીર પ્રભુ કે જેમને હુ આ સમયે નમસ્કાર કરી રહ્યો છું તે છે કે મને પ્રત્યક્ષ નથી તે પણ તેઓ આ ચ પાનગરીની પાસેના ગામમાં છે અને હ અહી છુ, આથી હું અહી ચ પાનગરીમાં રહીને ઉપનગર ગામમા વિરાसमान वीर प्रभुने नभा२ -३ पासउ मे भगव तत्थगए इगय ] प्रभु ત્યા વિરાજમાન હોવા છતા દૂર રહેલા એ મને પિતાના જ્ઞાનરૂપી નેત્રદ્વારા જુએ આ પ્રકારે કહીને લેણિક રાજાએ પ્રભુને વદન કયા, Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूपयपिणो-टोका स २० कृणिककृत. प्रवृत्तिन्यापृतमत्कार णमंसित्ता सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे निसीयइ, निसीइत्ता तस्स पवित्तिवाउयस्स अट्रुत्तर सयसहस्सं पीइदाणं दलयइ, दलडत्ता सकारेड मम्माणेड, सकारिता संमाणित्ता एवं वयासी ॥ सू० २० ॥ 'सीहासणारगए ' सिंहासनपरगत , 'पुरत्याभिमुहे ' पौरत्याभिमुस ,-पूर्वाभिमुख सन 'निसीयट' निपादति-उपविगति, 'निसीटत्ता' निपद्य-उपविस्य 'तस्स पवित्तिवाउयम्स' तस्मै प्रवृत्तिव्याताय-भगवनागमननिवेदकाय, 'अठुत्तर सयसहम्स पीटढाण दलयद' अष्टोत्तर शतमझ प्रीतिदान ददाति-अष्टाधिक लक्षमित राजतमुद्रारुप प्रीतिदान=तुष्टिदान पारितोषिक ददाति । 'दलइत्ता सकारेड समाणेड' रवा सत्करोति यत्रादिना, समानयति आसनादिना, दान विधिसहितमेव भत्र्यम्य भपति-इति भार । 'सकारिता सम्मागित्ता एवं वयासी' सत्कृय= सन्तोष्य, समान्य सम्मान विधाय, एव-वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत् ॥ सृ० २० ॥ निसीयड) पढन नमन करके वह कोणिक राजा अपने सिंहासन पर पीछे जाफर पूर्व का तरफ मुग्य करके बैठ गये। (निसीइत्ता तस्स पवित्तिवाउयस्स अट्ठत्तर सयसहम्स पीटदाण दलयड) बैठकर फिर उन्हान उस देशवाहक को प्रीतिदान मे-पारितोपिकरूपसे १ लाय ८ चादी की मुद्राएँ दी। (दलइत्ता सकारेइ सम्माणेट) देकर उसका खूब सत्कार किया और समान किया, (सकारिता समाणित्ता एप बयासी) आदर सत्कार कर चुकने पर फिर राजाने उससे इस प्रकार कहा-सू०२०॥ तेभर नभा२ ४ा-५ -नमन-पूर्व नभ२४१२ ४ा (वदित्ता नमसित्ता सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे निसीयइ ) वहन नभP२ ४ीन ते अ४ि२सन्न પિતાના સિંહાસન પર પાછા જઈને પૂર્વ તરફ મુખ કરીને બેસી ગયા (निसीइत्ता तस्स पवित्तिनाउयस्स अहुत्तर सयसहरस पीइदाण दलयइ) मेसीन પછી તેમણે તે સંદેશવાહકને પ્રીતિદાનમા પારિતોષિક (ઈનામ) રૂપે १ सय ८ मुदाय मापी (दलइत्ता सकारेड समाणेइ) छने तेना भूम २ यो यने सन्मान यु (सकारित्ता समाणिसा एव वयासी) આદર સત્કાર કરી ચુક્યા પછી રાજાએ તેને આ પ્રકારે કહ્યુ -(સૂ ૨૦) Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ १३८ (२० २१-प्रवृप्तिघ्यावृतं प्रति पूणिकस्यादेशः ) औषपातिकतने मूलम्-जया णं देवाणुप्पिया । समणे भगवं महावीरे इहमागच्छेज्जा, इह समोसरिज्जा, इहेब चंपाए णयरीए वहिया पुण्णभद्दे चेइए अहापडिस्व ओग्गहं ओगिणिहत्ताणं अरहा जिणे केवली समणगणपरिवुडे संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरेज्जा, तया णं तुम मम एयमद्वं निवेदिज्जासि-ति कटु विसजिए ॥ सू० २१ ॥ टीका-राजा कूणिको भगवद्वानिवेदक पुरुपमादिशति 'जया ण ' इत्यादि । यदा खल देवानुप्रिय ! श्रमणो भगवान महावीर इहाऽऽगच्छेत् , इह समवसरेत् । इहैव चम्पाया नगया बाह्ये पूर्णभद्रे चैये यथाप्रतिरूपमवग्रहमवगृह्य अरहा जिन केवली श्रमणगणपरिवृत सयमेन तपसाऽऽमान भावयन् विहरेत् , तदा खलु मह्यमेतम) निवेदयेरितिकृत्वा विसर्जित ॥ सू० २१ ॥ 'जया पण इत्यादि (देवाणुप्पिया) हे देवानुप्रिय ! (जया ) जिस समय (समणे भगवं महावीरे) श्रमण भगवान् महावीर प्रभु (इहमागच्छेज्जा) यहा पर विहार करते हुए पधारें, (इह समोसरिजा) यहाँ समयसृत हो, और (इहेव चपाए णयरीए पहिया पुण्णभदे चेइए अहापडिरूव ओग्गहं ओगिण्हित्ताण अरहा जिणे केवली समणगणपरिचुढे सजमेण तवसा अप्पाण भावेमाणे विहरेज्जा) इस चपानगरी के बाहर पूर्णभद्र नामक उद्यान मे यथाप्रतिरूप-साधु को कल्पने योग्यअवग्रह-वसति की आज्ञा वनमाली से ग्रहण कर वे श्रमणगण से परिवृत अरहा जिन ‘जया ण' त्याहि (देवाणुप्पिया) । हेवानुप्रिय । (जया ण) २ समये (समणे भगव महागीरे, श्रम लगवान महावीर प्रभु (इहमागच्छेज्जा) विडार ४२ता ४२ता मही पधार, (इह समोसरिज्जा) सही समस्त थाय, मने (इहेव चपाए णयरीए पहिया पुण्णभद्दे चेइए अहापडिरूव ओग्गहं ओगिण्हित्ताणं अरहा जिणे केवली समणगणपरिखुडे सजमेण तसा अप्पाण भावेमाणे विहरेजा) । ચ પાનગરીની બહાર પૂર્ણભદ્ર નામના ઉદ્યાનમાં યથાપ્રતિરૂપ-સાધુને કલ્પવા યે અવગ્રહ-વસ્તીની આજ્ઞા ગ્રહણ કરીને તેઓ શ્રમણગણથી વી ટળાએલા અરહા જિન કેવલી ભગવાન મહાવીર સ્વામી સત્તર પ્રકારના સયમ વડે Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषषपिणी टीका सू २२ पूर्णमद्रोदयाने भगवदागमनम् मूलम्-तए णं समणे भगवं महावीरे कलं पाउप्पभायाए रयणीए फुल्लुप्पल-कमल कोमलु-म्मीलियम्मि अहपंडुरे पहाए रत्तासोग-प्पगास-किंसुय-सुयमुह-गुंजद्वराग-सरिसे कम टीका-'तए ण' दयादि । ततस्तदनन्तर ग्लु अमगो भगवान् महावीर 'कल्ल' कन्ये द्वितीयदिवसे 'पाउप्पभायाए रयणीए' प्रादुष्प्रभाताया प्रकटीभूत-प्रभाताया रजन्या 'फुल्लुप्पल-कमल-कोमलु-म्मीलियम्मि'फुलो-स्पल कमल-कोमलोन्मीलिते-फुल्ल-विकसित च तत्-उत्पल-पद्म, कमलश्च-चित्रमृग -हरिणविशेष, तयो कोमल-मृदकम् , उन्मीलितपत्राणा नयनयोधोन्मीलन यस्मिन् तत्तथा तम्मिन , र प्रभातविशेषणम् । 'अह' अथ-अनन्तर-रजनीपर्यवसानाऽनन्तरम्-'पडुरे' पाण्डेर-शुक्ले 'पभाए' प्रभात-पात काले, अथ सूर्यविशेषणान्याह-रत्तासोग' इत्यादि । 'रत्तासोग-प्पगास-किंसुय-सुयमुह-गुजद्धराग-सरिसे' रक्ताऽगोक-प्रकाश-किंगुरु-गुरुमुग्म - गुञ्जाऽर्द्रराग-- सदृशे, रक्ताs केवली भगवान महावीर स्वामी मनह प्रकार के मयम से और बारह प्रकार के तप से अपनी आत्मा को भावते हुए जर विचरे, (तया ण) तर तुम निश्चय से (मम एयमह निवेदिनासि) मुझे यह समाचार निवेदित करना, (त्तिकुटु विसजिए ) ऐमा कहकर उसे विसर्जित कर दिया मू०२१॥ 'तए ण' इत्यादि--- (तए ण) तदनन्तर (समणे भगव महावीरे) श्रमण भगवान् महावीर (कल्लं) दूसरे दिन (पाउप्पभायाए रयणीए) जिसमे प्रभात प्रकट हो चुका है ऐसी रजनी के होने पर (फुल्लु-प्पल-कमल-कोमलुम्मीलियमि अहपडुरे पहाए) तथा फिसित कमलपत्रों एव चित्रमृग के नयनों का उन्मीलन जिममे हो चुका है ऐसे शुभ्र आभायुक्त प्रात काल के होने पर, तथा (रत्तासोग-प्पगास-फिंसुयઅને બાર પ્રકારના તપ વડે પિતાના આત્માને ભાવિત કશ્તા જ્યારે વિચરે (तया ण) त्यारे त ४३२ (मम एयमट्ठ निवेदिजासि) भने थे सभायार निवहन. ४२०० (त्तिकट्ट सिजिए) सेम ४डीने तेने विहाय ज्या [सू २१] 'तए ण' त्या (तए ण) त्या२ पछी (समणे भगर महावीरे) श्रभा लगवान महावीर (कल्ल) भी हिपये (पाउप्पभायाए रयणीए) ते रात्रिनु नत्यारे प्रभात घट थयु, (फुल्लु-प्पल-कमल-कोमलु-म्मीलियमि अहपडुरे पहाए) तथा વિકસેલા કમલપત્રો તેમજ ચિત્રમૃગના નયન જ્યારે ઉઘડી ચુક્યા હોય એવી शुल सामावाको प्रात ४ थयो, तथा ( रत्तासोग-पगास-किंसुय-सुयमुह Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. औपपातिकमरे लागर-संड-बोहए उहियम्मि सूरे सहस्सास्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलंते, जेणेव चंपाणयरी, जेणेव पुण्णभद्दे चेहए,जेणेव वणसंडे, शोक =प्रमिद्धवृक्ष -जस्य प्रकाश प्रभा, म मायोकप्रकार मचकिगुरु-परागपुष्प, शुरुमुख च, गुना-रक्तकग फलपिगेप -- च का भाग , तपा यो गगरक्तवर्ण तेन सदृश -समान तस्मिन-तत्तुन्यतालिपयुक्त, 'मलागर-सड-बाहए' कमलाऽऽकर-पण्ट-बोधके-कमानामाकग -कमलो पत्तिम्यागी नटागान्य , तेपु-स्मनाकग्यु यानि पण्डानि-कमलयनानि, तपा नोक विकाशक तस्मिन-कमल-माविकागकारिगा यर्थ , 'उद्वियम्मि' उयिते-उदिते 'मरे' मर्य, पुन कीदृशे 'सहससिमि दिणयर तेयसा जलते' सहस्ररश्मौ दिनको तेजसा चलति-मन-महम्रपरिमिता रमय =फिरणा यस्य स तस्मिन् तादृशे दिनकरे--दिवसकारके, तेसा-विग्णपुग्नेन, चलति-जा-न्यमान सति, 'जेणेव चपा णयरी' यौव चम्पा नगरी वर्तत इति शेप । 'जेर पुगभदे चेदए' यौव पूर्णभद्र चैयमुद्यानमस्ति । 'जेणेष वणसढे' यत्र, वनपग्ट, 'जेणेव असोगवरपायवे' यत्रैवाशोफवरपादप , 'जेणेव पुढविसिलापट्टए' यौन पृथ्वी सुयमुह-गुजद्धराग-सरिसे कमलागर-सड-योहए ) रक्त-अशोक के प्रकागतुल्य, पलाशपुष्प के समान, शुक के मुस के समान और गुजा के आधे भाग का ललाई के समान, कमलवनों को विकसित करनेवाला प्रभात होने पर (उहियमि सूरे) आकाश में सूर्य का उदय होने पर, और पश्चात् (सहस्सरस्सिमि दिणयरे तेयसा जलते) सहस्रकिरणवाला दिनकर जब अपने तेजसे आकाश मे चमकने लगा तर (जेणेप चपाणयरी जेणेव पुण्णभदे चेहए जेणेव वणसडे जेणेव असोगवरपायवे जेणेव पुढवीसिलापट्टए तेणेव उवागच्छद) जहाँ वह चपानगरी थी, जहाँ वह पूर्णभद्र उद्यान था, जहाँ वह अशोक वरवृक्ष था, जहाँ पृथियाशिलापटक था, वहा गुजद्धराग-सरिसे) २४ मशीन प्रश सभान, िशु-मुडाना पुण्य मान, શુકમુખ–પિપટના મુખ્ય સમાન, અને ગુ જાના અર્ધભાગની લાલાશ સમાન (कमलागरसडबोहए) मसना बनाने मीसापाणु प्रभात ॥ (उट्ठियम्मि सूरे) साशमा सूर्य ना ६य यता भने पछी (सहस्मरसिमि दिणयरे, तेयमा जलते ) सहसपिपाण। सूर्य न्यारे पाताना ते४५, मासमा यमका यो त्यारे, (जेणेव चपाणयरी जेणेघ पुण्णभद्दे चेहए जेणेव वणसडे जेणेव असोगवरपायवे जेणेव पुढवीसिलापट्टए तेणेव उवागच्छड) ज्या ते .पानगरी હતી. જ્યા તે પૂર્ણભદ્ર ઉદ્યાન હતું, જ્યા તે અશેઠ વરવૃક્ષ હતું અને જ્યાં Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषयपिणी-टोका सृ २२ पूर्णभद्रोदयाने भगवदागमनम् १४१ जेणेव असोगवरपायवे जेणेव, पुढवीसिलापट्टए तेणेव उवागच्छड, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिव्हित्ताणं असोगवरपायवस्स अहे पुढविमिलापट्टगंसि पुरत्थाभिनुहे पलिपंक निसन्ने - अरहा जिणे केवली समणगणपरिवुडे संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ॥ सू० २२ ॥ 4 ' , • मिलापकोsस्ति, तेणेव उवागच्छ तत्रैनोपागच्छति, उपागय, ' अहापडिरुव ' यथाप्रतिरूपम्-यथासानुरुप, ' ओग्गह' अवग्रहम् - आज्ञाम्, 'ओगिव्हित्ता पण अवगृह्य-गृहीचा सल ' असोसायवम्स अहे ' अशोकपरपादपस्य अघ = अध प्रदेगे, 'पुढवि सिलापगसि' पृथ्वी गिलापट्टके - पृथ्वी गिलाप कोपरि, 'पुरस्थाभिमु हे ' पौरभमुस - पूर्वाभिमु ' पलियक निसन्ने' पच्य निषण्ण - पन्यङ्केन-पल यातिर न आसनविशेषेण निषण्ण उपनिष्ट, 'अरहा' अरहा -जविद्यमान रह = फान्तम्ास्य सोऽरहा - केवलज्ञाननलेन सर्वज्ञ, 'जिणे' जिन - रागद्वेपविजेता, 'केवली' प्राप्त केवलजन, 'समगमगपरिवडे 'श्रम गगगपरित माधुपरिवारमयुक्त 'सजमेग तत्रता अप्पाग भावेमाणे ' यमेन तपसा आत्मान भानयन ' विहरट ' विहरति स्म ॥ सू० २२ ॥ पधारे। (उंवागच्छित्ता अहापडि ओरगह ओगिहाण असोगवरपायवस्स अहे पुढची सिलापट्टासि पुरत्याभिमुहे पलियकनिसन्ने अरहा जिणे केवली समणगणपरिवुडे सजमेणं तत्रसा अप्पाण भावेमाणे विहर: ) पधारन के बाद वे प्रभु साधुसमाचारी के अनुसार वनमाली की आज्ञा लेकर अशोकवृक्ष के नीचे पृथीशिलापट्ट पर पूर्वकी ओर मुस कर पर्यङ्क आसन से ( पलथी मारक ) विराजमान हुए । तथा श्रमणगणों से परिवृत वे अरहा केचली जिन महावीर प्रभु तप एयम से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे || सू०२२ ॥ પૃથિવીરિાલાપટ્ટેક હતેા, ત્યા પધાર્યા ( आगच्छित्ता अहापडिरून ओग्गह ओगिव्हित्ताण असोगनरपायनस्स अहे पुढनीसिलापट्टगसि पुरत्याभिमुद्दे पलियक निसन्ने अरहा जिणे केवली समणगणपरिचुडे सजमेण तवसा अप्पाण भावेमाणे विहरइ ) पधार्या पडी ते साधु-सभाचारी प्रमाणे वनभासीनी भाज्ञा લઈ ને અશે-વૃક્ષની નીચે પૃથિવીશિલાપટ્ટક ઉપર પૂર્વ દિશા તરફ મુખ રાખીને પક આમનથી (પલેાઠી વાળીને) વિરાજમાન થયા તથા શ્રમણુગણેાથી વીટળાઈ ને અરહા કેવલી જિન મહાવીર પ્રભુ, તપ તેમજ સ યમથી પોતાના આત્માને ભાવિત કરતા વિચરવા લાગ્યા સૂ ૨૨ r Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર૪ર औपपातिक - - - - - -- - मृलम्-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी वहवे समणा भगवंतो, अप्पेगडया उग्ग टीका-चम्पाया नगया पूर्णभटोद्याने यदा भगवत श्रीमहावीरस्य समवसरणमभूत् तदा तेन सार्धं समागताना श्रमणाना वर्णन कुर्वनाह-'तेण कालेण' इत्यादि । तस्मिन् सल काले तस्मिन् सल समये च श्रमणस्य भगरतो महावीरस्य श्रीमहावीरस्वामिन अन्तेवासिन --अन्ते समापे चारित्रक्रियायथं वस्तु गोल-स्वभावो येषा तेऽन्ते-- वासिन -शिष्या, 'वहवे 'महब -बहुमख्यका , 'समणा' श्रमणा -साधव 'भगवतो'-भगवन्त -वैराग्येण श्रुतचारित्रलक्षणधर्मेग च युक्त वात् श्रमणा अपि भगवन्त इत्युच्यन्ते । 'अप्पेगया' अप्येके-अपि -समुचये, एफे केचिदित्यर्थ । 'उग्गपवइया' उग्रप्रनजिता-उग्रा आदिनाथेन ये नगररक्षारवेन आरक्षकवेन नियुक्तास्तदाजा प्रत्रजिता = दाक्षिता , उन इनि क्षत्रिय जातिभेद , तदन्त उमा उच्यन्ते, ते प्राजिता इत्यर्थ । 'तेण कालेण' इत्यादि ___ 'तेण कालेण तेण समएण' उसी काल और उसी समयमें (समणस्स भगवओ महावीररस अतेवासी वहवे समणा भगवंतो) श्रमण भगवान् महावीर के बहुत से यमण भगवत अन्तेवासी-समीप में रह कर चारित्रक्रिया आदिके आराधन करने वाले शिष्य थे। शिष्यों का विशेषण जो " समणा भगवतो" है, उसका अभिप्राय यह है कि वे मर अमण-साधु थे, और वैराग्य से, एव ध्रुतचारित्ररूप धर्म से युक्त थे। इनमे (अप्पेगइया) फितनेक (उग्गपपइया) उग्रवश के-आदिनाथ प्रभुने पहिले जिन्हें नगरा की रक्षा के लिये नियुक्त किया था उन पुरुषों के वशके थे। कितोक " तेण कालेणं ' त्या (तेण कालेणं तेण समएण) ते ४ भने त समयमा (समणस्स भगाओ महावीरस्म अतेवासी बहवे समणा भगवंतो) श्रभर लगवान महा વીરના ઘણાય શ્રમણ ભગવત અ તેવાસી સમીપમાં રહીને ચારિત્રક્રિયા આદિના આરાધના કરવાવાળા શિષ્ય હતા શિષ્યોનુ વિશેષણ જે રામના भगवतो छ, तना अलिप्राय से छे तय मा श्रम-सा तो मन शायर तयास्त्रि३५ धर्मथा युत त तशामा (अपेगइया।) साम्मे (उगपव्वइया) पशना-माहिना अधुरे पडेला समान નગરની રક્ષા માટે નિયુક્ત કર્યા હતા તે પુરૂષના વશનાહતા Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४३ - पीयूषषिणी-टीका. स. २३ भगवदन्तेयामिघर्णनम पव्वइया, भोगपव्वइयो, राइपण-णाय-कोरव्व-खत्तिय-पव्वइया, भडा जोहा सेणावई पसत्थारो सेट्टी इन्भा, अण्णे य वहवे 'भोगपवइया' भोगप्रजिता -कपभदवेन ये पूर्व गुरुत्वेन स्थापितास्तद्वराजा भोगा इत्युप्यन्ते, भोगाथ ते प्रत्रजिता दीक्षिता भोगप्राजिता , भोगकुलोपन्ना दीक्षिता इत्यर्थ । 'राइण्ण-णाय-कारब-खत्तिय-पन्नइया' राजन्य-जात-कौरव-क्षत्रिय प्रनजिता -ये तेनैव मित्रवेन व्यवस्थापितास्तद्वयनाथ गजन्या उच्यन्ते, जाता इक्ष्वाकुषणपिशेपे जाता , कौरवा -कुरुनगोपना , खत्तिय क्षत्रिया -क्षतात त्रायन्ते इति क्षत्रिया , ते राजन्यादय प्रत्रजिता , 'भडा'-भटा-चाग्भटा -पदातय , 'जोहा 'योधा -भटभ्यो विशिष्टतरा सहस्रपरिमितैरपि रिपुसैनिकैरेकाकिनोऽपि योद्धु समा । 'सेणाई' सेनापतय -सैन्यनायका , 'पसत्यारो' प्रयास्तार -शासका नातिशास्त्रधुरीगा , "सेट्टी' श्रेष्ठिन - लक्ष्मीदेवताऽध्यासितसौवर्णपद्रमण्डितमस्तका, 'इभा' इभ्या उभो हस्ती तप्रमाणपरिमितमुवर्णादिराशिस्वामिन । एते सर्वे प्राजिता अन्तेयासिनो जाता । ये-च(भोगपवइया) जिन्हे आदिनाथ प्रभुने गुरुरूप से स्थापित किया या उन भोगा के का के थे । कितनेक (राइण्ण-णाय-कोरब-वत्तिय-पवइया) प्रभुने जिन्हे अपने मित्ररूप से स्थापित किया था उन राजन्यों के वा के थे, कितनेक ज्ञात-उदयाकुपा के थे, कितनेक कौरव-कुरुवा के थे, कितनेक क्षत्रियवश के थे। ऐसे ही (भडा जोहा सेपावई पसत्यारो सेट्ठी इन्भा) भट-सामान्यवार, योधा अकेले ही हजारों शत्रुसैनिकों से युद्ध करने में समर्थ वीर, तथा सेनापति, प्रशास्ता न्यायाधीश, सेठ-सर्वापेक्षा अधिक धनी होने का सूचक राजप्रदत्त पट्टबन्ध को धारण करने वाले नगरसेठ, और इभ्य= हाथी प्रमाण सुवर्णादि राशिके स्वामी भी भगवान् के समीप प्रबजित हुए थे। साम (भोगपव्वइया ) भने माहिनाय प्रमुग शु३३ये स्थापित र्या तत सागपशना लता मागे (राइण्ण-णाय-कोरव्य-सत्तिय पव्यया) પ્રભુએ જેમને પિતાના મિત્રરૂપે સ્થાપિત કર્યા હતા તે રાજન્ય-વશના હતા કેટલાએક જ્ઞાત= ઈક્વાકુવશના હતા કેટલાક કૌરવ કુવશના હતા, 21 क्षत्रियशना ततभा (भडा जोहा सेणावई पसत्यारो सेट्ठी इभा) ભટ સામાન્યવીર યોદ્ધા-એકલાજ હજારે શત્રુ સિનિક સાથે યુદ્ધકરવામાં સમર્થનીર, તથા સેનાપતિ, પ્રશાસ્તા-ધારાશાસ્ત્રમાં નિપુણ, સેઠસર્વની અપેક્ષાએ વધારે પૈસાદાર હોવાનું સૂચક રાજ્યતરફથી અપાએલ પગ ધ (ઈલકાબ) ધારણ કરવા વાળા નગરશેઠ, અને ઇભ્યન્હાથી જેવડા સુવર્ણના ઢગલાના સ્વામી પણ ભગ पान पासे प्रति ययाता (अण्णे य यहवो एवमाइणो) लापानी पासे गीत Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ औपातिक __ एवमाडणो उत्तम-जाइ-कुल-रुव-विणय विष्णाण-वण्ण लावण्ण-विक्रम-पहाण-सोभग्ग-ति-जुत्ता वह धण-धण्णपुन 'अण्णे' अन्ये-उतातिरिक्ता , 'पहरे' वहा - यका । 'एमाइणो' एवमादय व प्रकारा , ' उत्तम-नाइ कुल-स्व-विणय विण्णाण पण्ण-विकम पहाणसोभग्ग-कति जुत्ता' उत्तम-जाति-कुर-रूप-विनय विज्ञान-वर्ग-लापण्य-विक्रम-प्रधानमौभाग्य-कान्ति-युक्ता -उत्तमा -श्रेष्ठा जायान्यो विक्रमान्ता , तर-जातिमातुश , कुलपितृवा, रूप-गरीराऽऽकार , विनय कायिक-याचिक-मानसिक पिशुदिनम्रता च, विज्ञाननसाराऽमारतारूपं विशिष्टज्ञान, वर्ण कायफान्ति ,लावण्यम्-आकारस्यैपस्पृहणीयता, विक्रमः पराक्रम , प्रधाने-श्रेष्ठे ये सौभाग्यशान्ती-सोमार-मुन्दग्भाग्यम् , कान्ति -टीमि -एताभ्याम् सौभाग्यकान्तिभ्याम् , तथा उत्तमनायादिभियुक्ता उत्तमजा यादिमन्त प्राजिता , तथा 'बहु-धण-धण्ण-णिचय-परियाल-फिडिया' बहु-धन धान्य-निचय-परिचार(अण्णे य पहबो एवमाटणो) भगवान के समीप और भी बहुत से प्रत्रजित हुए थे, वे सर (उत्तम-जाइ-कुल-रूप-विणय-विष्णाण-वण्ण-लावण-विकमपहाण-सोभग्ग-कति जुत्ता) उत्तमजाति-निर्मलमातृवा, उत्तमकुल=निर्मलपितृवश, उत्तमरूप-सुन्दर आकार, विनय-कायिक वाचिक मानसिक विशुद्धि, अथवा नमता, विज्ञान-मपार को असार समझने का बुद्धि, वर्ण-गरीरकान्ति, लावण्य-गरीर का जगमगाहट, विक्रमः-गारीरिक पल, श्रेष्ठ मौभाग्य और उत्तम दाति से युक्त थे। (वहु-धण-धण्ण-णिचय-परियाल-फिडिया परवड-गुणा-दरेगा इच्छियभोगा मुहसपललिया) कितनेक इस शिष्यमडला मे ऐसे भी थे जो दीक्षित होने के पहिले गणिम एव धरिमरूप धन की एव शाला आदि धान्य की राशियों से, और पाय प्रजित या लता तेमा मया (उत्तम जाइ-कुल रूव विणय विण्णाण वण्ण लावण्ण-विकम-पहाण-सोभग्ग कति-जुत्ता) उत्तभवति-निभं भातृश, उत्तम કુળનિર્મળ પિતૃવશ, ઉત્તમરૂપસુંદરઆકાર, વિનય=કાયિક વાચિક માનસિક વિશદ્ધિ, નમ્રતા, વિજ્ઞાન-સસારને અસાર સમજવાની બુદ્ધિ, વર્ણ=શરીરની કાતિ, લાગ્ય=શરીરને ઝગમગાટ, વિકમ શારીરિકબલ, શ્રેષ્ઠ સૌભાગ્ય તથા उत्तम सिवाणा ता (पधण धण्ण णिचय परियाल फिडिया परवइ-गुणा-इरेगा लियमोगा सुहसंपललिया) 32वामे, 20 शिध्यम वीमा का पता જે દીક્ષિત થયા પહેલા ગણિમ તેમજ ધરિમરૂપ ધનના, તેમજ શાલી આદિ ધાન્યના ઢગલાથી અને દાસદાસીઓ આદિ પરિવાર સમુદાયથી રાજની Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूपयपिणी-टीका स २३ भगवदन्ते धामिरर्णनम णिचय-परियाल-फिडिया परवड-गुणा-डरेगा इच्छियभोगा सुहसंपललिया किंपागफलोवमं च मुणिय विसयसोखं, जलम्फुटिना , तत्र-धनानि-गगिम-धरिमाढीनि, धान्यानि-यान्यादीनि तेपा निचया राशय , वहरथामा धनपान्यानचयाच, परिवारा-दासीटामादिपरिकरा , ते स्फुटिता प्रमागिता , 'नरवड-गुणादरेगा' नग्पनि-गुणा-तिरेका, नरपतिगुणनिमाविलासातिभिरतिरेक आषिश्य येपा ते तथा, 'इन्छियभोगा' इप्मितमोगा -ईमिता -वाञ्चिता भोगामुयन्त इति भोगा सदरूपाढयो विषया येषा ते तथा, परमरिल्लमिन , 'मुहसपललिया' मुग्यमम्प्रगरिता -मुग्न-अनुकूलवेदनीयेन-शुभपरिणामोपार्जितानुकूलगन्दारिजनकपुण्यपुन्जेन मालारिता -मम्यक् वर्धिता , एवविधा पूर्व मुसिनोऽपि प्रत्रजिता , किं कृत्या प्रजिता इत्याह-'किपागफलोबम च' हयादि । किम्पाक-फलोपम-किंपाको वृक्षविशेपम्तफरनुन्यम, किम्पाफफल दर्शन आस्वादे च मनोरम परिणामे प्रागहारक भवति तद्वदित्यर्थ । 'विसयसोरस' विपयसौप्यम्-विषयाणा-गन्दस्पादीना सौग्य सुख 'मुणिय' नावा, च-पुन 'जल-युचुय-समाण' जल चुबुढ-समादासीदाम आदि परिवार समुदाय से राजसी ठाठ वाले थे, जो वान्छित शब्दरूपानिक रिपयों में तल्लीन ये, परम पिलासी थे, एव पुण्य के पुज से ही जिनका मानो लालन-पालन होता रहता था। (किंपाक-फलो-चम च मुणिय पिसयसोकग्व जलगुब्य-समाण कुसग्ग-जल-बिंदु-चचल जीरिय य णाऊण) उन्होंने क्या समझकर क तीक्षा धारण की । इस प्रन का समाधान करते हुए सूत्रकार कहते हैं-उन्होंने यह समझा कि ये वैषयिक सुरस किंपाकफलके समान परिणाम मे अनिष्टकारक है, और यह मानवजीवन पानी के बुलबुले के समान मणभगुर है, एव कुश के अग्र पर रहे हुए जल के पिन्दु के समान चचल है ઠાઇવાળા હતા, જે મનવાછિત શબ્દરૂપ આદિક વિઘામાં તલ્લીન હતા, બહુજ વિલાસી હતા, તેમજ પુણ્યના ઢગલાથી જ જાણે જેમનું લાલન પાલન થતુ हेतु तु (किंपाग-फलो-बम च मुणिय निसयसोम्स जल-जुन्युय-समाण कुस ग्ग-जल-निंदु-चचल जीपिय य णाऊण) तेस से शु समान हक्षा धारी હતી ? એ પ્રશ્નનું સમાધાન કરતા સૂત્રકાર કહે છે તેઓ એમ સમજ્યા કે આ વિષયસુખ કિપાતકલની પેઠે પરિણામે અનિષ્ટકારક છે, અને આ માનવ જીનન પાણીના પરપોટાની પિઠે ક્ષણભંગુર છે, તેમજ કુશના છેડા પર રહેલા पाएन पानी पेठे यस छ म तीन (अद्धवमिण रयमिव पडग्ग Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकवणे बुब्बुयसमाणं कुसग्ग-जल-विंद-चंचलं जीवियं च णाऊण, अद्धवमिणं रयमिव पडग्गलग्गं संविधुणित्ताणं, चइता हिरण्णं, चिच्चा सुवणं, चिच्चा धणं, एवं धणं वलं वाहणं कोसं कोहानम्-यथा जले वुवुढा प्रादुर्भवन्ति झटित्येव नश्यन्ति च तद्वत् आशुपिनागि, तथा 'कुसग्ग-जलन्दुि -चचल' कुशाग्र-जलबिन्दु-चश्चल-कुशाऽग्रे-दर्भपनाप्रभागे यो जलबिन्दु तद्वच्चञ्चल-झटिति पतनशील, 'जीरिय' जापित-मनुष्यजीवनम् , 'णाऊण-जात्वा-अवगत्य, 'अपमिण' अध्रुयमिदम्-इट विषयसौरयधनादिसञ्चयाऽऽदिकम् , अध्रुवम् अनियतरूप, 'पडग्गळग्ग' पटानलग्न, 'रयमिर-रज इव-धूलिकणमिव 'सपिधुणित्ताण' सविधूय-सम्यक्-विशेषरूपेग, पृथक्कृत्य, तथा 'चइत्ता' त्यक्त्या, 'हिरण्ण ' हिरण्य-रूप्यम्, 'चिच्चा सुवण्ण' त्यत्क्या सुवर्णम्, 'चिच्चा धण' त्यक्त्वा धनम् , 'एव' एवम्-अनेन प्रकारेण 'धण्ण'-धान्य-ठाल्यादिसञ्चयम् , वल-चतुर्विध सैन्यम् , 'वाहण' वाहन-रयादिकम् , 'कोस' कोशम्-स्वर्णरजतादिगृहम् , ' कोट्ठागार' कोष्ठागार धान्यराशिगृहम्' 'रज्ज'-राज्य-राजाधिकृतदेशम् ऐसा जानकर (अद्धवमिण रयमिव पडग्गलग्ग सविधुणित्ताण) तथा ये विषयसुख एव धन आदि का सचय सब के सब अध्रुव-अनित्यस्वरूप है, ऐसा विचार कर, उन्होंने पटके अग्रभाग में लगी हुई धूलि के समान उन्हे भावत मन से सर्वथा दूर कर दिया। और ये द्रव्यत बाह्यरूप से भी (चदत्ता हिरण, चिच्चा सुवण्ण, चिच्चा धण एव धण्ण बल वाहण कोस कोट्ठागार रज्ज रह पुर अतेउर चिच्चा, विउल-धण-कणग-रयण-मणि-मोत्तिय-सख-सिलप्पवाल-रत्तरयणमाइय सत-सार-सावतेज विच्छड्डइत्ता विगोवइत्ता, दाण च दाइयाण परिभायइत्ता, मुडा भरित्ता,अगाराओ अणगारिय पव्वइया) हिरण्य-चान्दी का परित्याग कर, सुवर्ण का परित्याग कर,सोनाचान्दी से अतिरिक्त धन का परित्याग कर, इसी तरह धान्य का, लग्ग सविधुणित्ताण ) तथा या विषयसुमतमा घन माहिना सव्यय तमामेતમામ અધવ-અનિત્યસ્વરૂપ છે, એમ વિચારીને તેઓએ વસ્ત્રના છેડા ઉપર લાગેલ ધૂળની જેમ તેમને ભાવપૂર્વક મનમાથી તદન ત્યાગ કર્યો अन तसा द्रव्यथा माध३थे पर (चइत्ता हिरण्ण, चिचा सुपण्ण, चिच्चा वणं, एव धण्ण वल वाहण कोस कोट्ठागार रज्ज र? पुर अतेउर चिच्चा, विउल-धण कणग-रयण-मणि-मोत्तिय-सस-सिलप्पवाल-रत्तरयण-माइय सत-सार-सावतेज्ज विच्छइइत्ता विगोरइत्ता, दाण च दाइयाण परिभायइत्ता, मुडा भवित्ता, अगाराओ अणगारिय पव्वइया) हि२९य याहीना परित्याग ४रीने,सुपए नी परित्याशन, Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषयपिणी-टीका स २३ भगवदन्तेयामियर्णनम् १४७ गारं रजं रह पुरं अंतेउरं चिच्चा, विउल-धण-कणग-रयणमणि-मोत्तिय-संख-सिलप्पवाल-रत्तरयण-माइयं संत-सारसावतेनं विच्छड्डइत्ता विगोवडत्ता, दाणं च दाइयाणं परिभायएकभूपानावावर्तिदेशम् । 'रह' राष्ट्र-देशम्, 'पुर-प्राकारयुक्त नगरम् । 'अतेउर' अन्त पुर-राजनीगा निवासगृहम् , । 'चिचा' त्यक्या 'विउल-पण-कणगस्यण-मणि-मोत्तिय-सब-सिलप्पाल-रत्तरयण-माइय , पिपुल--धन-कनक-रनमगि-मौक्तिक-मज-शिलाप्रपाल–रक्तरनाऽऽदिकम् , तत्र-विपुलानि धनानि-गोपादीनि, कनक सुवर्णम्-अघटितसुवर्णममूहम्, ग्नानि-कर्केननादीनि, मगय -चन्द्रकान्तादय , मौक्तिकानि-मुक्ताफलानि, गाहा -पमाड्सादय , गिल्गप्रपालानि-निद्रुमाणि, रक्तरत्नानि-पारागाटीनि, आदिशदात् शयासिंहासनादिपग्निह । एत सर्वसारभूत कथयति-'सत-सारसावतेन' ससारस्वापतेयम्-सन्-विद्यमान सारो=बहुमूल्यता यत्र तत् ससार, स्वपतौ साधु स्वापतेय-धन, ससारच तस्यापतेय ससारस्वापतेय प्रधानधन त्यक्त्वा, पुन 'विन्छडइत्ता' विद्वंय-परियग, पिच्छर्दवत् कृत्यर्थ । 'विगोवडत्ता' विगोप्य __चतुर्विध सैन्य का, रथाठिफरूप वाहनका,स्वर्ग रजत आदि के स्थानभूत कोशका,कोष्ठागार का, रायका, देशका, पुरका, अन्त पुरका परित्याग कर, एव विपुलधन-गोवृपभादिकका, कनक-सामान्य सुवर्णका, रत्न का, मणि-मौक्तिकका, शख-पशख आदि का, शिलाप्रवाल--विद्रुम का, रक्तरत्न-पद्मरागादिक मणियों का, आदि शब्द से गृहीत शय्यासिंहासन वगैरह इन सनका परित्याग कर, तथा उत्तमसारभूत-कोहीनूर जैसे बहुमूल्य होने से जिसमे सार विद्यमान है ऐसे स्थापतेय-प्रधानधन को भी छोडकर, वमन के समान उससे ममत्व बुद्धि हटाफर, एव जो खजाने मे भी पहिले से गुप्त એના ચાન્દીથી અતિરિક્ત ધનને પરિત્યાગ કરીને, અને એવી રીતે ધાન્યને, ચતુર્વિધ અન્યને, રથ આફિય વાહનને ને ચાદી આદિના સ્થાનભૂત ખજાનાને, કેષ્ઠાગાનો, રાજ્યને, દેશને, પુને, અત પુરને પરિત્યાગ કરીને, તેમજ विपुल (मह) धननी-गाय मण माहिना,४नो-सामान्य सुपए नो, २लना, મણિમેતીને, શ ખપદ્મશ ખ આદિને, શિલાપ્રવાલ--વિદ્યુમ, રક્તસ્ત્ર -પદ્યરાગ આદિ, મણિઓને, આદિ શબ્દથી એમ સમજવાનુ કે પ્યા સિહાસન વગેરે એ બધાને પરિત્યાગ કરીને, તથા ઉત્તમ સારભૂત કેહીનૂર જેવા કિમતી હોવાથી જેમા સાર મજુદ છે એવા સ્વાપતેય-મુખ્ય ધનને પણ છેડીને, વમન (ઉલટી) ની પેઠે તેમાથી મમત્વ બુદ્ધિ હટાવી દઈને તેમજ જે ખજાનામાં પણ પહેલેથી જ ગુપ્ત દ્રવ્ય હતું તેને પણ બહાર Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति मा हान हाता' मुण्डा प्रजिता अमर्याया की, प्रथमो अभपयांया । ૨૪૮ औषपातिकसूत्रे इत्ता, मुंडा भवित्ता, अगाराओ अणगारियं पच्चडया; अप्पेगइया अद्धमासपरियाया, अप्पेगडया मासपरियाया, एवं दुमासयदपि गुप्त-निधी निक्षिप्त धन प्रागासीत् तदपि प्रफटी यनि मार्य, उदारतापूर्वक 'दाण' दान दत्वा, 'दाइयाण' दायादेभ्य --स्वगोरिभ्य 'परिभायइत्ता' विभागगोदत्वा च 'मुडा भपित्ता' मुण्डा भूवाडव्यत गिरोटुचनेन, भारत क्रोधायपनयनन च मुण्टिता भूत्या, 'पव्यया' प्राजिता -श्रमगा जाता हयर्थ । 'अप्पेगठया' अप्येके-केचिद् ‘अद्धमासपरियाया' अर्द्रमासपर्याया कवधि प्रागवस्थायागेन अवस्थान्तराऽऽसौ पर्याय , स पर्यायो जन्मना दीक्षया चेति द्विविध , प्रथमो जमपर्याय , द्वितीयो दीक्षापर्याय , अत्र दीक्षापर्यायो गृह्यते, केचिढईमासाद् गृहीतन्यमपर्याया । 'अप्पेगइया । अप्येके-केचन, 'मासपरियाया' मासपर्याया -मासाऽधे कालाद् गृहीतश्रमणपर्याया । एवम्-अमुना प्रकारेण केचिद्विमासपर्याया , केचित् निमासद्रव्य था उसे भी बाहर निकाल कर, और उदारतापूर्वक उसे दान में व्यय करके तथा सगोत्रियों में विभक्त करके, मुडित हो-द्रव्यरूप से मस्तक लुचितकर एव भावरूप से क्रोधादिक का परिहार कर प्रवजित हुए थे। (अप्पेगदया) कितनेक (अद्धमासपरियाया) इनमे ऐसे थे जिन्हे दाक्षा ग्रहण किये केवल अर्धमास ही हुआ था। (अप्पेगदया मासपरियाया एर दुमासपरियाया तिमासपरियाया जाव एकारसमासपरियाया) इसी प्रकार कितनेक ऐसे थे जिन्हे दीक्षा लिये हुए दो मास हुए थे, कितनेक ऐसे थे जिन्हे दीक्षा लिये ३ मास हुए थे, कितनेक ऐसे थे जिन्हे चार, पाच, छह, सात, आठ, नौ, दश एव ११ ग्यारह કાઢીને અને ઉદારતાપૂર્વક તેને દાનમાં વ્યય કરીને તથા સાત્રિઓમા. વહેચી દઈને મુડિત થઈદ્રવ્યરૂપથી મસ્તકને લુચિત કરીને તથા ભાવરૂપથી अपाहिने छोडन प्रति यया तो (अप्पेगइया ) उसासे ( अद्धमास परियाया ) सेमा सेवा उता माने डासा सीधाने मात्र मर। महिना ४ थयो तो ( अप्पेगइया मासपरियाया एत्र दुमासपरियाया तिमासपरियाया जाय एक्कारसमासपरियाया ) तेवी०४ शत मासे तमामा सेवा उता જેઓને દીક્ષા લીધાને એક માસ થયે હોતે, કેટલાક એવા હતા કે જેઓને દીક્ષા લીધાને બે માસ થયા હતા, કેટલાક એવા હતા કે જેઓને દીક્ષા લીધાને ત્રણમાસ થયા હતા, કેટલાક એવા હતા જેમને ચાર, પાચ, છ, सात मा, नव, इश तभा मागमार मलिना या उता (अप्पेगड्या Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पीयूषयपिणी-दीका सु २३ भगवदन्तेयासियर्णनम परियाया, तिमासपरियाया जाय एकारसमासपरियाया, अप्पेगइया वासपरियाया, दुवासपरियाया, तिवासपरियाया, अप्पेगइया अणेगवासपरियाया संजमेणं तवसा अपाणं भावमाणा विहरति ।। सू. २३ ।। पर्याया यावदेकादयमामपाया , केचिर्पपयाया , केचिद् द्विवर्षपर्याया , केचित् त्रिवर्षपयाया, केचिदनेकवर्षपर्याया , 'मजमेण 'यमेन समदराविधन, तपसा कर्मनिवारकेण द्वादशविधेन 'अप्पाण' आत्मान 'भावेमागा' भावयन्तो पिहरन्ति ।। सू० २३ ॥ महिने हुए थे । (अप्पेगइया वासपरियाया दुवासपरियाया तिवासपरियाया) कितनेक इनमे ऐसेभी ये कि जिन्हे दीक्षा लिये हुए १ र्प, २ वर्ष, एव तानपर्ष आदि हो चुके थे। ( अप्पेगदया अणेगासपरियाया) कितनेक एसे भी मुनिजन थे जिन्ह दीक्षा लिए हुए अनेक वर्ष व्यतीत हो चुके थे। ये सबके सन मुनिजन (सजमेण तवसा अप्पाण भावमाणे विहरति) १७ प्रकार के मयम से एव १२ प्रकारके तपसे अपनी आत्माको भापित करते हुए विचरते थे । भावार्थ-भगवान् महावीर प्रभुकी शिष्यमडली मे अनेक मुनिजन थे। कोई उपकुलके थे, कोई भोगगुलके थे, कोई राजन्यकुलके थे । कोई कौरव वश के थे, कोई क्षत्रियवश के थे। कितनेक भट-सामान्य वीर, योधा, सापति, पगासक, श्रेष्ठी और इभ्य आदि थे। विनय विज्ञान आदि अनेक सद्गुणा से सपन्न ये मुनिजन दीक्षा लेने के पहिले अनेक प्रकार के धनादिक से, एव भोगोपभोग का सामना वासपरियाया दुवासपरियाया तिवासपरियाया) सामे तमामा सेवा पक्ष હતા કે જેમને દીક્ષા લીધાને ૧ વર્ષ, ૨ વર્ષ, તેમજ ત્રણ વર્ષ આદિ થઈ गया हुता (अप्पेगइया अणेगासपरियाया) साये मेवा पशु मुनि हता જેઓને દીક્ષા લીધાને અનેક વર્ષ વીતી ગયેલા હતા તે તમામે તમામ મુનિજને (संजमेण तपसा अपाण भाषेमाणा विहरति) १७ प्र४२ यमयी तेभर १२ પ્રકારના તપથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા થતા વિચરતા હતા ભાવાર્થ–ભગવાન મહાવીર પ્રભુની શિષ્યમ ડલીમાં અનેક મુનિજને હતા કેઈ ઉગ્રકુળના હતા, કોઈ ભેગકુળના હતા, કેઈ રાજન્યકુળના હતા, કઈ કૌરવ વશના હતા કે ક્ષત્રિય વંશના હતા, કેટલાએક ભટ સામાન્યવીર, દ્ધા-વિશિષ્ટવી, સેનાપતિ, પ્રશાસક, શ્રેષ્ઠી અને ઈભ્ય આદિ હતા વિનય વિજ્ઞાન આદિ અનેક સદ્ગુણોથી સંપન્ન એવા આ મુનિજન દીક્ષા લીધા પહેલા Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसने - - मूलम्-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ टीका-'तेणं कालेण' इत्यादि, तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमगस्य भगरतो महावीरस्य 'अतेवासी' से युक्त थे। इनका वैभवविलास राजाओं के वैभवविलास तुन्य था। इन्होंने अपने जीवन में यह विचार किया था कि ये सासारिक विषयमोग किंपाकफल के समान बाहर से ही मनोटर लगते हैं, परिणाम मे ये जीनको महान् दुखदायी है। जलबिन्दु के समान ये क्षणविनश्वर हैं । कुशाप्रभागमें स्थित ओसकी चूद के तुल्य देखते २ नष्ट हो जाते हैं। अत इनका परित्याग ही सर्वश्रेयस्कर है। ऐसा समझ कर ही इन्होंने समस्त धनधान्यादिक परिग्रहका परित्याग किया और प्रमु के पास दीक्षित हो गये। इनमें कितनेक मुनिजनाकी दीक्षापर्याय १५ दिन, एकमास आदि की थी, कितनेक मुनिजनों की १ वर्ष २ वर्ष आदि की थी, एव कितनेक मुनिजनों की अनेक वर्ष की थी ॥ सू २३ ॥ 'तेण कालेण ' इत्यादि० (तेण कालेण तेण समएणं) उस काल में और उस समयमें (समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रमण भगवान् महावीर के (वह) अनेक (अंतेवासी ) शिष्य અનેક પ્રકાગ્ના ધન આદિક તેમજ ભેગોપભેગની સામગ્રીવાળા હતા તેમના વિભવ વિલાસ રાજાઓના વિભવવિલાસ જેવા હતા તેઓએ પિતાના જીવનમાં એમ વિચાર કર્યો હતો કે આ માસારિત વિષયગ કિ પાકકલની પેઠે બહારથી જ મનહર લાગે છે, પરિણામમા તે આ જીવને દુખદાયી છે પાણીના ટીપાની પેઠે તે ક્ષણમા નાશ પામે તેવા છે કુશના અગ્રભાગમાં રહેલા ઓસના ટીપાની પિઠે જોતજોતામાજ નાશ પામી જાય છે આથી તેમને પરિત્યાગ જ સર્વશ્રેયસ્કર છે એમ સમજીને તેઓએ તમામ ધન ધાન્ય આદિક પરિગ્રહને પરિત્યાગ કર્યો, અને પ્રભુની પાસે દીક્ષિત થઈ ગયા તેઓમાં કેટલાક મુનિજનોની દીક્ષા પર્યાય ૧૫ દિવસ, એક માસ વગેરે મુદતની હતી, અને કેટલાક મુનીજનોની દીક્ષા પર્યાય ૧ વર્ષ ૨ વર્ષ આદિની હતી, તેમજ કેટલાક મુનિજનેની અનેક વર્ષની હતી (સૂ ૨૩) “ तेण कालेज" त्या (तेण कालेण तेण समएण) तेसमा मते समयमा (समणस्स भगवओ महावीररस) अभय सगवान् भडापीरना (बहवे) मन (अतेवासी) Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषषिणो-टीका स २४ भगयदन्तेयासियर्णनम् महावीरस्म अंतेवासी वहवे निग्गंथा भगवंतो, अप्पेगइया आभिणियोहियणाणी जाव केवलणाणी, अप्पेगइया मणवलिया अन्तेवासिन -शिष्या 'वहवे' बहन-बहुसरयका , 'निग्गया' निम्रन्या -प्रन्यो द्विविध आभ्यन्तरो बायश्च, ता-पायादिरूप आभ्यन्तर , धनधान्यादिपरिग्रहरूपो वाह्य , तेन द्विविधैन बाह्याभ्यन्तररूपेण अन्येन निर्मुक्ता निर्मन्या , अपना ग्रन्थानिर्गता निम्रन्या -क्रोधादिभिर्धनादिभिश्च मुक्ता इत्यय , भगवन्त 'अप्पेगडया' अप्येककेकेचित् 'आभिणियोहियणाणी' आभिनिनोधिकनानिन –' अभि' इति आभिमुग्ये, 'नि' -इति नैयत्ये, ततश्च-अभिमुरगो वस्तुयोग्यदेशाऽवस्थानाऽपेभी बोध - अभिनिवोध , स एव आभिनियोधिकम् , स्वाय पिनयादित्वात् इकण् प्रत्यय , कवि स्वार्थिकोऽपि प्रत्यय प्रकृति वचनचातिवर्तते, तेन अभिनिगोरस्य पुस्त्वेऽपि आभिनियोपिकस्य नपुसकत्य, यथा विनय एव वैनयिकम् , आभिनिनोधिक च तज्ज्ञानम् आभिनिवोधिकज्ञानम्, तदस्त्येपामित्याभिनिनोधिज्ञानिन, 'जाव' यानत् 'केवलगाणी' केवलजानिन – केरल - शुद्ध - निर्मल - सफलाऽऽरणमलकलङ्करिगमसम्भूत मात्, अथवा थे, जो (निग्गथा) वाह्य एव अन्तरग परिग्रह के सर्वथा त्यागी थे, तथा (भगवतो) त्याग एव वैराग्य से जिनका अन्त करण भरपूर था । इनमे (अप्पेगइया) कितने (आभिगियोहियनाणी) आभिनियोधिक ज्ञानी थे । जो ज्ञान अभिमुस एव योग्यक्षेत्र में स्थित वस्तु को इद्रिय और मनकी सहायता से जानता है वह अभिनियोव है, अभिनिनोन ही आभिनिरोधिक है । आभिनिरोधिक ज्ञान का दूसरा नाम मतिज्ञान है । इस ज्ञान से जो युक्त थे वे आभिनियोधिकजानी कहे गये है। (जाव केवलणाणी) कितनेक श्रुतज्ञानी थे, कितनेक अवधिज्ञानी थे, कितनेक मन पर्ययज्ञानी थे और कितनेक केवलज्ञानी शिध्या त (निग्गथा ) २ मा तम मत परिहना सवथा त्या ता, तथा (भगवतो) त्यागतमा वैशयथा भन। यत ४२९१ सरपूर ता. तेमाभा (अप्पेगइया) 3ामे (आभिणियोहियनाणी) मिनिमाधिજ્ઞાની હતા જે જ્ઞાન અભિમુખ એટલે ગ્ય ક્ષેત્રમાં રહેલ વસ્તુને ઈદ્રિય અને મનની સહાયતાથી જાણે છે તે અભિનિષેધ છે અભિનિબંધ એજ આમિનિબેધિક છે આભિનિધિક જ્ઞાનનું જ બીજુ નામ મતિજ્ઞાન છે આ જ્ઞાનથી જે યુક્ત હતા તેમને જ આભિનિધિજ્ઞાની કહેવામાં આવે छ (जाय केवलणाणी)seal.8 श्रुतनानी ता, सा सवधिमानी उता, કેટલાએક મન પર્યયજ્ઞાની હતા, તથા કેટલાએક કેવલજ્ઞાની હતા કેવલ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ - ओपनिय वयवलिया कायवलिया णाणवलिया दंसणवलिया चारितव 6 सकल-परिपूर्ण-सम्पूर्णज्ञेयमाहिलात, यद्वा केवलम् असाधारण ताध्याऽपरज्ञानाभावात्, केवलच तद् ज्ञान केवलज्ञान, तदस्ति येषा ते कालज्ञानिन । अत्र - आभिनियोधिकन्नानिकेवलजानिनोर्मध्ये यावच्छ दान्मयवधि- मन पर्ययज्ञानिनोऽपि गृपन्ते, निस्तरभयादेपा व्याग्यातो विरम्यते, ‘अप्पेगझ्या' अप्येकके- केचित् 'मणनलिया' मनोनलिका - अनुकुल प्रतिकूलपरिपहेऽपि तत्सहनशीलतया मनोवलधारिण, 'यलिया' वाग्नलिका - प्रतिज्ञातार्थनिर्वाहक्षमा, कायलिया 'कायनलिका क्षुधादि - परिषहपु तानेषु ग्लानिरहितदेहा, ' णाणवलिया ' थे । केवल गदका शुद्ध परिपूर्ण अथवा असाधारण ऐसा अर्थ है । यह ज्ञान शुद्ध इसलिये कहा गया है कि यह आत्मा मे चतुर्विध धातिक्रमों के सर्वथा विनाश से उद्भूत होता है । परिपूर्ण-नपूर्ण इसलिये है कि यह निकालगत समस्त ज्ञेयरागि को युगपत् जानता है । असाधारण इसलिये है कि इसके जैसा और कोई दूसरा ज्ञान नही है । यह केवलज्ञान जिनके आत्मामें अभिव्यक्तरूपमे विद्यमान है वे केरलज्ञानी है | ( अप्पेगइया मणनलिया वयवलिया कायन लिया ) कितनेक मनोनलधारी थे । इसनल के प्रभाव से ही अनुकूल एव प्रतिकूल परिपटों के सहनेमें शक्ति आत्मा को मिलती है । कितनेक वचनबल के धारी थे । प्रतिज्ञात अर्थ को निर्वाह करने की क्षमता इस बलद्वारा आत्मा को प्राप्त होती है । कितनेक कायबल के धारी थे । इसके द्वारा तीत्र क्षुधादिक परीपहा के होने पर भी देहमे थोडीसी भी ग्लानि उद्भूत नहा होने पाती है । ( णाणवलिया दंसणन लिया चारितवलिया) कितनेक निरति I શબ્દને અર્થ શુદ્ધ પરિપૂર્ણ અથવા અસાધારણ એવા છે આ જ્ઞાન શુદ્ધ એટલા માટે કહેવામા આવ્યુ છે કે તે આત્માના ચતુવિધ ઘાતિકાના સર્વથા વનાશથી ઉત્પન્ન થાય છે, પરિપૂર્ણ –સ પૂર્ણ એટલા માટે છે કે તે ત્રણે કાળમા સમસ્ત જ્ઞેયરાશિને યુગપત્ જાણે છે અસાધારણ એટલા માટે છે કે તેના જેવુ બીજુ કાઈ જ્ઞાન નથી આ ડેવલજ્ઞાન જેના આત્મામા अभिव्यक्त३पमा विद्यमान ते ठेवलज्ञानी 3 ( अप्पेगइया मणबलिया वयबलिया कायबलिया ) उटामेर भनोमसधारी हुता, मी असना પ્રભાવથીજ અનુકૂળ તેમજ પ્રતિકૂળ પરીષાને સહન કરવાની શક્તિ આત્માને મળે છે કેટલાએક વચનખલના ધારી હતા, પ્રતિજ્ઞાત અર્થાત્ પ્રતિજ્ઞા કરેલા અનુ પાલન કરવાની ક્ષમતા આ ખલથી જ આત્માને પ્રાપ્ત થાય છે. કેટલાએક કાયબલના ધારી હતા તેના દ્વારા તીવ્ર ક્ષુધા આદિ પરિષહા આવતા પશુ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूपयपिणी-टीका स २४ भगवदन्तेयामिवर्णनम लिया, अप्पेगडया मणेणं सावा-गुग्गह-समत्था, एवं वएणं ज्ञानवलिका -निरतिचारजानवन्त । 'दस गालिया' दर्शनवलिका दर्शन-श्रद्धा तद्रूप बलमस्येपामिति दर्शननलिका - मुरैरपि सम्यवर्मतश्चालयितुमशक्या इत्यर्थ, 'चारित्तपलिया' चारित्रनलिका -दृढचारितवलयुक्ता , 'अप्पेगइया' अप्येककेकेचित, 'मणेण सारा-णुग्गह-समत्या' मनसा शापाऽनुग्रह-समर्या-मनसैव मनोभागान्नैिव पंग्पा गापाऽनुग्रहो-निग्रहाऽनुग्रही कर्तुं ममथा , 'एव' एवम्-अनेन प्रकारेण 'वएण काएण' वाचा कायेन च निग्रहाऽनुग्रहयो समया । 'अप्पेगडया' अप्येकके-'खेलोसहिपत्ता' खेलीपपिंप्राप्ता-खेल -- लेप्मा, म एवौषधि सफलरोगादयचारजाननान ये । कितनक श्रद्धापनलवपन्न थे। इस बल का प्रामि होने पर सम्यान से चलायमान करने के लिये कोई भी शक्ति कार्यकर नहा हो सकती है। कितनेक चारित्ररूपनलपिशिष्ट थे । इस शक्ति की जागृतिमे आत्मा अपने गृहीत चारित्र से रचमात्र भी शियलित नहा होता है। (अप्पेगल्या मणेण सावा-गुग्गह-समत्या एर वएण कायेण ) कितनेक मन से ही शाप एव अनुग्रह करने मे समर्थ थे । इसी तरह वचन और काय से भी समझ लेना चाहिये । (अप्पेगइया खेलोसहिपत्ता, एव जल्लोसहिपत्ता, विप्पोसम्पत्ता, आमोसहिपत्ता, सबोसहिपत्ता) कितनेक ऐसे ये जिन्हे ग्वेलोपविरूप रवि प्राप्त थी। इस लधिमाले मुनिजन का स्वेदज मल भी समस्त शारीरिक डावों का अपहारक होता है। कितनेक ऐसे थे जिन्हे विग्रुडोपरि प्राप्त थी। इस लब्धिवाले मुनि के थूक की बूढे तक भी रोगांपर ओषधिका हेमा ४२१-22ीय सानि त्पन्न यती नथी (णाणालिया दसणवलिया चारित्तपलिया) सामेड नितियार ज्ञानवान हुता सामे श्रद्धा३५બલ–સ પન્ન હતા, આ બિલની પ્રાપ્તિ થતા સભ્યત્વથી ચલાયમાન કરવાને કેઈ પણ સમર્થ નથી કેટલાએક ચારિત્રરૂપ બલવિશિષ્ટ હતા આ શક્તિની જાગૃતિમાં આત્મા પિતે ગ્રહણ કરેલ આરિત્રથી છેડે પણ શિથિલ થત नया (अप्पेगइया मणेण सावाणुग्गहसमत्था एव वएण कायेण) सामे મનથી જ શાપ તેમ જ અનુગ્રહ કરવામાં સમર્થ હતા એવી જ રીતે વચન मने आयाथी पर सभ सेवा नये (अप्पेगइया खेलोसहिपत्ता, एव जल्लो सहिपत्ता विपोसहिपत्ता आमोसहिपत्तासव्योसहिपत्ता) साये मेवा तापमान જલધિ લધિ પ્રાપ્ત હતી આ લબ્ધિ સિદ્ધિ)વાળા મુનિજનના દ (પરસેવા)ના મલ પણ સમસ્ત રારીરિક ઉપદોનો નાશ કરે છેકેટલાક એવા હતા Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनश्यन्तिाय सकलव्याधिपालीसहिपत्ता' जडान सर्वे गेगा विन यापन १५४ औपपातिक काएणं, अप्पेगइया खेलोसहिपत्ता, एवं जल्लोसहिपत्ता, विप्पोसहिपत्ता,आमोसहिपत्ता,सब्बोसहिपत्ता,अप्पेगडया कोवुद्धी,एवं नर्थोपशमनहेतु वात्, ता प्राप्ता , येपा ग्लेप्मस्पर्शेन सर्वे गेगा विनश्यन्ति ते इयर्थ , एवम्-अमुना प्रकारेण 'जल्लोसहिपत्ता' जल्लोपविप्रामा -- 'जल्ल-स्वेदजो मल स एवौषधि सकलल्याधिप्रशमनहेतु पात्ता प्राप्ता, येपा स्वटजमलस्पर्शन रोगा विनश्यन्ति ते इति भाव , 'पिप्पोसहिपत्ता' प्रुिडोपवित्रामा -विग्रुप -निष्ठीवनादिविन्दव , तद्रूपा ओपधिस्ता प्राप्ता , 'आमोसहिपत्ता' आमीपधिप्रामा - आमर्षणम्-आमर्प-हरतादिमस्पर्श इति, स ओपपिरिव इत्यामपिधिस्ता प्रामा । 'सन्योसहिपत्ता' सर्वोपधिप्राप्ता -सर्वे सेलजल्लपिगुटकेशनसाढयस्ते सर्व एवी पधयस्ता प्राप्ता , एपु एकैकस्य सर्वविधरोगोपशमकतयोपधि वाऽऽरोप । 'अप्पेगइया' अप्येकके-केचित्-' कोट्ठसुद्धी' कोष्टनुद्धय -कोष्ठपत्-कुशूलगत् सूनाऽथेरूपधान्यस्य यथालन्धरयाऽविस्मृतस्य आजीवनधारणात् कोष्ठमुद्वय , यया धान्यकाम करती है । कितनेक ऐसे थे जिन्हें आमोपधि प्राप्त हो चुकी थी। इस रधि के प्रभाव से इस लधिप्राप्त मुनिजन का हस्तादिक स्पर्ग औपधि का काम करता है। कितनेक ऐसे भी मुनिजन थे जिन्हे सर्वौषधि नामकी लन्धि प्राप्त हो चुकी थी। इस लब्धिप्राप्त मुनिजन के खेल-श्लेष्मा, जल्ल-स्वेदज मेल, विग्रुट्-यूक आदि के कण, केश और नखादिक सब औषधि का काम करते है । इन सब को औषधि इसलिये कहा गया है कि जिस प्रकार औपधिया रोगोपशामक होती है उसी प्रकार ये सब भी रोगोपशामक होते है । ( अप्पेगइया कोद्वयुद्धी, एव वीयवुद्धी, पडवुद्धी, अप्पेगइया पयाणुसारी, अप्पेगइया सभिन्नसोया) कितनेक ऐसे थे जिन्हे कोष्ठજેમને વિપ્રપધિ લબ્ધિ પ્રાપ્ત હતી આ લધિવાળા મુનિના શૂકનું ટીપુ પણ ઓષધીનુ કામ કરે છે કેટલાક એવા મુનિજન હતા જેઓને આમષષધિ પ્રાપ્ત હતી આ લબ્ધિના પ્રભાવથી આ લબ્ધિવાળા મુનિજનના હસ્તાદિકને સ્પર્શ પણ એષધીનુ કામ કરે છે. કેટલાક એવા પણ મુનિજન હતા, જેમને સવૌષધિ નામની લબ્ધિ પ્રાપ્ત હતી આ લબ્ધિવાળા મુનિજનના ખેલ-કફ, જલ્લ–દજ લ. વિકટ-બૂક આદિના કેણ, કેશ અને નખ આદિ બધુ ઓષધિનું કામ કરે છે એ બધાને ઓષધિઓ એટલા માટે કહેવામાં આવે છે કે જે પ્રકારે ઔષધીઓ मान भाई छ ४ अरे ये पy समस्त रोग मा छ (अप्पेगइया कोहबुद्धी, एवं वीयद्वी, पडसुद्धी, अप्पेगइया पयाणुसारी, सभिन्नसोया) उसासे Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषयर्पिणी-टीका सू २४ भगवदन्तेयासिवर्णनम् १५५ बुद्धी पडबुडी, अप्पेगइया पयाणुसारी, अप्पेगइया संभिसम्भृतकुशूला इष्टदेवताऽनुग्रहप्रभावात्सदा पूणा आमते तथा प्रवर्धमानमेधा परिपूर्णास्तेऽप्यन्तेवासिन इति भाव । ' एवम् इत्थम् 'वीयमुद्धी' बीजवुद्धय - निविधसूनाऽर्थागमरहम्याधिगमनिगाल्टक्षजननाद बीजमिव बुद्धिर्येषा ते बीजवुद्धय - अल्पेनापि पदेन बहूपर्थप्रतिपादकवुद्धिशालिन इति भाव । ' पडबुद्धी' पटवुद्रय -अत्र पटशन्देन पटसदृगा विस्तीर्णा सूनार्थं गद्यन्ते तद्विषयिका बुद्धिर्येषा ते तथा, तन्तुसमुदायात्मकञ्श्वव प्रभूतमनाग्रिहसमर्थज्ञानयन्त इत्यर्थ । ' अप्पेगइया पयाणुसारी ' अप्येकके पदानुमारिंग - पदेनेकेनैन समपदेन तदनुकूलानि तढाकाङ्क्षितानि पदगतान्यबुद्धि प्राप्त थी । जिस प्रकार कोठा धान्य से इष्टदेवता के अनुग्रहवश सदा भरा हुआ रहता है उसी प्रकार इस बुद्धि की प्राप्ति से मुनिजन भी सूत्रार्थरूप धान्य से जीवनपर्यन्त भंग हुए रहते है | वह उन्हे कभी भी विस्मृत नही होता है। कितनेक ऐसे थे जिन्हें नजबुद्धि प्राप्त थी । जिस प्रकार सूक्ष्म से भी सूक्ष्म बीज से विशालनृक्ष तैयार हो जाता है उसी प्रकार इस बुद्धि के धारक मुनिजन भी निविध सूत्रों के अर्थों के अर्थात् आगमों के रहस्यों के ज्ञाता हो जाते है । अल्पपद से भी ये विस्तृत अर्थ के प्रतिपादन करने की योग्यता से विशिष्ट बन जाते हैं। कितनेक पटबुद्धि के धारक थे । पट गन्द मे यहा विस्तृत सूनार्थ गृहीत हुए है। जिस प्रकार वस्त्र तन्तुओं का समुदायात्मक होता है उसी प्रकार उस बुद्धि के प्रभाव से मुनिजन भी विस्तृत सूत्रार्थ के ज्ञानविशिष्ट होते है | कितने पदानुसारी थे । एक ही सून के पद से इतर तदनुकूल एच उस सूत्र એવા હતા કે જેમને વ્રુદ્ધિ પ્રાપ્ત હતી, જે પ્રકારે ઇષ્ટદેવતાના અનુગ્રહથી કાઠાર ધાન્યથી મા ભરેલા રહ્યા કરે છે તેજ પ્રકારે આ બુદ્ધિની પ્રાપ્તિથી મુનિજન પણ સૂત્રના અર્થરૂપ ધાન્યથી જીવનપર્યંન્ત ભરેલા રહ્યા કરે છે તેમા તેને કદી પણ ભૂલી જતા નથી કેટલાએક એવા પણ હતા કે જેમને ખીજબુદ્ધિ પ્રાપ્ત હતી જે પ્રકારે સમમાં પણ સૂક્ષ્મ ખીજથી વિશાલ વૃક્ષ તૈયાર થઇ જાય છે તે જ પ્રકારે આ બુદ્ધિના ધારક મુનિજન પણ વિવિધ સૂત્રોના અર્થને એટલે આગમાના રહસ્યાને જાણનારા થઇ જાય છે અ૫૫થી પણ વિસ્તૃત અનુ પ્રતિપાદન કરવાની ચેાગ્યતાવાળા બની જાય છે કેટલાએક પટબુદ્ધિના ધારક પટ શબ્દથી અહીં વિસ્તૃત સૂત્રા લીધેલ છે જે પ્રકારે વસ્ત્ર એ તતુઓનુ સમુદાયાત્મ૰ હાય છે તેજ પ્રકારે આ બુદ્ધિના પ્રભાવથી મુનિજન પણ વિસ્તૃત સૂત્રાર્થના જ્ઞાનવિશિષ્ટ થાય છે ફેલાફ પટ્ટાનુસારી હતા એક જ સૂત્રના ता Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ औपपातिकसूत्रे काएणं, अप्पेगइया खेलोसहिपत्ता, एवं जल्लोसहिपत्ता, विप्पोसहिपत्ता, आमोसहिपत्ता, सव्वोस हिपत्ता, अप्पेगइया कोट्टबुद्धी, एवं नथपशमनहेतुत्वात्, ता प्राप्ता, येपा श्लेष्मस्पर्गेन सर्ने रोगा नियति ते इयर्थ, एवम् - अमुना प्रकारेण ' जल्लोसहिपत्ता ' जल्लोपनिप्राता जल - सेटजेो मल स एवोपधि सकलव्याधिप्रशमनहेतुनाता प्राप्ता, येपा स्वेटजमलस्पीन रोगा विनश्यन्ति ते इति भाव, 'विप्पोसहिपत्ता ' विप्रुडोपधिप्रामा - निग्रुप - निष्टीवनादिविन्दव, तद्रूपा ओषधिस्ता प्राप्ता, ' आमोस हिपत्ता ' आमर्षोपधिप्रामा आमर्पणम् – आमर्प – हस्ताद्विमस्पर्श इति स ओषधिरिव इयामपपधिस्ता प्राप्ता । ' सन्चोसहिपत्ता' सर्वेपथिप्राप्ता सर्वे सेलजलनिकेशनसादयस्ते सर्व एवौपधयस्ता प्राप्ता एपु एकैकस्य सर्वविधरोगोपशम कतयौ पधिश्चाऽऽरोप । ' अप्पेगइया' अध्येकके–केचित् -' कोट्टनुद्धी' कोष्ठद्रय कोष्टात् - कुशूलात् सूनाऽर्थ - रूपधान्यस्य यथालब्धस्याऽविस्मृतस्य आजीवनधारणात् कोनुद्रय, यथा धान्यकाम करती है । कितनेक ऐसे थे जिन्हें आमर्षोपधि प्राप्त हो चुकी थी । इस लनि के प्रभाव से इस लन्धिप्राप्त मुनिजन का हस्तादिक स्पर्ग औषधि का काम करता है । कितनेक ऐसे भी मुनिजन थे जिन्हे सर्वोपधि नामकी लन्धि प्राप्त हो चुका थी । इस लब्धिप्राप्त मुनिजन के खेल - श्लेष्मा, जल-स्वेदज मेल, निप्रुट् - थूक आदि के कण, केश और नखादिक सब औषधि का काम करते है । इन सन को औषधि इस - लिये कहा गया है कि जिस प्रकार औषधिया रोगोपशामक होती है उसी प्रकार ये सब भी रोगोपगामक होते है। (अप्पेगइया कोबुद्धी, एव बीयबुद्धी, पडबुद्धी, अप्पेगइया पयाणुसारी, अप्पेगइया सभिन्नसोया) कितनेक ऐसे थे जिन्हे कोष्ठ 1 - જેમને વિષુડાધિ લબ્ધિ પ્રાપ્ત હતી આ લબ્ધિવાળા મુનિના ચૂકનુ ટીપુ પણ ઓષધીનુ કામ કરે છે. કેટલાએક એવા મુનિજના હતા જેઆને આમઔષધિ પ્રાપ્ત હતી . આ લબ્ધિના પ્રભાવથી આ લબ્ધિવાળા મુનિજનના હસ્તાર્દિકને સ્પ પણ ઓષધીનુ કામ કરે છે કેટલાક એવા પણ મુનિજન હતા, જેમને સૌ ષધિ નામની લબ્ધિ પ્રાપ્ત હતી આ લબ્ધિવાળા મુનિજનના ખેલ-કક્, જલ-સ્વેદજ મેલ, વિપુત્--શૂ ક આદિના કણ, કેશ અને નખ આદિક બધુ ઓષધિનુ કામ કરે છે એ બધાને ઓષધએ એટલા માટે કહેવામા આવે છે કે જે પ્રકારે ઔષધીઓ रोगने भटाडे छेतेन प्रारे मे पशु समस्त रोग भटाडे छे ( अप्पेगइया कोबुद्धी, एव बीयबुद्धी, पडनुद्वी, अप्पेगइया पयाणुसारी, सभिन्नसोया) डेटला भेड Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५७ पीयूपषिणी-टीका स. २४ भगवदन्तेषामिवर्णनम् गइया सप्पियासवा, अप्पेगडया अक्खीणमहाणसिया, एवं मधुरवचनान्यास्रवन्ति येपा ते तथा, 'अप्पेगटया सप्पियासमा अप्येकके सर्पिरास्रवा -घृतवलोतगा स्नहातिशयसम्पादका, सोनुमेहानिशयमपादकवादेव ते क्षीरास्रवमच्याबवेभ्यो भेदेन कथिता, 'अप्पेगडगा अपवीणमहाणसिया' अप्येकके अक्षीगमहानसिका - अक्षीगमहानमीं नाम लचि प्राप्ता, अत्र महानसम्-अन्नपाफम्यान, तदायितत्यादन्नमपि महानममुन्यते, असीग-भिलार्यमागताय लधिविशेष धारिणे माधवेऽने प्रदत्ते सति तन्यशिष्टमन्न पुस्पातसहस्रेभ्योऽपि दीयोर्मन नक्षीयते, यावत्तदन्नस्वामी स्वय न भुक्ते, अपिच भिक्षापारगत तदन्न लन्धिविशेषप्रभागादेव साधुगतसहस्रेभ्योऽपि परिविष्यमाण न क्षीयते यावत् तदन्नभियाग्राहक स्वय न भुक्ते, निकला करते थे। सीराबवलन्धि का काम यही है कि यह जिसे प्राप्त होता है वह क्षीर के समान मधुर वचनों को सदा बोग करता है। कितनेक ऐसे मुनिजन थे जो मध्वानव थे, जिनके मुसफमल से मधु के तुल्य मधुर वचन निकला करते थे। कितनेक ऐसे ये जो मर्पिरास्रव थे-घृत के समान स्नेहापादन करनगाले वचनों के प्रयोक्ता थे। कितनेक अक्षीणमहानसिक थे । इस लन्धिप्राप्त मुनिजन का यह प्रभाव होता है कि यह जिस घर से मिक्षा ले आवे उस घर का अपशिष्ट अन्न जबतक देनेवाला स्वय न या लेये, तरतफ लाग्य आदमियों को भी वितरित करने पर सूटता नहीं है । तथा उस साधुद्वारा लाया गया वह भिक्षान भी जबतक लानेवाला साधु स्वय न ना लेवे तबतक लारस साधुओं द्वारा आहारित होने पर भी શ્રોતાજનના પ્રતિ દિધપાક જેવા મધુર-મીઠા વચન નીકળ્યા કરતા હતા ક્ષીરસવ લધિનું કામ એ જ છે કે તે જેને પ્રાપ્ત થાય છે તે દૂધપાક જેવા મધુર વચને જ સદાય બોલ્યા કરે છે કેટલાક એવા પણ મુનિજને હતા જે મેવાસવ હતા જેમના મુખકમલમાથી મધના જેવા મધુર વચન નીકળે છે તે મધ્વાસ છે કેટલાક એવા હતા કે જે સર્પિરાસ્રવ હતા, વીની પેઠે નેહાપાદન કરવાવાળા વચને બોલનારા હતા કેટલાએક અક્ષણમહાનસિકલબ્ધિધારી હતા, આ લબ્ધિપ્રાપ્ત મુનિજનને એ પ્રભાવ હોય છે કે તે જે ઘેરથી ભિક્ષા લઈને આવે તે ઘરનું બાકીનું અન્ન જ્યા સુધી દેવાવાળો પતે ન ખાય ત્યા સુધી લાખો માણસોમાં વહેચી આપે તે પણ ખૂટી જતુ નથી તથા તે સાધુએ લાવેલુ તે ભિલાનુ અન્ન પણ તે લઈ આવનાર સાધુ પિતે ખાય નહિ, ત્યા સુધી લા સાધુઓ તેને આહાર કરે તેય પણ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ ओपपातिपत्रे - - नसोया, अप्पेगडया खीरासवा, अप्पेगइया महुयामबा, अप्पेनुसरन्ति तन्ठीग । अपेनाऽगापापका इयर्थ । ' अपेगडया संमिनसाया' अप्येकके गभिन्नयोनार --मभि नान गटान-गृया २ युगपश्यन्ति इनि भिन श्रोतार , यद्वा सभिन्नानि-न्टेन सरहाति पाहागि गोतामि-सांगीन्द्रियागि येपा ते मभिन्नश्रोतम | 'अप्पेगडया सीरामया' अन्यके भीराऽषा -- मधुरत्वेन क्षीरवद्-दुग्धोत्रणा मुगकगणि वचनान्यानरन्ति-गुग्ग-यो पिनिगच्छन्ति येपा ते सराऽऽनया , 'अप्पेगडया मयासमा' अयेके मजालना - मधुवत् में आकाक्षित अन्य सैकडी पदों का भी जो अनुसरण करनेवाले होते है वे पदानुसारी कहलाते है । फितनेक गमिन्नयोता ये । सभिन्न श्रोता मुनिजन अनेक भेदो से भिन्न २ गदों को भी युगपत् पृथक २ रूप से सुन लिया करते है। एक ही साथ अनेक शब्द एकत्र हो रहे हो, तो भी भिन्नश्रोता उन गन्दी को पृथक् २ रूप से युगपत् जान लिया करते है, अथवा 'श्रोतम्' गद्ध समस्त इन्द्रियों का वाचक है, इससे यह अर्थ लप होता है कि मभिन्न श्रोता मुनिजन की समस्त इन्द्रियाँ गन्दो से सनद रहा करती है, अर्थात वह ओर--इन्द्रियका काम शेष चार इन्द्रियों से भी लेते है, एक इन्द्रिय से अन्य इन्द्रियों का काम लेते हैं। ( अप्पेगच्या ग्वीरासवा अप्पेगइया महुयासा अप्पेगल्या सप्पियासमा अप्पेगइया अरखीणमहाणसिया) कितनेक ऐसे भी थे जिनके मुस से योताजनों के प्रति क्षीर के जैसे मधुर-मीठे वचन પદથી બીજા તેને અનુકળ તેમજ તે સૂત્રમાં આકસિત અન્ય સે કડે પદના પણ જે અનુસરણ કરવાવાળા હોય છે તે પદાનુસારી કહેવાય છે કેટલાએક સભિન્ન-શ્રોતા હતા ભિન્નશ્રોતા મુનિજને અનેક ભેદોવાળા જુદા જુદા શોને પણ યુગપત જુદા જુદા રૂપથી સાભળી લે છે એકીસાથે અનેક શબદ એકત્ર થઈ જાય છે તે પણ સ ભિન્નશ્રોતા તે ગાદેને જુદા જુદા રૂપથી યુગપત જાણી લે છે અથવા શ્રોત શબ્દ ઈનિ વાચક છે તેથી એવો અર્થ નીકળે છે કે સભિન–શ્રોતા મુનિજનની સમસ્ત ઈક્રિઓ પદ્ધ સાથે સબદ્ધ રહ્યા કરે છે (જેડાએલી રહે છે), અર્થાત તે શ્રોત્ર ઈદ્રિયનું કામ બીજી ચાર ઈદ્રિ પાએથી પણ લે છે એક ઈદ્રિય પાસે બીજી ઈન્ટિयोनु मलेछ (अप्पेगइया सीरासना अप्पेगडया मयासमा अप्पेगइया सपियासवा अप्पेगइया अस्पीणमहाणसिया) उसासे मेपा ५५ हुता, २भना भुगथी Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषयपिणी टीका सु. २४ भगवदन्तेषामिवर्णनम १५७ गइया सप्पियासवा, अपेगइया अक्खीणमहाणसिया, एवं मधुराचनान्यायन्ति येषा ते तथा, 'अप्पेगडया सप्पियासवा' अप्येकके मर्पिरास्रवा घृतनच्छ्रोतॄणा मोहातिशयमपाका, श्रोतृहातिशयमपादान ते क्षमाभ्यो भेदेन कविता ' अपेगडा अम्मी महाणसिया ' अप्येकके अक्षीणमहानसिका - अक्षीगमहानसा नाम लपि प्राप्ता अत्र महानसम् - अन्नपाकस्थान, तानामपि महानममुच्यते, अलीग-भिनार्थमागताय लधिविशेषधारिणे साधनेऽन्ने प्रत्त्ते मति तत्यष्टिमन्न पुरुषानमहत्रेभ्योऽपि तयोर्मन न क्षीयते, यावत्तदन्नस्वामी स्वयं न भुङ्क्ते, अपिच भिक्षापानगत तदन्न प्रभावादेव साधु 1 , महस्रेभ्योऽपि परिनिष्यमाण न क्षीयते यावत् तन्नभियाग्राहक स्वयं न भुङ्क्ते, निकल्प करते थे । क्षीरास का काम यही है कि यह जिसे प्राप्त होता है वह क्षीर के समान मधुर वचनों को सदा बोला करता है। कितनेक ऐसे मुनिजन ये जो मध्यान थे, जिनके मुखकमल से मधु के तुल्य मधुर वचन निकला करते थे। कितने ऐसे थे जो मर्पिरा - घृत के समान स्नेहापाउन करनेवाले वचनों के प्रयोक्ता थे। कितनेक अक्षीणमहानसिक थे । इस लनिप्राप्त मुनिजन का यह प्रभाव होता है कि यह जिस घर से मिला ले आवे उस घर का अवशिष्ट अन्न जनतक देनेवाला स्वय न सा लेने, तनतक लास आदमियों को भी वितरित करने पर सूटता नहीं है । तथा उस साधुद्वारा लाया गया वह भिक्षान भी जनतक लानेवाला माधु स्वय न सा लेने तबतक लाय साधुओं द्वारा आहारित होने पर भी શ્રોતાજનાના પ્રતિ પાક જેવા મધુર-મીઠા વચન નીકળ્યા કરતા હતા ક્ષીરાવ લબ્ધિનુ કામ એજ છે કે તે જેને પ્રાપ્ત થાય છૅ તે દૂધપાક જેવા મધુર વચને જ સદાય ખાલ્યા કરે છે. કેટલાએક એવા પણ મુનિજના હતા જે મ'વાસવ હતા જેમના મુખ-મલમાથી મધના જેવા મધુર વચન નીકળે છે તે મવાસવ છે. કેટલાએક એવા હતા કે જે સર્પિાસ્રવ હતા, ગીની પે સ્નેહાપાદન કરવાવાળા વચના મેલના હતા કેટલાએક અક્ષીણમહાનસિક લબ્ધિધારી હતા, આ લબ્ધિપ્રાસ મુનિજનને એવા પ્રભાવ હોય છે કે તે જે ઘેરથી ભિક્ષા લઇને આવે તે ઘરનુ બાકીનુ અન્ન જ્યા સુધી દેવાવાળે પેાતે ન ખાય ત્યા સુધી લાખા માણામા વહેચી આપે તે પણ ખુટી જતુ નથી તથા તે સાધુએ લાવેલુ તે ભિક્ષાનુ અન્ન પણ તે લઈ આવનાર સાધુ તે ખાય નહિ, ત્યા સુધી લાખેા સાધુએ તેના આહાર કરે તેય પણ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ औपातिकमरे उज्जुमई,अप्पेगडया विउलमई विउव्वणिढिपत्ता चारणा विजाएवम् 'उज्जुमई' जुमतय --मनन मनि , मोदनमियर्थ -7ी सामान्यग्राहिगी मतियेपा ते मजुमतय । अर्धतृतीयोच्यालन्यूनमनुप्यक्षेत्रमर्तिसजिपञ्चेन्द्रियमनोव्यप्रत्यक्षीकरणहेतुमन पर्ययज्ञानविशेषान्त इत्यर्थ । ऋजुमतिनामफलधिविशेषधारिण इति भाव । अप्पेगइया पिउलमई अप्येकके पिपुल्मतय - पिपुला सविशेषणवस्तुमाहितया विस्तीर्गा मति -मन पर्ययज्ञान येपा ते विपुलमतय । मजुमतिविपुलमतिमतामय तात्विको भेद, पिपुलमतय -- घटेाऽनेन चिन्तित , स घटो द्रव्यत - सुवर्णघटित , क्षेत्रत - पाटलिपुत्रनगरस्य, कालत -- शारदीय , भावत -पीतवर्ण इत्येनमशेषविशेषणयुक्त वस्तु जानन्ति, ऋजुमतयस्तु सामायत एव जानन्ति । अर्द्धतृतीयोच्छ्याऽगुलन्यूने मनुजक्षेने वर्तमानाना सजिपञ्चेन्द्रिखूटता नहीं है । (एव उज्जुमई, अप्पेगइया विउलमई विउबणिढिपत्ता चारणा विजाहरा आगासाइवाई ) इस प्रकार कितनेक तपस्वी शिष्यजन ऋजुमति-मन पर्यवज्ञानवाले थे । मजुमति-मन पर्यवज्ञानी सामान्यत मनी-पचेन्द्रिय के मन के भावों को जानते है । कितनेक विपुलमति-मन पर्यव के धारक थे-विशेषणसहित वस्तु को ग्रहण करने की बुद्धिवाले थे। जैसे किसी ने द्रव्य की अपेक्षा सुवर्ण का, क्षेत्र की अपेक्षा पाटिलपुत्र का, काल की अपेक्षा शरदकाल का और भाव की अपेक्षा पीत वर्णका घट चिन्तित किया, विपुलमति इन समस्त विशेषणों सहित उस घट को जान लेते है । अर्द्धतृतीय अगुलसे न्यून इस मनुष्य क्षेत्रमें वर्तमान सजि पचेन्द्रिय जीवों के मनमें स्थित वस्तु का सामान्यत जाननेवाला मजुमति-मन पये भूटत नथी (एव उज्जुमई अप्पेगइया विउलमई विउध्वणिडिढपत्ता चारणा विज्जा हरा आगासाझाई) ते मारे सामे त५२वी शिष्यन भति મન પર્યવજ્ઞાની હતા ઋજુમતિન –પર્ધવજ્ઞાની સામાન્યત સી-૫ ચેદ્રિયના મનના ભાવેને જાણે છે કેટલાક વિપુલમતિ-મન પર્યાવન ધારક હતા, વિશેષણસહિત વસ્તુને જાણનારી બુદ્ધિવાળા હતા જેમ કે કેઈએ દ્રવ્યની અપેક્ષા સુવર્ણના, ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ પાટલિપુત્રના, કાલની અપેક્ષાએ શરદકાલના, અને ભાવની અપેક્ષાએ પીળા રંગના ઘટનુ ચિતવન કર્યું, ત્યારે વિપુલમતિ એ બધા વિશેષ સહિત તે ઘટને જાણી લે છે અદ્ધતૃતીયએ ગુળનૂન આ મનુષ્ય ક્ષેત્રમાં વર્તમાન સન્ની પચે ક્રિય જીના મનમાં રહેલ વસ્તુને સામાન્યત જાણવાવાળા ઋજુમતિ-મન પર્યવ જ્ઞાન થાય છે, તેમજ સંપૂર્ણ મનુષ્યક્ષેત્રમાં વર્તમાન Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५९ पीयूषपिणी टीका स २४ भगयदन्तेयासियणनम् यागा मनोऽस्थिनवस्तुन मामान्यता प्राहिका मजुमति । सम्पूर्णे मनुजक्षेत्रेऽरोपविशेषवस्तुमाहिका विपुलमति । पिपुलमतिनामफलन्निविशेषारिग इति भाव । 'विउव्वणिहिपत्ता' णिर्दिप्राप्ता -पिपुर्वगा-चैक्रियकग्गलपि सैव ऋदि , ता प्राप्ता ये ते तथा ।' निर्व' विक्रियाम् इति पारिभाषिक सौत्रो धातु , अस्माद्धातोयुच्प्रत्यये पिकुर्वणा, नानारूपा निक्रिया- रचने यथ, वाह्यङ्गलान भवधारगीयशरीरानपगाढक्षेत्रप्रदेशवर्तिना क्रियममुद्धातेन गृहीवा एका विकुर्वगा क्रियते, एवम् आभ्यन्तरपुङ्गा भवपारिणीयेनौदारिकेण वा शरीरेण ये क्षेत्रप्रदेशमवगाढास्तेष्वेव ये वर्तन्ते तान् गृहीना विज्ञेया । एव वाद्यान्तरपुद्गल्योगेन तृतीया विकुर्वगा वाया। म्यानाड्गमूत्रे-(३ ठा १३०) सविस्तर वर्णिता । 'चारणा' चारणा -चरण गमनम् अतिशययुक्तमस्ति येपा ते चारणा , 'ज्योम्नादिभ्योऽग्' इति पागिनिमूत्रान्मत्वर्थीयोऽण्प्रयय । आकाशगमनागमनरूपलधिसम्पन्ना इत्यर्थ । ते द्विविधा -विद्याचारणा, जयाचारणाश्च । नत्र विद्या-पूर्वगतपिपक्षितश्रुतज्ञानाश , तदभ्याससमये पष्ठपष्ठनिरन्तवज्ञान होता है, एव सम्पूर्ण मनुप्यक्षेत्र में वर्तमान समस्त वस्तुओं चादर पदार्थों को विशेषरूप से जाननेवाला विपुलमतिमन पर्यवज्ञान होता है। कितनेक वैक्रिय-लन्धि के धारी ये । वैशियलन्धि अनेक प्रकार की होती है। इस ऋद्धि के धारी मुनिजन अनेक प्रकार से अपन शरीर की विकुर्वणा कर लेते है। इसका विशेप वर्णन स्थानाग सूत्र के तृतीय ठाणे के प्रथम उदेशक में किया गया है। कितनेक चारगलन्धि के धारक थे। चारगलन्धि के धारी मुनिजना का गमन अतिशयसपन्न होता है । इस सद्वि के धारक मुनियों का गमनागमन आकाश में होता है। चारणद्धिधारी मुनिजन दो प्रकार के होते हैं- एक विद्याचारण, दूसरे जघाचारण । १४ पूर्ती मे विवक्षित श्रुतज्ञान સમસ્ત વસ્તુઓ બાદર પદાર્થોને વિશેષરૂપે જાણવાવાળા વિપુલમતિ-મન પર્યવજ્ઞાન થાય છે કેટલાએક વયિલબ્ધિના ધારક હતા વૈક્રિયલબ્ધિ અનેક પ્રકારની થાય છે એ ઋદ્ધિના ધારક મુનિજને અનેક પ્રકારથી પિતાના શરીરની વિમુર્વણ કરે છે આનુ વિશેષ વર્ણન સ્થાનાગ સૂત્રના તૃતીય ઠાણા પ્રથમ ઉદ્દેશકમાં કરેલ છે કેટલાક ચારણલબ્ધિના ધારક હતા ચારણલબ્ધિના ધારક મુનિજનેનુ ગમન અતિશયસ પન્ન હોય છે આ ઋદ્ધિના ધારમુનિઓનું ગમનાગમન આકાશ માગે થાય છે ચારણ-ક્ષદ્ધિધારી મુનિજન બે પ્રકારના થાય છે-એક વિદ્યાચારણ અને બીજા જ ઘાચારણ ૧૪ પૂર્વેમાં વિવક્ષિત શ્રુતજ્ઞાનનું અશ વિધા Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० औपपातिक रतप करणेन द्विचारिंशदोपवर्जनपूर्वकसामिग्रहा तनान्नतुहिणरूपया पिण्डविशुद्धया च विद्याचारणनामकधिरपर्यंते, ये तथा लया युक्तास्ते विद्याचारणा उच्यन्ते । यद्यपि पिण्डविशुद्रातिक सर्वेपा माधूनामपेक्ष्य तथा तातादिमा भिग्रहणमाच-यकमिति निशेष । विद्याचारणास्तिर्यग्गया प्रथमेनोपाते। मानुषोत्तर पर्वत गच्छन्ति, ततो द्वितीयो पातेनाष्टम नन्दीश्वर गच्छन्ति, तत पर तेपा गतिर्नास्ति, नन्दीश्वरद्वीपात् प्रतिनिवर्तमाना एकेनै रोपातेन स्वस्थानमायान्ति । ते पुरूगया मेरुं जिगमिषन प्रथमेका अगनिया है । इस विद्या के अभ्यास के समय में मुनिजन अन्तररहित पठ पष्ठ तपस्या करते है, और पारगा के दिन ४२ दोषों को टालकर अन्तमान्त एव तुच्छ - रूक्षादिक आहार ग्रहग करते हैं। इसपर भी अभिग्रह रखते हैं। इस तरह उन्हें विद्याचारण नामकी ल िप्राप्त होती है । इस लधि से युक्त मुनिजन विद्याचारण कहे गये है । यद्यपि पिण्डादक की विशुद्ध समस्त साधुओं के लिये सापेक्ष हे, तथापि इस द्धि की प्राप्ति के लिये साभिग्रह अन्त - प्रान्तादि आहार का ग्रहण करना आवश्यक है | विद्याचारगद्धि के धारक मुनिजन यदि तिरछे गमन करें तो इस ऋद्धि के प्रभाव से प्रथम उत्पात मे मानुषोत्तर पर्वत तक चले जाते हैं । द्वितीय उत्पात से आठने नदीश्वर द्वीप तक जाते हैं। इससे आग उनका गमन नहीं होता है । पुन एक ही उत्पात से ये नदीश्वर द्वीप से वापिस अपने स्थानपर आ जाते है । यदि ये ऊपर की ओर गमन करे, और मेरु पर्वत पर जाने के इच्छुक हों तो प्रथम उपात से नंदनवन तक जाते है और द्वितीय उत्पात से T છે. આ વિદ્યાના અભ્યાસના સમયમાં મુનિજન અતરરહિત ઠેઠ તપસ્યા કરે છે. અને પારણાને દિવસે ૪૨ દોષથી રહિત અતપ્રાત તેમજ તુચ્છ રૂક્ષ આદિક આહાર ગ્રહણ કરે છે તે ઉપરાત પણ અભિગ્રહ રાખે છે આવી રીતે તેમને વિદ્યાચારણુ નામની લબ્ધિ પ્રાપ્ત થાય છે આ લબ્ધિવાળા મુનિજન વિદ્યાચારણુ કહેવાય છે જે કે ૫ ડાદિકની વિશુદ્ધિ નમન્ત્ર સાધુએ માટે સાપેક્ષ છે, તે પણ આ ઋદ્ધિની પ્રાપ્તિ માટે સાભિગ્રહ અ તમાતાદિ આહાર ગ્રહણ કરવેા આવશ્યક છે. વિદ્યાચારણુ ઋદ્ધિના ધારક મુનિજન જો તિરછા ગમન કરે તે આ ઋદ્ધિના પ્રભાવથી પ્રથમ ઉત્પાતમા માનુષેત્તર પર્વતસુધી ચાલ્યા જાય છે, ખીજા ઉત્પાતમા આઠમા નંદીશ્વર દ્વીપ સુધી જાય છે તેનાથી આગળ તેમનુ ગમન થતુ નથી પાછા એક જ ઉત્પાતથી એ નદીશ્વર દ્વીપથી પાતા ! સ્થાને આવી જાય છે જો તેઓ ઉપરની તરફ્ ગમન ૐ અને મેરૂપર્વત પર જાવાની ઇચ્છા હોય તે પ્રથમ ઉત્પાતથી ન દનવન Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६१ पीयूपयर्पिणी-टीका सू. २४ भगवदन्तेयामिवर्णनम नोपातेन नन्तनान गच्छन्ति, ततो द्वितीयो पातेन पण्टकचनम, तत प्रतिनिवर्तमाना एकेननोत्पातेन ग्रस्थानमागच्छन्ति । पण्डकपनादृर्ष तेषा गतिनास्ति । येऽमाष्टमनिरन्तरतप करणेनाऽऽ मान भावयन्ति तेषा जयाचाग्णनाम:लन्धि समुपद्यते, ये तया लच्या युक्तान्त जड्याचाग्गा उच्यन्ते । जयाचारणास्तिर्यगगया केनोपातेनंतत्रयोटा मचकवीप गच्छन्ति, तत पर तेपा गतिर्नास्ति, तत प्रनिनिवर्तमाना प्रथमोपातेन नन्दीश्वरवा टीपमागउन्नि, द्वितीयोपातेन स्वस्थानम् । ते पुनर्चगया मे जिगमिपर म्वन्यानादेको पत्या पण्टकवनमपिगेहन्ति । तत प्रतिनिवर्तमाना प्रथमोपातेन नन्तनानमागच्छन्ति, ततो द्वितीयो पातेन स्वस्थानमायान्ति । पण्डकानादृचं जट्याचारणानामपि गतिर्नास्ति । पण्डऊरन तक चले जाते हैं। फिर वहा मे लौटकर एक ही उलाग में अपने स्थान पर वापिम आजाते है । पण्डकरन से आगे टनका गमन नहा है । जपाचारण नामकी लन्धि उन माधुजनों को प्राप्त होती है, जो निरन्तर-अन्तरहित अष्टम की तपस्या करते हैं। टम लयिसपन्न मुनिजन यदि निग्छे गमन करे तो प्रथम ही उत्पात में तेरहवा द्वाप जो रुचकर द्वीप है वहा तक पहुंच जाते हैं, इसके आगे नहीं जाते है । क्यों कि आगे इनकी गति नहीं होती है। वहा से वापिस होकर ये प्रथम उपात में नन्दीश्वर द्वीप आ जाते हैं और द्वितीय उत्पात में अपने स्थान पर आ जाते हैं। यदि ये ऊपर की ओर उडे और मेस्पर्वत पर जाने की इच्छावाले हो तो अपने स्थान से एक हा उपात मे पण्डकपन में पहुँच जाते हैं। वहा से जन ये वापिस होते हे तो प्रथम उपात में ये नदनगन आजाते है और फिर द्वितीय उपात से अपन स्थान पर । पण्डकरन से आगे जपाचारणवालों की भी गति नहीं है। સુધી જાય છે, અને બીજા ઉત્પાતથી ૫ ડકવન સુધી ચાલ્યા જાય છે પછી ત્યાથી પાછા આવતા એક જ છલાગમા પિતાના સ્થાન પર પાછા આવી જાય છે પડકવનથી આગળ તેમનુ ગમન નથી જંઘાચારણ નામની લબ્ધિ એ સાધુઓને પ્રાપ્ત થાય છે કે જે નિરતરસતત અષ્ટમ–અદમની તપખ્યા રે છે આ લબ્ધિવાળા મુનિજને જે તિરછા ગમન કરે તે પ્રથમ જ ઉત્પાતમા તેરમે દીપ જે રૂચકવર નામે દ્વીપ છે, ત્યા સુધી પહોંચી જાય છે, તેનાથી આગળ નથી જતા, કેમ કે આગળ તેમની ગતિ થતી નથી ત્યાંથી પાછા વળતા તેઓ પ્રથમ ઉત્પાતમાં નદીધરદીપ આવી જાય છે, અને બીજા ઉત્પાતમા પિતાના સ્થાન પર આવી જાય Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिक चारणलधिसम्पन्नो हि साधु सलु भगवद्वर्णितगणितानुयोग विजाय, स्वेन स्वेन गम्य द्वीपननादिक निलोकयितुमौ मुग्यवशात् स्वस्पलन्धि स्फोटयिवा तत्र तत्र जिगमिपति । गवा च तत्र तत्र यथाभगनद्वर्णित दीपननादिक विलोक्य सत्राताहूलादक्षैयानि वन्दते, अथात् भगवतोऽनन्तानि ज्ञानानि स्तौति, स्तुया प्रतिनिवर्तते, प्रतिनित्य इह स्वस्थानमागच्छति, आगय इह चेयानि वन्दते--अर्थात् ज्ञानानि स्तौति । ज्ञानानन्त्याद् बहुवचनम् । सर्वमेतद् भगवतीमृनेऽभिहितम् । अधिकजिज्ञासुभिस्तन द्रष्टव्यम् । ' बिज्जाहरा' नियाधरा - रोहिणीप्रज्ञयादिविनिधनियाविशेषधारिण । 'आगा દૂર चारणलधिमपन्न साधुजन प्रभुद्वारा वर्णित गणितानुयोग को जान करके अपने २ द्वारा गम्य द्वीपवनादिक को देखने के लिये उकठा के वशपती हो, अपनीर लन्धि को प्रगट करते है और बहार जाते है । भगवान् ने द्वीपवनादिक का स्वरूप जैसा कहा है वैसा वे वहा उसे देखते है और अपार आनंद से पुलकित होते है । प्रभु के अपार ज्ञान की अतिशय स्तुति करते है । फिर वहा से वापिस अपनी जगह पर आजाते है । आकर यहा पर भी चैत्यों की अर्थात् प्रभु के ज्ञान की स्तुति करते है । यह सब प्रकरण भगवतीमून मे कहा हुआ है । जिन्हें अधिक जानने की इच्छा हो वह वहा से देख लेवें | कितनेक मुनि रोहिणी - प्रज्ञप्ति - आदि विविध प्रकार की विद्याओं के धारण करनेवाले I છે જે તેએ ઉપરની તરફ ઉડે અને મેરૂ પર્વત પર જવાની ઈચ્છા કરે તે પેાતાના સ્થાનથી એક જ ઉત્પાતમા પડકવનમા પહેાચી જાય છે ત્યાથી જ્યારે તેઓ પાછા વળે ત્યારે પ્રથમ ઉત્પાતમા નદનવન આવી જાય છે, અને પછી બીજા ઉત્પાતમા પેાતાના સ્થાન પર આવે છે પડકવનથી આગળ જ ઘાચારણવાલાની પણ ગતિ હાતી નથી ચારણા ધમ પન્ન સાધુજન પ્રભુએ વ વેલા ગણિતાનુયાગને જાણીને પાંતપાતાથી ગમ્ય દ્વીપવન આદિકને જોવા માટે ઉત્કટાને વશવતી થઈને પોતપોતાની લબ્ધિને પ્રગટ કરે છે, અને ત્યા ત્યા જાય છે ભગવાને દ્વીપવન આદિના સ્વરૂપ જેવા કહેલા છે તેવા જ તેએ ત્યા જુએ છે, અને અપાર આનદથી પુલકેત થાય છે પ્રભુના અપાર જ્ઞાનની અતિશય સ્તુતિ કરે છે. પછી ત્યાથી પાછા પેાતાના સ્થાને આવી જાય છે આવીને અહી પણ ચૈત્યની અર્થાત્ પ્રભુના જ્ઞાનની સ્તુતિ કરે છે કેટલાએક મુનિ રાહિણી પ્રપ્તિ આદિ વિવિધ પ્રકારની વિદ્યાઓના ધારણ કરવાવાળા હતા કેટલાએક મુનિજન Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६३ पीयूववर्षिणी-टोका सु २४ भगवदन्तेयामिवर्णनम हराआगासाइवाई,अप्पेगडयाकणगावलितवोकम्म पडिवण्णा,एवं एगावलि खुड्डागसीहनिकोलियं तवोकम्म पडिवण्णा,अप्पेगडया साइबाई ' आकाशानिपातिन -आकाग-व्योम अतिपतन्ति-अतिकामन्ति-आकाशगामिविद्याप्रभावात्-ये ते तथा । 'अप्पेगडया मणगावलितबोकम्म पडिवग्या' अन्येकके कनकावलीतप कर्म प्रतिपन्ना , 'एव ' एवम्-जनेन प्रकारेण 'एगावलिं' एकावली प्रतिपन्ना , एकावरीनामकतप कर्मण आनिग्न्यत्रोक्ता-दति न मा विवियते । 'खुडागमीहनिकीलिय वोसम्म पटिवण्णा' सुद्धक-सिंह-निकीडितम्-जुलक-लघु, सिंहनिष्क्रीदिन-सिंहगमन तदिन यत्तपन्नन् मिहनी क्रोटिनम् , एतत्तपो वक्ष्यमाणमहानिहनिष्क्रीडिताऽपेक्षया मुलक, सिंहगमनच्च अतिकान्तदेशाऽवलोकमतो भनि, एवमनिकान्ततप सेवनेन अपूर्वतपमोऽनुष्ठान यम्मिन् तत् मिहनिष्क्रीये। कितनेक ऐसे मुनिजन ये जो आकाटागामी थे। उनके पास आकारागामिनी विद्या थी। उमके ही प्रमाव से ये आकागमें उडते थे। (अप्पेगट्या कणगावलितवाफम्म पडिवण्णा एव एगावलि खुड्डागसोहनिकीलिय तवोफम्म पडिवन्ना) कित्तनेक ऐसे मुनिजन थे नो कनरावली तप को तपते थे, और कितनेक मुनिनन एकावली तप तपते थे। कितनेक ऐसे ये जो लमुसिंहनिष्क्रीडित तप की आराधना करते थे। इस तप के साथ "शुल्लक" पद का प्रयोग हुआ है मो महामिहनिष्क्रीडित तपकी अपेक्षा समझना चाहिये । जिस प्रकार सिंह अपने द्वारा अतिकान्त देवा को अवलोकन करते हुए आगे २ गमन करता है। उसी प्रकार हम तप म भी अतिक्रान्त तप के सेपन की अपेक्षा रखते हुए अपूर्व २ तपों का अनुष्ठान किया जाता है । એવા હતા જે આકાશગામી હતા તેમની પાસે આકાશગામિની विधा हती ना? असाथी त माडामा ता ता (अप्पेगडया कणगालितवोकम्मं पटिरण्णा, एव एगारलिं खुहागसीहनिस्क्रीलिय तमोसम्म पडि पन्ना) सामे सपा मुनिना ता ? उनासी त५ तपता तो, અને કેટલાક મુનિજન એકાવલી તપ તપતા હતા કેટલાક એવા હતા જે લઘુસિહ- નિષ્ક્રીડિન તપની આરાધના કરતા હતા આ તપની સાથે મુલ્લક” પદનો પ્રયોગ થયે છે, તે મહાનિ હનિષ્ક્રીડિત તપની અપેક્ષાએ સમજે જોઈએ જે પ્રકારે સિંહ પિતાથી અતિકાત દેશને જેતે થે આગળ આગળ ગમન કરે છે તે જ પ્રકારે આ તપમા પણ અતિક્રાત તપના સેવનની અપેક્ષા રાખતા અપૂર્વ અપૂર્વ તપેનું અનુષ્ઠાન કુવામા આવે છે Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ ओपपातिक , महालयं सहनिक्कीलियं तवोकम्मं पडिवण्णा, भद्दपडिमं महाभTusi सव्वभपडिमं आयंबिलवद्धमाणं तवोकम्मं पडिवपणा, मासियं भिक्खुपडिमं, एवं दोमासियं पडिमं, तिमासिय डित तप कर्म प्रतिपन्ना, 'अप्पेगइया महालय सीहनीपीलिय तोकम्म पडि वण्णा' अध्येकके महासिंहनिष्कीडित तप कर्म प्रतिपन्ना, ' भरपडिम' भई प्रतिमा ' महाभद्दपडिम' महाभद्रप्रतिमा, 'सच्चओभद्दपडिम' सर्वतोभद्रप्रतिमा प्रतिपन्ना, 'आयनिलबद्धमाण तवोकम्मं पडिवण्णा' आचामाम्लाई मानक तप कर्म प्रतिपन्ना । ' मासिय भिक्सुपडिम' मासिकी भिक्षुप्रतिमा - मासपरिमाणा मासिकी ता भिक्षुप्रतिमाम् - अभिग्रहरूपाम्, तत्र हि मास यावदेका दत्ति -अष्टदानम्, अर्थात् - अनिच्छिन्नधारया करस्यान्यादिभ्य यद् भक्त पान च पतति सा. - (अप्पेगइया महालय सीहनीकीलिय तवोकम्म पडिवन्ना) कितनेक मुनिजन महासिंहनिष्क्रीडित तप करते थे । ( भद्दपडिम महाभद्दपडिम सन्यदपडिम आयविलवद्धमाण तवोकम्म पडिवण्णा) कितनेक मुनि ऐसे थे जो भद्रप्रतिमा, महाभद्रप्रतिमा एव सर्वतोभद्रप्रतिमा-रूप तप का आराधन करते थे । कितनेक ऐसे भी थे जो आयबिलवर्द्धमान तप को करते थे । इनका विस्तृत वर्णन अन्य शास्त्रों में है ! ( मासिय भिक्खुपडिम, एव दोमासिय पडिम तिमासिय पडिम जाव सत्तमासिय भिक्खुपडिम पडिवण्णा) कितनेक मुनिराज ऐसे थे जो एकमासिक भिक्षुप्रतिमा के धारी थे । इस प्रतिमा में एक महिने तक एक दत्ति होती है । भिक्षापात्र में अविच्छिन्नधारापूर्वक जो मिक्षा दाता के हाथ अथवा वाली आदिसे गिरती ( अप्पेगइया महालय सीहनी कीलिय तवोकम्म पडिवन्ना) बेटसा भुनिलन મહાસિ નિષ્કી િત તપ કરતા ता ( भद्दपडिम महामदपडिमं सव्वओभद्द पडिम आयविद्वाण तवोकम्म पडिवण्णा) नेटसारखे मुनियो सेवा હતા. કે જેએ ભદ્રપ્રતિમા મહાભદ્રપ્રતિમા તેમજ સતાભદ્રપ્રતિમા રૂપ તપનું. આરાધન કરતા હતા કેટલાક એવા પણ હતા જે યખિલવમાન તપ ४रता ती खानु विस्तारपूर्व वर्णन अन्य शास्त्रोमा छे ( मासिय भिक्खुपडिम, एव दोमासिय पडिम तिमासिय पडिम जान सत्तमासिय भिक्खुपडिम पडि યા કેટલાએક મુનિરાજ એવા હતા કે જે એકમાસિક ભિક્ષુપ્રતિમાના ધારક હતા આ પ્રતિમામા એક મહીના સુધી એક ઇત્તિ થાય છે ભિક્ષા Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ पीयूपपिणी टीका सु २४ भगवदन्तेयामिवर्णनम पडिम जाव सत्तमासियं भिक्खुपडिमं पडिवण्णा, पढमं सत्तराईदियं भिक्खुपडिमं पडिवपणा जाव तच्चं सत्तराईदियं भिक्खुदत्ति, पव द्वितीयाद्या समम्यन्ता एकत्तिद्वियुक्ता । एव 'दोमासिय पडिम' द्वैमासिकी प्रतिमाम् प्रतिपन्ना । 'तिमासिय पडिम' त्रैमासिर्फी प्रतिमा प्रतिपना । —जाय सत्तमासिय भिनायुपडिम पडिवण्णा' यावत् सममामिकी मिथुप्रतिमा प्रतिपन्ना । 'पहम सत्तरादियं भिग्नुपडिम पडिवण्णा जार तन्च सत्तराइदिय भिसुपडिम पडिवण्णा ' प्रथमा समरारिन्द्रिवा भिक्षुप्रतिमा प्रतिपन्ना-यावत्तृतीया सप्तगनिन्दिया भिक्षुप्रतिमा प्रतिपन्ना । तत्र समरात्रिन्टिवाहै उसका नाम दत्ति है । इस प्रकार १ महान तक आहार की एक दत्ति और पानी की एक दत्ति ग्रहण की जाती है। इसी प्रकार दोमास प्रमाणपाली-भि प्रतिमा को, तीन मास की प्रमाणनाली भिक्षुप्रतिमा को यात मातमाम प्रमाणवाली भिक्षुप्रनिमा को पालन करनेवाले मुनिजन थे । द्विमासिक भिक्षुप्रतिमाम २ दत्तिया आहार का २ दत्तियाँ पानी को री जाती है । इम क्रमिक वृद्धि से सातमास-प्रमाणनाली सतमभिक्षुप्रतिमा में ७ दत्तिया आहार की और सात रत्तिया पानी की ली जाती हैं.। (पढम सत्तराइदिय मिक्सुपडिम पडिवण्णा जाव तच सत्तराइदिय भिक्खुपडिम पडिवन्ना) और पहली मात दिनरात की मिथुप्रतिमा के, दूसरी सात दिनगत की मि-सुप्रतिमा के, तथा तीमरी सात दिनरात की भिक्षुप्रतिमा के धारी थे । इन तीनों - પાત્રમાં અવિચ્છિન્ન-ધારાપૂર્વ૮ જે ભિક્ષા દાતાના હો અથવા થાળીથી પડે છે તેનું નામ દત્તિ છેઆ પ્રકારે એક મહિના સુધી આહારની એક દત્તિ અને પાણીની એક દક્તિ ગ્રહણ કરાય છે એ પ્રકારે બે માસના પ્રમાણ વાળી ભિક્ષુ–પ્રતિમાનુ, ત્રણ માસ પ્રમાણવાળી ભિક્ષુપ્રતિમાનુ, ચાવત્ સાત મામ પ્રમાણ વાળી ભિક્ષુપ્રતિમાનું પાલન કરવાવાળા મુનિજન હતા દ્વિમાહિભિક્ષુપ્રતિમામાં ૨ દત્તિ આહાગ્ની, ૨ દત્તિ પાણીની લેવામાં આવે છે આ પ્રકારે ક્રમિક વૃદ્ધિથી સાત માસના પ્રમાણવાળી નખમ ભિક્ષુપ્રતિभामा ७ हत्ति माहारनी भने ७ त्ति पाएनी देवाभा मा छे (पढम मंत्तराइदिय भिक्खुपडिम पडिरण्णा जान तन्च सत्तराइदिय भिक्खुपटिम पटिपन्ना) અને પહેલી સાત દિવસ રાતની ભિક્ષુપ્રતિમાના, બીજી સાત દિવસ-રાતની ભિક્ષુપ્રતિમાના તથા ત્રીજી સાત દિવસરાતની ભિક્ષુપ્રતિમાની ધાર હતા આ ત્રણેય સાત દિવસ–રાતની ભિક્ષુપ્રતિમાઓની વિવિ આ પ્રકારે છે – Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ ओपfo पडिमं पडिवण्णा, अहोराइंदियं भिक्खुपडिमं पडिवण्णा, एक सप्त गनिन्दिवानि = अहोराना यस्था सा सप्तरानिदिवा सप्ताहोरात्र प्रमागा । प्रथमाया च चतुर्थचतुर्थेन पानकाऽऽहारनिरहित उत्तानको या पार्श्वगायी या निपयोपगतो वा प्रामादिभ्यो वहिर्विहरति । द्वितीया सप्तरानिन्यिाऽप्येवनिधैन, नवरम् - दण्डाऽऽयतो वा लगण्डशायी वा युटुको वा विहरति । एव तृतीया सप्तरानिन्दिवाऽपि नगर वीराssसनिको वा गोदोहिकस्थितो या आम्रकुजको वाssस्ते । ' अहोराईदिय भिक्खुपडिम -- सात दिनरात की भिक्षुप्रतिमाओं की विधि इस प्रकार है-प्रथम सप्तरानिन्दिव भिक्षुप्रतिमा में- अष्टमी भिक्षुप्रतिमा में- एकान्तर चउविहार उपवास करते हुए ग्राम से बाहर कायोत्सर्ग करे, और तीन आसन करे | उनके नाम (१) उत्तानासन - चित्त होकर सोना (२) एकपार्श्वासन - एक करवट से सोना, और (३) निपद्यासन - पर्यङ्कासन से रहना । दूसरी और तासरी सात दिनरात की भिनुप्रतिमाये - नवमी तथा दसमी भिक्षुप्रतिमायें भी इसी प्रकार की है । केवल आसन के भेद है। नौमी के तीन आसन - दण्डासन, लगण्डासन, उत्कुटुकासन । (१) दण्डासन दण्ड के समान सीधे शयन करना । (२) लगण्डासन - टेडे काठ के जैसे शयन करना अर्थात् मस्तक और ऍडी को पृथ्वी पर सटा कर पोठ को अंधर रख कर सोना, (३) उत्कुटुकासन - पैरों के बल बैठना । दसमी के तोन आसन -- वीरासन, गोद्रोहिकासन, आम्रकुब्जकासन । (१) वीरासन = पृथ्वी पर पैर रख कर सिंहा-' પ્રથમ સમરાત્રિ દિવ ભિક્ષુપ્ર તમામા-અષ્ટમી ભિક્ષુપ્રતિમામા-એકાન્તર ચૌવિહાર ઉપવાસ કરતા ગામથી બહાર જઈ કાયાત્સગ કરવા અને ત્રણ આસન કરવા તેમના નામ-(૧) ઉત્તાનાસન-ચિત્તા થઈને સુવુ (२) येउयावसन -मेड पड रही सुवु, अने (3) निषद्यासन -पर्य असनथी રહેવુ ખીજી અને ત્રીજી સાત દિવસ-રાતની ભિક્ષુપ્રતિમાઓનૌમી અને દશમી ભિક્ષુપ્રતિમાએ-પણ આ પ્રકારની છે. કેવલ આસનમા ક્રૂર છે નવી प्रतिभाना त्रयु शासन-द डासन, सग डासन, उत्हुटु असन (१) ६ डासन - ટ્રુડની પેઠે સીધા સુઈ જવુ, (૨)લગ ઢાસનાકા લાકડાની પેઠે શયન કરવુ અર્થાત્ માથુ અને એડી (પાની ) ને પૃથ્વીપર લગાડી પીઠને અધર राणी सुवु, (3) उत्कुटु असन-भगना माथी ( लउड पगे ) मेसवु . દ્રશમી પ્રતિમાના ત્રણ આસન–વીરામન, ગેાદેહિકાસન, આમ્રકુંજકાસન (૧) વીરાસન-પૃથ્વીપર પગ રાખીને સિહાસન પર બેઠેલાની પેઠે Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवषिणी टीका सू २४ भगवदन्तेयासियणनम् १६७ राइंदियं भिक्खुपडिमं पडिवण्णा, सत्तसत्तमियं भिक्खुपडिमं, पडिवण्णा' अहोरानिन्टिवा भिक्षुप्रनिगा एतिपन्ना -आहोगत्रिकीमित्यर्थ । अत्र-रात्रिदिवगन्दो रानिपरो बोच्य । अस्याञ्च पप्ठोपवासिको प्रामादिभ्यो यहि प्रलम्बभुजस्तिष्ठति । 'एकराइदिय भिसुपडिम पडिवण्णा' फरानिन्दिवाम् एकरात्रप्रमाणा भिक्षुप्रतिमा प्रतिपन्ना , अगपि 'रात्रिन्दिर' गटो गत्रिपरो बोध्य । अस्या चाऽटम भक्तिको प्रामाद् वहिरीपदवननगानोऽनिमिपनयन शुष्कपुद्गलनिनदृष्टिर्जिनमुद्रास्थापि__ सन पर बैठे हुए के समान घुटने अलग २ रसकर बिना सहारे स्थिर रहना, (२) गोटोहिकासन-गोटोहिक के समान बैठना अर्थात् जैसे गाय दृहने वाला जब दूध दृहता है तर वह अपने दोनों पैरों के अग्रभाग के सहारे बैठता है, उसी प्रकार बैठना । (३) आबकुल्जकासन-आम्रफल के समान कृपडे होकर स्थिर रहना । आठना नौमी दामी प्रतिमा में तीन २ आसन बताये है, उन तीन तीन में से किसी एक आसन से रहे । तथा (अहोराइदिय भिस्खुपडिम पडिवण्णा) ग्यारहवीं अहोरात्रिक भिक्षुप्रतिमा के धारक थे। इसमें चउविहार वेला किया जाता है, और गाम के बाहर आठ प्रहरी तक काउसग किया जाता है। (एकराइदिय भिक्खुपडिम पडिवणा) वाहिनी ____एकरात्रिक भिक्षुप्रतिमा के धारक थे। इसमे चउनिहार तेले के दिन गाम से बाहर श्मशान भूमि में जाकर किसी एक पुदगल पर दृष्टि स्थिर करके चार प्रहरों तक झायोसर्ग किया जाता है । इन सभी प्रतिमा-अभिग्रहविशेषों में सभी का ગોઠણે જુદા જુદા રાખીને ટેકે લીધા વિના સ્થિર રહેવું, (૨) દેહિનામનગદેહિકની પિઠે બેસવુ અર્થાત જેમ ગાય દેહવાવાળે જ્યારે દૂધ દોહે છે ત્યારે તે પોતાના બન્ને પગના અગ્રભાગને ટેકે બેને છે, તેવી જ રીતે બેસવુ (3) આમ્રકુજનામન–આમ્રફલની પેઠે કુબડા થઈને સ્થિર રહેવુ આઠમી નેમી અને દશમી પ્રતિમામાં ત્રણ ત્રણ આસન બતાવ્યા છે તે ત્રણ ત્રણમાંથી કોઈ ५ यो सामनयी २९ तया (अहोराइदिय भिक्खपटिम पडिवण्णा) महाशत्र. દિવસરાતની અગ્યારમી ભિક્ષુપ્રતિમાના ધારકે હતા આમા ચૌવિહાર ७४ आय छ, भने गामनी मा२ २मा पारन! IG41 राय छ (एक्काइदिय भिक्खुपटिम पडिपण्णा) सारभी रात्रि लिन प्रतिभाना घा२४ gal આમા ચૌવિહાર તથા અમને દિવસે ગામથી બહાર શમશાન ભૂમિમાં જઈને એક પુદગલપર દષ્ટિ સ્થિર કરીને કાયોત્સર્ગ કરાય છેઆ બધી પ્રતિમાઓમાં Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ औपपातिकसूत्रे तपाद प्रलम्पितभुजस्ति उति । तामु प्रतिमामु न सर्वषामधिकार, किन्तु विशिष्टमननवतामेव । आह च, 'पडिज्जड एवाओ, समयगधिजुओ महासतो । पडिमाउं भावियप्पा सम्म गुरुगा अन्ना ॥ १ ॥ इति, 'सतसतमिव मिम्युपडिम' सप्तमममिकां भिक्षुप्रतिमा-सप सप्तमानि दिनानि यस्या सा सपनामिका, इय च समभिर्दिनाना समकैर्भवति अर्थात् - सप्तभि सप्ताऽहैरिति । तत्र च प्रथमदिने एका दत्तिर्भतस्य, एकै दत्ति पानकस्य, एव द्वितीयादिपु ने कमे के कतिया सममदिने सम दत्तय । एवम् अधिकार नहा है, किन्तु विशिष्ट सहनना हो इन प्रतिमाओं का आराधन कर सकते है । कहा भी है-' पडिवज्जइ एयाओ, सघयण - थिइ - जुओ महासत्तो । पडिमाउ भावियप्पा, सम्म गुरुणा अणुन्नाओ ॥ " डाया-प्रतिपद्यते एता महनन- धृतियुतो महासत्व । प्रतिमा भावितात्मा, सम्यग्गुरणा अनुज्ञात ॥ अर्थात् -- महासत्वशाली, सहनन और धैर्य से युक्त भावितात्मा मुनिजन ही गुरु से सम्यक् अनुज्ञात होकर इन प्रतिमाओं को स्वीकार करते है । तथा ( सत्तसत्तमिय भिक्सुपडिम) सात, है सातवें दिन जिसमे ऐसी भिक्षुप्रतिमा के अर्थात् ऊनपचास दिन को भिथुप्रतिमा के धारक थे | यह प्रतिमा सात सप्ताहों में की जाती है । इसमे प्रथम सप्ताह के प्रथमदिन मे एक दत्ति आहार की और एक दत्ति पानी की ली जाती है, द्वितीय: दिन मे दो दत्तियों आहार का और दो दत्तियों पानी की ली जाती है । इसी तरहप्रतिदिन एक एक दत्ति को वृद्धि से सातवे दिन सात दत्तियाँ आहार की और અભિગ્રહ વિશેષામા બધાના અધિકાર નથી, પરંતુ વિશિસ હુનર્નવાલા જ આ બધી પ્રતિમાઓનુ આરાધન કરી શકે છે કહ્યુ પણ છે " पडिवज्जइ एयाओ, सवयण-धिइ-जुओ महासत्तो । पडमा भाविप्पा सम्म गुरुणा अणुन्नाओ " ॥ ' या प्रतिपद्यने एता सहनन धृतियुतो महासत्व । प्रतिमा भावितात्मा, सम्यग्गुरुणा अनुज्ञात ॥ 21 અર્થાત્ મહાસત્ત્વશાલી મહનન અને ધૈર્યથી યુક્ત ભાવિતામા મુનિજન સમ્યક્ અનુજ્ઞાત થઇને અર્થાત્ ગુરૂની આજ્ઞા લઈને, પ્રતિમાઓના સ્વીકારી ४२ छे तथा ( सत्तसत्तमिय भिक्खुपडिम) सातछे सातमो हिवस भेभा सेवी ભિક્ષુપ્રતિમાના અર્થાત્ ઓગણપચાસ દિવસની ભિક્ષુપ્રતિમાના ધારક હતા, આ પ્રતિમા માત મપ્તાહામા કરાય છે તેમા પ્રથમ સપ્તાહના પ્રથમ દિવસે એક વ્રુત્તિ આહારની અને એક દૃત્તિ પાણીની લેવાય છે ખીજે t Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यूषवर्षिणी-टीका सू. २४ भगषदन्तेयासियर्णनम् अहमियं भिक्खुपडिम, णवणवमियं भिक्खुपडिमं, दसदसअट्ठअमियं 'भिक्खुपडिम' अष्टाऽष्टमिका भिक्षुप्रतिमाम् , 'गवणामिय' नवनामिका भुप्रतिमाम्, 'दसदसमिय' दशदशमिका भिक्षुप्रतिमाम् , नवरम्-दत्तिवृद्धि त दतियाँ पानी की ली जाती है। इसी प्रकार दूसरे सप्ताह से लेकर सातवे ताह तक की दत्तियों के विषय में भी समझना चाहिये । इस प्रकार आहार और नी की सब दत्तिया ३९२ होती है । तथा ( अदुअमिय भिपसुपडिम) अष्टाप्टक भिक्षुप्रतिमा के धारक थे । यह भिक्षुप्रतिमा आठ अष्टाहो मे अर्थात् चौसठ नों में की जाती है । इसमें प्रथम अष्टाह के प्रथम दिन में एकदत्ति आहार 1 और एक दत्ति पानी की ली जाती है। प्रत्येक दिन में एक एक दत्ति की द्धि होने के कारण आठवें दिन मे आठ दत्तिया आहार की और आठ दत्तियाँ पानी 1 ली जाती हैं। इसी प्रकार अपशिष्ट सातो अष्टाहों के बारे म भी समझना चाहिये। स प्रकार आहार और पानी की कुल दत्तिया ५७६ होती है। तथा (नवनवमिय भरसुपडिम) नवनवमिका भिक्षुप्रतिमा के धारक थे। यह मिथुप्रतिमा नौ नवाहों , अर्थात् ८१ दिनों में पूरी होती है । प्रत्येक नौ दिनों के अन्तिम दिन में एक एक त्ति की वृद्धि होने से नौ दत्तिया आहार की और नौ दत्तिया पानी की होती है । દિવસે બે દિત્તિ આહારની અને બે દત્તિ પાણીની લેવાય છે એવી રીતે પ્રતિદિન એક એક દત્તિના વધારાથી સાતમે દિવસે ૭ દત્તિ આહીરની અને ૭ દત્તિ પાણીની લેવાય છેઆ પ્રકારે બીજા સપ્તાહથી લઈને ૭ માં સપ્તાહ સુધીની દત્તિઓના વિષયમાં પણ સમજી લેવું જોઈએ આ પ્રકારે આહાર मने पाणीनी गधी हत्तिम। 3८२ याय तथा (अदुअमिय भिक्खुपडिम) અષ્ટાથમિક ભિક્ષુપ્રતિમાના ધારકે હતા આ ભિક્ષુપ્રતિમા આઠ અષ્ટાહામાં અથાત્ ચોસઠ દિવસમાં કરાય છે તેમાં પ્રથમ અછાહના (અઠવાડિયાના ) પ્રથમ દિવસે એક દત્તિ આહારની અને એક દત્તિ પાણીની લેવાય છે પ્રત્યેક દિવસે એક એક દત્તિને વધારે થવાના કારણે આઠમે દિવસે આઠ દત્તિઓ આહારની અને આઠ દત્તિઓ પાણીની લેવાય છે એજ પ્રકારે બાકીના ૭ અષ્ટાહો ( અઠવાડિયા )ના બારામાં પણ સમજવું જોઈએ એવી રીતે આહાર અને પાણીની કુલ દત્તિઓ ૫૭૬ થાય છે તથા (ननननमिय भिक्खुपडिम) नवनवभिड निक्षुप्रतिभाना धा। उता ! ભિક્ષુપ્રતિમા નવનવાહોમા અર્થાત ૮૧ દિવસમાં પૂરી થાય છેપ્રત્યેક નવ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० - भोपपातिकमा मियं भिक्खुपडिम, खुड्डियं मोयपडिम पडिवण्णा, महष्टियं मोयपडिम पडिवण्णा, जवमझं चंदपडिमं पडिवण्णा, वइरसख्याक्रमेण कार्या। केचिन् ‘सुहियं मोयपटिम पडिग्णा' क्षुछिका मोकप्रतिमा प्रतिपन्ना , अस्या क्षुल्लकच महत्यपेक्षया योध्यम् । तया 'मल्लिय मोय. पडिम पडिण्णा' महती मोकप्रतिमा प्रतिपन्ना । अनयो प्रतिमयोन्याश्या प्रथान्तरे विलोकनीया। 'जयमझ चदपडिम पडिपण्णा' यवमन्या चद्रप्रतिमा प्रति पन्ना -यवस्येव मध्य यम्या सा यवमध्या, चन्द्र इव कलावृतिहानिभ्या या प्रतिमा सा चन्द्रप्रतिमा, तथा हि शुक्लप्रतिपदि-एक कवलम् अभ्यवद्दय प्रतिटिनमेकैकइस प्रकार आहार और पानी की सब दतिया ८१० होती है । तथा (दसदसमिय भिक्खुपडिम) दशदशमिका भिक्षुप्रतिमा के धारक थे। यह भिक्षुप्रतिमा दश ढगाहा में, अर्थात् सौ दिनों में पूरी होती है। इसमें प्रत्येक दशवें दिनमें दस दत्तिया आहार की और दस दत्तिया पानी की होती हैं। इस प्रकार आहार और पानी की कुल दत्तिया ११०० होती है । कितनेक मुनिजन (खुड्डिय मोयपडिम पडिवण्णा) क्षुल्लक मोकप्रतिमा के धारक थे। तथा-(महल्लिय मोयपडिम पडिवण्णा) महामोकप्रतिमा के धारक थे। तथा फितनेक मुनिजन (जवमज्झ चदपडिम पडिवण्णा) यवमध्य चन्द्रप्रतिमा के धारक थे । इस प्रतिमा मे शुक्ल पक्ष की एकम तिथि में एक कवल आहार किया जाता है । प्रतिदिन एक एक कवल की वृद्धि से पूर्णिमा में १५ कवल आहार દિવસેના આતના દિવસે એક એક દત્તિની વૃદ્ધિ થવાથી નવ દક્તિએ આહા રની અને નવ દત્તિઓ પાણીની થાય છેઆ પ્રકારે આહાર અને પાણીની सधी हुत्तिया ८१० थाय छे तथा (दसदसमिय भिक्खुपडिम) यशभि भिक्षु પ્રતિમાના ધારકે હતા આ ભિક્ષુપ્રતિમા દશ દશ હેમા અર્થાત સે દિવસમાં પૂરી થાય છે એમાં પ્રત્યેક દશમા દિવસે દશ દત્તીઓ આહારની અને દશ દત્તિઓ પાણીની હેય છે આ પ્રકારે આહાર અને પાણીની કુલ દત્તિઓ ૧૧૦૦ शायरसा मुनिन (खुड़िय मोयपडिम पडिवण्णा) क्षुटसभाप्रतिभाना धा२४ gal तया ( महल्लिय मेायपडिम पडिवण्णा ) महाभा४ प्रतिभाना घा२४ ता तथा ८४ मुनिन (जवमझ चदपडिम पडिवण्णा ) અધ્યચ દ્રપ્રતિમાના ધારક હતા આ પ્રતિમામાં શુક્લપક્ષની એકમ તિથિમાં ક, કેળિઓને આહાર કરાય છે પ્રતિદિન એક એક કળિઆને વધારે Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषपिणी-टीका स २४ भगवदन्तेयासिवर्णनम् १७१ मज्झं चंदपडिम पडिवण्णा, विवेगपडिमं विओसग्गपडिम उवकवलवृद्धया पञ्चदश पौर्णमास्या, कृष्णप्रतिपदि च पञ्चदशैर भुक्या द्वितीयादौ प्रतिदिनम् एकैककालहान्या अमावास्यायामेकमेव यस्या भुक्ते सा स्थूलमध्यत्वाद् यवमध्येति ता प्रतिपन्ना । 'पइर-(पन्नामज्झ चदपडिम पडिपण्णा' वज्रमध्या चन्द्रप्रतिमा प्रतिपन्ना -वज्रस्ये मध्य यस्या सा तथा, यस्या हि कृष्णप्रतिपदि पश्चदश कालान् मुक्त्वा तत प्रतिदिनमेकैकहान्या अमावास्यायामेक, शुक्लप्रतिपद्यपि एकमेव, ततो द्वितीयादौ पुनरेकेकवृद्धया पौर्णमास्या पञ्चदश भुङ्क्ते सा तामध्यत्वाद् वज्रमभ्या इति ता प्रतिकिया जाता है। तथा कृष्णपक्ष की एकम तिथि मे १५ कवल आहार किया जाता है, और द्वितीया से एक एक करल घटाने से अमावास्या तिथि में मात्र एक कवल आहार किया जाता है। जैसे-यव का मध्यभाग स्थूल होता है, उसी प्रकार इस प्रतिमा का भी मध्यभाग पूर्णिमा और कृष्ण पक्षकी एकम, पन्द्रह पन्द्रह कवल आहारलेने के कारण स्थूल है । इसलिये इस प्रतिमा को ' यामध्यचन्द्रप्रतिमा' कहते हैं। तथा-कितनेक मुनिजन (वइरमज्झ चदपडिम पडिवण्णा) वज्रमध्य चन्द्रप्रतिमा को धारण किये हुए थे। यह प्रतिमा कृष्णपक्ष की एफम के दिन पन्द्रह कपल आहार कर के प्रारम्भ की जाती है । प्रतिदिन एक एक कवल घटाने से अमावास्या मे एक कपल तथा शुक्लपक्ष की एफमतिथि मे एफ काल आहार किया जाता है। फिर प्रतिदिन एक एक कपल की वृद्धि से पूर्णिमा के दिन पन्द्रह करल आहार लिया जाता કરવાનું હોવાથી પૂનમના દિવસે ૧૫ ળિઓને આહાર કરાય છે, તથા કૃષ્ણપક્ષની એકમ તિથિએ ૧૫ કળિઆને આહાર કરાય છે, અને બીજથી એક એક કેળિઆને આહાર ઘટાડતા અમાવાસ્યા તિથિમાં માત્ર એક કેળિઆને આહાર કરાય છે જેમ યવને મધ્યભાગ સ્થૂલ હોય છે તેવી જ રીતે આ પ્રતિમામાં પણ મધ્યભાગ પૂનમ અને કૃષ્ણપક્ષની એકમ, ૫દર પદર કેળિઆ આહાર લેવાને કારણે, સ્થૂલ છે, તેથી આ પ્રતિમાને “યવમધ્ય यद्रप्रतिभा' ४ छ तयाटस मुनिन (वइरमझ चदपडिम पडिवण्णा) વજ મધ્યચ દ્રપ્રતિમાને ધારણ કરવાવાળા હતા આ પ્રતિમા કૃષ્ણપક્ષની એકમને દિવસે પદર કેળિઆ આહાર લઈને શરૂ કરાય છે પ્રતિદિન એક એક કોળિઓ આહાર ઘટાડતા અમાવાસ્યાને દિવસે એક કોળિઓ તથા શુક્લ પક્ષની એકમ તિથિએ એક કોળિએ આહાર કરાય છે પછી પ્રતિદિન Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पपात १७२ हाणपडिमं पडिसंलीणपडिमं पडिवण्णा संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति ॥ सृ. २४ ॥ पन्ना । तथा - केचित 'विवेगपडिम' निपनिमा-विवेचन निवेश्यागम अन्तरागा पायाहीना यानाच गंगागनुचितभक्तपानादीनाम्, तस्य प्रतिमा = प्रति पत्तिर्विनेक प्रतिभा ता, 'रिओसग्गपडिम ' यु सर्गप्रतिमा=कायो सर्गप्रतिमाम्, 'उवहाणपडिम' उपधानप्रतिमाम् - मोक्ष प्रति उप= सामीप्येन दधाति = नयतीत्युपधानम् - अनशनादिक तपस्तद्विषया प्रतिमा-अभिहस्तां, तथा 'पडिसंकीणपडिम ' प्रतिमचीनप्रतिमा= कोधाद्विनिरोधाऽभिग्रह 'पडिवण्णा' प्रतिपन्ना भयमेन तपसा आत्मानम् भावयन्त विहरन्ति ॥ सू० २४ ॥ I है । जैसे वज्रका मध्यभाग पतला होता है उसी प्रकार इस प्रतिमा का भी मध्यभाग अमावास्या और शुक्लपक्ष की एकग, एक एक कवल आहार लेने के कारण पतला है, इसीलिये इस प्रतिमा को 'वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमा' कहते है । तथा कितनेक मुनिजन " विवेगपडिम' निषेकप्रतिमाने अर्थात् आभ्यन्तरिक कपायादिकों के, तथा गण, स्वशरीर और अकल्पनीय भक्तपानादिकों के व्याग की प्रतिमा के, 'विओसग्गपडिम ' व्युत्सर्गप्रतिमा के, अथात् कायोत्सर्गप्रतिमा के, 'उवहाणपडिम' उपधान प्रतिमा के अर्थात् अनशनादिरूप उम्र तपस्या की प्रतिमा के, तथा - ( प डिलीणपडिम ) प्रतिसलीन प्रतिमा के अथात् क्रोध आदि कपायों के निरोध करने के अभिप्रह के ( पडिवण्णा) धारक थे । पूर्वोक्त सभी प्रकार के मुनिराज सत्रह प्रकार के सयम से એક એક કોળિએ વધારતા જઈ પૂનમને દિવસ પત્તર કોળિઆ આહાર લેવાય છે જેમ વાના મધ્યભાગ પાતળે હાય છે તેવી જ રીતે આ પ્રતિમામા પણ મધ્યભાગ--અમાવાસ્યા અને શુક્લ પક્ષની એકમ, એક એક કોળિ આહાર લેવાના કારણે પાતળા છે, એ માટે જ આ પ્રતિમાને “ વમધ્યयद्रप्रतिभा ” मुडेवाय छे तथा उसमे भुनिन्न ( विवेगपडिम ) विवे:પ્રતિમાના અર્થાત આભ્ય રિક કષાય આદિના, તથા ગણના, પેાતાનાशरीरना भने सम्स्थनीय लोभन पान साहिना त्यागनी प्रतिभाना (विओसग्गपडिम) व्युत्सर्गप्रतिभा भेटले आायोत्सर्ग प्रतिभाना, ( उवहाणपडिम) उपधानप्रतिभाना अर्थात् अनशन साहि३५ उग्र तपस्थानी प्रतिभाना, तथा ( पडिलीणपडिम) પ્રતિસ લીનપ્રતિમાના અર્થાત્ કોષ આદિ કાયાના નિરોધ કરવાના અભિગ્રહના (पडिनण्णा) धा२४ हृता भूथेत सर्व अभरना मुनिरान सत्तर अझरना सय Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषयपिणी-टीका स २५ भगवदन्तेवामियर्णनम १७३ मूलम्-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी वहवे थेरा भगवंतो जाइसंपण्णा कुलसंपण्णा वलसंपण्णा रूवसंपण्णा विणयसंपण्णाणाणसंपण्णा दंसणसंपण्णा टीका-'तेण कालेण' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये अमणस्य भगवतो महावीरस्य 'अंतेवासी' अन्तेनासिन -गिप्या वहव स्थगिरा = चिरतरकालपालितश्रामण्यपर्याया, भगवन्त =सयमगोभाशालिन, एपा विशेषगान्याह-'जाइसपण्णा' जातिसम्पन्ना उत्तममातफवशयुक्ता , एवम् 'कुलसपण्णा' कुलसम्पना -श्रेष्ठपैतृकवणयुक्ता , पलसपण्णा' बलसम्पन्ना -चल-महननसमुत्थित पराक्रम , तेन सम्पन्ना - युक्ता , 'स्वसंपण्णा' रूपसम्पन्ना - रूपम्-आकृति -सुन्दराऽऽफारस्तेन युक्ता । 'विणतथा बारह प्रकार के तप से आत्मा को भाषित करते हुए विचरते थे। मू० २४ ॥ 'तेण कालेण तेण समएण' इत्यादि. (तेण कालेण तेणं समएण) उसकाल उस समय मे (समणस्स भगवओ महापीरस्स अतेवासी बहवे थेरा भगवतो) श्रमण भगवान् महावीर के अन्तेवासी-शिष्य अनेक स्थविर भगवन्त ये । दीक्षापयाय से युक्त एव धर्म से प्रचलित को पुन धर्म मे स्थिर करनेवाले को स्थविर कहते हैं। सयमयोभासे जो युक्त हों टन्हे 'भगवन्त' कहते है। ये (जाइसंपण्णा) जातिसपन्न-उत्तममातृवश के ये, और (कुलसपण्णा) कुलसम्पन्न-उत्तमपितृवश के थे। (वलसंपण्णा) सहनननामकर्मसे प्राप्त बल से विशिष्ट थे। (रूबसपण्णा) सुन्दर आकृतिवाले थे। (विणयसपण्णा)जिससे अष्टविध कर्ममल મથી તથા બાર પ્રકારના તપથી આત્માને ભાવિત કરતા વિચારતા હતા ( ૨૪) 'तेण कालेण तेण समएण' त्यात (तेण कालेणं तेण समएण) ते ४८ त समयमा ( समणस्स भगवओ महावीरस्स अतेवासी बहवे थेरा भगवतो) भए सवान् भडापीरन। અતેવાસી-શિષ્ય અનેક સ્થવિર ભગવતે હતા ધર્મથી ચલાયમાન થતા સાધુઓને કરીથી ધર્મમાં સ્થિર કરવાવાળાને સ્થવિર કહે છે જે સંયમशालावा हाय तेभन मापत ४ छ तसा (जाइसपण्णा) तिस पन्न-उत्तम भातृशना हता, भने (कुलसपण्णा) समपन्न-उत्तम पितृप शना तो (वलसपण्णा ) सनननाम भथा प्राप्त थयेट मस विशिष्ट ता (रूपसपण्णा) सुहर मातिवाणा (निणयसपण्णा) नाथी Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ औपपातिकतरे - चरित्तसंपण्णा लज्जासंपण्णा लाघवसंपपणा ओयंसी तेयंसी यसपण्णा' विनयसम्पना -विनीयतेऽपनीयते- सालेगकारसमष्टविन कर्म येन स विनय - अभ्युत्थानादि-गुरुसेवालक्षण तेन युक्ता , 'णाणसपण्णा' ज्ञानसपना , ज्ञान-श्रुतचारित्रलक्षण तेन युक्ता , 'दसणसपण्णा' दर्शनसम्पना-दर्शन-सम्यक्त्व तेन युक्ता 'चरित्त सपण्णा' चरित्रसम्पन्ना चरित्र-समितिगुप्यारि क तेन युक्ता ,लन्नासपण्णा' लग्जा-सम्पन्ना लज्जा-सयमनिराधनाया हृदयसकोचरूपा तया युक्ता , 'लाघवसपण्णा' लापसम्पन्ना लाघव द्रव्यतो अल्पोपधिता, भावतो गौरवनयत्याग -तेन युक्ता , 'ओयसी' ओजस्विन, ओजो-मानसी शक्तिस्तदन्त , तेयसी तेजस्विन-सेज अन्तर्बहिर्देदीप्यमान र तेजोलेश्यादि वा तद्वन्त , 'वचसी' वचस्तिन , वच --आदेयवचन-सौभाग्याधुपेतमेपामस्तीति ते वचस्विन , अपनीत-नष्ट होता है वह विनय है, ऐसे विनय से युक्त थे। गुरुओं के आने एव जाने आदि पर खड़े होना इत्यादिक क्रियाएँ सब विनय के ही अन्तर्गत हैं। (णाणसपण्णा) विशिष्टज्ञान से मपन्न थे। (दसण-सपण्णा) विशिष्टदर्शनसे-सम्यक्त्व से सपन्न थे। (चरित्तसपण्णा) समिति-गुमि-आदिरूप चारित से सपन्न थे। (लज्जासपन्ना) सयमविराधनामे जो स्वाभाविक हृदयका मकोच उसे लन्ना कहते हैं, उससे वे युक्त थे। (लाघवसपण्णा) अन्प-उपधिरूप द्रव्यलाघव एव तीन गौरवका परित्यागरूप भावलाधर से युक्त थे। (ओयसी) ये ओजस्वी थे, अर्थात् तप और सयम के प्रभाव से युक्त थे। (तेयसी) ये तेजस्वी थे, अर्थात् भीतर और बाहर देदीप्यमान थे, अथवा द्रव्यभावरूप तेजोलेश्या आदिसे युक्त थे। (वचसी) ये आदेयवचन से, અષ્ટવિધ કમલ અપનીત-નઈ થાય છે તેને વિનય કહે છે એવા વિનયથી યુક્ત હતા ગુરૂઓ આવે તેમ જ જાય ત્યારે ઉભા થવું વિગેરે ક્રિયાઓ अधा विनयनी । मतगत छ (णाणसपण्णा) विशिष्टज्ञानता (दसणसंपण्णा) विशिष्ट शनथा-सभ्यत्वथा संपन्नता (चरितसपण्णा) समितिशुसि-माहि३५ यात्रिथा सपन्न ता (लज्जासपण्णा) सयभपिराध નામા જે સ્વાભાવિક હદયને સ કેચ થાય તેને લજજા કહે છે તેનાથી યુક્ત हुता (लाधवसपण्णा) ८५-पधि३५ द्रव्यमा तमा न गोरखना परित्याग३५ लावसायी युत सतत (ओयसी) तसा की ता, सातत५ भने सयमन प्रसाqatt 8ता (तेयसी) तसा तेस्व उता અત અ દર અને બહાર દેદીપ્યમાન હતા, અથવા દ્રવ્યભાવરૂપ તે જેતેશ્યા माणित (घचसी) मा माध्ययन, अथवा त५ सयभना Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषषिणो-टीका सु २५ भगवदन्तेयासिवर्णनम् १५ वच्चंसी जियकोहा जियमाणा जियमाया जियलोभा जिइंदिया जियणिद्दा जियपरीसहा जीवियास-मरण-भय-विप्पमुक्का वयअथवा-चर्च तेज प्रभाव -तद्वन्तो वर्चस्विन । 'जससी' यशस्विन तप सयमसमाराधनख्यातिप्राप्ता । 'जियकाहा' जितक्रोधा -जित क्रोधेा यैस्ते जितकोधा , क्रोधजय –उदयप्राप्तझोपविफलीकरणतो ज्ञातव्य । 'जियमाणा' जितमाना , तनमान -मन्यतेऽनेनेति मान -अभिमान नानादिना अहमनुपमोऽस्मीत्यभिमानरूप --गर्न इति यावत् । 'जियमाया' जितमाया - तत्र माया-परवञ्चनाभिप्रायेग शरीराकारनपथ्यमनोगामायकौटिन्यकरणरूपा, सा जिता यैस्ते तथा, उदयप्राप्तपरवञ्चनकर्मविफलीकारका , 'जियलोभा' जितलोभा 'जिडदिया ' जितेन्द्रिया 'जियणिद्दा' जितनिद्रा 'जियपरीसहा ' जितपरीपहा 'जीवियास-मरण-भय-विप्पमुका' जीविताऽऽशा-मरग-भय-विप्रमुक्ता -जीवितस्य-प्राणअथवा तपमयमके प्रतापमे युक्त थे। (जससी) ये यशस्वी थे, अर्थात् तप और सयमकी आराधना से प्रसिद्धि पाये हुए थे। (जियकोहा) क्रोधको जिन्होंने जीत लिया था। (जियमाणा) मानको जिन्होंने दूर कर दिया था, अर्थात् “ मै ज्ञानादिक गुणोंसे अनुपम हूँ" इस प्रकार अभिमानरूप गर्वको जिन्होंने परास्त कर दिया था। (जियमाया) दूसरोको वचन करनेके अभिप्रायसे वेप बनाना, एव मन-वचन और कायको कुटिलतामे परिणत करना इसका नाम माया है, इस मायाका भी जिन्होंने अपनी शुभपरिगति द्वारा निवारण कर दिया था । (जियलोभा) इसी प्रकार लोभको भी जिन्होंने नष्ट कर दिया था। (जिदंदिया) इन्द्रियोको जिन्होने अच्छी तरह अपने वशमे कर रसा था । (जियणिदा जियपरीसहा) निद्रा और परीपहो को जिन्होंने जीत लिया था। (जिवियास-मरण-भय-विप्पमुक्का) जीनेकी आशा एव मरणके प्रताय ता ( जससी) तया यशस्वी ता, यर्थात् त५ मने सयभनी माराधनाथी प्रसिद्धि पामेला हुता (जियकोहा) जोध भए त्यो छ (जियमाणा) भान रेसा (२ ४२९ छ, मर्थात् ईशानादि गुणोथी मनुपम छु ' वा मनिभान३५ गवनेसास परास्त ४यो छ (जियमाया) બીજાની વચના- છેતરપિંડી કરવાના હેતુથી વેષ બનાવવા તેમ જ મન વચનકાયાથી કુટિલતા કરવી તેનું નામ માયા છે આ માયાનુ પણ જેઓએ પિતાની शुलपरिशुतिथी निवा२४ ४यु छ (जियलोभा) तेवी ०४ शत वामन पy रेयाय नाश स्या छ (जिइदिया) मा साशगत द्रियाने पाताने १२ ४ बाधा डती (जियणिद्दा जियपरीसहा) निद्रा भने पशषडाने यामे ती Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ औपतिब्र प्पहाणा गुणप्पहाणा करणप्पहाणा चरणप्पहाणा णिग्गहप्पहाणा निच्छयप्पहाणा अजवप्पहाणा मदवप्पहाणा लाघवप्पहाणा धारणस्य-आया जीविताऽऽगा, मरणस्य भय-त्रास , पताभ्या पिप्रमुक्ता , ' वयप्पहाणा' व्रतप्रधाना-वत-सयम प्रधानम्-उत्तम-आग्यानिमिक्षकाऽपेक्षया निम्रन्थ वाद येपा ते प्रतप्रधाना , अथवा व्रतेन-सयमेन प्रधाना श्रेष्टा -निर्मन्थश्रमणा इत्यर्थ । ते च न केवल व्यवहारत एच इत्यत आह-' गुणप्पहाणा' गुगप्रधाना -गुणा कारण्यादय , यथोक्त'परोपकारैकरतिनिरीहता, विनीतता सयमनु यचित्तता । श्रुते विनोटोऽनुदिन न दीनता, गुणा इमे सत्वरता स्वभावजा । इति, प्रतैर्गुणै प्रधाना । 'करणप्पहाणा' कग्णप्रधाना -करण=क्रिया, तचेह पिण्डविशुद्धयादिग्रूप, तेन प्रधाना , अथवा करण-पिण्डविशु यादिरूप प्रधान येपा ते करणप्रधाना, 'चरणप्पहाणा' चरणप्रधाना-चरण-महाव्रतादिमूलगुणरूप तप्रधाना , 'जिग्गहप्पहाणा' निग्रहप्रधाना -इन्द्रियनोइन्द्रियदमनप्रधाना, 'निच्छयप्पहाणा' निश्चयप्रधाना -निश्चय -तत्वनिर्णय , तर प्रधाना , अथवा अवश्यकरणीयासु मयमक्रियासु निश्चितचित्ता, 'अजरप्पहाणा' आर्जनप्रधाना --आर्जय-मायाराहित्य तत्प्रधाना , कर्पूरवदन्त हिनिर्मला , ' महवप्पहाणा' मार्दवप्रधाना -मार्दव-मानोभयसे जो सर्वथा विप्रमुक्त थे । (वयप्पहाणा)व्रतपालन करनेके कारण प्रधान थे, (गुण पहाणा) क्षान्त्यादि गुणोंसे प्रधान थे, (करणप्पहाणा) पिण्टविशुद्धयादि रूप मुनियोंकी क्रियामे प्रधान थे, (चरणप्पहाणा) महानत आदि मूल गुणोंसे प्रधान थे, (णिग्गहप्पहाणा) इन्द्रिय, नोइन्द्रिय (मनके) दमन करनेमे प्रधानथे, (णिच्छयप्पहाणा) तत्त्वनिर्णय तथा अवश्यकरणीय सयम क्रियामे प्रधान थे। (अज्जवप्पहाणा) सरलतामे प्रधान थे, अर्थात् कपूर के तुल्य अन्तर बाहर निर्मल थे। (मद्दवप्पहाणा) मानके उदयका निरोध करनेवाले सीधा हता, (जीवियास मरण भय-निष्पमुक्का) वानी मा तभ०४ भरना लयथा या सर्वथा भुत उता (वयप्पहाणा) प्रतपादान ७२वाना धारणे प्रधान उता, ( गुणप्पहाणा) क्षन्ति माहि गुथा प्रधान (भुज्य) उता, (करणप्पहाणा) विविशुद्धि-माहि३५ भुनियानी ज्यामा प्रधान हता, (चरणप्पहाणा) महानत याहि मृतशुणेथी प्रधान हुता, (णिग्गहप्पहाणा) पाय नावद्रियनु भन ७२पामा प्रधान उता, (मिच्छयप्पहाणा) aa निय तथा अवश्य ४२वानी सयमडियामा प्रधान उता (अनवप्पहाणा) સરલતામાં પ્રધાન હતા, અર્થાત્ કપૂરની પેઠે અતર બહારથી નિર્મળ હતા, (महवप्पहाणा) मानना जयने। निरोध ४२११५ मा सत्याहि म18 Hot Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषयपिणी-टीका स २५ भगवदन्तेयासिवर्णनम् १७७ खंतिप्पहाणा मुत्तिप्पहाणा विज्जापहाणा मंतप्पहाणा वेयप्पहाणा वंभप्पहाणानयप्पहाणा नियमप्पहाणा सच्चप्पहाणा सोयप्पहाणा दयनिरोध , तत्प्रधाना -जायावष्टविधमटवर्जिता , 'लायाप्पहाणा' लाघवप्रधाना , लाघवद्रव्यतोऽपोपधिव भारतो गौरवायत्याग, तप्रधाना । ' खतिप्पहाणा' क्षान्तिप्रधाना - क्षान्ति -क्रोपोदयनिरोप-तत्प्रधाना । 'मुत्तिप्पहाणा' मुक्तिप्रधाना -मुक्तिोभोदयनिरोध , तत्प्रधाना , निर्लोभा इत्यर्थ । 'विजापहाणा' विद्याप्रधाना -वेदन विद्या-ससाधना रोहिणीप्रजमिप्रभृतिर्देव्यधिष्टिता सा प्रधान येपा ते विद्याप्रधाना । 'मतप्पहाणा' मन्त्रप्रधाना, 'वेयप्पहाणा' वेदप्रधाना -वेद्यते ज्ञायते जीनाजीनादिस्वरूपमेभिरिति वेदा - आचारागादय आगमा , तप्रधाना , 'यभप्पहाणा' नह्मप्रधाना , ब्रह्म-ब्रह्मचर्य-कुगलानुष्ठान त प्रधाना । 'नयप्यहागा' नयाधाना -नयन्ति बोधयन्ति अनरुवमात्मनस्तुन एकागम् इति नया नैगमादय सप्त, तत्प्रधाना , 'नियमप्पहाणा' नियमप्रधाना , नियमोद्रव्य-क्षेत्रकालभावतो विविधाभिग्रहग्रहणम् तत्प्रधाना , 'सचप्पहाणा' सायप्रधाना -जीवाअर्थात् जायादि आठ प्रकारके मदसे रहित थे। (लाघवप्पहाणा) द्रव्यसे अन्पउपधियुक्त होने कारण तथा भावसे गौरवश्यरहित होनेके कारण प्रधान थे । (खतिप्पहाणा) क्रोधके उदयका निरोध कग्नम प्रधान ये । (मुत्तिप्पहाणा) लोभ के उदयका निरोध करने में प्रधान थे । ( विजापहाणा ) रोहिणी प्रज्ञप्ति आदि विद्याओंसे प्रधान थे। (मतप्पहाणा) मन्त्रासे प्रधान थे। (वेयपहाणा) आचाराङ्ग आदि शास्त्रों से प्रधान ये । (वभप्यहाणा) ब्रह्मचर्य से प्रधान ये । (नयप्पहाणा) नैगमाढि सात-नयोंके स्वरूप निरूपण करनेम प्रधान थे। (निगमप्पहाणा) द्रव्य क्षेत्र काल भावसे विविध प्रकार के अभिग्रह करनेम प्रधान थे। (सच्चप्पहाणा) जीवा२ना महथा २डित ता, (लाघरप्पहाणा) द्रव्यथी ५-५धिवाजा हावाना २0 तथा माथी र गौरपथी २ति पाना ४२६0 प्रधान उता (सति प्पहाणा) अधना हयना निरोध ४२वामा प्रधान हता, (मुत्तिापहाणा) बोलना उहयना निरोध ४२पामा प्रधान उता, ( विजापहाणा) रोडिएपी प्रति माह विधाममा प्रधान हुता (मतप्पहाणा) भत्रोथी प्रधानता (वेयप्पहाणा) मन्यारा| माहि स्त्रोथी प्रधान उता (वभप्पहाणा) प्रायथा प्रधान उता, (नयप्पहाणा) नाम मा सात नयोन। २१३५ नि३५५५ ४२वामा प्रधान l (नियमप्पहाणा) द्रव्य-क्षेत्र-स-माथी विविध प्रजा२ना मलिअड ४२वामा प्रधान उता, ( सच्चापहाणा) 04 1894 माह पहाना Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૭૮ औपनिवतो चारुवण्णा लज्जा-तवस्सी-जिइंदिया साही अणियाणा अप्पासुया जीगदिपदार्थाना यथावस्थितस्वरूपकथन सय तप्रधाना, 'सोयप्पडागा' शौचप्रधाना - शौचम्-अन्त करणशुद्विरूपम् , त प्रधाना । यमप्यत्र चरणकरणग्रहणेऽप्यारादिक गृहोत भवति, तथापि आर्जवादीना पृथकथन प्रधानताल्यापनार्थम्-हत्यनगन्तव्यम् । 'चारुवण्णा' चारुवर्णा -वर्णकान्ति , कीर्ति , मतिश्च चार्वणों येपा ते, गौरवर्णयुक्ता, अथवा उत्तमकीर्तिमन्त , प्रशस्तमतियुक्ता था, 'लना-तव-स्मी जिइदिया' लजातप --श्री-जिते. न्द्रिया-लनयाध्ययमविराधनाया दयसकोचरूपया तप प्रिया तपस्तेजसा जितानि इन्द्रियाणि यैस्ते तथा, यधपि जितेन्द्रिया इति प्रागुप्त, तथाप्यत्र लजातप श्रीविगेषित वान पुनरुक्तिदोष । 'सोही' शोधय -शोधियोगात् शोधिरूपा --शुदा अकलपडदया उन्यथे, जोयादि पदार्थोके यथावस्थित स्वरूपकथनको सय कहते हैं, उससे वे प्रधान थे। (सोयप्पहाणा) अन्त करणकी शुद्धिको शौच कहते है, उसमें वे प्रधान थे। (भारुवण्णा) वर्णशब्दका प्रयोग कान्ति, कीर्ति एव मनिमे होता है । इस अपेक्षासे ये सब गौरवर्ण विशिष्ट थे, अथवा उत्तमकीर्तिमपन्न थे, या उत्तमबुद्धि-आत्मकल्याणमे आगर अधिकाधिकरूपसे प्रेरणा करनेवाली बुद्धिसे युक्त थे । (लज्जा-तब-सी-जिडदिया) लज्जा-सयमविराधनामें सकोच, एव तप श्री के प्रभावसे इन्होंने इन्द्रियोंको जीत लिया था। यद्यपि “जिइंदिया" इस पद-द्वारा उनमें जितेन्द्रियता प्रकट कर दी गई है, फिर भी यहा पर जो पुन जितेन्द्रियता वर्णित हुई है, यह रजा एवं तपके प्रभार से उनमें जितेन्द्रियता थी यह विशेषरूपसे कथित हुआ है, अत इस कथनमे पुन યથાવસ્થિત સ્વરૂપનું કથન સત્ય કહેવાય, તેમા તેઓ પ્રધાન હતા જોર पहाणा) 46:२०नी शुद्धिने शीय ४३ छ, तमा तसा प्रधान। उता (चारवण्णा) शहना प्रयास ति, त तमा भतिभा थाय® આ અપેક્ષાએ તેઓ બધા ગૌરવર્ણવિશિષ્ટ હતા, અથવા ઉત્તમ કીતિસન્ન હતા, અથવા ઉત્તમબુદ્ધિ-આત્મ કલ્યાણમાં આગળ આગળ વધારેમાં पधारे ३५था र ४२पाली भुद्धिवाणा ता (लजा-तवस्सी-जिईदिया) લજજાઃ યમવિરાધનામા સ કેચ તેમ જ તપશ્રીના પ્રભાવથી તેઓએ धान्याने ती दीधी ती ने “ जिइदिया" से पहथी तमनाभा नितદ્રિયપણ પ્રકટ કરી દીધેલ છે, છતા પણ અહી જે ફરીને જિતે દિયતાનું વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે તે લજજા તેમજ તપના પ્રભાવથી તેમનામા જિતેદ્રિયપણું હતું તેનું વિશેષરૂપથી કથન કર્યું છે માટે આ કથનમાં પન Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयृपवर्षिणी-टीका सू० ६५ भगवदन्तेवासिवर्णनम् १७९ अहिलेसा अप्पडिलेस्सा सुसामण्णरया दंता इणमेत्र णिग्गंथं पावयणं पुरओकाउं विहरंति ॥ सू० २५ ॥ 2 या - सुहृद - प्राणिमानस्य मिनरूपा ' अणियाणा ' अनिदाना - निद्रायते - द्विद्यते मोक्षफमनेन इति निदान - स्वर्गाद्विप्रार्थनम्, न विद्यते निदान येषा ते अनिदाना, 'अप्पोसुया' अन्पौ मुक्या अल्पम् - अपगतम् औसुक्यम् - उत्सुकता येषा ते - अन्पौ सुक्या - त्रिपौत्सुक्यरहिता, 'अनहिल्लेसा' अनहिर्लेश्या -सयमादवहिर्भूता लेश्या मनोरृत्तयो येपा इत्यर्थ । 'अप्पडिलेस्सा' अप्रतिलेश्या - अविद्यमाना प्रतिलेश्या - सदृशमनोवृत्तयो येषा ते - अप्रतिश्या प्रवर्धमानपरिणामसम्पन्ना, 'सुसामण्णरया' सुश्रामण्यरता - श्रमणस्य भाव श्रामण्य, गोमन श्रामण्य सुश्रामण्य-सम्पूर्ण सकलसावद्यनिवृत्तिरूप सयम तस्मिन् रता = सलग्ना, " दता ' दान्ता –इन्द्रिय-नोइन्द्रियढमनपरायणा इति भाव । ' इणमेव ' इदमेव ' णिगय ' नैर्ग्रन्थ्य - निर्ग्रन्थाना भावो नैर्मन्य्य - श्रमणधर्ममयम् ' पावयण ' प्रवचन–प्र=प्रकृष्टतया-उच्यते जीवादिस्वरूप यस्मिन् तत्प्रवचन जैनागम तत् ' पुरओकाउ ' पुरस्कृत्य = प्रमाणीकृय ' विहरति ' हिरन्ति ॥ सू० २५ ॥ रुक्तिदोष नहीं आता है । ( सोही ) ये शोधि - अकलुषहृदयवाले थे, अथवा प्राणिमात्र मिस्वरूप थे । ( अणियाणा) मोक्षरूप फल जिसके द्वारा काट दिया जाता है वह निदान है, इस निदानसे ये सर्वथा रहित थे । (अप्पोसुया ) इनमें विषयसम्बन्धी कोई उसुकता नहीं थी । ( अवदिल्लेसा ) इनका मानसिक व्यापार सयमकी आराधना से बाहिरकी ओर थोडा भी नहीं जाता था । (अप्पडिलेस्सा) मनके साधारण प्रवृत्तिको प्रतिलेश्या कहते है, परन्तु वे अप्रतिलेश्या से प्रवर्द्धमान मनके शुभ परिणामसि युक्त थे । (मुसामण्णरया) वे सुश्रामण्य में रत थे, अर्थात् सकल सावयको ३क्ति होष भावतो नथी ( सोही ) तेथे शोधि-भदुषित हृहयवाजा ता अथवा प्राणिभावना भित्रभ्व३५ हता ( अणियाणा ) भा३प इस लेनाथी કપાઈ જાય છે તેને નિદાન કહે છે, તેવા નિદાનથી તે સર્વથા રહિત હતા, ( अप्पोसुया ) तेभनाभा विषयम अधी मे उत्सुउता नहोती, ( अबहिल्लेसा) તેમના માનસિક વ્યાપાર સયમની આરાધનાથી ખહારની તરફ જરાપણુ જતા नहोतो (अपडिलेस्सा) भननी साधारण प्रवृत्तिने प्रतिवेश्या हे छे, परतु तेयो अप्रतिद्वेश्याथी=प्रवर्द्धमान भनना शुल परियाभोथी युक्त हता (सुसामण्णरया) ते सुश्रामथ्र्यभा २ ( सागी रहेसा) ता, अर्थात् सबणा सावधनी निवृत्तिय सयमभा तेथे सहा भलग्न रहेता हता, (दुता) हान्त इता Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १८० ओपपातिक मूलम-तेसिणंभगवंताणंआयावायावि विदिता भवंति, परवाया वि विदिता भवंति, आयावायं जमइत्ता नलवणमिव टीका-तेसि ण भगताण' इत्यादि । तेया गल श्रीमहापरिशियाणा भगवता-सयमविभूपितानाम् 'आयाया नि' आ मादा अपि-स्वमिमान्तवादा अपिआईतवादा भपी यर्थ , विदिता-निनाता भवन्ति, 'परसायानि विदिता भवति' परवादा भपि विदिता भवन्ति-परेपा-गास्यादीना पादा-गतानि विदिता भवन्ति, स्वपर-- निवृत्तिरूप सयममे ये सदा सलग्न रहते थे। (दता) दान्त थे, अर्थात् इन्द्रिय और नोइन्द्रिय-मन के दमन करनेवाले थे । (इगमेव गिग्गय पारयण पुरओकाउ विहरति) ये मुनिजन इसी निर्घन्य प्रवचनको आगे रगकर विचरते थे, अर्थात् इनकी सब प्रवृत्ति आगमानुकुल ही होती थी । सू० २५ ॥ 'तेसि ण भगवताण' इत्यादि (तेसि णं भगवताण) भगवान् महावीर के सयम से विभूषित उन शिष्यों के (आयावाया वि) आत्मवाद-स्वसिद्धान्तप्रतिपादित -आईतवाद भी (विदिता भवंति) विदित था, अर्थात् भगवान् महावीर के ये शिष्य स्वसिद्धान्त-प्रतिपादिततत्यों के पूर्ण ज्ञाता थे । ( परवाया वि विदिता भवति ) तथा शास्यादिकों का क्या सिद्धान्त है, यह भी इन्हे विदित था। मतलन कहने का यह है कि ये मुनिजन स्वपरसिद्धान्त के पूर्णवेत्ता थे। ऐसा कोई भी सिद्धान्त नहीं था जो इनकी अर्थात् द्रिय ४२ नद्रियनु भन ४२वावा उत्ता, (इणमेव जिगंध पाययणं पुरओ काउ विहरति) ते मुनिशन मा निन्य अपयनने माग રાખીને વિચરતા હતા, અર્થાત્ તેમની સર્વે પ્રવૃત્તિ આગમને અનુકુળ જ थती उती (सू २५) 'तेसि ण भगवताण त्याह (तेसि ण भगवताण) सयमथी विभूषित भगवान महावीरन त शिध्या (आयावायावि) यात्मवाह-वसिद्धात-प्रतिपादित तत्व-यातवाह पर (विदिता भवति) सगुता ता, यर्थात् लगवान महावीरन ते शिष्ये। स्वसिद्धातप्रतिपाति तत्वाना से पूर्ण सात ता (परवायावि विदिता भवति) તથા શાકય આદિકેને શુ સિદ્ધાત છે તે પણ તેઓ જાણતા હતા કહેવા મતલબ એ છે કે તે મુનિજને સ્વપર-સિદ્ધાતના પૂર્ણ જ્ઞાતા હતા એવો કોઈ પણ સિદ્ધાત નહેત કે જે તેમની નજર બહાર હોય હજુ તેઓ કેવા Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८१४ पीयूषषपिणी-टीका स २६ भगवदन्तेवासिघर्णनम् मत्तमातंगा अच्छिदपसिणवागरणा रयणकरंडगसमाणा कुत्तिया सिद्धान्तप्रवीणतया न किञ्चिदपिदित तेपा भवताति भार । पुनस्ते कीदृशा ? इत्यनकै विशेषणै कथयति-'आयावायं जमइत्ता' आमगादान् यमयित्वा-स्वसिद्धान्तान् पुन पुनरभ्यस्य-अतिपरिचितान् विधाय, 'नलवणमिर मत्तमातगा' नलवनमिव मत्तमातगा-क्रीडाथ पुन पुन प्रवेशेन कमलपन यथा मदोन्मत्ता गजेन्द्रा अतिपरिचित कुर्वन्ति तथैव ते पुन पुनरभ्यासेन निजसिद्धान्त परिचित कृतवन्तोऽतस्ते तत्तुल्या इत्यर्थ । 'अच्छिद-पसिण-चागरणा' अच्छिद्र-प्रश्न-व्याकरणा-अच्छिद्रा-निरन्तरा --धारावाहिकरूपा प्रश्ना, निरन्तराण्युत्तराणि येपु तादृशानि व्याकग्णानि-विस्तारयुक्तव्याख्यानानि येपा ते-अच्छिद्रप्रश्नन्याकरणा-पुन पुन प्रश्नोत्तरसमुचितत्र्याप्यविनिपुणा , अत एव- रयण-करडग-समाणा' रन-करण्डक-समाना रत्नाना-मगिमागिक्यादीना करण्डको मञ्जूषा तस्य समानास्तत्तल्या , करण्डको यथा बहुविधरत्नपूर्णो भवति दृष्टि से बाहर हो। और भी ये कैसे थे ? सो इस बात को आगे के विशेषणों द्वारा सूत्रकार कहते है-(आयावाय जमइत्ता नलवणमिव मत्तमायगा) जिस प्रकार मदोन्मत्त गजराज सरोवर आदि में क्रीडा करने के लिये पुन पुन प्रवेश कर कमलवन से पूर्ण परिचित हो जाते है उसी प्रकार ये भी ज्ञानरूपी सरोवर में क्रीडा करने के लिये पुन २ प्रवेश कर स्वपर-सिद्धान्तरूपी कमलपन से पूर्ण परिचित थे। (अच्छिद्द-पसिण-चागरणा) जव ये प्रवचन करते थे तब उसमें श्रोताजन धारावाहिकरूप से प्रश्न किया करते थे, उनका उत्तर भी ये उसी ढग से देते थे । (रयण-करडक-समाणा) इसलिये ये ऐसे ज्ञात होते थे कि मानो रत्नकरण्टक है, जैसे रत्नों का करण्डक अनेक प्रकार के उत्तमोत्तम अमूल्य रत्नों से भरपूर होता सेता त पात माजना विशेषाद्वारा सूत्र४२ ४९ छ-( आयावाय जमइत्ता नलवणमिव मत्तमायगा) २वी शत महोन्मत्त ४२।०१ सरा१२ माहिमा ક્રીડા કરવા માટે વાર વાર પ્રવેશ કરીને કમલેના વનથી પૂર્ણ પરિચિત થઈ જાય છે, તેવી જ રીતે તેઓ પણ જ્ઞાનરૂપી સરોવરમાં કીડા કરવાના કારણે વાર વાર પ્રવેશ કરીને વષર-સિદ્ધાતરૂપી કમલવનથી પૂર્ણ પરિચિત હતા (अच्छिद-पसिण-वागरणा) न्यारे तसा अवयन ४२॥ ता त्यारे तमा श्रोताજને એકધારી રીતે પ્રશ્ન કર્યા કરતા હતા અને તેના ઉત્તર પણ તેઓ તેવી જ રીતે मापता तो (रयण करडग-समाणा) मेथी तसा सवा सागता न રત્નને કરડિઓ હોય જેમ રને ફરડિએ અનેક પ્રકારના ઉચામાં ઉચા Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ । औपालियो वणभूया परवाइपमहणा आयारधरा चोदसपुवी दुवालसंगिणो तथैव तेऽपि मुनिवरा सम्यग्ज्ञानादिग्नपूर्णा सति । पुनस्ते कीदगा । इयाह-'कषियारणभूया' कृत्रिकाऽऽपणभूता =कना-पर्गमर्यपातालगमीना त्रिक, कुविक, तास्यात् तदव्यपदेश इति कृत्वा तत्र स्थित वस्त्वपि कुरिकमुच्यते,कुनिकस्य आपण कुनिकापण । देवाधिष्ठितत्वेन स्वर्गमर्त्यपाताललोकत्रयसमविवस्तुसम्पादकहा इत्यर्थ, तरता-समाहितार्थ सम्पादनलब्धियुक्तत्वेन तत्तुल्या इति भाव. । 'परवाइपमरणा' परवादिप्रमर्दना -परवादिना - शाक्यादीना मतनिराकरणेन विजेतार इत्यर्थ । 'आयारधरा' आचारपरा -आचाराणसूत्रस्यधारका यावद्विपाकसूत्रधरा , 'चोदसपुत्री' चतुर्दशविण चतुर्दश पूर्वाणि विचन्ते येषां ते चतुर्दशपूविंग पड्गुणहानिवृद्रिरूपस्थानमस्थिता परस्पर भवन्ति न्यूनाधिक्येन, तथाहि-यः कश्चित् सकलामिलाप्यवस्तुवेदितया चतुर्दशपूर्वी स उत्कृष्ट, ततोऽन्ये सूनार्थतदुभयरूपतारतम्याचतुर्दशपूर्वधरा ।'दुवालसगिणो द्वादशागिन द्वादशानि-अङ्गानि आचारानादीनि सन्ति है उसी प्रकार ये साधुजन भी सम्यग्दर्शन एव सम्यग्जान आदि विविध गुणरूप रत्नों से भरपूर थे। (कुत्तियावणभूया) ये कुत्रिकापण तुन्य थे। जिस आपण ( दूकान ) में स्वर्ग मयं, पाताल-तीनों लोक की वस्तुएँ रहती हैं, उसको 'कुत्रिका पण' कहते है। उस कुत्रिकापण से सभी अभिलषित वस्तुएँ मिलती है। उसी प्रकार ये अभिलपित तानों लोक के पदार्थों के सम्पादन करने को लब्धियों से युक्त थे। अत एव कुत्रिकापण-तुल्य थे। (परवाइपमदणा) परवादियों के मत को निराकरण करने से ये उनके विजेता थे। (आयारधरा) आचाराग सूत्र से लेकर विपाकसूत्रतक के आगमों के ये धारक थे। (योदसपनी) चौढहपूों के ये पाठी , थे। इस प्रकार ये सब के सब (दुवालसगिणो) द्वादशाग के वेत्ता थे। (समत्तકિમતી રત્નથી ભરપૂર હોય છે તેમ એ સાધુજને પણ સમ્યગ્દશન તેમજ सभ्यशान मा विविध शुष३५ २त्नाथी - सरपूर ता, (कुत्तियावणभूया)-- તેઓ કુત્રિકા૫ણ જેવા હતા જે આપણ (દૂકાન)માં રવર્ગ મત્યું અને પાતાળત્રણે લોકોની વસ્તુઓ રહેતી હોય તેને “કુત્રિકા પણ કહે છે તે કુત્રિકાપણમા બધી ઈચ્છિત વસ્તુઓ મળે છે, તેવી રીતે તેઓ પણ ત્રણે લોકના ઈચ્છિત, પદાર્થો મેળવવાની લબ્ધિઓવાળા હતા એથી તેઓ કુત્રિકા૫ણ જેવા હતા (आयारधरा) मायारागसूत्रथी बने विपासूत्र सुधीना मागमाना त्या पार४ डता (चोहसपुव्वी) यौह पूर्वाना मानना। तो मे घारे मे तमाम तमाम (दुयालसगिणो) MAITन सात sal (समत्तगणिपिडगधरा) समस्त Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका व २६ भगवदन्तेवासिवर्णनम् ..समत्तगणिपिडगधरा सव्वक्खरसण्णिवाइणो सव्वभासाणुगामिणो अजिणा जिणसंकासा जिणा इव अवितहं वागरमाणा संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहति ॥ सू० २६ ॥ १८३ - येषा ते द्वादशाङ्गिन - द्वादशाङ्गागमज्ञातार, द्वाढगाङ्गज्ञातृत्वेऽपि समस्त श्रुतधरत्व न सिध्यतीमत आह-'समत्तगणिपिडंगवरा 'ममन्तगणिपिटक नरा - गणे- गच्छ गुणगणेो वाऽस्याऽस्तीति गणी - आचार्य तस्य पिटक इव पिटक सर्वस्वमित्यर्थ, समस्तस्य गणिपिटकस्य घरा : - धारका । अतएव 'सव्वक्खर -सण्णिवाइणा' सर्वाऽक्षरसन्निपातिन, यद्यपि न क्षरति-स्वभावान्न कदाचित्प्र च्यवते इत्यक्षर पर तत्त्व केवलज्ञानादिरूपम्, तथाप्यत्र अक्षर- गन्दा स्वरव्यञ्जनमेदेन भिन्ने वर्णसमुदाये, ततश्च - अक्षराणा मन्निपाता मयोगा स्ववर्गपरवर्गे ममीलनानि - अक्षरसन्निपाता', सर्वे चतेऽक्षरसन्निपाता, ते सन्ति येषा ते सर्वाऽक्षरसन्निपातिन सर्वाक्षरज्ञाननन्त इतिभाव | 'सव्वभासाणुगामिणा' सर्वभाषानुगामिन - सर्वाथ ता भाषा :- भाषणानि, यद्वा भाग्यन्ते इति भाषा = व्यक्तवचनानि, आसा भाषाणा सकृतप्राकृताऽऽदय आर्याsनार्यादयेो चहवा भेदा भवन्ति, ता सर्वभाषा अनुगच्छन्ति एव शीला सर्वभापानुगामिन, 'अजिणा' अजिना - असर्वज्ञत्वादिति भाव । जयन्ति कर्मरिपून् इति जिना = सर्वज्ञा, ये जिना न भवन्ति ते अनिना - असर्वज्ञा, तथापि - 'जिनसकासा, जिनमङ्काशा - जिनसहा पृष्टनिर्वचन कारिगणिपिटग - धरा) समस्तगणिपिटक के धारक थे । (सव्वक्रवर सण्णिवाइणो ) यद्यपि केवलज्ञानादिरूप तत्त्व-अक्षर शब्द से गृहीत होना चाहिये था, परन्तु ऐसा अक्षर यहा गृहीत नहीं हुआ है, किन्तु स्वर एव व्यजन के भेद से भिन्न वर्णसमुदाय का ही यहां अक्षर शन्द से ग्रहण किया गया है । सन्निपात गन्द का अर्थ सयोग है । 1 क्या अर्थ होता है, उसके ज्ञाता थे । ये मुनिजन, सर्व प्रकार के अक्षरों के सयोग से ( सन्त्र - भासा - णुगामिणो ) आर्य एव अनार्य सब देश की भाषा के ये सब जान - कार थे। (अजिणा) ये सर्वज्ञ तो नहीं थे पर ( जिणसकासा) सर्वज्ञ के जैसे थे । गशिपिटना तेथेो धार हुता (सव्वक्सरसण्णिवाइणा) ले ठेवसज्ञान આદિરૂપ તત્ત્વ–અક્ષર શબ્દથી લેવા જોઇતા હતા, પરંતુ એવા અક્ષર અહી લેવાયા નથી, પશુ સ્વર તેમજ વ્યંજનના ભેદથી જુદા વસમુદાયજ અહી અક્ષર શબ્દથી લેવામા આવ્યે છે. સન્નિપાત શબ્દને અથ સચાગ છે એ મુનિજના સર્વ પ્રકારના અક્ષરાના સયાગથી શુ અથ થાય છે તેના જ્ઞાતા उता (सम्व भासा - णुगामिणो ) आर्य तेभन मनायें गधा देशनी लाधाना तेथे अधा लघुअर उता (अजिणा) तेथे सर्वज्ञ तो नहोता, या (जिणसंकासा) Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिक मूलम्-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ . महावीरस्स अंतेवासी वहवे अणगारा भगवंतो, इरियासमिया त्वाद् अनिनादिवचनत्वाचेति भाव । जिणा इव अवितह वागरमाणा' जिना इव अवितथ व्याकुर्मागा - जिनवद् याथातय्येन यद्वस्तु यादृगेन तथा कथयन्त 'संजमेण' सयमेन - सावययोगनिरमणलक्षणेन 'तरसा' तपसा 'अप्पाण भावेमाणा विहरति आत्मानं भावयन्तो विहरन्ति ॥ सु० २६ ॥ T १८४ टीका- 'तेण कालेणं' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमगस्य भगवतो महावीरस्य अन्तेवासिनो बहवोऽनगारा, 'भगवते' भगवन्त - पयमशोभावन्त, 'इरियासमिया' ईर्यासमिता ईरण- गमनमीर्या, तस्या समिता पम्यक्प्रवृत्ता गमने ( जिणा इन अवितह वागरमाणा ) जिन - सर्वज्ञ - प्रभु जिस प्रकार यथार्थ की प्रेरूपा करते है उसी प्रकार ये भी अतिथ जो वस्तु जैसी थी उसी तरह से उसकी व्याख्या करने वाले थे । (सजमेण तवसा अप्पाण भाषेमाणा विहरति ) ये सब के - सब साधुजन सावद्ययोगविरमणलक्षणरूप १७ प्रकार के सयम से एव अनशनादि १२ प्रकार के तप से आत्मा को भावित करते हुए प्रभु के साथ विचरते थे ||मू० २६|| ' तेण कालेन तेग समण ' इत्यादि --- ( तेण कालेन तेण समएण ) उस काल और उस समय में ( समणस भगओ महावीरस्स) श्रमण भगवान् महावीर के ( अतेवासी ) पास में रहनेवाले ( बहवे अणगारा भगवंतो ) सभी अनगार भगवान ( इरियासमिया ) 1 ईर्यासमिति से युक्त थे, अर्थात् अन्य जीवों की किसी भी प्रकार से विराधना न सर्वज्ञ नेवा हुता (जिगा इव अवितह वागरमा णा) नि-सर्वज्ञ-प्रभु के अठारे યથાની પ્રરૂપણા કરે છે તેજ પ્રકારે તે પણ અવિતથ-જે વસ્તુ જેવી ती तेवी तथा तेनी व्याच्या उरनारा हता (सजमेणं तवसा अप्पाणं भावे माणा विहरंति) तेथेो तमाम साधुना सावद्ययोग विरभणु सक्ष३५ १७ પ્રકારના સ યમથી તેમ જ અનશન આદિ ૧૨ પ્રકારના તપથી આત્માને ભાવિત દ્વરતા કરતા પ્રભુની સાથે વિચરતા હતા (સ્૦ ૨૬) " तेण कालेन तेण समएण " त्यादि " " ( तेण कालेन तेणं समएण ) ते जण अने ते सभयभा (समणस्स भगवओ महावीररस ) श्रभाणु भगवान् महावीरना (अतेवासी) पासे रहेवावाजा ( हवे अणगारा भगवतेा ) धा अनगार भगवान ( इरियासमिया ) र्यासभिति Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषव पिंणी-टीका सू २७ भगवदन्तेवासिवर्णनम I भासासमिया सणासमिया आयाण-भंड-मत्त - निवखेवणा-समिदत्तावधाना इयर्थ, यथाऽन्यजीवस्य कथमपि निराधना न भवेत् तथोपयोगपूर्वकगमनशीला इति भान । 'भासासमिया' भाषासमिता - भाषासमितियुक्ता - भाषासमितिर्निरवद्यवचनप्रवृत्तिस्तया युक्ता इयर्थ । 'एसणासमिया' एपगाममिता – एपणायामुद्गमादिद्विचचारिंगद्दापनर्जनेन समिति - सम्यक्प्रवृत्तिरेपणा समितिस्तया युक्ता, निशुद्राऽऽहारादिग्रहणान्त्रेष गोपयेोगयुक्ता इय | 'आयाण-भड-मत्त-निखेवणा-समिया' आढा नभाण्डमान-निक्षेप गाममिता आदान- ग्रहण - अस्य भाण्डमानयोरित्यनेन सम्बध-प्रयासत्तिन्यायात्, साहचयादया । देहलीढीपन्यायाचा भाण्डमानन्दस्य आदाननिक्षेपाम्या भाण्डमानयो - भाण्डस्य = पानस्य, मानस्य = पत्रापकरणम्य चेत्यर्थ, हो इस प्रकार उपयोगपूर्वक गमन करने के स्वभाववाले थे । ( भासासमिया ) निग्वद्यवचनप्रवृत्ति से युक्त थे । ( एमणासमिया ) एषणा में उद्गमादिक ४२ दोषों का परिवर्जनपूर्वक प्रवृत्ति करना इसका नाम एपणासमिति है । इस समिति से युक्त पणासमित है । ये साधुजन विशुद्ध आहारादिके ग्रहण मे एन अन्वेषणमे उपयोग - विशिष्ट थे । ( आयाण-भड - मत्त - निक्खेवणा-समिया ) आदान का अर्थ ग्रहण है । इसका साथ प्रयासत्तिन्याय से, अथना साहचर्य से भाण्डमात्र के साथ है । अथना - भाण्डमान का सम्बन्ध ' देहली - दीपक न्याय से आदान और निक्षेप इन दोनों के साथ होता है। ये साधुजन भाण्ड-पान एवं मानवस्त्रादिक उपकरण के आदान -ग्रहण और निक्षेपण - रखना रूप समिति से युक्त थे । વાળા હતા, અર્થાત્ ખીજા જીવાની રાઈ પણ પ્રકારે વિરાધના ન થાય એવી ते उपयोगपूर्व जमन हरखाना स्वलाववाजा हता ( भासासमिया ) निरवय वयन-प्रवृत्तिवाजा हता (एसणास मिया ) सेपलामा उगम आदि ४२ होपीना પરિવર્જનપૂર્વક પ્રવૃત્તિ કરવી તેનુ નામ એષણાસમિતિ છે આ સમિતિથી ચુત જે છે તે એષણાસમિત છે તે સાધુજના વિષ્ણુદ્ધ આહારાદિક લેવામા तेभल तेना मन्येषायुभा उपयोगविशिष्ट ता, (आयाण भड मत्त निम्नणा-समिया ) આદાન શબ્દના અર્થ ગ્રહણ છે, તેને સ ખ ધ પ્રત્યાક્ષત્તિન્યાયથી અથવા સાહચર્ય થી ભાડમાત્રની સાથે છે અથવા ભાડમાત્ર શબ્દને સ મધ દેહલીદ્વીપ' ન્યાયથી આદાન અને નિક્ષેપ એ એની માર્ચ થાય છે, તે મુનિએ ભાડપાત્રના અને વઆદિ ઉપકરણના આદાન=ગ્રહણુ અને નિક્ષેપણુ= મૂવારૂપ સમિતિથી યુક્ત હતા, અર્થાત્ પાત્ર તેમજ વસ્ત્રાદિક ઉપકરણાના मनन्ध, १८५ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ औपपातिकतरे या उच्चार-पासवण-खेल-जल्ल-सिंघाण-पारिटावणिया-समिया मणगुत्ता वयगुत्ता कायगुत्ता गुत्ता गुतिंदिया गुत्तबंभयारी अममार्कितयोनिक्षेपणे--अवस्थापन समिता -मुप्रनिलेसन-प्रमार्जनाचुपयोगपूर्वकप्रवृत्तियुक्ता , 'उच्चार पासवण-खेल-जल्ल-सिंघाण-पारिद्वारणिया-समिया' उचार-प्रनपण- लेप्म-जल शिवाण-परिठापनिका-समिता , तन-उचार -पुरीपम्, प्रसवण-मून, सेल लेष्मा, उपलक्षण त्वानिष्ठीवनस्यापि ग्रहणम् , जल-स्वेटजमलम् , गिहाण-नासिकामलम् , एतेषा परिष्टापनिकापरिष्ठापना-परित्याग -सैव परिष्टापनिका, स्वार्थ क , तस्या समिता , शुद्धस्थण्डिलाश्रयणासम्यगुपयुक्ता । 'मणगुत्ता' मनोगुप्ता -(१) निविधा मनोगुप्तयः-आतरौद्रध्यानानुबन्धिकल्पनाजालनियोग प्रथमा (२) शास्त्रानुसारिणी परलोकसाधिका धर्मध्यानानुबन्धिनीमाध्यस्थ्य परिणतिद्वितीया, (३) सफल्मनोवृत्तिनिरोधेन योगनिरोधाऽमस्याभाविनी-आमरमणरूपा अर्थात् पात्र एव वस्त्रादिक उपकरणों के सुप्रतिलेखन प्रमार्जनादिक में ये सब उपयोगपूर्वक प्रवृत्ति करने वाले थे। (उच्चार-पासवण-खेल-जल्ल-सिंघाण-पारिहा पणिया-समिया) उच्चार-पुरीप, प्रस्रवण-मूत्र, खेल-लेप्मा, उपलक्षण से निष्ठीवन थूकना, जल्ल-स्वेदज मेल, शिंघाण-नासिका का मेल, इन सरके परिष्ठापन-रूप समिति से युक्त थे। (मणगुत्ता वयगुत्ता कायगुत्ता) गुप्ति तीन प्रकार की है-मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति, इनमें मनोगुप्ति तीन प्रकारको है-आर्त एव रौद्रध्यान का परित्याग करना प्रथम मनोगुप्ति है, शास्त्र के अनुसार, परलोक की साधक और धर्मध्यान के साथ अनुबन्ध रखने वाली माध्यस्थ्यपरिणतिरूप द्वितीय मनोगुप्ति है। सकल मनोवृत्ति के निरोध से योगों की निरोधावस्था में होनेवाली परिणति-आत्मा में रमणरूप परिणति સુપ્રતિલેખન અને પ્રમાર્જન આદિકમા તે બધા ઉપગપૂર્વક પ્રવૃત્તિ કરવાવાળી उता (उच्चार पासवण-खेल जल्ल सिघाण पारिद्वारणिया-समिया) प्यार-पुरीष, પ્રસવણ-મૂત્ર, ખેલલેષ્મા, ઉપલક્ષણથી નિષ્ઠીવન-ધૂકવુ, જલ-પરસેવાને મેલ, शिंधा-४ने भेस, म सधान परिहायन३५ समितिथी युति ॥ (मणगुत्ता वयगुत्ता कायगुत्ता) अति जानी भनाशुति, पयनप्ति मने अयशुसि, તેમાં મને ગુપ્તિ ત્રણ પ્રકારની છે--આર્તા તેમજ રૌદ ધ્યાનને પરિત્યાગ કરવો એ પ્રથમ મનગુપ્તિ છે, શાસ્ત્રને અનુસરનારી પરલેકની સાધ૮ અને ધર્મધ્યાનની સાથે અનુબ ધ રાખનારી માધ્યય્યપરિણતિરૂપ બીજી મને ગુપ્તિ છે બધી મને વતિ માત્રના નિધથી મેંગેની નિરાધાવસ્થામાં થનારી પરિણતિ-આત્મામા Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८७ पोयुपपिणी-टीका सू० २७ भगवदन्तेवासियर्णनम तृतीया । उक्त च योगशास्त्रे-~~ विमुक्तकल्पनाजाल समवे सुप्रतिष्टितम् । आमाराम मनस्तज्जेमनोगुमिस्दाहृता दति।। तया मनोगुप्या युक्ता -मनोगुप्ता । 'वयगुत्ता' वचोगुप्ता वचनगुप्तियुक्ता , वचनगुमिचतुर्विधा, उक्त च-- सचा तहेव मोसा य सच्चामोमा तहेन य । चर थी असचमोसा य, वयगुत्ती चउब्विहा ।। (उत्त० अ २४ गा २२) छाया-सया तथैव मृपा च सयमृपा तथैव च। चतुर्थ्यसत्यमृपा च वचोगुमिश्चतुर्विधा ॥ वचोगुमि = वचनगुप्तिचतुर्विधा-सया, मृपा, सयमृपा असत्यमृपा चेति । जीन प्रति-'अय जीव ' इति कथन सत्या, जीन प्रति 'अयमजीव ' इति कथन मृषा, पूर्वमनिर्णीय वदति-'अद्यास्मिन् तीसरी मनोगुमि है। योगशास्त्र में यही बात कही है विमुक्तकल्पनाजाल समवे सुप्रतिष्टितम् ॥ आत्माराम मनस्तजैर्मनागुमिरदाता ॥ इस मनोगुप्ति से युक्त होने का नाम मनोगुप्त है। वचनगुप्ति से युक्त होना __ सो वचनगुप्त है। बचनगुमि ४ प्रकार की है __ " सच्चा तहेर मोसा य, सचामोसा तहेव य॥ चउत्थी असचमोसा य वयगुत्ती चउम्विहा ॥ ( उत्त० अ० २४ गा २२) अर्थ इस गाथा का इस प्रकार है। सत्य, मृपा, सत्यमृपा और असत्य___मृपा, इस प्रकार वचन ४ प्रकार के होत है, (१) जिस वस्तु का जैसा स्वरूप રમણરૂપ પરિણતિ એ ત્રીજી અને ગુપ્તિ છે ગશાસ્ત્રમાં એજ વાત કહી છે विमुक्तकल्पनाजाल, समत्वे सुप्रतिष्ठितम् । आत्मारामं मनस्तस, - मनोगुप्तिरदाहता ॥ આ મને ગુપ્તિથી યુક્ત હેવાનું નામ મને ગુપ્ત છે વચનગુપ્તિથી યુકત વચનગુપ્ત છે વચનગુપ્તિ ૪ પ્રકારની છે सच्चा तहेव मोसा य सन्चामोसा तहेव य । चउत्थी असमोसा य पयगुत्ती चउव्यिहा ।। (उत्त० अ००४मा० २०) ગાથાનો અર્થ આ પ્રકારનો છે સત્ય ૧, મૃષા ૨, સત્યમૃષા ૩ અને અસત્યમૃથા ૪–એ પ્રકારે વચન ૪ પ્રકારના થાય છે (૧) જે વસ્તુનું જેવું સ્વરૂપ હેય તે વસ્તુને તે જ સ્વરૂપથી પ્રકાશિત Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ -- - औषपातिकतरे या उच्चार-पासवण-खेल-जल्ल-सिंघाण-पारिद्यावणिया-समिया मणगुत्ता वयगुत्ता कायगुत्ता गुत्ता गुतिदिया गुत्तवंभयारी अममाअकितयोनिक्षेपणे-अवस्थापन समिता --सुप्रनिरसन-प्रमाननाघुपयोगपूर्वकप्रत्तियुक्ता , 'उबार पासवण-खेल-जल्ल-सिंघाण-पारिद्वारणिया-समिया' उगार-प्रवरण-श्लेष्म-जल शिवाण-परिणापनिका-समिता , तर-उचार -पुरीपम्, प्रसवण-मून, पेट लेप्मा, उपरभण लानिष्ठीवनस्यापि ग्रहणम् ,'जल-स्वेदजमलम् , शिक्षाण-नामिकामलम् , एतेपा परिष्टापनिकापरिष्ठापना-परित्याग -सैव परिष्टापनिका, स्वार्थ क , तस्या समिता , शुदस्थण्डिलाश्रयणात्सम्यगुपयुक्ता । 'मणगुत्ता' मनोगुप्ता -(१) विविधा मनोगुमय:-आसरोद्रध्यानानुबन्धिकल्पनाजालरियोग प्रथमा (२) शास्त्रानुसारिणी परलोकसाधिका धर्मव्यानानुवन्धिनीमाव्यस्थ्य परिणतिदितीया, (३) सकलमनोवृत्तिनिरोधेन योगनिरोधाऽवस्थाभाविनी-आमरमणरूपा अर्थात् पान एव वस्त्रादिक उपकरणों के सुप्रतिलेसन प्रमार्जनादिक में ये सब उपयोगपूर्वक प्रवृत्ति करने वाले थे। (उच्चार-पासवण-खेल-जल्ल-सिंघाण-पाद्धिा वणिया-समिया) उच्चार-पुरीप, प्रसवग-मूत्र, खेल-लेष्मा, उपलक्षण से निष्प्रोवन थूकना, जल्ल-स्वेदज मेल, शिंघाण-नासिका का मेल, इन सबके परिष्ठापन-रूप समिति से युक्त थे। (मणगुत्ता वयगुत्ता कायगुत्ता) गुप्ति तीन प्रकार की है-मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति, इनमे मनोगुप्ति तीन प्रकारकी है-आर्त एव रौद्रध्यान का परित्याग करना प्रथम मनोगुप्ति है, शास्त्र के अनुसार, परलोक की साधक और धर्मध्यान के साथ अनुबन्ध रखने वाली माध्यस्थ्यपरिणतिरूप द्वितीय मनोगप्ति है। सकल मनोवृत्ति के निरोध से योगों की निरोधावस्था मे होनेवाली परिणति-आत्मा में रमणरूप परिणति સુપ્રતિલેખન અને પ્રમાર્જન આદિકમા તે બધા ઉપગપૂર્વક પ્રવૃત્તિ કરવાવાળા डता (उच्चार पासवण-खेल जल्ल सिंघाण पारिद्वावणिया-समिया) यार-धुरीष, પ્રસવણ-મૂત્ર, ખેલ શ્લેષ્મા, ઉપલક્ષણથી નિષ્ઠીવન-ધૂકવુ, જલ-પરસેવાને મેલ, शिधा-नाने मेस, मायाना परिठापन३५ अभितिथी युति ॥ (मणगुत्ता वयगुत्ता कायगुत्ता) राप्ति न प्रानी छ भनाशुसि, पयनसिसने यमुसि, તેમા મસિ ત્રણ પ્રકારની છે-આd તેમજ રૌદ્ર ધ્યાનને પરિત્યાગ કરવો એ પ્રથમ મને ગુપ્તિ છે, શાસ્ત્રને અનુસરનારી પરલેકની માધડ અને ધર્મધ્યાનની સાથે અનુબ ધ રાખનારી માધ્યચ્ચ પરિણતિરૂપ બીજી મને પ્તિ છે. બધી મનેવૃત્તિ માત્રના નિરોધથી યેની નિરોધાવસ્થામાં થનારી પરિણતિ-આત્મામા Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका व २७ भगवदन्तेवासिवर्णनम् १८९ प्रतिलेखनाप्रमार्जनादिसमयोक्तक्रियाकलापपुर सर जयनासनादि विधेयम्, तत शयनासननिक्षेपादानादिषु स्वेच्छया चेष्टापरिहारेण नियता = शास्त्रनियमानुसारिणी या कायचेष्टा सा द्वितीयेति । उक्त च-उपसर्गप्रसङ्गेऽपि कायोत्सर्गपो मुने । स्थिरीभाव गरीरस्य कायगुप्तिर्निगद्यते ॥१॥ शयनासननिक्षेपादानसक्रमणेषु च । स्थानेषु चेष्टानियम कायगुप्तिस्तु सा परा ॥ २ ॥ इति|| तया युक्ता । 'गुत्ता' गुप्ता - अशुभयोगनिग्रहो गुप्तिस्तया युक्ता, ' गुतिंदिया ' गुप्तेन्द्रिया - गुप्तानि - असयमस्थानेम्य सुरक्षितानि - इन्द्रियाणि यैस्ते गुप्तेन्द्रिया, 'गुत्तअथवा भूमि आढिकी प्रतिलेसना एव प्रमार्जन करते समय जो अपनी इच्छानुसार शारीरिक चेष्टाओं का परित्याग करना है, एव गुरु आदि की आज्ञानुसार शयन, आसन, निक्षेपण एव आदानादिक में कायचेष्टा का नियमन करना है वह दूसरी कायगुति है । कहा भी है- उपसर्गप्रसगेऽपि, कायोत्सर्गजुषो मुनेः । स्थिरीभावः शरीरस्य, काय गुप्तिर्निगद्यते ॥ १ ॥ शयनासन निक्षेपा, दानसक्रमणेषु च। स्थानेषु चेष्टा नियमः कायगुप्तिस्तु सा परा ||२|| श्लोकों का अर्थ ऊपर लिये भावके अनुसार है । ये साधुजन कायगुनि के आराधक थे । अत एव ( गुत्ता ) अशुभ योग के निग्रहरूप गुप्ति से ये मुनिजन युक्त थे । ( गुतिंदिया ) असयमस्थानों से इन्द्रिया को सुरक्षित रसनेनाले थे, इसलिये इन्हें गुप्तेन्द्रिय कहा गया है । ( गुत्तवभयारी ) नौ નિવૃત્તિરૂપ પહેલી કાયગુપ્તિ છે. ગુરુને પૂછીને શારીરિક ક્રિયાઓની (શૌચાદિની) નિવૃત્તિના સમયે અથવા ભૂમિ આદિની પ્રતિલેખના તેમજ પ્રમાના કરવાના સમયે જે પેાતાની ઈચ્છાપ્રમાણે શારીરિક ચેષ્ટાઓને પરિત્યાગ કરવાના छे, तेमन गुरु भाहिनी आज्ञा अनुसार शयन, आसन, निक्षेपणु, तेभन દાનાદિકમા કાયચેષ્ટાનુ નિયમન કવાનુ હાય છે, તે બીજી કાયગુપ્તિ છે ४- उपसर्गप्रसङ्गेऽपि, कायात्सर्गजु मुने । स्थिरभान शरीरम्य, काय गुप्तिर्निगद्यते ॥ शयनासननिक्षेपा, - दानसक्रमणेषु च । स्थानेषु चेष्टानियम कायगुप्तिस्तु सा परा ॥ શ્વેાકેાના અર્થ ઉપર લખેલા ભાવ પ્રમાણે છે તે સાધુજને કાયગુપ્તિના माराध हुता भाटेन ( गुत्ता) अशुभयोगना निवड३५ शुतिथी ते भुनिने युक्त उता (गुतिंदिया) असयभना स्थानोथी द्रियाने सुरक्षित राभवावाजा Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૯ औपपातिकas नगरे शत बालका जाता ' इति कथा या 'स्वायायमम तपा नास्ति ' इति कथन चतुर्थी असत्या, याचन न मय नापि पा मा चतुर्थीति, चिनयोगनिवृत्तिर्व चोगुप्तिरिति गाव । ' कायगुत्ता' कायगुप्ता - गमनागमनप्रचलनादिक्रियाया गोपन - काय गुप्ति, फायगुप्तिर्द्विधा - चष्टानिवृत्तिरूपा, यथागम चेष्टा- नियमरूपा च । तत्र परीपट्टोपसर्गादिगनेऽपि यत कायोर्गकरणादिना कायस्य निथरतारुरणम्, सर्वयोगनिरोधा वस्याया वा सर्वथा यत् कायचेग्गनिरोधन सा प्रथमा। गुरुगानुष्ट्य गरीग्मस्तारकभूम्यादिहै उस वस्तु को उसी स्वरूप से प्रकाशित करनेवाला वचन सम्यवचन है, जैसेयह जीव है । (२) जीन को अजीर कहना मृषावचन है । (३) मिश्रितवचन सय मृपा वचन हैं, जैसे- 3 - आज इस नगर में सौ बालक जन्मे है । यह वचन मिश्ररूप इसलिये है कि इसमे सो का निर्णय नहीं है (४) जो वचन मृपा भी न हो और सत्य भी न हो ऐसे वचन का नाम असयमुपा है, जैसे- स्वाध्याय समान तप नहीं है "–ऐसा वचन न सत्य है और न असय ही है, अर्थात् व्यवहार वचन है । इस ४ प्रकार के वचनयोग का वचनगुनि में निरोध हो जाता है । गमन-आगमन आदि किया का जिसमें निरोग है वह कायम है । यह कायगुमि २ प्रकारकी है - चेष्टानिवृत्तिरूप १, यथा-आगम- चेष्टानियमनरूप २ । परीषद् एव उपसर्ग के आनेपर भी शरीर से ममत्व का परित्याग कर जो उसे निथल करना है, अथवा सर्वयोगों की निरोध-अवस्था मे जो सर्वथा काय की चेष्टाओं का निरोध करना है यह चेष्टानिष्ट तिरूप पहली कायगुपि है । गुरु से पूछकर गारीरिक क्रियाओं की निवृत्ति के समय, કરવાવાળુ વચન સત્યવચન છે જેમકે આ જીવ છે (૨) જીવને અજીવ કહેવુ એ મૃષાવચન છે. (૩) મિશ્રવચન સત્યમૃષાવચન છે, જેમ કે આજે આ નગરમા સે ખાળક જન્મ્યા છે. આ વચન મિશ્રરૂપ એટલા માટે છે કે એમા સને નિર્ણય નથી (૪) જે વચન મૃષા પણ ન હોય અને મત્ય પણ ન હોય એવા વચનનુ નામ અસત્યમૃષા છે, જેમ “ સ્વાધ્યાયના જેવુ તપ નથી ' એવા વચન નથી તા સત્ય કે નથી અસત્ય, અર્થાત્ વ્યવહારવચન છે. આ ચાર પ્રકારના વચનયોગને વચનનુસિમા નિરાધ થઇ જાય છે ગમન-આગમન~માદિ ક્રિયાઓને જેમા નિરાધ હોય તેને કાયગુપ્તિ કહે છે. આ કાયપ્તિ એ પ્રકારની ૧ ચેષ્ટાનિવૃત્તિપ, અને ર યથા–આગમ–ચેષ્ટાનિયમનરૂપ પરીષહ તેમજ ઉપસના આવવા છતા પણ શરીરથી મમત્વનો ત્યાગ કરીને જે તેતે નિશ્ચલ કરવું, અથવા સ યાગાની નિરાધ-અવસ્થામા જે સર્વથા ફાયની ચેષ્ટાઓને નિરોધ કરવુ તે ચેષ્ટા Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषषपिणी-टीका सू २७ भगवदन्तेयासियर्णनम् प्रतिलेखनाप्रमार्जनादिसमयोक्तक्रियाकलापपुर सर शयनासनादि विधेयम्, तत गयनासननिक्षेपादानादिपु स्वेच्छया चेप्टापरिहारेण नियता गास्त्रनियमानुसारिणी या कायचेष्टा सा द्वितीयेति । उक्त च-उपसर्गप्रसङ्गेऽपि कायोत्सर्गजुपो मुने । स्थिरीभाव गरीरस्य कायगुप्तिर्निगद्यते ॥१॥ शयनासननिक्षेपादानसक्रमणेषु च । स्थानेषु चेष्टानियम कायगुप्तिस्तु सा परा ॥२॥दति।। तया युक्ता । 'गुत्ता' गुप्ता -अशुभयोगनिग्रहो गुप्तिस्तया युक्ता , 'गुतिंदिया' गुप्तेन्द्रिया -गुप्तानि-असयमस्थानेभ्य सुरक्षितानि--इन्द्रियाणि यैस्ते गुप्तेन्द्रिया , 'गुत्तअथवा भूमि आदिकी प्रतिलेसना एव प्रमार्जन करते समय जो अपनी इच्छानुसार शारीरिक चेष्टाओं का परित्याग करना है, एव गुरु आदि की आज्ञानुसार शयन, आसन, निक्षेपग एव आदानाडिक मे कायचेष्टा का नियमन करना है वह दूसरी कायगुपि है । कहा भी है-उपसर्गप्रसगेऽपि, कायोत्सर्गजुपो मुनेः। स्थिरीभावः शरीरस्य, कायगुप्तिर्निंगद्यते ॥१॥ शयनासननिक्षेपा, दानसक्रमणेषु च । स्थानेषु चेष्टानियमः कायगुप्तिस्तु सा परा ॥२॥ लोकों का अर्थ ऊपर लिने भावके अनुमार है। ये साधुजन कायगुमि के आरापक थे। अत एव (गुत्ता) अशुभ योग के निग्रहरूप गुप्ति से ये मुनिजन युक्त थे। ( गुत्तिदिया) असयमस्थानों से इन्द्रियों को सुरक्षित रखनेवाले थे, इसलिये इन्हे गुप्तेन्द्रिय कहा गया है। ( गुत्तवभयारी) नौનિવૃત્તિરૂપ પહેલી કાયમુસિ છે ગુરુને પૂછીને શારીરિક ક્રિયાઓની ગૌચાદિની) નિવૃત્તિના સમયે અથવા ભૂમિ આદિની પ્રતિલેખના તેમજ પ્રમાર્જન કરવાના સમયે જે પિતાની ઈચ્છાપ્રમાણે શારીરિક ચેષ્ટાઓને પરિત્યાગ કરવાને છે, તેમજ ગુરુ આદિની આજ્ઞા-અનુસાર શયન, આસન, નિક્ષેપણું, તેમજ આદાનાદિકમાં કાયષ્ટાનું નિયમન કરવાનું હોય છે, તે બીજી ડાયગુપ્તિ છે ४घु ५५ छ - उपसर्गप्रसङ्गेऽपि, कायोत्सर्गजुपो मुने । स्थिरीभाव शरीरस्य, कायगुप्तिर्निगद्यते ॥ शयनासननिक्षेपा,-दानसक्रमणेषु च । स्थानेषु चेष्टानियम कायगुप्तिस्तु सा परा ॥ કેને અર્થ ઉપર લખેલા ભાવ પ્રમાણે છે તે સાધુજને કાયગુપ્તિના मारा सा भाटेर (गुत्ता) मशुभयोगना नि३५ अतिथी ते मुनिरन। युटत ता (गुतिंदिया) अभयमना स्यानाथी छद्रियाने सुरक्षित रामपापामा Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० ओपपातिकको चणा अकाहा अमाणा अमाया अलेोभा संता पसंता उवसंता परिणिध्वुयाअणासवाअगंथाछिपणग्गंथा छिपणसायानिरुवलेवा, वभयारी' गुप्तनमनारिण -गुप्त नवनिर्माचर्यगुप्तिमी रक्षित प्रहा-मैथुननिरमणं चरन्ति तच्छोला , 'अममा' अगमा -मम वरहिता , 'अकिंचणा' अभिमाना-नास्ति किंचन येपा ते अकिञ्चना -धमोंपकरणातिरिक्तमस्तुरहिता । 'अकीहा' अकोरा कोरगर्मिता, , 'अमाणा' अमाना = मानरहिता , 'माया' अमाया = मायानर्जिता, अलोमा' अलोभा -लोभरहिता, 'सता' शान्ता -पहिया शातियुक्ता, 'पसता' प्रशान्ता - अन्तर्वृत्या गान्तियुक्ता , अन एप 'उपसता' अशा-ता =गीनीमूना 'परिणिभुया' परिनिर्वृता = कर्मकृतनिकाररहित वात् स्वस्थीभूता , अतण्य 'अणामया' अनास्रवा = आस्रवरहिता , 'आगया' अत्र या =नि या, 'जिग्गगया' छिनमन्था ग्रन्थाति वनाति आत्मान कर्मणेति ग्रन्थ , स द्विविध- द्रव्यभावमेदात् , द्रव्य-हिरण्यादि । वाटिका-सहित ब्रह्मचर्य के धारक थे, इसलिये गुमनह्मचारी थे। (अममा) ममत्व से रहित थे। (अकिंचणा) धर्मोपकरण से अतिरिक्त और इनके पास कुछ नहीं था। (अकोहा) क्रोधरहित थे। (अमाणा) मानरहित थे। (अमाया) मायारहित थे । (अलोभा) लोभरहित थे। (सता) नाहरसे शान्तियुक्त थे, (पसता) भाभ्यन्तर से शान्तियुक्त थे, अत एव (उवसता) गीतीमृत थे। (परिणिन्युया) कर्मकृत विकार से रहित होने के कारण स्वस्थ थे, अत एव (अणासा) आस्रव से रहित थे। (अग्गथा) निम्रन्थ थे। (छिण्णगथा) जो आत्मा को कर्मों से जकडे (बाँधे) उसका नाम ग्रन्थ है। यह दो प्रकार का होता है। १ दगाथ, दूसरा भायग्रन्थ । हिरण्यादि द्रव्यग्रन्थ है। ता, तेथी तभने गुप्तेद्रिय उडे छे (गुत्तवभयारी) नाटिst 413) सडित क्षयर्यनु पासानं. २नार हुता (अममा) भभत्पथी २डित ता (अकिंचणा) धर्ना५४२६४थी यतिरिडत तेमनी पाये नहातु (अकोहा) ओपडित हुता (अमाणा) मानडित ता (अमाया) भायाडित ता (अलोभा) मरहित ह (सता) महारथी शान्तियुत उता (पसंता) साम्यन्तरथी शान्तियुत ता, मत मेव (उपसता) शान्त-तीभूत सन्ह२. मने महारथी शीतल ता (परिणिन्नुया) उमेत विधारथी डापाने रहो २१२थ हता, म्मत मेव (अणासवा) पाखथी २डित ता (अग्गथा) नियता (चिण्णगथा) २ यात्मान थी १४ी राजे (आधे) तेनु નામ ગ્રન્થ છે એ બે પ્રકારના થાય છે ૧ દ્રવ્યગ્રન્થ અને ૨ ભાવગ્રન્થ , Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - पीयूषयपिणी-टीका स २७ भगवदन्तेयामिवर्णनम १९१ कंसपाईव मुकतोया, संखइव निरंगणा, जीवो विव अप्पडिहयगई. भावो मिथ्यागादि , स द्विवियो ग्रन्थ छन्नो यैस्ते तथा । 'डिण्णसोया' छिनस्रोतस -छिन्नसमारप्रवाहा । 'निरुवलेवा' निरपलेपा -कर्मनन्धहतुरुपलेपो रागादिस्तेन रहिता , निरुपलेपतामेव 'कसपाटर' दयादि--'मुद्ययासणो इव' इत्यन्तैस्पमानोपमेयमानै प्रदर्शयति, तर कसपाईव मुधनोया' कास्यपानार मुक्ततोया-मुक्त-त्यक्त तोयमिव ससारबन्धहतुवात्स्नेहो यैस्ते तथा, यया काम्यपात्र्या पतितमपि जल लिप्त न भवति तथा ममारबन्धहेतुस्तेषु लिमो न भवताति भार, 'सान इत्र निरगणा' गड इन मिथ्यावादि भानग्रन्य है। इन दोनों प्रकार के ग्रन्था से रहित होने के कारण ये 'छिन्नग्रन्थ' कह गये हैं। (डिण्यासोया) ससार का प्रवाहरूप स्रोत इनसे अलग हो चुका था। (णिरुवलेवा) कर्मन में कारणभूत रागादिक लेप से भी ये रहित थे, इसलिये निरपलेप थे। इसी बात को जागे के 'सपाईव' से लेकर 'सुहयहुयासणो इव' यहाँ तक के उपमान पदों के द्वाग सूत्रकार प्रकट करते है । ( कसपार्टव मुक्तोया) कॉसे का भाजन जिस प्रकार पानी के ससर्ग से सर्वथा रहित होता है उसी प्रकार जल के तुन्य स्नेह को मसार का वधन का हेतु होने से जिन्होंने सर्वथा छोड दिया, अथवा कॉसे के भाजन मे गिग हुआ जल जैसे लिस नहीं होता उमी प्रकार ससारनपनहतु आवव जिनमें लिप्त नहा होता, अत वे काँसे के भाजन के समान निरपलेप कहे गये है। (सस इन निरगणा) शख मे હિરણ્ય આદિ દ્રવ્યગ્ર થ છે મિથ્યાત્વ આદિ ભાવગ્રન્થ છે આ બને પ્રકારના ગ્રોથી રહિત હોવાના કારણે તેઓને છિન્નગ્રોથ કહેવામાં આવ્યા छ (छिण्णसोया) समारना प्रपा ३५ स्रोत तेमनाथी यस यई युध्या ता (णिरुवलेवा) ४ मा ४१२७ भृत रामापिथी ५ तेमा २डित हता, तथा नि३५३५ मा पातने माना 'कसपात्र' थी साधन 'सुहुयहुयासणी इव' ही सुधीन। भानपाथी सूत्रा२ ५४८ ४२ छ (कसपाईन मुक्ताया) सानु पास रेम पाणीना नसाथी सर्वथा हित डाय छ તેજ રીતે જલના તુલ્ય નેહ જે, સસારના બ ધનને હેતુ છે તેને જેમણે સર્વા છેડી દીધે, અથવા કાસાના વાસણમાં પડેલા પાણી જેમ લિપ્ત થતા (ટતા નથી, તેવી જ રીતે ન સાબ ધનને હેતુ આવ જેમાં લિપ્ત થતો નથી, તેથી તેઓને વાસાના વાસણની પિ નિરૂપલેપ કહેવામાં આવ્યો છે (सस इव निरगणा) Aममा भई २॥ हाती नयी तेवी शत Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ औषपातिकको - जच्चकणगंपिव जायरूवा, आटरिसफलगा इव पागडभावा,कुम्मा नीरङ्गणा -गण-रागायुपरम्भन तस्मानिर्गता , गो यथा फिगपि रखनद्रव्यं स्थिति न लभते तथैतेप्चनगारपु रागाढयो न तिष्ट ती यर्थ । 'जीको चित्र अप्पडिठयगई' जीव इव अप्रतिहतगतय -जीयो यथा शुभाशुभकर्मप्रशाद याहतग या सर्मन याति तथा अप्रतिहता गतिर्येषा ते तया, देशनगगटियु अपनि पवितरित्वेन वादादिषुकुतीर्थिकमतगिरगसामध्योपतत्वेन च अरम्परितगतय , 'जयणग पिव जायस्वा' जात्यकनकमिव जातर.पा --गोधितमुर्गमिव निर्मला -गगादिरहिता इयर्थ । 'आदरिसफलगा इस पागडभागा' आदर्शफरका हर गकटमाया -प्रकटा =प्रकटिता, भावा -उत्पाढव्ययध्रौव्यस्वभावका जीवाजीगादिपदार्था यैस्ते तथा, आदर्शफलका जैसे कोई भी रग स्थिति नहीं पा सकता, उसी प्रकार रागानिक भी उन अनगारा में ठहर नहीं सकते थे । अत ये शस के समान नीरङ्गण कह गये हैं । (जीवा विव अप्पडिहयगई) जीव जिस गफार शुभ और अशुभ कर्म के चश प्रेरित होकर अव्याहत गति से सर्वत्र चला जाता है उमी प्रकार इनका भी देश, नगर आदिमें अप्रतिहतगतिमिहार होने से व वाद-विवार आदि मे कुतीर्थिक मता के निराकरण करने की सामर्थ्य से युक्त होने से ये भी जीव के समान अस्खलितगतिवाले थे। (जच्चकणग पिव जायरूबा) शोषितसुवर्ग के समान ये पिन्कुल निर्मल थे। (आदरिसफलगा इव पागडभावा) आदर्श अर्थात् काच जिस प्रकार पतिबिम्बित मुखादिक अवयवों को यथावस्थित प्रकट करता है उसी प्रकार ये भी अपने ज्ञान के द्वारा उत्पाद व्यय एवं ध्रौव्य-विशिष्ट जीवाजीवादिक पदार्थों को प्रकट करते थे। इनकी રાગાદિક પણ તે અનગારમાં રહી શકતા નથી, તેથી તેઓ શ ખની પિઠે नी२ र ४उपाय छे (जीवाविव अप्पडिहयगई) भ शुभ मने शुभ કર્મવશ પ્રેરિત થઈને અવ્યાહત ગતિથી સર્વત્ર ચાલ્યો જાય, તેમ તેઓની પણ દેશ નગર આદિમા અપ્રતિહતગતિ-વિહાર હોવાથી તેમજ વાદવિવાદ આદિમા કુવીથિકમનુ નિરાકરણ કરવાનું સામર્થ્ય હેવાથી તેઓ પણ જીવની પેઠે અખલિતગતિવાળા હતા (जच्चकणग पिव जायरूवा) सोधेला सुपथना वा तसा मिला निर्भरता (आदरिसफलगा इव पागडभावा) AN अर्थात् मग म प्रतिनिमित અ આદિક અવયને યથાવસ્થિત પ્રકટ કરે છે (દેખાડે છે, તેમ તેઓ પણ પિતાના જ્ઞાન દ્વારા ઉત્પાદ, વ્યય તેમ જ પ્રૌવ્ય-વિશિષ્ટ જીવ-અછવ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - __ पोयूषषिणी-टीका सू २७ भगवदन्तै धासिवर्णनम् इब गुत्तिदिया, पुखरपत्तं व निरुवलेवा, गगणमिव निरालंबणा, यथा प्रतिविम्वितान मुखाद्यवयवान् यथावस्थित प्रकटीकुन्ति, तथा यवृतदेशनया जनाना चित्तदर्पणे जोपानीहिमालपढायां मुस्पष्ट प्रकारान्ते इयर्थ । 'कुम्मो इव गुतिदिया' कूर्म इव गुप्लेन्द्रियामों यथा मयहेतौ मनि मतमर्वेन्द्रियो भवति तथा समारभ्रमणमयाद गुमानि-पिपत्रकपारेभ्य मामितानि इन्द्रियागि येषा ते गुप्तेन्द्रिया । 'पुस्म्वरपत्त व निरुवलेवा' पुष्करपत्रमिव निम्पलपा -यथा कमलपत्र निर्लिप्त सत् जलोपरि तिष्ठति तथा निस्पन्पा -पहजरतुन्यस्वजनविषयमम्बन्परहिता भवन्तीति भाव । 'गगणमिव निराल्यणा' गगनमिन निगलन्धना -कुलग्रामनगगद्यालम्बनवर्जिता , जीपाजीवाटिनिषयक देटाना ऐसी होती थी कि जिससे मनुष्यों के चित्तरूपी दर्पण में उपादादि-स्वमान वाले समस्त जीवादिक पदार्थ अच्छी तरह स्पष्टरूप से प्रतिभासित होने लगते थे। (कुम्मो इव गुतिदिया) कच्छप जिम प्रकार भय के कारणों के उपस्थित होने पर ममस्त इन्द्रियां को गोपिन कर लेता है उसी प्रकार ये मुनिजन भी समारपग्भ्रिमण के भयसे विषय-कपायों की ओर से अपनी २ इन्द्रियों को सुरक्षित किये हुए रहते थे। (पुक्खरपत्तव निरुवलेवा) जिस प्रकार कमलपत्र जल मे निलिम होकर उम के ऊपर रहता है और कीचड से उत्पन्न होने पर भी जैसे वह उसके म्बर से रहित होता है उसी प्रकार ये साधुजन भा कीचड एर जन्तुन्य स्वजन, एव विषयों के सत्र से बिलकुल रहित थे। (गगणमिव निराल्यणा) आकाग की तरह ये कुल, ग्राम और नगर आदि के महारे की अपेक्षा नहीं रखते थे। (अणिलो इव निराठया) पवन की तरह घर આદિક પદાર્થોને પ્રકટ કરતા હતા. તેમની અવાજીવાદિ વિષયની દેશના એવી થતી હતી કે જેથી મનુષ્યના ચિત્તરૂપી દર્પણમા ઉત્પાદ આદિ સ્વભાવવાળા સમસ્ત જીવાદિક પદાર્થ સારી રીતે સ્પષ્ટરૂપે પ્રતિભારિત થતા હતા (कुम्मो झ गुतिंदिया) यवो म नयना डा२ये। मापी ५७ता समस्त ઇટિઓને સંગપિત કરી લે છે તેમ એ મુનિજને પણ સાર—પરિભ્રમણના ભયથી વિષયકક્ષાની તરફથી પિતપનાની ઈક્રિઓને સુરક્ષિત રાખતા હતા (पुस्परपत्त व निम्बलेना) भ उभापत्र reी निHि धन तेनी 60 ગહે છે અને કીચડથી ઉત્પન્ન થાય છે તે પણ જેમ તે તેના સ બ ધથી રહિત હોય છે તેવી જ રીતે સાધુજન પણ કીચડ તેમ જ જલતુલ્ય Part तेभ विपयाना सपथी मिसस हित हुता ( गगणमिव निरालपणा) मातारानी पे तेसो छ, गाम भने ना माहिना माश्रयनी Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - -mra १९४ औपपातिकको अणिलो इव निरालया, चंदा इय सोमलेस्सा, सूगेडव दित्ततेया, सागरो इव गंभीरा, विहग डव सव्वओ विप्पमुका, मंदरो इव __ अप्पकंपा, सारयसलिलंच सुद्धहियया. खग्गिविसाणं व एगजाया, 'अणिलो इत्र निरालया' अनिल इव निराल्या -पपन व गृहरहिता , ' चदो इन सोमलेस्सा' चन्द्र इव सौम्यटेश्या -अनुपतापद्दतुमन परिणामधारिण , 'मूरो इन दित्ततेया' सूर्य इव दीपतेजस -व्यत शरीरच्या भावतो जानेन च देदीयमाना । 'सागर इन गभीरा' सागर हर गम्भीरा -र्पयोकानिकारण-योगेऽपि निर्विकारचित्ता । 'विहग इस सम्वो विप्पमुवा' विहग इव सर्वतो चिप्रमुक्ता -परियारपरि यागात् नियतवासरहित वाचेति भाव । 'मदरो इव अप्पापा' मन्टर हव अप्रकम्पा -मेरुवत् परिपहोपसर्गपवनैरचलिता । 'सारयसलिल व सुद्धडियया' शारदसलिलमिन शुदहृदया -यथा शरदृती जल निर्मल भवति तथा परमनिर्मद्वया इति भार । 'सग्गिविसाणं से रहित थे। (चदो दस सोमलेस्सा) चन्द्र के समान इनकी लेश्या सौम्य थी। (मूरो इस दित्ततेया) सूर्य के समान ये दीप तेजपाले थे। शारीरिक काति द्रव्यतेज, एव ज्ञान यह भावतेज है। (सागर इव गभीरा) सागर के तुल्य ये गभीर प्रकृति के थे । हर्प शोफ आदि के कारणों के उपस्थित होने पर भी इनके चित्त में किसी भी तरह का विकार उत्पन्न नहीं होता था। (विहग इव सबओ विप्पमुक्का) पक्षी की तरह ये नियमित निवास से रहित थे। (मदरो इव अप्पकपा) मेरुपर्वत की तरह परीपह एव उपसर्गरूप परन से ये अचलित थे। (सारयसलिल व सुद्धहियया) शरद ऋतु के जल समान उनका हृदय निर्मल था। (खग्गिविसाण व एगजाया) खड्गी अपेक्षा रायता नहता (अणिलो इस निरालया) पवननी पेठे धरथी रहित उता (चदो इव सोमलेस्मा) यद्रनी पे तमनी वेश्या सौम्य ती (सूरो इव वित्ततेया) सूर्यनी पे तेश्याहीस-तेजस्वी तत शाशति द्रव्यता तभा ज्ञान से मावत छ (सागर इव गभीरा) साना वा गली२ प्रतिन। તેઓ હતા હર્ષ શેક આદિના કારણે આવી જતા પણ તેમના ચિત્તમાં કઈ प तन विधा२ अत्यन्न थती नहाता (विहग इव सव्वओ विप्पमुक्का) पीना चाहतमा नियमित निवामथी २डित ता (मदगे इस अप्पकपा) મેરુ પર્વતની પ પરીષહ તેમજ ઉપસરપ પવનથી તેઓ અચલિત હતા । सारसलिल व सुदहियया) A२६ ऋतुना सनी पे तमनाय निर्भ हता (सग्गिविसाण व एगजाया) मनी (गे) शी गडानी पेठ, Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९. पीयूषपिणो-टीका स २७ भगवदन्तेयासियर्णनम् भारंडपाखीव अप्पमत्ता, कुंजरो इव सोंडीरा, वसभो इव जाय व एगजाया' यडिगविषा गमिफजाता -सद्गी आग्ण्यजीव –तम्य विषाग शुद्ग, तदेकमेव भवति, तटिय एकजाता --कीमता-गगारिसहापरिता , सुटुन्यादिमाहाग्यवर्जिना टयर्थ । 'भारडपरवीर अप्पमत्ता' भागण्टपसीनाऽप्रमत्ता -भारण्टपक्षी भागाटचामोपथी च भागण्टपक्षी, अयदिजीवकविचरणवान द्वाभ्या ग्रीवाभ्या द्वाभ्यामुग्याभ्या च युक्त , योनीपयोगकमेपोटर भवति,तो चायन्तमप्रमत्तनगर निवाह लभेते। यदि कटाचि वात् नौकोऽपिजीव प्रमाद कगति, तता उभयो यो भवति, तम्मात मर्मदा चकितचित्तौ प्रमाहिती तो तिष्टत । तदप्रमत्ता -तप सयमादिधर्मरक्षण प्रमादरहिता इत्यर्थ । 'कुजरी इव सोडीरा' कुन्नर व गौग्डीरा -दम्तीर शूरा -कपायादिरिपुभञ्जनशीग । 'वसमो व जायत्थामा' वृपम व जातस्थामान -जात म्याम-बट येपा ते जातस्थामान -नृपभपसजातपराकमा (गेंडा) के सींग की तरह, ये रागादिकों की सहायता से हित होने के कारण, एकस्वरूप थे। (भारडपकातीव अप्पमत्ता) भारट पक्षी की तरह ये अप्रमत्त थे। यह पसी दो जीववाग होता है । इसके तीन पैर होते हैं। ग्रीवा और मुग इसके दो होते है। उदर अथा पट एकही होता है । ये दोनों जीव अयत अप्रमत्त होते है। यदि कदाचित एक जीन प्रमाद कर तो दोनों का नाम होवे । इसलिये अप्रमत्तचित्त होकर ये दोनों बहुत ही सावधानी से रहते है। उसी तरह ये मुनिजन भी तप एव सयमादिक धर्म के रक्षण करने में प्रमादवर्जित ये। (कुजरो इव सोडीरा) कुजर के समान ये कपायारिफ के भजन मं शौण्टीर-शूरवीर थे। (वसमो इव जायत्थामा) वृषभ के तेसोशालिनी महायतायी २डित डावान ४१२, १३५ ता (भारंडपक्पीन अपमत्ता) मा ४ पक्षीनी पे तया अप्रमत्त उता मा पक्षी જીવવાળા હોય છે તેને ત્રણ પગ હોય છે કેક અને મુખ તેને બે હોય છે ઉદર (પેટ) તેને એક જ હોય છે તે બને જીવ બહુ અપ્રમત્ત હોય છે જે કદાચિત એક જીવ પ્રમાદ (ભૂલ) કરે છે તે બન્નેને નાશ થાય છે તેથી અપ્રમત્તચિન (ચતુર) થઈને તે બન્ને બહુ જ સાવધાનીથી રહે છે તેવી જ રીતે એ મુનિજને પણ તપ તેમજ મયમ આદિ ધર્મના રક્ષણ ३२पामा प्रभाडित ता (कुजरो झ सोंडीरा) २ (हाथी )नी पे તેઓ અપાય આદિકના ભાગ (નાશ) કરવામાં ગૌ ડીર–ગૃથ્વીર હતા. (वसभो इस जायथामा ) वृपलानी पे तेसो मति ता (सीहो इन दुद्ध Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - औपपातिकमा त्थामा, सीहो इब दुद्धरिसा, वसुंधरा इब मव्यफासविसहा, सुहुयहुयासणो इव तेयसा जलंना ॥ सू० २७॥ इत्यर्थ । 'सीहो इस दुरिसा 'मिर इन टुया -मित्यपरीपदादिगो ट्यर्थ । 'वसुधरा झ सवफासपिसहा ' यमुधग र सम्पपिपा-गृथ्वी यथा म सगमसह्य वा स्पर्श सहते सर्वमहति चो यते तयत सामोऽपि अनुरूप्रतिपरीपहोपमग सुसहा भवति। 'मुद्ययासणो इस तेयसा जलंना' मुटुतातागन डर तेजमा ज्वलन्त -सुहुत =मुटु हुत --तापाहुतिभिस्तर्पितो यो हुताशनो बद्रि -तद्वत्तेजसा-तप-- सयमतेजसा ज्वलन्तो दीप्यमाना इति भाव ।। अन उपमानसमाहरुम् इद गाथाद्वयम् --~-- 'कसे १ मसे २ जीचे ३, जचे कणगे य ? आइरिसे ५ । कुम्मे ६ पुश्परपते ७, गयणे ८ अगिले ९ य चट १० सुरे य ११॥ सागर १२ विहगे १३ मदर १४, सारयसलिल च १५ सग्गी य १६ । भारडे १७ गय १८ वसहे १९, सीह २० वसुधरा २१ सुहुयहुए २२॥ २॥ इति ॥ सू० २७ ॥ समान ये बलिष्ठ थे। (सीहो इव दुद्धरिसा) सिंह के समान ये दुर्धर्प थे। सिंह जैसे मृगादिकों से अप्रधृष्य होता है, उसी प्रकार मृग जैसे परीपहादिकों से ये भी चलितचित्त नहीं होते थे। (वसुधरा इव सबफासविसहा) पृथिवी के समान सर्वस्पर्शसह थे। पृथिवी जिस तरह सहने योग्य अथवा नहा सहन करने योग्य ऐसे भी स्पर्श को सहती है उसी प्रकार ये मुनिजन भी अनुकूल एव प्रतिकूल परीपहों के उपनिपात को अच्छी तरह सहन करते ये (सुहुयहयासणो इव तेयसा जलता) मुहुत अग्नि की तरह ये तप और सयम के तेज से देदीप्यमान थे ॥ २७ ॥ रिसा) सिनावातमा दुध ता सिरम भृ। माथि ५५ ધષ્ય હોય છે તેવી જ રીતે મૃગસમાન પરીષહ આદિથી તેઓ પણ ચલિત यित्त यता नडा (वसुधग इव सव्वफासविमहा) पृथिवीनी 8 A uN સહન કરતા હતા પૃથિવી જેમ સહેવા ગ્ય અથવા ન સહન કરવા ગ્ય એવા પણ સ્પર્શને સહન કરે છે તેવી જ રીતે એ મુનિજને પણ અનુકુળ તેમ જ પ્રતિકૂળ પરીષહોના ઉપનિપાત ને સારી રીતે સહન કરતા હતા (महयहयासणो इव तेयसा जलता) सुडत मलिनी तेयो त५मने से यमना તેજથી દેદીપ્યમાન હતા (સૂ૦ ૨૭) Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९७ पीयूपषिणी-टोका स २८ भगवदन्तेय मिथर्णनम मूलम्न त्थि णं तेसि णं भगवंताणं कत्थइ पडिबंधे भवइ । से य पडिबंधे चउबिहे पण्णते, तंजहा-दव्वओ खेतओ कालओ भावओ। दव्वओणं-सचित्ताचित्तमीसिएसु टीका' नत्यि' इत्यादि । नास्ति अय पल , यत् खलु तेसि ण भगताणं । तेषा सल भगवताम्-श्रीमहावीरस्वामिन शिष्याणाम् कत्थइ । मापि-कस्मिन्नपि विपये 'पडियो भाइ' प्रतिन-1 -आसक्ति भवतीति, श्री महावीरस्वामिनोऽन्तेगासिना सयमप्रतिवन्धीभूत कोऽपि हेतु कुनाऽपि न भवतीति भाव । " से य पडियो चउवि पण्णत्ते स च प्रतिनधशतर्विध प्रजम त जहा' तयथा-भेदप्रकारचे यम्-यत क्षेत्रत कालतो भावतश्च । तेषु 'दयो ण द्रव्यत खलु सचित्ताचित्त-मीसिएर दव्येमु' सचित्ताऽचित्त-मिश्रितेपु प्रयेपु । तन-सचित्त-शिष्यादिकम् , अचित्त वाटिकम्, मिश्रितम्-शिष्यसहितवत्रादिकम्, एतेषु द्रव्येषु, 'खेत्तओ क्षेत्रत -- 'नथि णं' इत्यादि। (तेसि णं भगरताणं) भगवान महावीर के समीप मे रहनेवाले उन स्थविर भगन्ता का (कथा) किसी भी विषय मे (पडियधे) प्रतिबंध (नत्थि) नहीं था। अर्थात् भगवान् वीर प्रभु के ये सगस्त मुनिजन सयम के विघातक किसी भी पिय + आसक्ति नहीं रसते थे। (से य पडिरये चउबिहे पण्णत्ते ) यह प्रतिवध चार प्रकार का कहा गया है, (तजहा) वह इस प्रकार है-(दपओ खेत्तओ कालो भारओ) है य से, क्षेत्र से, काल से एय भार से । (दओ सचित्ता-चिन-मीसिएसु दवसु) द्रव्य से पतिबंध ३ प्रकार का है-(१) सचित्त (२) अचित्त (३) सचित्ताचित्त। - - नत्यि ण' त्याह (तेसि ण भगवंताण) सापान महावीरना सभीया सपापा ते स्थावर सताने (कत्थइ) आप विषय (पडियधे ) प्रति (नत्थि ) ન હોત, અર્થાત–ભગવાન વીરપ્રભુના તે સમસ્ત મુનિજને સ યમના વિઘાતક खाय वा पशु विषयमा मासहित मत नहाता (से य पडियधे पच्चिहे पण्णत्ते) प्रतियार प्रहार खेसा छ (तजहा) मा ४२ ७ (दवओ सेत्तओ कालओ भावओ) द्रव्यथी, क्षेत्री, ४थी तभ० माथी । (दव सचित्ता-चित्त-मीसिएस दव्येसु) द्रव्यथी प्रति प्रारना (૨) અચિત્ત, (૩) સચિરાચિત, શિષ્ય આદિક સચિત છે Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ औपपातिकमुत्रे त्थामा, सीहा इव दुछरिसा, वसुंधरा इव मव्यफासविमहा, सुहुहुयासणा इव तेयसा जलंता ॥ सू० २७ ॥ प se' | 'सीst statसा ' सिंह दुई , 4 } वसुधरा व सासरसहा वसुधा सर्वस्वनि - पृथ्वी यथास मसह्य वा स्पर्श सहते सर्वमहनि चोच्यते तथैवेत सोऽनुपसर्ग सुसहा भवति । 'मुहुहुयासणी इत्र तेयसा जस्ता ' गुना तेजमा ज्वलन्त -सुहुत = मुटु हुत-- घृताद्याहुतिभिस्तर्षितो यो हुताशनो चाहि ततेजसा-तपसयमतेजसा ज्वलन्तो दीप्यमाना इति भान ॥ अत्र उपमानसग्राहकम् इद गायादयम् ' कसे १ से २ जीवे ३, जच्चे कणगे य ४ आहरिसे ५। कुम्मे ६ पुखरपत्ते ७, गयणे ८ अगिले ९ य च १० सुरे य ११ ॥ सागर १२ विहगे १३ मटर १४, सारयसलिल च १५ सग्गी य १६ । भारडे १७ गय १८ वसहे १९, सीह २० वसुधरा २१ मुहुयहुए २२|| २ || इति ॥ सू० २७ ॥ समान ये लिए थे । (सीहो इव दुद्धरिसा ) सिंह के समान ये दुर्धर्ष थे। सिंह जैसे मृगादिकों से अप्रभृष्य होता है, उसी प्रकार मृग जैसे परीपहादियों से ये भी चलितचित्त नहीं होते थे । ( वसुधरा इव सव्वफासविसहा ) पृथिनी के समान सर्वस्पर्शसह थे । पृथिवी जिस तरह सहने योग्य अथवा नहीं सहन करने योग्य ऐसे भी स्पर्श को सहती है उसी प्रकार ये मुनिजन भी अनुकृन एव प्रतिकृत्र परीपहों के उपनिपात को अच्छी तरह सहन करते थे ( सुहुयहुयासणी इव तेयसा जलता ) सुहुत अग्नि की तरह ये तप और सयम के तेज से देदीप्यमान थे ॥ २७ ॥ रिसा) सिद्धना वा तेसो हुर्धर्ष हता सिद्ध प्रेम भृग आाहिजेयी' य ધુષ્ય હાય છે તેવી જ રીતે મૃગસમાન પરીષહ આદિકેશથી તે પશુ ચલિત चित्त थता नहोता ( वसुधरा इन सव्यास विसहा ) पृथिवीनी येहे सर्व स्पर्श સહન કરતા હના પૃથિવી જેમ મહેવા યાગ્ય અથવા ન સહન કરવા યાર એવા પણ સ્પર્ધાને સહન કરે છે તેવી જ રીતે એ મુનિજને પણ અનુકૂળ તેમ જ પ્રતિકૂળ પરીષહોના ઉપનિપાત ને સારી રીતે સહન કરતા હતા ( सुहुहुयासणो इव तेयसा जलता ) सुहुत अग्निनी पेठे तेथे तप भने सयभना તેજથી દૈદીપ્યમાન હતા (સ્૦ ૨૭) Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषयषिणी-टोका सू २८ भगवदन्तेय सिथर्णनम १९७ मूलम्-नत्थि णं तेसि णं भगवंताणं कत्थइ पडिबंधे भवड । से य पडिवंधे चउबिहे पण्णत्ते; तंजहा-दबओ खेत्तओ कालओ भावओ। दव्वओ णं-सचित्ताचित्तमीसिएसु टीका- नत्यि' इत्यादि। नास्ति अय पक्ष , यत् खलु 'तेसि ण भगताण' तेपा सलु भगताम-श्रीमहावास्यामिन शिष्याणाम् 'कथइ' मापि-कम्मिन्नपि पिपये 'पडियो भाइ' प्रतिम- -आसक्ति भरतीति, श्री महावीरस्वामिनोऽन्तेपामिना सयमप्रनिन-गीभूत कोऽपि हेतु कुत्राऽपि न भवतीति भाव । ' से य पडियो चउबिहे पण्णने ' स च प्रतिवन्धश्चतुर्विध प्रजम 'त जहा' तथया-भेदप्रकारचे यम्-न्यत क्षेत्रत कालतो भावतश्च । तेपु 'दबओ ' द्रव्यत खलु 'सचित्ताचित्त-मीसिएमु दव्येसु' सचित्ताऽचित्त-मिश्रितेपु द्रव्येषु । तर-सचित्त-शिष्यादिकम् , अचित्त वस्त्रादिकम्, मिश्रितम्-शिष्यसहितकबादिकम्, एतेपु द्रव्येषु, 'खेत्तओ' क्षेत्रत - 'नत्यि णं' इत्यादि। (तेसि ण भगताण) भगवान महावीर के समीप में रहनेवाले उन स्थविर भगन्तों का (कत्या) किसी भी चिपय में (पडिपधे) प्रतिबध (नत्थि) नहीं या। अर्थात् भगान् वीर प्रभु के ये समस्त मुनिजन सयम के विघातक किसी भी विषय + आसक्ति नहीं रसते थे। (से य पडिपे चउविहे पण्णत्ते ) वह प्रतिवध चार प्रकार का कहा गया है, (तजहा) वह इस प्रकार है-(दधओ खेत्तओ कालो भावओ) द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से एन भान से। (दमओ ण सचित्ता-चित्त-मीसिएसु दवेसु) द्रव्य से प्रतिनध ३ प्रकार का है-(१) सचित्त (२) अचित्त (३) सचित्ताचित्त । __'नत्थि ण' त्यादि (तेसि ण भगताण) मावान महावीरना सभीपमा २वा स्थपि२ मापताने (कथइ) विषयमा (पडिबधे) प्रति५५ (नस्थि) ન હોતે, અર્થાત્ –ભગવાન વિરપ્રભુના તે સમસ્ત મુનિજને સયમના વિઘાતક डाय सेवा विषयमा मासहित मत नहाता (से य पडिबधे चउबिहे पण्णत्ते) ते प्रतियार प्रहारना ४सा छ (तजहा) ते मारे छ (दव्वओ खेत्तओ कालओ भावओ) द्रव्यथी, क्षेत्रथी, ४थी तभ०४ साथी (दव्यओ णं सचित्ता-चित्त-मीसिएसु दव्वेसु) द्रव्यथा प्रतिमाय ! ४२। छ-(१) मथित्त, (२) ययित्त, (3) सथित्तायित्त, शिष्य माविड सथित छे Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - mewome औषपातिकमा दव्वेसु । खेत्तओ-गामे वा णयरे वा रणे वा खेत्ते वा खले वा घरे वा अंगणे वा । कालओ-समा वा आवलियाए वा आणा'गामे वा ग्रामे या, 'णयरे वा नगरे वा 'रण्णे गाण्ये का, 'खेपा क्षेत्रया, गरे गायमम दनसमोग्नस्थाने वा, 'घरे गाणे गा गहे याममा काठमो समपया आपलियाए वा' कालन --समये सर्वतो जघन्ये काले, समपन्य विनोऽर्थ उपासकदमागन्यागारधर्ममनोवनीवृत्तितोऽअसेय । आवलिकायाम् अमेयातसमय रूपायाम ,'आणापाणुए का आनप्राणे वाशिष्यादिक सचिन है। वस्त्रादिक अजीव पहार्य अचित्त है। मिष्यसहित यनाटिक सचित्ताचित्त हैं। इनमें इन मुनिजनों को बिलकुल भी आमक्ति नहीं थी। (खेतो गामे वा णयरे वा रणे वा खेत्ते पा सले पा घरे वा अंगणे पा) इसी तरह क्षेत्र की अपेक्षा-ग्राम में, नगर में, जगल में, क्षेत्र में, सलमान्यादिक के कूटने और फटकने के स्थान ऐसे खलिहान में, घर में अपना आगन में प्रतिनध नहीं था। (कालमा समए वा आवलियाए वा आणापाणुए वा थोवे वा लवे वा मुहुत्त वा अहोरते वा पक्खे वा मासे वा अयणे वा अण्णयरे वा दीहकालसजोगे) कालकी अपेक्षा से समय-सब से छोटे काल मे, इम समय और कालका विस्तृत अर्थ 'उपासकदशाग' की 'अगारधर्मसजीवनी' वृत्ति में कहा है, वहा से जान लेना चाहिये। आवलिका में, अनरयात समयकी एक आपलिका होती है, उच्छ्वामनिश्वासकालरूप आनप्राण में, स्तोकमे--सप्तप्राणप्रमाणनाले कालपिशेयमे-मात उच्छ्वासमे, ल्यमे-सातવઆદિક અજીવ પદાર્થ અચિત્ત છે શિષ્યસહિત આદિક સચિત્તાચિત છે तभा से मुनिशनाने मिस मामति नहाती (सेत्तओ गामे वाणयरे वा रणे वा खेत्ते वा चले या घरे वा अगणे वा) तेवीश क्षेत्रनी अपेक्षा गाभमा, नगरमा, ४ मा, तभा, मझ-धान्य पोरेन टया ખાડવાના સ્થાનભૂત એવા ખલિફાનમાં, ઘરમાં, આગણામાં પ્રતિબધ નહેાતે (कालओ समए वा आरलियाए वा आणापाणुए वा थोरे वा लवे वा मुहत्ते चा अहोरते वा पक्खे वा मासे वा अयणे वा अण्णयरे वा दीहकालसजोगे) बानी અપેક્ષાએ સમય-સૌથી છેડા કાળમાં (આ સમય અને કાલને વિસ્તૃત અ ઉપાસકદશાગની” “અગારધસ જીવની વૃત્તિમાં કહે છે ત્યાથી જાણી લેવું જોઈએ),આવલિકામા (અસ ખ્યાત સમયની એક આવલિકા થાય છે, ઉચ્છવાસનિશ્વાસ-કાલરૂપ આનપ્રાણુમાં, સૅકમા-સપ્તપ્રાણના પ્રમાણ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - पीयूषषिणी-टोका स २८ भगयदन्तेयासिवर्णनम् पाणुए वा थोवे वा लवे वा मुहत्ते वा अहोरत्ते वा पक्खे वा मासे वा अयणे वा अण्णयरे वा दीहकालसंजोगे। भावओ-कोहे वा माणे वा मायाए वा लोहे वा भए वा हासे वा। एवं तेसिंण भवइ ॥ सू० २८ ॥ उधामनि श्वासकाल टयर्थ , 'थोवे वा' स्तोफे या समप्राणमाने वा कालविशेपे, 'सत्त पागागि से बोरे' इ युक्ते । 'लवे वा'-'सत्त थोबागि से लवे' इति सस्तोकमिते काल वा, 'मुहुत्ते वा' मुहर्ते वा-लपाना सनमतिप्रमाणे काले, 'अहोरत्ते वा' अरोगने वा-रात्रिदिवसप्रमाणे काले था, 'परखे वा' पक्षे-पञ्चदगदिवसप्रमाणके काले वा 'मामे वा' त्रिंथदिवसप्रमाणके काले वा, 'अयणे वा' अपनेउत्तरायणदक्षिणायनभेटाइद्विविधे पण्मासप्रमिते काले था, 'अण्णयरे वा दीहकालसजोगे' अयत्तरस्मिन् वा दीर्घकालमयोगे-उक्तप्रभेदाद मिन्ने वा सबसरादिरूपे काले । 'भावओ' भारत -'कोहे पा' कोधे वा 'माणे वा'-माने या, 'मायाए वा'-मायाया वा, 'लोहे वा' लोमे वा 'भए वा' भये वा, हासे वा। 'एव तेसिं ण भवड' एव तेपा न भवति, एवं पूर्ववर्णितप्रकारेण तत्र तत्र प्रतिबन्ध -आसक्तिस्तेया मुनीना न भवति ॥मू० २८॥ स्तोक अर्थात् ४९ उच्छवास--प्रमिन कालमें, मुहूर्तम-७७ लबोंसे प्रमित कालमें, अहोरानम, पक्ष-१५ दिनके कालमे, माम-३० दिन-प्रमाण समयमे, अयनमे-उत्तरायणदक्षिगायन रूप छ छ महिनोंमे, एव और भी मत्सरादिरूप बृहत्समयमे प्रतिवध नहीं था। (भावओ) भावकी अपेक्षासे (कोहे या माणे वा मायाए वा लोहे वा भए वा हासे वा एव तेसि ण भवइ) कोपमे, मानमें, मायामे, लोभमे, भयमे, अथवा हास्यमे उन मुनिजनोको किसीभी तरहका प्रतिबध नही था । सू० २८॥ જેટલા કાળવિશેષમા--સાત ઉછાસમા, લવમા–સાત ઓક અર્થાત્ ૪૯ ઉસના પ્રમાણના કાળમાં, મુહમા-૭૭ લોથી અમિત કાળમાં, અહારાત્રિમાં, પક્ષ-૧૫ દિવસના કાળમા, માસ-૩૦ દિવસના સમયમાં, અયનમાંઉત્તરાયણ-દક્ષિણાયનરૂપ છ છ મહિનામા, તેમજ બીજા પણ સ વસર આદિરૂપ सा समयमा प्रतिपय नहोतो (भारओ) सापनी अपेक्षा (कोहे वा माणे वा माया वा लोहे वा भए वा हासे वा एव तेसिं ण भगइ) अपमा, માનમા, માયામાં, લોભમાં, ભયમાં અથવા હાસ્યમા તે મુનિઓને કોઈ પણ तरेछन। प्रतिय नहोतो (सू २८) Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० - औपपातिक्या . : मूलम्-ते णं भगवंतो वासावासवनं अगिम्हहेमंतियाणि मासाणि गामे एगराइया गयरे पंचराइया, वासीचंदणसमाण__- 'ते, ण, भगवतो' इत्यादि। ते श्रीवर्धमानस्वामिन लिप्या ग्लु भगतो 'वासावासबन्ज' वर्षापासवर्जम् 'अट्ठ गिम्हहेमतियाणि' अष्टौ त्रैमहेमन्तिकान 'मासाणि' मासान् , 'गामे एगराइया' ग्रामे एकरानिका -यस्मिन् दिवसेऽनगारा ग्राममागन्ति स दिवस पुनर्यापनाचतते ताव पर्यन्त काल एकरानगन्देन गृह्यते, तेनफसमाहनिवासिन इत्यर्थ । 'णयरे पचराइया'-नगरे पञ्चरात्रिका -यस्मिन् दिवसेऽनगारा नगरमाग छन्ति स दिवस पश्चवारमावर्तित पञ्चरातमु यते, तेनैकोनगिदिनसमामिन इत्यर्थ । स्थरिकल्पिना शेपकाले एकस्मिन् नगरे मासकल्पविहारित्वात्। 'वासी-चदण-समाण-कप्पा' वासी-चन्दनसमान-कल्पा , वासी-'वसुला' इति प्रसिद्ध काप्टतक्षणशस्त्रपिशेप , वासीर वासी अपकारी, ता चन्दनसमान-चन्दनवत् कल्पयन्ति-मन्यन्ते ये ते वासीचन्दनसमानकापा -अपकारिणमप्युपकारकत्वेन मन्यमाना इत्यर्थ । तथा चोक्तम् 'तेण भगवतो' इत्यादि, (तेण भगवतो) वर्द्धमान स्वामी के घे सयमी शिष्यजन (वासावासवान) वर्षाकाल-चौमासा छोडकर (अट्ठ गिम्हहेमतियाणि मासागि) ग्रीष्मकाल एव गीतकालके ८ महीनामे (गामे) छोटे गाममें (एगराइया) एकरानिपर्यन्त-एक सप्ताह तक और (णयरे) नगरमें (पचराइया) पाच रात्रितक-२९ दिवस-पर्यन्त ठहरते थे। (वासी-चदण-समाण-कप्पा) ये अपने अपझाराजनको भी उपकारीरूपसे मानते थे । अथवा कोई चाहे इन्हे वसूलासे छाले, चाहे चदनसे चर्चे, दोनों पर समान दृष्टि रखते थे। कहा भी है 'तेण भगवंतो' छत्यादि (तेण भगतो) पदभान स्वाभाना ते सयभी शिष्यानो (वासावासवज्ज) वर्षात-न्यामासु डीन (अट्ठ गिम्हहेमतियाणि मासाणि ) श्रीभास तभर शीतजासन मा भानामा (गामे) नाना गाभमा (एगराइया) रात्रि सुधी-मेड महाडीया सुधी, मने (णयरे) नगरमा ( पचराइया) पाय शनि सुधी-२८ दिवस सुधी शांता ता (वासीचदणसमागकप्पा) ते પાતાના અપકારી જનેને પણ ઉપકારીરૂપ ગણતા હતા અથવા કઈ ભલે તેમને વાસલાથી છોલે કે ભલે ચ દનથી ચચે બેઉપર સમાન દૃષ્ટિ રાખતા હતા કહ્યું પણ છે Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषयपिणी टीका. सु. २९ भगवदन्तेवासिवर्णनम् - 16 'यो मामपकरोयेय, तत्त्वेनोपकरी यसौ ॥ २०१ शिगमायुपायेन, नाइन नीरजम् ॥” इति ॥ यहा–वास्या चन्तनसमान कन्प आचागे येषा ते वासीचन्दनसमानकच्पा, यो मामकरोत्येष तत्त्वेनोपकरोत्यसौ । शिरामोक्षायुपायेन, कुर्माण इव नीरुजम् ॥ १ ॥ सन्नीका जन कोई मनुष्य अपकार करता है, तन वे ऐसा समझते हैं कि यह जो मेरा अपकारी है मो तो वस्तुत उपकारी ही है । क्योंकि इसके अपकार से हमारी सहनशीलता आदि गुगका परीक्षा होता है, अनु मित्रमे, निन्दा - स्तुति - आदिमें समदृष्टिता बढती है । अत यह मेरा अपकारी नहीं, प्रत्युत उपकारी हैं। जैसे किसीकी गर्दनकी नस यदि चढ जाती है, उसको यथास्थानमे बैठानेके वैद उसका गिर पकडकरवायें दायें घुमाता हैं, उस समय रोगीको पीडा होती है, परन्तु नसके अपने स्थान पर बैठ जाने पर पीडितकी पीडा शान्त हो जाती है, वह नीरोग हो जाता है, उसी प्रकार अपकारी भी अपकारके द्वारा सज्जनोंकी आत्माको, जो अनादिकाल से स्वस्थानच्युत हो ससाम्मे भ्रमण कर रही है, स्वस्थानमे स्थित करता है । इसलिये सज्जन अपने अपकारीको उपकारीही मानते हैं, उस पर आक्रोश कभी भी नहीं करते यो मामकरोत्येय तत्त्वेनोपकरोत्यसो । એમ शिरामोक्षायुपायेन कुर्वाण इव नीरुजम् ॥ १ ॥ સજ્જનાના ફાઈ મનુષ્ય જ્યારે અપકાર કરે છે ત્યારે તે સમજે છે કે આ જે અમારે અપકારી છે તે તેા ખીરીતે ઉપકારી જ છે કેમકે તેના અપકારથી અમારી સહનશીલતા આદૅિગુણાની પરીક્ષા થાય છે, શત્રુ-મિત્રમા, નિદા-સ્તુતિ ચ્યાદિમા સમદષ્ટિપણુ વધે છે તેથી તે અમારા અપકારી નથી, પરતુ ઉપારી છે જેમકે કાઇની ગરદનની નસ જો ચડી જાય છે તેા તે ખરાખર ઠેકાણે બેસાડી દેવાને માટે વૈદ્ય તેનુ માથુ ५४ડીને જમણુ --નામુ ફેરવે છે. તે વખતે રોગીને પીડા થાય છે, પરંતુ નસને પેાતાને ઠેકાણે પ્રેમી જવાથી તે રાગીની પીડા શાત થઈ જાય છે, અને તે નિરોગી થઇ જાય છે તેવીજ રીતે અપકારી પણ અપકારદ્વારા સજ્જનાના આત્માને-કે જે અનાદિકાલથી પેાતાના સ્થાનથી વ્યુત થઇ સ સારમા ભ્રમણ્ કરી રહેલા છે તેને પેાતાના સ્થાનમા સ્થિર ડરે છે તેથી સજ્જન પોતાના અપકારીને ઉપકારીજ માને છે તેના પર ગુસ્મા કદી પણ કરતા નથી Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ भोपवानिकबरे कप्पा समलेहकंचणा समसुहदुक्खा इहलोग-परलोग-अप्पडिबडा संसारपारगामी कम्मणिग्घायणटाएअभुटिया विहरतिसू. २९॥ तथाचोक्तम् " अपकारपरेऽपि पो, कुन्युपकारमेव दि महात । सुरभीकरोति वासी, मलयजमषि तक्षमाणपि ॥” इति । 'समले टुकवणा' समले टुकाधना = लेप्टु --मृत्तिकारसण्ड , फायन-सुवर्ण, ते उमे मम तुल्ये येषा ते तथा, 'सममुहदुक्खा ' समसुसद सा , मुमै दु से च समानपरिणामा है, अथवा-वासी अपकारीमें चदनके समान है आचार जिनका ऐसे वे साधुजन थे। चदन वासी द्वारा वसूला द्वारा-काट जाने पर भी चमूलाके मुखको सुवासित करता है। कहा भी है अपकारपरेऽपि परे, कुर्वन्त्युपकारमेव हि महान्तः । सुरभीकरोति वासी मलयजमपि तक्षमाणमपि ॥ १॥ तथा दुष्ट-स्वभाववाले मनुष्य यद्यपि सन्जनोंका निरन्तर अपकार ही करते रहते हैं, तो भी वे सजन उन अपकारियों पर कभी भी कुछ नहीं होते हैं, उनका कभी भी अपकार नहीं करते है। प्रत्युत वे अपमारियोंका भी उपकार ही करते है। जैसे चढनवृक्ष अपने अङ्गको काटनेवाले मनुष्यको, काटने के साधन कुठारके मुसको भी सुरभित ही करता है ॥१॥ (समलेहचणा) पापाण और सुवर्ण इन दोनों को बराबर समझते थे । (समसुहઅથવા વાસી-અપકારી પ્રતિ ચદનના સરખે આચાર છે જેમને એવા તે સાધુજને હતા ચદન વાસીદ્વારા-વાસલાથી કપાઈ જવા છતા પણ વાસલાના મુખને સુવાસિત કરે છે કહ્યું પણ છે– अपकारपरेऽपि परे, कुर्वन्त्युपकारमेव हि महान्तः । सुरभीकरोति वासी मलयजमपि तक्षमाणमपि । તથા તે દુઇ સ્વભાવવાળા મનુષ્ય જે કે સજજનોને હમેશ અપકાર જ વ્યા કરે છે તે પણ તે સજજને તે અપકારીઓ ઉપર કદી પણ ક્રોધ કરતા નથી, કદી પણ તેમને અપકાર કરતા નથી, પરંતુ તે અપકારીઓ ઉપર પણ ઉપકાર જ કરે છે જેમ ચદનવૃક્ષ પિતાના આગને કાપવાવાળા મનુષ્યને, मनावानी साधन नामुमने पशु सुगधित ४२ छ (१) (समलेट करणा) षा मने सुपर्थ में मन्नन २२ सभाता ता (समा - Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषयपिणी टीका सृ १९ भगवदन्तेवासिवर्णनम २०३ मृलम् — तेसि णं भगवंताणं एएणं विहारेणं विहरमा इ यर्थ । ' इहलोग-परलोग - अप्पनिद्वा' इहलोक परलोकाऽप्रतिनद्रा - लोकद्वयसुखासक्तिरहिता, 'ससार - पार - गामी' ससार-पार - गामिन-भवसमुद्रत स्वपरा मतारका, 'कम्मणिरायणट्टाए अन्भुट्टिया विहरति ' कर्मनिघातनार्थमभ्युथिता –सकलकर्मनिर्जरणार्थं कृतोद्यमा विहरन्ति ॥ सू० २९ ॥ 1 टीका- 'तेसि ण' या । तेपा श्रीमहावीरस्वामिशिष्याणा' 'भगवताण ' भगवता-तप - यमशोभाशादिनाम, 'एएण विहारेण विहरमागाण' एतेन विहारेण विहरताम् उत्र विहार विचरण – मुनिचर्या, यद्वा निविधैरनेकप्रकारैरुपधिभारवहन - पाउचलनपरोषहसनादिरूपै कायक्लेगै कर्माणि ह्रियन्तेऽनेनेति निहार, एतेन निहारेण - ग्रामनगरा दुक्खा) सुख एव दुसमे समान परिणाम वाले थे । सुखमें हर्ष एव दु सम विपाद इस प्रकार निपमता लिये इनके परिणाम नहीं थे | ( इहलोग परलोग - अप्पडिवद्धा) इस लोक-पनी एव परलोक सनधी सुसाकी आसक्ति इनके हृदयमें नहीं थी । (संसारपारगामी ) ये भवरूपी समुद्रको तिरनेवाले थे । ( कम्मणिग्धायणट्ठाए अन्भुट्टिया विहरति ) समस्त कर्मोकी निर्जरा करनेके लिये ही सयमाराधनमे तत्पर होकर विचरते धे ॥ सू० २९ ॥ ' तेसि ण भगवताण' इत्यादि, ( तेसि ण भगवताण) महावीर स्वामाके इन स्थविर भगवन्तोंका जो (एएण विहारेण विरमाणा ) इस प्रकार के विहार करते थे । विहार शब्दका अर्थ मुनिचर्या दुक्खा ) सुण तेभन हु अभा समान परियाभवाजा हता सुभाभा दुष तेभन हु अभा विषाद (शोङ ) शेवी विषमता तेभनाभा नहोती ( इहलोगपरलोग - अप्पडिश्रद्धा ) था बाउ-समधी तेभर परसोड - समधी सुयोनी यासहित तेभना हृध्यभा नहोती ( ससारपारगामी ) तेथे लवड्या समुद्रने તરવાવાળા હતા ( कम्मणिग्घायणट्ठाए अब्भुट्टिया विहरति ) सभस्त ડૉની નિર્જરા કરવા માટે જ સ યમ–આરાધનમા તત્પર થઈને વિચરતા હતા ( सू २७ ) ' तेसि ण भगवताण , धत्याहि, ( तेसि ण भगवताण ) मे महावीर स्वामीना ते स्थविर ભગવ તા ( पण विहारेण निरमाणाण ) मा प्रहारे विहार ४२ता उता, विहार शण्डने! Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ औपपातिक जहा-इत्तरिए य १ आवकहिए य । से किं तं इत्तरिए ? इत्तरिए अणेगविहे पण्णते, तं जहा-चउत्थभत्ते १ छहभते २ अट्टमभत्ते रिक च-एतिष्ठति तच्छीरम् त्वर, तदेव-गरिकम्-अपारिकम्, यथा श्रीमहावीरस्वामिनस्तीर्य नमस्कारसहितप्रया यानकालादारग परमामाय-तम्, श्रीनामेयनीर्थदरतीर्थ रवसरपर्यन्तम्-उति १ । 'आयफहिए य' याव कयिका-मायत्--यदवधिर्मनुष्योsयमिति मुरयव्यवहाररूपा कथा या कथा, तर भर गार कयिक-जीवनपर्यन्तग अनगनमिति । अनयोरित्वरिक पृच्छति-से कि त इत्तरिए' अथ कितद इन्वरिकम् , अभ्योत्तरमाह'इत्तरिए अणेगविहे पण्णत्ते' इन्चरिकम् अनकविध प्रजपम्, 'त जहां-तद्यथा-तानि यद्रपाणि सन्ति तथा कथयति-'चउत्थभत्ते चतुर्थभक्तम्-एकोपरामरूपम१ । 'छद्रमत्त' पष्टमक्तम्-निरन्तरदिनद्वयोपवासरूपम् २ । 'अट्ठमभत्ते' अष्टमभक्त-निरन्तरदिनत्योपपासम्मस्वामी के तीर्थ मे इत्वरिक तप नमस्कारसहित नौकारसी प्रत्यारयान काल से लेकर उह मासपर्यन्त का कहा गया है। श्री आदिनाथ तीर्थफर के शासनमे इसकी मर्यादा नौकारसी से लेकर एकवर्ष पर्यन्त की थी। शेष २२ तार्थकरों के शासनमें अष्टमास पर्यन्त इसकी अवधि थी । (से कि त इत्तरिए १) टत्वरिक तप क्या है। उत्तर-(इत्तरिए अणेगविहे पण्णत्ते ) यह इत्वरिक तप अनेक प्रकार का कहा गया है, (त जहा) वे प्रकार ये है(चउत्थभत्ते छठभत्ते अट्ठमभत्ते दसमभत्ते वारसभत्ते चउदसभत्ते सोलसभत्ते अद्धमासियभत्ते मासियभत्ते दोमासियभत्ते तेमासियभत्ते चउमासियभत्ते पचमासियभत्ते छम्मासियभत्ते) चतुर्थभक्त-एक उपवास, पष्ठभक्त-दो उपवास-निरन्तर-लगातार-दो दिन का उपवास, अष्टमभक्त-निरन्तर तीन दिन तक उपनास, दशमभक्त चार-उपवास-लगातार સ્વામીને તીર્થમા ઈત્વરિક તપ નમસ્કારસહિત–નૌકારની પ્રત્યાખ્યાનકાલથી લઈને છ માસ સુધીનુ કહેવુ છે શ્રી આદિનાથ તીર્થ કરના સમયે તીર્થમાં તેની મર્યાદા નૌકારીથી લઈને એક વર્ષ સુધીની હતી બાકીના ૨૨ તીર્થ - शना तीर्थभा ८ मास सुधानी तनी अवधि ती (से किं तं इत्तरिए? ) प२ि४ त५ छ ? उत्तर-( इत्तरिए अणेगरिहे पण्णत्ते) मा परि तप मन ४२नु दु छ, (तजहा) तमाम छ (चउत्थभत्ते दुभत्ते अदम भत्ते दसमभत्ते पारसभत्ते चउद्दसभत्ते सोलसभने अद्वमासियभत्ते मासियमभत्ते दोमासियभत्ते तेमासियमभत्ते पउमासियमभत्ते पचमासियभत्ते छम्मासियभत्ते। ચત-ભક્ત એક ઉપવાસ, ષષ્ઠભક્ત-બે ઉપવાસ-નિરન્તર–લગાતાર બે દિવસ સના ઉપવાસ, અષ્ટમભક્ત-એક સાથે ત્રણદિવસ ઉપવાસ-ત્રણ ઉપવાસ, દશમ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७ पीयूषषपिणो-टोका स ३० अनशनतपोथर्णनम ३ दसमभत्ते ४ वारसभत्ते ५ चउद्दसभत्ते ६ सोलसभत्ते ७ अद्धमासियभत्ते ८मासियभत्ते ९ दोमासियभत्ते १० तेमासियभत्ते ११ चउमासियभन्ते १२ पंचमासियभत्ते १३ छम्मासियभत्ते १४, पम् ३ । 'दसममने' दशमभक्तम--निरतदिनचतुष्टयोपनासरूपम् ४ । 'वारसभत्ते' द्वादशभक्तम्--निरन्तरटिनपनको वामनतम ५। 'चउटसभत्ते' चतुर्दशभक्तम्-निरन्तरदिनरट्कोपनामरूपम् ६ । 'सो सभत्ते' पोडशभक्तम्-निरन्तरदिनसमकोपनामरूपम् ७। 'अद्धमासियभत्ते' अमासिकमक्तम्-निरन्तरपञ्चदशटियसोपरामरूपम् ८ । 'मासियभत्ते' मासिकभक्तम्निरन्तत्रिंगदिपमोपवासरूपम् ९ । 'दोमासियभत्ते' द्वैमासिकभक्तम् 'तेमासियभत्ते' त्रैमासिझमक्कम् । 'चउमासियभत्ते' चातुर्मासिकमक्तम् । 'पचमासियभत्ते' पाश्चमामिकभक्तम् । 'छम्मासियभत्ते' पाण्मामिभक्तम् । 'से त इत्तरिए' तदेतदित्वरिकम् । 'से र्फि त 'आवकहिए' अथ किन्तद् या फयिकम् । 'आयफहिए' याव कयिकम्--यानत्--यदवधि ४ दिन के उपवास, द्वादशभक्त-पाँच उपवास-लगातार पाँच दिन तक उपवास, चतुर्दशभक्तउ उपवास-लगातार ६ दिनतक उपवास करना, पोडशभक्त-७ दिन उपवास-लगातार ७ दिनतक उपपास करना, अद्वैमासिकमक्त-निरन्तर लगातार १५ दिनतक उपवास करना, मासिकमक्त-लगातार एक मदिन भरके उपवास करना, द्वैमासिकभक्त-लगातार एकही साथ नोमास के उपपास, मामिकभक्त-लगातार-एकही साथ ३ मास के उपवास, चातुर्मासिफभक्त लगातार-एकहीसाय चार महिने का उपवास, पाश्चमासिकभक्त-पाच महिने के लगातार उपनास, और पाण्मासिकभक्त लगातार छह महिने के उपवास करना । यह सब इश्वरिक नामका अनशन तप है । यावत्कयिक का मतलब है-जनतक " यह मनुष्य है " इस ભક્ત-ચાર ઉપવાસ-એક સાથેજ ચાર દિવસને ઉપવાસ, દ્વાદશભક્ત-પાચ ઉપવસ-એકસાથે પાચ દિવસ સુધી ઉપવાસ, ચતુર્દશભક્ત એક સાથે ૬ દિવસે સુધી ઉપવાસ કરે, પડશભકત-૭ દિવસ એક સાથે ઉપવાસ કરવો, અર્ધ માસિકભક્ત નિરતર એક સાથે ૧૫ દિવસ સુધી ઉપવાસ કરે, માસિકભક્તએક સાથે એક મહિના સુધી ઉપવાસ કરે, માસિકભક્ત-એક સાથે બે મહીના સુધીના ઉપવાસ, વૈમાસિક ભક્ત-એક સાથે ત્રણ માસ સુધી ઉપવાસ, ચાતુર્માસિક ભક્ત-એક સાથે ચાર મહિનાના ઉપવાસ, પાચમાસિકભક્ત પાંચ મહિના સુધી એકીસાથે ઉપવાસ, અને વાણમાસિક ભક્ત-છ મહિના સુધી એકીસાથે ઉપવાસ કરે આ બધુ ઈત્વરિકનામનુ અનશન તપ છે યાવત્ક Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ औपपातिक जहा-इत्तरिए य १ आवकहिए य २।से किं तं इत्तरिए ? इत्तरिए अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा-चउत्थभत्ते १ छहभत्ते २ अहमभत्ते रिक च-एतिष्ठति तच्छीटम् टयर, तदेव-इन्चरिकम्-अल्पकारिकम् , यथा श्रीमहावीरस्वामिनस्तीर्थे नमस्कारसहितप्रया यानकालादारभ्य पण्मासर्य-तम्, श्रीनाभेयतीर्थदरतीर्थे रवत्सरपर्यन्तम्-इति १ । 'आयफहिए य यात्र कयिका-यारत्-यदवधिर्मनुष्योऽयमिति मुरयन्यवहाररूपा कथा याक्कथा, तत्र भन याव कथिक-जीवनपर्यन्तग अनगनमिति । अनयोरित्चरिक पृच्छति-'से कि त इत्तरिए' अथ किन्तद इ-चरिकम् ', अस्योत्तरमाह'इत्तरिए अणेगविहे पण्णत्ते' इत्वरिकम् अनेकविध प्रज्ञपम्, 'त जहा'-तद्यथा-तानि यद्रूपाणि सन्ति तथा कथयति-'चउत्थभत्ते चतुर्थभक्तम्-एकोपनामरूपम् १ । 'छट्ठभत्ते' पष्ठभक्तम्-निरन्तरदिनद्वयोपनासरूपम्२ । 'अनुमभत्ते' अष्टमभक्त-निरन्तरदिनत्रयोपवासरूस्वामी के तीर्थ में इत्वरिक तप नमस्कारसहित नौकारसी प्रत्यारयान काल से लेकर छह मासपर्यन्त का कहा गया है। श्री आदिनाथ तीर्थकर के शासनमे इसकी मर्यादा नौकारसी से लेकर एकवर्ष पर्यन्त की या। शेप २२ तार्यकरों के शासनमे अष्टमास पर्यन्त इसकी अवधि यी । (से किं त इत्तरिए') इत्वरिक तप क्या है। उत्तर-(इत्तरिए अणेगविहे पण्णत्ते ) यह इत्वरिक तप अनेक प्रकार का कहा गया हे, (त जहा) वे प्रकार ये हैं(चउत्थभत्ते छठभत्ते अट्ठमभत्ते दसमभत्ते वारसभत्ते चउ-सभत्ते सोलसभत्ते अद्धमासियभन्ने मासियभत्ते दोमासियभत्ते तेमासियभते चउमासियभत्ते पचमासियभत्ते छम्मासियभत्ते) चतुर्थभक्त-एक उपवास, पष्ठमक्त-दो उपनास-निरन्तर-लगातार दो दिन का उपवास, अष्टमभक्त-निरन्तर तीन दिन तक उपवास, दगमभक्त-चार-उपपास-लगातार સ્વામીના તીર્થમા ઈવરિક તપ નમસ્કારસહિત–નીકારકી પ્રત્યાખ્યાનકાલથી લઈને છ માસ સુધીનુ કહેવુ છે શ્રી આદિનાથ તીર્થ કરના સમયે તીર્થમા તેની મર્યાદા નૌકારસીથી લઈને એક વર્ષ સુધીની હતી બાકીના ૨૨ તીર્થ - शना तीथमा ८ भास सुधानी तनी अवधि हुती (से किं त इत्तरिए' ) प२ि४ तपशु छ ? उत्तर-( इत्तरिए अणेगविहे पण्णत्ते) l प२४ त५ भने ४ारनु ४९ छ, (तजहा) ते माम छ (चउत्थभत्ते उद्धभत्ते अटुम भत्ते दसमभत्ते पारसभत्ते चउद्दसभत्ते सोलसभत्ते अद्धमासियभत्ते मासियमभत्ते दोमासियभत्ते तेमासियमभत्ते घउमासियमभत्ते पचमासियभत्ते छम्मासियभत्ते) ચત-ભક્ત એક ઉપવાસ, વૃષ્ઠભક્તએ ઉપવાસ-નિરન્તર–લગાતાર બે દિવ સનો ઉપવાસ, અષ્ટમભત-એક સાથે ત્રણદિવસનો ઉપવાસ–ત્રણ ઉપવાસ, દશમ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापणी टीका ३० अनशनतपोयर्णनम् २०९ वगमणे' पाओवगमणे दुविहे पण्णत्ते; तं जहा - वाघाडमे य १ निव्वाघाडमे य २ नियमा अप्पडिकम्मे । से तं पाओगमणे । से किं तं भत्तपचखाणे ? भत्तपञ्चक्खाणे दुविहे पण्णत्ते, तं , पगमन द्विविध प्रज्ञनम्, 'त जहा ' तद्यथा - ' वायाइमे य' व्याघातवच-याघात यानसिंह-दावानला–सजातोपद्रव, तेन सहित व्याघातयत् । 'निव्वायाइमे य' निर्व्याघातवच्चसिंहदानानन्ाद्युपद्रवरहित य प्रतिपद्यते तत् नित्र्याघातवत्, न्यायातनिरहितमि यर्थ । एतद् द्विनिध 'नियमा अप्पडिकम्मे ' नियमादप्रतिकर्म = नियमत शरीरचलनादिक्रियारहित भवति । 'से त पाओवगमणे ' नदेत पादपोपगमनम् । ' से किं त भत्तपच्चक्खाणे ?" अथ किं तद् भक्तप्रव्याख्यानम् ?,–' भत्तपचक्खाणे दुविहे पण्णत्ते ' भक्तप्रयाख्यान द्विविघ प्रज्ञमम्, तन—भक्तप्रयारयान - चतुर्निधस्याऽऽहारस्य, निविधस्य पानकरहितस्य वाऽऽहारस्य वर्जनरूप द्विनिन प्रज्ञमम्-द्विप्रकारक कथितम् । ' त जहा ' तद्यथा - ' वावामे य' २ 1 प्रकार से - (वाना मे य १ निव्वाघाइमे य २ नियमा अप्पडिकम्मे ) १ व्याघातवत्, निर्व्याबातवत् । जो व्यान, सिंह एव दापानल आदि से उद्भूत उपद्रव से महित होता है वह व्याघातवत् है । जिसमें इस प्रकार के उपद्रव न हो वह निर्व्यापातवत् है । यह पाढपोपगमन नियमत शारीरिक हलनचल्न आदि क्रियाओं से रहित होता है । तथा इसमें औप-नोपचार आदि नहीं किया जाता है । (सेत पाओवगमणे ) यह पादपोपगमन सन्धारा है । अन भक्तप्रयाख्यान का वर्णन करते है - ( से किं त भत्तपञ्चक्खाणे ) यह भक्तप्रन्यारयान कितने प्रकार का होता है, (भत्तपचसाणे दुविहे पण्णत्ते ) यह भक्तप्रत्या दो प्रकार का है, ( त जहा ) वह इस प्रकार - ( वायाइमे य निव्वाघाइमे य छे- ( त जहा ) ते या अजरे - (वाघाइमे य १ निव्वाघाइमे २ य नियमा अप्पडिकम्मे ) १ व्याघातवत् भने जीले निर्व्याधातवत् ? वाघ ( भाव४ ) તેમજ દાવાનલથી થતા ઉપદ્રવવાળા હોય છે તે વ્યાઘાતવત્ છે જેમા એ પ્રકારના ઉપદ્રવ ન હેાય તે નિર્વ્યાઘાતવત્ છે આ પાદાપગમન નિયમ પ્રમાણે શારીરિક હલનચલન આદિ ક્રિયાએથી રહિત હોય છે, તથા એમા ઔષધેपयार आहि नयी ठरता ( से त पाओत्रगमणे) मे पाहयोपगमन सथारो मा प्रभागे थाय छे हुवे लतप्रत्याभ्यान्नु पर्युन रे छे- (से किं त भत्तपचसाणे ?) या लस्तप्रत्याख्यान डेटा अडाना थाय छे ? ( भत्तपञ्चस्साणे दुविहे पण्णत्ते ) मे थे राजा है-( त जहा ) ते या प्रारे - ( वाघाइमे य निव्वाघाइमे य नियमा Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२०८ ओपपातिकमरे -से तं इत्तरिए। से किं तं आवकहिए 'आवकहिए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-पाओवगमणे य १ भत्तपञ्चक्खाणे य से किं तं पाओकथा-' मनुष्योऽयम्' एतद्रूपा सा यानकथा, तन भन याव कथिकम्-यावजीवनमित्यर्थ , तद् 'दुविहे पण्णत्ते' द्विविध प्रज्ञप्तम् । 'त जहा' तद्यथा-'पाओवगमणे य भत्तच्चक्खाणे य' पादपोपगमनं च भक्तप्रत्यारयान च, तर-पादपस्येव वृक्षस्येवोपगमनम्अस्पन्दतया-निश्चलतयाऽस्थान पादपोपगमनम्-चतुर्विधाऽऽहारपरित्यागेन शरीरप्रतिक्रियापर्जनेन च वृक्षवनिश्चलावस्थानमित्यर्थ । 'से कि त पाओगमणे-अय किन्तत्पादपोपगमनम् ?-पादपोपगमन कीदृशम् । अनाह-'पाओगमणे दुरिहे पण्णत्ते' पादपोप्रकार का उसके-तप करने वाले के साथ व्यवहार चलता रहे तबतक जो व्रत किया जाय वह यावकथिक है-जीवनपर्यन्त आराधित अनगन व्रत यावत्कयिक है । ( से कि त आवकहिए ?) यावत्कथिक तप कितने प्रकार का है ? उत्तर-(आवकहिए दुविहे पण्णत्ते ) यह तप दो प्रकार का है-( त जहा) वह इस प्रकारसे (पाओवगमणे य भत्तपच्च खाणे य) पादपोपगमन और दूसरा भक्तप्रत्यारयान । जिसमे कटे वृक्ष की तरह निश्चल हो कर स्थिति रहे वह पादपोपगमन है-चारो प्रकार के आहार के परित्याग से एव शरीर की शुभषा आदि क्रियाओं के परित्याग से कट वृक्ष की तरह निश्चल हो जाना इसका नाम पादपोपगमन है। (से किं तं पाओवगमणे') पादपोपगमन कितने प्रकार का है ?, (पाओवगमणे दुविहे पण्णत्ते )यह पादपोपगमन स्थारा दो प्रकार का है, ( त जहा ) वह इस થિકની મતલબ છે, જ્યા સુધી “ આ મનુષ્ય છે” એ પ્રકારને તેના–તપ કરનારના સાથે વ્યવહાર ચાલતો રહે ત્યા સુધી જે વ્રત કરવામાં આવે તે यापथि छे-अपनपर्यत माराधित मनशन प्रत याथि४ छ (से कि त आवकहिए ) या४थि४ त टसा १४॥२॥ छ ? उत्तर ( आवकहिए दुविहे पण्णत्ते) २ त५ मे २नु छ ( त जहा) ते 20 अरे छ (पाओर गमणे य भत्तपन्चक्साणे य) (१) पायाभन भने यीgairal પ્યાન જેમાં કાપેલા વૃક્ષની પેઠે નિશ્ચલ જેવી સ્થિતિ રહે તે પાદપપગમન છે. ચારેય પ્રકારના આહારને ત્યાગ કરીને તેમજ શરીરની સેવા-સુશ્રષા આદિ ક્રિયાઓના ત્યાગ કરીને કાપેલા વૃક્ષની પેઠે નિશ્ચય થઈ જવું તે नाभ पाहपापगमन छ (से कि त पाओगमणे?) पाहापगमन सारना १ (पाओगमणे दुविहे पण्णत्ते) मा पापारामन मयारा में जाना Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषयपिणी-टीका सू ३० अषमोदरिकातपोमर्णनम् २११ यरिया य २। से किं तं दबोमोयरिया ? दव्योमोयरिया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-उवगरणदव्योमोरिया य १ भत्तपाणदव्योमोयरिया य २।से किंतं उवगरणदब्बोमोयरिया ? उवगरणदव्योमोयरिया तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-एगे वत्थे १ एगे पाए २ चियरा कथिता त जहा' तद्यथा-'दब्योमोयरिया य द्रव्यावमोदरिका च । 'भावोमोयरिया य' भावाऽप्रमोदरिका च । 'से किं तदबोमोयरिया ? अथ का सा द्रव्याऽप्रमोदरिका , 'दबोमोयरिया दुविधा पण्णत्ता' द्रव्यावमोदरिका द्विविधा प्रजमा, 'त जहा'-तद्यथा 'उवगरणदव्योमोयरिया य' उकरणद्रव्यावमोदरिका च १ । 'भत्तपाणदबोमोय. : रिया य' भक्तपानन्यावमोदरिका च २ । 'से किंत उवगरणदव्योमोयरिया' अथ का सा उपकरणहन्यानमोदरिका ? 'उवगरणदव्योमोयरिया तिपिहा पण्णत्ता' उपकरणद्रव्यावमोदरिका त्रिविधा प्रजमा, 'त जहा' तयथा-१ 'एगे वत्थे' एक वस्त्रम्-एकचोलपट्टरूप वस्त्र न द्वितीयम् , २-'एगे पाए' एक पानम् , ३-'चियत्तावगरणसाइदो प्रकारका है, [त जहा] वे दो प्रकार ये है-दबोमोयरिया य भावोमोयरियाय) एक द्रव्यामोदरिका और दूसरी भावावमोदरिका । [से कि त दबोमोयरिया] प्रश्नवह द्रव्यावमोदरिका क्या है-कितने भेटवाली है? उत्तर-दव्योमोयरिया दुविहा पण्णता] व्यावमोदरिका तो भेटवाली है, [ त जहा] वे दो प्रकार इस तरह है-उवगरणदबोमोयरिया य भत्तपाणदव्योमोयरिया य] १ उपकरणद्रव्यावमोदरिका और २ भक्तपानद्रव्यापमोडरिका । [उवगरणदलोमोयरिया तिविहा पण्णत्ता] इनमे उपकरणद्रव्यावमो-रिका तीन प्रकार को है। (त जहा) वे तीन प्रकार ये है-[एगे वत्ये एगे पाए चियत्तोवगरणसाइनणया] एक वस्त्र १, एक पात्र २, और तीसरा त्यक्तोपफरणस्वादनता छे (तजहा) ते मे ४२ मा छ-(दव्योमोयरिया य भावोमोयरिया य) मे द्रव्यापमहरिसन. मी लावावमारि (से किं तं दव्योमोयरिया) प्रश्न- ये द्रव्यावभावरि। शुछ ? सा प्रारनी छ ? (दव्योमोयरिया दुरिहा पण्णत्ता) उत्तर-ते में प्रारी छ-(तं जहा) मे १२ मावा छे (उवगरणदव्योमोयरिया य भत्तपाणवोमोयरिया य) १७५४२ द्रव्यापमोहरिश। मने मील मतानद्रव्यापारि४ ( उपगरणदव्योमोयरिया तिविहा पण्णत्ता) तभी 6५४२९ द्रव्यापारि४ y st२नी छ (त जहा) ते ४२ ॥ छ-(एगे वत्थे एगे पाए चियत्तोषगरणसा इज्जणया ) १ मे १स, जीतु मे पात्र, भने त्री त्यस्तो५४२शुस्वा Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - औषपातिकसूत्रे जहा वाघाइमे य१निवाघाइमेय रणियमा सप्पडिकम्मे।से तं भत्तपञ्चक्खाणे।सेतं अणसणे। से किं तं ओमोयरिया ? ओमोयरिया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-दव्योमोयरिया य १ भावोमोव्याधातवञ्च विघ्नयुक्तञ्च । 'निवाघाइमे य' निर्याघातवच-विनरहित च । एतद् द्वय 'णियमा सप्पडिसम्मे' नियमात् सप्रतिकर्म-नियमत शरीरचलनादिक्रियासहित भवति । तेन वाह्योपधोपचारो वैयावृत्य च तस्य भवति । 'सेत भत्तपञ्चक्खाणे' तदेतद् भक्तप्रत्याय्यानम् । ‘से त अणसणे' तदेतदनशनम् । 'से कि त ओमोयरिया' अथ का साऽप्रमोदरिका , 'ओमोयरिया दुविहा पण्णत्ता' अवमोदरिका द्विविधा प्रजाप्ता-अवमोदरिका-अवमम्-ऊनम् , उदर यस्मिन् भोजने तद् अवमोदर, तदस्त्यस्यामिति अवमोदरिका-तपोरूपा क्रिया, सा द्विविधा प्रजमा,द्विप्रकानियमा सप्पडिकम्मे ) १ व्याधातवत् २ निर्व्याधातवत् । इस भक्तप्रत्याख्यान में चौ बिहार एव तेपिहार दोनों किया जाता है । विनयुक्त का नाम व्याघातवत् एव विनरहित ___ का नाम निर्व्याघातवत् है । इस तप में नियमत शारीरिक हलन चलनादिक क्रियाएँ होती है । उनका इसमें परित्याग नहीं है । इसलिये इसमें बाह्य औषधोपचार, एव वैयावृत्य किये जाते है । ( से त भत्तपचक्खाणे) यह भक्तप्रत्याख्यान के भेदों का वर्णन है । (से त अणसणे) इस प्रकार तपके १२ मेदों में से अनशन नामका १ प्रथम बाह्यतप का वर्णन सम्पूर्ण हुआ । (से कि त ओमोयरिया १) प्रश्न-अपमोदरिका किसे कहते है और वह कितने प्रकार की है ? (ओमोयरिया दुविहा पण्णता) उत्तर-यह अवमोदरिका सप्पडिकम्मे) १ व्याधातवत २नियाघातपत् मा मतप्रत्याभ्यानमा यौविडा२૪ ચારે પ્રકારના આહારનો ત્યાગ તેમજ તેવિહાર બને કરવામા આવે છે વિબવાળાનું નામ વ્યાઘાતવ તેમજ વિદ્ધરહિતનું નામ નિર્ચાઘાતવત છે આ તપમાં નિયમ પ્રમાણે શારીરિક હલનચલન આદિક ક્રિયાઓ થાય છે તેને આમા પરિત્યાગ નથી તેથી આમાં બાહ્ય ઔષધેપચાર તેમજ વૈયાવૃત્ય કરાય છે (से त भत्तपचरसाणे) मा प्रत्याभ्यानना हानु पनि छ (से त R) मे ४ारे तपना १२ लेहोभाथी मनशननाभना १ प्रथम माहતપનુ વર્ણન સ પૂર્ણ થયું (सेकि त ओमोयरिया) प्रश्न-अपमानित होने ४६ छ ? मनसा जानी छ ? (ओमोयरिया दुविहा पण्णत्ता) उत्तर- ममारिने जाना Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१३ पीयूपयपिणी-टीका सू ३० अरमोदग्यिातपोषर्णनम माणे अप्पाहारे १. दुवालस कुकडियंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारमाणे अवड्ढोमोयरिया २सोलस कुकडियंडगप्पमाणमेले कवले आहारमाणे दुभागपत्तोमोयरिया ३, चउवीमं कुकुडियंडगप्पपटकप्रमाणमागन कवलान य आहरन भानि, नम्य म आहार अल्पाहार । द्वात्रिंगपरिमितै कालै पुरपाऽऽहार पर्याप , तर चतुयागम्य ग्रहणाद पाहाम्तेनैव भक्तपानद्रव्यावमोरिकाऽपि मिदा (१) । 'दुपालसकुस्कुडियङगणमाणमैत्ते कवले आहारमाणे अबड्डोमोयरिया' हादग कुरकुटाण्टकरमागमानान् कनान आहग्न यो भवति तस्य स आदार अपादावमोदरिका, पोटग करला अर्द्धम्,तस्मात अपकृष्टा = न्यूना द्वादशकरलामावाद् याऽवमोदरिका सा-अपादोऽप्रमोटरिका (२) । 'सोलस कुरकुडियडगप्पमाणमेने काले आहारमाणे दुभागपत्तोमोयरिया' पोडा कुछुटाण्टकप्रमाणमात्रान् कालान् आहरन् द्विभागप्राप्ताऽप्रमोटरिका-पोडा कुकुटाण्डमप्रमाणमानान् कवलान आहग्न यो भवति तस्य स आहारो द्विभागप्राप्तारमोटरिका-द्वितीयभागप्रामावमोदरिका भवति । अय भाषपयामपुस्पाहारद्वात्रिंगकपलाना भागढये कृते सति प्रामान् पोडा कवलान् भुनानस्य द्विभागप्राप्तावमोढरिका तपस्या भवतीति (३)। 'चउनीस कुनकुडियडगप्पमाणमेत्ते कवले कुकुटके अण्ड प्रमाण आठ करल का आहार होता है । पुरप के लिये ३२ कवलप्रमाण आहार पयाम होता है । उनमें चतुर्थांग-आठ काल प्रमाण आहार के लेन से यह अन्पाहार का गया है (१) । (दुवाठस कुकुडियडगप्पमागमेत्ते कवले आहारमाणे अड्डोमायरिया) दूसरा भेद अपाई-अप्रमोटरिका है, इसमें कुमुड अड प्रमाग १२ कवठों का आहार लिया जाता है (२) 1 (सोलस कुकुडियडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारमाणे दुभागपत्तोमायरिया) तीमरा भेद विभागप्रामारमोदरिका है, टमम-कुकुट-अड-प्रमाण १६ कवलों का आहार किया जाता है (३) । (चउवीस कुडियडगप्पगागमेत्ते कवले आरमाणे જેટલો-- ળિઆનો આહાર થાય છે પુરૂષને માટે ૩૨ કળિઆ જેટલો આહાર પર્યાપ્ત થાય છે તેમાથી ચતુશ કળિઆર્જેટલો આહાર લેવાથી એને माया उपाय छ (१) (दुवालस कुछ डियटगप्पमाणमेत्ते करले आहारमाणे अपड्ढोमोयरिया) पीने से सपा-मभारि छ मा सुडान घडा १५१ १२ निभानी भाडा२ पाय थे (२) (सोलस कुक्कुडियंटगप्पमाणमेत्ते करले आहारमाणे दुभागपत्तोमोयरिया) त्रीने से दिमागपाताभारि छ सभा सन 2431 १६ अणिमानी माहा२ सपाय छे (3) (च बीस फुकुडियंटगप्पमाणमेत्ते करले आहारमाणे पत्तोमोयरिया) याया ले प्राता Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ पपातिक तोवगरण साइजणया ३ से तं उवगरणदव्योमोयरिया । से किं तं भत्तपाणदव्वोमोयरिया ? भन्तपाणदव्वो मोरिया - अणेगविहा पण्णत्ता, तं जहा - अह कुक्कुडियंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहार ज्जगया' व्यक्तोपकरणस्वादनता, त्यक्ता - उपकरणस्य स्वात्नता - आसक्तिर्यस्यामवमोदरिकाया सा तथा, भाण्डोपकरणादिषु मूर्च्छापरिख्या गितेत्यर्थं । ' से त उजगरणदव्योमोयरिया' सैपा उपकरणव्यावमोदरिका । 'से किं त भत्तपाणदन्त्रोमोयरिया' अथ का सा भक्तपानद्रव्यावमोदरिका ? ' भत्तपाणदव्वामोयरिया - भक्तपानद्रव्यावमोदरिका-' अणेगनिहा पण्णत्ता' अनेकविधा प्रज्ञमा, 'त जहा ' तद्यथा-'अटू कुक्कुडियडगप्पमाणमेते कवले आहारमाणे अप्पाहारे' अष्टौ कुक्कुटाण्डकप्रमाणमानान् कालान आहरन्नल्पाहार - अष्ट कुम्कुटा ३ । चत्र में एक ही चत्र रखना, जैसे कोई चोलपट रसता है तो वह वही रखेगा, अन्य दूसरा वस्त्र नहीं रस सकता । दूसरे प्रकार में एक ही पान रखना दूसरा पात्र नहीं । जिस अमरिका में उपकरण का आसक्ति व्यक्त हो जाती है वह उसका तीसरा प्रकार है, अर्थात् भाण्डोपकरण में मूर्च्छा का परित्याग । (सेत उवगरणदव्वोमोयरिया) इस प्रकार ये तीन भेट उपकरणद्रव्यावमोदरिका के कह गये है । [ से किं त भतपाणदग्नोमोयरिया ] प्रश्न- भक्तपानद्रव्यावमोदरिका क्या है ?, अर्थात् - भक्तपानद्रव्यावमोदरिका के कितने मे है ?, (भत्तपाणदव्योमोयरिया अणेगविद्या पण्णत्ता ) यह भक्तपानद्रव्यावमोदरिका अनेक प्रकार की कही गयी है, ( त जहा ) वे प्रकार ये है- (अट्ठ-कुक्कुडिथंडगप्पामाणमेते कवले आहारमाणे अप्पाहारे) प्रथम भेद अल्लाहार है, इसमे દનતા વસમા એકજ વસ્ત્ર રાખવુ જેમ ઈ ચેાલપટ્ટ રાખે છે તે તે તે જ રાખે, ખીજી વજ્ર રાખી શકે નહિ બીજા પ્રકારમા એક જ પાત્ર રાખવુ ખીજી ( દ્વિતીયાદિક ) પાત્ર નહિ જે અવમેરિકામા ઉપકરણની આસક્તિ ત્યક્ત થઈ જાય છે તે તેને ત્રીજો પ્રકાર છે અર્થાત્ ભાડાપકરણમાં મૂર્છાને પરિત્યાગ ( से त अगरणद ज्योमोयरिया) से प्रारना भी नयु लेह ५४२शुद्रव्याच मोहरिवाना असा छे (से किं त भत्तपाणदव्योमोयरिया ) प्रश्न-लतानद्रव्याव મેરિકા શુ છે ? અર્થાત્ ભક્તપાનદ્રવ્યાવમેરિકાના જેટલા પ્રકાર છે ? (भत्तपाणदव्वोमोयरिया अणेगविहा पण्णत्ता) भा ભકતપાનદ્રશ્યાવમારિકા अरनी महेली छे, (तजहा) ते या प्रारे छे - (अट्ठ कुकुडियडगप्पमाण मेकवले आहारमाणे अप्पाहारे) प्रथम मयाहार छे तेमा मुदाना डा Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूपवर्षिणी-टीका सू० ३० अयमोदरिफातपोवर्णनम् भोडत्ति वत्तव्वं सिया। से तं भत्तपाणदव्योमोयरिया । से तं दव्योमोयरिया। से किं तं भावोमोयरिया ?भावोमोयरिया अणेगविहा पण्णत्ता; तं जहा-अप्पकोहे १, अप्पमाणे २, अप्पमाए ३, लेभ्य -एकेनाऽपि प्रासेनोनकमाहारमाहरन् श्रमणो निम्रन्यो नो प्रकामरसभोजी-नात्यन्तभोजनशीलोऽस्तीति वक्तव्यम स्यात , अय भार -किंचिदूनावमोटरिका तपस्या कुर्वन् 'प्रकामभोजी' इति नोच्यते इति । 'से त भत्तपाणदव्योमोयरिया' मैषा भक्तपानद्रव्यावमोदरिका । अत पर भावाऽमोट रिकामाह-'से किंत भावोमोयरिया' अथ का सा भावाऽवमोदरिका ? 'भावोमोयरिया अणेगविहा पण्णत्ता' भावाऽमोटरिका अनेकविधा प्रजप्ता, 'तं जहा' तयथा 'अप्पकोहे' अपक्रोध -क्रोधन क्रोध -कोपमोहनीयोदयसम्पाद्य अक्षमापरिणतिरूप , अन्पगन्दाऽत्र प्रतनुवाचक -तेन अप -स्वप क्रोध --अ-पक्रोध । 'अप्पमाणे निग्रंथ एक कपल भी आहार कम करते हैं वे पकामभोजी नहीं है, अर्थात् जिह्वाइन्द्रिय के विजेता है-ऐसा समझना चाहिये । (से त भत्तपाणदलोमोयरिया) इस प्रकार यहा तक भक्तपानद्रव्यावमोदरिका का कथन किया, अर्थात् इस पूर्वोक्त प्रकार से भक्तपानद्रव्यावमोदरिका का स्वरूप है । (से त दवोमोयरिया) इस प्रकार यह व्यावमोदरिका का स्वरूप है । यहा से आगे अन भावावमोदरिका का कथन करते है-(से किं त भावोमोयरिया ?) प्रश्न-यह भावावमोदरिका क्या है। कितने प्रकार की है। (भावोमोयरिया अणेगविहा पण्णता) उत्तर-भावावमोदरिका अनेक प्रकार की कही गई है, (त जहा) जैसे-(अप्पकोहे ) अल्पमोध-अक्षमापरिणतिका नाम क्रोध है, अल्पशब्द प्रतनुवाची है, अर्थात् क्रोधकपाय मे अल्पता करना । (अप्पએક કેળિયે પણ આહાર ઓછો કરે તે પ્રકામ નથી, અર્થાત જીભधद्रियना विजेता छ-सभ समापु नये (से त भत्तपाणदव्योमोयरिया) से પ્રકારે અહીં સુધી ભક્તપાનદવ્યાવદરિકાનું કથન કર્યું, અર્થાત્ એ पूर्वरित प्रहारे सतपानद्रव्यापारिनु २१३५ छ (से त व्वोमोयरिया) આ પ્રકારે આ દ્રવ્યાવમોદરિકાનું સ્વરૂપ છે અહિથી આગળ હવે ભાવાपमहरिनु ४थन ४२ छ-(से कि त भावोमोयरिया १) प्रश्न--21 सापावभावरिया शु, रक्षा प्रा२नी उपाय ? (भागोमोयरिया अणेगविहा पण्णत्ता) SuR भावामहरि ध। ४२नी ४उवाय छ (त जहा) भ (अप्पक्कोहे) અલ્પકોધ, અક્ષમા-પરિણતિનું નામ કોધ છે, અ૫ શબ્દ પ્રતનુવાચી छे-मर्थात् डोधायमा अपार (भाछु) २९ (अप्पमाणे अप्पमाए Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ अपपातिक माणमेत्ते कवले आहारमाणे पत्तोमोयरिया ४, एकतीसं कुक्कुडियंsatमाणमेते कवले आहारमाणे किंचूणोमोयरिया ५, बत्तीसं डगप्पमाणमेत्ते कुक्कुडियंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारमाणे पमाणपत्ते, एत्तो एगेण विघासेणं ऊणयं आहारमाहारेमाणे समणे निग्गंथे जो पकामरसआहारमाणे पत्तोमोयरिया' - चतुतिंगति कुक्कुटाण्डकप्रमाणमानान् कालान् आहरन् प्राप्ताऽवमोदरिका द्वात्रिंशकनलाना चतुर्थांशन्यूनमाहारम् अहरन् यो भवति, तस्य स आहार प्राप्तावमोदरिका - पादमात्रानतया प्राप्तेना मोदरिका प्रामावमोदरिका भवति ||४| 'एकतीस कुक्कुडियडगप्पमाणमेते कवले आहारमाणे किंचूणोमोयरिया' एकत्रिंशत कुक्कुटाण्डकप्रमाणमानान् कवलान् आहरन् यो भवति तस्य किञ्चिदूनाव मोदरिंका = कबलैकन्यूनाथऽमोदरिका भवति ||५|| 'बत्तीस कुक्कुडियगप्पमाणमेत्ते कवले आहारमाणे पमाणपत्ते' द्वात्रिंशत कक्कुटाण्डप्रम्गणमात्रान् कबलान आहरन् प्रमाणप्राप्त = प्रमाणप्रमिताSssहारयुक्तो भवतीत्यर्थ, 'एतो एगेण वि घासेण उणय आहारमाहारेमाणे समणे निग्थे णो पकामरसभोइत्ति वत्तव्यं सिया' इत एकेनापि ग्रासेन ऊनकम् आम् ह आहरन् श्रमणो निर्ग्रन्थो नो प्रकामरसभोजीति वक्तव्य स्यात् इत - एतेभ्य द्वात्रिंशत्कव - पत्तोमोयरिया) चौथा भेद प्राप्तावमोदरिका है, इसमे कुक्कुटाण्डप्रमाण २४ कपलों का आहार किया जाता है (४) । (एकतीस कुकुडियडगप्पमागमेते कवले आहारमाणे किंचूगोमोयरिया) पाँचवा भेद किंचित्-न्यून - अमोदरिका है । इसमे कुक्कुट अड प्रमाण ३१ कवलों का आहार लिया जाता है । ( वत्तीस कुबुडियडगप्पमाणमेते कवले आहारमाणे पमाणपत्ते) ३२ - कवल - प्रमाण आहार करना पर्याप्त आहार है । यह अवमोदरिका तप नहीं है | ( एतो एगेणवि घासेण ऊणय आहारमाहारेमाणे ममणे निग्गथे जो पकामरसभोइत्ति वत्तन्न सिया) ३२ कवलप्रमाण आहार में से जो श्रमण મેરિકા છે. એમા કુકડાના ઈંડા જેવડા ૨૪ કાળિના આહાર કરાય છે (४) (एकतीस कुक्कुडियडगप्पमाणमेत्ते वाले आहारमाणे किंचूणोमोयरिया) पाथभा ભેદ્ય કિચિત-ન્યૂન-અવમેરિકા છે તેમા કુડાના ઇંડા જેવડા ૩૧ કાળિના આહાર લેવાય છે (बत्तीस कुक्कुडियडगप्पमाणामेत्ते कवले आहारमाणे पमाणपत्ते ) ३२ अजिया नेटो आहार ४२ मे भर्यादा है आ अपभदृरि तप नथी (एतो एगेणवि घासेण ऊणय आहारमाहारेमाणे समणे निग्गथे णो पकामरसभोइत्ति वत्तव्य सिया) ३२ जेजिया नेटसा भाडारभाथी ने श्रम विथ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूपयपिणी-टीका सू. ३० भिक्षाचर्यातपोवर्णनम् २१७ खेत्ताभिग्गहचरए २, कालाभिग्गहचरए ३, भावाभिग्गहचरए १, उक्खित्तचरए ५, णिरिखत्तचरए ६, उक्खित्तणिक्खित्तचरए ७, चनि-भिभामटनि, न्याश्रिताऽभिग्रह वा चरति-आसेवते य म द्रव्याभिग्रहचरक , इह च भिक्षाचर्याया प्रकान्ताया यद इत्याभिग्रहचरक टयुक्त तद्धर्मपर्मिणोरभेदपिवक्षणात् । यामिग्रहश्च टपकतानिद्रव्यविषय !। 'खेत्ताभिग्गहचरए' क्षेत्राऽभिग्रहचरक क्षेत्राऽभिग्रह 'अमुस्थाने ग्रहोयामि' हयादिरूप २१ 'कालाभिग्गहचरए' कालाभिग्रहचरक, कालामिग्रह -पाहणादिविषय । ३ । 'भावाभिग्गहचरए' भागभिग्रहचरक -भागामिग्रहो-- गानहसनादिप्रवृत्तपुरपादिविषय , तेन चन्तीति । ४ । 'उक्खित्तचरए' उक्षिमचरक - उक्षिप्त-गृहस्थेन स्वप्रयोजनाय पाकभाजनादुद्धत तदर्थमभिग्रहतश्चरति--गच्छतीयुक्षिप्तचरक । १५! 'गिकियत्तचरए ' निश्मिचक-निक्षिप्त-पाकाविभाजनादृत्य अन्यभाजने स्थापित, तदर्थमभिग्रह कमा चरति-इति निक्षिपचरक 11 'उक्खित्त-णिक्वित्त-चरए' उक्षिप्तनिक्षिपचरक-पाकभाजनादुक्षिप्त तदेव अन्यत्र स्थाने निक्षिप्त यत् तदुक्षिप्तनिक्षिप्तम् , मिलेगी तो ही लूगा, अन्यथा नहीं । भिक्षाचर्या का यद्यपि प्रकरण है, परन्तु जा " द्रव्याभिग्रहचरक" ऐसा निर्देश किया है वह धर्म और धर्मी म अभेद की विरक्षासे ममझना चाहिये । २ क्षेत्राभिग्रहचरक-अमुक स्थान म मिलगा तो लूगा । ३ कालाभिग्रहचरकअमुक समय में लूगा । ४ भावारिग्रहचरक-अमुक प्रकार का दाता देगा तो लूगा । ५-(उक्खित्तचरए) उक्षिपचरक-गृहस्थने पाकभाजन से अपने लिये निकाला हो, उसमें से यदि देगा तो लूगा । (६) (निक्खित्तचरए) निक्षिपचरक-गृहस्थने पाक भाजन से निकाल कर अन्य भाजन म रस दिया हो, उसमे से देगा तो लूगा । ७-(उक्खित्त ભિગ્રહચરક-મુનિ અભિગ્રહ કરે છે કે મને જે અમુક વસ્તુ ભિક્ષામાં મળશે તે જ હ લઈશ, બીજી નહિ ભિક્ષાચર્યાનું છે કે પ્રકરણ છે, પરંતુ જે “વ્યાભિગ્રહચરક” એમ નિર્દેશ કરે છે તે ધર્મ અને ધીમા અભેદની વિવક્ષાએ સમજવું જોઈએ [૨] ક્ષેત્રાભિગ્રહચરક-અમુક સ્થાનમાં મળશે તે લઈશ, [3] सालियडय२४-भु समयमा सश, [४] लावालियडय२४-मभु४ भारने हात मायरी तो UR, N] (उक्सित्तचरए) लक्षितय२४-गृहस्थे રાધવાના પાત્રમાથી પિતાને માટે કાઢેલું હોય તેમાથી જે આપશે તે લઈશ, [] (निस्पित्तचरए) निसिय४- गवाना पात्रमाथी उtढीन मील पासभा राजी हाधु डाय तमाथी मायशेत सA [७] (उक्सित्त-निक्सि Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ अप्पलोहे ४, अप्पसद्दे ५, अप्पकलहे ६, अप्पझंझे ७से तं भावोमोयरिया । से तं ओमोयरिया। से किं तं भिक्खायरिया ? भिक्खायरिया अणेगविहा पण्णत्ता; तं जहा-दव्याभिग्गहचरए १,, अपमान -जात्यादगिमानराहित्यम् । 'अप्पमाए' अन्यमाया, 'अप्पलोहे' अपलोम,'अप्पसद्दे' अल्पशब्द ,-'अप्पकलहे' अन्धकलह कलहाभान , 'अप्पझझे अपझञ्झ = परस्परभेदोत्पादकवचन-यापारो झञ्झ, तस्याभार । ' से त भावोमोयरिया' सैपा भावाऽवमोदरिका । ‘से त ओमोयरिया' सैपाऽवमोदरिका । से किं तं भिक्खायरिया' अथ का सा भिक्षाचा, 'भिक्खायरिया अणेगविहा पण्णत्ता' भिक्षाचर्या अनेकविधा प्रज्ञता, 'त जहा' तद्यथा-दन्वाभिगहचरए' द्रव्याभिग्रहचरक -द्रव्याऽऽश्रिताभिग्रहेण 'अमुकवस्तु ग्रहोप्यामि' इति रूपेण माणे अप्पमाए अपलोहे अप्पसदे अप्पकलहे अप्पझंझे) मान को अन्य करना, माया को अन्य करना, लोभ को अन्य करना, शब्द को अप करना अर्थात् कम बोलना, कलह को अल्प करना-अभाव करना, झझा को अर्थात्--गण में जिस वचन से छेद-भेद उत्पन्न होता है उस वचनका अल्प करना--अभाव करना, यहाँ पर 'अन्य' शन्द अभावार्थक है । (से तं भावोमोयरिया) ये सभी भावावमोदरिका है । (से तं ओमोयरिया) यह अवमोदरिका तपमा वर्णन मपूर्ण हुआ। (से कि त भिक्खायरिया ?) भिक्षाचर्या क्या है--कितने तरह की है ? उत्तर--(भिरखायरिया अणेगविहा षण्णता) भिक्षाचर्या अनेक तरह की कही गई है। (त जहा) जैसे (दवाभिग्गहचरए, खेताभिग्गचरए, कालाभिग्गहचरए भावाभिमाहचरए) १ द्रव्यामिगहचरक-मुनि अभिग्रह लेता है कि मुझे जो अमुक वस्तु भिक्षा में अपलोहे अप्पस अप्पकलहे अप्पझझे) भान १८५(माछु)४२७, माया १८५ ४२वी, લોભ અલ્પ કર, શાદ અલ્પ કરવા અર્થાત્ ઓછુ બેલવું, કલહ (કકાસ) ઓછા કરવા, ઝઝા અથાત્ તેઓના સમૂહમા જે વચનેવી છેદ-ભેદ ઉત્પન્ન याय सेवा वयन नही माता, (से त भायोमोयरिया) २ पा मापापमहरित कसे त ओमोयरिया) 21 अपरिक्षा त५नु न स पूषु च्यु सति भिसायरिया) लिया २-३८३ तनी छ ? उत्तर (भिस्सा रिया अणेगविहा पण्णता) मिक्षायर्या भने उजतनी ४ाय छ (त जहाभ (दव्याभिगहचरए, खेत्ताभिग्गहचरए, कालाभिग्गहचरए, भाषाभिग्गहचरए) १ द्रव्या Amravaaneeeee Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषषिणी-टीका सू. ३० भिक्षाचर्यातपोवर्णनम् २१७ खेत्ताभिग्गहचरए २, कालाभिग्गहचरए ३, भावाभिग्गहचरए ४, उक्खित्तचरए ५, णिक्खित्तचरए ६, उक्खित्तणिक्खित्तचरए ७, चरति-भिक्षामटति, द्रव्याश्रिताऽभिप्रह वा चरति-आसेवते य स द्रव्याभिग्रहचरक , इह च भिक्षाचर्याया प्रकान्ताया यद द्रव्याभिग्रहचरक इयुक्त तद्धर्मधमिणोरभेदविवक्षणात् । द्रव्याभिग्रहच लपकतादिद्रव्यविषय ।१। 'खेत्ताभिग्गहचरए' क्षेत्राऽभिग्रहचरक -क्षेत्राऽभिग्रह 'अमुकस्याने ग्रहोप्यामि' दयादिरूप ।२। 'कालाभिग्गहचरए' कालाभिग्रहचरक, कालाभिग्रह -प्राणादिविषय ।३ । 'भावाभिग्गहचरए' भाषाभिग्रहचरक -भावाभिग्रहो-- गानहसनादिप्रवृत्तपुरुषादिरिषय , तेन चरतीति । ४ । 'उक्खित्तचरए' उत्क्षिप्तचरक - उक्षिप्त-गृहस्थेन स्वप्रयोजनाय पाकभाजनादुद्धत तदर्थमभिग्रहतश्चरति-गच्छतीयुक्षिप्तचरक । 1५। 'णिरिपत्तचरए ' निक्षिपचरक --निक्षिप्त-पाकादिभाजनादुद्धृत्य अन्यभाजने स्थापित, तदर्थमभिग्रह कृवा चरति-इति निक्षिमचरक । 'उक्खित्त-णिक्खित्त-चरए' उक्षिप्तनिक्षिप्तचरक -पाझमाजनादुक्षिप्त तदेव अन्यत्र स्थाने निक्षिप्त यत् तदुक्षिप्तनिक्षिप्तम् , मिलेगी तो ही लुगा, अन्यथा नहीं । भिक्षाचर्या का यद्यपि प्रकरण है, परन्तु जा " द्रव्याभिग्रहचरक" ऐसा निर्देश किया है वह धर्म और धर्मी में अभेद की निरक्षासे समझना चाहिये । २ क्षेत्राभिग्रहचरक-अमुक स्थान में मिलेगा तो लूगा । ३ कालाभिग्रहचरकअमुक समय म लूगा । ४ भावागिग्रहचरक-अमुक प्रकार का दाता देगा तो लूगा । ५-(उक्खित्तचरए) उक्षिप्तचरक-गृहस्थने पाफभाजन से अपने लिये निकाला हो, उसमें से यदि देगा तो लूगा । (६) (निक्खित्तचरए ) निक्षिप्तचरक-गृहस्थने पाफ भाजन से निकाल कर अन्य भाजन मे रस दिया हो, उसमे से देगा तो लूगा । ७-(उक्खित्त ભિગ્રહચરક-મુનિ અભિગ્રહ કરે છે કે મને જે અમુક વસ્તુ ભિક્ષામાં મળશે તે જ હું લઈશ, બીજી નહિ ભિક્ષાચર્યાનું છે કે પ્રકરણ છે, પરંતુ જે “દ્રવ્યાભિગ્રહચરક” એમ નિર્દેશ કરેલો છે તે ધર્મ અને ધીમા અભેદની વિવક્ષાએ સમજવું જોઈએ [૨] ક્ષેત્રાભિગ્રહચરક-અમુક સ્થાનમાં મળશે તે લઈશ, [૩] કાલાભિગ્રહચરક-અમુક સમયમાં લઈ શ, [૪] ભાવાભિગ્રહચરક-અમુક ५२ने हात पाप तो UA, [] (उक्सित्तचरए) लक्षितय२४-डरथे રાધવાના પાત્રમાથી પિતાને માટે કાઢેલું હોય તેમાથી જે આપશે તે લઈશ, [६] (निक्सित्तचरए) निसिय ४-१२ये गधवाना पात्रमाथी ढीन. मीन पामशुमा रामी हाधु डाय तमाथी मापशे ताश [७] (उक्सित्त-निक्सि Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओपपातिकसूत्रे णिक्खित्तउक्खिसचरए ८, वहिजमाणचरए ९, साहरिजमाणचरए १०, उवणीयम्वर ११, अवणीयचरए १२, उवणीय-अवणीयचरण तदर्थमभिग्रहतश्चरति स उत्क्षिमनिक्षिमचरक इत्युच्यते | ७| 'णिक्खित्त- उक्सिन-चरए ' निक्षिप्तोक्षिप्तचरक -- निक्षिप्त-पाकभाजनादन्यन स्थापितमुक्षिप्त - तदेव पुनरद्धृत हस्ते गृहीत, तदर्थमभिग्रह कृत्वा चरति स निक्षिप्तोत्क्षिप्तचरक |८| 'बडिजमाणचरए' पर्य मानचरक -वर्यमान परिनिष्यमाणं ग्रहीतु चरति स वर्यमानचरक | ९| 'साह रिजमाणचरए' महियमाण चरक -- अत्युष्ण व्यञ्जनसूपादि शीतलीकरणाय स्थाच्यादिषु विस्तारित तपुनर्भाजने क्षिप्यमाण सहियमाणमुच्यते, तद् ग्रहीतु चरति इति सहियमाणचरक |१०| 'उवणीयचरत् ' उपनीतम् = अन्येन केनचिद् गृहस्थाय प्रेषित यत् तदुपनीत, तदेव ग्रहीतु चरति इत्युपनीतचरक |११| 'अवणीयचरए' अपनीतचरक -अपनीत गृहस्थेन अन्यस्मै कस्मै चितु निक्खित-चाए ) उक्षिप्तनिक्षितचरक - दाताने पहले पाकभाजन से अन्नादिक निकाला, फिर उसको उसने अन्य पात्रमे रखा, उसमें से यदि देगा तो लूगा । ८- ( निक्खित्तउक्ति - चरए ) निक्षिप्तउत्क्षिमचरक - दाताने पाकभाजन से अन्नादिक को निकाल कर दूसरे पात्र में रख दिया हो, उसोको हाथ मे उठाया हुआ हो, उससे यदि देगा तो लगा । ९ ~ (वहिज्ज माणचरए) वर्त्यमानचरक - दाता द्वारा परोसी जाती हुई वस्तु म से देगा तो लूगा । १०- ( साहरिज्जमाणचरण) सहियमाणचरक - दाताने उष्ण व्यञ्जन एव सूपादिक को ठंडा करने के लिये स्थाली आदि मे रखा, फिर उस व्यञ्जनाविक को उसी पात्र में रसता हुआ उसमें से देगा तो लूगा । ११ - - ( उरणीयचरए) उपनीतचरक - दाता से मै उसी पदार्थ को लूगा जो उसके लिये अन्य किसी व्यक्तिने भेजा होगा । १२ ( अवणीयचरए) अपनीतचरक मे दाता मे वही पदार्थ लूगा जो उसने अन्य किसी तचरए) उत्क्षिप्तनिक्षिप्तथर-हाताये पडेला राघवाना वासाणुभाथी अन्नाहि કાઢયુ પછી તેને તેણે ા વાસણા રાખ્યુ હોય, તેમાથી એ આપશે તે सर्धश [८] (चट्टिज्जमाणचर) पर्त्यमानय२४ हाता द्वारा परिभवामां आवती वस्तुभाथी आप तो सरा [१०] ( साहरिज्जमाणचरए) मरियमाशुथर:દાતાએ ગરમ વ્યંજન તેમજ સૂપ (દાલ) આદિ ને ઠંડા કરવા માટે થાળી આદિમા રાખ્યા હોય, પછી તે વ્યંજન આદિકને તે જ પાત્રમાં રાખતા તેમાથી सायशे तो अर्धश [११] ( अणीयचरए) पनीर - हाता पासेधी એ જ પદાથ લઈશ કે જે ખીજા ઇએ તેને માટે મેકવ્યેા હાય [૧] ( अवणीयचरए) अपनीतयर-हु हाता पाथी ते पदार्थ सहा ૨૫૮ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूपयापंणो-टीका मू. ३० भिक्षाधर्यातपोवर्णनम् २१९ १३, अवणीय-उवणीयचरए ११, संसहचरए १५, असंसहचरए १६, तज्जायमंसहचरए १७, अण्णायचरए १८, मोणचरए १९, नि मायान्गत्र स्थापित तदेव अपनीत, तार्थ चरति--इयपनीतचरक ।१२। 'उवणीयअवणीय-चगए' उपनीनापनीनचरक -यदेव उपनीतम्-अन्येन प्रेपित तदेव अपनीत स्थानान्तरे स्थापित नद ग्रीनु चरति दयुपनीताऽपनीतचरक 1१३। 'अवणीय-उपणीय-चरए' अपनीतोपनानचक -अपनीतम् कम्मै निन अन्यस्मै दातु नि मायांन्यत्र स्थापित, तदेव उपनीत यस्य गृहस्थम्य मी प्रेषित तम्य गृहस्थम्य गृह प्रापित तदपनीतोपनीत, तन्थ चरतीयपनीतोपनीनचरक ।१३। 'ससढचरए' ससृष्टचरक -ससृष्टेन परण्टितेन हस्तादिना टीयमान ससृष्टमुध्यते, तद् प्रहातु चरति-इति ससृष्टचरक ।१५। 'अससद्धचरए' अससृष्टचकअससृष्टेन अमरण्टितेन चरति-दत्यससृष्टचरक । १६ । 'तन्जायससट्टचरए' तजातमसृष्टचरक -तनातेन परिविष्यमाणद्रव्येण यत्ससृष्ट हस्तादि, तेन दीयमान वस्तु ग्रहीतु यदुमरे को देने के लिये निकाल कर रख दिया होगा । १३-(उवणीय-अत्रणीय-चरए) उपनी-अपनीतचरक-में वही पदार्थ लगा जो उस दाता के लिये किसी दृमरेने उसके पाम गाना होगा. और दाताने उसी पदार्थ को यदि दूसरे को देने के लिये एक तरफ म रहा होगा । १४-(अवणीय-उवणीय-चरए) अपनीतउपनीतचरक-किसी गृहस्थने किसी व्यक्ति को देने के लिये अन्नादिक अन्यत्र स्थापित कर रम्बा होगा और उसको उसने उसके या भेज दिया होगा, तथा वह उसके घर भी पहुंच चुका होगा, उममें से देगा तो लूगा । १५-( संसहचरए) ममृटचरक-भरे हुए हाथ से देगा तो लूगा । १६-(जमसहचरए) आगमृष्टचरक-विना मरे हुए हाथ से देगा तो लूगा । १७ (तन्नायससहचरए) तज्जातममृष्टचरक-हाथ जिस चीज से ससष्ट भरा रहा होगा वही चीज यदि तो ofins माधुसन पाने भाटे ४ढी राय [13] (उपणीयअरणीयचगा) पनीत-सपनीत-५२४- पहा બીજાએ તે દાતાને માટે તેની પાએ મેક હોય અને દાતાઓ તે જ પદાર્થને उई मीतने वा माटे ४ १२५ राणी भूश्या डाय [१४] (अवणीय उमणीयचरए ) मपनीत-नीत-य२४-डी उत्थे 81 व्यतिने हेवा भाटे અનાદિક બીજે ઠેકાણે રાખી મુકેલ હોય અને તે તેણે તેને ત્યાં મોકલી દીધુ હેય અને તે તેને ઘેર પણ પહોંચી ગયું હોય તેમાથી આપશે તે લઈશ [१५] (मसट्टचरए) ससष्टय ४-४ माहिथी सरेसा पायथी मापसे तो PUN (१६) (अससदृचरप) भस सध्य२३ ११२ मरेसा हाथी माप ते ७A Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे दिट्ठेलाभिए २०, अदिलाभिए २१. पुलाभिए २२, अपुलाभिए वरति स तज्जातम्मसृष्टचररु |१७| अण्णायचरए ' अज्ञातचरक -अज्ञातम् - अज्ञात साधुनियम कुल चरति य सोऽज्ञातचरक । १८ । 'मोणचरए' मौनचरक - मौनम् - वाक्मयमन, तेन चरति यस मौनचरक | १९| ' दिट्ठलाभिए ' दृष्टलाभिक - दृष्टस्यैव भक्तादेर्लाभो दृष्टलाभ, यद्वा दृष्टात्प्रथमदृष्टादेव दातुर्गृहाद्वा लामो दृष्टलाभ, सोऽस्ति यस्य स दृष्टलाभिक | २० | 'अदिट्ठलाभिए ' अटलाभिक अध्टस्य- आवरणाऽऽच्छादितस्य दात्रादिभि कृतोपयोगस्य भक्तादेर्लभ, अथवा अदृष्टात् = पूर्वं कदापि न दृष्टाद् दायकालाभ, सोऽस्याऽस्तीत्यदृष्टलाभिक | २१ | 'पुलाभिए ' पृथ्लाभिक - भिक्षार्थं समागत य साधु ‘भो साधो ! त्व किमिच्छसि'' एवं कश्चिद् गृहस्थ पृच्छति स पृष्ट इत्युच्यते, तस्य साधोमुझे देगा तो लूगा । १८ -(अण्णायचरए) अज्ञातचरक - जो साधुओं के नियमों से अनभिज्ञ होगा उसी कुल की मैं भिक्षा लूगा । १९ - (मोणचर (ए) मौनचरक - मैं वहीं से भिक्षाप्राप्त करूँगा जो मेर विना बोले मुझे भिक्षा लाकर देगा । २० - (दिट्ठलाभिए) घटलाभिक- मैं वही भिक्षा लूगा जो सर्वप्रथम मेरी दृष्टि मे आवेगी, अथवा मैं उसीसे भिक्षा लूगा जो सर्वप्रथम मुझे दिखाई देगा, अथवा मैं उसी स्थान से भिक्षा लूगा जो सबसे पहिले मुझे दिख जायगा । २१ - ( अदिट्ठलाभिए) अदृष्टलाभिक - जो अशनादिक आवरण से आच्छादित होने की वजह से दिसलाई तो न पडे, परन्तु दाता उसे अपने उपयोग में ला चुका हो, उसमें से भिक्षा देगा तो लूगा, अथवा - जिस दाता को मै पहिले कभी भी नहीं देखा वह देगा तो लूँगा । २२ - ( पुलाभिए) पृष्टलाभिक - दाता यदि पूछेगा, २२० ' [१७] ( तज्जायससद्वचरए) तलतस सृष्टथ२४-हाथ ने थीथी ससृष्ट थ लय ते चीन ले भने सायशे तो सशि (१८) ( अण्णायचरए) अज्ञातथर४સાધુઓના નિયમાથી અજ્ઞાત હેાય એવા કુળની હુ ભિક્ષા લઈશ (૧૯) (मोणचरए) भौनथ२४ - हु तेना पामेथी लिक्षा सशि ने भारा मोट्या विना भने लिक्षा साथीने साथी हेशे (२० ) ( दिट्ठलाभिए ) दृष्टसालिए-हु એ જ ભિક્ષા લઈશ કે જેને હું સર્વથી પહેલા જોઇશ અથવા હુ તેના જ હાથથી ભિક્ષા લઈશ જે માણુસ મારે સર્વપ્રથમ જોવામા આવશે, અથવા હુ તેજ જગ્યાથી ભિક્ષા લઈશ જે જગ્યા માટે સર્વપ્રથમ દેખાશે (૨૧) ( अदिलाभिए ) अदृष्टसालिङ भावाना पहाधेो ढालाथी ढाडेसा होवाना કારણથી દેખાય નહિ પણ દાતા તેને પોતાના ઉપયોગમા લાની ચૂકેલા હોય તેમાથી ભિક્ષા આપશે તે લઇશ અથવા જે દાતાને મે પહેલા કદી જોયેલા न होय ते खाय तो सरा (२२) (पुदुलाभिए ) पृष्टसालिङ छाता ले Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२१ पीयूषषिणी टीका रु ३० भिक्षाचर्यातपोषर्णनम २३, भिक्खालाभिए २४, अभिक्खालाभिए २५, अण्णगिलायए स्तस्माद् गृहस्थाद् यो लभ स पृष्टलाभ , सोऽस्याऽनीति पृष्टलाभिक ।२२। 'अपुदुलाभिए' अपृष्टलाभिक केनचिद् गृहस्थैनाऽपृष्टस्यैव साधोर्यस्तस्माद् गृहस्थालाभ सोऽपृष्टलाम , सोऽस्याऽन्तो यपृष्टलाभिक ।२३। 'भिक्मागभिए' भिक्षालाभिक -कस्यचित् क्षेत्राद् गृहादा याचिया गृहस्येन समानीततुटवलच गफकोदवादिकनिष्पादित आहारो भिक्षा, तस्या लामोऽस्यास्तीति मिक्षालाभिक १२४। 'अभिक्खालाभिए' अभिक्षालाभिक -- अयाचितलाभ -अभिक्षा, तस्या लाभोऽम्याऽस्ती यभिक्षालाभिक ।२५। 'अण्णगिलायए' अन्नग्लायक -अन्नेन-आहाग्ग विना ग्लायक , गत्रिनिष्पन्नमन्न ग्रहीयामी ययग्रह कृत्वा मिक्षाचरक इत्यर्थ , पर्युपितानभिक्षाचरक इति भार ।२६।'ओषणिहिए' औपनिहितिकउपनिहित-कथश्चिद् गृहस्थेन स्वसमीपे समानीतमन्नादिकम् , तेन चरति इत्योपनिरितिक महाराज! आप क्या चाहते हैं, तभी लूँगा । २३-(अपुटलाभिए) अष्टाभिक-दाता यदि नहीं पूछेगा तभी लूँगा । २४-(भिक्खालाभिए) भिक्षालाभिक-दाता गृहस्थ बाल चना एव कोढव आदि अन्न को किसी के खेत से अथवा किसी के घर से माग कर लाया होगा उस अन्न से निष्पादित आहारमं से यदि देगा तो लूगा । २५ (अभिक्खालोमिए) अभिक्षालाभिक-दाता माँग कर जो पदार्य नहीं लाया होगा उसमें से देगा तो लूंगा। २६-(अनगिलायए) अन्नग्लायफ-जो अगनादिक रात्रिमें पकाया गया होगा वही लूगा, अर्थात्-पर्युषित अन्न की भिक्षा लेने का अभिग्रह लेनेवाला सयमी जन अन्नग्लायक है। २७ (ओवणिहिए) औपनिहितिक-गृहस्थ अपने समीप में किसी प्रकार से लाया गया अगनादिक में से देगा तो लूँगा । २८-( परिमियपिंड पृशे भाग | आपने सुन छ त्यारे श (२३) (अपुट्ठलाभिए) मसालि-हता ने नहि पूछ तो १ सश (२४) (भिक्खालाभिए) ભિક્ષાલાભિક-દાતા ગૃહસ્થ જે વાલ ચણા તેમજ કેદરા આદિ અનાજ ઈના ખેતરથી અથવા કેઈને ઘેરથી માગીને લાવ્યા હોય તે અન્નથી બનાવેલા આહાર भाथी मापशे तो श (२५) (अभिस्सालाभिए) मभिक्षासालि-हातामे भाभीने २ पहाथ नही दाव्या डायतमाथी आप तो सध्श (२६) (अन्नगिलायए) અન્નગ્લાયક–જે ભજન રેતમાં રાધેલુ હશે તે જ લઈશ-અર્થાત્ વાગી અન્નની लिमा पानी भलियड ना२ सयभान सन्नसाय छे (२७) (ओवणिहिए) ઓપનિહિતિક-ગૃહસ્થ પિતાની સમીપમાં કોઈ પણ પ્રકારે લાવેલા ભેજનમાથી Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨૨ ओपपातिकमत्र' २६, ओवणिहिए २७, परिमियपिडवाइए २८, सुद्धेसणिए '२९, संखादत्तिए ३०। से तं भिक्खायरिया ॥ सू. ३०॥' ।२७। 'परिमियपिंडवाइए' परिमितपिण्डपातिक -परिमितपिण्टस्य - प्रमागोपेनपिण्टस्य पातो लाभ परिमितपिण्डपात , सोऽस्यास्तानि परिमितपिण्डपातिक -आधाकर्मादिदोपरहित भक्तादिकमेकस्माद् गृहायदि पर्याप्त लभ्येत तदा ग्राह्यम्-इत्यभिग्रहवान ।२८। 'मुद्देसणिए' शुद्धैपणिक -शुद्धै पगा-गादिदोषरहितता, शुद्धस्य-उद्गमादिदोषरहितस्य या एपणा, साऽस्याऽस्तीति शुद्धैपणिक , सर्वथा शुद्रमेव माद्यमित्यभिग्रहधाराति भाव ।२९। सग्यादत्तिए' सरयादत्तिक -सर याप्रधाना दत्ति मायादत्ति , तया चरतीति सरयादत्तिक । दवींकटोर कादितोऽविच्छिन्नधारया या भिक्षा पतति सा, तथा-कक्षेपरूपा च भिक्षा दत्तिरित्युच्यते ।३०। 'से त भिक्खायरिया' सैया भिक्षाचया ॥ सू ३० ॥ वाइए ) परिमितपिण्डपातिक-आधाकर्मादिक दोपों से रहित भक्तादिक यदि एक ही गृह से पर्यातमात्रा मे मिल जाय तो हँगा । २९ (सुद्धेसगिए ) शुद्वैपगिफ-शकादिक दोपों से रहित अथवा उद्गमादिक दोपों से वर्जित आहार लेने वाला । ३० (सावादत्तिए). सरयादत्तिक वह है जो इस प्रकार का सकल्प करता है कि दर्वी-कडछी एव कटोग. आदि से अविच्छिन्न धारारूप में जो भिक्षा मेरे पान मे पड जायगी उतना हा निक्षा । ग्रहण करू गा ।(सेत मिक्वायरिया) मिक्षाचर्या के ये ३० भेद है ।। सू० ३०॥ मापशे त श (२८) (परिमियपिंडवाइए) परिभितपि उपाति-माधाકર્મ આદિક દેથી રહિત ભકતાદિક જે એક જ ઘેરથી પુરતા પ્રમાણમાં भणी नय त (२८) (सुद्धसणिए) शुद्धपणि-२४४ मा पोथी सहित मया माहित होपोथी परित साहा२ वा ३० (ससादत्तिए) ત્તિક તે છે કે જે એવો સંકલ્પ કરે છે કે દેવી-ડી તેમજ કરી આદિથી સતત ધારારૂપમાં જેટલી પણ ભિક્ષા મારા પાત્રમા પડી જશે की मिक्षा ave (से त भिम्पायरिया) लिहायर्यान२१ 30 लेटर छ (सू ३०) Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषयषिणी-टीका स ३० रमपरित्यागतपोवर्णनम ૨૨ मूलम्-से कि नरसपरिच्चाए? रसपरिच्चाएअणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा १ निविडाए, २ पणीयरसपरिचाए, ३आयविलिए, टीका-'से कि तं' इयादि-से कि त रसपरिचाए ' अथ कोऽमौ रसपरित्याग ', 'रसपरिचाए' ग्मपरियाग 'अणेगविहे पण्णत्ते' अनेकविध प्रजम , 'त जहा' तथथा तनकारपन्च चयम्-'निविडए' निर्विकृति : -निर्गता घृतादिरूपा विकृतियरमात म निषिकृतिक १, ‘पणीयरसपरिचाए' प्रगीतग्मपरित्याग -प्रणीतरस प्रचुरत्वात् पदवृतबिन्दुसन्दोहोऽपूपादि , तस्य परित्याग २, 'आयविलिए' आचामाम्लम्निकृतिरहितानामात्नभर्जितचगकाठीना क्षान्नानामचित्त उदक अभिप्यैकामनस्थेन समृद्धोजनमाचामाम्ल नाम तप उच्यते । तथा चोक्तम् 'से कि त रसपरिचाए " दयादि । (से किंत रसपरिच्चाए ?) ग्मपरित्याग तप किसे कहते है । वह कितने प्रकार का है । इस प्रकार शिष्य प्रग्न करता है। उत्तर-(रसपरिच्चाए) रसपरित्याग तप (अणेगविहे पण्णत्ते) अनेक प्रकारका कहा गया है । वह इस प्रकार से हे-(निधिहए) निर्विकृतिक-जिस आहार से घृतादिक विकृति निर्गत हो चुकी हो ऐसे आहारका ग्रहण करना सो निर्विकृतिक है । अर्थात्-गिय नहा लना (१) । (पणीयरसपरिचाए) प्रणातग्सपरित्याग-अपूप अथात् मालपुआ आदि सरस आहार का परित्याग करना (२)। (आयविलिए) आचामाम्ल-विगयरहित ओढन, मुंजे हुए चने आदि रूक्ष अन्नको अचित्त पानी में डालकर एफस्थान पर बैठ एक बार ही खाना सो आचामाम्ल तप है । 'से कि त रसपरिचाए ?' Vत्यादि (से कि त रसपरिच्चाए) ये मही रमपरित्याग त५ अनेछ-ते 3281 रन छ ? २मा प्रकारे शिष्य प्रश्न २ छ उत्त२ (रसपरिचाए) २सपरित्याग त५ (आणेगविहे पण्णत्ते) मने प्रारना उपाय ते मा प्रारे छ-(निम्विइए) निविकृति-2 मारमाथी घी पोरेनी विकृति नीजी गई डाय એ આહાર લે તે નિર્વિકતિક છે અર્થાત્ વિગય (ઘી-દૂધ વગેરે) नडि (१) (पणीयरसपरिच्चाए) प्रतिरसपरित्याग--4५५ पर्थात् भासमा माहि स२स मारने परित्या ४२व। (२) (आयविलिए) मायामामाવિગયરહિત ભાત, ભુ જેલ ચણે આદિ લુખ અન્ન અચિત પાણીમાં નાખી Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ औपपातिकत्रे ४ आयामसित्थभाई, ५ अरसाहारे, ६ विरसाहारे, ७ अंताहारे, विगइरहियस्स ओयण, - भजियचणगाउलुक्ख - अन्नस्स । खित्ता जले अचित्ते, खाण आयनिल जाण ॥ ३ ॥ इति 'आयाम - सित्थ भोई' आयाम सिक्थ भोजी, अवस्रावणगतसिक्थभोक्ता, ४ 'अरसाहारे' अरसाऽऽहार -अरस = जीरक हिमवादिभिरमस्कृत आहारो यस्य सोऽरसाऽऽहार ५ । 'रिसाहारे' निरसाऽऽहार - विरस = विगतरस - पुराणधान्योदनादि आहारो यस्य स निरसाहार ६ । ' अताहारे ' अन्त्याऽऽहार - अन्ते भवम् अन्त्य - जघन्यधान्य कोद्रवादि तदेवाऽऽहारो यस्य सोऽन्त्याहार ७ । 'पताहारे' प्रान्ताऽऽहार - प्रकर्षेणान्त प्रान्त - पाकपानादन्ने नि सारिते तत्पात्रलिष्ट दर्यादिना घर्पणेन नि सारितमन्न, वल्लचणकादिनिष्पादि कहा भी हे–“विगइरहियस्स ओयणभज्जियचणगाइलुक्खअन्नस्स । खित्ता जले अचित्ते खाण आयपिल जाण" इसका अर्थ आयनिल का जो अर्थ किया है वही है (३) । (आयाम सित्थभोई ) आयामसिक्थभोजी - ओसामण में आये हुए सीथ मात्र का आहार करना (४) । (अरसाहारे) अरसाहार-जारे हींग आदि से विना बधारे हुए आहार का लेना (५) (विरसाहारे) विरसाहार - विगत रसनाले पुराने धान्य का आहार लेना ( ६ ) । ( अताहारे) अन्ताहार- काद्रव आदि तुच्छ धान्य का आहार लेना (७) । (पताहारे) प्रान्ताहार - पकाने के वर्तन में से अन्न के निकालने पर करछली आदि के घर्षण से पान मे लगा हुआ जो कुछ अन्न निकाला जाता है वह, अथवा वल्ल चगा आदि से बना हुआ पश्चात् सही छाछ से मिश्रित अन्नादि એક ઠેકાણે એસી એકવાર ખાવુ તે આચામામ્લ તપ छे" विगइरहियस्स ओयणभज्जियचण गाइलुक्स अन्नस । सित्ता जले अचित्ते साण आयबिल जाण " मानो अर्थ माय जिसने ने अर्थ यो छे ते ४ छे (3) (अयामसित्थभोई) આયામસિકથાજી–એસામણુમા આવેલા મીથના જ માત્ર આહાર કરવા (४) (अरसाहारे) मरसाहार - ३ डीग माद्दिथी वधार्या वगरना लोटनने। भाडार ४२ (१) (विरसाहारे) विश्भाडार - २स पगरना लुना धान्यथी जनेषु भाडार सेवा (अताहारे) मताहार-अहरा याहि तुच्छ धान्यनेो भाडार देवे। (७) (पताहारे) प्रान्ताहार - राधवाना वाभशुभाथी भन्न ठाढी सीधा पछी अच्छी આદિના ઘણુથી પાત્રમા લાગેલ જે કાઈ અન્ન નિકાળવામા આવે છે તે અથવા વાલ -ચણા આદિના અનેલો (લોટ) પછી ખાટી છાશમા મેળવી રાધેલુ અન્ન આદિ તે Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूपपिणी-टीका सू ३० रसपरित्यागतपोयर्णनम ८ पंताहारे, ९ लूहाहारे, १० तुच्छाहारे, से तं रसपरिच्चाए। से किं तं कायकिलेसे ? कायकिलेसे अणेगविहे पपणत्ते, तंजहा-ठाणहिडए १, उकडुयासणिए २, पडिमटाई ३, तमम्लनकमिश्रित पर्युपित वाऽन, नदाहारो यस्य स तथा ८ । 'लूहाहारे' रूसाहार - रूक्षम् अग्निग्धमनमेवाहारो यम्य स तथा ९ । 'तुन्छाबारे तुलाहार तुच्छ –अपोऽसारश्च स्यामाकादिनिप्पादित आहागे यस्य म तथा१० इति । उपमहानाह-'से त रसपरिचाए' स एप रसपरित्याग इनि। इत्थ दाविध रसपरित्याग वर्णयित्वा कायलेश वर्णयति-से कि त काफिलेसे' अथ कोऽमो कायमेगा । उत्तग्माह-'कायकिलेसे अणेगविहे पण्णत्ते' कायक्लेशोऽनेकविध प्रजम । 'तजहा' तद्यथा-'ठाणद्विइए ' स्थानस्थितिक -स्थान कायोसर्ग , तेन स्थितिर्यस्य स स्थानस्थितिक 1१। 'उकुइयासणिए' उकुटुकाऽऽसनिक -भूमावसलग्नपुतेन प्रात है, अथवा प्रान्तका अर्थ वासी अन्न भी है । इसका आहार करना प्रान्ताहार है (९)। (लूहाहारे ) रूक्षाहार-रूक्षस्वभाववाला कुलथी आदि का आहार रूक्षाहार है (९) । (तुच्छाहारे) तुच्छाहार-असार-जिसमें कुछ भी सार नहीं है ऐसा श्यामाक, मठीचा आदि तुच्छ धान्य का आहार तुच्छाहार है (१०)। (सेत रसपरिचाए) ये दस प्रकार के रसपरित्याग तप है। अब कायक्लेश का वर्णन सूनकार करते है-(से किं त कायकिलेसे') प्रश्न-वह कायालेग तप कितने प्रकार का है। (कायकिलेसे अणेगविहे पण्णत्ते ) उत्तरकायक्लेश तप अनेक प्रकार का है, (त जहा) वे प्रकार इस तरह है-(ठाणद्विइए) स्थानस्थितिक, स्थान शब्द का अर्थ कायोसर्ग है, इस कायोसर्ग से जिसकी स्थिति सर्वदा रहती है वह स्थानस्थितिफ है । (उकडयासणिए) उत्कुटुकासनिक-उमडु-आसन से बैठना પ્રાન્ત છે, અથવા–પ્રાન્તને અર્થ વાગી અન્ન પણ છે, તેને આહાર કરે त प्रान्ता २ (८) (लहाहारे) क्षाहार-०६ २वसापना गथी माहिनी माहा२ साडा छ () (तुच्छाहारे) तु-छाडा२-मसा२-१ मनमा 810 પણું સાર નથી એવું સામો મલીચા આદિ તુચ્છ ધાન્યને આહાર તે तु छाडा२ छ (१०) (से त रसपरिचाए) मा स ४ारना २सपरित्यागत छ डायदेशनु पनि सूत्रा२ ४२ छ-(से कि त कायकिलेसे) - यश त५ मा ४ारना छ ?-(कायकिलेसे अणेगविहे पण्णत्ते) देश भने४ ५४t२ना छ, (त जहा) ५२ आम छ-(ठाणद्विइए) स्थानस्थिति:२यान २०४ना અર્થ કાત્સર્ગ છે આ વાત્સર્ગથી જેની સ્થિતિ સર્વદા રહે છે તે Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨૬ - - - औपपातिकसने वीरासणिए ४, नेसज्जिए ५, दडायइए ६, लउडसाई ७, आयाबद्धाञ्जलिपुटेन भूमौ चरणतलमारोप्योपवेशनम्-उत्कुटुक, तदासनमस्यारताति इकुटुकाऽऽसनिक १२। 'पडिमट्ठाई' प्रतिमास्थायी-प्रतिमा-मासिम्यादय नियमपिशेपा , ताभिस्तिष्ठति तच्छील प्रतिमास्थायी (३। 'वीरासणिए' वाराऽऽसनिक-सिंहासनोपरि समुप विष्टस्य भूमिस्थितचरणस्य सिंहासनापनयने कृते सिंहासनोपविष्टवदवस्थान वारासन, तदस्यास्तीति वीरासनिक १४। 'नेसजिए' नैपधिक -निषद्या-पुतान्या भूम्यामुपवेशन, तया चरतीति नैपेधिक १५1 'दडायइए' दण्डायतिक -दण्डस्येायतम्-आयामोऽस्याऽस्तीति यह उत्कुटुक-आसन है, जो इस आसन से बैठता है वह उकुटुकासनिक है । इस आसन में भूमि पर दोनों चरणों के तलियों का जमाया जाता है और पुत-(बैठक) जमीन को स्पर्श नहा करते, तथा दोनों हाथों को अजली बधी रहती है । (पडिमट्ठाई) प्रतिमास्थायी साधु की १२ प्रतिमाओं का धारण करने वाला प्रतिमास्थायी है । (वीरासणिए) वीरासनिक-वीरासन से ठहरनेराला वीरासनिक है । इस आसन का यह लक्षण है-काई मनुष्य सिंहासन पर बैठा हुआ है, उस सिंहासन को हटा लेने पर वह वैसे ही खडा रह जाय, उसे 'वीरासन' कहते है । उस आसन से तप करनेवाले का वीरासनिक कहते है । ( नेसज्जिए) नैपधिक-निपयाका अर्थ है-पालथी मार कर बैठना । इस आसन से तप करनेवाले का नैषधिक कहते है । (दडायइए) दण्डायतिक-दड की तरह लवा होकर आसन मे स्थिति करनेवाला दडायतिक है । (लउडसायी) लकुटशायी चक्रकाष्ठ का नाम स्थानस्थिति छ (उकुडुयासणिए) सनि४=G४ मासनथी मेस त ઉત્કટુક આસન છે જે આ આસન કરે છે તે ઉકુટુંકાસનિક છે આ આસનમાં ભૂમિ ઉપર અને પગના તળિયાને જમાવી દેવામાં આવે છે અને પુત (વેઠક) જમીનને સ્પર્શ કરતી નથી તથા બને હાથની આજલિ माधेसी २९ छ (पडिमट्ठाई) प्रतिभास्थायी-साधुनी १२ प्रतिभागानी धार ४२वावाणी प्रतिमाथायी छ (वीरासणिय) वीरासनि-वीरासनथी असनार વીરામનિક છે આ આસનનુ એ લક્ષણ છે કે-કોઈ મનુષ્ય સિંહાસન ઉપર બેઠા હોય તે સિંહાસનને હટાવી લેવાથી તે જ પ્રમાણે ઉભે રહી જાય તેને चाशसनछ त मासनथी त५ ४२वावाणान वारासनिय छ (नेसजिए) નિષકિ-વિદ્યાનો અર્થ છે પલાઠી મારીને બેસવું આ આસનથીતપ કરવાવાળાને न ई (दडायइप) यति- उनी 8 साया थईने मासनमा तिवाद यति छ (लउडसाई) टायी-qist an४नु नाम Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोपवर्षिणी-टीका सू० ३० कायक्लेश तपोवर्णनम वए ८, अवाउडए ९, अकंडुयए १०, अणिहूहए ११, सव्वगायपरिकम्म विभूस-विप्पक्के १२, से तं कायकिले से । दण्डायति || ' लउडसाई' लकुटगायी- लकुटो नककाठ तद्वच्छेते तच्छीलो लकुटगायो - उत्तान सन गयित्वा पाकिद ('डी' इति भाषाप्रसिद्धद्वय) गिरथेति त्रय भूमौ स्थापयिचा शेते तच्छील || 'आयावए' आतापक - आतापयति शीतोष्णादिभिर्देह सतापयतिलेायती यातापक, आतापना च सूर्यातपादिसहनम् |८| 'अवाउडए' अप्राकृतक - शीतकाले प्रावरणरहित -सदोरकमुसवत्रिकाचोलपट्टातिरिक्तनारहित |९| 'अकट्ट्याए ' अण्डक कण्ड्रयन-गात्रधर्षण, तद्रहित 1201 'अणिट्टहए' अनिष्ठीवक - निष्ठीवनरहित ॥११॥ 'सव्वगाय - परिकम्म - विभूस - विप्पमुळे' सर्वगात्र - परिकर्म-निभूषा- विप्रमुक्त = सर्वस्य गानस्य परिकर्म-मार्जन विभूषा-विभूषण च, ताभ्या निमुक्त - त्यक्तसमार्जननिभूषण | १२ | 'सेत कायकिलेसे ' स एप कायक्लेश । २.७ लकुट है । इस तरह होकर जो शयन करता है वह लकुटशायी है । ऊपर मुँह कर पहिले सोना पत्रात दोनों पैरों की एडियों को एव शिर को जमीन पर टेकना, इस प्रकार शरीर के अधर रसकर आसन करना ' लकुटशयनासन ' है । ( आयावए) आतापक-सूर्यादि की आतापना लेने वाला, (अवाउडए) अप्रावृतक - शीतकाल में सदोरक मुँहपत्ती एव चोलपट्टच के अतिरिक्त अयवस्त्रों से रहित हो खुले शरीर से गीतको सहन करनेवाला अप्रावृतक है । (अकडूयए) अकण्डूयक-खुजली चलने पर भी शरीर को नही खुजलाने वाला अकण्डयक है । (अणिट्टहए) अनिष्ठीवक–थँक अनि पर भी नहीं यूँकनेवाला अनिष्ठोनक है। (सव्वगाय - परिक्रम्म - विभूस - विप्पमुक्के) सर्वगात्र परिकर्मनिभूपानिप्रमुक्त - शरीर की शुश्रूषा-विभू नहीं करनेवाला सर्वगात्र परिकर्मविभूपानिप्रमुक्त है । ( से त कायલકુટ છે. એવી રીતે થઇને જે શયન કરે છે તે લકુટશાયી છે. ઉપર માહુ રાખીને પહેલા સુવુ, પછી બન્ને પગની એડીએને તેમજ શિરને જમીન ઉપર ટેકવવુ–આ પ્રકારે શરીરને અધર રાખીને આસન કરવુ તે ‘ લકુટशयनासन' छे ( आधावए) मायातः सूर्य याहिनी यातायना सेवावाजा, (अवा उडए) सभावृत-शीतासभा होराभाये भुइयत्ती तेभन सोसयट्टा सिवायना ખીજા વસ્ત્રો રહિત થઈ ને ખુલ્લે શરીરે શીતને સહન કરવાવાળો અપ્રાવૃતક छे ( अकडूयप) २४ य:--मुन्सी भावता छता पशु के शरीरने अनवाणे नहि ते २०५४ ३२४ छे ( अणिहए ) अनिष्ठीवउ – ४ भादवा छत थू ठेवावाजा अनिष्ठीवड े (सव्यगाय परिकम्म विभूस-विप्पमुक्के) भर्वगात्रचारभ सा Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ औपपातिकसत्रे सेकिंतं पडिसंलीयणापडिसंलीणयाचउविहापण्णत्ता; तंजहा-१ इंदियपडिसलीणया, २ कसायपडिसलीणया,३ जोगपडिसंलीणया, ४ विनित्त-सयणा-सण-सेवणया।से कितं इंदियपडिसंलीणया? इंदियपडिसंलीणया पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा 'से किं त पडिसलीणया? ' अथ का सा प्रतिसलीनता प्रतिसलीनता-गोपन, सा कतिविधा ? उत्तरमाह-'पडिसलीणया' 'प्रतिसलीनता-'चउन्चिहा पणत्ता' चतुर्विधा प्रजाप्ता, 'त जहा' तद्यथा १-'इदियपडिसलीणया' इन्द्रियप्रतिसलीनता-दन्द्रियनिरोधकरणशीलता । २-'कसायपडिसलीणया' कपायप्रतिसलानता। ३-'जोगपडिसलीणया' योगप्रतिसलीनता। ४-'विपित्त-सयणा-सण-सेवणया' विविक्त-ठायनाऽऽसन-सेवनता। 'से कित इदियपडिसलीणया' अथ का सा इन्द्रियप्रतिसलीनता ?, 'इदियकिलेसे) कायक्लेश के ये १२ भेद है। (से कि त पडिसलीणया) प्रतिमलीनता तप कितने प्रकार का है। (पडिसलीणया चउचिहा पण्णत्ता) प्रतिस्लीनता तप चार प्रकार का है। (त जहा) वे चार प्रकार ये है-(इदियपडिसलीगया) इन्द्रियप्रतिमलीनता-इन्द्रियों को गोप करके रखना । (कसायपडिसलीणया) कपायप्रतिफलीनता-क्रोधादिकपायों को गोप करके रखना, (जोगपडिसलीणया) योगप्रतिसलीनता-मन वचन काया के व्यापार को गोप करके रखना (विवित्त-सयणा-सण-सेवणया) विविक्तशयनासनसेवनतास्त्री-पशु-पण्डक-रहित स्थान में शयनासन करना । ( से कि त इदियपडिसलीणया) इन्द्रियप्रतिसलीनता कितने प्रकार की है ? (इदियपडिसलीणया पचविदा पण्णता) यह વિભૂષાવિપ્રમુકત–શરીરની સર્વથા શુશ્રુષા (સેવા શણગાર) ન કરવાपणाने सर्वत्रपरिभाविभूषाविप्रभुत व छ (से त कायकिलेसे) यदेशनामा १२ ५४२ थाय छ (से कि त पडिसलीणया)प्रतिमासीनता त५ टमा प्रजानाछ ? (पडिसलीणया चउन्विहा पण्णत्ता) अतिस दीनता त५ यार प्रारनाछे (त जहा) तयार ४२२प्रभार) (इदियपडिसलीणया) दिसाने गोपी रामकी (कसायपडिसलीणया) ४ायप्रतिस सीनता-ओध माहि पायान शही शमा (जोगपडिसलीणया) योगप्रतिस सीनता-पाणी, भन भने डायाना व्यापारने शी रामपा (विवित्त-सयणा-सण सेवणया) लिवितशयनासनसेवनता श्रीपशु५ ३४२हित स्थानमा शयनासन ४२९ (से कि त इदियपडिसलीणया) मितिसमीनता टसा प्रश्नी छ ? (इदियपडिसलीणया पचविहा पण्णत्ता) Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२९ पीयपपिणी-टीया सु ३० प्रतिमलीनसातपोवर्णनम सोडदिय-विसय-प्पयार-निरोहोवा सोडदिय-विसय-पत्तेसु अत्येसु रागदोसनिग्गहोवाचविखदिय-विसय-प्पयार-निरोहोवाचविखपडिसलीणया' इन्द्रियप्रतिमलानना 'पारिता पणत्ता' पञ्चतिमा प्रजमा, 'त जहा' तथया-'सोइदिय-विमय-पयार-निरोहोवा, मोडदिय-सिय-पत्तेमु अत्येमु रागदोसनिगहो वा' श्रोरेन्टियविषयप्रचारनिगेयो या धोत्रेन्टियरिपयप्राप्नवर्थेषु गगद्वेपनिग्रहो पा-योन्टिस्य कर्णस्य विषये गदे, प्रचारम्य प्रवृत्ते , निरोध -निपेय , मयमगीलतापिघातक शब्दो न श्रोतव्य , यद्यस्माकर्णाहरगत स्यात तदा यकायं तदाह-श्रोत्रेन्द्रिय-विषयप्राप्तेष्वर्थेपु-श्रुतेषु भावे', रागद्वेषयोनिप्रदो विधेय , अर्थान-मधुरमृदङ्गमङ्गीतपु-अनुगगो न कर्तव्य , आमोगादिषु गदेपु द्वेष -अतिलक्षणश्चित्तविकारो न कार्य १ । 'चरिसदियविसय-प्पयार-निरोहो वा, चम्मिढिय-निमय-पत्तेमु प्रत्येमु रागढोसनिग्गहो वा' चभुगिन्द्रयविषयप्रचारनिरोपो वा चक्षुरिन्द्रियविषयप्राप्ते वर्धेषु रागद्देपनिग्रहो वाइन्द्रियप्रतिमलीनता पाच प्रकार की है, (त जहा) वे प्रकार ये है-(सोइदिय-विसय-प्पयारनिरोहो वा, सोइदिय-विसय-पत्तेमु अत्येसु रागढोसनिग्गही वा) श्रोत्र -दन्द्रिय को विषय-गन्द में प्रवृत्ति करने से रोकना, मयम एप गीठ को विधात करनेवाले शन्दों को नही सुनना, यदि अकस्मात् इस प्रकार के शन्द कानमें आकर पड भी जावें तो उस विषयम गग-देप नहीं करना, यह प्रथम प्रकार है ११ मतन्य इसका यह है कि मधुर मृदङ्ग सद्गीत आदि प्रिय एव आमोगादि अप्रिय गन्दी क प्रति प्रनि-अप्रीतिलक्षणरूप चित्तविकार नहीं करना सो श्रोरेन्द्रियविषयप्रचारनिरोध, एच प्रोनेन्द्रियविषयप्रामार्थरागद्वेषनिग्रहनामक प्रथम प्रकार है १। चरिंग्वदिय-विसय-प्पयार-निरोहो वा चम्पिटिय-विसय-पत्तेमु अत्थेमु रागटोसनिग्गही वा) चक्षु इन्द्रिय को अपने विषयभूत पदार्थों म प्रवृत्त होने से रोकना, मा नियमतिम सीनता ५ प्रशानी (त जहा) २ २ ४(मोइदिय-निमय-पयार-निरोहोचा, सोइंदिय विसय पत्तेमु अत्येसु रागदोसनिग्गहो वा) શ્રોત્ર-ઈદ્રિયને વિષય-શબ્દમાં પ્રવૃત્તિ કરવાથી રોકવી, મયમ તેમજ શીલને વિઘાત કરવાવાળા શબ્દો સાંભળવા નહિ જે અકસ્માત આવા પ્રકારના શબ્દ કાનમાં આવીને પડી પણ જાય છે તે વિષયના ગગષ ન કર એ ૧ પ્રથમ પ્રકાર છે મતલબ તેની એ છે કે મધુર મૃદંગ ન ગીત આદિ પ્રિય, તેમજ આક્રોશ આદિ અપ્રિય શબ્દોમાં પ્રીતિ અપ્રીતિ-લક્ષણરૂપ ચિત્તવિકાર ન કરવો તે શ્રોત્રિયવિષય–પ્રચારનિગધ તેમજ શ્રોત્રેકિયવિષયપ્રાપાર્થરાગદ્વેષનિગ્રહ નામને प्रयम मा छे (चम्पिदिय सिय-प्पयार-निरोहोघा चस्सिदिय विसय पत्तेमु अत्येसु Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - २३० । औपपातिकमत्र दिय-विसय-पत्तेसुअत्थेसुरागदोसनिग्गहोवा २, घाणिदिय-विसयप्पयार-निरोहो वा घाणिदिय-विसय-पत्तेसु अत्थेसु रागदोसनिगहो वा ३,जिभिदिय-विसय-प्पयार-निरोहो वा जिभिदिय-विसय-पत्तेसुअत्थेसु रागदोसनिग्गहोवा १,फासिदिय-विसय-प्पयारचक्षुरिन्द्रियस्य नेत्रस्य विषये रूपे प्रचारस्य प्रवृत्तेनिगेध कार्य , वा-अथवा चक्षुरिन्द्रियविषयप्राप्तेपु-दृष्टेषु अर्थपु-मनोनामनोजरूपेषु रागद्वेषयोनिग्रह कर्तव्य इति शेप ।२। 'याणिदिय-विसय-प्पयार-निरोहो गरा, पाणिदिय-विसय-पत्तेसु अत्येमु रागदोसनिग्गही या प्राणेन्द्रियविषयप्रचारनिरोधो वा प्राणेन्द्रियविषयप्राप्तेष्वर्येषु रागद्वेपनिग्रहो वाघ्राणेन्द्रिय नासिका, तस्य विपयो गन्धस्तस्य प्रवृत्तेनिधो विधेय -सुरभिगन्धे दुरभिगन्धे वा नासिकामागते रागद्वेषौ निराकर्तव्यो ।३। 'जिभिदिय-विसय-प्पयार-निरोहो वा, जिभिदिय-विसय-पत्तेसु अत्येसु रागदोसनिग्गहो वा' जिहेन्द्रियविषयस्य भोजनरसस्य प्रचारनिषेध , जिह्वायामागतेऽपि मनोजामनोज्ञरसे रागद्देपयोर्निग्रह ।।। 'फासिअथवा प्रवृत्त होने पर उसके विषय मे राग और द्वेप नहीं करना, यह द्वितीय प्रकार है २। (घाणिदिय-विषय-प्पयार-निरोहो वा, धाणिदिय-विसय-पत्तेसु अत्येसु रागदोसनिग्गहो वा) प्राण-इन्द्रिय को अपने विषय मे प्रवृत्त होने से रोकना, तथा प्रवृत्त होने पर उस विषयमे राग द्वेप नहीं करना, यह तृतीय प्रकार है ३। (जिभिदिय-विसय-प्पयारनिरोहो वा जिभिदिय-विसय-पत्तेसु अत्येसु रागदोसनिग्गहो वा ) जिद्वा-इन्द्रिय को अपने विषयमे प्रवृत्त होने से रोकना, एव उस विषय में उसके प्रवृत्त होने पर प्राप्त विषयमें राग-द्वेपका निग्रह करना, यह चौथा प्रकार है ४। (फासिदिय-विसय-प्पयार-निरोहो चा, फासिदिय-विसयपत्तेसु अत्थेसु रागदोसनिग्गहो वा) इसी प्रकार स्पर्शन, इन्द्रिय रागदोसनिग्गहो पा) यशु धद्रियाना विषयभूत पहाभा तनी प्रवृत्ति २४वी अथवा પ્રવૃત્તિ થઈ જતા તે બાબત રાગ અને દ્વેષ ન કરો એ બીજો પ્રકાર છે (पाणिदिय विसय-प्पयार निरोहो वा घाणिदिय विसय-पत्तेसु अत्थेसु रागदोसनिग्गहोवा) ઘાણ-ઈદ્રિયના વિષયમાં તેની પ્રવૃત્તિ રેકવી, અથવા પ્રવૃત્તિ થઈ જતા તે भारतमा सद्वेष न ४२ से त्रीने प्रा२ छ (जिभिदिय निसय-प्पयार-निरोहोवा जिभिदिय निसय पत्तेसु अत्थेमु गगदोसनिग्गहो वा) द्रियन विषयभाપત્તિ શેકવી તેમજ તેના વિષયમાં તે પ્રવૃત્ત થઈ જાય તે પછી પ્રાપ્ત मामतमा ३५ यता शव से या छ (फासिंदिय-विसय Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयुपषिणी टीका र ३० प्रतिसलोनसातपोषर्णनम् २३१ निरोहो वा फासिंदिय-विसय-पत्तेसु अत्थेसु रागदोसनिग्गहोवा ५, से तं इंदियपडिसंलीणया । से कि तं कसायपडिसंलीणया ? कसायपडिसंलीणया चउविहाँ पण्णत्ता, तं जहा-१ कोहस्सुदंयनिरोहा वा, उदयपत्तस्स वा कोहस्स विफलीकरणं । २ माणदिय-विसय-प्पयार-निरोहो वा, फासिरिय-विसय-पत्तेसु अत्येमु रागदोसनिग्गहो वा ' स्पर्गेन्द्रि विषयप्रचारनिरोधो या स्पोन्द्रियविषयप्राप्तेष्वर्थेषु रागद्वेषनिग्रहा वास्पर्शेन्द्रिय वक्, तस्य पिय स्पर्श गीतोष्णाठिक , तत्र प्रवृत्ते प्रतिपेध , प्राप्तेप्वपि शुभाशुभम्पर्गेषु रागद्वेषयोनिपेध । 'से त इदियपडिसलीणया' सैपा इन्द्रियप्रतिसलीनता । ' से कि त कमायपडिसलीणया' अथ का मा कपायप्रतिसलीनता , 'कसायपडिसलीणया' कपायप्रतिसलीनता 'चउबिहा पण्णत्ता' चतुर्विधा प्रज्ञप्ता, 'त जहा' तद्यथा-'कोहस्सुदयनिरोही वा, उदयपत्तस्स वा कोहस्स विफलीकरणं' क्रोधस्योदयनिराधी वा, उदयप्राप्तस्य वा क्रोधस्य विफलीकरणम्-प्रथमतस्तु क्रोधस्य उदय एव निपेको भी अपने विषय म प्रवृत्त होने से रोकना एव उस विषय मे उसके प्रवृत्त होने पर उसमे राग द्वेप होने का वर्जन करना, यह पाचवाँ प्रकार है । इन पाचौ प्रकारों का भाव यही है कि इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करना, तथा प्राप्त उनके अपने २ मनोज्ञ एव अमनोज रिपयों के ऊपर राग एव द्वेपकी परिणति से विरक्त रहना । (से त इदियपडिसलीणया) यह सव इन्द्रियप्रति लीनता है । ( से कि त कसायपडिसलीणया) कपायप्रतिस्लीनता क्या है ? (कसायपडिसंलीणया चउन्विहा पण्णत्ता) कपायप्रतिसलीनता चार प्रकार की है । (त जहा) वह इस प्रकार से है-(१-कोहस्सुदयनिरोहो वा, उदय'पयार-निरोहो वा फासिंदियविसयपत्तेसु अत्थेसु रागदोसनिग्गहो वा ) सारे સ્પર્શન-ઈદ્રિયના વિષયમાં તેની પ્રવૃત્તિ રેકવી તેમજ તે વિષયમાં તેની પ્રવૃત્તિ થઈ જાય છે તે માટે રાગ દ્વેષ ન કરે એ પાચમે પ્રકાર છે. આ પાંચેય પ્રકારે ભાવ એ જ છે કે ઈદ્રિઓ ઉપર વિજય પ્રાપ્ત કરવો, તથા તે પ્રાપ્ત થતા પિતાપિતાના મનેશ તેમજ અમનેશ વિષય ઉપર २२ द्वेषनी परिणतिथा वि२त २२ (से त इदियपडिसलीणया) 0 मधु धद्रियप्रतिस सीनता (से कि त कसायपडिसलीणया ) प्रश्न-पायप्रतिस सीनता शु छ ? उत्तर-(कपायपडिसलीणया चउबिहा पण्णत्ता) ४पायप्रतिस सीनता यार 31२नी छ ( त जहा) ते २॥ ४ारे छ-(कोहस्सुदयनिरोहो वा उदयपत्तस्स वा Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __२३२ स्सुदयनिरोहो वा, उदयपत्तस्स वा माणस्स विफल ३ मायाउदयगिरोहो वा, उदयपत्ताए वा मायाए । करणं । ४ लोहस्सुदयगिरोहो , उदयपत्तस्स वा ला. धनीय , यथा क्रोधो नोदयेत तथा यतितत्र्यम् , अथापि यदि क्रोध उदय प्राप्नुया. तदा तस्य गिफलीकरणम्-व्यर्थीकरणम् 1१1 'माणस्मुदयनिरोहो वा, उदयपत्तस्स या माणस्स विफलीकरण'-मानस्योदयनिरोधो या उदयप्राप्तस्य वा मानस्य फिलीकरणम्मानस्य-अभिमानस्योदय एवं निपेधितन्य , माने उदय प्राप्तेऽपि फिलीकरणम्-सतोऽपि असत इव करणम् ।२। 'माया-उदय-निरोहो वा, उदयपत्ताए वा मायाए विफलीकरण' मायाया उदयनिरोधो वा, उदयप्राप्ताया वा मायाया विफलीकरणम्उदयमानाया एव मायाया परवञ्चनारूपाया निषेध कर्तव्य , कथञ्चिदुदिताया वा मायाया = कपटक्रियाया विफलीकरणम् ।३। 'लोहस्सुदयणिरोहो वा, उदयपत्तस्स वा लोहस्स पत्तस्स वा कोहस्स विफलीकरण, २-माणस्सुदयनिरोहो वा, उदयपत्तस्स वा माणस्स विफलीकरण, ३ मायाउदयनिरोहो वा, उदयपत्ताए वा मायाए विफलीकरण, ४ लोहस्सुदयगिरोहो वा उदयपत्तस्स वा लोहस्स विफलीकरण ) प्रथम तो क्रोध के उदय का ही निरोध करना, यह सर्वोत्तम पक्ष है, उदयनिरोध होने से क्रोध का मूल विनष्ट हो जाता है । यदि क्रोध उदित हो जाय तो उसे विफल कर देना चाहिये १ । प्रथम तो ऐसा ही यत्न करना चाहिये कि जिससे मानकपाय का उदय ही न हो, यदि मानकषाय उदित हो जाय तो उसे विफल कर देना चाहिये २ । उत्तम बात यही है कि मायाकपाय आमा में उदित न हो, यदि वह उदित हो जाती है तो उसको विफल बना देना कोहस्स विफलीकरण, माणुस्सुदयनिरोहो वा उदयपत्तस्स वा माणस्स विफलीकरण, मायाउदयनिरोहो वा उदयपत्ताए वा मायाए विफलीकरण, लोहस्सुदयणिरोहो या उदयपत्तस्स वा लोहस्स विफलीकरण) प्रथम तो ओधना लक्ष्य यता १ निरोध ४२वा સર્વોત્તમ પક્ષ છે ઉદયનિધિ થવાથી ક્રોધનું મૂળ જ નાશ પામે છે જે ક્રોધને ઉદય થઈ જાય તે તેને વિફલ કરી દેવો જોઈએ ૧ પહેલા તે એ જ યત્ન કરવા જોઈએ કે જેથી માનકષાયને ઉદય જ ન થાય જો માનકષાયને ઉદય થઈ જાય તે તેને વિફલ કરી દેવો જોઈએ ૨ ઉત્તમ વાત એ જ છે કે માયાકપાય પણ આત્મામાં ઉદય ન થઈ શકે એવી જાતની પ્રવૃત્તિ કરવી જોઈએ જે તેને ઉદય થઈ ચુક્યો હોય તે તેને વિકલ કરી દેવું જોઈએ ૩ એ પ્રકારે લોભ પણ આત્મામા ઉદિત ન થાય Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पीयूपयपिणो-टोका सू ३० प्रतिसलीनतातपोषर्णनम् રરૂર विफलीकरणं, से तं कैसायपडिसलीणया। से किं तंजोगपडिसंलीणया ? जोगपडिसलीणया तिविहा पण्णत्ता, तं जहां-१ मणजोगपडिसंलीणया, २ वयोगपडिसंलीणया, ३ कायजोगपडिसंलीविफलीकरण' रोभस्योन्यनिगेधो वा, उदयप्रामस्य वा लोमस्य विफलीकरणम्-परस्वग्रह्णालमा लोमन्तम्योन्य व निराकरणीय , कथञ्चित्वापि वस्तुनि लोभे सत्यपि स लोम उदितोऽपि निषेधनीच 181 से त कसायपडिसलीणया' सैपा कपायप्रतिमलीनता ।४। 'मे किं त जोगपडिसलीणया' अथ का सा योगप्रतिसलीनता? 'जोगपडिसलीणया' गोगप्रतिनलीनता-'तिविहा पण्णत्ता' विविधा प्रजमा ‘त जहा' तद्यथा 'मणजोगपडिसठीणया' मनोयोगप्रतिमलीनता-योगो बन्ध , कर्मणा सह मनसो योगो-मनोयोग , तस्य प्रतिसलीनता-निरोधशीलता । 'वयजोगपडिसलीणया'-वाग्योगप्रतिमलीनता २। 'कायजोगपडिसलीणया' काययोगप्रतिमलीनता ३। ' से किं त चाहिये ३ । इसी प्रकार लोभ भी आत्मा में उदित न हो सके, इस प्रकार प्रवृत्ति करनी चाहिये, यदि वह उदित हो चुका हो तो उसे विफल कर देना चाहिये ४ । तात्पर्य यह है कि चारों कपायों को जैसे भी बने उस प्रकार से जीतना । (से त कसायपडिसलीणया) यह कपायप्रतिसलीनता है। (से किं ते जोगपडिसलीणया) योगप्रतिसलीनता क्या है। (जोगपडिसलीणया तिविता पण्णत्ता) योगप्रतिसलीनता तीन प्रकार की कही गइ है, ( तजहा) वह इस तरह से, (मणजोगपडिसलीणया वयजोगपडिसलीणया कायनोगपडिसलीणया) कर्मों के साथ मनका वधन होना सो मनोयोग है, उसका गोपन करना मनोयोगप्रतिसलीनता है। वचनयोगप्रतिसलीनता एव काययोगप्रतिमलीनता भी वचनयोग को गोपना एव काययोग को गोपना है। इसी विषय को आगे के सूत्राश से सूत्र આ માટે પ્રયત્ન કરવું જોઈએ કદાચ તે ઉદિત થઈ ચુક્યું હોય તો તેને નિષ્ફળ કરી દેવું જોઈએ જ ____ तात्पर्य से छेयाश्य पायाभमने तेवा प्रारे ता (से त कसाय डिसलीणया) या उपायप्रतिसलीनता छ (से कि त जोगपडिसलीणया) प्रश्न-योग प्रतिस सीनता शुछ? उत्तर-(जोगपडिसलीणया तिनिहा पण्णता) योगप्रतिस दीनता प्रा२नी उपाय , (त जहा) ते या प्रमाणे छे-(मणजोगपडिसंलीणया वयजोगपडिसलीणया कायजोगपडिसलीणया) भनी साथे भन्नु भयन थाय મગ છે તેનું ગોપન કરવું તે મનોગપ્રતિસલીનતા છે વચનગપ્રતિસલીનતા તેમજ ટાયગપ્રતિસ લીનતા પણ વચનગને ગેપવુ તેમજ કાય Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨રૂર औपपातिकबरे स्सुदयनिरोहो वा, उदयपत्तस्स वा माणस्स विफलीकरणं । ३ मायाउदयगिरोहो वा, उदयपताए वा मायाए विफलीकरणं । ४ लोहस्सुदयणिरोहोका, उदयपत्तस्त वा लोहस्स धनीय , यथा क्रोधो नोदयेत तथा यतितव्यम्, अथापि यदि क्रोध उदय प्राप्नुयात् तदा तस्य विफलीकरणम् व्यर्थीकरणम् ।१। 'माणस्मृदयनिरोहो वा, उदयपत्तस्स का माणस्स विफलीकरण'-मानस्योदयनिरोधो वा उदयप्राप्तस्य वा मानस्य विफलीकरणम्मानस्य-अभिमानस्योदय एवं निपेधितव्य , माने उदय प्राप्तेऽपि विफलीकरणम्-सतोऽपि असत इव करणम् ।। 'माया-उदय-निरोहो वा, उदयपत्ताए वा मायाए विफलीकरण' मायाया उदयनिरोधो वा, उदयप्राप्ताया वा मायाया रिफलीकरणम्उदयमानाया एव मायाया परवञ्चनारूपाया निषेध कर्तव्य , कथञ्चिदुदिताया वा मायाया = कपटक्रियाया विफलीकरणम् ।३। 'लोहस्सुदयणिरोहो वा, उदयपत्तस्स वा लोहस्स पत्तस्स वा कोहस्स विफलीकरण, २-माणस्सुदयनिरोहो वा, उदयपत्तस्स वा माणस्स विफलीकरण, ३ मायाउदयनिरोहो वा, उदयपत्ताए वा मायाए विफलीकरण, ४ लोहस्सुदयगिरोहो वा उदयपत्तस्स वा लोहस्स विफलीकरण ) प्रथम तो क्रोध के उदय का ही निरोध करना, यह सर्वोत्तम पक्ष है, उदयनिरोध होने से क्रोध का मूल विनष्ट हो जाता है । यदि क्रोध उदित हो जाय तो उसे विफल कर देना चाहिये १ । प्रथम तो ऐसा ही यत्न करना चाहिये कि निससे मानरुपाय का उदय ही न हो, यदि मानरुपाय उदित हो जाय तो उसे विफल कर देना चाहिये २ । उत्तम बात यही है कि मायाकपाय आमा में उदित न हो, यदि वह उदित हो जाती है तो उसको विफल बना देना कोहस्स विफलीकरण, माणुस्सुदयनिरोहोचा उदयपत्तस्स वा माणस्स विफलीकरण, मायाउदयनिरोहो वा उदयपत्ताए वा मायाए विफलीकरण, लोहस्सुदयणिरोहो या उदयपत्तस्स वा लोहस्स विफलीकरण) प्रथम तो औधना य यता ४ निरोध ४२वा से સર્વોત્તમ પક્ષ છે ઉદયનિરોધ થવાથી ક્રોધનું મૂળ જ નાશ પામે છે જે કોઇનો ઉદય થઈ જાય તે તેને વિફલ કરી દેવા જોઈએ ૧ પહેલા તે એવા જ યત્ન કરવો જોઈએ કે જેથી માનકષાયને ઉદય જ ન થાય જે માનકષાયને ઉદય થઈ જાય તે તેને વિફલ કરી દેવું જોઈએ ૨ ઉત્તમ વાત એ જ છે કે માયાકવાય પણ આત્મામાં ઉદય ન થઈ શકે એવી જીતની પ્રવૃત્તિ કરવી જોઈએ જે તેને ઉદય થઈ ચુક્યું હોય તો તેને વિકલ કરી દેવું જોઈએ ૩ એ જ પ્રકારે લાભ પણ આત્મામા ઉદિત ન થાય Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - पोषयपिणी-टीका ३० प्रतिसलीनतातपोवर्णनम् कायजोगपडिसंलीणया-जणं सुसमाहियपाणिपाए कुम्मो इव गुतिदिए सव्वगायपडिसलीणे चिड, से तं कायजोगपडिसंलीगया।से किं तं विवित्त-सयणा-सण-सेवणया विवित्त-सयगा-सणसेवणया--जंणंआरामेसु उजाणेसु देवकुलेसु सहासु पवासु पणिकाययोगप्रतिमलीनतामाह-से किं तं कापजोगपडिसलीगया ? अथ का सा काययोगप्रतिमलीनता । 'कायनोगपडिसलीणया' काययोगप्रतिसलीनता नाम--'ज ण मुममाहियपाणिपाए कुम्मो इव गुर्तिदिए सन्वगायपडिसलीणे चिट्ठा' यत् सल्ल मुममाहितपागिपाद कूर्म इव गुप्तेन्द्रिय. सर्वगानप्रतिसलीनस्तिष्ठति । यत् ग्वल-निश्चयेन मुसमाहितपागिपाद =मुसयतहस्तचरण , अत एव कच्छपवद् गुप्तेन्द्रिय सुरक्षितमर्नेन्द्रिय , सर्वगारप्रतिसलीन --सर्व गानै अवयवै प्रतिसलीन -निवारितवृत्तिस्तिष्ठति-कायिकसावद्याऽनुष्टानपर्जितो भपति ! 'सेत कायजोगपडिसलीणया' सपा काययोगप्रतिसलीनता । ‘से किं ते विवित्त-सयणा-सण-सेवणया' अथ का सा विविक्तशयनाऽऽमनसेमनता विविक्तानि दोषरहितानि शयनासनानि, तेपा सेवनता-सेननम् , सा कीदृशी? इति प्रश्न , उत्तरमाह-'विवित्त-सयणा-सण-सेवणया-जण आरामेसु उजाणेसु देवकुलेषु सहास पवामु पणियगिहेसु पणियसालासु इत्यी-पशु-पडग-संसत्तविरहियामु वसहीमु फामुएसणिज्ज पीढ-फलग-सेना-सथारंग उपसपजिताण पडिसलीगया-ज णं सुसमाहियपाणिपाए कुम्मो इव गुर्तिदिए सन्चगायपडिसलीणे चिट्ठइ, से तं कायजोगपडिसलीणया) हाथ पैरों को तथा इन्द्रियों को कच्छप के समान अच्छी तरह विषयों से गोप कर रखना काययोगप्रतिसलीनता है। (से फित विवित्त-सयणा-सण-सेवणया) विविक्तायनासन-दोपरहित शयन तथा आसन की सपनता क्या है ? (विपित्त-सयणा-सण-सेवणया-जण आरामेसु उजाणेमु देवकुले मु, सहामु, पवामु, पणियगिहेसु, पणियसालासु, इत्थीपसुपडगससत्तविरहियासु योगप्रतिस लीनता शेनु नाम छ ? -(कायज्ञोगपडिसंलीणया-जण सुसमाहियपाणिपाए कुम्मो इव गुत्तिदिए सव्यगायपडिसलीणे चिइ, से तं कायजोगपडिसलीणया) હાથ,પગ,તથા ઈદ્રિયોને કાચબાની પેઠે સારી રીતે વિષયેથી ગોપવી રાખવા તે કાયयोगप्रतिस सीनता छ (से कि त विवित्त-सयणा सण सेवणया) विविधतशयनासन पति शयन तेभ०४ भासन सेपन छ ? (विवित्त-सयणा-सण सेवणयाज ण आरामेसु उजाणेसु देवकुलेसु सहासु पचासु पणियगिहेसु पणियसालामु, Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ૨૨E औपपातिकसूत्रे णया। से कि तं मणजोगपडिसंलीणया ? मणजोगपडिसंलीणया-१ अकुसलमणनिरोहो वा, २ कुसलमणउदीरणं वा। से तं मण-जोग-पडिसलीणया।से किंतंवयजोगपडिसलीणयावियोगपडिसलीणया-१ अकुसलवयणिरोहोवा, २ कुसलवयउदीरणं वा। से तं वयजोगपडिसलीणया । से कि तं कायजोगपडिसंलीणया? मणजोगपडिसलीणया' अथ का सा मनोयोगप्रतिसलीनता । 'मणजोगपडिसलीणया' मनोयोगप्रतिस्प्लीनता 'अकुसल-मण-णिरोहो वा । अकुशलमनोनिरोपो वा, 'कुसल-मण-उदीरण वा ' कुशलमनउटीरण चा, शुभमनस उदीरण प्रवर्तनम्, 'से त मण-जोग-पडिसलीणया' सैपा मनोयोगप्रतिसलीनता,। ' से कि त वयजोगपडिसलीणया' अथ का सा वाग्योगप्रतिसलीनता ? 'वयजोगपडिसलीणया' वाग्योगप्रतिसलीनता-'अकुसलवयनिरोहो वा अगलवाड्निरोधो वा ?, 'कुसलवयउदीरण वा' कुशलवागुदीरण वा २ । ' से त वयजोगपडिसलीणया' सैपा वाग्योगप्रतिसलीनता । कार प्रकट करते है - ( से फि त मणजोगपडिसलीणया) वह मनोयोगप्रतिमला नता क्या है ? (मणजोगपडिसलीणया-अकुसलमगनिरोहो, कुसलमणउदीरण वा, से त मगजोगपडिसलीणया) अकुशल-अशुभ मनका निरोध होना, अथवा शुभमन का प्रवर्तन होना सो यह मनोयोगप्रतिसलीनता है । (से कि त वयजोगपडिसलीणया) वचनयोगप्रतिसलीनता क्या है ? (वयजोगपडिसलीणया अकुसलवयनिरोहो वा कुसलत्रयउदीरण वा, से त वयजोगपडिसलीणया) अकुशलवाणी का निरोध करना अथवा कुशलमाणी का उदीरण करना, यह वचनयोगप्रतिसलीनता है। ( से कि त कायजोगपडिसलीणया) काययोगप्रतिसलीनता किसका नाम है ? (कायजोग ગને ગોપવુ એ છે આ વિષયને આગળના સૂત્રના અશમાં સૂત્રકાર પ્રકટ २-( से कि त भणजोगपडिसलीणया)ते मनायोगपतिस हीनता शु छ ? (मणजोगपडिसलीणया अकुसलमणनिरोहो कुसलमणउदीरणया, से त मणजोगपडिसली णया)-मस-शुम भनना निरोध थवा,मथा शुभ मनमा पनि भनायोप्रतिसदीनता छ (से किं त वयजोगपडिसलीणया)-पयनयोगप्रति सहीनताछ ? (वयजोगपडिसलीणया अकुसलवयनिरोहोबा कुसलवयउदीरण वा,सेत वयजोगपडिसलीणया)--शस वाशीना निरोध ४२वी, अथवा 'सस पाएन GAR ४२७ a क्यनयोगप्रतिस सीनता ले (से कि त कायजोगपडिसलीणया) Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषषिणो-टीका स ३० गन्तरतपोभदवर्णनम ૨૩૭ मूलम्-से किं तं अभितरए तवे ?, अभितरए तवे छविहे पण्णते, तं जहा-१ पायच्छिते, रविणए,३ वेयावच्चं ४ सज्झाओ, ५ झाणं. ६ विउसग्गो। णाय=निरवद्यम पीठफलकम यासस्तारकम उपमम्पय विहरति । ' से त विवित्त-सयणासण-सेवणया' सैया निरिक्त-डायना-सन-सेवनता। ‘मे त पढिसलीणया' सैया प्रतिसलीनता, 'सेत बाहिरए तवे' तदिद वाद्य तप ॥ म० ३० ॥ टीका-अथाभ्यन्तर तप प्रोच्यते-'मे कि त अभितरए तवे?' अथ किं तद् आभ्यन्तर तप ।, उत्तरमाह-'अभितरए तो बिहे पण्णत्ते' आभ्यतर तप पड्डिय प्रजमम् , 'त जहा' तद्यथा-१ 'पायच्छित्त' प्रायश्चित्तम्, २-'विणए' विनय , ३ 'वेयावच्च' वैयावृत्यम्, ४-'सज्झाओ' स्वाध्याय , ५-'प्राण' व्यानम्, ६'विउसग्गो' व्युसर्ग इति । तर प्रायश्चित्तमाह-से कि त पायच्छित्ते' अथ किं गया एव मस्तारक अगीकार कर विचरता है, (से त विवित्त-सयणा-सण-सेवणया) यह निरिक्तगयनासनसेवनता है। (से त पडिसलीणया) इस प्रकार यह प्रतिमलीनता है । (से त वाहिरए तवे) इस प्रकार यह म्ह प्रकार के बाह्य तप के भेद-प्रभेद कहे गये हैं ।। सू० ३०॥ अव आभ्यन्तर तप का सूत्रकार वर्णन करते हैं-' से कितअभितरए तवे?" इत्यादि। (से कि त अम्भितरए तवे) आभ्यन्तर तप क्या है-कितने प्रकार का है ? (अभितरए तवे छबिहे पण्णत्ते) आभ्यन्तर तप रह प्रकार का हैं, (त जहा) वह इस प्रकार से है, (पायच्छित्त, विणए, वेयावच्च, सज्झाओ, झाण, विउसग्गो) १ प्रायश्चित्त, २ विनय, ३ वैयाऋत्य, ४ स्वा याय, ५ ध्यान और ६ पी3, ५१४, शय्या तेभर सन्ता२४ २५ २४२ रीन पियरे छ (से तं विवित्त सयणा-सण-सेवणया) लिवित शयनासनवनता (से त पडिसलीणया) मा प्रा२ मा प्रतिम सीनता छ (से त वाहिरा तये) मा प्रडारे ते ७ ४ारना माहतपना असे ४सा छ (सू ३०) वे साक्ष्य तर तपनु सूत्रान४२छ-से कितअभितरए तवे "त्यादि (से कि त अभितरए तये १) प्रश्न-मास्यन्त२ त५ शुछ १ 3टा प्रारना छ १ (अभितरए तवे छविहे पण्णत्ते) उत्तर-मास्यन्त२ त५ ७ प्रश्न छे (त जहा) मा ४२ छ-(पायच्छित्त विणए वेयावच्च, सझाओ झाण विउसम्गो) १ प्रायश्चित्त, २- विनय, 3 यावृत्त्य, ४ २वाध्याय, ५ ध्यान में Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ . औषपातिकने यगिहेसुपणियसालासुइत्थी-पसु-पंडग-संसत्त-विरहियांसु वसहीसु फासुएसणिज पीढ-फलग-सेजा-संथारंग उवसंपजित्ताणं विहरड, से तं विवित्तसयणासणसेवणया: 1 से त पडिसलीगया। से तं वाहिरए तवे ॥ सू०३०॥ विहरइ ' विविक्तगयनासनसेवनता-यत बचागमेषु उद्यानेषु देवकुलेषु प्रपामु पणितगृहेषु पगितगालासु स्त्री-पशु-पण्डक-ससक्त-विरहितामु रसनिषु प्रामुपगीय पीठफलक-शय्या-सस्तारकम् उपसम्पद्य विहरति, 'स्त्री-पशु-पण्डक ससक्त-विरहितासु' इत्यस्य लिगविपरिणामेन आरामादिपदेष्वप्यन्वय' कार्य , ततश्च यत् मल=निश्चयेन अनगार , स्त्री-पशु-पण्डक-ससक्त-विरहितेषु स्त्रिय , पशव , पण्डका =नपुसका , एतै सर्वे ससक्त= सयोग , तेन विरहितेषु आरामेपु=कृतिमवनेपु, उद्यानेपु-कुसुमकाननेपु, देवकुलेपु=यक्षकुलेषु, तथा स्यादिससक्तनर्जितासु सभासु, प्रपासु-पानीयगालासु, पणितगृहेपु-व्यावहारिकजनोचितेषु पण्यगृहेषु, पणितशालामु = बहुप्राहकदायकजनयोग्यासु, ज्यादिससर्गरहितासु वसतिपु सामान्यगृहिगृहेषु, एवविधानेकस्थानेषु 'फासुएसणिज' प्रासुकैपणीय-प्रगता असव असुमन्त प्राणिनो यस्मात् तत्प्रासुकम् अचित्तम्, अत एव एषवसहीसु फासुएसणिज्ज पीढफलगसेज्जासथारग उवसपज्जित्ताण विहरइ ) दोपरहित शयन एव आसन की सेवनता यह इस प्रकार से होती है जो अनगार स्त्रियों, पशुओं, एव नपुसकों से रहित आरामों में-कृत्रिमवनों में, उद्यानों में कुसुमित काननों में, देवकुला, में यक्षायतनों में, सभाओं में, प्रपाओं में-पानीयशालाओं में, पणितगृहों मे-व्यावहारिकजनोचित पण्यगृहों में, पणितशालाओं में अनेक ग्राहक एव दायक जनों के योग्य ऐसे स्थानों में, वसतियों में सामान्य गृहस्थजनों के घरों में, अचित्त एव निरवद्य पीठ, फलक, इत्थीपसुपडगससत्तविरहियासु पसहीसु फासुएसणिज्ज पीढफलगसेज्जासथारग उपसपज्जित्ताण विहरइ, से त पडिसलीणया) होपडित मासन तम शयननु सेवन કરવું તે આ પ્રકારે થાય છે કે જે અનગાર સ્ત્રીઓ, પશુઓ, તેમજ ૫ડકેન, સકથી રહિત આરામમા-એટલે કૃત્રિમવામાં, ઉદ્યાનેમા-કુલવાડીઓમા, દેવમાચક્ષાયતનેમા, સભાઓમા પ્રપાઓમ-પાનીયશાલાઓમાં (પરબના સ્થાનમાં) પતિગૃહેમા-વ્યવહારિક-કેચિત દુકાનેમા, પણિતશાલાઓમાં -અનેક ગ્રાહકે તેમજ દાયક (દેનારાઓ લેકેને ચગ્ય એવા સ્થાનોમાં એટલે ગોદામા,વસતિઓમા સામાન્ય ગૃહસ્થ લોકોના ઘરમા, અચિત્ત તેમજ નિરવધ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूपवर्षिणी-टोका स ३० प्रायश्चित्तभेदयर्णनम् २३९ यदहति मिशाचर्यादौ गजानमतिचारजात तटालोचनाह,तद्विगोषकमालोचनालक्षण प्रायश्चित्तरूप कार्यमपि अतिचाररूपे कारणे कार्योपचागढालोचनाहमियुच्यते। 'पडिक्मणारिहे' प्रतिकमणाईम्-प्रतिक्रम प्रनिनिवर्तन-शुभयोगादशुभयोगन्मान्तस्यामन पुन शुभयोग प्रयानयन, मिध्यादतप्रदानरूपरियर्थ । अय भार -गुप्तिये समितिपञ्चके च महसाकारतोऽनामोगनो या कथमपि प्रमादे मनि मिथ्यादुप्पृतप्रदानलक्षण प्रतिक्रमणम् । तत्र सहसाकारतोऽनामोगतो वा यदि मनमा चिन्तित, तथा वचमा भापित, कायेन दुचेष्टित, तथाईर्याया यदि कथा कथयन् नजेत, भाषायामपि यदि गृहस्थभापया, प्रहररात्र्यनन्तरप्रायश्चित्त है । भिक्षाचर्या आदि में लगे हुए अनिचारस्वरूप पापों की गुरु के सीप विशुद्धि के लिये आलोचना की जाती है, अत ये पाप आलोचना के योग्य है । आलोचना के योग्य जो प्रायश्चित्त को कहा है वह कारण म कार्य के उपचार से जानना चाहिये । (पडिक्मणारिहे) प्रतिक्रमण गद का अर्थ पीछे हटना है, शुभ योग से अशुभ योग की तरफ झुके हुए आमा को पुन शुभ योग में लाने के लिये मिथ्यादुष्कृत देना सो प्रतिक्रमग के योग्य प्रायश्चित्त है । इसका भार यह है-तीन गुमियों मे, एव पाच __ ममितियों में अकस्मात्-सहमाफार से, अथवा अनाभोग--अनुपयोग से कथमपि प्रमाद के हा जाने पर मिथ्यादुष्कृत प्रदान करना सो प्रतिक्रमण है । इसमें यदि सहसाकार से अथवा अनाभोग मे मन द्वारा सोटा चिन्तयन हा गया हा, वचन से दुर्भापग हा गया हा, एव काय सेदुधेष्टित हो गया हो, तथा ईयापय में प्रवृत्ति करते (मागमे चलते) समय यदि कथा कही गयी हो, भाषासमिति में यदि गृहस्थ की भाषा के अनुसार, अथवा प्रहररात्रि के આદિમાં લાગેલા અતિચારસ્વરૂપ પાપની ગુરુની પાસે વિશુદ્ધિને માટે આલોચના કરાય છે આથી તે પાપ આલોચનાયેગ્ય છે આલોચનાને યોગ્ય જે પ્રાયશ્ચિત્ત ને કહ્યું છે તે કારણમા કાર્યના ઉપચારથી MY नये १ (पडिक्मणारिहे ) प्रतिभा शाहन। म पाछुट' છે શુભગથી હટી જઈને અશુભ ગની તરફ વળતા ચિત્તને ફરીને શુભરોગમાં લાવવા માટે મિથ્યાદુષ્કૃત દેવુ તે પ્રતિક્રમણને વેગે પ્રાયશ્ચિત્ત છે તેને આ ભાવ છે-ત્રણ ગુપ્તિઓમા, તેમજ પાચ સમિતિઓમાં અકસ્માત --અચાનક, અથવા અનાગઅનુપગથી કાઈ પણ પ્રમાદ થઈ જતા મિથ્યાદુષ્કૃત પ્રદાન કરવું તે પ્રતિક્રમણ છે આમા જે અચાનક અથવા અનાભાગે મનથી છેટુ ચિતવન થઈ ગયું હોય, વચનથી ખરાબ ભાષણ થયું હોય, તેમજ કાયાથી ખરાબ ચેષ્ટા થઈ હોય, તથા ઈર્યાપથમાં પ્રવૃત્તિ કરતા (માગે ચાલતા) જે કથા કહેવાઈ ગઈ હય, ભાષાસમિતિમાં જે ગૃહસ્થની ભાષા Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिक - ૫ से किं तं पायच्छिते ? पायच्छिते - दसविहे पण्णत्ते; तं जहा आलोयणारि १, पडिकमणारि २, तदुभयारि ३, विवेतव्प्रायश्चित्तम् -- प्रायचित्त किंस्वरूप कतिवि नवेति पृच्छति, उत्तरमाह- 'पायच्छिते दसविह पण्णत्ते' प्रायश्चित्त दशविध प्रन्नमम्-प्राय = पाप, तस्मात् चित्त-जीन शोधयति = कर्ममलिन विमलीकरोतीति प्रायश्चित्तमिति । यद्वा- प्रायो = नान्येन चित्तम्= अन्तःकरण स्वेन स्वरूपेण अस्मिन् सति भवति इति प्रायचित्तम् - अनुष्टानविशेष | सवरादेरपि तथैवात्मन शुद्धिकरणात् प्रायोग्रहणमिति । अस्य दर्शविधव दर्शयति'त जहा ' तद्यथा - 'आलोयणारिहे' आलोचनाऽर्हम् - आलोचना गुरसमीपे पापस्य निवेदन, तावन्मात्रेणैव यस्य पापस्य शुद्धिस्तढालोचनार्हम् । आलोचना = गुरुनिवेदना विशुद्धये व्युस । ( से किंत पायच्छित्ते ) प्रायश्चित्त कितने प्रकार का है (पायच्छिते दसविहे पण्णत्ते ) - प्रायश्चित्त १० प्रकारका है । ( त जहा ) वे प्रकार ये हैं(आलोयणारिहे पडिकमणारिहे तदुभयारिहे विवेगरि विसग्गारिहे तवारिहे छेयारिहे मूलारिहे अणर्वद्वष्पारिहे पारचियारिह) कर्मों से मलिन चित्त-जीवका शोधन जिससे होता है, अथवा जिसके होने पर प्राय करके अन्त करण अपने स्वरूप में स्थित होता है, वह प्रायश्चित्त है । मनरादिक से भी आत्मा की शुद्धि होती है इसलिये उनसे इसे पृथक् करनेके लिये प्रायश्चित्त मे 'प्राय ' शब्दका प्रयोग हुआ है । इस में प्रथम प्रायश्चित्त आलोचनार्ह होता है। गुरु के समीप पापों का निवेदन करना इसका नाम आलोचना है । इस आलोचनामान से जिस पाप की शुद्धि हो जाती है वह आलोचनाह व्युत्सर्ग (से किं त पायच्छित्ते) प्रायश्चित्त डेटा प्रहारना छे ? ( पायच्छित्ते दसविहे पण्णत्ते ) -प्रायश्चित्त १० अझरना छे ( त जहा ) ते या प्रारे छे(आलोयणारिहे पडिक्मणारिहे तदुभयारिहे विवेगरि बिउस छेयारिहे मूलारिहे अणषट्टप्पारिहे पारचियारिहे, से त पायच्छित्ते) ४भोथी भक्षिन થયેલા ચિત્તનું સ શૈાધન જેનાથી થાય છે અથવા જે થવાથી પ્રાય અતકરણ પેાતાના સ્વરૂપમા આવી જાય છે તે પ્રાયશ્ચિત્ત છે સ વરાદિથી અણુ આત્માની શુદ્ધિ થાય છે તેથી તેનાથી આને જુદું કરવા માટે પ્રાયશ્ચિત્તમા પ્રાયઃ શબ્દ લીધા છે. આમા પ્રથમ પ્રાયશ્ચિત્ત લેાચનાહ થાય છે ગુરૂની પાસે પાપાતુ નિવેદન કરવુ તેનુ નામ આલેાચના છે. આ આલેાચનામાત્રથી જે પાપની શુદ્ધિ થઇ જાય છે તે મલેચનાહ માર્યાશ્ચત્ત છે ભિક્ષાચર્યા ૪ $ २३८ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूपपणी-टोकास ३० प्रायशितभेदवर्णनम् ૨૦૧ गारि ४, विउस्सग्गारि ५, तवारिहे ६, छेदारिहे ७, मूलारिहे ८, अणवट्टप्पारि ९, पारंचियारिहे १० | से तं पायच्छित्ते । योग्यम् |3| 'विवेगारिहे' निषेकार्द्धम् विवेक-अनेषगोयभक्तादिपरित्याग, तदर्हम् 18 | 'विसग्गार' युर्गाम्-सर्ग = कायोर्ग, तद्योग्यम् 14/ 'तवारिहे' तपोऽर्रम्-तप =नमस्कारसहितकालादारम्य पण्मासपर्यन्तमनशनम्, तन कस्यापि तपसो योग्य नपोम-अताचार, तद्विशोधकात् प्रायश्चित्तमपि तपोऽर्हमुच्यते इति 'छेदारि' मछेद - दिनपत्रकावारम्य पण्मासपर्यन्त साधुपर्यायस्य न्यून साकरण, तदर्द्धन || 'मूलारिहे' मूलाम्-मूल- पुनर्वतस्योपस्थापनम् - पुनदक्षारोपणम्, तदम् II 'अपार' अनवस्थाप्याऽर्हम्-यस्मिन् आसेपिते कंचन काल व्रतेषु अनवस्थाप्य कृया पश्चात्तपवर्णितया तदोपोपतो व्रतेषु स्थाप्यते तत्रनवस्थाप्यार्हम् । योग्य होता है वह भयार्ट प्रायथित है ३ | (विवेगारिहे) अनेषणीय भक्तादिक का परियाग करना विवेक है, इसके योग्य जो प्रायश्चित्त है वह विवेका प्रायश्चित्त है ४ । (विसग्गारिहे) व्युस का अर्थ कायोर्ग है। इसके योग्य प्रायश्चित्त का नाम व्युसगार्ह प्रायश्चित्त है ५ । (तवारि ) जो प्रायचित्त तपस्या के योग्य होता है वह तपोऽई प्रायश्चित है। यह प्रायचित्त नोकारसी से लेकर छ मास तक होता है ६ । (छेदारि ) साधुपयाय में पाँच दिनसे लेकर उ मास तक की साधुपर्याय की न्यूनता करना हे प्रायधित हैं ७ | ( मूलारिडे) जो प्रायश्चित्त पुन दीक्षा आरोपण के योग्य होता है वह मूलाई प्रायश्चित्त है ८ । ( अणवट्टप्पारिहे ) जिस दोपके सेवन करने पर मयमीजन कुछ काल तक महानतों के विषय में अनवस्थापित अलग कर दिये जाते है, अतिभय, मन्नेने योग्य होय छे ते तडुलयाई आयश्रित छे 3 (विवेगारिहे) અનેષણીય ભાજન આદિને પરિત્યાગ કરવે તે વિવેક છે. તેને ચેાગ્ય જે आयश्चित्त छे ते विवेजई प्रायश्चित्त छे ४. ( विउसग्गारिहे ) व्युत्सर्गी शहना અથૅ કાયૅાત્સગ છે તેને ચેગ્ય પ્રાયશ્ચિત્તનું નામ વ્યુત્સ`હું પ્રાયશ્ચિત્ત છે પ ( तवारिह ) ने प्रायश्चित्त तपभ्याने योज्य होय ते तयोऽडु प्रायश्चित्त छे मा प्रायश्चित्त नोशरसीथी सहने छ भाग सुधी थाय छे. ( छेयारिहे ) સાધુપર્યાયમા પાચ દિવસથી લઈને છ માસ સુધીની સાધુપર્યાયની ન્યૂનતા ४२वी ते हाई आर्याश्रित हे ७ ( मूलारिहे ) ले प्रायश्चित्त इरीने दीक्षा आरोपाने योग्य होय हे ते भूसाई प्रायश्चित्त ८ ( अणनट्टप्पारिहे } દોષનુ મેલન કરવાથી સયમી જન કેટલાક કાળ સુધી મહાનતાના વિષયમાં Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० औपपातिकमत्रे मुच्चै स्वरेण वा, अन्यथा सावयरचनेन भाषेत, तथा-पगाया-भक्तपानगवेगवेलायामनुपयुक्त सदोपमाहारादिक गृहगीयात्, तथा सहसाऽनाभोगतो वा भाण्डोपकरणस्यादान निक्षेप प्रमार्जन प्रतिलेखन च कुर्यात् , तथा अप्रत्युपेक्षिते स्थण्डिले उच्चारादीना परिष्ठापन सहसाऽनाभोगतो वा कुर्यात् । उपलक्षगमेतत्-तेन यदि चतुविधा रिकथा, क्रोधादय कपाया, शन्दादिविपयेवासक्तिर्वा सहसाऽनाभोगतो या कृता स्यात्, तदा एतेषु सर्वेपु स्थानेषु मिथ्यादुष्कृतप्रदानलक्षण प्रायश्चित्त, तच पूर्ववत् कारणे कार्योपचाराप्रतिक्रमणाहमित्युच्यते ।२। 'तदुभयारिहे' तदुभयाऽईम्-आलोचनाप्रतिक्रमणोमयअनन्तर उच्चस्वर से वचनकी प्रवृत्ति हो गई हो, या सावधवचन निकल गया हो, एषणासमिति में भक्तपानगवेषण के काल मे अनुपयुक्त होकर यदि सदोष आहार ग्रहण करने में आगया हो, अनाभोग से अनुपयोग से अथवा सहसाकार से भाण्डोपकरण का आदान एव निक्षेपण, प्रमार्जन या प्रतिलेसन हो गया हो, तथा अप्रत्युपेक्षित स्थडिल में उच्चार आदिका परिष्ठापन सहसाकार से या अनाभोग से कर दिया गया हो, इसी तरह यदि सहसाकार से एव अनाभोग से चार विकथाओं म, चार क्रोधादिक कपायों में, एव शब्दादि पाच इन्द्रियों के विषयों मे आसक्ति हो गई हो तो इन समस्त स्थानो में "मेरे दुष्कृत मिथ्या हो" इस प्रकार मिथ्यादुष्कृतप्रदानस्वरूप यह प्रतिक्रमग प्रायश्चित्त है। पहिले की तरह यह प्रायश्चित्त भी कारग मे कार्य के उपचार से प्रतिक्रमणाई कहा गया है २। (तदुभयारिहे ) जो प्रायश्चित्त आलोचना एव प्रतिक्रमग इन दोनों के અનુસાર અથવા પ્રહરરાત્રિ વીત્યા પછી ઉચા સ્વરથી વચન બેલાઈ ગયું હોય, અથવા સાવદ્ય વચન નીકળી ગયું હોય, એષણાસમિતિમા–આહારપાણીના ગવેષણ કાલમા અનુપયુક્ત થઈને જે સદોષ આહાર ગ્રહણ કરવામા આવી ગયે હેય, અનાગથી અથવા અચાનક ભાડેપકરણના આદાન તેમજ નિક્ષેપણ, પ્રમાર્જન અથવા પ્રતિલેખન થઈ ગયું હોય, તથા અપ્રત્યુપેક્ષિત સ્થડિલમાં ઉચ્ચાર આદિનુ પરિઠાપન સહસાકારથી કે અનાગથી (અચાનક કે અના ભોગથી) કરાઈ ગયું હોય, એવી જ રીતે જે સહસાકારથી કે અનાગથી ચાર વિકથાઓમા, ચાર ફોધાદિક કષાયમા, તેમજ શબ્દાદિ પાચ ઇન્દ્રિઓના વિષયોમા આસક્તિ થઈ ગઈ હોય તે એ બધા સ્થાનેમા “મારૂ દુષ્કૃત શિષ્યા થાઓ” એ પ્રકારે મિથ્યાદુકૃતપ્રદાનસ્વરૂપ આ પ્રતિક્રમણ–પ્રાયઠિન છે પહેલાની પેઠે આ પ્રાયશ્ચિત્ત પણ કારણુમાં કાર્યના ઉપચારથી प्रतिभा उपाय छ ० ( तदुभयारिहे) प्रायश्चित्त मायनातभर Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूपयपिणी-टीका. सू. ३० प्रायचित्तभेदयर्णनम् ૨૪રૂ तदनन्तर व्रतेषु स्थाप्यते । महननादिगुणयुक्त एवानवस्थाप्य क्रियते, अन्यस्य तु मूलमेव दीयते । सहननादिगुणयुक्तोऽपि यदि अनन्यसायकुलगणसड्धकार्यकारी बहुजनसाव्यकार्यकारी वा भवेत् , तर्हि द्विविधोऽप्यनवस्थाप्य सलु गुरुमुसात् सड्धसाक्षितया च स्तोक स्तोफतर वा मासद्वय मामैकमात्र वा अनपस्याप्यतपो वहत् । यद्वा-चतुर्तिपनघाधारभूतोऽय परमभद्रक स्वयमेव तपश्चर्यादिनाऽनवस्थाप्यगोव्यमतीचारमल क्षालयिष्यतीति कृत्वा सर्व मुश्चेत् अननस्थाप्यतपो न कारयेदिति । और उकृष्ट से नारह वर्ष का । इस प्रकार तपस्या करने के बाद वह साधु महावतों में स्थापित किया जाता है । सहननादिगुणयुक्त ही इस प्रायश्चित्त के अधिकारी है। दूसरे को तो मूलाई प्रायश्चित्त ही दिया जाता है । महननादिगुणयुक्त साधु यदि दूसरों से असाध्य ऐसे कुल गग सघ के कार्य करनेवाला हो, अथवा कुल गण सघ का जो कार्य बहुजनसाध्य हो उस कार्य को वह अकेले ही करनेवाला हो तो ऐसे आगातनाऽनवस्थाप्य और प्रतिसेवनाऽनवस्थाप्य साधु के लिये सघकी साक्षी मे गुरुके मुस से स्तोक-दो मास का, अथना स्तोफतर-एकमास का तप दिया जाता है । तदनन्तर वह महानतो म स्थापित किया जाता है । अथवा यदि कोई साधु चतुर्विध सघ का आधार हो, परमभटक हो, वह स्वयमेव तपस्या करके अनवस्याप्य तप के द्वारा विशोधनीय पापमल का प्रक्षालन कर लेगा, ऐमा विश्वाम हो, तो ऐसे साधु का अनवस्थाप्य प्रायचित्त नहीं दिया जाता है। આ પ્રાયશ્ચિત્ત જઘન્યથી એક વર્ષનું થાય છે અને ઉત્કૃષ્ટથી બાર વર્ષનું થાય છે. આ પ્રકારે તપસ્યા કર્યા પછી તે સાધુ મહાવતેમાં સ્થાપિત કરાય છે સહનનાદિગુણયુક્ત જ તે પ્રાયશ્ચિત્તના અધિકારી છે બીજાને તે મૂલાહ પ્રાયશ્ચિત્ત જ અપાય છે સહનનાદિગુણયુક્ત સાધુ જે બીજાથી અસાધ્ય (ન બને) એવા કુલ ગણ સ ઘના કાર્ય કરવાવાળો હોય અથવા કુલ ગણ સ ઘના જે કાર્ય બહુજનસાધ્ય હોય, એવા કાર્યોને તે એકલો જ કરવાવાળો હોય તે એવા આશાતનાનવસ્થાપ્ય અને પ્રતિવનાનવસ્થાપ્ય સાધુને માટે સઘની સાક્ષીમા ગુરૂના મુખથી સ્તક-બે માસનુ, અથવા ઑતર-એક માસનું તપ અપાય છે ત્યાર પછી તે મહાવતેમા સ્થાપિત કરાય છે અથવા જે કઈ સાધુ ચતુર્વિધ સઘને આધાર હોય, પરમભદ્રક હેય, તે પિતે જ તપયા કરીને અનવસ્થાપ્ય તપ દ્વારા વિરોધનીય પાપમલ પેઈનાખશે એ વિશ્વાસ હોય છે એવા સાધુને અનવસ્થાપ્ય પ્રાયશ્ચિત્ત અપાતુ નથી" Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ औपपातिकमत्रे अय भाव -अनास्याप्यो द्विरिधो भाति-आगातनाऽनवस्थाप्य , प्रतिसेवनानवस्थाप्याचेति । तर तार्थकर-घ-श्रुता-ऽऽचार्यो-पायाय--गणधर-महर्दिकान आगातयन् अनवायाप्पाहनामक नवम प्रायश्चित्त प्राप्नोति । स जघन्येन पण्मासान् उकर्पत मासर यावत तप कुर्वन् आशातनतपोऽनवस्थाप्य कर्तव्य । तावता च तपसा क्षपिताऽऽयातनाननितकर्मन्यादूचं महानतेपु स्थाप्यते । प्रतिसेवनानवस्थाप्यस्तु साधर्मिकाऽन्यधार्मिकवस्तुस्तैन्याभ्या हस्ततालादिभिश्च भवति । स च जघन्यतो वर्षम् उकृष्टतो द्वादश वांणि तप कुन् भवति, एव पुन उस टोप के निगरण के लिये तपस्या में लगाये जाते है, इस प्रकार..जब तपसे उस दोपको पूर्णतया शुद्धि हो जाती है तब दोषोपरत वे मयमी महानतो मे स्थापित कर दिये जाते है । इस प्रकार के प्रायश्चित्त का नाम अनवस्थाप्याई है, मतलब इसका यह है-अनवस्थाप्य दो प्रकारका होता है-१ आशातनानवस्थाप्य, २ प्रतिसेवनानवस्थाप्य । जो तीयकर, मघ, श्रुत, आचार्य, उपाध्याय, गगधर एव लन्धिधारियों की आगातना करता है एसा सयमी इस अनवस्थाभ्याई नामक ननम प्रायश्चित्त का भागी होता है । इनसे आगातनाजन्य दोष की शुद्धि के लिये जघन्य से म्हमाह तक, और उत्कृष्ट से एक वर्ष तक तप कराया जाता है। इतने तप से आशातनाजन्य दोप की जन शुद्धि हो जाता है तन बाद मे वह साधु महावतों मे स्थापित कर दिया जाता है। जो स्वधर्मी और अन्यधर्मी की वस्तु चुराता है, अथवा दयारहित बुद्धि से थप्पड आदि मारता है, उसे प्रतिसेग्नाऽनवस्थाप्याई प्रायश्चित्त करना पडता है । यह प्रायश्चित्त जघन्य से एक वर्ष का होता है, અનવસ્થાપિત કરવામાં આવે છે, તેમજ પાછા તે દેશના નિવારણ માટે તપસ્થામાં લગાડવામાં આવે છે, એ પ્રકારે જ્યારે તપસેવનથી દેશની સ પૂર્ણ શુદ્ધિ થઈ જાય છે ત્યારે દેવોપરત (દોષમુક્ત) તે સયમી મહાવ્રતમાં સ્થાપિત કરવામા આવે છે આ પ્રકારના પ્રાયશ્ચિત્તનું નામ અનવસ્થાપ્યાહ છે એની મતલબ એ છે કે-અનવસ્થાપ્ય બે પ્રકારના થાય છે ૧ આશાતનાવસ્થાપ્ય અને ૨ પ્રતિવનાનવસ્થાપ્ય “જે તીર્થ કર, સ ધ, શ્રત, આચાર્ય, ઉપાધ્યાય, ગણધર, તેમજ લબ્ધિધારિઓની આશાતના કરે છે, એવા સ યમી આ અનવસ્થાપ્યાહ નામનાં નવમાં પ્રાયશ્ચિત્તના ભાગી થાય છે તેનાથી આશાતનાજન્ય દોષની શુદ્ધિને માટે જઘન્યથી છ મહિના સુધી અને ઉત્કૃષ્ટથી એક વર્ષ સુધી તપ કરાય છે એટલા તપથી આશાતનાજન્ય દેશની જ્યારે શદ્ધિ થઈ જાય છે ત્યાર બાદ તે સાધુ મહાતમા સ્થાપિત કરી દેવાય છે * આધીની અને અન્યધર્મની વસ્તુને ચોરી લે છે, અથવા દયારહિત બુદ્ધિથી હા આદિ મારે છે તેને પ્રતિવનાનવસ્થાપ્યાઈ પ્રાયકાત્ત કરવું પડે છે Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषषिणी टीका र ३० प्राय भित्तभेदयर्णनम् २४५ दिन प्रतिलेगा, न चार भपता प्रनिलेपयि' यति । भक्तपानमस्मै न देय, नाप्यस्माद्ग्राह्यम् , अनेन सार्थ नोपवेष्टव्यम्, न चाप्यनेन सहमदन्या भोक्तव्यम्, अनेन सार्धं किमपि न कार्यमिति ।" अय नीसित साधु चन्टते, एन न कोऽपि चन्दते, ग्रीमे चतुर्थपष्टाप्टमानि, शिशिरे पष्टाष्टमदशमानि, वपाम्पटमयमा यानि जघन्यम यमो कष्टानि, पाणके च निर्लेप , एवरूप मुश्वर तपश्चति । अस्य गरेन सह वास एक एकोपाश्रये एकस्मिन पार्श्वे शेषमाधुपरिभोग्यप्रदेशे कल्पते, नपाल्पनादीनि शेपागि। गेगाना समुपने सति रोगादिनिवृत्तिपर्यन्त इसके उपकरण की प्रतिलेखना तुम लोग मत करना, यह भी तुम लोगकि उपकरण की प्रतिलेखना नहीं करेगा, न तुम लोग इमे भक्तपान दो, न इससे भक्तपान लो, न इसके साथ बैठो, न उसके साथ एक मण्डली म आहारादि करो, और न इसका सहकार __लेकर कोई अन्य कार्य करो।" यह माधु नवदीक्षित साधु की वन्दना करता है, उसको वन्दना कोई भी नहीं करता। यह साधु ग्रीप्म मतु मे-जघन्य से उपनास, मध्यम से वेला, और उत्कृष्ट से तेला करता है, शिशिर ऋतु में-जधन्य से वेला, मध्यम से तेला और उत्कृष्ट से चौला करता है, ण्व वर्षा ऋतु मे-जधन्य से तेला, मध्यम से चोला और उकृष्ट से पॅचोला करता है, पारणा मे विकृतिवर्जित आहार लेता है। अनपस्थाप्यप्रायश्चित्ती इस प्रकार का दुष्कर तप करता है। इस साधु को अन्य साधुओं के वसतियोग्य प्रदेश में रहना कापता है। यह गच्छ के साथ एकक्षेत्र म, एक उपाश्रय म, एक ही पार्श्व में रह सकता है, किन्तु इसको आलपन (वातचीत) आदि नहीं ઉપકરણની પ્રતિલેખન તમારે ન કથ્વી તે પણ તમારા ઉપકરણની પ્રતિલેખના નહિ કરે ન તમારે તેને આહારપાણી દેવા કે ન તેની પાસેથી આહારપાણી લેવા ન તેની સાથે બેસવુ, ન તેની સાથે એકમ ડલીમાં આહાર આદિ કરવા અને ન તેને સહકાર લઈને કેઈ અન્ય કાર્ય કરવુ” આ સાધુ નવ દીક્ષિત સાધુની વદના કરે છે, તેની વેદના કઈ પણ કરતુ નથી આ સાધુ ગ્રીષ્મઋતુમા જઘન્યથી ઉપવાસ, માધ્યમથી બેલા, અને ઉત્કૃષ્ટથી તેલા કરે છે, શિશિરઋતુમાં જઘન્યથી બેલા, મધ્યમથી તેલા અને ઉત્કૃષ્ટથી ચૌલા કરે છે, તેમજ વર્ષાઋતુમાં જઘન્યથી તેલા, મધ્યમથી ચીલા અને ઉત્કૃષ્ટથી પચોલા કરે છે પારણામાં વિકૃતિવર્જિત આહાર લે છે અનવસ્થાપ્યપ્રાયશ્ચિત્તી આ પ્રકારનું દુષ્કર તપ કરે છે આ સાધુને અન્ય સાધુઓના વસતિગ્ય પ્રદેશમાં રહેવું કે છે તે ગ૭ની સાથે એક ક્ષેત્રમાં, એક ઉપાશ્રયમાં, એક જ પાત્રમાં રહી શકે છે પરંતુ તેને આલપન (વાતચીત) આદિ કલ્પત Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे अनवस्थाप्यतपोनिधिम्य्यते-अनवस्थाप्यप्रायथिती साधु प्रशस्तेषु कालमाप गुरुसमीपे सरलभावेन स्पातिचारमालोचयति । आलोचनाऽनतर गुरु कायो सर्ग कारयति, तथाहि ऐर्यापथिकों समग्रा श्रावयति, ‘तस्मुत्तरीकरणेणं' इत्यारभ्य यावत्- 'अप्पाण नोसिरामि' इति पठिव्या कायोर्गे वारद्वय चतुर्विंशतिस्तवमनुचिन्य पारथिना पुनश्चतुर्विगनिस्तयमुचार्या चार्य साधूनामन्न्य वदति - "पोऽनवस्थाप्यो मुनिस्तप प्रतिपद्यते, एप युष्मान्नालविष्यति युष्माभिरपि नालपनीय, एप सुनार्थं गरीरवात मुसगातारूपा वा न प्रक्ष्यति, गुन्माभिरपि न प्रष्टव्य, परिष्ठापनादिकमस्य भवद्भिर्न कर्तव्यम्, न चाड्य भरता करिष्यति । उपकरणमस्य भव २४४ अब अनवस्थाप्यप्रायश्चित्त की विधि कहते है-अननस्थाप्य प्रायश्चित्त लेने वाला साधु प्रशस्त द्रव्य क्षेत्र काल भावमे गुरु के निकट सरल भारसे अपने अतीचारों की आलोचना करता है। जब वह आलोचना कर चुकता है तन गुरु महाराज उसे कायोत्सर्ग करवाते हैं । वह इस प्रकार है - गुरु महाराज पहले समग्र ईर्यापथिकी सुनाते हैं, फिर 'तस्युत्तरीकरणेण ' यहा से लेकर "अप्पाण वोसिरामि " यहाँ तक पढकर कायोत्सर्ग में दो चार चतुर्विगतिस्तव की अनुचिन्तना कर, पाल कर, फिर एकवार चतुर्विंशतिस्तव का उच्चारण करते है, और आचार्य तथा साधुओं को बुलाकर इस प्रकार कहते है--" यह अननस्थाप्य मुनि तपस्या कर रहा है, यह न तुम लोगों से बोलेगा, न तुम लोग इससे बोलना । यह तुम लोगों से सूत्रार्थ और शरीर की सुखशाता आदि नहीं पूछेगा, तुम लोग भी इस से मत पूछना | इसकी परिष्ठापनिका आदि तुम लोग मत करना, यह भी तुम लोगों की नहीं करेगा | હવે અનવસ્થાપ્ય પ્રાયશ્ચિત્તની વિધિ કહે છે. અનવસ્થાપ્ય પ્રાયશ્ચિત્ત લેવાવાળા સાધુ પ્રશસ્ત દ્રવ્ય ક્ષેત્ર કાલ અને ભાવમા ગુરૂની પાસે સરલભાવથી પોતાના અતીચારોની આલાચના કરે છે જ્યારે તે આલેાચના કરી લે છે ત્યારે ગુરૂ મહારાજ તેને કાયાત્સ કરાવે છે તે આ પ્રકારે છે-ગુરૂ મહારાજ પહેલા સમગ્ર ઈૌપથિકી સભળાવે છે च्छी 'तस्सुत्तरीकरणेण' सही थी सहने 'अप्पाण वोसिरामि' सही सुधी ભણીને કાર્યોત્સર્ગમા ચતુર્વિશતિસ્તવની અનુચિતના કરીને, પાળીને, પછી ચતુર્વિં શતિસ્તવનું ઉચ્ચારણ કરે છે, અને આચાર્ય તથા સાધુઓને ખાલાવીને આ પ્રકારે કહે છે “ આ અનવસ્થાપ્ય મુનિ તપસ્યા કરી રહ્યો છે, તે ન તે તમારી સાથે ખેલશે અને ન તમારે એને ખેલાવવા એ તમેને સૂત્રા અને શરીરની સુખશાતા સ્માદિ નહિ પૂછે અને તમારે પણ તેને પુછ્યુ હું તેની પરિષ્ઠાપનિકા આફ્રિ તમારે ન કરવી અને તે પણ તમારી નહિ કરે તેના Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · utgraivat-cher . ३० प्रायश्चितभेदवर्णनम् आगातनापाराविक । तस्य पाराजिकानामक दाम प्रायश्रित प्रामोति । स जयन्येन परमासान्नू, उत्कर्षतो द्वारा मामान् गच्छतो नि साग्निस्तपसि निति । प्रतिसेवनापाचिकत्रिनिदुष्ट, प्रमत्त, अन्योन्य कुश्चेति । तत्र दुष्टो द्विनि-कपायदुष्टो विषयदुष्टचेति । तत्र कषायदुष्टो द्विनि स्वपक्षदुष्ट, परसदुष्टय अन चतुर्भद्गी, तद्यथा-स्वपत्र स्वपक्षे दुष्ट ९, स्वपक्ष परपक्षे दुष्ट २, परपक्ष स्वपक्षे दुष्ट ३, परपक्ष परपक्षे दुष्ट ४ । प्रथमम - मृतगुरुदन्तमञ्जक १, २, ३, ४, इयात्राहरणानि । द्वितीयभङ्गेराजादिगृहस्थ २, तृतीये-यथा केनापि गृहस्थास्थाया नादे पराजित कश्विद् आसीत्, करता है वह 'आगातापाराचिक' है। इसे पागखिका' नामक दावाँ प्रायश्चित्त दिया जाता है। यह जघन्य से उ माम तक और कूट से बारह मास तक गच्छ से नहिष्कृत होकर तपस्या करता है । 'प्रतिसेवनापराश्चिक' तीन प्रकार का होता है । वे प्रकार ये है- (१) दुष्ट, (२) प्रमच और (३) अन्योऽन्यकुना । इनमें 'दुष्ट' दो प्रकार का होता है- (१) कपायदुष्ट और (२) निषयदुष्ट | पाय दो प्रकार का है - (१) स्वपन और ( २ ) परपक्षदुष्ट । यहाँ पर चतुर्भा होती है । चतुङ्गी का प्रकार इस प्रकार है- (१) स्वपक्ष, स्वपक्ष मे दुष्ट साधुओं से द्वेष करनेवाला arg| इसका उदाहरण है-मृत गुरु का दाँत पाटनेवाला, मृत गुरु की गर्दन मरोडनेपाल, मृत गुरु तथा साधु की आँसों को निकालनेवाला, दाँतों में साधु को नेपालमा । (२) स्वपक्ष- परपक्ष में दुष्टगृहस्थों से द्वे करनेवाला | sant उदाहरण है-राना आदि गृहस्थों का वध શ્રુત, આચાય, ગણુધર અને લબ્ધિધારીની આશાતના કરે છે તે આશાતનાપારાચિક' છે તેને પારચિકા નામનુ દશમ પ્રાર્યશ્ચત્ત દેવાય છે એ જધન્યથી છ માસ સુધી અને ઉત્કૃષ્ટથી બાર માસ સુધી ગુચ્છથી અહિષ્કૃત થઇને તપસ્યા કરે છે · પ્રતિમેવનાપારાચિ’ ત્રણ પ્રકારના વાય છે તે આ अडारे छे - (१) हुए, (२) प्रभत्त भने (3) अन्योऽन्यदुर्वा तेभा 'हुए ' બે પ્રકારના થાય કે (૧) કાયદુષ્ટ અને (૨) વિષયદુષ્ટ પાયદુષ્ટ એ પ્રકારના છે( ૧ ) સ્વપત્ક્રુષ્ટ અને (૨) ૫૫૧૪ અહીં ચતુર્ભેગી થાય છે. ચતુભ ગૌના પ્રકાર આમ કે (૧) સ્વપક્ષ, સ્વપક્ષમા દૃષ્ટ-સાધુઓના દ્વેષ કરવાવાળા સાધુ તેનુ ઉદાહરણ છે મરેલા ગુના દાત પાવાવાળે, મરેલા ગુરૂની ગરદન મઢવાવાળા, મરેલા ગુરૂ તવા માત્રુની આખે કાઢી લેવાવાળા, દાતેથી સાધુને ખટકા ભરવાવાળે સાધુ (૨) શ્વપક્ષ, પપક્ષમાં દĐગૃહસ્થાના દ્વેષ કરવાવાળા સાધુ તેનુ ઉદાહરણ ટેન્ગન્જ આર્દિ ગૃહમ્યાન વધ કરવા 6 , ૨૦ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ औपपातिकमरे तद्वैयावृत्य करणीय, तस्मिन्निवृत्ते सति पुनस्तपसि संस्थाप्य । इति मक्षेपतोऽनवस्थाप्यतपोविधि । इद नवम प्रायश्चित्तम् ।। 'पारचियारिहे' पाराधिकाऽईम्-पार तीर तपसाऽपराधस्य अवतिगच्छति ततो दीश्यते य स पाराची, स एव पाराधिक , तस्य यदहं तत् पाराचिकाई रशम प्रायश्चित्तम् । यद्वा-पारमन्त प्रायश्चित्ताना तत उकृष्टतरप्रायश्चित्ताऽभापाद् अवति-गध्यती येशील साधु पाराश्चिकस्तदहं प्रायश्चित्तम् ।१०। पाराधिक सक्षेपतो द्विविध --आगातनापाराश्चिक , प्रतिसेवनापाराञ्चिकश्चेति । तत्र-तीर्थकर--सघ--श्रुताचार्य-गणधर-महदिकान् आशातयति य स कल्पता है। यदि उस साधु को रोगादि हो जाय तो जनता रोगादि की निवृत्ति न हो तबतक अन्य साधु उसकी वैयावृत्य कर सकते हैं। जब वह साधु रोग से निर्मुक्त हो जाय तो फिर उससे तपस्या करानी चाहिये । यह अनवस्थाप्याई नामक नवमा प्रायश्चित्त हुआ। 'पारंचियारिहे' जो साधु तप के द्वारा अपने किये हुए अपराध को पार करता है, अर्थात् अपराधजनित पापसे मुक्त होता है, फिर उसे दीक्षा दी जाती है, वह साधु 'पाराञ्चिक' है। उस साधु को पापविशोधनार्थ जो प्रायश्चित्त दिया जाता है, वह 'पाराञ्चिकाई । प्रायश्चित्त है। अथवा जो साधु उत्कृष्टतर अन्य प्रायश्चित्त के न होने के कारण मात्र अन्तिम प्रायश्चित्त का अधिकारी होता है वह 'पाराञ्चिक' कहा जाता है। उस अन्तिम प्रायश्चित्त को 'पाराञ्चिकाई' कहते है। पाराश्चिक साधु दो प्रकार का है-पहला आशातनापाराञ्चिक, दूसरा प्रतिसेवना पाराधिक । जो तार्थफर, मघ, श्रुत, आचार्य, गणधर और लब्धिधारी की आशातना નથી જે તે સાધુને રેગાદિ થઈ જાય તે જ્યા સુધી રોગાદિની નિવૃત્તિ ન થાય ત્યા સુધી અન્ય સાધુ તેનુ વિયાવૃત્ય કરી શકે છે જ્યારે તે સાધુ રોગથી નિમુક્ત થઈ જાય ત્યાર પછી તેની પાસે તપસ્યા કરાવવી જોઈએ આ અનવસ્થાપ્યાë નામનુ નવમું પ્રાયશ્ચિત્ત થયુ 'पारचियारिहे'२ माधुतपा पोते ४२सा अपराधने पा२४२छ मात् અપરાધજનિત પાપથી મુક્ત થાય છે તેને ત્યાર પછી દીક્ષા દેવાય છે તે સાધુ 'पाराञ्चिक' छते साधुने पापविशनार्थ २ प्रायश्चित्त वाय छ 'पाराचिकाई' પ્રાયશ્ચિત છે, અથવા જે સાધુ ઉત્કૃષ્ટતર અન્ય પ્રાયશ્ચિત્ત ન હોવાના કારણ भारथी मतिम प्रायश्चित्तनो अधिकारी छे ते 'पाराश्चिक' पाय छ त मतिम प्रायश्चित्तने 'पाराचिकाई' उपाय छे. पाश्यि भाधु म प्रहारना છે-પહેલા આશાતના પારાચિક, બીજા પ્રતિસેવનાપારાચિક જે તીર્થકર, સઘ, Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीपfर्षणी टीका. सू ३० प्रायश्चितभेदवर्णनम् २४९ पाराविकार्हं प्रायश्चित्त कर्तव्यम् । तत साधुवेपपरित्यागेन म गुरुनिर्देगत कपर्दिका वणिग्भ्यो याचिया गुरखे प्रदर्शयति, ततो गुरुर्मुनिवेष दत्वा दीक्षा ददाति । पाराञ्चिकतपोविधान प्रागुक्तान स्थाप्यतपोद् ग्रीष्मे चतुर्थपाष्टमानि, जिगिरे पटाष्टममानि, वर्षास्वष्टमदमद्वादशानि जघन्यमध्यमोकृष्टानि, पारणके च निर्लेप इति । द्वितीयभङ्गेऽपि चानुपरत प्रथमभगवत् साधुवेपापहारेण गच्छाद् वहिष्करणीय, उपरऐसे साधु को गुरु पाराचिकाई प्रायचित्त दें। ऐसा साधु साधुवेप का परित्याग कर शिर के ऊपर कपडा बाँधकर गुरु की आज्ञा से बाजार में जाकर व्यापारियों से अपना पापनिवेदनपूर्वक एक एक कौडो माँगता है, माँग कर उन कौडियों को गुरु महाराज को दिखलाता है । तन गुरु महाराज उसे मुनिवेष देकर फिर से दीक्षा देते है । पाराञ्चिक तप का विधान पूर्वोक्त अनवस्थाप्य तप के समान है । इस तपस्या मे वह साधु ग्राम ऋतु में जघन्य से उपवास, मध्यम से वेला, उत्कृष्ट से तेला, शिशिर ऋतु में घन्य से से वेला, मध्यम से तेला, उत्कृष्ट से चौला, और वर्षा ऋतु में जघन्य से तेला, मध्यम से चौला, उत्कृष्ट से पॅचोला करता है । पारणा में निकृतिवर्जित आहार लेता है । द्वितीयभङ्ग में जो साधु अनुपरत है अर्थात् राजा आदि गृहस्थों के घातरूप व्यापार से निवृत्त नहीं होता है, ऐसे साधु का साधुवेप छीनकर गुरु महाराज उसे गच्छ से निकाल दे । जो साधु राजादिक गृहस्थ के घातरूप व्यापार સાધુ કાત પાડવા આદિ દુષ્કૃત્યાથી નિવૃત્ત થઈ જાય છે અને નિયમ કરે છે કે-‘હવે હું ફરીને એવુ કામ નહિં કરૂં' એવા સાધુને ગુરૂ પારાચિકાહ પ્રાયશ્ર્ચિત્ત આપે એવા સાધુ, સાધુના વેષ છેાડી દઇ શિરના ઉપર કપડુ ખાધી ગુરૂની આજ્ઞા લઈ ખજારમા જાય છે અને વ્યાપારીઓની પાસે પેાતાનું પાપનુ નિવેદ્યન કરી એક એક કાડી માગે છે. માગીને તે કાર્ડિઆને ગુરૂ મહારાજને ખતાવે છે ત્યારે ગુરૂ મહારાજ તેને મુનિવેષ આપીને ફરીને દીક્ષા આપે છે પારાચિક તપનું વિધાન આગળ કહેલ અનવસ્થાપ્ય તપના સમાન છે આ તપસ્યામા તે સાધુ ગ્રીષ્મૠતુમા જધન્યથી ઉપવાસ, મધ્યમથી ખેલા, ઉત્કૃષ્ટથી તેલા, શિશિરઋતુમા જઘન્યથી ખેલા, મધ્યમથી તેલા, ઉત્કૃષ્ટથી ચૌલા, અને વર્ષાઋતુમા જઘન્યથી તેલા, મધ્યમથી ચૌલા, ઉત્કૃષ્ટથી પચેાલા કરે છે પારણામા વિકૃતિવર્જિત આહાર લે છે દ્વિતીયભ ગમા—જે સાધુ અનુપરત હોય અર્થાત્ રાજા આદિ ગૃહસ્થાના ઘાતરૂપ વ્યાપારથી નિવૃત્ત થતા નથી, એવા સાધુના સાધુવેષ છીનવી લઈને Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिsax स तस्य गृहस्थानस्याया निजपिन सारिको जात, गया स्कन्द्रकुमारस्य पालक इति | ३ | यो राजो युवराजस्य वा चक्क स चतुर्थगज्ञान्तर्गन । अनीमियात् चधक परपक्ष, राजा तु परपक्ष एवास्ति 18/ २४८ , प्रथमभङ्गे योऽनुपरत स प्रायश्चित्तानर्ह तस्मात् तस्य साधुनेपमपहृत्य गुरुणा बहिर्निस्सारण करणीयम्, यस्तूपरत 'पुननैव करिष्यामी' ति प्रतिजानाति तस्य तपोरूप करनेवाला माधु । (३) परपक्ष, स्वपक्ष मे दुष्ट- साधु से द्वेष करनेवाला गृहस्थ । इसका उदाहरण इस प्रकार है-किसी साधुन गृहस्थावस्था में वाद में किमी को पराजित किया था । पराजित मनुष्य उसका चैरी हो गया। बाद में विजयी मनुष्यने दाक्षा लेकर साधुत्व को अङ्गाकार किया, उस समय पराजित मनुष्य तीन वैरानुबन्ध के कारण उम साधु को मार डाला । जैसे- पालकने स्कन्दक आदि पॉचसौ मुनियों को मार डाला । तथा ( ४ ) परपक्ष - परपक्ष में दुष्ट-गृहस्थ से द्वेष करनेवाला गृहस्थ । इसका उदाहरण है-राजा वा युवराज का वध करनेवाला गृहस्थ । हत्या करनेवाला अदीक्षित होने के कारण परपक्षी है, राजा आदि तो परपक्षी है ही, इसलिये यह चतुर्थ भट्ट का उदाहरण है । प्रथमभग में जो साधु अनुपरत है, अर्थात् मृतगुरु के दात पाडना आदि दुष्कृत्य से निवृत्त नहीं होता है, वह प्रायश्चित्त का अधिकारी नहा है। गुरु को चाहिये कि ऐसे साधु का वेप छीन ले, और गच्छ से उसको निकाल दें। जो साधु दात पाडना आदि दुष्कृयों से निवृत्त हो जाता है, और प्रतिज्ञा करता है कि “मै अब फिर कभी ऐसा काम नहा करूँगा " વાળે સાધુ (૩) પરપક્ષ, સ્વપક્ષમાં દુધ-સાધુને દ્વેષ કરવાવાળા ગૃહસ્થ આનુ ઉદાહરણ આમ છે કેાઇ સાધુએ ગૃહસ્થાશ્રમમા વાદવિવાદમા કોઈ ને પરાજિત કર્યા હતા . પરાન્તિ માણન તેને વેરી થઈ ગયે પછી વિજયી મનુષ્ય દીક્ષા લઇ સાધુત્વ મૃગીકાર કર્યું, તે સમયે પરાજિત મનુષ્યે તીવ્ર વાનુ ધને કારણે તે સાધુને મારી નાખ્યું જેમ, પાલકે સ્પદ આદિ પાંચમે મુનિઓને માર્ગે નાખ્યા તથા (૪) પરપક્ષ, પરપક્ષમા દુઃ ગૃહસ્થાના દ્વેષ કરવાવાળા ગૃહસ્થ તેનુ ઉદાહરણ છે–રાજા અથવા યુવરાજને વધ કરવાવાળા ગૃહસ્થ હત્યા કરવાવાળા અક્ષિન હવાને કારણે પરપક્ષી છે, રાજા આદિ તે પરપક્ષી છેજ, આથી એ ચતુર્થ ભાગનુ ઉદાહરણ છે પ્રથમ ભ ગમા જે માધુ અનુપરન કે અર્થાત્ મરેલા ગુરૂના દાત પાડવા આદિ દુષ્કૃત્યથી નિવૃત્ત થતે નથી તે પ્રાયશ્ચિત્તને અધિકારી નથી ગુરૂએ એવા સાધુના વેષ છીનવી લેવા જોઈ એ અને ગચ્છથી તેના અહિષ્કાર કરવા જોઇચે જે Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूपपणी टीका सू ३० प्रायश्चित्तभेदवर्णनम् परपस परपक्षे टष्ट | तन नालाया तरुण्या वा साच्याय साधुर्दष्ट जीभङ्गकारक, प्रथमो भङ्ग । सा यातर गृहिण्यामन्यताथिकाया वा अव्युपपन्न इति द्वितीय । गृहस्थो बालाया तस्य्या या सायानुपपन इति तृतीय । गृहम्यो गृहस्थायामिति चतुर्थ । दुष्टोऽपि चतुर्विधो मन्तय । तन- प्रथमभङ्गे वर्तमान बोनुपरत साविक कर्तव्य - साधुवैपापहोगया गारिगीय | यस्तूपरत = उपशान्त 'पुननेव करिष्यामी' - ति प्रनिजानानि, तर पागखिका तपारूप प्रायश्चित्त कारयति तत साधुवेपमनप य दीक्षाप्रदान कर्तन उपविषय प्रविनाभावात । २५१ परतार्थिक का स्रा से व्यभिचार करनवाला साधु | (3) परपन, स्वपक्ष में दुष्ट = नाला यां तर साध्या का श्रीभग करनेवाला गृहस्थ । (४) परपन, परपक्ष में दुष्ट - गृहस्थ सी के साथ व्यभिचार करने वाला गृहस्य । निपयदुष्टके ये चार भट्ट हुए। उनम प्रथमभङ्ग में वर्तमान साधु अपने टप्कर्म से निवृत्त न हो तो गुरु उसको लिंगपाराचिक कर दें, अथात् उसका साधुवेप ले ले, और उमस गच्छ से सर्वथा वहिष्कार कर दे । जो साधु अपन दूर्म से निवृत्त एव उपगान्त होकर ऐसी प्रतिज्ञा करे कि “मै अब फिर कभी भी ऐसा न करूँगा " उसको गुरु पाञ्चिकार्ह तपोप प्रायवित्त देते हैं । ऐसे साधुका साधुवेप नहीं ठीना जाता है, मात्र उसे नयी दीक्षा दी जाती है । अपने दुष्कर्म से निवृत्त निपयइष्ट के लिये लिङ्गपाराचिक का विधान नहीं है, अथात् उसका वेप नहीं छीना जाता है । પરપક્ષમા દુઃ–શય્યાતની સ્ત્રી અથવા પરતીથિની સ્ત્રીથી વ્યભિચાર કરવાવાળા માધુ (૭) પપક્ષ, સ્વપનમાં દુષ્ટ-માલા અથવા તણી સાધ્વીનુ શીયળ ભાગ -વાવાળા ગૃહસ્થ (४) पग्यक्ष, परपक्षमा हुए-गृहस्थ સ્ત્રીની માથે વ્યભિચાર કરવાવાળા ગૃહસ્થ વિષયદુષ્ટના આ ચાર ભગ થયા તેમા પ્રથમભગમાં વર્તમાન સાધુ પેાતાના દુષ્કર્મથી નિવૃત્ત ન થાય તે ગુરૂ તેને લિ ગપાગચિક કરી દે, અર્થાત્ તેના માધુ વેષ લઈ લે અને ગચ્છમાથી તેના નયા અષ્કિાર કરી દે જે માધુ પોતાના દુષ્કર્મથી નિવૃત્ત તેમ જ ઉપશાત થઈને એવી પ્રાંતના કરે કે ‘હુ હવે કરીને નદી એવુ નહિં કરૂ' તેને ગુરૂ પાગચિકાહનપરૂપ પ્રાયશ્ચિત્ત આપે છે એવા માધુના સાધુવેષ છીન્ધી લેવાતા નથી. માત્ર તેને નવી દીક્ષા અપાય છે પેાતાના દુષ્કર્મથી નિવૃત્ત વિષયષ્ટને માટે લિપારાચિનુ વિધાન નથી અર્થાત્ તેને વેષ છીનવી લેવાતા નથી Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपालिका - तश्चेत् तर्हि तस्य न पाराधिकतप करण, नापि च मासुमेपापहार , किंतु पुनद्रा प्रदानमान प्रायश्चित्तम्। तृतीयभन्ने चतुर्थभने च--यद्यतिगयनानी 'उपशातोऽयम्' इति मयते, तदा संदेश दीक्षितु न कल्पते, किन्तु अन्यस्मिन देशे गया दीका दानन्या। विषयदुष्टोऽपि पूर्ववत् विविध --स्वपनदुष्ट , परपक्षद्ध चेति । तत्रापि चतुर्भी - तद्यथा--स्वपक्ष स्वपक्षे दुष्ट १, म्यपक्ष परपक्षे दुष्ट २, पम्पा मापसे टाट ३, से निवृत्त हो जाय तो उससे गुर पाराविक तप नहा कराये, न उमका माधुवेप ही छीने, किन्तु उसे क्षेत्रपाराधिक करके फिर से दाक्षा दे, यह उसका प्रायश्चित्त है । तृतीयभङ्ग में जो गृहस्य साधु का घातक है वह यदि दाक्षा लेना चाहे, गुरुमहाराज को वह उपशात ज्ञात हो तो उस गुरुमहाराज अन्यदेश में ले जाकर दीक्षा दे। क्या कि स्वदेश में इसके लिये दीक्षा नहा कलपता ह । चतुर्थभग मे- जो कोई गृहस्थ, राजा युवराज आदि गृहस्थ का घातक है, वह यति दीभा लेना चाहे और गुरु महाराज को वह उपशान्त मालूम हो, तो उसको परदेश में ले जाकर दीक्षा दे। स्वदेश में उसके लिये दाक्षा नहा कलपती है। . विपयदुष्ट मी पूर्ववत् दो प्रकार का होता हे-रवपक्षदुष्ट और परपक्षदुष्ट । यहा पर भी चतुर्भङ्गी है । वह इस प्रकार है-(१) स्वपक्ष, स्वपक्ष मे दुष्ट--याला या तरुणा सावी का शील भङ्ग करनेवाला साधु । (२) स्वपक्ष, परपक्ष मे दुष्ट-डाव्यातर की स्त्री या ગુરુ મહારાજે તેને ગચ્છથી બહાર કરે જે સાધુ રાજદિક ગૃહસ્થના ઘાતરૂપ વ્યાપારથી નિવૃત્ત થઈ જાય તે તેને ગુરૂ પારાચિન તપ ન કરાવે, ન તેને સાધુવેશપણ છીનવી લે, પરંતુ તેને ક્ષેત્રપાલચિક કરીને ફરીથી તેને દીક્ષા આપે, એ જ તેનું પ્રાયશ્ચિત છે. * * તુતીય ગમા-જે ગૃહસ્થ સાધુને ઘાતક હોય તે જે દીક્ષા લેવા ચાહે તે અતિશયજ્ઞાની ગુરૂમહારાજને જે તે ઉપશાત જણાય તો તેને ગુરૂમહારાજ અન્ય દેશમા લઈ જઈને દીક્ષા આપે કમકે સ્વદેશમાં તેને માટે દીક્ષા કલ્પતી નથી ચતર્થભે ગમા--જે કઈ ગૃહસ્થ, રાજ યુવરાજે આદિ ગૃહસ્થનો ઘાતક હોય, તે જે દીક્ષા લેવાને ચાહે તે તેને પરદેશમાં લઈ જઈને દીક્ષા દેવી સ્વદેશમાં તેને માટે દીક્ષા કપતી નથી વિષયદુઇ પણ પૂર્વ પ્રમાણે બે પ્રકારના થાય છે અપક્ષદુઇ અને પરપક્ષ » અહીં પણ ચતુર્ભ ની છે તે આ પ્રકારે છે-(૧) સ્વપલ, સ્વપક્ષમા દg- આલા અથવા તરૂણી માથ્વીનું કરીયળ ભ ગ કરવાવાળા સાધુ (૨) શ્વપલ, Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूपवर्षिणी-टोका सू ३० प्रायश्चित्तभदवर्णनम् २५३ नगया यस्मिन् गृहस्थकुले दोष उत्पन , उपन्स्यते वा, तदीये कुले प्रवेष्टु वारगीय । तथा-पत्र निर्गमप्रवेशयोरिमेकमेवास्ति तर, तथा द्वयोग्रामयोरपान्तराले यत्र द्वयादिगृहाणा सनिवेशस्तत्रापि गमनागमन वारणीयम् । अय क्षेत्रपाराधिक इत्युच्यते । द्विविधेऽपि दुष्टपाराचिके प्रथमभङ्गापिकार । शेपागि पुनर्द्वितीयभगादीनि शिष्यबुद्धिवेशद्यार्थ प्रदर्शितानि । __ अथ प्रमत्तपाराश्चिक उच्यते-स्यानर्द्धिनिद्रावान प्रमत्तपाराश्चिक , तस्य सामान्यलोकवलाद् द्विगुण निगुण चतुर्गुण वा बल भवति, तस्मादसौ गुरुणा एव प्रजापनीय - सौम्य ! लिन मुञ्च, चारित्र तर नास्ति । यथेव गुरुणा सानुनयमुक्त साधुवेप मुञ्चति, तत जिन ग्रामनगरादि स्थानों म विहार करती है वहाँ विहार नहीं करने दिया जाता है । द्वितीयभन के माधु को जिस नगर। में, जिस कुलमें उससे दोप हो गया और होने की भावना है, वहा नहीं जाने दिया जाता है, और जहाँ निकलने तथा प्रवेश करने का द्वार एक ही है वहा, तथा दो गावों के बीच में जहाँ दो तीन धर वसे हुए हो वहाँ भी, इस सावु का गमनागमन रोक दिया जाता है । यही क्षेत्रपाराश्चिक कहा जाता है। प्रतिसेवनापाराश्चिक के दुष्ट नामक प्रथम भेद के कपायदुष्ट और पिपयदुष्ट ये दो भेद हुए। इन दोनों भेदों में प्रथम भङ्गका ही यहाँ अधिकार है, क्यों कि प्रथम भङ्ग में ही पाराश्चिकाई प्रायश्चित्त दिया जाता है । द्वितीयभग आदि तो शिष्यों की बुद्धि विशद हो, इसलिये दिखलाये गये है। अब प्रमत्तपाराञ्चिक कहते है । स्यानर्द्धिनिद्रावान् साधु प्रमत्तपाराञ्चिक है। उसे सामान्य लोगों के वलसे द्विगुण, त्रिगुण वा चतुर्गुण बल होता है । ऐसे साधु को દ્વિતીય ભગના સાધુને, જે નગરીમા જે કુળમા તેનાથી દેપ થઈ ગયો હોય અને હોવાની સંભાવના હોય ત્યાં જવા દેવાતા નથી અને જ્યાં નીકળવાનું તથા પ્રવેશ કરવાનું દ્વાર એક જ હોય ત્યા, તથા બે ગામોની વચ્ચે જ્યા બે ત્રણ ઘર વસેલા હોય ત્યાં પણ તે સાધુનું ગમનાગમન રોકવામાં આવે છે, આ જ ક્ષેત્રપારાચિક કહેવાય છે પ્રતિસેવનાપારાચિકના દુઇ નામના પ્રથમ ભેદના કષાયદુઈ અને વિષયદુ, એ બે પ્રકાર થયા એ બન્ને પ્રકામાં પ્રથમ ભાગને જ અહી અધિકાર છે, કેમકે પ્રથમ ભ ગમા જ પારાચિકાણું પ્રાયશ્ચિત્ત દેવાય છે દ્વિતીય ભગ આદિ તે શિષ્યોની બુદ્ધિ વિશદ થાય તે માટે બનાવ્યા છે હવે પ્રમત્તપારાચિક કહે છે. સ્યાનષ્ક્રિનિદ્રાવાનું સાધુ પ્રમત્તપારાચિક છે તેનામાં સામાન્યલેકના બળ કરતા બમણુ ત્રણગણુ અથવા ચારગણું બળ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकमरे द्वितीयभङ्गेऽपि वर्तमानो योऽनुपरत स व लिङ्गपाराधिक कर्नय , उपरतस्तु न लिगत पागधिक कर्तव्य , क्षेनत एवं पागनिक कर्तव्य , पुनदक्षिाप्रदानमार तस्य प्रायश्चित्तम् । तृतीये चतुर्थे च भने यधुपशान्तस्तताऽन्यम्मिन् देशे दीक्षा दातव्या, अत्र पाराश्चिकतपन प्रस्तुत वात् परपक्षे तस्यासम्भवात् । यद्यनुपशातस्तर्हि तीक्षा न दातव्या। येषु प्रामादिपु ता साभ्यो विहरन्ति तेषु तेषु स्थान विहाँ स प्रथममने वर्तमान माधुर्निवार्यते । द्वितीयादिष्वपि भङ्गेपु तानि स्थानानि प्रामादीनि परिहर्तव्यानि । गतदुक्त भवति-द्वितीयम) यस्या द्वितीयमनमें वर्तमान साधु यदि अपने दुर्म से निवृत्त न हो तो गुरु महाराज उस साधुको लिङ्गपाराश्चिक कर दें, अर्थात् उसका साधुवेप लेकर उमको गच्छ से सर्वथा क लिये निकाल रें। जो साधु निवृत्त हो जाय उसको लिङ्गसे पाराधिक न करें, अर्थात् उसका साधुवेप नहीं छीने, किन्तु उसको क्षेत्र से पाराश्चिक कर दें। ऐसे साधुको फिर से दीक्षा दें । यही इसके लिये प्रायश्चित्त है। तृतीय चतुर्थ भगमें वर्तमान गृहस्य उपशान्त अर्थात् अपने दुष्कर्म से निवृत्त हो तो उसको अन्यदेश में दीक्षा देनी चाहिये। यदि वह उपशान्त न हो तो अन्य देश में भी दीक्षा नहीं दें। यहाँ पाराञ्चिक का प्रस्ताव, अर्थात्-उपक्रम है, पाराश्चिक तप परपक्ष अर्थात गृहस्थ के लिये सम्भवित नहीं है, इसलिये गृहस्थ के लिये देशान्तर में दीक्षा देने का विधान किया है। प्रथमभन के साधु को, जिन साधियों का उसने शील भन किया है वे साध्वियों દ્વિતીયભંગમાં વર્તમાન સાધુ જે પોતાના દુષ્કર્મથી નિવૃત્ત ન થાય તે ગુરૂ તે સાધુને લિ ગપારાચિક કરી દે, અર્થાત તેને સાધુ વેષ લઈ લે અને તેને ગુચ્છથી સર્વથા માટે બહિષ્કાર કરે જે સાધુ નિવૃત્ત થઈ જાય તેને લિગથી પારાચિક ન કરે, અર્થાત તેને સાધુવેષ ન લઈ લે પરંતુ તેને ક્ષેત્રથી તે સ્થળથી) પારાચિક કરે એવા સાધુને ફરીને દક્ષા દે, એ જ તેને માટે પ્રાયશ્ચિત્ત છે તૃતીય ચર્તુથભગામાં વર્તમાન ગૃહસ્થ ઉપશાત અર્થાત પોતાના દુષ્કર્મથી નિવૃત્ત થાય છે તેને બીજા દેશમાં દીક્ષા દેવી જોઈએ જે તે ઉપશાત ન થાય તે બીજા દેશમાં પણ દીક્ષા ન દેવી અહીં પારાચિકને પ્રસ્તાવ, અર્થાત ઉપક્રમ છે, પારાચિક તપ પરપક્ષ અર્થાત ગૃહસ્થને માટે સંભવિત નથી, તેથી ગૃહસ્થને માટે દેશાતરમાં દીક્ષા દેવાનું વિધાન કર્યું છે પ્રથમ ભાગના સાધુને, જે સાધ્વીઓનુ તેણે શીલભંગ કર્યું હોય તે સાખીઓ જે ગામ નગરાદિ સ્થાનેમાં વિહાર કરતી હોય ત્યા વિહાર કરવા દેવામાં આવતો નથી, - Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषषपिणी-टीका सू ३० प्रायश्चित्तभेदवर्णनम थानकव मध्यकार या नेच्छति, तटा तम्य सहवासो वर्जनीय । __ अथाऽन्योन्यकुर्यागपागनिक उच्यते-मुरबपायुभ्या मैथुनी अन्योन्यकुर्वाणपागञ्चिक । स पुनर्न दीक्षगीय । यति तु अतिगयजानी आचार्य - अय न पुनरेव करिष्यति' इनि जानाति, तदा पागचिकाई ता कारयिया पुनस्तम्मै दाक्षा प्रदेया । विषयष्टोऽनुपरत एव लिगत पागधिक क्रियते। यन्तु पिपष्ट उपरत स उपाश्रयाति क्षेत्रत व पागश्चिक क्रियते, न तु जित । डोपा कपायदुष्टप्रमत्तान्योन्यकुर्वागा नियमाल्लिङ्गपाराधिका क्रियन्ते । चह थानकव अथवा सम्यस्य का स्वीकार करना नहीं चाह, तन मघ उसका सहवास कभी भी नहीं की, सर्वदा क लिये उसका बहिष्कार कर दे । अन अन्योऽन्यकुर्वाण पाराश्चिक कहते है-जो साधु मुखमैथुनी और गुदामैथुनी हो, यह 'अन्योन्यार्चाग पागनिक' है । ऐसे माधु को फिर से दीक्षा नहीं दी जाती है । यदि अतिगयज्ञानी गुरु महागज को ऐसा अनुभव हो कि यह फिर ऐसा नहीं करेगा, तर वे उससे पाराचिकाई तप करा कर फिर से उसे दीक्षा दे।। विपयदुष्ट साधु यदि अपने दुष्कर्म से निवृत्त नहा होता है तो वह लिङ्गपाराच्चिक __ होता है, अर्थात् उमका साधुवेप ले लिया जाता है, और उसे गच्छ से निकाल दिया जाता है । जो निषयदुष्ट साधु अपने दुष्कर्म से निवृत्त हो जाता है, वह उपाश्रयादि क्षेत्र से ही __ पागश्चिक किया जाता है, अर्थात् वह अन्य प्रदेश में भेज दिया जाता है, उसका साधुवेप જે તે શ્રાવકત્વ અથવા સમ્યકત્વને સ્વીકાર કરવા ને ચાહે તે સઘ તેને સહવાસ કદી પણ કરે નહિ, સર્વદા માટે તેને બહિષ્કાર કરી દે હવે અડચકુણપરાચિઠ કહે છે-જે સાધુ મુખમૈથુની અને ગુદા મૈથુની હેય તે “ અ ન્યકુર્તા-પારાચિક છે એવા સાધુને ફરીને દીક્ષા અપાતી નથી જે અતિશયજ્ઞાની ગુરૂમહારાજને એવો અનુભવ થાય કે આ ફરીને એવુ નહિ કરે, તે તેઓ તેની પાસે પારાચિનાઈ તપ કરાવીને ફરીને તેને દીક્ષા આપે વિષયણ સાધુ જે પિતાના દુષ્કર્મથી નિવૃત્ત ન થાય તે તેને લિગપાગચિક કરાય છે, અર્થાત્ તેને સાધુવેષ લઈ લેવાય છે, અને તેને ગ૭થી કાઢી મૂકવામાં આવે છે જે વિષયણ સાધુ પિતાના દુષ્કર્મથી નિવૃત્ત થઈ જાય છે તે ઉપાશ્રયાદિ ક્ષેત્રમાથી જ પારાચિત્ર કરાય છે, અર્થાત્ તેને બીજા પ્રદેશમાં મોકલવામાં આવે છે તેને સાધુપ લઈ લેવામાં આવતું નથી વિષયદુષ્ટથી જુદા જે વાયદુષ્ટ, પ્રમત્ત અને અન્યોન્યકુર્વાણ છે, એ ત્રણને નિયમ પ્રમાણે લિ ગપારાચિન કરવામાં આવે છે, અર્થાત્ તેમનો સાધુપ લઈ લેવાય છે Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ पपाति शोभनम् । अथ न मुञ्चति तत सघो मिलिया तस्य साधुवेष हरति, न स्कए जन, तस्यैकस्योपरि प्रद्वेषमभवात्, प्रद्वेषयुक्तथ स तस्य हिंसनमपि कुर्यात् । तम्मै पुनद्राक्षा न दीयते । यस्तु ज्ञानातिशयवान् आचार्य एव जानाति - 'यन्न पुनग्तस्य स्यानर्दिनिद्रोदयो भविष्यतीति तत पाराविका प्रायचित्त कारयिना तस्मै दीक्षा ददाति । मेघेन मिठिना तस्य साधुवेपापहारे कृते पुनराचार्य एनमुपनिति-स्थूलप्राणातिपातनिरमणादीनि देशव्रतानि गृहाण, तानि चेत् प्रतिपत्तु न समर्थस्ततो दर्शन ( सम्यत्तन) ग्रहाग । अथैनमुक्तोऽपि 1 गुरुमहाराज इस प्रकार कहे - " सोम्य । तुम साधुवेप छोड दो, क्या कि तुम म चारित्र का अभाव है । गुरु से इस प्रकार सरल भाव से कहे जाने पर यदि वह साधुनेय का परित्याग कर दे तो अच्छा है, नहीं तो मघ मिलकर उसका साधुनेप टीन ले, अकेले नहीं, क्यों कि साधुवेप छीने जाने के समय उस साधु को द्वेष उत्पन्न होगा, और द्वेपयुक्त वह साधु मनुष्य की हिसा भी कर सकता है। ऐसे साधु को फिर से दीक्षा नहीं दी जाती है । यदि अतिशयज्ञान। गुरु को ऐसा अनुभव हो कि यह प्रकृतिभवक है, इसे अन स्त्यानर्द्धिनिद्रा आदि नहीं होगी, तो गुरु उस साधु को पाराचिका प्रायश्चित्त देकर फिर से दीक्षा दे । रूप मिलकर उस साधु का जन वेप छीन ले, तन गुरु महाराज स्त्यानर्द्धिनिद्रावान् प्रमत्तपाराचिक साधु को इस प्रकार उपदेश दे-आज से तुम स्थूलप्रागातिपातविरमणरूप श्रावक धर्म को स्वीकार करो । यदि तुम इसका आचरण करने मे असमर्थ हो तो तत्वार्थश्रद्धानरूप सम्यकुव को स्वीकार करो। इस प्रकार उपदेश देने पर भी यदि હાય છે એવા સાધુને ગુરૂમહારાજ આ પ્રમાણે કહે સૌમ્ય ! તુ સાધુવેષ ાડી દે, કેમકે તારામા ચારિત્રના અભાવ ગુરૂ તરફથી આ પ્રકારે સરલ ભાવે કહેવામા આવતા ને તે સાધુવેષને પરિત્યાગ કરી દે તા સારૂ છે, નહિ તે મધે મળીને તેના સાધુવેષ છીનવી લેવેા, એકલાએ નહિ કેમકે સાધુવેષ છીનવી લેતી વખતે તે સાધુને દ્વેષ ઉત્પન્ન થશે, અને દ્વેષવાળા તે સાધુ મનુષ્યની હિ સા પણ કરી શકે છે એવા સાધુને ફીને દીક્ષા દેવાતી નથી જે અતિશય જ્ઞાનવાન ગુરૂને એવે અનુભવ થાય કે આ પ્રકૃતિભદ્રક છે, હવે એને સ્ત્યા િનિદ્રા આદિ નહિ થાય તે ગુરૂ તે સાધુને પારાચિકાર્ડ પ્રાયશ્ચિત્ત દઇને ફરીને દીક્ષા આપે સઘ મળીને તે સાધુને જ્યારે વેષ છીનવી લે ત્યારે ગુરૂમહારાજ સ્ત્યાદ્ધિનિદ્રાવાનું પ્રમત્તપારાચિક સાધુને આ પ્રકારે ઉપદેશ આપે આજથી તુ સ્થૂલપ્રાણાતિપાતવિરમણુરૂપ શ્રાવક ધમને સ્વીકાર કરજે તુ તેનુ આચરણ કરવામા અમમર્થ હોય તે તત્ત્વાશ્રદ્ધાનરૂપ સમ્યક્ત્વના સ્વીકાર કર આ પ્રકારે ઉપદેશ દેવા છતા પણ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५७ ___पवर्षिणी-टीका सू० ३० विनयभेदपर्णनम् २५७ से किं तं विणए ? विणए सत्तविहे पण्णत्ते, तं जहागच्छानि सारितोऽम्मीत्यशुभो भार स्वपतरोऽपि न विद्यते स एवविधगुणसम्पन्न पाराविक प्रायश्चित्त कर्तुमर्हति । यस्त्वेतद्गुणरहितन्तस्य पाराश्चिकापत्ति प्रामस्य मूलमेन यश्चित्त भवति । आशातनापाराधिको जघन्येन पण्मासान् , उन्कर्पतश्च द्वादश मामान् भवति, एतावन्त लि गच्छानिएँढ (निफाशित ) स्तिष्ठति । प्रतिसेवनापागञ्चिको जघन्येन मरसरमुकर्पतो दिश वर्षाणि नियूढ आस्ते । विस्तरन्तु-अन्यत्र द्रष्टव्य । 'से त पायच्छित्ते' तदेतआयश्चित्तम् । से कि त विणए ' अथ कोऽसौ विनय ? विनय फिस्वरूप इति प्रश्न । उत्तरमाह-'विणए' विनय -चिनयति-अपनयति अष्टविधर्माणीति विनय =अभ्युथानपन्दनगया हूँ' यह अशुभ भाव अणुमात्र भी न हो, इस प्रकार के गुणों से युक्त ही साधु पाराचिक प्रायश्चित्त का अधिकारी है । जो साधु इन गुणों से रहित है, उससे पाराञ्चिकाई प्रायश्चित्त योग्य अपराध हो गया है, उसको मूलाई प्रायश्चित्त ही दिया जाता है। आगातनापाराश्चिक साधु जघन्य से छ मास तक और उकर्ष से बारह मासतक गच्छ से वहिष्कृत रहता है। प्रतिसेननापाराञ्चिक साधु जघन्य से एक वर्ष और उत्कर्ष से बारह वर्ष गच्छ से बहिष्कृत रहता है । इसका विस्तृत वर्णन अन्यत्र देसना चाहिये । (से त पायच्छित्ते) ये दम प्रकार के प्रायश्चित्त हे ॥ सू० ३०॥ (से कि त विणए ) विनय का क्या स्वरूप है (विणए सत्तविहे पण्णत्ते) विनय सात प्रकार का है। जो अष्टविध कर्मी को दूर करता है, वह विनय है। માથી કાઢેલા છતા પણ જેના મનમાં “હું ગચ્છથી બહિષ્કાર પામેલે શુ એ અશુભ ભાવ અણુમાત્ર પણ ન હય, એ પ્રકારના ગુણોવાળે જ સાધુ પારાચિક પ્રાયશ્ચિત્તને અધિકારી છે જે સાવું એ ગુણોથી રહિત છે તેનાથી પારાચિકાણું પ્રાયશ્ચિત્ત યોગ્ય અપરાધ થઈ ગયું હોય તો તેને મૂલાઈ પ્રાયશ્ચિત્ત જ અપાય છે આશાતનાપારાચિક સાધુ જઘન્યથી છ માસ સુધી અને ઉત્કર્ષથી બાર માસ સુધી ગચ્છથી બહિષ્કૃત રહે છે પ્રતિસેવનાપારાચિક સાધુ જઘન્યથી એક વર્ષ અને ઉત્કર્ષથી બાર વર્ષ સુધી ગ૭થી मडित २ छ तेनु विस्तृत पनि मीरथी नदेनमे (से तंपायच्छित्ते) मा ४२ प्रा२ना प्रायश्चित्त (सू० ३०) (से कि त विणए) विनय तपनु स्व३५ शुछ? उत्तर-(विणए सत्तरिहे पण्णत्ते) ते सात Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ औपपातिकको यस्तु साधु कर्मदोपात् पाराचिकापत्तियोग्यात् उकृष्टमपराधपद प्राप्त , स यदि भद्रक 'पुनरेव न करिष्यामी'-ति व्यवसितस्तदा स तप पाराश्चिक -अर्थात् तप समाराधनतत्पर पाराञ्चिक क्रियते । तस्य तप करगयोग्यता यया भवति तदुच्यते-चनरूपमनाराच सहनन, वज्रकुड्यसमान वीर्य, सागरवद्गम्भीरता, मेस्वदीरता, आगमनान-जघन्येन नवमपूर्वान्तर्गतमाचाराख्य तृतीय वस्तु, उत्कर्पतो दशमपूर्व मपूर्ण, तच सूरतोऽर्थतश्च यदि परिचित भवति । एतै महननादिभि सम्पन्न , तथा सिंहविक्रीडितादितप कर्मभावित , इन्द्रियकपायाणा निग्रहे समर्थ , प्रवचनरहस्यार्थज्ञानसम्पन्नश्च, तथा गच्छानि सारितस्यापि यस्य नहीं छीना जाता है । विषयदुष्ट से भिन्न जो कपायदुष्ट, प्रमत्त और अन्योऽन्यकुर्वाण हैं, ये तीन नियमत लिङ्गपाराञ्चिक किये जाते हैं, अर्थात् इनका साधुवेप ले लिया जाता है। जिस दुष्कर्म से साधु पाराश्चिक होता है, उस दुष्कर्म के कारण जो साधु उस्कृष्ट अपराधी हो गया हो, वह साधु यदि भद्रक हो और वह ऐसा नियम करे कि "मै अब फिर कभी भी ऐसा नहीं करूँगा" तब वह साधु तप पाराश्चिक किया जाता है, अर्थात् उससे पाराञ्चिक तप कराया जाता है । पाराश्चिक तप करने की योग्यता जैसे होती है सो कहते है-जो साधु वज्र-ऋषभ-नाराच-महननवाला हो, वन की भीत के समान दृढ जिसका वीर्य-पराक्रम हो, समुद्र के समान जिसमें गाम्भीर्य हो, मेरु के समान जिसमें धीरता हो, तथा जो आगम को जानने वाला हो अर्थात् जघन्य से नवमपूर्वान्तर्गत आचाराख्य तृतीय वस्तु को, उत्कृष्ट से सम्पूर्ण दशम पूर्व को सूत्र से और अर्थ से जानने वाला हो, सिंहविक्रीडित आदि तप कर चुका हो, इन्द्रिय और कषायों के निग्रह करने में समर्थ हो, प्रवचन के गूढार्थ को जानने वाला हो, गच्छ से निकाले जाने पर भा जिसके मनमे 'मै गच्छ से निकाला જે દુષ્કર્મથી સાધુ પારાચિક થાય છે તે દુષ્કર્મના કારણે જે સાધુ ઉત્કૃષ્ટ અપરાધી થયેલ હોય તે સાધુ જે પ્રકૃતિભદ્રક હોય અને જે તે એવી પ્રતિજ્ઞા કરે કે “હું હવે ફરીને નદી આવુ નહિ કરૂ” તે તે સાધુ તપ પારાચિક કરાય છે, અર્થાત્ તેની પાસે પારાચિક તપ કરાવવામાં આવે છે પાચિક તપ કરવાની યેગ્યતા કેવી હોય તે કહે છે-જે સાધુ વજઋષભનારાચસહનનવાળા હેય, વાની ભીતના જેવા દૃઢ જેનુ વીર્ય–પરાક્રમ હેય, સમદ્રની જેમ જેનામાં ગાભર્યું હોય, મેરૂની પેઠે જેનામા ધીરતા હોય, તથા જે આગમને જાણવાવાળા હોય અર્થાત્ જધન્યથી નવમપૂર્વગત આચારાખે ત્રીજી વસ્તુને, ઉત્કૃષ્ટથી સંપૂર્ણ દશમ પર્વને સૂત્રથી તથા અર્થથી જાણુનારા હોય, સિહવિક્રીડિત આદિ તપ કરી ચૂકયા હોય, ઈદ્રિય અને કાષાના નિગ્રહ કરવામાં સમર્થ હોય, પ્રવચનના ગૂઢાર્થને જાણવાવાળા હોય, ગરછ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यूषयषिणी-टीका सू० ३० यिनयभेदधर्णनम् ૨૭ से कि तं विणए ' विणए सत्तविहे पण्णत्ते, तं जहा- गच्छानि सारितोऽम्मीत्यगुभो भाव स्थपतगेऽपि न विद्यते स एववियगुणसम्पन्न पाराधिक प्रायश्चित्त कर्तुमर्हति । यस्वेतदगुणरहितस्तस्य पागञ्चिकापत्ति प्राप्तस्य मूल्मेव धेत्त भवति । . आशातनापाराश्चिको जघन्येन पण्मामान् , उन्कर्पतश्च द्वादश मामान् भवति, एतापन्त . .--च्छानियूढ (निकाशित ) स्तिष्ठति । प्रतिसेवनापागञ्चिको जघन्येन मरसरमुत्कर्पतो द्वादश वर्षाणि नियूढ आस्ते । विस्तरस्तु-अन्यत्र द्रष्टय । ‘से त पायच्छित्ते' तदेतप्रायश्चित्तम् । 'से कि त विणए ' अथ कोऽसौ विनय ? विनय किंस्वरूप इति प्रश्न । उत्तरमाह-'विणए' पिनय -नियति--अपनयति अष्टविधर्माणीति पिनय =अभ्युथानवन्दनगया है' यह अशुभ भाव अणुमात्र भी न हो, इस प्रकार के गुणों से युक्त ही साधु पाराचिक प्रायश्चित्त का अधिकारी है । जो साधु इन गुणों से रहित है, उससे पाराचिकाई प्रायश्चित्त योग्य अपराध हो गया है, उमको मूलाई प्रायश्चित्त ही दिया जाता है। ___आशातनापाराश्चिक साधु जघन्य से छ मास तक और उत्कर्प से बारह मासतक गच्छ से बहिष्कृत रहता है। प्रतिसेवनापाराञ्चिक साधु जघन्य से एक वर्प और उन्कर्प से बारह वर्ष गच्छ से बहिष्कृत रहता है। इसका विस्तृत वर्णन अन्यत्र देखना चाहिये । (से त पायच्छित्ते) ये दस प्रकार के प्रायश्चित्त है ।। सू० ३०॥ (से कि त विणए ) विनय का क्या स्वरूप है। (विणए सत्तविहे पण्णते) विनय सात प्रकार का है । जो अष्टविध कर्मों को दूर करता है, वह विनय है । માથી કાઢેલા છતા પણ જેના મનમાં “હું ગચ્છથી બહિષ્કાર પામેલ છુ ” એ અશુભ ભાવ આસુમાત્ર પણ ન હય, એ પ્રકારના ગુણવાળે જ સાચું પારાચિક પ્રાયશ્ચિત્ત અધિકારી છે જે સાધુ એ ગુણોથી રહિત છે તેનાથી પારાચિકાણું પ્રાયશ્ચિત્ત એગ્ય અપરાધ થઈ ગયો હોય તે તેને મૂલાહ પ્રાયશ્ચિત્ત જ અપાય છે આશાતનાપારાચિક સાધુ જઘન્યથી છ માસ સુધી અને ઉત્કર્ષથી બાર માસ સુધી ગચ્છથી બહિષ્કૃત રહે છે પ્રતિસેવનાપારાચિક સાધુ જઘન્યથી એક વર્ષ અને ઉત્કર્ષથી બાર વર્ષ સુધી ગ૭થી मति २२ तेनु विस्तृत वन मीरथी ने नये (सेतपायच्छित्ते) २॥ ६श प्रजाना प्रायश्चित्त छ (सू० उ०) (से किं त विणए) विनय तपनु २१३५ छ? उत्तर-(विणए सत्तविहे पण्णत्ते) ते मात Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - যথাদিক यस्तु साधु कर्मदोपात् पाराशिकापत्तियोग्यात् उमटमपराधपट प्राप्त., स यदि भद्रक 'पुनरेव न करि यामी'-ति व्यवसितस्तदा स तप पाराविक-अर्थान तप समागधनतत्पर पाराधिक क्रियते । तस्य तप कागयोग्यता यथा माति तदुच्यते-वनस्पभनारच सहनन, वडयसमान वीर्य, सागरवद्गम्भीरता, मेरुषद्धीरता, आगमज्ञान-जघन्येन नरमपूर्वान्तर्गतमाचारारय तृतीय वस्तु, उत्कर्पतो दशमपूर्व मपूर्ण, तब सूरतोऽयंतश्च यदि परिचित भवति । एतै महननादिभि सम्पन्न , तथा सिंहविक्रीडितादितप कर्मभावित , इन्द्रियकपायाणा निग्रहे समर्थ , प्रवचनरहस्यार्थज्ञानसम्पनश्च, तथा गच्छालि सारितस्यापि यस्य नहीं छीना जाता है । विषयदुष्ट से भिन्न जो कपायदुष्ट, प्रमत्त और अन्योऽन्यपुर्वाण हैं, ये तीन नियमत लिङ्गपाराश्चिक किये जाते हैं, अर्थात् इनका साधुवेप ले लिया जाता है। जिस दुष्कर्म से साधु पाराश्चिक होता है, उस दुष्कर्म के कारण जो साधु उत्कृष्ट अपराधी हो गया हो, यह साधु यदि भदक हो और वह ऐसा नियम करे कि "मै अत्र फिर कभी भी ऐसा नहा करूँगा" तन यह साधु तप पाराधिक किया जाता है, अर्थात् उससे पाराश्चिक तप कराया जाता है । पाराधिक तप करने की योग्यता जैसे होती है सो कहते है-जो साधु वन-उपभ-नाराच-महननवाला हो, बन की भीत के समान दृढ जिसका वीर्य-पराकम हो, समुद्र के समान जिसमें गाम्भार्य हो, मेरु के समान जिममें धीरता हो, तथा जो आगम को जानने वाला हो अर्थात् जघन्य से नवमपूर्वान्तर्गत आचाराख्य तृतीय वस्तु को, उत्कृष्ट से सम्पूर्ण दशम पूर्व को सून से और अर्थ से जानने वाला हो, सिंहविक्रीडित आदि तप कर चुका हो, इन्द्रिय और कपार्यों के निग्रह करने में समर्थ हो, प्रवचन के गूढार्थ को जानने वाला हो, गच्छ से निकाले जाने पर भा जिसके मनम 'मै गच्छ से निकाला જે દુષ્કર્મથી સાધુ પારાચિક થાય છે તે દુષ્કર્મના કારણે જે સાધુ ઉઋઈ અપરાધી થયેલ હોય તે સાધુ જે પ્રકૃતિભદ્રક હોય અને જે તે એવી પ્રતિજ્ઞા કરે કે “હુ હવે ફરીને કદી આવું નહિ કરૂ? તે તે સાધુ તપ પારાચિક કરાય છે, અર્થાત્ તેની પાસે પારાચિક તપ કરાવવામાં આવે છે પારાચિક તપ કરવાની થતા કેવી હોય તે કહે છે-જે સાધુ વાસષભનારાચસહનનવાળા હોય, વજીની ભીતના જેવા દઢ જેનુ વીર્ય–પરાક્રમ હેય, સમદ્રની જેમ જેનામાં ગાશીય હાય, મેરૂની પેઠે જેનામાં ધીરતા હોય, તથા જે આગમને જાણવાવાળા હોય અર્થાત્ જઘન્યથી નવમપૂર્વગત આચારાપ્ય ત્રીજી વસ્તુને, ઉત્કૃઇથી સપૂર્ણ દશમ પૂર્વને સૂત્રથી તથા અર્થથી જાણુનારા હોય, મિહવિકીડિત આદિ તપ કરી ચૂકયા હોય, ઈદ્રિય અને કાષાના નિગ્રહ કરવામાં સમર્થ હોય, પ્રવચનના ગૂઢાર્થને જાણુવાવાળા હોય, ગરછ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूपपिणी टीका सु. ३० विनयभेदवर्णनम ३८९ मणपजवणाणविणए ४, केवलणाणविणए ५ । से कि त दंसणविणए ? दसणविणए दुविहे पण्णत्ते तं जहा सुस्सुसणाविणए १, अणच्चासायाविण २ । से किं तं सुस्सूसणाविणए ? सुस्सू - त्रिणए' श्रुतज्ञानविनय, 'ओहिणाणविणए' अनभिज्ञानग्निय 'मणपज्ननणाणत्रिणए ' मन पर्यज्ञाननिय, 'केवरणागविणए' के ज्ञानविनय । अथ दर्शननिय पृच्छति' में किं त इसपरिणए ' अथ कोऽमौ दर्शनविनय ' ' दसणविणए ' दर्शनविनय दर्शनमोहनीयाजिनितस्तच श्रद्धानरूप आमपरिणाम दर्शन, तमना निय , नविनय, स ' दुविडे पण्णत्ते ' द्विन प्रजम, निव्य दर्शयति-' त जहा तद्यथा'मुम्मणाचिगए' शुपाविनय विनिमयेन गुदि सेवन शुश्रूषा तद्रूपो विनय । 'अणच्चासायणारिणए' अनयागातनानिय 'अति=जना, आय = सम्यक्त्वारिलाभ - अत्याय, तम्य शातना व्यसना - अयाशातना, तन्निषेधरूपो नियोऽनया - यातनाविनय, गुदग्वर्गवादाविनिवारणम् । पृपोडरादित्वासिद्वि । - णाचिणए, ओहिणाणविणए मणपज्जरणाणविणए केवळणाणविणए) आभिनिबोधिकज्ञानपिन, श्रुतज्ञानग्निय, अनविज्ञानविनय, मन पर्ययज्ञाननिय एवं ज्ञाननिय । (सेत दरिण) दर्शनविनय कितने प्रकार का है ? (दसणविणए दुविहे पण दर्शननिय दो प्रकार का है। ( त जहा ) वे प्रकार ये है - ( सुम्मसणाfree aणचामायणाविणए ) पहला - शुश्रूपाविनय - गुरु आदि के समीप रह कर विधिपर्वक सेना करना। दूसरा - अन यागातनाविनय-सम्यक्त्वादिक के लाभ को जो नष्ट करता है यह अयागातना है, इसका निपेपरूप जो विनय है वह अनयागातनाविनय है । गुरु जाति के को दूर करना निवारण करना, इसका नाम जनयागातनानिय है । भगपणानिए, केवलणाणनिण ) १ मलिनिमोधिज्ञानविनय, श्रुतज्ञान વિનય, ૩ અવધિજ્ઞાનવિનય, ૪ મન પયજ્ઞાનવિનય, ૫ કેવલજ્ઞાનવિનય प्रश्न- (से किंत सणनिणए ) दर्शनविनय डेटा प्रजरना है? -( सणपिए दुनिहे पण्णत्ते) हर्शनविनय में अजरना है, ( त जहा ) ते आज - (सुम्मूसणाविणण अणन्चासायणानिए ) पडेबो-शुश्रूषाविनय-गुरु आहिनी પાને વ્હીને વિધિપૂર્વ૮ મેવા કરવી, ખીજે અનત્યાશાતનાવિનય-નમ્યકત્વ આફ્રિકના લાભને જે નાશ રે છે તે અત્યાશાતના છે, તેને નિષેવરૂપ જે વિનય છે તે અનત્યાશાતનાવિનય છે ગુરુ આદિના અવર્ણવાદને દૃ કવે તેનુ નિવાન્ગ્યુ કરવુ તેનુ નામ अनत्याशातनाविनय छे प्रश्न - (से किं त मुस्मृमणा Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર૦૮ औपपातिकसत्रे णाणविणए १, दंसणविणए २, चरित्तविणए ३, मणविणए ४, वयविणए ५, कायविणए ६, लोगोश्यारविणए ७ । से किं तं णाणविणए ? णाणविणए पंचविहे पण्णते, तं जहा-आभिणि. वोहियणाणविणए १, सुयणाणविणए २, ओहिणाणविणए ३, भक्त्यादिरूप , स 'सत्तविहे पण्णत्ते' समविध प्रजम । 'त जहा' तयथा-१-'गाणविगए' ज्ञानविनय , २-'दसणरिणए' दर्शनविनय , ३-' चरित्तविणए' चारित्रविनय , ४ 'मणोविणए' मनोविनय , ५-'वइविणए' वाविनय , ६ 'कायविणए' काय विनय , ७-'लोगोवयारविणए' लोकोपचारविनय । एप सानियोऽपि विनय क्रमेण स्वरूपतो भेटतश्च निरूप्यते-से कि त णाणविणए' अथ कोऽसौ ज्ञानविनय ? उत्तरमाह'णाणविणए' ज्ञानविनय 'पचरिहे पण्णत्ते' पञ्चविध प्रजप्त , 'त जहा' तद्यथातत्पञ्चविधत्व दर्शयति-'आभिणिवोहियणाणपिणए'आमिनिमोधिज्ञानविनय , 'सुयणाणयह विनय गुरु आदि के आने पर सडे हो जाना, तथा वदना, शुश्रूपा, भक्ति आदि करना, इस रूप से शास्त्रों मे प्रतिपादित किया गया है । (त जहा) विनय के सात प्रकार ये हे-(गाणविणए, दसणविणए चरित्तविणए, मणविणए,वइविणए, कायविणए,लोगोवयारविणए) ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय, मनोविनय, वचनविनय, कायविनय, और लोकोपचापिनय । अन यथाक्रम इनके स्वरूप और भेदों का वर्णन सूत्रकार करते है-(से कि तणाणविणए ) वह ज्ञानविनय क्या है । अर्थात् जिसमे ज्ञान का विनय किया जाता है ऐसा वह ज्ञानपिनय कितने प्रकार का है', (णाणविणए पचविहे पण्णत्ते) ज्ञानविनय पाच प्रकार का कहा है। ( त जहा) वे पाच प्रकार ये है-(आभिणियोरियणाणविणए, सुयપ્રકારના છે જે આઠ જાતના કર્મોને દૂર કરે છે તે વિનય છે આ વિનય તપ, ગુરુ આદિ પધારતા ઉભા થઈ જવુ, તથા વદના શુશ્રષા આદિ કરવા, એ રૂપે શાસ્ત્રોમાં प्रतिपाहन थु छ (त जहा) विनय तपन ते सात प्रा२ माछ-(णाणविणए दसणविणए चरित्तविणए मणविणए वयविणए कायविणए लोगोवयारविणए) ૧ જ્ઞાનવિનય,૨ દર્શનવિનય, ૩ ચારિત્રવિનય, ૪મને વિનય, પવચનવિનય,૬ કાય વિનય, અને ૭ લેકેપચારવિનય હવે તેનું કમવાર સ્વરૂપ તથા પ્રકારનું વર્ણન सूत्रधार ४२-( से किं त णाणविणए ) ते ज्ञानविनय शु १ , अर्थात् રમા જ્ઞાનને વિનય કરાય છે એવો તે જ્ઞાનવિનય કેટલા પ્રકાર છે? (णाणविणए पचविहे पण्णत्ते) शानविनय पाय मारने। तो छ (त जेहा) ते हार -(आभिणियोहियणाणविणए, सुयणाणविणए, ओहिणाणविणए, Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६१ - - -- - - - - -- पीयूपवर्षिणो-टीका सु ३० यिनयभेदयणनम स्स अणुगच्छणया ८, ठियस्म पज्जुवासणया ९, गच्छंतस्स पडिसंसाहणया १०, से तं सुस्मृसणाविणए । से कि त अणञ्चासायणाविणए ? अणचासायणाविणए पणयालीसबिहे पण्णत्ते, तंजहाअरहताणं अणञ्चासायणया १, अरहंतपण्णत्तस्स धम्मस्स अण'अलिप्परगहे इ वा' अनलिनग्रह दनि वा--अनलिनग्रह -गुरुसमुपे अञ्जलीकरणम् ।७। 'एतस्स अणुगन्छणया' आगतोऽनुगमनता--गुटिकम आयान्त प्रति ममुसे गमनम् ।८। 'ठियस्स पन्जुपासणया' स्थितम्य पर्युपासनता-उपपिष्टस्य गुदिरिच्छानुकुलसेवा [९। 'गच्छंतस्स पडिससाणया' गाठत प्रतिग्माधनता गच्छतो गुनादे प चाद गमनगीदता ।१०। 'से त मुम्ममणाविणप' स एप शुश्रूपणाविनय । अनयागातना पृच्छति-'से कि त अणचासायणारिणए' अथ कोऽमो अनयागातनाविनर । 'अणचासायणाविणए' अन पायातनाविनय -'पणयालीसविहे पण्णत्ते' पञ्चच पारिगाध प्रजा । 'त जहा' तद्यथा-'अरहताण अणच्चासायणया' अर्हतामन यागातनतादिकों की सविधि वन्दना करना (६) । (अजलिप्पग्गहे द पा) गुर के सन्मुस कोनो हाथ जाडना (७) । (एतस्स अणुगच्छणया) गुवादिक आ रहे हा तो उनके सन्मुग्व जाना (८) । (ठियस्स पज्जुवासणया) जर वे बैठे हा तो उनकी इच्छानुकुल सेवा करना (९) । (गच्छतस्स पडिससाहणया) जर वे जाने लगे तो उनके पाले २ चन्ना (१०)। (सेत मुस्मसणाविणए) यह सत्र शुश्रूपगाविनय है । (से कि त अणञ्चासायणाविगए) अनत्याशातनाविनय कितने प्रकार का है। (अगचासायणाविगए पणयालीसविहे पण्णत्ते) अनत्याशतनापिनय पैंतालीस प्रकार का है, ( त जहा) वे प्रकार ये है-(अरहताणं अणच्चासायणया) अहंत भगवान् का अपर्णनाद आदि नहीं करना (१), म्मे इ वा) यथाविधिकहना ४२वी तिम, मथात् गुरगाछिीनी सविधि पहना ४२वी (6) (अजलिप्पग्गहे इ वा) गुरुनी माझे पाय 341 (७) (एतस्स अणुगणया) गुरु राह पधारता डाय त्यारे भनी सोमेन्यु (८) (ठियम्म पज्जुनासणया) ज्या तमाम 1 डाय त्या तमनी छान अनुज सपा ४२वी (6) (गच्छतस्स पडिससाहणया) न्यारे तसा पासात्यारे तेमनी १७ पाछण यासयु (१०) (से त सुस्सूमणाविणए) से मया शुश्रूषणाविनय छ प्रश्न-से कि तं अणचासायणाविणए) मनत्यातनाविनय सा डावना छ । उत्तर-(अणघासायणाविणए पणयालीसविहे पण्णत्ते) सनत्याशातना विनय पिसतासीस प्रश्न छ, (त जहा) ते १२ २१13-(अरहताण अणच्यासायणया) मईत Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकम २६० सणाविणए अवि पण्णत्ते; तं जहा - अभुट्टाणे इ वा १, आसणाभिग्गहे इ वा २, आसणप्पदाणे इ वा ३, सकारे इ वा ४, सम्माणे इ वा ५, किकम्मे इ वा ६; अंजलिप्पग्गहे इ वा ७, एंत 2 'से किं त सुरसारण' अथ कोsसी शुश्रूपणाविनय - 'मुस्मृसणाविणए ' शुश्रूषणाविनय 'अणेगविहे पण्णत्ते' अनेकविध प्रज्ञम 'त जा' तद्यथा- 'अच्भुद्राणे इवा' अभ्युत्थानमिति वा, 'इति' 'वा' इति पदद्वय वाक्यालङ्कारे, एवमग्रेऽपि बोध्यम् । अभ्युथानम्-आचार्यादिरागतस्य अभिमुसम्-स्थानम् अभ्युत्थान- विनयाऽर्हस्य दर्शनादेवाऽऽसयाग | १| 'आसणाभिग्ग इवा' आसनाभिग्रह इति वा, आसनाभिग्रह गुर्वादिर्यन मनोपवेष्टुमिच्छति तत्र तत्राऽऽसनप्रापणम् |२| 'आसणप्पराणे इ वा' आसनप्रदान मिति वा, गुरौ समागते सति आसनदानम् | ३| 'सक्कारे इ वा' सत्कार इति वा - विनयाऽर्हस्य गुर्वादि वन्दनादिनाऽऽदरकरणसत्कार |४| 'समाणे इ वा' सम्मान इति वा, ममानो वा गुर्वादे आहारवस्त्रादिप्रशस्तवस्तुना समाननम् ॥५। 'किङकम्मे इ वा' कृतिकर्म इति वा - कृतिकर्म= यथाविधि वन्दनम् |६| (सेवाविए) शुश्रपगाविनय कितने प्रकार का है (सुस्मृसणाविणए अणेगविहे पण्णत्ते) शुश्रूषणाविनय अनेक प्रकार का है, (त जहा) जैसे- (अब्भुट्ठाणे इ वा आये हुए आचार्य आदि के आने पर खडे होना । विनय के योग्य साधुजन को देखते ही आसन का परित्याग करना (१) । (आसणाभिग्गहे इ वा ) गुर्वादिक जहा २ बैठना चाहे वहा २ आसन लेकर उपस्थित रहना, अथवा आसन पहुँचाना (२) । (आसणप्पदाणे इ वा ) गुरुके आने पर आसन प्रदान करना (३) ( सकारे इवा) विनययोग्य गुर्नादिक का चन्दना आदि द्वारा सत्कार करना (४) । (समाणे इ वा ) गुर्वादिकों का आहार, वस्त्रादिक प्रशस्तवस्तुओं द्वारा समान करना (५) । (किकम्मे इ वा ) यथाविधि वन्दना करना यह कृतिकर्म है, अर्थात् गुर्दा - विणए ) शुश्रूषणाविनय કેટલા પ્રકારના छे ? ( सुस्सूसणाविणए अनि पण्णत्ते) शुश्रूषयाविनय अनेड प्रहारनो छे, (त जहा ) भे- (अब्भु ट्ठाणे इ वा ) सही "ड" "वा" मे मे शब्दो वायास जरभा वपराया छे पधा રેલા આચાર્ય આદિની સામે જવુ, વિનયને યેાગ્ય સાધુજનેને જોતા જ આસનના परित्याग ४२वो (१) (आसणाभिग्गहे इ वा ) गुरु साहिङ ल्या ल्या मेसवा थाडे त्या त्या भासन सहने हार रहेवु, अथवा शासन थडोयाउवु (२) (आसणप्पदाणे इ वा) गुरु यावे त्यारे आसन अहान ४२५ ( 3 ) ( सकारे इवा) विनय योग्य गुरु साहिन बहना आदि द्वारा सत्र ४२वे (४) (संभाणे इ वा ) शु३ माहिनु आहार-वस्त्राहि प्रशस्त वस्तुयोथी सन्मान ४२५ (५) (किक Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६३ पीयूपवपिणी-टोका सू ३० यिनयभेदयर्णनम १२, ओहिणाणस्स १३, मणपजवणाणस्स १४, केवलणाणस्स १५, एएसिं चेव भत्तिवहमाणे ३०, एएसिं चेव वण्णसंजलणया ४५, से तं अणच्चासायणाविणए। से किं तं चरित्तविणए ?, भोहिणाणस्म' अवधिज्ञानस्य ।१३। 'मणपनाणाणस्स' मन पर्यपज्ञानस्य ॥१४॥ 'केवग्णाणम्स' केवलनानम्य ।१५। 'एएसि चे भत्तिबहुमाणे' एतेषाञ्चैव भक्तिबहुमानम्-मक्तियुक्त बहुमानम् 'अरहताण' दन्यारभ्य 'केवलणाणम्स' इति-पर्यन्तानामनयाशातनता पञ्चद्गविधा, पुनश्तेपामेव अदादीना भक्तिबहुमानयोगे त्रिंगद्विधचम् । पुन -'एएसि चेव वण्णसजल्णया' एतेषामेव वर्णमचलनता-सद्भूतगुगोत्कीर्तनता, अत्रेद वोध्यम्--अन यागातनाविनयो हि पञ्चच वारिंगद्विध प्रोक्त , तत्र--अर्हदादिग्निया पञ्चदश, अर्हदादिभक्तिनहुमानानि पञ्चदा, अहंदादीना वर्णन नलनताच पञ्चदश, तदित्यमन याशातनाविनय पञ्चचत्वारिंगविध इति । उपमहन्नाह-'से त अगचासायणाविणए' स एपोs नयागातनापिनय । इति । ' से किं त चरित्तविणए ?' अथ कोसौ चारित्र(१२), (ओहिणाणस्स) अविधिज्ञान का (१३), (मणपनवणाणस्स) मन पर्यवज्ञान का (१४) और (केरलणाणस्स) केवलनान का अवर्णवाद नहा करना (१५)। (एएर्सि चेव भत्तिपमाणे) तथा इन्हीं पन्द्रह भेदा का भक्तिपूर्वक बहुमान करना । इस प्रकार इन पन्द्रह भेदों को भक्तिनहुमान क माथ द्विगुगित करने से तास भेद हो जाते है। पुन (एएसिं चेव वण्णसजलणया)दन्हा के सद्भुत गुणों का उकीर्तन करना । इस तरह तीस में पन्द्रह वर्णज्वलनता मिलाने से पैतालास भेद अनयागातनाविनय के होते है। इस प्रकार (से त अणच्चासायणाविणए) यह सन अनत्यागातनाविनय है । प्रभ-( से कि त चरित्तविणए ) चारित्रविनय कितने प्रकार का है ? उत्तर-(चरित्त(१०), (ओहिणाणस्स) मधिज्ञानना (13), (मणपज्जवणाणस्स) मन पर्यवज्ञानना (१४), मने (केवलणाणस्स) सशाननी अq वाहन मास (१५) (एएसिं चेव - भत्तियहुमाणे) तथा 200१ ५४२ प्राशनु मस्तिपूर्व हुमान ४२५१ से अरे પદર પ્રકારના ભક્તિબહુમાનની સાથે બમણ કરવાથી તીસ પ્રકાર થઈ नय छ qणी (एएसि चे वण्णसजलणया) तमना समृत गुणानु जीर्तन કરવું એ રીતે તીસ મા પદર વર્ણસ જવલનતા મેળવવાથી પિતાલીસ પ્રકાર मनत्यानापिनयना थाय छ (से त अणचासायणारिणए) २॥ मारे से या मनत्यागातनाविनय छ प्रश्न-(से कि त चरित्तविणए) यशस्त्रिविनय-टमा प्रा२ने ? उत्तर-(चरित्तविणरा पचविहे पण्णन्ते) यास्त्रिविनय पाय टारना Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૬૨ औपपातिकसूत्रे च्चासायणया २, आयरियाणं अणच्चासायणया ३, एवं उवज्झायाणं ४, थेराणं ५, कुलस्स ६, गणस्स ७, संघस्म ८, किरियाणं ९, संभोगस्स १०, आभिणिवोहियणाणस्स ११, सुयणाणस्स अर्हद्भगनतामवर्णादिनिवारणम् |१| 'अरहतपणaa Taa aणचासायणया' अर्हत्प्रज्ञप्तस्य धर्मस्य अनत्यागातनता - सर्वज्ञकथितधर्मस्थानादादिनिवारणम् |२| 'आयरियाण अणचासायणया' आचार्याणामन यागातनता | ३| एवम् -'उवज्झायाणं' उपायायानाम् |४| 'थेराण' स्थविराणाम् ||५| 'कुलस्स' कुलस्य - एकाचार्यसन्ततिरूपस्य समानाssचारसाधुसमूहस्य | ६ | 'गणस्स' गगस्य - परस्परसापेक्षानेककुल साधुसमुदायस्य || 'सघम्स' सघस्य-सम्यग्दर्शनादियुक्तसाधुसाध्वीश्रावक श्रानिकारूपस्य | ८ | 'किरियाण' क्रियाणाम् ईर्ष्यापथिकादीनाम् |९|“सभोगस्स' सम्भोगस्य - सम्= एकत्र भोगो - भोजन - भोग - समानसामाचारी तया साधूना परस्परमुपथ्यादिदानग्रहणमन्व्यवहारस्तस्य, एकसामाचारिकताया इत्यर्थ |१०| 'आभिणिरोहिणाणस्स' आभिनिनोधिक ज्ञानस्य | ११ | 'सुयमाणस्स ' श्रुतज्ञानस्य ॥ १२ ॥ ( अरहतपण्णत्तस्स धम्मस्स अणच्चासायणया) अर्हत भगवान् द्वारा प्रज्ञम धर्मका अवर्णवाद आदि नहीं करना (२), (आयरियाण अणच्चासायणया) आचार्य महाराज का अवर्णवाद नहीं करना (३), इसी तरह ( उवज्झायाणं ) उपाध्याय का ( ४ ), ( थेराण ) स्थविरों का ( ५ ), ( कुलस्स) एक आचार्य के सन्ततिरूप समान आचार नाले साधुओं के समूह का (६), (गणस्स) परस्पर सापेक्ष अनेक कुल्नाले साम्प्रदाय का (७), (सघस्म) सम्यग्दर्शन आदि से युक्त साधु, साध्वी, श्रावक, थानिकारूप घ का (८), (किरियाण) ईर्यापथिक आदि क्रियाओं का (९), (सभोगस्स ) म्भोग- एकसामाचारिकता का (१०), (आभिणिनो हियणाणस्स) आभिनिनोधिक ज्ञान का (११), (सुयणा गस्स) श्रुतज्ञान का भगवाननो अववाह न मोसो (१), (अरहतपण्णत्तस्स धम्मस्स अणच्चासायणया) भर्डेत लगवान द्वारा प्रज्ञप्त धर्मनी अवशुवाह न मोसवा (२), (आयरियाण अणच्चासायणया) मायार्य भडारानने। अववाह न जोसो (3), मे रीते (उज्झायाण) उपाध्यायोना (४), (थेराण) भ्थविशेनो (4), (कुलस्स) भे: मायार्थना सततिश्य सभान मायारवाला साधुभोना समृडना (१), (गणस्स) परस्परभाषेक्ष मने दुणवाणा साधुस अहायनो ( ७ ), ( सघम्स ) सभ्यग्दर्शन माहिथी युम्त साधु-साध्वी-श्राव:- श्राविश्र ३५ भधना (८), (किरियाण) र्याठि शाहि भियागोनो (स), (सभोगस्स) भलोग-येऽसाभाथारितानो (१०), (आभिणिनोहियणाणस्स) मालिनिषेोधि ज्ञानने। (११), (सुयणाणस्स) श्रुतज्ञानने। Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६५ पीयूsfuणी टोका सू ३० विनयभेदवर्णनम छेदोवट्टावणिय व रित्तविणए २, परिहारविसुद्धिचरितविणए ३, सुहुम संपरायचरितविणए ४, अहक्खायचरितविणए ५, से तं नय |१| 'छेत्रावणियचरित रिगए' डेदोपस्थापनीयचाग्निविनय - छेदेन पूर्वपयायच्छेदन उपस्थायते=आरोयते यन्महाननलक्षण चाग्नि तच्छेदोपस्थापनायम्, तच तच्चा त्रिच, तमनया निय |२| 'परिहारविमुद्धिपरिचविगए' परिहारविशुद्धिचानिनिनय – परिहरण- परिहारस्तपाविशेष, तेन कर्मनिर्जगरूपा निशुद्विर्यस्मिन् चारित्रे तपरिहारविशुद्धि, तादृा चाग्नि, तसम्वन्धा विनय |३| 'मृहुमसपरायचरितविणए' सूक्ष्म-परायचाग्निविनय - सम्पर्येति समारमननति सम्पराय =रुपायोदय, सूक्ष्मो लोभागानशेष सम्परायो यन तसूक्ष्मसम्पराय, तद्रूप यच्चाग्नि, तसम्बन्धी विनय, |४| 'अहक्सायचरितविणए' यथाग्यातचारित्रचिनय – याथातथ्येनाऽभिविधिना च यदाख्यात कर पुन महात्रतों का जिसम आगेपण किया जाता है वह डेढोपस्थापनीयचारिन है । इस चारिनननधी जो विनय है वह छेदोपस्थापनीयचानिनिय है २ । “परिहरण परिहारः " परिहरण अर्थात् गच्छ का परित्याग करने का नाम परिहार है, यह परिहार एक प्रकार का निशेष तप है । इससे कर्मों को निर्जरारूप विशुद्धि जिस चारित्र म होती हे उसका नाम परिहारविशुद्धिचारिन है, इस चारित्रममधी जो विनय है वह परिहारनिशुद्धिचारित्रविनय 'है ३ | 'सपराय' शब्द का अर्थ कषाय है, क्यों कि इसकि वा म होकर जीन सार मे परिभ्रमग किया करता है । जिस चारित्र मे सूक्ष्म लोभ के अग का सद्भाव पाया जाता है वह सूक्ष्म-परायचारिन है । इस चारित्र के विनय करने का नाम सूक्ष्म परायचारिनविनय हैं | तार्थकर प्रभु ने जिस यथार्थता एव अभिनिधि के अनुसार चाग्नि का प्रतिपादन किया સામાયિક ચારિત્રને જે વિનય તે સામાયિકચારિત્રવિનય છે પૂર્વ દીક્ષાપર્યાયનુ છેદન કરી સ્ક્રીને મહાત્રતાનુ જેમા આગપણ કરાય છે તે અેદોપસ્થાપનીયચારિત્ર છે. આ ચારિત્રસ બધી જે વિનય છે તે છેદાપસ્થાપનીય शास्त्रिविनय छे6 परिहरणं परिहार," परिहर अर्थात् गछनो परित्याग કરવાનુ નામ પરિહાર છે, આ પરિહાર એક પ્રકારનુ વિશેષ તપ છે તેનાથી કર્મોની નિર્જરારૂપ વિશુદ્ધિ જે ચારિત્રમા થાય છે તેનુ નામ પરિહારવિશુદ્ધિચારિત્ર છે. આ ચારિત્રસ ખ ધી જે વિનય છે તે પરિહારવિશુદ્ધિચારિત્રવિનય છે ‘સ પગય' શબ્દનેા અથ કષાય છે, કેમકે એને જ વશ થઈને જીવ સ નારમા પરિભ્રમણ કર્યાં કરે છે જે ચાગ્ઝિમા સૂક્ષ્મલાભના અ શને સદ્ભાવ મળે છે તે સૂક્ષ્મઞ પરાયચારિત્ર છે આ ચારિત્રના વિનયનુ નામ સૂક્ષ્મસ પરાયાશ્ત્રિવિનય Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ औपपातिक चरितविणए पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा - सामाइयचरितविणए १, } विनय - अनफजन्मसविताऽयविधकर्मसनयर क्षयाय चरण चारित्र - सर्वविरतिरक्षणम्, तत्सम्बन्धी विनयश्चारिननिय स कतिनिध ' इति प्रभ, उत्तरमाह - 'चरितविणए पचविहे पण्णत्ते' चाग्निविनय पद्यनिध प्रज्ञप्त 'त जहा ' तथा 'सामाइयचरितत्रिणए' सामायिकच्चारित्रनिय सर्वजीनेषु रागद्वेषविरहितो भाग सम तस्य समस्य= प्रतिक्षणमपूर्वापूर्वकर्मनिर्जरा हेतुभूताया विशुद्वेगयेा लाभ समाय, स एव सामायिकम् - सावद्ययोगविरतिरूपम्, विनयादित्वात् स्वार्थे ठक्, तद्रूप चारिन, तस्य विनय - सामायिकचारित्र वि , fare पचविहे पण ) अनेक जन्म म उपार्जित आठ प्रकार के कर्मों के क्षय के लिये जो आचरण किया जाय वह सर्वविरतिरूप चारित्र है । इस चारित्र का निय करना सो चारित्रविनय है । वह पाँच प्रकार का है । (त जहा ) वे प्रकार ये है-(सामाइयचरितविणए छेदोवद्वारणियचरितविणए परिहारविमुद्धिचरितविणए मुहुम सपरायचरितपिए अहवागचरितविणए ) सामायिकरूप चारित्र का विनय, छेदोपस्थापनीयचारित्र का विनय, परिहारनिशुद्विचारिन का विनय, सूक्ष्मसम्परायचारित्र का विनय, एव यथाख्यातचारिन का विनय । समस्त जीवों में राग एव द्वेष की परिणति का परिहार करना इसका नाम सम" है । प्रतिक्षण अपूर्व अपूर्व कर्मनिर्जरा के कारण इस समरूप विशुद्धि का आय = लाभ होना इसका नाम 'समाय' है । "समाय" ही सामायिक है । यह सामायिक सर्वसावद्ययोगविरतिरूप है । इस प्रकार इस सर्वसावद्ययोगविरतिरूप सामायिकचारिन का जो विनय है वह सामायिकचारित्र विनय है १ । पूर्वदीक्षापर्याय का छेदन << છે અનેક જન્મમા ઉપાર્જિત આઠે પ્રકારના કર્મોના ક્ષયને માટે જે આચરણ ४राय छे ते सर्वविशति यान्त्रि छे ( त जहा ते अक्षर या छे - ( सामाइयचरितविणए छेदोपद्वानणियचरित्तविणए परिहार विशुद्धिश्वरित्तविणए, सुहुमसपराय चरितविणए, अह खाचरितविणए ) भाभावि३पयास्त्रिनो विनय, छेडोપસ્થાપનીયચારિત્રના વિનય, પરિહારવિષ્ણુદ્ધિચારિત્રને વિનય, સૂક્ષ્મસ ૫ રાયચારિત્રને વિનય, તેમ જ યથાખ્યાતચારિત્રને વિનય સમસ્ત જીવામા राग भन्न द्वेषनी परिशुतिना परिहार (त्याग) ४२वा तेनु नाम "सम" છે પ્રતિક્ષણે અપૂર્વ અપૂર્વ ક્રમનિર્જરાના કારણભૂત આ સમરૂપ વિશુદ્ધિના साल थव। तेनु नाम "आय" हे सम भने आय से अन्ने यहोने भेजववाथी 'समाय' श्रेषु यह जनी लय छे समाय थे ०४ भाभयिछे या सामायि મવ સાવધયેાગવિરતિરૂપ છે આ પ્રારે આ સમાવવયે વિરતિરૂપ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર૬૭ पीयूषषिणी-टीका स ३० यिनयभेदयर्णनम् सकिरिए २, सककसे ३. कडुए ४, णिहुरे ५, फरुसे ६, अण्हयकरे ७, छेयकरे ८, भेयकरे ९, परितावणकरे १०, उद्दवणकरे ११, ___भूओवघाइए १२, तहप्पगारं मणो णो पहारेज्जा, से तं अप्पस य मणे' यच मन - 'सापजे' मावय--सपापम् ।१। 'सकिरिए' सक्रियम् प्राणातिपाताचारम्भक्रियायुक्तम् ।२। 'सबसे' सकार्कश्यम्-कर्कशतासहितम् ।३। 'कडुए' कटुकम्स्वस्य परस्य च कटुकरसवद् उद्वेजकम् ।४। 'गिट्ठरे' निशुर-दयारहितम् ।५। 'फरसे' परुष-कठोरम् ।६। 'अण्हयफरे' आस्रवकरम् आस्रवकारि ।७। 'छेयफरे' छेदकरम् = मयमममाधिविनागरुम् ।८। 'भेयकरे' भेदकरम् समाधिविघातकम् ।९। 'परितावणकरे' परितापनकरम्-प्राणिना सन्तापजनकम् ।१०। 'उद्दवणकरें उपद्रवणकरम्-प्राणान्तकष्टकारकम् ।११। 'भूओवघाइए' भूतोपघातिकम्-भूताना आणिनामुपघातो हिंसा, सोऽस्याऽस्तीति भूतोपघातिकम् ।१२॥ ' तहप्पगार मणो णो पहारेजा' तथाप्रकार-ताश मनो नो प्रधारयेत् नो प्रवर्तयेत्-असयमक्रियासु मनो नोदीरयेत् । ' से त अप्पसत्यमणविणए ' स एषोऽप्रशस्तमनोविनय । ‘से कि त पसत्यमणविणए ' अथ कोऽसौ प्रशस्तमनोविनय :अण्इयकरे ७, छेयकरे ८, भेयकरे ९, परितावणकरे १०, उद्दवणकरे ११, भूओवघाइए १२)-जो मन सावध-पापसहित हो १, सक्रिय-प्राणातिपातादिक आरम्भक्रियायुक्त हो २, साग-प्रेमभाव से रहित हो ३, कटुक-अपने तथा पर के लिये कटुकरस के समान उद्वेजक हो ४, निष्ठुर-दयारहित हो ५, परुप-कठोर हो ६, आस्रवकर-आस्रवकारी हो ७, छेदकर-मयमरूपसमाधि का विध्वसफ हो ८, भेदकर-समाधिविघातक हो ९, परितापनकर-प्राणियों को सन्ताप का जनक हो १०, उपद्रवणकर-उपद्रव का कर्ता हो ११, एव भूतोपघातिक-प्रागियोका प्राणहर्ता हो १२, वह मन अप्रशस्त है। (तहप्पगार मणो णो पहारेज्जा) ऐसे मन को असयम क्रियाओं में प्रवृत्त नहीं करना । (से त अप्पसत्यमणविणए) वह अप्रशस्तमनोविनय है । (से नि त पसत्यमणविणए) प्रशस्तमनोविनय क्या है ? उत्तरજે મન સાવદ્ય-પાપસહિત હોય, સક્રિય-પ્રાણાતિપાતાહિક આર ભક્રિયાયુક્ત હોય, પ્રેમભાવથી રહિત હોય, પિતાના તથા પારકા માટે કડવા રસની પેઠે ઉપદ્રવજનક હોય, નિષ્ફર-દયારહિત હોય, પરુષ-કઠેર હોય, આવકારી હોય, સયમરૂપ સમાધિને વિશ્વ સક હોય, શરીરાદિકનું ભેદક હોય, પ્રાણિઓને સતાપજનક હોય, ઉપદ્રવ કરનારું હોય, તેમજ પ્રાણિઓનુ પ્રાણ લેનાર હોય તે મન અપ્રશસ્ત छ (तहप्पगार मणो णो पहारेज्जा) मेवा भनने मस यम डियासामा प्रवृत्त न ४२९, सेतअप्पसत्यमणविणए)ते मप्रशस्तभनाविनय छ प्रश्न-(से कि त पसत्यमणविणए) Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ औपपातिकमरे परित्तविणए। से किं तं मणविणए? मणविणए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-पसस्थमणविणए १, अप्पसत्थमणविणए २। से कि तं अप्पसत्थमणविणए ? अप्पसत्थमणविणए-जे य मणे सावजे १, तीर्थकरै कथितमकपाय चारितमिति तत् यथारख्यातचारित्र, तम्य कपायरहितचारित्रस्य विनय १५ । से त चरितविणए' स एप चाग्निविनय । 'से कि त मणविणए' अथ कोऽसौ मनोविनय ? उत्तरमाह-'मणरिणए'--मनोविनय मन्यते चिन्यतेऽनेनेति मन , तत्सम्बन्धी विनय , 'दुविहे पणत्ने द्विविध प्रजम , 'त जहा' तयथा-पसत्यमणविणए' प्रशस्तमनोविनय --प्रशस्तम्-अभयरहित मनोऽन्त करणं, तस्य विनय ११ 'अप्पसत्यमणविणए' अप्रशस्तमनोविनय -अप्रगस्तमनसो विनय ।२। 'से कि त अप्प सत्यमणविणए' अथ कोऽसौ अप्रगस्तमनोविनय ? उत्तरमाह-'अप्पसत्यमणविणए-जे है, इस रूप के चारित्र का नाम यथाख्यातचारित है । इस चारित्र का विनय करना सो यथाख्यातचारित्रविनय है ५। (से त चरित्तविणए) यह सब चारित्रविनय है । प्रश्न( से र्फि त मणविणए) मन का विनय कितने प्रकार का है ? उत्तर-(मणविणए दुविहे पण्णते) मनोविनय दो प्रकार का कहा गया है, (त जहा) जैसे-(पसत्थमणविणए) प्रशस्त मन का विनय-पापरहित मन को अपनाना प्रशस्तमनोविनय है। (अप्पसत्यमणविणए) अप्रशस्त मन का विनय करना सो अप्रशस्तमनोविनय है । प्रश्न-(से किं त अप्पसत्थमणविणए) अप्रशस्तमनोविनय क्या है? उत्तर-(अप्पसत्यमणविणए जे य मणे सावजे १, सकिरिए २, सककसे ३, कडुए ४, गिट्ठरे ५, फरसे ६, છે તીર્થંકર પ્રભુએ જે યથાર્થતા તેમજ અભિવિધિના અનુસાર ચારિત્રનું પ્રતિપાદન કર્યું છે તે રૂપના ચારિત્રનું નામ યથાખ્યાતચારિત્ર છે આ ચારિત્રનો विनय ४२व। ते याभ्यातयास्त्रिविनय छ (से त चरित्तविणए ) मा सया ચારિત્રવિનય છે प्रश्न-(से कि त मणविणए) मनन। विनय शु छ १४ ४१२ना छ ? उत्तर-(मणविणए दुविहे पण्णत्ते) भनाविनय प्रकार छ (त जहाभ-(पसत्यमणविणए) प्रशस्त मनना विनय-पापरहित भनने सपना प्रशस्त मनाविनय छ (अप्पसत्थमगविण) सप्रशस्त मनना विनय ४२ ते पशमनाविनय छ प्रश्न-(से कि त अप्पसस्थमणविणए) प्रशस्त मनाविनय उत्तर-(अप्पसत्यमणविणए-जे य मणे सारज्जे, सकिरिण, सक कसे, कडुए, विदरे, फरसे, अण्हयकरे, छेयकरे, भेयकरे परितावणकरे, उद्दवणकरे, भूऔषधाइए) Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयपषिणी-टीका स ३० पिनयभेदपर्णनम् २६७ सकिरिए २, सककसे ३, कड्डए ४, गिट्ठरे ५, फरुसे ६, अण्हयकरे ७, छेयकरे ८, भेयकरे ९, परितावणकरे १०, उद्दवणकरे ११, भूओवघाइए १२, तहप्पगारं मणो णो पहारेजा, से तं अप्पसय मणे' यच मन - 'सावजे' सावध-सपापम् ॥१॥ सकिरिए' सक्रियम् प्राणातिपाताचारम्भक्रियायुक्तम् ।२। 'सककसे ' सकाग्यम्=कगतासहितम् ।३। 'कडए' कटुकम्स्वस्य परस्य च कुटुकरसवद् उद्वेजकम् !४! 'गिट्ठरे' निठुर-दयारहितम् ॥५॥ 'फरसे' परुष-कठोरम् ।६। 'अण्हयकरे ' आस्रवकरम् आसवकारि १७ 'छेयकरे' छेदकरम् = मयमसमाधिविनाशकम् ।८। 'भेयकरे' भेदकरम् समाधिविघातकम् ।९। 'परितावणकरे' परिनापनकरम्-प्राणिना सन्तापजनकम् ।१०।'उद्दवणकरें उपद्रवणकरम्-प्राणान्तकष्टकारकम् ११११ भूओवघाइए' भूतोपघातिकम्-भूतानाणिनामुपधातो हिंसा, सोऽस्याऽस्तीति भूतोपपातिकम् ॥१२॥ तहप्पगार मणो णो पहारेजा' तथाप्रकारमाइश मनो नो प्रधारयेत् नो प्रपतयेत्-असयमक्रियासु मनो नोदोग्येत । ' से त अप्पसत्यमणविणए ' स एषोऽप्रशस्तमनोविनय । “से कि त पसत्यमणविणए ' अथ कोऽसौ प्रशस्तमनोविनय :अण्हयसरे ७, छेयारे ८, भेयकरे ९, परितावणकरे १०, उद्दवणकरे ११, भूओवयाइए १२)-जो मन सावध-पापसहित हो १, सक्रिय-प्राणातिपातादिक आरम्भक्रियायुक्त हो २, सकर्कश-प्रेमभाव से रहित हो ३, कटुक-अपने तथा पर के लिये कटुकरम के समान उद्वेजक हो ४, निष्ठुर दयारहित हो ५, परुष-कठोर हो ६, आस्रवकर-आववकारी हो ७, छेदकर-सयमरूपसमाधि का विश्वसक हो ८, भेदकर-समाधिविघातक हो ९, परितापनकर-प्राणियों को सन्ताप का जनक हो १०, उपद्रवणार-उपद्रव का कर्ता हो ११, एव भूतोपघातिक-प्रागियोका प्राणहर्ता हो १२, वह मन अप्रशस्त है। (तहप्पगारमणोणो पहारेज्जा) ऐसे मन को असयम क्रियाओं में प्रवृत्त नहीं करना । (से त अप्पसत्थमणविणए) वह अप्रशस्तमनोविनय है । (सेपिसत्यमणविणए) प्रशस्तमनोविनय क्या है। उत्तर-- જે મન ભાવ-પાપસહિત હોય, સજ્યિ-પ્રાણાતિપાતાદિક આર ભક્રિયાયુક્ત હાય, પ્રેમભાવથી રહિત હોય, પિતાના તથા પારકા માટે કડવા રસની પેઠે ઉપદ્રવ જનક હોય, નિષ્ફર-દયારહિત હોય, પરુષ-કઠોર હાય, આવકારી હોય, સયમરૂપ સમાધિને વિશ્વ સક હોય, શરીરાદિકનું ભેદક હોય, પ્રાણિઓને સતાપજનક હોય, ઉપદ્રવ કરનાર હોય, તેમ જ પ્રાણિઓનું પ્રાણ લેનાર હોય તે મન અપ્રશસ્ત छे (तह पगार मणो णो पहारेजा) मेवा भनने मस यमध्यिामाभा प्रवृत्तन २१, से त अप्पसत्यमणविणए)तेमप्रान्तमनोविनय छ प्रश्न-(से कि त पसस्थमणविणए) Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकमा - -स्थमणविणए । से कि तं पसत्थमणविणए १ पसत्यमणविणए. तं व पसत्थं णेयव्वं । एवं चेव वइविणओवि एएहि पएहि चेव णेयव्यो। से तं वइविणए। ‘पसत्यमणोविणए' प्रशस्तमनोविनय ‘त चेद पसत्य यब' तदेव प्रशस्त नेतन्यम्-अप्रगस्ते यद्विशेषण नदेन प्रगतिरपेग परिवर्तणीयग, यथा-प्रा तन मानधमित्युक्त, अर तु निरवमिति वाच्यम् । इत्थ सणि विशेषणात परिवर्तनीयानि, तथा सति प्रास्तमनोविनय । 'एव चेर वहरिणमोरि एएहि पएहि चेवणेयब्बो' एवमेव वाग्(पसत्यमणविणए तं चेव पसत्य णेयव्य) अप्रगस्त मन के जो विशेषण है उनका प्रशस्तरूप में परिवर्तन करने से प्रशस्तमन होता है । जैसे-जो मन निरवच-पापरहित हो १, अक्रिय-प्राणातिपाताहिक क्रिया से विरत हो -२, अफग-प्रेमसहित हो ३, अफटुकस्वपर का उद्वेग करने वाला नहीं हो ४, अनिछुर-ठयायुक्त हो ५, अपरुप-कोमल हो ६, अनास्रवकर-कारयुक्त हो७, अच्छेदकर-छेदकर नहीं हो, अर्थात् स्यमसमाधि से युक्त हो ८, अभेदकर-भेदकर नहीं हो, अर्थात् समाधियुक्त हो ९, अपरितापनकर-प्राणियों के लिये सतापकर नहीं हो, अर्थात् शान्तिजनक हो १०, अनुपद्रवकर-प्राणियों का उपद्रवकारी नहीं हो ११, और अभृतोपघातिक-प्राणियों का उपघात करनेवाला नहीं हो १२। ऐसा मन प्रशस्तमन कहा गया है । इसका जो विनय-आदर सो प्रशस्तमनोपिनय है। (एव चेव वदविणओवि एएहि पएहि चेव णेयन्वो) इसी प्रकार वचन का विनय भी प्रशस्त प्रशस्तमनाविनय ? उत्तर-(पसत्यमणविणए-त चेय पसत्य यव्य) मप्रशस्त મનના જે વિશેષણે છે તેમનું પ્રશસ્ત ૩૫માં પરિવર્તન કરવાથી પ્રશસ્ત મન થાય છે જેમકે-જે મન નિરવદ્ય-પાપરહિત હેય, અક્રિય-ખ્યાતિપાદિક ક્રિયાઓથી વિરત હય, અકર્કશ-પ્રેમસહિત હોય, અડટુક-સ્વપરનો ઉદ્દેગ કરવાવાળું ન હોય, અનિષ્ફર-દયાવાળું હાય, અપરુષ-કોમળ હોય, અનાવડર-સવરવાળું હોય, અદકર- છેદન કરવાવાળું ન હોય અર્થાત્ સયમસમાધિથી યુક્ત હોય, અભેદકર-ભેદ કરનાર ન હય, અર્થાત્ સમાધિયુક્ત હોય, અપરિતાપનકરપ્રાણિઓને માટે સતાપર ન હોય, અર્થાત્ શાતિજનક હય, અનુપદ્રવરપ્રાણિઓને ઉપદ્રવકારી ન હોય અને અભૂતપધાતિક-પ્રાણિઓનો ઉપઘાત કરનાર ન હોય, એવું મન પ્રશસ્તમન કહેવાય છે તેને જે વિનય–આદર सशस्तभनविनय छ (एव चेर वइविणओवि एएहि पएहिं च णेयों) मे Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषयपिणी- दा ३० विनयभेदवर्णनम् २६९ विनयोऽप्येते पदैरेन नतन्य - प्रथम प्रशस्ताऽयन्तभेदेन विविध विनाय, तव परम् अप्रशस्तचाग्विनये मानयानानि देयानि प्रस्तानिये निरवद्यादीनि विशेषऔर भेद से दो प्रकार का है । जो वचन साउथ- पापमहित हो, सक्रिय-प्राणातिपानाटिक की आरम्भक्रिया स युक्त हो, सकर्कण-कर्कगता से युक्त हो, कटुक-स्वपर को कटुकरस के समान उद्विग्न करने वाला हो, निष्ठुर - दयारहित हो, परप-कठोर हो, आम्रवकर—भववका उपादक हो, देवकर - समसमाधि का विनाशक हो, भेटकर - समाधि का विभातक हो, परितापनकर - - प्राणिया के लिये सन्तापजनक हो, उपद्रवणकर- प्राणियों के लिये उपद्रवकारी हो, तथा भूतोपघातिक - प्राणियों की हिंसा करने वाला हो, ऐसा वचन अप्रशस्तपचन है। इस तरह का वचन नहीं बोलना अप्रशस्तवचननिय है । तथा - जो वचन निरवद्य – पापरहित हो, अक्रिय --प्राणातिपातादिक क्रिया से विरत हो, अकर्कग - प्रेमसहित हो, अकटुक - स्वपर के लिये उद्वेगजनक नहीं हो, अनिष्ठुर - दया - सहित हो, अपरूप - कोमल हो, अनासकर मारयुक्त हो, अच्छेदकर-डेढकर नहा हो अर्थात् मयमसमान से युक्त हो, अमेडकर - भेदकर नहीं हो, अर्थात समाधियुक्त हो, 'अपरितापनकर - प्राणियों को सन्ताप देने वाला नहीं हो, अनुपद्रवणकर - प्राणियों के लिये उपद्रव करने वाला नहीं हो, और अमृतोपघातिक - प्राणियों को हिंसा करने वाला नहीं हो, પ્રકારે વચનના વિનય પણ પ્રાન્ત અને અપ્રશસ્ત ભેદે કરીને એ પ્રકારને છે. જે વચન માવદ્ય--પાપરહિત હોય, સક્રિય-પ્રાણાતિપાતાર્દિકની આર લप्रियाथी युक्त होय, सम्-४४शतावाणु होय, ४५४–स्वयरना उटु (४डवा) रमनी पेठे उद्विग्न ४२वावाणु होय, निष्ठुर-हयारहित होय, धनुष उठोर होय, આસવકર-આાવનુ ઉત્પાદક હાય, છેકર-ઞયમ મમાધિનુ વિનાશક હાય, ભેદકર-સમાધિનુ વિઘાતક હાય, ઉપદ્રવણકર-પ્રાણિઓને માટે ઉપદ્રવકારી હોય, તથા ભૂતાપઘાતિક-પ્રાણીઓની હિંમા કરનારુ હોય, એવુ વચન અપ્રશમ્સ વચન છે એવી નતનુ વચન ખેલવુ નહિ તે અપ્રશમ્તવચનવિનય છે તથા જે વચન નિવદ્ય-પાપરહિત હોય, અક્રિય–પ્રાણાતિપાતાદિક ક્રિયાથી વિરત હોય, અકશ--પ્રેમસહિત હોય, અકટુક-સ્વપરના માટે ઉદ્વેગજનક न होय, अनिष्ठुर-हयावाणु होय, मयरुष-जेभण होय, मनाव४२ -स वर યુક્ત હોય, અછેદન્ડર-છેદર ન હોય, અર્થાત્ સ યમ–સમાધિવાળુ होय, અભેદકર-બેકર ન હોય, અર્થાત્ સમાધિયુક્ત હાય, અપરિતાપન-ર-પ્રાણિ આને મ તાપ આપનાર ન હોય, અનુપદ્રવ૰ર-પ્રાણિઓને માટે ઉપદ્રવ કરનારુ ન હોય અને અભૂતાપધાતિ-પ્રાણિઓની હિંસા કરવાવાળુ ન હોય એવા Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकको से कि तं कायविणए ?, कायविणए दुविहे पण्णत्ते; तं जहा-पसस्थकायविणए १, अप्पसत्थकायविणए २ । से किं तं अप्पसत्थकायविणए ? अप्पसत्थकायविणए सत्तविहे पण्णत्ते; तंजहा-अणाउत्तं गमणे १, अणाउत्तं ठाणे २, अणाउत्तं णानि योजनीयानि । ' से त यइविणए ' स प वाग्विनय । कायविनय पृच्छति-' से फित कायविणए' अब कोऽमो कायविनय । उत्तरमाह-कायविणए'-कायविनय 'दुविहे पण्णते विविध प्रजम , १ 'पसत्यकायविणए' प्रशस्तफायरिनय , २-'अप्पसत्थफायविणए ' अप्रशस्तकायविनय । 'से कि त अप्पसत्थकायविणए' अथ कोऽसौ अप्रशस्तकायपिनय ? 'अप्पसत्यकायविणए' अप्रशस्तकायविनय 'सत्तविहे पण्णत्ते' सप्तविध प्रजम । सप्तविधत्व दर्शयति-'त जहा' तद्यथा-'अणाउत्त गमणे' अनायुक्त गमनम् ऐर्यापथिक्यामसावधानतया गमनम् ।१। 'अणाउत्त ठाणे' अनायुक्त स्थानम् उपयोगाभावेन अवस्थानम् ऐसे वचन को प्रशस्तवचन कहते हैं । ऐसे वचन का बोलना सो प्रशस्तवचनविनय है । (सेत वइविणए) सो यह पूर्वोक्त वचनविनय है । अब कायविनय क्या है ? इस बात को शिष्य पूछता है (से कि त कायविणए ) कायविनय क्या-कितने प्रकार का है। उत्तर ( कायविणए दुविहे पण्णत्ते) कायविनय दो प्रकार का है (पसस्थकायविणए अप्पसत्थकायविणए ) एक प्रशस्तकायविनय और दूसरा अप्रशस्तकायविनय । 'से कि त अप्पसत्थकायविणए । अप्रशस्तकायविनय कितने प्रकार का है। 'अप्पसस्थकायविणए सत्तविहे पण्णत्ते' अप्रशस्तकायविनय सात प्रकार का है, (त जहा) जैसे-(अणाउत्त गमणे) अनुपयुक्त गमन-ईर्यापथ मे गिना उपयोग के गमन करना, (अणाउत्त ठाणे) विना उपयोग के खडा होना, (अणाउत्त निसीयणे) વચનને પ્રશસ્ત વચન કહે છે એવા વચન બોલવા તે પ્રશસ્તવચનવિનય છે હવે अयविनय शुछ १ ते वात शिष्य पूछे छ-(से कि त कायविणए) यविनय शु छ-326 प्रारना छ ? उत्तर-(कायविणए दुविहे पण्णत्ते) आयविनय मे प्रा२ने। छ(पसत्यकायविणए अप्पसत्यकायविणए) ग्रेड-प्रशन्तयविनय भने मान-मप्रशस्त यविनय (से किं त अप्पसत्यकायविणए) मप्रशस्तडायविनय ८९ मारने। (अप्पसत्यकायविणए सत्तविहे पण्णत्ते) मप्रशन्तायविनय सात ५४ारने छ. (त जहा) २ (अणाउत्त गमणे) अनुपयुत गमन-पिथमा विना योगनु मन ४२७, (अणावत्त ठाणे) विना पयागनु GRL (अणाउत्त निसीयणे) Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७१ पीयूषपिणी-टोका सू ३० विनयभेदयर्णनम् निसीयणे ३,अणाउत्तं तुयट्टणे ,अणाउत्तं उलंघणे ५. अणाउत्तं पल्लंघणे ६, अणाउत्तं सबिदियकायजोगजुंजणया ७, से तं अप्पसत्थकायविणए । पसत्थकायविणए एवं चेव पसत्थं भाणियव्वं । से तं पसत्थकायविणए । से तं कायविणए । से कि २। 'अणाउत निसीयणे' अनायुक्त निपदनम् अनुपयोगनोपवेगनम् ।३। 'अणाउत्त सुयहणे ' अनायुक्त बग्नर्तनम अनवधानतया त्वग्वर्तन मस्तारके पार्थपरिवर्तनम् ।४। 'अणाउत्त उल्लपणे' अनायुक्तमुलधनम् कर्दमादीनामनिक्रमणम् ।५। 'अणाउत्तं पलपणे' अनायुक्त प्रोल्लयनम् -पुन पुनरलयनम् ।। 'अणाउत्त सबिदियफायजोगजुजणया' अनायुक्त मन्द्रियकाययोगयोजनता मर्वेपामिन्द्रियाणा काययोगम्य च योजन-प्रवर्तनम् असावधानतया सर्वेन्द्रियकाययोगव्यापारणम् ।७। 'से त अप्पसत्यकायविणए ' स पोऽप्रशस्तकायविनय । 'से कि त पसत्यकायविणए ' अब कोऽमौ प्रशस्तकायविनय ? 'पसत्यकायविणए' प्रशस्तकायविनय –' एवं चेव पसत्य भाणियब' एवमेव अप्रगस्तवदेन प्रशस्तकायपिनयो भाणतत्र्य =वक्तव्य , यथा तानाविना उपयोग के बैठना, ( अगाउत्त तुयट्टणे ) विना उपयोग के विस्तर पर करवट बदलना, (अगाउत्त उल्लंघणे) विना उपयोग के कीचड़ आदि का लाघना, (अणाउत्तं पपणे ) पिना उपयोग के पार बार कीचड आदिका उल्लघन करना । (अगाउत्त सन्धिदियकायजोगजुजणया) विना उपयोग के समस्त इन्द्रियों की एव काययोग की प्रवृत्ति करना, (सेत अप्पसत्थकायविणए ) इन सभी अप्रशस्त क्रियाओं से काय को रोकना अप्रगस्तकायविनय है । प्रभ-(से कितपसत्यकायविणए) प्रशस्तकायविनय क्या है ? उत्तर(पसत्यकायविणए एपचेव भाणियन्त्र सेत पसत्यफायविणए) इसी तरह प्रशस्तकायविनय है, मर्थात् अप्रशस्तकायविनय मे अनुपयुक्त अवस्था से होने वाली गमनादिक क्रियाएँ रोकी पिन उपयोगनु मेयषु, (अणाउत्त तुयट्रो)विना योगनु पयारीमा पासा महसपा, (अणाउत्त उल्लघणे) विना उपयोगे अय: पोरे टपषु, (अणाउत्त पल्लघणे) यागार वा२ वा श्रीय विशनु धन ४२७, (अणाउत्तं सबिदियकायजोगजुजणया) विना योगनु समस्त छद्रियानी तमा अाययागनी प्रवृत्ति ७२, (से ते अप्पमत्थकायविणए) से पधी मप्रशस्त छियासाथी याने ।४ी ते मप्रशन्तायविनय छ प्रश्न-(से किं तं पसत्यफायविणए) प्रशस्तय. विनय छ ? उत्तर--(पसत्थकायविणए-एच चेव भाणियव्य से तं पसत्यकायविणर) પ્રહસ્તકાયવિનય આ જ રીતે છે અર્થાતુ અપ્રશસ્તકાયવિનયમાં અનુપયોગી અવ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ औषणातिर तं लोगोवयारविणए ? लोगोवयारविणए सत्तविहे पण्णते; तं जहा-अब्भासवत्तियं १, परच्छंदाणुवत्तिय २, काहेओ ३, कयपडिकिरिया १, अत्तगवेसणया ५, देसकालण्णुया ६, सबसु अप्पडिलोमया ७, से तं लोगोवयारविणए। से तं विणए ॥ सू० ३०॥ युक्तमुक्तम्, अत्र सोपयोग गमनादिक वाच्यमित्रर्थ । 'से तं पसत्यकायविणए ' म एप प्रशस्तकायग्निय { ' से त कायविणए ' स एष कायविनय ।' से कि त लोगोश्यार विणए । अथ कोऽमो लोकोपचारविनय । लोकानामुपचरण लोकोपचार , तसम्बधी दिनयो, लोकोपचारविनय , लोकव्यवहारसाधको विनय इत्यर्थ , 'लोगोश्यारविगए सत्तविहे पण्णत्ते' लोकोपचारविनय समविध प्रजप,-'त जहा' तद्यथा-'अभासवत्तिय' अभ्यासवृत्तिता कलाचादिममीपस्थितिशीलना ११'परच्छेदाणुरत्तिय' परन्छन्दानुवर्तिताः पराभिप्रायानुवर्तनम ।। 'फजओ' कार्यहतो विद्यादिप्रामिनिमित्त-'श्रुत जाती है और इस प्रशस्तकायविनय में ये सब ही कायमस्वी क्रियाएँ उपयुक्त होकर की जाती है। प्रश्न-(से कि त लोगोषयारविणए ) लोकोपचार विनय क्या-कितने प्रकार का है। उत्तर-(लोगोश्यारविणए सत्तविहे पण्णत्ते) लोकव्यवहारसाधक यह लोकोपचारविनय सात प्रकार का कहा गया है, (त जहा) वे सात सात प्रकार ये हैं-(अभासवत्तिय) अभ्यासपर्तिता-कलाचार्य आदि के समीप मे स्थितिशीलता, अर्थात्-गुरु आदि के निकट रहने का स्वभाव होना, (परच्छदाणुवनिया) परच्छन्दानुवर्तिता-गुरु आदि की आज्ञा के अनुकूल अपनी प्रवृत्ति रसना, (कज्जहेओ) रिया आदि की प्राप्ति के निमित्त भक्तपान સ્થાથી થવાવાળી ગમનઆદિક ક્રિયાઓને રેકાય છે અને આ પ્રશસ્તાવિનયમાં सधी ४१यस ॥धी मियामी जपयोगी समस्याथी राय छे प्रश्न-(से कित लोगोपचारविणए) पयार विनय शुछ-सा प्रश्नाले त्तर-(लोगोरयारविणए सत्तविहे पण्णत्ते) साप्यवहारसा मानाच्या२विनय यात मारना याछ, (त जहा) भात -(अध्भासवत्तिय ) अभ्यासपतिताયાચાઆદિના સમીપમાં સ્થિતિશીલતા, અર્થાત્ ગુરુ આદિની પાસે રહેવાને anार, (परच्छदाणुयत्तिया) ५२२७ नुवनिता-Y3 माहिनी भाशाने पानी प्रवृत्ति समी, (कजहेओ) वि माहिनी प्रासिने निमित्त Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૭૩ पोषपिणो-टीका मु. ३० विनयभेदप्रायश्चित्तभेदयर्णनम ___ मूलम्-से किं तं वेयावच्चे वेयावच्चे दसविहे पण्णत्ते; ___प्रापितोऽहमनेन'-ति हेतो शुश्रूपा । ३ । 'कयपडिकिरिया' कृतप्रतिक्रिया "भक्तादिनोपचार कृने सति प्रसन्ना गुग्यो में श्रुतदानरूपा प्रतिक्रिया-प्रयुपकार करिप्य ता"ति बुद्ध्या गुरुणा शुश्रूषारणम् ।। 'अत्तगसणया' आर्तगवेषणता-आर्तस्य वितस्य गपगना-औपमैपयादिना पाटितस्योपकार टत्वयं ५। 'टेमकालण्णुया' देगकालनता देगकालोचितार्यमम्पान्नम् ।। 'सबटेमु अप्पडिलोमया' मर्थित अप्रति गोमता मर्यप्रयोजनेषु आनुमूल्यम् । ' से त लोगोषयारविणए, से त विणए' म प लोकोपचारविनय , . स एप विनय ।। मृ० ३०॥ ___टीका-लाभ्यन्तरतपसस्तृतीयभंट वयात्य नाम तप पृच्छति-से किं त वेयावच्चे' अथ किं नद यावृत्यम् ( माधूनामाहागपपाटिभि माहाय्यकरण चयापत्यम्, तत् आदि लाकर देना, (कयपडिकिरिया ) कृतप्रतिक्रिया-कृत उपकार का ध्यान रखकर प्रत्युपकार करने का भावना से प्रीनियुक्त व्यवहार करना, ( अत्तगवेसणया) आर्तगवेपणता-रोगादि अवस्था से युक्त गुरु महाराज आदि का औपर-भेपन द्वाग उपचार करना, ( देसकालण्णुया) देशकालनता--देशकाल के अनुसार प्रवृत्ति करना , ( सबढेम अप्पडिलोमया) सन कार्यो म अप्रतिकुलता अर्थात् अनुकूलता रमना । ( से त लोगोवयारविणए ) यह सन लोकोपचारविनय है । ( से त विगए ) इस प्रकार विनय तप का वर्णन जानना चाहिये ।। सू० ३० ॥ से कि त वेयावच्चे। सूनकार अब आभ्यन्तर तप का जो तृतीय भेद वैयावृत्त्य तप हे उसका मान-पान माहिसावी माप, (कयपडिकिरिया ) वृतप्रतिध्या-सा ઉપકારને ધ્યાનમાં રાખીને પ્રત્યુપકાર કરવાની ભાવનાથી પ્રીતિયુક્ત વ્યવહાર ४२३।, (अत्तगवेसणया) सातवेषाता-हिमपश्यावाणा गुरुमहारार माहिना मौषध-सपाथी पयार ४२व), (देसकालण्णुया) Asadi-हे। ४सने मनुसने प्रवृत्ति ४२वी, (सबसु अपडिलोमया) या आर्याभा मप्रतिसता अर्थात् मनुता रामवी (से त लोगोपयारविणए) से या ययापिनय छ (से तं पिणए) से सारे विनय तपनु पर्षन धुवु ध्ये (सू ३०) __ 'से कि तं वेयावच्चे' त्याहि સૂત્રકાર હવે આભ્યન્તર તપને જે ત્રીજો ભેદ વિયાવૃત્ય તપ કે તેનું Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - ર૭૪ औपपातिपत्र तं जहा-आयरियवेयावच्चे १,उवज्झायवेयावचे २, सेहवेयावच्चे ३, गिलाणवेयावच्चे ४, तवस्सिवेयावच्चे ५, थेरचेयावचे ६,साहम्मिय'दसविहे पण्णत्ते' दयविध प्रज्ञमग, त जहा-तयथा 'आयरियचेयापचे' आचार्यवैयावृत्यम्-आचार्यस्य वैयावृत्यम् आहारादिभि शुभूपाकरणम् ११३ 'उवझायवेयायचे' उपाध्यायवैयावृत्यम् ।२। 'सेहयावचे औक्षयाहत्यम्-गीक्षितो गल शैक्ष, तस्य मयमसाहा यदानम् ।३। 'गिलागवेयायचे' ग्लानौयाहत्यम्-लानस्य नामा रुजया वा सिनस्य वैयावृत्यम् १४} 'तासिसपेयापचे' तपस्विवैयावृत्यम् निरन्तर चतुर्मक्तादिकरणशीलस्य मासक्षपणादिकरणशालस्य या वैयावृत्यम्,'थेरवेयापच्च' स्थविरवैयावृत्यम् स्थविवर्णन करते हैं। शिष्य पूटना हे-हे भदन्त ! (से कि त वेयावच्चे) वैयावृत्य तप क्या-कितने प्रकार का है। उत्तर-(वयावच्चे दसबिहे पण्णत्ते) यह चैयावृत्यतप दस प्रकार का है । आहार औषध आदि द्वारा सहायता करना वैयावृत्य है । ( त जहा) उसके धे दम भेद इस प्रकार से है--( आयरियवेयाश्चे, उवज्झायवेयापचे, सेहवेयावच्चे, गिलाणवेयावचे, तबस्सिवेयायचे, थेरवेयावचे, साहम्मियवेयायचे, कुलवेयाश्चे, गणवेयावच्चे, सघवेयाचे, से त वेयायचे ) आचार्य महाराज का वैयावृत्त आहार पानी आदि द्वारा सेवा करना, उपाध्याय का चैयावृत्य, शैक्ष-नवदीक्षित साधु का वैयावृत्य, ग्लान-तपस्या से अथमा रोग से ग्लान माधु का वैयावृत्य, तपस्वी-निरन्तर चतुर्थभक्त आदि तपस्या करने वाले अथवा मासक्षपगादि को तपस्या करनेवाले तपस्वी महाराज का वैयावृत्य, स्थविर जरा से जर्जन्ति अथना ज्ञान से वृद्ध साधु का चैयावृत्य, साधर्मिक-समान पनि छ शिष्य पूछ छ- महन्त (से कि त वेयायचे) यावृत्त्य त५ शु - प्रा२नु ? उत्तर-(वेगावचे दसविहे पण्णत्ते) मा यावृत्त्या તપ ૧૦ પ્રકાર નું છે આહાર ઔષધ આદિ દ્વારા સહાયતા કરવી તે વૈયાવૃત્ય ॐ (त जहा) तेना मेश ले म प्रारे छ (आयरियवेयावचे, उवज्झाय वेयावन्चे, सेहवेयावन्य, गिलागवेयावच्चे, तम्सियावच्चे, थेरवेयावन्चे, साहभियवेयावच्चे, कुलवेयारचे, गणवेयायचे, सघवेयापाचे, से त वेयावन्चे) मायार्य મહારાજનું વૈયાવૃત્ય-આહાર પાણી આદિ દ્વારા સેવા કરવી, ઉપાધ્યાયનુ, હૈયાવૃત્ય, શિક્ષ-નવદીક્ષિત સાધુનું વિયાવૃત્ય, ગ્લાન તપસ્યાથી અથવા રેગથી કલાન્ત (દુર્બળ) સાધુનું વિયા, તપસ્વીનર નર ચતુર્થભત આદિ તપસ્યા કરવાવાળા અથવા માસક્ષપા, આદિની તપસ્યા શ્વાવાળા તપસ્વી મહારાજન લયાવન્ય, વિર-વૃદ્ધાવસ્થાથી જાતિ અથવા જ્ઞાનથી વૃદ્ધ સાધુનું વૈયા Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोषयपिणी टीका स ३० ययावृत्त्यभेद-स्थाध्यायभेदवर्णनम २७५ वेयावच्चे ७, कुलवेयावच्चे ८, गणवेयावञ्चे ९, संघवेयावच्चे १०, से तं वेयावच्चे । से किं तं सझाए ? सझाए पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-बायणा १, पुच्छणा २ परियट्टणा ३, अणुप्पेहा ४,धम्मरस्य-जगजीर्णस्य ज्ञानवृद्धस्य वा वैयावृत्यम् || 'साइम्मियवेयावचे मार्मिकवगावृत्त्यम्-- ममानधर्मगा येयावृत्त्यम् ।७। 'कुलवेयावचे ग्वेनात्यम्-एमाचार्यसन्ततिल्प कुल, तम्य वैयाऋत्यम् ।८। 'गणवयावशे' गणवैयाऋत्यम-कुलाना ममूहो गगो-गस्तम्य वैयावृयम् ।९।'मरवेयायचे म्ययावृत्यम-गगाना ममुदाय मा तम्य वैयावृत्यम् ।१०। ' से न वेयावचे' तदेतद् वैयाऋत्यम । 'से किंत सज्झा' अथ क म स्वाध्याय ' स्वाध्याय फिस्वरूप कनिविध ? इति प्रश्न-उत्तग्माह-'मझाए पचविहे पण्णत्ते' स्वाध्याय पञ्चविध प्रनत , स्वाध्याय -मु-मुष्टुआ मर्यात्या गल्वेलापरिहारेण पौरप्यपेक्षया वा अध्याय =श्रुतस्य अध्ययन स्वाध्याय ।तपञ्चविपच दर्गयति--'त जहा' तद्यथा-'वायणा' वाचना-अध्यापनम् , धर्मवाला का वैयावृत्य, कुल-एफ आचार्य का ततिरूप मुनिजनों का वेयावृत्त्य, गण-कुलममूहरूप गच्छ का यावृत्य और गग के समूहरूप मका वयात्त्य कग्ना सो यह सन वावृत्य तप के मे है । प्रश्न-'मे किं न समाए) स्वाध्याय तप क्या-फिनने प्रकार का है ' उत्तर-(साए पचविहे पण्णत्ते) स्वाध्याय तप पाच प्रकार का है । अकाल-बेला का परिहार करते हुए अपनी शक्ति के अनुमार सुनका अध्ययन करना स्वाध्याय है, उसके वे पाच प्रकार ये है-(वायगा, पुन्छणा, परियणा, जणुप्पेहा, पम्मकहा)वाचना,प्रच्छना, परिवर्तना, अप्रेमा ण्व धर्मकया । (सेत समाए) टस प्रकार म्बायाय पाच प्रकार का है। आचार्याटिक વૃચ, સાધમિંક-સમાનધર્મવાળાનુ વિયાવૃત્ય, કુળ-એક આચાર્યની સતતિ રૂ૫ મુનિજનેનુ વયાવૃત્ય, ગણ-કુળસમૂહ૩૫ ગચ્છનું વિષાવૃત્ય, અને ગણના સમૂહરૂ૫ सधनु यात्त्य २७, मेधा यावृत्त्य तयना नेहछे प्रश्न-(से कि त सज्झाए) २१५ याय त५४७-४८ जान्नु छ ? उत्तर-(सझाए पचविहे पण्णत्ते) स्वाध्याय તપ પાચ પ્રકારનું છેઅકાલવેળાનો ત્યાગ કરીને પોતાની શક્તિ અનુસાર श्रुतनु अध्ययन ३२७ ते पाध्याय छे तना से पाय मा२ मा छ-(धारणा, पुच्छणा, परिपट्टणा, अणुप्पेहा, धम्मकहा) वायना, प्रछना, परिवर्तना, मनु क्षा तेभर पर्भया (से तं समाए) 21 प्रजारे स्वाध्याय पाय मारना આચાર્ય આદિ પાબેથી સૂવ આદિ ગ્રહણ કરવા તે “વાચના” છે મૂત્ર આદિને પૂછવા તે “પ્રચ્છના” છે નખાવેલા સૂત્રનું વિસ્મષ્ણ ન થઈ જાય તે Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ ओपात कहा ५, से तं सज्झाए । से किं तं झाणे ? झाणे चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहा - अज्झाणे १, रुज्झाणे २, धम्मज्झाणे ३, सुक्कज्झाणे ४ | 'पुच्छणा' प्रचना, |२| 'परियहणा' परिवर्तना=अधीनस्थ सूत्रम्य 'मा भूद्र निम्मरण' - मिति कर्मनिर्जगथं पुन पुन करिंधिदेकस्मिन् स्तुनि अन्तर्मुहर्तमानकाल चित्त स्विगय चिन्तन, तपठन, सूत्रस्य गुणनमित्यर्थ |३| 'अणुप्पेहा' अनुप्रेक्षा - सूनवर्थेऽपि विस्मरण भवति, अत माsपि परिभावनीय इत्यनुप्रेक्षण-चितनिकेयर्थ |8| 'अम्मा' धर्मकथाधर्मम्य =: = श्रुतरूपस्य या कथाच्याख्या सा |५| 'से तं सज्झाए' स एय स्वाध्याय । 'से किं त झाणे' अथ किं तद् व्यानम् ' 'झाणे चउन्विहे पण्णत्ते' ध्यान चतुर्विध प्रज्ञमम्, त जहातयथा - १--'नट्टज्झाणे' आर्तव्यानम् - तन्दु स, तस्य निमित्त, यद्वा-तत्र भवम् - आर्त्तं तच तद् ध्यानम्, आर्तस्यन्दु खितस्य वा ध्यानम् - आर्तध्यानम् - मनोज्ञामनोज्ञस्तुमयोगनियोगादिनिबन्धनचित्तवै न्यरूपम्। तथा चोक्तम् सेना का ग्रहण करना 'वाचना' है । सूत्र आदि का पूठना 'प्रच्छना' है। त सूत्र का स्मरण न हो जाय, इस विचार से पुन पुन उसकी आवृत्ति करना 'परिवर्तना' है । सनार्थ का पुन पुन चिन्तन करना 'अनुप्रेक्षा' है। तथा धर्म की कथा करना- 'धर्मकथा' है । प्रश्न- (से किंत झाणे ) ध्यानका क्या स्वरूप है-वह कितने प्रकार है ' उत्तर-(झाणे चन्हे पाते ) ध्यान के चार प्रकार है, (तं जहा) वे चार प्रकार ये हे- (अट्टज्झाणे, रहज्झाणे, धम्मज्झाणे, मुक्कज्झाणे) आर्त्तध्यान, रौद्र्ध्यान, धर्मध्यान, एव शुक्लध्यान । इनमे दुख के निमित्त अथवा दुस मे जो ध्यान होता है वह आर्तव्यान है, मनोज्ञ एव अमनोज वस्तु के योग और नियोग में जो एक प्रकार की चित्त मे विकलता होती है वह आध्यान है । कहा भी है વિચારથી કરી કરીને તેની આવૃત્તિ કરવી તે પરિવર્ત્તના’ છે. સૂત્રના અનુ ફરી ફીને ચિંતન કરવુ તે અનુપ્રેક્ષા' છે તથા ધર્મની થા કરવી ધર્મ-दथा' हे प्रश्न- (से किं त झाणे) ध्याननु शुन्य छे ? ते सा अारनु छे ? उत्तर (झाणे चव्विहे पण्णत्ते ध्यानना यार जछे, ( त जहा ) ते या छे( अट्टज्झाणे, रद्दज्झाणे, धम्मज्झाणे, सुकझाणे, ) यात ध्यान, रौद्रध्यान, धर्मધ્યાન તેમજ શુકલધ્યાન તેમા ક્રુ અને નિમિત્તે અથવા દુખને સમયે જે ધ્યાન થાય છે તે આર્ત્તધ્યાન છે, મનેાજ્ઞ તેમજ અમનેજ્ઞ વસ્તુના મયાગથી તેમજ વિયેથી જે એક પ્રકારની ચિત્તમાં વિકળતા થાય છે તે આ ધ્યાન છે કછુ પણ છે Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयृपपिणी टीका ३० व्यानमेववर्णनम् " राज्योपभोगशयनासन वाहनेपु, स्त्रीगन्यमाल्यमणिरत्नविभूषणेषु । उच्चाभिलापमतिमानमुपैति मोहाद ध्यान तदात्तमिति समवदन्ति तज्ज्ञा ॥१॥ २- 'रुदज्झाणे' ध्यानम-ययागन इति स्व = प्राण्युपपातादिपरिणतो जीवन्तम्य कर्म रौद्रम्-हिंमाद्यतिक्रूरतारूप, तद्रूप ध्यान रौद्र यानम् । तदुक्तम् रानभञ्जनमारणेव हारने निकृन्तनैश्च । 9 यो याति गगमुपयाति च नानुकम्पा ध्यान तु रौद्रमिति तप्रवदन्ति तजा ॥२॥ इति । राज्योपभोगशयनासननानेषु, सांगन्यमा यमणिग्नविभूषणेषु । इच्छाभिपमतिमानमुपैति मोहाद ध्यान तदार्त्तमिति प्रवदन्ति तन्जा " ॥ १ इति ॥ राय का उपभोग, पद्म आदि सुकोमल गया, सुन्दर आमन, घोडे हाथी आदि वाहन, मनोगरिणा त्रियाँ, इन आदि सुगन्धित वस्तुएँ, सुन्दर सुन्दर धुप्पो की मुत मालाय, तथा मग्निमय आभूषण, उन मन में मोह के कारण जो मनुष्य की उ कट अभिनाया है, उस अभिलाषा को विज्ञ जन 'आर्त्तयन' कहते है ॥ १ ॥ "रोदयति अपरान् इति रुद्रः" जो दूसरों को रगता है वह स्व है, अर्थात् प्राणियों की उपयान आदि किया में जो जीन है वह स्व है, स्व का जो कर्म वह गैह्र है । उसका हिंसादिक अतिक्रूरतारूप जो ध्यान हे वर रौद्र्ध्यान है । कहा भी हैसदनभजनमारथ हारमनैर्विनिकृन्तनै । यो याति रागमुपयाति च नानुकम्पा, व्यान तु रौद्रमिति तत्प्रवदन्ति तज्जाः ॥२॥ राज्योपभोगशयनासननानेषु स्त्रीगन्धमाल्यमणिरत्नविभूषणेषु । इन्द्रा भिलापमतिमात्रमुपैति मोहाद्, ध्यान तदार्त्तमिति सन्ति तज्जा ॥२॥ ગત્યના ઉપભાગ, પલગ આદિ સુરેમલ શય્યા, સુદૃ આમન, વાડા હાવી આદિ વાહન, મનેાહાગ્ણિી શ્રીએ, અત્ત આદિ સુગધિત વસ્તુઓ, સુદર સુદર પુષ્પાની બનાવેલી સુલલિત માળા, તવા મણિગ્નમય આભૂપણ, આ મવામા મેહુને ટાણે જે મનુષ્યની ઉત્કટ અભિલાષા છે તે અભિલાષાને વિદ્વાના ‘આત્ત વ્યાન’ કહે છે (૧) 22 " २७७ 6 राज्यति अपरान् इति स् જે ખીજાને ાવગવે તે રુદ્ર છે, અર્થાત્ પ્રાણુિએની ઉપઘાત (માવુ ) આદિ ક્રિયામા લવલીન રહેતે જે જીવ છે તે રુદ્ર છે, રુદ્રનુ જે કમ તે રૌદ્ર છે તેનુ હિંસાદિક અતિક્રૂરતારૂપ જે ધ્યાન છે તે રૌદ્રવ્યાન છે વધુ પણ છે -- मठेडनैर्ब्रट्नभञ्जनमारणञ्च बन्धप्रहारमनेर्निनिरन्तनैश्च । यो याति रागमुपयाति च नानुकम्पा, ध्यान तु रौद्रमिति तत्प्रवदन्ति तज्ज्ञा ॥२॥ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર૭૮ औपपातिकको ३-'धम्मज्झाणे' धर्मध्यानम्=सजाऽऽज्ञापनुचिन्तनम् । उक्तत्र " सूनार्थसाधनमहानतधारणेपु, बन्धप्रमोक्षगमनागमनेषु चिता। पञ्चेन्द्रिययुपरमथ दया च भूते, ध्यान तु धर्ममिति सप्रवदन्ति तन्ना" ||३॥ इति । जो मनुष्य छेदन, दहन अर्थात् जलाना, भन्नन-तोडना-माँगना, मारण-प्राणरहित करना, बाँधना, प्रहार करना, दमन करना, काटना आदि क्रियाओं में आनन्द मानता है। प्राणियों पर जिसको अनुकम्पा नहीं होती है, ऐसे मनुष्य की उन दुष्प्रवृत्तियों को विज्ञ जन 'रौद्रध्यान' कहते है ॥२॥ __ सर्वज्ञ का आना आदि का अनुचिन्तनरूप धर्मध्यान है। कहा भी हैमूत्रार्थसाधनमहातपारणेपु, पन्धप्रमोक्षगमनागमनेषु चिन्ता । पञ्चेन्द्रियव्युपरमश्च दया च भूते, ध्यान तु धर्ममिति समवदन्ति तज्ज्ञाः॥३॥ मूत्र और सूत्र के अर्थ का चिन्तन करना, साधन का चिन्तन करना, अर्थात् साधूपकरण को प्रनिलेखना करने में तत्परता रखना, महाव्रत धारण का चिन्तन करना अर्थात् महाव्रत जो धारण किये हैं उनमें कोई अतिचार न लगे इसके लिये सर्वदा प्रयत्नशील होना , बन्ध और मोक्ष के स्वरूप का चिन्तन करना, 'चतुर्गतिक म्सार में जीव का गमनागमन फिस कारण से होता है। उसका चिन्तन करना, पाँचों इन्द्रियों का निग्रह करना, જે મનુષ્ય છેદન, દહન અર્થાત બાળવુ, ભજન=ોડવુભાગવુ, મારણપ્રાણરહિત કરવું, બાધવુ, પ્રહાર કરે, દમન કરવું, કાપવુ આદિ ક્રિયાઓમાં આનદ માને છે, પ્રાણિઓ ઉપર જેને દયા નથી આવતી એવા મનુષ્યના એ દુષ્પવૃત્તિઓને વિદ્વાને રૌદ્રધ્યાન” કહે છે (૨) સર્વાની આજ્ઞા આદિનુ અનુચિ તનરૂપ ધર્મધ્યાન છે કહ્યું પણ છે – सूत्रार्थमाधनमहाव्रतधारणेपु, बन्धप्रमोक्षगमनागमनेषु चिन्ता । पञ्चेन्द्रियव्युपरमश्च दया च भूते, ध्यान तु धर्ममिति सप्रवदन्ति तज्ज्ञा ॥३॥ સૂત્ર અને સૂત્રના અર્થનુ ચિતન કરવું, સાધનનુ ચિતન કરવું અર્થાત્ સાધુના ઉપકરણની પ્રતિલેખના કરવામા તત્પરતા રાખવી, મહાવત ધારણનું ચિતન કરવું, અર્થાત્ મહાવ્રત જે ધારણ કર્યા છે તેમાં કઈ અતિચાર ન થશે. તે માટે સર્વદા પ્રયત્નશીલ રહેવુ, બ ધ અને મોક્ષના સ્વરૂપનું ચિંતન કરવ, ચતુર્ગતિક સ સારમાં જીવન આવવા-જીવાનું શું કારણથી થાય છે ? Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ पीयूषपणी-टीका सू ३० ध्यानभेदवर्णनम २७१ ४- 'सुवज्झाणे' युग्भ्यानम् शुचोक क्रमयति-अपनयतोति शुक्र- भवभयकारण, • शुक्र च तद् ध्यान शुध्यानम् । तथा चोक्तम् "यस्येन्द्रियाणि विषयेषु पराङ्मुखानि, संकल्प कल्पनविकल्पविकारो । योगे स च निभिरहो नितान्तगमा, ध्यानोत्तम Trafia न्ति ॥ ३ ॥ इति । एव सभी प्राणिया पर दया रखना, इस प्रकार की आत्मा की शुभ प्रवृत्ति को विज्ञ जन " 'धर्मध्यान ' कहते है ॥३॥ " शुचं शोक क्रमयतीति शुरु " शोक को जो नष्ट करे यह 'शु है । "शुक्ल च तद्व्यानं च शुक्ल यान" शुक्ररूप जो ध्यान वह शुक्रभ्यान ह । अर्थात् जो भवक्षय का कारण होता है अथवा जिससे शोक का अपनयन होता है, वह शुक्ध्यान है। कहा भी हैयस्येन्द्रियाणि विषयेषु परामुखानि, सकल्पकल्पन विकल्पविकारदीपैः । योगैः स च त्रिभिरहो निभृतान्तरात्मा, ध्यानोत्तम प्रवरशुक्लमिद वदन्ति ॥ जिनकी इन्द्रियावृत्तियों से रहित है, जो मप-विकल्प-जनित विकार-टोपों से वर्जित है, कायिक, वाचिक, मानसिक तीनों योगों को वा कर लेने के कारण जिनकी आत्मा निश्चल है, ऐसे महामाओं की प्रस्त परिणति को विज्ञ जन 'शुक्रध्यान' कहते है ॥ ४ ॥ તેનુ ચિતન કરવુ, પાંચેય ધૃદ્નિને નિગ્રહ કરવા, તેમ જ બધા પ્રાણિએ ઉપર 46 દયા રાખવી, એ પ્રકારની આત્માની શુભ પ્રવૃત્તિને વિદ્વાને ધર્મધ્યાન' કહે છે शु-शोकं क्लमयतीति शुक्लं " शेोउनो ? नाश करे ते 'शुस ' छे" 'शुक्ल च तद् ध्यान घ-शुक्लध्यानं " शुम्वइप के ध्यान ते शुध्यान छे, અર્થાત્ જે ભવક્ષયનુ કારણ હોય છે અથવા જેનાથી શાકનુ અપનયન થાય છે તે શુક્લધ્યાન છે કહ્યુ પણ છે यस्येन्द्रियाणि विषयेषु पराङ्मुखानि संकल्पकल्पनविकल्पविकारदोयै । योगे स च त्रिभिरहो निभृतान्तरात्मा, ध्यानोत्तम प्रारम्लमिदं वदन्ति ||१|| જેની ઇન્દ્રિય વિષયપ્રવૃત્તિથી રહિત છે, જે સવિકલ્પ નિત विधारोषोथी पति छे, भायिक, वाचिक, मानसिक, त्रय योगोने शरी લેવાના કાગ્યે જેને આત્મા નિશ્ચલ છે, એવા મહાત્માએની પ્રશસ્ત પરિણ ત્તિને વિદ્વાના શુક્લધ્યાન' કહે છે (૧) Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० औषपातिकमत्रे अदृज्झाणे चउबिहे पण्णते; तं जहा-अमणुण्णसंपओगसंपउत्ते तस्स विप्पओगसइसमण्णागए यावि भवड १, मणुण्ण एषु चतुर्विधेषु ध्यानेषु प्रथममार्तगान चतुर्वि माह-अट्टज्माण चउबिहे पणते' आर्तध्यान चतुर्विध प्रजमम् , 'त जहा' तयया-१-'अमणुण्यसपभोगमपउत्ते तस्म पिप्पओगसइसमण्णागए यावि भाद' अमनोनमम्प्रयोगमम्प्रयुक्तस्तस्य विप्रयोगस्मतिसमन्वागतश्चापि भवति-अमनोज =अनिष्टो य अादि , तस्य सम्प्रयोगायोगस्तेन सम्प्रयुक्तो य स तथाविध सन् तस्य अमनोजगन्दादे विप्रयोगस्मृति =वियोगचिन्ता, तया समन्वागत = अनुगतश्चापि भवति, एतद् आर्तध्यानम् , ध्यानध्यानातोरभेटोपचाराद ध्यानगनपि ध्यानमुच्यते, एवमग्रेऽपि यो यम् । २-मणुण्यसपनोगमपउत्ते तम्स अपिप्पओगसइस इन चार प्रकार के ध्यानों में प्रथम जो आतध्यान है, वह चार प्रकार का है, इसी बात को बताने के लिये प्रकार कहते ह-(अज्माणे चउबिहे पण्णत्ते) आर्तध्यान ४ प्रकार का कहा गया है । (त जहा) वह इस प्रकार से-(अमणुण्णसप ओगसपउत्ते तस्स विप्पओगसइसमण्णागए यावि भाद) अमनोज-अनिष्ट गन्दादि के सनध होने पर उसके विप्रयोग-दूर करने के लिये जो वारवार विचार किया जाता है वह अनिष्टसयोगज आर्सध्यान है । यहा ध्याता को जो ध्यान कहा है वह ध्यान और पानवान् में अभेद के उपचार से जानना चाहिये । इसी तरह से आगे के ध्यानों में भी अभेद का उपचार जानना। (मणुग्णसपोगसपउत्ते तस्स अविष्पभोगसइसमण्णागए यावि - આ ચારેય પ્રકારના ધ્યાને માથી પ્રથમ જે આર્તધ્યાન છે તે ચાર प्रा२नु छ, पात वा माटे सूत्रा२ (अट्रज्झाणे चउविहे पण्णत्त) भारत ध्यान यार प्रहारना डेटा छ (त जहा) ते मारे छ-(अमणुण्णसप ओगसपउत्ते तस्स विप्पओगसइसमण्णागए यावि भवइ) आमनामनिष्ट શબ્દાદિકને સ બ ધ થતા તેને વિપ્રગ-દૂર કરવા માટે જે વારંવાર વિચાર કરવામાં આવે છે તે અનિમયોગજન્ય આર્તધ્યાન છે અહીં ધ્યાન ફના જે ધ્યાન કહેવામાં આવ્યું છે તે ધ્યાન અને ધ્યાનવાન અભેદ એકતાના ઉપચારથી થયે છે તેમ જાણવું જોઈએ, એ જ રીતે આગળના माप मलेहना पयार oneी देवो (मगुणसंपओगसपउत्ते तरस अविप्पओगसइसमण्णागए यानि भवइ) भनाश- A s विपयोमा Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- - - पोवृपयपिणो-टीया सू ३० गाभियर्णनम २८१ संपओगसंपउत्ते तस्स अविप्पओगमइसमण्णागए यावि भवइ २, आयंकसंपओगसंपउत्त तस्ल विप्पओगसडसमण्णागए यावि भवड ३, परिसियकामभोगसपउत्ते तस्स अविपओगसडसमण्णागए यावि भवड । अस्स ण झाणस्स चत्तारि लमण्णागए यावि भवट ' मनोजमम्प्रयोगसम्प्रयुक्तग्नम्याऽविप्रयागस्मृनिममन्वागतगापि भानि-मनोज इप्टो य गन्दादि , तम्य म प्रयोग आयोगानन मम्प्रयुक्त मन् नस्म= मनोजगाविप्रयोगम्मति =अवियोगचिन्ना, नया ममन्यागत =नयुक्त मापि नाति । ३ - आयफमपयोगसपउत्ते तस्म विपनांगसइममण्णागए यात्रि मव' आतमम्प्रयोगमम्प्रयुक्तस्तस्य विप्रयागम्मतिसमन्वागतश्चापि भवति-आतयो रोग, तस्य सम्प्रयोग =मयोग , तेन मम्प्रयुक्त सन् नभ्याउनहाय पिप्रयोगस्मृति =वियोगचिन्ता, नया ममन्यागतश्चापि भवति । १-परिजसियकामभोगसपनोगसपउत्ते तम्स अविष्पओगसदसमण्णागए याचि भक्ट ' परिजुष्टकामभोगसम्प्रयोगसम्प्रयुक्तस्तस्याऽपिप्रयोगम्मृति समन्वागतचापि भवति, परि समन्तात् , जुष्ट =समित -प्रीतो वा य कामभोगस्तस्य प्रयोगशा प्रयुक्त सन , तस्य कामभोगस्य अधिप्रयोगरमति अपियोगचिन्ता तया, समन्वागत - संयुक्त चापि भनि । 'अट्टम्सण आणस्स चत्तारि लवणा पण्णत्ता' आर्तस्य गल्लु व्याभाइ) मनोज-दष्ट शादिक विपयो का मप्रामि होन पर उनके अभिप्रयोग-वियोग न होने का वारपार चिन्तन करना सो वह इष्टमयोगज आर्तव्यान है । (आयकसपओगसपउत्त तम्स विपनोगसटसमण्णागए यापि भवद ) आतक-रोग के प्रयोग- योग होन पर जो उसके नियोग होन का गाग्वार चिन्तन करना ह वह वेटनाजन्य आर्तच्यान है । ( परिजसियकामभोगमपओगसपउत्ते तम्स अविप्पआंगसरसमण्णागए यावि भवट ) सेपित कामभोगों का प्रामि होन पर उनका कमा मा पियोग न हो ऐसा विचार करना मो यह चौथा आर्त्तव्यान है । (अट्टम्म ण जाणम्स चत्तारि लक्षणा પ્રાપ્તિ થતા તેમને અવિપ્રોગ- વિગ ન થાય તેનું વારંવાર ચિતવન २७ ते 24 174 मात्त ध्यान (आफसपओगसपउत्ते तस्स निष्पओग सइसमण्णागए यानि भाई) यात ४-रोगनी प्रयोग-यो। यता तेना વિયોગ થવાનુ વાર વાર ચિતવન કરે છે તે વેદનાજન્ય આતયાન (परिजूमियकामभोगसपोगसपउत्ते तस्स अपिपओगमइसमण्णाग यानि भाइ) નેવન કરેલ કામગોની પ્રાપ્તિ થતા તેમને કદી પણ વિગ ન થાય Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૨ আঁথাসিদ্ধ क्खणा पण्णता, तं जहा-कंदणया १, सोयणया २, तिप्पणया ३, विलवणया ४ । रुद्दमाणे चउबिहे पण्णत्ते; न जहाहिंसाणुवंधी १, मोसाणुबंधी २, तेणाणुवंधी ३, सारक्खणानस्य च चारि लक्षणानि प्रजमानि, 'त जहा'तद्यथा-१ 'पदणया' कन्दनना-मगन्दा शुप्रक्षेपरूपा । २ 'सोयणया' शोचनता=मानमग्लानिरूपा । ३ 'तिप्पणया' तेपनतानिश्शन्दाश्रुमोचनम् । " 'पिलवणया' गिलपनता-पुन पुन स्वकृताशुभकर्मणामुच्चा ग्णम् , "झीश पूर्वजन्मनि मया दुपृतमाचरित यफल्मधुनंदा मया लभ्यते" दयादिरूपम् । 'रुद्दज्झाणे चउबिहे पण्णत्ते' गैद्र यान चतुर्विध प्रजमम् , 'त जहा' तयथा-१ 'हिंसा णुषधो' हिंसानुगन्धि-हिंसा-परप्राणहरणरूपामनुमन्नाति-करोतीति हिंसानुवन्धि,२-'मोसा पण्णत्ता ) इस आर्त यान के ४ चार लक्षण बतलाए गये है, (त जहा) वे इस प्रकार है-(कदणया सोयणया तिप्पणया विलवणया ) क्रन्दनता-शन्सहित आसुओं को निकालते हुए रोना (१)। शोचनता-मानसिक ग्लानि करना (२) । तैपनता-ऐसा रोटन हो कि जिसमे रोन का आवाज आवे नहा, परन्तु आँसू निकलते रहे (३) । विलपनतावारवार अपन किये हुए कर्मों का जिसमें चिन्तवन करते हुए उच्चारण हो, जैसे-मैन पूर्वजन्म मे कैसे पाप किये, जिसका फल मुझे भोगना पड रहा है, ये सन आर्तध्यान क लक्षण हे । इन लक्षणों से आर्तव्यान की सत्ता जानी जाती है । ( रुद्दज्झाणे चउबिहे पष्णत्ते) रौद्रव्यान चार प्रकार का कहा गया है, जैसे--(हिंसाणुपधी, मोसाणुबंधी, तेणाणुवधी, सारस्खणाणुवधी) जिस “यान मे हिंसा का अनुनध हो वह हिंसानुबधा रौद्रध्यान है । सवा पियार ४२वात या याथु मातध्यान छ (अस्स ण झाणस चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता) २३मात ध्यानना चार पक्ष तावदा, (त जहा) तसा प्रकारे -( कदणया सोयणया तिप्पणया विलपणया) अन्न-श६ साथ मासुमा पात २७७ (१), शयन-भानसिं सानि ७२वी (२), તેપન-એવુ રૈદન થાય કે જેમા રવાને અવાજ આવે નહિ, પરંતુ અસુ વહેતા રહે (૩), વિલપન-વાર વાર પિતે કરેલા કર્મોનુ ચિતવન કરતા મોટેથી વિલાપ કરવો, જેમકે–મે પૂર્વ જન્મમાં કેવા પાપ કર્યા કે જેનું ફળ મારે ભોગવવું પડે છે આ બધા આર્તધ્યાનના લક્ષણ છે એ લક્ષણોથી આર્તધ્યાનની सत्ता की सेवाय छ (ग्दज्झाणे चउबिहे पण्णत्ते ) शैद्रध्यान यार प्रानु सात जहा) मेम (हिंसाणुनधी, मोसाणुषधी,तेणाणुवधी, सारक्खणाणुबधी) Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮રૂ पीयूषयपिणी-टीका स्व ३० ध्यानभेदवर्णनम णुवंधी ४। रुदस्सणं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता, तं जहाउसण्णदोसे १, बहुदोसे २, अण्णाणदोसे ३, आमरणंतदोसे णुवधी' मृपानुनधि-मृपा अमय, तदनुमन्नाति-करोतीति मृपानुनन्धि, असत्यवचनेन धर्मापपातकुमार्गप्ररूप गनिन्दादिकारकमियर्थ । ३-'तेगाणुपपी' सैन्यानुपन्धि अदत्तानानकारकम् ,४ 'सारस्वणाणुग्धी' सरक्षणानुनन्धि-विषयमापनस्य धनादिकम्य नरक्षणे अनुबन्ध = सम्बन्धोऽम्याम्तीति तत् सरक्षणानुबन्धि । 'रुटस्स ण झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता' रौद्रम्य ग्यलु ज्यानम्य च पारि लमणानि प्रजमानि, 'त जहा' तयथा -'उसण्णदोसे' बाहुल्यदोष –अनुपगततया नाहुल्येन प्राचुर्यण दोपो हिंमाऽनृताऽदत्ताऽऽदानसरक्षणानामन्यतम बाहुल्यटोप । 'उसन्न' ति बाहुल्यार्थे देशीयान्ट ।१। तथा-'बहुदोसे' बहुदाप-बहुपु हिमादिपु प्रवृत्तिलक्षणो दोपो बहुदोष ।२। 'अण्णाणदोसे' अज्ञानटोप -अनानात्-कुशास्त्रादिसस्कारात् हिंसादिपु अधर्मस्वरूपेषु धर्मयुद्भया प्रवृत्तिलक्षणो दोपोऽज्ञानदोष ।३। जिस ध्यान म मृपा-झूठ का अनुनम हो वह मपानुनधी रौद्रध्यान है । जिस ध्यान मे चोरी करने का अनुनम हो रह स्तैन्यानुनधी रौदध्यान हे । जिस ध्यान म विषय के साधनभूत धनानिक के रक्षण का अनुनम ह वह परमणानुनधी रौद्र यान है । (रुदस्स ण झाणस्स चत्तारिलखणा पण्णत्ता ) इस रौद्रभ्यान के ? लक्षण कहे हुए है, जैसे-(उसण्णदोसे, बहुदोमे, अण्णाणदोसे आमरणतदोसे ) हिंसा, झूठ, चोरा आदि पापकर्मी मे से किसी एक पापकर्म म जो बाहुल्येन प्रवृत्ति होना सो उसन्नदोप है । हिंसाटिक सभा पाप कर्मो मे जो नाहुल्येन प्रवृत्ति होना सो वहुदोप हे । सुशास्त्रादिक के मस्कारजन्य अज्ञान से हिंसादिकों मे धर्मवुद्धि से प्रवृत्त होना सा अज्ञानदोप है । मरणपर्यन्त पश्चात्ताप नहीं करते हुए हिंसाજે 'યાનમા હિરાને અનુબ ધ હોય તે હિસાનુબ ધી રૌદ્રધ્યાન છે જે ધ્યાનમાં મૃષા-જુઠાણાને અનુબંધ હોય તે મૃપાનુબ ધી રૌદ્રયાન છે જે ધ્યાનમા ચેરી કરવાને અનુબ ધ હોય તે સ્તન્યાનુબ ધી રૌદ્રધ્યાન છે જે 'યાનમા વિષયના સાધનભૂત ધન આદિકના સંરક્ષણ અનુબંધ છે તે સ રક્ષણાનુબ ધી રૌદ્રધ્યાન छ (मदरस ण झाणस्स चत्तारि लम्सणा पण्णत्ता) मा शैद्रध्यानना यार सक्षा खडसा छ,(त जहा) -(उमण्णदोसे, बहुदोसे, अण्णाणढोसे, आमरणतदोसे) डिसा, જુઠાણુ, ચોરી, આદિ પાપકર્મોમાથી કોઈ પણ એક પાપકર્મમાં જે બળવાન પ્રવૃત્તિ થવી તે ઉદેપ છે હિ સાદિક બધા પાપકર્મોમાં જે બળવાન પ્રવૃત્તિ થવી તે બહુ દેપ છે કુશાસ્ત્રાદિકના સંસ્કારજન્ય અજ્ઞાનથી હિસાદિકમા ધર્મબુદ્ધિથી પ્રવૃત્તિ થવી તે અજ્ઞાનદેપ છે મરણપર્યન્ત પશ્ચાત્તાપ કર્યા વગર હિનાદિ કર્મોમાં Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ গীষিক্ষয় ४। धम्मज्झाणे चउबिहे चउपपडोयारे पण्णत्ते; तं जहा-आणा'आमरगतदोसे' नामग्णान्नदोष - मरगमंत्र तो मग्गान्त , मग्णपर्यन्तम अमनातानुतापन्य कालगौरिकादेग्मि या हिमादिषु प्रवृत्ति सा प्रतिग्य जागरगान्तदोष ।। यानषु आर्नगेटे था ये वर्मा तु गाये । 'धम्ममाणे चउबिहे चउप्पडायारे पण्णत्ते' धर्म यान चतुर्विध चतुप्रयतार प्रज्ञपम् । धर्म ग्रान चतुर्विधननयो नि स्वरूपलगालम्बनानुगारूपा प्रमाग यस्मिन ततनयोक्तम् । चतुष्प्रयातार च-स्वरूपादिपु एकस्य चतुष्प्रकारतया प्र यस्तागे विचार गीयवेन अस्तगण यम्मिन् तत, प्रयेक चतुर्विधमियर्थ , प्रज्ञ सम् । तर स्वास्य चातुर्ति यमाह-तद्यथा-'आणापिचए' आचारिचयम्-आजा-जिनप्रवचन, नस्या विचय -ययालोचन या ततथा, नागुगाऽनुचिन्तनमियर्थ , आनामे चिन्तयेत-आजा भगवत मनस्य पूनापरविशुद्धा निग्यशजीरकायहिताऽनया महाया महानुभागा निघुगजनदिका म प्रवृत्तिगाल रहना मो आमरणातढोप है । इन चार व्या म आर्त्त-रोद्र-ध्यान छोडने योग्य है, और धर्म यान व शुलयान ये दो यान ग्राय है । अब धर्म गान का भेद कहते हे -(धम्मज्झाणे चउचिह चउप्पडोयारे पाणते ) धर्मध्यान-स्वरूप, ल कग, आलापन, । अनुप्रेला क भद से चार प्रकार का है, इन चारा म भी एक एक के चार चार भेद हाते है । इस प्रकार कुल दमके १६ भेट हो जाते है। धर्मध्यान के चार स्वरूप ये है( आणाविचए, अवायविचए, विवागविचए, सठाणविचए,) अज्ञापिचय, अपायविचय, विपाशविचय और स्थाननिचय । तार्थकर प्रभु की आजा का निमम विचार किया जाय यह आजापिचय धर्मव्यान है। तार्थकर प्रभुको आजा का चिन्तश्न इसम इस प्रकार किया जाता है भगवान का आजारप प्रवचन पूनापर में निढाप है, निरमशेष जीयों का हितकत्ता પ્રવૃત્તિની રહેવું તે આપણાત દેપ ) આ ચારેય વ્યાનામા આપી ધ્યાન છેડવા યોગ્ય છે અને ધર્મ ય ન તેમજ શુકલધ્યાન એ બે ધ્યાન રહU ७२१यो-२ वे मध्याननी प्रहार -(धम्मज्झाणे चउन्विहं चउपडोयारे पप्णते) ध्यान, -१३५, RRY, PANन तेभर नुप्रेक्षाना लेहया ચાર પ્રકારનું છે જે ચામાં પણ એકએકના ચાર ચાર ભેદ થાય છે से गले सतनासो (१६) मे 45 लय (जहा) मध्यानना यार ४ •५३५ मा -( आणाविचए, अमायश्चिा , मिनागरिचा, मठाणविचए) RRE વિચય, અપાયવિચય, વિપાકચિય અને માનચિય, નીર્થ કર પ્રભુની આજ્ઞાને જેમાં વિચાર કરવામાં આવે તે આજ્ઞાવિય ધર્મધ્યાન તીર્થ - ૨ પ્રભુની આજ્ઞાનું ચિતવન એમ એ રીતે કરાય –ભગવાનનું આજ્ઞારૂપ પ્રવચન પૂવાપરમાં નિર્દોષ છે, તમામ જીવોને હિતકા છે, અનવદ્ય છે, Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૯ पोयूपवर्षिणी-टो सू ३० ध्यानभेदयर्णनम् विचए १ अवायविचए २. विवागविचए ३ संठाणविचए । धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णता, त जहा-आणाविशेया द्रव्यपयायप्रपनमोपिनी अनाधनन्ता भवप्रपञ्चमोनना नरकनिगोटाहिट सविधसिनी कर्मगन्धिभेदिनी विद्यते । २--'पायविचए' आयविचयम्-आपाया गगद्वेपाटिजन्या अन यास्तेपा विचयो यत्र तत्तथा, विषयटोपाऽनुचि तनमित्यर्थ । ३ 'विवागविचए' रिपाकविचयम्-विपाक =कर्मफट, तस्य विनयो यत्र तत्तथा कर्मफलाऽनुचिन्तनमियर्थ । ५-- 'सठाणरिचा' मम्यानपिचयम्-मम्यानानि-ठोटापममुद्रायातय , तेपा विचयो यत्र तत् तथा, 'यम्मम्स ण प्राणस्य चत्वारिकापणा पण्णत्ता'धर्मस्य गल प्यानम्य च नारि लमणानि प्रजमानि, 'त जहा' तद्यथा-१--'आगाई' आजारचि -आना-सर्वज्ञवचनरूपा, तया है, अनवद्य है, गभीर है, प्रभावशाली है, निपुगजनपिनेय है, द्रव्य व पयायां का बोधक है, अनादि पर अनन्त है, “मार का अन्त करन नाला र नरक ए निगोदानिक के द यो का रिनाशक है और कर्मग्रन्यि का उच्छेदक है ॥१॥अपायविचय-रागद्वेप आदि से जन्य अनयों का नाम अपाय है । उनका पिचाग्ना जिसमें होता ह-अथान् गन्दादि पिया के दापा का अनुचिन्तन जिसमे किया जाता है यह जपायर्यापचय धर्मव्यान हे ॥२॥ विपाकविनय-कर्मफल का नाम विपाक हे, इसका चिन्तन करना अथात् कर्म मे बद्ध हो आमा चतुर्गतिक र सार म भ्रमण करता ह ऐसा जो विचारना मो विपाकविचय हे ॥३॥ सम्यानरिचय-चौथा भेद है, म्यानका जर्थ लोकय पर ममुद्रादिक का आकार है, उनका विचार करना सो स्थानपिचय है ॥४॥(पम्मम्स ण झाणस्स चत्तारि लम्यणा पण्णत्ता) ગભીર છે, પ્રભાવશાલી >, નિપુણ લોકોથી જાણવા યોગ્ય છે, દ્રવ્ય તેમજ પયાનું બોવક છે, અનાદિ અનત છે, એવા અ ત કરવાવાળું છે, નરક તેમજ નિગદ આદિકના દ બાનુ વિનાશક છે, કર્મની ગ્રન્થિનુ ઉછે દંડ છે (૧) અપાયવિચય-રાગદ્વવ આદિથી થતા અનાનુ નામ અપાય છે તેને વિચાર જેમા કરાય છે અર્થાત ગદાદિ વિષયના દેનું અનુચિ તન જેમાં કરાય છે તે અપાયવિચય ધમાન છે (ર) વિષાકવિય-કર્મકલનું નામ વિપાડે છે તેનું ચિતન કરવું, અર્થાત્ કર્મથી બધાયેલો આત્મા ચતુર્ગતિ- મનામાં ભ્રમણ કરે છે એમ જે વિચાવુ તે વિપાકરિચય છે (૩) ન સ્થાનવિચય ચો પ્રકાર છે મન્થાનને અર્વ લેડ, દ્વીપ તેમજ સમુદ્રાદિ નો આકાર છે, તેનો વિચાર કરે તે સ સ્થાનવિચય છે (૪) (धम्मस्म ण झाणम्स चत्तारि लम्सणा पण्णत्ता) धर्मध्यानना यार सक्ष के Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ૨૮૬ औपपातिक ___ रूई १, णिसग्गरुई २, उवएसई ३, सुत्तरुई ४ । धम्मस्स ण झाणस्स चत्तारि आलंवणा पण्णत्ता, तं जहा-बायणा १, पुच्छणा धर्मानुष्टानगता रुचि =श्रद्धानम् । २-'णिसग्गई। निमर्ग-चिस्यभारतलपत्रदानम् । ३-'उचएसरुई उपदेशरुचि साधूपदेशात्तत्वश्रदानम् । ४-'मुत्तई सूरचि मो आगम रचि =श्रद्धानम् । आजाऽऽगवनविषया रचि -आनारचि 'आजा पूनापरविशुदाऽनवद्या'-पतषा याऽऽगमनिपया रचि सा मूतरचिरिति तयोर्मेट | 'पम्मस्स ण मागम्स चत्तारि आलवणा पण्णत्ता' धर्मस्य सलु ध्यानस्य च नायालम्बनानि प्रजमानि-धर्मध्यानभिग्यगरोहणार्थ यान्यालम्यन्ते=आश्रीयन्ते तान्याल ननानि चतुर्विधानि कथितानि, 'तनहा तद्यथा--१-'वायणा' धर्म-यान के चार लक्षण कह गये है, (त जहा) वे इस प्रकार से हैं-(आगारुई,णिसग्गरुई, उवएस6ई, सुत्तरई ) आजारचि, निसर्गरचि, उपदेशरचि, मूत्रचि । तीर्थंकर भगवान् की आज्ञा के आराधन करने में श्रद्धा का उत्पन्न होना आज्ञारुचि है १ । स्वभाव से जिनप्ररूपित तत्वों मे श्रद्धा होना निसर्गरुचि है २ । साधु-मुनिराजों के उपदेश से तत्त्वां में श्रद्धा होना उपदेशरुचि है ३ । जेनागमों में श्रद्धा होना भूतरुचि है ४ । आजारचि और सूत्ररुचि मे क्या भेद है। इसका उत्तर यह है कि तीर्थकर भगवान का आज्ञा का आराधन करना-आजारुचि है, तथा तीर्थकर भगवान् की आजा पूवापरविशुद्ध है अनपथ है--टस प्रकार आगम के विषय में दृढश्रद्धा होना--मूत्ररचि है। यही इन दोनों म भेद है। (धम्मस्स ण आणस्स चत्तारि आलपणा पण्णत्ता) धर्म यान के आलवन ५ चार है। ये आलबन धर्म यान के शिखर पर चढने के लिये जानों को सहारे का काम देते हे, (त जहा) (त जहा) ते मारे -(आणाई, णिसग्गरुई, उपासमई, सुत्तई) मामाथि, નિસર્ગ રુચિ, ઉપદેશરુચિ, સૂત્રરુચિ તીર્થકર ભગવાનની આજ્ઞાનું આરાધન કરવામાં શ્રદ્ધા ઉત્પન્ન થવી તે આજ્ઞારુચિ છે ૧, સ્વભાવથી જ જિનપ્રરૂપિત તમાં શ્રદ્ધા થવી તે નિસર્ગ રુચિ છે ૨, સાધુ મુનિરાજેના ઉપદેશથી તમા શ્રદ્ધા થવી તે ઉપદેથરૂચિ છે ૩, જૈન આગમમાં શ્રદ્ધા થવી તે સ્વરૂચિ છે , આજ્ઞારુચિ અને સૂત્રરુચિમા શું ભેદ છે? તેનું ઉત્તર આ છે કે-નીર્થંકર ભગવાનની આજ્ઞાનું આરાધન કરવું તે આજ્ઞારુચિ છે, તથા તીર્થકર ભગ વાનની આજ્ઞા પૂવાપરવશુદ્ધ છે, અનવદ્ય છે એ પ્રકારે આગમના વિષયમાં है। श्रद्धा थवी ते सूत्रन्थि छ मान से भन्नेमा तसत (धम्मरस झाणरस चत्तारि आलपणा पण्णत्ता) मध्यानना मान यात मासासन ધર્મધ્યાનના શિખર ઉપર ચડવા માટે અને આશ્રય-આધારનું કામ કરી દે Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूपयपिणो-टीका सू. ३० ध्यानभेदपर्णनम २८७ २, परियणा ३, धम्मकहा है। धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाओ पण्णताओ, तं जहा-अणिचाणुप्पेहा १, असरणाणुप्पेहा २, एगत्ताणुप्पेहा ३, ससाराणुप्पेहा ४।। वाचना, २ 'पुन्छणा' प्रच्छना, ३–'परियट्टगा' परिवर्तना, ४–'सम्मकहा' धर्मकथा, 'यम्मस ण झाणम्स चत्तारि अणुप्पहाओ पण्णत्ताओ' वर्मस्य ग्यलु ध्यानस्य चतस्रोऽनुप्रेक्षा प्रजना त जहा तथया--'अगिवाणुप्पेहा' अनि यानुप्रेला अनि यचिन्तनिका, तथा चोक्तम् " काय मनिहितापाय , मपट पढमापदाम् । ममागमा मापगमा , मर्पमुपादि भद्गुरम् " ॥ १ ॥ इति ।। वे इस प्रकार है-(घायणा) वाचना १, (पुच्छणा) प्रच्छना २, (परियट्टणा) परिवर्तना ३, (पम्मकहा) धर्मकथा ४ । उनका स्वरूप पीछे कह दिया गया है । (पम्मस्स ण आणस्स चत्वारि अणुप्पेहाओ पण्णताओ) धर्मध्यान की चार अनुप्रेभा कही है, (तं जहा) ने ये हे-(अणिचाणुप्पेहा) अनि यानुप्रेक्षा-सम समस्त पोद्गलिक पदार्था का अनियरूप से चिन्तवन किया जाता है, जैसे कायः सनिहितापायः, सपढः पदमापदाम् । समागमाः सापगमाः, सर्वमुत्पादि भगुरम् ॥१॥ इम शरीर के पाछे अपाय-रोगादि लगा हुआ है । इसलिये यह नष्ट होने वाला है । यह धनपान्यादि सम्पत्ति, आपत्तियो का स्थान है। क्यो कि इसीके कारण स्त्री, पुत्र, मित्र, स्वजन, परिजन और ग्रामजन आदि से शत्रुता होता है, लडाइ होती है, अन्त मे 2, (त जहा) ते या प्रकारे -(वायणा) पाय-बाय १, (प्रन्छना) प्रछनापुषु २, (परियट्टणा) परिपतना-यावृत्ति ४२वी 3, (धम्मकहा) धर्मप्रथा ४, सभनु २५३५ पा७४ा गयु (वम्मस्स ण झाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाओ पण्णत्ताओ ) मध्याननी या२ मनुप्रेक्षा ४डी छे,( त जहा) ते २॥ प्रमाणे -(अणिचाणुप्पेहा) अनित्यानुसा-मामा समस्त पोहानि पहानु અનિત્યરૂપથી ચિતવન કરવામાં આવે છે જેમકે— काय सनिहितापाय , सपद पदमापदाम् । समागमा सापगमा, मर्यमुत्पादि भगरम् ॥ १॥ આ રાગીરની પાછળ અપાય-રોગ-આદિ લાગી રહેલા છે, તે માટે તે નાશ પામવાવાળુ છે આ ધન-ધાન્યાદિ-સપત્તિ આપત્તિઓનું સ્થાન છે Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૮ guifa amrg” sa371યાના બચ્ચા તો તે कस्यापि रक्षक एतद्रूपा, नमजगमर गभयभित “याधिपदनाग्रस्ते जिनावचनादन ગળ - મર =નાથ =r પ્રા ત ોના પત્તા ! જિન નિ મિત્ર વિય , પુત્ર, અને अर्थात् प्रामि होती है, 7 सर पिछडन वाले है । क्या कि मयोग के बाद पियोग होता है ! अधिक क्या, जो जो उपन होता है, वह सन नियमत नए भा होता । क्या कि उपत्तिशील मभी पार्थ विनश्वर अर्थात नागपान होता है। मे विनधर पटायी म फिर आसक्ति और प्रेम क्या उचित यह है कि जो धर्म कमा भी नष्ट होने वाला नहीं है, उसी पर मुझे आकर्षण होना चाहिये, इन रिनधर सासारिक पढायों पर नहीं । इस प्रकार मासारिक समस्त पदायों के प्रति अनि यत्व का चिन्तन करना अनि यानुप्रेक्षा है ॥१॥ (असरणाणुप्पेहा) अगरणानुप्रक्षा--समार म दम जीर का कोई भी शरण नहा है। जन्म, जरा एव मरण के भय से व्याकुल हुा व्याधि और वेदना से ग्रस्त बन हा दस प्राणा का यदि लोक में कोई भरण है तो वह एक जिनगर का धर्म ही है, और कोइ नहा । इस प्रकार से इस अनुप्रेक्षा म विचार किया जाता है। कहा मी है-- કેમકે તેના જ કારણે સ્ત્રી, પુત્ર, મિત્ર, વજન, પરિજન અને ગામના લેકે આદિ સાથે શત્રુતા થાય છે, લડાઈ (ઝગડા થાય છે, આખરે પ્રાણ સુધી ખે પડે છે જે જે અભિલલિત પ્રિય સ્ત્રી, પુત્ર, ધન આદિને સમાગમ અર્થાત્ પ્રાપ્તિ થાય છે તે બધા વિખૂટા પડનાર છે, કેમકે સોગ પછી વિયોગ અવશ્ય થાય છે, વધારે શુ ? જે જે ઉત્પન્ન થાય છે તે બધુ નિયમ પ્રમાણે નાશ પણ પામે છે જ, કેમકે ઉત્પત્તિશીલ તમામ પદાર્થ વિનશ્વર અર્થાત નાશવાન હોય છે, તે એવા વિનશ્વર પદાર્થોમાં વળી આસક્તિ અને પ્રેમ શા માટે ? ઉચિત તે એ છે કે જે ધર્મ કદી પણ નાશ પામનાર નથી તે ઉપર જ મને આકર્ષણ થવું જોઈએ, આ વિનશ્વર સાસરિક પદાર્થો પર નહિ એ પ્રકારે સામરિક તમામ પદાર્થો માટે અનિત્યપણાનું ચિતન કરવું તે અનિત્યાનુપ્રેક્ષા છે (૧) (મસાઇET) અશરણાનુપ્રેક્ષા–મ મારમાં આ જીવન કઈ પણ શરણ નથી જન્મ, જરા તેમજ મરણના ભયથી વ્યાકુળ થતા તેમજ વ્યાધિ અને વેદનાથી ગ્રસ્ત બની જતા આ પ્રાણીનું જો કેઈ શરણ (આશ્રય હેય તે તે એકમાત્ર આ લેકમા જિનવરને ધર્મ જ છે, બીજી કઈ નહિ આ પ્રકારના આ અનુપ્રેક્ષામાં વિચાર કરવામા આવે છે કહ્યું પણ છે Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८९ पोश्पर्पिणो-टीका र ३० च्यानभेदयणन म कलामित्रपुनारि -स्नेहमहनिवृत्तये । दनि शुदमति कुर्यातयारण्य वभारनाग ॥१॥ अगरणभावना नेम-~ इन्द्रोपेन्द्रायोऽप्येते यन्मयान्नि गोचरम । अहो तदन्तकात क गरण्य गरीरिगाम ॥१॥ पितुर्मातु वसुभ्रातुम्तनयाना च पश्यताम् । अागो नीयत जन्तु कर्मभिर्यममानि ॥२॥ कलत्रमित्रपुत्रादि,-स्नेहग्रहनिहत्तये । इति शुद्धमतिः कुर्यादगरण्यत्वभावनाम् ।।१।। शुदबुद्धियुक्त भव्य प्राणी स्त्रा, पुत्र, मित्र, स्वजन-समधी आदि का क _स्नेह-बन्धन से मुक्त होने के लिये इस प्रकार से अगरणभावना की चिन्ता करे । अगग्णभावना दम प्रकार से करनी चाहिये---- इन्द्रोपेन्द्रादयोऽप्येते, यन्मृत्योर्यान्ति गोचरम् । अहो ' तदन्तकातङ्के. कः शरण्यः शरीरिणाम् ॥१॥ ये महापराक्रमी अजेय इन्द्र, उपेन्द्र आदियों को भी जब कालने कवलित करलिया, तो, अर । इस मसार में माधारण मनुष्य की फिर गणना ही क्या है। उस सर्वविजयी काल के आन पर मनुष्य का क्या कोद त्राण, शरण हो सकता है । कोई नहीं ' ॥१॥ पितुर्मातुः स्वमुश्रीतुस्तनयाना च पश्यताम् । अत्राणो नीयते जन्तुः, कर्मभिर्यमसद्मनि ||२|| कलत्रमित्रपुत्रादि-स्नेहप्रहनिवृत्तये । इति शुद्धमति कुर्यादभरण्यत्वभावनाम् । १॥ શુદ્ધબુદ્ધિયુક્ત ભવ્ય પ્રાણી સ્ત્રી, પુત્ર, મિત્ર, સ્વજન, સ બ ધી આદિન નેહ–બ ધનથી મુક્ત થવા માટે આ પ્રકારે અશરણભાવનાની ચિંતા કરે અશરણભાવના આ પ્રકારે કરવી જોઈએ-- इन्द्रोपेन्द्रादयोऽप्येते, यन्मृत्योर्यान्ति गोचरम् । अहो तदन्तकातके, क शरण्य शरीरिणाम् ॥ १॥ એ મહાપરાક્રમી અજેય ઈન્દ્ર, ઉપેન્દ્ર આદિઓને પણ જ્યારે કાળ ળિઓ કરી ગયે, તે અરે ! આ સમારમાં સાધારણ મનુષ્યની વળી ગણત્રી જ શુ છે તે બધાને વિજેતા એ કાલ આવી જતા મનુષ્યનું શુ કેઈ રક્ષણ કે શરણ થઈ શકે છે ? કઈ જ નહિ (૧) Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पी-टीका ३० यानभेदवर्णनम अन्यच -- परकमहायार्थ पिता माता न तिल / नदार न ज्ञातिधर्मतिथति केरल ||१|| ३- ' एगत्ताणुप्पेहा' एक नानुमेला - आमन एकाकिनचिन्तनम् तथा चोक्तम्--- कक एव दुसी । उप जन्तुरिre a fe Terra ra far आसेन फलमेक एव ॥१॥ जैसे प्रचण्डकी नाला मे जलते हुए वन में मृग के बच्चे का कोई रक्षक नहा होता है, उसी प्रकार दु सम्पदा की प्रचण्ड चाल से जलते हुए इस समर में आम का कोई रन नहीं है ||४|| और भी कहा है २११ परलोकसहायार्थ, पिता माता न तिष्ठतः । न पुनद्वार न ज्ञाति-मस्तिष्ठति केवलः ॥ माता-पिता परलोक में जीव को सहायता के लिये नहा जाते हैं, न स्त्री, पुत्र, स्वजन-नधी आदि हो जाते है । मात्र एक धर्म ही परलोक में जीव के साथ जाता है ॥ ४॥ इस प्रकार से चित्तन करना सो अशरणानुप्रेक्षा है । ( एगचाणुप्पेहा) एकानुप्रेक्षा- आत्मा अकेला है। इस प्रकार से चिन्तन करना- एकानुप्रेता है । नानुका चिन्तन इस प्रकार से करना चाहिये, जैसेकर्म के फलों को यह जीन अकेला ही भोगता है। माता पिता आदि कोई भी इस जीन साथ नहा देते है । सब अपन २ स्वार्थ के है। कहा भी है को જેમ પ્રચણ્ડ દાવાગ્નિની કાઈ રક્ષક થતા નથી, તેજ પ્રકારે ખળતા ા સ સારમા આત્માને વળી પણ કહ્યુ છે~ વાલાથી ખળતા વનમા મૃગના બચ્ચાઓના સુખરૂપી દાવાગ્નિની પ્રચણ્ડ જ્વાલાથી ઈ રક્ષક નથી (૪) परलोकसहायार्थ, पिता माता न तिष्ठत । न पुत्रार न ज्ञाति, धर्मस्तिष्ठति taa ||५|| માતા-પિતા પરલેનમાં જીવની મહાયતા માટે જતા નથી, ન સ્ત્રી, પુત્ર, સ્વજન, મ મ ધી આદિ પણ જાય છે. માત્ર એક ધર્મ જ પરલેાકમા જીવની સાથે જાય છે આ પ્રાચિતન કરવુ તે અશાનુપ્રેક્ષા છે (૫) (गत्ताणुहा) त्यानुप्रेक्षामात्मा छे मे अजरे चिंतन કવુ તે એકવાનુપ્રેક્ષા છે એકત્વાનુપ્રેક્ષાનુ ચિંતન આ રીતે કરવુ જોઈએ, જેમકેકના ફળને આ જીવ એટલે જ ભાગવે છે, માતા પિતા કાર્યું પણ જીવને સાથ દેતા નવી સૌ પોતપોતાના સ્વાર્થના છે દ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकतरे - यजानेन धन स्वय बहुविध फटेरिहोपार्यते, तासभूय फलमिततनयभ्रातादिभिर्भुज्यते । तत्तकर्ममगाध मारकनररववामितियामये, प्वेक सैप मुदु सहानि सरते दु ग्यान्यसरया यहो ॥२॥ उत्पयते जन्तुरिक एव, विपधते चैक एब दुःश्री। काजत्येक एवं चित्रम्, आसेवते तत्फलमेक एव ॥१॥ जीर अकेला ही इस मसार में उत्पन्न होता है, अकेला ही अपार दुस का अनुभव करते हुए मृत्यु को प्राप्त होता है, अकेला ही वह नानाविध कमों का उपार्जन करता है, तथा अकेला हा उमका फल भोगता है ||१|| यजीवेन धन स्वय बहुविधैः कप्टैरिडोपाय॑ते, तत्सभूय कलत्रमित्रतनयैर्भीत्रादिभिर्भुज्यते । तत्तत्कर्मवशाच नारकनरस्वासितिर्यग्भवे, प्वेकः सैप मुदु सहानि सहते दुःखान्यसामान्यहो ॥२॥ जान जो अनकविध कष्टों से स्वय धनोपार्जन करता है, उस रन का उपभोग स्त्री, पुर, भाद-बन्धु, मिा, स्वजन-सम्बधी आदि करते है। परन्तु धनोपार्जन करनेवाला वह जीव तो स्वकृत उन उन कर्मों के अनुसार देव मनुष्य नारक तिर्यक् आदिधु पाय छ - उत्पन्यसे जन्तुरिहैक एव विपद्यते चैकक एव दुखी । आर्जयत्येकक ण्व चित्रम्, आसेरते तत्फ्ल मेक एव ||१|| જીવ એકલો જ આ સંસારમાં ઉત્પન્ન થાય છે, એક જ અપાર દુ અને અનુભવ કરતે કરતો મૃત્યુને પ્રાપ્ત વાય છે, એકલે જ તે અનેક પ્રકારના કર્મોન ઉપાર્જન કરે છે, તથા એકલા જ તેનું ફળ ભોગવે છે (૧) यज्जीवन धन स्वय बहुविध कप्टैरिहोपाय॑ते, तत्संभूय फलमित्रतनयैर्धानादिभिर्भुज्यते । तत्तत्कर्मवशान नारक-नर-खर्वासितिर्यग्भवे-- 'वेक सैप सुदु सहानि सहते दु नान्यसह्यान्यहो | જીવ જે વિધવિધ અને બ્રેથી પિતે ધન ઉપાર્જન કરે છે તે મનને ઉપભોગ સ્ત્રી, પુત્ર, ભાઈ--બધુ, મિત્ર, સ્વજન-સબ પી આદિ કરે છે પરતુ ધનોપાર્જન કરવાવાળે તે જીવ તે પોતે કરેલા તે તે કર્મો અનુ સાર દેવ મનુષ્ય નારક તિર્થ આદિ ભવેમાં એક જ અતિદુ સહ અનત Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयपषिणी-टीका स ३० भयानभेदवर्णनम् जीयो पम्य ते भ्रभयनुदिश दैन्य समालम्बते, धर्माद भ्रन्यति पचय यनिहितान् न्यायादपकामनि । देह सोऽपि महामना न परमप्येक पस्मिन्भवे, गच्छन्यस्य तत कथ पन्त भो । माहाय्यमाधास्यति ॥३॥ म्बार्थकनिष्ट ग्यजन रपदेह,-मुरय तत मर्वमवेत्य सम्यक् । मर्वस्य कन्यागनिमित्तमेऊ, धर्म महाय निधीत धीमान इति!! __ भयों में अकेला ही अतिदु सह अनन्त दया को सहता रहता है। अहो । इस मार में कोई भा अपना नहीं है।॥२॥ और भी कहा है जीवो यस्य कृते भ्रमत्यनुदिन दैन्य समालम्बते, धर्माद् भ्रश्यति वञ्चयत्यतिरितान् न्यायादपक्रामति । देहः सोऽपि महात्मना न पदमप्येकः परम्मिन भवे, गउत्यस्य ततः कथ बहत भोः ' माहाग्यमाधास्यति ॥३॥ जगम जिस शरीर के लिये चारा दिशाओं में मता-फिरता रहता है, टीनता प्रदर्शित करता है, धर्म से भ्रष्ट होता है, अपने अयन्त हितैषिया को भी टगता है, न्यायमार्ग से चलिन होता है, वह गरीर भा जीप के साथ परभव में एक पग भी नहीं माथ देता। ह भन्यो ' सोचो-विचागे ' यह अगर तुम्हारी क्या सहायता कर सकता हैं. कुछ नहीं ॥३॥ और भी कहा है--- म्याथै कनिष्ठ स्वजन म्वदेह, मुख्य ततः समवेत्य सम्यक् । सर्वम्य कल्याणनिमित्तमेक, मं सहाय विदधीत पीमान् ॥४॥ દુખને સહન કરતે રહે છે અહે ! આ સમારમાં કોઈએ આપણ નથી (૨) બીજુ પણ કહ્યું છે–– जीवो यस्य कृते भ्रमत्यनुदिन दैन्य समालम्बते, धर्माद अश्यति वश्चयत्यतिहितना न्याया-पक्रामति ।। देह सोऽपि महात्मना न पदमायेक परस्मिन् भवे, गच्छत्यम्य तत फथ बदत भो । साहाय्यमाधास्यति ॥३॥ જીવ જે નારીરને માટે ચારેય દિશાઓમાં ભટકતે ફરતે રહે છે, દીનતા બતાવે છે, ધર્મથી ભ્રષ્ટ થાય છે, પિતાના અત્ય ત હિતેઓને પણ ઠગે છે, ન્યાયમાર્ગથી ચલિત થાય છે, તે શરીર પણ જીવની સાથે પર ભવમાં એક ડગલુ એ સાથ આપતું નથી છે ભો! --વિચાર' આ શરીર તમારી શ સહાયના કરી રાકશે ? કાઈ પડ્યું નહિ ! Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ औपपातिसूत्रे ४- ' ससाराणुप्पेहा' समारानुप्रेक्षा - ससारस्य चतसृषु गतिषु नास्य अनुप्रेक्षा- तथा चोक्तम् - Tarun yatraमातंर ससा । पुनर्भाय भक्त मे प्राणिना गतिरीदृश|| १|| माता, पिता, स्त्री, पुत्र, स्वजन, मधी सभी भी स्वार्थ के है, अपना शरीर स्वार्थ का ही है, इसलिये बुद्धिमान मनुष्य इन सभी विषयों पर अच्छी तरह विचार कर सभी का कल्याण करने वाले धर्म का ही सहायक बनाने ||४|| -इस प्रकार से चितन करना एकवानुप्रेक्षा ह ( संसाराणुप्पेहा ) समारानुप्रेमा-चतुर्गतिकलक्षण नमार के नियम चिन्तन करना-मसारानुप्रेक्षा है। कहा भी है- माता परभवे पुनी, सैव जन्मान्तरे स्वसा । पुनर्भार्या भवेत् सैव, प्राणिना गतिरीटशी ||१|| इस मन में इस जीव की जो माता होती है, वह दूसंग भर में उसकी पुत्री हो जाती है, फिर भवान्तर में उसकी बहन हो जाती ह, उसके बाद अन्य जन्म मे फिर वह उसकी भाया हो जाता है। अधिक क्या कहा जाय। मसार की कुछ ऐसी ही विचित्र दशा है || १ || और भा कहा है ફરી પણ કહ્યુ છે~~ tareefore स्वजन स्वदेह, ह, मुख्य तन सर्वमवेत्य सम्यक् । सर्वस्य कल्याणनिमित्तमेक, वर्मं महायें विदधीत धीमान् ||४|| માતા, પિતા સ્ત્રી, પુત્ર, સ્વજન- અ શ્રી આદિ બધા સ્વાના છે પેાતાનુ શરીર પણ સ્વાતુ જ છે, તેથી બુદ્ધિમાન મનુષ્ય એ બધા વિષયે ઉપર સારી રીતે વિચાર કરી સર્વનું કલ્યાણુ કરવવાળા ધર્મને જ સહાયક મનાવે. આ પ્રકારે ચિતન વુ તે એકત્વાનુપ્રેક્ષા છે (૫) (मसाराणुप्पेहा) भ भागनुप्रेक्षा-यतुर्गतिसक्षयुवाजा ससारना विषयभा ચંતન કરવુ તે સસારાનુપ્રેક્ષા છે કહ્યુ પા છે~~~ माता परभने पुत्री, सैव जन्मान्तरे स्वसा । पुनर्भार्या भवेत् सैन, प्राणिना गतिरीदृशी ||था આ ભવમા જે આ જીવની માતા પુત્રી થઇ જાય છે વળી ભવાન્તા બીજા જન્મમા વળી તે તેની શ્રી વઈ રની કાઇ એવી જ વિચિત્ર દવા છે હેાય છે તે જ મીજા ભવમા તેની તેની અહેન ચઈ જાય છે ત્યાર પછી જાય છે વધારે ઝુ કહેવાય ! સ મા (૧) ફરી પણ કહ્યુ છે ܐ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीपयपिणी टीका ३० ध्यानभेदवर्णनम् पिता परभव पुत्र स तु भ्राता भनान्तरे । पुनस्तात पुन पुत्र प्राणिना गतिरीदृगी ॥२॥ मातापितृमहस्राणि पुत्रदारगतानि च । - माग्नुभृतानि यान्ति याम्यन्ति चापरे ||३|| कृच्छेशामेध्यमध्ये नियमिततनुभि स्थीयते गर्भनासे, कान्ताविश्लष्ट सन्यनिकरनियमे यौन चोपभोग | पिता परभवे पुत्रः, स तु भ्राता भवान्तरे । पुनस्तातः पुनः पुत्रः, प्राणिना गतिरीदृशी ||२| इस ममार म जीन की पर्याय एकसा शाश्वत नहा रहती है। जो इस भव में पिता होता है, नहा परभव म पुत्र वन जाता है, ए भवान्तर म भ्राता भी हो जाता है, पश्चात फिर पिता हो जाता है, फिर पुत्र हो जाता है । इस मार मे प्राणियों की ऐसा ही कुछ निचिन गति है ||२|| और भी कहा है मातापितृसहस्राणि पुत्रदारशतानि च । ससारेष्वनुभूतानि यान्ति यास्यन्ति चापरे ||३|| २९५ इस म्मार म इस जीन के हजारों माता और पिता बन चुके है, हजारो पुत्रफलन हो चुके हे । इस समय भी ये माता, पिता पुत्र और फल्न इस जानके है, और आग भी ये होग ||३||और भी कहा ह - कृणामे यम ये नियमिततनुभिः स्वीयते गर्भवासे, कान्ताविश्लेषदुःखव्यतिकरविषमे यौवने चोपभोगः । पिता परभवे पुत्र स तु भ्राता भनान्तरे । पुनस्तात पुन पुत्र, प्राणिना गतिरीदृशी ॥२॥ આ ઞ સારમા જીવની પર્યાય એક જેવી કાયમ રહેતી નથી જે આ ભવમા પિતા હોય છે તેજ પરભવમા પુત્ર થઇ જાય છે, તેમજ ભવાન્તરમા ભાઈ પણ થઈ જાય છે પછી પિતા થઈ જાય છે વળી પુત્ર થઈ જાય છે. આ સ સારમા પ્રાણિએની એવી જ ४ विचित्र गति है (२) दूरी पशु ज्छु छे ॐ मातापितृसहस्राणि पुत्रदारशतानि च । ससारेष्वनुभूतानि यान्ति यास्यन्ति चापरे ॥३॥ આ સ સારમા આ જીવના હારા માતાપિતા થઇ ચુકયા છે હજારો પુત્ર-લત્ર થઇ ચુકયા છે આ સમયે પણ એ માતા, પિતા, પુત્ર અને લત્ર આ જીવના છે, અને આગળ પણ આ માતા-પિતા આદિ આ જીવને થશે જ (૩) વળી કહ્યુ પણ છે Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ was औपपातिक सुक्कज्झाणे चउबिहे चउप्पडोयारे पण्णत्ते, तं जहा) नारीणामप्याज्ञा विलसति नियत वृद्धभावेऽप्यसाधु , मसारे रे मनुष्या! वन्त यदि मुग्व स्वपमप्यस्ति किंचित् ॥४॥ इद धर्मग्यानम् ॥ 'सुकन्झाणे चउबिहे चउप्पडोयारे पण्णत्त' शुक्ल यान चतुर्विध चतुष्प्र नारीणामप्यवज्ञा विलसति नियत वृद्धभावेऽप्यसाधुः, ससारे रे मनुप्याः बदत यदि मुख स्वल्पमप्यस्ति किंचित् ॥४॥ अयन्त अपनिन गर्भवास में रह कर यह जोर अनेक कटा को महता रहता है। वहाँ इसका गरीर सिकुडा रहता है । यौवन अवस्था म यह जीव विषय भोग के समय स्त्रीवियोगजनित दु व से अत्यन्त दुखी होता है । स्त्री यदि जीवित रह तो वृद्धावस्था में यह अपनी उसी स्त्री का असा अपमान सहन करता है । फिर हे भव्या! तुम हा कहा, इस ससार में किंचिन्मात्र भी सुख है कुछ भी नहा ॥५॥ इस प्रकार जीन को मसार के विपय में विचार करना चाहिये । इस प्रकार धर्म यान समझना चाहिये । अब शुक्लथ्यान कहते है-(मुक्कामाणे चउबिहे चउप्पडोयारे पण्णत्ते) शुक्लध्यान चार प्रकार का है, और यह स्वरूप लक्षण, आलपन एव अनुप्रेक्षा के भेद से सोलह कच्छ्रेणामध्यमध्ये नियमिततनुभि स्थीयते गर्भवासे, कान्तानि वेबदु खव्यतिकरविषमे यौवने चोपभोग । नारीणामप्यवहा विळसति नियत वृद्धभावेऽग्यसाधु , ससारे रे मनुष्या । बदत यदि मुख स्वल्पमप्यस्ति किंचित् ॥४॥ અત્યત અપવિત્ર ગર્ભવાસમાં રહીને આ જીવ અનેક કષ્ટોને સહન કરતે રહે છે ત્યાં તેનું શરીર સંકોચાઈને રહે છે જુવાન અવસ્થામાં આ જીવ વિષયભેગના સમયે સ્ત્રીવિગથી ઉત્પન્ન થતા દુખથી બહુ જ દુ ખી થાય છે. સ્ત્રી જે જીવતી હોય તે પોતાની વૃદ્ધાવસ્થામાં તે પોતાની તે જ સ્ત્રીનું અસહય અપમાન સહન કરે છે માટે હે ભવ્ય ! તમે જ કહે, આ સંસારમાં જરાપણ સુખ છે ? જરાય નહિ (૮) આ પ્રકારે જીવને સસારના વિષયમાં વિચાર કરે જોઈએ એ પ્રકારે ધર્મધ્યાન સમજવું જોઈએ हवे शुध्यान ४ ले (सुकमाणे चउब्धिहे उप्पडोयारे पण्णत्ते) शुसध्यान यार ४२नु छ, भने ते २१३५ सक्ष, मास Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९७. __ पीयूषयपिणी टीका सु ३० ध्यानभेदयर्णनम् पुहुत्तवियक सवियारी १, एगत्तविय के अवियारि २, सुहुमकिरिए अप्पडिवाई ३,समुच्छिन्नकिरिए अणियट्टी४।सुक्कस्स णं झाणस्स त्यवतार प्रजमम् । यथा मलापगमेन शुचिताधमाभिसम्बन्धात् पट शुक्ल इत्युच्यते, तथा रागद्वेषमलापनयनानुचिताधर्मसम्बन्धाद् ध्यानमपि शुक्लमित्युच्यते, तच्चतुर्विध प्रजप्तम्, तद् यथा-'पुहुत्तरियके सवियारी' पृथक्त्ववितर्क सपिचारि १, 'एगत्तवियके अवियारि' एकचवितर्कमविचारि २, 'मुहुमकिरिए अप्पडिवाई' सूक्ष्मक्रियमप्रतिपाति, ३, 'समुच्छिन्नकिरिए अणियट्टी' समुच्छिन्नक्रियमनिवर्ति ४-इति । तत्र पूर्वगतश्रुतज्ञानानुसारेण ध्येयविशेषगतोत्पादादिनानापर्यायाणा द्रव्याथिका पर्यायार्थिकादिनानानयैरर्थव्यञ्जनयोग-कान्तिसहितानुचिन्तन पृथक्त्ववितर्कसविचारम् ॥ १॥ प्रकार का कहा गया है। जिस तरह मैल के दूर होने से वस्त्र निलकुल साफ हो जाता है और “शुक्लः पटः" इस प्रकार कहा जाता है, उसी तरह रागद्वेपरूपी मैल के अपगमसे ध्यान भी शुद्ध हो जाता है और इसीसे वह शुक्लप्यान कहा जाता है । (तं जहा) इसके वे चार प्रकार ये है (पुहुत्तरियके सवियारी) पृथक्वतर्कसपिचार, (एगतवियक्के अवियारि) एकत्वरितर्फ अविचार, (सहमकिरिए अप्पडिवाई) सूक्ष्मक्रिय-अप्रतिपाती, (समुच्छिन्न किरिए अणियट्टी) समुच्छिन्नक्रिय-अनिवर्त्ति । इनका वर्णन इस प्रकार है-पूर्वगत श्रुतज्ञान के अनुसार येयविशेषगत उत्पाद, व्यय एव ध्रौव्य आदि पर्यायों का द्रव्यार्थिक एव पोयार्थिक नयों से अर्थर क्रान्ति, व्यजनसक्रान्ति एव योगमक्रान्ति युक्त होकर विचार करना सो धक्त्वविर्तकसविचार शक्तव्यान का प्रथम भेद है ॥१॥ जिस तरह सिद्धगारुटिक आदि બન તેમજ અનુપ્રેક્ષાના ભેદથી સેળ પ્રકારનું કહેવાય છે જેવી રીતે મેલ જોવાઈ पाथ पर मिसद मा तय, अने “शुक्ल पट" से प्रारे કહેવાય છે, એ જ રીતે ગગડ્રેષરૂપી મેલ દૂર થઈ જવાથી ધ્યાન પણ શુદ્ધ 45 लय छ, अन ते ४२५थी तेन शुसध्यान ४वाय थे (त जहा) तेना यार ४१२ मा छ-(पहत्तवियके सवियारी) पृथत्ववितई-सपियार (एगत्तवियक्के अवियारि) गत्ववित मवियार (सुहुमकिरिए अप्पडिवाई) सूक्ष्मडिय--प्रतिपाती (समुच्छिन्नकिरिए अणियट्टी) समुछिन्नठिय-निवृत्ति પૂર્વગત શ્રુતજ્ઞાન અનુસાર ધ્યેયવિશેષથી થતા ઉત્પાદ, વ્યય તેમજ ધ્રૌવ્ય આદિ પર્યાના વ્યાર્થિક નથી, અર્થસ કાતિ, જનસ કાતિ તેમજ યોગસ કાતિથી યુકત થઈને વિચાર કરે તે પૃથકત્વવિતર્કસવિચાર શુકલધ્યાનને પ્રથમ પ્રકાર છે (૧) Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ औषपातिकबरे यथा सिद्धगारुडिकादिमन्त्र सकलगरीरस्यापि विषम पिप मन्त्रमामध्यन सवाबयवेभ्य समाकृष्य दशस्थाने समानीय स्तम्गयति, तथा पूर्वगतश्रुतानुमारतोऽयन्यननयोगसक्रान्तिराहित्येनाशेपरिपयेभ्य सहयैकस्मिन्नेव पयाये योगस्य निवासस्थान दीपशिम्बावत स्थिरीकरणम् एकत्ववितर्काऽपिचारम् ॥२॥ ___ यता जघययोगपत सजिपर्यामस्य मनोव्यागि समये निम्न्धन असत्यातसमय सपूर्ण मनोयोग तत्पश्चात् पर्यामद्वीन्द्रियस्य वाग्योगपर्यायतोऽयातगुण यूनवाग्योगपया यान् प्रतिसमय निरुन्धन् असरयातसमये सपूर्ण वाग्योग, ततश्च प्रथमसमयसमुपन्ननिगादजीवस्य जघन्यकाययोगपर्यायतोऽसरयातगुणहीनकाययोग प्रनिममय निरन्धन् , अम्म यातमत्रवाला पुरुष समस्त शरीर के अवयवों में व्याम विषम चिप को मत्र के प्रभाव से खेचकर काटे हुए स्थानपर स्तभित कर देता है उसीतरह पूर्वगतश्रुतज्ञान के अनुमार अर्थ, व्यजन एव योगों की सक्रान्ति से रहित होने के कारण, अपरिपयों से योगा को हटाकर एक ही पर्याय मे योग का, वातरहित स्थान में दीपक की लौ की तरह, स्थिर करना सोएकत्वविर्तक-अविचार-नामक शुक्लल्यान का दूसरा भेदहै ||२|| सूक्ष्मक्रिय--अप्रतिपाति शुक्लध्यान सिर्फ सूक्ष्मकाययोगवाले जीन को होता है। सूदमक्रिय-अप्रतिपाति शुक्लध्यान के सन्मुख हुआ जीव सर्वप्रथम मनोद्रव्यों का प्रतिसमय निरोध करता हुआ अमरयातसमयप्रमाणकाल में समस्तमनोयोग का, इसीतरह प्रतिसमय वाग्योगपर्यायों का निराध करता हुआ अमल्यातसमयप्रमागकाल मे समस्तवाग्योग का, एव प्रथम समयम समुत्पन्न निगोदजीवकी जघन्य अवगाहनास्वरूप काययोगपर्यायों से अपरयात જેવી રીતે સિદ્ધ ગાર્િડક આદિ ત્રિવાળે પુરુષ આખા શરીરના અવયવોમાં પ્રસરેલા વિષમ ઝેરને માત્રના પ્રભાવથી ખેચીને કરડેલા સ્થાન ઉપર સ્ત ભિત કરી દે છે, તેવી જ રીતે પૂર્વગત શ્રતજ્ઞાન અનુસાર અર્થ, વ્યજન તેમજ ગની સ કાતિથી રહિત હેવાને કારણે, બીજા વિષયોથી ચાગોને હટાવીને એક જ પર્યાયમાં વેગને હવા વગરના સ્થાનમાં દીપકની ન્યાતની પેઠે સ્થિર કરવો તે શુકલધ્યાનને એકત્વવિકઅવિચાર નામને બીજો પ્રકાર છે (૨) સૂમક્રિય-અપ્રતિપાતિ શુકલધ્યાનને સન્મુખ થયેલો જીવ સર્વપ્રથમ મદ્રના હરવખત નિરોધ કરતા કરતા અસ ખ્યાત-સમયપ્રમાણુ કાલે સમસ્ત મનેગને, તેમ જ વારંવાર વાગપર્યાને નિધ કરતા કરતા અસખ્યાત-સમય–પ્રમાણે કાળે સમસ્ત વાગ્યેગને, તેમ જ પ્રથમ સમયમાં સમુત્પન્ન નિગદ જીવની જઘન્ય અવગાહના સ્વરૂપ કાયાગની પર્યાયોથી અમ ખ્યાતગુણહીનકાયોગનો વાર વાર નિષેધ કરતા Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९९ पोषयपिणी टीका सू ३० ध्यानभेदधर्णनम् समर्यादरकाययोग व सर्वथा निरणदि, तदेव मूक्ष्मक्रियाऽप्रतिपाति याननुपक्रमते ॥३॥ ना श्वासोच्छ्यासस्वरूप सूक्ष्ममपि काययोग निरभ्य अयोगि-व प्राप्य शैलेशीमवस्था प्रतिपद्यते, म-यमकालेन 'अ इ उ 5 ल' इयेवरूप पञ्चलप्वभरोचारणसमकालस्थितिक समुच्छिन्नकिवननिवर्ति ध्यानमनुभवनि ॥४॥ दशवकालिकसूनस्याचारमगिमञ्जूपाटीकायामस्मामि सविस्तर शुक्लप्यानन कृतम् , अतस्ततोऽगन्तव्यम् । तथा-तत् शुक्लध्यान चतुष्प्रयातार प्रजनम् । 'मुकस्स ण झागस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता' शुक्लम्य खल भ्यानस्य चवारि लक्षणानि प्रजमानि । 'त जहा' तयथा गुगहीनकाययोग को प्रतिसमय म निरोध करता हुआ अमरयातसमयप्रमाणकाल में बादरकाययोग का सर्वया निरोध कर देता है, तब जाकर इसे सूक्ष्मक्रिय-अप्रतिपातिनामक शुक्लध्यान की प्राति होती है, यह मूक्ष्मक्रिय-अप्रतिपातिनामक तीसरा भेट है ।३। इस अवस्थाम चासोच्छ्यासरूप सूक्ष्मकाययोगका भी निरोध कर, अयोगि-अवस्था को प्राप्त हो, शैलेशी अवस्था को प्रात कर लेता है, वहा 'अ इ उ ऋ लु' इन पाच लघु अक्षरों के मध्यम काल से उच्चारण करने में जितना समय लगता है उतने समय तक वहा ठहर कर समुच्छिन्नक्रिय-अनिवर्तिनामक शुक्लध्यानका अनुभव करता है । इस शुक्लच्यान का विशेप विस्तारपूर्वक वर्णन ढगवैकालिक सूत्र के चौथे अध्ययन की 'आचारमणिमजूषा' नामकी टीका में लिखा गया है, अत विशेषार्थी को इसका विशेष वर्णन वहा से देख लेना चाहिये । (सुकस्स ण झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता) इस शुक्लन्यान के चार लक्षण हे, (त जहा) वे इस प्रकार हैं-(विवेगे) विवेक-देह से आत्माको કરતા અસ ખ્યાતસમયપ્રમાણુ કાળે બાદરકાયયેગને સર્વથા નિરોધ કરી દે છે, ત્યારે તેને સૂમક્રિય–અપ્રતિપાતિ નામક શુકલધ્યાનની પ્રાપ્તિ થાય છે આ સૂમકિય-અપ્રતિપાતિ નામે ત્રીજો પ્રકાર છે (૩) તે અવસ્થામા વાછૂવાસરૂપ સૂક્ષ્મ કાગને પણ નિષેધ કરી, અગિ અવસ્થાને પ્રાપ્ત થઈ, ગેલેશી અવસ્થાને પ્રાપ્ત કરી લે છે ત્યા રૂ છૂ આ પાચ લઘુ અક્ષરનું મધ્યમકાલથી ઉચ્ચારણ કરવામાં જેટલો સમય લાગે તેટલા સમયસુધી શેકાઈને સમુચ્છિનકિય-અનિવર્તિ નામક શુક્લધ્યાનને અનુભવ કરે છે (૪) આ શુકલધ્યાનનું વિશેષ વિસ્તારપૂર્વક વર્ણન દશવૈકાલિકસૂત્રના ચેથા અધ્યયનની આચારમણિમજૂષા નામની ટીકામાં લખવામાં આવ્યું છે તેથી વિરોષ જાણવાવાળાને માટે તેનું વિશેષ વર્ણન ત્યાથી જોઈ લેવું જોઈએ (सुस्कस्स ण झाणस्स चत्तारि लक्सणा पण्णत्ता) मा शुदध्यानना यार स . (त जहा) ते मारे -(निवेगे) विवे४-४थी मात्भाने godyai, Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औषपातिकको यथा सिद्धगारुडिकादिमन्त्र सकलगरीरस्यापि विषम पिष मन्त्रमामायन मवारयवेभ्य समाकृष्य दशस्याने समानीय स्तम्भयति, तथा पूर्वगतश्रुतानुमारतोऽर्थन्यानयोगसक्रान्तिराहित्येनाशेपरिपयेभ्य सहयैकस्मिन्नेव पर्याये योगस्य नितिस्थाने दीपशियावत स्थिरीकरणम् एकत्वपितर्काऽविचारम् ॥२॥ यदा जघन्ययोगरत सनिपर्यापस्य मनोव्यागि समये निरन्यन अमायातसमये सपूर्ण मनोयोग तत्पश्चात् पर्यामद्वीन्द्रियस्य वाग्योगपर्यायतोऽयानगुण यूनवाग्योगपया यान् प्रतिसमय निरन्धन् असरयातसमये सपूर्ण वाग्योग, ततश्च प्रथमसमयसमुपन्ननिगोदनीवस्य जघन्यकाययोगपर्यायतोऽसरयातगुणहीनकाययोग प्रतिममय निरन्धन् , अन्यातमत्रवाला पुरुष समस्त शरीर के अवयवों म व्याम विषम विष को मन के प्रभाव से खेचकर काटे हुए स्थानपर स्तमित कर देता है उसीतरह पूर्वगतश्रुतज्ञान के अनुसार अर्थ, व्यजन एव योगों की समान्ति से रहित होने के कारण, अपरिपयों से योगा को हटाकर एक ही पर्याय मे योग का, वातरहित स्थान में दीपक की लौ की तरह, स्थिर करना सो एकत्वविर्तक-अविचार-नामक शुक्ल-यान का दूसरा भेद है ॥२॥ सूक्ष्मक्रिय--अप्रतिपाति शुक्लध्यान सिर्फ सूक्ष्मकाययोगवाले जीन को होता है। सूत्मक्रिय-अप्रतिपाति शुक्लध्यान के सन्मुख हुआ जीव सर्वप्रथम मनोद्रव्यों का प्रतिसमय निरोध करता हुआ अमल्या. तसमयप्रमाणकाल में समस्तमनोयोग का, इसीतरह प्रतिसमय बाग्योगपर्यायों का निराध करता हुआ आपल्यातसमयप्रमाणकाल मे समस्तवाग्योग का, एव प्रथम समयम समुत्पन्न निगोदजीवकी जघन्य-अवगाहनास्वरूप काययोगपर्यायों से अरयात જેવી રીતે સિદ્ધ ગાર્િડક આદિમત્રવાળે પુરુષ આખા શરીરના અવયમા પ્રસરેલા વિષમ ઝેરને મત્રના પ્રભાવથી બે ચીને કરડેલા સ્થાન ઉપર સ્ત ભિત કરી દે છે, તેવી જ રીતે પૂર્વગત થતજ્ઞાન અનુસાર અર્થ, વ્યજન તેમજ પેગોની સક્રાતિથી રહિત હોવાને કારણે, બીજા વિષયોથી ચોગાને હટાવીને એક જ પર્યાયમાં ચોગને હવા વગરના સ્થાનમાં દીપકની તની પેઠ સ્થિર કરે તે શુકલધ્યાનના એકત્વવિકઅવિચાર નામને બીજો પ્રકાર છે (૨) સૂમક્રિય-અપ્રતિપાતિ શુકલધ્યાનને સન્મુખ થયેલે જીવ સર્વપ્રથમ મદ્રાના હરવખત નિરોધ કરતા કરતા અસ ખ્યાત-સમયપ્રમાણુ કાલે સમસ્ત મનેગને, તેમ જ વાર વાર વાગપર્યાયોને નિરોધ કરતા કરતા અને ખ્યાત–સમય-સ્ત્રમાણે કાળે સમસ્ત વાગ્યોગને, તેમ જ પ્રથમ સમયમાં સમુત્પન્ન નિગોદ જીવની જઘન્યઅવગાહના સ્વરૂપ કાગની પર્યાથી અને ખાતગુણહીનકાયયોગને વારવાર નિધિ કરતા Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषयपिणी-टीका सु ३० ध्यानभेदयणनम णं झाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाओ पण्णताओ: तं जहा-अवायाणुप्पेहा १ असुभाणुप्पेहा २ अणंतवत्तियाणुप्पेहा ३ विपरिणामाणुप्पेहा से तं झाणे॥सु० ३०॥ खलु ध्यानस्य चतस्रोऽनुप्रेक्षा प्रजमा , ' त जहा' तद्यथा-' अवायाणुप्पेहा' अपायानुप्रेभा-अपायाना प्राणातिपातायावरद्वारजनितानाम् अनर्थानामनुचिन्तनम् ॥१॥'अमुभा. गुप्पेहा' अशुभानुप्रेभा-मसारस्यैव अशुभस्वरूपतयाऽनुचिन्तनम् ॥२॥'अणतवत्तियाणुप्पेहा' अनन्तवृत्तिताऽनुप्रेक्षा-अनन्तवृत्तिता तैलिकचकयोजितस्य वृपस्य मार्गाऽनवसानवत्कदाप्यसमामिगीलता तस्या अनुप्रेक्षा-अनुचिन्तनम् ॥३॥ 'विपरिणामाणुप्पेहा' विपरिणामानुप्रेक्षाउत्पादव्ययधौन्यस्वभावाना पार्थाना यो विपरिणाम -प्रतिक्षण नवनवपर्यायरूप तस्यानु चिन्तनम् ॥४॥ ' से त झाणे' तदेतद् ध्यानम् ॥ मू० ३०॥ अपायों का अर्थात् प्रागातिपातादिक पाप, जो कर्मों के आस्रव के लिये द्वार जैसे है उनसे जनित अनर्थो का यारमार विचार करना सो अपायानुप्रेक्षा है १। (अमुभाणुप्पेहा) अशुभानुप्रेक्षा-ससार स्वय अशुभस्वरूप है, ऐसा वाग्वार विचार करना सो अशुभानुप्रेक्षा है २ । (अणतवत्तियाणुप्पेहा) अनन्तवत्तितानुप्रेक्षा-भवपरपग की अनतवृत्ति का विचार करना, अर्थात् जिस प्रकार तेली का थैल कोल्ह मे जोता जाने पर चकर काटता है उसी प्रकार इस जीन के भी, जबतक यह मसार मे रहता है तबतक इसके भ्रमण की कभी भी समाप्ति नहीं होती है, इस प्रकार का अनुचिन्तन करना अनतवर्तितानुप्रेक्षा है ३। (विपरिणामाणुप्पेहा) विपरिणामानुप्रेक्षा-प्रयेक द्रव्य, उ पाद, व्यय एव ध्रौव्य स्वभाववाले है, अत वस्तु प्रतिसमय અપાયાનુપ્રેક્ષા–અપાને અર્થાત-પ્રાણાતિપાતાદિઠ પાપ જે કર્મોના આસવને માટે ઠાર જેવા છે તેમનાથી થતા અનર્થોને વાર વાર વિચાર કરે તે मायानुप्रेक्षा छ (असुभाणुप्पेहा) सशुलानुप्रेक्षा-ससा२ पाते गशुल२१३५ छ, सो वारपार विचार वो त पशुमानुप्रेक्षा छ (अणतरत्तियाणुप्पेहा) અન તવર્તાિતાનુપ્રેક્ષા–ભવપર પરાની અને તવૃત્તિતાને વિચાર કરે, અર્થાત્ જેવી રીતે ઘાચીને બળદ ઘાણીમાં જોડાઈને ચકકર-(આઠ) ફર્યા કરે છે એવી રીતે આ જીવ પણ જ્યા સુધી સવારમાં રહે છે ત્યા સુધી તેના શ્રમ ણની કદી પણ સમાપ્તિ થતી નથી, એ પ્રકારનું અનુચિતન કરવું તે અન ત पतितानुप्रेक्षा छ (विपरिणामाणु पहा) विपरिभानुप्रेक्षा-प्रत्ये४ द्रव्य ઉત્પાદ, વ્યય તેમજ પ્રૌવ્ય સ્વભાવવાળા છે, તેથી હરવખત વતુ પરિણમન Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० औपपातिकत्रे चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता; तं जहा - विवेगे १, विउस्सगे २, अहे ३, असम्मोहे ४ | सुकस्स णं आणस्स चत्तारि आलंत्रणा पण्णत्ता, तं जहा - खंती १, मुत्ती २, अजत्रे ३, महवे ४। सुक्कस्स 'विवेगे' विवेक पृथकरण, स च पृथकार - देहाना मनो बुद्धयानिचनम् ||१|| 'विस' व्यु सर्ग - निस्सङ्गतया देहोपधियाग ॥२॥ ' अन्यहे ' अन्यथम् - देवायुपमर्गजनित भय व्यथा - तया रहितम् ||३|| 'असमोहे' असमोह - देवमायाजनितस्य मूढत्वम्य निषेध ||४|| ' सुकस्स ण झाणस्स चत्तारि आणा पण्णत्ता' शुकस्य यलु ध्यानस्य चत्वार्यालम्बनानि प्रज्ञमानि, ' त जहा ' तथा ' खती ' क्षान्ति - परकृताऽपकार सहनम् ॥१॥ 'मुक्ती' मुक्ति - निर्लोभता ॥२॥ ' अज्जवे' आर्जन - सरलता ||३|| 'महवे ' मावा ||४|| 'कस्स ण झाणस्स चत्तारि अणुहाओ पण्णत्ताओ' शुक्लस्य भिन्न जानना १। (विउस्सग्गे) व्युत्सर्ग- देह तथा उपधि का परित्याग करना २। (अव्व हे ) अव्यथ-व्यथारहित होना-देवादिकृत उपसर्गजनित भय का नाम व्यथा है, इससे रहित का नाम अव्यथ है, अर्थात् -- देवादिकृत उपसर्गों का निश्चल भावसे सहन करना ३। (असंमोहे) असमोह-मोहरहित होना - देवादिक द्वारा प्रदर्शित मायाकी ओर आकृष्ट नहीं होना ४ (कस्स ण झाणस्स चत्तारि आलवणा पण्णत्ता) शुक्लध्यान के चार आलवन हैं, ( त जहा ) वे इस प्रकार हैं- (खती) क्षान्ति - परकृत अपकार का सहन करना १, (मुत्ती) मुक्ति-लोभका परित्याग करना २, (अज्जवे) आर्जव - चित मे सरलता रखना ३, और (मद्दवे) मार्दव गुणका होना ४ | (सुकस्स ण झाणस्स चत्तारि अणुहाओ पण्णत्ताओ) शुक्लध्यान की चार अनुप्रेक्षा है, (त जहा ) वे ये है - (अवायाणुप्पेहा) अपायानुप्रेक्षा (विउस्सग्गे) व्युत्सर्ग- हेड तथा उपधिना परित्याग ४२वो, (अव्हे) अव्यथ-यथाરહિત હાવુ--દેવાદિષ્કૃત ઉપસગ થી થયેલ ભયનુ નામ વ્યથા છે,તેનાથી રહિતનુ નામ અન્યથ છે, અર્થાત્-દેવદિકથી કરાએલ ઉપસર્ગાને નિશ્ચળ ભાવથી સહન કરવા (असमोहे) अस मोड भोडरहित थ्वु -हेवाधिद्वारा प्रहर्शित भाया तर भाष डि (सुकस्स न झाणस्स चत्तारि आलपणा पण्णत्ता) शुउसध्यानना यार यास मन छे, (त जहा) ते या अरे छे - (सती) क्षान्ति-मील ४रेस अर्थजरने भन ४श्वा, (मुत्ती) भुक्ति बोलना परित्याग श्वेा, (अज्जने) व शित्तमा सरजता राजपी, मने (मद्दवे) भाईव भृटुता गुगु थ्वु (सुक्कास ण झाणस्स चत्तारि अणुपे हाओ पण्णत्ताओ) शुभ्यध्याननी यार अनुप्रेक्षा छे, (त जहा) ते मा छे (अनायाणुप्पेद्दा) Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूपवर्षिणो-टीका स ३० व्युत्सर्गभेदयर्णनम् विउस्सग्गे, २ गणविउस्सग्गे, ३ उवहिविउस्सग्गे, ४ भत्तपाणविउस्सगे।सेतंदव्वविउस्सग्गे से कितं भावविउस्सग्गे भावविउस्सग्गेतिविहे पण्णत्ते, तंजहा-१कसायविउस्सग्गे,२संसारविउस्स'गणविउस्सग्गे गगव्युसर्ग ।२। 'उपहिविउस्सग्गे' उपधियुसर्ग -उपधेरुपकरणस्य त्याग ।३। 'भत्तपाणविउम्सग्गे' भक्तपानब्युसर्ग–अन्नजल्याग ।४। 'से त दव्यरिउस्सग्गे' स एप द्रव्ययुसर्ग । 'से कि त भावरिउस्सग्गे' अब कोऽमो भारव्युत्सर्ग । 'भावविउस्सग्गेतिविहे पण्णत्ते' भावव्युमर्ग विविध प्रज्ञम , 'त जहा तद्यथा-'कसायविउस्सग्गे' कपायव्युसर्ग ।१। 'ससारविउरसग्गे' र सारव्युमर्ग ।२। 'कम्मविउस्सग्गे' कर्मयुसर्ग 13। 'से किंत कसायविउस्सग्गे' अथ कोऽमौ कपाययुसर्ग : 'पसाय(सरीरविउस्सग्गे १, गणविउससग्गे २, उवहिपिउस्सग्गे ३, भत्तपाणविउस्सग्गे ४) शरीरब्युसर्ग १, गणयुसर्ग २, उपधिव्युसर्ग ३, और भक्तपानव्युत्सर्ग ४ । इनमे शरीर के ममन का त्याग करना सो शरीरव्युसर्ग है १ । पडिमा आदि आराधन करने के लिये गण-संप्रदाय से ममत्वका त्याग करना सो गणयुसर्ग है २। यत्रादिक उपधि के ममत्व का त्याग करना सो उपधिव्युसर्ग है ३। भोजन एव पानी का त्याग करना सो भक्तपानव्युसर्ग है ४ । (से त दबविउस्सग्गे) यह सर द्रव्ययु मर्ग है। (से किं त भावविउस्सग्गे) भावव्युसर्ग क्या-कितने प्रकार का है ? ( भावविउस्सग्गे तिविहे पण्णत्ते ) भावव्युसर्ग तीन प्रकार का है, (तं जहा) वे प्रकार ये है-(ऊसायविउस्सग्गे १ ससारविउस्सग्गे२ कम्मविउस्सग्गे३) कपायव्युत्सर्ग १, ममारव्युत्सर्ग २, एव कर्मव्युत्सर्ग ३ । (से कि त कसायपिउस्सग्गे) कपायव्युसर्ग क्या कितने प्रकारका है - (साय भ-(सरीरविउस्सग्गे गणविउस्सग्गे उपहिविउस्सगे भत्तपाणविउस्सग्गे) शरी२વ્યુત્સર્ગ, ગણત્રુત્સર્ગ, ઉપધિવ્યુત્સર્ગ અને ભક્તપાનબુભગ તેમાં શરીરના મમત્વને ત્યાગ કરવો તે શરીરવ્યુત્સર્ગ છે પડિમા આદિ આગધન કરવા માટે ગણ–સપ્રદાયથી મમત્વને ત્યાગ કરવો તે ગણવ્યુત્સર્ગ છે વસ્ત્રાદિક ઉપાધિથી મમત્વને ત્યાગ કરે તે ઉપધિવ્યુત્સર્ગ છે ભેજન તેમજ પાણીને त्याप ७२ ते मतानव्युत्सग । मया द्रव्यच्युत्मा (से किं त भावविउस्सग्गे) मापव्युत्मा शु-डेटमा जाने ?(भापरिउस्सगे तिनिहे पण्णत्ते) मापव्युत्स ! ५४२ने। छ, (त जहा) ते मारे -(कसायविउरसग्गे ससारविउस्सगे कम्मपिउस्सग्गे) पायव्युत्सा, 4 या०युत्मा तेभा भव्युत्सर्ग Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ औपपातिकवत्रे मूलम्-से किं तं विउस्सग्गे ? विउस्सग्गे दुविहे पण्णत्ते; तं जहा-१ दबविउस्सग्गे, २ भावविउस्सग्गे य । से कि तं दव्वविउस्सग्गे? दव्वविउसग्गे चउबिहे पण्णत्ते, तं जहा-१ सरीर टीका-आभ्यन्तरतपम पष्ठभेदमाह-से कि त विउस्सग्गे' अथ कोऽसौ व्युत्सर्ग ? व्युत्सर्ग किंस्वरूप कतिविधयेति प्रश्न । व्युसर्ग-वि-विशेषेण, उत्-उकृष्टभावनया सर्ग =त्याग । 'विउस्सग्गे दुरिहे पण्णत्ते व्युसगों द्विविध प्रजप्त , 'त जहा' तयथा १-दव्वविउस्सागे' द्रव्यत्युसर्ग, २-'भावविउस्सग्गे' भावयुसर्ग । 'से कि त दव्वविउस्सग्गे ?' अब कोऽमौ द्रव्यन्युसर्ग १ 'दयविउस्सगे चउन्विहे पण्णत्ते' द्रव्यव्युत्सर्ग-चतुर्विध प्रजप्त , 'त जहा' तयथा-'सरीरविउस्सग्गे' शरीरब्युसर्ग ।१। परिणमती रहती है। इस प्रकार जो चिन्तन करना इसका नाम पिपरिणामानुप्रेक्षा है । (से त झाणे) इस प्रकार चार ध्यानका वर्णन हुआ ॥ मू० ३०॥ से कि त विउस्सग्गे' इत्यादि, अब आभ्यन्तर तपफा जो छठा भेद व्युत्सर्ग है उसका वर्णन करते है-(से किं तं विउस्सग्गे) विशेष रीति से उत्कृष्ट भावनापूर्वक परित्याग करना व्युसर्ग है, वह व्युत्सर्गतप क्या-कितने प्रकार का है ? (विउस्सग्गे दुविहे पण्णत्ते) व्युत्सर्ग के दो भेद है, (त जहा) वे ये हे-(दबविउस्सग्गे भावविउस्सग्गे)१-द्रव्यव्युत्सर्ग और २-- भागव्युसर्ग । ( से किं त उबविउस्सग्गे ) द्रव्यव्युत्सर्ग क्या-कितने प्रकार का है ' (दबविउस्सग्गे चउन्विहे पण्णत्ते ) द्रव्यव्युत्सर्ग चार प्रकार का है । (त जहा) जैसे કરતી હોય છે, એક જ રૂપે કદી નથી રહેતી એ પ્રકારે જે ચિતન કરવું તેનું नाम विपरिणामानुप्रेक्षा (से त झाणे) ये प्रमाणे यार ध्यान वर्णन ययु (सू० ३०) ' से किं त विउस्सग्गे? 'त्यादि હવે સૂત્રકાર આભ્યન્તર તપને જે છઠ્ઠો પ્રકાર વ્યુત્સર્ગ છે તેનું વર્ણન કરે -से कि त विउस्सग्गे) विशेषतिथी सायना परित्याग ४२वो त व्युत्सर्ग छे व्युत्स त५ 32 प्रहारनु छ ? (विउस्सगे दुविहे पण्णते) सन २ छ,-( त जहा) ते मा छ-(दव्वविउस्सगे भावविउस्सगे य) ૧ દ્રવ્યવ્યત્સર્ગ અને ૨ ભાવયુત્સગ દ્રવ્યબુત્સર્ગ શુ-કેટલા પ્રકાર છે? (दवविरसगे चउविहे पणत्ते) ये व्यव्युत्मा यार प्रानु छ (त जहा) Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषयषिणी टीका र ३० व्युत्सर्गभेदयर्णनम् ३०५ यसंसारविउस्सग्गे, ३ मणुयसंसारविउस्सग्गे, ४ देवसंसारविउस्सग्गे। से तं संसारविउस्सग्गे।से किं तं कम्मविउस्सग्गे' कम्मविउस्सग्गे अविहे पण्णते, तं जहा, १ णाणावरणिज्जकम्मविउस्सग्गे,२दरिसणावरणिज्जकम्मविउस्सग्गे,३वेयणिज्जकम्मविउस्सगे, ४ मोहणिज्जकम्मविउस्सग्गे, ५आउकम्मविउस्सग्गे, ६णामकम्मविउस्सग्गे ७, गोयकम्मविउस्सग्गे ८ अंतरायकम्मविउस्सग्गे । से त कम्मविउस्सग्गे। से तं भावविउस्सग्गे ॥ सू० ३०॥ स्सगे' मनुजम्सारयुसर्ग [३। 'देवससारविउस्सग्गे' देवस्मारख्युसर्ग 1४॥ 'से त ससारविउम्मग्गे' म ण्य ससाग्व्युसर्ग । ' से फि त कम्मविउस्सगे' अथ कोऽमौ कर्मव्युसर्ग 'कम्पविउस्सग्गे अदविहे पण्णत्ते' कर्मव्यु सर्ग अष्टविध प्रजम । 'त जहा' तद्यथा-'णाणावरणिजकम्मविउस्सग्गे' ज्ञानावरणीयकर्मव्युसर्ग ११। 'दरिसिंणावरणिजफम्मविउस्सगे' दर्शनाऽवरणीयकर्मव्यु सर्ग ।२ 'वेयणिजकम्मविउस्सग्गे' वेदनीयकर्मव्यु सर्ग ३। 'मोहणिज्जकम्मविउस्सगे' मोहनीयक्रमगगे ३, देवससारविउस्सग्गे ४) नैरपिकासारव्युसर्ग, तिर्यक्-मारव्युत्सर्ग, मनुजत्सारव्युत्सर्ग, एव देवस्मारब्युसर्ग, (से त ससारपिउम्सगे) इस प्रकार चारगतिरूप न्सार का यह व्युसर्ग (परियाग) मारब्युसर्ग है। (से किं त कम्मविउस्सग्गे) कर्मव्युत्सर्ग क्या-कितने प्रकार का है । (कम्मविउम्सग्गे अढविहे पण्णत्ते) जिसमे आठ प्रकार के कर्मोका व्युसर्ग-परित्याग हो वह कमब्युसर्ग आठ प्रकार का है, (त जहा) जैसे (णाणावरणिज्नकम्मविउस्सग्गे १,दरिसगावरणिज्ज कम्मविउस्सग्गे २,वेयगिज्जकम्मविउस्सग्गे ३,मोहणिज्जकम्मविउस्सग्गे देवससारनिउस्सग्गे) नैयिस सा२व्युत्मा, तिर्य इस सा२युत्सर्ग, मनु०४मसा२युत्सर्ग तेभर हेक्समाव्युत्सर्ग (से त ससारविउस्सग्गे) से मारे ચારેય ગતિરૂપ સનારને આ વ્યુત્સર્ગ (પરિત્યાગ) તે અમારવ્યુત્સર્ગ છે (से कि त कम्मविउस्सग्गे) उभव्युत्सम 2 रने। १ (कम्मविउस्सग्गे अढविहे पण्णत्ते) मा माठेय ना उभीनी व्युत्मा-परित्याग 2 लय छ मेवो २मा उभव्युत्मा 18 प्रधानो छ, (त जहा) रेभ-(णाणावरणिज्जकम्मविउस्मग, दरिसणारणिजसम्मविउस्सग्गे, वेयणिज्जकम्मविउरसग्गे, मोहणि Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - औपपातिकत्रे गे,३ कम्मविउस्सगे।से कितं कसायविउस्सग्गे,? कसायविउस्सग्गे उबिहे पण्णते;तंजहा-कोहकसायविउस्सगो, २माणकसाय विउस्सग्गे,३मायाकसायविउस्सग्गे, लोहकसायविउस्सग्गे। से तं कसायविउस्सग्गे।से किं तं संसारविउस्सगे? संसारविउस्सग्गे चउबिहे पण्णते; तं जहा-१ णेरडयसंसारविउस्सग्गे, २ तिरिविउस्सग्गे चउबिहे पण्णत्ते' कपाययुसर्ग चतुर्विध प्रजम , 'त जहा' तयथा- 'कोहकसायविउस्सग्गे' क्रोधापायव्युत्सर्ग १६ 'माणकसायविउम्सागे' मानकपायव्युमर्ग । 'मायाफसायविउस्सग्गे' मायारूपायव्युसर्ग १३। 'लोहमसायविउम्सागे' लोभकषायव्युसर्ग १४ से त कसायविउस्सग्गे' स एप कपाययुमर्ग । 'से कि ससारविउस्सागे' अथ कोऽसौ ससारख्युसर्ग ? 'ससाररिउस्सग्गे चउबिहे पण्पत्ते मसारव्युत्सर्ग चतुर्विध प्रजप्त , ' जहा' तद्यथा-'णेरटयससारविउस्सम्गे' नैरयिकससारव्युत्सर्ग १११ तिरियससारविउस्सग्गे' तिर्यक्रमसारव्युसर्ग ॥२॥ ' मणुयससारविउविउस्सग्गे चउबिहे पण्णत्ने) कपायव्युसर्ग चार प्रकारका है । (त जहा) वे चार प्रकार ये हैं-(कोहकसायविउम्सग्गे१, माणकसायविउस्तग्गे २, मायाफसायविउस्सग्गे ३. लोहकसायविउस्सग्गे ४) क्रोधकपायव्युसर्ग१,मानकपायव्युसर्गर, मायाकपायन्युत्सर्ग ३ एव लोभकपायव्युत्सर्ग ४ । (सेत कसायविउसग्गे) इन क्रोधादि चार कपायोंका परित्याग करना यह कषायव्युत्सर्ग है । (से किंत ससारविउस्सग्गे) सारख्युसर्ग क्या-कितने प्रकार का है । (ससारविउस्सग्गे चउबिहे पणत्ते) ससारख्युसर्ग चार प्रकार का है, (तं जहा) वे चार प्रकार ये है-(णेरझ्यससारविउस्सग्गे १ तिरियससारविउस्सग्गे २मणुयससारविउस्स(से कि त कसायविउरसग्गे) ४ायव्युत्स ना छ १ (कसायविउस्सग्गे चविहे पण्णते) ४ायव्युत्सर्ग यार प्रा२ना छ (त जहा) भ3-(कोहकसायविउस्सग्गे माणकसायविउम्मग्गे मायाकसायविउस्सग्गे लोहकसायचिउरसग्गे) 14. ડાયડ્યુસર્ગ, માનકવાયબ્યુન્સર્ગ, માયાકષાયડ્યુસર્ગ, તેમજ લોભકષાયબ્રુત્સર્ગ (सेत कसायविठस्मग्गे) मे शोधादियारेय पायोनी परित्या २ ते पाय छ (से कि त संसारविउम्सग्गे) समा२०युत्मा 26 प्रश्ना छ १ (ससार सो चउबिहे पण्णत्त) सभा२०युत्मा यार मारने, (त जहा) ते यार सरसा(जरइयससारविउस्सग्गे तिरियमसारविउस्सगे मणुयससारविउस्सगे Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषयपिणी टीका सू ३१ महावीरस्थामि शिष्यवर्णनम ३०७ जाब विवागसुयधरा तत्थ तस्थ तहिं तहिं देसे देसे गच्छागच्छि गुम्मागुम्मि फड्डाफढेि अप्पेगइया वायंति, अप्पेगडया पडिरहुमायका आमन्, तेषु शिप्येषु 'अप्पेगडया' अप्येकके केचित्-'आयारधरा जाव विवागमुयधरा' आचारधरा यानद् विपाश्रुतधरा -आचारागादि-विपाकान्त-सर्वश्रुतधारिंग, इमे पूर्व वर्णिता , 'तत्य तत्य तर्हि तर्हि देसे देसे' तत्र तत्र तस्मिन् तस्मिन् देशे देशे-अत्र वीसया स्थानाहुल्यकथनासाधूनामधिकता अप्रतिबन्धविचरण च मूचितम् , तथा बहवो बहुविधप्रामनगरवनादिपु गता इति च गम्यते । 'गच्छाच्छि ' गमगच्छि-एकाचार्यपरिवारो गच्छ -गच्छेन गच्छेन विभन्य वाचनादिकं प्रवृत्तम्, इति विग्रह 'तत्र तेनेदमिति सरूपे' इत्यनेन गच्छागच्छि, इत्यस्य साधुनम् । एव 'गुम्मागुम्मि' गुल्मागुन्मि-गुल्म गछैकभाग , गुल्मेन गुल्मेन विभय दद वाचनादिक प्रवृत्तमिति गुन्मागुन्मि । 'फटाफर्डि' फड्डकाफड्डकि-फक लघुतगे गच्छैकमाग , फाकन फरकेन विभ'येट वाचनादिक प्रवृत्तम् , इत्यर्ये फहकाफहकि-एप प्रयोगपु समासे कृत पूर्वपदस्य दीर्घ समासान्त इच-प्रत्ययश्च । 'अप्पेगइया वायति' अप्येकके से अनगार भगवत थे, उनमें (अप्पेगइया) कितनेक (आयारधरा जाब विवागसुयधरा) आचारागसूत्र के धारक थे, 'यावत्' गन्द से कितनेक सूत्रकृताङ्ग से लेकर प्रभव्याकरण पर्यन्त सूत्रों में से एक २ सून के धारक थे और कितनेक विपासश्रुत के धारक थे, उपलक्षणसे कितनेक सबके भा धारक थे। (तस्थ तस्य तहिं तहि देसे टेसे) वे उमी बगीचे में भिन्न २ जगह पर (गन्छागच्छि) गच्छ गच्छरूप में विभक्त होकर, (गुम्मागुम्मि) गच्छ के एक २ भाग में विभक्त होकर (फाफर्डि) फुटकर फुटकर रूप में विभक्त होकर निराजते थे। इनमें से (अप्पेगइया वायति ) कितनेक सूत्र की वाचना प्रदान करते थे-सूर पढाते मनगार सावता , तमनामा (अप्पेगइया) 321४ (आयारधरा जान निवाग सुयधरा) माया11 सूत्रना धार sal, 'यावत् १०४थी उटमा सत्रहताथी લઈને પ્રવનવ્યાકરણ સુધીના સુત્રોમાંથી એક એક સૂત્રના ધારક હતા, અને કેટલાક विपासून धा२४ ता, Bाथी ४९४ मया सूत्राना था२४ ता (तत्य तत्थ तहिं तहिं देसे देसे) त यामा नुही नुही याये (गच्छागच्छि) ७ ७ ३५मा विभात 25, (गुम्मागुम्मि) १२छन। स४ ४ भागमा विसत यधने (फडाफ९ि) २८-८पाया ३५भा विमत न qिAVता उता मनामाथी (आपेगइया बायति) 32सा सत्रनी वायना मापता इता-सूत्र लावता Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ক্লীবশিষ্ট मूलम्-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स बहवे अणगारा भगवंतो अप्पेगडया आयारधरा व्युमर्ग ।।। ‘आउफम्मरिउस्सगे। आयुकर्मन्युसर्गः 1 141 'णामाम्मवित स्सगे' नामझमन्युसर्ग १६। 'गोयकम्मविउम्सग्गे' गोकर्मयुसर्ग 11 'अन रायफम्मपिउस्सग्गे' अन्तरायकर्मव्युसर्ग ८ 'सेत कम्मपिउस्सग' स एप कर्मव्यु मर्ग, ‘से त भारपिउस्सग्गे' स य भावव्युमर्ग । इयमनशनादिभेदेन पड्विध बाह्य प्रायश्चित्तादिभेदेन पदविधमान्य तर च तपो व्याप्यातम् ॥ मू० ३०॥ टीका-'तेण कालेणं तेण समएण' इत्यादि। तस्मिन काले तस्मिन समये 'समणस्स भगवनो महागीरस्स' श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य 'यहवे अगगारा भगांतो नमोऽनगारा भगात वर्णिता पुनर्वर्ण्यमाना शिका ४, आउफम्मविउस्सग्गे ५, णामकम्मविउस्सग्गे ६, गोयफम्मविउम्सग्गे, ७ अतरायकम्मविउस्मग्गे ८) जानापरणीयकर्मव्युत्मर्ग १, दर्शनावरणीयफर्मव्युमर्ग २, वेदनीयकर्मव्युसर्ग ३, मोहनीयफर्मयुसर्ग ४, आयुर्मयुसर्ग ५, नामकर्मव्युसर्ग, गोत्रकर्मव्युसर्ग ७, एव अतरायकर्मव्युत्सर्ग ८, (से ते भावरिउस्सग्गे) ये सब भाव व्युसर्ग हैं । इस तरह यहा तक अनशनादिक के भेद से यह प्रकार बाह्यतप का और प्रायश्चित्त आदि के भेद से छह प्रकार आभ्यतर तप का वर्णन हुआ ॥ सू०३० ।। 'तेण कालेण तेण समएणं ' इत्यादि। (तेण कालेण तेणं समएण) उस काल और उस समय (समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रमण भगवान् महावीर प्रभु के, जो (वह अणगारा भगवतो) बहुत ज्जकम्मविउस्सगो, आउकम्मविउस्सग्गे, णामकम्मविउस्सगो, गोयकम्मविउस्सग्गे, अंतरायझम्मविउस्सगे) ज्ञाना२यधुत्सन, शनापरणीय भव्युत्मा, વેદની કર્મભૃત્મર્ગ, મેહનીય કર્મબુત્સર્ગ, આયુકર્મ વ્યુત્સર્ગ નામકર્મચુસંગ, गोत्र भयुम तेभर २५ तशय भव्युत्सा, (से त कम्मविउस्सग्गे) मा प्रकारे मा भव्युत्म माई प्रारना छ (से से भावविउस्सग्गे) से मया ભાવવ્યુત્સર્ગ છે એ રીતે અહીં સુધી અનશન આદિના ભેદથી આ પ્રકારના આદાનપનું અને પ્રાયશ્ચિત્ત આદિના ભેદથી છ પ્રકારના આભ્ય તર તપનું पनि थयु (१० ३०) 'तेण कालेण तेण समण्ण' त्यादि तण कालेण तेण समएण) ते अने ते सभये (समणस भगवओ महावीरस्स) श्रम लगवान् महावीर प्रभुनाब (रहवे अणगारा भगवतो) | Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूपपिणी-टीवा सू ३३ महावीरस्वामि शिष्यवर्णनम् ३०९ बहुविहाओ कहाओ कहति अप्पेगड्या उड्ढजाणू अहोसिरा झाणकोट्टो या संजमेण तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति ॥ सू० ३१ ॥ =ौगग्यवान् त्रिनीयने याभिरता, एतादृशा बहुविधा कथा कथयन्तिश्रानयन्ति । या विविधा कथा शृण्वन् श्रोना मोहपरित प्रतिनिभरति तथा निक्षिम = कुमार्गविमुखो भवति, एव सवदनीय =मोक्षमुसाभिरायी, निर्विण्ण = ससारादुद्विग्नो भवति । 'अप्पेगइया उड्ढजाणु अहोसिरा' अनेक ऊजानन, अप गिरम = अधोमुखा - नो तिर्यग् वा दत्तदृष्टय ' आग कोट्टांगया' ध्यान कोटोपगता - व्यानरूपो य कोष्टस्तमुपगता, सयमेन तमात्मान भावयन्तो विहरन्ति ॥ स० ३१ ॥ जिस कथा के सुनन से प्राणी मोम्स की अभिलापावाला बन जाता है उस कथा का नाम 'संवेदनी कथा ' है ३, जिस कथा के सुनने से प्राणी मार से विरक्त हो जाता हे उस कथा का नाम 'निर्वेदी कथा ' हे ४ उन कथाओं का सुनने वाला श्रोना मोह का परित्याग कर तत्व के प्रति आकृष्ट होता है, कुमार्ग से विमुस होता है, मोक्ष सुखका अभिलापी होता है और निर्विण्ण- सारसे - उद्विग्न होता है । (अध्पेगड्या उडूढजाणू अहोसिरा झाणकोट्ठोत्रगया सजमेण तवसा अप्पाण भावेमाणा विहरति ) कितनेक मुनिजन दोनों घुटनों को ऊँचा कर नाचे मस्तक किये हुए माथा झुकाये हुए ---यानरूपी कोष्ठ मे प्राप्त ये । इस प्रकार मयम और तपसे अपनी आत्मा को भावित करते हुए साधुगण विचर रहे थे |सू० ३१|| મેલના સુખ માટે અભિલાષાવાળા અને જે તે કથાનુ નામ મવેટની સ્થા છે, જે કયા સાભળવાથી પ્રાણી સમાચ્ચી વિખ્ત થાય છે તે કથાનુ નામ ‘નિવેદ્યની યા’ છે. આ થાઓના નાભળનાર શ્રોતા માહના પરિત્યાગ કરીને તત્ત્વના તરફ આકર્ષિત થાય છે, કુમાથી વિમુખ થાય છે, મેલના મુખના અભિલાષવાળા થાય અને સ સારથી નિવિષ્ણુद्विस थाय छे (अप्पेगइया उडजाणू अहोसिरा झाणकोट्टोवगया सजमेण तवसा अप्पा भावेमाणा विहरति ) नेटसा भुनिलन भन्ने घुटो या राणी, માથુ નીચે રાખી-માથુ નીચે કરીને-ધ્યાનરૂપી કાઠામા પ્રાપ્ત હતા એ પ્રકારે સયમ અને તપથી પેાતાના આત્માને ભાવિત કરતા માધુગણુ વિચરતા હતા, (सृ० ३१) Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओवपातित्र ३०८ पुच्छंति, अप्पेगइया परियहंति, अप्पेगइया अणुप्पेहंति अप्पेगड़या अक्खेवणीओ विक्खेवणीओ सवेयणीओ निव्वेयणीओ वाचयन्ति - सूनवाचना दत्ते गच्चैकदेश गगान छेदकानिष्ठित निनाय सूननाचना वाचयन्ति । 'अप्पेग या पडिपुच्छति' अयेकके प्रति उत्तिमार्या पृच्छति, 'अप्पेग या परियकृति ' अत्येक परिवर्तयन्तिनार्थी पुन पुनग्भ्यम्यन्ति । 'अप्पेगडया अणुप्पेडति अप्येकके अनुप्रेक्षन्ते परिचितयति । 'अप्पेगइया अखेवणीओ विराणीओ सवेयणीओ णिव्यणीओ नहुरिहाओ कराओ कति ' अप्येकके आक्षेपणी विक्षेपणी = वेदिनी निर्देदिनार्नहुरिधा कथा कथयन्ति, मोहादपनीय तत्व प्रति आक्षिप्यते=आकृष्यते प्राणी याभिस्ता आक्षेपण्यस्ता कथा' इत्यस्य निशेषणम् । विक्षेपणी - विक्षिप्यते = कुमार्ग प्रसक्त प्राणी कुमार्गापृथक कियते याभिस्ता निक्षेपण्यस्ता । रूवेदिनी -–-- वेद्यते=मोक्षमुसाभिलाप कियते याभिस्ता । निवेदिनी - निर्वेद्यते=मसागद् निर्विष्णो थे, (अपेगया) कितने (पडिपुच्छति) सून और अर्थ को पूछते थे, (अप्पेगइया) कितनेक (परियहति) सून और अर्थ की आवृत्ति करते थे, (अप्पेगइया) कितनेक (अणुप्पेहति) सूत्र - अर्थ की अनुप्रेक्षा - परिचिन्तन करते थे, (अप्पेगइया) कितनेक (अक्खेवणीओ १, विक्खेवणीओ २, सवेयणीओ ३, णिव्यणीओ ४, बहुविहाओ कहाओ कहति) आक्षेपणी, निक्षेपणी, मोदिनी, और निर्वेदिनी इन अनेक प्रकार की कथाओं को कहते थे । मोह से दूर कराकर प्राणी जिस कथा के द्वारा तत्व के प्रति आकृष्ट किया जाता है उस कथा का नाम 'आक्षेपणी कथा ' है १, कुमार्ग मे रत प्राणी जिस कथा से उस कुमार्ग की ओर से पृथक् किया जाता है उस कथा का नाम 'विक्षेपणी कथा' है २, ' हता, (अप्पेगइया) टसाड (पडिपुच्छति ) सूत्र तथा अर्थ पृछता हता ( अप्पेगइया) डेटा ( परियहृति ) सूत्र तथा अर्थनी आवृत्ति उरता ता ( अप्पेगइया) डेटा ( अणुप्पेहति ) सूत्रार्थंनी अनुप्रेक्षा-परिचिंतन उता उता ( अपेगइया) डेंटला ( अक्सेवणीओ, विम्मेणीओ, भवेयणीओ पिब्वे यणीओ, बहुविहाओ कहाओ कहति ) याक्षेपणी, विक्षेपणी, सवेहनी, मने નિવેદ્યની, એ પ્રકારે અનેક પ્રકારની કથાએ કરતા હતા માહથી દૂર કરીને જે કથા તત્ત્વના તરફ આકર્ષણ કરે છે તે કથાનુ નામ આક્ષેપણી કથા' છે. કુમામા મગ્ન થયેલા પ્રાણીને જે થાથી તે કુમાગ તરફથી જુદો કરાવાય તે કથાનુ નામ ‘વિક્ષેપણી કથા' છે જે થા માભળવાથી પ્રાણી Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषयपिणो-टीका सू ३१ महावीरस्यामि शिष्यवर्णनम् चिंता-पसंग-पसरिय-यह-बंध-महल्ल-विउल-कल्लोल-कलुणविलविय-लोभ-कलकलंत-बोलबहुलं अवमाणण-फेण-तिव्वकाक्षायामाह-'सजोग-विओग-चीड-चिंता-पसग-पसरिय बह-वध महल्ल-विउलकल्लोलकलुण-विलविय-लोभ-कलकलत-बोल-बहुल' सयोग-वियोग वाचि-चिन्ताप्रसङ्ग-प्रसृतवर-बन्ध-महाविपुल-कलोल-करण-चिलपित-लोभ-कलकलायमान-बोल-(ध्वनि) बहुलम्-सयोगवियोगा =अप्रियगन्दादिसयोग-प्रियगन्दादिगियोगा एव वीचय =तग्गा यत्र सागरे स सयोगवियोगीचि , चिन्ताप्रमग पुन पुनश्चिन्ताप्रामि म एर प्रसृत प्रसरण यस्य स तथा, गहननानि, बन्धा =मयमनानि, त एव महान्तो दार्ग, विपुला =पिस्तीणा कल्लोला -महोर्मयो यत्र स वधनन्धमहाविपुल कल्लोल , करुणानि-करुणरसजनकानि विलपितानि=पिलापरचनानि, लोमा लोमसम्भूताऽऽमोगाश्रत एव कलफायमाना बोला = वनयो बहुला यत्र स तया, तत मयोगपियोग चिश्वामी चिन्ताप्रसङ्गप्रसृतश्च तथा वपन्धमहाविपुलकल्लोल्वामी करुणविलपितलोभकलकलोलयहुलश्च स तथा, त तादृश, योगादितरगतरङ्गित चिन्तापिस्तीण वधबन्धकल्लोल करुणविलापलोभमभूताकोगप्रचण्डनादनादितमियर्थ । पुन कथन्भूतम् ? 'अवमाणणफेणतिब्बग्विसणपुलपुलप्पभूयरोगवेयणपरिभवविणिवाय(सजोग-विभोग-बीड-चिंतापसग-पसरिय-बह-यम-महल-विउल-कलोल कलुण-विलविय लोभ-कलफलत-बोल-बहुल) सयोग अमनोज गन्दाठिकों का सवध, पियोग-मनोज गन्दारिकोका अभाव, ये जिसमे वीचि-कल्लोल है, चिन्ता जिसका विस्तार है, बध एव वधन ही जिमम विस्तृत तग्गे है, करणारसजनक विलापाचन एव लोभ से नभृत आक्रोशवचन, ये दो जिसकी बहुल फलकलायमान व्वनिया है-गर्जना है, (अपमाणण-फेण-तिब्ब-खिसण-पुलपुलप्पभूय-रोगवेयण-परिभव-विणिवाय-फरस-परिसणा-समावडिय-कठिण-कम्म-पत्थरतरग-रगत-निच्चमच्चुभय-तोयपट्ट) अपमान ही जिमम फेनगशि है। दु सहनिंदा, निर(सजोग-विओग वीइ-चिंतापसग पसरिय-वह वध महल्ल विउल-कल्लोल-कलुण-निलवियलोभ-कलकलंत-बाल-बहल) म योग-मनने न गमे तेवा २०६ माहिाने। સબ વ, મનને ગમે તેવા શબ્દ આદિને વિયેગ, એ જેમાં વિચિ-લહેરો છે, ચિતા જે વિસ્તાર છે, વવ તેમજ બ ધન જ જેમાં મેટા મેજા છે, કરૂણાજનક વિલાપવચન તેમજ લોભથી ઉત્પન્ન થયેલ આક્રોશવચન से सनी मोटी उससाट पनिया गाना छे, (अनमाणण फेण तिव्यसिंमण-पुल्पुल-पभूय-रोगवेयण-पग्भिव-चिणिवाय-फरस - धरिमणा - समावटिय कटिण-कम्म-पत्थर-तग्ग-रगत-निश्चमन्चुभय-तोयपद्र) अपमान भा जाना Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ বিধানি मूलम्-संसारभउधिग्गा भीया जम्मण-जर-मरणगंभीर-दुक्ख-पखुभिय-पउर-सलिलं संजोग-विओग-बीड टीका-भगवत श्रीमहावीरस्वामिनोऽनगारा पुन कौटया र दयाह- ससारभउम्बिग्गा' इयादि । ससारभयोद्विग्ना -चतुर्गनिभमणलभगसमाग्भयादुद्विग्ना = याउला, 'केनोपायेन समारसागरात् तरिष्याम ' इतिचिन्ताजाल-कुला इत्यर्थ । अत एव भीया'-मीता = भययुक्ता , अस्य तरन्ती यत्रान्चय । मूत्रकार ससारमागर वर्णयति-'जम्मण-जर-मरणकरण-गभीर-दुक्ख परखुभिय-पउर सलिल' जन्म-जरा-मरण करण-गम्भीर दुस-प्रभुमितप्रचुर-सलिलम्-जन्मजरामग्णान्येव करणानि सायनानि यस्य तत् तथा, तदेव गम्भीरदुख-अगाढदु स, तदेव प्रक्षुभित-प्रचलितम् , प्रचुर-विपुल सलिल-जल यम्मिन् स जन्मजरा-मरण-करण-गम्भीर-दुख-प्रक्षुभित-प्रचुरसलिलस्त, पुन कीदृश ससारसागरम् । इत्या 'ससारभउन्धिग्गा' इत्यादि। भगवान महावीर के अनगार और भी कैसे थे । इस बातको प्रकट करने के लिये सूरकार इस सूनकी प्ररूपणा करते हुए कहते है कि भगवान् महावीर स्वामी के ये अनगार (ससारभउबिग्गा) चतुर्गति में भ्रमण करने रूप ससार के भय से उद्विग्न थे, 'किस उपाय से हम लोग इस अथाह ससारसागर से पार होंगे। इस प्रकार का चिन्तयन सर्वदा करते रहते थे। (भीया) इसलिये ये स्सारभीर थे । अब यहा से यह मसारसागर कैसा है। इस बात को नाचे लिखित विशेषणों द्वारा सूत्रकार स्पष्ट करते है-(जम्मण-जर-मरण करण-गभीर-दुक्ख-पक्लुभिय-पउरसलिल) जन्म, जरा और मरण, ये ही जिसके साधन है ऐसा प्रगाढ दुख ही जिसमे उछलता हुआ अगाध जल भरा हुआ है, तथा 'ससारभउबिगा' या ભગવાન મહાવીરના અનાર પરપણ કેવા હતા? તે વાતને પ્રકટ કરવા સૂત્રકાર આ સૂત્રની પ્રરૂપણ કરતા કહે છે કે ભગવાન્ મહાવીર સ્વામીના ते मना (ससारभविग्गा) यतु तिभा प्रभार स११३५ ससाना ભયથી ઉદ્વિગ્ન હતા, “કયા ઉપાયથી અમે આ અગાધ સ સાસાગરથી પાર य' मे तु कितपन सर्प। यर्या ४२ता तो (भीया) मेथी तमा સ સારભીરૂ હતા હવે અહંથી આ સ સારસાગર કે છે? તે વાત નીચે समेसा विशेष द्वारा सूत्रा२ •पाट १२ छ-(जम्मण-जर-मरण करण गभीरदक्ख पक्खुम्भिय-पउरसलिल) •म, १२गने भरधु, से रेना साधन એવા પ્રગાઢ દુ ખ જ જેમાં વિસ્તારથી ઉછળતા પાણીના જેમ ભરેલા છે તથા Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पोयूपअपिणो-टोका सू ३२ मसारसागर वर्णनम कलुस-जल-संचयं पडभय अपरिमिय-महिच्छ-कलुसमडबाउबंग - उदुम्ममाण-दगरय-रयधआर-चरफेण-पउर-आसावाण्येव कप चियो यत्र म नया तम् । 'पटमय प्रतिभयम् महाभयङ्करम् , 'अपरिमियमहिन्छ मलुसमा-याउग-उद्धम्ममाण-दगरय-रययभार-परफेग-पर-आसा-पिवासधार' अपरिमित-महन्छ-कलुपमति-वायुपेगो-यमानो-दकरजोग्याऽन्धकार-परफेन-प्रचुगऽऽगापिपामा-परम्-अपरिमिता =अयधिका ये महच्छा -तोगभिलापान्तो लोका , तेपा कटुपामरिना या मनि सब बायुगन उद्यमानम्-उद करजोरय -जलकणममूह , तन अन्धकार दर या म तथा वगफनवि-आगापिपामाभिधवल दव धवलो य म तथा त, तनाप्राप्तार्थाना प्रामि भावना आगा ,धनसम्बन्धिन्यरतानलालसा पिपासा । 'मोहमहारत्तभोगभमभाण गुप्पमाणुन्छ स्तपचोगियत्तपाणियपमायचडबहुद्वसापयसमाहयुद्धायमाणपमार- पोरकटियमहारपस्वतभेरपरस'-मोहमहातभोगभ्राभ्यद्गुष्यदुन्टलप्रत्यवनिपतत्पानायप्रमादचण्डभन रूप हा जिसमें कला-मलिन-जल का संचय है, (पटभय) महाभयङ्कर है। (अपरि-मियमरिन्छ कलुसमट-बाउवेग-उद्धम्ममाण गरयरयधयार-वरफेण-पउर-आसा पिवासबल) अपरिमित- यविक अभिलापागाला मनुष्या की जो निनिय प्रकार की बुद्धिया हे ये ह। माना इमके वायुके झोकों से उडाये हुए जलकण है, इनसे यह मसारममुद्र अधकार मे युक्त जमा हो रा र । आशा एव पिपासारूप प्रचुर फेन से यह धवलिन हो रहा है। अप्रान अका प्रामि का भावना का नाम आगाहे, ओर धन निधी तीन लालसा का नाम पिपासा हैं। (मोह-महानत्त-भोग-मममाण गुप्पमाणु च्छलत-पच्चोणियत्त-पाणिय-पमाय-चटसह-सावयसमात्युदायमाणा-पभार पोर-कदिय-महारपरवत-भेरव-रव) इस र सार म जल-मचय) साणे म३५४ मा सुष-भेसा पाणीनी सन्यय 2, (पइभय) भडामय ४२ (अपरिमिय-महिन्- कलुसमइ वाउग उदुम्ममाण दगरय-रयव यार परफेण पउर आमा पिनास वाल) अपरिमित- १ मलिदापावाजी मनुMાની જે વિવિધ પ્રકારની બુદ્ધિ છે તે જાણે તેના વાયુના ઝપાટાથી ઉડતા જલ૦ણે છે તેનાથી આ સ સારસમુદ્ર અ વડાથી ભરેલ જે થઈ ગયે છે આગા તેમજ પિપાસા (તૃષ્ણા) રૂપ પ્રચુર ફીણથી તે સફેદ થઈ રહેલ છે અપ્રાસ અર્યની પ્રાપ્તિની ભાવનાનું નામ આરા છે અને ધન 20. तीन सानु नाम पिपा (मोह महावत्त भोग भममाण-गुप्पमाणु छलत-पाचोणिवत्त-पाणिय पमाय-चड' बहुदुद्र-सारय-समायुद्वायमाण पत्भार-घोर Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - জীবঞ্চি खिसण-पुलंपुल (पलंपण)-प्पभृयरोग-चेयण-परिभव-विणिवायफरुस-धरिसणा-समावडिय-कढिण-कम्म-पत्थर-तरंग रंगंतनिचमच्चुभयतोयपी कसाय-पायाल-संकुलं भवसयसहस्स फरसपरिसगासमावडियकाठिणकम्मपत्वरतरगरगतमभयतोयप' अपमानन-फेन तीन-खिसन-पुलम्पुल-प्रभूत-गोग-बदना-परिभव-विशीपात-पाए-धर्षगा-ममापतित-कठिनामप्रस्तर-तरग-रगन्नि यमृत्युभय तोयपृष्ठम्-अपमाननमेन फनो यन मोऽरमाननफेन , तथा तीनखिसनम् दु सहनिन्दा, पुलम्पुलप्रभूता-निरन्तरममु पन्ना या गेगवेदना परिभवा अनादरा, विनिपाता =नाशा , अथवा परिभवपिनिपात -परिभर-पगभव पराजयो हानि , तस्य विनिपात आणि परुपधर्षणा -निटुग्यचननिर्भर्सनानि, तथा-समापनानिम्नानि यानि कठिनानि कठोरोदयानि फर्मागिज्ञानाऽऽरणीयानानि, तायेर प्रस्तग --पापाणास्त कृत्वा तम्घान प्राप्य समुयितै , तरङ्गै , रिगत अचल्त, नियम्भुव य मृत्युभय-मरणीति तदेव तोयपृष्ठ-जलोपरितनभागो या स तया तादृशम्, पुन कीदा 'कसायपायालसकुल' कपायपातालसङ्कुलम्-कपाया एच पाताला पातालकलशा --अधस्तलानि सङ्कुल -व्याप्तस्तम्। 'भवसयसहस्म-फलुस-जल-सचय' भवातसहस्रकलुपजलसञ्चयम्-भगतसह न्तर समुत्पन्न रोगवेदना, पराभव, विनिपात-विनाश, अथवा पराभर की प्रापि, निष्टुर वचन, अपमान के वचन, एव कठोर उदयमाले सचित्त ज्ञानारगीय आदि आठ कर्म, ये ही जिसमें पापाण हैं, और उन पापाणा के रघान से अनेक प्रकार की आधिव्याधिरूप तरङ्ग उत्पन्न होती हैं, इन तरंगों द्वारा चलायमान अवश्यभावी मृत्युभय ही जिमम तोय पृष्ठ-जल का उपरितनभाग है, ऐसा यह : मारसागर है। तथा यह (कमाय-पायाल. सकुल) कपायरूप पातालकलशों से व्याप्त है। (भव सयसहस्स-कलुस-जल-सचय) लाखों ઢગલારૂપ છે, દુ સહ નિદા, નિર તર થતી રેગવેદના, પરાભવ, વિનિપાત વિનાશ, અથવા પરાભવની પ્રાપ્તિ, નિષ્ઠર વચન, અપમાનના વચન, તેમજ કઠોર ઉદયવાળા મચિત જ્ઞાનાવરણીય આદિ આઠ મે, એ જ જેમા પાષાણ (ખછે, અને આ પાવા સાથે ભટકાવાથી જે અનેક પ્રકારના આધિ અધિa૫મા ઉત્પન્ન થતા રહે છે અને તે કાર ચલાયમાન અવશ્યભાવી મૃત્યુબધુ જ જેમાં પાણીની સપાટીના ભાગ છે, એ આ સમાસાગર છે તથા આ मायायाल्सल) पाय३५ पार थी यासले (भव सयमहरस कलु Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूपपिणो-टीका सू ३२ मसारसागरयर्णनम ३१५ च्छपरिहत्थ-अणिहुयिंदिय-महामगर-तुरिय-चरिय-खोखुसमाणनच्चत-चवल-चंचल-चलंत-घुम्मंत-जल-समूहअरह-सय-विसायमोग-मिच्छत्त-सेल-सकड अणाइसंताण-कम्मबंधण-किलेसगाकर-पग्निनरित-चोक्षुभ्यमाग-नृत्यञ्चपलाचञ्चल-चल-वर्णन-समूहम-अज्ञानान्येव भमन्तो मन्या प्रतिहस्ता जलजन्तुविरोपा, यरिमन् समागसागर स तथा, अनिमृतानिअनुपशान्तानि यानीन्द्रियागि तान्येव महामकरास्तेपा यानि चरितानि गीगाणि वेष्टितानि चष्टा ते -चोलुभ्यमाण अयन्तमुच्छलन् नृत्यनिय नृत्यन , चपलानचञ्चल यथा ग्यात तथा बस र्गन-विद्युममानवेगन चल्चमाकार भ्रमन जलसमृह, पारपक्षे तु जटसमृहो विनेक जानरनिनाना ममूहो यन स तथा, तत पढदयस्य कर्मपारय , त तादृशम् । 'अरट-भयविसाय-गोग मिच्छत्त-सेल-साड'अरतिभयविशादगोकमि या वगैरसइटम-अरति , भय, विपार गोक , मि-याचम् एतानि प्रतिरोधकतया शैला इवतै मट =अतिविकट , त तादृशम् , भणार-सताण-कम्म-बधण-फिलेस-चिरिबल-मुदत्तार' अनादि सन्तान-कर्मपन्धनालेशकममु गन्तरम्-अनादिस तानम् अनादिप्रवाह यकर्मबन्धन तच्च, क्लेगाथ गगाढयस्तल्लमण यत् सर मार समुद्र मे अजान ही घूमते हुए मस्य एव परिहस्त-जलजन्तुविशेप है। जनुपशान्त डाव्या हा इसम विकराल मगर है । इन इन्द्रियरूप महामझरों के चचल चेष्टाओं से मम अजानिया का समूहरूप जलसमूह सुध हो रहा है, नाच रहा हे, विद्युद्वेग मे चक्रबत यूम रहा है। (अरट-भय-विसाय सोग-मिच्छत्त-सेल-सकड) अरति अप्रीति, भय-भाति, विपाट, गोक एव मिथ्यात्वरूप पर्वतों से यह ससारसमुद्र अत्यत निकट बना हुआ है। (जणाट सताणकम्मवरणफिलेस-चिक्खिल्ल-सुदुत्तार) अनादिकाल से हम जीव के साथ भमाण नन्चत चयलचचल-चलन घुम्मत जल समूह) २समारसमुद्रमा मनान જ ઘુમતા માછલા તેમજ પરિહર્તા-જલન તુવિશેપ છે અનુપાત ઈદિ જ એમાં વિકરાળ મગર છે તે ઈદિયરૂપ મહામકની ચ ચળ ચેષ્ટા આથી તેમાં અજ્ઞાનીઓના સમૂહરૂપ જલસમૃહ સુબ્ધ થઈ રહ્યો છે, નાચી २वा, पाणीवेणे यी २हो (अरइ-भय-विमाय-सोग-मि उत्त-सेल सकड) २०२ति-मप्रीति, लय-नीति, विपाह-४, तेभर भिथ्यात्व ३५ तेथी मा मसारसमुद्र सत्यत विट मने छ (अणाइ-सताणकम्म बधण किलेस चिम्खिल्ल सुदुत्तार) मनाथी म पनी माये पवन Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ औपपातिय पिवास - धवलं मोहमहावत - भोग- भममाण- गुप्पमाणु-च्छलंतपचोणियत - पाणिय- पमाय - चंड- बहुदुह - सावय-समाहयुद्धायमाण-पत्रभार- घोर-कंटियमहारखरवंत - भेरवरवं अण्णाण भनम एच हुधा सगळा प्राग्भाग्योर कन्दितमहा भैरववम मोहरूप गर्न भोग भ्राम्यत - चकाकांरंग भ्रमत्, गुप्यत्=चपरीभवत, उतिन 'पचोणिय' पनिपतत-अन पतत्, पानीय जल या स तथा प्रमादा भवान्यम्त दुष्टथापा चण्डा =कोपजीव्य नहुदुष्टा = अतिदुष्टस्वभाना, थापा -- सक जस्तै 'समान्य ' समाहता = प्रता-आधात प्राप्ता 'उदायमाण' जन्त= उच्छलन्त चेष्टमाना वा समुद्रपक्षे मस्यादय ससारपक्षे पुरपादय, तेपा 'प प्राग्भार --समूहो यत्र स तथा, तथा घोगेय कन्दित्तमहाग्यमा सस्वनप्रतिनग्न-प्रतिर्थ्यान कुर्वन् भैरवरवो=भयानको यत्र स तथा ततखयाणा पना कर्मधारय, तम् - अगाम भगत मच्छ-परिहत्य अगिहुयिदिय-महामगर- तुरिय वरिय सोखुर्भेमाग-नचत-चत्रलचचल-चलत-घुम्पत- जलसमूह' अज्ञान-भ्रमन्मत्स्य परिहस्तानिभृतेन्द्रिय समुद्र के मोहरूप महा-आप मे भोगरूप जल चक्राकार से घूम रहा है, अयत चचल हो रहा है, उछल रहा है, उछल कर फिर नीचे गिर रहा है । तथा-टम सार समुद्र मे प्रमाद आदि हा कोधी एवं जतिदुष्ट स्वभाव वाले हिंसक जीन है । इन के द्वारा आघात को प्राप्त होकर समस्त र सारी जीनों-पुरुष आदि (समुद्रपक्ष में मत्स्यादिक जलचर जीवों) का समूह उधर-उपर भागता फिरता है। उन्हीं स्सारी जीवों के भयकर आकन्दन की महाभाषण प्रति पनि हमर सार समुद्र मे हो रही है। तथा-(अण्णाणभमतमच्छपरिस्त्य अणिहु यिदिय- महासागर- तुरिय-चरिय खोखुब्भमाणनचत- चवल चंचल चलत-घुम्मत - जलसमूह) कदिय - महारा-रवंत-भेग्य-रव) गा ससार समुद्रना भोड३य भट्टा व्यावर्त्तमा ભેળરૂપ જલચકની પેઠે ઘૂમી રહ્યુ છે અહુ વેગ થઇ રહ્યો છે, ઉછળી રહ્યુ છે ઉછળીને પાછું નીચે પડે છે તથા-આ આદિ જ ક્રોધી તેમજ અતિદ્રુષ્ટ સ્વભાવવાળા હિંસક આઘાત પામીને સમસ્ત ન સારી દિક જલચર જીવા)ના સમૃહ જવાના ભયૐ કદનને મહાભીષણ પરત્વે આ સમારમમુદ્રમા પડે छे तथा (अण्णाण-भमतमन्छ परिहत्य अणिहुर्थिदिय-महासागर - तुरिय चरिय सोख પ્રમાદ જીવે-પુરુષ દિ આમતેમ ભાગનાચ સ સારસમુદ્રમા જીવ છે, તેમના દ્વારા (સમુદ્ર પક્ષમાં મત્સ્યા ૨ છે તે સ મારી Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सामागम त न निरूपण पीयपयपिणी टीया ग ३० मातोरग्यागिशिष्यवर्णम ३१७ भीमदरिसणिनं तति, धिड-धणिय-निष्पकंपेण तुरिय-चवलं संवर-वेग्ग-तुंगकूवय-सुसंपउलेण णाण-सिय-विमल-भूसिएणं सम्मल-विमुद्ध-लड-गिजामएणं धीरा संजमपोएण मीलक'ससारमागरम तरन्ति, अम्म गमगपोगन' दयो र यमाणेन सम्बन्ध । साग्भयोदिग्ना “यमिा यमोना तातु पारन्ता यर्थ । फिम्मृतन यमपोयाह-'पिइधणियनिष्पकपेण' धृति निकनि प्रापेग-वृतिरूपेण ग्नुबन्धनन निकम् अ यर्थं निष्प्रकम्प = सम्पनरहितन्तेन मपोनेन, 'तुरिया चरितचपलम् अनिमीत्रम् ,-'सवर-वेरग्ग-तुग वय मुगपउत्तेण' र गाय-नुज कृपा-मु प्रयुकोन तन पर प्रागातिपातादिपिरतिरूप , पेग विमानभिषन एतयो यस्तु = अ युच कृपा-पोतम यस्थित स्तम्भ,, तन मुटु सम्प्रयुक्त -मम्यानया प्रभाजितस्तन, 'णाग सिय-पिमल-मृसिएण' मान-मितनिमोटिनेन, ज्ञानमेव मित न बस तप विमलम उन्टिन यत्र तेन, मूले मकार प्राप्त गात। पपनाम्पिन पतपटमण्ट ठमण्डितपटाकर्षणन नौका वेगगामिनी भवति । सति सायनोपेनेऽपि पोने हर्ग पारग भा यमि याह-'सम्मत्तविमुद्धलद्धणिनाम(पिदमणियणिप्पकपण) तिन प रजनन से जो अयत निप्रकप है। (तुरियचवल) गान जिसका जयत गीगामी ह (मवर-वेग्गा-तुग कृपय-सुसपउत्तेण) म्घर-प्राणातिपातादि से निवृत्तिरूप चिरति न गम्ग-विषा में अनभिष्वङ्गरूप वृत्ति-ये दोनों ही जिसके नीच म एक ऊंचा कृपक-स्तम्भ ह । (णाग-सिय-विमल-म्रमिएण) ज्ञानरूपी सफेदवत्र का जिसम पाल तना हुआ है। नौका म एक लकटो का बम लगा रहता है जिस पर एक कपटा नना रहता है। उससे हवा की रुकावट होन से नोका वडे वेग से चलती । यदरूपा यहा वटित कि त गाहे । (सम्मत्त-विमुद्र-लद्ध-णिनामएण ) जिसमे सत्रा ४२-(विद्याणियणिपरपेण) पनि३५ हाना पवनयी रे । नि: ५ (२६) तुरियचरल) तिनी सत्यत वेगवाजी (मवर वेरग्ग तुगमन सुसपत्तेण) ५१२-प्राणानिपानिया निवृत्ति३५ विति तेमा વગગ્ય વિષમાં અનાસક્તિરૂપ વૃત્તિ-એ અને જેના વચમાં એક ઉચે ५२D (णाण-मिग विमल मूसिएण) मान३५. ३६ वरना सभा सद હોય છે વહાણમાં એક લાકડાના થાભલે લાગેલું હોય છે જેના પર એક કપડું (ગઢ) તાણેલું હોય છે તેમાં હવા કટાઈ જાય છે તેથી ભગઈને વહાણ બહુ गया या छ मा १ ३५४ सही गवयु (सम्मत्त-विसुद्व लद्व णिज्जामएण) Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ___३१६ গণশিম্বর चिस्खिल्ल-सुदत्तारं अमर--णर-तिरिय-जयगड-गमण-कुडिलपरियत्त-विउलवेल चउरंतं महतमणवदग्ग सई संसारसागरं 'चिखलं'-कर्दम , तेन सुष्ट दुम्तर म तया तम् । 'अमर-ण-तिरिय णरय-गट-गमण-~ कुडिल-पस्यित्तविउल रेल'अमर-नर निर्याक गतिगमन-वृष्टिर-पगित-पिपुट-लम्, सुर नर-तिर्यटनारक गनिषु चतसपु-गमन तदेव कुटि परिगता यामम्भमा न पिपुरा: विशाला वा यस्मिन् स तथा त-चतुर्गतिगमनम्पाटिन्यतविपुलतटम् । 'चउरत' चतुरन्तम्-दिग्भेदगतिभेदाभ्या चतुविभागम् । 'महत्त' महातम्-पियालम । 'भगवदग्ग' अनपदग्रम्-अपर्ययमानम् । 'रुद्र' गैडम-भयजनकम् । 'भीमदरिसगिन' भामर्गनायमभीम यया भरती येव द-यते य स भीमदर्शनीयम्तम, याग दर्शनाद भयमुपद्यते तमित्यये । वधन अवस्था को प्राप्त-चला आ रहा जो कर्म र इनसे उद्भन जो गगादिक परिगाम है, ये ही जहा चिकना कादन है । इसीसे दमका तिग्ना दुष्कर हो रहा है । (जमर-जरतिरिय-णश्यगइ-गमण-कुडिल परियत्त-विउल वेल) देवगति, मनु यगनि, नियंचगति पत्र नरकगति इन चार गतियों में जो निरन्तर जीप का पग्भ्रिमण है वहा इसका का परिवर्द्धमान विस्तृत वेला है । (चउरत) चतुर्गतिरूप चार दिशाओं के चर विभागों से जो विभक्त है । (महत) जो बडी विशाल है। (अणवदग्ग) जिसका पार पाना बहुत ही कठिन है । (रुद) जो बडा ही विकरालस्वरूप वाला है। (भीमदरिसणिज)जिसक देखने मार से ही भय का रचार होता है। ऐसा यह र सारसमुद्र है । इसका पार पाना मिना यमरूप जहाज के हो नहीं सकता है। अप यहा से यमरूप जहाज का वर्णन सूनकार करते हैઅવસ્થાથી ચાલ્યા આવતા જે ડર્મ તેમજ તેમનાથી પેદા થતા જે ગગાદિક પરિણામ છે તે જ ચીકણો કાદવ છે અને તેથી તેને તરવું મુશ્કેલ થાય છે (अमर णर तिरिय णरय गइ गमण कुडिल परिवत्त विउल रेल) देवमति, मनुश्यति, તિર્થ ચગતિ તેમજ નશ્કગતિ આ ચાર ગતિઓમા જે નિતર જીનનું પરિભ્રમણ ततेनी वाडी, पविधित यती विसा , (चउरत) यति३५ ચાર દિશાઓના ચાર વિભાગોથી જે વિભક્ત છે () જે બહુ મોટી છે (अगवदग्ग) रेनी पार पाभवा गg छे (६) २ पिस २१३पण छ (भीमदरिसणिज्ज) न शन भाजयी लगन मयार થાય છે એવો આ સમારસમુદ્ર છે તેને પાર પામ તે મયમરૂપ નાવ વગર બની શકતું નથી હવે અહીથી યમરૂપ નાવ (વહાણ)નું વર્ણન Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोपयर्पिणी टीका ३२ महावीरस्यामिशिष्यवर्णनम् ३१९ वयवर - भंड-भरियसारा जिणवर-वयणो दिह-मग्गेण अकुडिलेण सिद्धिमहापट्टणाभिहासमणवर - सत्थवाहा मुसुङ - सुभास - महानत तंदेन भाण्ड =राणीस्तुजातपगृत =थापित सागे= रनादिरूप पदार्था यैस्ते तथा, केन पथा प्रान्तन्तरन्ता गना- 'जिगोविदुमग्गे ग' जिननरनचनोपदिष्टमार्गण जिनपर वचनम्==नागमन्च्य ताप कथित-मार्ग यमपथ - तेन, 'अकुडिलेन' अकुटि'सिद्धिपट्टणाभिमु' मिद्रिपत्तनाभिमुया - सिद्विरेन पत्तन मुसा न्य मुसा । 'समगनरसत्यता' श्रमणार्थ नाह -श्रमण - कापट्या गनपुर = प्रमाद का परियाग सय जवान मोक्ष गात करा का दृढ निश्चय, इन दोनों मूल्यास गृहीन-नात चरात गगातर भाण्डा का कमणीय वस्तुना का-कि जो निर्जरा, यतना, उपयोग, ज्ञान, दर्शन ए [चाग्नि] सपिशुद्र है, जिनम सार भरा हुआ है ऐसे मुनिजन इस माररूप महासमुद्र स पार होत ह । किम मार्ग पर चढ़ते हुए ये पार होते हे सो जताते है- (जिगवरयगोग्गेण ) जिनवर का जो वचन है-आगम है, उसके हे - जाडा-टाढा द्वारा उपदिष्ट जोयमरूप मार्ग है, उस पर चलकर ही ये मुनिजन इस साररूप समुद्र को पार करते हैं । यह मार्ग सा है उसके लिये सरकार (अफुडिलेण ) इस विशेषण से स्पष्ट करते ह - यह मार्ग कपटता आपा से रहित है, अर्थात्-सरल नहीं है । ऐसे मार्ग से प्रयाग करने वाले ये मुनिजन पुन कैस होते हैं यह अब यहा से स्पष्ट किया जाता है - (सिद्धिपट्टाभि इस प्रकार के मार्ग से पयाग करने वाल પ્રમાદના પરિત્યાગ તેમજ વ્યવનાય અર્થાત્ મેાક્ષ પ્રાપ્ત કરવાના દૃઢ નિશ્ચય, એ બન્ને મૂલ્ય (કિં મત) થી લીધેલ-વંચાતા લીધેલ ૧૨ વ્રત-મહાવ્રતરૂપ વાસ गोना-येथाती बीनेसी वस्तुमानाने निरा, यलना, उपयोग, ज्ञान, दर्शन તેમજ ચારિત્રથી વિશુદ્ધ છે જેમા મારુ ભરેલા છે એવા મુનિજન આ મ સારરૂપ મહાનમુદ્રથી પાર થઈ ય છે કયા માર્ગ પ ચાલતા તે પાર થાય છે ? તે बताये है- (जिणारवयणोवदिट्ठमगेण निपनु ने वचन छे-मागम छे-तेना ઢાગ ઉપદેરાએલ જે ઞયમરૂપ માર્ગ છે, તેના પર ચાલીને જ તે મુનિજને આમ મારૂપ સમુદ્રને પાર ડરે છે. આ માર્ગ કેવા ? તે માટે સૂત્રકાર ( अकुडिलेण) मा विशेषयी यष्ट उभा मार्ग उपटता माहि होपोथी રહિત છે અર્થાત્ બરળ છે, આર્ટિંગ નથી એવા માયી પ્રયાણ કરનારા એ મુનિજને વળી જેવા હોય છે તે બધુ અહીની સ્પષ્ટ કરવામા આવે છે (सिद्धिपट्टणाभिगुहा) से अजरना मार्गे प्रयाणु उरवावाजा भुनिन्नो भिद्धि३य Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રૂ जोपपातिसूत्रे लिया पसत्यज्झाण-तव-पाय-पणोहियपट्टाविएणं उजमववसायग्राहिय- णिजरण-जयण - उवओग णाण- डसण- [ चरित] विमुद्ध एण' सम्मोनियम कर्णधारा - नौकानाहको यस तथा ते, सम्प श्रीग-स्विग्म्प भावा, 'सजमपोषण' - पो= यमकया । 'सीरिया' करिना - सहस्रशीला हरवारका जीता, 'पसलझातायपणोलिय पहारिण' प्रगस्तध्यानतपोयातप्र गोढितव्रभावितेन-धान धर्मनिरूप तप देना, तेन प्रणोदित = प्रेरित, जनन, 'उतम समाय-ग्गहिय-जिज्जरण जयणउपभोग गागमचरितमुद्रायाममरियसारा' उपमहानिर्जर गयतनोपयोगज्ञानदर्शनचारिननिशुलवण्डनमाउथममाया मामलानिश्रय - नाभ्या मूल्यरूपाभ्या गद्ग्रहात - फात निर्जरणयननोपयोगज्ञानदर्शनचारिविशुद्ध नतवर= विशुद्ध सम्यक्य हा नियामक कार के स्थानापन है, अथात् विशुद्ध समकित का भ जिसम वटिया के समान है । (पसत्य ज्झागतन नाय पणयिताविएण) प्रास्त ध्यानरूप तपरूपा वायु से प्रेरित होकर जो आग २ बहता रहता है । इस तरह इन पूर्वोक्त विशेषगों से निष्टि इस समस्या जराज के द्वारा इस माररूप अपार दुम्तर समुद्र को (ग) धारदार स्थिर भावात मुनिजन ही (तरति) पार करते है | अन यहा से मुनिजना के ये प्रयुक्का अर्थ स्पष्ट किया जाता है- (सीलरुलिया ) ये मुनिशी - २८ जार के भाको वारण करना है। (उजम-नवसाय-ग्गहियवितरण-जयग-उनओग नाग-सण [चरित]विमुद्धवयवभडभरियसारा) उद्यम अर्थात् જેમા વિષ્ણુદ્ધ સમ્યકત્વ૮ નિર્યામ-~- ધારને ખ્યાન (મુડાની) છે, અર્થાત્ વિશુદ્ધ भभज्तिनो साल ४ मा भुजनीना समान हे (पसत्य झाण तन वाय पणो ल्लिय पहारिण) अगस्त વ્યાનરૂપ તરૂપી વાયુથી પ્રતિ ચઇને જે આગળ આગળ વધતા રહે છે એ રીતે તે પૂવાન વિશેષથી વિશિષ્ટ ઞયમરૂપી વહાણુકાન મારરૂપ અપા દુસ્તર સમુદ્રને ધીર વી સ્થિ સ્વભાવ बाजा भुनिनो (तरति वेगही यी भुनिनो भारे साडेसा विशेषलाना अर्थ भ्यष्ट चश्वाभा गावे - (सील कलिया) येथे भुनिम्नो सीस१८ हुन्नरगीसना भडारने धागा उग्वावाजा (उजम-वनसान गहिन - णिज्ज रण जयण उपओगणाणण [चरित] निमुपयर भट भरिय-सारा) Caम गर्थात् Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौयूपयपिणी-टीका सू ३२ महामेरम्यागिशिष्यवर्णनम् ३२१ जिडदिया णिव्भया गयभया सचित्ताचित्तमीसिएसु दव्वेसु विरागयं गया सजया [विरता] मुत्ता लहुया णिरवकंखा साहू णिया चरति धम्म ॥ सू० ३२॥ या गयभया' निर्भया गतभया , 'सचित्ताचित्तमीसिएमु दव्वेमु' मचित्ताऽचित्तमिश्रितेषु द्रव्येपुञ्चन्तुपु 'पिरागय गया' गिगता गता-गग्य प्राप्ता । 'सजया' नयता -नयमवन्त । 'विरता' विग्ता हिंसादिभ्यो निवृत्ता, 'मुत्ता' मुक्ता -लोभहिता , 'लहुआ' लघुका - स्वन्पोपवित्रारितगा लघुभृता । 'गिरवकमा' निरसकाङ्क्षा =उभयलोकमुसाभिलापार्जिता , यत पूवाक्तगुगविशिष्टा , अलण्य 'साह' मापा-गोक्षसापका । 'गिडया ' निभृता - विनीना जा याठिमढयनिता इयर्थ , ' चम्म ! धर्म-श्रुतचाग्निलक्षगम् । 'चरति ' चरन्ति=आगधयन्ति ॥ सू० ३२॥ (णिभया गयभया) निर्भय य, दम हतु इन्हे कहीं भी भय नहा लगता या, (सचित्ताचित्तमीसिएमु दव्धेमु विरागय गया) सचित्त, अचित्त और सचित्ताचित्त द्रव्या म ये वैगग्य युक्त थे, (सजया पिरता मुत्ता) सयमशाली, हिंसाढिनिवृत्त और लोभरहित थे, [लया स्वप उपवि के धारक होने से ये लघु-लाधवगुणस्पन थे, (णिरनामा) दहलोक और पग्लोक के सुखों की अभिलाषा से रहित थे, अत एन ये मुनि गग (साई) मावु, अर्थात् मोक्षसाधक थे। भगवान महावीरके ये साधु (णिडया) निभूत-जा यादि मद से रहित होनेके कारग विनीत होकर (धम्म) श्रुतचारित्रलक्षण धर्म की (चरंति) आराधना करते थे ।। सू०३२ ।। या माधुसा स्तिन्दिय ता, (णिभया गयभया) निर्भय हुता, तेथी तभन डाए लय सातु नहि तेया (मचित्ताचित्तमीसिएसु दव्वेसु विरागय गया ) मयित्त, मचित्त भने सिभित्तीचित्त द्रव्योभा वैराज्यवान हता, (सजया पिरता मुत्ता) ५ यमशाली, माहिया निवृत्त भने सलाहित उता, (लहया ) स्व८५ उपधिना धार४ पाथी तमा सधु-साधन मपन्न हता, (णिरवकखा) sas मने पसाउना सुभानी मलिसापाथी सहित ता तेथी ते भुनिया (साहू) साधु सट भाक्षसा५४ हता समान भडापीरन॥ २॥ माधुया (णिहुआ) निक्षत-तत्याहि महथी क्षित डोपाने ४२ वीनीत यधने (धम्म) श्रुतम्यारित्र३५ धर्मनी (चरति) मा२१. धना ता ता (भू २) Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ব্যাথাবিষ্ট - - सुपण्ह-सासा गामे गामे एगगयं पगर णगरे पंचरायं दृडजंता श्रेष्ठा -सार्यमाहा - धागत यामायिन । 'मुमुमुमभाग मुपण्ड सासा' मनि(मुशुचि) सुसम्भापा-सुप्रभ-स्वागायुष्ट श्रुतयो येषा त मयुनय - ग या -मसिमान्ता, अथवा मुशुचय - सम्यस्युझिमत्त । मुग-युगजनक गम्भापो येषा ते गुमाया - चिदपि कद्रचारण न कुर्वन्त । गोमना प्रशा येगा ते गुण- प्रमितमगुचिनप्रअकाग, शोभना आया येया ते स्वागा-मुक्तिमाय , चतुगामपा कर्मवास्ये-मुश्रुतिसम-भाषामुप्रभस्वाशा , एवविधा मन्त 'गामे गामे एगरागाम गाम कगनम-प्रनिग्राममाजगाम , अन्य 'दजता' इत्यनेन सहान्यय । 'जगरे नगर पचराय नगरे नगर पगनम-प्रतिनगर पञ्चरात्र, 'दइन्नता' द्रान्त बसन्त , यातूनामनका वात, 'जिदिया जिनन्टिया 'णिभ मुनिजन सिद्रिरूप पग-पत्तन कम-मुग होते हैं। (समणपरसत्यवाहा ) इनके साया श्रम गश्रेष्ठकप सार्थ त्यसमायिजन रोते हे। (मुमुइ-मुसमास मुपाहमासा) सतमिदाता के ये पारगत होते है, अथा दनका सिद्धान्त समीचीन-निर्दोष होता है, अथवा य मिशिष्ट-शुद्धि-पन्न होते है । भाषा इनको वडा ही मनोमुग्धकारी होता है । कभी माय कटुक भाषा का उच्चारण नहा करते है। ये जो भी प्रश्न करते हे वह प्रमागोपेत होता है व्यर्थ के अक्षरों का उसम समावेश नही रहता । सासारिक पदाथा में किस। म भा इनकी इच्छा जागृत नहीं होती, सिर्फ मुक्ति प्रान करन क भाना हा एक इनकी रहा करती है। (गामे गामे एगराय पयरे पचरायं जता) ये साधु ग्रामों म एक रात और नगरों में पाच रात निगाम करते थे। (जिदिया) ये जितेन्द्रिय ये पशु-पत्तनानी सन्मुपाय छ (सनणरसत्यवाहा) तेमनी माथी भाs ३५ सार्थवाह-व्यवसायी न होय (सुसुइसुमभामसुपण्हमामा) मत-मिद्धा તેમાં તેઓ પારગત હોય છે અથવા તેના સિદ્ધાન્ત નિર્દોષ હોય છે, અથવા તેઓ વિશિષ્ટ શુદ્ધિભ પન્ન હોય છે ત્યારે તેમને બહુ જ મને મુગ્ધ કરવાવાળી હોય છે દીપણ તેઓ કડવીભાવાને ઉચ્ચાર કરતા નથી તેઓ જે કાઈ પ્રશ્ન કરે છે તે પ્રમાણવાળા હોય છે અને તેમાં સમાવેશ રહેતો નથી સાંસારિક પદાર્થોમાં ઈમાં પણ તેમની ઈચ્છા જાગૃત થતી નથી मात्र भुक्षित आस पानी लानड तभने का ७२ (गामे गामे In जयरे जयरे पचराय दूइजता) मा आधुमे! गाभा-यामागे. od संधी भने नगरीमा पाय शत सुधी निघाम ४२ता खा (जिइल्यिा) Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोषयषिणी-टीका मृ ३३ असुररमारदेयवर्णनम રૂરરૂ सिय-सयवत्तमिव पत्तलनिम्मला-ईसी-सिय-रत्त-तंवणयणागरुलायय-उज्जु-तुंग-णासा ओयविय-सिलप्पवाल-विवफल-सण्णिभाहोट्टा पंडर-समिसयल-विमल-णिम्मल-संख-गोखीर-फेण-दगरय. सिय-रत्त-तर-णयणा' पाल निर्मलेपसिन-रक्त-तान-नयना -परगनि-प-ममन्ति-सूदमरोमनुक्तानि, तथा निर्मानि तथा ईषत् मितानि-बेतानि तथा ईपटक्तानि तथा ईपत्ताम्रागि अरुणानि नयनानि येपा ने तया-विकसितगनपत्रतुन्यफिश्चिच्छुभ्राक्तनंना इयर्थ । 'गरुला-यय-उज्जु-तुंग-णासा' गरुटाऽऽयतर्जनुद्गनामिका -गस्टम्येन आयता दीर्घा, कना-सरला तुगा उच्चा नासिका येपा ते तथा-सरलढीर्घमुन्दरनामिकावन्त । 'ओयवियसिलप्पवाल-विरफल-सण्णिमा-हरोद्वा' उपचित-गिलाप्रवाल-विम्यफल-सनिभाsधगधा -उपचित -पुष्टो य गिलाप्रपाल =पिम , पिम्प्रफलम्-अतीपारण पुष्ट वनलीफलम् , तमन्नमा तुन्यौ अपरोष्ठी-ओप्उदय येपाते, तथा-विद्रुभविम्वपलमत् अतीपत्तोप्उदयपन्त , 'पड़र-ससियल-विमल गिम्मल-सख-गोखीर-फेण दगरय-मुणालिया पवनं दतसेढी' पाण्डर-अगिगाल-विमल-निर्मल-ब-गोक्षीर-फेन-टफरजो-मृणालिका-धवल-दन्तश्रेणय , पाण्डुरअगिगाल-शुभचन्द्रसण्ट , तद्वद्विमलनिर्मला -विमटेप्वपि निर्मला अतीवाञ्वला ,अनएव-गह नक नेत्र थे। (पत्तल-णिम्मनगदसी-सिय-रत्त तर-णयणा) ये नेत्र पदमल थे-सूक्ष्म रोमयुक्त थे, निर्मल थे, कुछ श्वेत थे, ईपद्रक्त थे, और कुछ २ लाल भी थे। (गरुग-यय-उजुतुंग नासा) गरड के समान दीर्घ, कधी-सरल एव ऊँची इनकी नामिका थी। (ओयविय-सिलप्पवालविवफल-सण्णिमा हरोहा) पुष्ट शिलप्रवाल-विद्रुम (मूंगा), एव अतीव अरुण विम्यफल के समान राल दनके दोनों ओष्ठ थे। (पइर-ससि-सयल-विमल-णिम्मलसख-गोग्बीर-फेण-देगरय-मणालिया-धवल-दतसेढी) धवल चद्र के खट के धन्ही२-महानाया मेमना नत्रता (पत्तल णिम्मला ईसी मिय रत्ततरणयणा) એ નેત્ર પદ્દમલ હતા-સૂમ રેમ (વાળ) યુક્ત હતા,નિર્મળ હતા, કઈક ધોળા Sat, Supsd ता, मने ०४२ सास प ता (गमलायय उज्जु तुंग-नासा) गर. उनावी हामी, ५२८ मने लायी भनी नाभि ती (ओयपिय सिलप्पवाल विफल-सण्णिमा हरोदा) घुटशिक्षा विभ (भूत) अने मतिशय सपना जिम्मसना पा राता अमना भन्न ता (पडुर-ससिसयर-विमल णिम्मल-संख-गोखीर-फेण-दगरय-मुणालिया-धवल-देतसेढी) म यमना Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ફરર औपपानिको मूलम्-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स वहवे असुरकुमारा देवा अंतियं पाउभवित्था, कालमहानील-सरिस-णील-गुलिय-गवल-अयसिकुसुम-प्पगासा विय____टीका-'तेण कालेण तेण समएण' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमगस्य भगवतो महावीरस्य 'पहवे अमरकुमारा देवा अतिय पाउन्भवित्था' बहवोऽसुरकुमारा देवा अन्तिक प्रादुरभूवन्-भगरत श्रीमहावीरस्वामिनोऽतिक-समीपमागय प्रादुर्भूता । असुरकुमाराणा वर्णनमाह-काल-महानील-सरिस-णील-गुलिय-गवल-अय सिकुसुम-प्पगासा' काल-महानील सदश नील-गुलिक गालाऽनसीकुसुम प्रकागा-कालो यो महानीलो-मणिविशेष , त सदृशा वर्णतो ये ते तथा, पुनीलो मणिविशेष , गुलिका-नीलीगुटिका, गवर=माहिप शङ्गम् , अतसीमुम च, एतेपा प्रभाग इव प्रकाशो येषा ते तथा । 'वियसिय-सयवत्तमिर' विकसितशतपत्रमिव प्रफुल्लेन्दीरवरतुन्य 'पत्तल-गिम्मला-ईसी 'तेण कालेण तेण समएण' इत्यादि । इस सूत्रद्वारा सूत्रकार श्रमण भगवान महावीर के निकट आये हुए असुरकुमार देवों का वर्णन करते है- (तेण कालेण तेण समएण) उस काल एव उस समय में (समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रमण भगवान महावीर के (अतिय) समीप (बहवे) अनेक (असुरकुमारादेवा) असुरकुमार देव (पाउन्भवित्था) प्रकट हुए। (काल-महानीलसरिस-णील गुलिय-गवल-अयसिकुसुम-प्पगासा) कृष्ण महानील मणि, नीलमणि, गुलिका, भैस के साग के अन्दरका भाग, अल्सीका फूल, इन सबों के समान ये असुरकुमार कृष्णवणे थे। (वियसियसयवत्तमिव) विकसित गतपत्र के समान अर्थात् इन्दीवर-कमल-के तुल्य " तेण कालेण तेण समएण" त्यादि આ સૂત્ર દ્વારા શ્રમણ ભગવાન મહાવીરની પાસે આવેલા અસુરअभार वोनु पनि ४२वामा मा छ (तेण कालेण तेण समएण) ते ४ त समयने विष (समणरस भगवओ महावीरस्स) श्रभर लगवान महावीरनी (अतिय) पासे (वह) मने (असुरकुमारा देवा) असुरभार हेव (पाउन्भवित्था) प्रगट थया तमना शरीरनी १ ४९ छ-(काल-महानील-सरिस णील गुलिय-गवल अयसिकुसुम-प्पगासा) ३१ भडानla मणि, नीलमणि, गुति, लेसना शागહાની અદરને ભાગ અને અળશીના ફૂલ, આ સર્વની સમાન તે અસુરકુમાર ४८९ वर्ष न उता (पियसियसयरचमिव) विसेमा शतपत्राना समान, मात Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूपयषिणो-टीका सू ३३ असुरकुमारदेवयर्णनम ___३२० साड असंकिलिहाई सुहमाई वत्थाइ पवरपरिहिया, वयं च पढमं समडकंता विडय च असंपत्ता भद्दे जोव्वणे वट्टमाणा, तलभंगयघृष्टच दनचर्चितगगग । अथ वनवियपणान्याह-दमी मिलिंप-पुप्फ-पगामाटेपत् मिली पुन्यप्रायानि मनामित्री प्रमुमप्रभागि-पतसितानी यर्थ , मिठी मुसुम--वर्पती भूमिभित्या उपकमिव बहिनिम्मरति,मता तर तु गत कुसुम रक्तवर्णमेव ग्राहा यतोऽसुगरक्तपमना प्रायो भातानि । पुन कीदृशानि वस्त्राणि अाऽऽऽ 'मुटुमाई मूहमाणिा अस किलिट्ठाइ' असजिष्टानि-वृषणरहितानि। 'वत्थाई' ययागि-'पवरपरिहिया' प्रवरपरिरहता -प्रवरम्- उन्कृष्ट यया तथा परिहिता -पग्धितरन्त । 'वय च पढम समटकता' वयश्च प्रथमम्=पोटशवर्षपर्यइनका समस्त शरीर लिम या । (सी-सिलिंध-पुप्फ-प्पगसार) दोन जो वस्त्र पहिन रखे 4 वे उर कम मफट थे, जैसे सिलीध्र पुप्पका प्रकाश होता है वैसा ही उनका प्रकार था। वपाझतु मे जमीन को फोड कर उन के आकार जैसा जो पुष्प उपन्न होता है उसका नाम मिरीय है । किन्हीं २ का मत है कि यह पुप्प रक्तवर्ण भी होता है । अत इसके ग्रहण से उनके वस्त्र रक्तवर्ण के ये ऐमा ही समझना चाहिये । क्यों कि असुर जाति के देव प्राय लालपत्र वारण करने वाले होते हैं । (महमाई) ये वस्त्र-जिन्हे उन्होंने पहिन ग्मे थे, अयन्त मत्म-पतले थे, (असफिलिट्ठाद) और दापरहित थे। (वत्थाई पचरपरिहिया) ऐसे वस्त्र उन्होंने अग्छी तरह से अपन शरीर पर धारण कर रखे थे । (वयं च पढम समदरस्ता ) प्रथम वय को ये उल्ड्य न कर चुके थे, अर्थात् ये सन सोलह वर्प मे ऊपर के जैसे माल्टम होते આ (ભીના) ચન્દન (સૂખડ) વળે તેમના આખા શરીર લિપ્ત હતા ( इसी-मिलिंच-पुप्फ-प्पगासाइ) तयाये २ वा पडेया हुता ते કઈ ઓછા સફેદ હતા જેવો સિલીન્દ્ર પુષ્પનો પ્રકાશ હોય છે તે જ તેમને પ્રકાશ હોતે વર્ષાઋતુમાં જમીનને કાઠીને છત્રના આકાર જેવા જે પુષ્પ ઉત્પન્ન થાય છે તેનું નામ સિલીન્ડ છે કોઈ કાઈને મત છે કે આ પુષ્પ લાલરંગના થાય છે ત્યારે એ અર્થ ગ્રહણ કરવાથી તેમના વક લાલ ગના હતાએમ જ સમજવું જોઈએ કેમકે અસુર જાતિના દેવ ઘા કરીને લાલવસ્ત્ર धार ४२पापा डाय छ (सुहमाइ) पसरे साये पड़ा उता ते मत्यत सूक्ष्म-पाता ता (असकिलिडाइ) मने होपडित ता (वत्थाइ पवर परिहिया) सेवा पसी तमाय मागत पोताना २२ धारा ४ा तl (वय च पढम ममइस्कता) प्रथम क्यनु तेय. GAधन ४॥ यूट्या छता, मर्यात Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ जोपपातिकमरे मुणालिया-धवल-दंतसेढी, हयवह-गिदंत-धोय-तततवाणिज-रत. तल-तालुजीहा अंजण-घणकसिण-रुयग-ग्मणिन-णिढ-केसा, वा. मेग कुंडलधरा अद्द-चंदणा-पुलिस-गता ईसी-सिलिंध-पुष्फ-पगागोक्षीरफेनदकरजोमृणालिकावधारा उत्तरेणयो येषा ने तथा, तादकरा-जत्रण हुत वह-णिद्धत धोय-तनतपणिज्ज-रत्ततल-तानीहा' तरह-नि मान-धीन-तमतपनीयगानलतालजिह्ना -हुतवहेनम्यदिना निमात-प्रतापित, धौत-जलप्रमाणित तप्त यत् तपनाय-सुरणे, तद्वद् रक्ततलम्-मरणोपरिप्रदेश तालजित येषा ते तथा अतिप्रतमममाष्टमुवर्णवर्णतालुमिहारन्त । 'अजण-घणकसिण-रुयग-रमणिजगिद्ध केसा' अमनधनका गरुचकरमगीयस्निग्यकेगा - अञ्जन-मनल, धना-मेघ , पतसदृशा कागा कर , तया रचको-मणिविशेष, तद्वत् स्निग्धा -चिकणा --केगा येषा ते तथा, 'पामेगकुडलधरा' वामकाण्डलधरा -याम कर्णे--एककुण्डलधारिण , न तु दक्षिण कणे, तजातायस्वमागत् करिमन्नेव कणे कुण्डरवारका दक्षिणे कर्णे पन्याभरणधारिग इतिभाव । अदचढणाणुरित्तगत्ता आईचन्दनानुलिसगाना -सद्योसमान शुभ्र, एवं शङ्ख, गोक्षीर, फेन, जलकण, और मृणाल के समान अयत निर्मल इनकी दन्तपति थी।(हुतवह-णिद्धत-धोय-तत्त-तवणिज्ज-रत्ततल-तालुजीहा) पहिले वह्नि में तपाये गये पश्चात् तेजाब मे धोये गये पुन अग्नि में तपाकर उचल दिये गये सुवर्ण के समान रक्ततलाले इनके ताल और जिह्ना थी। (अंजण-घण-कसिण-रुयग-रमणिज्जणिद-केसा) इनके केश अजन एव काले मेघ के समान काले तथा स्चक के समान चिरुने थे। (वामेगकुडलधरा) इनके बाम कर्ण मे कुण्टल ठोभित हो रहा था। इनम ऐसा प्रथा है कि, ये लोग बाये कान में कुण्डल पहनते है और दाहिने कान में अन्य आभूषण दाहिने कान मे ये कभी भी कुण्डल नहा पहनने है । (अडचदणाणुलित्तगत्ता) आई चन्दन से સમાન શુભ્ર અને શખ, ગોક્ષીર (ધ), ફીણ, જલકણ અને મૃણાલ (કમળ ४) नवी सत्यन्त निभाना नपत्तियोती (हनबह गिद्धत धोय तत्त-तवणिज रत्ततर तालु जीहा) पडसा मनमा पछी जामा घोसा सुपना 4 ale dat पाना मना amit मने ७० ॥ (अजण घण कसिण रुयग रमणिज णिद्ध पेसा) अमना पा ! अने १७ पापा sm तथा उन २ यी हुता (वामेगकुडल्धग) यमना समा કાનમા કડળ શોભી રહ્યા હતા એમા એવી પ્રથા છે કે એ લેક ડાબા કાનમા કડળ પહેરે છે અને તેમણા કાનમાં બીજુ ઘણું આ લેશે नमा अनमा ४या३ ५५ 301 पता नयी (अचिदणाणुलित्तगता) Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूपयषिणो-टीका सू. ३३ असुरकुमारदेवधर्णनम રૂ.૭ महब्बला महासोरखा महानुभागा हार-विराडय-वच्छा कडगतुडिय-थंभिय-भुया अंगय-कुंडल- मह - गंडयल - कण्णपीढधारी विचित्त-वत्था-भरणा विचित्त-माला-मउलि मउडा कल्लाणग-पवरम्बग । 'महचला' महागा -विशेषवलगालिन । 'महायमा' महायशम -विशालकार्तिमत , 'महासोमा महामोरया -विगिष्टमुखमम्पन्ना । 'महाणुगागा' महानुभागा - नचिन्यप्रभावयुक्ता । 'हारपिराइयवच्छा' हानिगजिनयक्षम । 'फडगतुडियर्षभियभुया' कटकटिकन्तम्भितभुजा -कट अव्ये त्रुटिके -बाग्लभूपगविश स्तम्भिता-सज्जिता भुजा येपाते तथा। अंगय कुंडल-मट्ठ-गडयल-कण्णपीठ-चारी' अङ्गद-मुण्टल-मृष्ट-गण्डतल. कोपीठ-माग्णि -अङ्गदानिमाहाभग्णानि कुण्डलमृष्टगटनलानि कर्णपाढानि-कणाभग्णाविशेपान् धरन्ति नन्छीला । 'विचित्त-वन्या-भरणा'-विचित्र-चत्राभग्णा -विचित्रागिज्जुटया) शरार एव आभरग आदि की विशिष्ट प्रभा से ये माण्टत थ । (महब्बला) विशेष शक्तिसम्पन्न थे । (महायसा) उनकी कार्ति दिग्दिगन्त म फैला हुइ थी। (महासोक्खा ) विशिष्ट मुस क ये भोलाये। (महाणभागा) अचिन्य प्रभाव के धारक थे। (हार-विराइयबन्छा) दनका वथ स्थल हार से शोभायमान था । (कडग-तुडिय-यभिय-भुया) कटक, ल्य एव चुटिक-भुजनन्य से इनकी भुजाये जित था। (अगय-कुडल मट्ठ-गडयलकण्णपीढ-पारी) अगढ-बाजपन्ध, उण्टल-कणाभरणविशेष कि जिससे टनक कपोल घर्पितहो रह है-इन दोनों को एन और भी अन्य विशिष्ट कर्णाभरणो को ये पारण किये हुये थे। (विचित्तवत्याभरणा) विविध प्रकार के वन एन आभरगो को ये पहल हुए थे। (विचित्त*द्धिया २॥ सर्प वो सपन्न हुता (महज्जुइया) विशिष्ट शरी. मने माला माहिती प्रमाथी तसा भडित ता (महव्यला) विशेषत पन्न उता (महायसा) तमना श्रीति यात सा गती (महासोक्खा) विशिष्ट सुमना तेसो त तl, (महाणुमागा) मथित्य प्रभावना पाता (हारविराइय-बच्छा) तभनु वक्ष-यस (छाती) १२ वणे लायमान तु, (कडग तुडिय थभिय मुया) ४८४-पसाय सने त्रुटि-भुन्यथा तभी मुनमा मvिa हती (अगय कुंडल मट्ठ गडयर कण्णपीढधारी) 22 गानमन्च, 33-नाना આભરણ વિશેષ કે જેના વળે તેમના ગાલ ઘર્ષિત થતા હતા, એ બન્ને તથા ते भीत विशिष्ट ४१ सामग्णाने तमामे वारण र्याता (पिचि त्तपत्याभरणा) विविध प्रश्ना १२ त मास२पने तेमाणे धारणा छता Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ औपपात्रे तुडिय - पवर- भूसण - णिम्मल-मणि-रयण-मंडिय-भुया दसमुद्दामंडिय-ग्गहत्था चूलामणि- चिंध गया सुरुवा महड्डिया महजुड़या न्तमतिक्रान्ता | 'वियच असपता' द्वितीयाममाना - द्वितीय-तरण वय, अन्यामा नायापि प्रान्त - 'भने जो माणा' भवर्तमाना-साननयो । अताधारिंग | 'तलभगय-तुडिय-परभूसग निम्मल मणि रयण-मंडिय-भुया'तल्भक त्रुटिन प्रवरभूषण-निर्मल-मगि-रत्नमण्डित-भुजा तलकाभरणम्, त्रुटिकानि च बारक्षकाणि, तान्येव भूषणानि नैर्निर्मलमणिस्थ मण्डिता भुजा येषा ते तथाभूषणमगनभूषित भुजा इत्यर्थ, 'दसमुद्दामडियग्गत्या' मण्डितामहस्ता उभिर्मुद्राभिमुद्रिकाभि मण्डिता =भूषिता अग्रहस्ता अङ्गुल्यो येषा ते तथा । 'चूलामणिचिधगया' चूडामणिचिह्नगता - चूडामणिपचिधारका इत्यर्थ । 'सुरुमा' सुरूपा -सुन्दराssकारा 'महड्डिया' महर्द्धिकाविनिष्ठनिमानपरिवारादियुक्ता । 'महज्जुइया' महायुनिया - गिष्टगरी राऽऽभरणादिप्रभाभा थे, (विश्य च असपत्ता) और अभीतक ये तरण अवस्था को जैसे प्राप्त नहीं हुए हो ऐसे दीखते थे । इसलिये ये सत्य (भरे जोवणे वहमाणा) अभिनव यौवन अवस्थासे सम्पन्न थे । (तलभगय तुडिय-पवरभूषण-निम्मल-मणि-रयण मंडिय-सुया) इनकी भुजाएँ तर - सगक-बाहु के एक आभग्ण एवं त्रुटिक बाहरक्षक-भुजन वहन उत्तम दोनों आभूषणों से और निर्मल मणिरनों से मण्डित थीं। (दसमुद्दा-मडिय गहत्या) हाथ की सबकी सन अगुनिया दस मुद्रिका से मण्डित थी, अर्थात्-हाथ की दसों अगुलियों में मुद्रिकायें थी । (चूडामणि चिंध-गया) चटाममिचिह्न के ये धारक ) (सुरुवा) इनका रूप बड़ा ही सुन्दर था । (महड्डिया ) निशिष्ट निमान एव परिवारादि रूप ऋद्धि के ये सभी देव धारक थे । (मह तेथे गधा नोक पर्षयी उपरना होय सेवा देयता उता (विइयं च असपत्ता) અને હજુ સુધી તઓએ તરુણ અવસ્થાને પ્રાપ્ત ન કરી હેાય એવા તેએ हेमाता हुना, साथी तेथे महा (भद्दे जोन्वणे वट्टमाणा) अभिनव यौवन अव स्वाधी सम्पन्न हुता (तलभगन तुटिय पत्रर भूषण णिम्मल मणि रयण मडिय सुया) તેમની ભુક્તએ તલભ ગડ-માહુના ભરણુ અને ત્રુટિક માહુરક્ષક-ભુજ ૫૫. એ અને ઉત્તમ આભૂષણથી તા નિર્મળ ત્તુિરત્નોથી સહિત હતી (પુસ मुद्दा महिय हत्या) डायनी तभामेतमाम आागणीओ हम मुद्रिमसोथी (पीटीએથી) મતિ હી અર્થાત્ હાવની દશેય આગળીએ મા મુદ્રિકાએ હતી, (चूलामणि चिंध गया) यूडामपिसिना धार तेथे उता (सुरुवा) तेमनः ३५ मडुन सुर ता (महदिया ) विशिष्ट विभान भने परिवार आहि ३५ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषयपिणी टीका स् ३३ असुरकुमारदेयवर्णनम् ३२९ एवं फासेणं संघाएणं मंठाणेणं दिव्याए उड्ढीए जुईए पभाए छायाए अच्चीए, दिव्वेण तेएणं दिव्वाए लेसाए दस दिसाओ उज्जोयमाणा पभासेमाणा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं स्वेण नियेन रूपेग एवं फार्मणं' पर पगेन 'सघाएण' म्हननेन । 'सठाणेणं' म्यानन ममचतुरनलक्षणेन । 'दिन्चाए इड्डीए' दिव्यया रुद्रया-देवोचितया पग्विारादिरूपया। 'दिव्याए जुईए रिन्यया यु या, 'दिव्चाए पभाए' दिन्यया प्रमया-प्रभया विमानहीन्या । 'दिव्याए छायाए' रिव्यया ठायया-गाभया । 'दिवाए जचीए' दिव्यया अर्चिपा-अर्गरम्यग्नादितेजोवाल्या । 'तेएण तेजमा-यागेरसम्बन्चिंगचिपा, प्रभावेण वा । "तिच्याए लेसाए' दिव्यया लश्यया-ठारीरका या 'दस दिसाओ उनीयमाणा' ढा दिया उदयोनयत प्रकाशकग्णन, 'पभासेमाणा' प्रमामयन्त -योभयन्त ‘समणस्स भगाभो महावीरस्स' अमणम्य भगवतो महानीरस्य 'अतिय' अन्तिक-समीपम्'भागम्मागम्म' आगयाऽऽग य-बारनारमुपेय । 'रत्ता' रक्ता -मानुरागा 'समणं भगव जुईए पभाए छायाए अचीए दिव्येण तेएण दिवाए लेसाए) दिव्य ऋद्धि से, दिव्य धुनि से, दिव्य प्रभासे-विमान आदिकी दीपि से, दिव्य गया से योभासे, शरीरस्थ रन आदि के दिव्य तेज से, दिन्य शारीरिक कान्ति से ण्व दि यल यासे (दस दिसाओ उज्जोयमाणा) दम दिशा को उदयोतयुक्त करते हुए (समणस्स भगवओ) अमण भगवान् (महावीरम्स) महावीर के (अतिय) ममीप (आगम्मागम्म) वारवार आ आकर (रत्ता) बडी भक्ति के साथ (समण भगव महावीर) यमण भगवान महावीर को (तिक्खुत्तो) तीन દિવ્ય વર્ણ વળે, દિવ્ય ગધ વળે, દિવ્ય સ્વરૂપ વળે, તે જ પ્રકારે દિવ્ય સ્પર્શ पणे, दिव्य मननवणे, मभन्यतु२१ समयास-मस्थान पणे, तया-(दिव्याए इड्ढी. ए जुई। पभाए याए अच्ची दिव्वेण तेएण दिव्याग लेसाए) हिव्य द्धिपणे, દિવ્ય વતિ વળે, દિવ્ય પ્રભા વળે-વિમાન આદિની દીપ્તિ વળે, દિવ્ય છાયા એટલે શોભા વળે, શરીર ઉપરના રત્ન આદિના દિવ્ય તેજ વળે, દિવ્ય શારીરિડ કાતિ पणे, अने हिव्य या वणे ( दम दिसाओ उज्जोयमाणा) ये हिशासाने योत-युस्त (सित) ७२ च्या (ममणस्म भगरओ) श्रम लगवान् (महागीरम्म) महावारनी (अतिय) पाये (आगम्मागम्म) पा२वार मावी Pापान (रत्ता) म १ मति (ममण भगवं महावीर) प्रमाण मापान मानीने (निम्खुत्तो) त्रशुनार (आयाहिण-पयाहिण) २५ सिट पायीन तेन Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ફટ औपपातिकसूत्रे वत्थ- परिहिया कलाणग-पवर-महा-लेवणा भासुरखोंदी पलंववणमालधरा दिव्वेणं वण्णेणं दिव्वेणं गंधेणं दिव्वेणं रुवेणं 1 धनचत्राणि आभरणानि च येषा ते तथा, 'विचित्तमाला' निचिनमाला-निचिना विविधाssकारा माला पुजो येषा ते तथा, 'मउन्मिउडा' मौल्मुिकुटा मौलिपु = मस्तकेषु मुकुटानि येषा ते तथा 'कल्लाणग पारवत्य परिडिया' कन्यागक प्रवर-परिहिता कल्याणकानि= माङ्गलिकानि प्रवरागि=शनि लागि परिहिता = परिधृतनन्त परिधृतमा किश्रेष्टवस्त्राः । 'कलाणग-पवर-मल्ला णुलेवणा' कल्याणक प्रवर मान्यानुलपना कल्याणकारागि प्रवराणि मान्यान्यनुलेपनानि च येषा त तथा मालिकमान्यानुपनन्त | 'भारसोदी' भास्वरदेहा - देदीप्यमानगरीरा 'पल्प - वणमाल-परा' प्रलम्बननमालाधरा, प्रल्प लुम्बन तद्युक्ता वनमाला तस्या घरा, वनमाला कण्ठता जानुपर्यन्त लम्बमाना भवति तस्या धारका, 'दिव्वेण aure' दिव्येन वर्णेन- 'दिव्वेण गपेण' द्वियेन गन्धेन- 'दिव्वेणं माला) उन्हा ने जो मालाये धारण कर रखा था वे विचिन पुष्पों से गूँथी हुई थी । अत ये विचित्र अनेक प्रकार की मालाओं को धारण किये हुए थे । (मउलिमउडा) इनके मस्तक मुकुटों से शोभित थे । (कल्लाणग-पवर वत्थ-परिडिया ) कन्याणकारी एव निशेष कीमती वस्त्रों को इन्होंने धारण कर रखाथा । (कल्लाणग-पवर- मल्ला णुलेवणा) आनन्ददायक एव सुन्दर आकार युक्त मालाओं से एव विलेपनों से इनका गरीर सजित हो रहा था । (भारवोंदी) इनका शरीर विशिष्ट आभा से युक्त हो रहा था । (पलवणारा) इन्होंन जो वनमालाये धारण कर रखी थीं वे घुटनों तक लटक रही था। ये मन (दिव्वेग) रुवेण एव फासेण सघाएण सठाणेण) दिव्य वर्ण से, दिव्य गन्ध से, दिव्य स्वरूपमे, इसा प्रकार दिव्य स्पर्ग से, दिव्य सहनन से, समचतुरस्र संस्थान से, तथा (दिव्वाए हड्डीए (सिमाला) तेथे हे भाजाय धागशु जन्सी हुनी ते विभिन्न पुष्पोथी ગુ થાએલી હતી આમ તેઓએ વિચિત્ર અનેક પ્રકારની માળાએ ધારણ કરી हुती (मउलिमउडा) तेभना भस्त भुज्टो पणे शोली रह्या उता (कल्लाणग पवर-नत्य परिहिया) दयालुहारी भने विशेष हिमती वस्त्रो तेथे धारण रापेक्षा इतर (कल्लाणग-पर-मल्ला-गुलेरणा) यान हाय ते सुहर भार युक्त भाजामधीतेभर विद्वेषनाथी तेमना शरीर सन्ति ता ( भासुरयोंदी) तेभना शरीर विशिष्ट शाला बजे युन्त उता (पलब-वणमालधरा ) તેઓએ જે વનમાલાએ ધાતુ કરી હતી તે ઘુટણ સુધી લટકી રહી હતી या मधा (दिव्वेण वण्णेण दिव्रेण गवेण दिव्वेण रूपेण एवं फासेण सघाएण सठाणेण) Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयपपिणी-टीका सु ३४ नागामागदिदेवर्णनम् _ मृलम-तेणं कालेणं तेणं ममएणं ममणस्स भगवओ महावीरस्म बहवे असुरिंदवजिया भवणवासी देवा अंतियं पाउभ टीका-अशिष्टान् भवनवामिना वर्णगन्नाह-'तेण कालेण तेणं समएण' टत्यादि । तन्मिन काले नम्मिन् समये 'समणम्य भगामी महावीरम्स' अमणम्य भगवतो महावीग्म्य, 'पहवे अमुरिंदयन्निया भगवामी देवा अंतिय' बोऽयुग्न्यर्जिना भवनवामिनी देवा अन्तिक 'पाऊभविस्था' प्रावयु -भगवत श्रीमहावीरस्य समाप प्रादुर्भूता व्यर्थ । भवनमामिदेवाना जनिभ-माश्रिय दग भेग भवन्ति, तथाहिअमुग =अमुग्नुमाग नागकुमाग सुपर्णकुमाग जिन्य उमारा अग्निकुमारा द्वीपउमाग उदधिमाग निमारमाग परनकुमाग स्तनितकुमागधेति । कुमारवत् मीटनपराश्चैते माग उच्यन्ते । भानपुः-पाता टोकदेवाऽऽनामनिगेपेषु वमन्ति नच्छीला भग्न भगवान के निकट आये हुए भानामी देवा के भेदस्यम्प असुरसुमागेका वर्णन कर, जम नकार विशिष्ट भवन गसा देवा का वर्णन करते हैं-'तेग कालेण' यति। (तेण कालेण तेण समएण) उस काल और उम समय म (समणम्स भगवनो महावीरम्स) श्रमण भगान महावीर के (अतिय) पास (पहवे) अनेक (अमुन्दिवनिया) अमुरेन्द्रों को गेटकर (भवणवासी देवा) भवनपासी देव (पाउभवित्या) प्रकटित हुए । इन भवनवासी देवों के दस भेद, जाति भेद को लेकर होते है । जैसे-असुरकुमार १, नागकुमार २, सुपर्णकुमार ३, विद्युकुमार ४, अग्निकुमार ५ द्वापकुमार ६, उदधिकुमार ७, विगामार ८, परनकुमार ९, स्तनितकुमार १० । कुमार की तरह ये क्रीटा करने मे मदा त पर रहते हैं, इमलिये इनकी कुमार जा है । पाताल लोक म जो देवों के आवास ભગવાનની પાસે આવેલા ભવનવાસી દેવાના ભેદ–વરૂપ અસુર કુમાसतु वन -तेण कारण त्यादि (तण कालेणं तेण समएण) ते रस मन ते अभयमा (समणस्म भगनओ महागीररस) श्रम मापान महावीरनी (अतिय) पाये (पहरे) गनेर (असुरिंदयज्जिया) सुरेन्द्रो छाडीने मी (भननवासी देवा) वनपायी है। (पाउभरित्या) प्रगट थया २R! भवनवासी દેના દશ ભેદ જાતિભેદને લઈને થાય છે, જેમકે–અમુકુમાર ૧, નાગકુમાર ૨, સુપર્ણકુમાર ૩, વિદયુકુમાર ૪ અગ્નિકુમાર પ, દ્વીપકુમાર , ઉદ્ધકુમાર ૭, દિશાકુમાર ૮, પવનકુમાર ૯, ખનિતકુમાર ૧૦ કુમાર–બાળકની પેઠે તેઓ કીડા કરવામાં સદા તત્પર રહે છે એ વાણુથી તેમની કુમાર આશા છે પાતાલ લેકમાં જે દેના આવાસ-વિશેષ છે તેમા તેઓ રહે છે તે કારણથી તેઓ ભવનવાસી કહેવાય છે મૂત્રવાર રમવા Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० থাকি a mana - आगम्मागम्म रत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेति, करित्ता वदति नममंति, बंदित्ता नमंसित्ता साई साड नामगोयाई साति, णञ्चासपणे णाइदूरे सुस्सूस माणा नमसमाणा अभिमुहा विणएणं पंजलिउडा पज्जुवामंति ॥ सू० ३३ ॥ महावीर तिम्खुत्तो आयाहिणपयाहिण करेति' श्रमणस्य भगवना महावीरस्य दिन आदमियप्रदक्षिणम्-अलिपुट बद्घा त वद्वाअलिपुट दक्षिणकर्णमूलन आरभ्य ललाटप्रदेशन वामफगान्तिकेन चक्राकार वि परिभ्राम्य ललाटदशै स्थापनरूप उर्वन्ति, कृपा 'बति' वन्दन्ते स्तुवन्ति, 'नमसति नमस्यन्ति-नमस्कुर्वन्ति, 'पदित्ता' वन्दि या 'नमसित्ता' नमस्थित्वा 'साइ साइ णामगोया साति' स्थानि पानि नामगोत्राणि श्रावयन्ति-कवन्ति । 'पचासण पाइदरे ना यासन्न नातिदुर 'मुस्मसमाणा' शुअपगागा --सेवा कुमाणा 'नमसमाणा' नमस्यन्त नमस्युन्ति 'अभिमुहा' अभिमुसा 'विणएणं' विनयेन 'पजिलिउडा' प्राञ्जलिपुटा -रद्धाञ्जलय पन्जुवासति' पर्युपासत सेवन्ते ॥मू० ३३॥ ॥ बार (आयाहिणपयारिण) अनलिपुट बाँध कर उमे दक्षिण कान से लगा कर मन्तक के पास से बायें कान नक चक्राकार माते हुए पुन मस्तक पर (करेति) रसते थे, (करित्ता) रवार (बदति नमसति) नन्दना करते थे, नमस्कार करते थे, (पदित्तानमंसित्ता) वदना नमस्कार करके (साइ साइ नामगोयाह साति) अपने अपने नाम एव गोत्रों का उचारण करते थे। (पचासणे णाइदरे मुस्सूसमाणा नमसमाणा अभिमुहा विगएण पजलिउडा पजवासति) न अतिसमीप और न अति दूर हो, अर्थात्-भगवान से थोड़ी दूर पर भगवान के मामने बैठ कर विनयपूर्वक दोनों हाथ जोट कर सेवा करने लगे। सू० ३३॥ જમણા કાનથી લઈને મસ્તકની પાસેથી ડાબા કાન સુધી ચક્રાકાર ફેરવીને, शन भगत ५२ (करति) माता (करित्ता) भान (वदति नमसति) पहनत ori, नम२२ ४२ ता बदित्ता नममित्ता) पनामा ४शन (साइ माइ नामगोपाइ समिति) पात-पोताना नाम ५ त्रिना स्या sit oता (गन्चासणे पाइदूरे सुस्सूसमाणा नमसमाणा अभिमुहा विणण्ण पजलिउडा पज्जुवासति) मई सभी५ नहि, तभ मई २ मडि, અર્થાત ભગવાનથી એ જ કર ભગવાનની સામે બેસીને વિનયપૂર્વક અને હાથ જોડી સેવા કા લાગ્યા (સૂ ૩૩) Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पायपषिणो-दोया मृ ३८ नागकृमारादिदेवयर्णनम ૩૩ कलस-सीह-हयवर-गयंक-मयरंक-वर-मउड-बद्रमाण-णिज्जुत्त-विवित्त-चिधगया सुरुवा महिड्ढिया, सेसं तं चेव जाव पज्जुवासंति ॥ सू० ३४॥ हनानि, उनधिमागगा मुकुटप्वाचानानि, दिगाएमागणा मुमुटयु हन्तिचिह्नानि, पवन मागगा उग्मुटेषु मकचिद्रानि, नथाम्ननित मागणा मुस्टेषु वर्षमानचिहानि भवन्ति, नानि नागफगादानि वर्षमाना तानि 'निजुत्त' नियुक्तानि-मुटेपु स्थितानि, 'विचित्त'विचित्राणि-नानाविधानि, 'चिंध' चिनानि गता =प्राप्ता येते तथा, नागफगादीनि पर्दमानान्तानि यथास्थानस्थितानि पिचित्ररूपागि लपणानि तपा मुकुटेपु भवन्ती यर्थ । 'मुरूवाः' मुरूपा - सुन्दगऽऽकाग । 'महिडिया'-महर्दिका -महया नव्या युक्ता । 'मेस त चेव' शेप तदेव-शेपम अपटिशः तदेव-पूर्वदेव वाच्यम्, कियटवधि वाच्यम् । दयाह-'जाव पन्जुसति' यावन पर्युपासते-दति । ते नागमागदय नवनिकायभवनपासिदेवा अमुर मारपद् भगवन्त सेमन्ते टनि भार ॥स०३४॥ मसिहका चिह्न है ॥॥ उदधिषमाग के मुकुटा में अश्वका चिह्न है || दिशामागे के मुकुटा में हाथीका चिद् है |परनकुमारा के उत्तम मुकुटों में मगरका चिह्न है ॥८॥ तथा स्तनितकुमारों के मुकुटा में वर्षमान (स्वस्तिक) का चिह्न है ॥ ॥ ये सर चिह्न नियुक्तयथास्थान स्थित है, और विचित्र पवार है । (मुख्या) ये मर देव सुन्दर आकार म्पन्न, "प (महिड्डिया) महतो ऋद्धि से युक्त है । (मेम त चेव जाव पज्जुवासति) ये मव भवनमामी देवों का नौ प्रकार के निकाय अमुरकुमार देवों की तरह भगवान की सेवा करने लंग ॥ पू० ३१॥ વજનું ચિત્ર છે ૩ અગ્નિકુમારોના મુકુટમાં પૃ-કલશનું ચિ કે ૪ દિલીપકુમારોના મુકુટમાં સિંહનું ચિહ્ન છે ૫ ઉદધિકુમાના મુકુટોમાં અશ્વનું ચિત્ર છે જ દિકુમારના મુકુટમાં હાથીનુ ચિક છે ૭ પવનકુમારના મુકુટમા મગનુ ચિત્ર કે ૮ તથા નિતકુમારના મુકુટમાં વર્ધમાન (સ્વનિ)નું ચિહ્ન છે ૯ આ બવા ચિહ્નો નિયુંક્તવ્યથાસ્થાન હોય છે અને વિચિત્ર–પવાળા હોય છે મુન્ના) આ બધા દેવે સુદર मा-भ पन्न, 1 (महिटिया) महान ऋद्धिया युटत हाय छे (सेम त चेर जार पन्जुगामति) म सवा सपन-पासी वाना न ना निकाय मसुर કુમાર દેવોની પેઠે ભગવાનની સેવા કરવા લાગ્યા (ભૂ ૩૪) Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ এথসিমুখ विस्था-णागपइणो सुवण्णा विज्जू अग्गीयदीव उदही दिसाकुमारा य पवणा थणिया य भवणवासी णागफडा-गरल-बहर-पुण्णवासिन इयुज्यन्ते-भवनवासिनामतेषु दगम भेदेषु प्रयगगेट परि य य ना भेदानन दर्शयनि'गागपइणो' नागपतयो-नागकुमारा । 'सुपण्णा' मुपभमाग । 'विज्ज-विद्युकुमाग 'अग्गी य' अग्निकुमाराथ ! 'दीरा' द्वीपकुमारा । 'उदही' उ-धिरुमाग ! 'दिसा कुमारा य' दिगाकुमाराध 'पाणा' परनकुमाग 'यणिया य' रतनितकुमाराश्च । गते 'भवणवासी' गवनवामिन । गनेपा नागसुमारादीना नागफणादीनि चिद्वानि भवन्ति, तानि क्रमशो दर्शयन्नाद-'णागफडा-गरतबहर-पुण्णकल्ससीह-इयवर-गया-मयरस-वरमउड-बद्धमाण णिज्जुत्त पिचित्त-चिंधगया' नागफणागरुड-वन-पूर्णकला सिंह-हयवर-गजाह-मकराव-वरमुकुट-बर्द्धमान-नियुक्त-विचित्र-चिट्टगता - नागकुमागणा मुकुटेषु नागफगाचिहनानि,सुपर्णकुमाराणा मुफुटेपु गरुडचिह्नानि, विद्यु कुमाराणा मुकुटेषु वनचिहानि, अग्निकुमागमा मुटेषु पूर्णकलगचिदनानि, द्वीपकुमाराणा मुकुटेपु सिंहचिविशेष है उनमे ये रहते हैं, इसलिये ये भग्नवासी कहलाते है । सूरकार इन्ही भवनवामियों के प्रथम भेदको छोटकर अन्य नौ भेदों को यहा बतला रह है-(गागपरणो) नागपतिनागकुमार (सुवण्णा) सुपर्णकुमार (विज्जू) विद्युत्कुमार (अग्गीय) अग्निकुमार (दीवा) द्वीपकुमार (उदही) उदधिकुमार (दीसाकुमारा य) दिशाकुमार (पवणा) पवनकुमार (थणिया य) स्तनितकुमार (भवणवागी) ये इस प्रकार भवनवासी देवा के भेद है । इनमे (णागफडा गरुल-वहर-पुण्णकलस-सिंह-हयवर-गयंक-मयरम-वरमउडबदमाण-णिज्जुत्त-विचित्त--चिंध-गया) नागकुमारों के मुकुटमे नागकी फणाका चिह्न है।॥१॥ सुपर्णकुमारों के मुकुटमें गरडका चिह है ॥२॥ विद्युत्बुमारों के मुकुटो मे बन्नका चिह्न है ॥३॥ अग्निकुमारों के मुकुटा मे पूर्णफलका चिह्न है || द्वीपकुमागे के मुकुटो ભવનવાસિઓના પ્રથમ ભેદ છેડીને અહી બીજા નવ ભેદને पता -(णागपइणो) पति-नाममा२ (सुरपणा) सुपरमार (विज्ज) विध्युत्भार (अग्गी य) मनिमार, (दीवा) द्वीपमा२ (उन्ही) Gधिभार (दिसाकुमारा य) हिशामा२ (परणा) ५पन्शुमार (यणिया य) स्तनितकुमार, (भवणासी) मा BA प्रा. सपनवामी योना ले मामा (णागफडागाल-बइर पुण्णफलस-सिंह-हयवर-गयक-मयरक - वरमउड-बद्धणाण-णिज्जुत्तविचित-चिंध-माया) नागभाना भुटमा नागनी यानु शिल छ १ સુપર્ણકુમારોના મુકુટમાં ગરૂડનું ચિહ્ન છે ૨ વિદયુકુમારના મુકુટમાં Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३५ पोपयपिणी टीका र ३५ व्यन्तर देषयर्णनम् रखसा किंनर-किंपुरिस-भुयगपडणो यमहाकाया गंधव्य-णिकायगणा णिउण-गंधव्वगीय-रडणो अणवणिय-पणवणिय-इसिवाइय-भूयवाइय-कंदिय-महाकंदिया य कुहंड-पययदेवा चंचल-च२, ‘जक्ख-रक्खसा' या ३, गममा ४, 'किनर-किंपुरिस-मुयगपठणो' फिनर -किंपुस्प भुजगपतय --किनग ५, फिम्पुरुषा ६, भुजगपतय -महोग्गा ७, 'महामाया' महामाया पिंगालगरीग्धारिंग, ८, 'गध-णि काय-गगा' गत्यर्वनिकायगगा --गन्धर्षसमूहगगा , गजातय इ यर्थ , 'गि उग-गवन्य-गीय रदणो' निपुग-गार्म-गीत-रतय --निपुण-प्रशस्त, गान्ध-नाट्योपेत गान, गानच नाट्यर्जिनगान, तत्र रतियंपा ते तथा, 'अगवणिय-पणवणिय-इसिवाइय-भूयाइय-कदिय-महाकदिया य कुहड-पयय-देया' अप्रनामिक-पानप्रजातिक-रुपिनाटिक-भूननादिक-कदित-महाकन्दिताथ फू'माण्ड-पतगदेवा -एतेऽ'टो व्यतरा निकायविशेषभृता त्नप्रभागृथिव्या उपरितनयोजन रक्ससा किंनर-किंपुरिस-भुयगपटणो य महाकाया गपक्षणिकायगणा) पिशाच १, __मृत २, यस ३, गक्षस ४, किन्नर ५, फिपुरुप ६, भुजगपनि ७, एव विगाट शरीर धारण कग्नवाला महोरग ८, गधर्वनिकायगग, अर्थात-गन्धर्व ९, ये व्यन्तर देव है । ये सन (णिउग-गधन्य-गोय-रटणो) प्रारत नाटकीयगान म नाट्यार्जित गानविद्या म रति वनगाले होते है । (जणग्णिय-पणवणिय-उमिवाट्य-भूयास्य-सदिय-महाकदिया य कुहड-पययदेवा ) अप्रज्ञमिक, पञ्चप्रनमिक, कपिाटिक, मृतरानिक, ऋदित, महाकन्दित, कूष्माण्ट और पतगदेन, ये भी आठ व्यन्तनिकाय के देन है । इन सन का निवास रत्नप्रभापृथिवी के ऊपरी भाग म १०० योजन तक है। ये कैसे होते है । सो भूया य जस्स-रम्पसा किन्नर-किंपुरिस-भुगपडणो य महाकाया गयव्यणिकाय गणा) पिशाय १, भूत २, यक्ष 3 राक्षम ४, सिन्नर ५, Gy३५ ६, ભુજગપતિ ૭, એવા વિશાલ શરીર ધારણ કરવાવાળા મહારગ ૮, ગળવું निडायरा मात् गधर्ष ६, व्यन्त टेप २ मा (णिउणगधव्य-गीय-रइणो) प्रशन नाटकीय मानभा, तभा नाटय-पति गानविशमा प्रेम मवावाणा डाय (अणपणिय-पणपणिय-इमिगाइय-भूयमा इय-कैदिय-महाफदिया य कुहट-पयर-देवा ) मासिद, ५यनसिs, *पि. વાદિ, ભૂતવાદિત, કદિત, મહાદ્રિત, ભાડ અને પતદેવ આ પણ આઠ વ્યન્તર નિકાયના દેવ છે આ બધાને નિવાબ રત્નપ્રભા પૃથ્વીના ઉપ२ना भागमा १०० योन सुपीछे तयापा य? -(चचल. Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wom e n-mp sansar રૂર মীণহানি मूलम्-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्त भगवओ महावीरस्स वहवे वाणमतरा देवा अंतियं पाउभविस्था-पिसाय-मृयायजक्ख टीका-'तेणं कालेग तेणं समएण' याति। तस्मिन काल तस्मिन समये श्रमणस्य भगरता महानारस्य 'पहवे गागमतरा देवा पतिय पाउम्भरित्या' बहवा व्यतग देवा अन्तिक प्रादुर्वभूवु , तर अन्तरा-अन्तरम् अवकाग , तहानगरूपम् , पिविषम् अन्तर-- पर्वतान्तर कन्दरान्तर बनान्तर वा आश्रयरूप येपा ते व्यन्तरा देवगिगया , यहा-'वाणमन्तरा' इतिच्छाया। तय न्यु पत्ति जनानामन्तरागि बनान्तगगि, तेषु भवा वानमन्तग , पृषोदरादिना-मध्ये मझागगम । भगवन्महामारस्वामिसनियौ ममममग्ण व्यन्तग देवा प्रकटीभूता इयर्थ, ते कतिविधा । अनाssr'पिसाय-भया य' पिशाचा १, भूतार्थ 'तेग कालेण' इत्यादि । ( तेण कालेण तण समएण) उस काल और उस समय में (समणस्स भगवी महावीरस्मा श्रमण भगवान महापौर के (अतिय) समीप (बहवे) अनेक (वाणमतरा देवा) _व्यतर देव (पाउभविस्या) आये। गन्तर इनका नाम इमलिये है कि उनका अन्तर:-अब काम अयत निवासस्थान अनक प्रकार के है, जैसे--पर्वत, गिरिकन्दरा, वन आदि । अथवा-याणमन्तर की स्कृत छाया 'पानमन्तर' भी होती है । वना तरों मे-वना के मध्य म-जिनका रहना होने पानमन्तर है। ये वानम तर भगवान महावीर के समवसरण म उपस्थित र । ये व्यन्तर देव स्तिन प्रकार के हैं । इस प्रकार की आशका होने पर मूत्रकार उसका समाधान करत हा उनके भेद को गिनाते है-(पिसाय-भूया य जक्ख ' तेण कालेण' त्यादि (तेण कालेण तेण समण्ण) ते ५४६ मने ते समयने विरे (समणस्स भगवओ महापीररस) श्रमाय मापान मापीनी (अतियं) पासे (बवे ) भने (वाणमतग देवा) व्यतर हवा (पाउभरित्या) माव्या व्यत२ मधु તેમનું નામ એ કારણથી છે કે તેમનું અત્તર-અવકાશ, અર્થાત-નિવાસ સ્થાન, અનેક પ્રકારનું છે જેમકે પર્વત, પર્વતની ગુફા, તથા વન આદિ AAL 'वाणमतरनी संस्कृत छ141 'यानमन्तर थाय के नाम बनाना મધ્યમ-જેમનુ રહેવાનું થાય તે વાનમન્તર છે આ વાનમન્તર ભગવાન મહાવીરના સમવસરણમાં ઉપવિત થયા આ બન્તર દેવ કેટલા પ્રકારના है ? मावी शानु समाधान ४२ता सत्रा२ तेना सेहो । छ-(पियास Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३७ - - पीयूषषिणी-टीका र ३५ व्यन्तरदेययर्णनम् विभूसण-धरा सव्वोउय-सुरभि-कुसुम-सुरडय-पलंबसाभंत-कंतवियसंत-चित्त-वणमाल-रइय-वच्छा कामगमा कामरूवधारी णाणाविह-वपण-राग-वरवत्थ-चित्त-चिल्लय-णियंसणा विविह-देसतान्येव चारविभूपगानि तेपा धरा । 'सम्बोउय-सुरभि-कुमुम-सुरइय-पलर-सोभत-कंत"प्रियमत-चित्त-वणमाल-रइय-बन्छा' सर्वतु-सुरभि-कुमुम-सुरचित-प्रलम्ब-शोभमान-कान्तविक्रमधिनरनमाला-रतिट-वक्षम -सर्वेषु मतुपु मुरभीगि यानि उसुमानितै सुरचिता प्रलम्याच शोभमाना च कान्ता च विकमन्ती च चिना-विचित्रा चासो वनमाला-पुप्पसक, तथा रतिढानिम्युन्दरागि वासि येषा ते तथा, 'कामगमा कामगामिन -इच्छागामिन । 'कामरूपधारी' कामरूपधारिण -स्वेच्छानुसाररूपधारका । 'णाणाविह-वण्ण-राग-वरवत्यचित्त-चिल्लिय-णियसणा' नानाविध-वर्ग-राग वग्यस्त्र-चित्र-देदीप्यमान-निवसना नानाविधवगा रागो येयु तानि-नानाविपर्णरागागि तानि तथाभूतानि वरवस्त्राणि चित्राणि-निचित्राणि "चिल्लिय' देदीप्यमानानि, नियमनानि परिधानानि येषा ते तथा, 'चिल्लिय' इतिदेगीयशब्द , रक्तादिनहुविवपरिवानासनानि परिदधाना इयर्थ । 'विविह-देसणेवच्छ-गहिय-वेसा' विविध देश-नेपथ्य-गृहीत-पा -निविधानाम् अनकेपा देशाना नेपथ्य प्रसाधनविशेष गृहीत है। (सबोउय-मुरभि-कुसुम-मुरइय-पलब-सोभत-कृत-वियसत-चित्त-बनमाल-राय-बच्छा) उनके वक्ष स्थल, मदा समस्त सतुआ के सुरभित पुप्पो द्वारा रचित न्या २ सुन्दर विक्रमित चित्र-विचित्र वनमालाओं द्वारा सुहावने रहा करते है। (कामगमा) इनका गमन इच्छानुमार हुआ करता है। (कामरूपधारी) इच्छानुसार ये रूपों को धारण करते रहते है। (णाणाविह-चण्णा--राग-वरवत्थ-चित्त-चिल्लियणियसणा) अनेक प्रकार के रगवाले तथा चित्र-विचित्र प्रभावाले ऐसे चमकते हुए वस्त्रों को ये पहिरा करते है। (विविह-देसी-णेवच्छ-गहिय-वेसा) अनेक देशों (सव्योज्य-सुरभि कुसुम सुरइय पलब सोभत-कत-वियसत चित्त वनमाल-रइय बच्छा) તેમને વક્ષસ્થલ હમેશા સમસ્ત ઋતુઓના સુદર પુષ્પ દ્વારા બનાવેલી લાબીલાની સુદર વિકસિત ચિત્ર-વિચિત્ર વનમાલાઓથી શોભાયમાન રહે છે (कामगमा) मनु गमन परछानुसार यतु डाय छ (कामरूवधारी) Ut. नुसार ते ३५ धा२५ ४२ता २७ छ (गाणाविह वण्ण राग-वरवत्य-चित्त चिल्लियfam) અનેક પ્રકારના રંગવાળા તથા ચિત્રવિચિત્ર પ્રભાવાળા એવા यभार पत्रो तया परेछ (विपिह-देसी-णेव च्छगहिय वेसा) भने शान। तेसा पा२७ ५७२ छ (पमुइय-कदाप कलह कैली-कोलाहल प्पिया) प्रभुहिताना Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R औपपातिकसने वल-चित्त-कीलण-दवप्पिया गंभीर हसिय-भणिय-पीयगीय-णच. ण-रई वणमाला-मेल-मउ कुंडल-मच्छंद-विउव्वियाहरण-चारुगतवर्तिन , ते कीदृशा । अगऽऽ-'चचल चाल-चित्त-कीलण-यपिया' चार-चपलचित्त-काइन-टर प्रिया -चावलादपि चपानि नित्तानि येपा ते चालनपलचिना =अनिनपर मानमा , कीडन-क्रीडा, दरच परिहास कीटानी प्रियो येगा त कौटायप्रिया , तत पदद्वयस्य कर्मधारय । 'गभीर हसिय-भणिय-पीय-गीय-णचण-रई गम्भीर-हसित-भगित-- प्रिय-गीत-नर्तन-रतय -गम्भीरम् इतरज्ञेय हसित-हास्यम्, भगित-वाहप्रयोग , प्रिय येपा त गम्भीर-मित-भगित-प्रिया , गीतनर्तनयो रतियेगा ते गीतन नरतय , तत पद्यस्य कर्मधारय । 'वणमाला-मेल मउट-कुंडल-सछंट- विउन्धिया हरण-चारुरिभूसण-परा' वनमाला ऽऽमेल मुकुट-कुण्डल-स्वच्छन्द-निर्विताऽऽभरण-चारु विभूषण धरा वनमाला र नादिमयाss भरणविशेष ,आमेल --पुप्परचितालबारविशेष ,मुकुट-सुवर्णमय भिराभूपगम्, उण्डर कोऽभरणम् , एतदतिरिक्तानि-स्वच्छ दपितुर्वितानि स्याभिप्रायानसारासद्य प्रकटीकतानि आभरणानि, कहते है-(चचल चवल-चित्त-कीलण-दव-प्पिया) अनि चपल चित्तपाले ये व्यन्तर देव, क्रीडा एस परिहास-प्रिय हुआ करते है। (गभीर-हसिय-भणिय-पीय-गीयपञ्च-गरई) दसरा द्वारा अज्ञेय ऐसे हसित-हसन म तथा बोलने की चतुराई में ये विशेष निपुण होते है, अथवा हमित एव भगित, ये दो नाने इन्हें विशेष प्रिय होती है । गीत और नर्तन में इन्हें विशेष अनुगग होता है । (वणमाला-मेल-मउड-कुडल-सच्छंद-विउरिया-हरण-चारु-विभूसण-घरा) वनमाला-रनादि द्वारा निर्मित आभरणविशेष, आमेलक-पुष्पों द्वारा रचिन अलकार निशेष, मुकुट-सुर्गमयशिरोभूपणा, कुडल-कर्णाभरण, एव अपनी इच्छानुसार निष्पादिन और भी अन्य आभरण ये ही जिनके सुहावने आभूषण चवल-चित्त-कोलण-दय-पिया) मई १ ययय चित्तपात व्यन्तर हे श्री मेष परिक्षामप्रिय होय छ (गभीर हसिय-भणिय पीय-गीय णचण रई) भीती ન જાણી શકાય એવા હમિત-હેસવામાં તેમ જ ભાણિત બોલવામાં તેઓ વિશેષ નિપુણ હોય છે અથવા હસિત એવ ભણિત આ બે વાતે તેમને વિશેષ પ્રિય હોય છે ગીત અને નાચમાં તેમને વિશેષ અનુરાગ હોય છે (वणमाला-मेल मउड कुडल सच्छद विउब्बिया हरण चार विभूसण धरा) पनाરાદિ દ્વારા નિર્મિત આભરણ વિશે, આમેલ-પુષ્પ દ્વારા રચિત અલકાર વિશેષ, મુકુટ–સુવર્ણમય શિભપણુંકુ ડલ-કર્ણાભરણ, તેમ જ પિતાની ઈચ્છા બમાર નિષ્પાદિત બીજ પણ આભરણે, એ જ જેમના હામણા આભૂષણ છે Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -- पीयूषषिणी-टीका स ३६ ज्योतिपदेयषर्णनम मूलम्-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जोइसिया देवा अंतियं पाउब्भवित्था-विहस्सई चंदसूर-सुक्क-सणिच्छराराह धूमकेतु-बुहा यअंगारका यतत्त-तवणिज टीका-'तेण कालेण तेण समएण' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य 'जोइसिया देवाअंतियं पाउभवित्या' ज्योतिका देवा अन्तिके प्रादुर्वभूवु -श्रीमहावीरस्य समीपे प्रकटीभूता । नामभिज्योतिप्कान् कथयति-'विहस्सई' बृहस्पतय -योतिष्काणाममायातत्चात् प्रत्येक ते बहव सन्ति-इति । 'चद-मुर-सुक-सणिन्छरा' चन्द्रसूर्यशुक्रगनेश्वरा , 'राह' राहव , 'धूमकेउ-चुहा य' धूमकेतुबुधाच, 'अगारका य' अङ्गारका मङ्गलाच, किंवर्णा एते ? इत्याह-तत्त-तवाणिज्ज-कणग-वण्णा' तम-तपनीय-कनक-वर्णा -तप्ततनीयं-रक्तसुवर्ण, कनक-पीतसुवर्ण तद्वद्वणों येषा ते तथा । केचिद्रक्ता केचि पीता इत्यर्थ , तथा-जे य गहा जोइसमि चारं चरति येच ग्रहां ज्यातिपे 'तेण कालेणं' इत्यादि। (तेण कालेण तेण समएण) उस काल एवं उस समय में (समणस्स भगवनो महावीरस्स) श्रमण भगवान् महावीर के (अतिय) समीप (जोइसिया देवा) ज्योतिषी देव (पाउभविस्था) प्रकटित हुए । ज्योतिषी देवों के ये नाम है(विहस्सई चद-सूर-मुक्क-सणिच्छरा राह, धूमकेतु-चुहा य अगारका य) बृहस्पति, चद्र, सूर्य, शुक्र, शनैश्वर, राहु, धूमकेतु, बुध और अगारक-मगल। (तत्ततवणिज्ज-कणग-चण्णा) ये देव तप्ततपनीय-रक्त सुवर्ण और कनक-पीत सुवर्ण इनके समान वर्णवाले होते है। (जे य गहा जोइसमि चार चरति ) उक्त से अतिरिक्त ' तेण कालेण ' त्या (तेण कालेण तेण समएण) ते सतभन त समयमा (समणस्स भग वओ महावीरस्स) श्रम सगवान महावीरनी (अतिये) पामे (जोइसिया देवा) यातिषी १ (पाउभपित्या) ५४८ च्या ज्योतिषी हेवाना नाम २प्रमाणे छे-(विहस्सई चद सृर सुक्फ-सणिच्छरा राहू धूमकेतु बुहा य अगारका य) १४२पति, यद्र, सूर्य, शुभ, शनिश्वर, राइ, भतु, सुध मने मा२४-मनस (तत्त तवणिज्ज-कणग वण्णा) ते यो त तपनीय-२४d सुपथ मन ४४-पी સુવર્ણના જેવા વર્ણવાળા હોય છે અથત કેટલાએક લાલવવા તથા साये वाया जाय (जे य गहा जोइसमि चार चरति) Gra Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ খানিই - - णेवच्छ-गहिय-वेसा पमुइय-कंदप्प-कलह-केली-कोलाहल-प्पिया हास-बोल-बहुलाअणेग-मणि-रयण-विविह-णिज्जुत्त-विचित्त-त्रिधगया सुरूवा महिड्ढ्यिा जाव पज्जुवासंति ।। सू० ३५ ॥ कृत वेप शरीरशोभाऽऽधायकप्रसाधन यैस्ते तथा, तर नेपथ्य पाशाम इतिमायाप्रसिद्धम्, 'पमुइय कदप्प-कलह केली-कोलाहल प्पिया' प्रमुदित-कन्दर्प-कलह-केलि कोलाहल-प्रिया - प्रमुदिताना य कन्दर्पप्रधान• कलह केली क्रीडा, तजन्य कोलाहल -कलकल प्रिया येषा ते तथा, कामकलहक्रीडाकोलाहलपरायणा इत्यर्थ । 'हास-बाल बहुला' हामबनिरहुला 'अणेग-मणि-रयण विविह-णिज्जुत्त-विचित्त-चिंध-गया' अनेक-मणि-गन-विविध नियुक्त-- विचित्र-चिह्नगता अनेकानि-यानि मणिरुनानि तानि विविधनियुकानि-विविधप्रकारेण यथास्था । नस्थितानि, तान्येव विचित्रचिनानि तानि गता प्राप्ता । 'मुरूवा' सुरूपा -मुन्दराऽऽकारा महिड्डिया' महद्धिका महासम्पत्तियुक्ता । 'जाव पज्जुवासंति' यावपर्युपासते-आदक्षिणप्रदक्षिण-वन्दनादीनि पूर्ववत् कृत्या भगवत श्रीमहावीरस्याभिमुखे स्थिता कृतप्राञ्जलिपुटा भगवन्त श्रीमहावीर सेवन्ते-इति ॥ सू० ३५ ॥ की ये पोशाक धारण किये रहते हैं। (पमुइय-कदप्प-कलह-केली-कोलाहल-प्पिया) प्रमुदितों का जो कन्दर्पप्रधान कलह एव क्रीडा होती है इससे जन्य जो कोलाहल होता है वह इन्हे अधिक प्रिय रहा करता है । (हास-बोल-बहुला) ये हँसी-मजाक करने में बड़े चतुर होते हैं । (अणेग-मणि-रयण-विविह-णिज्जुत्त-विचित्त-चिंध-गया) अनेक मणिरत्न, जो कि विविध प्रकार से यथास्थान पर नियेशित्त रहा करते है वे ही जिनके विचित्र चिह्न है ऐसे, (सुरुवा) सुन्दर आकार विशिष्ट, (महिड्डिया) एव महामद्वियुक्त वे व्यन्तर देव (जाव पज्जुवासंति) पूर्ववर्णित असुरकुमारों की तरह दोनों हाथ जोडकर वदना एव नमस्कार करक प्रभु महावीर की सेवा मे ग्लन हुए। सू० ३५॥ જે કન્દપપ્રધાન કલહ એવ કીડા થાય છે તેમાથી જે કોલાહલ ઉત્પન્ન थाय छ त भने मधि४ प्रिय सागे (हास बोल बहुला) डांसी-मन १२पामा म म यतु२ खोय छे (अणेग मणि रयण विनिह णिज्जुत्त विचित्त चिंध गया) भने४ मसिरल ३२ विविध मारे. यथास्थान निवेशित २९ साना वियित्र शिल छ मेवा (सुरूना) सुह२ मा युत (महिडिढया) मे भ81-दिसते व्यन्तरवा (जाव पाजुवासति) पूर्व ४९ता અસુરકમની પેઠે બન્ને હાથ જોડી વદના તેમજ નમસ્કાર કરીને પ્રભુ મહાવીરની સેવામાં લગ્ન થયા ( ૩૫) Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूपयषिणो-टीका र ३६ ज्योति पदेयवर्णनम् ३४१ पंचवण्णाओ ताराओ ठियलेसा चारिणो य अविस्साममंडलगई पत्तेयं णामंकपागडियचिंधमउडा महिड्ढिया जाव पज्जुवासंति ॥सू०३६॥ तारनायका एव । नसामान्या उक्ता एर। अराधीनिर्महा । एकन्य खल चन्द्रममस्तारा कोटाना कोट्य एतारो भान्ति-पट्पटिमहत्राणि नव च शतानि पञ्चमहायरिकानि 'णाणा-सठाण-सठियानो'नाना-स्थान-लस्थिता. 'पचवणाओ' पचन , 'तारानो' तारा , 'ठियलेसा' स्थितलेल्या निचलप्रकाया । 'चारिणो य' चारिण्यश्चमञ्चग्णगोला, 'भत्रिम्साम-मटल-गई। अविश्राम-मण्डलगतय -निरन्तर-चरणशीला, 'पत्तेय' प्रयेकम् गृथक पृथक 'णामा-पागडिय-चिंध-मउडा' नामाऽप-प्रकटित चिह्नमुकुया -नामाहानि नामातिानि-नामाभयुक्तानि प्रकटितचिहनानि-स्पष्टचियुक्तानि मुकुटानि येपा ते तथा, 'महिढ़िया' महर्डिका -मर्दियुक्ता मन्ता योनिष्का देना 'जाव पज्जुवासति' यावत् पूर्ववप्रलिगवन्दनादिमि पर्युपामते ॥ मू० ३६॥ मी टमी प्रकार ममझनी चाहिये । ग्रह अट्टामी है । नमन को माया ऊपर कही गयी है। प्रकीर्णतारकाओं में केवल चन्द्रमा के ही परिवार के तारे ६६९७५ (छियामठ हजार नौ मो पचहत्तर) कोटाकोटी ह । टमी तरह और के मी तार्ग के परिवार शास्त्रान्तर से ममझना। न (णाणा-सठाण-सठियाओ) टन तागओं का आकार एकमा निक्षित नहीं है, इनका आकार अनेक प्रकार का है। (पचवण्णाओ) ये पाँच वर्णवाले है। (ठियटेसा) उनकी लेण्या स्थिर है-टनकी लेय्या में कोर्ट परिवर्तन नहीं होता है। (चारिणो य) ये चरग-गीर है । अत (पविम्याम-मडल-गई) निरन्तर गमन અર્થની સખા બત્રીસ છે ચદ્રમાની સંખ્યા પણ એટલી જ સમજી લેવી જોઈએ ગ્રહ ૮૮ છે નક્ષત્રની સંખ્યા ઉપર કહી છે પ્રકીર્ણતાગમાં કેવળ ચક્રમાના પરિવારના તાગ દ૯૭૫ (છાસઠ હજાર નવો પીચોતેર ) કડાડી છે એવી જ રીતે બીજ ચદ્રમાના પણ તાર–પગ્વિાર શાસ્ત્રાન્તથ્વી સમજી લેવા (णाणा सठाण मठियाओ) मा तागयाना माता से वो निश्चित नथी. तभना मा भने प्रहारना छ (पचवण्णाओ) तसा पाय व वाणा छ (ठियलेमा) तमनी बेश्या स्थिर छ, तभनी ल्याभ 5 ३२५२ थो नयी (चारिणो यो तेया अयशी (अविस्माम-मंटल गई) माम नि.. Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० জীবশিক্ষন - - कणग-वण्णा, जे य गहा जाइसंमि चारं चरंति केऊ यगइरइया अहावीसविहा य णक्खत्तदेवगणा णाणा-संठाण-संठियाओ य चार चरन्ति-उक्तातिरिक्ता ये ग्रहा योनि-योनिथक चकरदयमासमान ज्योतिमण्डले भमण कुर्वन्ति । यदुनाद बहुवचनम् । 'केय गहरइया' केनपश्च गनिचिता - केतवो-जलके वादय , किम्भूता - अहनिरचिता --मनु पकाइरेक्षया गनिमन्त । 'अट्ठावीसविहा य णखत्त-देव-गणां' अष्टाकिंगनिनिधाध नहनदेवगगा --अष्टारिंग तिनक्षत्रदेवता । अम्प्रसङ्गादन्येपामपि ज्योतिकदेवाना माया उच्यन्ते-ज्योतिष्कदेवा पश्चविधा भवन्ति, सूर्या १, चन्द्रमस २, प्रहा ३, नक्षत्राणि ४, प्रफीर्णतारकाच ५, तत्र द्वौ सूर्यो जम्बूद्वीपे, लपणे चवार , धातकीसण्डे दादा, कालोदधौ द्विचवारिंगत्, पुष्कराढ़े द्विसमति -इयेव मनुष्यलोके द्वात्रिंगढधिक गत सूर्या सन्ति, चन्द्रमसेाऽपि जो ग्रह ज्योतिश्चक में-चक्र की तरह प्रतिभासमान इस ज्योतिर्मण्डल्म-भ्रमण करते है वे (केज य गइरडया) जलकेतु आदि केतुग्रह, जो कि मनुष्यलोक की अपेक्षा ही सदा गतिविशिष्ट हैं। अर्थात् यह समस्त न्योतिश्चक इस मनुष्यलोक रूप ढाई द्वीप मे ही गति विशिष्ट है, अन्यत्र नहीं ! ( अट्ठावीसविहाय णक्खचदेवगणा) नथा जो अट्ठाईस (२८) प्रकार के नक्षत्र जाति के देवता है। यहाँ पर प्रसगवश अन्य ज्योतिषी देवों की भी ज्या कहते है। ज्योतिषी देव पाँच प्रकार के है--सूर्य १, चन्द्रमा २, ग्रह ३, नक्षत्र ४, और प्रकीर्ण तारा ५। इन सनों में प्रयेक की संख्या इस प्रकार है-जम्बूद्वीप मे दो सूर्य है, लपण समुद्र मे चार सूर्य है, धातकीखण्ड मे बारह सूर्य है, कालोदधि मे वयालीस सूर्य है और पुष्कराई मे बहत्तर सूर्य है। इस प्रकार मनुष्यलोक में सूर्य की स्रया एक सौ बत्तीस है। चन्द्रमा की रपन्या વર્ણવેલાથી બીજા જે ગ્રહો નિશ્ચક્રમા-ચકની પેઠે પ્રતિભાસિત આ જ્યોતિ में उसभा-प्रमाण ४२ छ (फेऊ य गइरइया) तु तु मनुष्य લોકની અપેક્ષા જ હંમેશા ગતિ-વિશિષ્ટ છે અર્થાત-આ સમસ્ત વિશ્ચક मा भनुष्य३५ मढी दीयम गतिविधि छ, मी नाहि (अट्ठा वीसपिहा य गक्सत्त-देवगणा) तथा २८ मारना नक्षत्र जतिना पता छ અહી પ્રસગવદ બીજ તિવી દેવાની પણ સા ખ્યા કહે છે જ્યોતિથી દેવ પાચ પ્રકારના છે સૂર્ય ૧ ચદ્રમાં ૨ ગ્રહ ૩ નક્ષત્ર ૪ તથા પ્રકીર્ણ તારા ૫ આ બધામાં પ્રત્યેકની મખ્યા આ પ્રકારે છે–જ બુદ્વીપમાં ૨ સૂર્ય છે. લવણ સમુદ્રમાં ચાર સૂર્ય છે ધાતકીખ ડમાં ૧૨ સૂર્યો છે કાલેદધિમાં ૪૨ સૂર્ય છે તથા પુષ્કરાદ્ધમાં ૭ર સૂર્ય કે આ પ્રકારે મનુષ્યલોકમાં Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोषवषिणो-ठीका स ३७ ज्योतिष्कदेययर्णनम् ३४३ अच्चुयवई पहिहा देवा जिण-दंसगु-स्सुया-गमण-जणिय-हासा पालग-पुप्फग-सोमणस-सिरिवच्छ-णंदियावत्त-कामगम-पीडगमसौधर्मादयच्युताऽन्ता कन्पा सन्ति, एपुचमानिका देवा भवन्ति, अत व सौपाट्यच्युतान्ताना देवलोकाना पतय =स्वामिन 'पहिट्ठा' प्रहाटा =अतिहर्ष प्रामा देवा -पैमानिका । 'जिणदसणु-स्मया-गमण-जणिय-हासा' जिन-दर्शनोसुका-ऽऽगमन-जनित-हामा -जिनदर्शनाथोंयुकानाम् एपा, देवानामागमन, तेन जनिनो हास =आनन्दो येपा ते तथा । जिनेन्द्रदर्शनाकण्ठागमननातप्रमोदा । सौधर्मादिद्वादशाबाना दालयका इन्द्रा सन्नि, तत्र नामदशमयोरेक इन्द्रो भवति । गादीनामच्युतान्ताना दगानामिन्द्राणा पालकादीनि मर्वतोभदान्तानि दश विमानानि भवन्ति, तान्याह-'पालग १, पुष्फग २, सोमणस ३, सिरिवन्छ ४, णदियावत्त ५, कामगम ६, पीइगम ७, मणोगम ८, विमल ९, सबओभद्द १० -सरिसणामधेग्जेहि विमाणेहिं ओइण्णा' पालक-पुष्पक-मौमनस-श्रीनस-नन्द्यावर्त-कामगम-प्रीतिगम-मनोगम-विमल-सर्वतोभद्र-सदृशनामधेयैर्तिमानैरवतीणा से दश इन्द्रा पालमहाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत ये देवलोक है। ये सौधर्मादिक, वैमानिक देवताओं के रहने के स्थान है। ये देवलोक १२ है। इनकी कल्प सजा है। ये वैमानिक देव इनके पति है । इन कन्पा में जो उपन्न होते हे वे वैमानिक या कल्पवासी देव कहलाते है । (पहिट्ठा) अतिहर्ष को प्राप्त हुए (देवा) ये वैमानिक देवेन्द्र कि जिन्हे (जिण-दसणु-स्सुया-गमण-जनिय-हासा) जिनेन्द्र के दर्शन के लिये उसुकतापूर्वक आगमन से अति आनद हुआ है। (पालग-पुप्फग-सोमणस सिरिवन्छगदियावत्त कामगम-पीइगम-मणोगम-विमन-सन्चओभद्द-सरिस-णामधेन्जेहि विमाणेहिं) घे दस वैमानिक देवेन्द्र अपने २ पालक, १ पुष्पक २ सौमनस, ३ श्रीवत्स, ६, भला ४ ७, सरसार ८, मानत ६, प्रात १०, सा२५ ११, भने અયુત ૧૨, આ દેવક છે આ સૌધર્માદિક, વૈમાનિક દેવતાઓના રહે વાના સ્થાન છે તે દેવલોક ૧૨ છે તેમની કલ્પ સત્તા છે તેમના સ્વામી ૧૦ છે આ કપમા જે ઉત્પન્ન થાય છે તે વૈમાનિક અથવા ૯૫વામી દેવ ४४ाय छ (पहिवा) गहु प्राप्त थता (दवा) ॥ भानि वे उन (जिण-दसणु-सुया-मण-जनिय-हासा) जिनेन्द्रना इशन भाट सुस्ता५४ भागभनयी अति मान ल्येो छ (पालग-पुप्फग-सोमणम-सिरिपच्छ-दियापत्त-कागगम-पीहगम-विमल-सव्वओभद्द-सरिसणामधेजेहिं निमाणेर्हि) ते ६० Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकतरे - - मुलम्-तेण कालेणं तेणं समएणंसमणस्स भगवओ महावीरस्स वेमाणियादेवा अंतियंपाउभविस्था, सोहम्मी-साण-सणंकुमार-माहिद-बंभ-लंतग-महासुक्क-सहस्सारा-णय-पाणयारण टीका-'तेणं कालेण तेण समएणं' झ्यादि । तस्मिन् काठे तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य 'वेमाणिया देवा अतियं पाउन्मरित्या' वैमानिका देवा अन्तिके प्रादुर्वभूत् । के ते वैमानिका देवा । इग्याह-सोहम्मी-साण-सणंकुमार माहिदम लेतय महासुफ-सहस्सारा-णय-पाणया-रण अचूयबई सौधर्मे १-शान २-सनत्कुमार ३-माहेन्द्र ४, ब्रह्म ५-लान्तक ६-महामुक ७-सहसारा ऽऽनत ९-प्राणता १०-रणा११ युतपतय १२० करते रहना यही इनका स्वभाव है। (पत्तयं णामफ-पागडिय-चिंध-मउडा) प्रत्येक के मुहट अपने अपने नामों से युक्त एव स्पष्ट निह वाले हैं। (महिड्डिया) ये रव महादि के धारी है। (जार पज्जुवासति) पूर्व में वर्णित अमुरकुमारों की तरह ये सब ज्योतिषी देव भी भगवान महावीर की सेवा करने लगे। सू० ३६॥ 'तेण कालेण' इयादि। (तेण कालेण तेण समएण) उस काल और उस समय में (समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रमण भगवान् महावीर के (अतिय) समीप (वेमाणिया देवा) वैमानिकदेव (पाउन्भवित्था) प्रकट हुए। वैमानिक देव कौन हैं। सो कहते हे-(सोहम्मी-साण-सणकुमार-माहिद-बम-लतग-महासुक-सहस्सारा-यपाणया-रण-अच्चुय-बई) सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, बसलोक, लान्तक १२ गमन त २३ मे ४ तमन! स्वभाव छ (पत्तेयं णामक-पागडिय चिंध मउडा) प्रत्येना भुरट पोतपोताना नामाथी युत सेव पर शिवाजा छ (महिड्ढिया) से या महामद्धिना धा२४ छ (जाय पज्जुवासति) पूर्व डेस અસુરકુમારની પેઠે આ બધા જ્યોતિષીદેવ પણ ભગવાન મહાવીરની સેવા ४२५१ सा२ (२०३९) 'तेण कालेण' इत्यादि (तेण कालेण तेण समएण) 6 अने समयमा (समणस्स भगवओ महावीरस्स) अभयु लगवान महावीरनी (अतिय) पासे (वेमाणिया देवा) भी नव (पाउभवित्मा) भट या ते वैभानि है न छ ४६(सोहम्मीसाण-मणकुमार-महिंद यम लतग-महासुक्क सहस्सारा णय पाणया-रण अधुय वई) सौधर्म १, शान २, मनभार 3, भाडे ४, ४ ५, airds Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषषपिणो-टीका सू ३७ वैमानिकदेवघर्णनम् ३४५ धारी कुंडल-उज्जोविया - णणा मउड- दित्त- सिरया रत्ताभा परम-पम्हनि येषा ते तथा । तभो वृषभ, मृगमहिषादिचिह्नयुक्त मुकुटमहिता 'पसिडिएवर -मउड-तिरीड धारी ' प्रशिथिल वरकेशविन्यास - किरीटधारिण, प्रशिथिला ये ' वरमउड' वरकेशविन्यासा =प्रशस्तकेशविन्यासा किरीटाच तान् धरन्ति ये ते तथा, 'मउड' इति केशविन्यासार्थका देशांशन्द । 'कुडल उनोविया गणा ' कुण्डलो दयोतिता-नना - कुण्डन उयोतित = प्रकाशितम् आनन = मुस येपा ते तथा, कुण्डलोद्भामितमुखा इयर्थ । 'मउड- दित्त- सिरया' मुकुट-दीप-गिराजा मुकुदन रन खचितेन दीना गिर जा केशा येषा ते तथा, 'रत्ताभा' रक्ताऽऽभा = अरुणकान्तिमन्त | 'पउम-पम्ह-गोरा' हय घोडा, गजपति गजेन्द्र, भुजग-सर्प, सग और वृषभ इनके चिह्न थे । ( पसिटिलवर - मउड - तिरीड - पारी) प्रशिथिल उत्तम मउड = केशविन्यास एवं किरीट-मुकुट को ये धारण किये हुए थे, अर्थात् भगवान् के दर्शन करते की वग में इनके प्रगस्त के - विन्यास और मुकुट शिथिल हो गये थे । ( कुडल - उज्जोविया - गणा ) कुडलों की विशिष्ट आभा से इनका मुग्वमण्डल प्रकाशित हो रहा था । ( मउड - दित्त - सिरया ) = (१) ये चिह्न १० है, देवलोक १२ हैं । पर इनके इन्द्र १० है - (१) सौधर्मका इन्द्र, (२) ईशानका इन्द्र, (३) सन कुमारका इन्द्र, (४) माहेन्द्र का इन्द्र, (५) ब्रह्मलोक का इन्द्र, (६) लन्तिकका इन्द्र, (७) महाशुकका इन्द्र, (८) सहस्रारका इन्द्र, (९) आनत एव प्राणतका इन्द्र और (१०) आरण एव अच्युत देवलोकका इन्द्र, इस प्रकार ये १० इन्द्र इन १२ कल्पों के है । इन इन्द्रों के ये क्रमश पालकादिक १० विमान होते है । मृग महिप आदिके क्रमश ये १० चिह्न मुकुटों में इनके होते है । पति [हाथी], लुग-मर्थ, अड्ग भने वृषल [जजह], सेना चिह्न हता (पसिढिल - वर-मउड - तिरोड - धारी) अशिथिस उत्तम भउ- देशविन्याम शेव કિરીટ-મુકુટ તેમણે ધારણ કર્યા હતા અર્થાત્ ભગવાનના દર્શન કરવાની ઉતાવળમા તેમના પ્રશમ્ત ફેશ-વિન્યામ અને મુકુટ શિથિલ થઈ ગયા હતા (कुडल-उज्जोनिया-गणा) उबोनी विशिष्ट खाला (प्राश) थी तेभना भु (१) मा चिह्न १० छे, हेवा १२ छे, पशु तेना द्र १० (१) सौधर्मना धद्र, (२) ईशाननो द्र, (3) सनत्कुमारनो द्र, (४) माहेन्द्रनो द्र, (घ) श्रह्मबोनो छद्र, (६) सातजना द्र, (७) महाशुनो धद्र, (८) सहसारना घट्ट, (E) भानत शेव प्रायुतनो छ, तथा (१०) भाग शेव अभ्युत देवसेना ઈંદ્ર આ પ્રકારે આ ૧૦ ઇટ્ટ આ ૧૨ પેાના હૈ. આ ઇટ્ટોના ક્રમથી પાલડ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ औपपातिकमरे विमल-सव्वओभद-सरिसणामधेनेहि विमाणेहि ओडण्णा वंदगा जिणिदं मिग-महिस-बराह-छगल-ददुर-हय-गयवड-भुयग-खग्गउसभंक-शिडिम-पागडिय-चिंध-मउडा पसिढिल-वरमउड - तिरीडकादिसर्वतोभद्रान्तनामकै, तथा तसदृशनामकै-पूर्णभद्र--मुभटादिनामकैवान्यैर्विमानन्येऽपि देवा 'ओइण्णा' अवतीर्णा =भुमागता । 'वदगा जिगिंद' बन्दका जिनन्द्रस्य =जिनेन्द्र वन्दितुकामा इत्यर्थ । 'मिग-महिस-वराह-उगल ददर हयगयवा-भुयग-खग्गउसभक-विडिम-पागडिय-चिंध-मउडा' मृग-महिप-वराह-छगल-दर्दुर-य-गजपनि-मुजगखड्ग-रूपभाइ-पिडिमप्रकटित चिह्नमुकुटा, मृगमहिपादि-उपभान्ता आहा-चिहनानि विडिमेपु-विस्तीर्णभागेषु येषा मुकुटाना तानि मृगमहिपराह-उगल-ढर्दुरहयगजपतिभुजगग्वड्गरूपमाङ्कविडिमानि, तानि अतएव प्रकटितचिह्नानि-रनादिदीच्या प्रकाशितचिबयुक्तानि मुसुटा४ नद्यावर्त, ५ कामगम, ६ प्रीतिगम, ७ मनोगम, ८ विमल, ९ सर्वतोभद्र १० इन नामवाले विमानों से और पूर्वोक्त निमाना से अतिरिक्त पूर्णभद्र सुभद्र आदि विमानों से दश देवेन्द्रों से भिन्न अन्य वैमानिक देव (ओइण्णा) पृथ्वी पर अवतरित हुए-आये, अर्थात्इन पूर्वोक्त नामनाले विमानों द्वारा दस देवेन्द्र, तथा और भी अन्य देव अपने अपने विमानों द्वारा इस भूमण्डल पर अवतीर्ण हुए-उतरे । क्यों कि ये सब (वदगा जिणिद) जिनेन्द्र की वन्दना करने की कामना वाले थे। (मिग-महिस-वराह-छगल-दारहय-गयवइ-भुयग-खग्ग-उसभक-विडिम-पागडिय-चिंध-मउडा) इनके मुकुटोके विडिमों-विस्तीर्ण भागों में क्रमश मृग, महिप, वराह, छगल-बकरा, दर्दुर-मेढक, વિમાનિક દેવેન્દ્રો પોતપોતાના પાલક ૧,' પુષ્પક ૨, સૌમનસ ૩, શ્રીવત્સ ! नद्यावत ५, आभगम, प्रीतिशम ७, भनागम ८, विमल, सर्वतोम'१०, આ નામવાળા વિમાનથી, તથા પૂર્વોકત વિમાનથી અતિરિત પૂર્ણભદ્ર सुभद्र माहि विमानाथी देवेन्द्रीयी लिन्न मी वैमानित है। (ओइण्णा) પૃથ્વી પર આવ્યા અર્થાત્ આ પૂર્વોક્ત-નામવાળા વિમાન દ્વારા તે દેવેન્દ્ર તથા બીજા પણ દેવ પોતપોતાના વિમાન દ્વારા આ ભૂમ ડલ પર ઉતરી साव्या उभ से गधा (पदगा जिणिंद) जिनेन्नी ना ४२पानी ४ामना anता (मिग-महिस-वराह-गल-ददुर-हय-यपइ-भुयग-खग्ग-उसभकहिमपागडिय चिंध मउडा) तमना भुटाना विभि-विस्ती लागाभा ४भश भा, भडिप, २, ७ -५२, ४६२-भे ४ [ at], य-घाडी, स Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयपषिणो-टोका र ३८ भगवदर्शनार्थ जनोत्सुक्यम् ३९७ मूलम्-तए णं चंपाए णयरीए सिंघाडग-तिग-चउक-चच्चरचउम्मुह-महापह-पहेसु महया जणसद्दे इ वा जणवूहे ड वा टीका-तए ण' इत्यादि । तत =नदनन्तर-चतुनिकायदेवानामागमनाऽनन्तर, सलु 'चपाए णयरीए' चम्पाया नगर्याम् 'सिंघाडग-तिग-चउक्क-चचरचउम्मुह-महापह-पहेसु' शृङ्गाटक-कि-चतुष्क-च वर-चतुर्मुग्व-महापय-पयेपु-तत्रशृङ्गारक-'सिंघाडा' इति भाषाप्रमिद्ध जलज फल, तदाकार स्थान, त्रिकोणमियर्थ , निक-मिलितत्रिमार्गस्थानम्, चतुफयत्र च वारो मागा मिलिता सन्ति तत्-'चोराहा' इति भाषाप्रसिद्ध स्थानम्, च वर=बहुमार्गसमेलनस्थानम् , चतुर्मुख-चतुद्वार स्थानम्-आगन्तुकाटीना विश्रामस्थानम् , महापथ -राजमार्ग , पन्था -रथ्यामात्रम्, तेषु सर्वेषु स्थानेषु यत्र 'महया जणसद्दे इ वा' महान् जनगड -परस्पराऽऽलापादिरूपो भवति 'डकारो' वाक्याल्दागर्थ , 'वा'-प्रझारार्थ , तथा 'जणवृहे इ वा जनन्यूह -लोकसमूह , 'जण 'तए ण चपाए णयरीए' दयादि। (तए ण) चतुर्निकाय के देवों के आगमन के अनन्तर (चपाए णयरीए) चपा नगरी मे (सिंघाडग-तिय-चउक-चच्चर-चउम्मुह-महापह-पहेसु) शृगाटकतीनकोनवाले स्थान पर, निक-जहा पर तीन रास्ते आफर मिलते है ऐसे स्थान पर, चतुष्क-जहा पर चार मार्ग आकर मिले रहते है ऐसे चौराहे पर, चत्वर-अनेकमार्गीका समेलन जहाँ होता है ऐसे स्थान पर, चतुर्मुस-आगन्तुक जनों के विश्रामार्थ निर्मापित स्थान पर, महापथ-राजमार्ग पर, एव पथ अर्थात जहाँ से गली निकलती हो ऐसे स्थान पर, (महया जणसद्दे इ वा) महान् जन शब्द होने लगा-परस्पर मिलजुल कर लोग बातचीत करने लगे। (जगवृहे इ वा) एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से पूछने लगा, अथवाપૂર્વે કહેલા અસુરકુમારની પેઠે ત્રણવાર આ જતિપૂર્વ સવિધિ વેદના કરીને પ્રભુની સેવા કરવા લાગ્યા (સૂ ૩૭) 'तए ण चपाए णयरीए' ऽत्यादि (ताए ण) यतुनि डायना हेवोना मागभन पछी (चपाए णयरीए) या नगरीसा (सिंघाडग तिय चउक्क चच्चर-चउम्मुह महापह पहेसु) सृगाटक-त्रण आवास स्थान ५२, त्रिक-यात्रा २२ता मापाने भो छ सेवा स्थान ५२, चतुष्क-या या२ भाग मावीने भणे सेवा यौटा ५२, चत्वर-मने भागानु सभेसन न्या थाय छ वा स्थान ५२, चतुर्मुख-मापना२ भा - मोना विश्राम भाट भु४२२ ४रेसा स्थान ५२, महापथ-२४मा ५२, मेष पथ-अर्थात् न्याथी सी नीजी डाय तेका स्थान। ५२, (महया जणसद्दे इ वा) મહાન જન-શબ્દ થવા લાગ્યા-પરસ્પર મેલામલાપ કરી લે વાતચીત Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LE औपपातिकम गोरा सेया सुभ-वण-गंध-फासा उत्तमवेउच्विणे। विविह-वत्थ-गंधमल्ल-धारी महिड्ढिया महज्जुइया जाव पंजलिउडा पज्जुवासंति ॥ सू०३७ ॥ पद्म परम-गोरा पuhaara गौरवर्णा । 'सेया ' श्वेता शुभकान्तियानि । 'सुभ वण्ण-गध-फासा ' शुभ-वर्ण- गन्ध-रपणा । ' उत्तम वेडन्त्रिणी' उत्तम विकुविंग = उत्तम निपुणाकारिण 'विविह-वत्य-गध-मल्ल-धारी' विविधचत्र- गन्ध-मान्य-धारिण 'महिड्डिया' महर्द्धिका – महासम्पत्तिशालिन । 'महज्जुडया' महाद्युतिका अतिशय धुतिमन्त | 'जात्र पजलिउडा पज्जुवासति' यान प्राञ्जलिपुटा पर्युपासते यावच्छन्दात् - पूर्वपत् निकृव, आदक्षिणप्रदक्षिण-चन्दन-नमनादय सूज्यन्ते, प्राञ्जलिपुटा नद्राञ्जलय पर्युपासते समन्तादुपासना कुर्वते ॥ मू०३७ ॥ मस्तक की कैशपक्ति मुकुट की काति से दीप्त हो रही थी । ( रत्ताभा) इनका काति अरुण-लाल बी, ( पउम-पम्ह-गोरा ) पर इनका शरीर कमल के केशरों के समान गौरवर्णवाला था । इसलिये (सेया ) ये शुकाति से गोभित थे। ( सुभ-गंध-वणफासा ) इनके शरीर के गध, वर्ण और स्पर्श शुभ थे । ( उत्तमवेउन्त्रिणो ) ये उत्तम वैक्रिय शरीर करनेवाले थे । (विविध-बत्थ-गध-मह-धारी ) अनेक प्रकार के उत्तमोत्तम बत्रा को ये धारण किये हुए थे । गले मे इनके सुगंधित पुष्पों की माला सुगोभित हो रही थी। तथा ये (महिड्डिया ) महर्द्धिक थे । एव ( महज्जुझ्या ) महातिधारी थे । ( जाव पजलिउडा पज्जुवासति ) ये पूर्ववर्णित असुरकुमारों की तरह तीन नगर अलिपूर्वक सविधि वन्दना कर प्रभु की सेवा करने लगे || मू० ३७ ॥ भज प्राशित यह रह्या उता (मउड- दिप्त-सिरया) भस्तउनी उशय द्वित भुभुटनी नतिथी हीपी उड़ती देती (रत्तामा) तेभनी जति अणु-सास हुती (ror - म्ह- गोरा ) पशु तेभना शरीर उभा देश वा और वसुंना हुता साथी (सेवा) तेथे शुभ्रातिथी शोलता हता (सुभ-गध-वण्ण- फासा) खेभना शरीरना गन्ध, पशु स्यर्श शुल हता (उत्तमवेउब्विणो) तेथे उत्तम वैङिय-शरीर धारण ४श्वावाजा उता (निविहत्य - नांध मल्ल-धारी) सुने પ્રકારના ઉત્તમાત્તમ વસ્ત્રો તેમણે ધારણ કર્યા હતા, તેમના ગળામા સુગધિત पुण्योनी भाजा गोली रही हती तथा तेथे (महिडिडया) भडद्धि हुता शोष (महज्जुइया) भडाधुतिधारी इता (जान पजलिउडा पज्जुवासति) तेखो આદિ ૧૦ વિમાન હોય છે મૂળ મહિષ, આદિના અનુક્રમે તેઓના મુકુ ટમા ચિહ્નો હોય છે 1 Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयपपिणो-टोका र ३८ भगयदर्शनार्थ जनोत्सुक्यम् ३४७ मूलम्-तए णं चंपाए णयरीए सिंघाडग-तिग-चउक-चच्चरचउम्मुह-महापह-पहेसु महया जणसद्दे इ वा जणवूहे इ वा टीका-'तए ण' इत्यादि । तत =नदनन्तर-चतुर्निकायदेवानामागमनाऽनतर, सल 'चपाए णयरीए' चम्पाया नगर्याम् 'सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चरचउम्मुह-महापह-पहेसु' शृङ्गाटक-तिक-चतुप्फ-च वर-चतुर्मुग्व-महापय--पथेषु-तन हाटक-'सिंघाडा' इति भाषाप्रसिद्ध जलज फल, तदाकार स्थान, त्रिकोणमित्यर्थ, निक-मिलितनिमार्गस्थानम्, चतुष्क-यत्र चत्वारो मार्गा मिलिता सन्ति तत्-'चोराहा' इति भापाप्रसिन्न स्थानम्, चवर बहुमार्गममेलनस्थानम्, चतुर्मुस-चतुर्दार स्थानम्-आगन्तुकाटीना विश्रामस्थानम् , महापथ -राजमार्ग , पन्था -रथ्यामात्रम्, तेषु सर्वेपु स्थापु या 'महया जणसद्दे इ वा' महान् जनशब्द -परस्पराऽऽलापादिरूपो भवति 'इकारो' वाक्यालदारार्थ , 'या'-प्रमागर्थ , तथा 'जणवूहे इ वा जनन्यूह -लोकसमूह , 'जण 'तए ण चपाए गयरीए' इत्यादि। (तए ण) चतुनिकाय के देवों के आगमन के अनन्तर (चपाए णयरीए) चपा नगरी में (सिंघाडग-तिय-चउक-चचर-चउम्मुह-महापह-पहेसु) शृगाटकतीनकोनवाले स्थान पर, त्रिक-जहा पर तीन रास्ते आकर मिलते है ऐसे स्थान पर, चतुष्क-जहा पर चार मार्ग आकर मिले रहते है ऐसे चौराहे पर, चत्वर-अनेकमार्गीका समेलन जहाँ होता है ऐसे स्थान पर, चतुर्मुख-आगन्तुक जनो के विश्रामार्थ निर्मापित स्थान पर, महापथ-राजमार्ग पर, एव पथ अर्थात जहाँ से गली निकलती हो ऐसे स्थान पर, (महया जणसद्दे इ वा) महान् जन शब्द होने लगा-परस्पर मिलजुल कर लोग बातचीत करने लगे। (जगवृहे इ वा) एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से पूछने लगा, अथवाપૂર્વે કહેલા અસુરકુમારની પેઠે ત્રણવાર અ જલિપૂર્વક સવિધિ વદના કરીને પ્રભુની સેવા કરવા લાગ્યા (સૂ ૩૭) _ 'तए णं चपाए णयरीए' इत्यादि। (ता ण) यतुनियना हेवाना मागभन पछी (चपाए णयरीण) नसीसा (सिंघाडग तिय चउम्क चच्चर-चउम्मुह महापह पहेसु) शगाटक-त्राए शुवास स्थान ५२, त्रिक-न्याय २२ता मापीने भणे छ सेवा स्थान ५२, चतुष्क--या या२ भार्ग यावीने भणे सेवा यौटा ५२, चत्वर-मने४ भागौनु समेसन क्या थाय छ वा स्थान ५२, चतुर्मुख-पावना२ भाए। साना विश्राम भाटे भु४२२ ४२ थान ५२, महापथ-सभा ५२, भव पथ-मर्थात् ज्याथी सी नी४जी डाय तथा स्थान। ५२, (महया जणसद्दे इवा) મહાન જન–શબ્દ થવા લાગ્યા-પરમ્પર મેલામલાપ કરી લોક વાતચીત Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૬ औपपातिसूत्रे गोरा सेया सुभ-वण-गंध-फासा उत्तमवेउव्विणे। विविह-वत्थ-गंधमल्ल-धारी महिड्ढिया महज्जुइया जाब पंजलिउडा पज्जुवासंति ॥ सू०३७ ॥ 1 =3 पद्म पद्म-गोरा - पद, गौरवर्णा । 'सेया' वेता शुभकान्ति-शालिन । 'सुभ-पण्ण-गय- फासा ' शुभ-वर्ण- गन्ध-स्पर्धा । ' उत्तम वेडविणो' उत्तम निर्विग: उत्तम निकुर्वणाकारिण 'विविध-बत्य-गध-मल-धारी' निधि-यस- गन्ध-मान्य धाग्णि 'महिड्डिया' महद्धिका महासम्पत्तिशालिन । 'महज्जुडया' महायुतिका अतिशय धुतिमन्त | 'जात्र पजलिउडा पज्जुनासति' या प्राञ्जलिपुटा पर्युपासते- यावच्छन्दात् - पूर्वनत् निकृव, आदक्षिणप्रदक्षिण- चन्दन - नमनादय सृज्यन्ते, प्राञ्जलिपुटा = द्वाञ्जलय पर्युपासते - समन्तादुपासना कुर्वते ॥ सू०३७ ॥ मस्तक की शक्ति मुकुट की काति से दीप्त हो रही थी। (रत्तामा) इनकी काति अरुण-लाल थी, ( पउम-पम्ह-गोरा ) पर इनका शरीर कमल के केशरों के समान गौरवर्णवाला था । इसलिये (सेया) ये शुभ्रकाति से गोभित थे । (सुभ-गंध-वण्णफासा) इनके शरीर के गध, वर्ण और स्पर्श शुभ थे । ( उत्तम वेउन्त्रिणो ) ये उत्तम वैक्रिय शरीर करनेवाले थे। (विविह-वत्थ- गध-मह-धारी ) अनेक प्रकार के उत्तमोत्तम वस्त्रों को ये धारण किये हुए थे । गले में इनके सुगधित पुष्पों की माला सुशोभित हो रही थी। तथा ये (महिड्डिया ) महर्द्धिक थे। एव ( महज्जुइया ) महाधुतिधारी थे । ( जाव पंजलिउडा पज्जुवासति ) ये पूर्ववर्णित असुरकुमारों की तरह तीन बार अनलिपूर्वक सविधि वन्दना कर प्रभु की सेवा करने लगे || मू० ३७ ॥ भज प्राशित यई रह्या उता (मउड- दित्त - सिरया) भस्तनी प्रेशयति भुङ्कुटनी अतिथी हीथी उठती हुती (रत्तामा) तेभनी जति अणु-सास हुती (पत्र- म्ह-गोरा) यु तेभना शरीर ज्भसनादेश के गौरवाना हुता साथी (सेया) तेथे शुभ्रअतिथी शोलता हता (सुभ-गध-वण्ण- फासा) खेभना શરીરના ગન્ધ, વર્ણ અને પશ શુભ હતા ? (उत्तमउव्विणो ) तेथे उत्तम वैश्यि-शरीर धारण श्वावाजा ता (निविह-वत्थ--गध-मल्ल-धारी), અનેક પ્રકારના ઉત્તમેાત્તમ વસ્ત્રો તેમણે ધારણ કર્યા હતા, તેમના ગળામાં સુંગધિત पुण्योनी भाषा गोली ही हुती तथा तेथे (महिडिडया) द्धिती शेष (महज्जुइया) भडाधुतिधारी Šता (जाव पजलिडंडा पज्जुवासति) तेथे આદિ ૧૦ વિમાન હોય છે મૂળ સહિય, આદિના અનુક્રમે તેએના મુકુ ટમા ચિહ્નો હોય છે 4 Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m - - पोषिणो-टोका र ३८ भगवानार्थ जनोत्सुक्यम ३४९ समणे भगवं महावीरे आइगरे तित्थगरे सयंसंबुद्धे पुरिमुत्तमे जाप संपाविउकामे पुव्वाणुपुचि चरमाणे गामाणुगामं दूइजमाणे इहमागए इह संपत्ते, इह समोसढे, इहेव चंपाए णयरीए वहिं किं कथयतीनि मूत्रकार आठ-एर ग्वलु देवाणुपिया' नृत्यादि । र पल भो देवानुप्रिया । श्रमगो भगवान् मापीर, 'आइगरे तित्ययरे सयसमुद्धे आदिकरस्तीर्थकर स्वयमबुद्ध , 'पुरिमुत्तम' पुरषोत्तम , 'जाव सपाविउकामे' यावत्सम्प्राप्तुकाम -मिद्धिगतिनामधेय स्थान मप्राप्तुकाम इति भाव । 'पुवाणुपुचि' पूर्वानुपूर्वी-तीर्थकरपरम्परागतमर्यादाम् 'चरमाणे' चग्न्--आचग्न्, 'गामाणुग्गाम दूहन्नमाणे' प्रामानुपाम द्रवन्-प्रयेक ग्राम गच्छन-क्रमप्राप्तप्राममयजन , 'इहमागए' इहाऽऽगत , इह-चम्पायामागत इति भाव , 'इह सपत्ते' इह सम्प्राप्त , टह पूर्णभद्रे कोई विना पूछे ही दूसरे से इस प्रकार कहने लगे, (एवं परूवेद) कोई कोई पूछे जाने पर दूसरे से हम प्रकार कहने लगे। क्या कहने लगे। इसको सूत्रकार कहते है(एव खल देवाणुप्पिया) ह देवानुप्रियो ! (समणे भगव महावीरे) श्रमण भगवान महावीर कि, (आइगरे तित्यगरे सयसयुद्धे पुरिमुत्तमे जाव सपारिउकामे पुत्राणुपुचि चरमाणे गामाणुगाम ददनमाणे इहमागए इह सपत्ते इह समोसढे) जो अपने शासन को अपेक्षा से धर्म के आदि कारक है, चतुर्विध म्ध के स्यापक हैं, स्वयम्वुद्ध हैं, एव पुरुषों में उत्तम है, यावत् मोक्ष प्राप्त करने के कामी है, वे अन्य तीर्थकरा की परम्परा से आगत मर्यादा का मरक्षण करते हुए एव प्रामानुमाम विचरण करते हुए आज यहाँ पधारे हुए है, यहा मप्राप्त हुए है, साधुसमाचार्ग के अनुसार यहाँ समवसृत पार तथा या साया, (एव परुवेइ) as a Y७१/પર બીજાએથી કહેવા લાગ્યા શુ કહેવા લાગ્યા ? આ વાતને સૂત્રકાર પ્રકટ ४२ छ-(ज्य बलु देवाणुपिया) मानुप्रियो (ममगे भगर महावीरे) श्रभy भगवान महावीर (आइगरे तित्यगर मयसवुढे पुरिसुत्तमे जार मपाविउकामे पुव्याणुपुयि चरमाणे गामाणुगामं दृइसमाणे इहमाग इह संपत्ते इह समोस) २॥ પિતાની શાસનની અપેક્ષાથી ધર્મના આદિકારક છે, ચતુર્વિધ સ ધના સસ્થાપક છે, સ્વય સ બુદ્ધ છે તેમજ પુરૂષોમાં ઉત્તમ છે, યાવત્ એક્ષપ્રાપ્ત કરવાની કામનાવાળા છે, તેઓ અન્ય તીથ તેની પર પરાથી ચાલતી મર્યા દાનું રક્ષણ કરતા કરતા, એવ શ્રામાનુગ્રામ વિચરતા વિચરતા આજે અહી પધાયા છે. અહી જ પ્રાપ્ત થયા છે, માધુસમાચારીને અનુસાર અહી Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રૂ૪૮ औपपातिकमरे जणबोले इवाजणकलकले ड वाजणुम्मीड वाजणुकलिया इवा जणसण्णिवाए इ वा; बहुजणो अण्णमण्णस्त एवमाडक्खइ, एवं भासइ, एवं पण्णवेइ, एवं परूवेड; एवं खलु देवाणुप्पिया । वोले इ वा ' जनानामन्यक्तो घनिर्या, 'जणाटकले इ वा' जनकलकलो-जनाना व्यक्तवर्गामको नाद 'जणुम्मी इ पा' जनोम्मि =जन-नाध --तरगवजनानामुपर्युपरि समागमनम् , 'जणुकलिया इना' जनोकलिका वा-जनाना लघुतर समुदाय , 'जणसण्णिवाए इ वा ' जनसन्निपात -जनाना सघर्षरूपेण ममिलन भवति, तत्र-'बहुजणो' बहुजन 'अण्णमण्णस्स एवमाइक्खड' अन्योऽन्यमेवमाचष्ट-कोऽपर वदति सामान्यरूपेण, 'एव भासद एव भापते-वक्ष्यमागप्रकारेण विशेषत कथयति 'एव पण्णवेइ' प्रज्ञापयति-अपृष्ट सन् कथयति 'एव परुवेइ' एव प्ररूपयति-पृष्ट सन् कथयति, मनुष्यों का एकर जमघट्ट होने लगा। (जणयोले इ वा) मनुष्यों की अव्यक्तप्वनि होने लगी। (जणफलकले इवा) प्रगट रूप में कहीं २ मनुष्यों का कलकल अर्थात स्पष्ट ध्वनि सुनाई देने लगी। (जणुम्मी इ वा) समुद्र के तरग समान ऊपर के ऊपर लोगों के झुड आने लगे। कहीं २ पर (जणुकलिया इ वा) सामान्य रूप से जनसमुदाय एकत्रित हुआ। (जणसण्णिवाए इ वा) कहीं २ पर मनुष्यों का इतना अधिक सघट्ट हुआ कि वे सब परस्पर मे एक दूसरे से सघृष्ट होने लगे। इन सब मे (बहुजणो) अनेक मनुष्य (अण्णमण्णस्स एवमाइखइ) परस्पर मे एक दूसरे से इस प्रकार सामान्यरूप मे कहने लगे, (एव भासइ) कोई २ इस प्रकार विशेषरूप से कहने लगे, (एव पण्णवेइ) काई ४२१॥ साया (जणवूहे इवा) ४ मास मीनने पूछा साया-मथपा भाष्य सोनु र सेत्र था वायु (जणयोले इ वा) खानी भव्यत पनि था सी (जणकलकले इ वा) प्रगट३ या ४या मनुष्यानी ४२४८ पर्थात २५५ पनि समाn an (जणुम्मी इ वा) समुद्रना माननी पेठे 6५२१G५२ वाहीना टोपा माराव्या (जणुस्कल्यिा इ वा) सामान्य३थे न समुदाय मेत्रित थय। (जणसण्णिमाए इ वा) आई स्थान मनुध्यो मला એકઠા થયા છે તે બધા પરસ્પરમાં એક બીજાની સાથે અથડાવા લાગ્યા मा अधामा (बहुजणो) भने मनुष्य (अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ) ५२२५२मा से मीलने मा ४ारे सामान्य३५मा उडे साया (एव भासइ) आध धमारे विशेष३५मा ३९॥ दाम्या, (एव पण्णवेइ) पूच्या Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूपयर्षिणी-टीका सू ३८ भगवदर्शनार्थ जनोत्सुक्यम् पुण अभिगमण-बंदण-णमसण-पडिपुच्छण-पज्जुवासणयाए? एगस्सवि आयरियस्त धम्मियस्स सुवयणस्स सवणयाए, किमंग पुण विउलस्स अदृस्स गहणयाए ? तं गच्छामो णं आयुष्मन् । तेपामभिगमनन, वन्दनेन=स्तवेन, नमस्यनेन-नमस्कारग, प्रतिप्रच्छनेन प्रतिप्रभेन, पर्युपासनया सेवनया पुन यत् फल भवति तत् किं वक्तव्यम , अथितमपि सुबुद्ध भवतीनति भाव । 'एगम्स वि आयरियम्स धम्मियस्स मुवयणस्स सवणयाए' एकस्यापि आचार्यस्स धार्मिकस्य सुपचनस्य श्रमगनया-एफस्याऽपि आचार्यस्य-आचार्यप्रोक्तस्य, धार्मिकम्य धर्मप्रयोग्मस्य,अत एव मुवचनस्य मदुपदेशस्य श्रवणतया श्रवणेन महाफल भवति, 'किमंग पुण विउलग्स अट्ठम्स गहणयाए' स्मिन' पुनर्विपुलम्यार्थस्य ग्रहणतया-यानदुपदिटस्य अर्थस्य ग्रहणेन किं वक्तव्यम् , यावप्रोक्तार्थग्रहणेन सर्वया कृतार्थो भवतीति भाव । 'त' तत्-तस्मात् खलु 'देवाणुप्पिया" ह देवानुप्रिया । 'गन्छामो' गच्छाम =तदन्तिक बजाम , वासणयाए) ह अग-नायुप्मन ' उनके समीप जाने से, उनको वन्दना करने से उनकी स्तुति करने से, उन्हें नमन करने से, प्रभ पूछने से और उनकी पर्युपासना करने से जीनों को किम अनुपम फल की प्रामि न होता होगी, अर्थात् सब कुछ फल की प्रामि होगी, इममे देह के लिये अपमान भी स्थान नहीं है । (एगेस्सवि आयरियस्स धम्मियस्स मुत्रयणस्स सवणयाए, फिमग पुण विउलस्स अट्ठस्स गणयाए) जव तयारूप आचार्य अग्हिन्त भगवन्त से रहे हुए वार्मिक सटुपदेशरूप एक भी वचन के सुनने से जीव महाफल का भागी होता है, तब ह आयुप्मन् । उनके द्वाग कथित विपुल अर्थो के ग्रहण करने से जो फल होता हे उसके विषय म तो कहना ही क्या' (त गन्छामो ण देवाજવાથી, તેમને વદન તુવાથી, તેમની સ્તુતિ કરવાથી, તેમને નમસ્કાર કર વાથી, તેમને પ્રશ્ન પૂછવાથી તો તેમની પર્યું પાસના કરવાથી જેને કયા અનુપમ કલની પ્રાપ્તિ ન થઈ શકે છે અર્થાત્ સર્વ ફલની પ્રાપ્તિ થશે अभा भाटे २६५मात्र पर स्थान नथी (एगस्स वि आयरियस्स धम्मियम्स सुरयणरस सवणयाए किमग पुण विउलस्स अदृस्स गहणयाए) या तथा३५ અરિહન્ત ભગવન્ત તરફથી કહેવામાં આવતા ધાર્મિક સદુપદેશરૂપ એક પણ વચનને સાભળવાથી જીવ મહાફળના ભાગી જાય છે ત્યારે તે આયુમન્ ! તેમના દ્વારા કહેવામાં આવતા વિપુલ અયોનું ગ્રહણ કરવાથી જે ફલ થાય छते विषयमा त पानु ४ शु? ( त गच्छामो ण देवाणुप्पिया) भाट Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ক্ষীবাহিঙ্ক पुण्णभद्दे चेइए अहापडिरूवं उगहं उगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरइ । तं महप्फलं खलु भो देवाणुप्पिया। तहारूवाणं अरहंताणं णामगोयस्स वि सवणयाए, किमंग सप्राप्त इति भाव , ' इह समोसटे दह ममत्रसृत , साधुकन्यामहे समस्त इति भाव , तदेवाह--' इहेव चपाए णयरीए' यानि, हैव पाया नगर्या , 'वहि ' यहि --निभवे प्रदेशे, 'पुण्णभद्दे चेहए' पूर्णभट्टे चैये-पूर्णभद्रनामक उद्याने, 'अहापडिरूब उग्गह उग्गिण्हिता' यथाप्रतिरूपमपग्रहह्मवगृा--परमानुकूलमावामस्थान याचिका, 'संन मेण तरसा अप्पाण भावेमाणे विहरड' लयमेन तपमाऽऽमान भावयन् यिहरति । , 'तं महप्फलं खलु भो देवाणुप्पिया!' तन्महत्फल गलु भो देवानुप्रिया. 'तहाषाणं अरहताणं भगवताणं णामगोत्तस्सरि सपणयाए' तयारूपागामहेता भग वता नामगोनयोरपि श्रमगतयाताहगाना सर्वातिशयवता भगरता तीर्थराणा नामगोत्रर णेनापि महत्फल भति, 'किमग पुण अभिगमण-बंदण-णमसण-पडिपुच्छण-पत्रु वासणयाए' किमङ्ग पुनरभिगमन-वन्दन-नमस्यन-प्रतिप्रच्छन--पर्युपासनया-हे अङ्ग - हे हुए हैं, और (इहेव चपाए गयरीए वहिं पुग्णभद्दे चेदए अहापडिस्व उग्गह उग्गिहित्ता सजमेण तवसा अप्पाणं भावेमाणे पिहरइ) इस चम्पा नगरी के बाहर पूर्णभद्र उदयान मे ठहरने के लिये वनपाल को आना लेकर मयम व तप से अपनी आमा को भारित करते हुए विचर रहे है। इसलिये (भो देवाणुप्पिया) ह देवानुप्रिय । जा (तहारुवाणा अरहताण भगवताण णामगोयम्स पिसवणयाए ) तथारूप सवानिमयम्पन्न भगवान् तीर्थकरों के नाम एव गोत्र के श्रवण से भी (महफल ) जीरों को महाफल प्राप्त होता है, तन (फिमग ! पुण आभिगमण-बदण-यामसण-पडिपुच्छण-पञ्जुसभसत या छ तथा तेया (इहेर चपाणयरीए वहिं पुण्णभद्दे चेइए अहापडि रूप उगह उग्गिण्हित्ता सजमेण तरमा अपाणं भारेमाणे विहाइ) मा य पानाना બહાર પૂર્ણભટ્ટ ઉદ્યાનમાં ઉતરવા માટે વનપાલની આજ્ઞા લઈને સ યમ તેમજ तपथी पाताना मात्माने मावित ४२ता पियरे में 24 भाटे (भो देवाणुप्पिया) पानुप्रिया न्यारे (तहास्याण अरहताण भगरताण णामगोयस्सवि सरणयाए) તથારૂપ સર્વાતિશયસ પન્ન ભગવાન તીર્થ રોના નામ તેમજ ગોત્રના શ્રવણશી पा (महाफल) ७वाने भा३६ त थाय ॐ, त्यारे (किंमग पुण अभिगमगघदण-णमसण-पटिपुच्छण-पज्जुवामणयाए) ३ AMIयुमिन् । तमना सभीय Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषषिणो-टोका र ३८ भगवदर्शनार्थ जनोत्सुक्यम् आणुगामियत्ताए भविस्सइ-त्ति कटु वहवे उग्गा उगपुत्ता भोगा भोगपुत्ता, एवं दुपडोयारेणं राइण्णा खत्तिया माहणा भडा जोहा हिताय जीवनादिनिगाहाय, 'सुहाए' सुसाय मोगमपायानन्दाय, 'खमाए' क्षमाय-समु. चितसुखसामर्थ्याय, ‘णिस्सेयसाए नि श्रेयसाय भाग्योदयाय, 'आणुगामियत्ताए' आनुगामिकतायै अनुगमनशील वेन भवपरम्पराऽनुपन्धिसुखाय भविष्यति । 'तिकडे' इति कृत्वा इति एव कृपा आख्यान भाषण प्रजापना प्ररूपणा च अन्योऽन्य कृत्वा 'वहवे' वहव , 'उग्गा उग्गपुत्ता' उग्रा उप्रपुत्रा , तर-उग्रा -आदिदेवाऽप्रस्थापिता रक्षरुवराजा , उग्रपुत्रा -त एव कुमारावस्थामपन्ना , 'भोगा भोगपुत्ता' मोगा –भोगपुत्रा -भोगा =आदिदेवावस्थापिता गुस्वराजा , भोगपुरा-त एव कुमारावस्थासम्पन्ना , 'एवं दुपटोयारेण एव द्विपदोचारणेनते च तत्पुत्राश्चेति द्विवारोचारणेन 'राइण्णा' राज-या -भगवयस्यवराजा ,राजन्यपुत्रा -राजआनन्द प्रामि के लिये (खमाए) समुचित सुख देने के लिये (गिस्सेयसाए) नि श्रेयस अर्थात् भाग्योदय के लिये, तथा (आणुगामियत्ताए) जन्म-जन्मान्तर मे मुख देने के लिये (भविस्सइ) होगा, (त्तिक) इस प्रकार विचार कर (वहवे) बहुत से (उग्गा) भगवान् आदिनाथ प्रमु द्वारा स्थापित रक्षकवग में उत्पन्न 'उग्र' कहलाते हैं, ऐसे उग्रगाय लोग, और (उग्गपुत्ता) उन उप्रवशीय लोगों के पुन, तथा बहुत से (भोगा) भगवान आदिनाथ प्रभु द्वारा स्थापित गुरुवश में उत्पन्न 'भोग' कहलाते है, ऐसे भोगवशीय लोग और (भोगपुत्ता) उन भोगवशीय लोगों के पुन, (एव दुपडोयारेण) इसी तरह आगे के पदों का भी दुवारा उच्चारण करना चाहिये, जैसे-'राइण्णा राइण्णपुत्ता' इत्यादि । तथा-बहुत से (राइण्णा) राजन्य-अथात् भगवान आदिनाथ के मित्रों के वशज एव उनके पुत्र, (खत्तिया) भाटे, (सुहाए) सुभ माटे मर्थात् लागानित मान प्राप्ति भाटे, (खमाए) समुथित सुमहेवा भाटे (णिस्सेयसाए) निश्रेयस अर्थात् सायाहयने भाटे, तथा (आणुगामियत्ताए) रन्म-मातरमा सुभ हेवा भाटे (भविस्सइ) थशे. (त्ति कटु) मा मरे पियार ४शन (वहवे) । (उग्गा) सरापान આદિનાથ પ્રભુ દ્વારા સ્થાપિત રક્ષકવશમા ઉત્પન્ન “ઉગ્ર” કહેવાય છે, એવા GR शीय , तथा (उग्गपुत्ता) अशीय खाना पुत्र, (भोगा) मसવાન આદિનાથ પ્રભુ દ્વારા સ્થાપિત ગુરૂવ શમા ઉત્પન્ન “ગ” કહેવાય છે, सेवा सोगवशी, तथा (भोगपुत्ता) लोगशीवाना पुत्र, (एव दुपडो यारेण) मे शते माना पहना ५ भीलवार या२३ ४२७ मे, अभ-"राइण्णा, राइण्णपुत्ता" छत्याल, तथा घा (राइण्णा) २०४न्य-मर्थात् लगान माहिनायना भित्राना १४ मे तेमना पुत्र, (खसिया) क्षत्रिय Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपानिकवरे - देवाणुप्पिया। समणं भगवं महावीरं वंदामो णमंसामो सकारेमो सम्माणेमो कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं विणएणं पज्जुवासामो। एयं णे इहभवे पेच्चभवे य हियाए सुहाए खमाए निस्सेयसाए 'समणं भगव महावीर पदामो' भ्रमण भगत महावीर वन्दामहे-स्तुम गुणगानेन, 'णमसामो' नमस्कुर्म पश्चागनमनन, 'सकारेमो' सउर्म अभ्युयानादिना, 'समाणेमो' सम्मानयाम -परमादग्ग-भक्ति-हुमानेनेग्यर्थ , 'मल्लाण मंगल देवयं चेइयं विणएण पज्जुवसामो' कन्याग माल दैवत चैय विनयेन पर्युपारमहे-कन्याण-कन्याणप्राप्तिकारणम्, मगल-झुरितदूरीकरणकारणम्, दैवत देवोचितप्रभावोपचितम् , चैय केवलजानयुक्तं-चित्तप्रसादहेतु वा एतादृश भगवन्त पर्युपास्महे-विनयेन सेवामहे, 'एय णे' एतन्न-एतद्-भगवद्वन्दनादि, न-अस्माकम् , 'इहभवे पेच्चभवे य' इहभवे प्रेयमवे-परभवे च 'हियाए' णुप्पिया) इसलिये हे देवानुप्रिय। उनके पास अपने चलें, यहा जाकर (समण भगव महावीर) श्रमण भगवान् महावीर को (वदामो) वन्दना करें अर्थात् उनका गुणगान करे । (णमसामो) पचाग-नमन-पूर्वक नमस्कार करें । (सकारेमो) अभ्युत्थानादिक क्रियाओं द्वारा उनका सत्कार करे । (समाणेमो) भक्ति बहुमान के साथ उनका सम्मान करे । (कल्लाण) कल्याण प्रामि के कारणभूत, (मगल) पापों को दूर करने के लिये निमित्तरूप, (देवय) देवाधिदेव के प्रभाव से युक्त, (चेइय) केवलज्ञान युक्त, ऐसे श्री भगवान् महावीर स्वामी को (विणएण) विनयपूर्वक (पज्जुवासामो) सेवा करें । (एय णे इहभवे पेच्चभवे य) यह भगवान का चन्दन और नमस्कार आदि इस भव मे और परभव में (हियाए) आजीवन कल्याण के लिये (मुहाए) सुस के लिये अर्थात् भोगजनित हवानुप्रिय ! तमना पासे माप , त्या धन (समणं भगव महावीर) श्रम सगवान महावीरने (वदामो) १६ ४१ मत तमना गुणगान रीमे (णमसामो) ५यास-नमनपूर्व ४ नभा२ ४शये (सकारेमो) मयुत्थान मा6ि लिया-या द्वारा तेभनी स४२ शये (समाणेमो) मति मभान साथ तमनु सन्मान ४शये (फलाण) ४क्ष्याएर प्रासिना र भूत, (मगल) पापाना नारा ४२५। भाटे निमित्त३५, (देवय) हेवाधिदेवना असाथी युत, (चेइय) सज्ञान युत, अ श्री भगवान महावीर स्वामीनी (विणएण) विनयपूर्व (पजवासामो) नेवा ४३रीये (एय णे इहभये पेचभवे य) मा भगवान न તથા નમસ્કાર આદિ આ ભવમા તથા પરભવમા (હિ) આજીવન કલ્યાણ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोषयपिणी-टीका सू ३८ भगवदर्शनार्थ जनोत्सुक्यम ३५ यद्वा-पहुकुटुम्बपोषका , इ-या उभो उम्ती, तप्रमाण द्रव्यमहन्तीति तथा, ते च जन्यमध्यमो कृष्टभेदात् निप्रकारास्तत्र हस्तिपरिमितमगिमुक्ताप्रवालमुवर्णरजतादिद्रव्यराशिस्वागिनो जप या , हस्तिपरिमितवजहीरकमगिमाणिक्यगशिस्वामिनो मध्यमा , हस्तिपरिमितकेवल्याहीरकगगिम्वामिन उकृष्टा , हस्तिप्रमागोच्छितधनगशिस्वामिन द-या इयर्थ । श्रेष्टिन = लक्ष्मीकृपाकटाक्षप्रत्यक्षलक्ष्यमाणपिणलक्षलक्षणविलक्षणहिरण्यपसमलकृतमूर्धानो नगरप्रधानन्यवहार , सेनापतय =चतुरगसेन्यनायका , सार्थवाहा गणिम-धरिम-मेयहन्ति प्रमाण द्रज्यसपन्न धनिक जन, ये जघन्य, मयम एव उकृष्ट के भेद से ३ प्रकार के होते है, इनमे जिनके पास हस्तिप्रमागपरिमित मगि, मुक्ता, प्रवाल, सुवर्ण एव रजत आदि द्रव्य की रागि होता है वे जघन्य इभ्य है, जिनके पास हस्तिप्रमाण परिमित वज्र हीर, मगि, माणिक्य की राशि होती है वे मध्यम इभ्य है, परन्तु जिनके पास केवल हस्तिप्रमाग-परिमित वन हीग की राशि होती है वे उत्कृष्ट दभ्य है । श्रेष्ठी लक्ष्मी की जिन पर पूरी २ कृपा हो, उस कृपाकोरके कारण जिनके लासो के खजाने हों, तथा जिनके शिर पर उन्हीं को मचित करने वाला चान्दी का विलक्षण पट्ट शोभायमान हो रहा हो, जो नगर क प्रधान व्यापारी हां, उन्हें श्रेष्ठी कहते है, ऐसे श्रेष्ठी जन, सेनापति चतुरङ्ग सेना के नायक, सार्थवाह-जो गणिम-गिन कर खरीदने-बेचने योग्य नारियल, सुपारी, केला आदि वस्तुओं को, धरिम-तौलकर खरीदने-वेचने योग्य धान, जौ, नमक, शकर आदि वस्तुओं को, मेय-सरावा, आदि छोटे वर्तन आदि से माप कर खरीदने वेचन योग्य दूध, વાળા, ઈભ્ય-હસ્તિ–પ્રમાણુ–દવ્ય–સ પન્ન ધનિક જને, આ જઘન્ય, મધ્યમ તેમજ ઉત્કૃષ્ટના ભેદથી ૩ પ્રકારના હોય છે તેમાં જેમની પાસે હસ્તિપ્રમાણ પરિમિત મણિ, મુક્તા, પ્રવાલ, સુવર્ણ તેમજ ચાદી આદિ દ્રવ્યના ઢગલા હોય તે જઘન્ય ઈભ્ય છે, જેની પાસે હતિ પ્રમાણપરિમિત વજ, હીરા, મણિ, માણેકના ઢગલા હોય તે મધ્યમ ઇભ્ય છે પરંતુ જેમની પાસે કેવલ હસ્તિ પ્રમાણપરિમિત વજી હીરાના ઢગલા હોય તે ઉત્કૃષ્ટ ઈભ્ય જન છે શ્રેણી–લકમીની જેમના પગ પુરેપુરી કૃપા હોય, તે કૃપાના કારણે જેના લાખોના ખજાના હોય તથા જેમના માથા ઉપર તેનું સૂચન કશ્વાવાળા ચાદીના વિલલણ પટ્ટ (પાઘડી) બેભી રહી હોય, જે નગગ્ના મુખ્ય વ્યાપારી હોય તેમને શ્રેષ્ઠી કહેવાય છે એવા શ્રેષ્ઠીજન, સેનાપતિ–ચતુરગ બેનાના નાયક, માર્થવાહ-જે ગણિમઃગણતરી કરીને ખરીદાય તથા વેચાય તેને યોગ્ય નારિયલ, એપારી, કેળા આદિ વસ્તુઓ, પરિમૉળીને ખરીદવા, વેચવા યોગ્ય ધા , જવ, મીઠું, સાકર આદિ વસ્તુઓ, મેય=પાવળું કે ડછે એવા નાના વાસણથી Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ औपपातिक्मने पसत्थारो मलई लेच्छई लेच्छडपुत्ता अण्णे य वहवे राई-सरतलवर-माडविय-कोडविय-इन्भ-सेटि-सेणावड-सत्थवाहन्यकुमाराश्च, खत्तिया' क्षत्रिया , क्षत्रियकुमाराच, 'माहणा' पासणा , नागमागथ, भडा' भटा भटकुमाराच, 'जोहा योधा -युद्धव्यवसायवन्त , तेपा कुमाराथ, 'पसत्यारो' प्रगास्तार - धर्मशास्त्रपाठका , तेपा पुनाथ, 'मल्लई' मलकिन =विशिष्टक्षत्रियजातीया , तेपा पुनाथ, 'लेच्छई लेकिन -क्षत्रियजातिभेदवन्त , 'लेच्छइपुत्ता' लेच्छमिपुत्रा , 'अण्णे य वहव' अये च वह्व 'राई-सर-तलपर-माडविय-कोडंपिय-इन्भ-सेद्वि-सेणावइ-सत्यवाह-पभिडओ' राजे-श्वर-तलपर-माडम्बिक-कौटुम्बिके म्य-प्रेष्टि-सेनापति-साधनाहप्रभृतय , तत्र-राजानो-माण्डलिका नरपतयः, ईश्वरा =ऐश्वर्यग्नपना युवराजा , तयग ="तुष्टभूपालदत्तपटवन्धपरिभूपिता राजकुल्पा , माडम्बिका ग्रामपञ्चशतीपतय , यद्वा-सार्धकोगद्वयपरिमितप्रान्तरैर्विच्छिय निच्छिद्य स्थिताना प्रामाणामधिपतय , कौटुम्बिका =कुटुम्बभरणे तपरा , क्षत्रिय और उनके पुत्र, (माहणा) नाह्मण और ब्राह्मणपुर, (भडा) भट और भटपुत्र, (जोहा) योवा-युद्ध के व्यवसायवाले व्यक्ति और उनके पुत्र, (पसत्यारो) धर्मशास्त्रपाठक और उनके पुत्र, (मलाई) - मल्लकी-मल्लकि जाति के क्षत्रिय और उनके पुत्र,(लेच्छई) लेच्छकी-लेच्छको जाति के क्षत्रिय और (लेच्छइपुत्ता) लेच्छकियों के पुत्र, तथा और भी वहुत से ( राई-सर-तलवर-माडविय-कोद्धविय-इन्भ-सेद्वि-सेणार-सत्थवाह-प्पभिइओ) राजा-माडलिक नृपति, ईश्वर-ऐश्वर्यवपन्न युवराज, तलवर-मतुष्ट हुए नृपतिद्वारा प्रदत्त पट्टबध से परिभूषित गजा जैसे विशिष्ट व्यक्ति, माडविक-पाचसौ गाव के अधिपति, अथवा ढाई २ कोस पर बसे हुए ग्रामों के स्वामी, कोम्बिक-अपने -कुटुम्ब का भरण-पोषण करने वाले, अथवा-बहुत कुटुम्ब का पालनपोषण करने वाले, इभ्य तथा तमना पुत्र, (माणा) ब्राह्मण तथा ब्राह्मपुत्र, (भडा) सेट तथा लटपुत्र, (जोहा) योद्धा-युद्धमा व्यवसायवा l तथा तभना पुत्र, (पसत्यारो) धर्मशार ५४४ तथा तेमना पुत्र, (मलई ) भस-भाजतिना क्षत्रिय मन तना पुत्र, (लेच्छई) ४-२४ी जतिना क्षत्रिय तथा (लेच्छइपुत्ता) छठियाना पुत्र तथा मी पर ध। (राई-सर-तल्पर-माडबिय-कोडुबिय इन्भ-सेटि-सेणावइ-सत्यवाह-पभिइओ) २२01-भाउसिड नृपति, घश्वर-मैश्वर्यસ પન યુવરાજ, તલવાર–સ તેષ પામેલા નૃપતિ દ્વારા પ્રદત્ત પટ્ટબ ધથી પરિભૂષિત રાજા જેવા વિશિષ્ટ લેડ, માડ બિક-પાચસો ગામના અધિપતિ, અથવા અઢી ૨ કેસ પર વસેલા ગામના સ્વામી, કૌટુંબિક–પિતાના કુટુંબના ભરણપોષણ કરવાવાળા, અથવા ઘણા કુટુંબના પાલન પોષણ કરવા Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पोपवर्षिणो-टोका र ३८ भगयदर्शनार्थ जनोत्सुक्यम् गइया अविणिच्छयहेउ अस्सुयाई सुणेस्सामो सुयाई निस्संकियाई करिस्सामो, अप्पेगडया अटाई हेऊई कारणाडं वागरणाई पुच्छिस्सामो, अप्पेगडया सवओ समंता मुंडे भवित्ता अपूर्वदृष्टदर्शनार्थमियर्थ । 'अप्पेगडया' अध्येकके-केचित् 'अट्ठ-विणिच्छय-डेउ' अर्थचिनिश्चयहेतु-अर्थाना जीवाजावादिभावाना यत रवरूप तस्य विनिश्चयो हतुर्यस्मिस्तत्, जीवाजीवादिस्वरूपविनिश्चयार्थमित्यर्थ , 'अस्सुयार अश्रुतानि आगमरहस्यानि, 'सुणेस्सामो' श्रोयाम -इत्याशया, 'मुयाई निस्संकियाई करिम्सामो' श्रुनानि निम्शङ्कितानि करिप्याम - इत्यागया, 'अप्पेगइया' अप्येकके-केचित्-'अट्ठाई हेऊ कारणाइ वागरणाई' अर्थान हेतून् कारणानि व्याकरणागि, तत्र-अर्थान्-जीवाजीवादिनस्तत्वरूपान भावान्, हतून् ~ जीवादिस्वरूपसाधकान् , कारणानि अन्यथाऽनुपपत्तिमानरूपाणि व्याकरणानि-परपष्टार्थोत्तररूपाणि 'पुच्छिस्सामो' प्रक्ष्याम , 'अप्पेगइया' अप्येकके, 'सन्नओ समता मुडे भपित्ता' सर्वत समन्ताद् मुण्टा मृवा-सर्वत सावद्यव्यापार(अप्पेगइया) कितनेक (अद्वविणिन्छयहे) जीव अजीप-आदि पदार्थों के स्वरूप को निश्चय करने के लिये, तथा (अयाट मुणेसामो) आगम के रहस्य जो पहिले कभी सुनने में नहीं आये हे उन्हें सुनेगे, और (मुयाइ निस्सफियाद करिस्सामो) जो आगम के रहस्य सुने है उन्हें यका रहित करेंगे इस प्रकार की भावना से, (अप्पेगइया) और कितनेक (अट्ठाई हेऊइ कारणाद वागरणाइ पुच्छिस्सामो) जाव अजीव आदि नव तत्वरूप भायों को, जीवादिक के स्वरूप के माधफरूप हेतुओं को, अन्यथानुपपत्तिरूप कारणों को, एव पर के द्वारा पूछे गये अर्थ के उत्तररूप व्याकरण को पूछेग इस प्रकार की भावना से, (अप्पेगइया) कितनेक (सचओ समता मुडे भवित्ता आगाराओ अणगारिय पन्धनहि थी तभने ना भाटे, अप्पेगडया ) सा ( अविणिन्छयहेउ ) ७०५-२५०१ मा पार्थाना २१३५न। निश्चय न्याने भाट तथा (अस्सुयाइ सुणेस्सामो) मागमना स्य पडसा ही सामन्या नहाता ते सामणY, तथा (सुयाइ निस्सकियाइ करिस्सामो) २ भनु २७२५ मासन्यु तेने A२हित ४२शु थे ५४१२नी लानाथी, (अप्पेगइया) तयाटमा (अट्ठाइ देऊई कारणाइ वागरणाइ पुच्छित्सामो) ७१ २०७१ मा नपतत्प३५ लावाने,' જીવ આદિકના સ્વરૂપના સાધ૩૫ હેતુઓને, અન્યથાનુપત્તિ રૂપ કારણેને તેમજ બીજા દ્વારા પૂછાતા અર્થના ઉત્તરરૂપ વ્યાકરણને પૂછશુ–એ પ્રકારની ભાવ नाथी, (अप्पेगइया) 1 (सव्यओ समता मुडे भवित्ता अगाराओ अणगा Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकवरे प्पभिइओ अप्पेगडया बंदणवत्तियं अप्पेगडया प्रयणवत्तियं एवं सकारवत्तियं सम्माणवत्तियं दंसणवत्तियं कोऊहलवत्तियं, अप्पेपरिच्छेद्यरूपकेयविक्रेयवस्तुजातमादाय लाभेच्छया देशातराणि बजता सार्थ वाहयन्ति योगक्षेमाभ्या परिपालयन्तीति, दीनजनोपकाराय मूल्धन ढत्या तान समर्मयन्तीति तथा, एत. स्प्रभृतय , एपु-'अप्पेगइया' अप्येकके-केचित्-'पदणरत्तिय चन्दनवृत्तिकम्-वन्दनाय वृत्ति =प्रवृत्तियस्मिन् कर्मणि तत् तथा, क्रियाविशेषणमिद, वन्दनार्थमि यर्थ , 'अप्पेगइया' अप्येकके केचित् 'पूयणवत्तिय' पूजनवृत्तिकम्-सेवाकरणार्थम्, 'सकारवचिर्य' सत्कारवृत्तिकम्-सत्कारार्थम्, 'सम्माणवत्तिय' सम्मानवृत्तिकम्-सम्मानार्थम्, 'दसणवत्तिय' दर्शनवृत्तिकम्-दर्शनार्थम्, 'कोऊहलवत्तिय ' कौतुहलवृत्तिकम्-कौतूहलार्थम् घी, तेल आदि वस्तुओं को, तथा-परिच्छेद्य-कसौटी आदि पर परीक्षा करके खरीदने वेचने __ योग्य मणि, मोती, मूगा, गहना आदि वस्तुओं को लेकर नफा के लिये देशान्तर में जाने वाले सार्थ (समूह) को ले जाते हैं, तथा योग (नयी वस्तु की प्रामि) और क्षेम (प्राप्त वस्तु की रक्षा ) के द्वारा उनका पालन करते है, गरीनों की मलाई के लिये उन्हें पूंजी देकर व्यापार द्वारा उन्हें धनवान बनाते है, वे मार्थवाह कहलाते हैं, ऐसे सार्थवाह लोग, इनमें से-(अप्पेगदया) कितनेक (वंदणवत्तिय) वन्दना करने के लिये (अप्पेगइया) कितनेक (पूयणवत्तिय) सेवा करने के लिये, (एव) इसी तरह (सकारवत्तिय) सत्कार करने के लिये, (सम्माणवत्तिय) समान करने के लिये, (दसणवत्तिय) दर्शन करने के लिये, (कोऊहलवत्तिय) पहिले कभी भी भगवान को नहीं देखे थे, अत उनको देखने के लिये, માપીને ખરીદવા વેચવાગ્ય દૂધ, ઘી, તેલ આદિ વસ્તુઓ તથા પરિચ્છેદથ કટી આદિ ઉપર પરીક્ષા કરીને ખરીદવા વેચવા ગ્ય મણિ, મેતી, પરવાળા, ધરેણા આદિ વસ્તુઓ લઈને નફે કરવા માટે દેશાતરમાં જવાવાળા સાર્થ (સમૂહ)ને લઈ જાય છે, તથા પેગ (નવી વસ્તુની પ્રાપ્તિ) અને ક્ષેમ (પ્રાપ્ત વસ્તુની રક્ષા) દ્વારા તેમનું પાલન કરે છે, ગરીબના ભલા માટે તેમને પુજી દઈને વ્યાપાર દ્વારા ધનવાન બનાવે છે તે સાર્થવાહ કહેવાય છે એવા मेला सार्थवाड , अभाना (अप्पेगड्या) मा (वदणवत्तिय) 480 ४२१॥ भाट (अप्पैगइया) मा (पूयणवत्तिय) सेवा ४२१॥ भाटे, (एव) मेवी रीत (सकारवत्तिय) सार ४२१। भाटे (सम्माणवत्तिय) सन्मान ४२११ भाटे (दसणत्तिय) शन ४२५१ भाटे (कोहलवत्तिय) पहेदा वा ५९ लगवानन नया Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषपणो टीका ३८ भगवद्दर्शनार्थ जनोत्सुक्यम ३५९ पायच्छित्ता, सिरसा कंठे मालकडा आविड-मणि-सुवण्णा कल्पियहार - जहार - तिसर - पालंच - पलंगमाण - कडिसुत-सुकय सोहाभरणा पवर- वत्थ - परिहिया चंदणो- लित्त - गाय-सरीरा, अप्पेकृत कौतुक = मपपुण्डादिक, मङ्गल - दध्यक्षतादि एतदद्वय प्रायवित्त तु स्वप्नादिप्रगमनत्वेनावश्यकरणायचाद्यैस्ते तथा, कौतुकमङ्गलरूप प्रायश्चित्त कृतवन्त इत्यर्य । 'सिरसा कठे मालडा ' गिरसिक कृतमाला 'जाविद्ध-मणि - सुवण्णा' आविद्र-मणिसुचगा - परिभृतमगिकनकभूपणा, भूषणान्येव नामभिर्निर्दिशति - कप्पिय-हार-द्वहारतिसर- पालव - पलं माण-कटियुत्त-मुकय-सोहाभरणा' कल्पित-हारा -ऽर्द्धहार- निसरप्रालम्बम्बमान-कटिसूत्र - सुकृत - शोभाऽऽभरणा, तन-हार अर्द्धहार त्रिसरकश्व प्रसिद्ध तथा प्राम्य झुम्नकस एन प्रलम्नमान यत्र तत् कटिसूत्र च तानि सुकृतगोभानि आभरणानि कल्पितानि - मृतानि यैते तथा विविधभूषणभूषितगरीग इत्यर्थ, तथा - ' पवर-बत्थ परिहिया' प्रवयवपरिहिता श्रेष्ठधारका, 'चदणी- लित्त - गाय सरीरा' चन्दनो-लिप्त - } -रारा-चन्दनचचितगगग | 'अप्पेगड्या' अध्येकh - 'हयगया एव गयगया रहगया मपानिलक दधि अक्षत आदि धारण किये, (सिरसा कठे मालकडा आविद्ध-मणि-मुत्रण्णा) मस्तक एन कठ में माला धारण किये, जिनमें मगि जडे हुए है ऐसे सुवर्णों के आभूषण पहिन, तथा (कप्पिय-हार-द्धहार-तिसर- पालन- पलवमाण- कटिसुत्त-सुकयसोहा भरणा ) शरीरगोभावर्द्धक अठारह ला के हार, ९ लर के अर्धहार, तीन लर के तिसरफ, और नीचे का ओर लटकते हुए झूमके वाले कटिसून पहिरे, (पवर-त्य-परिहिया) अच्छे २ सुन्दर हुमूल्य वस्त्र पहिरे, (चरणो - लित्त - गाय सरीरा) शरीर पर चन्दन लगाये, जन इस प्रकार वहाँ को जनता सज-धज कर तैयार हो चुकी तब उसमे से (अध्या) किननेक (चलने के लिये), (हयगया) घोडों पर सवार हुए, (एव गयगया) मालका आदि मणि- सुरण ) मस्त तेभन उभा भातासो धारण उरी, नेमा भणि डेला होय सेवा सुवर्शना आभूषण पहेर्या, तथा (कप्पिय हार-द्ध हार - तिसर - पालय - पलनमाण - कटिसुत्त-सुकय-सोहाभरणा) शरीरशालावध४ मढार पर (सट) ना हार, ૯ માઁના અહાર, ત્રણ સરના હાર, નીચેની તરફ सटता भूभभावाजा उटिसूत्र पहेर्या, ( पवर-त्य - परिडिया ) सारा साश सुन्दर महुमूल्य वस्त्रो पहेर्या, ( चदणो-ल्लित्त - गाय सरीरा ) शरीर पर ચંદન લગાવ્યુ જ્યારે આ મારે ત્યાની જનતા મજીને તૈયાર થઇ गई त्यारे तेभावी ( अपेगइया ) उसी व्यासवा भाटे ( हयगया ) वोडा Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ औपपातिकसने अगाराओ अणगारियं पव्वइस्सामो, [अप्पेगइया] पंचाणुव्वडयं सत्तसिम्खावडयं दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवजिस्सामो, अप्पेगइया जीयमेयंति कटु पहाया कयवलिकम्मा कय-कोउय-मंगलपिरतिपूर्वक मुण्टिता --पृतकालमना सम्पद्य 'जगारामी अणगारिय पच्चइम्सामो' अगा राद्-गृहाद् अनगारिकता साधुव प्राजिप्याम प्राभ्याम --अनगारा भविष्याम , अप्पेगडया' अप्येकके 'पचाणुव्बइय सत्तसिक्सापटय वासविह गिहिधम्म पडिवनिस्सामा' पञ्चानुवतिक मतशिक्षावतिक द्वादयविध गृहिधर्म प्रजिष्याम , 'अप्पेगडया' अप्येक:'जिण-भत्ति-रागेण ' जिनभक्तिरागेग, 'अप्पेगटया' अभ्येकके, 'जीयमेयति कट्ट' जातमेतदिति कृवा-कुलाचारोऽयमिति मना, 'हाया' स्नाता-'कयालिसम्मा' कृतबलिरमाग , 'कय-कोउय-मगल-पायच्छित्ता' रत-कौतुक-मगल-प्रायश्चित्ताइस्सामो) सावध व्यापारा से सर्वथा विरत होकर, कालुचनपूर्वक गार्हस्थिक अवस्था का परित्याग कर अनगार बनेगे-दस प्रकार की भावना से, तथा कितनक-(पचाणुव्वक्ष्य सितसिवावदय दुवालसविह गिहिधम्म पडियजिस्सामा) पाच अणुव्रत एव सात शिक्षाव्रत के भेद से १२ भेटरूप गृहस्थ के धर्म को स्वीकार करेग-इस भावना से, (अप्पेगइया) कितनेफ (जिगभत्तिरागेण) जिनन्द्र की भक्ति करेंगे इस प्रकार भक्ति के अनुराग से, (अप्पेगडया,) कितनेक (जीयमेयत्ति कट्ट) यह हम लोगों का कुलाचार है-इस प्रकार मान कर, (हाया) स्नान किये, (कयालिफम्मा) काक आदि को अन्नादि दान रूप बलि कर्म किये, (फय-कोउय-मगल-पायच्छित्ता) दुम्वमादि निवारण के यि रिय पव्वइस्सामो) सावध व्यापाशथी भर्वथा विरत यन शयन ગાઈશ્વક અવસ્થાને પરિત્યાગ કરીને અનગાર બનશે–એ પ્રકાગ્ની ભાવ नाथी, तथा 325 (पचाणुवइय सत्तसिरसावइय दुवालसहि गिहिधम्म पडिवज्जिस्सामो) पाय मानत तेभर मात शिक्षायतन लेयी १० ले ३५ डायना भनी स्वी२ ४२शु मेवी भावनायी, (अप्पेगइया) उमा (जिगभत्तिरागेण) जिनेन्द्रनी मति २शु से डरनी मतिना मनुगमथी, •(अप्पेगइया ) 32613 ( जीयमेयति कट्ट) PAN सभा। साया - प्रा की मान्यताथी, (व्हाया) स्नान ४री (कय-नलि-कम्मा) 31 माहिने मत माहवान३५ पलिम ४३, (कय-कोउय-मगल-पायच्छित्ता) दुवनाहि निवा२९ भाटे मसी ति: ४ी थापा माघार ४री, (सिरसा कठे Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोquefपणी-टोका सू ३८ जनाना भगवदर्शनार्थ गमनम् ३६१ मझेणं णिग्गच्छंति, णिग्गच्छित्ता जेणेव पुण्णभडे चेइए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते छत्ताईए तित्थयराइसेसे पासंति, पासित्ता जाणवाहणाई ठति, ठवित्ता जाणवाहणेहिंतो पञ्च्चोरुहंति, पञ्चोरुहित्ता जेणेव चम्पानगरा महाकोलाहलमयी उर्वत, 'चंपारणयरीए' चम्पायानगया 'मज्झ-मज्झेण ' मध्यमव्येन सर्वतो मध्यमार्गेग 'णिग्गच्छति' निर्गच्छन्ति 'णिग्गचित्ता' निर्गय 'जेणेव पुण्णभद्दे चे' यौन पूर्णभद्र चैयम्, 'तेणेव उपागच्छति' तनैनोपाग उन्ति, 'उनागच्छित्ता' आगय, 'समगस भगवओ महावीरम्स अदूरसामते ' श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अदूरसमीप- 'उत्ताईए तित्वयराइसेसे पासति' उत्रादान तीर्थकगतिशेषान्तीयकगतिशयढ्योतकानि कानिचिच्छनादीनि चिह्नानि पश्यन्ति, पासिता दृष्ट्वा ' जाणवाहा ठति' याननानानि स्थापयन्ति, 'ठविता ' स्थापयित्वा 'जाणवाहणेहिंतो भित महासमुद्र के महाव्वनि से मानो युक्त करते हुए, (चपाए णयरीए) उस चपा नगर। क (मज्झमज्झेग) ठीक बीचो बीच के मार्ग से (णिगच्छति) निकले, (णिगाच्छित्ता) ये निकलकर ( जेणेव पुण्णभदे वेइए) जहा पर वह पूर्णभद्र नामका उद्यान था (तेव उवागच्छति) वहाँ पर पहुँचे, ( उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामते छत्ताईस तित्थयराइमेसे पासति) वहाँ पहुँच कर उन्होने भगवान् महाचोर के न अनिदूर और न अतिनिकट तीर्थंकरों के अतिशय स्वरूप छत्र आदिकों को देखा, ये उत्रादक तीर्थंकर के अतिशय धोतक चिह्न माने गये हैं, (पासिता जाणवाहणाई ति) इन चिन्हों के देखते ही उन सबों ने अपने २ यानवाहनादिकों को वहाँ रोक " ܕ प्रक्षुभित भडाभमुद्रना महाध्वनिधी प्रेम युक्त डरता होय तेभ (चंपाए जयरीए) ते थथा नगगनी (मज्झमज्झेण) रामर वयोवस्थना भार्गथी (निगच्छंति) नीउज्या ( णिच्छित्ता) ते अधा नीडजीने (जेणेव पुण्णभद्दे चेइए) क्या ते धूर्युलद्र नाभनु धान हेतु (तेणेन आगच्छति) त्या होन्या, ( आगच्छित्ता समणस्स भगवओ महानीरस अदूरमामते उत्ताईए तित्ययराइसेसे पासंति) त्या पडोचीने तेथे ભગવાન મહાવીન્થી બહુ દૂર નહિ તેમ તીર્થંકરના અતિશયસ્વરૂપ છત્ર આદિને તૈયા, આ છત્ર આદિક તીર્થંકરાના અતિશયદ્યોતક ચિત્ર મનાય छे, (पासित्ता जाणवाहणाइ ठोंति ) मे थिहोने नेता જ તે બધાએ પાત Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० औvarfrea गइया हयगया एवं गयगया रहगया सिवियागया संदमाणियागया अप्पेगइया पाय - बिहार - चारिणो पुरिस वग्गुरा-परिक्खित्ता महया उकिट्टि - सीह - णाय - बोल - कलकल रखेणं पक्खुविभय- - महासमुह-रव-भूयं पिव करेमाणा चंपाए णयरीए मज्झं सिनियागया सरमाणियागया' हयगता एव गजगता स्थगता गिरिकागता स्यन्दमानकागता -तत्र कोपरि दत्ता गिनिकैन स्यन्दमानिका, 'अप्पेगइया' अप्येकके 'पायविहार चारिणो ' पादविहार चारिण 'पुरिसनगुरापरिविवत्ता' पुरुषवागुरापरिक्षिता -- पुरुषममूहेन परिवेष्टिता, 'महया' महता 'उकिट्टि -सीहणाय-बोल- कलकल-रवेण ' उत्कृष्टि-सिंहनाद - बोल -- फलफल - रवेण - उकृष्टि = आनदमहापनि सिंहनाद = प्रसिद्ध, बोल = व्यक्तिसहितो ध्वनि, कलकल व्यक्तिरहितो व्यनि, एपा समाहार, तदेव योग्य स तथा तेन, 'पक्खुभिय- महासमुद- रवभूय पित्र ' प्रक्षुमित- महासमुद्र - रवभूतमिव-प्रक्षुभितमहासमुद्रस्य यो रवभूत = सजातन्त्रस्तमिव तद्वत् नगर 'करेमाणा' कुर्वन्त - 1 इसी प्रकार कितनेक हाथी पर आरूढ़ हुए, (रहगया) कितनेक रथों पर बैठे, (सिवियागया) कितनेक पालखियों में चढे, (सरमाणियागया) कितनेक बहेलियों-पालकीविशेष में बैठे, (अप्पेगइया) तथा कितनेक (पुरिस - वग्गुरा-परिक्खित्ता) पुरुषों के समूह से घिरे हुए होकर (पाय - बिहार - वारिणो) पैदल ही निकले, ये सभी (महया) महान् (किट्टि - सीहणाय- बोल - कलफल - रवेण ) 'उकिति' - उत्कृष्टि- अतिशय आनन्द जनितध्वनि से, (सीहणाय) सिंहनाद - सिंहनाद से, 'बोल' - व्यक्तवर्गयुक्त ध्वनिसे, तथा 'कलकलरव ' --अन्यक्त ध्वनि से ( पक्खुभिय- महासमुह - रवभूय पित्र) चभ्यानपरी को प्रक्षु भवार थया ( एव गयगया ) या प्रारे डेंटला हाथीपर माइढ थया (रहगया) ईटला २६ उपर मेहा (सिबियागया ) डेटवाङ पासमीमोभा थरया ( सदमानियागया) डेंटला पासपोविशेषोभा जेठा, (अप्पेगइया) तथा डेटसा ( पुरिम-गुरा-परि+िसत्ता ) योना टोला भाये धीमे-धीमे पगले ( पाय बिहार - वारिणो ) पेस नीडल्या, था अधा (महया) भडान (उक्किट्टि सीह णाय-बोल - कलकलरवेण ) 'उक्किट्टि त्रृष्टि-यातिशय मानह भक्ति ध्वनिथी, (सीहणाय) सिनाह - सिउनाहथी, (गेल) व्यक्तवाशुयुक्त ध्वनियों तथा (कल क्लख ) अव्यक्त ध्वनिया ( पक्खुभिय- महासमुद्द खभूय पिव) यया नगरीने Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूपयषिणो-टीका सू ३९ प्रवृत्तिव्यापृतात कृणिकम्य भगवदागमनशानम् ३६३ मूलम्-तए णं से पवित्तिवाउए इमीसे कहाए लद्ध? समाणे हह-तुह-जाव-हियए पहाए जाय अप्प-महग्या-भरणा टीका-'तए ण से पवित्तिवाउए' इत्यादि । । ..., 'तए णं से परित्तिवाउए ' तत सल्ल स प्रवृत्तिव्याप्त =भगवद्विहारादिवृत्तान्तनिवेदनेऽधिकृत , 'इमीसे कहाए लढे समाणे' अस्या कथाया लधार्थ सन् 'हट्टतुद-जाव-हिया' हट-तुष्ट-यावढय 'हाए जाव अप्प-महग्या-भरणा-लंकियसरीरे स्नातो यावदन्पमहाघाभरणाऽलकृतगरीर 'सयाओ गिहाओ' स्वकाद् गृहात् 'पडिणिकर चुकने वाढ फिर उस आगत जनसमूहने (पदति नमस्सति) वन्दना एवं नमस्कार किया, (वदित्ता णमस्सित्ता पच्चासण्णे णादूरे सुस्मसमाणा णमसमाणा अभिमुहा विगएण पजलिउडा पज्जुवासंति) वदना ण्य नमस्कार करने के पश्चात् भगवान से न अतिसमीप में पर न अतिदूर ही उनके सामने उचित स्थान पर बैठ कर वे सब विनयपूर्वक हाथ जोडकर सेवा करने लगे । सू ३८ ॥ 'तए ण से पवित्तिवाउए' इत्यादि । (तए पा) इस के बाद (से पवित्तिवाउए) वह भगवान के विहार आदि के समाचार लाने मे नियुक्त किया हुआ व्यक्ति, (इमीसे कहाए) इस कथासे-भगवान के आगमन के वृत्तान्त से (लद्धडे समाणे) परिचित होकर, (हट्ठ-तुट्ठ-जाव-हियए) अपने अन्त करण में विशेषरूप से हर्पित एव र'तुष्ट हुआ, फिर उसने (हाए जाव अप्प - महग्घा - भरणा - लकिय - सरीरे) स्नान किया, पश्चात् थोडे भभूडे (वदति णमस्सति) पहना तेभर नभ२४।२ अर्या, (वदित्ता णमरिसत्ता णचासणे गाइदूरे सुस्सममाणा णमसमाणा अभिमुहा विणएण पजलिउडा पज्जुवासति) पहना तेभ नभन्२ ४ा पछी भगवानथी गई ६२ नहि तम पहु સમીપ નહિ એમ તેમની સામા ઉચિત સ્થાન પર બેસીને તે બધા વિનયપૂર્વક હાથ જોડીને સેવા કરવા લાગ્યા (સૂ ૩૮) 'तर ण से परित्तिवाइए' छत्यादि (तए ण) त्या२ पछी (से परित्तिवाउए) ते मशवानना विडा२ माहिना समाया सा भाटे नियुकत ४२८ भास (इमीसे कहाए) मा वातथीसापानना मागभनन। वृत्तान्तथी (लद्धटे समाणे) परिस्थित थईन (हट्ठ-तुट्ट जावहियए) पोताना भात ४२मा विशेष३५थी उर्षित तभ० सतुट थयो पछी तणे (हाए जार अप्प महग्या भरणा-लकिय सरीरे) स्नान उयु पछी थोडालाराणा तथा Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ memendon থামিষ समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेंति, करिता वदति णमस्तंति, वंदित्ता णमस्सित्ता णञ्चासण्णे णाइदूरे सुम्सूसमाणा णमंसमाणा अभिमुहा। त्रिणएणं पंजलिउडा पज्जुवासंति ॥ सू० ३८॥ पचोरहति' यानवाहनेभ्य प्रयवरोहन्ति-अवस्तादयतरन्ति, 'पचोहित्ता' प्रयवरय, 'जेणेव समणे भगव महावीरे' यव श्रमणो भगवान महावीर [विराजते] 'तेणे उवागच्छन्ति, उबागच्छित्ता' तत्रैवोपागच्छन्ति, उपाग य 'समण भगवं महागीरं तिक्खुतो आयाहिणं पयाहिणं करेंति' श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य त्रिकृच आदक्षिण प्रदक्षिण कुर्वन्ति--रिवारमादक्षिगप्रदक्षिण कुर्वन्ति, 'करित्ता' वा 'वंदति' बन्दन्ते-स्तुपति, 'मसति' नमस्यन्ति-प्रणमन्ति, 'वंदित्ता णमस्सित्ता' वन्दिया नमस्यि वा 'णचासणे माइरे' नात्यासन्ने नातिदूरे 'मुस्सुसमाणा' शुश्रूपमाणा 'गमसमाणा' नमस्यन्त 'अभिमुहा' अभिमुसा समुसा , 'विगएणं पंजलिउडा' विनयेन प्राञ्जलिपुटा -पिनय-- विनम्रबद्वाञ्जलय , 'पज्जुरासति' पर्युपासते-उपासना कुर्वन्ति ।। सू०३८ ।। दिये, (ठवित्ता जाणवाहणहितो पचोरुहति) जब वे अच्छी तरह रक चुके तब वे सबके सन अपने २ वाहनों से नाचे उतरे, (पचोरुहिता जेणेव समणे भगव महावीर नेणेव उवागच्छति) उतर कर फिर वे सब लोग जहाँ श्रमण भगवान महावीर विराजमान थे वहाँ पहुँचे, (उधागच्छित्तासमण भगव महावीर तिक्खुत्तोआयाहिण पयाहिणकर ति) बाद उन्होंने भगवान् महावीर को तानबार हाथ जोडकर प्रदक्षिणा की, (करित्ता) प्रदक्षिणा घोताना, या त्या जी, या, (ठवित्ता जाणवाहणेहितो पचोरु हानि) क्यारे ते ..मारी, शत १ गया सारे मा पातपाताना पानामाथी नीय - Gl, ,(पच्चोरुहित्ता जेणेव समणे भगव महावीरे तेणेव ति) तीन ५०- REAL श्रम भगवान महावीर मिश भान ता त्या पक्षाच्या (मानच्छिता ममण भगव महागीर तिम्खुत्तो आया हिण पयाहिण करेंति), ६ तेमाणे लगवान महावीरने जापार थान प्रक्षिा से (करित्ता) प्रक्षिा 1 सीबा पी जीते..... ... Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूपरपिणो-टोमा म ३९ कृणित प्रवृत्तिव्यापृतमत्कार ३६५ व्वया जाव णिसीयड, णिसीडत्ता तस्स पवित्तिवाउयस्स अद्धतेरस-सयसहस्साई पीडदाणं दलयड, दलइत्ता सकारेड सम्माणेड सकारिता सम्माणित्ता पडिविसजेड ॥ सू०३९ ॥ तत्रोपविश्य यापन 'नमोऽत्युणं पटति 'जाव' यावत मिहामने 'णिसीयः' निपीढति-उपपिअति, 'णिसीदत्ता' निपद्य-उपविश्य, तस्स पवित्तिवाउयस्स नद्धत्तेरससयसहस्साद पीटदाण दलयड' तस्मै प्रवृत्तिन्यापृताय अत्रयोदशशतसहस्रागि प्रतिठान ददाति-सार्द्धद्वान्गगतमहवागि गजतमुद्रा प्रीतिदान-पारितोषिक समर्पयति । 'श्रमणो भगवान महाचीरस्वामी चम्पानगया उपनगरग्राममुपागत चम्पानगर्ग पूर्णभद्रचैय समवमर्तुकाम' उनि निवेदित प्रगृत्तिव्यामृतेन, अतस्तदाऽष्टोत्तरेकल क्षग्यक गजतमुद्रारूप प्रातिदान प्रदत्तम् । अत्र तु अन्यामेव चम्पानगयाम् अतिमनिकृप्टे स्थाने पूर्णभद्रचैये समवसृत-इति वार्ता निवेदिता, अतो हपातिगयादेतहाििनवेदने सार्धद्वादशलक्षराजतमुद्रारूप प्रीतिनान प्रवृत्तिन्यापृताय दत्तम्-इनि भाव । 'ढलइत्ता सकारेट सम्माणे' दत्वा मकारयति-पत्रादिनान, सम्मानयति-प्रियवचनेन, 'सकारिता सम्माणित्ता पडिविसने' सकृय सम्मान्य प्रतिरिमर्जयति ॥ सू०३९ ॥ वे एकदम मिहामन से उठ के खडे हुए और नीचे उतरकर जिस दिया में भगवान गिराज___ मान थे, उस दिशा की ओर, सात आठ पग जाकर और बैठकर पिपिपूर्वक "नमोत्यण" लिये। बाद सिंहासन पर बैठे, (णिसीदत्ता तरस पवित्तिवाउयस्स अद्धत्तेरस-सयसहस्साह पीटढाण दलयद) वैठ कर उन्होंने उस मदेशनाहक क लिये माढे बारह लाग्य चादा का मुद्राओं का प्रीतिदान-पारितोषिक प्रदान किया, (दलदत्ता) प्रातिदान देकर उन्हाने (सकारेद) उसका सकार किया (सम्माणेट) मधुर वचना से सन्मान किया । टस प्रकार (सकारिता समाणित्ता) मकार एव सन्मान करके उन्हाँ न उसे (पडिपिसज्नेह) જઈ તેઓ એકદમ સિંહાસનેથી ઉઠીને ઉભા થયા તથા નીચે ઉતરીને જે દિશામાં ભગવાન વિરાજમાન હતા તે દિશાની તરફ સાત આઠ પગલા જઈને मेसीने विधिपूर्व " नमोत्यु ण" हीधु माह मिडासन५२ २४१, (णिसीडत्ता तस्स पवित्तिवाउयस्स अद्वरत्तेससयसहस्साइ पीइदाण दलयइ) अमीन તેઓએ તે આ દેશવાહકને માટે સાડાબાર લાખ ચાદીના સિકકાઓનું પ્રીતિहान-पारितोषिक महान ज्यु (दलइत्ता) प्रीतिहान मापाने तयारी (सरकारेइ) तेने मा२ ठयो, (सम्माणेइ) मधु२ क्यनाथी सन्मान ४यु मा प्रा Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ L औपपातिसूत्रे लंकिय- सरीरे सयाओ गिहाओ पडिणिस्खमड, पडिणिक्खमित्ता चंपायरिं मझमज्झेणं जेणेव बाहिरिया सा चैव हेहिला वतचखम पडिगिक व मित्ता' प्रतिनिष्कागति, प्रतिनिष्धन्य,'चपागयरिं मन्यंमज्जेण 'चम्पानगया मध्यमध्येन, 'जेणेव बाहिरिया'यनैव बाला उपस्थानमा ना.' सा ने हेडिया त्तिव्या संवा धस्ताद वक्तयता, अर्थात्-नैन राज कोगिक ग्रह यागिको राजा भम्भमारपुनन्त पागच्छति, उपाय करतरपरिगृहीत गिरभावतं मस्तकेsafe कृपा जयेन विजयेन वर्धयति, वर्धयिला एवमवादीत् = भगवत ममनसरण सविस्तर निगदितवान् तदनु भूपो भगवदागमन त्वा तु सन् सिंहासनादु याय गजचिह्नानि परिभाष्टपदानि गना भार वाले तथा बहुमूल्य आभरणों से अलग्न गरीर होकर (सयाओ गिहाओ पडिfuran) अपने घर से निकला (पडिणिक्यमित्ता) निकलकर (चपाणयरिं मज्झमण ) ठीक चपा नगरा के बीचोनीच मार्ग से होता हुआ, (जेणेव बाहिरिया सा चैव हेट्टिला aroor जार सिया) जहा नीचे बाहिर का ओर उपम्यानमाला थी, एच जहा राजा कोगिक का ग्रह था, तथा जहा पर वे विराजमान थे, वहा पर यह पहुँचा, पहुॅचकर दोना हाथा को जोड़कर उसने कोणिक नरेशको सादर नमस्कार किया, पश्चात् आपकी जय हो और विजय हो - इस रूपसे उन्हें बधाई दी। बधाई दे चुकने के अनन्तर फिर उसने 'ह राजन् ' आज श्रमण भगवान महावीर प्रभु चपानगरी के पूर्णभद्र उद्यान में समवसृत हुए है'इत्यादि विस्तृत रूप से भगवान् के समवसरण का वृत्तान्त कहा। राजा ने जब प्रभु के आगमन का वृत्तान्त सुना तब वे भी चित्त में अधिक प्रसन्न एव स्तुष्ट हुए । मारे हर्ष के महु भूत्यवाना भालरशोथी शरीरने शथुगारीने ते (सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमइ) घोताना घेरथी नील्या, (पडिणिक्खमित्ता) नीडजीने (चपाणयरि मज्झमज्झेण) रा भरच भानगरीनी वस्थवस्थ भागे थधने (जेणेव बाहिरिया सा चैव हट्ठिल्ला चन्त व्वया जाव णिसीयइ ) क्या नीचे महारनी तर ते उपस्थानभासा हुती तेन क्या રાજ્ય કણિકનું ગૃહ હતુ તથા ત્યા તે વિરાજમાન હતા ત્યા પહેાએ, પહેાચીને અને હાથ જોડીને તેણે કૈાણિક નરેશને સાદર નમસ્કાર કર્યા પછી આપની જય થાવા તથા વિજય થાવા એ રૂપે તેણે વધાઇ આપી વધાઈ દઈ ચુયા પછી તેણે કહ્યુ, હું રાજન્ ' આજે શ્રમણુ ભગવાન મહાવીર પ્રભુ ચપાનગરીના પૂર્ણ ભદ્ર ઉદ્યાનમા સમવયુક્ત થયા છે આ પ્રકારે તેણે વિસ્તૃતરૂપથી ભગવાનના સમવસરણના વૃત્તાન્ત કો રાજાએ જ્યારે પ્રભુના આગમને વૃતાન્ત સાભળ્યો ત્યારે તે પણ મનમા બહુ પ્રસન્ન તેમજ સતુષ્ટ થયા આનંદમાં આવી Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६७ यषषषिणी-टीका स ४० कृणिकस्य भगघदर्शनार्थमुद्योग पया । आभिसेकं हत्थिरयणं पडिकप्पेहि, हय-गय-रह-पवरजोहकलियं च चाउरंगिणिं सेणं सण्णाहेहि, सुभदापमुहाण य देवीणं वाहिरियाए उवहाणसालाए पाडियकपाडियकाई जत्ताभिमुहाई जुत्ताडं जाणार्ड उवहवेहि, चंपं च णयार सब्भिपडिकप्पेहि आभिपेक्य हस्तिन्न परिकल्पय-पहस्तिग्न मन्जित कुरु, 'हय-गय-रह-पवरजोह-कलियं च चाउरंगिगि सेण सण्णाहे हि' हय-गज-रथ-प्रवग्योध-कल्तिा च चतुरङ्गिगी सेना मनाहय सुसजिता कुरु, 'मुभहापमुहाण य देवीण' मुभद्राप्रमुग्वानाच्च देवानाम् 'बाहिरियाए उवट्ठाणसालाए' याह्यायामुपस्थानगालायाम्, 'पाडियकपाडियकाई' प्रत्येकप्रयेकानि-सवासा पृथक् पृथक् 'जत्ताभिमुहार' यात्राभिमुखानिगमनार्थमुद्यतानि, 'जुत्ताई' युक्तानियोजितरलीवानि 'जाणाइ' यानानि धार्मिकरथान 'उवट्ठवेहि' उपस्थापय सजीकृय समानय, 'चय च णयरि सब्भितरवाहिरिय' मेव भो देवाणुप्पिया) ह देवानुप्रिय ! शीघ्र ही (आभिसेकं हत्थिरयणं पडिकप्पेहि) तुम पट्टहस्तिरत्न को सन्जित करो, (हय-य-रह-पवरजोह-कलिय च चाउगिणि सेणं सण्णाहेहि) साथ में घोडौ, हाथियों, रथों एव उत्तम योधाओं से युक्त चतुरंगिगी सेना को भी सुसज्जित करना, तथा (मुभद्दापमुहाण य देवीण वाहिरियाए उवद्वागसालाए) सुभद्राप्रमुख देवियों के लिये भी बाहिर उपस्थानशाला मे (पाडियकपाडियकाइ) अलग २ रूप मे (जत्ताभिमुहाई) चलन में अच्छे (जुत्ताइ) एव अच्छे बैलों वाले (जाणाइ) धार्मिक रथों को (उवट्ठवेहि) सन्जित करके ले आओ। (चप च णयरिं सम्भि४-(सिप्पामेव भो देवाणुप्पिया) हे पानुप्रिय । शी ४ (आभिसेक्क हत्थिरयणं पडिक पेहि ) तमे पट्टन्तिरत्नने सति । (हय-य-रह-पवरजोह-कलियं च चाउरगिणिं सेणं सण्णाहेहि) मामा घोडा, डाथी, २थे।, तभन्न ઉત્તમ દ્ધાએથી યુક્ત ચતુર ગિણી સેનાને પણ સુસજ્જિત કરે તથા (मुभद्दापमुहाण य देवीण वाहिरियाए उमट्ठाणसालाए) सुभद्राप्रभु हेवीयाने भाट ५५ भारी थानशालामा (पाडियक्क-पाडियस्काइ) Pal Pan ३५मा (जत्ताभिमुहाइ) यासयामा मास ( जुत्ताइ) तेभर मा माया (जाणाइ) धार्मि: थाने (उपद्रवेहि) सनित शने समावो (चंप च णयरिं सम्भितरयाहिरिय) य पानगीने म ४२ तमः पाथी (आसित्त-सित्त Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - औषपातिको __ मूलम्-तए णं से कूणिए राया भंभसारपुत्ते बलवाउयं आमंतेइ, आमंतित्ता एवं बयासी-खिप्पामेव भो देवाणु टीका-'तए ण से हयादि। 'तए पतत गल से ऋणि राया भममारपुत्ते स कृगिको राजा भमसारपुन 'पलपाउय' वयात-से-बयापारपरायण-सेनापतिमि यर्थ , 'आमंतेद' आमन्मयनि-आनयति, 'आमंतित्ता' आमन्त्र्य आहय, 'एव वयासी'--एसयादीत्-'खिप्पामेव भो टेवाणुपिया' क्षिप्रमेर भो देवानुप्रिय ! 'आमिसेक स्थिरयण निदा किया। श्रमग भगवान महावीर स्वामो चपानगरी के उपनगरमाम में पधारे हुए है और वे चपानगरी के पूर्णभद्र उद्यान में पधारनेवाले है-इस प्रकार का समाचार कोगिक राजा को जर इस देशवाहक ने सुनाया था तब उस समय राजाने उसे पारितोषिक रूप में १ लाख चादी की मुद्राएँ दी थीं। परंतु जब उसने यह सबर, दी कि प्रमु चपानगरा के पूर्णभद्र उद्यान म पधार चुके है तर इस बात को सुनकर उहे अयत हर्षका आवेग बढा, और इस आवेग के प्रभार से उन्होंने उसे १२॥ लाग्य चाढी की मुद्राएँ दी ।।म० ३९॥ 'तए ण से कणिए राया' इत्यादि । (तए णं) इसके अनन्तर (भभसारपुत्ते) भभसार अर्थात् श्रेगिक का पुन ( से कृणिए राया) उम कृगिक राजा ने (चलवाउय) अपने बलव्यामृत-सेनापति का (आमतेइ) बुलाया, (आमतित्ता) बुलाकर (एव वयासी) इस प्रकार कहा--(खिप्पा (सरकारिता सम्माणित्ता) R२ सेभ सन्मान शने तमो तेने (पडिविस ) વિદાય કર્યો શ્રમણ ભગવાન મહાવીર સ્વામી ચ પાનગરીના ઉપનગર ગ્રામમાં પધાર્યો છે તથા તેઓ ચ પાનગરીના પૂણભદ્ર ઉદ્યાનમાં પધારવાના છે-એ પ્રકારના સમાચાર કેણિક રાજાને જ્યારે આ સ દેશવાહરે સ ભળાવ્યા ત્યારે તે સમયે રાજાએ તેને પારિતોષિકરૂપમાં એકલાખ આઠ ચાદીના સિક્કાએ આપ્યા હતા પરંતુ જયારે તેણે આ ખબર આપી કે પ્રભુ ચપાનગરીના પૂર્ણભદ્ર ઉદ્યાનમાં પધારી ચુક્યા છે ત્યારે આ વાત સાંભળી તેમને અત્યત હર્ષનો આવેગ વધ્યો અને આવેગના પ્રભાવથી તેમણે તેને ૧૨ साप यासीनी भाग मापी (स .३८)-- 'तए ण से कृणिए गया' इत्यादि . . . . Tag ण) त्यार ५ (भभसारपुत्ते), संसार अर्थात् पिता पुत्र से कृणिए राया) तेथि २२ (पल्याउय) पोताना व्याधुत-सेना पतिन (आमतेइ) माताया, (आमतित्ता), मालावीन (एच बयासी), Hard Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - पोपाषणो-टोका स ४० कूणिकस्य पलव्यात प्रत्यादेश करेहि य कारवेहि य, करेत्ता य कारवेत्ता य एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणाहि, गिजाहिस्सामि समणं भगवं महावीर अभिचंदिउं ॥ सू. ४०॥ ल्लोदय' इति देशीय गट, गोमयादिना भूमौ यद् लेपन सेटिकादिना कुड्यादिपु च यद् धरल्न तद् 'लाउल्लोइय' तेन महिताम्-मुनानाम्, 'गामीस-सरम-रत्तचरणजार-गंधवधिभूयं करेहि य गोगीर्ष-मरस-रक्तचन्दन-यापन-गन्धवर्तिभूता कुरु-गोगी - चन्दनविशेर्षे मरसरक्तचन्दनेन यावद गमतिमूता-समुपचितगधन्यख्या कुरु, 'कारवेहि य' कारय च, अन्यानपि तथा कर्तुं प्रेरय, 'फरेत्ता यकारवेत्ता य' कृनाच कारयिता च 'एयमाणतिय पचप्पिणाहितामाना प्रयर्पय, आजापिताऽर्थान् सम्पाद्य मह्य कथय, 'णिजाहिस्सामि समणं भगव महावीर अभिवंदिउ' नियास्यामि निर्गमिष्यामि अमण भगान्त महावीरममिपन्दितुम् ॥ स ४० ॥ और भीतों को खटी से पुतमाओ, (गोसीस सरस-रत्तचहा-नाव-गधट्टि-भूय) गोशीर्षचन्दन विशेप, एव सग्स रक्तचढन से समस्त नगर को सुगधित बनवाओ ताकि वह मुगंधपुज जैसा माल्टम पटन लगे। (करेहि य कारवेहि य) यह सब काम स्वय फगे तथा दूसरों को भी इस तरह करन के लिये प्रेरित कगे। (करेताय कारवेत्ता य) करके एव करवा करके(एयमाणत्तिय पञ्चप्पिणाहि) इस मेगे आना को पुन मुझे प्रयर्पित करो-आपकी आजानुसार सब काम हो चुके है इसकी मुझे सवर नो । (मिजाहिस्सामि समण भगव महावीर अभिवदिज) नाद में मै श्रमण भगवान महावीर की वन्दना के लिये निकला भीनने दीपावो मने मीताने मडीया पागा (गोसीस-सरम-रत्तचंदण जाय-गंधपट्टि-भूय) माशीप-यन विशे५ तेभर स२५ २४तय हुनथी समस्त નગરને સુગંધિત બનાવો જેથી તે સુગધપુજ જેવી જણાવા લાગે રે य कारवेहि य) मा मधु म तते ४२ तथा बीतने पg सेवी गते ४२वा प्रेरित हरी, (करेताय कारवेत्ता य) ४शन तमः सपान (एयमाणत्तिय पन्चप्पिणाहि) मा भाग माझाने पाव भने प्रत्यापित ७२।-मापनी मासानुभार मधु लाभ यूथ्यु छ अनी भने म ह (णिज्जाहिस्सामि समण भगव महानोर अभिवदिउ) मा श्रम लगवान भापोरनी पहना भाटे नीतीश (१ ४०) Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोपातिकत्रे -- -- - - - - - - - - - - - तरवाहिरियं आसित्त-सित-सुइ-सम्म-रत्यंतरा-वण-वीहियं मंचाइमंच-कलियं णाणाविह-राग-उच्छिय-ज्झय-पडागा-इपडाग-मंडियं लाउल्लोइयमहियं गोसीस-सरस-रत्तचंदण-जाव-गंधवट्टिभूयं चम्पा च नगरी साभ्य तनाताग, 'आसित्त-सित्त-मुह-संमट्ठ-रत्यतगवण-वीडिय' आसिक्त-मिक्त-शुचि-समृष्ट-रध्यान्तरा-उपग-वीथिकाम्-आसिक्तानि पतसितानि, सिक्तानि भूयसा जलन धौतानि अतण्व गुचानिपचितागि समष्टानि कचरापनयनेन सशोधितानि रथ्यान्तगणिग्ध्यामध्यानि आपणचीययश्च-हमा यस्या सा आमिक्त-सिक्ताशुचि-समृष्ट-रथ्याऽन्तराऽऽपग-वीयिका, ताम् , 'मचा-मच-गलिय' मक्षा-तिमञ्च करिताममञ्चा मालका दर्शकजनोपरेशनयोग्या , अतिमच्चा =मनोपरिमच्चा , तै कलिता--युक्ता ताम्, 'गाणाविह-राग-उन्छिय-ज्झय-पडागा-इपडाग-मडिय' नानाविध-रागो-प्कृितध्वज-पताकाऽतिपताका-मण्डिताम्-नानाविधरागा विविधपर्णा ये उच्छ्रिता ध्वजा , पताका. निपताका - पताका - वजाप्रवर्तिचेलाञ्चलानि, पताकामतिकान्ता अतिपताका -पताकोपरिवर्त्तिन्य पताका , ताभिर्मण्डिताम्-मुशोभिताम्-नानाविधवर्णसमुच्छ्तिपजपताफाऽतिपताकाभिर्मण्डितामित्यर्थ । 'लाउ-लोटय-महिय' लाउलोडयमहिताम्-'लाउ तरवाहिरिय ) चपानगरी को भीतर एव बाहिर से (आसित्त-सित्त-मुइ समठ्ठ-रत्यतरावणवीहिय) पहिले थोडे से जल से छिडकना कर पीछे अधिक जल से छिडकवाकर गलियों के एव बजारों के रस्ता को साफ-सूफ करवाओ और जहा भी कूडा-कर्कट पड़ा हो उसे झडवाकर माफ करवाओ, (मचा-इमच-कलिय णाणाविह-राग-उच्छिय-ज्झय-पडागा उपडाग-मडिय) मार्ग मे आजू-बाजू मचा पर मच जमवाफर लगवा दो, ताकि लोग उन पर अच्छी तरह से बैठ सके। अनेक रंगों की ऊँची २ ध्वजाएँ, पताकाएँ एव अतिपताकाए नगर भर म लगाओ, (लाउलोइयमहिय) जगह २ पर गोबर से जमीन को लिपवाआ सह-संमद्र-रत्थतरावण-धीहिय) पता थोडा पाहीना छ ४१ उशने की વધારે પાણી છ ટાવીને ગલિયેના તેમજ બજારેના રસ્તાઓને સાફસૂફ કરાવી, અને જ્યાં પણ ડ્રડા-કર્કટ (ચરેપૂ જે) પડયે હોય તેને ઝાડુ મરાવી સાફ કરાવે (मचा-इमव-कलिय णाणाविह-राग-उच्छिय-ज्झय-पडागा-इपडाग-मडिय) भाभा આજુબાજુ મ ચ ઉપર મ ચ ગોઠવાવી દે જેથી લોકો તેમના પર સારી રીતે બેસી શકે અનેક રોગોની ઉચી ઉચી ધજાઓ, પતાકાઓ તેમજ અતિ पता न१२लरमा साम। (लाउल्लोइयमहिय) aron गा५२ छाएथी Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोgraftणो-टोका सू ४० कूणिकस्य पल्ल्यात प्रत्यादेश: ३६९ करेहि य कारवेहि य, करेता य कारवेत्ता य एयमाणत्तियं पचपणाहि णिजाहिस्सामि समणं भगवं महावीरं अभिदिउं ॥ सु. ४० ॥ 3 लोय' इति देशीय गोमयादिना भूमौ यद् लेपन सेटिकादिना कुड्यादिषु च यह धवन तद् ' लाउलोडय' तेन महिताम् = महिनाम्, 'गोसीस सरम-रत्तचढणजाधव भूयं करेहि य' गोशीर्ष-मरम-रक्तचन्दन यावद् गन्धवर्तिभूता कुरु-गोगी: चन्दन विशेष सरसरक्तचन्दनेन यावद गन्यवर्तिभूता=समुपचितगन्धद्रव्यरूपा कुरु, 'कारवेहि य' कारय च, अन्यानपि तथा कर्तुं प्रेरय, 'करेत्ता यकारवेत्ता य' कृवाच कारयिनाच, 'एयमाणत्तिय पच्चपिणाहि ' एतामाज्ञा प्रत्यर्पय, आज्ञापिताऽर्थान् सम्पाद्य महा कथय, 'णिनाहिम्सामि समणं भव महावीर अभिवदिउ निर्यास्यामि = निर्गमिष्यामि श्रमण भगवन्त महावीरमभिनन्दितुम् ॥ सू ४० ॥ - और भीतों को सड़ी से पुतबाओ, (गोसीस सरस-रत्तच जाव-गधव-भूय) गोगीचदन विशेष एव सरस रक्तचंदन से समस्त नगर को सुगंधित बनवाओ ताकि वह सुगधपुज जैसा माहम पडन लगे । (करेहि य कारवेहि य ) यह सब काम स्वय कगे तथा दूसरों को भी इस तरह करने के लिये प्रेरित करो। (करेता य कारवेत्ता य) करके एन करवा ( यमाणतिय पचपणाहि ) इम मेरी आज्ञा को पुन मुझे प्रत्यर्पित करो - आपकी आज्ञानुसार सन काम हो चुके है इसकी मुझे सबर दो । ( णिज्जाहिस्सामि समण भगव महावीर अभिवदि) बाद मे मै श्रमण भगवान महावीर की बन्दना के लिये निकलगा ॥ सु. ४० ॥ 1 ४भीनने सीभावो ने लीताने मडीथी घोपावे (गोसीम-भरस-रत्तचंदण नाव-गधवट्टि भूय) गोशीर्ष-यन्दन विशेष तेभन्न सरस स्तथ हनथी भमस्त नगरने सुगधित मनावो मेथी ते सुगंधयु देवी भणावा लागे (करेहि कारवेहि य) मा मधु अम लते उसे तथा बीनने पशु सेवी रीते वा प्रेरित डरो, (करेत्ता य कारवेत्ता य) ने तेभन उशवीने (एयमाणसिय पच्चपिणाहि ) या भारी आज्ञाने पाछी भने प्रत्यर्पित उ-आापनी आज्ञानुसार मधु अभय युयु छे शोनी भने पर हो (णिञ्जाहिस्सामि समण ara Heart feafदङ) ः श्रभा भगवान महावीरनी पहना भाटे नीडजीश (सू ४० ) Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ तरवाहिरियं आसित-सित-सुड-सम्मह-रत्थंतरा-वण-वीहियं मंत्रा इमंच - कलिय णाणाविह-राग- उच्छियज्झय-पडागा-इपडाग-मंडियं लाउलोइयमहियं गोसीस - सरस-रत्तचंदण जाव-गंधवट्टिभ्यं चम्पा च नगरी साम्यत्तस्नाद्याग, 'आसित-सित-मुड-समद्रु-रत्थतरात्रण - त्रीहिये' आसिक - मिक्त - शुचि - समृष्ट- रथ्या तरा - Sऽपग - वीथिकाम्-आसिक्कानिपतु मिक्तानि, सिक्तानि = भूयमा जलेन धौतानि अतएव शुचीनि परिनागि समष्टानि कचनरापनयनेन सशोधितानि रम्यान्तराणि=र यामध्यानि आपणवीवयथ- हट्टमागा गम्या सा आमिक्त-सिक्तशुचि - समृष्ट- रथ्याऽन्तराऽपग-चीविका, ताम्, 'मचा-इमच कलिये' मचा निमञ्च-करिताम्मञ्चा = मालकावर्गकजनोपनेशनयोग्या, अनिमचा = मचोपरिमञ्चा, तै कलिता-युक्ता ताम् ' णाणाविह राग उच्छ्रिय-ज्झय-पडागा-उपडाग-मंडिय' नानानिन- रागो-तिध्वज पताकाऽतिपताका मण्डिताम् नानाविधरागा = विविधवये उच्छ्रिता ध्वजा, तिपताका पताका ध्वजाग्रवतिचेलाञ्चलानि, पताकामतिकान्ता अतिपताका = पताको परिवर्त्तिन्य पताका, ताभिर्मण्डिताम् = सुशोभिताम्- नानाविध समुच्छ्रितध्वज - पताकाऽतिपताकाभिर्मण्डितामित्यर्थ । ' लाउ-चलोइय-महिय' लाउल्लोडयमहिताम्- 'लाउ तरवाहिरिय) पानगरी को भातर एव बाहिर से (आसित - सित्त - सुइ- समट्ठ-रत्थतरा arat हिय) पहिले थोडे से जल से छिडकवा कर पीछे अधिक जल से छिडकनाकर गलियों के एव बजारों के रस्ता को साफ-सूफ करवाओ और जहा भी कूडा-कर्कट पडा हो उसे झड वाकर साफ करनाओ, (मचा- इमच - कलिय णाणाविह-राग- उच्छ्रिय-ज्झय-पडागाइडाग -मडिय) मार्ग म आजू-बाजू मचों पर मच जमवाकर लगवा दो, ताकि लोग उन पर अच्छी तरह से बैठ सके । अनेक रंगों की ऊँची २ ध्वजाएँ, पताकाएँ एव अनिपताकाए नगर भर मे लगाओ, (लाउलो इयमहिय ) जगह २ पर गोनर से जमीन को लिपवाओ पताका ओपपतिव - सुइ- संमट्ट-रत्थतरावण - वीहिय) पडेसा थोडाठ पाणीनो छ अव पुरीने पछी વધારે પાણી છટાવીને ગલિયાના તેમજ મુજારાના રસ્તાઓને સાફ્સફ કરાવે, અને જ્યા પણ ફ્ડાકટ (કચરાપૂ જો) પડયા હોય તેને ઝ ુ મરાવી સાફ કરાવા (मचा-इमच - कलिय णाणाविह राग- उच्छिय-ज्झय-पडागा - इपडाग -मडिय) भागभा આજીમાજી મચ ઉપર મ ચગેાઢવાવી દે। જેથી લોકો તેમનાપર સારી રીતે એસી શકે અનેક રાની ઉચી ઉચી ધજાએ, પતાકાએ તેમજ અતિ पताठाओ। नगरभरभा लगाओ ( लाउल्लोइयमहिय ) ४॥ જગાપુર છાણુથી Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ trafont टोका ४१ यलव्यापृतस्व हस्तिव्यात प्रत्यादेश खिप्पामेव भो देवाप्पिया । कूणियस्सरपणो भंभसारपुत्तस्स आभिसेक्कं हत्थिरयणं पडिकप्पेहि, हय-गय-रह-पवरजोह - कलियं चाउरंगिणं सेणं सपणाहेहि, सण्णाहेत्ता एयमाणत्तियं पञ्चपिणाहि ॥ सू० ४१ ॥ રૂટ્ आमतेट ' हस्तित्र्यावृतमामन्त्रयति = महामात्रमाहयति, ' आमंतेत्ता' आमन्त्र्य - आय ' एवं वयासी' चमवादीन् खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! कूणियस्स रण्णो भंसारपुत्तस्स आभिसेकं इत्थिरयण पडिक पेहि' क्षिप्रमेव भो देवानुप्रिय ' कृणिकस्य गज्ञो भम्भसारपुत्रस्य अभिपेक्य हम्तिरन परिकल्पय, अभिपेस्य हस्तिरत्न = प्राप्ताभिषेक, मुख्य हस्तिरत्न परिकल्पय = मुमन्जित कुरु, 'स्य-गय-रह-पवरजोह - कलिये' हय-राजरथ - प्रवरयोथ -- कलिताम, 'चाउरंगिणिं सेण' चतुरङ्गिणी सेनाम्, 'सण्णाहेहि - नाहय - सन्नद्धा कुर, 'एयमाणत्तिय पञ्चष्पिणाहि ' एतामाजमिका प्रत्यर्पय - इमा मामाजा सम्पाद्य मद्य निवेदय-इत्थ गज्ञाऽऽजमो वलयापुतो हस्तिन्यावृतमाज्ञापयामास || सू० ४१ ॥ 3 ( पडिणित्ता हत्थिवाउय आमंतेड़ ) राजा का आदेग प्रमाण कर उसने तुरंत ही हाथिया के अधिकारी को बुलाया, (आमंतेत्ता) बुलाकर (एव) इस प्रकार ( वयासी) वह वो- (विप्पामेव भो देवाणुप्पिया) ह देवानुप्रिय । तुम शीघ्र ही (कूणियस्स रण्णो मसारम्स भिसेक हस्थिरयण पडिकप्पेहि ) भमसार अर्थात् श्रेणिक राजा के पुत्र कृगिक राजा के पट्टहस्ती को सुसज्जित करो । ( हय-गय-रह-पवरजोह-कलिय चाउरगिणि सेणं साहेहि ) साथ मे हय-अश्व, गज-अन्यहाथी, रथ, प्रवरभट इनसे युक्त 1 महेशने। स्वीद्वार ४री सीधे (पडिणित्ता हत्थिवाश्य आमतेइ ) शन्नना आहे शने प्रभारी तेथे तस्तन हाथीओना अधिठारीने मोलाच्या (आमतेत्ता) जोसावीने (एव) मा अारे (वयामी) तेथे न्छु - (खिप्पामेन भो देवाणुप्पिया) हे हेवानुप्रिय । तमे तुरत ४ ( कूणियस्स रण्णो भभसारपुत्तास आभिसेक्क हत्थिरयण पडिकापेहि ) नलसार अर्थात् श्रेषि सलना पुत्र कृषि शब्लना पट्टतिने तैयार इसे ( हय-गय-रह-पवरजोह-कलिय चाउरगिणिं सेण सण्णाहेहि ) साथै साथै, इय घोडा, गन-मीन हाथी, रथ, प्रवरलट मेथी युक्त चतुरगिली सेनाने पथ तैयार ४ ( सण्णात्ता) भन्नद्ध वरीने (एयमाणत्तिय Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपातिकको 'मूलम्-तएणं से बलवाउए' कूणिएणं रण्णा एवं वुत्ते समाणे हेतु जाव - हियए करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मस्यए अंजलिं कह एवं सामित्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता हत्थिवाउयं आमंतेइ, आमंतेत्ता एवं वयासी टीका-'तए ण' इत्यादि । 'तए णं से घलवाउए' तत सल म बलल्याप्रत - सेनापति 'कूणिएणं रण्णा एवं बुत्ते समाणे कृगिकेन राजा एवमुक्त सन्, 'हद्वतुद्ध जाव-हियए' इष्टतुष्टयावद्धृदय 'कग्यलपरिगडिय' फरतल्परिगृहीत-बद्धकरतलयुगरम्, 'सिरसावत' शिरआवत्तं 'मत्थए अनलिं कटु' मस्तके अनलिं वा एवं सामिति आणाए विणएण यण पडिमुणेइ एव स्वामिन् ' इति आज्ञाया विनयेन वचन प्रतिशृणोति एव स्वामिन् । यद्यथाजापयति देवस्तत्तथैव मपाढयामि-इयुक्त्वा आजाया वचन सविनय प्रतिशृणोति=स्वीकरोति, प्रतिश्रुय स्वीकृत्य~-' इस्थिवाउय 'तए ण से वलवाउए' इयादि। - - - - - - (तए ण) इसके बादः (से बलवाउए) वह सेनापति (रण्णा एवबुत्ते समाणे) राजा के द्वारा इस प्रकार से आज्ञापित होता हुआ (ह-तुटु-जाव-हियए करयल-परिगहिय सिरसावत्त मत्थए अनलिं फट्ट एव सामित्ति आणाए विगएण वयण पडिसुणेइ) विशेष हर्पित एव मतुष्ट हुआ, यावत् अन्त करण मे प्रफुल्लित हो गया। दोना हाथों को जोड़कर मस्तकपर अजलिरूप मे उहें स्थापित करते हुए फिर वह इस प्रकार बोला कि हे स्वामिन् । आपने जिस प्रकार का आदेश प्रदान किया है वह मै उसी प्रकार से स्पादित करूँगा। इस राति से विनयपूर्वक उसने राजा के आदेश को स्वीकार कर लिया। -- 'तए ण से बलगाउए' त्याहि ।। । . . . - । (तए ण) त्या 4 (से बलवाउए) ते सेनापति (रण्णा एव वुत्ते समाणे) सनी द्वारा मारे ज्ञापित थता (हदु-तुद-जाव-हियए करयल-परिमाहिय सिरसावत्त मत्थए अजलिं-कट्ठ एव सामित्ति आणाए विणएण वयण पडिसुणेइ) વિશેષ હર્ષિત તેમજ સંતુષ્ટ થયે, યાવત્ અતકરણમાં પ્રફુલ્લિત થઈ-ગ " અને હાથ જોડીને મસ્ત ઉપર અ જલિરૂપે તેમને સ્થાપિત કરી પછી તે - આ પ્રકારે છેલ્યો- કે હે સ્વામિન્ ને આપે જે પ્રકારન-આદેશ પ્રદાન કર્યો છે તે હ તેવી જ રીતે આ પાદિત કરીશ આ રીતે વિનયપૂર્વક તેણે રાજાના Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवपिणी टीका व ४२ दस्त्यादिसजनम ३७३ कृतसन्नाहम्, ? J हव्व - परिवत्थियं सुसज्जं धम्मिय - सण-द्ध - कवइय - उप्पी - लिय-कच्छ - चच्छगेवेय - वद्ध-गलवर - भूषण-विरायंत अहियतेय-जुत्तं सललिय- वर- कण्णपूर - विराइयं पलंब-ओचूल-महुयरवत्थ - दव्त्र - परिस्थिय उपल-नेपय-शीत-परिचितम् - उज्वलनेप येन-निर्मलवेपरचनया ma, परिवस्त्रित- आच्छादितम, अलकृतमियर्थ जतण्व 'सुसज्ज' 'म्मिय - सण्णद्ध - बद्ध-कवडय - उपीलिय-कन्छ- वच्छ- गेवेयड- गलवर - भूमण - विरायंत ' धार्मिक -मन्नद्ध- -व-कवचिको पीडित-कल-वनीग्रैवेय-चंद्र-गलवर-भूषण- निराजमानम्, धार्मिक सन्नद्र=सजीकृत बद्ध यत् कवच=सन्नाहविशेष तदस्यास्तीति-धार्मिक सन्नद्ध कवचिकम्, उपीडिता = आकृष्य बद्धा, कक्षा बन्धनरज्जु, वक्षमि= स्थले यम्य तत् तथा, ग्रैवेयक = प्रोवाभृषण वद्ध गले=कण्ठे यस्य तत् तथा, वरभूषणै अन्यैर्गजस्य श्रेष्ठाभरणैर्विराजमानम् 'अहियतेयजुत्त अधिकतेजोयुक्तम्=परमतेजस्वि, 'सललिय - वरकण्णपूर - विराइय' सललित-वरकर्णपूर - यो के शृगार करने वाले (सुणिउणेहिं) निपुण व्यक्तियों से (उज्जल - णेवत्थ- हव्व-परिचत्थिय) हाथीका शृंगार करवाया, इसमें सर्वप्रथम उन कुाल पुरुषों ने उसे निर्मल भूषणों की रचना से अलकृत किया । ( सुसज्जं ) उस पर अच्छी तरह से झूलें वगैरह सजायीं। (धम्मिय- सण्णद्ध-वद्ध-कवइय-उप्पीलिय-कच्छ-वच्छ गेवेय-वद्ध गलवर-भूषणविरायत) धार्मिक उसन के समय जैसा हाथी का शृंगार होता है ठीक वैसा ही गुगार इसका किया गया । पेट या छाती पर इसके मजबूत कवच कसकर बाधा गया । गले मे इसके आभूषण पहनाए गये । और इसके अग- उपागों मे सुदर २ उसके योग्य आभूग द्वारा विविध प्रहारोथी हाथीगोना शुमार श्वावाजा ( सुणिउणेहिं ) निपुश व्यक्तियों द्वारा ( उज्जल ठेवत्थ हव्य परिवत्थिय ) हाथींना शाशुगार उशव्या, તેમા સર્વથી પ્રથમ તે કુશળ પુરૂષોએ તેને સુન્દર અલકાની રચનાથી लठ्ठ य, (सुसज्ज ) तेना पर भारी ते जूझे। वगेरे सन्नवी ( धम्मिय सण्णद्ध-द्व-कवइय-उपीलिय-कन्छ-वच्छ गेवेय-बद्ध-गलवर - भूषण- निरायत ) ધાર્મિ૰ ઉત્સવના સમયે જેવા હાથીને શણગાર હોય છે તેવા જ ખરાખર શણગાર તેનેા કર્યાં પેટ અથવા છાતી ઉપર મજબૂત કવચ કમીને તેને માધ્યુ ગળામા તેને આભૂષણા પહેરાવવામા આવ્યા તેના ખીન્ત तथा उपागोभा सुहर सुदरतेने योग्य भालूषशेो पडेराच्या ( अहिय અગા - = Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રૂહર ओपातिकमरे ' मृलम्-तएणं से हथिवाउए बलवाउयस्स एयम सोचा आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेड, पडिसुणित्ता छेयायरिय-उबएस-मड-कप्पणा-विकप्पेहि मुणिउणेहिं उज्जल-णेवत्थ टीका-'तए ण से' दयानि । 'तप ण' तत बग्याताजाऽनन्तर खलु ‘से हस्थियाउए' म हस्तिव्यापूत -महामान , 'बलपाउयस्स एयम सोचा बलव्याप्तस्य एतमर्थ-मुमजितगजाऽऽनयनादिरूप वचन श्रुवा, 'आणाए विणएण वयण पडिमुणेड' आजाया विनयेन पचन प्रतिशृगोति-विनयपूर्वकमाजावचन-सेनापतिनिर्देशमङ्गीकरोति, 'पडिसृणित्ता' प्रतिश्रुय । छेयायरिय-उवएस-मड-कप्पणाविकप्पेहि ठेकाऽऽचार्यो-पदेश-मति-फापना-विक -छेकाचार्यस्य-पटुतरशिपशिक्षकस्योपदेशाजाता या मति =बुद्धि तया या कल्पना सजना-हस्तिना शृङ्गारसमारचना, ता विविधप्रकारेण कल्पयति ये ते तथा ते सुशिक्षकोपदेशल धबुद्ध्या विशिष्ट शिल्पकल्पनाकारकैरित्यर्थ , अता 'मुणिउणेहि ' मुनिपुणे -गजादिशृङ्गाररचनाकुटालै 'उज्जलचतुरगिणा सेना को भी मुसन्नित करो । (सण्णाहेत्ता ) सन्नद्र करके (एयमाणत्तिय पञ्चपिणाहि) बाद में इस मेरी आजा के यथावत् पालन करने की हमें पीछे ग्ववर दो।म् ४१॥ 'तए ण से हथिवाउए' इत्यादि । (नए ण) सेनापति के आदेश देने के बाद (से हत्थिवाउए) वह हाथियों का अधिकारी (बलबाउयस्स) सेनापति के (एयम) इस बातको (सोचा) सुनकर (आणाए वयण) आजा के वचन को (विणएण) विनयपूर्वक (पडिमणेह) स्वीकार किया । (पडिसुणित्ता) स्वीकार कर उसने (छेयायरिय-उवएस मइ-कप्पणा विकप्पेहि) छेकाचायेविशिष्टनिपुणशिल्पशिक्षक के उपदेशा से उद्भूत वुदि द्वारा विविध प्रकारका रचना से हाथिपन्चप्पिणाहि) ५७ मा भारी माज्ञाने यथावत् पाणी तनी भने पाछी ખબર આપ (સ્ ૪૧). 'तए ण से हस्थियाउए' त्याह (तए ण) सेनापति माहेश या पछी (से हथिवाउए) ते हाथीमाना अपिताश (बल्वाउयस्स) मेनातिनी (एयमट्ट) मे वातन (सोचा) सामगीन (आणाए वयण) माज्ञान क्यनने (विणएण) विनयपू (पडिमुणेइ) स्वी२ यो.. (पडिसणित्ता) स्वी४२ ६शने तेथे (छेयायरिय-उवएम-मइ-कापणा विक E) છેકાચાર્યવિશિષ્ટ નિપુણ શિલ્પા શિક્ષકના ઉપદેશથી ઉદ્ભવેલી બુદ્ધિ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ and - - - पीयूषषषिणी-टीका स ४२ दस्त्यादिसजनम हव्व-परिवत्थियं सुसज्जं धम्मिय-सपणह-बद्ध-कवडय-उप्पीलिय-कच्छ-चच्छ-गेवेय-बद्ध-गलवर-भूपण-विरायंत अहियतेय-जुतं सललिय--वर-कण्णपूर-विराइयं पलंब-ओचूल-महुयरणेवत्य-च-परिवत्यिय' उ नप य-गौत्र-परिवनितम्-उबलनप येन-निर्मलवेपरचनया गीत, पग्विखित-आगदिनम्, अलकृनमियर्थ अतर 'मुसज्ज' तसन्नाहम्, 'यम्मिय-सण्णद्ध-बद्ध-कवडय-उप्पीलिय-कच्छ-चन्द्र-गेवेयबद्ध गल्बर-भूमण-विरायंत' धार्मिक-सन्नद्ध-बद-काचिको पोटित-कम-बलोप्रैवेय-बद-गलपर-भूषण-निराजमानम् , धार्मिक सनसनीत रद्ध यत् कवच सन्नाहविशेष , तदस्यान्ताति-धार्मिकसनद पदकवचिकम् , उपादिता-आठप्य बद्धा, कक्षा पन्धनरजु, वक्षसियक्ष स्यले यस्य तत् तथा, अवयक योगाभूषण बद्ध गले कण्ठे यस्य तत् तथा, वरभूपण - अन्यैर्गजस्य श्रेष्ठाभरणैर्विराजमानम् 'अहियतेयजुत्त' अधिकतेजोयुक्तम्-पग्मतेजस्वि, 'सललिय-बरकण्णपूर-विराइय' सललित-वरकर्णपूरयो के शृगार करने वाले (सुणिउणेहि) निपुण व्यक्तियों से (उन्नल णेवत्य-व्य-परिवत्थिय) हाथीका गगार करवाया, इसमे सर्वप्रथम उन कुठाल पुरुषों ने उमे निर्मल भूषणों की रचना से अलकृत किया । (सुसज्नी उस पर अच्छी तरह से झूले वगैरह समाय।। (धम्मिय-सण्णद्ध-बद्ध-कवदय-उप्पीलिय-कन्छ-वच्छ-गेवेय-बद्ध-गलवर-भूपणविरायत) वार्मिक उसर के समय असा हाथी का शृगार होता हे ठीक वैसा ही शृगार इसका किया गया। पेट या छाती पर इसके मजबूत कवच कमकर वाधा गया । गले म इसके आभूषण पहिनाए गये । और इसके अग-उपागों मे सुदर २ उमके योग्य आभूग द्वारा विविध शेथी खायी माना शुसार ४२वापस ( सुणिउणेहि ) निपुण व्यक्ति द्वारा ( उज्जल वत्थ हल्व परिवत्थिय) हाथीनी शY१२ शव्या, તેમાં સર્વથી પ્રથમ તે કુશળ પુરૂએ તેને સુન્દર અલ કાગની રચનાથી स1 , (मुसज) ना GP भारी ते वगेरे मन्तवी (धम्मिय सण्णद्ध-नव-कवइय-उप्पीलिय-क्छ-चन्छनोवेय अद्ध- गल्रर - भूपण -चिरायत) ધાર્મિક ઉત્સવના ખમયે જે હાથીને શણગાર હોય છે તે જ બરાબર શણગાર તેને કર્યો પિટ અથવા છાતી ઉપરુ મજબૂત કવચ કરીને તેને બાયું ગળામાં તેને આભૂષણો પહેરાવવામાં આવ્યા તેના બીજા અને NAL Bागाभा सु२ सु२ तेन योज्य पार पडेराम्या (अहिय Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओपाकिस ३७४ ? # 1 कयंधयारं चित्त - परित्थोम - पच्छयं पहरणा, वरण- भरिय - जुद्धविराजितम् - सललितो = लालिययुक्तो यो चरकर्णपूरी - प्रगस्तकर्णाभरणे ताभ्या विराजितम), 'पलन - ओचूल-महुयर कयधयार प्रलम्बा चूलमधुकररुताऽन्धकारम् - प्रलम्बानि अवचूलानि=गजपृष्ठाद्र्ध प्रलग्निशृङ्गारवखारूपाणि यस्य तत्तथा, तथा मधुकरैर्मदजलगन्धलुब्धै कृत अन्धकारो यत्र तत्तया तत - अनयो कर्मधारय तत, ' चित-परिच्छेयपच्छय ' चित्र-परिच्छेक- प्रच्छदम चिनो विचित्र परिच्छेको लघु प्रच्छद आच्छादन वस्त्रविशेषो यस्य तत्तथा तत्, 'पहरणावरण भरिय जुद्ध-सज्ज ' ग्रहरणा - वरण -- मृतयुद्ध - सनम् - प्रहरणावरणैरायुधकचैर्भूत= सम्भृतम्, अत एव युद्धसन्न = युद्राय समुद्यतम्, 'सच्छत' पहिरा दिये गये । (अहियतेयजुत्त) इससे स्वाभाविकरूप से तेज मपन्न वह गजराज देखने मे और अधिक तेजस्वी दीसने लगा । (सललिय वर- कण्णपूर-त्रिराइयं) इसके कान में जो आभूषण - कर्णपूर पहिराने में आये थे वे चलते समय इधर उधर जब हिलत थे तब उनके द्वारा यह गजराज वडा ही सुहावना लगता था । (पल्ब ओचूल-महुयरकययार) इस पर जो झूल डाली गई थी वह पीठ से नीचे तक लटक रही थी। इसके कपोल स्थल से जो मदजल झर रहा था और उसकी सुगन्धि से जो भ्रमरसमूह उसके आसपास मडरा रहा था वह ऐसा मालूम होता था कि मानो इसकी शरण में अधकार ही आया है | (चित्त-परित्थोम - पन्यं) इसकी पीठ पर झूल के ऊपर जो छोटा सा आच्छादकवस्त्र डाला गया था यह सुन्दर वेलबूटियों से युक्त था । (पहरणा-वरण- भरिय-जुद्ध - सज्ज ) प्रहरण-गस्त्र और आवरण - कवच से सुसज्जित यह हाथी ऐसा मालूम पडता था कि मानो यह युद्ध के लिये ही सजाया गया है । (सच्छत्त) यह उत्रसहित था । तेयजुत्तं ) माथी वालावि तेभ्थी सपन्न ते रान वधारे तेजस्वी हेमाता हता (सललिय वर-वरणपूर - विराइय) तेना अनमा ? मालूष! - કપૂર પહેરાવવામા આવ્યા હતા તે ચાલતી વખતે જ્યારે આમતેમ હાલતા हता त्यारे तेनाथी या गणरान गहु न शोलायमान सागतो तो ( पल्ब ओचूल-महुयर-कयधयार ) तेना पर ने जूझ राभी डती ते थीथी नीचे सुधी લટકી રહી હતી તેના ગ ડસ્થલથી જે મદજલ ખરી રહ્યુ હતું તથા તેની સુગ ધથી જે ભમરાઓના સમૂહ તેની આસપાસ ફરતા રહેતા હતા તેથી खेम भयातु हेतु भो तेना शरशुमा अधार ४ आव्यो छे (चित्तपरिच्छेय पच्छय ) तेनी थी पर जूस उपर ने नानु ढाडेसु वस्त्र नाथ्यु उतुं ते सुहर वेसटियोथी युक्त हेतु (पहरणा षरण भरिय जुद्ध-सज्ज ) अहरશસ્ત્ર અને આવરણુ-કવચથી સુસજ્જિત આ હાથી એમ લાગતા હતા કે - 4x4 Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोयूपवर्षिणी टोका र ४२ हस्त्यादिसजनम् ३७२ सजं सच्छत्तं सज्झयं सघंटं सपडागं पंचामेलय-परिमंडिया"मिराम ओसारिय-जमल-जुयल-घंटं विज्जुपिणडं व कालमेहं उपाइयपव्वयं व.चंकमंत मतं गुलगुलंतं मण-पत्रण-जडण-वेगं सच्छत्रम्--छत्रयुक्तम्, 'सज्झय' सध्वजम्--ध्वजयुक्तम् 'सार' सघण्टम्-घटाभूषितोभयपार्श्वम्, 'पंचामेलय-परिमडिया-भिराम' पञ्चामेलक-परिमण्डिताऽभिरामम्पञ्चभिरामेलकै पञ्चवर्णाभि पुष्पमालामि परिमण्डितम्-अतएव अभिराम सुन्दर यत्तथा तत् , 'ओसारिय-जमल-जुयल- घट' अपसान्ति--यमल--युगल--घण्टम्-अवसारितम् अधोऽवलम्बित यमलसम युगल-द्विक घण्टयोर्यत्र तत् तथा तत् , 'विजुपिणद्धं विद्युपिनवम्-विद्युद्वियोतित 'कालमेहं व कालमेघमिय-गजस्य कृष्णवर्ण वात उच्चतया च मेघोपमा, 'उप्पाइय--पचय व' औपातिकपर्वतमिव-अकस्मान्नृतनसमुद्भूतपर्वतमिव, 'चकमत' चड्झायमाणम्--अनियेन काम्यन--स्वाभाविकपर्वतो हि न चक्रम्यते इति भार । 'गुलगुलतं' वनन् महामेघवद ध्वनि कुर्वत्-टत्यय , 'मण-पवण-जडण-वेग' (सम्झय) ध्वजासहित था (सरट) घटाओं से इसके उभयपार्श्व युक्त थे। (पंचामलयपरिमडिया-भिराम) पाचवर्ण के पुप्पमाला पहनाने के कारण यह अयन्त मुन्दर लगता या । (ओसारिय-जमल-जुयल-घंट) नीच तक एक ही साथ लटकते हुए दो घटो से यह शोभित या । (विजुपिणद्ध) इस पर जो भी आभग्ग सजाये गये ये वे बिजली के समान चमकते थे, अत यह गजराज (कालमेह व) कृष्णवर्ण होन से काला मेघ के जसा जात होता था। (चकमत उपाइयपच्चयब) चलते समय यह औपातिक पर्वत के समान दिखायी देता था । (गुलगुलत) जर यह चिंधाटता था तो ऐसा प्रतीत होता જાણે એ યુદ્ધને માટે જ સજાએલો છે ( ૪) એ છત્રસાહિત હતું (समय) sd (सघट) घटायो भन्ने मा १४४ती ती (पंचामेलय परिमडिया-भिराम) पाय पनी पु०५मासा पडसाथी से सुदर सागत sat (ओसारिय-जमल-जुयल-घट) नीचे सुधी से माथे exit मे घामाथी तशालत त ( विज्जुपिणद्व) तना ५२२ ३७ सासर સજાએલા હતા તે વીજળીના જેવા ચમકતા હતા આથી આ ગજરાજ (कालमेह व) पर्वा पायी जसा मेघना regnai sai (चकमत उप्पा इयपव्ययं व) यासती मते में सोयाति पतनाव माता ते -(गुलगुलत) प्रत्यारे ते सतत सारे अभ प्रतात तु तु ३ तो Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - জীবনি भीमं संगामियाओनं आभिसेक हत्थिरयणं पडिकप्पेह, पडिकप्पित्ता हय - गय-रह - पवरजोह-कलियं चाउरंगिणीं सेणं सण्णाहेइ, जेणेव बलवाउए तेणेष उवागच्छइ, उवागच्छित्ता एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणड ॥ सू० ४२ ।। मन पवनायवेग-ग या मन पपनाधिकोगयुक्त, 'भीम' भयादरम्, 'सगामियाओज' सामामिझाऽऽयोज्यम् “ग्राम एवं सामामिक तस्मिन् आयोज्यम्-आयोजनीय-ग्रामयोग्यमि पर्थ , 'आभिसेकं हत्थिरयण' आभिपेश्य हस्तिरनम् -- अभिषेकाहे हस्तिश्रेष्टम , 'पटिकापेड' परिकल्पयति, 'पडिपित्ता' परिरन्य, 'हय-गय-रहपरजोह-कलिय' हय-राज-पथ-प्रवरयोग-कलिता-हयगजै रथ प्रवरयोथै महारथिमि युक्ताम्, 'चाउरगिणि सेण' चतुरगिणी सेनाम् चतुरगवती सेनाम्, 'सण्णाहेड' सनायति, 'जेणेच वलयाउए । यौन वलव्याप्त -सेनापति , 'तेणेव उवागच्छइ' तत्रैवोपागच्छति, 'उवागन्उित्ता' उपागय, 'एयमागत्तिय: एतामालिकाम्-सेनापतेराज्ञाम् 'पञ्चप्पिणइ प्रयर्पयति-ततीयामाज्ञा सम्पाय पश्चालिवेदयति, भवदाज्ञानुसारण सर्व मयादितमस्माभिरिनि ।। ४२॥ - -- - - कि मानो महामेघकी गर्जना हो रही है । (मण-पवण--जडण-वेग) इसकी गति मन और पान के वेग को जीतने वाली था, (भीम) देखने में यह बडा भयकर जैसा लगता था। (सगामियाओज) इस के ऊपर जितनी भी सामनिया रखने में आई थीं वे सब तमाम के योग्य थी । (आभिसेक हस्थिरयण) इस प्रकार इस पहस्ति को (पडिकप्पेइ) उन निपुण मतिवाले पुरुषों से सजवाया, (पडिकप्पित्ता) मनवाने के बाद फिर उस हाथी के अधिकारी ने उन निपुण पुरुषों से (हय-गय-रह-पवरजोह-कलिय वाउरगिणि मामधनी मना थाय छ (मण-पवण-जाण-वेग) तनी गति भन तथा । पवनना गने ते मेवी सुती (भीम) नेवामा से मई मय वो . साता तो (सगामियाओज) तेना 6५२ टली सामग्रीमा समपामा "मी तीधी सामने योग्य ती (आभिसेक्क हस्थिरयण) आ सारे पट्टन्तिन (पडिकप्पेइ) ते निपुण मुद्धिवाला याये सन०1 तो (पडिकप्पित्ता) यार ४ीधा ५७ हाथीन पारी ते नि ५३पोत (हय-नाय रह-पवर-जोहकलिय चारगिणिं सेण सण्णाहेइ) घोडा, Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषधषिणी-टीका सू ४३ बलव्यापृतस्य यानशालिफ प्रत्यादेश ३७७ मूलम्-तए णं से बलवाउए जाणसालियं सदावेइ, सदावित्ता एव वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया। सुभद्दापमुहाणं देवीणं वाहिरियाए उवट्ठाणसालाए पाडियकपाडियकाई ___टीका-'तए णं से ' इत्यादि । 'तए ण से वलवाउए' तत सल स बलयापूत -तदनन्तरम्-चतुरनिगासेनासजीकरणानन्तर स सेनापति 'जाणसालिय' यानगालिफ यानशालाधिकृतम्, 'सदावेड' गदयति आयति, 'सदावित्ता एव वयासी' गन्दयि वा एवमनादीत् 'खिप्पामेव भो टेवाणुप्पिया क्षिप्रमेव भो देवानुप्रिय! 'सुभदापमुहाण देवीण ' सुभद्राप्रमुग्वाना=सुभद्रादीना देवीना 'वाहिरियाए उवट्ठाणसेण सण्णा) घोडा, हाथी, रथ एव सुभटों से युक्त चतुरगिणी सेना सजवायी, सजवा कर (जेणेव बलबाउए) जहाँ पर सेनापति थे (तेगेत्र उवागच्छइ) वहाँ पर गया, (उवागच्छित्ता) पहुँचकर (एयमाणत्तिय पचप्पिणड) उसने निवेदन किया कि आपने जो आजा प्रदान का थी वह सन मैने आपकी आजानुसार ठाक कर लिया है | सू०४२ ॥ 'तए ण से बलबाउए' इत्यादि । (तए णं) चतुरगिणी सेना जन सजी जा चुको तन (से बलवाउए) उस सेनापतिने (जागसालिय) यानगाला के अधिकारी को (सदावेइ) बुलाया, (सद्दावित्ता) बुलाकर (एव वयासी) इस प्रकार कहा-(खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया) हे देवानुप्रिय । तुम शीन ही (सुभद्दापमुहाण देवीण) सुभद्रा आदि देवियों के लिये (वाहिरियाए उवट्ठाणसालाए) बाहिर की उपस्थानशाला मे (पाडियकपाडियकाइ) एक एक रानी હાથી, રથ તેમજ સુભટથી યુક્ત ચતુર ગિણી સેના તૈયાર કરાવી. તૈયાર કરાવીને (जेणेन बलपाउए) या सेनापति ता (तेणेव उपागच्छ)त्या गया, (नागच्छित्ता) तो त्या पहायान (एयमाणत्तिय पचप्पिणइ) निवहन यु , याचे माज्ञा આપી હતી તે બધુ મે આપની આજ્ઞા પ્રમાણે ઠીક કરી લીધુ છે (સૂ૦ ૪૨) 'तए ण से बलवाउए' त्यादि (तए णं) यतुर गिरी ना न्यारे तयार / युजी त्यारे (से बलवाउए) ते अनापतिथे (जाणसालिय) यानासाना मधिलारीने (सद्दावेइ) मोसाव्या, (सदावित्ता) मोलाचीन (एव वयासी) मा मारे घु-(खिापामेव भो देवाणुप्पिया) ९ हेपानुप्रिया तमे सही (सुभद्दापमुहाण देवीण ) सुभद्रा याहि वीमा भाट (बाहिरियाए उवट्ठाणसालाए) मारनी Gथानशालामा (पाडियक्क Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ - - ओपतिपत्रे जत्ताभिमुहाई जुत्ताई जाणाई उवहवेहि, उवदृवित्ता एयर्मणत्तियं पञ्चप्पिणाहि ॥ सू० ४३ ॥ __ मूलम्-तए णं से जाणसालिए बलवाउयस्स एयमई सालाए' बाहायामुपस्थानमालायाम् , 'पाडियकपाडियकाई' प्रयेक प्रयेकम्-प्रत्येकाऽर्थम् , 'जत्ताभिमुहाट' यात्राभिमुसानि-भगवदर्शनार्थगमनानुकतानि 'जुत्ताई' युक्तानि 'जाणाड' यानानि 'उवट्ठवेहि' उपस्थापय-सजीकृत्य समानय, 'उबढवित्ता' उपस्थाप्य 'एयमाणत्तिय पचप्पिणाहि' एतामाजमिका प्रत्यर्पय-मटीयामाजा पश्चात् समर्पय-सर्वे सम्पादितम् इति नूहि ॥ मू० ४३ ॥ टीका-'तए ण से' इयादि । ___ तत सल स 'जाणसालिए बलबाउयस्स एयमह' यानगालिको बलयात स्यैतमर्थम् यानसजीकरणाऽऽनयनरूप निर्देश श्रुत्वा, आजाया विनयेन वचन 'पडिसुणेड' के बैठने योग्य अलग २ रूप मे (जत्ताभिमुहाड) याना के लायक-भगवान के दर्शन करने के लिये जिसमे बैठकर जाया जाता है ऐसे (जुत्ताद) एव अच्छे २ बेलों से युक्त (जाणाह) रथादिक वाहनों को (उवट्ठवेहि) उपस्थित करो, (उवद्ववित्ता) उपस्थित करके (एयमाणत्तिय पञ्चप्पिणेहि) इस मेरी आजा को यथावत् पालन करने की खबर पीछे मुझे बहुत जल्दी भेनो ॥ सू० ४३ ॥ - 'तए ण से जाणसालिए' इत्यादि । (तए ण) सेनापति के आदेश देने के बाद (से जाणसालिए) उस यानशाला के अधिकारी ने (वलवाउयस्स) सेनापति के (एयम) यान को सजित करके लानेकी पाडियाकाइ) ४ ४ राशीन सपा योज्य सस सस ३५मा (जत्ताभिमुहाइ) यात्राने दाय सापाननाशन ४२१॥ माटमा मेसीन वाय मेवा, (जुत्ताइ) तेभर सारा सारा महोथी युद्धत (जाणाइ) २थ आणि पासनाने (उचढवेहि) २ २ (उववित्ता) ४२ रीने (एयमाणत्तिय प्रचप्पिणेहि) मा भारी माज्ञानु पासन ४२पानी ५२ पछी भने म જદી એકલો (સૂ૦ ૪૩) "तगण से जाणसालिए" त्याह (सर) नातिना माहेश या पछी (से जाणसारिए) ते यानासाना अधिकारी (वल्याउयरस) भेनापतिनी (ण्यमट्ठ) यानने तैयार ४शने साप Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोपपषिणो-टीका सू ४४ यानशालिफस्य पलव्यापूनाऽऽदेशसपादनम् ३७१ आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेड, पडिसुणित्ता जेणेव जाणसाला तेणेव उवागच्छड, उवागच्छित्ता जाणाड पञ्चुवेकरखेड़, पञ्चुवेक्खित्ता जाणाइ संपमजेइ,संपमजित्ला जाणार्ड संवट्टेड,संवटित्ता जाणाई णीणेडणीणिता जाणाणं से पवीणेड, पवीणिताजाणाई प्रतिशृगोति-स्वीकरोति, प्रतिश्रुय आज्ञावचन म्वीकृत्य यत्रैव यानगाला तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य 'जाणाइ पच्चुवेरखेड' यानानि प्रत्युपेक्षते सम्या पश्यति, प्रत्युपेक्ष्य-दृष्ट्या 'जाणार सपमज्जेट' यानानि सम्प्रमार्जयति-विगतरजासि उस्ते, मम्प्रमार्य, 'जाणाई सब इ ' यानानि मर्तयति-एकस्मिन् म्याने स्थापयति, 'संवाहित्तारवयं 'जाणाई णीणेड' यानानि नयति-गालातो बहि करोति, नीया 'जाणाण' यानाना 'दसे' दूभ्याणि आच्छादनवस्त्राणि 'पवीणेद' प्रविनयति अपसारयति, प्रविनीय-अपसार्य, आनाको सुनकर (आणाए विणएण वयण) उस आजावचन को निनयपूर्वक (पडिसुणेट) स्वीकार किया, (पडिस्मृणित्ता) स्वीकार करके फिर वह (जेणेव जाणसाला) जहा थानगाला या (तेणेव उवागच्छद) वहाँ पहुँचा, (उवागच्छित्ता) पहुंचकर (जाणाद पन्चुवेक्खेट) उसने वहा पहिले रय आदि यानों को अच्छी तरह से देसा । (पच्चुवेक्खित्ता) देसकर (जाणाड सपमजेड) उसने उहे अच्छी तरह झाड-झुड कर साफ किया। (सपमजित्ता जाणादं सवढेइ) साफ करने के बाद उसने फिर जितने चाहिये थे उतने यान एक जगह एकत्रित किये । (सवहिता) दकह करने के बाद (जाणाद णीणेड) वहा से उसने उन सब को गहिर निकाला। (णीणित्ता) बाहिर पानी मानी सामजीन ( आणाए विणएण घयण) ते माशापयननी विनयपूर्व (पडिसुणेइ ) २वी या (पडिसुणित्ता) स्वी४२ ४शने पछी ते (जेणेव जाणसाला) या यानासा हुती (तेणेच उवागन्छइ) त्या पाया (याग पित्ता) पहिचान ( जाणाइ पाचवेस्खइ) तर त्या पडदा २थ आह यानाने भाग गते नया. ( पच्चुवेक्खित्ता) निधन (जाणाइ सपमज्जेइ) तेणे भारी शत पाणी-लूडी माई र्या ( सपमज्जिता जाणाइ सब?ई) मा 30 લીધા પછી તેણે જેટલા જોઈતા હતા તેટલા યાન (વાહન) એક જગાએ ४४१ ४ा (सवट्टिता) ४४ शसीधा पछी (जाणाइ णोणेइ) त्याथी तेशे में धान पडा२ दिया (णीणित्ता) गा२ डोटीन (जाणाण दूसे Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૭૮ ओपपातिकमरे जत्ताभिमुहाई जुत्ताई जाणाई उवदृवेहि, उवदृवित्ता एयर्मणत्तियं पञ्चप्पिणाहि ॥ सू० ४३॥ मूलम्-तए णं से जाणसालिए बलवाउयस्स एयमई सालाए' वाणायामुपस्थानगालायाम् , 'पाडियवपाडियकाई' प्रयेक प्रयेकम्-प्रत्येकाऽर्थम् , 'जत्ताभिमुहाइ' यागभिमुसानि भगवदर्शनार्थगमनानुफूलानि 'जुत्ताई' युक्तानि 'जाणाड' यानानि 'उपद्ववेहि उपस्थापय-सनीक य समानय, 'उबढविता' उपस्थाप्य 'एयमाणत्तिय पञ्चप्पिणाहि' एतामाजमिका प्रयर्पय-मटीयामाजा पश्चात् समर्पय-सर्वे सम्पादितम् इति नूहि ॥ सू० ४३ ॥ टीका-'तो ण से' इत्यादि। तत सलु स 'जाणसालिए चलाउयस्स एयमह' यानगालिको बलव्यामृतस्यैतमर्थम् यानसजीकरणाऽऽनयनरूप निदेश श्रुवा, आजाया विनयेन वचन 'पडिसुणेइ'' के बैठने योग्य अलग २ रूप में (जत्ताभिमुहाइ) याना के लायक-भगवान के दर्शन करने के लिये जिसमे बैठकर जाया जाता है ऐसे (जुत्ताइ) एव अच्छे २ बेलों से युक्त (जागाइ) रथादिक वाहनों को (उपद्रवेहि) उपस्थित करो, (उपद्रवित्ता) उपस्थित करके (एयमाणत्तिय पञ्चप्पिणेहि) इस मेरी आज्ञा को यथावत् पालन करने की खबर पीछे मुझे बहुत जल्दी भेजो ॥ सू० ४३ ॥ 'तए ण से जाणसालिए' इत्यादि । (तए ण) सेनापति के आदेश देने के बाद (से जाणसालिए) उस यानशाला के अधिकारी ने (वलवाउयस्म) सेनापति के (एयम) यान को सजित करके लानेको पाडियस्काइ) मे ४ राणीने या योज्य ससा मसग ३५भा (जत्ता भिमुहाइ) यात्राने साय नगवानना हैशन ४२वा माटे सभा मेसीन वाय सेवा, (जुत्ताइ ) मा सारा मा२६ महथी युक्त (जाणाइ) २थ २ES पाडनाने (उचट्टवेहि) ७.१२ २। (उपद्वपित्ता) डा०२ उशन (एयमाणत्तिय पन्चप्पिणेहि) मा भारी माज्ञानु पालन ४२वानी मस२ ५छी भने मई arch wal (सू० ४३) " त ण से जाणसालिए" त्यादि तए गो मेनापतिना माशीचा पछी (से जाणसालिए) ते यानशालाना शधिकारी (पलपाउयास) सेनापतिनी (एयमट्ट) यानने तयार भने साव Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोपपिणो-टीका स ट यानशालिकस्य पलव्यापृताऽऽदेशसपादनम ३७९ आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेड, पडिसुणित्ता जेणेव जाणसाला तेणेव उवागच्छड, उवागच्छित्ता जाणाई पञ्चुवेक्खेड, पन्चुवेक्खित्ता जाणाड संपमजेड,संपमजित्ला जाणार्ड संवटेड,संवट्टित्ता जाणार्ड णीगेड,णीणित्ता जाणाणं से पवीणेड, पवीणिताजाणाडं प्रतिशृणोति स्वीकगेति, प्रतिश्रुय आज्ञावचन पौत्य यत्रैय यानगाला तपोपागच्छति, उपागय 'जाणाइ पच्चुवेरखेड' यानानि प्रयुपेक्षते- सम्यक प-यनि, प्रत्युपेक्ष्य दृष्ट्वा 'जाणाद सपमज्जेड' यानानि सम्प्रमार्जयति-विगतरजासि कुस्ते, सम्प्रमार्य, 'जाणाई सब?' यानानि चर्तयति-स्फस्मिन् म्याने स्थापयति, 'संवट्टित्ता' पय॑ 'जाणाई पीणेड' यानानि नयति-गालातो वहिपगेति, नाया 'जाणाण' यानाना 'दसे' दूप्याणि-आच्छादनवस्त्राणि 'पवीणेइ' प्रविनयति अपसारयति, प्रविनीय-अपसार्य, आनाको सुनकर (आणाए विणएण वयण) उस आनावचन को पिनयपूर्वक (पडिसुणेट) स्वाकार किया, (पडिसुणित्ता) स्वीकार करके फिर वह (जेणेव जाणसाला) जहा यानाला थी (तेणेव उवागच्छद) वहाँ पहुँचा, (उवागच्छित्ता) पहुँचकर (जागाइ पञ्चुवेक्खेड) उसन वहा पहिले रथ आदि यानों को अच्छी तरह से देसा । (पन्चुवेक्वित्ता) देसफर (जाणाई सपमन्जट) उसने उसे अच्छी तरह झाड-झड कर साफ किया । (सपमनित्ता जाणाई सबट्टेइ) साफ करने के बाद उसने फिर जितने चायेि थे उतने यान एक जगह एकत्रित किये। (सवहिता) टकह करने के बाद (जाणार णीणेट) वहा से उसने उन सर को बाहिर निकाला। (णीणित्ता) वाहिर वानी माजा मामणीने (आणाए विणण्ण वयण) ते माजावयननी विनयपूर्व (पडिसुणेइ ) वीर ध्यो (पडिसुणित्ता) भ्वा०२ गने पछी ते (जेणेन जाणसाला) या यानशाता हती (तेणेस उपागच्छइ) त्या पा-यो (नाग त्तिा ) पडाचीन (जाणाइ पन्चुवेस्या) तेरे त्या पडसा २५ हि यानाने माग गते नया. ( पन्चुवेरिखता) लेधने ( जाणाइ सपमजेइ) ते तेथे भाग गते पाणी-४ मा र्या ( सपमज्जिता जाणाइ सव?ई) मा ४१ લીધા પછી તેણે જેટલા જોઈતા હતા તેટલા યાન (વાહન) એક જગાએ मे ४यो (सवट्टिता) ४१ ४२॥ सीधा पछी (जाणाइ णीणेड) त्याथी तो ये पधाने मा२ दया (गीणित्ता) २ बाढीने (जाणाण दूसे Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwmo ३८० ओपति __ समलंकरेइ, समलंकरिता जाणाई घरभडगमंडियाईकरेइ,करित्ता जेणेव वाहणसाला तेणेव उवागच्छड, उवागच्छित्ता वाहणसालं अणुपविसड, अणुपविसित्ता वाहणाई पञ्चुवेरखेड, पवेक्खित्ता वाहणाई सपमन्नड, सपमजित्ता वाहणाई गीणेड, णीणिता वाह'जाणाद समलकरे' यानानि समन्दरोति य-योजालिम हलालकारागि करोनि, समलकृत्य 'जाणाइ परभडगमडियाद' यानानि यग्भाण्टकमण्टितानि-पगभरणभूषितानि 'करेइ' करोति, वा यौर वाहनशाला तनवोपागच्छनि, उपागय, वाहनमालामनुप्रविनि, अनुप्रविश्य पाहणाई पच्चुवेरखेद' वाहनानि प्रयुपेनते, तेपामङ्गप्र यद्गसौन्दर्य पश्यति, दृष्ट्वा वाहनानि 'सपमनट' सम्प्रमार्जयति निर्मलीकरोति, सम्प्रमान्य वाहनिकालकर (जाणाया से पीणेद) उनके ऊपर के वस्त्रों को उसने दूर किया । (पवीणित) जब वख कि जिनसे ये ढके हुए ये दूर हो चुके तप उमने (जाणार समलफरेद) उन सब याना को अलत किया । (समलफरित्ता) जर वे अच्छी तरह अलकृत हो चुके तत्र (जाणार वरभडगमडियाई करेइ) उन यानों को उसने अच्छी राति से गादी-तक्रिया आदि उपकरणा से मडित किया। (करिता) सुसजित कर (जेणेच वाहणसाला तेणेव उवागन्छइ) फिर वह जहा वाहनगाला या वहाँ पहुँचा, (उवागरिउत्ता) पहुँच कर (वाहगसाल अणुपविसइ) वट उस वाहनमाला के भीतर प्रविष्ट हुआ । (अणुपविसित्ता) प्रविष्ट होकर (पाहणाद पचुवेकवेइ) उमने बाहना को देखा (पन्चुवेपवीणेइ) तमना न पसीने त २ भूया (पचीणित्ता) न्यारे ते पसीनाबी ४१॥ ता ते 25 गया त्यारे तो (जाणाइ समलकरेइ) ते १५१ यानाने शायर्या (समलकरिता) न्यारे ते मारी ते मत थ युध्या त्यारे (जाणाइ रमडगमडियाइ करेइ) ते यानाने ती सातिथी गादी तढिया मादि परशाथी भडित यां (करित्ता) सुस Gma रीन (जेणेर पाहणसाला तेणेव आगच्छइ ) पछी या शाखा ती त्या पहा-या (आगच्छित्ता) पायीन (वाहणमाल अणुपरिसइ) a से पानी २५ ६२ 241 (अणुपविमित्ता) grue इन (वाहणाइ पच्चुवेश्खेइ) 0 पालनाने या (पन्चुवेक्सित्ता) छन (बाह Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयपपिणो टोका स ४८ यानशाठियस्य यरव्यापूनाऽऽदेशमपादनम् ३८१ णाई अप्फालेड, अफालित्ता दूसे पवीणेइ, पवीणित्ता वाहणाई समलंकरेड, समलंकरिता वाहणार्ड वरभंडगमंडियाई करेड,करिता वाहणाड जाणाई जोएड, जोडता पओयलहिं पओयधरए य नानि ‘णीगेड' नप्रतिनहिष्फरोति, नवा वाहनानि 'अफालेड ' आस्फालयति हस्तेन आस्फालयति, आस्फान्य 'दसे पपीट' दूष्यागि प्रपिनयति आच्छादनपत्राण्यपनयति, प्रविनीय 'पाहणार समरेट' वाहनानि समलहंगेति, ममलस्य वाहनानि 'वरभंडगमडिया करेड' वग्भाग्डमण्टितानि करोति, कृत्वा 'वाहणाड जाणाई जोएट' वाहनानि यानेषु योजयति, योजयित्वा यानगालिक 'पओयलट्ठि' प्रतोदयष्टिं वाहनचालनार्थी यष्टि 'पराणी' टति भाषाप्रसिद्धा 'पोय परए य' प्रतोदधरान= भकटवाहकान् मन्युगपन्-एफस्मिन् काले 'आडडड' आहरति एकस्मिन स्याने सवाक्खित्ता) देखकर (वाहणाट संपमन्नइ) उसने उन्हें साफ किया । (सपमनिता) साफसूफ कर (वाहगार णीगेइ) बाह्नों को उमन वहा से नाहिर निकाला, (णीणित्ता) बाहिर निकालकर (वाहगाइ जप्फालेट) उमने फिर उनके पीठ पर हाय फिराया, (अप्फालित्ता) हाथ फिगर (दमे पीणेइ) फिर उसने उनकी बोलियों को अलग किया । (पत्रीणित्ता) जन गोलिया उनकी अलग हो चुका तर फिर उसने (वाहणाई समलकरेट) उन वाहनाको गारित किया । (समलकरिता) जब ये अच्छी तरह से सजा दिये गये तर (वागाइ घरभडगमडियार करेट) उसन उनको उपकर गो से मटित किया, (करित्ता) करा के वाढ (वाहणार्ट जाणादं जोएइ) फिर उसने उन वाह्नों बैलों को स्था मे जोते, (जोटत्ता) जोनन के बाद (पोय पोयपरए य सम आडहर) उमने णाइ सपम जइ) तो तमने सार्या (सपमज्जित्ता) सास गने (वाहगाइ णीगेइ ) वाइनाने ते त्याथी पहाडीया (णीणित्ता) पहा डाढीने (पाहणाइ अफालेड) तरी शन तमनी पा. 6५२ हाय ३२०ये। (आफालित्ता ) हाय ३२वीन (दसे पपीणेड) ५ ते तेमनी जागाने ही की, (पपीणित्ता) त्या जागी तमनी gी गई ७ त्या२ पछी ते (पाहणाइ समलकरेड) ते पाहनाने शगाया, (समलफरित्ता ) त्यारे ते मारी दाते या य (15) गया त्यारे (वाहणाइ पगमेंटगमंडियाई करेड) ते" तेभने 645२014 मडित यां (करित्ता) या पछी (वाहणाइ जाणाइ जाएइ) तो ते पाडनाना हाने श्यामा नेशव्या, (जोइत्ता) ने डाव्या पछी (पओयलाई Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૮ર औपपातिकतने समं आडहइ, आडहिता वहमगंगाहेड, गाहिता जेणेववलवाउए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता बलवाउयस्स एयमाणत्तियं पञ्चपिणइ ॥ सू०४४॥ मूलम्-तए णं से वलवाउए जयरगुत्तियं आमंतेइ, हनयानानि तेषु प्रतोदयष्टी प्रतोदधरान् शकटयाहकाश्च स्थापयति । 'आडहित्ता' आहृदय, 'वट्टमग्ग' वर्तमार्गम्=गकटादिगम्यमार्ग-राजमार्ग 'गाहेड' ग्राहयति, ग्राहयिवा यौव बलल्यापृतस्तरेयोपागच्छति, उपाग य 'पलाउयस्स एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणइ' वलन्यापृताय एतामाजप्तिका प्रत्यर्पयति--आजा सम्पाद्य पश्चानिवेदयती यर्थ ॥ सू०४४ ॥ टीका-'तए ण' 'यादि । 'तए ण से बलवाउए' तत मलु स बलल्यापतो उन यानों मे हाफने का चाबुको एव हारने वालों को एक ही साथ स्थापित कर दिया, (आडहित्ता) चायुक लेकर हाफने वाले जन अच्छी तरह उन यानों पर जमकर बैठ चुके तब (वट्टमग्गं गाहेइ) उसने उन यानों को राजमार्ग पर उपस्थित किये । (गाहित्ता जेणेव वलवाउए तेणेव बागच्छइ) उन्हें राजमार्ग पर उपस्थित कर फिर वह यान शालाधिकारी जहा सेनापति थे वहा पहुचा । (उवागच्छित्ता वलबाउयस्स एयमाणत्तिय पञ्चप्पिगद) पहुँचकर उसने कहा कि हे स्वामिन् । आपके आज्ञानुसार सभा यान तैयार है ॥ सू० ४४ ॥ 'तए ण से बलपाउर' दयादि। (तए ण) इसके बात (से बल पाउर) उम सेनापतिने (गयागुत्तिय) नगर की रक्षा पओयधरण य सम आडहइ) तेणे ते यानामा जापानी यामुळे तेभर 8sपापाजाने ४ ४ साथे स्थापित सीधा (आडहित्ता) रामु बन पापा न्यारे मारी गत ते यानी उप२ मेमी युध्या त्यारे (घट्टमग्ग गाहेइ) तणे ते यानाने मार्ग ५२ ४२ ४ा, (गाहित्ता जेणेव बनाउए तेणेन आ T૬) તેમને રાજમાર્ગ પર હાજર કરીને પછી તે યાનશાળાધિકારી સેના पतिनी पाने पम्य (पागन्त्तिा बलपाउयस्स एयमाणत्तिय पञ्चप्पिणड) પહોચીને તેણે કહ્યું કે હે સ્વામિન ' આપની આજ્ઞા પ્રમાણે બધા યાન તૈયાર छ (सू० ४४) "तए ण से बलगाउए" त्यादि (तए ण) त्या२ ५४ी (मे बल्याउग) ते मेनापति थे (णयरगुत्तिय) २२ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षिणो-डीका ख ४५ चरुव्यापृतस्य नगररक्षक प्रत्यादेश' ૮૨ आमंतित्ता एवं वयासी - खिप्पामेव भो देवाणुपिया | चंप णयरिं सन्भितरवाहिरियं आसित जाव कारवेत्ता एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणाहि ॥ सू० ४५ ॥ भो 'यरगुत्तिय' नगरगुत्तिक= नगरगोमारम् 'आमतेड ' आमन्त्रयति - आयति, - 'आमतित्ता ' एव वयासी ' आमन्त्र्यै मराठीत् 'विप्पामेव भो देवाणुपिया ' प्रिमेव भो देवानुप्रिय " 'चप यरिं' चम्पा नगरा ' सभितरवाहिरिय ' साभ्यन्तरबायाम् ' आसित्त जात्र कारवेत्ता' आसिक शुचितमुष्टय्यान्तरापणवीथिका यावद्गन्ध वर्निभूता कुरु, कारय, कृना, कारयित्वा 'एयमागत्तिय ' एतामाज्ञमिका 'पच्चष्पिणाहि' प्रत्यर्पय ॥ सू०४५ ॥ करन वाले कोटनाल को (आमतेइ) बुलाया, और (आमतित्ता) बुलाकर ( एवं नयासी) इस प्रकार कहा - (विपामेव भी देवाणुपिया) ह देवानुप्रिय ' तुम गात्र ही (चप णयरि) इस चपा नग की (सभितरवाहिरिय) भातर बाहिर से सफाइ कराओ। पाना से इसमे डिडकान कराओ । जग - २ इसे पानी से चुलवाओ। कहा भी कूडा-करकट का नाम न मिले, इस तरह से इस+1 सफाई हो जाना चाहिये । प्रत्येक गल्ली एन बाजारा के मार्ग सब बहुत ही अच्छा तरह से साफसूफ किये जाये। जगह २ सुगधित जल का, गोरोचन का एव सरस लाल चंदन का छिडकाव हो, जिससे यह नगरो सुगणित इत्य जैसी बन जावे । तुम से यही कहना है, जाओ और इस आदेश की शीन से शीन पूर्ति करो और उन कामों को पूरा कर के मुझे गीन सूचित करो || सू० ४५ ॥ रक्षा उखाणा भेटवासने (आमतेइ ) मोलाच्या अने ( आमतित्ता) मोसावीने ( एव वयासी) मा प्रहारे उछु (खिपामेव भो देवाणुप्पिया ) हे हेवानुप्रिय ! तभे सहीथी (चप णयरिं) या यनगरीनी ( सभितरबाहिरिय ) शहर तथा મહારથી સફાઈ કરાવેા, તેમા પાણીને छटाव हरायो, ठे-ठाणे તેને પાણીથી ધાવરાવા કયાય પણ ક઼ડા રટનું નામ ન રહે એમ તેની સફાઈ થવી જોઇએ પ્રત્યેક ગલી તેમજ બજારના રસ્તા ખ઼ુબજ સારી રીતે સાસૂર કરવા ઠેકાણે સુગધિત જલને, ગાગી-સુખડના તેમજ સરસ રકત ચદનના છટકાવ હેાય, જેથી આ નગરી સુગધિત ચીજ જેવી ખની જાય તમને એજ કહેવાનુ છે જાએ અને અદેરાડે જલ્દી પૂર્ણ કરે અને તે કામે પૂરા કરીને મને જલ્દી ખબર કરેા (સ્૦ ૪૫) Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ औपपातिकको समं आडहइ, आडहिसावमग्गंगाहेइ, गाहिता जेणेव वलवाउए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता बलवाउयस्स एयमाणत्तियं पञ्चपिणइ ।। सू० ४४॥ . मूलम-तए णं से बलवाउए णयरगुत्तियं आमतेइ, हनयानानि तेषु प्रतोदयष्टी प्रतोदधरान् शकटवाहकाच स्थापयति । 'आडहित्ता' आहाय, 'वट्टमग्ग' वर्तमार्गम् शकटादिगम्यमार्ग-राजमार्ग 'गाहेइ' ग्राहयति, प्राहयिवा यत्रैव बलव्यापृतस्तरैवोपागच्छति, उपागत्य 'चलाउयम्म एयमाणत्तिय पञ्चप्पिणइ' बलत्र्यापृताय एतामाजपिका प्रत्यर्पयति आजा सम्पाद्य पथानिवेदयनी यर्थ ।। सू०४४ ॥ .. टीका-'तए ण' 'यादि । 'तए ण से पलयाउए' तत सलु स बलन्यापूतो उन यानों मे हाकने की चाबुका न हाकने वालों को एक ही साथ स्थापित कर दिया, (आड हित्ता) चायुफ लेकर हाफने वाले जब अच्छी तरह उन यानों पर जमकर बैठ चुके तब (वट्टमग्गं गाहे.) उसने उन याना को राजमार्ग पर उपस्थित किये । (गाहित्ता जेणेव बलबाउए तेणेव उबागच्छइ) उन्हें गजमार्ग पर उपस्थित कर फिर वह यान शालाधिकारी जहा सेनापति थे वना पहुचा । (उवागच्छित्ता बलवाउयस्स एयमागत्तिय पञ्चप्पिगद) पहुँचकर उसने का कि हे स्वामिन् । आपके आजानुसार सभा यान तैयार है ॥ सू० ४४ ॥ 'तए ण से बलवाउर' दयादि । (तएण) इसके बाद (से वल पाउए) उम सेनापतिने (गयागुत्तिय) नगर का रक्षा पओयधरए य सम आटहइ) तेणे ते यानामा पानी यामुळे तेभ 85. पापागाने से साथे स्थापित ४१ हीधा (आडहित्ता) यामु४ सईने पापा न्यारे मारी ते ते यानी ५२ मेसी युध्या त्यारे (वट्टमग्ग गाहेइ) तणे त यानाने २४मा ५२ ७२ अर्या, (गाहित्ता जेणेव बलवाउए तेणेव उमा ૬) તેમને રાજમાર્ગ પર હાજર કરીને પછી તે યાનશાળાધિકારી સેના पतिनी पार पडाये। (मागत्तिा बलपाउयस्स एयमाणत्तिय पचप्पिणइ) પહોચીને તેણે કહ્યું કે હે સ્વામિન ' આપની આજ્ઞા પ્રમાણે બધા યાન તૈયાર छ (सू० ४४) " तए ण से वलयाउए" त्याह (तए ण) त्या२ ५४ी (से यलपाउए) ते भेनापति (जयरगुत्तिय) नानी Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यूपवर्षिणो-दोका सू ४५ वव्यापृतस्य नगररक्षक प्रत्यादेश ३८३ आमंतित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया चंप णयरिं सभितरवाहिरियं आसित्त जाव कारवेत्ता एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणाहि ॥ सू० ४५॥ 'णयरगुत्तिय' नगरगुत्तिक-नगग्गोमाग्म् 'आमतेड' आमन्त्रयति-आयति,-'आमतित्ता 'एक बयासी' आमन्त्र्यैवमयादीत 'विप्पामेव भो देवाणुप्पिया' तिग्रमेव भो देवानुप्रिय । 'चप णयरिं' चम्पा नगरा ‘सभितरवाहिरिय' साभ्यन्तरवाद्याम् 'आसित्त जाव कारवेत्ता' आमिक्तशुचिसमष्टर यान्तरापगीथिका यावद्गन्धवर्निभूता कुरु, कारय, कृपा, कारयित्वा 'एयमागत्तिय' एतामाजमिका 'पञ्चप्पिणाहि' प्रत्यर्पय ।। सू०४५॥ करनपाले कोटवाल को (आमतेइ) बुलाया,और (आमतित्ता) बुलाकर (एवं पयासी) इस प्रकार कहा-(पिप्पामेव भो देवाणुपिया) हे देवानुप्रिय ' तुम गीत्र ही (चप णयरि) इस चपा नगगकी (सभितरवाहिरिय)भीतर बाहिर से सफाद गओ। पाना से इसमे छिडकाव कराओ। जगह २ इसे पानी से धुलगाओ। कहा भी कृटा-करकट का नाम न मिले, इस तरह से स। सफाई हो जानी चाहिये । प्रयेक गला एप बाजारों के मार्ग सब बहुत ही अच्छी तरह से साफसूफ किये जाये। जगह २ सुगधित जल का, गोरोचन का एव सरस लाल चदन का छिडकाव हो, जिससे यह नगरी मुगपित द्रव्य जैसी बन जावे। तुम से यही कहना है, जाओ और इस आदेश की शान से शीत्र पूति करो और उन कामों को पूरा कर के मुझे शीघ्र सूचित करो ॥ सू० ४५ ॥ २क्षा ४२वाटपालने (आमतेइ) मासाच्या मने (आमतित्ता) लावीन (एव वयासी) मा प्रकारे उछु (खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया) हेवानुप्रिय ! तभे सहीथी (चप णयरि) मा य पानगशनी (सन्भितरबाहिरिय) म १२ तथा બહારથી સફાઈ કરવો, તેમાં પાણીને છ ટકાવ કરાવે, ઠેક-ઠેકાણે તેને પાણીથી ધોવરાવ કયાય પણ ફડાકરટનું નામ ન રહે એમ તેની સફાઈ થવી જોઈએ પ્રત્યેક ગલી તેમજ બજારના રસ્તા ખૂબ જ સારી રીતે સાફસૂફ કરવા છેકઠેકાણે સુગ ધિત જલને, ગોગ-સુખડને તેમજ સરસ રક્ત ચંદનને છ ટકાવ હોય, જેથી આ નગી સુગ ધિત ચીજ જેવી બની જાય તમને એજ કહેવાનું છે જાઓ અને આદેશાને જરી પૂર્ણ કરો અને તે કામે પૂરા કરીને મને જરરી ખબર કરે (સૂ૦ ૪૫) Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८१ औपपाभिकर __ मूलम---ताए ण से णयरगुत्तिए बलवाउयस्स एयम (सोना) आगाए विणण वयणं पडिसुणेई, पडिसुणिता चप गर्यार समितरबाहिरियं आसित जाव कारवेत्ता जेणेत्र टीमा---' ताण यानि । 'ना ण मे गयरगुत्तिए' तत रपट स नगरगुपका बचाउयम्म यम' पर पानयतमय मोचा' गजाणाए विणएण यण पडिमुणद' पानामा पठन पचन प्रातराणानि 'पडिमुणित्ता च णार मन्भिनरमानियि नायिन जार पारवत्ता प्रतिपय चम्पा नगगें माभ्यन्तरवाहामामिन्य यावत् कागय । जेणेर ग्याउ नणय उवागन्छ।' यौन वलगायतस्त 'नाणं म णयरगनिए 'द यानि । ( ताण ) टमर बाट ( म णयराति ) म नगरक्षक कोटबाल्न (पर. गाउयम्स ) मनापति क ( यमट । नगर का सफार गर के आदेश को (सोचा) मुनकर ( आणा पयाण विणण ) आना क पनन का डे गिनय क साय (पडिमुणेइ ) साकार क्या । ( पटिमुणित्ता चप गरि मभितरवाहिरिय) ग्वाकार करन बाट " उसन चपानगर क भानर बाहिर मर तरफ स ( भासित जाव कारवेत्ता) मफाया सम्याग र पहिरमन उग्र मर जगह पाना कउिडकार स मिचयाया। गली-कूचों मजा घटा करकट पटाना या उसका मफाट करबाट । जाग के गस्नों को तथा नालिया मा अक्रम तम् स झाद पाक साफ स्वाया, मतलब यह कि सफाई में किता मा नाद का त्रुटि नग रमा। जन ना ही नह भातर-माहिर से साफ हो 'ताण से घरगुनिए' न्याहि (TOR) 4.२ ५१ (स उरगुत्तिग) i ssiena (पलपाउयस्स) सनापविन (यम) नभनी म । ४२११पानी माहेशने (मोन्चा) सामान (आग पण विणा) Ron यनाने मई विनय (पडिसुणेइ) वी ४२ ४३, (पडिसुणित चपणपरि सभितरवाहिरियो गी४१२ उ41 ५७ तेरे यपानगानी २५० २ ० ५धी नयी (आसित्त जाव कारवेत्ता) २ કરાવી વી વી પહેલા તે તમાં બધી જ એ પાણી છટકાવ લાવ્યા ગવી પીમાં જ કે પૂજે પડયો હતો તેની સફાઈ કરાવી બજા ના ના સારી રીન વાળyક કરી માફ કરાવ્યા મતલબ એ કે નફાઈમાં કે પણ પ્રકારની બુટિ રાખી નહિ જ્યારે નગરી સારી રીતે આદર અને Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - पीयूषवर्षिणी-टीय। सु ४७ घर व्यापृतस्य कूणिक प्रतिनिवेदनम ३८५ वलवाउए तेणेव उवागच्छड, उवागच्छित्ता एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणड ॥ सू० ४६॥ मूलम्-तए णं से बलवाउए कोणियस्स रणो भंभसारपुत्तस्स आभिसेक हत्थिरयणं पडिकप्पियं पासइ. हय-गय - योपागच्छति ‘उवागच्छित्ता एयमाणत्तिय पचप्पिणड' उपागय पतामात्रमिका प्रयर्पयति ।। सू० ४६ ॥ टीका-'तए ण' इत्यादि । 'तए ण से बलवाउए' तत स्खलु स बलल्यापृत 'कोणियम्स रणो भभसारपुत्तस्स' कृणिस्य गनो भभसारपुत्रस्य 'आभिसेक्क हत्थिरयणं पडिकप्पिय ' आभिपेक्य हस्तिरत्न परिकल्पित 'पासइ । पश्यति, 'हयगय जाव सण्णाहिय' ह्य-गज यावत मनाहिता 'पास' पश्यति, अत्र यावच्छन्देन चुकी तब फिर यह कोटयाल (जेणे पलवाउए तेणेव उवागच्छइ) जहाँ सेनापति था वहाँ पर पहुंचा। पहुँच कर उसने नगरी माफ हो चुकी है इस बात की उसे खबर दी। सू० ४६ ॥ __ 'तए ण से वलयाउए' दयादि । (तए ण) इसके बाद ( से पलवाउए ) उस सेनापतिन (भभसारपुत्तस्स) भभसार अर्थात श्रेणिक के पुत्र (कोणियस्स रणो) कृणिक राजा के (आभिसेक) अभिषिक्त-पट्ट ( इत्थिरयण ) हस्तिर नको (पडिकप्पिय) अच्छी तरह से शृगारित किया हुआ (पासइ) देना । (हयगय जाव सण्णाहिय पासड ) तथा य-गज आदि से युक्त चतुरगिणी सेना को भी सन्नद्ध देसा। (सुभद्दापमुहाण देवीण महारथी मा६ थई त्यारे पणी त पास (जेणेच बलपाउए तेणेच वागच्छइ) જ્યા મેનાપતિ હતા ત્યા પહે અને પહેચીને તેણે નગી સાફ થઈ ગઈ छ, ये पातनी ते भारधी (१० ४६) 'तए ण से बलवाउए' (त्यादि (तए ण) त्या२५७ [से वल्याउए ते सेनापति भभमारपुत्तस्म] मार मर्थात श्रेणिना पुत्र (कोणियम्स रण्णो)णि शतना [आभिसेक मालिय-- ५४ (हत्थिरयण) हाथीरत्नन (पडिकप्पिय) सारी शत शारे। (पामइ) नेये। (हयगय लाव सण्णाहिय पासइ) तथा उय माहिया युत यतुर गियी Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ সাথমিক - जाव-सण्णाहिय पासड. सुभदापमुहाणं देवीणं पडिजाणाई उवट्ठवियाई पामड, चंपंणयरि सम्भितर जाव गंधवहिभूयं कयं पासड, पासित्ता हतुदृचित्तमाणदिए पीयमणे जाव हियए जेणेव कूणिए राया भभसारपुत्ते तेणेव उवागच्छड, उवागच्छित्ता 'स्थ-प्रवग्योध-कलिता च चतुरङ्गिणी सेनाम्' इति दृश्यम् , 'मुभापमुहाण देवीण' मुभद्राप्रमुग्याणा--मुभद्रादीना देवाना 'पडिजाणार उपद्ववियाह । प्रतियानानि-अकटानि उपस्थापितानि 'पासह ' प-यति, 'चंप गरि समितर जार गधचटिभूय कय पासद' चम्पा नगा माऽभ्यन्तरा याद गन्धपनिभृता कृता प.यति, दृश्य हट्ठ-तुद-चित्तमाणदिए । इष्टतुरचित्ताऽऽनन्दित 'पीयमणे नाव हियए' प्रीतमना यावद् हृदयो 'जेणेव ऋणिए राया भभसारपुत्ते' यव कृणिो राजा भभसारपुत्र , 'तेणेत्र उबागच्छद' तौयोपागच्छति, 'उवागन्छिता' उपागत्य 'करयल जाव एव वयासी' पडिजाणार उपवियाई पासइ) सुभद्राप्रमुस देविया के लिये आये हुए ग्या को भी देगा। (चप गरि सम्भितर जाव गवटिभूयं कय पासह) और यह मा दया कि चपानगा भातर वाहिर से अच्छी तरह से स्वच्छ हो चुकी है, पव उमस मुगधि का महक उठ रहा है । (पासित्ता हट्ठ-तुटु-चित्त-माणदिए पीयमणे जाव हियए जेणेर कणिए राया भभसारपुत्ते नेणेव उवागड) यह सन देखकर वह बहुत ही सुश हुआ हर्ष के मारे वह फूल नहीं ममाया । प्रसन्न मन होकर यह गारी जहा श्रेगिक के पुत्र कृगिक राजा थे वहा पहुँचा । (उवागच्छित्ता करयल जाव एव वयामी) पहुँचकर उसन सर्वप्रथम राजा को दो हाथ जोटकर प्रणाम किया और मनाने ५५ ५।२४ ४ (सुभद्दापमुहाण देवीण पडिजाणाइ उवदृषियाइ पासइ) मुखद्राप्रभु देवी-मान माटे मावा रथाने पण या (चप गरि सभितर जाच गहिभूय कय पासइ) मले से पशु यु पानगरी અ દર અને બહારથી સારી રીતે સ્વ-છ થઈ ગઈ છે, તેમજ તેમાથી સુગપીની भर यासी रही छे (पामित्ता हट्ट-तुटु-चित्त-माणदिए पीयमणे जाव हियए जेणेव वृणि राया ममसारपुत्ते तेणेव उवागन्छइ) मा मधुमेधने त Y ખુશ છે અને અત્યંત હર્ષિત થઈ ગયે મન પ્રસન્ન થવાથી તુરત જ MAR लिना पुनधि४ २० ता त्या पायो (स्वाछित्ता परयल जाव Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ___ पीयूषयपिणी-टीका स ४७ बलव्यापृतस्य कृणिक प्रतिनिवेदनम् ३८७ करयल जाव एवं वयासी-कप्पिए णं देवाणुप्पियाणं आभिसेके हत्थिरयणे, हयगय-जाव-पवर-जोह-करिया य चाउरंगिणी सेणा सण्णाहिया, सुभदापमुहाण य देवीणं वाहिरियाए उवहाणसालाए पाडियकपाडियकाई जत्ताभिमुहाड जुत्ताई जाणाई उवट्टावियाडं, करतल यावदेवम् अवादीत-कप्पिए णं देवाणुप्पियाण आभिसेक्के हत्थिरयणे' कल्पित खलु देवानुप्रियाणामाभिपेक्य हस्तिरत्नम् 'हयगयरहपवरजोहकलिया य' हयगजरथप्रपरयोधकलिता च ' चाउरगिणी सेणा सण्णाहिया' चतुरङ्गिणी सेना सन्नाहिता, 'सुभद्दापमुहाण य देवीणं ' सुभद्राप्रमुखाना च देवीना 'वाहिरियाए उवट्ठाणसालाए' नाह्यायामुपस्थानशालाया 'पाडियकपाडियकाइ' प्रत्येक प्रत्येक 'जत्ताभिमुहाइ जुत्ताइ जाणाइ उवट्ठावियाइ' यानाभिमुसानि युक्तानि यानानि उपस्थापितानि, फिर इस प्रकार कहने लगा कि (कप्पिए ण देवाणुप्पियाणं आभिसेक हत्यिरयणे) है देवानुप्रिय ! आपका आभिपेक्य हस्तिरत्न शृगारित हो चुका है। (हय-गय-रहपवरजोह-कलिया य चाउरंगिणी सेणा सण्णाहिया) घोटे, हाथी, रय एव सुभटो से युक्त चतुरगिणी सेना भी सजा-बजाकर तैयार की जा चुकी है। (सुभद्दापमुहाण य देवीण वाहिरियाए उवट्ठाणसालाए पाडियकपाडियकार जत्ताभिमुहाइ जुत्ताई जाणाद उवट्ठावियाई सुभद्राप्रमुस देविया के भी बाहिर का उपस्थानशाला मे अलग २ बैठने के लिये, यात्रा के योग्य एव अच्छे २ बैलां से युक्त ऐसे ग्य लाकर उपस्थित कर दिये एवं वयासी) पहायाने तणे सपथी पडेसा शनने मन्ने हाय प्रणाम इयो भने पछी त मा घडारे का साये (कप्पिए ण देवाणुप्पियाण आभिसेक्के हत्थिरयणे) हे हेपानुप्रिया मापनी मालिऽय साथीरल शारा गये। (हय-गय-रह-पवरजोह-कलिया य चाउरगिणी सेणा सण्णा हिया) घोस, हाथी, २५ तेभर सुखटाथी युद्धत यतु२ गिणी सेना पर Arror थई ४ छ (सुभद्दापमुहाण य देवीण बाहिरियाए उवट्ठाणसालाए पाडियक्कपाडियस्काइ जत्ताभिमुहाइ जुत्ताइ जाणाइ उपहावियाइ) सुखद्राप्रभुम દેવીઓને માટે પણ બહારની ઉપસ્થાનથાલામા અલગ અલગ બેસવાને સારૂ, યાત્રાને ગ્ય તેમજ સારા સારા બળદથી યુક્ત એવા રથ લઈ આવી २ रामेसा छ (चपा णयरी सन्भितरयाहिरिया आसित्त-जाव गधवट्टिभूया कया) Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦૮ औverfras चंपा पायरी सभितरवा हिरिया आसित जाव गंधवट्टिभूया क्या, त णिज्जंतु णं देवाणुप्पिया । समणं भगवं महावीरं अभिवंदिउ ॥ सू० ४७ ॥ मूलम् - तए णं से कूणिए राया भंभसारपुत्ते वल 'चपायरी सभितरवाहिरिया' चम्पा नगरी साम्यन्तरमाया 'आसित जाव गधवहिभूया कया' आमिक यावद त्यतिभूता ऊता, 'त णिज्नतु ण देवगणुरिया' तन्निर्यान्तु पल देवानुप्रिया समय भगर महावीर अभिरदिउ ' भगात महानीरमभिवन्दितुम् ॥ सू० ४७ ॥ } ' टीका' नए ण 'यादि । 'तए ण' ततमेनापतिनिवेदनानन्तर खल 靠 से कणिए राया ममसारपुत्ते ' म ऋणिको गजा भभसारपुत्र 'लवायम्स अतिए ' बलत्र्यापृतस्याऽन्तिक= बल यातमुपात 'एयम' एतमर्थ ' भरदाजानुसारेण सर्व सम्पा है । (चपा पयरी सभितरवाहिरिया आमित्त जाव या कया) तथा पानी से अच्छी तरह scareर साफ करा दी गई है। उसमे जल भी छिडकचा दिया गया है, यावत् यह सुमित जैसी बन चुकी है, ( त देवाणुपिया) अत ह देनानुप्रिय ' ( समण भगव महावीर अभिवदिउं णिज्जतु ) अब आप श्रमण भगान महान को ना करने के लिये पधारे ॥ मू० ४७ ॥ 'तरण से णि राया भभसारपुते यात | (तएण ) इसके (सारपुत्ते मे कणिए राया) भमसार अथात श्रेणिक के पुत्र कृणिक राजा (स्स) मेनापति के मुस मे ( एयमहं सोचा ) हाथा आदि का નથા ચ પાનગરી પણ અંદર-બહારથી માર્ગ રીતે વાળીઝૂડી સાફ કરાવી દીધી છે તેમા પાણી પણ છટાળ્યુ છે જેવી તે સુગધિત દ્રવ્ય જેવી ખની (पिया) भाटे हे देवानुप्रिय ! (समण भगव महावीर अभिवंदि भिज्जतु ) रुपे आप श्रम लगवान महावीरने चहना वा મારૂ ધાર (भू ४७ ) 'ar मे कणिए राया भारते' त्याहि (तर पण त्यार पछी ( भभसारपुत्ते मे कूणित रया) ल लभार अर्थात् श्रेलिना पुत्र धि रा ( पायस्स) सेनापतिना मुभथी [ण्यमट्ठ सोन्चा] साथी Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषवषिणी टीका र ४८ कृणिकम्य व्यायामादियिधि ३८९ वाउयस्स अंतिए एयम मोच्चा णिसम्म हतु जाव हियए जेणेव अट्टणसाला तेणेव उवागच्छड, उवागच्छित्ता अदृणसालं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता अणेग-वायाम-जोग्ग-वग्गण-वामद्दणमलजुद्ध-करणेहिं संते परिस्संते सयपागसहस्सपागेहिं सुगंधरितम् -ाना गाता ' मोचा' वा 'णिसम्म ' निगम्य-दृति प्रया, 'हट-तुटु जात्र हियए' -ट-तुष्ट--यावढय - परमप्रमनमानस मन 'जेणेव' यत्रैव 'अट्टणसाला' अनगाला व्यायामयाला तेणव उवागन्छ' नयोपागच्छति, ‘उवागच्छित्ता' उपागय 'अट्टणसाल अणुप्पविसट' अनगालामनुग्रपिगति, 'अणुप्पविसित्ता' अनुप्रपिन्य 'अणेग-बायाम-जोगग-वगण-बामण-मल्लजुद्ध-करणेहि ' अनकव्यायाम-योग्य-वल्गन-न्यामन-मल्लयुद-कग्णे -अनके ये व्यायामा गार्गरिकपरिश्रमा तदयोग्य तन्नुकूल, नन्गनगर्दन, ज्यामर्तन परम्पग्वाह्याद्यगमोटन, मल्लयुद्ध-मल्लकीडनम्, कग्णानि मुद्गगद्विचालनानि त म 'सते' प्रान्त -मामान्यत , 'परिम्सते' पूग तयारी के समाचार को सुनकर (णिसम्म ) व अच्छी तरह से विचार कर (हष्ट-तुद्धजाव-हियए) अपन मनम बहुत ही अधिक हर्पिन हुए एप स्तुष्ट हुग। (जेणेव अट्टणसाला तेणेव उवागन्ड) पश्चात वे जहा व्यायामयाला यी वहाँ पर पहुँचे । ( उवागच्छित्ता अट्टणसाल अणुपविसइ) पहुँचत हा वे उमम प्रविष्ट हुए। (अणुपविसित्ता अर्णग-चायाम-जाग्ग-पग्गण-बामण-मजुद्ध-करहिं सते परिस्मते) प्रविष्ट होकर उन्हनि वहा पर अनेक प्रकार का व्यायाम-झागरिक परिश्रम किया, शारीरिक परिअम क योग्य दौडना-कटना प्रारंभ किया । अपन अग उपागाका अच्छी तरह से मर्दन माहिनी पुरेधुरी तयाना ममायाने मालमीन (णिमम्म) तभी सारी गते विया उगने (हद-तुद्र-जाघ-हियए) पाताना मनमा महु। हर्षित यया, तभा मतुष्ट थया (जेणेर अणसाला तेणेव उवागन्छड) पछी तसा त्या व्यायाम ती त्या पहाच्या (जागच्छित्ता अट्टणमाल अणुपविसइ) ५४।यता ते तेमा हामी यया (अणुपविसित्ता अणेग-वापराम-जाग्ग-चम्गण-चाम इण-मल्लजुद्ध-करणेहि मते परिम्सते) वामन थने तेभो त्या मने प्रारना વ્યાયામ-શારીરિક કસરત કરી શારીરિ પશ્રિમને ચગ્ય દોડવા-કૂદવાને પ્રારંભ કર્યો પિતાના અગ-ઉપાંગોને આમ તેમ વાળ્યા મલોની સાથે કુસ્તી કરી ત્યા રાખવામા આવેલ મુગર ફેરવ્યા આ ક્રિયાઓથી તેઓ પહેલા Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९० tourfonar तेलमा एहिं पीणणिजेहिं दप्पणिजेहिं मयणिजेहिं विहणिजे हिं सर्विवदियगायपल्हाय णिज्जेहि अभिगेहि अभिगिए , , = काम, परिश्रान्त-अत्यापेक्षया, 'सयपाग-सररसपागेहिं तपाकसहस्रपार्क, शत पाको येषु ते पाका, सम्यकौषधिमिश्रशेन वा पाय कापणमूल्यकद्रव्यमिश्रणेन वा पाको येषु ते शतपाकास्तैलविशेषा, ए सहस्रपाका अपि ततस्तयो द्वेन्द्र, तैस्तैलविशेष, सुर्गाधितेलात 'पीणणिजेहिं ' प्रीणनीयैरधिविधातु, 'दप्पणिज्जेहि' दर्पणीयै के ' मयणिजेहिं ' 'हिणिजेहिं णीये - मासोपचयकारिभि, 'सव्विदिय-गाय-पल्हायणिनेहिं ' सर्वेन्द्रिय--गान प्रह्लादनीयै, सर्वेपाम् इन्द्रियाणाम्, गात्राणा ग्रहादनीये महादजनके, किया । मल्लों के साथ कुस्ती लडी । वहा पर रखे हुए मुद्गरा को भी फिगया। इन क्रियाओ से यह पहिले साधारण श्रान्त हुए एव बाद में अधिक परिश्रान्त हुए । इस तरह जन अच्छा रीति से वे खूब व्यायाम कर चुके तर (सयपागसहस्सयागेहिं) उन्होंने शत पाकवाले एव सहस्रपाकवाले तैला से ( पीणणिज्नेहिं दप्पणिज्जेर्हि) जो तेल प्रीणनीय-रस-सीर आदिवर्धक एव दर्पणीय-बलवर्द्धक होते है, ( मयणिनेहि ) कामवर्द्धक होते है, (हिपिज्जेहिं ) बृहणीय - मासनानेचाल होते हैं, (सम्बिदिय - गाय - पल्हायणिज्जेर्हि) समस्त इन्द्रिय एवं समस्त शरीर को आनन्द देनेवाले होते है ऐसे तेलों से तथा (अभिगेहिं ) 7 1 * सौ वार पकाये गये, अथवा सौ प्रकार का औषधियों को मिश्रित कर पकाये गये, अथवा सौ रुपये मूल्यवाला औपधिया को गलाकर पकाये गये ऐसे तैला से। इसी प्रकार सहसपाक मे भी समझना चाहिये । સાધારણ થાક્યા, તેમજ ત્યાર પછી વધારે થાક લાગ્યા આવી રીતે જ્યારે બહુ કસરત अभी सीधी त्यारे (मयपागसहरसपागेहिं) तेभो शतया वाका तेभन सहखपाठवाला तेोथी नेते (पीगणिउजेहि दप्पणिज्जेर्हि) श्रीशुनीय रस ३धिर याहि वर्ष तेभर हर्यीय-तवर्ष होय छे, (मयणिज्जेहिं) अभवर्ष होय छे, (विहणिज्जेहि) मृडशीय - भागवर्ध: होय थे, (सव्वि दिय-गाय पहायणि जेहिं) समस्त धद्रियो तेसल समस्त शरीरने नह [૧] મેાવાર પકાવેલુ અથવા બે પ્રકારની ઓષધીઓથી મિશ્રિત કરી માવેલુ અથવા મે રૂપિયાની કે મનની આષધોને ગાળીને પકાવેલ એવા તલેઆજ રીતે મહાકમાં પણ સમજવુ જોઇએ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - पपिपिणी टीका मु ८८ कूणिम्य ज्यायामादिविधि समाणे तेलचम्मंसि पडिपुण्ण-पाणि-पाय-सुउमाल-कोमल-तलेहि पुरिसेहिं छेएहिं दक्खेहिं पटेहिं कुसलेहिं मेहावीहिं निउण'अभिगेहि ' अभ्यङ्ग-ग्नेनै 'अभिगिए ममाणे ' अभ्यह्नित --मताभ्यन मन् ‘तेलचम्ममि' तेलचर्मणा, अब तृतीया) मममा, तलानुलिमारीरस्य मर्दनमाधनरूप चर्म 'तैलचर्म' इयुच्यते, 'मवाहिए समाणे ' मवाहित मन-दयुत्तरेण अन्वय , के नाहित दयाह- पुरिमेहि पुस्पै -अजम्बाहननियुक्तमृन्यै , ते की ग्त्यिाह'पडिपुण्या-पाणिपाय-गुउमाल-कोमल-तळेहि प्रतिपूर्ण-पाणिपाद-मुकुमार-कोमलतलै --प्रतिपुर्णानाम अधिकलगना, पाणिपादाना सुकुमारकोमलानि-अतिमदुलानि तानि येपा ते तथा ते , 'एहि कैमर्दनकानिपुण , 'ढक्खेहि दक्षे अविलम्बितकानिभ , मर्दन कार्य प्रेम, 'पढेहि प्रष्ट, 'कुमलेहि कुशले मर्दनविधिने , 'मेहाबीहिं' मेगाविभि -प्रतिभाशालिभि , 'निउण-सिप्पो-वगएहि निपुणशिल्पोपगते , उवटनों से (अभिगिए समाणे) शरीर की ग्यूब मालिश करवाई। *(तेलचम्मंसि) तैल. चर्ममे माल्मि कग्नगार (पुरिसेहिं) पुम्पा न कि जिनके (पडिपुण्ण-पाणि-पाय-सुरमाल-तले) हाथ और पैर के तलवे अधिक युकुमार थे, (न्नएहि) मर्दन करनेकी कला में जो अधिक निपुण थे, (दक्सहिं ) इसीलिये जो टम कला के जाननेगलों में सर्वप्रथम गिन जाते थे, (पटेहि। मनन करन का विधि क्या है और किम ढग से किस समय कैसा मन करना चाहिये-टयादि गाता में जो विशेष पटु थे, ( मेहाबीहिं) नवीन २ रीति में ___ * यहा तृतीया क अर्थ म सममा विभक्ति हुई है, तैल से चिकन हुए शरीर को मर्दन करने का साधनरूप चर्म तेलचर्म रहलाता है। . हेपाया॥ य है, मेघा तatथी, तथा (अभिगेर्हि) पटनायी (अभिगिए समाणे ) startी भृ५ भासिए पी (तेलचम्मसि) तसया मालिश २५पासा (पुरिमहि) ५३५. ना (पडिपुण्ण-पाणि-पाय-सुउमाल-तलेह) હાથ તથા પગના તળ બહુ સુકુમાર કેમળ હતા, (૬) મર્દન ૦રવાની मारे महु निपुण हता, (दरसेहि) माथी २ मा जान onारमा मम माता हता, ( पट्टेहि ) मन पानी विधि शुअने पी રીતે કેવા સમયે કેમ મર્દન કરવું જોઈએ-ઈત્યાદિ વાતો જે વિશેષ पुण खता, (मेहानीहिं) नवी नवी ते २ महल ४२वानी sell मावि [૨] અહી તૃતીયાના અર્થમા અસમ વિભકિત થઇ છે તેલથી ચશ્ના થયેલ શરીરને મર્દન કવ્વાનુ માધનરૂપ ચમ તેલચર્મ કહેવાય છે Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - औपातिकमा सिप्पो-वगएहि अभिगण परिमहणु-च्चलण-कग्णगुण-णिम्मा एहि अहिसुहाए मंससुहाए तयासुहाए रोमसुहाए चउबिहाए निपुणानि-मूहमाणि यानि शिपानि अगमनादीनि ता युपगनानि अधिगनानि यस्ते तथा ते , अङ्गमनक्रियाजानसम्पलेरियर्थ । 'अभिगण-परिमाणु-बग-करण-गुण-णिम्मा एहि अभ्यश्चन परिमर्दनो दलन-करण गुण निर्मातृमि अभ्यननम् अभ्या-तैलमर्दनम् ,परिमर्द नम् अङ्गम्वाहनम् , उलनम् उद्वर्तनम् तेपा करण ये गुणा गरीरम्घास्थ्यकान्तितुष्टिपुष्टिस्फूयादिरूपा , तेपा निर्मातृभि विधायकै, कया माहित । इन्याह-'अद्विमुहाए' अस्थिमुग्वया अस्थिमुग्यकारिण्या, 'मसमृहाप' मासमुपया-माममुम्बकारिण्या, 'तयासुहाए' त्वामुग्वया, 'रोममुहाए' रोममुसया, 'चउनिहाए' चतुधिया, 'सबाहणाए' जो मर्दन करने का कला क आविष्कारक य, (निउण-सिप्पो-वगएहि ) सूक्ष्म से मृदम भी अगमर्दन आदि क्रियाओं के जो पूर्णरूप से ज्ञाता थे, अथवा जिन्होंने इस क्रिया को निपुण कलाचार्य से सीग्वा था। (अभिगण-परिमाणु-चलण-करण-गुण-निम्मा एहिं) अभ्यगन-तैलमर्दन, परिमर्दन-अग के माहन एवं उद्धलन--उवटन करने से जो शरीरस्वास्थ्य, कान्ति, तुष्टि--पुष्टि तथा हर एक कार्य मे स्फूर्ति आदि गुण होते है, उन गुणों को वे अपने अभ्यङ्गन आदि कला के द्वारा प्रत्यक्ष कर देते थे। इनलोगों ने राजा का किस प्रकार से मवाहन किया सो कहते है- (अद्विसुहाए) हड़ियों में मुग्यकारी (मससुहाग) मास में मुग्यकारी (तयासुहाए) चमडी मे सुखकारी (रोममुहाए) रोम २ में सुखकार, इस प्रकार अस्थिसुसजनक, माससुसजनक, चर्मसुरसजनक एव रोमसुखजनक रूप से (चउनिहाए) चार प्रकार की (सवाहणाए) मालिश क्रिया से (मवाहिए समाणे) at२४ ता, (निउण-सिप्पो-बगहि) समभा सक्षम र अगमहन माहि ક્રિયાઓના જે સ પૂર્ણ જ્ઞાતા હતા, અથવા જેઓ આ ક્રિયાઓ નિપુણ sarयार्थ पामेथी शीमेला हता, (अभिगण-परिमद्दणु-ब्बलण-करण-गुण निम्माएहिं) यमन समन, परिमन-२५ गनुभवाहन तेभ सन 6 ટન કરવાથી જે શરીરસ્વાચ્ય, કાતિ, સુષ્ટિ-પુષ્ટિ તથા હરેક કાર્યમાં સ્કૃતિ આદિ ગુણ હોય છે તે ગુણેને તેઓ પિતાના અભ્ય ગન આદિ કલાઓ દ્વારા પ્રત્યક્ષ કરી દેતા હતા તે લોકોએ રાજાનું કેવા પ્રકારે સ વાહન કર્યું ago -(अद्विसुहाए) &ामा सुपारी (मंससुहाए) भासमा सुमारा (तयासहाए) यामडीमा सुमारी (रोममुहाए) म रोममा सुभारी, ये રીતે અસ્થિસુખજનક, માનસુખજનક, ચર્મસુખજનક તેમજ રામસુખ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषषिणो-टीका स ४८ कृणिकम्य स्नानविधानम् संवाहणाए संवाहिए समाणे अवगय-खेय-परिस्समे अट्टणसालाओ पडिणिक्खमड, पडिणिक्खमित्ता जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छड, उवागच्छित्ता मज्जणघरं अणुपविसह, अणुपविसित्ता समुत्त-जाला-उला-भिरामे विचित्तमणि रयणमवानया=मर्दनेन 'सवाहिए समाणे माहितोमनि सन, 'अवगय-खेय-परिस्समे' अपगत-खेद-परिश्रम =समपनीतवत्परिश्रम , 'अट्टणसालाओ' अनशालात =व्यायामशालात 'पडिनिखिमड' प्रतिनिष्कामति, 'पडिणिकम्वमित्ता' प्रतिनिफ्राय, 'जेणेव मन्नणघर तेणेव उवागन्छ।' यौन मजनगृह तत्रैवोपागच्छति, 'उवागच्छित्ता' उपाग य, 'मज्जणघरं अणुपविसद' मननगृहमनुप्रविशति, 'अणुपविसित्ता' अनुप्रविश्य 'समुत्त-जाला-उला-भिरामे' समुक्त-जाला-ऽऽमुला-ऽभिरामे-समुक्तजालेन-मुक्तासहितेन जालेन गवाक्षेण आफुलो-व्याप्त , अतण्व अभिराम =सुन्दरस्तस्मिन् , 'विचित्त-मणि-रयण-कुट्टिम-तले' विचित्र-मगि-रत्न-कुट्टिम--तले–निचित्रमणिर राजा की खून मालिश की । जब राजा की अच्छी तरह से मालिग हो चुकी तब वे (अवगय-खेय-परिस्समें) परिश्रम एव खेद से रहित हो (अट्टणमालाओ) उस व्यायामशाला से (पडिणिक्खमइ) बाहर निकले, (पडिमिक्खमित्ता) निकल कर (जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ ) जहा स्नान घर था वहाँ पहुँचे । (उवागच्छित्ता मज्जगघर अणुपविसइ) पहुँच कर स्नानघर मे प्रविष्ट हुए । (अणुपविसित्ता) वहाँ प्रविष्ट होकर (समुत्त-जाला-उला-भिरामे) मोतियों की लडियों वाले गोखलो से युक्त होने के कारण अति सुन्दर (विचित्त-मणिरयण-कुहिम-तले) तथा विविध मणियों से जटित ४.४३पी (चउन्विहाए) यार ४ारनी (सवाहणाए) मालिशथी (सवाहिए समाणे) રાજાની ખૂબ માલિશ કરી જ્યારે રાજાની સારી રીતે માલિશ થઈ રહી त्यारे तसा (अवगय-खेय परिम्समे) परिश्रम तभ०४ मेथी मुद्रत (अट्टण सालाओ) ते व्यायामशासामाथी (पडिणिस्खमइ) मा२ नी४ण्या (पडिणिस्खमित्ता) नाजीने (जेणेर मज्जणघरे तेणेव उपागच्छइ) ज्या स्नान५२ उतु त्या ५-या (उपागच्छित्ता मज्जणघर अणुपविसइ) पायाने स्नानघरमा पस यया (अणुपविसित्ता) तमा यधने (समुत्त जाला उला भिरामे) मोतियानी सटिमााणा सामाथी युटत डोवाना ४ारणे मतिसुह, (विचित्त Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - ३९४ गोषणातिकतरे कुहिमयले रमणिजे पहाणमंडवंसि णाणा-मणि-यणभतिचित्तंसि पहाणपीढंसि मुहणिसण्णे सुद्धोदएहिं गंधोदएहि पुष्फोदएहिं सुहोदएहिं पुणो पुणो कल्लाणग-पवर-मजण-विहीए मजिए, तत्थ कोउयसपहि बहुविहेहि कल्लाणग-पवर-मजणानै सचित कुटिमतल भूभागो यस्य स तथा तस्मिन् , 'रमणिज्जे' रमणीये मनोहर, 'हाणमडवसि' स्नानमण्डपे, 'गाणा-मणि-रयण-भत्ति-चित्तसि' नाना-मणि-रनभक्ति-चित्रे विविध-मगि-रत्न-रचनाविचित्रे, 'पहागपीढसि' स्नानपाठे 'मुहणिसण्णे' मुसनिषण्ण =मुखाऽऽसान , 'सुद्धोदएहि' शुद्धोदकै =निरवद्यजलै 'गपोदएहिं' गन्धो दकै =श्रीग्वण्डादिमिश्रितै जले , 'पुप्फोदएहि ' पुप्पोदकै =पुप्पमिश्रितजलै . 'मुओदएहि' मुसोदकै =नातिशातो गै 'पुणोपुगो'पुन पुन 'कल्लाणग पवर-मज्जण-विहीए' कल्याणकप्रार-मन्जन-विपिना कन्यागकारक-रेष्टम्नान-विधानेन, 'मजिए' मजित -लपित', 'तत्थ' तत्र स्नानानसरे, 'कोउयसएहि' कौतुगतै , कौतुकाना=दृष्टिदोषनिवारणार्थ अगन वाले (रमणिज्जे) मनोहर (हागमडवसि) स्नानमडप मे रखे हुए (णाणा-मणिरयण-भत्ति-चित्तसि ) अनक मणि और रत्नों की रचना से युक्त (हाणपीसि) ऐसे स्नान करने के पीठ (वाजोट) पर (मुहणिसण्णे) सुस से ठे, और वहा बैठ कर (मुद्धोदएहि) शुद्ध-निर्मल जलसे, (गयोदएहि) गधोदक-चन्दनमिश्रित जल से (पुष्फोदएहि.) पुष्पमिश्रितजल से, (मुहोदएहि) किचिढष्ण जल से (पुणो पुणो) बार बार । (कल्लाणगपवर-मजण-विशीए मन्निए) उन्हाने कल्याणकारक श्रेष्ठ स्नानविधि-से स्नान किया। (तत्थ कोउयसएहि बहुविहेहिं) उस अवसर मे विविध प्रकार के अनेक कौतुका से दृष्टिमणि रयण कुट्टिम तले) तथा विविध भाशुमाथी ति मागापा, (रमणिज्जे) भनौ २ (हाणमटरसि) स्नानम उपमा रामेसा (णाणा-मणि-रयण-भतिचित्तसि) मनभरि तया रत्नानी मनापरथी युत (हाणपीढसि) की स्नान वानी पी3 (48) G५२ (सुहणिसण्णे) सुमेथी महा भने समीर (सुद्वोदएहिं) शुद्ध-निर्भण ४ ५, (गधोदएहिं) अघोह- हनमिश्रित ap3, (पुग्फोदएहिं) धुप्पमिश्रित are डे, (सुहोदएहिंस Here3, (पुणो पुणो) पा२ वा२ (कल्लाणग-पवर-मजण-विहीए मजिए) तभरे उल्या श्रे४ नानविधियी नान यु (तत्य कोउयसपहि Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका सू. ४८ कृणिकस्य वस्त्रादि धारणम ३९५ " I वसाणे पम्हल-सुकुमाल-गंध- कासाइय- हियंगे सरस- सुरहिगोसीस - चंदना-गुलित्त-गते अहय सुमहग्घ-दूस स्वर्ण- सुसंवए रक्षाबन्धनादीना गतै बहुविधैर्युक्त 'कलाणग-पर-मज्जगा-बसाणे' काणकप्रवरमज्जनावसाने, स्नानानन्तरमित्यर्थ, 'पम्हल- मुकुमान- मन- कासाय्य लुहियगे ' पदमल - सुकुमार- गन्धकापायिका-रूक्षिताऽङ्ग, पदमला उचित मतन्तुमयुक्ता, साच सुकुमारा=सुकोमला गन्धवती च एतादृशी या कापायिका = कपायरक्तनाटिका-अङ्गप्रोज्छनिका तथा रूक्षिताङ्ग - निर्जलीकृतशरीर 'सरस- मुरहि-गोसीस-चढणा- पुलित्तगत्ते ' सरस- सुरभि - गोशीर्ष - चन्दनानुलिप गान, तन-गोश चन्द्रन= गोशार्पनाम्ना प्रसिद्ध चन्दनम् । 'अहय- सुमहग्घ- दूस - रयण-मुस' अहत - मुमहा ये तथ्य - रत्न- मुम् वृत - अहतम् - अखण्डित = कीटमूषिकादिभिरर्तित नूतनमिति भान महा=हुमूल्य यद् दृप्यरत्न = प्रधानवस्त्रं तेन सुरत =मुटु आच्छादित, परि तनहुमूल्य इत्यर्थ दोष निवारणार्थ रक्षावधनादिका के अनेक प्रकारों से युक्त उन गजा ने (क्लाणग-पत्ररमज्जणा - वसाने) जन उस कल्याणकारक श्रेष्ठ स्नान का समान हो चुका तव (पम्हलसुक्कुमाल -गध-कासाइय - लहियगे) परमल उठे हुए कोमल ततु वाले मुकुमार एव सुगधित कपाय रंग की तोलिया से अपने समस्त गरी को पाठा । पश्चात् (मरस-मुरहिगोसीस चंदणा - पुलित्त - गत्ते ) समस्त शरीर पर सम्म सुगति गोगादन का लेप किया । (अहय - सुमहग्घ- दूसरयण - सुमवुए) जन लप अच्छा तरह से शुष्क हो चुका तब अहं - कीटक आदि से नहीं काट गये, नवीन -ऐसे बहुमूल्य प्रधान वस्त्रा को उन्होंने शरीर पर धारण किया । (सुइ-माला - वण्णग- विलेवणे) पचात शुद्रपुष्पों की माला बहुविहिं ) ते वसरे विविध अारना भने जेतुदी वडे-दृष्टिद्दोष-निवासार्थ रक्षा धनाहि भने प्रहारयुक्त ते रानगे ( कल्लाणग- पनर-मजणावसाने ) न्यारे ते उत्यायुअर श्रेष्ठ स्नाननी समाप्ति थर्व युटी त्यारे (पम्हल सुकुमार- गंधका साइय- लूहियेगे) पक्ष्भस - उपमी गावेसा भुवाणा सुतग्वाणा કમળ તેમજ સુગધિત કપાય ર્ગના ટુવાલ વડે પોતાના મૃત શરીરને सुई नाथ्यु पछी (सरस-मुरहि गोसीस चढणा गुल्त्ति गत्ते ) समस्त शरीर पर सरस ते सुगधित गोशीर्ष यहनना से ज्यों (अहय मुमहग्घ दूमरयण सुसवुए ) न्यारे से सारी ते मुराई गयो त्याने महुत-डीटभूपट (दीडा કે ઉત્તર) આદિથી કપાયેલા નહિ એવા, નવીન--એવા કિંમતી વસ્ત્રોને तेभो शरीर पर धार ज्यो (सुई - माला- घण्णग-निलेवणे) पछी शुद्ध युप्योनी - Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ओषपातिकको सुइ-माला-वपणग-विलेवणे आविद्ध-मणि-सुवण्णे कप्पियहार-हार-तिसरय-पालंव-पलंत्रमाण-कडिसुत्त-सुकय-सोभे पिणद्ध-गेविज-अंगुलिजग-ललियंगय-ललिय-कयाभरणे वर• ___ 'सुइ-माला-पण्णग-विलेवणे' शुधि-माला-वर्णक-लिपा-शुचि-शुद्र यत् माला वर्णकपिलेपन -तर-माला-पुष्पमाला, वर्णक = अद्गरागविशेष तस्य विलपन, एतद्वय यस्य स तथा, 'आविद्ध-मणि-सुवण्णे' आविद्ध-मगि-सुवर्ण =परिहितमणिकनक-भूषण 'कप्पिय-हार-हार-तिसरय-पालन-पलरमाण-कडिसुत्त-सुफय-सोभे' कल्पि त हारा-र्द्धहार-त्रिसरक-प्रालम्य-प्रलम्बमान-कटिसूर-सुकृत – योभ , कल्पित =परिधृत , हार =अष्टादशसरिक , अर्धहार =नवसरिक , त्रिसरिकश्च-'तिलडीहार' इति प्रसिद्ध येन स तथा, प्राल- --मुम्बनक, प्रलम्बमानो यस्मिन् कटिमूने तत् तेन कटिसूत्रेण'कन्दोरा' इति भाषाप्रसिद्धेन सुकृता सुष्टु रचिता गोमा येन स तथा, पदयस्य कर्मधारय , हारादिधारणेन परमगोभासम्पन्न इत्यर्थ । 'पिगड-गेविज्जगअगुलिज्जग-ललियगय-ललिय-कयाभरणे' पिनद्ध-अवेयका-मुलीयक-ललिताऽ-- गक-ललित-कृताऽऽभरण , पिनद्वानि प्रैवेयकाणि-प्रीयाभूपणानि, अङ्गुलीयकानि च, येन स तथा, ललिनागके-मुन्दरगरारे ललित यथा स्यात् तथा कृत-विन्यस्तमाभरण येन स तथा, पहनी, एव शुद्ध सुगधित द्रव्य का विलेपन किया । (आविद-मणि-सुवण्णे) पुन सुवर्ण के आभूपग फि जिनमें मणि जटे हुए थे पहिने । (कप्पिय-हार-हार-तिसरय-पालबपलंबमाण-कडिसुत्त-सुकय-सोभे) अठारह लरका हार पहिरा, नव लर का हार पहिरा, तीन लर का हार पहिरा और लम्बा लटकता हुआ कटिमूत्र (कन्दोरा) पहिरा । (पिणद्धगेविजग-अगुलिजग-ललियगय-ललिय-फयाभरणे) गले में और भी 'मुन्दर आभूपण धारण किये । हाथों की अगुलियों में मुद्रिकाएँ पहिरी तथा शरीर पर उस समय के भाा पडे शुद्ध सुगधित दयनु विपन यु (आविद्ध-मणि-सुषण्णे) 4जी सुवर्णन घरेशा सभा भए मातात पडेयर्या (कप्पिय हार द्धहार-तिसरय-पालव-पलनमाण-कडिसुत्त-सुकय-सोभे) महार सरना ७२ पडया, નવ સરને હાર પહેર્યો, ત્રણ સરને હાર પહેર્યો તથા લાળે લટકતે કટિसूत्र ( हो।) ४भरमा धारण च्या (पिणद्ध-विज्जग-अगुलिज्जग-ललियगयललिय-कयाभरणे) मा म सु२ माभूषण पा२५ या याना આગળામાં વિી ટીઓ પહેરી તથા શરીર ઉપર તે સમયને ઉચિત બીજા પણ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषधषिणी-टीका स् ४८ कृणिकस्य यत्रादि धारणम् कडग-तुडिय-थंभिय-भुए अहिय-रूव-सस्मिरीए मुदियापिंगलंगुलीए कुंडल-उज्जोविया-णणे मउड-दित्त-सिरए हारोत्थय सुकयरडय-वच्छे पालंव-पलंघमाण-पड-सुकय-उत्तरिजे णाणाततत्तयो कर्मधारय । यद्वा-पिनद्वानि यानि अवेयकागि अगुलीयकानि च तैललिताङ्गक, तत्र ललित कनमाभरगम अन्यद् भूपगजात येन स तथा। 'वरफडग-तुडिय-थभिय-मुए' वरकटक-त्रुटिक-स्तम्भित - भुज , परकटकत्रुटिकै =श्रेष्टवल्यवाहुरक्षकारयैर्भूषणेषितबाहु, 'अहिय-रूप-सस्सिरीए' अधिकरूपसश्रीक -अधिकसौन्दर्येण शोभासम्पन्न , 'मुद्दिया-पिंगल-गुलीए' मुद्रिका-पिङ्गला-मुलीक -मुद्रिकामि =अङ्गुलीयकै पिङ्गला अङ्गुन्यो यस्य स तथा, 'कुडल जोवियागणे' कुटिलोयोतिताऽऽनन --कुण्टलदीत्या विद्योतितमुस , 'मउड-दित्त-सिरए' मुकुट-दीम-शिरस्क , 'हारो-स्थय-सुकयरइय-वच्छे' हारा-चन्तृत-सुकृत-रतिद-कक्षा -हाग्ग अवस्तृतम-आच्छादित मुकृत शोभनीकृतम् अतएव रतिद-दृष्टिसुखद वक्षो यस्य स तथा, 'पालव-पलवमाण-पडसुक्य-उत्तरिज्जे' प्रारम्ब -प्रलम्बमान – पट - सुकृतो - त्तरीय - प्रालम्वेन=दीर्पण उचित और भी आपण धारण किये । (वर-कडग-तुडिय-थभिय-भुए) दोनों हाथों में सुन्दर कटे पहिरे एव बाहुओं पर भुजबध चाधे, (अहियरूवसस्सिरीए) इस प्रकार उनके शरीर की शोभा और भी अधिक द्विगुणित हो गई । (मुद्दिया-पिंगलं-गुलीए) उनने जो मुद्रिकाएँ अगुलियों में पहिर रक्खी थीं उनसे उनकी अगुलिया सव पीली झायीं से चमकन लगीं। (कुडलउज्जोवियाणणे) कुण्डला से मुग्व चमकने लगा । (मउड-दित्तसिरए) मुकुट से मस्तक शोभित होने लगा। (हारोत्यय-मुकय-रइय-बच्छे) हार से अच्छादित उनका वक्ष स्थल बटा ही मनोहर मालम होने लगा, अत देखनेवालों को आनन्द होता था। (पालव-पलबमाण-पड-मुझय-उत्तरिजे) अधिक लवे वस्त्र का इनने माभूषा पाए अर्या (वर-कडग-तुडिय-थंभिय-भुए) भन्ने डायमा सु. ४७1 पर्या, तेभर मासो 6 सुध माध्या (अहिय-रूप-सस्सिरीए) । मारे तेना शनी शाला म पधारे २७ (मुद्दिया-पिंगल-गुलीए) તેમણે જે વી ટઓ આગળામાં પહેરી હતી તેનાથી તેમની બધી આગળાઓ पाली आध्थी यभा सी (कुडल-उज्जोविया-णणे) उपाथी भुम यम४१वायु (मउड-दित्त-सिरए) भुटथा मन्त: शालपासायु (हारोत्थय सुकयय-चन्छे) हारथी ये तेनु १३२५८ (छाती) ४ भना२ हेमातु Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३९८ গীকিয়া मणि-कणग-रयण-विमल-महरिह-णिउणो-विय-मिसिमिसत-विरइय-सुसिलिह-विसिह-लह-सठिय-पसत्थ-आविद्ध -वीर-वलए, प्रलम्बमानेन पटेन घरोग मुकृत विन्यस्तम् उत्तरीयम् उत्तरामहवन येन स तथा, 'गाणा-मणि-कणग-रयण-रिमल-महरिह-णिउणो-विय-मिसिमिसन-विरश्यमसिलिट्ठ-विसिटु-ल?-सठिय-पमत्य-आरिद्ध-वीर-बलए' नाना-मगि-कनारन-विमल-महाई-निपुण-परिकर्मित-देदीप्यमान-पिरचित-मुग्लिट-विशिष्ट-रए - स्थित-प्रशस्ता - ऽऽविद्-वीर -- वलय - नानाविधानि माणिकनकरत्नानि = चन्द्रकान्तादिमणि-सुवर्ण-कर्केतनादि-रत्नानि यस्मिन स , अत यय रिमल -निर्मल महाहे = महत्ता योग्यश्च, तथा-निपुणपरकर्मितदेदीप्यमान --निपुणेन=गिन्पकलादसंग शिपिना 'उविय' परिकर्मित =मस्कारमापादित , तन एव 'मिसिमिसंत' देदीप्यमान - दीप्तिसम्पन्नध, पुन -विरचित – मुश्लिष्ट-विशिष्ट-मस्थित -विरचित=निर्मित-मुग्लिष्ट, शोभनसन्धिक विशिष्टम् उत्कृष्टम् लप्ट-मनोहर मस्थित-मस्थानम्-आकारो यस्य स तथा, अत एव-प्रशस्त प्रशसनाय , एतादृश आविद्ध परिभृत वीरवलयो-विजयवलयो येन उत्तरप्तग किया था। (णागा-मणि-कणग-रयण-विमल-महरिह-निउणी-वियमिसमिसत-विरइय-सुसिलिट्ठ-विसिट्ठ लट्ठ-सठिय-पसत्य-आविद्ध-वीरवलये)देठप्यमान तथा निपुग कारीगरों द्वारा सुमस्कारित एव बडे भाग्यशालियों के धारण करने योग्य ऐसे निर्मल अनेक मगिया एव रत्नों से युक्त सुवर्ण के बने हुए वीरवलय का कि जो सुसधि से सान, उत्कृष्ट, मनोहर और सुन्दर आकार से विशिष्ट तथा प्रशसनीय था इनने धारण कर रक्खा था। जिस वलय (कडे) को धारण कर शत्रु पर विजय प्राप्त का जाती है उस वलय का नाम वीरवलय है अथवा-जो इस वलय को धारण करता है वह तु, साथी बनारने मानयता त (पालब पलबमाण पड-सुकय-उत्तरिज्जे) या सामा १२नु तेभारे त्रास (पछेड1) यु तु (णाणा-मणि-कणग रयण विमल महरिह निउगो चिय मिसमिसत-विरइय सुसिलिट्ट विसिद्ध-लट्ट सठिय पसत्य आविद्ध-धीरवलये) हेवीप्यमान मने निपुष्प शग। वारा सुस २४रित, તેમજ ભાગ્યશાળીઓને ધારણ કરવા યોગ્ય એવા નિમળ, અનેક મણિએ તથા રત્નવડે યુક્ત સોનાનું બનાવેલું વીરવલય જે સુસધિથી સંપન્ન, ઉકાઇ, મનહર અને સુંદર આકારથી વિશિષ્ટ તથા પ્રશસનીય હતું તે તેણે ધારણ કર્યું હતુ જે વલય (કડા)ને ધારણ કરવાથી શત્રુ ઉપર વિજય મેળવાય છે તે વલયનું નામ વીરવલય છે અથવા જે આ વલયને ધારણ Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पोयूपषिणो टोका र ४८ फूणिकस्य यत्रादि धारणम् किं बहुणा ! कप्परक्खए चेव अलंकिय-विभूसिए णरवई सको. रंटमल्लदामेणं छत्तणं धरिजमाणेणं उभओ चउ-चामर-वाल-वीइस तथा, य वलय भृत्या विजयते तादृशवलयधारक इत्यर्थ । यदा-यदि कश्चिदस्ति वीरस्तदाऽमौ मा निजि य मम हन्तादवहिष्कगेवेत वलयमिति स्पर्धयन् य कटक हस्ते परिधत्ते स वीरवल्य इयुच्यते । 'किं पहुणा' किम्बहुना-किमधिकेन वर्णनेन ? 'कप्पक्खए चेर अलफियविभूसिए परवई' कल्पवृक्ष इवाऽलतविभूषितो नरपति - अलकृतो मगिरनाऽऽभूपणै, विभूषितश्च महापरिधानायादिविचित्रवसनै नरपति कूगिको राजा साभाकल्पवृक्ष इव शोभते इति भार । म नरपति 'सकोस्ट-मल्ल-दामेण' सकोरण्टमान्य-दाम्ना-कोरण्टस्य माल्यानि ममानि तेपा दामानिमालास्तै महितेन 'छत्तण परिजमाणेण' उत्रेण प्रियमाणेन शोभमान , 'उभो चउ-चामर-बाल-चीटयगे' उभयत चतुश्चामरगालीजिताग , 'मंगल-जयबह-कया-लोए' मद्गल-जयगध्द-कृताऽऽगे - हम बात की घोषणा करता है कि जो भी कोई वीर हो यह मेर हाथ से इम बलय को पन-छुडाने, इस प्रकार का स्पर्धा से पीरा द्वारा जो वलय धारण किया जाता है यह भी कलय कहा गया है। (किंबहणा) अविफ क्या कहा जाय : (अलकिय-विभूसिए) मधरनादिक के आभूपों से अलत र बहुमूल्य अनक प्रकार के मुदर मुदर वस्त्रों से पिषित (परवई) ने राजा (अप्परुखए चेव) कल्पवृक्षकी तरह गोभित होने लगे। उनके ऊपर (सफोरट-मल्ल-दामेणं उत्तेण धरिजमाणेणं) कोटि के पुप्पो की मालाओं से युक्त धरा हुआ था, पर उनके ऊपर (उमओ चउ-चामर-बाल-बीइयगे) टोना ओर से चार चामर दोर जा रहे थे, (मगल-जयसद-कया-लोए) तथा उनके देखते ही मनुष्यों ने 'मगल हो, बय કરે છે તે એ વાતની ઘોષણા કરે છે કે જે કોઈ પણ વાર હોય તે મારી પાસેથી હાથમાથી આ વલયને ખેચીને છોડાવી જાય આ પ્રકારની પધીથી વીરે દ્વારા જે વલય ધારણ કરવામાં આવે છે તેને વીરવલય पामा मा छे (किं वहणा) वधारे शु ४३ होय। (अलकियपिभूसिए ) भरिलायुत मामूषणोधी मत भर ममूल्य (ust हिमती ) भने प्रहारना सुदर पोथी विभूषित (गरवई ) Pion ( कप्परस्सए चेर) पक्षनी ? शीलपा साज्या तमना ५२ (सफोरट मल्ल दामेणं छत्तेण धरिन्जमाणेण) दाना यानी भासा 43 यु छ घा२५ ४२येत तु तभन भन ५२ (उमओ चउ-चामर-यालयीइयगे) भन्न मागुमे भगी या शाम 5 Rधा ता (मंगल-जयसह-कया लोए) तथा तभने Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २०० ओपपातिकसो यंगे, मंगल-जयसद-कयालोए मज्जणघराओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्वमित्ता अणेग-गणनायग-दंडनायगराई-सर-तलवरमाउंविय-कोडंविय-इन्भ-सेटि-सेणावड-सत्थवाह-दूय-संधिवाल सद्धि संपडिवुडे धवल-महामेह-णिग्गए इव गहगण-दिप्पंतमगलरूपो जयशब्द कती जनेन जालोके दर्शन यस्य सतथा, 'मजणगओ पडिणिकावमई' मन्ननगृहात्प्रतिनिष्कामति-हिनिर्गच्छति, 'पडिणिस्वमित्ता' प्रतिनिष्क्रम्य 'अणेगगणनायग-दडनायग-राई-सर-तलबर-माङ विय-फाइरिय- दम्भ-सेटि-सेणावइ-सत्यवाह-दय-संधिवाल सद्धिं सपडिपुढे' अनक- गणनायक-दण्डनायकराजेश्वर--तलपर-मादम्बिक-कौटुम्बिकेभ्य-प्रेष्टि-सेनापति - मार्थवाह - तृत- सन्धिपाल साई सम्परिवृत -जन यानि पढानि प्राग व्यारयातानि, मन्ननगृहान्निष्क्रान्तो नरपति क इव गोभते । टत्याह-'धवल' इत्यादि । 'धवल-महामेह-णिग्गए इव'धवल महामेघनिर्गत इव। धालमहामेघतो निर्गत मेघावरणविनिर्मुक्त टर 'गगग-दिप्पत-रिक्ख-तारागणाण मझे हो' इस प्रकार का शद करने लगे । इस प्रकार वे राजा (मज्जणराओ पडिणिक्खमह) स्नान घर से निकले । (पडिणिक्खमित्ता) निकलते ही (अणेग-गणनायग-दडनायगराई-सर-तलवर-माड विय-कोडुविय-इन्भ-सेट्ठि-सेणावर-सत्यवाह-दूय-सधिवाल सद्धि सपडिबुडे ) अनेक गणनायको, अनेक दडनायको, राजा, ईश्वर, तलवर, माडविक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह, दूत एव सधिपालों से घिरे हुए वे राजा (धवल-महामेह-णिग्गए इच) धवल महामेघ के आवरण से रहित (गहगण दिप्पत. रिक्ख-तारागणाण मज्झे ससिब) ग्रहगणों के बीच में वर्तमान तथा दीप्यमान ऐसे જોતાજ મનુષ્ય મ ગલ હો જય હો” એ પ્રકારના શબ્દ બોલવા લાગ્યા मापी रीत ते रात (मज्जणघराओ पडिणिक्समइ) स्नान घरमाथी नीsval (पडिणिक्पमित्ता) नीsnil (अणेग-गणनायग-दंडनायग-राई-सर-तलवर-माड बिय-कोडुबिय- इन्भ-सेद्वि-सेणावइ-सत्यवाह-दूय-सधिवाल सद्धिं सपडिबुडे) मन गिनायी, अने: ६ नायडे, Rin, ४श्वर, तसर, भारमि, श्री जिल्य, डी, सेनापति, सार्थवाड, इत तेभर पिपासायी घरेला (गरवई) on (धनल-महामेह-णिग्गए इव) पर महामेघना २५१५२५था भुत (गह गण-दिप्पत-रिक्ख-तारागणाण मज्झ ससिव्व) यमयीना क्यमा तभान del Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पीयूषपपिणी-टीका सू ४८ कृणिकस्य इस्तिरत्नारोहरणम् ४०१ रिक्ख-तारागणाण मज्झे ससिव्व पियदंसणे णरवई जेणेव वाहिरिया उवट्टाणसाला जेणेव आभिसेके हत्थिरयणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अंजण-गिरिकूड-सपिणभं गयवई गरवई दुरुढे ॥ सू०४८॥ ससिन्ध' ग्रहगग दीप्यमान-कक्ष तारागणाना मध्ये अगोप-दीप्यमानानाम् कक्षाणा-नक्षत्राणा तागगणाना च मध्ये चन्द्र इन, 'पियदसणे' प्रियदर्शन 'गरवई' नरपति 'जेणेव वाहिरिया उवाणसाला' यौव बाह्योपस्थानशाला, 'जेणेव आभिसेक्के हत्थिरयणे' यत्रैवाऽभिपेक्य-प हस्तिरत्नम् , 'तेणेव उवागच्छद' तत्रैवोपागच्छति, 'उवागन्छित्ता' उपागय 'अजणगिरि-कूड-सण्णिभ गयवइ णरवई दुरूदे' अन्ननगिरिकृटसन्निभ गजपति नरपतिर्दूत = अञ्जनपर्वतशिखराऽऽकार गजेन्द्र नरेन्द्रो दुरून आरूढवान् ॥ सू० ४८॥ नक्षत्र एव तारागणों के मध्य में मुशोभित चद्रमा के समान (पियदसणे) देम्बने में बहुत ही सुन्दर मालूम होते थे। मतलब इसका यह है कि यहाँ पर राजा को चद्रमा की और उनके म्नान घर को शुभ्र मेघों की, तथा गणनायक आदि को नक्षत्र और ताराओं की उपमा दी गई है। इस प्रकार से वे राजा (जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव आभिसेके हत्थिरयणे तेणेव उवागच्छइ) जहा पर बाहिर की ओर उपस्थानशाला थी और जहा वह आभिपेक्य हस्तिरत्न खडा हुआ था वहा पहुँचे । (उवागच्छित्ता अजणगिरि-ऋड-सण्णिम गयवइ गरवई दुरुढे) पहुँचते ही वे अंजनगिरि के शिखर के समान उस हाथी पर आरूढ हो गये ।। सू० ४८॥ દીપ્યમાન એવા નક્ષત્ર તેમજ તારાગણના મધ્યમાં સુભિત ચદ્રમા જેવા (पियदसणे) नवामा म सुह२ साता तो मतलम मे छ ॐ मही રાજાને ચદ્રમાની અને તેમના સ્નાનઘરને શુભમેઘની તથા ગણનાયક આદિને नक्षत्र अने तासमानी माया छ २१ अरे ते रात (जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेर आभिसेक्के हत्यिरयणे तेणेव उवागइ) या मडारनी બાજુએ ઉપસ્થાનશાલા હતી અને જ્યાં તે આભિષેકય હાથીરત્ન ઉભે २हो तो त्या पक्षाच्या (आगच्छित्ता अजणगिरि-कूड-संनिभं गयवई परवई दुरुढे ) पायता समिनि शिक्षा पात हाथी २ मा३८ थई गया (सू० ४८) Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ ओपपातिकसूत्र ' मूलम्त ए णं तस्स कूणियस्स रणो भंभसारपुत्तस्स आभिसेक हस्थिरयणं दुरूढस्स समाणस्स तप्पढमयाए इम अदृह मंगलया पुरओअहाणुपुव्वीए संपट्टिया, तंजहा-सोवत्थिय टीका-गजेन्द्राधिरढो नग्लो भगवदमिमुग यियामताति तस्य पुरत प्रयानम् अएमद्गलादिपटायनीकान्त फान्त राजोचितमस्तुजात वर्णयति-तण ण' इ याहिं । 'तए ण' तत तदनतरम्-सेनापतिममानातपटगजर नममधिगेहणाऽनतर 'तस्स कणियस्स रण्गो भभसारपुत्तस्स आभिसेछ त्थिरयण दुसटस्स समाणस्स' तरय कृगि कस्य राजो भभसारपुरम्याऽऽभिप्रेक्य हस्तिग्नमधिरुद्धस्य मत 'तप्पढमयाए इमे अद्र मगलया पुरओ अहाणुपुषीए सपट्ठिया' तत्प्रथमतया इमान्याटाष्ट मगलानि पुग्तो यथानुपुच्या स्पस्थितानि, 'तजहा'-तद्यथा-' सोवत्थिय-सिरिसच्च-गदियावत्तबद्धमाणग-भदासण-कलस-मच्छ-दप्पणा'-सौरस्तिक-श्रीवस-नन्द्यावर्त -- वर्द्धमानफ-भद्रासन-कलश-मत्स्य-दर्पणा, तन-मत्स्य -चित्रपटलिखितमत्स्यरूप । एते 'तए ण तस्स कूणियस्स' इयानि । (तए ण) इसके बाद (भभसारपुत्तस्स) भभसार अर्थात् श्रेणिक के पुत्र (तस्स कूणियस्स रण्णी) उस कृणिक राजा के (आभिसेक हत्थिरयण) आभिपश्य हस्तिरत्न के ऊपर (दुरुढरस समाणस्स) सनार होते ही (तप्पढमयाए) सर्वप्रथम उनके (पुरओ) आग आग (इमे अट्ठ मगलया अहाणुपुवीए सपट्ठिया) ये आठ आठ मागलिक द्रव्य अनुक्रम से सप्रतिष्ठित हुा-चलने लगे, (त जहा) वे मागलिक द्रव्य ये है, (सोपत्थिय-सिविच्छगदियावत्त-वद्धमाणग-भदासण-फलस-मन्छ-दप्पणा) स्वस्तिक, श्रीवत्स, नन्द्यावत, वर्धमानक, भद्रासन, कलश, मत्स्य और दर्पण | उनमें से स्वस्तिक, श्रीवत्स, नन्द्यापत "ता ण तस्स कृणियस्स" इत्यादि। - (ता ण) त्यार पछी (भभसारपुत्तस्स) मलसा२ अर्थात श्रेण्डिना पुत्र (तम्म कुणियम्स रणो) ते yिs Rivan (आभिसेक हत्थिरयण) मालिन्य अन्ति २८नना २ (दुरुढस्स ममाणस्स) सवार 4 rdar (तापढमयाए) भक्थी पहेस तमनी (पुरओ) मा माग (इमे अद्र मगलया अहाणुपुवीए सपट्रिया) मा 2018 २मा भागलि द्रव्य अनुभथी गाभा २ाव्या, (तजहा) ते भागनिद्रव्य माता (सोपत्धिय-मिरिवन्छ-णदियावत्त बद्धमाणग भादासण-करम गन्छ दप्पणा) १ पस्तिर, २ श्रीवत्स, 3 नन्ावत, ४ वर्थ Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका स १९ भगवानार्थ इणियम्य गमनम ४०३ सिरिवच्छ-गंदियावत्त-बडमाणग-भदासण-कलस-मच्छ-दप्पणा । तयाणंतरं च णं पुण्ण-कलस-भिंगारं दिव्वा य छत्तपडागा सचामरा सण-रडय-आलोय-दरिसणिज्जा वाउ-ढूय-विजयमागलिश्तया यातायामुपयुक्ता । तदनन्तर च खलु 'पुण्ण-कलस-भिंगार' पूर्ण-कलगभगार,जलपरिपूर्णा धटा मृङ्गाराच, तर मृङ्गार --'भारी' इति प्रसिद्ध , पते पुर प्रस्थिता । "दिव्या य' दिल्या-योभना च 'उत्तपडागा' उपताका-उत्रेण सहिता पताका छनपताका 'सचामरा' सचामग-चामराभ्या युक्ता च, 'दसण-स्दय-आलोय-दरिसणिज्जा' दर्शनरचिता--लोक-दर्शनाया दर्गनेरानो दृष्टिविषये रचिता कृता, आ समन्तात् लोकै =जनदेर्शनोया=या च, 'गाउ-य-विजय-वेजयती य ' वातो-भूत-विजय-चैजयन्ती च-यातोद्भूता = परनप्रकम्पिता चासौ विजयवैजयन्ती च = विजयमृचिका घजपताका और वर्धमानक ये साथिये कहलाते है । मत्स्य से यहा चित्रपट में लिखित मत्स्य का ग्रहण किया हुआ समझना चाहिये। ये आठ मगठस्वरूप होने से प्रस्थान में उपयुक्त गिने जाते है । (तयाणतरं च ण) इसके बाद (पुण्णकलसभिंगारं दिव्या य उत्तपडागासचामरा दसणस्टय-आलोय-दरिसणिज्जा वाउ-य-विजय-वेजयती य ऊसिया गगणतलमणुलिस्ती पुरओ अहाणुपुव्वीए संपडिया) कितनेक लोग पूर्णकलश-जल से भरे हुए कलग, तथा जल से भरी हुई झारिया लेकर आगे २ चलने लगे । कितनेक चामरसहित सुन्दर स्त्र-पताकाओं को लेकर आग २ चलने लगे । और कितनेक तो राजा का दृष्टि मे आ सके टम प्रकार से रखी हुई, देखने मे सुटर ऊँची अत एव आकाश को छूती हुई ऐसी विजयમાનક, ૫ ભદ્રાનન, ૬ કલશ, ૭ સભ્ય અને ૮ દર્પણ એમાથી સ્વસ્તિક, શ્રીવત્સ, નઘાવ અને વર્ધમાન એ નાથિયા કહેવાય છે મભ્ય એટલે અહી ચિત્રપટમા આળેખેલા માછલાનું ચિત્ર સમજી લેવુ આ આઠ મ ગલ २१३५ उपाथी प्रस्थान (डा२४ती मत) उपयोगी जाय छ (तयाणतर च ण) त्या२ ५७ (पुण्णकलसभिंगार दिव्या य उत्तपडागा सचामरा दमणरइय-आलोर-दरिसणिज्जा चाउ-द्वय-जिय-जयती य असिया गगणतलमणुलिहती पुरओ अहाणुपुवीए सपट्टिया) सls as पूर्ण सश-मया मरेसा ४ તથા જલથી ભરેલી ઝારીઓ લઈને આગળ આગળ ચાલવા લાગ્યા કેટલાક ચામર સહિત સુદર છત્ર પતાકાઓને લઈને આગળ આગળ ચાલવા લાગ્યા, અને કેટલાક તે રાજાની નજર પડી શકે એમ રાખેલી, જોવામાં સુંદર Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ औपपातिकमरे - - -- वेजयंती य ऊसिया गगणतलमणुलिहंती पुरओ अहाणपुवीए संपटिया । तयाणंतरं च णं वेरुलिय-भिसंत-विमल-दंडं पलंबकोरंट-मल्लदामो-सोभियं चंदमंडलणिभं समृसियं विमलं आयवत्तं पवरं सीहासणं वरमणिरयणपादपीढं सपाउयाजोयसमा'ऊसिया' उरिना-उल्थापिता, अतग्य 'गगगलमगुलिन्ती' गगनतलमनुलिखन्ती-व्योमतल स्पृशन्ती-अत्युचा, पुरतो यथानुपूर्ध्या सम्प्रस्थिता प्रचलिता । उन वर्णयन्नाह-'वेरुलिय' इत्यादि । तदनन्तर खलु 'वेरुलिय-भिसंत-विमल-दड' वैडूर्यमासमान-विमल-दण्डम्-वर्यस्य-रनविशेषस्य भासमानोनीप्यमानो विमलो दण्डो यत्र तत् ताहशम्,'पलंब-कोरट-मल्ल-नामोबसोभिय' प्रदम्बमान-कोरण्ट-मान्यदामोपशोभितम्' प्रलम्बमानेन कोरण्टारयमालोपयोगिकुसुमाना दाना-मालया उपशोभितम् । अतएव--' चदमडलणिभ' चन्द्रमण्डलनिम-चन्द्रमण्टलेन समानम्, 'समसिय' समुच्छ्रितम् विस्तारितम् , 'विमल आयवत्त' विमलम् आतपत्रम् , सिंहासन वर्णयन्नाह-'पवर-सीहासण' इति, प्रवरसिंहासनम्, तत् कीदृशम् । इत्याह-'वर-मणि-रयण-पाद-पीढ' वर-मगि रत्न-पादवैजयन्ती-विजय वजों को लेकर आगे २ चलने लगे। (तयाणतर च णं) इसके बाद (वेरुलिय-भिसंत-विमल-दड पलव-कोरंट-मल्ल-दामो-वसोभिय चदमडलणिभ समूसिय विमल आयवत्त पवर सीहासण वर-मणि-रयण-पादपीठ सपाउयाजोयसमाउत्त बहु-किंकर-कम्मकर-पुरिस-पायत्त-परिक्खित्त पुरओ अहाणुपुबीए सपट्टिय) कितनेक लोग वैदूर्य मणि की प्रभा से प्रकाशित दण्डवाले, लटकती हुई कोरटमाला से सुशोभित, चद्रमण्डलसदृश तथा ऊँचे उठाये हुए ऐसे छत्र को लेकर आगे २ चले । तथा बहुत से नौकर-चाकर और सैनिक लोग श्रेष्ठ सिंहासनको तथा पादुकासहित, उत्तम मगिઉચી એટલે કે આકાશને અડતી હોય તેવી વિજયન્તી વિજયધ્વજા साने वने माग मा याला साज्या (तयाणतर च ण) त्यार पछी (वेरुलिय-भिसत-विमल-दड पलय-कोरट-मल्ल-दामो-चसोभिय चंद-मंडल-णिभ समसिय विमल आयवत्त पवर सीहासण वर-मणि-रयण-पाद-पीठ सपाउयाजोय-समाउत्त बहु-किंकर-कम्मकर-पुरिस-पायत्त-परिक्खित्त पुरओ अहापुणुवीए सपद्रिय) ४ ४ वडूय भएनी प्रमाथी माशित वाणा, सती કિરિટમાળાથી શોભતા, ચક્રમ ડલ જેવા, તથા ઉચે ઉપાડેલા છવને લઈ Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोषयपिणो-टीका सू ४२ भगवदर्शनार्थ यूणिकस्य गमनम् उत्तं बहु-किकर-कम्मकर-पुरिस-पायत्त-परिक्खित्तं पुरओअहाणुपुब्बीए संपटियं । तयाणंतरं चणं वहवे लडिग्गाहा कुंतग्गाहा चावग्गाहा चामरग्गाहा पासग्गाहा पोत्थयग्गाहा फलगग्गादा पीढग्गाहा वीणग्गाहा कूवग्गाहा हडप्पयग्गाहा पुरओ अहाणुपुबीए संपपीठम्-श्रेष्ठ-मणि-रन-स्वचित-पादस्थापनपाठ-सहितम् , 'सपाउया-जोय-समाउत्त' स्वपादुकायोग-समायुक्तम्-स्वपादुकयोयों योग =स्वन्ध , तेन समायुक्तम् , 'बहु-किंकर-चम्मकर-पुरिस-पायत्त-परिक्खित्त' बहु-फिसर-कर्मकर-पुरुष-पादात-परिक्षिप्तम्-बहुभि =अनेकै कि = स्वामिन पृष्ट्वा कार्यकरै ,ऊर्मक मृत्यै ,पुरुषै =साधारणजनै ,पादातेन पदातिसमूहेन परिक्षिप्तम्-उत्थापितम्, पुरतो यथानुपा सम्प्रस्थितम् । 'तयाणतर च ण' तदनन्तरञ्च ग्वलु 'वहवे लडिग्गाहा' बहवो यष्टिप्राहिण , 'कुतग्गाहा' कुन्तग्राहिण =मल्लधारका 'चायगाहा' चापग्राहिण -धनुर्धारिण , 'चामरग्गाहा' चामरग्राहिण , 'पासग्गाहा' पागणाहिण -उद्धतगजाश्वादिबन्धनसाधन पागस्तस्य धारका । ' पोत्ययग्गाहा' पुस्तकग्राहिण , 'फलगग्गाहा' फलकग्राहिग --फलक ='ढाल' इतिरयातस्तस्य धारका , 'पीढग्गाहा' पीठप्राहिण -पीठानि आसनविशेषास्तेपा धारका इत्यर्थ । 'वीणग्गाहा' चीणाग्राहिण -वीणा-बायरनों के बने हुए पादपीठ को लेकर आगे २ चलने लगे । इसके बाद (वहवे लडिग्गाहा) अनेक लाठीमारी चलने लगे । (कुतग्गाहा) अनेक भल्लधारी (चावग्गाहा) धनुर्धारी (चामरग्गाहा) चामरधारी (पासग्गाहा) उद्धत हाथी और घोडों को जिमके द्वारा वश मे किया जाये ऐसे पाश को धारण करने वाले, (पोस्थयग्गाहा) पुस्तकधारी, (फलगग्गाहा) ढाल को धारण करने वाले (पीढग्गाहा) आसनविशेष के धारी (वीणग्गाहा) वीणाधारी (कुतुઆગળ આગળ ચાલ્યા, તથા ઘણા નેકર-ચાકર અને સૈનિક લોક શ્રેષ્ઠ સિહાગનને તથા પાદુકા સહિત ઉત્તમ મણિરત્નોની બનેલી પાપીઠને લઈને मा मानण याच्या त्या२ पछी (बहवे लट्रिग्गाहा) मने सीधा याला asu (कंतग्गाहा) भने सासारी, (चावग्गाहा) धनुर्धारी, (चामरगाहा) याभरधारी, (पासग्गाहा) G &ाथी मने घोसने ना द्वारा पशमा स य पाशने धारण उपापाणा, (पोत्ययग्गाहा) पुतधारी, (फलगग्गाहा) ढासने धाएर ४२वापा, (पीढग्गाहा) मामन विशेषना धारण ७२पापाणा, (वीणग्गाहा) पीधारी, (कुतुवग्गाहा) तु५ अर्थात यामानात पात्रने Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ জীবথামিম ट्ठिया।तयाणंतरं चणं वहवे दंडिणों मुंडिणोसिहंडिणो जडियो पिच्छिणो हासकराडमरुयकरा चाडुकरा वादकरा कंदप्पकरा दवकरा कोकुइया किडकरा यवायंता यगायंताय हसंता यणचंताय भासंविशेषस्तस्या धारका इत्यर्थ , 'कुतुबग्गाहा' कुनुपग्राहिण -तबाटीना चर्ममय पात्र कुतुपस्त स्य धारका , 'हडप्पयग्गाहा' हडफयाटिग -ताम्बलाविभाजन हटफन्तस्य धारका इत्यर्थ , 'पुरो अडाणुपुवीए सपट्ठिया' पुरतो यांना मास्थिता ! 'तयाणतरं च णं तदनन्तर च खलु 'वह' नवो 'दडिणो' दण्डिन 'मुडिगो' मुण्डिन 'सिहडिगो' शिवण्डिन' शिसाविशेषधारिण', 'जडिणो' जटिन =जटायन्त , 'पिच्छिणो'-पिठिन =मयूरादिपिच्छवन्त 'हासकरा' हास्यका ‘डमरुयकरा' टमरुकारा ='इगडुगी'-तिप्रमिद्धवाघवादिन , 'चाडुकरा' चाटुकारिंग =प्रियवचनवादिन , वादकरा' वादकारिण , 'कटप्पकरा' कन्दर्पफारिण कामकथाकारिण, 'दवारा' द्रवकरा परिहासकारिण 'कोकुइया' कौतुकिका =कुतूहलकारिण , 'कीडकरी' क्रीडा करा , 'वायता य' वादयन्तश्च-मृदंगादिक वग्गाहा) कुतुप अर्थात् चमडे के तेलपात्र को धारण करने वाले, (हडप्पयग्गाहा) तथा हटप्फ-ताम्बूल पात्र को धारण करने वाले अनुक्रम से आगे २ चलने लगे । (तयागतर च ण) इसके बाद (वहवे) बहुत से (दडिणो) दडी, (मुडियो) मुण्डी, (सिहडिणो) शिखाधारी, (जडिणो) जटाधारी, (पिच्छिणो) मयूर आदि पिच्छ के धारी (हासकरा) हँसाने वाले (डमरुयारा) डुगडुगी बजाने वाले, (चाइकरा) प्रिय वचन बोलने वाले, (वादकरा) वादविवाद करन वाले, (कदप्पकरा) कामकथा करने वाले, (दवकरा) हसा मजाक करने वाले, (कोकुइया) कुतुहल करने वाले, (किडकराय) खेल-तमाशा करने वाले, (वायता य) मृदगाटिक वाजे बजाने वाले (गायता य) गाना गाने वाले, (हसता य) विना कारण (पीमान) धार ७२वावाण, (हड्प्पयग्गाहा) तथा ४५-(भूलपात्र)ने पार ४२वावा मनुभथी मा ५ यार्सपासाया (तयाणतर च ण) त्यार पछी (बहवे) गनेही (दडिणो) 30 (मुटियो) मुडी (सिहडिणो) शिपाधारी (जडिणो) ४ाधा (पिणिो ) मयूर माहि पीछाना धार ४२ना। (हासकरा) मापना। (विष) (डमरयकरा) ऊगडी गाउना। (चाडुकरा) प्रियवयन बासना, (वादकरा) पापियार ४२नारा, (कदप्पकरा) भया नास, सकरा) सीमा ४२नारा, (कोक्कुइया) 3२नारा, (किड्करा) पर तभासा ४२ना२, (वायता य) भृश६ (ढास) पान पाउनास, । य) Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोपोटी ० ४९ भगवदर्शनार्थ पूणिकम्य गमनम ताय सावताय रस्ताय आलोयं च करेमाणा जयसह पउंजमाणा पुरओ अहाणुपुत्रीए संपट्टिया । तयाणंतरं च णं जाणं तरमलिहायणाणं हरिमेला-मउल-मलिय-च्छाणं चंचुच्चिय-ललियनादयन्त, ' गायता ' गायन्त गन्धर्वमनुतिष्ठन्त, 'हसता ' हमन्त, च--पुन 'णचंता' नृयन्त, 'भारता' भाषमागा 'सांवता ' श्रावयन्त = भूत-भविष्यद- वादिन, 'पता' क्षन्त - गज्ञो देहरक्षा कुर्वन्त, 'आय च करेमाणा' आलोक च कुर्वन्तराजादिदर्शन कुर्वन्त, 'जयसह परजमाणा जयशब्द प्रयुञ्जाना =न्त | 'पुरओ' पुरत - अग्रत, 'अहाणुपुच्चीए' यथानुपून्या=कमेण 'सपट्टिया' सम्प्रस्थिता - प्रचलिता । ' तयाणतर च णं' तदनन्तरच सल्ल 'जचाण' जायानाम्-उ -उत्तमजातिभनानाम, 'तर - महि-हायणाण' तोमटिहायनाना – तो वेग तम्य मल्लि= धारक'मन मल धारणे' इति धातुपाठे स्थितान्मन्तो कर्तरि इ, ततथ तरोमल्लि वेगधारक हाजन =न्चसगे येषा ते तगेमलिहायना - यौवनवय स्थितास्तेपाम्, तुरगाणामि यग्रेण अन्वय, पुन कीदृशानाम् 'अनाssE-'हरिमेला-मउल-मलिय-च्छाण' हरिमेलामुकुल-मल्लिका- सागाम-हरिमेला विशेष तम्य मुलिका, महिकामन्तज हॅमने वाले, (चता य) नाचने वाले, (भासता य) भाषण करनवाल, (सावेंता य) नूत-भवियन् कहने वाले, (रक्ता य) राजा के आमग्नक, (आटोय च करेमाणा) राजा का दर्शन करने वाले पुम्प, तथा - ( जयसह परजमाणा ) 'जय जय' शन्द करने वाले, ये ममी (पुरओ) आगे २ (अहाणुपुवीए) यथाक्म से ( मपट्टिया) चलने लग । (तयाणतरं च ण) इसके बाद ( जच्चाण तरमल्लिहायणाणं) उत्तम जाति के, वेगवाले नौजवान घोटे चलने लग । (हरिमेला-मडल-मलियाण) ये घोडे हरिमेला - वृक्षविशेष की गायन गाना, (हसता च) विनाद्वारा मनाग, (णच्चता य) नायनाश, ( भासता य) लाप नाग, (साता य) भूत लविप्य दखेनाग, (रस्सता य) गलना आत्म २३०, (आलोय च कमाणा गन्नना दर्शन इग्नाश, तथा (जनसह परजमाणा ) 'नयन' मन्दश्वावाला, मे मधा ( पुग्ओ ) भागज भागण ( अहाणु पुच्ची० ) यथा भथी ( मपट्टिया ) याला साया ( तयाणतर च ण ) त्या घडी ( जाण वरमहियाण ) उत्तम नविना वेगवाला नवभुवान ઘેટા ચાલવા લાગ્યા ( हरिमेला-मडल-महिय-च्छा ) આ ધ્રા હિમેલા-વિશેષની ઢળી તેમજ ત્સિતાપુષ્પ-વેલાના ફૂલ જેવી આખા પૂર્વ - Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४०८ औपातिकमरे पुलिय-चल-चवल चंचल-गईणं लंघण-वग्गण-धावण-धोरण-तिबई-जइण-सिरिखय-गईणं ललंत-लाम-गललाय-वर-भूसणाणं मुहकुसुमविशेष 'चेली' इतिरयातस्तद्वदक्षिणी येषा ते तथा तेपा, 'चचु-निय ललियपुलिय-चल-चवल-चचल-गईण'चन्च-चित-ललित-पुस्ति-च-चपल चञ्चल-गतीनाम्, चञ्चु =शुरुचञ्चु -तद्वयकतया उधित चरणयोरु थापन तेन ललित-सविलाम यत् पुलित-गमनविशेष -तद्पा-चलानांबातिमता चपलचञ्चला=अतिचाला, यद्वा चपलाविद्युत् , तद्वचञ्चला गतिर्येपा ते तथा तेपा, चक्रपदोपगमनविशेषाऽतिशयचधलगमनवताम् , 'लघण-घागण-धावण-धोरण-तिबई-जडण-सिक्ग्विय-गईणं लान बन्गन धावनधोरग-त्रिपदी-जयिनी-शिक्षित-गतीनाम लधन-गदिस्लधनम्, वगनम्-उत्कूदनम् , धावन शीप्रमृजुगमनम् , धोरण-गतिचातुर्यम् , त्रिपनी भूमौ पदनयन्यास , जयिनीजयिन्यारख्या अतितीवगति , एता शिक्षिता अभ्यस्ता गतयो यस्ते तथा तेषाम् । 'ललत-लाम-गललाय-वर-भूसणाण' लल-लामद्-गललात-वर-भूषणानाम्-ललन्तिदोलायमानानि, लामन्तिम रम्यागि, गललातानि श्रीमास्थितानि वरभूपणानि येपा ते तथा तेपा, चञ्चलमुन्दरग्रीवाभरणकली एव मल्लिकापुष्प-वेला के फूल के समान आसोंवाले थे । (चचु-च्चिय-ललिय-पुलियचल-चवल-चचल-गईण) शुरु की चचु के समान वक पैर उठा कर सविलास चलने के कारण वे बहुत भले मालूम होते थे, तथा चलने में बिजली के समान चचल थे । (लंघण वग्गण-धावण-धोरण-तिबई-जइण-सिक्खियगईण) लघन-खङ्ग आदि का लाधना, वल्गन-कूदना, धावन-शीघ्रतापूर्वक दौडना, धोरण-सूगर के समान नीचे सिर कर के दौडना, त्रिपदी-तीन पैरों से खडा होना, जयिनी-अतितीवं, चालका चलना,-इन सनों में ये अतिनिपुण थे। (ललत-लाम-गललाय-पर- सणाण) इनके गले में जो आभूषण थे वे इधर उधर हिलते डुलते थे और बहुत ही सुन्दर थे। (मुहभंडग-भोचूलग-थासग अहिपाप u (चंचु चिय-ललिय पुलिय चल चल चल गईण) पोपटनी यायनी જેમ વાકા પગ ઉપાડીને વિલાસ કરતા ચાલવાના કારણે તેઓ બહુ ભલા साता sal, तथा यासपामा विपीनी पडे यया ॥ (लघण-वग्गण धावण-धोरण तिगई जइण मिक्खिय गईण) धन-११ माहिने साधषु (५७) વગન-કૂદવું, ધાવન-ઝડપથી દેહવું, ધોરણ-સૂકરની પેઠે નીચુ માથુ રાખી દેડવુ, ત્રિપદી-ત્રણ પગે ઉભા રહેવું, જયિની–અતિ” ઝડપવાળા ચાલથી यासमा अधाभा तमा निधु ता (ललत-लाम गललाय-वर भूसणाण) તેમના ગળામાં જે આભૂષણ હતા તે આમતેમ હાલતા-ડાલતા હતા અને Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूपपणी टोक, सू २९ भगवद्दर्शनार्थं कृणिकस्य गमनम् ४०९ भंडग-ओचूलग-थासग अहिलाण- चामर-गड - परिमंडिय - कडीणं किंकर-वर-तरुण-परिग्गहियाणं असयं वरतुरगाणं पुरओ अहाणुपुव्वीए संपद्वियं । तयाणंतरं च णं ईसीदंताणं ईसीमत्ताणं ईसीतुंगाणं . - भूषितानाम् | 'मुहभडग-ओचूलग - बासग - अहिलाण - चामरगड - परिमडिय कडीण' मुग्नभाण्डका ऽवचूलक-स्थास का भिगन चामरगण्ड परिमण्डित-कटीनाम् – मुग्नभाण्डक = मुखाभरणम्, अपचूला = प्रलम्नमानगुच्छा, स्वासका =र्पणाकारा अलङ्कारा, अभिलाना =मुसपाथ, येषा ते तथा चामरगग्दै =चामरसमूह, परिमण्डिता कटिर्येपा ते तथा, तत पद्र्यस्य कर्मधारय, तेपा तथाभूतानाम् । किंकर - वर - तरुण - परिग्गहियाण' फिडरवरतरुग-परिगृहीतानाम्--किंकग्वराच ते तरणा न्तर गरिश्रेष्ठा, तै परिगृहीतानाम्, 'अट्ठसय वरतुरगाण' अष्टगत चरतुरगा गा श्रेष्ठद्यानामष्टाधिक शतम्, 'पुरओ अहाणुपुत्रीए सपट्टिय' पुरतो यथानुपूर्व्या सम्प्रस्थितम् । ' तयाणतां च ण ' तदनन्तर चं खलुईसीदताण' ईपदन्तानाम् = अन्पदन्तयताम् 'ईसीमत्ताण' ईपन्मत्तानाम् = किञ्चिन्नमदशालिनाम्, लाण - चामरगड - परिमडिय - कडीण) मुखभाण्डक - मुस का आभूषण, अवचूल - प्रलम्बमान गुच्छे जो मस्तक के ऊपर मुर्गे की कलगी के समान लगाये जाते है, स्थासक-दर्पण के आकार जैसे आभरणनिगप, तथा अहिलाण - मुखन्धविशेष से ये गोभित हो रहे थे, तथा चामरगड चामरसमूह से इनका कटिभाग विशेष अलकृत हो रहा था । ( किंकर - चरतरुण - परिग्गहियाणं) इनको पकडने वाले सईस उत्तम "एव तरुण अवस्था वाले थे । अदुसय वर तुरगाण पुरओ अहाणुपुत्री एसपट्ठियं ) इस प्रकार १०८ घोडे आगे आगे अनुक्रम से चलने लगे। (तयाणतर च ण ईसीदताण ईसीमत्ताणं ईसीतुंगाणं मडुन मुहर हुता (मुहभङग ओचूलग थासग अहिलाण चामरगड परिमडिय-कडीण) મુખભાડક-મુખનુ આભૂષણ, અવચૂલ-પ્રલ ખમાન ગુચ્છા જે મસ્તકના ઉપર કુકડાની કલગીના જેમ લગાવાય છે, સ્થાસકણુના આકાર જેવા આભ રણ વિશેષ, તથા અહિલાણુ–મુખખ ધનવિશેષ, એ મદ્યાથી તેએ શેાભિત થઈ રહ્યા હતા, અને ચામરગ ડે--ચામરસમૂહથી તેમને કેડના ભાગ વિશેષ અલ કૃત થઇ રહ્યો હતા ( किंकर - वर - तरुण - परिग्गहियाण ) તેમને પકડનારા સઇસ ઉત્તમ તેમજ તરુણ અવસ્થાના હતા (अट्ठ सय वर तुरगाण पुरओ अहाणुपुब्बीए सपट्ठिय) मा अारना १०८ घोडा अनुभथी सागण भागज थासवा साज्या ( तयाणतर च ण ईसीदताण ईसी Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० জীৎখানিক ईसी-उच्छंग-विसाल-धवल-दताणं कंचण-कोसी-पविद्य-दंताणं कंचण-मणि-रयण-भूसियाणं वर-पुरिसा-रोहग-संपउत्ताणं अदृसयं गयाणं पुरओ अहाणुपुबीए संपट्टियं । तयाणंतरं च णं सच्छ'ईसीतुगाण' ईयत्तुगानाम्=मनागुनतानाम् , 'ईसी-उच्छंग-रिसाल-धाल-दताण' ईप दुसङ्ग-विशाल-धाल-इन्तानाम्-ईपदुरसझे मध्यमागे विशाला अपवयस्क वात् , तथा धवला दन्ता येषा ते धवलदन्ता , तत पदद्वयस्य कर्मधारय , तेपाम्, 'कचण-कोसी-पक्टिदताण' काञ्चन--कोश -अपिष्ट-दन्तानाम् , कचण-मणि-रयण-भूसियाण' काञ्चनमगिरत्न-भूपितानाम् , 'घर-पुरिसा-रोहग-सपउत्ताण' वर-पुरुषा-डरोहक-सम्प्रयुक्तानाम् वर पुरुपा श्रेष्ठपुरपाथामी-आरोहका ते सम्प्रयुक्तानाम्--युक्तानाम् , एतादृशा-'गयाण' गजानाम् हस्तिनाम् , 'अट्ठसय' अष्टशतम् अष्टापिक शतम् , 'पुरओ अहाणुपुन्नीए सपट्ठिय' पुरतो यथानुपूर्ता सम्प्रस्थितम् । अथ रथाना वर्णनमाह-'तयाणतर' इत्यादि । 'तयाणतर ईसी-उच्छग-विसाल-धवल-दताण कचग-कोसी-पविठ्ठ-दताण कचग-मणि-रयण-भूसियाण वर-पुरिसा-रोहग-सपउत्ताणं अट्ठसय गयाण पुरओ अहाणुपुचीए सपट्ठिय) इनके बाद आगे आगे १०८ हाथी चले,ये हाथी अन्पदतवाले थे,पूरे दात इनके वाहिर नहीं निकल पाये थे। किंचित् मदशाली थे । थोड़े ही ऊँचे थे, अधिक नहा, इनका मध्यभाग भी अधिक विशाल नहीं था ' दात इनके अयत धवल थे । इनके दातो म सोन की सोलिया पहनायी गयी थीं। ये सुवर्ण एव मणिरत्नों से विभूषित हो रहे थे। इनके ऊपर श्रेष्ठ पुरुष बैठे हुए थे। (तयाणंतर च णं सच्चत्ताण सज्झयाण सघटाण सपडागाण सतोरणवराण सणदिघोसाण स-खिखिणी-जाल-परिक्खित्ताण हेमवय-चित्तमत्ताण ईसीतुर्माण ईसी-उच्छंग विसाल धवल दताण कचण कोसी पविद्ध दंताण कषणमणि-रयण भूर्सियाण वर पुरिसा-रोहग सपउत्ताण अट्ठसय गयाण पुरओ अहाणुपुवीए सपट्रिय) त्यापछी मारा मागण '१०८ साथी याच्या या हाथी २८५ हात વાળા હતા તેના દાત પૂરા બહાર નીકળેલા નહોતા કે ચિત્ મદશાળી હતાં થોડાક ઉચા હતા બહું નહિ તેમને પીઠને ભાગ વધારે પહેળો નહેતે તેમના વાત અહ ધળા હતા તેમના દાતમાં સોનાની ખેાળો પહેરાવી હતી તેઓ ન સવર્ણ તેમજ મણિર વડે વિભૂષિત બન્યા હતા તેમના ઉપર શ્રેષ્ઠ પુરૂષ બેઠા सता तयाणतर चण सन्छत्ताण सज्झयाण सघटाण सपडागाण सतोरणवराण संणदिघोसाण स-सिंखिणी-जाल-परिस्खित्ताणं हेमवय-चित्त-तिणिस-कणग Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूपयापंणो-टीका सु ४९ भगवदर्शनाथै फूणिकस्य गमनम् ताणं सज्झयाणं सघंटाणं सपडागाणं सतोरणवराणं सणंदिचण' तदन्तरच बलु 'सच्छताण' सन्छनागाछत्रयुक्तानाम् , 'सज्झयाग' सध्वजानाम्अजयुक्तानाम् 'सघटाणे' सघण्टानाम् , 'सपडागाण' सपताकानाम्-ध्वजो गरुडानिचिहयुक्तस्तदन्या तु पताका तद्वताम् . 'सतोरगवराण' सतोरणयराणाम् श्रेष्टतोरणवताम् , 'सणदियोसाण' मनन्दिधोपागाम्-नन्दीद्वादशविधवाद्यनि?प , तद् यथा-१ भभा, २ मउद, ३ मद्दल, ४ कटन, ५ झल्लरि, ६ हुड्डध, ७ फैसाला । ८ काहल, ९ तलिमा, १० वसो, ११ वी, १२ पणवो य वारसमो ॥१॥ तन-भभा' भम्भा भेरी १, 'मउद' मुकुन्द = वायविशेष २, 'मद्दल' मर्दल =मृदङ्ग ३, 'फडर' कडम्य वाद्यविशेष ४, 'झलरि' झञ्जरी-'झालर' इति रयातो वाचविशेप ५, 'हुडुक्क हुडुक वाद्यविशेष , अय देशीय शब्द ६, 'कसाला' कास्माल यावविशेष ७, 'काहल' काहल याद्यविशेष ८, 'तलिमा' तलिमा= तिणिस-कणग-णिज्जुत्त-दारुयाण कालायस-सुरुय-णेमि-जत-कम्माण) इनके वाद आगे आगे १०८ रथ चल रहे थे, ये रय उनसहित ये, पजासहित थे, इनके ऊपर ध्वनाएँ फहरा रही थीं, इनमें घण्टे लटक रहे थे, जिससे चलते समय इनकी मधुर आवाज आती थी। पताकासहित थे। (गरुट आदि के चिह्नों से युक्त का नाम धजा है और चिह्नरहित का नाम पताका हे।) इन रथो पर तोरण बधे हुए थे । ये रथ नन्दिघोप सहित थे । बारह प्रकार के वाद्यों का नाम नदिघोप है, वे १२ बारह प्रकार के बाजे ये है-भमा-भेरी, मउद-मुकुद (यह एक जात का बाजा होता है), मईल-मृदग, कटब-(यह भी एक जात का वाजा होता है), झल्लरी-झालर, हुडुक्क (यह भी एक जात का बाजा विशेष होता है), कसाल-(यह भी एक जातका बाजाविशेप है), काहल-(यह भी एक जात का बाजा विशेष है), तलिमा-वाचविशेप, वा-वाद्यविशेष, शख, एव १२वा पवणणिज्जुत्त-दारयाण कालायस-सुकय-णेमि-जत-कम्माण) त्या२ पछी आपण ૧૦૮ રથ ચાલતા હતા આ રથ છત્રવાળા હતા ધ્વાવાળા હતા તેમના ઉપર ધજા ફરકી રહી હતી તેમાં ઘટ લટકી રહ્યા હતા જેથી ચાલતી વખતે તેમને મધુર અવાજ આવતું હતું પતાકાવાળા હતા (ગરૂડ આદિના ચિહ્નો જેમાં હોય તે ધ્વજા કહેવાય અને જે ચિહ્નવિનાની પતાકા કહેવાય) આ રથ ઉપર તોરણ ખાધેલા હતા ન દિઘોષવા રના વાદ્યો (વાજા)ના નામ ન દિધેય છે તેઓ ૧૨ छे-भभा-लेरी, मउद-भु (मा ४ तनु पाणु हुडुक्क (मा ५ मे भुगतनु पाय छ) कला मा विशेष छे) काहूल-मा ५ ४ मभु४ ong ! Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० औपपातिक सूत्रे ईसी उच्छंग-विसाल-धवल-दंताणं कंचन - कोसी-पविट्ट-दंताणं क वण-मणि-रयण-भूसियाणं वर- पुरिसा - रोहग- संपउत्ताणं असयं गाणं पुरओ अहाणुपुत्रीए संपट्टियं । तयाणंतरं चणं सच्छ'ईसो तुगाण' ईपत्तुङ्गानाम् = मनागुलतानाम्, 'ईसी- उच्डंग-विसाल-धवल - दताण' इषदुःसह - निगाल-पाल - दन्तानाम् - ईपदुत्सङ्गे = मध्यभाग निगाला अल्पवयस्कवात्, तथा धवला दन्ता येषा ते धवलदन्ता, तत पदद्वयस्य कर्मधारय, तेपाम्, 'कंचण- कोसी पविट्ठ दताण' काश्चन - कोश प्रविष्ट-दन्तानाम्, कचण-मणि- रयण-भूसियाण' काञ्चनमगिरान-भूषितानाम्, 'पर- पुरिसा रोडग - सपउत्ताण' वर पुरुषाऽऽरोहक सम्प्रयुक्तानाम् घर पुरुषा श्रेष्ठ पुरुपाथामी - आरोहका तै सम्प्रयुक्तानाम् = युक्तानाम्, एतादृशा- 'गयाण' गजानाम्=हस्तिनाम्, 'अट्ठसय' अष्टगतम् = अष्टाधिक शतम्, 'पुरओ अहाणुपुत्रीए सपट्ठिय' पुरतो यथानुपूर्या सम्प्रस्थितम् । अथ रथाना वर्णनमाह - ' तयाणतर' इत्यादि । ' तयाणतर ईसी-उच्चग-विसाल-धवल- दताण कचण-कोसी-परि-दताण कचण-मणि-रयण-भूमियाण वर- पुरिसा-रोहग-सपउत्ताणं अट्ठसय गयाण पुरओ अहाणुपुत्रीए सपट्टियं) इनके बाद आगे आगे १०८ हाथी चले, ये हाथी अन्पदतवाले थे, पूरे दात इनके वाहिर नहीं निकल पाये थे । किंचित् मदगाली थे । थोटे हा ऊँचे थे, अधिक नहा, इनका मध्यभाग भी अधिक विशाल नहीं था । दात इनके अयत घरल थे । इनके दातों मे सोन की सोलियाँ पहनायी गयी थीं । ये सुवर्ण एव मणिरत्नों से विभूषित हो रहे थे । इनके ऊपर श्रेष्ठ पुरुष बैठ हुए थे । (तयाणतर च ण सच्छत्ताणं सज्झयाण सघटाण सपडागाण संतोरणवराण सणदिधोसाण स- खिखिणी - जाल - परिक्खित्ताण हेमवय-चित्त I मत्ता ईसीगाण ईसी-उच्छग विसाल धवल दताण कंचण कोसी पनि दूताण कचणमणि-रयण भूर्सियाण वर पुरिसा-रोहा सपत्ताण अट्ठसय गयाण पुरओ अहाणुपुवीए सपट्ठिय) त्या२पछी भागम भाग १०८ हाथी यादया भी हाथी सत्य हातવાળા હતાતેના દાત પૂરા બહાર નીકળેલા નહાતા (ચિત્ મશાળી હતા થાડાક ઉચા હતા મડ઼ે નહિ તેમના પીઠના ભાગ વધારે પહેાળે નહાતા તેમના દાત બહુ ધેાળા હતા તેમના દાતમા સેાનાની ખેાળા પહેરાવી હતી તેઓ સુવણુ તેમજ મણિરત્ન વડે વિભૂષિત બન્યા હતા તેમના ઉપર શ્રેષ્ઠ પુરુષ બેઠા हता ( तयाणतरं च ण सन्धत्ताणं सज्झयाण सघटाण सपडागाण सतोरणवराण सदिघोसाण स-सिंखिणी - जाल - परिक्खित्ताण हेमयय-चित्त-तिणिस-वण- Yu Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयुपनिणो-टीका स. ८९ भगवानार्थ पृणियम्य गमनम लिहवत्त-मंडल-धुगणं आइण्ण-वर-तुरग-संपउत्ताणं कुसल-नरच्छेय-सारहि-सुसंपन्गहियाणं बत्तीस-तोण-परिमंडियाणं सकंकड़वडेंसगाणं सचाव-सर-पहरणा-वरण-भरिय-जुन्छ-सजाणं असयं मृतमयुगगाम् । 'आइग - घर - तुरग - संपउत्ताण' आकार्य - घरसुग्ग-मन्प्रयुक्तानाम् – योनितोत्तम जानिमदघोटकानाम्, 'अमर-नर-पय-सारहिमुसंपग्गहियाण' कुगर-ना-ठेक-सागर-मुमम्प्रगृहीतानाम्-सुगठनग चिनपुरमा एव ये डेका निपुणा माग्यय ते मुसम्प्रगृहीतानाम-मच्चारितानाम । 'यत्तीस-तोरण-परिमंडियाण' द्वारिंशत्तोरगरिमण्डिताना-तोग्णानि अर्थगर्तुगऽऽगगि द्वागितेंद्रात्रिंगमदायक तोग्ण पन्दनवार परिमण्टिताना, प्रनिग्य द्वात्रिंगदान्द्रनवागणि मन्तीनि मात्र । 'माटरटेंमगाण' मकाऽतमानाम्-कदया काचा , अपनमका गिरनागानि 'टोप' इति प्रसिद्धा , त युका मकदारतमका तेषाम्-'मचावसर-पहरणा-चरण-मरिय-जुद्ध-मनाना' मचाप-अर-प्रहमा-SSI]- मृत - युद्ध-मनानाम-चाप महिता शग, मचापाग प्रहग्णानिमगादीनि, आचरणानिहाई (आठण्ण-चर-तुरग सपउत्ताण) इनमें जो पोटे जोतन म आये ये र नहुन ही उत्तम जाति के थे । (कुमल-नर-य-मारहि-गुसंपग्गहियाण) इनके जो माग्यी ये वे अश्व चालन किया म पिटीर निपुग य य ही इन्हे चा रह य । (पत्तीम-तोरण-परिमडियाग) प्रयेक ग्यों पर वत्तीम २ वन्दनना भी दुई थीं। (मककडवटेंमगाण) उनम कवच और गिग्वाग-गोद के टोप मा गये हुए थे । (मचार-पर-पहरणा-चरणभरिप-जुद्र-मन्नाणं) रे मन ग्य चाप-अनुप, आर-बाग, प्रहग्ण हथियार [ भारग्ग-ढाल आदिका मे मंहुए , अन देखन वाला को मे माटम पटने ये कि मानो तमना घोसना मर भरत तमा न त (माइण्ण नग्नुग्गमपउत्ताण) तमा नपामा माल्या ना त म त तिना हता (कुमल पर-र-मारहि-गुमपमाहियाण) तना माय ना त અથચાલન કિયાના વિશેષ નિપુણ હતા, તેઓ તેમને ચલાવતા હતા (बत्तीम-तोरण-परिमडिवाण) प्रत्ये. याना 64 पत्रीय पत्री वनमा पायी जी (मास्टरमगाण) तभा पय मने शिप्राr-adlना टा५ पर्य गणेता उता (म-चार-सर-पहरणा-गण-मग्यि-जुद्ध-मरनाण) से गया 4 ચાપ-વનુપ, શરઆણું, પ્રહરવું-હથિયાર તેમજ આવ- દાલ આદિથી Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ घोसणं सखिखिणीजालपरिस्खित्ताणं हेमवय-चित्त-तिणिस-कणग- णिजत्त दारुयाणं कालायस -सुकय- णेमि जंत कम्माणं सुसि म 'पण वार " वाद्यविशेष ९, 'उसो' या चारशे १०, 'सही' समो' पथ द्वा-तन पाव-पट 'ढोल' उति प्रम | 'स-सिसिणी-जालपरबत्ता' समिति गी - जाल - - परिवितानाम्- सर किरियागि =ण्टिकाभि सहित यज्जालक=आभरणविशेष तेन जालकेन परिक्षिमा = सुशोभिताम्तपाम्, 'डेमनय-चित्त-तेणिसकणग- णिज्जुत्त-दारुयाणं' हेमयत-चित्र- तैनिग - कनक- नियुक्त - दारकाणाम् हेमवतानि= हिमनदगिरिसम्भूतानि, चित्राणि= निचितागि, तैनशानि= तिनशनामकतरसम्बधीनि, कनकनिर्युक्तानि = सुवर्णसचितानि, दारकाणि= काष्ठानि येषु रथेषु तेषाम्, 'कालायस - मुकयणेमि जतकम्माण' कालायस सुकृत-नेमि यन्त्र-कर्मणाम् - कालायसेन= कर्कशलौहन सुटु कृत नेमे ==चक्रधाराया यन्त्रकर्म = बघन किया येषा ते तथा तेपा कर्कगलोहसम्पादितनेमिं - बन्धननद्रानाम्, 'सुसिलिट्ठ-पत्त-मंडलधुराण' सुल्लिष्ट - वृत्त - मण्डल - बुराणाम् - सुष्ठु मिष्टा वृत्तमण्डला अन्तगोलाकारा धूर्येपा ते तथा तेपा दृढघटितपटह - ढोल | इन बारह प्रकार के वादिनों से विशिष्ट ये रथ थे । इन पर जो जालक 1 - आभरणविशेष सजाने मे आये थे, अथवा इन रथों में जो जालिया थीं वेसन क्षुद्र -छोटी छोटी घटियों से युक्त थीं । इनसे रथों की शोभा मे अधिक वृद्धि हो रही थी । ये रथ जिस काष्ठ के बने हुए थे, वह काष्ठ तिनग नामका या । यह हिमवत गिरि से मगाया गया था और बहुत सुन्दर था । इस काष्ठ के ऊपर सुवर्ण का काम किया हुआ था । ये रथ इन्हीं कारों के बने हुए थे । इनके पहियों पर मजबूत लोहे के पट्टे चढाये हुए I थे (सुसिलि दत्त मंडल धुराण) इनका धुराये बहुत ही मजबूत एव गोल आकार का थीं। वाद्यविशेषोऽ ब्लतनु वाक्लु, यश-वामनु वाद्यविशेष, श ण, मने मारभु पणवपटह-ढोल आ मारेय अजरना वानित्रोधी विशिष्ट या रथ तो तेना ५२ જે જાલ. ભણવિશેષ સજાવવામ્સ આવ્યા હતા, અથવા આ ન્ધામા જે જાળી હતી તે બધી ક્ષુદ્ર-નાની નાની ઘટડીઓવાળી હતી એનાથી રથાની શે।ભામા અધિક વૃદ્ધિ થતી રહેતી હતી આ રથ જે લાકડાના અનાવ્યા હતા તે લાકડા તિનશ નામના હતા એ હિમવત ગિરિથી મગાવેલા હતા અને બહું જ સુદર હતા આ લાકડાની ઉપર સુવર્ણનુ કરવામા આવેલુ હતુ એ રથ આ જ લાકડાના અનાવ્યા હતા તેમના पैठा उपर भभूत सोढाना थट्टा थडाच्या हता (मुसिलिट्ठ-वत्त-मडल-धुराण) કામ औपपातित्र सूत्रे - Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Rememe m m पोयूपपणी टोकास ५० मगरदर्शनार्थ कुणिकम्प गमनम् मूलम्त ए णं से कूणिए राया हारोत्थय-सुकयरडय-वच्छे कुंडलउज्जोइयाणणे मउडदित्तसिरए णरसीहे परवई परिंदे णरवसहे मणुथरायवसहकप्पे अमहियं रायतेयलच्छी टीका-तए ण से' इत्यादि । 'तए ण' ततस्तदनन्तरम् अष्टमङ्गलगृहोंग्निहयगजादिनस्थानानन्तर बल्ल 'मे कृगिए राया' स कूगिको राजा 'हारोत्ययमुरुप-स्टय-वच्छे' हागवस्तृत सुकून-रतिट-वक्षा हागवस्तृत हारप्रावृत्त, मुकृत:नुचितम् अतएव रतिदम्-प्रीतिप्रट व हृदयदेशो यस्य स तथा, 'कुडल-उज्जोइयागणे कुण्डलोयोतिताऽऽनन , मुकुटनीगिरक , 'णरसीहे । नरसिंहो, 'गरवई' नरपति , 'गरिंद' नरेन्द्र 'गरवसहे' नरवृषभ - अनीत्तरार्यभारनिहिक यात्। 'मणुय 'तए ण से कृणिए राया' इयादि । (तए ण) इसके बाद (से कृगिए राया) वह कूगिक राजा कि जिनका वक्षस्थल (हारांत्यय-मुकय-राय बच्छे) हागे से ब्यान, सुरचित और रतिद-प्रीतिप्रद या, (कुंडलउन्लोइयाणणे) जिनका मुगकुटलों की आभा से अधिक दामिम्पन्न होरहा था। (मउडत्ति-सिरए) मुकुट धारण करने से जिनका मन्तक मुशोभित हो रहा था । (गरसीह) जो मनुष्यों में मिह जैसे थे । (गरबई) जो मनुष्या क त्वामी थे, क्यों कि हर तरह से उनका पालन-पोषण करते थे। इसीलिये (परिंदे) जो नरा में इन्द्र जैसे थे। (गरवसहे) जो नग में वृपमसमान थे, क्यों कि ये अपने ऊपर जो कार्य लेते थे उसे अपश्यमेव पूग करते थे । (मणुयराय-वसह-कप्पे) मानवा के गजाआ के भी जो राजा-चक्रवती-जैसे 'तए ण से कूणिए राया' पत्यादि (तए ) त्यार पछी (मे कृणिए राया) ते दिड Pinनु १६ - P4 (छtri) (हागेत्यय-सुफय-रइय-बच्छे) हारथी व्यास, सुरथित सने प्रीति तु (कुडल-उज्जोइया-गणे) भनु भुप उनी मालाश पडे पिंड हासिमपन्न 45 छु तु (मउड-दित्त-सिरण) भुट धारण पाथी रेनु भन्न सुशोभित यई तु (णासीहे) 2 मनुष्यामा सिंह पर खता, (गरसह)२ मनुष्याना पामी हता, उभ७२ तडया તેમનુ પાલન-પોષણ કરતા હતા આથી (૯) તેઓ નરેના ઇદ્ર જેવા ont (गरवसहे) २ श्यामा वृषम-समान ना तो पाताना ७५२२ आर्य देता ते सत्यमेव ५३ उता इता (मणुपराय-वसहः me-m--- mera man Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपमानिसले रहाणं पुरओ अहाणुपुबीए संपटियं । तयाणंतरं चणं असि. सत्ति-कुंत-तोमर-सूल-लउल-भिडिमाल-धणु-पाणि-सजं पायताणीयं पुरओ अहाणुपुबीए संपटियं ॥ सू० ४९ ॥ इति प्रसिद्धानि, तैर्भूता , अतएर युद्राय इस सम्मान्तेपा रहाणे' रथानाम् 'अट्ठमय' अण्टातम् अष्टाधिकशत 'पुरओ अहाणुपुञ्चीए संपद्विय' पुरतो यथानुपूर्त्या सम्प्रस्थितम् । अथ पदातिसैन्यवर्णनमाह-' तयाणतर चणं' इत्यादि। तदनन्तग्च गल 'असि-सत्तिकुत-तोमर-मूल-लउल-भिडिमाल-धणु-पाणि-सज' असि-शक्ति-युन्त-तोमर-- शूल-लकुट-भिन्दिपाल-धनु -पागि-सनम्-असि सन , शक्ति =अनविशेष, कुन्त - भल्ल , तोमर नाणविशेप , शूलम् एकशूलम्-'परी' इति प्रसिद्धम्, 'लउल' लकु र यष्टि , 'भिडिमाल' मिन्दिपाल -अलविशेष , ' गोफग' इति भाषाप्रसिद्ध , धनुप्रसिद्धम् , एतानि पाणी हरते यस्य तत् तथा, तच तत् सज्ज चेति समास , तादृशम् , पायत्ताणीय' पदात्यनीकम् पदातिसैन्यम्, 'पुरओ अहाणुपुलीए संपढिय' पुरता यथानुपूर्ध्या सम्प्रस्थितम् ॥ सू० ४९ ॥ ये युद्ध के मैदान में जाने के लिये ही तैयार किये गये है, ऐसे (रहाणं अट्ठसय) १०८ एक सौ आठ रथ (पुरओ) आगे २ (अहाणुपुच्चीए) यथाक्रम से (सपट्ठिय) चलने लगे। (तया गंतरं च ण असि-सत्ति-कुत-तोमर-मूल-लउल-भिडिमाल-धणु-पाणि-सज्ज पायत्ताणीय पुरभो अहाणुपुबीए सपद्विय) इनके आगे २ असि-तलवार,शक्ति-अस्त्रविशेष, कुन्त-भाला, तोमर--अस्त्रविशेष, शूल-चरछी, लकुट-लाठिया, भिडिमाल-भिन्दिपाल-गोफग और धनुन ये सर तिनके हाथों में थे, ऐसे पदातिसैन्य अनुक्रम से चलन लगे ।सू ४९॥ ભરેલા હતા આથી જેનારને એમજ લાગે કે જાણે યુદ્ધના મેદાનમાં જવા भाटे ४ तैयार र्या छ मेपा (रहाण अट्रसय) से मार १०८ २५ (पुरओ) 1200 1 (अहाणुपुव्वीए) यामथी (सपट्रिय) यासा ज्या (तयाणतर च ण असि सत्ति-कुत्त-तोमर-सूल लडल-भिडिमाल-धणु-पाणि-सज्ज पायत्ताणीय पुरओ अहाणुपुयीए सपट्टिय) तेमनी मा मा असि-deपा२, शठित-विशेष, अन्त मासा, तभ२-मसाविशेष, शूल-२४ी, सट લાકડીઓ, ભિડિમાલ-ભિ દિપાલ–ગણું અને ધનુષ એ બધા જેના હાથમાં હતા એવા પદાતિન્ય અનુક્રમે ચાલવા લાગ્યા (સૂ ૪૯) Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७ पोषषिणो-टीमा सू ५० भगय दर्शनार्थ कुणिकम्य गमनम् लियाए चाउरंगिणीए सेणाए समणुगम्ममाणमग्गे जेणेव पुण्णभद्दे चेडए तेणेव पहारेत्थ गमणाए ॥ सू० ५०॥ मूलम्त एणं तस्स कूणियस्स रण्णो भंभसारपुत्तस्स प्रथितकीर्ति , 'हय-गय-पवर-जोह-कलियाए चाउरगिणीए सेणाए' हयगजरयप्रवरयोधफलितया चतुरगिण्या सेनया-हयगंज स्यै प्रपरयो रथिभिर्महारथिमि कलितया युक्तया, चत्वारि अगानि यस्या मा चतुरद्गिणी तया-यगजर थपदातिरूपैश्चतुर्भिरने ममेतया सेनया 'समणुगम्ममाणमग्गे' समनुगम्यमानमार्ग -समनुगम्यमानो मार्गों यस्य स तथा, 'जेणेव पुण्णभद्दे चेहए' यौन पूर्णभद्र चैय 'तेणेव ' तत्रैव पहारेत्य' प्रधारितवान् 'गमणाए' गमनाय पूर्णभद्रोद्यान गन्तु मनसि निश्चय कृतवान् ।।मू० ५०॥ 'तए ण' इयादि । 'तए ण तस्स कृणियस्स रण्णो भभसारपुत्तस्स पुरओ' तत सल तस्य कूणिकस्य गजो भमसारपुत्रस्य पुरत 'मह' महान्त =उच्चा , 'आसा' अश्वा -तुरट्गमा , 'आसवग' अश्ववरा-जात्या गद्गारेण च वरा =अष्टा अवा समान ऋद्धि के कारण विख्यात कीर्तिपाले ये (इय-गय-पवरजोह-कलियाए चाउरंगिणीए सेणाए समणुगम्ममाणमग्गे जेणेव पुण्णभद्दे चेहए तेणेव पहारेत्य गमणाए) घोडा, हाथी और श्रेष्ठ योद्वाओं से युक्त चतुरगिणी सेना से युक्त हो जहाँ पूर्णभद्र नामका उद्यान या उस ओर चले । सू ५० ॥ 'तए णं तस्स कृणियस्स रण्णो' इत्यादि । (तए ण) इसके बाद (तस्स ऋणियस्स रण्णो भभसारपुत्तस्स) भभसार के पुन उन कृणिक राजा के (पुरओ) आग आगे (महं आसा) बडे उचे २ घोडे एव (आसवरा) जाति और शृगार से उत्तम घोडे चलने लगे । (उभओ पासिं णागा णाग- । गय-पपरजोह-कलियाए चाउरगिणीए सेणाए समणुगम्ममाणमग्गे जेणेर पुण्णभद्दे चेइए तेणेव पहारेत्य गमणाए) घास, हाथी मन श्रेष्ठ योद्धामाथी युति ચતુર ગિણી સેનાથી યુત થઈ જ્યા પૂર્ણભદ્ર નામનુ ઉદ્યાન હતું તે તરફ यादया (सू ५०) 'तए णं तस्स पूणियस्स रणों' त्याहि (तए ण) त्यार पछी (तस्स कृणियस्स रण्णो भंभसारपुत्तस्स) समसारना पुत्र ते इणि शनी (पुरओ) मा सामण (मह आसा) या GA! घास तेभर (आसारा) लति तथा शान्थी उत्तम यास न्याला Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओपपातिपत्र ए दिप्पमाणे हत्थिाखंधवरगए सकोरंटमल्लूटामेणं छत्तेणं धरिजमाणेणं सेयवरचामराहिं उहव्वमाणीहि २ वेसमणे चेव णरवई अमरवइसण्णिमाए इड्ढीए पहियकित्ती हय-गय-पवरजोहकराय-सहकप्पे' मनुजराज-वृपभ-कप -मनुगजाना-गना तृपमा नायकाचक्रनतिन तैस्तुन्य -मनाङन्यूनतया ममान , उत्तरगरतार्धस्यापि माग्ने प्रवृत्तवादिति भार । 'अन्भहिय अभ्यधिक-यया स्यात तथा-राय-तेय-लन्छीए' राजतेजोलदम्या, 'टिप्पमाणे दीप्यमान , 'हत्थि-खध-चर-गए! हस्ति-रकन्ध-वर-गत , 'सकारटमल्ल-दामेण उत्तेण धरिजमाणेण' मकोरण्ट-मान्य-दाम्ना उत्रेण प्रियमाणेन, 'सेय-पर-चामराहिं उम्दुल्लमाणीहि उद्भुबमाणीहिं ' श्वेतपरचामरैरूद्धूयमानैरद्र्यमानै गोभमान 'वेसमणे चेव चैश्रवगडच लोकपाल कुवेर टव 'णरवई' नरपति , 'अमरवइसग्गिभार इड्ढोए' अमरपतिसन्निभया=इन्द्रसदृश्या मया, 'पहियकित्ती' थे । 'चक्रवर्ती जैसे थे'-इसका मतलब यह है कि उत्तर भरतार्ध के साधन में प्रवृत्त होने से चक्ररती जैसे थे । (अम्भडिय रायतेयलच्डीए दिप्पमाणे) जो राजसी तेज से और राजलक्ष्मी से अधिक देदीप्यमान थे। ऐसे ये ऋगिक राजा (हत्थि-संध-वर-गए) जब हाथी पर बैठे तर इन्हों ने अपने कार (सकोरंट-मल-दामेणं उत्तेण धरिजमाणेण) कोरट पुष्पों की मालाओ से युक्त छन धारण किया, और इनके ऊपर (सेय-वर-चामराहि उद्धुबमाणीहिं २) सफेद चमर दुलने लगे । इनसे ये (गरवई) राजा (वेसमणे चेव) कुबेर के समान दिसने लगे । तथा (अमरवइसणिभाए इडढीए पहियकित्ती) इन्द्र के कप्पे) भासाना राजयोना ५ रात-यवती 24 उतत 'यवती જેવા હતા–એની મતલબ એ છે કે ઉત્તર ભરતાને સ્વાધીન કરવામાં प्रवृत्त पाथी यती' वा ता (अभहिय रायतेयलच्छीए दिप्पमाणे) જેઓ રાજસા તેજથી તથા રાજલકમીથી અધિક દેદીપ્યમાન હતા એવા माथि रात (हत्यि-संध-चरगए) न्यारे हाथी ५२ मे. त्यारे भए पोताना 6५२ (सकोरट-मल्ल-दामेण छत्तेण धरिज्जमाणेण) अर पानी भागामाथी युत छत्र धारण उयु, सने तमना ५२ (सेयपरचामराहिं उद्धब्बमाणीहिं २) स३६ याभ२ ढोका साया तनाथ तया (गरवई) सन (वसमगे चेत्र) उमेरना २१ मा य तथा (अमरवइसण्णिभाए इड्ढीए पहियकित्ती) घना की *दिना था विध्यात तवा तसा (हय Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ teaणी-टीका ५२ भगप्रदर्शनार्थ कूणिकस्य गमनम् ४१९ वाल-वीयणीए सव्विड्ढीए सब्वज्जुईए सव्ववलेणं सव्वसमुदणं सव्वादरेणं सव्वविभूईए सव्वविभूसाए सव्वसंभमेण सव्त्र - पुप्फ-गंध-महा-लंकारेणं सव्व-तुडिय - सद-सण्णिणायस्मै म तथा । 4 पवीडय - बाल - वीणीए ' ' ग्रवीजित वालव्यजनिक - प्रवीजिताप्रचारिता वात्र्यजनिका यस्मै म तथा, 'सब्बिड्डीए' सर्वट्र्र्या= सर्वया उदया | 'सब्वज्जुईए' सर्वथुया= सवाभरणाना प्रभया, 'सव्वाण' सर्नबलेन = सर्वमैन्येन, 'सन्यसमुद्रण' सर्वसमुदयेन सर्वपरिवारादिसमुदायेन, ' सव्वादरेण ' सर्वादरेण सर्वप्रयत्नेन, 'सव्वविभूईए' सर्वविभूया = सर्ववैभवेन, 'सव्व विभूसाए ' सर्वविभूपया = सर्वविपनेपथ्याद्विधारणेन, 'सव्वसंभमेण ' सर्वसम्भ्रमेण = सर्वेण सौमुक्येन=स्नेह्मयेन चाञ्चन्येनयर्थ, 'सव्त्र- पुप्फ-गंर-मल्ला-लकारेण ' सर्व-पुष्प - गन्'–माच्या-ऽलङ्कारेण, 'सव्त्र - तुडिय -सह- सप्णिणाएण' सर्व त्रुटित - शन्द-मनिनादेन – सर्वनिधाना त्रुटित|ना = वायाना यो शन्द तम्य मनिनादेन = प्रतिध्वनिना । ' महया ऐसे वे वृणिक राजा (सब्विड्ढीए) अपनी समस्त राज्य ऋद्रिसे (सब्वज्जुईए) समस्त वस्त्र और आभरणों की प्रभासे (सच्चवलेण) अपनी समस्त सेनाओं से (सच्त्रसमुद्रएण) अपने समस्त परिजनों से, (सव्वादरेण) आढग्मकाररूप सभी प्रजनों से (सव्वविभूईए) अपने समस्त ऐश्वर्य से (सव्त्र विभूसाए) सभी प्रकार के वस्त्राभरणों की शोभा से, (सव्वमंभ मेणं) भक्तिजनित अधिक उमुकता से (सन्य- पुप्फ-गध-मल्ला-लकारेण) सन तरह के पुष्पों से, सब तरह के गन्ध द्रव्यों से, सब तरह की मालाओं से, एव सब तरह के अल्कारों से (सव्चतुडिय - सह -सण्णिणाएण) सभी प्रकार के वाढित्रों की मधुर ध्वनि से, तथा - (महया = पीए) लेना उपर વાળન્યજન અર્થાત્ ચમર ઢોળાઈ રહ્યા હતા, એવા તે ईडि गन्न (सच्चिइडीए) पोतानी समस्त राज्य ऋद्धिथी, (मध्वज्जुईए) सुभभ्त वस्त्र तथा मालशोना अलाव वडे, (सव्ववलेण) पोतानी मभन्त सेनाओ वडे, ( सव्वसमुदएण ) पोताना अम्ल पग्लिन वडे, (मव्यावरेण ) आह भाग ३५ भधा प्रयत्नो वडे (सव्यनिभूईए) पोताना मभन्त मैश्वर्य वडे, (सव्वभुिसाए) भाभ अजरना वस्त्रालोनी शोला वडे, (सव्य सभमेण) ભક્તિનિત अत्यंत उत्सुक्ता वडे, (सव्य-पुष्क-गंध-मल्ला टंकारेण) भव પ્રકારના પુષ્પા વડે, સર્વ પ્રકારના ગધદ્રવ્યેશ વડે, મ પ્રકારની માળાએ વડે તેમજ સર્વ પ્રકારના व े मच्त्र तुटिय-मद्द-मण्णिणापण) सर्व अारना पानि त्राना भधुर ध्वनि वडे, तथा (महया इट्ठीए ) पोतानी विशिष्ट Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ औपतिपत्रे पुरओ महं आसा आसवरा 'उभओ पासिं णागा णागवरा पिहो रहसंगेल्ली। सू० ५१ ॥ मूलम्त ए णं से कूणिए राया भंभसारपुत्ते अन्भुगयभिंगारे पगहियतालयंटे उसविय-सेय-च्छते पवीडयस्प्रस्थिता , 'उभभो पासिं' उभयो पायो चामशिगयो 'गागा' नागा =महान्तो गजा 'जागवरा' नागरा -जा या गारंग व वरा श्रेष्ठा गना प्रस्थिता , तथा'पिट्ठओ' पृष्टत = रहसगेल्ली' स्थगेलीयसमूह मास्थित । 'सगेल्ली' इति समूहयाचको देशीय गन्द ॥ स० ५१ ।। टोका-नए ण से' इत्यादि । 'तए णं से कृणिए राया भभसारपुत्ते' तत सल्ल स कृगिको राजा भमसारपुन 'अभुगयभिंगारे' अभ्युदगतमृहार -अभ्युद्गतपुरत प्रस्थित भृङ्गार ='झारी' इति प्रसिद्ध जलपान यस्य स तथा 'परगाहियतालयंटे' प्रगृहीततालवृत्त --प्रगृहीत तालवृन्त यस्मै स प्रगृहीततालन्त । 'असवियसेय-छत्ते' उच्छ्रितश्वेतच्छर --'ऊसविय' उष्ट्रितम्-उपरि वितानित श्वेत-धवल छत्र वरा) तथा उनके दोनों तरफ बडे २ हाथी एव जाति से और शूगार से श्रेष्ठ गजराज चल्ने लगे, और (पिट्टओ) उनके पीछे २ (रहसगेल्ली) रथका समूह चला ॥ ५१ ॥ 'तए णं से कृणिए राया' इत्यादि । (तए ) उसके बाद (से कृणिए राया भभसारपुत्ते) भभसार के पुत्र वे कृणिक राजा कि, जिनके आगे (अभुग्गभिंगारे)जन से भरी हुई झारिया थीं, (परगहियतालयटे) जिनके दोनों ओर पवनपाने हो रहे थे, (ऊसविय-सेय-छत्ते) जिनके ऊपर श्वेत छत्र धरा हुआ था, तथा (पत्रीदय-बाल-बोयगीए)जिनके ऊपर वालव्यजन अथात् चमर ढोरा जा रहा था, साया (उभओ पासिं णागा जागररा) तथा तमनी मन्नत मा भारी हाथी तभ गतिथी साथी श्रेष्ठ १०१२१४ यासाय तया (पिट्ठओ) तभनी छपाछ (रहसगेल्ली) २थने समुह यादये। (सू ५१) "तए ण से कृणिए राया" त्यादि (तए ण) त्या२ पछी (से कूणिए राया मभसारपुत्ते) साना र त इणि शत ना मा10 ( अमुग्णयभिंगारे ) सरेसी आरीस। ती, (पगहियनालयटे) गी मन्ने मान्य यवन५ मा २ हा sal, (जसरिय-सेय-छत्ते) ना पर येत छत्र घरेलु तु , ON (पवीइयवालवीय mamar Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषषपिणी-टीका ५३ भगवदर्शनार्थ फूणिकस्य गमनम् २२१ मृलम्-तए णं तस्स कूणियस्स रपणो चपाए णयरीए मझमझेणं निग्गच्छमाणस्स वहवे अत्थस्थिया कामस्थिया भोगस्थिया लाभत्थिया किबिसिया कारोडिया कारवाहिया संखिया चकिया नंगलिया मुहमंगलिया वद्धमाणा पूसमाणया टीका-'तए ण' इत्यादि । 'तए ण' तत-चम्पानगरीमध्येन निर्गमनाऽनन्तर ग्वलु ' तस्स कृणियस्स रण्णो' तस्य कृणिकस्य राज , 'चपाए णयरीए मज्झमझेण निग्गच्छमाणस्स' चम्पाया नगर्या मध्यमध्येन निर्गच्छत 'वह' वह्व अनेके 'अत्यत्थिया' अर्थाऽर्यिका =धनार्थिका , 'कामत्थिया' कामार्थिका =सुखार्थिका । 'भोगत्थिया' भोगायिका , 'लाभत्थिया' लाभार्थिका लाभाऽभिलापिण , 'किन्चिसिया' किन्चिपिका =भाण्डचेष्टाकारिण -हास्यकरा इत्यर्थ , 'कारोडिया' कापालिका , 'कारवाहिया' कारवाधिता कर एव कार, तेन बाधिता =राजकरपीटिता , 'संखिया' शाटिका गङ्खचादका 'चक्किया' चाक्रिका =चक्रधारका ‘नंगलिया' 'तए ण तस्स कूणियस्स' इत्यादि। (तए ण) उसके बाद (तस्स कूणियस्स रण्णो) उस कूणिक राजा के (चपाए णयरीए मज्झमझेण) चपा नगरी के मध्यभाग से होकर निकलते समय (वहवे अत्यत्थिया कामस्थिया) अनेक धनार्थियों ने-सुखार्थियों ने-(भोगत्थिया लाभत्थिया) अनेक भोगार्थियों ने, अनेक लाभार्थियों ने, (फिलिसिया) भण्डचेष्टा करने वालोने-हँसामजाक करने वालों ने, (कारोडिया) अनेक कापालिको ने एक प्रकार के भिक्षुकोंने, (कारवाहिया) अनेक राजकरपाडितों ने, (सखिया) अनेक शख बजाने वालों ने (चविया) अनेक चक्रधारियोने, (नंगलिया) अनेक कृपकों ने, (मुहमगलिया) अनेक शुभागार्वाद तए णे तस्म कृणियरस' त्याहिं (तए ण) त्या२ ५७ (तस्स कूणियस्स रण्णो) ते एणि सना (चपाए णयरीए मज्झमझेण) य॥ नगीना मध्यभागमाथी नीती पणते (बहवे अस्थत्थिया कामत्थिया) यने धाथि सामे, मने माथिमायसुमाथिभा (भोगत्थिया लाभत्थिया) मने सोसाथियाय, मने सामा दिमागे, (किविसिया) म उये। ४२पापामारी-हामी मत ४२वावाजामामे, (कारोडिया) मने४ ४ापानिये- ना लिखुमास, (कारवाहिया) मने २२४४२पारितामे, (सखिया) भने २५ मावाणामामे, (चम्किया) Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० औपपातिक - एणं महया इड्ढीए महया जुईए महया वलेणं महया समुदएणं महया वर-तुडिय-जमगसमग-प्पबाइएणं संख-पणवपडह-भेरि-झल्लरि-खरमुहि-हुडक-मुरय-मुअंग-दुंदुहि-णिग्घोस-णाइय-रवेणं चंपाए णयरीए मझं-मझेणं णिग्गच्छड ॥ सू० ५२ ॥ इड्डीए' महत्या या 'महया जुए' महत्या युत्या, 'महया चलेणं' महता बलेनविपुलसैन्येन, 'महया समुदएण' महता समुदायेन समूहन । 'महया वर-तुडियजमग-समग-पचाइएण' महता वर-जुटित-यमकसमक-प्रवादितेन-महता=बृहता, वरत्रुटिताना = श्रेष्ठविविधवाधाना-यमफसमझ = युगपप्रवादितन 'सख-पणव-पडह-मेंरि-झल्लरि-घरमुहि-हुडुक्का-मुरय-मुअग-दुदुहि-णिग्योस-गाइय-रवेण' शङ्खपणव-पटह-भेरी-झल्लरी-खरमुरसी-हुडुफ-मुरज-मृदङ्ग-दुन्दुभि-निघोंप-नादित-रवेण-- शतादिदुन्दुभ्यन्ताना वाचविशेषाणा निघोंपस्य नादितरवेण प्रतिध्वनिना चम्पाया नगर्या मध्यमध्येन ‘णिग्गच्छइ' निर्गच्छति ॥ सू ५२॥ इड्डीए) अपनी विशिष्ट ऋद्धि से, (महया जुईए) अपनी विशिष्ट धुति से, (महया बलेण) अपनी विशिष्ट सेना से (महया समुदएणं) अपने विशिष्ट परिजनों से (महया-वर-तुडियजमग-समग-पवाइएण) एक ही साथ बजने वाले गजों की मनोहर महास्वनि से, तथा (सख-पगव-पडह-भेरि-अल्लरि-खरमुहि-हुडुक-मुरय-मुअग-दुंदुहि-णिग्योसणाइय-रवेण) शख, पणव, परह, भेरी, झल्लरी, खरमुखी, हुडुक्क, मुरज, मृदङ्ग एवं दुन्दुभि के निर्याप की प्रतिध्वनि से शोभित होते हुए (चपाए णयरीए मज्झमज्जेण णिगच्छद) चम्पा नगरी के बीचो-बीच से होकर चले ।। सू ५२॥ सद्धि', (महया जुईए) पातानी विशिष्ट पति, (महया चलेण) पोताना विशिष्ट सेना 43, (महया समुदएण) पोताना विशिष्ट परिसना पडे, (महया घर-तुडिय-जमगसमग-पवाइएण) असाथै पाता पालना भनाइ२ महा नि 43, तथा (संख पणर पडह-भेरी झल्लरि-घरमुहि-हुडुक-मुरय-मुअग दुदुहिणिग्योस जाइय रवेण) शभ, पशुप, ५८, लेरी, यसरी, भुभी, हु, भन, भूस, तेभ लिना निधोपनी प्रतिध्वनि पोलता (चपाए णयरीए मझ-मज्ञण णिगच्छइ) या नगरीना पया-पय २४ने यादया (भू ५२) Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषयपिणी टीका स् ५३ भगवदर्शनार्थ कूणिकस्य गमनम् દર जय जय णंदा । जय जय भद्दा ! भई ते, अजियं जिणाहि, जियं च पालेहि, जियमझे वसाहि । इदो इव देवाणं, चमो डव असुराणं, धरणो डर नागाणं, चंदो इव ताराणं, भरहो इव जनान-दति नन्द , तमन्बोपन ह नन्द जय जय विजयगान भन । 'जय जय भहा' जय जय भद्र । हे भद्र कल्याणम्वरूप ' विजयम्य । 'भद्द ते' भद्र तुभ्यमस्तु । 'अजिय जिणाहि' अजित जय-अजित देगादिक जय, 'जिय च पालेहि जित च पालय, 'जियमझे वसाहि' जितमध्ये वम । तथा त्वम् ‘इदो इव देवाण' इन्द्र दव देवानाम्, 'चमरो र अमुराण' चमर इव-एतन्नामक इन्द्र दव असुराणाम् सुरविरोपिनाम्, 'यरणो इव नागाण' धरणेन्द्र इव नागानाम्, 'चंदो दव ताराण' चन्द्र दव तारागाम्, 'भरहो इव मणुयाण' मरत टव मनुजानाम्, 'वहद वासाट' बहूनि वपागि, 'वह वाससयाइ' वहनि वर्षातानि, 'बहूइ वाससहस्साद' बहुनि वर्षमवाणि, जय भद्दा) ह नन्द-मनुष्यों को अपार आनद प्रदान करनेवाले स्वामिन ' आपकी जय हो जय हो । हे भद्र ।-कल्याणम्वरूप । आप सदा विजयशाली रहे । (भद्द ते) आपका सदा कल्याण हो । (अजिय जिणाहि ) आपने जिसको नहीं जाता हो, उस पर विजन का । (निय च पालेहि) जिमको आपने जीता है उसका पालन करें। (जियमज्झं साहि) जीते हुए प्रदेश में मदा आपका निवाम रहे । (हदो इच देवाण, चमरो इव अमुराण, धरणो इव नागाण, चदो व ताराग, भरहो इव मणुयाण) देवों में चन्द्र की तरह, अमुर्ग में चमरेन्द्र की तरह, नागकुमागे मे धरणेन्द्र की तरह, तागओं मे चद्र की तरह और मनुष्यों में भरत की तरह आप (बहह वासादं यहई वाससयाट वहर्हि •तुति उता २मा प्रा उडवानी प्राम ज्यों (जय जय णदा जय जय भद्दा) નદ-મનુષ્યને અપાર આનદ આપવાવાળા સ્વામિન્ ! આપની જય હો म्य । -स्या १३५ । माप महा वियशाली २ । । (भद्द ते) मापनु सही इस्या हो (अजिय जिणाहि) मापे ने न त्या डाय तना 6५२ विश्य भेगा (जिय च पालेहि) २ माघे त्या डेय तेभनु पालन । (जियमाझे घसाहि) मा प्रदेशमा महा आपने निवास २ (इदो इव देवाण, चमरो इन असुराण, धरणो इन नागाणं, चढो इव ताराण, भरहो इन मण्याण) देवोभा द्रनी भ, मसुरोभा यमरेनी भ, नागभागमा ઘણેકની જેમ, તાગમા ચદ્રની જેમ અને મનુષ્યમા ભગ્નની જેમ, मा५ (बहूई वासाइ वहई वाससयाइ गइ वासमहम्माइ) ! ५२मा भुषा, Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - કરર खंडियगणा ताहिं इटाहिं कताहिं पियाहिं मणुण्णाहिं मणामाहिं, मणाभिरामाहिं हिययगमणिजाहि वग्गृहि जय-विजय-मंगलसएहि अणवरयं अभिणंदंता य अभित्थुणंता य एवं वयासीलागलिका =कर्षका 'मुहमगलिया' मुखमगलिका --मुग्पे मद्गल येषामस्ति ते मुग्यमनलिका =शुभवचनवाटका , ' बद्धमाणा' बर्द्धमाना स्कन्धेप्यारोपिता पुरपा, 'पूसमा णवा' पुष्यमानवा =मागधा , 'सडियगणा' सण्डिकगणा -छात्रसमुदाया । एते सर्वे 'ताहि ' ताभि =विवक्षिताभि , 'इटाहि । इटाभिर्वान्छिताभि , 'कताह ' कान्तानि - कमनीयामि , 'पियाहि । प्रियामि , 'मणुण्णाहिं' मनोज्ञाभि =सुन्दरतया मनोऽनुवूलाभि , ‘मणामाहि' मनोऽमाभि -मनसा अन्यन्ते-गम्यन्ते इति मनोऽमास्तामिमनसाऽवगमनीयाभि -हृदयाह्लादकत्वात् , 'मणाभिरामाहि ' मनोऽभिरामाभि , ' वग्गृहि' वाग्भि 'जय-विजय मगल-सएहिं 'जय-विजय' इत्यादिभिर्मङ्गलकारकवचनगतै 'अणवस्य ' अनवरतम् , 'अभिणदंता य' अभिनन्दयन्तश्च, 'अभित्युणता य' अभिष्टुबन्तथ ते पूर्वोक्ता अर्थाऽर्थिकादयो विरुदावलीपाठादिना राजान प्रसादयत ‘एर बयासी' एवमवादिपु -'जय जय णदा' जय जय नन्द ! नन्दयति आनन्दयति देने वालों ने, (वद्धमाणा) कधों पर बैठे हुए अनेक पुरुपों ने, (पूसमाणया) विरुदावली बोलन वालों ने (संडियगणा) छाउगगोंने (ताहिं इटाहिं कताहिं पियाहिं मणुण्णाहि मणामाहि मगाभिरामाहि) अपना २ भाषा के अनुसार इष्ट, कमनीय, प्रिय, मनोज्ञ, हृदयाहाटक, मनोभिराम (हिययगमणिज्जाहि) एव हृदयगम (वग्गूर्हि) वचनों से (जयविजयमंगलसएहिं ) कि जिनमे जय और विजय के ही मगलकारक शब्दों का समावेश था, (अगवरय) अच्छी तरह (अभिणदता प अभित्युणता व एव वयासी) अभिनन एव स्तुति करते हुए इस प्रकार कहना प्रारम किया-(जय जय णदा जय मन यधामाय (नगलिया) मन मेड़तामे (मुहमगलिया) गने शुभाशावाद पापाजाया (वद्धमाणा) ४५ ५२ मेडेसा मन ५३षामे (पुसमाणया) सिहावली मनाससाणे (सडियगणा) छात्रगामे (ताहिं इटाहिं कताहिं पियाहिं मणुण्णाहिं मणामाहिं मणाभिरामाहि) पातपातानी लाषामनुसार ७, दमनीय, प्रिय, मनाश, ध्यास, मनोनिगम, (हिययगमणिज्जाहिं) तेभा य म (वग्गूहि) क्या दास (जय विजय मगल्सएहि) माय अने वियना म४।२४ २०होना समावेश हो, (अण घरय) सारी रात (अभिणदता य अभित्थूणता य एव वयासी) मलिन इन तमा Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषषिणो-टीका स ५३ भगवदर्शनार्थ फूणिकस्य गमनम् ४५ . कव्वड-दोणमुह-मडंव-पट्टण-आसम-निगम-संवाह-संनिवेसाणं आहेवच्चं पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्तं महत्तरगतं आणा-ईद्रोणमुख जलस्थलपथोपेतम् , मडम्बम-अविद्यमानासनग्रामान्तरम्, 'पट्टण पत्तनम् जलपथेन स्थलपयेन वा निर्गमप्रवेशो यत्र तत् पत्तनम् , यया काञ्चीतो मुम्बापुरी, यद्वा-जलपयेनैव निर्गमप्रवेगौ न तु स्थलपन, यथा-भारताद् आग्लराजधानी 'इग्लेण्ड' इति प्रसिद्धा, तत्, किंच-स्थलपयनैव निर्गमप्रगौ न तु जलपयेन तत, एतत् सर्व पत्तनमुच्यते । यद्वायत्र सर्व वस्तु लन्यते तत् पत्तनम् । आश्रम =तापमाद्यावास , निंगम =याणियप्रधान नगरम् , संवाह =कृपीवलाना धान्यरक्षणस्थानम् , : निवेश =सार्थकटकादीनामुत्तरणस्थानम् । तेपाम्-'आहेवच्च' आधिप यम् , 'पोरेवच' पौगेवृत्त्यम्=पुरोवर्तिवम्-अग्रेसरत्वम् 'साऐसी वस्तिया के, सेटा के-धूलि के प्राकार से परिवष्टित बस्तिया के, कीटों के-सामान्य नगरों के, द्रोणमुसौ-जलमार्ग एव स्थलमार्ग से युक्त प्रदेशों के, मडम्यो-जिनके आसपास दूसरे ग्राम नहीं होते हैं ऐसे प्रदेशों के, पत्तना के-जहा जलपय से भी एव स्थलपथ से भी आना-जाना होता है, जैसे कगॅची से बम्बई, अथवा जहा सिर्फ जलमार्ग से ही आनाजाना होता है, जैसे भारत से इट्सलैन्ट, अथवा स्थलमार्ग से ही जहा आना-जाना होता है, ये सभी पत्तन कहलाते है । अथवा समस्त वस्तुओं का लाभ जहा होता है वह भी पत्तन है, ऐसे पत्तनों के आश्रमों के अर्थात् तापस आदि के आवासों के, निगमों के अर्थात् व्यापारिक नगरों के, स्वाही के जर्यात् किमानों के धान्य आदि रसने के स्थलों के, तथा मनिवेगों के अथात् सार्थवाह और सेना आदि के उतरने के स्थानों के आधिपत्य को, पौरवृत्य को अप्रेसरत्वको, स्वामिन को-प्रभुव को, उनके भर्तृव को-पोपकव को, उनमें मह पेटोना-धूज (माटरी)नप्रारथी परिवरित पस्तीमाना, उमटाना-सामान्य નગરના, દ્રોણુમુખના–જલમાર્ગ તેમજ સ્થલમાર્ગથી યુક્ત પ્રદેશના, મડબેના-જેની આસપાસ બીજા ગામે ન હોય તેવા પ્રદેશોના, પત્તના-જ્યા જેલમાર્ગથી તેમજ સ્થલમાર્ગથી પણ આવી જઈ શકાતુ હોય જેમકે કરાંચીથી મુબઈ, અથવા જ્યાં માત્ર જલમાર્ગથી જ આવી જઈ શકાય, જેમકે ભારતથી ઈગલાડ, અથવા માત્ર સ્થલ માર્ગથી જ જ્યા જઈ આવી શકાય તે બધા પત્તન કહેવાય છે, અથવા અમસ્ત વસ્તુઓની પ્રાપ્તિ જ્યા થઈ શકે તે પણ પત્તન છે એવા પત્તનોના, આશ્રમોના અર્થાત્ તાપસ આદિના આવના, નિગમના અર્થાત્ વ્યાપારિક નગરના, સ વાહોના અર્થાત્ ખેડુતેના ધાન્ય આદિ રાખવાના સ્થળોના, તથા સનિવેશના અર્થાત્ સાર્થવાહ અને સેના આદિના ઉતરવાના સ્થાને ના આધિપત્યને, પૌરવૃત્યને – અગ્રેસર Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ औपपातिकमा मणुयाणं, वहूई वासाडं वहुई वाससयाई बहूई वाससहस्साई अणहसमग्गो हतुट्टो परमाउं पालयाहि, इट्टजणसंपडिवुडो चंपाए णयरीए अण्णेसि च वहूर्ण गामा-गर-णयर-खेड-- 'अणहसमग्गो' अनघसमग्र , अनपश्चासौ समनश्चेति विग्रह , निष्पाप परिपूर्णसम्पत्तिपरिवारादिमि सम्पन्नश्च, यद्वा-अनघेन-पुण्येन समग्र =पूर्ण , यद्वा-न अघसमग्र =अनघसमग्र =सर्वविधपापरहित इत्यर्थ , 'हद्वतदो' दृष्टतुष्ट सन् 'पालयाहि' पालय 'परमाउ' परमायु --परमम् उत्कृष्टम्-अपमृत्युवर्जितमसण्डित पूर्णमायु , तथा-'इट-जण-संपखुिडो' इष्टजनसम्परिवृत -परिवारादिसमेत , चम्पाया नगर्या, 'अण्णेसिं च वहूर्ण गामागर-गयर-खेड-कबड-दोगमुह-मडव-पट्टण-आसम-निगम-संवाह - सनिवेमाण' अन्येपाच बहूना ग्रामा-ऽऽकर-नगर-खेट-कट-द्रोणमुख-मडम्ब-पटना-ऽऽश्रम-निगम-स्वाह-निवेगानाम्-तर-ग्राम -साधारणजनवासस्थानम्, आकर = लपणा-- दिसम्भवस्थानम् , नगरम् अविद्यमानकरम् , खेट-धूलीप्राकारयेष्टितम्, कर्वट-कुनगरम्, वाससहस्साई) बहुत वर्षांतक, बहुत सैकडों वर्षों तक, बहुत हजार वर्षों तक (अणहसमग्गो) पूर्ण पुण्यशाली रहते हुए अथवा परिपूर्ण सम्पत्ति एव परिवार आदि से स्पन्न अथवा सर्वनिधपापरहित होते हुए (हतुट्टो परमाउ पालयाहि) सदा आनद और स्तोष के साथ अखण्ड आयु भोगवे । (इट्ठ-जण-सपडिवुडो चपाए णयरीए अण्णेसि च बहूण गामा-गर-णयर-खेड-कबड-दोणमुह-मडव-पट्टण-आसम-निगम-सवाह-सनिवेसाण आहेवञ्च पोरेवञ्च सामित्त भट्टित्त महत्तरगत आणाईसरसेणावच कारेमाणे पालेमाणे) इष्ट जनों से परिवृत होते हुए आप चपानगरी के तथा और भी बहुत से गांवों के, आफर-लपण आदि के उत्पत्ति स्थानों के, नगरों-जिनमे कर नहीं लगता हो घा से ४४ परसो सुधी, ५ २ परसे। सुधा (अणहसमग्गो) पूर्ण પુણ્યશાલી રહેલા અથવા પરિપૂર્ણ આપત્તિ તેમજ પરિવાર આદિથી સ પન્ન अथवा सशत पापरहित २उता (हवतुद्दो परमाउ पालयाहि) सहा मान तथा सतोषपूर्व ४ अ५७ मायु सागवा, (इद्रजणसपडिवुडो चंपाए णयरीए अण्णेसिंध बहूण गामा गर-णयर-खेड-कव्वड-दोणमुह-मडय-पट्टण-आसम निगम संवाह-सन्निवेसाण आहेवन्च पोरेवच्च सामित्त भट्टित्त महत्तरगत्त आणाईसर सेणावच्च कारेमाणे पालेमाणे) 2 भासा 43 परिकृत (विसरायसी) माय ચ પાનગરીના તથા બીજા પણ ઘણા ગામના, આકરેના-લવણ આદિના ઉત્પત્તિસ્થાનના, નગરના-જેમાં કર ન લેવાતું હોય એવી વસ્તીઓના Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवषिणो टीका व ५३ भगवद्दर्शनार्थं कृणिकस्य गगनम् રે " कव्वड - दोर्णमुह-मडव - पट्टण - आसम - निगम-संवाह - संनिवेसाणं आहेवच्चं पोरेवच्च सामित्तं भट्टित्तं महत्तरगतं आणी - ईद्रोणमुख= जलस्थल पथोपेतम्, महम्नम् = अविद्यमानामन्नग्रामान्तरम् 'पट्टण' पत्तनम् = जलप - धेन स्थलपथेन वा निर्गमप्रवेशी यत्र तत् पत्तनम्, यथा काञ्चीतो मुम्बापुरी, यद्वा-जलपथेनैव निर्गमप्रवेशो न तु स्थलपथेन, यथा - भारताद् आग्लराजधानी 'इंग्लेण्ड' इति प्रसिद्धा, तत्, किच- स्थलपयेनैव निर्गमप्रवेशौ न तु जलपथेन तत्, एतत् सर्वं पत्तनमुच्यते । यद्वाया सर्व वस्तु लभ्यते तत् पत्तनम् । आश्रम = तापसाद्यावास, निगम = वाणिज्यप्रधान नगरम्, स्वाह = कृषीवलाना धान्यरक्षणस्थानम् निवेश = सार्थकटकादीनामुत्तरणस्थानम् । तेपाम्' आहेवच्च' आधिप यम्, 'पोरेवच' पौगेनृत्यम् = पुरो पर्तित्वम् - अप्रैसर बम 'साऐसी बस्तिया के, ग्रेटों के धूत्रि के प्राकार से परिवेष्टित बस्तियों के, कर्नटा के - सामान्य नगरों के, द्रोणमुसा - जलमार्ग एव स्थलमार्ग से युक्त प्रदेशों के मम्मों-जिनके आसपास दूसरे ग्राम नही होते हैं ऐसे प्रदेशों के पत्तनां क - जहा जलपथ से भी एव स्थलपथ से भी आना-जाना होता है, जैसे कराँची से नम्, अथवा जहा सिर्फ जलमार्ग से ही आनाजाना होता है, जैसे भारत से इगलैन्ट, अथना स्थलमार्ग से ही जहा आना-जाना होता है, ये सभी पत्तन कहलाते हैं । अथना समस्त वस्तुओं का लाभ जहा होता है वह भी पत्तन है, ऐसे पत्तनों के, आश्रमों के अर्थात् तापस आदि के आवासों के, निगमों के अर्थात् ' व्यापारिक नगरों के, सनाहों के अथात् किसानों के धान्य आदि रसने के स्थलों के, तथा सनिवेशों के अथात् सार्थवाह और सेना आदि के उतरने के स्थानों के आधिपत्य को, पौरवृत्य को अग्रेसरत्वको स्वामिय को प्रभुत्व को, उनके भर्तृत्व को - पोषकच को, उनमें महभेटोना-पूज (भाटी)ना आहारथी परिवेष्टित वस्तीशौना, ठगटोना-सामान्य' નગરાના, દ્રોણુમુખાના-જલમાર્ગ તેમજ સ્થલમાર્ગથી યુક્ત પ્રદેશેાના, મઢ એના-જેની આસપાસ બીજા ગામેા ન હૈાય તેવા પ્રદેશેાના, પત્તનાના—જ્યા જેલમાર્ગથી તેમજ સ્થલમાથી પણ આવી જઇ શકાતુ હાય જેમકે કરાંચીથી મુ ખઇ, અથવા જ્યા માત્ર જલમાર્ગથી જ આવી જઇ શકાય, જેમકે ભારતથી ઇંગલાડ, અથવા માત્ર સ્થૂલ માથી જ ત્યા જઇ આવી શકાય તે બધા પત્તન કહેવાય છે, અથવા સમસ્ત વસ્તુઓની પ્રાપ્તિ જ્યા થઈ શકે તે પણ પત્તન છે એવા પત્તનાના, આશ્રમેાના અર્થાત્ તાપરા આદિનાં આવવાના, નિગમાના અર્થાત્ વ્યાપારિક નગરાના, સવાહોના અર્થાત્ ખેડુ તેાના ધાન્ય આદિ રાખવાના સ્થળાના, તથા સનિવેશેાના અર્થાત્ મા વાહ અને ચેના આદિના ઉત્તરવાના સ્થાનેાના આધિપત્યને, પૌરવૃત્યને – અગ્રેસર Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ ओपपातिकत्र - - सर-सेगावच्चं कारेमाणे पालेमाणे महया-हय-नट्ट-गीयवाइय-तंती-तल-ताल-तुडिय-घण-मुअंग-पडु-प्पवाडयरवेणं विउलाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहराहित्ति कद्दु जय जय सदं पउंति ।। सू. ५३ ॥ मित्त भहित महत्तरगत्त' स्वामिव-अभुवम्, भर्तृवम-पोपकचम्, महत्तरकावम् नाय फत्वम् , 'आणा-ईसर-सेणारच' आज्ञेश्वर-सेनाप यम्-आज्ञेश्वर आजागर सेनापति य स आज्ञेश्वरसेनापति , यस्याज्ञामुपादाय सेनापति स्वकार्ये प्रवर्तते स इत्यर्थ, तन्य भावस्तत्व तत् 'कारेमाणे' कारयन् 'पालेमाणे पालयन् प्रजाजनान् रक्षन् 'महया , हय-न-गीय पाइय-तती-तल ताल-तुडिय-घण-मुअंग-पड्डु-पवाइय-रवेण महता अहत-नाट्य-गीत-वादिर-तन्त्री-तल-ताल-तौर्यिक-धन-मृदङ्ग-पटु-प्रवादित वेण-महता-दीण, अहतम् अव्यवच्छिन्न यनाट्यनाटफम् तत्र यद् गीत-गयम्, वारिवाद्यम् , तथा तन्त्री वीणा, तलताला -हस्तास्फोटा , तौयिकम्=ोपवाघसमुदाय , -धनमृ-- दन मेघनद् ध्वनिकारको मर्दल -एतत्सर्व समुदित पटुप्रवादित-दक्षपुरफम्यादित तस्य रखेण-नादेन-आनन्दित इति गम्यते, तयाभूत सन् 'विउलाई' विपुलानि अत्यधित्तरकत्व-नायकव को, एव आज्ञेश्वरसेनापत्य को-सेनापतियों के आजाप्रदत्वरूप अधिकार को (कारेमाणे पालेमाणे) कराते हुए, पालते हुए एस सदा (महया-ऽहय-नट्ट-गीय चाइयतती-तलताल-तुडिय-घणमुअंग-पडु-प्पवाइयरवेण) व्यवधानरहित-अन्यवच्छिन्न-निरन्तर प्रवर्तित नाटक मे गाये गये गीतों के, चतुरपुरुषों द्वारा बनाये गये वादित्रों के, तथा तत्रीवीणा के, तलतालहस्तस्फोटशब्द-तालियों के, तौर्थिक-और भी अवशिष्ट याजों के समूह के, धनमृदगों-मेघकी तरह गरजने वाले ढोलों के एव मर्दलों के अविरल शब्दों से आनदित ત્વને, સ્વામિત્વનેપ્રભુત્વને, ભર્તૃત્વને—પાવકત્વને, તેમાં મહત્તરાવને-નાયકત્વને તેમજ આશ્વરસેનાપત્યને – સેનાપતિઓના આશાપ્રદત્વરૂપ અધિકારને (कारेमाणे पालेमाणे) ४२२वता मने पास थी, तभ सहा (महयाऽहय-सट्टा, गीय चाइय-तती-तलताल-सुडिय-घणमुअग-पडु-पवाइय-रवेण) व्यवधानरहित. અવ્યવચ્છિન્ન-નિરતર પ્રવર્તિતનાટકમા ગવાતા ગીતના તેમજ ચતુર, પુરુષ દ્વારા વગાડાતા વાજિત્રોના, તથા તત્રિી-વણના, તલતાલ-તાલિઓના તૌકિ-બીજા બાકીના વાજાઓના સમૂહના, ઘનમૂદ ગ–મેઘની પેઠે ગર્જન, નારા લોના, તેમજ મર્દના અવિરલ શબ્દ કાર આન દિત થતા - - Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ৪২৩ पीयूषर्पिणी-टोका स ५४ भगवदर्शनार्थ कृणिकम्य गमनम् - मूलम्-तए णं से कूणिएराया भंभसारपुत्ते नयणमालासहस्सेहिपेच्छिन्जमाणे पेच्छिज्जमाणे, हिययमालासहस्सेहि कानि, 'भोगभोगाइ' भोगभोगान् 'भुनमाणे विहराहित्ति कटु' भुञ्जन् विहर इति कृवाढत्युम्या, 'जय जय सदं पउजति' जयजयशन्द प्रयुनते-जय जयेति गब्दानुचारयन्ति ॥ सू ५३ ॥ . टीका-तए ण से' इत्यादि । 'तए ण से कूणिए राया भभसारपुत्ते' तत, रालु स कृणिको राजा भभसारपुर 'नयणमालासहस्सेहि पेच्छिजमाणे पेच्छिज्जमाणे' नयनमालासही प्रेक्ष्यमाण प्रेक्ष्यमाण बहुविवर्गिकजननयनपङ्क्तिभिर्वार वार निरीक्ष्यमाग , 'हिययमालासहस्मेहि अभिगंदिजमाणे अभिणदिजमाणे' हृदयमालासहजैभिनन्दयमान अभिनन्धमान --धन्योऽय कृतपुण्योऽय सफलजन्माऽयमित्यादिहाते हुए (बिउलाई भोगभोगाइ भुजमाणे विहराहि) विपुल-अयधिक-भोगभोगों को भोगते हुए अपना समय निर्विघ्नरीति से व्यतीत करें, (त्तिकट्ट) इस प्रकार (जय जय सद पउजति) वे पूर्वोक्त अर्थाभिलापी आदि समस्त जय जय शब्द बोलते थे ।। सू० ५३ ॥ _ 'तएणं से' इत्यादि। - (तए णं) इसके बाद (भभसारपुत्ते) भभसार के पुत्र (से) वे (कूणिए) कूणिक (राया) राजा (गयणमालासहस्सेहिं पेच्छिन्जमाणे पेच्छिज्जमाणे) हजारों दर्शकजनों को हजारो नयनपक्तियों द्वारा निरीक्षित होते हुए, (हियमालासहस्सेहि अभिणदिजमाणे अभिणदिनमाणे) हजारों मनुष्यों के हृदयसहस्रों द्वारा अभिनदित होते हुए, अर्थात्-"इस राजा को धन्यवाद है, यह बडा पुण्यशाली है, इसका जन्म सफल है" इत्यादि-रीति से बार- । (विउलाइ भोगभोगाइ मुजमाणे विहराहि) विYस मतिशय मोनागान मागपता २५पने समय निर्विरीत व्यतीत । (त्ति कह) मा प्रक्षरे (जय जय सद्द पउ जति) a 6५२ सा मालिसाषी माहि या य राय श६ मारता ता (सू. ५३) ' 'तए णं से' इत्यादि (तए ण) त्या२ ५७ (भभसारपुत्त) सलमान पुत्र (से) ते (कृणिए) इणि (राण) २२० (णयणमालासहरसेहिं पेच्छिज्जमाणे पेच्छिजमाणे) छतरेर लेना। बाहानी | माणो दानपाता, (हिययमालासहस्सेहि अभिणदिज्ज माणे अभिणविजमाणे) हुन। मनुष्याना हुनसय ६१२ मलिनहित यता, અથૉત્ “આ રાજાને ધન્યવાદ છે તેઓ બહુ બહુ પુણ્યશાલી છે તેમને જન્મ સફલ છે” ઈત્યાદિ રીતથી વાર વાર હજારે લેકે દ્વારા હાર્દિક ભાવના Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - औपपातिकमा अभिणंदिज्जमाणेअभिणदिनमाणे,मणोरहमालासहस्सेहिं विच्छिप्पमाणे विच्छिप्पमाणे, वयणमालासहस्सेहिं अभियुबमाणे अभिथुव्यमाणे, कंति-दिव्य-सोहग्ग-गुणेहिं पत्थिजमाणे पत्थिज्जरीयाऽसकृत् सहस्राऽधिकजनदृदय स्तूयमान , 'मणोरहमालासहस्सेहि विच्छिापमाणे विच्छिप्पमाणे' मनोरथमालासहविस्पृश्यमान रिपृ-यमान =हीनदीनरक्षणपूर्वक सकलमनोरथपूरफ्त्यात्-जनाना मनोरथमालासहस्रैर्मुहुर्मुहु स्पृश्यमान -'नृपोऽयमस्माकमापदुद्वारफ पालकथ, अतोऽय शत वर्षाणि जीवतु' इत्यादि मनोरथसहस्रविषयीभवन्इत्यर्थ । 'वयणमालासहस्सेहिं' वचनमालासहस्र -मञ्जुलोदारवचनरचनानिय , 'अभिथुन्नमाणे अभिथुध्वमाणे' अभिष्टयमानः अभिष्ट्रयमान , 'कंति-दिन सोहग्ग-गुणेहिं पत्थिनमाणे पत्थिजमाणे' कान्तिरियसौभाग्यगुणै प्रार्थ्यमान प्रार्थ्यमान , कात्या देहदीत्या, प्रशस्तसौभाग्यादिगुणश्च हतुना जनै सातिशयम् अभिलप्यमाण अभिलप्यमाण , 'वहण नरनारीसहरसाणं दाहिणहत्येण अनलिमालासहस्साइ बार सहस्राधिक जनों द्वारा हार्दिक भावना से स्तुत होते हुए, (मणोरहमालासहस्सेहि विच्छिप्पमाणे विच्छिप्पमाणे) हजारों जनों के मनोरथ महस्ररूपी मालाओं द्वारा स्पृष्ट होते हुए, अर्थात्-हीनदीन जनों के रक्षापूर्वक समस्त मनोरथों का पूरक होने से ये राजा हम लोगों की आपत्ति से रक्षा करने वाले हे, एव पालक हैं, इसलिये ये सौ वर्ष तक जीवित रहें" इस प्रकार से जनों के हजारों मनोरथ का पात्र होते हुए. (वयणमालासहस्सेहि अमिथुव्वमाणे अभिथुव्वमाणे) मजुल एव उदार वचनों की रचनाओं द्वारा अभिष्टुत होते हुए, (कति-दिन-सोहग्ग-गुणेहिं पत्थिजमाणे पत्थिज्जमाणे) देह की दीप्ति से एव दिव्य-असाधारग सौभाग्यादिक गुणों से जनों द्वारा प्रार्थित होते हुए, (वरण नरनारि पूर्व स्तुति ४शता, (मणोरहमालासहरसेहिं विन्छिप्पमाणे विच्छिप्पमाणे) गरे। લોકોના હજારે મનેરથરૂપી માલાઓ દ્વારા સ્પર્શતા, અર્થાત્ હીનદીનજનેની રક્ષાપૂર્વ4 સમરત મને પરિપૂર્ણ કરતા હોવાથી આ રાજા અમારી આપત્તિથી રક્ષા કરવાવાળા છે તેમજ પાલક છે, તેથી તેઓ સે વર્ષ સુધી लता रहे-मा रन बना । भनारथाने पात्र थता, (वयणमालासहस्सेहिं अभिथुव्यमाणे अभिथुव्वमाणे) भन्नुर तभ०४ Gl२ पयन स्थना | मलिष्टुत थता, (कति-दिव्य सोहग्ग गुणेहिं पत्थिजमाणे पत्थिजमाणे) ની દીપ્તિથી તેમજ દિવ્ય-અસાધારણ સૌભાગ્ય આદિક ગુણેથી લેકે દ્રારા प्रार्थित यता, (बहूण नरनारिसहस्साण अजलिमालासहस्साइ... Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टोका सु ५४ कृणिकस्य पूर्णभद्रचैत्ये ममागमनम् माणे; वनॄणं नरनारीसहस्साणं दाहिणहत्थेण अंजलिमालासहस्साइं पडिच्छमाणे पडिच्छमाणे, मजुमंजुणा घोसेण पडिवुज्झमाणे पडिवुज्झमाणे, भवणपतिसहस्साई समइच्छमाणे समइच्छमाणे, चंपा नयरी मज्झमज्झेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव पुणभद्दे चेइए तेणेव उवागच्छड, उवागच्छित्ता समणस्स ४२९ पच्छिमाणे परिमाणे ' बहना नरनारीसहस्राणा दक्षिणहस्तेनाञ्जलिमाला सहस्राणि - , बहूना नरनारीसहस्रागा यानि अञ्जलिमाला सहस्रागि=राज सकाराय विरचितानि मालारूपाणि सहस्राणि प्राञ्जलिपुटानि तानि उत्थापितन दक्षिणहस्तेन प्रतीच्छन् प्रतीच्छन् = वारवार स्त्रीकुर्वन्, 'मजुमंजुणा घोसेण पडिवुज्झमाणे पडिबुज्झमाणे' मञ्जुमन्जुना घोपेग अतिकोमलेन शन्देन प्रतिबुध्यमान २ - अनुमोदयन् २, 'भवण- पति सहस्साइ समच्यमाणे समइच्छमाणे' भवनपङ्क्तिमहस्राणि समतिक्रामन् समतिक्रामन्, 'चपाए नयरीए मज्झमज्झेणं' चम्पाया नगया मध्यमध्येन, 'निग्गच्छा' निर्गच्छति = निम्सरति, 'निग्गन्छित्ता' निर्गय,' समणस्स भगवओ महावीररस ' श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य ' अदूरसामते ' सहस्सा दाहिणहत्थेणं अनलिमालासहस्सा पडिच्छमाणे पडिउमाणे) हजारों नरनारियों की अजलिरूप माला के सहस्रों को जो राजा के सत्कारार्थं विरचित हुईं थीं, अपने दक्षिण (दाहिने) हाथ से स्वीकृत करते हुए, (मजुमजुणा घोसेण पडिवुज्झमाणे पडिबुज्झमाणे) अत्यन्त मधुर स्वर से उनलोगों के द्वारा किये हुए सत्कार-सम्मान का अनुमोदन करते हुए, (भवण - पंति - सहस्सा समइच्छमाणे समइन् उमाणे) एव हजारों महलों की पक्ति को पार करते हुए (चपाए णयरीए मज्झ मज्झेण निग्गच्छङ) चपा नगरी के बीचमार्ग से होकर निकले, (निग्गच्छित्ता जेणेव पुष्णभद्दे चेटए तेणेव उवाग માળે) હજારા નગ્નારીઓના હાથની હજારા અજલીરૂપ માલાએ જે રાજાના सत्यार्थ स्थाई हुती तेना पोताना भाया हाथथी स्वीअ२ २ता, (मजु मजुणा घोसेण पडिनुज्झमाणे पडिवुज्झमाणे) अत्यत मधुर वग्थी ते बीज द्वारा पुरेसा सत्कार-यभ्भाननु अनुमोदन ४२ता, ( भगणपतिसहस्साइ समइच्छमाणे समइच्छमाणे) तेभन हुन्नरो भहेबानी हारने पभार उश्ता (चंपाए णयरीए मज्झमज्झेण निगन्छइ ) यया नगरीना परथेना भार्गभा थर्धने नीउज्या (निग्गच्छित्ता जेणेव पुण्णभद्दे चेइए तेणेन आगच्छइ) नीडजीने क्या पूलद्र Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० । औपपातिकसने भगवओ महावीरस्स अदूरसामंत छत्ताईए तित्थयराइसेसे पासड, पासित्ता अभिसेकं हस्थिरयणं ठवेड, ठवित्ता आभिसेकाओहत्थिरयणाओपचोरुहइ,पचोरुहिताअवहट्ट पंच रायकउहाई, तंजहा-खग्गं छत्तं उप्फेसं वाहणाओ वालवीयणि; जेणेव समणे अदूरसमापे-नातिदूरे नातिसमापे, किंचिदरे इत्यर्थ । 'छत्ताईए तित्ययराटसेसे' उनाठिकान् तीर्थकरातिशेपान-तीर्थकगतिगयान् 'पास' पत्यति, 'पासित्ता' दृष्ट्या, 'आभिसेक हत्थिरयण' आभिपेक्य हस्तिरत्नम् 'ठवेइ, ठवित्ता' स्थापयति, स्थापयित्वा, 'आभि सेकाओ हत्थिरयणाओ' आभिपेक्यात् हस्तिरत्नात् 'पचोरुहड' प्रत्यवरोहति अनतरति, 'पचोरुहित्ता' प्रत्यवस्ह्य, 'अवह पच रायकउहाद' अपहत्य पञ्च राजकादानि-त्यक्त्वा पञ्च राजचिहानिराजाऽयमिति जापानि चिह्नानि, 'तजहा' तद्यथा-तानि चिह्नानि यथा-'खम्ग' सगम्, 'छत्त' उत्रम् , 'उप्फेस' मुकुटम् 'उप्फेस' इति च्छइ) निकल कर जहाँ पूर्णभद्र उद्यान या वहाँ आये, (उवागच्छित्ता समणस्स भगः वओ महावीरस्स अदूरसामते छत्ताईए तित्थयराइसेसे पासइ) आकर उन्होंने श्रमण भगवान् महावार के न -अतिसमीप और न अतिदर-किन्तु कुछ-ही-दर-पर-ताथ-- करों के अतिशयस्वरूप छत्रादिकों को देसा, (पासित्ता आभिसेक्क हत्थिरयण ठवेइ) देखते ही उन्होंने अपने हाथी को खडा करवाया, (उवित्ता आभिसेकाओ हस्थिरयणाओं पच्चोरुहद) हाथी के सडे होते ही वे उस हाथी से नाचे उतरे, (पच्चोरुहिता अवहटु पच रायफउहाद) नाचे उतरते ही उन्हों ने इन पाच राजचिह्नों का परित्याग किया, (त जहा) वे पाच राजचिह्न ये हे-(ग्वग्ग छत्त उप्फेस वाहणाओ वालवीयणि) सङ्गGधान हेतु त्या माव्या, (उपगच्छित्ता समणस्स भगरओ महावीरस्स अदूरसा मते छत्ताइए तित्थयराइसेसे पासइ) मापीने तयार भएर लावान भी વિરથી બહુ દૂર નહિ તેમ બહુ સમીપ નહિ, પણ જરા દરે, તીર્થકરોના अतिशय स्व३५ छानिने नया, (पासित्ता आभिसेक्क हत्थिरयण ठवेइ) नेता तमाय पोताना हाथीने मारभाथ्यो, (ठवित्ता आभिसेक्काओ हत्यि रयणाओ पच्चोरहइ) 8था GHो २ ५ तेसत हाथी 6५२थी नीय तर्या, (पच्चोरुहित्ता अवहट्ट पच रायकरहाइ) नीचे उतरीन तमामे पाय शायिनीनो त्याग ४यों (तजहा) ते पाय यिनी ॥ छ-(बग्ग छत्त जफेस वाहणाओ वालवीयणि) म सपार, छत्र, स-भुक Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूपपिणी टीका सु ५४ फूणिकम्य भगयदुपासना ४३१ भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छड, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं पचविहेणं अभिगमेणं अभिगच्छड, तंजहा-(१) सचित्ताणं दवाणं विओसरणयाए, (२) अचित्ताणं दव्याणं अविओसरणयाए, (३) एगसाडियं उत्तरासंगकरणेणं, (४) देशाय शन्द, 'पाहणाओ' उपानही 'पालवीयणि' वालन्यजनीम्-चामरम्, एतानि त्यक्त्या, 'जेणेव समणे भगर महावीरे' यत्रैव अमणो भगवान महावार , 'तेणेव उवागन्छइ, उवागन्छित्ता' तौगोपागच्छति, उपागय, 'समण भगवं महागीर' श्रमण भगन्त महापार 'परिहेणं अभिगमेण अभिगच्छद' पञ्चविधेनाऽभिगमेनाभिगच्छतिपञ्चप्रकारेण अभिगमेन=सत्कारविगपेग अभिमुस गच्छति, 'तजहा' तद्यथा-तत्पञ्चविधाभिगमन यथा-'सचित्ताण दव्याण विओसरणयाए' सचित्ताना द्रव्याणा व्यु सर्जनतयाहरितफलकुसुमादाना वस्तूना त्यागन १, 'अचित्ताण दव्याणं अविओसरणयाए ' अचित्ताना द्रव्याणामव्युसर्जनतया, अचित्ताना वस्त्राभरणादीनाम् अत्यागन २, 'एगसाडियमुत्ततलपार, छत्र, मुकुट, उपानत्-पगरसे, एव वालव्यजनी-चामर । फिर वे (जेणेव समणे भगव महावीरे तेणेव उवागच्छद) जहा अमण भगवान महावीर विराजमान ये वहाँ पर आये, (उपागन्छित्ता समण भगव महावीर पचविहेण अभिगमेण अभिगच्छइ) जाते ही वे पाच प्रकार के अभिगमन-सत्कारविशेष से युक्त होकर प्रभु के सन्मुर पहुंचे। वे पाच प्रकार के मत्कारविशेष इस प्रकार है-(सचित्ताण दवाण विओसरणयाए) हरित फल फूल आदि सचित्त द्रव्यां का परित्याग करना, (अचित्ताण दव्याण अविओसरगयाए) वस्त्र आभरण आदि अचित्त द्रव्या का परित्याग नहा करना, (एगसाडियमुत्तरासगकरणेण) भाषा का यतना के लिये असण्ट अथात् जो साया हुआ न हो ५१२४ा, तेभर पासव्यानी-याभ२ पछी त (जेणेच समणे भगन महावीरे तेणे यागच्छई) या अभएर लगवान महावीर जित ता त्या माव्या (जागन्छित्ता समण भगवं महावीर पचरिहेण अभिगमेण अभिगन्छड) Iqal જ તેઓ પાંચ પ્રકારના અભિગમન- કાવિગેવથી યુક્ત થઈને પ્રભુના सन्भुण पाया ते पाय मारना सलाविशे५ मा ४ारना छ-(सचित्ताण दव्याण निओसरणयाए) सीता १७ स साहि मथित दयाना परित्याग ४२३।, (अचित्ताण व्याण अनिओमरणयाए) 48-AIR२ मा ययित न्यानो परित्याग न ३२वी, (एगसाडियमुत्तरासगकरणेण) सापानी यतना Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ओपपातिकको भगवओ महावीरस्स अदरसामंते छत्ताईए तित्थयराइसेसे । पासइ, पासित्ता अभिसेकं हत्थिरयणं ठवेड, ठवित्ता आभिसेकाओहत्थिरयणाओपञ्चोरुहइ,पञ्चोरुहिताअवहटुपंचरायकउहाइं, तंजहा-खग्गं छत्तं उप्फेसं वाहणाओ वालवीयणि; जेणेव समणे अदूरसमीपे नातिरे नातिसमीपे, किंचिद्रे इत्यर्थ । 'उत्ताईए तित्ययराटसेसे' उत्रा दिकान् तीर्थकरातिशेपान-तीर्थफरातिगयान् 'पासइ' पश्यति, 'पासित्ता' दृष्ट्वा, 'आभिसेक्क हत्थिरयण' आभिपेक्य हरितरत्नम् 'ठवेद, ठवित्ता' स्थापयति, स्थापयित्ना, 'आभिसेकाओ हत्थिरयणाओ' आभिपेक्यात् हस्तिरत्नात् 'पञ्चोरुहड' प्रयवरोहति अपतरति, 'पञ्चोरुहिता' प्रत्यवस्ह्य, 'अवहट्ट पच रायमउहाट' अपहत्य पञ्च राजकादानि-त्यक्त्वा पञ्च राजचिह्नानि राजाऽयमिति जापानि चिह्नानि, 'तजहा' तद्यथा-तानि चिह्नानि यथा-'खरंग' सगम्, 'छत्त' उत्रम्, 'उप्फेस' मुकुटम् 'उप्फेस' इति च्छइ) निकल कर जहाँ पूर्णभद्र उद्यान या वहाँ आये, (उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामते छत्ताईए तित्थयराइसेसे पासइ) आकर उन्हान श्रमण भगवान् महावार के न अतिसमीप और न अतिदर-फिन्तु कुछ ही दूर पर ताथ-- करों के अतिशयस्वरूप त्रादिकों को देसा, (पासित्ता आभिसेक हत्थिरयण ठवेइ) देखते ही उन्होंने अपने हाथी को खडा करवाया, (ठवित्ता आभिसेकाओ हत्थिरयणाओं पच्चोरुहद) हाथी के सडे होते ही वे उस हाथी से नाचे उतरे, (पञ्चोरुहिता अवटु पच रायफउहाह) नीचे उतरते ही उन्हों ने इन पाच राजचिह्नों का परित्याग किया, (त जहा) वे पाच राजचिह ये हैं-(खग्ग उत्त उप्फेस वाहणाओ वालवीयर्णि) सद्ग Gधान तु त्या माव्या, (जागछित्तो समणस्स भगवओ महागीरस्स अदूरसा मते छत्ताइए तित्थयराइसेसे पासइ) भावीने तमाये श्रम मनवान भडा વીરથી બહુ દૂર નહિ તેમ બહુ સમીપ નહિ, પણ જરા દરે, તીર્થ કરેના अतिशय १३५ छाडिने नया, (पासित्ता आभिसेस्क हत्थिरयण ठवेइ) ने तमाय पोताना हाथीन । २ाव्या, (ठवित्ता आभिसेक्काओ हत्थि रयणाओ पच्चोरहइ) हाथी से २२त ४ तेगा ते. हाथी उपरथी नीय उता, (पच्चोरुहित्ता अवहट्टु पच रायकउहाइ) नीये तीन ४ तमामे पाय शिबीनो त्याग उयो (तजहा) ते पाय सथिलो मा छ-(सग्ग छत्त उप्फेस वाहणाओ वालपीयर्णि) मतलवार, छत्र, स-भुट, .पानत Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषषिणी टीका सू ५४ फूणिकस्य भगघदुपासना ४३१ भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं पंचविहेणं अभिगमेणं अभिगच्छइ, तंजहा-(१) सचित्ताणं दव्वाणं विओसरणयाए, (२) अचित्ताणं दव्याणं अविओसरणयाए, (३) एगसाडियं उत्तरासंगकरणेणं, (४) देशीय गन्द , 'पाहणाओ उपानही 'बालवीयणि' वालन्यजनीम्-चामरम्, एतानि त्यक्या, 'जेणेव समणे भगर महागीरे' यौन अमणो भगवान महावार , 'तेणेव उवागन्छड़, उवागन्छित्ता' तत्रैवोपागच्छति, उपागय, 'समण भगवं महावीर' श्रमण भगवन्त महावार 'पचविहेणं अभिगमेण अभिगच्छद्र' पञ्चविधेनाऽभिगमेनाभिगच्छतिपञ्चप्रकारेण अभिगमेन साकारनिगपेग अभिमुस गच्छति, 'तजहा' तद्यथा-त पञ्चविधाभिगमन यया-'सचित्ताण दव्याण विओसरणयाए' सचित्ताना न्याणा व्युसर्जनतयाहरितफलकुसुमाढाना वस्तूना त्यागेन १, 'चित्ताण दव्याणं भविओसरणयाए ' अचित्ताना न्याणामन्युसर्जनतया, अचित्ताना वस्त्राभरणादीनाम् अयागन २, 'एगसाडियमुत्ततलवार, उर, मुकुट, उपानत्-पगरग्न, ण्व वालव्यजनी-चामर । फिर वे (जेणेव समणे भगव महावीरे तेणेव उवागच्छद) जहा श्रमण भगवान महावीर विराजमान थे वहाँ पर आये, (उवागन्छित्ता समण भगव महार पचविहेण अभिगमेण अभिगच्छइ) जाते ही वे पाच प्रकार के अभिगमन-सत्कारपिशेप से युक्त होकर प्रभु के सन्मुर पहुंचे। व पाच प्रकार के मत्कारविशेष टस प्रकार है-(सचित्ताण दव्याण विओसरणयाए) हरित फल फूल आदि सचित्त द्रव्यां का परित्याग करना, (अचित्ताण दव्याण अविओसरणयाए) वस्त्र आभरण आदि अचित्त द्रव्या का परित्याग नहीं करना, (एगसाडियमुत्तरासगकरणेण) भाषा का यतना के लिये अग्पण्ड अथात् जो साया हुआ न हो ५२मा, तभी सयानी-याभ२ पछी तसा (जेणेन समणे भगर महावीरे तेणे यागच्छइ) या अभए मापान महावीर सिता उता त्यामाच्या (यागच्छित्ता समण भगव महावीर पंचरिहेण अभिगमेण अभिगच्छइ) माता જ તેઓ પાચ પ્રાગ્ના અભિગમન–સાવિશેષથી યુક્ત થઈને પ્રભુના सन्मुम पहा-या ते पाय अडान सदा विशेष मा ५४२ छ-(सचित्ताण दव्याण निओसरणयाए) दीसा ॥ ३८ Pा मथित्त द्रव्यानी परित्याग ४२३।, (अचित्ताण दव्याण अपिजोमरणयाए) वर-मास माह मथित द्रव्याने। परित्याग न ३२, (एगसाडियमुत्तरासगकरणेण) सापानी यतना Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રૂર औपपातिक , चाफासे अंजलिपग्गहेणं, (५) मणसो एगत्तभावकरणेण, समणं भगवं महावीरं तिक्खुतो आयाहिणपयाहिणं करेड, करिता वंदs नमसड, वंदित्ता नर्मसित्ता तिविहाए पजुवासणरासग करणेण एकगाटिकोत्तराssसग करणेन - भाषायतनार्थम् अस्यूतेन एकपटन उत्तरासङ्गकरण तेन 3, 'चरसुप्फासे' चक्षु स्पर्धे- श्रीमहावीर दृष्टिमागते, 'अजल्पिग्गहेण' अञ्जलिप्रप्रहेण = कृताञ्जलिपुटेन ४, 'मणसो एगत्तभावकरणेण' मनस एकत्र - भावकरणेन - मनस चित्तस्यैकन = भगवद्विपये भावकरणेन स्थिरीकरणेन, एव पञ्चविधाभिगमेन ‘समण भगर महावीर' श्रमण भगवन्त महावीरम् अभिगम्य, तस्य श्रमणस्य भगवतो महावीरस्थ 'तिवसुतो' नि 'आयाहिणपयाहिण' आदक्षिणप्रदक्षिणम् = अञ्जलिपुट बद्र्ध्या, त नद्राञ्जलिपुट दक्षिणकर्णमूलत आरभ्य ललाटप्रदेशेन वामकर्णान्तिकेन चक्राकार ि परिभ्राम्य ललाटदेशे स्थानरूप, 'करेइ' करोति, 'करिता ' कृवा ' बदइ नमसइ ' वन्दते नमस्यति–स्तौति नमस्करोति, 'बदित्ता नमसित्ता' वन्दित्वा नमस्थित्वा, 'तिविऐसे वस्त्र का उत्तरासङ्ग करना, (चक्सुप्फासे अजलिपग्ग हेण ) जन से भगवान दिखायी ढे, तभा से दोनों हाथों को जोडना, और (मणसो एगत्तभावकरणेण ) मन को एकाप्र करके भगवान म लगाना । इस प्रकार इन पाँच अभिगमनों से युक्त होकर राजाने भगवान् महावीर प्रभु को तान नगर (आया हिणपयाहिण) आदक्षिणप्रदक्षिण-अञ्जलिपुट को दाहिने कान से लेकर गिर पर घुमाते हुए बायें कान तक ले जाकर फिर उसे घुमाते हुए दाहिने कान पर ले जाना और बाद में उसे अपने ललाट पर स्थापन करना-रूप आदक्षिणप्रदक्षिण (करेइ) किया, (करिता) आदक्षिणप्रदक्षिण कर के ( वदइ नमसइ) वन्दना और नमस्कार किया । (वदित्ता नमसित्ता) वन्दना नमस्कार कर के (तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासह) માટે અખ ડ અર્થાત્ જે સીવેલા ન હોય તેવા વસ્રનુ ઉત્તરામ ગ ४२५, (चक्खु फासे अज लिपग्गहेण ) न्यारथी लगवान हेयाय त्यारथी ४ भन्ने हाथने लेडवा, गने (मणसो एगत्तभावकरणेण) भनने मेअथ पुरीने लगवानभा જોડવુ આ પ્રકારે આ પચ અભિગમનાથી યુક્ત થઈને રાજાએ ભગવાન महावीर प्रभुने त्रयु वार ( आयाहिणपयाहिण ) महाक्षसुप्रक्षिशु-मसियुटने જમણા કાનથી લઈને શિર ઉપર ઘુમાવતા ડાખા કાન સુધી લઈ જઈને પા તેને ઘુમાવીને જમણા કાને લઈ જવેા અને પછી તેને પેાતાના કપાળે સ્થાपन ४२वाइप मादक्षिणु-- अहक्षिण (करेइ) ज्यु, (करिता ) महक्षिणु-अदक्षिषु उनीने (दइ नमसइ) वहना भने नभम्र अर्ध्या (वदित्ता नमसित्त) वहना Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णो-टीका स ५४ पूणिकस्य भगयदुपासना ४३३ (ज्जुवासइ, तंजहा-काइयाए वाइयाए माणसियाए । ए-ताव संकुडयग्गहत्थपाए सुस्सूसमाणे णमंसमाणे अहै विणएणं पंजलिउडे पज्जुवासइ । वाइयाए-जं जं भगवं ज्जुवासणयाए पन्जुवासइ' त्रिविधया पर्युपासनया पर्युपास्ते-भगवत पर्युपासना 'तनहा' तद्यथा-तत् त्रिविधव दर्शयति-कादयाए वाइयाए माणसियाए।' काय वाचिक्या मानसिक्या, पर्युपास्ते इति पूर्वेणान्वय । तर कायिक्या पर्युपासनया तावत् 'सकुइयागहत्यपाए' सङ्कुचिताऽग्रहस्तपाद , 'सुस्सुसमाणे' शुश्रूपमाण = सेवमान , ‘णमंसमाणे' नमस्यन-अभिमुखे विनयेन प्राञ्जलिपुट पर्युपारते, 'वाइयाएज ज भगव वागरेड' वाचिक्या पर्युपासनया-यद् यद् भगवान् व्याकरोति व्यायाति, निरिध पर्युपासना से उनकी उपासना की। वह विविध उपासना इस प्रकार है-(काइयाए वाइयाए माणसियाए) काय से उपासना करना, वचन से उपासना करना एव मन से उपासना करना। (काइयाए ताव) कायिक उपासना इस प्रकार से उसने की-(सकुइयग्गहत्थपाए सुस्मुसमाणे णमसमाणे अभिमुहे विणएण पजलिउडे पज्जुवासइ) प्रभु के समीप वे हाथपावों को मकुचित करके उचित आसन से बैठे । उनसे धर्म सुनने की इच्छा करने लगे, उह वारपार नमस्कार करने लगे, पुन नम्र होकर प्रभु के सम्मुख दोनों हाथों को जोडते हुए प्रभु की सेवा करने लगे। (वाल्याए) वचन से उपासना उन्होंने इस प्रकार की (ज जं भगवं वागरेद) जो जो भगवान् कहते थे, उस पर राजा इस प्रकार कहते थे, ह भगवान ! (से जहेयं तुम्मे बदह) आप जैसा कहते हैं, (एवमेय भते!) हे नभ२४।२४शन (तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासई) त्रिविध पर्युपासना मनी Gपासना ४१ त विविध पासना २ रे छ-(काइयाए वाइयाए माणसियाए) याथी उपासना ४२वी, वसनथी उपासना ४२वी तमा भनथा उपासना ४२वी (काइयाए ताव) यि उपासना तेरे मा छारे ४री-(सकुइयग्गहत्यपाए सुस्मूसमाणे णमंसमाणे अभिमुहे विणएण पजलिउडे पज्जुवासई) પ્રભુની પાને તેઓ હાથ–પગને સંકુચિત કરીને ઉચિત આસન પર બેઠા તેઓ પાસેથી ધર્મ સાભળવાની ઈચ્છા કરવા લાગ્યા, તેમને વારંવાર નમકાર કરવા લાગ્યા, અને નગ્ન થઈને પ્રભુના સન્મુખ બને હાથ જોડીને प्रभुनी वा ४२११ साया (वाइयाए) क्यनथी तभ मा प्रमाणे उपासना ४-(ज ज भगव वागरेइ) २२ समान उता उता ते ५२ २० मा डा मारता हता- समपान् । (से जहेय तुम्भे पदह) २५५ २ ४ छ। Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૪ , 1 · वागरे, एवमेयं भंते । तहमेयं भंते ! अवितहमेयं भी संदिद्धमेयं भंते । इच्छियमेयं भंते ! पडिच्छियमेयं इच्छियपडिच्छियमेयं भंते ! से जहेयं तुब्भे वदह- अपडिकूलतन तन -' एनमेयं भते ! ' एवमेतद् भद्रन्त = हे भगवन् ! यद् भवानुपदिशति तद् एवमेवास्ति, ' तहमेयं भते 1 ' तयैतद् भदन्त ! = हे भगवन् ! भवता यदुपदिष्ट तत्तथैव । 'अवितहमेय भते ! ' अवितथमेतद् भदन्त = हे भगवन् ! भवदुक्तमेतत् सर्वं स यमेव । 'असदिद्धमेयं भते ! ' असन्दिग्धमेतद् भदन्त | = हे भगवन् ! एतत् सन्देहरहित- देश - गङ्कासर्वशङ्कावर्जितम् । ' इच्छियमेय भते !' इष्टमेतद् भदन्त = हे भगवन् ! एतद्भव द्वचनमस्माभिर्वाञ्छितमेच, 'पडिच्छियमेय भते ! ' प्रतीटमेतद् भदन्त ! हे भगवन् ! पुन · पुनरिष्टमेतद् भवद्वचनम्, 'इच्छियपडिच्छ्रियमेय भते ! इष्टप्रतीष्टमेतद् भदत ह भगवन् । एतद् वचनम् इष्टप्रतीष्टोमयरूप वर्तते । ' से जय तुन्भे वदह' तद्यथैतद् यूय वदध-तदेतद् यथा भवन्त कथयन्ति तत्तयैवेति वदन् ' अपडिकूलमाणे पज्जुवासइ' अप्रतिकूलयन = प्रतिकूलाचरण वर्जयन् पर्युपास्ते । ' माणसियाए ' मानसिक्या = मन भगवन् ' यह ऐसा ही है, (तहमेय भते !) हे भगवन् ! यह वैसा ही है, (अवितह मेय भते !) हे भगवन् ! आपने जो कहा सो सत्य है, (असदिद्धमेय भंते !) ह भगवन् ! यह देशशङ्का और सर्वशङ्का से सर्वथा रहित है, (इच्छियमेय भते !) हे भगवन् ! आपका यह वचन हम लोगों के लिए सर्वदा वाञ्छनीय है, ( पडिच्छियमेय भते ! ) हे भगवन् ! यह आपका वचन हम लोगों के लिये सर्वथा चाञ्छनीय है, (इच्छियपडिच्छियमेयं भंते ।) हे भगवन् ! यह आपका वचन हम लोगों के लिये सर्वदा और सर्वथा वाञ्छनीय है। इस प्रकार राजा - - (अपडिकूलमाणे) भगवान के साथ अनुकूल आचरण करते हुए (पज्जुवासर) उनकी उपासना करने लगे । (मागसियाए ) राजा ने भगवान् की मानसिक उप ( एवमेय भते ।) हे भगवन् ! यो भन्न छे, (तहमेय भते ।) से लगवन् ! से भन्छे, (अवितहमेयं भते । ) हे भगवन् ! आये ? ४ (असद्विमेय भते । ) डे लगवन् ! भातभा३ वयन देशशमा भने सर्पशअमोथी सर्वथा रहित छे (इच्छियमेय भते ।) हे भगवन् ! आपना भ वयन अभारा भाटे सहा वाछनीय छे (पडिच्छियमेय भते ! ) हे भगवन् ! या सायना वयन अभारा भाटे सर्वथा वाछनीय छे, (इच्छिय-पडिच्छियमेय भते ! ) हे लगवन् | या आापना वथन अभास भाटे सर्वदा भने सर्वथा वाछनीय छे मा अठारे राल (अपडिकूलमाणे) भगवाननी साथै अनुस ते सत्य छे पा ' Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पीयूषयपिणो-टीका स ५४ फूणिकस्य भगवदुपासना ४३. माणे पज्जुवासड । माणसियाए-महयासंवेगं जणडत्ता तिव्वधम्माणुरागरते पज्जुबासइ ॥ सू० ५४॥ __मूलम्-तए णं ताओ सुभद्दप्पमुहाओ देवीओ अंतो अंतेउरंसि पहायाओ जाव पायच्छित्ताओ सव्वालंकारविभूसिसम्बधिन्या पर्युपासनया, 'महयासवेग' महामवेग महद्वैराग्य ‘जणइत्ता' जनयित्वा 'तिन्व-धम्मा-गुराग-रत्ते' तीव-धमा-नुराग-रक्त सन् 'पज्जुवासइ' पर्युपास्ते अनेन वीतरागाण पुप्पधूपादिमि सावधपूजा निराकृता ॥ सूत्र ५४ ॥ ___टीका-'तए ण ताओ' इत्यादि । 'तए ण' तत खलु 'ताओ सुमद्दप्पमुहाओ' तत तदनन्तरम्-मुगद्राप्रमुखा 'देवीओ' देव्य =राज्य अतो अतेउरंसि' अन्तरन्त पुरस्य स्त्रीभवनमध्ये, 'हायाओ जाव पायच्छित्ताओ' स्नाता यावत् प्रायसना इस प्रकार की-(महयासंवेग जणइत्ता तिव्य-धम्मा-णुराग-रत्ते पज्जुवासइ) प्रभु के मुख से धर्म का उपदेश सुन कर राजा के हृदय में परम वैराग्य उत्पन्न हुआ और धर्मानुराग से प्रेरित होकर वे प्रभु की उपासना करने लगे। इस सूत्र से वीतरागों की पुष्पधूप आदि से सापद्य पूजा करना सर्वथा निपिद्ध है-यह सूचित होता हे ॥ सू० ५४ ॥ 'तए ण ताओ इत्यादि । (तए ण) इसके बाद (ताओ मुभदप्पमुहाओ देवीओ) वे सुभद्राप्रमुख देविया मी (अतो अतेउरसि) अत पुरस्थ स्त्रीभवन के मध्यवर्ती स्नानागार में (व्हायाओ जाव भायर ४२ता (पज्जुवासइ) तमनी Suसन ४२५॥ साया (माणसियाए) २०नो लगाननी मानसि उपासना मा प्रकारे ४२री- (महयासवेग जणइत्ता तिव्य-धम्मा-गुराग-रत्ते पञ्जुवासइ) प्रभुना भुमथी धर्मन। पश सासળીને રાજાના હૃદયમાં પરમ વૈરાગ્ય ઉત્પન્ન થયું, અને ધર્માનુરાગથી પ્રેરિત થઈને તેઓ પ્રભુની ઉપાસના કરવા લાગ્યા આ સૂત્રથી વીતરાગની પુષ્પ ધૂપ આદિ વડે સાવદ્યપૂજા કરવી એ સર્વથા નિષિદ્ધ છે તે સૂચિત થ ય છે (सू० ५४) "तए ण ताओ" इत्यादि (लए ण) त्या२ ५७ (ताओ सुभद्दप्पमुहाओ देवीओ) सुभद्रा प्रभुम देवीमा पY (अतो अतेउरसि) सत पुरमा सीमनना भध्यक्ती स्नानागारमा (हायाओ जाव पायच्छित्ताओ) स्नान शेन तु तथा मतिभथी, Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ ओपपातिकमात्र याओ वहहिं खुजाहिं चिलाईहिं वामणीहिं वडभीहिं वन्चरीहिं वउसियाहि जोणियाहि पल्हवियाहिं ईसणियाहिं चारुणियाहिं चित्ता -यागत्-गन्दात् 'कृतवलिकर्माण कृतकौतुकमद्गलप्रायश्चित्ता' इति साह , तथा 'सलालकार-विभूसियाओ' सर्वा-उलवार-विमृपिता -सर्पग्लदारलता 'वहहिं सुजाहिं' वहीभि बुब्जाभि -वक्रारीरामि 'कृनडी' इति प्रमिद्धाभि , 'चिलाईहिं' किरातीभि =किरात देशोत्पन्नाभि , 'वामणीहिं' वामनामि -अतिहस्यगरीरामि , 'वडभीहिं' वटमिकाभि =वक्राऽध कायामि , 'कचरीहि' चरीभि =वर्वरदेशोपन्नाभि , ''वउसियाहि' बकुशिकाभि , 'जोणियाहि योनिकाभि =योनिकदेशोपन्नामि , 'पल्हवियाहि पहविकाभि =पहृवदेशोपन्नामि , 'ईसिणियाहि 'ईसिन' नामकोऽनार्यदेशस्तनोपन्नामि 'चारुइणियाहिं' चारकिनिकाभि , 'चारकिनिक' देशविशपोत्पन्नामि , 'लासियाहि' लासिकामि = लासकदेशो पायच्छित्ताओ) स्नान करके कौतुक तथा वलिकर्म से निवृत्त होकर, (सन्चा-लकार-विभूसियाओ) एवं समस्त अलकारों को धारण कर (वहहिं सुजाहि चिलाइहि ) अनेक कुबडी दासियों से, अनेक किरातिनियों-किरात देशमें उत्पन्न दासियों से, (वामणीहि) अनेक वामनियोसे-जिनका शरीर अत्यत हस्व-छोटा था ऐसी दासियों से, (वडभीहिं) अनेक वटभियों-जिनकी कमर निल्कुल झुक गई थी ऐसी दासियों से, (वब्बरीहि) बर्चर देशोद्भव अनेक दासियों से, (वउसियाहि) बकुश देश की दासियों से, (जोणियाहिं) यूनान देश की दासियों से, (पल्हवियाहि) अनेक पलविकाओं--पहवदेश की दासियों से, (ईसिणियाहिं)-इसिन नाम का एक अनार्यदेश है इस देश की दासियों से, (चारुइणियाहि) चारकिनिक देश की दासियों से, (लासियाहि) लासकदेश की दासियों से, (लउसियाहि) निवृत्त थाने (सब्बालकारविभूसियाओ) तभन सर्व मशिने धारण ४ीने (बहूहिं सुजाहिं चिलाईहिं) मने दुमडी हासीसाथी, मने शि तीसा-शित देशमा उत्पन्न थयेटी बचायाथी, (वामणीहिं) मन वामनिमा-रेन। २ मत्यत नाना-हY) ता अवी हासीमाथी, विडभीहि) मने पटलामा-मनी भ२ quी ६ हुती सपी हासीमाथी बमरीहिं ) मर-देशात्पन भने होसीयाथी, (बउसियाहिं) मधुश शनी सामाथी, (जोणियाहिं) यूनान शिनी सीमाथी, (पल्हवियाहिं) मने पदविय-पइस शनी वासीयाथी, (ईसिणियाइिं) सिन नामना से मनाय शछ त शनी हामीमाथी, । चाडणियाहिं) यालिनि: शनी दासीच्याथी, (लासियाहिं) सास शिनी सामाथी, (लउसियाहि) स्थशिनी सीमाथी (सिंहलीहिं) सिडस शिनी Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - पोयुपपिणी टीका र ५५ सुमद्रादीनां भगवदर्शनार्थ गमनम् ४३७ लासियाहिं लउसियाहिं सिंहलीहिं दमलीहि, आरबीहिं पुलिंदीहिं पकणीहि वहलीहिं मरुंडीहि सवरीहिं पारसीहि णाणादेसीहि विदेस-वेस-परिमंडियाहिं इंगिय-चितिय-पत्थियवियाणियाहिं सदेसणेवत्थ-गहिय-साहि चेडिया-चकवाल-वत्पन्नामि , 'लसियाहि लकुशिफाभि कुशदेशोत्पन्नाभि, 'सिंहलीहि' सिंहलीभि = सिंहलदेशोपनाभि 'टमिली हि द्रविड मिडिदेशोपन्नाभि , 'आरबीहि आरवीमि = अरपदेयोपन्नाभि , 'पुलिंदीहि पुलिन्दीभि =पुलिन्ददेशोपनामि , 'पक्कणीहि पक्वणीमि = पदणदेशोपन्नामि , 'यहलीहिं' वहीमि बहलनामकोऽनार्यदेशस्तोत्पन्नामि , 'मुरुंडीहि' मुण्टाभि मुरण्टदेशोपनामि, 'सरीहि अवरीमि शबरदेशोपनामि , 'पारसीहि पारमाभि पारसदेशो-पन्नामि , किरातादय सर्वेऽनार्यदेशा , 'णाणादेसीहि नानादेशीयामि ,'विदेस-वेस-परिमडियाहि विदेश-वेष-परिमण्डताभि विविध-देशपरिमण्टनयुक्ताभि , 'इंगियचितिय-पत्थिय-वियाणियाहि इगित-चिन्तित-प्रार्थित विज्ञाभि इङ्गितम् अभिप्रायानुरूपलकुशदेश की दासियों से, (सिंहलीहि) सिंहलदेश की दासियों से, (दमिलीहि) द्रविडदेश को दामियों से, (आरवीहिं) अरबदेश की दासियो से, (पुलिंदीहिं) पुलिन्ददेश की दासियों से, (पक्कणीहि) पक्कणदेश की दासियों से, (वहलीहिं) बहल नाम के अनार्य देश की दासियों से, (मुरुडिहि) मुरण्डदेश की दासियों से, (सवरीहिं) गबरदेश की दासियों से, (पारसीहि) पारसदेश की दासियों से, (ये किरात आदि जितने भी देश है वे सब अनार्य देश है) इन (णाणादेसीहिं) अनेक देश की दामिया, जो (विदेस-वेसपरिमंडियाहि) विदेशी वेष भूपा से सन्जित थीं, (इगिय-चिंतिय-पत्थिय-वियाणियाहि) इगित को अर्थात् अभिप्राय के अनुरूप चेष्टा को, चिन्तित को अर्थात् मनोगत भावको, हासीमाथी, (दमिलीहिं) द्रवि शनी हामीमाथी, (आरवीहि) २२॥ शनी सीसाथी (पुलिंदीहिं) पुतिः शनी भीमाथी (परकगीहि) ५४४५४ शनी हासीयाथी, (यहलीहिं) मी नामना सनार्यसनी भीमाथी, (मुरुडीहिं) भु२७ शनी भीमाथी, (सवरीहिं) शम२ शिनी हामीमाथी, (पारसीहि) પારસ દેશની દાસીએથી, આ કિરાત આદિ જેટલા દેશ છે તે બધા અનાર્ય हेश छ, २ (गाणादेसीहि) मने शिनी हासीमा २ (विदेस-वेस-परिमडियाहि) विशी ३५ भूषाथी सहित ती, (इगिय-चिंतिय पत्थिय वियाणियाहि) ઇગિતને એટલે અભિપ્રાયને અનુરૂપ ચેષ્ટાને, ચિત્તિને એટલે મનોગત ભાવને, -- -- Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - औपपातिको रिसवर-कंचुइज्ज-महत्तर-चंद-परिस्खित्ताओअंतेउराओणिग्गच्छ न्ति,णिग्गच्छित्ता जेणेव पाडियकजाणाहं तेणेव उवागच्छंति,उवागच्छित्ता पाडियकपाडियकाई जत्ताभिमुहाड जुत्ताइ जाणार्ड दुरुचेष्टितम् , चितित मनोगत, प्रार्थितम् अभिलपित्त तेषा विज्ञामि , 'सदेस-णेवस्य-ग हिय-वेसाहि' स्वदेश-नेपथ्य-गृहीत--येषामि-रदेशस्य यानि नेपथ्यानि-वस्त्रभूषण धारणरीतय , तैर्गृहोता घेपा यामि तारतथा ताभि , 'चेडिया-चकपाल-चरिसवर-कचुइज-महत्तर-वद-परिक्खित्ताओ' चेटिका-चक्रनाल-चर्पवर-कञ्चुकीय-महत्तर-वृद्धपरिक्षिप्ता -चेटिकाना दासीना चकवाल मण्डलम्, वर्परा:-क्लीना , कन्चुकीया =अन्त • पुरवहि प्रदेशरक्षका , तदन्ये ये महत्तरा प्रामाणिका अन्त पुररक्षका , तेषा यद वृन्द तेन परिक्षिप्ता =परिवेष्टिता यास्तास्तथा सुभद्राप्रमुसा हेन्योराध्य 'अतेउराओ णिगाच्छति अन्त पुरात्-स्त्रीगृहानिर्गच्छन्ति, 'णिग्गन्धित्ता' निर्गय, 'जेणेव पाडियकजाणाइ' यत्रैव प्रयेकयानानि पृथक् २ यानानि सन्ति, तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागय 'पाडियक-पाडि: प्रार्थित को अर्थात्-अभिलपित को जानने मे विन थीं, (सदेस-णेवत्थ-ग्गहिय-वेसाहि) अपने २ देश की रीति के अनुसार वेपभूपा धारण की हुई थीं, ऐसी इन विदेशी दासिया से, तथा-(पेडिया-चकवाल-वरिसवर-कचुइज्ज-महत्तर-चंद-परिक्खित्ताओ) विदेशी दासियों से मिन्न दासियों के समूह से, वर्षपरों से-नपुसकों से, कचुकियों से तथा और भी अन्य प्रामाणिक अन्त पुर रक्षकों से परिक्षिप्त-घिरी हई होकर (अतेउराओ णिग्गच्छंति) अत पुर से निकली, (णिग्गच्छित्ता) निकलकर (जेणेव पाडियकजाणाइ) जहा अपने २ योग्य अलग २,यान रखे हुए थे, (तेणेव उवागच्छति) यहा पर पहुँची, (उवागच्छित्ता पाडियकपाडियकाइ जत्ताभिमुहाई जुत्ताई जाणाइ दुरूहति) पहुँच कर उन पृथक र प्रार्थितने मेरो मलिसापाने ती सेवामा निपुर उती, (सदेसणेवत्थगहियवेसाहि) या पातपातानाशनी शत प्रमाणे वेष धारण ४२ हेत! सेवा ॥ विशी हासीसाथी, तथा (चेडिया-चक्कपाल-वरिसवर-कचुइज्ज-महतर-बद-परिखित्ताओ) विदेशी हासीमाथी ही सीमाना समूहथी, तथा વર્ષવર-નપુસકેથી, ચુકીએથી, તથા બીજા પણ પ્રામાણિક અ ત પુરક્ષ थी परिक्षिस-पीटामेली सनीन (अतेउराओ णिग्गच्छति) मत पुस्थी नीजी, (णिम्गच्छित्ता) नाजीने (जणेष पाडियस्कजाणाई) या पातपाताने योग्य get jा यान (481) राजपामा माल्या ता (तेणेव उवागच्छति) त्या पाडायो (उवागच्छित्ता पाडियक्कपाडियस्काई जत्ताभिमुहाइ जुसाइ जाणाइ दुरू Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - m __ पोपवर्षिणी-टीका र ५५ सुभद्रादीना भगवदर्शनार्थ गमनम् ४३९ हंति, दुरुहिता णियग-परियाल सद्धिं संपरिबुडाओ चंपाए णयरीए मझंमज्झेणं णिग्गच्छंति, णिग्गच्छित्ता जेणेव पुण्णभद्दे चेइए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता समणस्स भगव ओ महावीरस्स अदूरसामंते छत्तादीए तित्थयराइसेसे पासंति, यकाइ प्रयेकप्रत्येकानि-पृथक् २ कपितानि 'जत्नाभिमुहाइ जुत्ताई जाणाई'-यागभिमुरगानि युक्तानि यानानि-यात्राभिमुसानि भगवद्दर्शनार्यगमनाय सजितानि युक्तानि वलीवर्दै योजिनानि, यानानि रथान् 'दुरूदति अधिरोहति, 'दुलहिता' अरिरह्य, 'गियगपरियाल सदि' निजरूपरिवारै साम , 'संपरिबुडाओ' सन्परिवृता समन्तादेष्टिता , चम्पाया नगर्या मध्यमभ्येन, 'णिग्गन्छति' निर्गच्छन्ति, "णिग्गच्छित्ता निर्गत्य, जेणेव पुण्णभद्दे चेहए तेणेव बवागन्छति' या पूर्णभद्र चैय तौयोपागच्छन्ति, 'उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामते' उपागय श्रमगस्य भगवतो महावीरस्यादूरसमीप 'छत्ताहीए तित्ययराइसेसे' आदिकान् तीर्थफरातिशेपान-तीर्थकरातिशयान् यानों पर, जो भगवान के दर्शन के लिये ले जाने के निमित्त पहिले से सजित कर रखे हुए एव बलोवर्द आदिकों से युक्त थे, सगार हुई। (दुरुहिता णियग-परियाल सद्धिं) सवार होकर अपने २ परिवारों के साथ (सपरिखुडाओ) परिवष्टित होती हुई वे सब देविया (चपाए णयरीए मज्झमझेण) चपा नगरी के ठीक बीचा बीच के मार्ग से होकर (जिग्गच्छति) निकली, (णिग्गच्छित्ता) निकलकर (जेणेव पुण्णभद्दे चेहए तेणेव उपागच्छति) जिस ओर पूर्णभद्र चैय (उद्यान) या, उस ओर आयी, (उवागच्छित्ता) आकर (समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामते छत्तादीए तित्थयराइसेसे पासति) उन्होने श्रमग भगवान महावीर से कुछ दूर पर रहे हुए तीर्थंकरों के अतिशय हति) पहायान aju on याने।-२२। ५२२ मवानना शन 4 orat માટે પહેલાથી તૈયાર કરી રાખવામાં આવ્યા હતા તેમજ બળદ જોડી समेत खत तमा R31, (दुसहित्ता णियग-परियाल सद्धि) मेसीन पातपाताना परिवारनी साथे (सपरिचुडाओ) युटत न त मधी देवास। (चंपाए गयरीए मझम झण) A नाना मरमर पत्या-त्याना मागे धन (जिग्गच्छति) नीजी, (णिग्गच्छित्ता) नीजीन (जणेच पुण्णभद्दे चेइए तेणेर मागच्छति) २५ धूम औत्य (Gधान) तु २५ मावी, (नागचिन्ता) पीने (समणस्स भगरओ महावीरस्स अदूरसामते छत्तादीए तित्थयराइसेसे पासति) तेभरे Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० औषपातिकबरे पासित्ता पाडियकपाडियकाई जाणाई ठति, ठवित्ता जाणेहितो पच्चोरुहंति, पच्चोरुहिता, बहुहिं खुजाहिं जाव परिक्खित्ताओ जे. णेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छिता समणं भगवं महावीरं पंचविहेण अभिगमेणं अभिगच्छंति; 'पासति' पश्यन्ति, 'पासित्ता' दृष्ट्या, 'पाडियक पाडियकाईजाणाइ ठर्वेति' प्रयेकप्रयंकानि यानानि स्थापयन्ति, स्थापयित्या, 'जाणेहितो पच्चोरुडति' यानेभ्य प्रयवरोहन्ति अवतरति, 'पञ्चोरहित्ता' प्रत्यवरुहा, 'यह हिसुजाहिजार परिस्वित्ताओ' बहीमि कुजिकाभियावपरिक्षिमा =परिवेष्टिता यावच्छन्दापूर्वोक्ता विविधदेशजातिसमुद्भूता माह्या , जेणेव समणे भगव महावीरे तेणेउवागच्छति यत्रैव श्रमणोभगवान् महावीरस्तरैवोपागच्छन्ति, 'उवागउित्ता' उपागत्य 'समण भगव महागीरं पचविहेण अभिगमेणं अभिगच्छति' श्रमण भगवन्त महावीर पञ्चविधेनाऽभिगमेनाभिगच्छन्ति, पश्चविधममिगमन स्फुटीकरोनि-'त जहा' तद्यथा स्वरूप छ्वादिकों को देसा, (पासित्ता) देस कर उन सोने (पाडियकपाडियकाइ जाणाइ ठति) अपने २ (पृथक् २) यानों को रोक दिया और वे (जाणेहितो पञ्चोरुहात) उन यानों से नीचे उतरी, (पच्चोरुहित्ता) उतर कर (वहहिं खुजाहिं जाव परिक्खित्ताआ जेणेव समणे भगव महावीरे तेणेव उवागच्छति) उन अनेक कुब्जादिक दासियों से परिवृत होती हुई वे जहा श्रमण भगवान् महावीर थे वहा पर आयीं, (उवागच्छित्ती) आकर उन्हों ने (समण भगवं महावीर पंचविहेण अभिगमेणं अभिगच्छति) प्रभु के निकट जाने के लिये पाच प्रकार के अभिगमनों को अच्छी तरह धारण किया । वे पाच प्रकार के अभिगमन ये है-(सचित्ताण दवाण विओसरणयाए, अचित्ताण दवाण अवि શ્રમણ ભગવાન મહાવીરથી જરા દુર રહેલા તીર્થકરને અતિશય સ્વરૂપ' छत्रीने नेया, (पासित्ता) नन गधी (पाडियकपाडियकाइ जाणाइ ठवेंति) पातपाताना (of get) याना-२याने शी धा, मन तमा (जाणेहिती पच्चोरुहति) ते यानाभाथी नीये तरी, (पच्चोरुहिता) तरीने (बहूहि खुज्जाहि जाव परिस्खित्ताओ जेणेव समणे भगव महावीरे तेणेव उपागच्छति) ते भने કળ્યા આદિક દાસીઓના પરિવાર સહિત જ્યા શ્રમણ ભગવાન મહાવીર હતા त्या गावी, (पागच्छित्ता) मावीनतेमाये (समण भगव महावीर पंचविहेण अभिगमेण अभिगच्छति) प्रभुनी पासे or भाटे पाय हारना मनिममनाने या शत धारण ४ा ते पाय Rel मालगमन सा-(सचित्ताण दवाण Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __पोयूषषिणी-टो। स ५५ सुभद्रादीना पूर्णभद्रचैत्ये समागमनम् ४४१ तंजहा-१ सचित्ताणं दव्वाणं विओसरणयाए, २-अचित्ताणं दव्याणं अविओसरणयाए, ३-विणओणयाए गायलट्टीए, ४-चखुप्फासे अंजलिपग्गहेणं, ५-मणसो एगत्तीभावकरणेणं समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपायाहिणं करेति, 'सचित्ताण दवाण विओसरणयाए' सचित्ताना द्रव्याणा व्युसर्जनतया-सचित्तव्यत्यागन,१, 'अचित्ताण दवाण अविओसरणयाए ' अचित्ताना द्रव्यागामन्युमर्जन-- तया-अचित्तद्रव्याणा-चत्राभरणादीनामपरित्यागेन २, 'विणओणयाए गायट्ठीए' पिनयावनतया गात्रयट्या ३, 'चरखुप्फासे अनलिपग्गदेण' चक्षु स्पर्गेऽञ्जलिप्रग्रहेग= श्रीवर्धमाने महापारे चक्षुपिये सति अनलिविरचनेन ४, 'मणसो एगत्तीभावकरणेणं' मनस एकत्रीभावकरणेन-मनस =चित्तस्य एकत्रीभानकरण-एकन-भगवद्विपये स्थिरीकरण तेन ५, एतद्रूपेण पञ्चप्रकारेण अभिगमेन, 'समण भगव महावीरं तिक्खुत्ता आयाहिणपयाहिण करेंति, करिता वदति णमसति, बदित्ता णमसित्ता' श्रमणस्य ओसरणयाए, विणओणयाए गायलट्ठीए, चक्खुप्फासे अंजलिपग्गहेण, मणसो एगत्तीभावकरणेण) सचित्त द्रव्यों का परित्याग करना-प्रभु के दर्शन करने के लिये जाते समय अपने पास सचित्त वस्तुओं को नहीं रखना, अचित्तवस्त्रादिकों का त्याग नहीं करना, विनय से अवनत गान गरीर होना-विनयभार से नम्रीभूत होना, प्रभु के दिखते ही दोनों हाथों को जोडना, एव प्रभु की भक्ति मे मन को एकाग्र करना। इन पाच अभिगमनों से युक सपरिवार उन रानियों ने (समण भगव महावीरं तिक्खुत्ती आयाहिणपयाहिणं करति) श्रमण भगवान महावीर को तीन बार आदक्षिणप्रदक्षिण किया, (करित्ता वदति नमसति) विओसरणयाए, अचित्ताण दव्याण अविओसरणयाए, विणओणयाए गायलद्वीप, चक्खु 'फासे अजलिपग्गहेण, मणसो एगत्तीभावकरणेण) सयित्त द्रव्यांनी परित्याग કરે–પ્રભુ દર્શન કરવા માટે જતી વખતે પોતાની પાસે સચિત્ત વસ્તુઓ ન રાખવી ૧, અચિત્ત વસ્ત્રાદિકનો ત્યાગ કરે ૨, વિનયથી નમાવેલ ગાત્રશરીર રાખવું-વિનયભારથી નમ્રીભૂત થવું ૩, પ્રભુને જોતાજ બન્ને હાથ જોડવા ૪, તેમજ પ્રભુની ભક્તિમાં મનને એકાગ્ર કરવું પ, આ પાચ અભિगमनाथी युद्ध। सपरिवार ते शशीमाये (समण भगव महावीर तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिण करेंति) भएर सपान महावीरने पार माक्षियप्रक्षिy ४ा, (करित्ता वदति णममति) पछी १६ तेभर नभ२४॥२ उया, Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ - भोपातिक करिता वंदंति णमंसंति, वंदित्ता णमंसित्ता कूणियरायं पुरओ कह ठिडयाओ चेव सपरिवाराओ अभिमुहाओ विणएणं पंजलिउडाओ पजुवासंति ॥ सू० ५५ ॥ मूलम्त ए णं समणे भगवं महावीरे कूणियस्स रणो भंभसारपुत्तस्य सुभद्दापमुहाणं देवीणं तीसे य महइमहाभगवतो महावीरस्य विकृत्व आदक्षिणप्रदक्षिण कुर्वन्ति, कृत्या वन्दन्ते नमस्यति, वदित्वा नमस्यित्वा, 'कृणियराय पुरओ कह ठिइयाओ चेव' कूगिकराज पुरत कृत्वा स्थिता एवं 'सपरिवाराओ' सपरिवारा -परिजनसमैता, 'अभिमहाओ' अभिमुसा भगवदृष्टिपये, "विणएणं पजलिउडाओ पज्जुनासति' विनयेन प्राञ्जलिपुटा -कृताञ्जलिपुटा पर्युपासते । सू० ५५ ॥ 'तए णं' इत्यादि । 'तए ण' तत =द्वादशविधपरिपदुपस्थितिसमनन्तर खल 'समणे भगव महावीरे' श्रमणो भगवान् महावीर 'कूणियस्स रण्णो भभसारपुत्तस्स' कूणिकस्य राज्ञो भभसारपुत्रस्य 'सुभद्दापमुहाण देवीण' सुभद्राप्रमुखाणा देवीनाम्-'तीसे पश्चात् वदना एव नमस्कार किया, (वदित्ता णमसित्ता कूणियराय पुरओ कुट्ट ठिइयाओ चेव सपरिवाराओ अभिमुहाओ विणएण पजलिउडाओ पज्जुवासंति) वेदना नमस्कार कर चुकने के बाद फिर वे, कूणिक राजा को आगे कर के खडी खडी विनयपूर्वक हाथ जोड कर भगवान की सेवा करने लगीं ॥ सू ५५॥ 'तए ण ' इत्यादि । (तए ण) बारह प्रकार के परिषद जम जाने पर (समणे भगव महावीरे) श्रमण भगवान् महावीर ने (कूणियस्स रण्णो भभसारपुत्तस्स) भभसार अर्थात् श्रेणिक (वदित्ता णमसित्ता कूणियराय पुरओ कट्ट ठिइयाओ चे सपरिवाराओ अभिमुहाओ विणएणं पजलिउडाओ पज्जुवासति) पन नम२४१२ ४२N सीधा पछी वजी त કણિક રાજાને આગળ કરીને ઉભી ઉભી વિનયપૂર્વક હાથ જોડીને ભગવાનની સેવા કરવા લાગી (જૂ ૫૫) "तए ण" त्यादि (तए ण) मा२ मारनी परि५४ ल ता (समणे भगव महावीरे) अभय सापान महावीरे (कूणियस्स रणो भभसारपुत्तस्स) लसार अर्थात श्रेषि Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिणो-टीका स ५- भगवतो धर्मदेशना ૯૪૨ लियाए परिसाए इसिरिसाए मुणिपरिसाए जइपरिसाए देवपरिसाए अगसयाए अणेगसयवंदाए अणेग सयवंद परिवाराए मह महालिया तस्याथ महातिमहत्या 'परिसाए' परिपत्र = सभाया, 'उसिपरिसाए' रूपपरिषद -- रुपन्ति जानन्ति अवविज्ञानादिनेति रुपय - अतिशयज्ञानयन्त, तेपा परिमत्सभा तस्था, 'मुणिपरिसाए' मुनिपरिपट - मुणन्ति मन्यन्ते वा प्रतिजानन्ति सर्वसावधव्यापारोपरतिम इति मुणयो-मुनयो वा सर्वनिरतिमन्त, तेपा परिषत् तस्या मुणिपरिपटो, मुनिपरिषदो चा, 'जपरिसाए' यतिपरिषद - यतन्ते दशविधयनिधर्मे इति यतय । तथा चोक्तम् एवं यः शुद्धयोगेन, परित्यज्य गृहाश्रमान् । सयमे रमते नित्य स यतिः परिकीर्तितः ॥ १ ॥ के इति तेपा यतीना परिपत- तस्था, 'देवपरिसाए' देवपरिषद -- देवाना = भवनपयादिचतुर्विधदेवाना परिपत् तस्या, 'अणेगसयाए' अनेकशताया -अनेकानि तानि यस्यासानेता तस्या, 'अणेगसयवंदाए' अनेकशतवृन्दाया = अनेकशतानि वृन्दानि समूहायस्या साsनेता तस्या, 'अणेगसयचंद परिवाराए' अनेकशतवृन्दपरिपुत्र कूणिक राजा को, तथा - ( सुभद्दापमुहाण देवीण ) सुभद्राप्रमुख राजरानियों को, (तीसे य ममहालियाए ) तथा उस वडी भारी ( परिसाए ) सभा को, (इसिपरिसाए ) रुपियों-अवधिज्ञान से पदार्थों को जानने वालों की सभा को, (मुणिपरिसाए) मुनियों-सर्वसावध व्यापारों के मन वचन एव काय आदि से त्यागियों की सभा को, ( जइपरिसाए ) गृहाश्रम का परित्याग कर जो मन, वचन, काय के शुद्धयोग से स्यम में अर्थात दश प्रकार के यतिधर्म में नित्य यत्नवान होते हे वे यति है, उनकी सभा को, (देवपरिसाए ) भवनपति आदि चतुर्निकाय के देवों की सभा को, (अणेगसयाए ) _अनेकशतम्ख्यावाली (अणेगसयादा ) अनेकगत वृन्द ( समूह ) वाली ( अणेग ना पुत्र कृषि रामने, तथा-(सुभदापमुहाणं देवीण) सुभद्रा प्रमुख राष्ट्रराशी ओने (तीसे य ममहालियाए) तथा ते गहु भोटी (परिसाए) सलाने, (इसि परिसाए) ऋषियो- अषधिज्ञानथी महाथेने नयुवावाजाभोनी सलाने, (मुणिपरिसाए) भुनियो भर्व सावद्यव्यापारोने भन पयन तेभन डाया साहिथी त्याग ४२नारनी सलाने, (जइपरिसाए) गृहस्थाश्रमना परित्याग उरी के भन, વચન, કાયના શુદ્ધયોગથી સ યમમા અર્થાત્ દશ પ્રકારના તિધમ મા नित्य यत्नवान रखे छे ते यति छेतेन सलाने, (देवपरिसाए) लवनयति माहि यतुनिभयना हेवोनी सलाने, (अणेगसयाए) ने शत (सेो) सभ्या Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ - - - । औपपातिपक्ष ओहवले अइवले महब्बले अपरिमिय-चल-बीरिय-तेय-माहप्प कति-जुत्ते सारय-णवत्थणिय-महर-गंभीर-कोच-णिवाराया --ओकशतवृन्द परिवागे यस्या सा तथा तम्या , यस्मृताया पिविधाया परिषद, अत्र कर्मग सम्बधमाविवक्षाया पष्टी, 'ओहरले' ओपनट =अप्रनिनदवलशाली,' अरचले' अतिबल =अतिशयरल्यान्, 'महब्बले महागल - अनुपमप्रशस्तगक्तिमान् , 'अप रिमिय-चल-चीरिय-तेय-माइप्प-कति-जुत्ते' अपरिमित-चल-वीर्य-तेजो-माहाम्य कान्ति-युक्त , अपरिमितम् अ यधिक यलगारीरिकम्, वीर्यजीवसम्भृतम्, तेजो दामि , माहात्म्यम् अभाव , कान्ति =सौन्दर्यम् , एतैर्युक्त , 'सारय-णव-त्यणिय-महुर-गंभीर कोंच-णिग्योस-दुदुभि-सरे' शारद-ना-स्तनित मधुर गम्भीर-क्रौञ्च-निर्घोप-दुन्दुभिस्वर -शारद-शरत्कालिक यन्नवस्तनित-नवधनगर्जित तद्वन्मधुरो गम्भीरश्च तथा क्रौञ्चनि सय-चंद-परिवाराए) अनेकगत-समूह-युक्त परिवार वाली उस सभा को, (अरहा) अहंत प्रभु (धम्म) श्रुतचारित्ररूप धर्म का (भासइ) उपदेश देते है-इस शाश्वत नियम के अनुसार ( अद्धमागहाए भासाए) अर्धमागधी भापा द्वारा (धम्म) श्रुत चारित्ररूप धर्म का (परिकहेइ) उपदेश दिया । भगवान् कैसे थे सो कहते हैं-भगवान् महावीर प्रभु (ओहवले अइवले महब्बले अपरिमिय-चल-वीरिय-तेय-माहप्प-- कति-जुत्ते ) अप्रतिवद्धबलशाली थे । अतिशयवलिष्ठ थे। अनुपम-प्रशस्त शक्ति-रूपन्न थे। अपरिमित वल, वीर्य, तेज, माहात्म्य एव काति से युक्त थे। वल से यहा पर शारीरिक " शक्ति का ग्रह हुआ है। वीर्य से जीव की असाधारण शक्ति का ग्रहण किया गया है। प्रभार का नाम माहात्म्य है, शारीरिक सुन्दरता का नाम काति है। (सारय-णवपानी (गणेगसयघंटाए) मने शत वृन्द (समूड) पाती (अणेग सय वंद परिसाए) गने-शत-सड युक्त परिवारपाणी ते समाने, (अरहा) मत प्रभु (धम्म) श्रुतयात्रि३५ धमनी (भासइ) अपहेश मा छ-मा शाश्वत नियमने मनु सरीने (७ द्वमागहाए भासाए) मध-भागधी लाषा द्वारा (धम्म) श्रुतयारित्र ३५ धना (परिकहेइ) 6पहेश माथ्यो भगवान 30 ता? -मा वान महावीर प्रभु (ओहनले, अइनले, महब्बले, अपरिमिय बल-वीरिय तेय माह प्प-कति जुत्ते) मप्रतिम मसाली ता, मतिशयमपान ता अनुपम પ્રશરત-શક્તિ-સપન હતા અપરિમિત બલ, વીર્ય, તેજ, માહાસ્ય તેમજ કાતિથી યુક્ત હતા બલથી અહી શારીરિક શક્તિને સંગ્રહ સમજવું વીર્યથી છવની અસાધારણ શક્તિને અર્થ ગ્રહણ કર્યો છે પ્રભાવને અર્થ માહાસ્ય छ शारित मुहरता थेट ति छ (सारय-णव-स्थणिय-महुर-गभीर-कोच Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोषण- टीका ५६ भगवतो धर्मदेशना ग्घोस - दंदुभि - स्सरे उरे वित्थडाए कंठे वट्टियाए सिरे समाइvire अगरलाए अमम्मणाए सव्व - क्खर - सण्णिवाडयाए धोपवत् - कौश्च = पक्षिविशेषस्तस्य मञ्जुलजननत्, दुन्दुभिस्वरवच स्वरो यस्य स तथा-शारदजलधरध्वनिवत् कौशल जनपद् दुन्दुभिस्वरवन्मधुरगम्भीरदूरगामिप्य नियुक्त इत्यर्थ । 'उरे वित्थडाए' उरमि विस्तृतया वक्ष स्थलस्य विस्तीर्णवात् तन विस्तारमुपगतया, ‘कंठे वट्टयाए' कण्ठे वृत्ततया, स्वार्थे तल्, वृत्तया इत्यर्थ, कण्ठस्य वर्त्तुलत्वात् तत्र वृत्तरूपेण स्थितया, 'सिरे समादण्णाए' शिरसि समाकीर्णया - गिरसि= मूर्ध्नि समाफीर्णया=व्यामया, तत 'अगरलाए' अगरल्या = व्यक्तया - मूर्ध्न परावृत्य वक्रमागय तान्यादितत्तत्स्थान प्राप्य वर्णसमुदायस्वरूप प्राप्तया इति भाव, 'अमम्मणाए' अमन्मनया - वर्णपदवै कन्यरहितया, 'सव्वक्खरसन्निनाइयाए' सर्वाक्षरसनिपातिरुया - सर्वे अक्षरसन्निपाता = वर्णयोगा सन्ति यस्या सा तथा सकलवाडमयस्वरूपा तया, भगवत सर्वज्ञतया सर्वार्थनाचकशब्दप्रयोग करणादिति भाव, 'पुण्णरत्ताए' पूर्णरक्तया - पूणा स्वरकलादित्यणिय-महुर - गभीर - कोंच- णिग्योस - दुदुभि-रसरे) भगवान् की ध्वनि शरत्कालीन नवीन मेघ की गर्जना जैसी मधुर एव गंभीर थी। तथा कौचपक्षी के मजुल निर्घोष की तरह मीठी एव दुदुभि के स्वर की तरह बहुत दूर तक जानेवाली थी । (उरे वित्थडाए ) वक्षस्थल के विस्तीर्ण होने से वहाँ पर विस्तार को प्राम हुई ऐसी (कठे वट्टयाए ) कठ के वर्तुल होने के कारण वहाँ पर गोलरूप से स्थित, ( सिरे समादण्णाए ) मस्तक में व्याप्त, ( अगरलाए ) मस्तक से वक्ररूप मे आकर उन २ तान्वादिकस्थानों में प्राप्त होकर वर्णसमुदायस्वरूप को प्राप्त, अत एव स्पष्ट उच्चारणवाली, (अमम्मणाए ) मण मण शन्द से रहित अर्थात् वर्ण एव पढ की विकलता से रहित, ( सव्वक्खरसण्णिवाइयाए ) सकलवाड्मयस्वरूप - समम्त अक्षरों के म्योगवाली-सकल णिग्घोस - दुदुभि-रसरे) लगवाननो ध्वनि, शरह अजना नवीन भेधनी गना જેમ મધુર તેમજ ગ ભીર હાય તેવા હતા તથા કૌચ પક્ષીના મજીલ નિર્ધાષના જેમ મીઠા તેમજ દુદુભિના સ્વરના જેમ બહુ દૂર સુધી જાય તેવા तो (उरे नित्यडाए) पक्षभ्यस विस्तीर्थ (थहोणु) होवाथी त्या विस्तारने प्राप्त थयेसी, (कठे वट्टयाए) 38 गोण होवाना जरो त्या गोज ३५थी स्थित, (सिरे समाइण्णा) भन्त भी व्याप्त, (अगरलाए) भन्थी १४३भा भावी तेले તાલુ આદિક સ્થાન પ્રાપ્ત કરી વર્ણસમુદાયસ્વરૂપને પ્રાપ્ત હાવાથી સ્પષ્ટ ઉચ્ચાरसु पाणी, (अमम्मणाए) भधु-भधु शब्द रहित अर्थात् पशु तेभन पहनी विश्वतायी रहित (सव्व-क्सर-सण्णिनाइयाए) सस वाङ्मयस्व३य सभस्त अक्ष ४४५ Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोपालिका पुण्णरत्ताए सव्वभासाणुगामिणीए सरस्सईए जोयणणीहारिणा सरेणं अद्धमागहाए भासाए भासइ, अरिहा धम्म परिकहे। तेसि सम्वेसि आरियमणारियाण अगिलाए धम्म आइखइ, सावि य णं अद्धमागहा भासा तेसिं सव्वेसि आरियभिरुपपना रक्ता च गेयरागण माल्कोगार येन युक्ता च तया, 'सन्नभासाणुगामिणीए' सर्वभापानुगामिन्या सर्वभापापरिणमनशील्या, 'सरस्सईए' सरस्व या धाग्या, 'जोय. गणीहारिणा' योजननिहारिणा योजनप्रमाणदूरगामिना 'सरेणं' स्वरेण चनिना, अद्धमागध्या भापया भाषते । 'अरिहा धम्म परिकईई' अर्हन धर्म परिकथयति । 'तेसि सव्वेसि आरियमणारियाण' तपा सर्वेषामायाऽनार्याणाम्-आयाणाम् आर्यदेवोपन्नाम्, अनार्याणाम् अनार्यदेशोत्पन्नाम्, 'अगिलाए' आलायन्ालानिरहितो 'धम्मं धर्म-श्रुतचारित्रलक्षणम् , 'आइरसई' भारयाति कथयति । 'सावि य अद्धमागहा भासा' साऽपि च अर्द्धमागधी भाषा-प्राकृतभाषालक्षणबहुला, 'तेसि सम्वेसिं आरियमणारियाण' तेषा भाषामय, (पुण्णरत्ताए) स्वर एव कलादिकों से उत्पन्न तथा मालकोश नामक गेयराग से युक्त, (सबभासाणुगामिणीए) और सर्वभाषापरिणमनस्वभाववाली ऐसी (सरम्सईए) सरस्वती-वाणो से, जो (जोयणणीहारिणा) एक योजन तक दूर जाने वाले स्वर से युक्त यी और जिसका दूसरा नाम अर्धमागधी भाषा था, (तेसि सम्वेसि आरियमणारियाण अगिलाए धम्म आरक्खद ) उन समस्त आर्यदेशोपन एव अनार्यदेशोत्पन्न मानवों को श्रुतचारित्र रूप धर्म का विना किसी खेद के प्रभु ने उपदेश दिया। (सा वि य ण अद्धमागहा भासा तेसिं सम्वेसिं आरियमणारियाणं अपणो समासाए परिणामेण परिणमइ) प्रभु ने जिस अर्द्धमागधी भाषा द्वारा उन शना स योगवाणी-ससमापामय, (पुष्णरत्ताग) २५२ तम साथी पन्न भासश नाम यथा युत, (सव्यभासाणुगामिणीए) समाषा-परिभानपक्षापाजी की (सरस्सईए) भरपती पालीथी, (जोयणणीहारिणा) मे જન સુધી દૂર જાય તેવા સ્વરથી યુક્ત હતી તથા જેનુ બીજુ નામ અધું भासधा साषा तु, (तेसिं सब्वेसिं आरियमणारियाणं अगिलाए धम्म आइक्खइ) તે સમસ્ત આર્ય-અનાય–દેશપન્ન માનવને શ્રુતચારિત્ર રૂપ ધર્મને કઈ પણ विना अनुम्मे पहेश माल्यो (सा वि य ण अद्धमागहा भासा तेसिं सव्वेसि आरियमणारियाण अप्पणो सभासाए परिणामेण परिणमई) प्रभुये भागधी Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका ख ५६ भगवतो धर्मदेशना ४४७ मणारियाणं अप्पणो सभासाए परिणामेणं परिणमइ। तंजहा-- अस्थि लोए, अस्थि अलोए, एवं जीवा अजीवा बंधे मोक्खे पुण्णे सर्वेषाम् आर्यागामनार्यागाम्, 'अप्पणो' आमन = स्वस्य, 'सभासाए' स्वभाषाया , 'परिपामेणं परिणमइ' परिणामेन परिणमति, यादृश धर्म कथयति त दर्शयति-'त जहा तद्यथा'अस्थि लोए' अस्ति लोक-टत्यादि 'सफले कलाणपावए' इत्यन्तो ग्रन्थो धर्मस्वरूपप्रदर्शक । लोक --पञ्चास्तिकायमय । 'अस्थि अलोए' अस्त्यलोक -अलोक =केवलाफाशरूप --एतयोरस्तित्वाभिधान शून्यवादनिरासार्थम् । 'एर जीवा' "अस्थि जीवा" सन्ति जीना --जीया =उपयोगलक्षगा । इद नास्तिकमतनिराकरणार्थम्। 'अस्ति अजीवा' सन्ति अगीवा =जटलक्षणा , एतत्कयनमद्वैतवादनिराकरणार्थम् । 'अत्थि वधे' अस्ति बन्ध -- समस्त आर्य और अनार्यों को श्रुतचारिकरूप धर्म का उपदेश दिया वह प्रभु की भाषा, उन समस्त आर्य-अनार्यों की अपनी २ भाषा मे परिणमित होने के स्वभाववाली थी। भगनान् ने जिस तरह धर्म का उपदेश दिया सूत्रकार उसे यहा प्रकट करते हैं---- , (अत्थि लोए) पच-अस्तिकायमय यह लोक अस्ति-स्वरूप है। (अत्थि अलोए) केल आकागस्वरूप अलोक भी अस्तिस्वरूप है। लोक और अलोक मे अस्तित्वस्वरूपता का कथन बौद्धों द्वारा समत शून्यवाद के निराकरण करने के लिये जानना चाहिये । (एवं जीवा) इसी तरह उपयोगलक्षणवाला जीव भी अस्तित्वविशिष्ट है। जीव में अस्तित्वविधान नास्तिकमत के परिहारनिमित्त जानना चाहिये । (अजोगा) जिसका लक्षण जड हे ऐसा अजीव पदार्थ भी भावस्वभावविशिष्ट है। अजीव पदार्य की सत्ता का वह निरूपग अद्वैतवाद के निराकरण के लिये जानना चाहिये । (वये) जाव और कर्मोंका र.बध ભાષા દ્વારા તે સમસ્ત આર્ય અને અનાર્ય લોકોને શ્રતચારિત્રરૂપ ધર્મને ઉપદેશ આપે, પ્રભુની તે ભાષા તે સમસ્ત આર્યો અનાર્યોની પિતપોતાની ભાષામાં પરિણામ પામવાવાળા (સમજાય તેવા)–સ્વભાવવાળી હતી ભગવાને २वी रीत धना पहेश दाधीत मडी सूत्रा२ अडट ४२ छे-(अत्थि लोए) ५यमस्तियमय PAL | मस्ति-१३५ छ (अत्थि अलोए) उपस माशસ્વરૂપ અલેક પણ અસ્તિસ્વરૂપ છે લોક અને અલેકમાં અતિસ્વરૂપતાનું કથન બૌદ્ધો દ્વારા સમત શૂન્યવાદનું નિરાકરણ કરવા માટે જાણવું જોઈએ (एव जीवा) ॥ शत 6पयोगसमकामा ७५ पण मस्तित्व-विशिष्ट छ જીવમાં અસ્તિત્વનું વિધાન નાસ્તિકમતના પરિહારનિમિત્તે જાણવું જોઈએ (अजीवा) रेनु सक्षY छ तपा ५७१ पार्थ ५ खा-स्वलाव-विशिष्ट છે અજીવ પદાર્થની સત્તાનું આ નિરૂપણ અતવાદના નિરાકરણ (પરિહાર) Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ औपपातिक कर्मणा जीवसम्बधोsस्ति, बधन वध = आमप्रदेशाना ज्ञानावरणीयादिकर्मपुदगलाना च परस्पर क्षीरोदकात् सम्बन्ध इत्यर्थ । एतकथन सात्यादिमतनिराकरणार्थम् | 'अस्थि मोक्खे' अस्ति मोक्ष = arts अलिकर्मक्षयो मोक्ष सोऽस्ति । मकलकर्मणा क्षय = आमप्रदेशेभ्योsपगम तथासति सकलकर्मनिमुक्तस्य ज्ञानदर्शनोपयोगलक्षणम्यामन स्वस्वरूपेऽवस्थान मोक्ष इथे । सकलकर्म समकालमेव औदारिकगरीशयन्त नियुक्तस्यास्य मनुष्यजन्मन समुच्छेद, बन्धद्दत्यभावा चोत्तरजन्मन पुनरप्रादुर्भाव, आत्मा स्वरूप वध भी है। जिस प्रकार दूध और पानी का परस्पर एक नावगाहरूप ध होता है उसी प्रकार ज्ञानावरी आदि कर्मा का आत्मप्रदेशों के साथ एक क्षेत्रावगाहरूप जो है उसका नाम बध है । वव के अस्तिव का विधान सदा आमा को एकान्त शुद्ध माननेवाले साख्य आदि की मान्यता को निराकरण करने के लिये जानना चाहिये। (मोक्खे) मोक्ष है। जन बध है तो उसके अयताभावस्वरूप जीन के समस्त कर्मीका क्षयम्वरूप मोल भी है । आत्मा जन समस्त कर्मों से निल्कुल रिक्त हो जाता है तन ज्ञानदर्शनरूप अपने स्वरूप मे इसका शाश्वतिक अवस्थान हो जाता है । इसीका नाम आत्मा को मुक्ति है । मतलब इसका यह है कि आत्मा से जिस समय यान के प्रभाव से समस्त कर्मों का क्षय हो जाता है उसी समय इसके गृहीत औदारिक शरीर का अयन्त वियोग हो जाता है । इस औदाfor riter अत्यन्त वियोग होना ही मनुष्यजन्मका समुच्छेद है । बन्ध के हेतुओंका अभाव होने से इस आत्मा को फिर उत्तरकाल में जन्मी प्राप्ति होती नहीं है। भाटे लागुवु लेहो (बधे) भने કનાસ અધસ્વરૂપ ખધ પણ છે જેવી રીતે દૂધ અને પાણીને પરસ્પર એકક્ષેત્ર-અવગાહ રૂપ સ ખ ધ થાય છે તેજ પ્રકારે જ્ઞાનાવરશીય આદિ-પુદ્ગલેાના આત્મપ્રદેશની સાથે એકક્ષેત્રાવગાહ રૂપ 2 સખધ છે તેનુ નામ અધ છે. મધના અસ્તિત્વનું વિધાન, સદા આત્માને એકાન્ત શુદ્ધ માનવાવાળા સામ્ય આદિની માન્યતાનું નિરાકરણૢ ४२वा भाटे लावु भेायो (मोक्खे) मोक्ष छे न्यारेज छे त्यारे तेना અત્યંત અભાવ સ્વરૂપ-જીવના સમસ્ત કર્મના યે સ્વરૂપ મેક્ષ પણ છે આત્મા જ્યારે સમસ્ત કર્મોથી ખિલકુલ રિક્ત (મુક્ત) થઈ જાય છે ત્યારે જ્ઞાન-દર્શન-સ્વરૂપ પેાતાના સ્વરૂપમા શાશ્વતિક તેનુ અવસ્થાન થઈ જાય છે આવુજ નામ આત્માની મુક્તિ છે એની મતલબ એ છે કે આત્મામાથી જે વખતે શુકલધ્યાનના પ્રભાવથી સમન્ત મેાના ક્ષય થઈ જાય છે તેજ વખતે તેનાથી ગ્રહણ કરાયેલા ઔદારિક ચરીરને અત્યંત વિયેાગ થઈ જાય છે આ ઔદારિક શરીરનેા અત્યંત વિયેાગ થવા એ જ મનુષ્ય જન્મને! સમુ ૨હે છે. ખ ધના હેતુઓને અભાવ થવાથી આ આત્માને ઉત્તરકાળમા ફરી જન્મની પ્રાપ્તિ થતી નથી. આ માટે આ આત્મા, પેાતાના-જ્ઞાન-દર્શન ઉપ Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કરે पीयूषधपिणी टीका र ५६ भगवतो धर्मदेशना पावे आसवं संवरे वेयणा णिजरा अरिहंता चकवडी बलदेवा केवल शुद्ध इयेषाऽवस्था मोक्ष दयाम्यायते इति भाव । 'अत्यि पुण्णे' अस्ति पुण्यम्-- पूयते-पवित्राक्रियते आत्मा अनेनेति, पुनाति आमानमिति वा पुण्य-शुभकर्म, 'पू पवने' इत्यस्माद्धातो 'पूजो यण्णुक हुस्वश्व' इयौगादिकसूत्रेण सिद्धि , पुण्य हि सारपारावागेत्तरणे तरगिभूतम् । अननवार्यजनपदाभिजनकुयोपिनीननिजमादिप्रालिजायते । किं बहुना तार्थकग्गोत्रमपि पुण्येनैव वन्यते, यो हि पुण्य मर्वथा हय मन्यमान्तत् त्यजति, __ असो सनुपेक्षिततगिरियाऽप्रामपरतीरो मध्येसमुद्र मन्न नपसीदति । 'अस्थि पावे' अस्ति पापम्-पातयनि-शुभपरिगामाद् ध्वसय या मानमिति पापम्, पापमेवाऽपचीयमान मुख जनइसलिये यह आमा अपने ज्ञानदर्शनोपयोगरूप स्वभाव मे मग्न होता हुआ केवल शुद्ध अवस्थावाला हो जाता है। आमाकी इसी अवस्थाका नाम मोक्ष है । (पुण्णे) पुण्य है। आमा जिसके द्वारा पवित्र किया जाय उसका नाम पुण्य है, अथवा जो आमा को पवित्र करे ऐसा जो शुभकर्म है उसका नाम पुण्य है । यह पुण्यकर्म जीर को साररूप पारावार से पार करने के लिये नौकास्वरूप है । टमीके प्रभाव से आर्यदेश, उच्चकुल मे जन्म, बोधिवीजइत्यादि ममस्त उत्तमोत्तम वस्तु की प्रामि इस जीप को होती है। ज्यादा और क्या कहा जाय ? तीर्थकरगोकर्म का वध भी तो साक्षात् दसी पुण्य का फल है । जो व्यक्ति इस पुण्य कर्म को सर्वथा हय समझकर उसका परित्याग कर देते है वे, जिसने दूसरे तीर को प्राम किये बिना समुद्र के बीच म ही जहाज का परित्याग कर दिया है -उस मनुष्य केसमान है। (पावे) पाप है। जो इस जीव को गुमपरिगाम से गिरा देता है उसका नाम पाप है । शका-पाप जन अपचीयमान होता जाता है तन इस जीव को सुस की ગરૂપ સ્વભાવમાં મગ્ન રહીને, કેવલ શુદ્ધ અવસ્થાવાળે થઈ જાય છે આત્માની આ અવસ્થાનું જ નામ મોક્ષ છે () પુણ્ય છે આત્મા જેના દ્વારા પવિત્ર કરાય તેનું નામ પુણ્ય છે અથવા જે આત્માને પવિત્ર કરે એવા જે શુભ કર્મ છે તેનું નામ પુણ્ય છે આ પુણ્યકર્મ જીવને જ સારરૂપ પારાવાર (સમુદ્ર)થી પાર કરવા માટે હેડી રૂપ છે તેના પ્રભાવ વડે જીવને આર્ય દેશ, ઉચ્ચ કુળમાં જન્મ, બેધિબીજે ઈત્યાદિ સમસ્ત ઉત્તમોત્તમ વસ્તુની પ્રાપ્તિ થાય છેવધારે બીજુ શુ કહેવુ, તીર્થ કગેવકર્મને બધ પણ સાક્ષાત્ એજ પુણ્યકર્મનું ફલ છે જે વ્યક્તિ આ પુણ્ય કર્મને સર્વથા હેય સમજીને તેને પરિત્યાગ કરી દે છે તેઓ જેમ કેઈ સામે કાને પહોંચ્યા વિનાજ સમુદ્રની વચમાં વહાણનો પરિત્યાગ કરી દીએ એવા મનુષ્ય જેવા છે (पावे) पा५ छ । बने शुल्मपरिणामथी पास तेनु नाम पा५ शा--पा५ क्यारे पचीयमान (स्वल्प) 45 लय त्यारे २ सपने Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० ओपपातिकवत्र - यति, उपचीयमान तदेव दुस जनयति न पुण्य पृथगस्ति, अथवा पुण्यमेवोपचायमान सुख जनयति, तदेवापचीयमान दुस जनयति, न पाप वियते-दयेववादिमतनिराकरणार्थ पुण्यपापयो पृथगभिधानम्, केवलैकत्वमायादिनिरासाय वा सर्वेषा पृथक पृथगुक्ति । 'अत्यि आसवे' अस्यासन -आ-समन्तात् सवति प्रविशति आमनि आनावरणीयायष्टविध फर्म येन स आस्रव , आश्रय इतिच्छायापक्षे तु-आश्रीयते-समुपायते कर्म येन स , पृषोदरादित्वाद् यस्य व, सर्वथा जीवतडागे कर्मसलिलप्रवेशाय नालिकाप्राप्ति होती है एव पाप जन उपचीयमान होता है तर दुख की प्रामि होता है, इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि पाप के अपचय और उपचय के अधीन ही जीवों को सुख-दुख की प्राप्ति होती है, अत सुख का कारण पुण्य एव दुस का कारण पाप इस प्रकार से दो स्वतत्र तत्व मानना ठीक नहीं है, या तो पुण्य ही मानो या पाप ही मानो, दोनों को एक साथ मत मानो । इसी तरह पुण्य का हास जन होने लगता है तब जीरों को दुख को प्राप्त होती है और जन पुण्य का उपचय होता है तर जीनों को सुखकी प्रामि होता है । इस कथन से भी यही निष्कर्ष निकलता है कि सुखद ख, पुण्य के उपचय और अपचय के आधीन है। अत इनका कारण उसका ही उपचय एव अपचय है। इससे यह एक पुण्य तत्व हा मानना चाहिये-सो ऐसा कहने वाले वादियों के मन्तव्य को निराकरण के लिये दोना तत्त्वों को स्वतत्ररूप से सत्ता प्रतिपादित की है । अथवा जो वस्तुका एक ही स्वभाव मानते है उन वादियों के मत को निराकरण करने के लिये भिन्न २ रूप से समस्तपदाथा का यह निरूपण हुआ है । (आसवे) आस्रव तत्व है। जिसके कारण से ज्ञानावरणीय सुमनी प्राप्ति थाय छे तमल पात्यारे उपयीयभान (सचित) थाय छ ત્યારે દુખની પ્રાપ્તિ થાય છે આથી એ નિષ્કર્ષ (સાર) નીકળે છે કે પાપના અપચય અને ઉપચયને આધીન જીવોને સુખ દુખની પ્રાપ્તિ થાય છે. આથી સુખનું કારણ પુણ્ય તેમજ દુ ખનું કારણ પાપ આ પ્રકારના બે સ્વતંત્ર તત્વ માનવા ઠીક નથી કાં તે પુણ્યને માને અગર તે પાપને માને બન્નેને એક સાથે ન માને આવી રીતે પુણ્યને હાસ જ્યારે થવા લાગે છે ત્યારે જીવને દુખની પ્રાપ્તિ થાય છે, અને જ્યારે પુણ્યને ઉપચય થાય છે ત્યારે જીવને સુખની પ્રાપ્તિ થાય છે આ કથનની પણ એજ નિષ્કર્ષ નીકળે છે કે સુખ દુ ખ, પુણ્યના ઉપચય અને અપચયને આધીન છે આથી આનું કારણ તેના ઉપચય તેમજ અપચય છે તેથી એ એક પુણ્ય તત્વજ માનવું જોઈએ આમ કહેવાવાળા વાદિઓના મતવ્યના નિરાકારણને માટે બને તની સ્વતંત્ર રૂપે સત્તાનું પ્રતિપાદન કર્યું છે અથવા જે વસ્તુને કેવળ એકજ સ્વભાવ માને છે તેવા વાદિઓના મતનું નિરાકરણ કરવા માટે જુદા જુદા રૂપથી समस्त महानु माम नि३५४ ४यु छ (आसवे) मा त ना Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूपपणी-टोकास ५६ भगवतो धर्मदेशना ४५१ रूप इति यात । कर्मबन्धहतुगलन, म च मिथ्यावाद । 'अत्यि संवरे ' अस्ति स्वर =आनवनिगेर, मत्रियते = निरुध्यते आमवत = आगच्छन कर्म येन स स्वर, एप च द्रव्यभावमेाम्या द्विविप, तर द्रव्यतस्तथानियेग (चिक्दादिना ) सहिद्रोपरि aronestarraanीगणा निरोप, भारत aeroया किनाना समितिगुनिप्रमृतिभिर्निगेन । इह भावन्वग्म्य ग्रहणम् । एनकथन बन्धमोक्षयोर्निकारणवप्रति आदिक अष्ट-प्रकार का कर्म आमा म प्रष्ट होता है उसका नाम थानव है । (आसवे) इस पद की 'आश्रय' जन इस प्रकार की मस्त ठाया रखी जायगी न इसका अर्थ होगा जिसके द्वारा जीव रूम का आश्रय-ममुपार्जन करे वह आश्रम है । जिस प्रकार तालान में पानीका आना वाली द्वारा होता है उसी प्रकार हम जीव में जिसक द्वारा कर्मी पानी आता रहता है वह नव है । यह आसन ही नवीन मों के बन्ध का कारण होता है । यह आव तत्व मियाचादिक के भेद से अनेक प्रकार का है, क्यों कि ये जो मिथ्याव्यादिक है वे कमों के आगमन के कारण है। (सवरे ) स्वर तत्व है । आन्नव का रुकना हमका नाम स्वर है । न्यस्वर और भार इस प्रकार से मवर के भेद है । द्रव्यफर्मों के आगमन को रोकने में आमा का जो परिणाम कारण होता है वह परिणाम narar है, एव जो कर्मपुलों का रुकना है वह न्यस्वर है। नौका में पानी के आगमन का रुकना इसे हत्या के स्थानापन्न, एवं जिम टि से वह आता था उसका बढ कर ટાણે નાનાવણ્ણીય આદિ આઠ પ્રકારના કર્મ આત્મામાં વિષ્ટ થાય છે तेनुं नाम भव है (आसवे ) मा पहनी (आश्रय) भी अजरनी ने सस्त છાયા ાખવામાં આવે તે એને અવું એમ થાય કે જેના દ્વાશ છવ, કર્મના આશ્રય (સમુપાર્જન) કે તે આશ્રવ છે જેમ તળાવમાં પાણીનું આવવુ નાળા દ્વારા થાય છે તેમ આ મા જેના ઢાળ ઢમરૂપી પાણી આવે છે તે આસવ કે આ આસ્રવ જ નવીન કર્મોના મધનુ કારણ થાય છે. એવુ તે આશ્રવ તત્ત્વ મિથ્યાત્વ આદિના ભેદથી અનેક પ્રકારનુ છે, કેમકે આ જે भिव्यास आहे ते ना आगमननु नलुले (मंदरे) व तत्व छे. આમવને કવુ તેનુ નામ વર કે વ્યસવર અને ભાવસવર આ પ્રકારના નવગ્ના બે ભેદ છે દ્રવ્યકર્મોના આગમનને શવામાં આત્માનુ જે પરિણામ કારણ હાય છે તે પચ્છિામ ભાવસ૧ ૪ તેમજ જે પુરવાને રાકે તે વ્યસવર છે વહાણુમા પાણીના આવવાને શવુ એ દ્રવ્યગ્ર વસ્તુ સ્થાનાપન્ન તેમજ જે છિદ્રમાથી તે આવતુ હતું તેને અધ કરી દેવુ તે સાવ્યુંવરનું સ્થાનાપન્ન સમજવું તેનુંએ સમિનિપ્તિ આદિ એ અવા Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४५२ . औपातिक पेधार्थम् । 'अयि चेयणा' अस्ति यदा-येना-रटनम-स्वमायादुदीरणा कृत्या वा उदयायलिकामनुप्रविष्टस्य कर्मणो योऽनुभय -कर्मफरगतमुरादु सानुगर , तथापा । 'अत्थि णिजारा' अस्ति निर्जग-निजग देशत कर्गय , अस्थि अरिहता' सत्यन्ति , 'अत्थि चकरही' सति चक्रवनिन', 'अत्यि बलदेवा' मत्ति बल्देवा, 'अत्यि वासुदेवा' सन्ति वासुदेवा --अमातीमा गतुणामभिधान तु तेपा भुवनानि गायित्रप्रतिपादनार्य नेपामतिशय वमप्रधता प्रमाविधानाय च । 'अत्यि नरगा' सन्ति नरसा -- देना इसे भाव-घर के स्थानापन जानना चाहिये । समितिगुमि आदि ये सर भावनगर के ही भेद हे ! इनसे ही आमा में आते हुए कर्म करो '। यहा पर भाव-वर का प्रण हुआ है । भाववर का कथन बध और मोक्ष को जो निष्कारणक मानने वाले है उनकी धारगा का प्रतिषेध करन के निमित्त ममा चाहिये । ( वेयणा) वेदना है। कम की स्वभावत उदीरणा करके अथा उदयालि में उसे लाकर उसके मुसद् ग्यादिक रूप फल का अनुभव करना इसका नाम वेदना हे। (णिज्जा ) निना है । एकदेश से कभी का क्षय होना सो निर्जरा है। (अस्थि अरिहता अत्यि चाही) अहंत है, चक्रवती है । (अस्थि वलदेवा अत्थि पासुदेवा) बलदेव है, वासुदेव है । इन चार अर्हत आठिका प्रतिपादन त्रिभुवन मे इनकी समों कृष्टता जाहिर करने क निमित्त है। अथवा जो इनम अतिशयत्व नहीं मानते हैं, वे इस प्रतिपादन से उनके विषय में अपनी श्रद्धा जाग्रत करें इसके लिये भी यह अहंत आदि चार का प्रतिपादन किया गया जानना चाहिये । (अस्थि ભાવસ વરના ભેદ છે એનાથી જ આત્મામાં આવતા કમ સરકાય છે અહી ભાવસ વરનું ગ્રહણ થયું છે ભાવસ વરનું કથન બ ધ અને મોક્ષને જેઓ નિષ્કારણક માને છે તેમની ધારણાને પ્રતિષેધ કરવા નિમિત્તે સમજવું જોઈએ (वयणा) वना छ उनी सात ही ४शन मथा यापलिमा ते લાવીને તેને સુખ દુ ખ આદિક રૂપ ફલને અનુભવ કરે તેનું નામ વેદના छ (णिजरा) निशछ सशथी भनि। क्षय वो ते नि छ (अस्थि अरिहता त्यि चक्चट्टी) महत छ यस्तो छ (अधि बलदेवा अस्थि वासुदेवा) मखदेव छ, सुहवछ २मा या मत माहिनु प्रतिपाहनत्रिभु વનમા તેમની સર્વોત્કૃષ્ટતા જાહેર કરવાને નિમિત્તે છે અથવા તેઓમાં જે અતિશયત્વ ન માનતા હોય તેઓ આ પ્રતિપાદનથી તેમના વિષયમાં પોતાની શ્રદ્ધા જાગ્રત કરે તે માટે પણ આ અહં ત આદિ ચાનું પ્રતિપાદન કરેલું. (१) चेदगपरिणामो जो कम्मरसायगिरोहणे हेऊ । सो भावमबरो खलु दयामवरोहणे अण्णा ।। वदसमिदीगुत्तीओ धम्माणुपिटा परीसहजओ य । चारित्त बहुभेय गायव्या, भावमवरविसेसा ॥ द्रव्याग्रह गाथा ३४-३५ ॥ Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूपयपिणी-टोका स ५६ भगवतो धर्मदेशना ४५३ वासुदेवा नरगा णेरइया तिरिक्खजोणिया तिरिक्खजोणिणीओ माया पिया रिसओ देवा देवलोया सिद्धी सिद्धा परिणिव्वुया, अनेकविधनरकस्थानानि सन्ति । 'अत्थि णेरइया' सन्ति नैयिका =नरकनिवासिन सन्ति, 'अत्यि तिरिक्खजोणिया' सन्ति तिर्यग्योनिका , 'तिरिक्खजोणिणीओ' सन्ति तिर्यग्योनिजाता स्त्रिय , नरकनैरयिकादीनामह-याना सत्तास्थापनाय कथनम् । 'अस्थि माया अस्थि पिता' अस्ति माता अस्ति पिता, कचिदेव मन्यन्ते-मातापितव्यवहारो न'वास्तनिक, यतो हि-यूकाकृमिगण्टोलकादय स्वजनक विनैनोपद्यन्ते, तन्मत. निराकरणार्थमिद भगरता प्रोक्तमिति भाव । 'अयि रिसओ' सन्ति झपय --रूपय = अतीन्द्रियाऽर्थदृष्टार सन्ति । केचित्वेव वदन्ति--अतीन्द्रियार्थस्य द्रष्टारो न मभवन्ति, नरगा अस्थि गेस्टया अस्थि तिरिक्खनोणिया तिरिक्वजोगिणीओ) अनेक विध नरकस्थान हे और उनम रहने वाले जीव नारकी हे, तिर्यचयोनि के जीव हे. तिर्यच योनि मे उत्पन्न तिर्यञ्च स्त्रिया भी है। नरक एव नारकी आदि अदृश्य जीवों का जो कयन किया है वह उनकी सत्ता प्रदर्शित करने के लिये जानना चाहिये । (अस्थि माया अत्थि पिया) माता है, पिता है । कोई २ ऐसे मानते है कि माता-पिता यह व्यवहार वास्तविक नहीं है, क्यों कि ऐसे भी कई जीव है कि जो माता-पिता के विना भी उत्पन्न होते रहते है। उनकी दम कल्पना को निराकरण करने के लिये भगवान् ने यह कहा है। (अस्थि रिसओ) अतीन्द्रिय अर्थ को देखने वाले कपिजन है । इस कथन का तात्पर्य यह है कि बहुत से वादी ऐसा कहते है कि अतीन्द्रियार्थ द्रष्टा कोई नहा है, कारण कि पुस्प रागादि से कभी निर्मुक्त नहीं हो सकता । अत जैसे हमलोग रागादिम्पन्न होने से अतीन्द्रियार्थ के नए नये (अत्थि नरगा अत्यि णेरइया अस्थि तिरिस्खजोणिया तिरिक्ख जोणिणीओ) गन.विध न२४ थान छ, भने तमा २वावामा १ ना२४ છે તિર્ય ચનિના જીવ છે, તિર્યચનિમા ઉત્પન્ન તિર્થં ચ સ્ત્રીઓ પણ છે નરક તેમજ નારકી આદિ અદશ્ય જીવોનુ જે કથન કર્યું છે તે તેમની સત્તા महर्शित २१। भाटे चु ये (अस्थि माया अस्थि पिया) भात પિતા છે કોઈ કેઇ એમ માને છે કે માતા પિતા એ વ્યવહાર વાસ્તવિક નથી, કેમકે એવા પણ કેટલાય જ છે કે જે માતાપિતા વિના પણ ઉત્પન્ન થતા રહે છે તેમની આ કલ્પનાનું નિરાકરણ કરવા માટે ભગવાને એમ કહ્યું छ तथा (अत्थि रिसओ) मतीद्रिय मथ ने नवापामा नि छ । ४५ નનુ તાત્પર્ય એ છે કે ઘણા વાદિઓ એમ કહે છે કે અતીન્દ્રિય-અર્થ-દ્રષ્ટા કેઈ છે નહિ, કારણ કે પુરુષ રાગાદિથી કદી પણ નિમુક્ત થઈ શકતું નથી, Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ - - भोपपातिकमरे पुस्पाणा रागानिदोषयत्वात् अम्मान्वित इति, तमतनिरासार्थमिदमुक्तम् । 'अस्यि देवा अस्थि देवलोया' सति देवा -भानप यादय , सन्ति देवलोका -देवाना लोकास्थानानि सौधर्मादीनि । यत्या-न सति देयादयोऽप्रयक्ष वात् इति, तन्मतत्र्युतासार्थमिदमुक्तम्, 'अस्थि सिद्धी अत्यि सिद्धा' अस्ति सिद्धि , सन्ति सिद्धा-सिद्धि =सिध्यन्तिनिष्टिता भवन्ति यस्या सा तया, सिदिमन्त मिदा । 'परिणिबाणे' परिनिर्वाणमस्ति-परिनिर्वाण-कर्मरतसतापोपगाल्या मुस्वचम् । नि शेषन सफलकर्मक्षयगन्यमात्यन्तिक सुखमित्यर्थ । 'अस्थि परिणियुया' मन्ति परिनिर्वृता अपुनरावृत्या सकलसन्तापदर्शक नहीं हो सकते है उसी प्रकार कोई भी व्यक्ति रागादिक से विशिष्ट होने के कारण अतान्द्रियार्थ पदार्थो का द्रष्टा नहीं हो सकता है । इस प्रकार जो यह मीमासकों की मान्यता है उस मान्यता को दूर करने के लिये अतान्द्रियार्थ द्रष्टा की यह स्थापना की है । (अत्थि देवा अत्थि देवलोया) पुण्यजनित अलौकिक क्रीडा का जो अनुभव करते हैं उनका नाम देव है । वे देव भवनपति आदि के भेद से ४ प्रकार के हैं। इनके रहने के स्थान भी है । जिहे स्वर्ग या देवलोक कहते है । जो यह कहते हैं कि अप्रत्यक्ष होने से देवादिक नहीं है उनके इस मन का निराकरण करने के लिये देवों का स्वरूप कहा है । (अस्थि सिद्धी अस्थि सिद्धा) सिद्धि है, और सिद्रि जिन्हे प्राप्त हो चुकी है ऐसे सिद्ध भी हैं। (परिणियाणे) परिनिर्वाग-मुक्ति है। कर्मकृत सन्ताप की उपशाति से उद्भूत सुस्थत्व का नाम परिनिवाग हे । समस्त कर्मों के अयत विनाश से जन्य जो आत्यतिक सुख है उसका नाम सुस्थत्व है । (अत्थि परिणिन्युया) अपुनरावृत्तिविशिष्ट होने से सकल मताप આથી જેમ આપણે રાગ આદિ સ પન્ન હોવાથી અતી ક્રિયાર્થના દર્શક બની શકતા નથી તે પ્રકારે કોઈ પણ વ્યક્તિ રાગ આદિકોથી વિશિષ્ટ હોવાના કારણે અતી ક્રિય પદાર્થોના દ્રષ્ટા બની શકે નહિ એવી જે આ મીમાંસકાના માન્યતા છે તે માન્યતાને દૂર કરવાને માટે અતીયિાર્થ દ્રષ્ટાની આ સ્થાપના ४श (अस्थि देना अस्थि देवलोया) पुण्यनित मी४ि सना मनु ભવ કરે છે તેમનું નામ દેવ છે તે દેવે ભવનપતિ અદિના ભેદથી ૪ પ્રકા રના છે તેમના રહેવાના લોક એટલે સ્થાન પણ છે જે એમ કહે છે કે અપ્રત્યક્ષ હોવાથી દેવ આદિક નથી તેમના આ મતનું નિરાકરણ કરવા भाट वानु २१३५ उखु छ ( अत्थि सिद्धी अत्थि सिद्धा) सिद्धि छ અને સિદ્ધિ જેને પ્રાપ્ત–થઇ ગઈ છે એવા સિદ્ધ પણ છે (જરિ शिव्याणे) परिनिर्वाणु-भुति छ भतरसता तनी संपतिथी उत्पन्न થત જે સુસ્થત્વ તેનું નામ પરિનિર્વાણુ છે સમસ્ત કર્મોના અત્યંત વિના शथा पहा तु मायति सुभ छ तेनु नाम सुस्थान के अत्यि परि Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- पोयूपषिणो-टीका ख ५६ भगवती धर्मदेशना १ पाणाइवाए, २ मुसावाए, ३ अदिपणादाणे. ४ कन्गपपरिवर्जिता । 'अत्यि पाणाइवाए' अस्ति प्राणातिपात -प्राणा उच्छ्वासनि श्वासादयन्तेरामतिपात नियोजन-मागातिगत -प्रागिहिंसनमिति यावत् , तदुक्तम्--- पञ्चेन्द्रियाणि विविध चल च, उच्वासनि श्वासमयान्यदायु । प्राणा दशैले भगवद्विरुक्ता-रतेपा वियोगीकरण तु हिंसा ॥ १ ॥ इति । 'अत्यि मुसाबाए' अस्ति मृपावाद -मृषा-मिथ्या, वाढ वदनम्-असद्भतार्थम्भाषणमिति यावत् । 'अदिग्णादाणे अदत्ताऽऽतानमस्ति-न दत्तमहत्तम्-देवगुरुभूएगायापतिसाधर्मिकैरननुजात, तस्याऽऽदान-अहणम् । 'अयि मेहुणे' अस्ति मैथुनम्-मिथुनेन-स्त्रीपुसान्या निवृत्त कर्म मैथुन-कामक्रीडेयर्थ । 'अत्यि परिग्गहे' अस्ति परिग्रह --परिके कलापों से परिवर्जित ऐसे जीव है । (अस्थि पाणाइवाए) प्रागिहिंसा पाप है, उच्छ्वासनि श्वास आदि प्राग है, इनका अतिपात करना अर्थात् प्राणिया के प्राण का वियोग करना प्रागातिपात है। कहा मी है... "पञ्चेन्द्रियाणि त्रिविध वल च उच्छ्वासनि श्वासमथान्यदायुः । पाणा दशैते भगवद्भिरुक्तास्तेपा वियोगीकरण तु हिंसा ।। शास्त्रों में पाच इन्द्रिय, तीन घल, आयु, श्वासोच्छमाम उमप्रकार से ये १० प्राग भगवानने बतलाये है। इनका वियोग करना इसका नाम हिंसा है। (अस्थि मुसाबाए) मृपावाद पाप है । असद्भूत अर्थ का कथन करना इसका नाम मृपावाद है । (अदिण्णादाणे) अदत्तादान पाप है । देव, गुरु, भूप, गाथापति एव साधर्मिक आदि की कोई वस्तु को उनकी आना के विना लेना सो अदत्तादान है। (अस्थि मेहुणे) मैथुन पाप हैं । (अस्थि परिग्गडे) परिग्रह भी पाप है । जो मूर्छापूर्वक ग्रहण किया जाय उसका नाम परिग्रह है, अर्थात् णिवुया) मधुनरावृत्तिविशिष्ट वाथी तमाम मतापना सापायी पश्विनित थे छ (अस्थि पाणाइए) प्रापिहिमा पा५ छ वामनिवास આદિ પ્રાણ છે તેને અતિપાત કરે અર્થાત પ્રાણિઓને પ્રાણથી વિયોગ કર પ્રાણાતિપાત છે કહ્યું પણ છે – “पञ्चेन्द्रियाणि विविध पल च उच्छवासनि श्वासमथान्यदायुः । प्राणा दशैते भगवद्भिरुतास्तेपा वियोगीकरण तु हिंमा ।। શાસ્ત્રોમાં પાચ ઈદ્રિય, ત્રણ બલ, આયુ, શ્વાસે છુવાસ આ પ્રકારથી ૧૦ प्राथु लगवाने मताच्या छ तना लिया ४२वा तेनु नाममा छ (अस्थि मुसापाए) भृपापा ५४५ छ २४सहभूत मनु उ4न ४२७ ते भृपावाद छ (अदिण्णादाणे) महत्तहान पा५ छ ३५, शुभ, भूप, मायापति तेभर साथ ર્મિક આદિની કઈ વસ્તુને તેમની આજ્ઞા વગર લેવી તે અદત્તાદાન છે Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औषपातिक परिग्गहे, ६ अस्थि कोहे. ७ माणे. ८ माया, ९ लोभे, अस्थि सर्वतो भावेन गृह्यते जन्म गरामरगादिदुरीष्टयते आमा अननेनि, यद्वा परिगृपते-सम् छ स्वीक्रियत इति । 'अस्थि कोहे माणे माया लोमे अस्ति क्रोध , अस्ति मान , अस्ति माया, अस्ति लोभ । मोर कोधमोहनीय युदयेन वपरनित्तप्रचलनम्पविकृतिजनक आमन परिणामपिशेप 1 मान =स्वापेक्षयाऽन्यहीन मन्यते जनो येन म , मानमोहनी योदयसमुथोऽन्यहीनतामननलमग आमन परिगामविशेष । माया-मायामोहनीयोदयसमुथा जीवस्य पञ्चनपरिणतिविशेष -स्वपख्यामोहोपादकमाचरणमिति यावत् । लोभा-गेमप्रकृत्युदयवशात् द्रव्यायमिलापलक्षगो जीवस्य परिगतिविशेष । 'अस्थि जाब मिच्छादसजन्म, जरा एव मरगादि दु सौ से जिसके द्वाग आमा येष्टित होता है उसका नाम परिग्रह है। (ममेदं ) भाव का नाम मूछा है । ('अत्थि कोहे माणे माया लोभे) ये चार कपाय हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ । कोपमोहनीय प्रकृति के उदय से स्व और पर की चित्तवृत्ति में प्रज्वलन रूप निकारजनक जो आमा का परिणामविशेष होता है, उसका नाम क्रोध है। मानमोहनीय के उदय से अन्य को हीन समझने का जो आत्मा का परिणामविशेष होता है वह मान है । इसके सद्भाव मे जीव अपनी अपेक्षा अप जन को हीन समझता है । मायामोहनीय के उदय से पर को वचित करने का जो आत्मा का परिणामविशेप होता है वह माया है। इसके वश में रहा हुआ जीव स्व और पर का व्यामोहक आचरण किया करता है। लोभप्रकृति के उदय के वश से द्रव्यादिक को चाहने की जो आत्मा की परिगतिविशेप है उसका नाम लोभ है। (अस्थि मेहुणे) मैथुन पा५ छे (अत्थि परिग्गहे) परियड पर पा५ छ, रे મૂછ પૂર્વક પ્રહણ કરાય તેનું નામ પરિગ્રહ છે, અર્થાત જન્મ જરા તેમજ મરણ આદિ દુ ખેથી માત્મા જેના દ્વારા વેષ્ટિત થઈ (વી ટળાઈ) જાય છે तेनु नाम परियड छे भू मापनु नाम पशु परियड (ममेद) लावन नाम भूछी छे (अत्थि कोहे माणे माया लोभे) मा यार ४पाय छे-ध, भान, માયા અને લોભ કોમેહનીય પ્રકૃતિના ઉદયથી સ્વ અને પરની ચિત્તવૃત્તિમાં પ્રજવલનરૂપ વિકારજનક જે આત્માનું પરિણામ-વિશેષ હોય છે તેનું નામ ક્રોધ છે માન-મોહનીયના ઉદયથી એક બીજાને હીન સમજવાનું જે આત્માનું પરિણામવિશેષ થાય છે તે ભાન છે આના સભાવમાં જીવ પિતાના કરતા બીજા માણસને હીન સમજે છે માયામહનીયના ઉદયથી બીજાની વચના કરવાનું જે આત્માનું પરિણામવિશેષ થાય છે તે માયા છે, તેને વશ થયેલ છવ વ તથા પરનું વ્યાહક આચરણ કર્યા કરે છે Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोsपिणी टोकास ५६ भगवतो धर्मदेशना , जाव मिच्छादंसणस । अस्थि पाणाडवायवेरमणे मुसावायणसल्ले' अस्ति यावत् मिथ्यादर्शनाच्यम्, अन यावच्छन्दात्- 'पेज्जे, दोसे, कलहे, अभावणे, पेणे, परपरिवार, अरहरई, मायामोसे ' इत्येषा स्ग्रह | अस्ति प्रेम-प्रेम–राग – पुत्रकलत्रादिष्वभिष्वङ्ग परिणामनिशेष । ' अत्थि ढोसे' अस्ति द्वेष - द्वेष =आत्मनोऽप्रातिलक्षणपरिणाम, अस्ति कलह - कल = आनन्दस्त हन्तीति कल्ह - नाचिक द्वन्द्व, 'अस्थि अभावाणे' अस्य यार यानम् - अभ्याख्यानम् = असदोपारोपणम् । 'अत्थि पेणे' अम्ति पैशुन्यम् - पैशुन्य = प्रच्छन्नतया परदोषाऽऽविष्करणम्, 'अस्थि परपरिवाए ' अस्ति परपरिवाद पंग्मा काक्यादिभिर्दापकथनम्, अस्थि अरइरई 'स्त अरतिरती-अरति =अरतिमोहन।योदयाचित्तोद्वेगरूप आमन परिणतिनिशेष, रनि: (जाव मिच्छा सणसले) यात मिथ्यादर्शन आदि अन्य है । यहा " यावत् " शब्द से " पेजे, दोसे, कलहे, अभक्खाणे, पेसुण्णे, परपरिवाए, अरइरई, मायामोसे " इस पाठ का संग्रह हुआ है । पुत्रकल्यादिकों में जो आसक्तिरूप परिणामनिशेष है उसका नाम प्रेम है | अप्रीतिलक्षण जो आमाका परिणाम है वह द्वेप है | आनद जिससे नष्ट होता है उसका नाम कलह है | अमय दोपोका आगपण करना इसका नाम अभ्यारयान है । पीठ पाठे दूसरे के ढोपोको प्रकट करना इसका नाम पैशुन्य है । दूसरे की निंदा करना इसका नाम परपरिवाद है । अरति एव रति ये दोनों पाप है । अरतिमोहनीय के उदय होने से मयम के अन्दर जो चित्तोद्वेग होता है उसको 'अरति ' कहते है । सासारिक विषयों की अभिलाषा को 'रति' कहते है । कपटसहित मिथ्याभाषण करना इसका नाम मायामृषा લાભપ્રકૃતિના ઉદયને વશ થવાથી દ્રબ્યાદિકને ચાહવાની જે આત્માની પરિણતિविशेष छे तेनु नाम बोल छे (जान मिच्छादंसणसल्ले) यावत् भिथ्यादर्शनशदय छे सही "यावत्" शब्दथी " पेन्जे दोसे कलहे अभक्साणे पेसुण्णे परपरिवार अरडर मायामोसे આ પાઠના સગ્રહ કર્યો છે તેમા પુત્રકલત્ર આદિમા જે આસક્તિરૂપ પરિણામવિશેષ છે તેનુ નામ પ્રેમ છે અપ્રીતિલક્ષણુ જે આત્માનુ પરિણામ છે તે દ્વેષ છે આનદ જેનાથી નષ્ટ થાય છે તેનુ નામ કલહ છે, અને અસત્ય દોષનુ આરૈપણુ કરવુ તેનુ નામ અભ્યા ખ્યાન છે. ટાઇની ગેરહાજરીમા (પીઠપાછળ) તેના દાષા પ્રકટ કરવા તેનુ નામ પશુન્ય (ગાડી) છે ખીજાની નિંદા કરવી તેનુ નામ પરિવાદ છે અતિ તેમજ રતિ એ બન્ને પાપ છે અતિ-મેાહનીયના ઉદ્દય થવાથી भयभनी शहर ? यित्तने उद्वेग थाय छेतेने 'अति' हे मासारि/विध योनी अलिसापाने 'रति' जहे हे કપટવા [ ખ્યાભાષણ કરવુ તેનુ નામ " ४७ Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ औषपातिक वेरमणे आदिण्णादाणवेरमणे मेहुणवेरमणे परिग्गहवेरमणे जाव मिच्छादंसणसल्लविवेगे। सव्व अस्थिभावं अस्थित्ति वयइ, विपयाभिरचि । 'अस्थि मायामोसे ' अग्ति मायामृपा-मायया सह मृपा-मायामृषासकपटमिथ्याभाषणम्, 'मिराहसणसल्ले' मियानीगन्यम्-मिप्यादर्शन गन्यमिव, प्रतिक्षण विविधन्यथाविधायस्यात। 'अत्यि पाणाइवायरमणे मुसावायवेरमणे अदिण्णादाणवेरमणे मेहुणरमणे परिग्गहरमणे' अस्ति प्राणातिपातविग्मणम, मृपावादविरमणम्, अदत्तातानविरमणम् , मैथुनविग्मणम् , परिग्रहरिरमणम् । केपाश्चिन्मते प्राणातिपातादिविरमणस्यागायव प्रतिपादित तन्निरासायं तसत्ताऽभिधानम् । 'जाव मिच्छादसणसलरिवेगे' यापमिथ्यादर्शनगन्यविवेक -मिथ्यादर्शनगन्यस्य विवेक = पृथग्भाव , तस्मानिवृत्तिरित्यर्थ , सोऽप्यस्ति । ' सब अस्थिभावं अत्यित्ति वयइ' सर्वमस्तिभावमस्तीति वदति-सर्व मकरम् अस्तिभाव-सत्तारूपक्रियासहितो भाव =वस्तुसत्वम् है । तथा कुदेव कुगुरु कुधर्म में श्रद्धा रसना मिथ्यादर्शन है। अन्य की तरह प्रतिक्षण अत्यन्त दु सदायी होने के कारण यह मिथ्यादर्शन शन्य कहलाता है। (अत्थि पाणाइ वायवेरमणे परिग्गहवेरमणे जाव मिच्छादसणसल्लविवेगे) जो लोग हिंसादिक पाच पापों से विरक्त होने म अशक्यता प्रतिपादित करते हैं उनके लिये प्रभु कहते है कि ऐसी बात नहीं है, प्राणातिपात से जीव विरक्त होता है, मृपावाद से जीव विरक्त होता है, एव परिग्रह से जीव विरक्त होता है, यावत् मिथ्यादर्शनगन्य से भी जीव विरक्त होता है। (सन्न अत्थिभाव अस्थित्ति वयइ सच णस्थिभाव णत्थित्ति वयइ)" अस्ति" यह पद सब को "अस्ति" इस रूपसे कहता है और " नास्ति" यह पद समस्त भाव का 'मायामृपा' छ, भने हेर, शुरु, शुधर्ममा श्रद्धा २१वी ते मिथ्यानि छ, ते शयनी भा४ प्रतिक्षा महाया डावाथी 'मिध्यादर्शनशल्य' उपाय छ (अस्थि पाणाइवायवेरमणे, मुसावायवेरमणे, अदिण्णादाणवेरमणे, मेहुणवेरमणे, परिगहवेरमणे, जाव मिन्छादसणसल्लविवेगे) Paसा मा पाय पापाथा વિરક્ત હેવામાં અશક્યતા પ્રતિપાદિત કરે છે તેમના માટે પ્રભુ કહે છે કે એવી વાત કઈ છે નહિ પ્રાણુતિપાતથી જીવ વિરક્ત થાય છે, મૃષાવાદથી જીવ વિરક્ત થાય છે, અદત્તાદાનથી જીવ વિરક્ત થાય છે, મૈથુનથી જીવ વિરક્ત થાય છે તેમજ પરિગ્રહથી જીવ વિરક્ત થાય છે, યાવત્ મિથ્યાદર્શનશલ્યથી पर वि२त याय (मय अस्थिभार अत्थित्ति वयइ सव्व स्थिभाव णस्थित्ति वयइ) "अस्ति" मे ५४ मधाने मस्ति () मे ३थे उछ, मन "नारित" मे ५४ Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी टीका व ५६ भगवतो धर्मदेशना - सव्वं णत्थिभावं णत्थित्ति वयड, सुचिण्णा कम्मा सुचिण्णफला भवति, दुचिणा कम्मा दुचिण्णफला भवंति, फुसड पुण्णपावे, 'जीनोऽस्त्यजीनोऽम्ति, पुण्यमस्ति, पापमस्ति' इत्यादिरूपेण वस्तुयथार्थम्वरूपनिरूपणमिति यावत, तम् 'अस्ति' इति कृत्वा वढति, यथा जीवत्वे सति जीव, अजीनत्वे सति अजीव इत्यादि । 'सव्व णत्थिभाव णत्यित्ति प्रयइ ' सर्व नाम्तिभाव नास्ताति वदतिसर्वं नास्तिभानम्-अजीववे सति अजीन, अपटले सति अपट इत्येवरूपो भागो नास्ति - भावस्त नास्तीतिपदेन वति । ' सुचिष्णा कम्मा सुचिष्णफला भवति' सुचीर्णानि कर्माणि सुचीर्णफलानि भवन्ति - सुचार्णानि - मु= प्रशस्ततया चीर्णानि पादितानि कर्माणि = दानादीनि सुचीर्णफलानि सुचाणं फल येपा तानि, सुचरितमूलकवात् पुण्यकर्म नन्धाद्रिफलनन्तीत्यर्थ । ' दुचिण्णा कम्मा दुचिष्णफला भवति दुखीर्णानि कर्माणि दुखीर्णफलानि भवन्ति दुखीर्णानि कुसितानी यर्य, दुखीर्णफलानि कुत्सित फलवन्ति-नरक - निगोद्रादिगमनादिफलदायकानि भवन्तीत्यर्थ | 'फुसइ पुण्णपाने' स्पृगति " नास्ति " इस रूप से कहता है । स्वसत्तारूप किया से युक्त का नाम अस्तिभाव है एन पररूप से असत्ता का नाम नास्तिभाव है । मतलन इसका यह है कि प्रत्येक पदार्थ स्व- द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से ही अस्तित्यविशिष्ट है और पर- द्रव्य, क्षेत्र, काल, भान की अपेक्षा प्रत्येक क्रय नास्ति निष्टि है। इससे स्याद्वाद सिद्धान्त का कथन किया गया है | ( सुचिण्णा कम्मा सुचिण्णफला भवति) प्रास्तभावों से म्पादित दानादिक सत्कर्म पुण्य कर्म के जन्म करनेवाले होते हे । पुण्यकर्म का बन कराना ही इनका फल माना गया है। ( दुचिण्णा कम्प्रा दुचिष्णफला भवति) कुसितभावों से किये कार्य कुसित-नरकनिगोदादि- फलवाले होते है, अर्थात् कुत्सित कर्मों को करनेवाला અધા ભાવન નાસ્તિ (નથી) એ રૂપે કહે છે શ્વસત્તારૂપ ક્રિયાથી યુક્તનુ નામ અતિ-ભાવ છે તેમજ પરરૂપથી અમાનુ નામ નામ્તિભાવ છે આને મતલબ એ છે કે પ્રત્યેક પદાર્થ સ્વ-દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, ઢાલ તયા ભાવની અપેક્ષાથી જ અસ્તિત્વવિશિષ્ટ છે અને પર-દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાલ અને ભાવની અપેક્ષા તેજ પદાથૅ નાસ્તિત્વવિશિષ્ટ છે. આથી યાાદસિદ્વાંતનું કથન કરवाभा भावे छे (सुचिण्णा कम्मा सुचिण्णफला भनंति) प्रशस्तलापोथी सपाદિત દાન આદિ સત્કર્માં પુણ્ય તેમનુ બંધ કરવાવાળા થાય છે પુણ્યના અધ કરવા એજ એનુ ફળ કહેવામા આવ્યુ (दुचिण्णा कम्मा दुचिण्णफला अवति) मुत्सित लावोथी रेडा मुत्सित-नर- निगोह याहि इवाजा थाय छे, 1 ܕ ४५९ Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओपपातिकको - - - - - - - - पञ्चायति जीवा, सफले कहाणपावए । धम्ममाइक्खड-इणमेव पुण्यपापे-जीव मुचरितक्रियाभि पुण्यम् , अमुचरितक्रियाभि पाप च स्पृगतिबध्नानि । 'पचायति जीवा' प्रयायाति जीवातेनर स्पृष्टेन-ब-शुभाऽशुभकर्मस तानन पुनर्जीवा उत्पद्यते, 'भस्मीभूतस्य देहस्य पुनगगमन कुन'-इति नास्तिकवचन न स यम् इति भाव । तत उत्पत्ती सयाम् 'सफले कल्लाणपारा 'सा कन्यागपापके-सौभाग्यदोर्भाग्यहतुत्वात् पुण्य पापश्च शुभाशुभ कर्म सफल भवतीति गार | प्रकागतग्गापि धमा पदेश भगवान् ददाति, तदेव -प्रत्याह-धम्ममाटरसद' इत्यारभ्य 'पडिरूव प्रागा नरकनिगोटाटिक का पात्र बनता है। (फुसड पुण्गपावे) जान सुचरित किया द्वारा पुण्य एव असुचरित क्रियाओं द्वारा पाप का वध करनेवाग होता है। (पञ्चायात जीवा) शुभाशुभ कर्मों से बद्ध हुआ जीव इस सार म जन्ममरण के दुसी को प्राप्त फरता है, अथात् जनतक कर्म-तति जीन में अस्तित्वविशिष्ट रहती हे-जीन कर्मा से जबतक बधा रहता है तबतक ही वह मसार मे उपन्न होता रहता है। इस कथन से नास्तिक के इस वाद का कि-" भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमन कुत ” अर्थात् जब दह भस्मीभूत हो जाता है तो पुन उसकी प्रामि नहीं होती है-निराकरण हो जाता है। (सफले कल्लाणपावए) सौभाग्य एष दौर्भाग्य के हेतु होने से पुण्य और पाप सफल है । प्रकारान्तर से भी प्रभुने श्रुतचारित रूप धर्म का उपदेश दिया-इस बात को सूत्रकार-'धम्ममाइक्खइ' से लेकर 'पडिरूचे' यहाँ तक के मूलपाठ से प्रदर्शित करते कुत्सित भी ४२वावा प्राणी न२४-निगाह महिना पात्र मने छ (फुमझ पुण्णपावे) ७१ सुखरित लिया। दारा पुष्य तम मसुधारत लिया। द्वारा पासना ५५ ४२वा थाय छ (पन्चायति जीवा) शुभाशुम थी था એલા જીવ આ સંસારમાં જન્મ-મરણના દુ ખાને પ્રાપ્ત કરે છે અથાતું જ્યાં સુધી તમસ તતિ જીવમા અસ્તિત્વવિશિષ્ટ રહેતી હોય છે-જીવ જ્યા સુધી કર્મોથી બધાયેલ રહે છે ત્યા સુધી જ તે સ સારમાં ઉત્પન્ન થયા કરે છે मा यी नातिनी यो पा "भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमन कुत " અર્થાત્ જ્યારે દેહ ભસ્મીભૂત થઈ જાય છે તે પછી વળી ફરી તેની પ્રાપ્તિ थती नथी सानु नि।४२५३ २४ तय छ (सफले कल्लाणपावए) भोलाज्य તેમજ દૌર્ભાગ્યના હેતુભૂત હોવાના કારણે પુણ્ય અને પાપ સફળ (ફળ આપનારા) છે. બીજી રીતે પણ પ્રભુએ શ્રુતચારિત્રરૂપ ધમને ઉપદેશ આપે–એ पातन सूत्रधार-धम्ममाइक्खई'थी सईने -पडिलवे' मी सुधीना भूगा Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोषयपिणो-टोका स .६ भगयतो धर्मदेशना ४६१ णिग्गंथे पाव्यणे सच्चे अणुत्तरे केवदिए ससुद्धे पडिपुण्णे णेयाइत्यन्तेन ग्रन्थेन । 'धम्ममाडक्सइ' धर्ममा याति-'इणमेव णिग्गंथे पावयणे सचे' ददमेव नम्रन्थ प्रवचन मयम्-इद प्रयतया विद्यमान, नेप्रे य-निम्रन्याना व्यभावप्रन्थिरहिताना “यमिना मम्बन्धि प्रवचनम् आगम , सत्य-मट्भ्यो हित वास्तविकञ्च । 'अणुत्तरे' अनुत्तरम्-नास्युत्तर यस्मात , नास्मा प्रधानतममन्यदस्तीति भाव , केवलिए' कैलिफ-केवलिप्रणीतम्-अद्वितीय वा, 'समुद्धे मशुद्रम् कपादिभि शुद्र सुवर्णमिव निदोषम्, 'पडिपुण्णे' प्रतिपूर्णम्-सर्वथा समग्र-मूत्रापेक्षया मानाविन्द्वादिमि , अर्थापेक्षया चाकाङ्क्षाऽव्याहागदिभिर्वर्जितम् , 'णेयाउए' नैयायिकम् न्यायानुगत प्रमाणाऽवाचितम्, 'सलमत्तणे' अन्यकर्तनम् मायादिगन्यच्छेदनक्षमम्-तद्भावभावितानां है। 'पम्माटम्सट' भगनान न प्रफागन्तर से भी धर्मोपदेश किया। जैसे-(णमेव गिग्गथे पावयणे सच्चे ) प्रयक्षतया विद्यमान यह निग्रन्या-द्रव्य एव भावरूप ग्रन्थि से रहित स्यमियों का प्रवचन-आगम स य-भत्र्यों का हितकारक एव यथार्थ है। (अणुत्तरे ) यह अनुनर हे-उससे उत्तर-प्रधान और दूसरा कोई नहा है । ( केवलिए) कारण कि यह केवलनानी द्वारा प्रगीत हुआ है, इसलिये यह अद्वितीय है। (संसुद्धे) कपादिक द्वारा शुद्ध किये हुए सोने के समान यह शुद्ध है। (पडिपुण्णे) यह सर्वथा प्रतिपूर्ण है, न तो मूत्र की अपेक्षा से इसमें माना एव पिंदु आदि के अयाहार की आवश्यकता है और न अर्थ की अपेक्षा से टसमे आकाक्षा आदि के अव्याहार को आवश्यकता है, अथात् सर प्रकार से यह पूर्ण है। (णेयाउए ) म भगनपदिष्ट आगम में किसी भी प्रमाग से बाबा नहीं आती है। (सलकत्तणे) मायामिथ्याव एव निदान शयों का द्वा। महशित २ छ 'धम्ममाइक्सई' लगवाने प्रगती पy धपिश ४. भ. (डगमेन णिग्गये पारयणे सन्चे) प्रत्यक्षतया (ननी मामे) વિદ્યમાન (મજુદ) આ નિર્ગ-દ્રવ્ય તેમજ ભાવ રૂ૫ ગ્રથિી રહિત મય મીઓના પ્રવચન-આગમ સત્ય-ભવ્યોને માટે હિતકારક તેમજ યથાર્થ છે (अणुत्तरे) मा अनुत्तर में मानाथी उत्तर-प्रधान (भुज्य) पोन std नथे (कपलिण) ४२१ 3 2 उपशानी | eीत थयेलु (श्याम) छ ते भाटे २मा मलिताय छ (ससुद्धे) पाहि १२॥ शुद्ध ४२ मोना ने ते शुद्ध छ (पडिपुण्णे) सहा परिपू -सनी अपेक्षा तेभा માત્રા તેમજ બિ૬ આદિના અધ્યાહારની આવશ્યક્તા નથી અને અર્થની અપે ક્ષાથી તેમાં આવાણા આદિના અધ્યાહારની પણ આવશ્યક્તા નથી તમામ પ્રકારે ये पूछ (णेयाउए) मा भगप-पटि मागममा आई पत्र प्रभाथा Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૨ भोपपातिक उए सहकत्तणे सिद्धिमग्गे मुत्तिमग्गे णिज्जाणमग्गे अवितहमविसंधि सव्वदुक्खप्पहीणमग्गे इहट्टिया जीवा सिज्यंति मंत भावाच्या पायातीति । 'सिद्धिमग्गे ' मिदिमार्ग - सिद्धि तकृत्यता-तस्या मार्ग= उपाय, 'मुत्तिमग्गे' मुक्तिमार्ग= सलफर्मनियोगम्य तु 'णिव्वाणमग्गे ' निर्वाणमार्ग –निर्वागस्य=सकलकर्मक्षयजन्यस्य पारमार्थिकमुपस्य मार्ग, 'णिज्जाणमग्गे ' निर्याणमार्ग –निर्यागम्=अपुनरावृत्या सारात् प्रस्थान तस्य मार्ग, 'अवित ' अवितथम् - वितथ= मिथ्या तद्विपरीत- त्रिकालाबाधितमित्यर्थ । ' अविसंधि ' अविसन्धिअव्यवच्छिन्न-न फद्राचिदपि निछेमुपगतम् । 'सव्यदुक्खप्पडीणमग्गे ' सर्वदु स्वप्रहाणमार्ग – सनाणि=जन्ममरणादीनि दु सानि प्रहीगानि यत्र स सर्वदु खप्रहीगो मोक्षस्तस्य कर्त्तन (छेदन) इसी आगम से होता है । (सिद्धिमग्गे ) यह आगम ही सिद्धि-कृत कृत्यता का एक मार्ग है। (मुत्तिमग्गे) समस्त कर्मों के क्षय का यही एक उपाय है। ( गिव्वाणमग्गे) समस्त कर्मों के क्षय से उद्भूत पारमार्थिक सुख का यही एक रास्ता है । ( गिज्जाणमग्गे ) मसार में जान का पुन आगमन न हो इस रूप से जो जीव का ससार से प्रस्थान होता है उसका प्रधान कारण एक यही आगम है आगम त्रिकाल मे भी कुतर्कों द्वारा बाधित नहीं है । ( अविसधि ) अपेक्षा से न इसका कभी विच्छेद होता है, और न कभी विच्छेद होगा । (सत्रदुक्खपहीणमग्गे) समस्त दुयो का जिसमे सर्वथा अभाव है ऐसे मोक्ष का यही एक उत्तम मार्ग है। जिस लिये यह प्रभु द्वारा प्रतिपादित आगम पूर्वोक्त प्रकार से इन सद्गुगी । ( अवितह) यह महाविदेह क्षेत्र की जाधा भावती नथी (सल्लकत्तणे) भाया, भिथ्यात्व तेभन निहान शब्योना उर्तन (छेन) या भागभथी थाय छे (सिद्धिमग्गे) या भागभन्न सिद्धि-तनृत्यताना भेड भार्ग छे ( मुत्तिमग्गे) समस्त भेना क्षयने या ४ उपाय छे (णिव्वाणम) समस्त 8भना क्षयर्थी उत्पन्न थता पारमार्थिक सुमनो साथ भेड रस्तो हो ( णिज्जानमग्गे) ससारभा भवनु पुन आगमन न थाय એ રૂપથી જે જીવનુ સ સારથી પ્રસ્થાન થાય છે તેનુ પ્રધાન કારણ એક सार आगमछे (अवितह) मा मागभनशु अभा पशु उतने द्वारा भधित नथी (अविसधि) महाविदेह क्षेत्रनी अपेक्षाथी नथी मानो ही विश्छे थयो, नथी विच्छेद्द थातो भने नथी उढी विरह थवाना (सव्यदुत्सप्पहीणमग्गे ) સમસ્ત દુખાને જેમા અભાવ છે એવા મેક્ષને આ એક ઉત્તમ મા છે જેથી પ્રભુ દ્વારા પ્રતિપાદન કરેલુ આ આગમ પૂર્વોક્ત એવા સદ્ગુણેાથી યુક્ત Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६३ पीयूषधिणी-टीका सु ५६ भगवतो धर्मदेशना मुचंति परिणिव्वायंति सव्वदुक्खाणमंतं करेंति। एगचा पुण मार्ग , यत एव सद्गुणगुम्फित नैन्य प्रवचनम , अतण्च 'ट्ठिया जीवा सिझति' इह स्थिता जीरा सिध्यन्ति-इह-नैन्थप्रवचने स्थिता =गतदाराधका जीवा मिध्यन्ति= सिद्धिपद प्राप्नुवन्ति, अणिमादिसिद्धि वा 'बुमति' वुभ्यन्ते- कालज्ञानप्राप्न्या नि शेपविशेष जानन्ति, 'मुञ्चति' मुन्यन्ते भवोपमाहिगा कर्मणा निरगनष्टत्वात् , 'परिणि वायति' परिनिन्ति-कर्मजन्यसकलसन्तापरिरहात्, वक्तव्यसार वक्ति- सन्नदुस्वाणमंत करेंति' सर्वदु खानामन्त कुन्ति-सपा गारीरिकमानसिकाना न खानाम् अन्त-नाश कुर्वन्ति । 'एगचा पुण एगे भयतारो' एकार्चा पुनरेके भदन्ता - एकैव _ अर्चा: मविप्यन्ती मनुष्यतनुर्येपा ते एकार्चा सन्त , पुनके-केचिद् मढन्ता नैन्यप्रव से युक्त है । इसीलिये (दहद्विया जीवा सिझति) जो जीन दसकी आराधना म अपने जीवन का उत्सर्ग कर देते है वे नियमत सिद्धिपद के प्रापक होने हे, (अणिमादिसिद्धिं वा) अथवा इस लोक में अणिमाद्रि सिद्धि के धारक होते है। (बुज्झति) केवलज्ञान की प्राप्ति से सभी वस्तुओं को जानते है । (मुचति) भवोपग्राहिकर्मी का सम्पूर्णरूप से नाश होने के कारण वे मुक्त हो जाते है। (परिणिवायति ) कर्मजन्य समस्त ताप के विरह से वे शीतलीभूत हो जाते है। (सबदुक्खाणमत करेंति) गारारिक एव मानसिक समस्त दु सों का वे ही अन्त करनेवाले होते है। (एगचा पुण एगे भयंतारो) इस निग्रन्थ प्रवचन की आराधना करनेवाले भव्य जीव वर्तमान शरीर के छूट जाने के बाद मात्र एक बार मनुष्य गरीर धारण करते है, अथात् वे एकावनारी होते हैं। वे भव्य जीर इस गरीर के छुटने पर (पुवरम्मायसेसेण) पूर्वकर्मों के बॉकी छ तेथी र (इहटिया जीवा सिझति) 2 सानी सपनामा पोताना જીવનને ઉત્સગ કરી દે છે તેઓ નિયમત -નિશ્ચયથી–સિદ્ધિપદને પ્રાપ્ત થાય छ, (अणिमादिसिद्धि वा) ॥ ४मा मणिमाहि-सिद्धिन पामे छ (बुझंति) BAnननी प्रास्तथी मधी तुम तो छ (मुन्चति) सोपवाडि भनि। स पृष्यं ३ नाश यवाना वारशे तेसो भुत 25 गयछ (परिणिन्यायति) उभજન્ય નમસ્ત મ તાપના વિરહથી ત્યાગથી તેઓ તિલીભૂત બની જાય છે (सव्वदुक्खाणमत करेति) शारीरि४ तेभर माननिमन्त माना तेथे। मत ४२वापामा डाय छ (एगच्चा पुण एगे भयतारो) मा निन्य अपयननी २tધના કરવાવાળા ભવ્ય જીવ વર્તમાન શરીર હટી જવા બાદ માત્ર એકવાર મનુષ્ય શરીરને ધારણ કરે છે અર્થાત્ તેઓ એકાવતારી થાય છે તે ભવ્ય Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૬૨ ओपपातिकत्रे उए सहकरणे सिद्धिमग्गे मुत्तिमग्गे णिज्ञाणमग्गे अवितहमविसंधि सव्वदुक्खप्पहीणमग्गे इहट्टिया जीवा सिज्यंति बुज्नंति भावगन्याच्छेदमायातीति । 'सिद्धिमग्गे ' सिद्धिमार्ग - मिद्धि = कृतकृत्यता तस्या मार्ग= उपाय, 'मुत्तिमग्गे' मुक्तिमार्ग=सककर्म नियोगम्य तु 'णिव्वाणमग्गे ' निर्वाणमार्ग – नियागस्य=सकलकर्मयजन्यस्य पारमार्थिकस्य मार्ग, 'णिज्जाणमग्गे ' निर्याणमार्ग –निर्यागम्=अपुनरावृत्या मसारात प्रस्थान तस्य मार्ग, 'अवित' अवितथम्-वितथ=मिध्या तद्विपरीत- त्रिकालाबाधितमित्यर्थ । ' अविसधि ' अविसधि= अत्र्यवच्छिन्न-न कदाचिदपि निछेदमुपगतम् । 'सव्वदुक्वप्पहीणमग्गे ' सर्वदु खप्रहीणमार्ग - सर्वाणि जन्ममरणानानि दुगानि प्रहीगानि यत्र स सर्वदु खप्रहीगो मोक्षस्तस्य कर्त्तन (छेदन) इसी आगम से होता है । (सिद्धिमग्गे ) यह आगम ही सिद्धि-कृत कृव्यता का एक मार्ग हे। (मुत्तिमग्गे) समस्त कर्मों के क्षय का यही एक उपाय है। ( गिव्वाणमग्गे) समस्त कर्मों के क्षय से उद्भूत पारमार्थिक सुख का यही एक रास्ता है । (गिज्जाणमग्गे ) मसार में जीन का पुन आगमन न हो इस रूप से जो जीव का ससार से प्रस्थान होता है उसका प्रधान कारण एक यही आगम है । आगम त्रिकाल मे भी कुतर्कों द्वारा बाधित नहीं है । ( अविसधि ) अपेक्षा से न इसका कभी विच्छेद होता है, और न कभी विच्छेद होगा । (सव्त्र दुक्खीमग्गे) समस्त दुखा का जिसमें सर्वथा अभाव है ऐसे मोक्ष का यही एक उत्तम मार्ग है | जिस लिये यह प्रभु द्वारा प्रतिपादित आगम पूर्वोक्त प्रकार से इन सद्गुणों माधा भावती नथी (सल्लकत्तणे) भाया, मिथ्यात्व तेभन निहान शटयोना उर्तन (छेधन) या भागभथी थाय छे (सिद्धिमगो) आ आगमन सिद्धि-तूत्यतानो भेड भार्ग ( मुत्तिमग्गे) समस्त भेना क्षयनो या मे उपाय छे (णिव्वाणमग्गे) समस्त उर्भाना क्षयथी उत्पन्न थता पारमार्थिक सुमन सानोडस्तो ( णिज्जाणमग्गे) स सारभा भवनु पुन आगमन न थाय એ રૂપથી જે જીવનુ સ સારથી પ્રસ્થાન થાય છે તેનુ પ્રધાન કારણ એક आ आगम (अवितह) या मागभ भ जणभा पशु हुतों द्वारा धित नथी (अविसधि) भहाविदेह क्षेत्रनी अपेक्षाथी नथी मानो उही विस्छे थयो, नधी विरुद्धेह थातो भने नथी उही विस्छे थवानी ( सव्यदुक्स पहीणमग्गे ) ( अवितह ) यह महानिदेह क्षेत्र की સમસ્ત દુખાના જેમા અભાવ છે એવા મેાક્ષને આ એક ઉત્તમ માર્ગ છે જેથી પ્રભુ દ્વારા પ્રતિપાદન કરેલુ આ આગમ પૂર્વોક્ત એવા સદ્ગુણુાથી યુક્ત Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौषषिणी-टीका स ५६ भगवतो धर्मदेशना ४६३ मुच्चंति परिणिवायंति सबढक्खाणमंतं करेति। एगच्चा पुण मार्ग , यत एव सद्गुणगुम्फित नैर्ग्रन्थ प्रवचनम् , अतएव 'दहविया जीवा सिझति' इह स्थिता जीवा सिध्यन्ति-इह नम्रन्थप्रवचने स्थिता -एतदाराधका जीवा सिध्यन्ति सिद्धिपद प्राप्नुवन्ति, अणिमादिसिद्धिं वा 'बुज्झति' बुध्यन्ते-केवलज्ञानप्राप्त्या नि शेपविशेष जानन्ति, 'मुचति' मुच्यन्ते-भवोपग्राहिगा कर्भगा निरगनष्ट मात्, 'परिणिबायति' परिनिर्वान्ति-कर्मजन्यसकलसन्तापविरहात् , वक्तव्यसार वक्ति- सव्वदुक्खाणमत करेंति' सर्वदु खानामन्त कुन्ति-सपा शारीरिकमानसिकाना न खानाम् अन्त-नाश कुर्वन्ति । 'एगचा पुण एगे भयतारो' एकाचा पुनरेके भदन्ता - एफैव अर्चा भविष्यन्ती मनुष्यतनुर्येषा ते एकाएं सन्त , पुनरेके केचिद् भदन्ता नैर्ग्रन्थप्रवसे युक्त है । इसीलिये (इहविया जीवा सिझंति ) जो जीन टसकी आराधना मे अपने जीवन का उत्सर्ग कर देते है वे नियमत सिद्धिपद के प्रापक होते है, (अणिमादिसिद्धिं वा) अथवा इस लोक में अणिमादि सिद्धि के धारक होते है। (बुझंति) केवलज्ञान की प्राप्ति से सभी वस्तुओं को जानते है। (मुच्चति) भवोपग्राहिकमों का सम्पूर्णरूप से नाश होने के कारण वे मुक्त हो जाते है। (परिणिवायति) कर्मजन्य समस्त मताप के विरह से वे शीतलीभूत हो जाते है। (सम्बदुकावागमत करेंति) शारीरिक एव मानसिक समस्त दुखो का वे हा अन्त करनेवाल होते है। (एगचा पुण एगे भयंतारो) इस निर्ग्रन्थ प्रवचन की आराधना करनेवाले भव्य जीव वर्तमान शरीर के छूट जाने के बाद मात्र एक बार मनुष्य गरीर धारण करते है, अर्थात् वे एकारतारी होते है। वे भन्य जीव इस गरीर के छुटने पर (पुवाम्मावसेसेण) पूर्वकर्मी के बॉकी छे तथा ४ (इहड़िया जीवा सिज्झति) 2 4 1नी माराधनामा पाताना જીવનને ઉત્સર્ગ કરી દે છે તેઓ નિયમત –નિશ્ચયથી-સિદ્ધિપદને પ્રાપ્ત થાય छे, (अणिमादिसिद्धिं वा) मा मणिमाहि-सिद्धिने पामे छ (बुज्झति) माननी प्राप्तिथी मधी वस्तुमा त (मुन्चति) भाषाडि भनि। स पू ३पे नाश थवाना र तमो मुश्त थ य (परिणिव्यायति) उभજન્ય સમસ્ત સ તાપના વિરહથી (ત્યાગથી) તેઓ રાતલીભૂત બની જાય છે (सव्वदुक्खाणमत करेंति) शारीरि तभर भानमिड समस्त मोना तेसो गत ४२पा डाय छ (एगच्चा पुण एगे भयतारो) मा निन्य अपयननी मा२।ધના કરવાવાળા ભવ્ય જીવ વર્તમાન શરીર છૂટી જવા બાદ માત્ર એકવાર મનુષ્ય શરીરને ધારણ કરે છે અર્થાત તેઓ એકાવતારી થાય છે તે ભવ્ય - Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ औपपातिकको एगे भयंतारो पुठयकम्मावसेसेणं अण्णयग्सु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति, महड्ढिएसु जाव महासुरखेसु दूरंगइएसु चिरहिइएसु । ते गं तत्थ देवा भवंति-महिढिया जाव चिरचनस्याराधका भव्या , 'पुवाम्मारमेसेण' कमाऽयमपेग, 'अश्गयरेस देवलोएस देवताए उपपत्तारो भाति ' अन्यतमेपु देश्लोकपु देवरेनोपत्तारो भवन्ति, 'महड्डिएम जाव महासुखेमु दूरंगटएमु चिरदिइएम' मर्दिकेयु यारन्महामोर येपु-अत्र याव च्छब्दात्='महज्जुटएसु, महारटेमु, महायसैमु, महाणुभागेमु' इति दृग्यम् । प्राग्यारयातमेतत। दुग्गतिकैपु-अनुत्तरविमानादिषु चिस्थितिकेपु-चिग-बहुसागरापमा स्थितिर्येषु तेषु । ' ते ण तत्थ देवा भांति' ते सछ तर देवा भवन्ति, कीडगा देवा भवन्ता यत्राऽऽह-' महिहिया' महर्द्रिका =महद्भिः पन्ना , यानत्-'चिरट्ठिया' चिररहने के कारण (अण्णयरेसु देवलोएस देवताए उववत्तारो भवति महड्डिएमु जाव महासुरखेमु दूरंगहरसु चिरविइएस) महर्दिक-रिमान आदि महासम्पत्तिमाले, महाद्युतिकविविध रत्न आदि की महाकान्तिवाले, महानल-अयन्त स्थिर अर्थात् द्रव्यरूप से शाश्वत, महायशस्वी-शास्त्रों द्वारा प्रशसित, महानुभाग-महाप्रभावशाली, महासौरय-अत्यन्त सुख के निधानरूप, चिरस्थितिक-बहुत सागरोपमका स्थितिपाले, दूरगतिक-मनुष्यलोक आदि से अत्यन्त दूरवर्ती, ऐसे अनुत्तर विमानादिक देवरोकों में से किसी एक देवलोक मे उत्पन्न होते है । (ते ण तत्य देवा) वे देव वहाँ पर (भवंति महिढिया जाब चिरहिइया) महर्दिक-विमान आदि की महासम्पत्तिवाले, महाद्युति-गरीर और आभरण की महा मा शरी२ टी त ( पुव्यकम्मायसेसेण) पूर्व भी माडी २२वाना ४।२ (अण्णयरेसु देवलोएमु देवत्ताए उपवत्तारो भवति महढिएसु जाव महासुक्खेसु दूर गइएसु चिरद्विइएस) भरद्धि-विमान माह भडास पत्तिपाणा, भडाधुति વિવિધ રનઆદિની મહાકાન્તિવાળા, મહાબલ-અત્યત સ્થિર અર્થાત્ દ્રવ્યરૂપથી શાશ્વત, મહાયશસ્વી–શાસ્ત્રો દ્વારા પ્રશસિન, મહાનુભાગ-મહાપ્રભાવશાલી, મહાસૌખ્ય-અત્યત સુખના નિધાન રૂપ, ચિરસ્થિતિન-ઘણું સાગરોપમની સ્થિતિ વાળા, દરગતિક-મનુષ્ય લેક આદિથી અત્યત દ્રવૃત્તી, એવા અનુત્તર વિમા नाहि हवामाना ७ मे पक्षमा लत्पन्न थाय छे (ते ण तत्थादेवा) व त्या (भवति महिढिया जार चिरद्विइया) म४ि -विभान माहिनी मला સપત્તિ વાળા, મહાવૃતિ-શરીર અને આભરણની મહાકાન્તિવાળા, મહાબલ Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोपपणी-टोक ख ५६ भगवतो धर्मदेशना ४६५ 4 ' हिडया हार - विराइय-वच्छा जाव पभासमाणा कप्पोवगा गतिस्थितिका = चिरकालस्थितिका, 'हारविराइयवच्छा' हारविराजित नक्षस्का' = हारभूषितहृदया, 'जाव पभासमाणा' यावत् प्रभासमाना - यावच्छन्दादिद दृश्यम् -'कडय-तुडियथंभियभुया' कटक- त्रुटित स्तम्भित-भुजा 'अगय कुडल - मट्ठ- गडयल - कण्णपीढ-धारी ' अहद--कुण्ड - गण्डतल- कर्मपीठ-धारिण 'विचित्त-वत्था-भरणा' विचित्र-वत्राssभरणा, 'विचित्तमाला ' चिचित्रमाला, 'मउलिमउडा ' मौलिमुकुटा, 'कल्लाणगपार-वत्थ- परिहिया' क याणक-प्रवर-वस्त्र-परिहिता, कलाणग-पवर-मल्लालेपणा' कल्याणक - प्रवर-माच्या -नुलेपना, 'भाखरवौदी ' भास्वरदेहा, 'पलववनमालाधरा 'दिव्वेण संघारण' दिव्येन सघातेन, 'दिव्वेण सठाणेण येन सस्थानेन= सुन्दरेणाऽऽकारेण, 'दिव्वाए उड्ढीए' दिव्यया नदया, 'दिव्याए जुईए' दिव्या द्युत्या, 'दिव्वाए पभाए' दिव्यया प्रभया 'दिव्वाए छायाए ' दिया गयया, 'दिव्वाए अचीए' दिव्येन अर्चिपा=क्रियेन तेजसा, 'दिव्न्नाए लेसाए' दियया देश्यया, 'दस दिसाओ उज्जोयमाणा' दश दिशा उद्योतयन्त - समन्तात्सवान् दिगाभोगान् विभासयन्त इति । 'पभासमाणा 1 प्रभाकान्तिवाले, महाल - शरीर से अत्यन्त बलवान् महायशस्वी-अयन्त यगवाले, महानुभागअत्यन्त प्रभावशाली, महासौरय-मुसपुज को भोगनेवाले और चिरस्थितिक--अनेक सागरोपमस्थितिनाले होते हैं । इनका वक्ष स्थल सदा हारों की मालाओं से सुशोभित रहा करता है। (जाव पभासमागा) यहाँ 'जाव' शन्द से ( कड्य-तुडिय - थभिय-भुया अगय - कुंडल- गडयल-कृष्णपीठ-धारी विचित्त-वत्था - भरणा विचितमाला मउलिमउडा कल्लाणग-पवर-रत्थ- परिहिया कल्लाणग-पवर-मल्ला-णुलेवणा भासुरपदी पलवणमा-धरा दिव्वेण सघाएणं दिव्वेण सठाणेण दिव्वाए ssary fore aft दिव्चाए पभाए दिव्वाए छायाए दिव्याए अधीए दिव्वाए शरीर छाया मजवान, महायशस्वी अत्यंत यशवाजा, महानुभाग- अत्यत अलाવશાળી, મહાસૌમ્ય-મુખપુજને ભેગવવાવાળા અને ચિરસ્થિતિક-અનેક સાગરાપમ સ્થિતિવાળા થાય છે એમનું લક્ષ થલ મન્ના હારાની માલાએથી સુશેભિત राउरे छे ( जाव पभासमाणा ) ही 'जीव' शब्दथी (कडय - तुडिय-थभियसुया अगय -वुडल-गटयल-कण्णपीढ-धारी विचित्तचत्या भरणा विचित्त-माला मलमा कल्लाणग-पर-वत्थ-परिहिया कल्लाणग-पवर-मल्ला-णुलेवणा भासुरघोदी पर चणमाल-धरा दिव्वेण संघारण दिव्वेण मठाणेण दिव्वाए इड्ढीए दिव्नाए जुईए, दिव्या पभाए, दिव्याए छायाए, दिव्याए अच्चीए, दिव्चाए लेसा दम L Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ঘনিষ্কলুম कल्लाणा ठिइकल्लाणा आगमेसिभहा जाव पडिरुवा। तमाइक्खडसमाना अपेंग शोभमाना 'कप्पोगा' फन्पोपगा:-कल्प =हर मामानिक-प्रायविंग पारिपचा त्मरक्ष-रुपाला नीक-प्रकीका भियोग्य-किन्चिपिक-त्र्यपहारस्वरूप आचारस्तमुप गता प्राप्ता , सौधर्मादिदेवलोकमासिवैमानिकदेव व प्रामा, 'गडमल्लागा' गनिकन्यागा -- कल्याणा गतिर्येपा ते तया, अथवा-गया-चतुर्गतिफलोके देवगनिरूपया कल्याणा--- लेसाए दस दिसाओ उज्जोवेमाणा पमासमाणा) इस पाठ का ग्रह हुआ है, इस का अर्थ इस प्रकार है-इनको भुजाएँ फटक-फडे और त्रुटित-मुजाय टन आभूषणों से विभूपित रहा करती है। बाकी के इन समस्त पदो का अर्थ पीछे जहा पर देवा के आगमन का वर्णन किया गया है उस ३३वें सूत्र में लिखा जा चुका है। (कप्पोरगा) इन्द, सामानिक, बायस्त्रिंश, पारिपध, आत्मरक्षक, लोकपाल, अनीकाधिपति, प्रोगक, आभियोग्य, फिन्विपिक, ये दश प्रकार के देव जहाँ होते हैं उन देवलोकों का नाम कन्प है। इन फन्पों में जो उत्पन्न होते है उनका नाम कन्पोपग है। सौधमादिक देवलोक से अच्युत देवलोक तक के देव कन्पोपग कहलाते है, क्यों कि यही तक इन्द्रादिक १० प्रकार के देवों का व्यवहार होता है, इनके बाद नहीं ! (गइकल्लाणा) इनकी गति कन्याणकारी होती है, अथवा चतुर्गतिक इस लोक में ये देवगति में रहनेवाले होने के कारण उत्तम होते है, इस अपेक्षा ये गतिकल्याण कह गये है। (ठिइकल्लाणा) अनेक पन्यापम (१) असुरकुमारों के वर्णन में इन समस्त पदों का अर्थ लिया गया है । दिसाओ उज्जोवेमाणा पभासमाणा) मा पाहन सड ४यो छ माने। मथ આ પ્રકારે છે એમની ભુજાઓ કટક (ક) અને ત્રુટિત-ભુજબ ધ એ આભૂષણોથી શણગારેલી રહે છેબાકીના આ બધા પદોને અર્થ અગાઉ જ્યા દેવના આગમનનુ વર્ણન કર્યું છે તે ૩૩માં સૂત્રમાં લખાઈ ગયું છે (कप्पोवगा), सामानि४, आयरिश, पारिषध, यात्मरक्ष, पास, અનીકાધિપતિ, પ્રકીર્ણક, આભિયોગ્ય, કિટિબષિક, આ દશ પ્રકારના દેવ જ્યા હોય છે તે દેવલોકનું નામ કપ છે આ કામ જે ઉત્પન્ન થાય છે તેમના નામ કપગ છે સૌધર્માદિક દેવલોકથી લઈને અશ્રુત દેવલોક સુધીના દેવ કાગ કહેવાય છે કેમકે અહીં સુધી ઇદ્રાદિક ૧૦ પ્રકારના वानी व्यवहार थाय छे त्यार पछी नल (गइकल्लाणा) भनी गति ४क्ष्याકારી હોય છે અથવા ચતુતિક આ લોકમાં તેઓ દેવગતિમાં રહેવાવાળા હોવાને કારણે ઉત્તમ હોય છે આ અપેક્ષાથી તેઓ ગતિ કલ્યાણ કહેવાય છે (૧) અસુરકુમારના વર્ણનમાં આ બધા પદને અર્થ લખાઈ ગયો છે Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - __ पोयपर्याषणो-टोका सू ५६ भगवतो धर्मदेशना एवं खलु चउहि ठाणेहि जीवा रइयत्ताए कम्मं पकरेंति, भद्ररूपा , 'ठिकल्लाणा' स्थितिकन्यागा =अनेकपन्योपममागरोपमरूपचिरस्थितिका 'आगमेसिभटा आगमिप्यता -आगमिप्यत् आगामिकालभावि भद्र-कल्याण-निर्वाणरूप येपा ते तया, 'जाव पडिरूवा' यावत्प्रतिरूपा अतिरमणीयाऽऽकारा , यावच्छन्द्वात्'प्रामादीया दर्शनाया अमिरूपा' इति बोध्यम् । पुनरपि 'तमाइक्रखइ' तटाचष्टेत प्रवचन कथयति--' एव खलु चाहिं ठाणेहिं जीवाणेरइयत्ताए कम्म परेंति' एव खल चतुर्मि स्थान वा नैयिकताया कर्माणि प्रकुर्वन्ति, तत्र नैयिकताया =नारफित्वस्य, सागरोपम तक देवलोक में इनकी स्थिति होने के कारण ये देव स्थितिकल्याण कहे गये है। इनम से आकर ही तो मनुष्यपर्याय लेकर जीव निवांग-मुक्ति का लाभ करते हैं, अत वे (आगमेसिभदा) आगमिष्यन्द्र कहे गये हैं ।(जाव पडिरुवा) यहाँ पर 'यावत्' शब्द से "मासाठीयाः, दर्शनीयाः, अभिरूपाः" इन पदो का भी मार हुआ है । 'मासादीया इदे देगने से मन प्रसन्न हो जाता है। अत एप ये 'दर्शनीया:' दर्शनीय हैं। 'अभिरूपाः' इनके रूप की सुन्दरता प्रतिक्षण नवीन नवीन भाव से बढती रहती हो मे ये माइम होते हैं, इसलिये ये अभिरूप हैं। 'प्रतिरूपाः' इनके रूप को तुलना नहा हो सकती है, क्यों कि इनका रूप असाधारण होता है, अर्थात् ये अनुपम सुन्दर होते है। अब हम प्रवचन का क्या फल है ? इसको कहते हैं (एर गलु चउहि ठाणेहि जीवा रइयत्ताए सम्म परेंति ) यह जीव __चार कारगों द्वारा नरक में ले जानेवाले कर्मों को करते है, अब इस बात को प्रभु प्रकट (ठिकाणा) मने पल्यापम सागसपम सुधा ४मा भनी स्थिति હેવાના કારણે તે દેવે સ્થિતિ કલ્યાણ કહેવાય છે તેમાથી આવીને જ મનુध्यपर्याय पास निष-मुनि सास ४२ छ, भाटे तशी (आगमेमिभद्दा) मागमिष्यमाद्र ४उवाय छे (जार पडिरूमा) सही यात् vथा 'प्रामादीया, दर्शनीया , अभिरूपा' से पहानी ५y सड यथे। छ "प्रासानीया "-अमन त मन प्रसन्न य नय छ २मा भाटे १ तमा 'दर्शनीया' शनीय छ 'अभिरूपा' समना ३५नी सुरता प्रतिक्षा नवीन નવીન ભાવથી વધતી જતી હોય તેમ તેઓ જણાય છે, તે માટે તેઓ અભિ३५ प्रतिरूपा' भनी ३पनी तुलना न थ , भो तभनु ३५ અસાધારણ હોય છે, અર્થાત તેઓ અનુપમ સુંદર હોય છે. હવે આ પ્રવ ચનનું શુ ફલ છે ? તે કહે છે (एव सलु चहि ठाणेहिं जीवा गैरइयत्ताए फम्मं पफरेंति) मा छ यार Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ औपपातिकमरे - - णेरइयत्ताए कम्मं पकरेता रहएसु उववजति, तं जहा-महारंभयाए १ महापरिग्गयाए २ पंचिंदियवहेणं ३ कुणिमाहारेणं ४, एवं एएणं अभिलावेणं । तिरिक्खजोणिएसु-१ माइल्लयाए 'णेरइयत्ताए कम्म परेत्ता णेरडएस उवानति' नैरयिकतायै कमागि प्राय अकरेंग विधाय नैरयिकेषु उत्पयन्ते नारकजीमाना मन्ये जायन्ते, तजदा-तद्यया-येन प्रकांग्ण नेरयि केषु जायन्ते तत् कथयति सूरकार -१ 'महारभयाए' महारम्भतया सारयाऽऽरम्भबाहुल्येन,-२ 'महापरिगहयाए' महापरिग्रहतया परिग्रहाविस्येन, ३ 'पचिदियवहेण' पञ्चेन्द्रियवधेन पञ्चेन्द्रियप्राणिना हिंसया, ४ 'कुणिमाहारेण कुणपाहारेण-मामाहारेण, एवं एएणं अभिलावेणं' एवमेतेनाभिलापेन कयनेन 'तिरिक्सजोणिएम'निर्यग्योनिपु-तिरथा योनय = उत्पत्तिस्थानानि तर, १-माइल्लयाए णियडिल्लयाए' मायापितया निकृतिमत्तयामाया परवञ्चना सैपामस्तीति मायाविन तेपा भावरतत्ता तया, निकृति -मायावरणाथ मायान्तरकरण सैपामस्तीति निकृतिमन्त , तद्भावो निकृतिमत्ता तया, २ 'अलियवयणेण' फरते हैं-(त जहा) वे चार कारण ये हैं-(महारभयाए) महा-आरम्भ, (महापरिग्गहयाए) महापरिग्रह, (पचिंदियवहेण) पचेन्द्रिय जीवों का वध करना, (कुणिमाहारेण) मास का आहार करना । इन चार कारणों से (णेरइयत्ताए कम्म पकरेत्ता णेरइएमु उववजति) नरक में ले जाने के योग्य कर्मों का उपार्जन होता है, इसलिये ये जीव नरक में उत्पन्न होते है। (एव एएण अभिलावणं) इसी प्रकारका चार कारण रूप कथन (तिरिक्खजोणिएमु ) तिर्यञ्च गति मे उत्पन्न कराने वाले कर्मों का भी है । वे चार कारण ये हैं-(माइल्लयाए) मायाचारी करना (णियडिल्लयाए) एव माया को मवरण करने के लिये और अधिक मायाचारी करना १, (अलियवयणेण ) असत्य४।२। दास न२४भा नारा भी ४२ छ, (तंजहा) तेयार ४१२९५ मा छ(महारभयान) महामार म, (महापरिग्गयाए) महापरियड, (पचिंदियवहेण) ५२द्रियवानो १५ ४२वा, (कुणिमाहारेण) भामना मा२ ४२३। माया ॥२णोथी (णेरइयत्ताए कम्म पकरेत्ता णेरइएसु उववज्जति) न२४मा सपा याय ४ीनु 60 नयाय छतेथीत बन२४मा लय छे (एव एएण अभिलावण) मारना ४ यार १२९५३५ ४थन (तिरिक्सजोणिएस) नियंन्य गतिमापन सपना। ४ नु पछे तयार ४१२९ मा छे-(माइल्लयाए) मायायारी ४२७, (णियडिल्लयाए) તેમજ માયાનુ સવરણું કરવા માટે-ડ્રાડવા માટે અન્ય માયાચારી કરવું (૧). Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पोयषषिणी-टीका सू ५६ भगयतो धर्मदेशना णियडिल्लयाए, २ अलियवयणेण, ३ उकंचणयाए,४वंचणयाए। मणुस्सेसु-पगइभद्दयाए १, पगडविणीययाए २, साणुकोअलीकवचनेन असयभाषणेन, ३ 'उक्कचगयाए' उत्कञ्चनतया-उत्कञ्चनता नाम क चन सरलहृदय वञ्चयितु प्रवृत्तस्य पर चतुरतर नर पार्श्वस्य विलोक्य क्षण वञ्चनानिवृत्ततयाऽवस्थान तया, कपटवृत्त्या, ४ 'वचणयाए' वञ्चननया । एतैश्चतुर्भि स्थानीवा स्तिर्यग्योनिपु यान्ति। मनुष्यजीवेषु पुन कैश्चतुर्भि स्थानरुत्पद्यन्ते ? तदर्शयितुमाह'मणुस्सेम्' इयादि । मनुष्येषु, 'पगइभदयाए ' प्रकृतिमद्रतया स्वभावसरलतया १, 'पगडविणीययाए' प्रकृतिविनीततया स्वभावतो विनयशीलतया २, 'साणुक्कोसयाए' सानुक्रोशतया अनुकोगो=दया तेन सह वर्तते इति सानुक्रोशस्तस्य भाव सानुक्रोगता तया-सदयतया ४, 'अमछरियाए ' अमत्मरितया-ममरोऽन्यशुभद्वेषस्तदभावोऽमत्सर = परगुणग्राहित्व सोऽन्त्येषामित्यमसरिणम्तदभावोऽमसरिता तया-दाराहित्येन । एतैश्चतुर्भि भाषण करना २, (उपचणयाए) किमी सरल हृदयवाले व्यक्ति को ठगने के लिये प्रवृत्त हुए ठगिया-मायाचारी वाले का, उम सरल पुस्प के पास फिमा चतुर पुरुष की स्थिति देखकर कुछ समयतकवचनामय अपनी प्रवृत्ति को स्थगित कर ठहर जाना-कपटवृत्ति को रोक रखना ३, (वचणयाए) दूसरों को ठगना ४ । इन चार कारणों से जीन तिर्यंचगति में ले जाने वाले कर्मों का उपार्जन करते है। (मणुस्सेमु) मनुष्यगति मे जीन चार कारणों से जाते हैं । वे कारण ये हे-(पगदभद्दयाए) प्रकृति से भद्र होना १, (पगइविणीययाए) प्रकृति से विनान होना २, (साणुकोसयाए) दयालु होना ३, एव (अमछरियाए) मत्सरभार नहीं रखना अर्थात् गुणग्राही होना ४ । दन चार कारणों से ये जीव मनुष्यगति मे उत्पन्न (अलियघयणेण) सत्य लापY ४२७ (२) (उस्कचणयाए) स२ ध्यास માણસને ઠગવા-છેતરવા–માટે પ્રવૃત્ત થનારા ઠગ-માયાચારીવાળાનુ, તે સરળ પુસ્પની પાસે કોઈ ચતુર પુરુષની હાજરી જોઈ થોડા સમય માટે વચનામય પિતાની પ્રવૃત્તિને સ્થગિત કરી રેકાઈ જવુ–પિતાની પટવૃત્તિને २।४ी राम (3) (वचणयाए) मीलने । (४) मा या ४ारणोथी ७५ तिर्थ य गतिमा as पापा उर्भानु पान ४२ छ (मणुस्सेसु) भनुष्यगतिमा मा १४ ४ारणोबी तय छ त रणे। २ छ-(पगइभद्दयाए) प्रतिया मद्र खापु (१), (पगइविणीययाए) प्रतिथा विनात आयु (२), (साणुक्कोसयाए) या यु (3), समर (अमन्छरियाण) मत्सराव न રાખવો અર્થાત ગુણગ્રાહી થવુ (૪) આ ચાર કારણોથી આ જીવ મનુષ્ય Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૭૦ aterfoods सयाए ३, अमच्छरियाए । देवेसु- सरागसंजमेणं १, संजमासंजमेणं २, अकामणिज्जराए ३, वालतवोकम्मेणं ४ | तमाइक्खड़ स्थानवा मनुजय प्राप्नुयति । देवाभिभूतानि चत्वारि स्थानानि दर्शयति- 'देवे' इत्यादि । देवेषु - ' सरागसजमेणं ' मराग यमेन -रागेग = आसक्त्या सहित सगग स - चासौ स्यमथ सरागयू नमस्तेन - सकपायचारित्रेण १, 'संजमासजमेण ' सयमामयमेन= देशमयमेन २, ' अकामणिज्नराए' अकामनिर्जरया - अकामेन - अभिलापमन्तरेण निर्जग= क्षुधादिसहन तया ३, 'वालतोकम्मेण ' बालतप कर्मणा = नालसाहस्याद् बाला = मिथ्याहा, तेषा तप कर्म चालतप कर्म, तेन ४, एते स्थानेजवा देवभव प्राप्नुवन्तीति भाव । पुन प्रकारान्तरेण तमाइक्सइ ' तदाख्याति तत् कथयति 'जह णरगा गम्मती' 1 4 कराने वाले कर्मों का उपार्जन करते हैं । (देवे) चार कारणों से जीव देवगति में उपन्न होते है । वे चार कारण ये है - ( सरागसजमेणं) सरागमयम का पालन करना १, (सजमासंजमेण) देशनिरति पालन करना २, (अकामणिज्जराए) अकामनिर्जरा ३, एव (बालतवोकम्मेण) बाल तपस्या ४ । जिस सयम मे गग ( आसक्ति ) विद्यमान होता है उस का नाम सरागमयम है। मतलन - कपायसहित चारित्र का पालना सरागसयम है । १२बारह व्रतों का - देशविरति का धारण करना इसका नाम रूयमासयम है । अभिलाषा - इच्छा के विना क्षुधा आदि का सहन करना इसका नाम अकामनिर्जरा है। मिथ्यादृष्टियों के तप का नाम बालतप है। इन कामों के करने से जीव देवगति में जाने योग्य कर्मों का उपार्जन करते हैं । (जह परगा गम्मती जे गरगा जाय वेयणा गरए । सारीरमाणसाइ दुक्खाइ 1 गतिभा उत्पन्न ४राववावाजा उभेनु उचाल्न रे छे (देवेसु) था२ अरणोथी लव देवगतिभा उत्पन्न थाय छे - ( सरागेसजमेण) सराग सयभनु पालन ४२५ १, (सजमासजमेण ) देशविरलिनु पालन ४२५ ०, ( अकामणिज्जराए ) अलाभनिरा ३, ते (बालतनोकम्मेण मास तपस्या४ ] ने सयममा रात्र- यासमित વિદ્યમાન હોય છે તેનુ નામ સરાગ-સયમ છે મતલખ–કષાય સહિત ચારિત્રનુ પાલન કરવુ તે સરાગસયમ છે (૧) ૧૨ ખાર તા-દેશવિરતિ ધારણ કરવા તેનુ નામ સયમાસયમ છે (૨) અભિલાષા-ઇચ્છા વિના ભૂખ આદિ સહન કરવુ તેનુ નામ અકામ નિરા છે (૩) મિથ્યાષ્ટિના તપતુ નામ આલતપ છે (૪) આ કામે કરવાથી જીવ દેવગતિમા જવા યાગ્ય કર્માનુ 1 Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषपिणी टीका सू ५६ भगवतो धर्मदेशना 66 जह णरगा गम्मंती, जे परगा जा य वेयणा गरए । सारीरमाणसाईं दुक्खाईं तिरिक्खजोणीए ॥ १ ॥ माणुस्मं च अणिचं, वाहि-जरा-मरण - वेयणा - परं । देवे देवलोए, देविद्धिं देवसोक्खाई ॥ २ ॥ य eso इभि । 'जह परगा गम्मती' यथा नरका गम्यन्ते-जविर्येन प्रकारेण नरका =नरकस्थानानि गम्यन्ते प्रायन्ते, 'जे गरगा' ये नरका - यद्रूपा नरका - नारकिंग सन्ति, ' जा य वेयणा गरए ? या वेदना नरके - या =याय्यो वेदना यातनाच नरके भवन्ति, तसर्वं कथयतीति पूर्वेगान्वय । ' सारीरमाणसाड दुखाइ तिरिक्खजोणीए शारीरमानसानि दुसानि तिर्यग्योन्याम् - यथा च शरीरसम्बन्धीनि मन सम्बन्धानि च दुःखानि भवन्ति प्राणिनामिति शेषस्तथा भगवान् परिकययति ॥ १ ॥ एन 'माणुस्स च अणिच वाहि-जरा-मरण - वेयणा - पउर मानुष्यञ्चाऽनि य व्यापि-जरा-मरण - वेदना - प्रचुरम् - व्याधयो = जरादय जरा नार्धक, मरण = प्रसिद्ध, वेदना गोगादिस्वरूपा, प्रचुरा = निगदा यस्मिंस्तादृशम्, अतएव अनिय= क्षणभद्गुर मानुध्य=मनुध्यभव परिकथयति । ' देवे य देवलोए टेविट्ठि देवसोक्खाट' देवान च देवलोकान् देवद्धिं देवसौग्यानि -- - तथा देवान, च पुन देवलोकान, देवद्रि देवसमृद्धि, देव सौर यानि देवसम्बन्धीनि सुखानि कथयतीति शेष ॥ २ ॥ एतान्येव नरकादीनि " = तिरिक्खजोगीए ) जीन जिम प्रकार नरका में जाते है, और वहा जैसे नारकी है, एव उहे जिस प्रकार की वेदना भोगनी पटती है यह सन प्रभुन (आइक्खइ) बतलाया । तिर्यरंगति मे पहुँचने पर इस जीव को जितने भी शारीरिक एव मानसिक कष्ट भोगने पडते है, यह भी भगवानने स्पष्ट किया । ( माणुस्स च अणिच वाहि - जरा मरण - वेयणा - पउर) यह माननपर्याय अनिय है, व्याधि, जग, मरण एन वेदना से प्रचुर-भरा है । (देवे य पान ४रे छे (जह परगा गम्मती जे गरगा जा य वेयणा गरण | सारी माणसाइ दुखाइ तिरिक्सजोणीए) ने अरे नरजेभा लय छे, भने त्या लेवा નારકી હોય છે, તેમજ તેમને જે પ્રકારની વેદના ભાગવવી પડે છે, એ બધુ अलुमे (आइस) मनाव्यु તિય ચ-ગતિમા પહેચતા આ જીવને જેટલા શારીકિ તેમજ માનમિક દુખ હોય છે તે બધા ભાગવવા પડે છે, એ પણ लगवाने भ्यष्टयु ( माणुस्स च अणिच वाहि-जरा-मरण-पेयणा - पर) म Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ ओपातिक रगं तिरिराखजोणि, माणुसभावं च देवलोगं च । सिद्धेय सिद्धवसहिं, छज्जीवणियं परिकहेड ॥ ३ ॥ जह जीवा बज्झती मुच्चंती जह य संकिलिस्संति । जह दुक्खाणं अंतं, करेंति केई अपविद्धा ॥ ४ ॥ मगृह्य ब्रूते-' णरंग' नरक= नरकावामे, 'तिरिक्सजोणि ' तिर्यग्योनि, 'माणुसभाव ' मनुष्यभाव=मनुष्यत्व च 'देवलोग ' देवलोक कथयति । तथा ' सिद्धे य' सिद्धाश्च 'सिद्धवसहि ' - सिद्धवसतिं = सिद्धक्षेत्र, 'उजीरणिये' पनिका परिकथयति ॥ ३ ॥ एव 'जह जीना ज्झती ' यथा जाना बध्यन्ते=नन्थ प्राप्नुवन्ति, 'मुञ्चंती' मुच्यन्ते= मुक्ता भवन्ति, 'जह य संकिलिस्सति' यथा च नश्यन्ति, 'जह दुक्खाण अत करेंति केई अपविद्धा' यथा दु सानामन्त कुर्वन्ति केsपि अप्रतिबद्धा – कऽपि = कतिचिनीया अप्रतिबद्धा =प्रतिनन्धरहिता - मुक्ता सत्तो दु ग्यानामन्त-नाश कुर्वन्ति, तत्सर्वं देवलोए देविर्द्वि देवसो वाइ) एव देवगति में देवताओं को देवननधी अनेक ऋद्धिया एव देवपायनधी अनेक सौरयों की प्रामि होती है यह सन भी प्रभुने अच्छी तरह स्पष्ट करके अपनी दिव्यध्वनि द्वारा प्रदर्शित किया । (जरग तिरिक्खजोणि माणुसभाव च देवलोग च। सिद्धे य सिद्धवसहि छज्जीवणिय परिक हेइ) इस प्रकार प्रभु ने नरक, तिर्थंच, मनुष्य एव देवगति का कथन किया, साथ में यह भी बतलाया कि सिद्ध कैसे होते है और सिद्धस्थान कैसा है, एव षड्जीवनिकाय कौन २ हैं । (जह जीवा' वज्झती मुच्चती जह य सकिलिस्संति । जह दुक्खाण अत करेंति केई अपविद्धा) जीन जिस प्रकार कर्मों માનવપર્યાંય અનિત્ય છે. વ્યાધિ, જરા, મરણુ તેમજ વેદનાથી પ્રચુર-ભરેલી छे (देवे य देवलोए देविट्ठि देवसोम्खाइ ) तेभन देवगतिभा देवताओ ने देवસ ખ શ્રી અનેક ઋદ્ધિએ તેમજ દેવપર્યાયન્સ બધી અનેક સૌષ્યની પ્રાપ્તિ થાય છે એ બધુ પણ પ્રભુએ સારી રીતે સ્પષ્ટ કરીને પેાતાના દિવ્ય ધ્વનિ દ્વારા પ્રદર્શિત यु (णरंग तिरिक्सजोणि माणुसभाव च देवलोय च । सिद्धे य सिद्धवसहिं छज्जी वणिय परिक) मा प्रहारे प्रभु नरड, तिर्थ य, मनुष्य तेभन हेवगतिनु उथन કર્યું, તે સાથે એ પણ ખતાવ્યુ કે સિદ્ધ જેવા હાય છે, અને સિદ્ધસ્થાન કેવુ છે, तेभर षड्भुवनिप्राय नेष्यु आयु छे (जह जीवा वज्झती मुञ्चती जह य सफिलिस्सति । जह दुक्खाण अत करेंति केई अपविद्धा) लव ने अरे भोथी Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषपिणी-टीका सू ५६ भगवतो धर्मदेशना. ४७३ अट्टा अट्टियचित्ता जह जीवा दुक्खसागरमुवेति। जह वेरग्गमुवगया कम्मसमुग्गं विहाडेति ॥५॥ जह रागेण कडाणं कम्माणं पावगो फलविवागो। जह य परिहीणकम्मासिद्धा सिद्धालयमुवेति॥६॥सू०५६॥ कथयति ॥ ४ ॥ 'अट्टा अट्टियचित्ता' आदिार्तितचित्ता -आत्त आर्तव्यानाद् आर्तित पाडित चित्त येपा ते तया, 'जह जीवा' यथा जीना 'दुक्खसागरमुर्वेति' दु खसागर-दुसरूप समुद्रमुपयन्ति प्राप्नुवन्ति, तत् कथयति । 'जह वेरग्गमुवगया कम्मसमुन्ग विहाडेति' यथा च वैगग्यमुपगता प्रामा कर्मसमुद्ग-कर्मणा समुद्ग-मञ्जूषा फर्मराशिमिति यावत विघाटयन्ति त्रोटयन्ति-नाशयन्ताति यावत् , तत् कथयति । 'जह रागेण कडाण कम्माणं पावगो फल विधागो' यथा गगग-पुत्रकलाविष्वभिप्वगरूपेण कृतानाम् = उपार्जिताना कर्मगा-ज्ञानावरगीयाद्रीना पापक =पापमय फलविपाक -फलपरिणामो भवति । से करते है और जिस प्रकार उनसे छूटते है तथा जिस प्रकार से अनक सक्लगों को भोगते हैं और फिर अप्रतिबद्ध होकर जिस प्रकार से कितनेक भयजीव समस्त प्रकार के दुखों का विनाश करते हैं यह विषय भी प्रभु न आगत जनता को अच्छी तरह समझाया । (अट्टा अट्टियचित्ता जह जीवा दुस्खसागरमुवेति । जह वेरग्गमुवगया कम्मसमुग्ग विहाति) प्रभु ने यह भी बतलाया कि आर्तध्यान से पीडित चित्तवाले प्रागा-जीव फिस तरह दुख सागर में गोते साते रहते है और किस प्रकार से वैराग्य को प्राम कर जान कर्मराशि को विनष्ट कर देते है। (जह रागण कडाण कम्माण पावगो फलविवागो। બધાય છે, અને જે પ્રકારે તેથી છૂટે છે, તથા જે પ્રકારે અનેક સ કલેશોને ભેગવે છે, અને પાછા અપ્રતિબદ્ધ થઈને જે પ્રકારે કેટલાક ભવ્ય જીવ સમસ્ત પ્રકારના દુ અને વિનાશ કરે છે એ વિષય પણ પ્રભુએ આવેલ नताने मारी ग सभाव्य (अट्टा अट्टियचित्ता जह जीना दुक्ससागरमुवेति । जह वेरग्गमुवगया कम्मसमुग्ग पिहाडेंति) प्रभुये मे ५ यताप्यु सातધ્યાનથી પીડાતા ચિત્તવાળા પ્રાણી–જીવ કેવી રીતે દુ ખસાગરમાં ગાથા ખાધા કરે છે, અને કેવી રીતે વૈરાગ્ય પ્રાપ્ત કરીને જીવ મરાશિને નાશ अरे छे (जह रागेण कडाण कम्माण पानगो फलरिवागो। जह य परिहीण कम्मा सिद्वा सिद्धालयमुति) पुत्र-सत्र माहिमा माहित ३५ शथी 6पा Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७१ औपातिकतो मूलम्-तमेव धम्मंदविहं आडक्खड, तं जहा-अगार'जह य' यथा च-येन प्रकारण 'परिहीणसम्मा' परिहीनऊमाग -परिहीगानि-विनष्टानि फर्मागि येपा ते, मिद्रा-सिद्धाव्यति' सिदाव्यमुपति-लोकान्तक्षेत्रलक्षण स्थान प्राप्नुवन्ति, तथा भगवान् परिकथयतीति पूर्वणा वय ॥ सू० ५६ ॥ टीका-'तमेर' हयादि । 'तमेर धम्म दुविड आइक्खा' तमेवपूर्वोक्तमेव धर्म द्विविध=द्विप्रकारम् , आग्यानि-कथयति, 'तं जहा' तयथा-'अगारसम्म अणगारधम्म च' अगारधर्मम्, अनगारधर्म च-अगार-गृह तारध्यादगारा गृहस्था, गृहा दारा इत्यादिवत् , यद्वा-अगारमस्येपामियर्थे 'अर्ग आदिभ्योऽन्' इति मवर्थीयाचप्रयय , तेपा धर्म चक्ष्यमाणस्वरूपस्तम्, तथा अनगारधर्म-न विद्यतेऽगारगृह येपा तेऽनगारा साधनस्तेपा धर्मस्त च आरयाति । तर प्राधान्यात् प्रथम जह य परिहीणकम्मा सिद्धा सिद्धालयमुति ) पुत्रफलबादिको में आसक्तिरूप राग । उपार्जित ज्ञानावरणीय आदिक फर्मों का पापमय फल जैसे होता है और कर्मों को नष्ट कर जीव सिद्धावस्थापन हो सिद्धालय में जैसे पहुँचते है यह सन भी प्रभु ने अपनी देशना में स्पष्ट किया ॥ सू ५६॥ 'तमेव धम्म दुविह आइक्खइ' इत्यादि प्रभु ने (तमेव धम्म दुविह आइक्खइ) इस धर्म को दो प्रकार से कहा है। ('अगारधम्म अणगारधम्म च) १ गृहस्थ का धर्म और दूसरा अनगार-मुनि का धर्म । (१) 'अगार' नाम घर का है। परन्तु इस पद से यहाँ उनमें रहने वाले गृहस्था का ग्रहण हुआ है, अथवा "अर्श आदिभ्योऽ" इस सूत्र से अत्यर्थ में अच् प्रत्यय करने से भी उनमें रहने वाले गृहस्थों का ग्रहण हो जाता है। જન કરેલા જ્ઞાનાવરણીય આદિક કર્મોના પાપમય ફલ જેમ થાય છે અને કર્મોને નાશ કરી જીવ સિદ્ધ-અવસ્થા પ્રાપ્ત કરી સિદ્ધાલય (મૃતિ સ્થાનમા) જેમ પહોચે છે તે બધુ પણ પ્રભુએ પિતાની દેશનામા સ્પષ્ટ કર્યું (સૂ પી "तमेव धम्म दुविह आइक्सई" त्यादि प्रभुणे (तमेव धम्म दविह आइक्खड) माघभ मे २ना ४ा ('अगारधम्म अणगारधम्म च) १-श्यना धर्म भने मी मना२-भुनना (૧) અગાર એટલે ઘર પર તુ આ પદથી અહી તેમાં રહેવાવાળી खरया मेवो मर्थ अखए यो छ, मथप " अर्श आदिभ्योऽ” मा सूत्रया 'अस्ति' मयंभा अय् प्रत्यय सापाथी ५ तमा २९वापार श्या-मवा અર્થ થાય છે Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७९ पीयूपयर्पिणी-टीश सू ५७ अनगार धर्मनिरूपणम धम्म अणगारधम्मं च । अणगारधम्मो ताव-इह खलु सबओ सव्वत्ताए मुंडे भवित्ताअगाराओअणगारियंपव्वडयस्ससम्बाओ पाणाडवायाओ वेरमणं मुसावाय-अदिण्णादाण मेहुण-परिगहमनगाधर्ममेव व्याचष्टे-'अणगारधम्मो ताव' इति । अनगाधर्मन्तावत्-तावत्= प्रधनन् अनगाधर्म उच्यते-'इह खलु सबनो सम्बचाए मुढे भविता अगाराओ अगगारिर पन्वायम्म सव्वानो पाणाडवागतो वेरमण इह स सर्वत सर्वात्मना मुन्टो भूबाऽगागठनगारिता प्रवन्तित्य सर्वमानागातिपाताद्विरमगन्-इह गति खल स्वतः=द्रव्यतो भावतधेयर्थ , सर्वाऽऽनना-परमवैगग्येग मुण्टो मूवा-दन्यतो मुण्टो , मलके लञ्चिनक्य , मावतस्तु पागगामपनयनमिति गुण्डलशगवर्मयोगा पुरषो मुण्ड उच्यते, अत्र 'अगं आदिन्योऽच्' इयच्प्रयय , तादृशो नचैयर्थ , लगागद-गृहात-गृह (अणगारसम्मो ताव) अनगार का धर्म वे ही जीव पालन क्न्त है जो (इह खलु सबनो सन्चत्ताए 'मुढे भवित्ता नगारानो अणगारियं पव्वडयम्स सव्वानो पाणाडवायाओ वेरमणं मुसावाय-मादिण्णादाण-मेहुण-परिग्गह-राईभोयणवरमण) यहा सर्व प्रकार से-उन्य एव मावन्दप से, स्वात्मना-परमवैराग्य मपन्न होकर नुदित हो जाते हैं । यह मुडित अदत्या द्रव्य एव माव के मेट से दो प्रकार का है केगों का सृचन काना द्रव्यमुडन है, एव उपायों का त्याग करना मावनुटन है, मुटित होर जो अपने गृह का परिचाग कर साधु की दीक्षा से दीक्षिन हो जाता है। उसका नाम अनगार है। इन अनगार अवस्था में (१) मुड पद से मुदित पुस्प का मत्रीय अच्नयन करने से ग्रहण हुआ है। म. (अणारधम्मो वाव) मनभाना धर्म तर न उरे २ (दह खलु मब्बओ सव्वत्ताए मुंडे मविचा आराओ अणरिय पव्वइयत्त सवाओ पाणाइवाओ वेरमण मुसाबार-अदिण्णादाण मेहुण-परिगह-राईभोयणवैरमण) मही सर्व प्रयी -व्य तेभर लाप 34थी सर्व प्रशारे परभવૈગન્ય પન્ન થઈ જાય છે આ સુડિત અવસ્થા દ્રવ્ય તેમજ ભાવ ના ભેદથી બે પ્રકારની કેશલુચન કરવું” એ દ્રવ્યમુડન છે, તેમજ કપાયેને ત્યાગ કો’ એ ભાવમુંડન છે સુડિત થઈ જે પોતાના ઘરને ત્યાગ કરી સાધુની દીક્ષાથી દીક્ષિત થઈ જાય છે તેમનું નામ અનગાર છે આ અનગાર આવ (१) मुढ शुयी भुडित पुपनो मत्वर्थीय अच् प्रत्यय बगाउपाथी ગ્રહણ કર્યો છે, Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिक मूलम् -- तमेव धम्मं दुविहं आइक्खड, तं जहा-अगार'जह य' यथा च येन प्रकारेण 'परिहीण कम्मा' परिहीनकमाण परिहीयानिनिनानि कर्माणि येषा ते, सिद्धा' सिद्धालयमुपैति ' सिद्धालयमुपर्यात - लोकान्तक्षेत्ररक्षण स्थान प्राप्नुवन्ति तथा भगवान् परिकथयतीति पूर्वेणाचय ॥ सू० ५६ ॥ " ? टीका' तमेत्र' इत्यादि । तमेt धम्मं दुहि आक्खड़ तमेव = पूर्वोक्तमेव धर्मं द्विनिध=द्विप्रकारम्, आग्याति कथयति, 'तं जहा ' तद्यथा-' अगारधम्म अणगारधम्मं च ' अगारधर्मम्, अनगारधर्म च-अगार-गृह तान्स्थ्यादगारा गृहस्थी, गृहा दारा इत्यादिवत् यद्वा - अगारमस्येपामित्यर्थे 'अर्ग आदिम्योऽच्' इति मयाच्प्रयय, तेपा धर्म - वक्ष्यमाणस्वरूपस्तम्, तथा अनगारधर्म = न निद्यतेऽगारगृह येपा ते नगारा साधनस्तेषा धर्मस्त च आयाति । तन प्राधान्यात् प्रथमजय परिहीणकम्मा सिद्धा सिद्धालयमुर्वेति ) पुनकलत्रादिकों में आसक्तिरूप राग से उपार्जित ज्ञानावरणीय आदिक कर्मों का पापमय फल जैसे होता है और कर्मों को नष्ट कर जीन सिद्धावस्थापन्न हो सिद्धालय में जैसे पहुँचते हे यह सब भी प्रभु ने अपनी देशना में स्पष्ट किया || मू ५६ ॥ 'तमेव धम्म दुविह आइक्खर' इत्यादि Pr प्रभु ने (तमेन धम्म दुविह आक्रखइ) इस धर्म को दो प्रकार से कहा है । ('अगारधम्म अणगारधम्म च) १ गृहस्थ का धर्म और दूसरा अनगार - मुनि का धर्म 1 (१) ‘अगार' नाम घर का है । परन्तु इस पद से यहाँ उनमे रहने वाले गृहस्थों का ग्रहण हुआ है, अथवा “अर्श आदिभ्योऽच्” इस सूत्र से अस्त्यर्थ मे अच् प्रत्यय करने से भी उनमे रहने वाले गृहस्थों का ग्रहण हो जाता है । જન કરેલા જ્ઞાનાવરણીય આદિક કમેન પાપમય કુલ જેમ થાય છે અને કર્મોના નાશ કરી જીવ સિદ્ધ-અવસ્થા પ્રાપ્ત કરી સિદ્ધાલય (મુક્તિ સ્થાનમા જેમ પહેાચે છે તે બધુ પણ પ્રભુએ પોતાની દેશનામાં સ્પષ્ટ કર્યું ( ૫૬) " तमेव धम्म दुविह आइक्सई" त्यिाहि ( तमेव धम्म दुविह आइक्खर ) या धर्म में प्रहारनो उद्यो छे ( ' अगारधम्म अणगारधम्म च ) १-गृहभ्थना धर्म भने जील मनगार-भुनिना (૧) અગાર એટલે ઘ પરંતુ આ પદથી અહી તેમા રહેવાવાળા शृङभ्थे। भेवे। अर्थ थड क्ष्यों छे, अथवा " अर्श आदिभ्योऽच्" या सूत्रथी ‘અસ્તિ’ અર્થોમાં અચ્ પ્રત્યય લગાડવાથી પણ તેમા રહેવાવાળા ગૃહસ્થા–એવે અથ થાય છે Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोgraftणी टीका व ५७ अनगार धर्मनिरूपणम्. હ राइभोयण - वेरमणं । अयमाउसो । अणगारसामाइए धम्मे पण्णत्ते एयस्स धम्मस्स सिखाए उबट्टिए णिग्गंथे वा णिग्गंथी वा विहरमाणे आणाए आराहए भवति । अर्थात् परिगृह्यते = समूर्च्छ स्वीक्रियत इति परिग्रह - धर्मापकरण भिन्न सर्वमित्यर्थस्तस्माद् विरमणम् ॥ ५ ॥ रात्रिभोजन - रात्रौ भोजन तस्माद् विरमणम् ॥ ६ ॥ ' अयमाउसो ? अणगारसामाइए धम्मे पण्णत्ते ' अयमायुष्मन् ' अनगारसामयिक - अनगाराणा = साधूना समये=सिद्धान्ते, यद्वा आचारे भव, धर्म प्रज्ञप्त कथित । ' एयस्स धम्मस्स सिक्खाए उबट्टिए ' एतस्य धर्मस्य शिक्षायाम् = आसेवने उपस्थित = उयुक्त, 'णिग्गथे वा ' निर्मन्थ = साधुर्वा 'णिग्गथी वा 'निर्ग्रन्थी वा उपस्थिता साध्वी वा - ' विहरमाणे ' विहरमाण = निचरन् 'आणाए आराहए भवइ' आज्ञाया = सर्वज्ञोपदेशस्य आराधको भवति । इत्थमनगारधर्म मुपदिश्य प्रत्यगार धर्ममुपदिशति, तदेवाह - ' अगारधम्म ' इत्यादि । 1 गया है । क्यों कि प्राणियों को इनमे 'ममेदभाव' होता है । इस परिग्रह से विरक्त होना परिग्रहविरमण महाव्रत है । रात्रि मे भोजन नहीं करना - इसका नाम रात्रिभोजन विरमण व्रत है । (अयमाउसो! अणगारसामाइए धम्मे पण्णत्ते) हे आयुष्मन् ! सिद्धान्त में यह साधुओं का आचारजन्य धर्म प्रतिपादित किया गया है । (एयस्स धम्मस्स सिक्खाए उबट्टिए) इस साधु के धर्म के आसेवन में उपस्थित (तत्पर) चाहे निर्ग्रन्थ-साधु हो, चाहे निर्ग्रन्थी - साध्वी हो, (विहरमाणे) जो इसे अपने आचरण में लाता है वह ( आणाए Care Her) प्रभु सर्वज के आजा का आराधक माना जाता है । इस प्रकार अनगारधर्म की प्ररूपणा कर के प्रभुने ' गृहस्थ का क्या धर्म है " इसकी प्ररूपणा इस प्रकार की બધા ધન ધાન્ય આકિની, પરિગ્રહમા ગણના થાય છે કેમકે પ્રાણિઓને मेभा 'ममेदभाव' थाय छे से परिग्रहथी विरक्त थवु मे परिग्रह - विरभलु મહાવ્રત છે. રાત્રિમા ભોજન ન કરવુ તેનુ નામ રાત્રિભોજન વિરમણુ વ્રત છે (अमाउसो' अणगारसामाइए धम्मे पण्णत्ते) हे आयुष्यभान् ! भिद्धातभा साधुमोना आयार ४न्य मा धर्भतु प्रतियाहन उरेस छे (एयस्स धम्मस्स सिक्खाए उवट्टिए) साधुना या धर्मने भाणवामा उपस्थित - तत्पर, आहे ते निर्थन्य साधु होय ! आहे ते निर्मन्थी - साध्वी होय (विहरमाणे) ले जाने मायरशुभा सावे ते ( आणाए आराहए भवइ) प्रभु सर्वज्ञनी आज्ञाना आराध भनाथ छे આ પ્રકારે અનગાર ધર્મની પ્રરૂપણા કરીને પ્રભુએ ‘ગૃહસ્થના શુ ધર્મ છે ?” તેની Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ औपपातिकas परित्यज्ये यर्थ, अनगारिता = साधुव प्राजिनस्य = प्रकर्षेण ममस्तमम वपरि यागपूर्वक स्वीकृतयत, सर्वस्मात = निकरणनियोगतो जायमानात अति प्रागातिपातात् प्राणा = स्पर्गेद्रियादय सत्येषामिति प्राणा - एकत्रियादयो जीनास्तेपामनिपातो वियोजन- हिंसन मित्यर्थस्तस्माद् निरमण=निवर्त्तनम् || २ || 'मुसानाय - भविष्णादाण - मेहुण - परिग्गहराइभोगणाओ वेरमण ' मृषावादा-दत्ताऽऽन-मैथुन - परिग्रह - रात्रिभोजनाद्दिरमणम्मृषावाद =असत्यभाषण तरमाद विरमण - निवृत्ति ॥ २ ॥ अत्तादान-न उत्तमदत्त = देवगुरु- भूप - गायापति - साधमिकेरननुज्ञात, तस्यादान = ग्रहण तस्माद निरमणम् ॥ ३ ॥ मैथुन - मिथुनेन स्त्री माया निर्वृत्त फर्म- कामकीडारक्षण, तस्माद् विरमणम् ॥ ४ ॥ परिग्रह - परि= सर्वतो भावेन गृह्यते = जन्मजरामरणादिजनितैर्दुमैष्टयत आमा अनेनेति, कृत, कारित, अनुमोदना एव मन, वचन और काय इस प्रकार निकरण और नियोग से प्राणातिपातादिक पापों का सर्वथा त्याग कर दिया जाता है । प्राणानिपात का त्याग करना-इसीका नाम प्राणातिपातविरमण है । 'प्राण' शब्द से प्राणवाले एकेन्द्रियादिक जीवों का ग्रहण हुआ है । 'अतिपात' शब्द का अर्थ नियोग करना है। एकेन्द्रियादिक प्राणियों की हिंसा से विरक्त - सर्वथा दूर होना इसका नाम प्राणातिपातनिरमण - अहिंसा - महानत है । इसी तरह त्रियोग - त्रिकरण से मृषावाद से विरक्त होना इसका नाम मृपावादनिरमण-सत्य-महाव्रत है । देव, गुरु, भूप, साधर्मिक एव गाधापति द्वारा अदत्त का ग्रहण करना इसका नाम अदत्तादान है, उससे निवृत्त होना उसका नाम अदत्तादानविरमण महात्रत है । तीन करण तीन योग से जो मैथुन मे निवृत्त होना उसका नाम मैथुनविरमण महाव्रत है । जिसके ग्रहण से आत्मा, जन्म, जरा एव मरण आदि जनित दुखो से वेष्टित होती है उसका नाम परिग्रह है । धर्मोपकरण सिवाय अन्य सब धन-धान्यादिक को परिग्रह में परिगणित किया સ્થામા કૃત, નારિત અનુમાદના તેમજ મન, વચન અને કાય એ પ્રકારે ત્રિકરણ અને ત્રિયાગથી પ્રાણાતિપાત આદિક પાપાના સર્વથા ત્યાગ કરાય છે પ્રાણાતિપાતના ત્યાગ કવે! એનુ જ નામ પ્રાણાતિપત–વિરમણ છે. ‘પ્રાણ’ શબ્દથી પ્રાણવાળા એકેન્દ્રિયાદિક પ્રાણિએની હિંસાથી વિરકત-સથા દૂર થવુ એનુ નામ પ્રાણાતિપાતવિરમણ–અહિં મામહાવ્રત છે એવી જ રીતે ત્રિયેાગત્રિરણથી મૃષાવાદી વિરક્ત થવુ એનુ નામ મૃષાવાદવિરમણુ સત્ય મહાવ્રત છે. દેવ, ગુરુ, ભૂપ, સાધર્મિક તેમજ ગાથાપતિ દ્વારા દત્તનું ગ્રહણ કરવુ તેનુ નામ અદત્તાદાન છે, તેથી નિવૃત્ત થવુ અદત્તાદાનવિરમણુ મહા વ્રત છે ત્રણ કરણ ત્રણ ચેાગથી મૈથુનથી નિવૃત્ત રહેવુ એનુ નામ મૈથુનવિરમણ મહાવ્રત છે જેના ગ્રહણથી આત્મા, જન્મ, જરા તેમજ મરણુ દિ દુખાથી ઘેરાઈ જાય છે તેનુ નામ પરિગઢ છે ધર્મોપકરણ સિવાય અન્ય Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૭૨ पोपपिणी टीका सु ५६ अगार धर्मनिरूपणम् थूलाओ मुसावायाओ वेरमणं २, थूलाओ अदिण्णादाणाओ वेरमणं ३, सदारसंतोसे ४, इच्छापरिमाणे ५ । तिष्णि गुणव्व 1 'मुसानायाओ वेरमण' स्थूलान्मृपावद्विरमणम् = स्थूलासत्यवचनकथनान्निवृत्ति । 'यूलाओ : अण्णान्राणाओ वेरमण' स्थूलपढदत्तादानाद्विरमणम् - अदत्तस्य आढानं ग्रहण तस्माद्विरमण = निरृत्ति ३ | 'सगरसतो से' स्वदारमन्तोप = परदाग्नेय्यादिवर्जनम् ||४|| 'इच्छापरिमाणे' इच्छापरिमाग इच्छायानाथभिलापरूपाया परिमाग - नियमनम् - उच्छापरिमाणम् - देशत परिग्रहनिति, या इच्छा = परिग्राह्यवस्तुनिपया वाञ्छा तम्या परिमाणम् = इयत्ता | इदमेतावदेन मया धार्यमुपार्जनीय नेति नियमनमिच्छापरिमागम् ||५|| 'तिग्णि गुणवनयाइ' त्रीणि तिपात से निरमण होना ही अहिंसा अणुनत है । (धूलाओ मुसावायाओ वेरमण) स्थूल मृपानाद से रिक्त होना - स्थूल असत्य वचनों के कहने से दूर रहना सो स्थूलमृपावाद - विरमग अशुनत है । (बूलाओ अदिण्णादागाओ वेरमण) स्थूल अदत्तादान से निरमण होना सो अचौर्य अणुव्रत है । (सदारसतोसे) अपनी स्त्री मे ही तोप रसना - परदारा ( परस्त्री) एव वेश्या आदि का परित्याग कर देना- सो स्वदारम्तोप अणुनत है | ( इच्छापरिमाणे ) धन एव धान्यादिक की अभिलाषा रूप इच्छा का प्रमाण करना - एक देश से परिग्रह का त्याग करना, अथना परिग्राह्यवस्तुविषयक वान्छा का नाम इच्छा है, इसका परिमाण इस प्रकार करना कि मै अमुक वस्तु इतनी रखूंगा, इतनी कमाऊँगा, इससे अधिक नहा । यह इच्छापरिमाण नामका अणुव्रत है (तिष्णि गुणव्त्रयाइ) गुणवत तीन है- ये गुणत्रत अणुव्रतों के थवु से ०४ 'महिमा आयुक्त' छे (यूलाओ मुसावायाओ वेरमण) म्यूस-भूषाવાદથી વિરક્ત થવુ-સ્થૂલ અસત્ય વચને કહેવાથી દૂર રહેવુ તે સ્થૂલ-મૃષાवाह - विरभणु आयुव्रत' छे (यूलाओ अदिण्णादाणाओ वेरमण) स्थूल महत्ताहानथी विरभणु थवु मे 'शौर्य' आयुक्त' छे (सदारसतोसे) पोतानी स्त्रीभा જ સ તેાષ રાખવા–પરદ્વારા--પરસ્ત્રી તેમજ વેશ્યા આદિના પરિત્યાગ કરી દેવો ते 'वहार-भतोष युक्त' हे (इच्छापरिमाणे ) धन तेभन धान्य आहिनी અભિલાષારૂપ ઈચ્છાનું પ્રમાણ કરવુ (હદ રાખવી) દેશ થકી પરિગ્રહના ત્યાગ કરવા અથવા પરિગ્રહ કરવાની વસ્તુ ખાખતની જે વાછા તેનુ નામ ઈચ્છા છે, તેનુ પરિમાણુ (માપ-મર્યાદા) આ પ્રકારે કરવુ કે હું અમુક વસ્તુ આટલી રાખીશ, આટલી =માઈશ, આવી વધારે નહિ આ ઈચ્છાપરિમાણ નામનુ અણુ व्रत े (तिष्णि गुणव्वयाइ) शुशुवत त्रशु छे मा गुणुव्रत आयुवतीना उपा२४ Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकत अगारधम्मं दुवालसविहं आइक्खड़, तं जहा - पंच अणुव्वयाइं १, तिष्णि गुणव्वयाई २, चत्तारि सिखावयाई ३ । पंच अणुव्वयाई, तं जहा -थूलाओ पाणाडवायाओ वेरमणं १, ૭. पुनरम्ययन 'अगारधम्म दुसर आइरस' भगारधर्म द्वादशविधमारयति, 'त जहा ' तवथा, 'पंच अणुब्वाई' पञ्चाशुनतानि 'तिष्णि गुणव्ययाइ' श्रीणि गुणवतानि ' चत्तारि सिक्खावयाइ' चचारि शिक्षानतानि, शिक्षा=अभ्यास - पुन तत्प्रधानानि व्रतानि-शिक्षास्तानि । यद्यपि पुन पुनरासेवना योग्यानि शिक्षानतानि पुरो वक्ष्यमागानि चवार्येव, तथापि त्रयाणा गुणनताना शिक्षानतैवेद्यान्तर्भागात सम शिक्षात्रतानिइत्यप्युत्र्यते ३ । स्वरूपरायापनाय आह-' पंच अणुव्वयाइ ' पञ्चाऽणुतानि - ' त जहा ' तद्यथा - ' धूलाओ पाणाइत्रायाओ वेरमण' स्थूला प्राणातिपाताद्विरमणम्-प्राणाना= प्राणिनामतिपानो-हिंसन-तस्मात् स्थूलात् विरमण निवृत्ति, न तु सूक्ष्मात् ॥ १ ॥ 'धूलाओ है-( अगारधम्म दुवालमनि आइक्खड़ ) प्रभुने कहा कि गृहस्थ धर्म १२ प्रकार का है, ( त जहा ) उसके वे १२ प्रकार इस तरह से है- (पच अणुव्वयाइ तिष्णि गुणन्जयार चारि सिखाया ) ५ अणुव्रत, ३ गुणत्रत, एव ४ शिक्षाव्रत । कहा २ पर शिक्षात्रत- ' सान भी कहे गये है सो उसका कारण यह है कि उनमे ३ गुणवतों को सम्मिलित कर लिया गया है। शिक्षाप्रधान व्रतों का नाम शिक्षानत है । (पंच अणुव्वयार तं जहा) पाच अणुनत ये है-(थुलाओ पाणाइझायाओ वेरमण) स्थूल प्राणातिपात से विरक्त होना सो अहिंसा अगुनत है । 'स्थूल' शब्द यहा यह मतलाता है कि सूक्ष्म से नहीं, किन्तु स्थूल प्राणा NI भार प्र३५ मा अअरे उरी घे - ( अगारधम्म दुवालसविह आइई) प्रभु गृहन्थ धर्भ १२ २ अरना है (तजहा) तेना से १२ अठार भावी शेतना छे- (पच अणुव्वयाइ तिष्णि गुणव्sers चत्तारि सिक्खानयाइ) ५ आयुक्त, 3 शुशुक्त, तेभन ४ शिक्षावत ज्या श्या शिक्षामत, સાત પણ તહેવામા આવ્યા છે, તેનુ નુારણ એ છે કે તેમા ત્રણ ગુણવ્રતાને સમિલિત કરી લેવામા આવ્યા છે શિક્ષાપ્રધાન વતાનુ નામ શિક્ષાવત્ છે (पच अणुव्वयाइ तजहा ) पाथ आयुक्त या छे (यूलाओ पाणीइवायाओ वेरमण) स्थूल आयातिपातर्थी विरक्त थवु ते 'अडिसा आयुक्त' हे 'स्थूल', श અહી એ ખતાવે છે કે સૂક્ષ્મથી નહિ પણ સ્થૂલ પ્રાણાતિપાતથી વિરમણ , Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૮૬ पीयूषयपिणो-टोका सू. ५७ अगारधर्मनिरूपणम् परिभोगपरिमाणं ८। चत्तारि सिक्खावयाई, तं जहा-सामाइयं ९, देसावयासियं १०, पोसहोववासे ११, अतिहिसंविभागे, परतस्तदधिके इयम्भूत दिग्नतम् ॥ ७ ॥ ' उवभोग-परिभोग-परिमाण' उपभोगपरिभोग-परिमागम्-उपभोग =मकृद्गोगोऽगनपानानुलेपनादीनाम् , परिभोगस्तु पुन पुनर्भोग आसनशयनवमनादीनाम् , तयो परिमाणम् ॥ ८॥ 'सामाइय' सामायिकम-समाना= ज्ञानदर्शनचारितागामायो लाभ समाय -तन भव मामायिकम् ॥ ९॥ 'देसावयासिय' देगाऽवकाशिकम्-देशे-दिग्नतगृहीतदिक्पग्मिाणस्य विभागे अकागो गमनायवस्थान नहीं, इस प्रकार १० दिशाओं में आने-जाने का मर्यादा करना सो 'दिग्बत' है। एक वार जो भोगने मे आता है उसका नाम उपभोग है, जैसे-अशन, पान एव अनुलेपन आदि । जो वार २ भोगने मे आते है ऐसे आसन, शयन, वसन आदि को परिभोग कहा गया है। इन दोनों का प्रमाग करना सो ‘उपभोग-परिभोग-परिमाण' है । (चत्तारि सिक्खापया) शिक्षाबत चार है, (त जहा) वे ये है-(सामाइय देसावयासिय पोसहोपपासे अतिहिस विभागे) सामायिक, देशावकाशिक, पौषधोपवास एव अतिथिलनिभाग । दर्शन, ज्ञान एव चारित्र का नाम सम है। इस सम के आय (लाम) का नाम समाय है । इसमे जो समतापरिणाम होता है उसका नाम सामायिक है। 'दिवत' मे जो मर्यादारूप से आने-जाने के लिये जीवनपर्यन्त दिशारूपी क्षेत्र रख लिया था उसीके भीतर २ प्रतिदिन स्कोच करना सो 'देशावकाशिक' है, जैसे-मै आज इस दिशा के એનાથી આગળ-બહાર નહિ આ પ્રકારે ૧૦ દિશાઓમાં આવવા-જવાની મર્યાદા કરવી તે દિવ્રત છે એક વાર જે ભેગવવામાં આવે છે તેનું નામ ઉપગ છે, જેમકે–અશન, પાન તેમજ અનુલેપન આદિ જે વારવાર લેવાવવામાં આવે છે એવા આસન, શયન, વસન આદિને પરિગ કહેવાય છે मा गन्नेनु प्रभाएर २५ ते 'उपास-परिसाग-परिमाणु' (चत्तारि सिक्सावयाइ) शिक्षाप्रत यार छ (त जहा) ते मा-(सामाइय देसावयासिय पोसहोपनासे अतिहिसविभागे) सामायि४ १, शा४ि २, पोषधोपचास 3, તેમજ અતિથિ વિભાગ ૪ દર્શન, જ્ઞાન તેમજ ચારિત્રનું નામ સમ છે આ સમન આય (લાભ)નુ નામ સમાય છે એમા જે સમતા-પરિણામ થાય છે તેનું નામ સામાયિક છે ૧ દિવ્રતમાં જે મર્યાદારૂપથી આવવા-જવાને માટે જીવનપર્યત દિશારૂપી ક્ષેત્ર રાખ્યું હતું તેમજ પ્રતિદિવસ જૂનના કરવી તે દેશવકાશિક છે જેમકે હુ બાજ આ દિશામાં આ સ્થાન સુધી Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - teo औषपातिक याई, तं जहा-अणत्थदंडवेरमणं ६, दिसिव्वयं ७, उवभोगगुणनतानि, 'त जहा' तपथा 'अणत्यदंडवेरमण आर्थरण्डविरमणम्-अर्थ प्रयोजन गृह स्थस्य क्षेत्र-वास्तु-धन-गरीरपरिपालनायानिविषय, तदया दण्ड =आरम्भ प्राण्युपमतोंऽर्थदण्ड । दण्डो निग्रहो यातना विनाश इति पर्याया । दण्ड =नियोजन हिमादिकग्णमियर्थ , तस्मा द्विरमण-निवर्तनम् १, 'दिसिन्धयं निगनतम्-हिश पूर्वदक्षिणाढय ऊर्चमधश्चेति दशविधा, तर दिशा सम्बन्धि व्रत निगातम्-तावामु पवादिदिग्विभागेषु मया गमनागमन विधय न उपकारक है, (त जहा) ने तीन प्रकार ये है (अणत्यदडवेरमण दिसिव्वयं उवभागपार भोगपरिमाण) अनर्थदडपिरमण व्रत, दिग्नत, उपभोग-परिभोग-परिमाणवत । क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य, एव शरीर के परिपालन आदि के निमित्त जो आरम किया जाता है, इसका नाम अर्थ है । इस आरम में प्रागिय अवश्यभावी हे । अत इसम जो दड-प्रागिया का विनाश होता है उससे पाप का बध जीप को होता है । अत यह वध अर्थदड है। अर्थात् प्रयोजन को लेकर जो प्राण्युपमर्दनरूप दड किया जाता है उसका नाम अर्थदड है । दण्ड, निग्रह, यातना एव विनाश ये सब पर्यायवाची शब्द है । इससे जो विपरीत है उसका नाम अर्थदड है । अर्थात् निष्प्रयोजन हिंसादिक पाप करना सो अनर्थदड है । इससे विरक्त होना सो 'अनर्थदंडविरमण' है। दश दिशाओं में आने-जाने का प्रमाण करना सा "दिग्यत' है । चारदिशा और विदिशा तथा उर्ध्व एव अध इस प्रकार ये १० दिशाए हैं। मैं अमुक दिशा की ओर इतनी दूर तक जाऊँगा और आऊँगा, इससे आगे बाहर छ, (तजहा) तेत्र २ मा छ (अणस्थ दड वेरमण दिसिव्वय उवभोगपरिभोगपरि भाण) अन -विरभए प्रत, हिमत, उपासपश्लिोसपरिभार व्रत क्षत्र, વાસ્તુ, ધન, ધાન્ય, તેમજ શરીરના પરિપાલન આદિના નિમિત્ત જે આર કરવામાં આવે છે તેનું નામ અર્થ છે આ આર મા પ્રાણિવધ અવ શ્ય ભાવી છે આથી એમાં જે દડ-પ્રાણિઓને વિનાશ થાય છે તેનાથી પાપને બધ જીવને થાય છે તેથી આ વધ અર્થદડ છે, અર્થાત પ્રથા જનને લઈને જે પ્રાણિ-ઉપમનરૂપ દહ કરાય છે તેનું નામ અર્થ ડે છે દડ, નિગ્રહ, યાતના તેમજ વિનાશ એ બધા પર્યાયવાચી શબદે છે તેનાથી જે વિપરીત (ઉલટા) છે તેનું નામ અનર્થદડ છે અર્થાત નિષ્પોજન હિ સઃ આદિ પાપ કરવા તે અનર્થદડ છે તેનાથી વિરક્ત થવુ તે અનર્થદ ૩ વિરમણ છે દશ દિશાઓમાં આવવા-જવાનું પ્રમાણ રાખવુ તે દિગ્ગત છે ચાર દિશા અને વિદિશા તથા ઉપર અને નીચે એ પ્રકારે આ દશ ૧૦ દિશાઓ છે હું અમુક દિશા તરફ આટલે દૂર સુધી જઈશ કે આવીશ Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूपषिणो-टोका सु. ५७ अगारधर्मनिरूपणम् ४८१ परिभोगपरिमाणं ८। चत्तारि सिक्खावयाई, तं जहा-सामाइयं ९, देसावयासियं १०, पोसहोववासे ११, अतिहिसंविभागे, परतस्तदधिके इयेयम्भून दिग्नतम् ॥ ७ ॥ 'उपभोग-परिभोग-परिमाण' उपभोगपरिभोग-परिमागम्-उपभोग =मरुद्भोगोऽगनपानानुलेपनादीनाम्, परिभोगस्तु पुन पुनर्भोग आसनगयनरसनादीनाम् , तयो परिमाणम् ॥ ८॥ ‘सामाइय' सामायिकम-समाना= ज्ञानदर्शनचारिनागामायो-लाभ समाय --तन भव सामायिकम् ॥ ९ ॥ 'देसावयासिय' देशाप्रकाशिकम्-देशे दिन्नतगृहीतविपरिमाणस्य विभागे अकागो गमनाद्यवस्थान नहीं, इस प्रकार १० दिशाओं म आने-जाने की मर्यादा करना सो ‘दिग्बत' है । एक वार जो भोगने में आता है उसका नाम उपभोग है, जैसे-अशन, पान एव अनुलेपन आदि । जो नार २ भोगने म आते है ऐसे आमन, शयन, वसन आदि को परिभोग कहा गया है। इन दोनों का प्रमाग करना सो ‘उपभोग-परिभोग-परिमाण ' है । (चत्तारि सिम्खावया) शिक्षारत चार हे, (त जहा) वे ये है-(सामाइय देसावयासिय पोसहोपवासे अतिहिसचिभागे) सामायिक, देशावकाशिक, पौषधोपवास एव अतिथिमविभाग। दर्शन, ज्ञान एव चारित्र का नाम सम है। इस सम के आय (लाभ) का नाम समाय है । इसमे जो समतापरिणाम होता है उसका नाम सामायिक है। 'दिग्नत' में जो मर्यादारूप स आन-जान के लिये जीवनपर्यन्त दिगारूपी क्षेत्र रख लिया था, उसीके भीतर २ प्रतिदिन स्कोच करना सो 'देशावकाशिक' है, जैसे मैं आज इस दिशा के એનાથી આગળ-બહાર નહિ આ પ્રકારે ૧૦ દિશાઓમાં આવવા-જવાની મર્યાદા કરવી તે દિગ્દત છે એક વાર જે ભેગવવામાં આવે છે તેનું નામ ઉપગ છે, જેમકે-અગન, પાન તેમજ અનુલેપન આદિ જે વાર વાર ભેગવવામાં આવે છે એવા આસન, શયન, વચન આદિને પરિગ કહેવાય છે या पन्नेनु प्रमाण २५ उपग-परिसास-परिभाए' छ (चत्तारि सिरसारयाइ) शिक्षानत या छ (त जहा) ते २ -(सामाइय देसारयासिय पोमहोपनासे अतिहिसविभागे) समाथि १, शा018 २, पोषधोपपास 3, તેમજ અતિથિસ વિભાગ ૪ દર્શન, જ્ઞાન તેમજ ચારિત્રનું નામ સમ છે આ સમના આય (લાભ)નું નામ સમાય છે એમાં જે સમતા-પરિણામ થાય છે તેનું નામ સામાયિક છે ૧ દિગ્ગતમાં જે મર્યાદારૂપથી આવવા-જવાને માટે જીવનપર્યત દિશારૂપી ક્ષેત્ર રાખ્યું હતું તેમાજ પ્રતિદિવસ ન્યૂનતા કવી તે દેશાવતાશિક છે જેમકે હુ આજ આ દિશામાં આ સ્થાન સુધી Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० औपपातिक याई, तं जहा-अणत्थदंडवेरमणं ६, दिसिव्वयं ७, उपभोग गुणनतानि, 'तं जहा' तथा 'अणत्थदंडवेरमण' अनर्थदण्डरिग्मणम्-अर्थ प्रयोजन गृह स्थस्य क्षेत्र-धास्तु-धन शरीरपरिपालनायादिविपय, तदयो दण्ड आरम्ग प्राण्युपमद्रोऽथेटण्ड । दण्डो निग्रहो यातना दिनाग इति पयाया । दण्ड निष्प्रयोजन हिंसादिकरणमियर्थ, तस्मा द्विरमण=निवर्तनम् १, 'दिसिनयं दिगनतम्-दिश पूर्वदक्षिणादय ऊर्चमधश्चेति दयविधा , तत्र दिशा सम्बन्धि व्रत निगनतम्-तावासु पूर्वापिदिग्विभागेपु मया गमनागमन विधय न उपकारक है, (त जहा) वे तीन प्रकार ये है (अणत्यदंडवेरमण दिसिन्वय उपभोगपरि भोगपरिमाण) अनर्थदडविरमण प्रत, दिग्नत, उपभोग-परिभोग-परिमाणवत । क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य, एव गरीर के परिपालन आदि के निमित्त जो आरभ किया जाता है, इसका नाम अर्थ है । इस आरम में प्रागिरध अपश्यभावी है । अत इसमे जो दड-प्रोगिया का विनाश होता है उससे पाप का वध जार को होता है । अत यह वध अर्थदड है । अर्थात् प्रयोजन को लेकर जो प्राण्युपमर्दनरूप दड किया जाता है उसका नाम अर्थदड है। दण्ड, निग्रह, यातना एव विनाश ये सन पर्यायवाची शब्द है । इससे जो विपरीत है उसका नाम अर्थदड है। अर्थात निष्प्रयोजन हिंसादिक पाप करना सो अनर्थदड है। इससे विरक्त होना सो 'अनर्थदंडविरमण' है। दश दिशाओं मे आने-जाने का प्रमाण करना सा 'दिग्यत' है। चारदिशा और रिदिशा तथा उर्व एव अध इस प्रकार ये १० दिशाए हैं। मैं अमुक दिशा की ओर इतनी दूर तक जाऊँगा और आऊँगा, इससे आगे बाहर छ, (तजहा) ते ४२ २॥ छ (अणत्थ दड वेरमण दिसिव्वय उवभोगपरिभोगपरि माण) अन -विरभर प्रत, हिमत, पासपश्लिामपरिभाए त क्षत्र, વાસ્તુ, ધન, ધાન્ય, તેમજ શરીરના પરિપાલન આદિના નિમિત્ત જે આર કરવામાં આવે છે તેનું નામ અર્થ છે આ આર ભમાં પ્રાણિવધ અવ શ્ય ભાવી છે આથી એમ જે દડ-પ્રાણિઓને વિનાશ થાય છે તેનાથી પાપને બધા ને થાય છે તેથી આ વધ અર્થદ ડ છે, અર્થાત પ્રયા જનને લઇને જે પ્રાણિ–ઉપમનરૂપ દડ કરાય છે તેનું નામ અર્થ છે દડ, નિગ્રહ, યાતના તેમજ વિનાશ એ બધા પર્યાયવાચી શબ્દો છે તેનાથી જે વિપરીત (ઉલટા) છે તેનું નામ અનર્થદડ છે અર્થાત નિષ્પોજન હિમા આદિ પાપ કરવા તે અનર્થદડ છે તેનાથી વિરક્ત થવુ તે અનર્થદ વિરમણ છે દશ દિશાઓમાં આવવા-જવાનું પ્રમાણ રાખવું તે દિવ્રત છે ચાર દિશા અને વિદિશા તથા ઉપર અને નીચે એ પ્રકારે આ દશ ૧૦ દિશાઓ છે હુ અમુક દિશા તરફ આટલે દૂર સુધી જઈશ કે આવીશ Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूपयपिणो-टोका सू. ५७ अगारधर्मनिरूपणम् ४८१ परिभोगपरिमाणं ८। चत्तारि सिक्खावयाडं, तं जहा-सामाइय ९, देसावयासियं १०, पोसहोववासे ११, अतिहिसंविभागे, परतस्तदधिके इयेयम्भूत दिग्नतम् ॥ ७ ॥ 'उपभोग-परिभोग-परिमाण' उपभोगपरिमोग-परिमागम् उपभोग =मद्भोगोऽशनपानानुलेपनाीनाम्, परिभोगस्तु पुन पुनर्भोग आसनशयननमनादीनाम् , तयो परिमाणम् ॥ ८॥ 'सामाइय' सामायिकम-ममाना ज्ञानदर्शनचाग्गिागामायो लाभ समाय -तर भन सामायिकम् ॥ ९॥ 'देसावयासिय' देशाऽवकाशिकम्-देशे-दिग्नतगृहीतदिक्पग्मिाणस्य निभागे अवकायो गमनाद्यवस्थान नहीं, इस प्रकार १० दिगाओं में आने-जाने की मर्यादा करना सो ‘दिग्वत ' है । एक बार जो भोगने म आता है उसका नाम उपभोग है, जैसे-अगन, पान एव अनुलेपन आदि । जो वार २ भोगन में आते है से आसन, गयन, वसन आदि को परिभोग कहा गया है। उन दोनों का प्रमाग करना सो ' उपभोग-परिभोग-परिमाण ' है । (चत्तारि सिक्सावयाई) शिक्षानत चार है, (त जहा) वे ये है-(सामाठय देसावयासिय पोसहोपवासे अतिहिसपिभागे) सामायिक, देशावकागिक, पोषधोपवास एव अतिथिनविभाग । दर्शन, ज्ञान एस चारित्र का नाम सम है । इस सम के आय (लाभ) का नाम समाय है । उसमे जो समतापरिणाम होता है उसका नाम सामायिक है। 'दिवत' मे जो मयादारूप से आन-जान के लिये जीवनपर्यन्त दिशारूपी क्षेत्र रख लिया था, उसीके भीतर २ प्रतिदिन स्कोच करना सो 'देशावकाशिक' है, जैसे-मै आज टस दिशा के એનાથી આગળ-બહાર નહિ આ પ્રકારે ૧૦ દિશાઓમાં આવવા-જવાની મર્યાદા કરવી તે દિગ્મત છે એક વાર જે ભેગવવામાં આવે છે તેનું નામ ઉપગ છે, જેમકે–અશન, પાન તેમજ અનુલેપન આદિ જે વારંવાર ભેગવવામાં આવે છે એવા આસન, શયન, વમન આદિને પરિભેગ કહેવાય છે या पन्नेनु प्रमाण २५ ते उपास-परिसास-परिभाष' ले (चत्तारि सिक्सापयाइ) क्षिात ॥२ छ (त जहा) ते माछ-(सामाइय देसावयासिय पोसहोपपासे अतिहिसविभागे) सामायि: १, ६ 015 २, पोषधेापवास 3, તેમજ અતિથિ વિભાગ ૪ દર્શન, જ્ઞાન તેમજ ચારિત્રનું નામ સમ છે આ બમના આય (લાભ)નુ નામ સમાય છે એમાં જે સમતા-પરિણામ થાય છે તેનું નામ સામાયિક છે ૧ દિગ્ગતમાં જે મર્યાદારૂપથી આવવા-જવાને માટે જીવનપર્યત દિશાપી ક્ષેત્ર રાખ્યું હતું તેમજ પ્રતિદિવસ ન્યૂનતા કરવી તે દેશાવાશિક છે જેમહુ આજ આ દિશામાં આ સ્થાન સુધી Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० औपपातिकमा याई, तं जहा-अणत्थदंडवेरमणं ६, दिसिव्वयं ७, उवभोगगुणनतानि, 'त जहा' तथया 'अणत्थदंडवरमण अनर्थदण्डपिग्मणम्-अर्थ अयोजन गृह स्थस्य क्षेत्र-वास्तु-धन-गरीरपरिपालनीयादिविषय, तदया दण्ड =आरम्भ प्राण्युपमदोऽर्थदण्ड । दण्डो निग्रहो यातना विनाश इति पर्याया । दण्ड =निष्प्रयोजन हिमादिकग्णमियर्थ , तस्मा द्विरमण निवर्तनम् १, 'दिसिन्धय दिगनतम्-विंग पूर्वदक्षिणादय ऊर्चमघश्चेति दयविधा, तर दिशा सम्बन्धि व्रत निगातम्-प्रतापामु पूर्वादिनिविभागेपु मया गमनागमन विधय न उपकारक है, (त जहा) वे तीन प्रकार ये है (अणत्यदडवेरमण दिसिन्जय उवभागपार भोगपरिमाणं) अनर्थदडचिरमण व्रत, दिग्नत, उपभोग-परिभोग-परिमाणवत । क्षत्र वास्तु, धन, धान्य, एव शरीर के परिपालन आदि के निमित्त जो आरम किया जाता है, इसका नाम अर्थ है । इस आरम में प्रागिवन अवश्यमानी है । अत इसमें जो दड-प्रागिया का विनाश होता है उससे पाप का बध जार को होता है । अत यह वध अर्थदड है । अर्थात् प्रयोजन को लेकर जो प्राण्युपमर्दनरूप दड किया जाता है उसका नाम अर्थदड है। दण्ड, निग्रह, यातना एव विनाश ये सर पर्यायवाची शब्द है । इससे जो विपरीत है उसका नाम अर्थदड है । अर्थात् निष्प्रयोजन हिंसादिक पाप करना सो अनर्थदड है । इससे विरक्त होना सो 'अनर्थदंडविरमण' है। दश दिशाओं में आने-जाने का प्रमाण करना सो 'दिग्धत' है। चारदिशा और रिदिशा तथा उर्व एव अध इस प्रकार ये १० दिशाए हैं। मैं अमुक दिशा की ओर इतनी दूर तक जाऊँगा और आऊँगा, इससे आगे बाहिर छ, (तजहा) तेत्र प्रा२ मा छे (अणत्थ दड वेरमण दिसिव्वय उवभोगपरिभोगपरि माण) अन । उ-विरभर प्रत, हिज्जत, Suोगपरितापरिभाष त क्षत्र, વાસ્તુ, ધન, ધાન્ય, તેમજ શરીરના પરિપાલન આદિના નિમિત્ત જે આર લે કરવામાં આવે છે તેનું નામ અર્થ છે આ આભમા પ્રાણિવધ અને શ્ય ભાવી છેઆથી એમાં જે દડ-પ્રાણિઓનો વિનાશ થાય છે તેનાથી પાપને બધ જીને થાય છે તેથી આ વધ અર્થદડ છે, અર્થાત પ્રય જનને લઇને જે પ્રાણિ-ઉપમનરૂપ દડ કરાય છે તેનું નામ અર્થ છે દડ, નિગ્રહ, યાતના તેમજ વિનાશ એ બધા પર્યાયવાચી શકે છે તેનાથી જે વિપરીત (ઉલટા) છે તેનું નામ અનર્થદડ છે અર્થાત નિષ્પોજન હિંસા આદિ પાપ કરવા તે અનર્થ ડે છે તેનાથી વિરક્ત થવુ તે અનર્થદડ વિરમણ છે દશ દિશાઓમાં આવવા-જવાનું પ્રમાણું રાખવું તે દિવ્રત છે ચાર દિશા અને વિદિશા તથા ઉપર અને નીચે એ પ્રકારે આ દશ ૧૦ દિશાઓ છે હુ અમુક દિશા તરફ આટલે દૂર સુધી જઈશ કે આવીશ Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोपपिणी टोका र ५७ अगारधर्मनिरूपणम ४८३ माउसो। अगारसामाइए धम्मे पण्णते। एयस्स धम्मस सिक्खाए उवटिए समणोवासए वा समणोवासिया वा विहरमाणे आणाए आराहए हवड ॥ सू० ५७ ॥ कर्भधारये-अपश्चिममारणान्तिकमले पना, नम्या जूपणा सेवना-मग्णकाले सलेसनानाम्ना तपसा गरीरस्य कपायादीनाच फुगीकरण, तस्या आराधना-निरवां उन्नतया सपादनम् ॥ १२॥ 'जयमाउसो' अयमायुप्मन् । 'अगारसामाइए धम्मे पण्णत्ते' अगारसामयिको धर्म प्रजम 'एयस्स धम्मस्स सिरसाए उपट्ठिए समणोवासए वा समणो फिर भी यहा जो उसे अपश्चिम कहा है वह अमगलपरिहार के निमित्त से जानना चाहिये। क्यों कि " अन्तक्रियाधिकरण तप फल सकलदर्शिन स्तुवते" तप का फल रलेसनापूर्वक प्राणों का विसर्जन करना प्रभुने बतलाया है, अत यदि यह अन्तिम समय आचरित नहीं होती है तो जीवनभर की गई नताराधना तपस्या आदि एक प्रकार से निष्फल ही समझना चाहिये। अत इस अपेक्षा से यह अपश्चिम-सर्वोत्कृष्ट कही गई है। यह सलेखना (मारणान्तिकी) मरण के समय धारण की जाती है। काय और कपाय आदि जिसके द्वारा अथवा जिसम कृश किये जाते है उसका नाम म्लेखना है। यह स्लेखना भी एक तप-विशेष है। इसे प्रेम से धारण करना चाहिये इस अर्थ को धोतित करने के लिये ही " जूपणा" यह पढ़ दिया गया है। (अयमाउसो ! ) इस प्रकार हे आयुष्मन् । यह (अगारसामाइए धम्मे पण्णत्ते) गृहस्य का धर्म सिद्धान्त मे कहा गया है। (एयस्स धम्मस्स सिकरवाए उवहिए समणोवासए वा समणोनासिया वा विहरमाणे आणाए छ त यस परिहारनु निमित्त पशुपु त भ "अन्तक्रियाधिकरण तप फल सकलर्शिन स्तुवते" तपनु ४८ सपना-पूर्व प्राणानु पिसन કરવુ એમ પ્રભુએ બતાવ્યું છે આથી જે આ અતિમ સમયે આચરવામાં નથી આવતી તે જીવનભર કરેલી વ્રત-આરાધના તપસ્યા આદિ એક પ્રકારે નિષ્ફલ જ માનવી જોઈએ આમ આની અપેક્ષાએ આ અપશ્ચિમ-સર્વેકૃe ४ी छ मा समना (मारणान्तिकी) भरना सभये धारण राय छ કાય અને કષાય આદિ જેના દ્વારા અથવા જેમા કુશ કરાય છે તેનું નામ સ લેખન છે આ સ લેખના પણ એક તપવિશેષ છે તેને પ્રેમથી ધારણ ३२वी ने मा अर्थन धोतित (प्रजाशित) ४२वा भाटे ४ "जूपणा" से ५६ मा छे (अयमाउसो) २९ मायुभन्! २॥ (अगारसामा - Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૮૨ औषपातिक अपच्छिमा-मारणंतिया-संलेहणा-असणा-राहणा १२। अय. तेन निर्वृत्त देशावकाशिकम्-निग्नतगृहीनपरिमागस्य प्रतिदिन स्क्षेपकरणम् ॥ १० ॥ 'पोसहोपासे' पोपधोपवास -पोषण पोप पुष्टिरित्यर्थरत धत्ते-गृहणातीति पोषध , स चासाघुपनासश्चेति पोपयोपवास , एतत्तु अस्य व्युपत्तिमारम्, प्रवृत्तिनिमित्त तु-आहारादिचतुष्टयपरित्याग एवेति बोध्यम्, अष्टमीचतुर्दश्यमानास्यापौर्णमासीपु अनुष्टेयो व्रतविशेष । तदुक्तम् 'आहार-तनुसत्कारा-ऽब्रह्म-सावध-कर्मणाम् । त्यागः पूर्वचतुष्टय्या, तद्विदुः पोपधनतम् ॥ ११ ॥ इति । 'अतिहिसविभागे' अतिथि विभाग -अतिथि =साधुस्तस्मै सविभाग = स्वात्म कल्याणभावनया समर्पणम् 'अपच्छिमा-मारणतिया-सलेहणा-झूसणा-राहणा अपश्चिम-मारणान्तिक-लेखना-- जूपणा-ऽऽराधना अपश्चिमा-पश्चिमैवाऽमङ्गलपरिहारार्थमपश्चिमेत्युच्यते, मरणप्राणत्यागलक्षणम्, तदेवान्तो मरणान्त , तर भला मारणान्तिका, जलिरयते कृगीक्रियतेऽनया शरीरकपायादि-इति सलेखना-तपोविशेपलक्षणा, एतत्पदत्रयस्य इस स्थान तक जाऊँगा, इस गली तक जाऊँगा, आगे नहीं ! इत्यादि। चारों प्रकार के आहार का परित्याग करना इसका नाम 'पोषधोपवास' है। यह व्रत प्रत्येक महिने की प्रत्येक अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या एव पूर्णमासी के दिन किया जाता है। कहा भी है-पर्वचतुष्टय मे-चारपर्वो में आहारका परित्याग, शारीरिक संस्कार का परित्याग, कुशाल का परित्याग आदि सावध कर्मीका जो त्याग है सो 'पोपधात है। अतिथि नाम साधु का है। साधु के लिये जो सविभाग-अपनी आत्मा के कल्याण की भावना से आहार पानी आदि समर्पण करना-सो 'अतिथिसविभाग' है। (अपच्छिमा-मारणतिया-सले. हणा-झूसणा-राहणा) संलेखना यद्यपि पश्चिम है-अर्थात्-अन्त में धारण की जाती है। જઈશ, આ ગલી સુધી જઈશ આગળ નહિ જાઉ ! ઈત્યાદિ ચારેય પ્રકારના આહારને પરિત્યાગ કરવો તેનું નામ પિષધોપવાસ છે આ વ્રત પ્રત્યેક માસની પ્રત્યેક અમી, ચતુર્દશી, અમાવાસ્યા તેમજ પૂર્ણિમાને દિવસ કરાય છે ૩ કહ્યું પણ છે-પચતુષ્ટયમા–ચાર પર્વમા આહારને પરિત્યાગ, શારીરિક સંસ્કારની પરિત્યાગ, કુશીલને પરિત્યાગ આદિ સાવધ કર્મોને જે ત્યાગ છે તે પોષધવત છે અતિથિ નામ સાધુનું છે સાધુ માટે જે સવિભાગ–પિતાના આત્માના કલ્યાણની ભાવનાથી આહાર પાણી આદિ સમર્પણ કરવું તે અતિથિ વિ मास ४ (अपन्छिमा-मारणतिया-सलेहणा-झूसणा-राहणा) सपना न પશ્ચિમ હોય છે-અ તમાં ધારણ કરાય છે, તે પણ તેને અપશ્ચિમ કહેવાય Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८३ पोयूपपिणो टोका स ५७ अगारधर्मनिरूपणम् माउसो। अगारसामाइए धम्मे पण्णते। एयस्स धम्मस सिक्खाए उवहिए समणोवासए वा समणोवासिया वा विहरमाणे आणाए आराहए हवइ ॥ सू० ५७॥ कर्भधारये--अपश्चिममारणान्तिकमले पना, नम्या जूपगा=सेवना-मग्णकाले सलेखनानाग्ना तपसा गरीरस्य कषायादीनाञ्च कृशाकरण, तस्या आराधना=निरवा उन्नतया सपादनम् ॥ १२॥ 'अयमाउसो' अयमायुप्मन् । 'अगारसामाइए धम्मे पण्णत्ते' अगारसामयिको धर्म प्रजम 'एयस्स धम्मस्स सिक्खाए उवट्ठिए समणोवासए वा समणोफिर भी यहा जो उसे अपश्चिम कहा है वह अमगलपरिहार के निमित्त से जानना चाहिये । क्यों कि " अन्तक्रियाधिकरण तप फल सफलदर्शिन स्तुवते" तप का फल स्लेखनापूर्वक प्राणों का विसर्जन करना प्रभुने बतलाया है, अत यदि यह अन्तिम समय आचरित नहीं होती है तो जीवनभर की गई व्रताराधना तपस्या आदि एक प्रकार से निष्फल ही समझना चाहिये। अत इस अपेक्षा से यह अपश्चिम-सर्वोत्कृष्ट कही गई है। यह सलेखना (मारणान्तिकी) मरण के समय धारण की जाती है। काय और कपाय आदि जिसके द्वारा अथवा जिसमें कृश किये जाते है उसका नाम म्लेखना है। यह मलेखना भी एक तप-विशेष है। टसे प्रेम से धारण करना चाहिये इस अर्थ को घोतित करने के लिये ही " जूपणा" यह पढ ठिया गया है । (अयमाउसो! ) इस प्रकार हे आयुष्मन् । यह (अगारसामाइए धम्मे पण्णत्ते ) गृहस्य का धर्म सिद्धान्त मे कहा गया है । (एयस्स धम्मस्स सिक्खाए उवट्टिए समणोवासए वा समणोबासिया वा विहरमाणे आणाए छे ते समग परिहारनु निमित्त त मे भ "अन्तक्रियाधिकरण तप फल सकलदर्शिन स्तुवते" तपनु ४८ सेमना-पूर्व प्राशन विसन કરવુ એમ પ્રભુએ બતાવ્યું છે આથી જે આ અતિમ સમયે આચરવામાં નથી આવતી તે જીવનભર કરેલી વ્રત–આરાધના તપસ્યા આદિ એક પ્રકારે નિષ્ફલ જ માનવી જોઈએ આમ આની અપેક્ષાએ આ અપશ્ચિમ-સેકૃષ્ટ उसी छे २ सपना (मारणान्तिकी) भरना सभये धारण ४२शय छे કાય અને કષાય આદિ જેના દ્વારા અથવા જેમાં કૃશ કરાય છે તેનું નામ સ લેખન છે આ લેખના પણ એક તપવિશેષ છે તેને પ્રેમથી ધારણ ४२वी ने सा अर्थ ने घोतित (प्रजाशित) ४२का भाट "जपणा" में ५६ मा छे (अयमाउसो) मा प्रकारे हे मायुभन्। । (अगारसामा Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - বাশিষ तए णं सा महतिमहालिया मयसपरिसा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोचा णिसम्म हह-तुहवासिया गा' नम्य धर्मस्य गिमायाम् उपग्थिन मगोपामको मा श्रमगोपामिका वा, शहरमाणे हिरन् 'आणाए आराहए भाइ' वाजाया आगको गति । अगारधर्मस्य विस्तरतो व्याग्या उपासादयामृतस्यागारधगलनानन्यायाया व्यायाया प्रसमा ययनऽस्माभि कृता । सू० ५७॥ टीका-'तए ण' इत्यादि । 'तए ण' तत मलु 'सा महतिमहालिया' सा महातिमहनी अतिविशाला-'ममणपरिसा' मनुष्यपग्पिद् ‘समणम्स भगवओ महावीररस अतिए' श्रमणस्य भगवतो महावीरस्याऽन्तिके समीपे 'धम्म सोचा आराहए हवड) इस धर्म की शिक्षा में उपस्थित चाहे श्रमण का उपासक-गृहस्थ हो चाहे श्रमण की उपासिका-श्राविका हो, कोई भी क्यों न हो, जो भी प्रागी इस धर्म का छनच्छाया में अपने आपको विसर्जित कर देता है. अर्थात्-इन व्रती की आराधना करता है वह तीर्थकर प्रभु की आज्ञा का आराधक माना गया है। अगारधर्म की विस्तृतरूप से व्याख्या उपासकदशाग सूत्र के ऊपर विरचित अगारधर्मजीवनीनामकी टीका में प्रथम अ ययन में की गई है । अत विशेषार्थी विषय को वहा से विस्ताररूप मे देख ले ।। सू० ५७॥ 'तए णं सा महतिमहालिया' इत्यादि । (तए ग) तदन्तर (सा महतिमहालिया) वह अतिविशाल (मणूसपरिसा) मनुष्यों की सभा (समणस्स) श्रमण (भगवओ) भगवान (महावीरस्स) महावीर के इए धम्मे पण्णत्ते) डायना धर्म सिद्धातभा सा (एयस्स धम्मस्स सिस्साए उपट्टि समणोनासए वा समणोवासिया वा विहरमाणे आणाए आरा. हए हवइ) धनी शिक्षामा उपस्थित, साडे भरना SI४-७२५ હાય, ચાહે શ્રમણની ઉપાસિકા-શ્રાવિકા હોય, જે કોઈ પણ પ્રાણી આ ધર્મની છત્રછાયામાં પિતાની જાતનું વિસર્જન કરી દે છે–આ વ્રતના આરાધના કરે છે, તે તીર્થ ઠર પ્રભુની આજ્ઞાના આરાધક મનાય છે અગાર ધર્મની વિસ્તૃતરૂપથી ચાખ્યા ઉપાસકદરાગસૂત્રના ઉપર બનાવેલી અગારધર્મસજીવની નામની ટીકામા પ્રથમ અધ્યયનમાં કરવામાં આવેલી છે, માટે વિશેષ જિજ્ઞાસુઓએ આ વિષયને ત્યાથી વિસ્તારરૂપે જોઈ લે (સૂ૦ ૫) 'तए ण सा महतिमहालिया' त्यादि (तए ) त्या२ ५७ (सा महितमहालिया) से मतिपिश (मणूस Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोपयपिणी टोका र ५८ भगरतोऽन्तिरे बहूना प्रव्रज्यादि ग्रहणम १८५ जाव-हियया उद्याए उट्टेड, उहिता समणं भगव महावीर तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिण करेइ, करिता बदइ णमंसड, वंदित्ता णमंसित्ता अत्थेगइया मुडे भवित्ता अगाराओ अणणिसम्म ' धर्म श्रुना=आपये, निगम्य-दि भृत्या, 'हट्ठ -तुट्ठ-जार-हियया' दृष्ट-तुष्टयावद्-दन्या 'उठाए उठे' उयया उथानगत्या उत्तिष्ठत्ति 'उद्वित्ता' उयाय, 'समणस्स भगाओ महावीररस' अमगस्य भगवतो महावीरस्य 'तिरखुत्तो' निकृव , 'जायाहिणपयाहिण करेड' आदक्षिणप्रदक्षिण करोति, 'करित्ता' कृत्वा, ‘वदइ णमसइ ' वन्दते नमरयनि, 'पदित्ता णमंसित्ता' वन्दि वा नमस्यित्वा, तत्र--' अत्थेगइया' सन्त्येकके केचित् 'मुंडे भवित्ता' मुण्डा भृत्वा 'जगारामो' अगाराद्-गृहात्गृह परित्ययेत्यर्थ , 'अणगारिय' अनगारिता साधुता प्रबजिता प्राप्ता , 'अत्थेगडया' (अतिए) समीप (पम्म) धर्म का व्यारयान (सोचा) सुनकर, एव अच्छी तरह उसे (णिसम्म) हृदयगम कर (हट्ठ-तुद्व-जाव-हियया) बहुत ही अधिक हर्पित एव स्तुष्टचित्त हुई, (उढाए उठेद) पश्चात् अपने २ आमन से उठी, (उद्वित्ता समणं भगवं महावीर तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिण करेइ करित्ता बदद णमसइ) उठ कर फिर उसने श्रमण भगवान महावीर को तानवार आदक्षिणप्रदक्षिणपूर्वक वन्दन-नमस्कार किया, (वदित्ता णमसित्ता जत्थेगटया मुढे भवित्ता अगाराओ अणगारिय पन्नध्या) बटना-नमस्कार कर के किननेक मनुष्योने मुटित होकर, अपने २ घर को छोडकर उनके पास अनगार बने, अर्थात् दीक्षा वारण की। (अत्यंगट्या पचाणुन्बट्य सत्तसिक्खापदय दुवालसविह गिहिपरिसा) मनुष्यानी मला (समणस्स) श्रम (भगरओ) भगवान (महावीरस्स) भडावीना (अंति) सभा (धम्म) श्रुतयारित्र३५ धनी देशना (सोन्चा) सामान तभी सारीत तेन (णिसम्म) हय गम उगने (हट-तुट्ठ-जाव हियया) र एपित तमर सत५ पाभी, (उदाए उद्वेइ) 0 पोतपोताना मासनेयी Gl, (उद्वित्ता समग भगर महावीर तिम्खुत्तो आयाहिणपयाहिण करेइ, करित्ता वदइ णमसइ) 0२, ५ तभणे अभए सगवान महावीरने त्रशुवार माइक्षि-महक्षिण-पूर्व पन नमार उर्या, (वदित्ता णममित्ता अत्येगइया मुटे भवित्ता अगाराओ अणगारिय पञ्चइया) पना-नभ७२ ४शन 32 મનુષ્યએ મુડિત થઈને પિતાના ઘર છોડીને તેમના પાસે અનગાર यया, अर्थात् बीक्षा सीधी (अत्थेगइया पचाणुव्वइय सत्तसिक्सावइय दुवाल Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ ओषपातिकमा गारियं पव्वइया, अत्थेगडया पचाणुव्वडयं सत्तसिम्खावइय दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवण्णा ॥ सू० ५८॥ मूलम्-अवसेसा णं परिसा समणं भगवं महावीर वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-सुअक्खाए ते सन्येरुके 'पंचाणुब्वइय सत्तसिखावाय दुपालसहिं गिहिधम्म पडिवण्णा' पञ्चा णुवतिक सप्तशिक्षागतिक द्वादशविध गृहिधर्म प्रतिपन्ना ॥ मू०५८ ॥ टीका-'अवसेसा ण परिसा' इत्यादि । 'अपसेसा ण परिसा समण भगव महागीर बदद णमसइ, वदित्ता णमसित्ता एव वयासी' अवर्गपा अवांनाष्टा खल परिपतु श्रमण भगान्त महावीर चन्दते नमस्यति, वन्दिया नमस्यित्वा एवमनादात्'मुअक्खाए ते भते । णिग्गये पारयणे' स्वारयात=सुष्टु कथित सामान्यतस्त्वया भदन्त । निम्रन्थ प्राचनम् , 'एव मुप्पण्णचे' एव सुप्रज्ञमम्-विशेपकथनात् , 'मुभासिए' धम्म पडिवण्णा) कितनेकों ने पाँच अणुवत, सात शिक्षानत-दम तरह १२ प्रकार का गृह स्थधर्म स्वीकार किया ॥ सू ५८॥ 'अवसेसा ण परिमा' इत्यादि । (अपसेसा ण परिसा) अवशिष्ट परिपत्ने (समण भगव महावीर) श्रमण भग वान् महावीर को (वंदद णमसइ) वन्दना एव नमस्कार किया, (पदित्ता णमसित्ता एवं यासी) वदना नमस्कार करने के बाद फिर उन्होंने इस प्रकार कहा-(सुअक्खाए त भते ! जिग्गथे पावयणे) हे भदन्त । आपने निर्ग्रन्थ प्रवचन बहुत अच्छा कहा, (एव सुप्प ण्णत) और आपने इसका बहुत अच्छी तरह से प्ररूपण किया, (सुभासिए) आपन सूब सविह गिहिधम्म पडिपण्णा) 32सा ५५ मानत मा शिक्षाप्रत ओम १२ પ્રકારને ગૃહસ્થ ધર્મ સ્વીકાર કર્યો (સૂ ૫૮) 'अवसेसा ण परिसा' ईत्यादि (अवसेसा ण परिसा) पानी परिप(समण भगव महावीर) भए, लगवान महावीरने (वदइ णमसइ) पहुना तमा नम२४१२ ४ो, (वदित्ता णमसित्ता एव पयासी) पहना नभ२०१२ ४या ५ तेमाये माप्रमाणे धु-(मुअक्साए ते भते । णिग्गथे पावयणे) हे सहन्त ! मा निधन्य अवयन गहु सा३ ४ , (एव सुप्पण्णत्ते) भने मापे तेनु : सारी शेते प्र३५ उयु (सुभासिए) Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८७ पोयूपयषिणो-टीका र ५९ परिपद स्वस्वस्थानगमनम् भंते । णिग्गंथे पावयणे, एवं सुप्पण्णत्ते, सुभासिए, सुविणीए, सुभाविए। अणुत्तरे ते भंते । निग्गंथे पावयणे । धम्म णं आडक्खमाणा तुम्भे उवसमं आडक्खह, उवसमं आइक्खमाणा विवेगं आइक्खह, विवेगं आडक्खमाणा वेरमणं आइक्खह, वेरमुभाषितम्-भावन्यजनात , 'सुविणीए' सुविनीतम्-शिष्येषु सुष्टु विनियोजितत्वात् , 'सुभाविए' सुभावितम् मुटु भाषितम्-तत्वकथनात् , 'अणुत्तरे' अनुत्तर-नाख्त्युत्तर यस्मात् तद्-अनुत्तर-मर्वश्रेष्ठ, तर भदन्त निम्रन्य प्रवचनम् । 'धम्म ण आइक्वमाणा तुम्भे उपसम आरक्वह' धर्म सन्याचक्षाणा यूयमुपशमम्-क्रोधादिनिरोधम् आरयाथ= कथयथ, 'उपसमं आटक्वमाणा विवेग आइक्खह' उपशममाचक्षाणा विवेकमाख्याथ, कोपादिनिरोध कथयन्तो यूय विवेक-हयोपादेयविवेचन कथयय, 'विवेग आइक्खमाणा वेरमण आठवह '-विवेकमाचक्षाणा निरमणमारयाय, निरमणम्-आणातिपातादिनिवर्त मुन्दर रूप से पदार्थों के स्वरूप को प्रकट किया, (मुविणीए) आपने शिष्यों को खून समझाया, (सुभाविए) जीवादि सभी तत्वो को आपन अच्छी तरह से समझाया । (अणुत्तरे ते भते 'णिग्गथे पावयणे) हे भदन्त आपका यह निम्रन्य प्रवचन सर्वोत्कृष्ट है। हे भदन्त । (धम्म ण भाइक्खमाणा तुम्भे उवसम आटक्खह) धर्मका उपदेश करते समय आप उपशम भार क्रोधातिनिरोध का उपदेश करते हैं, (उवसम आइक्खमाणा विवेगआटक्खह) क्रोधादिक के निरोध का उपदेश करते समय हयोपादेयरूप विवेक का उपदेश देते है, (विवेग आठक्खमाणा वेरमण आइक्खह) विवेक का उपदेश करते समय प्रागातिपातादिक से विरक्त होने का भी उपदेश करते है, (वेरमण आरक्खमाणा अमरण पावाण कम्माण आइ माघे भूम सु. ३५थी पहाथीना सपने ८ उर्या (सुपिणीए) माये शिष्याने भूम यमालच्या (सुभाविए) पाहिमा तत्वाने भारी सभालच्या (अणुत्तरे ते भते 'णिग्गथे पावयणे) हे महन्त | मापनु 21 निर्धन्य प्रयन भोट छ है महन्त । (धम्म ण आइस्यमाणा तुन्भे उपसम आइक्सह) ધર્મનો ઉપદેશ કરતી વખતે આપે ઉપશમભાવ-ક્રોધાદિનિધને ઉપદેશ ध्या छ (उपसम आइस्यमाणा विवेग आइम्सह) डोपामिना निरोधने। 8५हेश ७२ती मते य-पाय ३५ विवेनो उपहेश ४या छ (विवेग आइक्समाणा वेरमण आइक्सह) विवेउन पहेश ४२ती मते प्रातिपातास्थिी Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओपपातिवस्त्र ૪૮૮ मणं आइक्खमाणा अकरणं पावाणं कम्माणं आडक्खह । त्थि णं अण्णे केइ समणे वा माहणे वा जे एरिसं धम्ममाइक्वि. तए, किंमंग ! एत्तो उत्तरतरं , एवं वदित्ता जामेव दिसं पाउ भूया तामेव दिसं पडिगया ॥ सू०५९ ॥ नम् , 'वेरमणं आइसवमाणा अकरण पापण कम्माणं आइरसह' विग्मगमाच क्षाणा अफरण पापाना कर्भगामारयाय-पापरूपाणा कर्मणामकरणम्-अनाचरण कथयथ, 'णस्थि ण अण्णे केइ समणे या पाहणे पा जे एरिस धम्ममाइक्खित्तए' नार खन्वन्य कोऽपि श्रमणो वा नाह्मणो या य ईदृया धर्ममारयायात , 'किमग पुण एता उत्तरतर' किमन । पुनरेतस्मात् उत्तरतरम्-अस्माद्धर्मापदेशादत्कृष्ट कथयिष्यतीति का सम्भावना ' न कापा यर्थ , 'एव दित्ता जामेव दिस पाउम्भूया तामेव दिस पाडगया' एवम् उदित्वा यस्या एव दिश प्रादुर्भूतास्तामेव दिन प्रतिगता || सू०५९॥ कावह) प्राणातिपातादिक के पिरमण का उपदेश देते हुए आप पापरूप कमी को नहा करने की उपदेश भी देते है । अत (णत्थि ण अण्णे केइ समणे वा माहणे वा जे एरिस धम्ममा क्खित्तर) इस नसार मे है नाथ 1 एसा और कोई दूसरा श्रमण वा नाहग उपदेष्टा नही है जो इस प्रकार के धर्म का उपदेश दे सके, (किमग! पुण एत्तो उत्तरतर) फिर इस उत्कृष्ट धर्म का उपदेश कौन दे सकता है । अर्थात् कोई नही । (एव बदित्ता जामन दिसि पाउन्भूया तामेव दिस पडिगया) इस प्रकार कह कर वे सन जिस दिशा से आय थे उसी दिशा की ओर चले गये । सू ५९॥ वित पानी उपदेश न्योछे (रमण आइसमाणा अकरण पावाण कम्मा आइसह) प्रापातिपाताहिना विरभराना पहेश ती मते मा पा५३५ भी न ४२पाने। पY पहेश यो छ भाटे (थि ण अण्णे केइ समणे वा माहणे वा ने एरिस धम्ममाइम्सित्तए) ससारमा, हे नाथ! मेवा on કઈ શ્રમણ કે બ્રાહ્મણ ઉપદેષ્ટા નથી કે જે આ પ્રકારના ધર્મને ઉપદેશ साथी श (किमग । पुण एत्तो उत्तरतर) तापी मानाथी रट पमना ५ थए, माश? | मर्थात् ३७ नडि (एन वदित्ता जामेव दिसि पाउन्भूया तामेव सि पडिगया) मा जारे ४हीन ते पाहशामेथी २१व्या छता તે જ દિશા તરફ પાછા ચાલ્યા ગયા (સૂ ૫૯) Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पीयूषयषिणी-टीका स ६० पूणिकस्य स्यस्थाने गमनम् ४८९ मूलम्-तए णं से कूणिए राया भंभसारपुत्ते समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोचा णिसम्म हहतुट्ट-जाव-हियए उठाए उद्वेइ, उहित्ता समणं भगवं महावीर तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करित्ता वंदइ, णमंसइ, टीका-'तए ण से' इत्यादि । 'तए ण से कूणिए राया भभसारपुत्ते' तत खलु स कूणिको राजा भमसारपुत्र , 'समणम्स भगवओ महावीरस्स अतिए धम्म सोचा णिसम्म ' श्रमणस्य भगवतो महावीरस्याऽन्तिके धर्म श्रुत्वा निशम्य, 'हट्ठतह-जाव-हियए' दृष्ट-तुष्ट-यावद्धदय 'उद्वाए उठेइ ' उर्थयोत्तिष्ठति, ‘उद्वित्ता' उथाय श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य 'तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिण करेइ' त्रिकृत्व आदक्षिणप्रदक्षिण करोति, 'करित्ता' कृत्वा 'बदइ णमसइ' वन्दते नमस्यति, 'वदित्ता 'तए ण से कूणिए राया' इत्यादि । (तए ण) अनन्तर (से कूणिए राया भभसारपुत्ते) भभसार के पुत्र उन कूणिक राजाने (समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रमण भगवान महावीर के (अतिए) पास मे (धम्म सोचा) धर्मापदेश सुनकर, (णिसम्म) एव उसका अच्छी तरह पूर्वापररूप से विचार कर, (इट्ठ-तुटु-जाव-हियए) चित्त में अधिक से अधिक आनद एव सतोष प्राप्त किया, (उठाए उद्देइ) बाद में अपने स्थान से उठे और (उद्वित्ता) उठकर (समण भगव महावीरंतिक्खुत्तो अयाहिणपयाहिण करेइ करित्ता वदइ णमसइ) उन्होंने श्रमण भगवान महावीर की तीनवार आदक्षिणप्रदक्षिणपूर्वक वदना एव नमस्कार किया, (वदित्ता णमसित्ता एव "तए ण से कूणिए राया" त्यात (तए ण) त्या२ पछी (से कूणिए राया भभसारपुत्ते) साना पुत्र ते खि २ (समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रम सगवान महावीरनी (अतिए) पासे (धम्म सोच्चा) पहेश सासणीन. (णिसम्म) तभ० तेने सारी शत पूर्वा५२३५था पिया२ ४रीन, (हनु-तुट्ठ-जाव-हियए) भनमा मर्ड on मानतभर सतोष प्रास ४या, (उद्राए उट्रेइ) त्यार पछी पोताना २यानेथी या, भने (उद्वित्ता) हीन (समण भगव महावीर तिम्खुत्तो आयाहिणपयाहिण करेइ करित्ता वदइ णमसइ) तेभरे श्रम लगवान महावीरने त्रपा२ माइक्षि-प्रदक्षिणपूर्व४ पहना तेभर नभ२४१२ ४ा (वदित्ता णमसित्ता Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९० औपपातिकमरे वंदित्ता णमंसित्ता एवं बयासी-सुअम्खाए ते भंते। णिग्गंथे पावयणे जाव किमग! पुण एत्तो उत्तरतरं एवं वदित्ता जामव दिसं पाउभूए तामेव दिसं पडिगए। सू०६०॥ णमसित्ता एव बयासी' यदिया नमस्यिता एवमवादीत- मुअक्वाए ते भते ! णिग्गंये पावयणे नाव फिमग ! पुण एत्तो उत्तरतर' स्वाग्यात तर भदत । निमन्थ प्रवचनम् यावत् फ्रिमा पुनरतस्मादुत्तरतरम् । 'एर पदित्ता जामेव दिस पाउन्भूए तामेव दिस पडिगए' ण्यम् उदिना यस्या एक दिश प्रादुर्भूत , तामेव दिश प्रतिगत ॥ सू० ६०॥ वयासी) वदना एव नमस्कार कर फिर उन्हान प्रभु से इस प्रकार कहा-(सुअक्साए । भते । णिग्गये पारयणे) हे भदन्त । आपन निम्रय प्रवचन का उपदेश बहुत ही सुदर पूर्वापरविरोधरहित-सर्वोकृष्ट किया है । (जार किमग पुण एत्तो उत्तरतर) इस न प्रवचन में ऐसा कोई सा भी विपय नाकी नहीं बचा जिस पर आपन प्रकाश न डाल अच्छी तरह से विवेचन नहीं किया हो । आपन सब कुछ एक ही साथ बहुत ही अच्छी तरह शब्दों में समझा दिया है, हमने तो ऐसा उपदेश आजतक नहीं सुना, कल्याण एवज नके उपयोगी सब विषय आपने कहे है ।-इत्यादि । एव वदित्ता जामेव दिस पाउन्भू तामेव दिस पडिगए) इस प्रकार प्रभु को स्तुति रूप में कह कर कूणिक राजा जिस १५० से आये थे उसा दिशा का ओर वहा से वापिस चले गये ।।सू० ६०॥ P ग्व वयासी) पहना तेभर नमा२ ४शन पछी तसा प्रलुन मा 3-(सुअक्साए ते भते ! णिग्गथे पावयणे) हे महन्त | आप मा नियन्य પ્રવચનને ઉપદેશ બહુજ સુદર-પૂર્વાપરવિધરહિત-સર્વોત્કૃષ્ટ થયા છે (जाव किमग पुण एतो उत्तरतर) मा निन्य अवयनमा मेवा 10 વિષય બાકી રહ્યો નથી જેના ઉપર આપે પ્રકાશ ન નાખે હેયસારી : વિવેચન ન કર્યું હેય આપે તમામેન્તમામ એક સાથેજ બહુજ સારી ૧ મીઠા શબ્દોમાં સમજાવી દીધુ છે અમે તે એ ઉપદેશ આજ સુથ સાભળ્યું નથી કયાણ તેમજ જીવનમાં ઉપયોગી બધા વિષય આપે કલ્પ छ त्यहि (एव वदित्ता जामेव दिस पाउन्भए तामेव दिस पडिगए) - પ્રકારે પ્રભુની સ્તુતિરૂપમાં કહીને કૃણિક રાજા જે દિશાએથી આવ્યા હતા તે દિશા તરફ પાછા ચાલ્યા ગયા ( ૬૦) Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषयपिणी-टोका सू ६१ सुभद्रादीना म्यस्थाने गमनम ४९१ मूलम्-तए णं ताओ सुभद्दापमुहाओ देवीओ समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोचा णिसम्म हट्ठ-तुह-जाव-हिययाओ उठेति, उहित्ता समणं भगवं महावीर तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिण करेंति, करित्ता वंदति णमंसंति, ___टीका-'तए ण ताओ' इत्यादि । 'तए ण ताओ सुभद्दापमुहाओ देवीओ' तत ग्वल ता सुभद्राप्रमुसा देव्य 'समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए' श्रमणस्य भगवतो महावीरस्याऽन्तिके 'धम्म सोचा णिसम्म हट्ठ-तुट्ठ-जाव-हिययाओ' धर्म ध्रुवा निशम्य दृष्ट-तुष्ट यावद्दया 'उठाए उट्टेति' उत्थयोत्तिष्ठन्ति, 'उट्ठि त्ता समणस्म भगवो महावीरम्स' उ थाय श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य 'तिरखुत्तो ___ आयाहिणपयाहिण फरेंति' विकृव आदक्षिणप्रदक्षिण कुर्वन्ति, 'करित्ता वदति णमसति' 'तए णं ताओ मुभदापमुहाओ' इत्यादि । (तए ण) इस के बाद (ताओ सुभद्दापमुहाओ देवीओ) वे सुभद्राप्रमुस देवियाँ ___ भी (समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रमण भगवान महावीर के (अतिए) ममीप (धम्म सोचा) पर्म श्रपण कर, एव (णिसम्म) उसे हृदयगम कर, (हट्ठ-तुट्ठ-जाव-हिययाओ) बहुत ही अधिक खुश एव मतुष्ट होती हुई जहाँ वे गडी था वहाँ से (उठाए उढेति) चल कर भगवान के समीप आयी, (उद्वित्ता) आकर उन्होंने (समणं भगवं महावीर तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिण करेंति करित्ता वदति णमसति) श्रमण भगवान् महावीर की तीन "तए ण ताभो सुभद्दापमुहाओ” त्या (तए ण) त्या२ पछी (ताओ सुभदापमुहाओ देवीओ) ते सुभद्रा-प्रभुम हेवीमा ५५ (समणस भगरओ महागीरम्स) श्रभर मावान महावीरना (अतिए) सभाप (धम्म सोचा) धर्म-श्रवण ४शन, तेभन (णिसम्म) तनय गम ४रीने (हठ्ठ-तुटू-जाव-हिययाओ) महुर भुस तम सतोष पामती ज्या तया Geी ती त्याथी ( उढाए उद्वेति ) यासीन माननी पासे मावी, (उद्वित्ता) मापीन समाये ( समण भगव महावीर तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिण करेति, करित्ता वदति णमसति) श्रम मापान मडपीरने वा२ माइक्षिण Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __४९० औपातिकमा वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-सुअम्खाए ते भंते। णिग्गंथे पावयणे जाव किमंग। पुण एत्तो उत्तरतरं एवं वदित्ता जामेव दिसं पाउम्भूए तामेव दिसं पडिगए ॥सू०६०।।। णमसित्ता एक बयासी' पदिया नमस्यि या पबमारीत-मुअम्पाए ते भते. णिग्गये पावयणे जाव किमग! पुण एत्तो उत्तरतर' स्वाग्यात ता भदत ! निमे न्थ प्रवचनम् यावत् किमा । पुनरेतस्मादुत्तरतरम् । 'एर पदित्ता जामेव दिस पाउन्भूए तामेव दिस पडिगए' एवम् उतिया यस्या र दिश प्रादुर्भूत , तामेव दिस प्रतिगत ॥ सू०६०॥ वयासी) वदना एर नमस्कार कर फिर उन्हान प्रभु से इस प्रकार कहा-(सुअक्साए । भते । णिग्गथे पावयणे) है भदन्त । आपन निर्गय प्रवचन का उपदेश बहुत ही सुपर पूर्वापरविरोधरहित-सर्वोकृष्ट किया है । (जाव किमग पुण एत्तो उत्तरतर) इस । प्रवचन में ऐसा कोई सा भी निपय बाका नहीं बचा जिस पर मापन प्रकाश न डाला अच्छी तरह से विवेचन नहीं किया हो । आपन सन कुछ एक ही साथ बहुत हीअच्छी तरह शब्दों में समझा दिया है, हमने तो ऐसा उपदेश आजतक नहीं सुना, कल्याण एव जान नके उपयोगा सर विषय आपने कहे है। इयादि । एर वदित्ता जामेव दिस पाउन तामेव दिस पडिगए) इस प्रकार प्रभु की स्तुति रूप में कह कर कूणिक राजा जिस से आये थे उसी दिशा की ओर वहा से वापिस चले गये ॥ सू० ६०॥ एव वयासी) पनी तमा नभ४२ ४शन पछी तसा प्रभुने मा प्रकार धु-(सुअक्साए ते भते । णिग्गथे पावयणे) महन्त ! माप! ". પ્રવચનને ઉપદેશ બહુજ સુદર-પૂર્વોપરવિરધરહિત–સર્વોત્કૃષ્ટ થયા (जाव किमग । पुण एत्तो उत्तरतर) मा निन्य अवयनमा सवा ७ વિષય બાકી રહ્યો નથી જેના ઉપર આપે પ્રકાશ ન નાખે હેય-સારી વિવેચન ન કર્યું હોય આપે તમામે તમામ એક સાથે જ બહુજ સારા મીઠા શબ્દોમાં સમજાવી દીધુ છે અને તે એવો ઉપદેશ આજ છે સાભળે નથી કલ્યાણ તેમજ જીવનમાં ઉપયોગી બધા વિષય આપે છે छ त्यहि. (ण्व वदित्ता जामेव दिस पाउभए तामेव दिस पडिगए) પ્રકારે પ્રભુની સ્તુતિરૂપમા કહીને કૃણિક રાજો જે દિશાએથી આવ્યા હs તે દિશા તરફ પાછા ચાલ્યા ગયા (સ ૬૦) | पक्ष આ Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ पोषषिणी-टोका सू ६१ सुभद्रादीना म्यस्थाने गमनम १९१ मूलम्-तए णं ताओ सुभद्दापमुहाओ देवीओ समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म सोचा णिसम्म ह-तु-जाव-हिययाओ उटेति, उहित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिण करेति, करित्ता बंदति णमंसंति, टीका-'तए ण ताओ' दयादि । 'तए ण ताओ मुभद्दापमुहाओ देवी__ ओ' तत म्बलु ता सुभद्राप्रमुसा देव्य 'समणम्म भगवओ महावीरस्म अतिए' श्रमणस्य भगवतो महावीरस्याऽन्तिके 'पम्म सोचा णिसम्म हट्ठ-तुटू-जाव-हिययाओ' धर्म ध्रुवा निशम्य हष्ट-तुष्ट यावद्धृत्या 'उठाए उद्वेति' उ थयोत्तिष्ठन्ति, 'उट्ठि ता समणस्म भगवो महावीरम्स' उयाय श्रमणस्य भगरतो महावीरस्य 'तिरखुत्तो ___ आयाहिणपयाहिण फरेंति' त्रिकृय आदक्षिणप्रदक्षिण कुर्वन्ति, 'करित्ता वदति णमसति' 'तए ण ताओ सुभद्दापमुहाओ' इत्यादि । (तए ण) इस के बाद (ताओ मुभद्दापमुहाओ देवीलो) वे सुभद्राप्रमुस देवियाँ भी (समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रमण भगान महावीर के (अतिए) ममीप (धम्म सोचा) पर्म श्रवण कर, एव (णिसम्म) उसे हृदयगम कर, (हट्ठ-तद्व-जाव-हिययाओ) बहुत ही अधिक खुश र मतुष्ट होती हुई जहाँ वे बटा थीं वहाँ से (उठाए उट्टेति) चल कर भगवान के समीप आया, (उद्वित्ता) आकर उन्होंन (समण भगवं महावीर तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिण करेंति करित्ता वदति णममति) श्रमण भगवान् महावीर की तीन "तए ण ताभो सुभद्दापमुहाओ" त्या (तए ण) त्या२ पछी (ताओ सुभदापमुहाओ देवीओ) ते सुभद्रा-प्रभु देवीमा ५५ (समणम्स भगरओ महावीरम्स) भए भगवान महावीरना (अतिए) सभीये (वम्म मोन्चा) धर्म-श्रवा रीन, तमा (णिसम्म) तनयम ४रीने (हनु-तुद्व-जाव-हिययाओ) पहुँ। मुरा तमा मता५ पामती ज्या तमा Sel ती त्याथी ( उडाए उडेति ) यासीन लापाननी पासे यावी, (उद्वित्ता) आवीन तमाये ( समण भगा महावीर तिम्खुत्तो आयाहिणपयाहिण करेंति, करित्ता वदति णमसति) अभय लगवान महावीरने वा२ माइक्षिण Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९० औपचाficat वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी - सुअखाए ते भंते । णिग्गंधे पावणे जाब किमंग | पुण एत्तो उत्तरतरं । एवं वदित्ता जामेव दिसं पाउन्भूए तामेव दिसं पडिगए ॥ सू०६० ॥ जात्र णमसित्ता एव वयासी' वन्दिना नमस्य वा एवमादीन' सुअक्साए ते भंते! णिग्गंये पात्रयणे जात्र किमंग ! पुण एतो उत्तरतर ' स्वाम्यात तर भ 1 ! न्थ प्रनचनम् यावत् किमङ्ग ' पुनीतस्मादुत्तरतरम् ' ' एव नदित्ता जामेव दिसं पाउन्भूए तामेव दिस पडिगए' एवम् उदिया यस्या न दिश प्रादुर्भूत तामेव दिश प्रतिगत ॥ सू० ६० ॥ , वयासी) वदना एव नमस्कार कर फिर उन्होंने प्रभु इस प्रकार कहा -(अक्खाए ते भते ! णिग्गये पावणे) हे भदन्त । आपन निर्ग्रन्थ प्रवचन का उपदेश बहुत ही सुदर पूर्वापरविरोधरहित-सर्वोकृष्ट किया है। (जार किमग पुण एत्तो उत्तरतरं ) इस निर्प्रथ प्रवचन में ऐसा कोई सा भी विषय नाकी नहीं बचा जिस पर आपन प्रकाश न डाला होअच्छी तरह से विवेचन नहीं किया हो। आपन सब कुछ एक ही साथ बहुत ही अच्छी तरह मीठ शब्दों में समझा दिया है, हमने तो ऐसा उपदेश आजतक नहीं सुना, कल्याण एवं जीवनके उपयोग। सत्र विषय आपने कहे है। - इत्यादि । एव वदिता जामेव दिसं पाउन्भूए तामेव दिस पडिगए) इस प्रकार प्रभु का स्तुति रूप में कह कर कूणिक राजा जिस दिशा से आये थे उस दिशा की ओर वहा से वापिस चले गये ॥ मू० ६० ॥ પ્રકારે एव वयासी) पहना तेभन नमस्कार नेपछी तेथे प्रभुने भा ४- (सुअक्साए ते भते ! णिग्गथे पावयणे) हे लहन्त । आायो। या निर्भन्थ પ્રવચનના ઉપદેશ અહુજ સુદર-પૂર્વાપરવિધરહિત-સત્કૃષ્ટ થયા છે ( जाव किंमग ! पुण एत्तो उत्तरतर) मा निर्थन्य अवयनमा सेवा अर्धप વિષય બાકી રહ્યો નથી જેના ઉપર આપે પ્રકાશ ન નાખ્યા હાય-સારી રીતથી વિવેચન ન કર્યું હાય આપે તમામેતમામ એક માથેજ બહુજ સારી પેઠે મીઠા શબ્દોમાં સમાવી દીધુ છે અમે તે એવા ઉપદેશ સાભળ્યે નથી કલ્યાણ તેમજ જીવનમા ઉપયાગી અધા વિષય આપે કહ્યા छे र्धत्याहि (एव वदित्ता जामेव दिस पाउन्भूय तामेव दिस पडिगए) या પ્રકારે પ્રભુની સ્તુતિરૂપમા કહીને કૂણિક રાન્ત જે દિશાએથી આવ્યા હતા તે દિશા તરફ પાછા ચાલ્યા ગયા (સ્ ૬૦) આજ સુધી Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - पोयूषषिणी-टीका स् ६१ सुभप्रादीना स्वस्थाने गमनम वदित्ता जामेव दिस पाउन्भूयाओ तामेव दिस पडिगयाओ' एवम् उदित्वा यस्या व दिश प्रादुर्भूता , तामेव दिश प्रतिगता ॥ सू० ६१ ॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगहल्लम-प्रसिदवाचक - पश्चदशभापालितललितकलापालापक___ प्रविशुद्धगधपधनैका थनिर्मापक--वादिमानमर्दक-श्रीशारत्रपति कोल्हापुरराज-प्रदत्त जैनशास्त्राचार्य-पदपित-कोन्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर--पूज्यश्रीघासीलालनतिविरचितायाम् औपपातिकसूत्रम्य पीयूषर पिण्याच्याया व्याख्याया समवरणनामक पूर्वाई सम्पूर्णम् । तामेव दिस पडिगयाओ) इस प्रकार भक्तिभाव से प्रमु की स्तुनि करके वे सब रानियाँ जहा से आई थी वहीं वापिस चली गयौं । सू० ६१॥ ॥इति औषपातिक सूनका समवसरणनामक पूर्वाई सपूर्ण । जामेव दिस पाउन्भूयाओ तामेव दिस परिगयाओ) मा रे तिलायी પ્રભુની રતુતિરૂપે નિવેદન કરીને તેઓ બધી રાણીઓ જ્યાથી આવી હતી ત્યા પાછી ચાલી ગઈ (સ ૬૧) ઈતિ ઔયપાતિક સૂત્રનુ સમવસરણ નામક પદ્ધ સ પૂર્ણ Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९२ औपपातिक वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी - सुक्खाए ते भंते । निग्र्गये पावयणे जाव किमंग ! पुण पत्तो उत्तरतरं ?, एवं वदिता जामेव दिसं पाउन्भूयाओ तामेव दिसं पडिगयाओ ॥ सू०६१ ॥ || समोसरणं नाम पुव्वद्ध समत्त ॥ कृत्या वन्दन्ते नमस्यन्ति दित्ता णमसित्ता एव प्रयासी' वन्दिया नमरियवैवमवादिषु - 'सुक्खाए ते भते ! निग्गये पावयणे जान किमग ! पुण एत्तो उत्तरतर ?' स्वा ख्यात तव भदत ! निर्मथ प्रवचनम् यावत् किमन । पुनरेतस्मादुत्तरतरम् ' ' एव चार आदक्षिणप्रदक्षिणपूर्वक वदना एव नमस्कार किया, (दत्ता नर्मसित्ता एव वयासी) वदना नमस्कार करने के अनन्तर फिर वे प्रभु से इस प्रकार बोलीं कि (सुयक्खाए ते भंते ! णिग्गये पात्रयणे) आपने ह भदन्त । इस निर्मथ प्रवचन का उपदेश बहुत ही सुन्दर पूर्वापरनिरोधरहित--सर्वो कृष्टरूप से किया है। (जात्र किमग ! पुण एतो उत्तरतर) है प्रभो ! आपने इस निर्ग्रन्थ प्रवचन में सब ही विषयों को अच्छी तरह समझाया है। कोई भी विषय ऐसा नहीं रहा कि जिस पर आपकी वाणी का अविरल प्रवाह न यहा हो । सन कुछ आपने बहुत सरल भाषा में समझा दिया है। हमने तो आजतक इतना मार्मिक उपदेश नहीं मुना, इससे उत्तम उपदेश की बात ही कहाँ ' (एव वदिता जामेव दिस पाउन्भूयाओ प्रदक्षिणपूर्व ५ वहना तेभन नभम्भर र्या, (वदित्ता णमसित्ता एव वयासी) वहना-नभस्ठा२ ४री सीधा पछी तेयो प्रभुने सा अक्षरे अ ( मुयक्साए ते ते ' मिये पावणे) आये हे लहन्त । सा निर्थन्थ अवथननो उपदेश जहुन सारीरीते, पूर्वापरविरोधरहित तेमन सर्वोत्कृष्ट भ्यो छे (जाव किमंग । पुण तो उत्तरतर) हे प्रले! ' मापे या निर्थन्थ अवयनमा अधाये વિષયાને સારી રીતથી સમજાવ્યા છે કાઈ પણ વિષય એવા નથી રહ્યો કે જેના ઉપર આપની વાણીના અવિરલ પ્રવાહ વહ્યો ન હોય, બધુય આપે બહુ સરલ ભાષામા સમજાવી દીધુ છે. અમે તે આજ સુધીમા આટલા માર્મિક उपदेश सालज्यो नथी आथी उत्तम उपदेशनी तो बात ४या १ (एव वदिता Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषयषिणी-टीका स १ गौतमस्थामिषर्णनम् सत्तुस्सेहे सम-चउरंस--संठाण-संठिए बहर-रिसह-णारायसंघयणे कणग-पुलग-णिघस-पम्हगोरे उग्गतवे दित्ततवे समचतुरसम्-मानोन्मानप्रमाणानामन्यूनानधिक वात् अङ्गोपाङ्गाना चाविकलवात् ऊर्च तिर्यक् च तुन्यत्वात सम, चतुरन चाविकलावयव वात् , सम च तचतुरन चेति समचतुरस्र--स्वाहुलाष्टगतोच्छायाङ्गोपाङ्गयुक्त, युक्तिनिर्मितलेप्यकवदया, मस्थानम् आकारविशेष , तेन मस्थित न्युक्त , 'बर-रिसह-पाराय-सघयणे। वन-भ-नाराच-महनन-वनंकीलिका, ऋषभ पट्ट , नाराच -मर्कटबन्ध उभयपार्थयोरस्थियधविशेष , वर्षभनाराचा महनने अम्मा बविशेपे यस्य स वर्षभनागचमहनन , कणग-पुलग-गिधस-पम्हगोरे' कनक-पुलक-निरुप-पागौर --कनकस्य सुवर्णस्य पुलको लव --प्रफुल्लवलकणरूप , तस्य निकप कपपट्टे कृष्टो रेखारूपो लक्षणया लक्ष्यते, पुलकस्य मशुद्धतया निको कृष्टा गाऽताप चामचिक्ययुक्ता भवति,अतएव तेनोपमानेनोपमित पागौर -पयगर्भ =फिनल्क, तद्वदगौर =कमनीयकाति , 'उग्गतवे' उप्रतपा , 'दित्ततवे' दीमतपादीत प्रदीप्तो स्सेहे) मातहाथ की अवगाहनायुक्त (बहर-रिसह-शाराय-सघयणे) 'वन-पमनाराचमहननधारी (कणग-पुलग-णियस-पम्हगोरे) विशुद्ध सुवर्ण के खण्ड की शाण पर घसा हुई रेग्या के समान चमकीली कान्ति वाले तथा कमल के केसर के समान गौरवर्ण (हदभूई णाम अणगारे) ऐसे गौतम नाम से प्रसिद्ध इद्भभूति नाम के अनगार गणधर थे। (उग्गतवे दित्ततवे तत्ततवे पोरतवे उराले घोरे घोरगुणे घोरतरस्सी घोरवभचेरवासी उच्छृहसरीरे सखित्तविउलतेयलेस्से) इनकी तपस्या बडी उग्र थी। (१) इस महनन में वड़ की सी कीले, वन के से हाड एव वन का सा पट्टबन्ध होता है। मस्थान-मपन्न (सत्तुस्सेहे) सात लायनी साइनायुत (वइर-रिसहपाराय-सघयणे) 40-'म नाराय-सहन पारी (पग-पुलग-णिघसपम्हगोरे) विशुद्ध सुपाई न उनी शाषण पर घसेती २ावी यमीली तिवापा तथा भान सरना का गौरपा (इदभूई णाम अणगारे) એવા ગૌતમનામથી પ્રસિદ્ધ ઇદ્રભૂતિ નામના અનગર ગણધર હતા (उग्गतवे दित्ततवे तत्ततवे घोरतवे उगले घोरे पोरगुणे घोरतवस्सी घोग्यभचेवामी उच्छूढमरीरे सखित्त-विउल-तेयलेरसे) तमन्नी तपस्या मर्ड હતી કમરૂપી વનને બાળવાવાળા હોવાથી તેમનું તપ અગ્નિના જેવુ બર:(૧) આ મહિનામાં વજના જેવા ખીલા, વા જેવા હાડ તેમજ તે જેવા પટ્ટીબધ હોય છે -- --- - --- - - - -- Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९४ সৗথবালিকা अथ उत्तरार्दम्-~ मूलम्-तेणं कालेण तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेहे अंतेवासी इंदभूई णाम अणगारे गोयमगोत्ते णं टीका-'तेणं फालेण' यादि । ( तेणं काठेण तेणं समपण समणस्स भगाओ महावीरस्स) तस्मिन् काठ तस्मिन् समये भ्रमणस्य भगरतो महावीरस्य (जे? अतेवासी इदभूई णाम अणगारे) ज्येष्ठोऽ तेपासीट मतिनामा अनगार , ज्येष्प्रयमस्य मयमपर्यायेण सर्वश्रेष्टत्वात् , अन्तेवासी शिष्य , इन्द्रगतिरत नामक , अनगार =साधु , स कीदृश ? इत्या-'गोयमगोत्ने ' गौतमगोर-गौतम गोतमारय गोत्र यस्य स तथा 'ण' इति वाक्यालकारे, 'सत्तुस्सेहे' समोसेघ -सप्तहरत उसध-उच्छ्यो यस्य स तथा, 'सम-चउरस-सठाण-सठिए ' सम-चतुरम-मस्थान--सस्थित -सम च तच्चतुरन चेति उत्तराध का अनुवाद प्रारंभ'तेण कालेण ' इत्यादि। (तेण कालेण तेण समएण) उस काल एव उस समय में (समणस्म भगवओ महावीरस्स) श्रमण भगवान् के महावीर के (जेटे अतेवासी) 'नडे शिष्य (गोयमगोते ण) गौतमगोत्री (सम-चउरस-सठाण-सठिए) समचतुरस्रमस्थानमपन (सत्तु (१) जिसमें अग एव उपाग की रचना सम-प्रमाणोपेत (जिसका जितना प्रमाण होना चाहिये उस माफिक) होती है, कमती बढ़ती नहीं होती, उसका नाम 'समचतुरस्रसस्थान है। इसमें एक सौ आठ अगुल के उच्छ्राय वाले अग और उपाग होते है। आकार बडा ही सौम्य होता है। ઉત્તરાધના અનુવાદને પાર – 'तेण कालेण' त्या (तेण कालेण तेण समएण) तेल तभन त समयमा (समणस्स भगपओ महावीरस्स) श्रभY सपान महावीरना (जेटे अतेवासी) मा शिष्य (गोयमगोत्ते ण) गौतमगात्री (समचउरस-सठाण-सठिए) समन्यतुरख(૧) જેમાં અગ તેમજ ઉપાગની રચના સમ–પ્રમાણે પેત (જેવું જેટલું પ્રમાણ હોવું જોઈએ તે પ્રમાણે) હોય, વધુ ઘટુ ન હોય તેનું નામ સમચતુરસ-રસ્થાનછે આમા એક આઠ આગળ (સુ) ના ઉચ્છાયવાળા અગ તથા ઉપાગ હોય છે આકાર બહુજ સૌમ્ય હોય છે Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयुपषिणी-टीका सु १ गौतमस्यामिवर्णनम सत्तुस्सेहे सम-चउरंस-संठाण-संठिए बहर-रिसह-णारायसंघयणे कणग-पुलग-णिघस-पम्हगोरे उग्गतवे दित्ततवे समचतुरसम्-मानोन्मानप्रमाणानामन्यूनानधिक वात् अङ्गोपाङ्गाना चापिकल वात् ऊर्य निर्यक् च तुन्य वात् मम, चतुरस चाविकन्यवयव वात् , सम च तचतुरन चेति समचतुग्न-स्वा लाष्टगतोच्छ्रायानोपासायुक्त, युक्तिनिर्मितलेप्यावतवा, मस्थानम् आकारविशेष , तेन मस्थित =युक्त , 'इर-रिमह-णाराय-सघयणे' वर-भ-नाराच-महनन --वनकालिका, ऋषभ =१४ , भागच =मर्कटमध --उभयपायोस्थिबन्धविशेष , वर्षभनाराचा महनने अम्मा नविशेपे यस्य स वर्षभनागचमहनन , 'कणग--पुलग-णिघस-पम्हगोरे' कनक-पुलक-निकप--पागौर -कनकस्य सुवर्णस्य पुलको लव -प्रफुल्लचतुलकणम्प , तस्य निकष कपपट्टे कृष्टो खारूपो लक्षणया लक्ष्यते, पुलकस्य मशुद्धतया निरुपे हटा ग्याऽनाव चाफचिक्ययुक्ता भवति,अतण्यतेनोपमानेनोपमित पागौर -पनगर्भ शिक्षक, तद्गौर = कमनीयकाति , 'उग्गतवे' उप्रतपा , 'दित्ततवे' दासतपा-दीर =प्रदीप्तो म्सेहे) यातहाथ की अवगाहनायुक्त (पहर-रिसह-णाराय-सघयणे) 'वन-यमनाराचमहननधारी (कणग-पुलग-णिघस-पम्हगोरे) विशुद्ध मुवर्ण के वण्ड की शाण पर घसा हुई रेखा के समान चमकीली कान्ति वाले तथा कमल के केसर के समान गौरवर्ण (इदमूद णाम अणगारे) ऐमे गौतम नाम से प्रमिद इद्रभूति नाम के अनगार गणधर थे। (उग्गनवे दित्ततवे तत्ततवे घोरतवे उराले घोरे घोरगुणे घोरतरस्मी घोरवभपेरवासी उच्छटसरीरे संखित्तविउलतेयलेस्से) इनकी तपस्या बढी उग्र थी। (१) इस महनन में वन की सा कीले, वन के से हाड एव वन का सा पट्टबन्ध होता है। सस्थान-पन्न (सत्तस्मेहे) सात हथिनी अपमानायुत (वइर-रिसहणाराय-सघयणे) --पम नाराय-से खनन पारी (कणग-पुलग-णिघसपम्हगोरे) विशुद्ध सुपायना नीशा ५२ घसेली २५ वी यमामी तिक तथा मान सन २५ गीर (इदभूई णाम अणगारे) એવા ગૌતમનામથી પ્રસિદ્ધ ઇદ્રભૂતિ નામના અનગાર ગણધર હતા (उगतवे दित्ततवे तत्ततचे घोरतवे उराले घोरे घोरगुणे घोरतवस्सी घोरवम चेरवासी उन्हढसरीरे सखित्त-विउल-तेयलेस्से) तेभनी तपश्या ४ _હતી કર્મરૂપી વનને બાળવાવાળા હોવાથી તેમનું તપ અગ્નિના જેવુ બહુ (૧) આ સહનનમાં વજન જેવા ખીલા, વા જેવા હાડ તેમજ વજી જેવા પદ્ધ હોય છે. Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९६ औपपातिकमरे - - तत्ततवे घोरतवे उराले घोरे घोरगुणे घोरतवस्सी घोरवभचेरवासी हुताशन इव कर्मवनदाहकत्येन जाज्वल्यमान तपो यस्य स तथा, 'तत्ततवे' तमतपा - तप्त-सविधि सेरित तपो येन स तप्ततपा , 'महातवे महातपा =बृहत्तपोयुक्त , 'घोरतवे' घोरतपा =अतिकठिनतपोयुक्त , 'उराले' उदार , 'घोरे' घोर =भीम , अत्र कश्चिदतेय उदार स भीम कथम् । अस्योत्तरमाह-अतिकष्ट तप कुर्वन् अन्पशक्तिमता भयानको भवतीति निसर्ग । कश्चिद् वक्ति-उदार प्रधान , घोरस्तु परीपहेन्द्रियकषायाऽऽाव्याना रिपूणा विनाशे कठोर ! केचिदात्मनिरपेक्षतया तपस्सु प्रवर्तमानस्वाद घोर इत्याहु । 'घोरगुणे' कर्मरूपी वन को जलाने वाला होने से इनका तप अग्नि की तरह अधिक जाज्वल्यमान था। तपस्या की आराधना ये विधिपूर्वक बडी सानधानी से करते थे। ये महातपस्वी थे। दूसर मुनिजन जिन तपों को करना अति कठिन मानते थे, उन तपी को ये तपते थे। ये उदार एव घोर अर्थात् भयानक थे । प्रश्न-उदारता और भयानकता ये दोनो धर्म परस्परविरोधी हैं, क्यों कि जो उदार होता है वह भयानक नहीं होता और जो भयानक होता है वह उदार नहीं होता, भत इन दोनों बातों का यहा निर्वाह कैसे हो सकता है ? उत्तर--ये अतिकठिन तपस्याओं को करते थे, अत अल्पशक्ति वालों को ये देखने में बडे भयानक-जैसे मालम देते थे, अर्थात् अल्पशक्ति वालों को इनसे डर लगता था, इस अपेक्षा इन्हे भयानक कहा गया है। कोई २ ऐसा भी कहते हैं कि 'उदार' शब्द का अर्थ 'प्रधान' है, एवं 'घोर' शब्द का अर्थ 'कठोर' है। ये कठोर इसलिये थे कि परीपह, इन्द्रिय एव कषाय इन જાજ્વલ્યમાન હતું તપસ્યાની આરાધના તેઓ વિધિપૂર્વક બહુ સાવધાનીથી કરતા હતા તેઓ મહાતપસ્વી હતા બીજા મુનિજને જે તપને કરવાનું બહુ કઠણ માનતા હતા તેવા તપને આ કરતા હતા તેઓ ઉદાર તેમજ ઘેર અથ ભયાનક હતા પ્રશ્ન—ઉદારતા અને ભયાનકતા એ બને ધમ પરસ્પર વિરોધી છે, કેમકે જે ઉદાર હોય છે તે ભયાનક હોતા નથી અને જે ભયાનક હોય છે તે ઉદાર હોતા નથી, તે પછી આ બન્ને વાતેને અહી મેળ કેવી રીતે થઈ શકે ? ઉત્તર–આ અતિ કઠણ તપસ્યા કરતા હતા તેથી અલ્પશક્તિવાળાઓને તેઓ જોવામાં ભયાનક જેવા દેખાતા હતા, અર્થાત્ અલ્પશક્તિવાળાઓને તેમને ડર લાગતું હતું આ અપેક્ષાથી તેમને ભયાનક કહેલા છે કઈ કઈ એમ પણ કહે છે કે “ઉદાર શબ્દને અર્થ “પ્રધાન છે, તેમજ વાર શબ્દનો અર્થ “કઠાર' છે તેઓ કઠોર એ માટે હતા કે પરિષહ, Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - पोयूपपिणी टीका स् १ गौतमस्यामि वर्णनम् १९७ उच्छृढसरीरे संखित्त-विउल-तेयलेस्से समणस्स भगवओ घोरगुण –घोरा=अन्यर्द्धस्दहा गुणा =मूल्गुणाढयो यस्य स तथा। 'घोरतवस्सी' घोरतपस्त्री-दुष्करतपश्चरणशील ,पाग्णादौ नानाविधाभिग्रहधारकत्वात् , 'घोर-चमचेर-वासी' घोर-ब्रह्मचर्य-यासी-घोर-धारणमल्पमत्वैर्दुहत्वाद् यद् ब्रह्मचर्य तर यसति तच्छील । 'उन्छुड़सरीरे' उछूढगरीर -उच्छूढम् उझितमिव संस्कारपरित्यागात् गरार येन स उच्छूढगारीर-गरमस्कार प्रति निस्पृहत्वात् त्यक्तगरारसरकार । 'सखित्तविउल-तेयलेस्से' ससिम-पिपुल-तेजो य –सक्षिमा-निजगरीराऽन्तर्निहिता, विपुलारिपुओं के पिनाग करने में निरत थे । कठोर वन विना शत्रुओं का निवारण करना बडा ही मुस्किल होता है। कोई २ ऐसा भी कहते है कि तपस्याओं के तपने में ये अपनी निज आमा की परवाह ही नहा करते थे, अत घोर थे। 'घोरगुणवाले' ये इसलिये ये कि इनके द्वारा धृत मूलगुण आदि अन्यजनों के लिये दुर्धारणीय थे, 'घोरतपस्वी' ये इसलिये थे कि जिस दिन पारणा का असर होता या उस दिन ये अनेक प्रकार के अभिग्रहों को धारण करते थे । 'घोर-ब्रह्मचर्य-पासी' ये इसलिये ये कि ये अल्पशक्ति वाले प्राणियों द्वारा दुर्वह होने से कठिनतर ऐसे ब्रह्मचर्य की आराधना मे पूर्णनिष्ठ हो चुके थे। 'उच्छूढशरीर' दहे इसलिये कहा है कि इन्हों ने अपने शरीर का संस्कार करना ही छोड़ दिया या। अंत उनका गरीर ऐसा ज्ञात होता था कि मानो इन्होंने इसका परित्याग जैसा कर रखा है । 'सक्षिप्त-विपुल-तेजोलेश्य' ये इसलिये थे कि यद्यपि विशिष्ट तपस्या की ઈદ્રિય તેમજ કષાય એ રિપુઓને વિનાશ કરવામાં નિરત હતા કઠોર. બન્યા વિના શત્રુઓનું નિવારણ કરવું બહુ જ મુશ્કેલ થાય છે કે કોઈ એમ પણ કહે છે કે તપસ્યા તપવામાં તેઓ ખુદ પિતાના આત્માની પરવાહ પણ કરતા નહોતા આવી રીતે ઘર હતા “ઘોરગુણવાળા તેઓ એ કાર થી હતા કે તેમના દ્વારા ગ્રહણ કરાયેલા મૂલગુણ આદિ ગુણે બીજાને માટે દિર્ધારણીય (ગ્રહણ ન કરી શકાય એવા) હતા “ઘેરતપસ્વી તેઓ એ માટે હતા કે જે દિવસે પારણાનો અવસર આવતે તે દિવને તેઓ અનેક પ્રકારના અભિગ્રહને ધારણ કરતા હતા “ઘર-બ્રહ્મચર્ય—વામી તેઓ એ માટે હતા કે તેઓ અલ્પશક્તિવાળા પ્રાણિઓ દ્વારા દુર્વહ (સહન ન થાય એવા) હોવાથી બહુ કઠણ એવી બ્રહ્મચર્યની આરાધનામાં પૂર્ણનિષ્ટ થઈ ચુક્યા હતા “ઉછૂઢશરીર એમને એ માટે કહેતા કે તેમણે પિતાના શરી૨ના સમારે જ છેડી દીધા હતા આથી તેમનું શરીર એવુ જણાતુ હતુ કે જાણે તેઓએ તેનો પરિત્યાગ જ કરી નાખ્યું હોય “સ ક્ષિસ Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४९८ औपपातिकमरे महावीरस्स अदूरसामंते उड्ढजाणू अहोसिरे झाणकोट्टोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ।। सू. १॥ अनेकयोजनप्रमाणाऽन्तर्वर्तिवस्तुदहनसमर्थत्वाद् विशाला तेजोश्या-विशिष्टतपःसम्भूतलन्धिविशेषोद्भवा तेजोज्वाला यस्य स तथाभूत सन् 'समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामते श्रमणस्य भगवतो महावीरस्याऽदूरसमीपे-अदूरसमणेि-नातिदूरे नातिसमीपे-उचितदेशे, 'उड्ढजाण' उर्वजानु ऊर्षे जानुनी यस्य स ऊर्वजानु - उत्कुटुकाऽऽसनवान्, 'अहोसिरे' अध शिरा अधोमुसो, नो, न तिर्यग् वा क्षितदृष्टि , 'झाण-कोट्ठो-चगए' ध्यान-कोष्ठो-पगत -ध्यान कोष्ठ इस ध्यानकोष्ठस्तमुपगत , यथा कोष्ठगत धान्य विकाग न भवति तथैव ध्यानगता इन्द्रियान्त करगन्तयो बहिर्न यान्तीति आराधना से इन्हें तेजोलेस्या प्राप्त हो चुकी थी, जिसकी इतनी सामर्थ्य होती है कि अनेकयोजनप्रमाण क्षेत्र के भीतर रही हुई वस्तुओ को वह क्षणमान में दग्ध कर डालती है, परन्तु ऐसी विपुल तेजोलेश्या को भी इन्होंने अपने शरीर के भीतर ही अन्तर्हित कर रखी थी, उसका उपयोग नहीं करते थे, और ये (समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामते) श्रमण भगवान महावीर के न अतिदूर और न अतिनिकट, मिन्तु पास ही कुछ दूरी पर (उजाणू) घुटनों को ऊँचाकर (अहोसिरे) शिर को नीचे कर के (झाण-कोट्ठोवगए) ध्यानरूपी कोठे में विराजमान थे, अर्थात् ध्यान म बैठे थे। ध्यान को जो कोष्ठ की उपमा दी है उसका हेतु यह है कि जिस प्रकार कोठे मे रहा हुआ धान्यादिक इतस्तत (इधर-उधर) नहीं बिखरता है उसी प्रकार ध्यानगत इन्द्रिय एव अन्त करण को वृत्तिया વિપુલતેજોલેશ્ય એ આથી હતા કે તેમને જે કે વિશિષ્ટ તપસ્યાની આરાધનાથી તે વેશ્યા પ્રાપ્ત થઈ ચૂકી હતી, જેનું એટલું સામર્થ્ય હોય છે કે અનેક એજનના પ્રમાણ ક્ષેત્રની અંદર રહેલી વસ્તુઓને તેઓ ક્ષણ માત્રમાં બાળીને ભસમ કરી નાખે છે, પરંતુ એવી વિપુલ તે યાને પણ તેઓએ પિતાના શરીરની અંદર જ અન્તહિત કરી રાખી હતી, તેને ઉપયોગ કરતા नहाता (समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामते) तसा श्रभा लगवान भड़ाવીરની બહુ દૂર નહિ તેમ બહુ પાસે નહિ પણ તેમની પાસે જ છેડે જ દૂર ५२ (उड्ढजाणू) धुर। या ४रीन (अहोसिरे) शिरने नमावीर (झाण-कोडो वगए) ध्यानपी मा विराजमान हुता-मर्थात ध्यानमा हा उता ध्या નને જે કોઠાની ઉપમા આપી છે તેને હેતુ એ છે કે જેમ કોઠામાં ભરેલા ધાન્ય આદિક આમતેમ વિખરાઈ જતા નથી તેમ ધ્યાનમાં ચાટેલી ઈદ્રિ Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ पोषषषिणो टोका स २ गौतमस्थामिनो भगवत्समीपे गमनम् मूलम्-तए णं से भगवं गोयमे जायसढे जायसंसए मात्र, नियन्त्रितचित्तवृत्तिमानि यर्थ , 'सजमेण तवसा अप्पाण भावेमाणे विहरइ' म्यमेन तपसाऽऽमान भावयन् चासयन् विहति ।। सू० १॥ टीका-'तए णं से' यादि । 'तए ण से भगव गोयमे' तत खल स भगवान् गौतम 'जायसढे' जातश्रद्ध -जाता प्राग्मृता मप्रति सामान्येन प्रवृत्ता श्रद्धा-तत्वनिर्णयविपयिका वान्छा यस्य स जातश्रद्ध , वश्यमाणतत्यपरिक्षानेच्छावानियर्थ, 'जायससए' जातम्यय -जात =प्रवृत्त मगयो यस्य स तथोक्त , सशयोत्पत्तिप्रकारस्वियम्-औपपातिकमून हि-अचागद्गस्योपागम्, तेनाचागङ्गप्रथमश्रुतस्कन्धस्य प्रथमाध्ययन प्रथमोदेशके य आमन उपपात उक्त , तस्मिन् विषये वक्ष्यमाणमायोपत्या जात बाहर इधर-उधर नहीं हो सकती है । मानमिक प्रत्येक वृत्तिया इस अवस्था में नियत्रित हो जाती है। ऐसे ये गौतम नामसे प्रसिद्ध इन्द्रभूति गणधर (सजमेण तवसा अप्पाण भावेमाणे विदरड) मयम एव तप से सदा अपनी आमाको भानित करते हुए विचरते थे|सू १॥ 'तए णं से' इयादि। (तए ण) परिपत् चले जाने के बाद (से भगव गोयमे) वे भगवान् गौतम (जायसड्ढे) कि जिनके चित्तमें तत्व को निर्णय करने के लिये वाञ्छा हुई, कारण कि इन्हें (जायससए) इस प्रकार का मशय उद्भूत हुआ था कि यह औपपातिक सूत्र, आचाराग सूत्र का उपाग है, आचागग सूत्र के प्रथम अध्ययन के प्रथम उदेशक में जो आत्मा का उपपात रहा है सो किस प्रकार से कहा है ? (जायफोऊहल्ले) अत भगवान मेरे सशयित તેમજ અત કરણની વૃત્તિઓ બહાર આમતેમ જઈ શકતી નથી માનસિક પ્રત્યેક વૃત્તિઓ આ અવસ્થામાં નિયત્રિત થઈ જાય છે એવા આ ગોતમ नाभ प्रसिद्ध द्रभूति गथुध२ (संजमेण तवसा अप्पाण भावेमाणे विहरइ) સયમ તેમ જ તપથી સદા પિતાની આત્માને ભાવિત કરતા કરતા વિચગ્લા उता (सू १) 'तए णं से' त्यादि _(तए ण) परि५६ न्याली गया पछी (से भगव गोयमे) ते सगवान गौतम (जायसड्ढे) वित्तमा तत्पनी निय पानी पाछ। २४, रY ठे तभने (जायससए) मा प्रधान सशय सत्पन्न थयो तो हैं मा मोषाતિક સૂત્ર, આચારાગ સૂત્રનું ઉપાગ છે આચારાગ સૂત્રના પ્રથમ અધ્યયનના પ્રથમ ઉદેશકમાં જે આત્માને ઉપપાત વર્ણવ્યો છે તે કેવા પ્રકારથી કહ્યો छ ? (जायकोऊहल्ले) वे मगवान भाग मा सशयन। प्रश्न उत्तर नजर Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिक जायको ऊहले, उप्पण्णसड्ढे उप्पण्णसंसए उपष्णकोऊहले, संजायसड्ढे संजायसंसए संजायकोऊहले, समुप्पण्णसड्ढे समु 400 6 1 माय इति भाव । 'जायकोऊडल्ले ' जातकुतूहल -जात उतृहरुम= औमुख्यं यस्य स जातकुतूहल, मत्कृतप्रश्नस्य कीदृशमुत्तरं भगवा वन्यति तन्द्रोमो मुक्यनानियर्थ, 'उप्पण्णसड्ढे उत्पननद्र - उपन्ना-विशेषेण जाता श्रद्धा यम्य स तथा यशश्रद्धाया स्वरूपस्य तिरोहितने जातवद्ध, तस्या स्वरूपस्य प्रादुर्भानि तु उपनद्ध - इति भाव । ' उप्पण्णसंसए' 'उपनसंगय, 'उप्पण्णकोऊहल्ले' उपन्नकुतूहल, ' सजायसड्ढे 'जातश्रद्ध, प्रकर्पादिवाचक स्यन्द, ततथ मजाता- निशेपतरेण उपन्ना श्रद्धा यस्य स मजातश्रद्र, 'सजायससए' सजातसराय, 'सजायको ऊहल्ले ' सजातकुतूहल, 'समुप्पण्णसड्ढे ' समुत्पन्नश्रद्ध समुपन्ना = सर्वथा सजाता श्रद्धा यस्य स तथा, प्रश्न का उत्तर न मालूम किस तरह का ढेगे ? इस बात को जानने को उत्कण्ठा उनके चित्त मे बढ़ी, क्यों कि (उप्पण्णसड्ढे ) भगवान के ऊपर ही उनके चित्त मे अतिशय श्रद्धा थी, अत उनसे ही निर्णय करने के लिये श्रद्धा उत्पन्न हुई । (उप्पण्णससए उप्पण्णकोकहल्ले सजायसड्ढे सजायससए सजायकोऊहल्ले समुप्पण्णसड्ढे समुप्पण्णससए समुपण कोऊहल्ले) उत्पन्न-सय, उत्पन्न कौतुहल' - इत्यादि पदा द्वारा वाच्यार्थ में, अवग्रह, ईहा, अवाय, और धारणा ज्ञान की तरह उत्तरोत्तररूप से विशेषता द्योतन करने के लिए सूनकार ने 'जात, उत्पन्न, सजात, समुत्पन्न' इन पदों का प्रयोग किया है। भगवान् गौतम को जो चित्त में तत्व के निर्णय करने की इच्छा जागृत हुई वह पहिले सामान्यरूप में ही हुइ, कारण कि उहे शय जो उपन्न हुआ था वह भी सामान्यरूप से ही हुआ था, इसी 5 કેવી રીતે આપશે? એ વાતને જાણવાની ઉત્કંઠા તેમના ચિત્તમા વધી, કેમકે (उप्पण्णसड्ढे ) लगवानना उपरन तेभना वित्तभा अतिशय श्रद्धा हुती, हवे तेभनी पासेथी निर्णय ४२वा भाटे श्रद्धा उत्पन्न यह (उत्पण्णससप उप्प को हल्ले सजाय सड्ढे सजायसस सजायको ऊहल्ले समुप्पण्णसढे समुष्णसस समुपणकोऊहल्ले) 'उत्पन्नम राय उत्पन्नमोतुडस' इत्यादि यहा द्वारा વામ્યાંમા, અવગ્રહ, ઈંડા, અવાય અને ધારણા જ્ઞાનની પેઠે ઉત્તરાન્તરરૂપથી विशेषताना प्राश साववाभाटे सूत्ररे 'जात उत्पन्न सजात समुत्पन्न' से होना પ્રયાગ કર્યો છે ભગવાન ગૌતમને જે ચિત્તમા તત્ત્વના નિણૅય કરવાની ઇચ્છા જાગ્રત થઈ તે પહેલા સામાન્યરૂપમાં જ થઇ હતી કારણ તેમને જે સ થય Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोपापणी-टीमा सु २ गोतमस्वामिनो भगवत्समीपे गमनम प्पण्णसंसए समुप्पण्णकोऊहले उट्टाए उदंड उहित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छन् उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं निक्खुतो आयाहिणपवाहिणं करेड करिता ५०/ 'समुप्पण्णससए' समुपन्नन्गा 'समुप्पण्णको ऊहल्ले' सम्पन्नकुतूहल, श्रद्धान्य शब्दा व्याख्याता और श्रद्धा कार्यकारणभार | प्रारूपा श्रहा जाता, तम्या कारण- संजय उत्तृहल चेनि । 'उडाए उट्टेड' उथया उद्यानावत्या स्यामनात् उत्तिष्ठति, उथाय, 'जेणेव समणे नगर महावीरे ' यौन श्रमणो भगवान महावांगे विराजत इति शेष, ' तेणे वागच्छतपागच्छति, 'उनागच्छित्ता ' जागय, 'समणं भगर महावीर ' श्रमणम्य भगवतो महानरम्य, 'तिम्युत्ती जायाहिणपयाहिण करे' निव आणिणि करोनि, 'करिता ' कृपा 'बंदर णमसट ' " तरह अपने प्रश्न के उत्तर को सुनने के लिये जो उनके चित्त में उण्ठा नागृत हुई वह भी सामान्यरूप से ही | फिर नाद में 'उत्पन्नमड्ढे' आ पढों द्वारा जो सुनकर ने श्रद्धा को उपन्न आदिरूप में प्रकट किया हे उसमे श्रद्धा आदि में उत्तरोउत्तर विशेषता जाननी चाहिये। इस प्रकार के वे गौतमप्रभु ( उदाए उडेड) उत्थानशक्ति द्वारा अपने स्थान से उठ और (उता जेणेत्र समणे भगव महावीरे तेणे उवागच्छङ) उठकर जहा प्रभु श्रमण भगवान् महानीर निराजमान थे वहाँ पहुँचे, (उआगच्छित्ता समण भगव महावीर विक्खुतो आयाणिपयाहिण करेड) पहुँचने ही उन्होंने श्रमण भगवान् महावीर प्रभु को तीन नार आणि प्रदक्षिण किया, (करिता ) फिर बाद में बन्ना एव ઉત્પન્ન થયા તે પણ મામાન્યરૂપથી જ થયા હતા. આવીજ રીતે પેાતાના પ્રશ્નને ઉત્ત નાભળવાને માટે તેમના ચિત્તમા રે ઉ。。ા જાગ્રત ચઈ તે પ भाभान्यउपनीर हुती पत्यार पछी (उपण्णमड्टे) आहि पो हाग ने સૂત્રકારે શ્રદ્વાને ઉત્પન્ન આદિ ૩૫થી પ્રકટ ૰ી દે તેવી શ્રદ્ધા આદિમા उत्तरोत्तर विशेषता अगुवी लेखे या अजरना ते गौतम प्रभु ( उडाए उड्डेड्डे) 'उत्थानशक्ति द्वारा पोताना भ्यानथी उठेचा, भने (उट्ठित्ता जेणेन समणे भगन महावीरे तेणेव आगच्छइ) डीने त्या प्रभु श्रभशु भगवान महावीर मिग४भान हता त्या महे।स्या ( उनागच्छित्ता समण भगन महावीर तिम्खुत्तो आया हिणपयाहिणं क्रेइ) पहायता ? तेभावे श्रभधु ભગવાન મહાવીર પ્રભુને ત્રણ Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० औपपातिकमरे जायकोऊहल्ले, उप्पण्णसड्ढे उप्पण्णसंसप उपण्णकोऊहल्ले, संजायसड्ढे संजायसंसए सजायकोऊहहे, समुप्पण्णसड्ढे समु माय इति भाव । 'जायकोऊहल्ले' जातकुतूहल -जात उतूहलग-औ मुक्य यस्य स जातकुतूहल , मत्कृतप्रश्नम्य कीदृशमुत्तरं भगवान वत्यति तोतुमौ मुक्यमानि यर्थ , 'उप्पण्गसड्ढे' उत्पन्नश्रद्ध -उपन्ना-विगेपेग जाता श्रद्धा यस्य म तया, यद्वाश्रद्धाया स्वरूपस्य तिरोहितले जात रद्ध , तस्या स्वरूपस्य प्रादुर्भारे तु उपन्नश्रद्ध इति भाव । 'उप्पण्णससए' उपन्नसमय , 'उप्पण्णकोऊहल्ले' उपनकुतुहल , ' सजा यसड्ढे म्जातनद् , प्रकादिवाचक म्गन्द , ततश्च जाता=विशेषतरेण उपन्ना श्रद्धा यस्य स मजातश्रद्ध , 'सजायससए' सजातसशय , 'सजायकोऊहल्ले' मातहतूहल , 'समुप्पण्णसड्डे' समुत्पन्नश्रद्ध -समुत्पन्ना-सर्वथा सजाता श्रद्धा यस्य स तथा, प्रश्न का उत्तर न मालम किस तरह का देगे? इस बात को जानने का उत्कण्ठा उनके चित्त मे बढी, क्यों कि (उप्पण्णसड्ढे) भगवान के ऊपर ही उनके चित्त मे अतिशय श्रद्धा थी, अत उनसे ही निर्णय करने के लिये श्रद्वा उत्पन्न हुई। (उप्पण्णससए उप्पण्णको ऊहल्ले सजायसड्ढे सजायससए सजायकोऊहल्ले समुप्पण्णसड्ढे समुप्पण्णससए समुप्पण्णकोऊहल्ले) उत्पन्नम् सय, उत्पनकौतुहल'-इत्यादि पदों द्वारा वाच्यार्य मे, अवग्रह, ईहा, अवाय, और धारणा ज्ञान की तरह उत्तरोत्तररूप से विशेषता द्योतन करने के लिए सूत्रकार ने 'जात, उत्पन्न, सजात, समुत्पन्न' इन पदों का प्रयोग किया है। भगवान् गौतम को जो चित्त में तत्त्व के निर्णय करने की इच्छा जागृत हुई वह पहिले सामान्यरूप में ही हुई, कारण कि उहे · शय जो उपन्न हुआ था वह भी सामान्यरूप से ही हुआ था, इसी કેવી રીતે આપશે ? એ વાતને જાણવાની ઉત્કંઠા તેમના ચિત્તમાં વધી, કેમકે (उप्पण्णसड्ढे) भगवानना 6५२०४ तमना वित्तमा अतिशय श्रद्धा हुती, वे तभनी ४ पासेथी नियुय ७२वा भाटे श्रद्धा Gurt 5 (उप्पण्णससए उप्पण्णकोहल्ले सजायसड्ढे सजायससए सजायकोहल्ले समुप्पण्णसढे समुण्णससए समुप्पण्णकोहल्ले) Grपन्नस शय उत्पन्नातुरस' त्यादि यह द्वारा વાચ્યાર્થમા, અવગ્રહ, ઈહા, અવાય અને ધારણા જ્ઞાનની પેઠે ઉત્તરોત્તરરૂપથી विशेषताना असावाभाटे सूत्रधारे 'जात उत्पन्न सजात समुत्पन्ल' के पहोना પ્રવેશ કર્યો છે ભગવાન ગૌતમને જે ચિત્તમા તત્વને નિર્ણય કરવાની ઈચ્છા જાગ્રત થઈ તે પહેલા સામાન્યરૂપમાં જ થઈ હતી કારણ તેમને જે ન શય Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूपपणी टीका सू ३ पापकर्मबन्धे गौतमप्रश्न. ५०३ हय - पञ्चकखाय - पावकम्मे सकिरिए असंवुडे एगंतदंडे एगंतवाले एतत्ते पावकम्मं अण्हाइ १, हंता । अण्हाइ ॥ सू०३ ॥ निरहित, तथा - 'अ-पडिय-पच्चन वाय-पात्रकम्मे ' अप्रतिहत प्रत्यायत- पापकर्मा- प्रति हतानि अतीतकालकृतानि निन्दाद्वारेग, प्रत्यारयातानि भविष्यत्कालभावीनि निरृत्तिद्वारेण, पापकमागि=प्रागातिपातादिरूपाणि येन स प्रतिहत प्रयास्यात पापकर्मा, भूतभाविपापनिपेाभावेन यस्तथा न भवति स - अप्रतिहत प्रयाख्यात पापकर्मा, अतएव - 'सकिरिए ' सक्रिय = कायिक्यादिक्रियायुक्त, 'असबुढे' असंत = अनिरुद्वेन्द्रिय, 'एगतदडे' एकान्तदण्ड -एकान्तेनैन= सर्वथैव दण्ड- यत्यात्मान पर या पापप्रवृत्तितो यस एकान्तदण्ड, ‘एगतनाले' एकान्तयात्र सर्वथा मिथ्यादृष्टि, अतएव 'एगतमुत्ते' एकान्तमुप्त = सर्वथा मिथ्यात्वनिद्रया प्रसुप्त, 'पावकम्म' पापकर्म प्राणातिपातादिकर्म ' अण्हाइ ' आस्रवति = वन्नाति किम् ', भगवानाह - 'हंता अण्हाड' हन्ताऽऽस्रवति-हन्त इति स्वीकारे, आस्रवति=नप्नाति इद्वमुत्तरवाक्यम् ||सु०३॥ अनुष्ठान करने में लगा हुआ है, ( अविरए) प्राणातिपातादिक से जिसने निरति धारण नहीं की है, तथा (अ-प्पडिहरा - पञ्चनखाय - पावकम्मे ) लगे हुए पापकर्मों का निंदा द्वारा तथा भविष्यत् काल मे बधनेवाले पापकर्मों का प्रयाख्यान - निवृत्ति - द्वारा जिसने परित्याग नहीं किया है, ( सकिरिए) कायिकी आदि क्रियाओं से जो युक्त है, इस लिये (असवुढे) असनृत-अनिरुद्रेन्द्रिय बना हुआ है, ( एगतदडे ) अपने को अथवा परको जो पापमय प्रवृत्ति से ढडित-दुसित करता रहता है, जो ( एगतवाले) एकान्तमिथ्यादृष्टि है और ( एगतसुते ) सर्वथा मिथ्या की निद्रा मे गाढ सुप्त बना हुआ है, वह ( पावकम्मं ) पापकर्म-प्राणातिपातादिक कमाँ का ( अण्हाइ ) बन्ध करता है क्या ? तन भगवान् ने कहा, (हता) हा गौतम ! ( अण्हाइ ) बन्ध करता है भव सावद्य अनुष्ठान ४२वामा तत्पर रहे। छे, (अविरए) प्रातिपात याहिथी भेविरति धारय उरी नथी, तथा ( अ - पडिहय - पच्च+साय - पावकम्मे ) લાગી રહેલા પાપકર્મીને નિદા દ્વારા, તથા ભવિષ્ય કાળમા મધાનાર પાપ४भना प्रत्याख्यान-निवृत्ति द्वारा, मेये परित्याग क्यों नथी, (सफिरिए) अयिष्ठी आदि डियागोथी ने युक्त छे, तेथी (असवुडे) अस वृत - अनिरुद्ध छद्रियोवाणी जन्यो है, ( एगतदडे ) पोताने अथवा परने ने पायभय प्रवृत्तिथी ६डित-हुतिय रे छे सेवा ते (एगतनाले) भेात मिथ्यादृष्टि हुने ( एगतसुत्ते) सर्वथा मिथ्यात्वनी घोर निद्रामा सुतेोा छे, ते (पावकम्म) पाथउर्भ - प्रतियात माहिङ उभेना (अण्हाइ) अध ४रे ह े शु ? त्यारे लगवाने छु - (हता) डा गौतम ! (अव्हाइ ) धरे छे Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोपपातिकको वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता नन्चासण्णे नाइदूरे सुस्सूसमाणे णमंसमाणे अभिमुहे विणएणं पंजलिउडे पजवासमाणे एवं वयासी ॥ सू०२॥ मूलम्-जीवे णं भंते । असंजए अविरए अ-प्पडिवन्दते नमस्यति, वंदित्ता णमसित्ता' वन्दित्या नमस्यित्वा, 'नचासण्णे नाटदूरे' ना त्यासन्ने नातिदूरे 'सुस्मुसमाणे णमसमाणे' शुश्रूपमाणो नमस्यन् 'अभिमुहे विणएण पजलिउडे पज्जुवासमाणे एव वयासी' अभिमुग्वे पिनयेन प्राञ्जलिपुट पर्युपासान एवमवादीत् । प्राग् व्यायातम् ॥ सू०२॥ टीका-अथात्मन उपपातस्य कर्मबन्धपूर्वकत्वात् कर्मनन्धविपये पृच्छति-'जीवे ण भते !' इत्यादि । 'जीवे ण भते !' जीव सल भदन्त ! भगवन् ! 'असजए' अमयत =असयमवान् सर्वसावद्यानुष्ठानयुक्त , 'अविरए' अविरत प्राणातिपातादिपिरनमस्कार किया, (वदित्ता णमसित्ता नञ्चासण्णे नाइदूरे सुरसूसमाणेणमसमाणे अभिमुहे विणएण पजलिउडे पज्जुवासमाणे एव वयासी) वदना नमरकार करने के बाद फिर वे प्रभु के निकट सामने ही, न उनसे अति दूर न उनके अतिनिकट ही, किन्तु उचित स्थान पर विनयावनत होकर दोनों हाथों को जोडकर बैठ गये, पश्चात् इस प्रकार बोले ॥सू २॥ 'जीवे ण भते!' इत्यादि। गौतमने भगवान से क्या पूछा ? इस बात को इस सूत्र द्वारा सूत्रकार प्रदर्शित करते है-(भते) हे भदत । जो (जीव) जीव (असजए) असयमी है-सर्व सावध वार माइक्षिप्राक्षिण यु, (करित्ता पदइ णमसइ) पछी पहना नमः४।२ या (वदित्ता णमसित्ता नन्चासण्णे नाइदूरे मुस्सूसमाणे णमसमाणे अभिमुहे विणण्ण पजलिउडे पज्जुवासमाणे एव वयासी) पहना नभार ४ा पछी तन्य। પ્રભુની પાસે સામે જ, ન બહુ હર કે ન બહુ પાસે પણ–ઉચિત સ્થાને, વિનયથી નમ્ર બનીને બન્ને હાથ જોડીને બેસી ગયા પછી આ પ્રકારે છેલ્યા (સૂ ૨) 'जीवे ण भते त्या ગૌતમે ભગવાનને શુ પૂછયું –એ વાતને આ સૂત્રદ્વારા સૂત્રકાર પ્રદरेछ -(भंते) महन्त ! (जीवे) ०१ (असजए) समयभी_छ Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०५ पोयूपवपिणी-टीका सू ५ भोगनीय धर्मपन्धयिषये प्रश्न मृलम्-जीवे णं भंते । मोहणिज कर मं वेदेमाणे कि मोहणिज्ज कम्म बंधड , वेयणिज्नं कम्म बंधड ' गोयमा मोहणिजं पि कम्मं बंधड, वेयणिन्न पि कम्मं वधड, णण्णत्थ चरिम टीका-'जीवे भते " इयादि । 'जीवेण मते !' जीन खलु भदन्त । 'मोडणिज सम्म वेदेमाणे' मोहनाय कर्म वेदयन् अनुभपन 'कि मोहणिज्न कम्म बचट' किं मोहनाय कर्म यानाति , अथवा-'वयणिन कम्मं व घड" वेदनीय कम गन्नाति किम् । इनि प्रश्न स युत्तरमाह-'गोयमा! मोहगिन पि कम्म पपइ यणिन पि रम्म घट' गौतम ! मोहनीयमपि कर्म थप्नाति वेदनीयमपि म बन्नाति, ‘णपणत्य चरिममोहणिज्न कम्म वेदेमाणे केवल चरममोहनाय कर्म वेदयन् , 'णण्णस्थ' इति नवर-केवलमित्यर्थ , सदमसम्परायदशमगुणस्थानके लोभमोहनीयमुक्ष्मकि 'जीवे ण भते' इत्यादि। (भते) हे मदत ' (मोहणिन कम्म) मोहनीय कर्म का (वेटेमाणे) अनुभव करने वाला (जीव ण) जीन (किं) क्या (मोहणिज कम्म) मोहनीय कर्म का (बंधइ) वर करता है (वेयणिजं कम्म वधइ) अथवा वेदनीय कर्म का वध करता है ? इन दो प्रश्नों का उत्तर प्रभु इस प्रकार देते है-(गोयमा) हे गौतम । (मोहणिज पि कम्म बधइ वेयणिज्ज पि कम्म वधइ) मोहनीय कर्म का अनुभव करनेवाला जीव मोहनीय कर्म का भी बध करता है और वेदनाय कर्म का भी बध करता है, (गण्णत्व चरिममोहणिज्ज कम्म वेदेमाणे वयणिज्ज कम्म बंधड) केवल सूक्ष्मसपराय नामके १० वे गुणस्थान म चरम-मोहनीय-सूक्ष्मलोभ-को वेदन करने वाला जीव वेदनीय कर्म का बध करता है, क्यों कि अयोगी 'जीवे ण भते' त्यादि (भते) लत ! (मोहणिज्ज कम्म) मानीय भनी (वेदेमाणे) मनुस ४२वावाजा (जीवे) 04 (किं) शु (मोहणिज्ज कम्म) मोडनीय नि। (वधई) सय ४२१ (वेयणिज्ज कम्म वधइ) मथा वहनीय ४भना १५४२ छ? मामे प्रश्नोना उत्तर प्रभु मा अजारे सापेछ-(गोयमा) गौतम । (मोहणिज्ज पि कम्म बधइ वेयणिज्ज पि कम्म वधइ) भाडनीय उभनी मनुमप ४२ना२। જીવ મેહનીય કમને પણ બધ કરે છે અને વેદનીય કર્મને પણ બ ધ કરે छे (णण्णत्थ चरिममोहणिज्ज कम्म वेदेमाणे वेयणिज क्म्म बधड) उस सूक्ष्म સપરાય નામના ૧૦ દશમાં ગુણસ્થાનમાં ચરમ મેહનીય-સૂક્ષ્માભનુ વેદન Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ औपपातिक मूलम्-जीवे णं भंते असंजए जाव एगंतसुत्ते मोहणिजं पावकम्मं अण्हाइ ? हंता । अण्हाइ ।। सू०४।। टीका--'जीवे ण मते इत्यादि । 'जीरण भते !' जीव सल भदन्त । 'जसजए जार एगंतमुत्ते' अमयतो यावदेकान्तमुम 'मोहणिज पावकम्म' मोहनाय पापकर्म 'अण्हाट' आसवति-नानि किम् --इति प्रो, उत्तरमाह -'हंता ! अण्हाई' हन्त । आस्रवति बनाता यर्थ ।। सू० ४ ॥ भावार्थ-~जो जार असयगी है, सायद्य अनुष्ठानों से निवृत्त नहीं हुआ है, पूर्वकृत पापफमा का जिसन निंदा नहीं की, तथा भविष्यत्-काल म मै एसे पापकर्म नहीं करुंगा-इस प्रकार अकरणभार से जिमने उनस परियाग नहा क्रिया, कायिकी आदि क्रियाआ मे जो मान है, स्थय दु सित होता है और दूसरों को भी अपनी कुसित प्रवृत्ति से दुखित करता रहता है एसा मिथ्यार की गाढ अधेरी म रहा हुआ मिथ्यादृष्टि जीव पापकर्मों का वधक होता है या नहीं ?-इस प्रकार गौतम के प्रश्न को सुनकर प्रभु ने कहा-हा । होता है ।। सू० ३ ॥ 'जीवे ण भते !' इत्यादि। (जीवे ण भते । असजए जाव एगतसुत्ते) ह मदत । वही पूर्वोक्त अभ्यम आदि अवस्था से लेकर सर्वथा मिथ्यात्वरूपी गादनिद्रा में प्रसुप्त अन्यमी मिथ्यादृष्टि जीव (मोहणिज) मोहनीय कर्म का (अण्हाइ) वध करता है क्या ? (हता) हा गौतम ! (अण्हाइ) बन्ध करता है । सूं ४॥ ભાવાર્થ-જે જીવ અસયમી છે, સાવદ્ય અનુષ્ઠાનેથી નિવૃત્ત થતું નથી, પર્વે કરેલા પાપ કર્મોની જેણે નિદા કરી નથી, તથા ભવિષ્ય કાલમાં એવા પાપ કર્મ હું નહિ કરુએ પ્રકારના અકરણભાવથી જેણે તેને પરિત્યાગ કર્યો નથી, કાયિકી આદ ક્રિયાઓમા જે મગ્ન છે, પિતે દુખિત થાય છે અને બીજાને પણ પિતાની કુત્સિત પ્રવૃત્તિથી દુખિત કરે છે એવા મિથ્યાત્વના ગાઢ અંધારામાં રહેલો એ મિથ્યાષ્ટિ જીવ પાપકર્મોને બ ધક થાય છે યા નહિ ? આ પ્રકારના ગૌતમને પ્રશ્નને સાભળીને પ્રભુએ કહ્યું-ન્હા ' થાય છે ( ૩) 'जीवे ॥ भते' प्रत्या (जीवे ण भते । असजए जार एगतमुत्ते) हे महन्त ! ५२ ४८ અસ યમ આદિ અવસ્થાથી લઈને સર્વથા મિથ્યાત્વરૂપી ગાઢ નિદ્રામાં સુતેલા मसयभी-मिथ्या ०१ (मोहणिज्ज) भानीय ४भना (अपहाइ) मध १२ शु१ (हता) डा गौतम (अण्हाइ) ५५ ६३ (सू ४) Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीपषिणो-टीका सु. ६ प्रसघातिमा नरकोपपातयिपये प्रश्न .0 मूलम्--जीवे णं भंते । असंजए जाव एगंतसुत्ते उस्सण्ण-तस-पाण-घाई कालं किच्चा रइएसु उववजड , हंता । उववजइ ॥ सू०६॥ मूलम्-जीवेणंभंते । असंजए अविरए अ-प्पडिहय-प टीका-अथोपपात पृष्ठति-'जीवे ण भते । ' इत्यादि । 'जीवे ण भते" जीव खलु हे भद त ! 'असनए जाव एगतमुत्ते' असयतो यावदेकान्तमुम-प्राग्न्यारयात , 'उस्सण्ण-वस-पाण-घाई' प्रायस्त्रस-प्राण-घाती-'उस्सप्ण' इतिप्रा य% बाहुल्येन प्रमप्राणान्स प्राणिनो हन्ति तच्छील , 'कालमासे ' मरणसमये, 'फाल किच्चा' कालं कृत्या-मरण विधाय, 'णेरइएमु उववजड' नेरयिकेपूत्पद्यते किम् ? इति प्रश्ने, उत्तरमाह भगवान्-'हता! उपवजड हन्त ! उपद्यते-नारकेपु जायते ॥ स०६ ॥ टीका-'जीवे ण भते' इत्यादि । 'जीवे ण भते । । जीव सलु हे 'जीवे ण भंते !' इत्यादि। गौतम उपपात के विषय में पूछते हैं-(जीरे ण भते ! असजए जाव एगतमुत्ते उस्सण्ण-तसपाण-घाई) हे भदत ! वही पूर्वोक्त अमयम आदि अवस्था से लेकर सवेथा मिथ्यात्वरूपी गाढनिद्रा में प्रसुप्त मिथ्यादृष्टि जीव जो बहुलता से त्रसजीवों की हिंसा करने में लवलोन रहा करता है वह (कालमासे) मृत्यु के समय में (फाल किच्चा) मर कर रणरइएस) नारकियों में (उवत्रजइ) उत्पन्न होता है क्या ? उत्तर-(हता) हा गौतम ! (उववज्जइ) उत्पन्न होता है । सू ६ ॥ 'जीवे ण भते त्याह गौतम यातना विषयमा पूछ -(जीवेण भने । अमजए जाव एगत सुत्त उरसण्ण-तस-पाण-घाई) लात 6५२ ४९स मम यम माहि भर સ્થાથી લઈને સર્વથા મિથ્યાત્વ રૂપી ગાઢનિદ્રામાં સુતેલો મિશ્યાદષ્ટિ જીવ જે घम। उस वानी डिसा ४२पामा भन्यो २९ छ, त (कालमासे) भृत्युसमय (काल किच्चा) भशन (णेरइएस) ना२धीमामा (अवज्जइ) उत्पन्न याय छ ? उत्तर-(हता) है। गौतम । (उपवज्जइ) Gपन्न याय छे. (स ) Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०६ औपपानक मोहणिज्जं कम्मं वेदेमाणे वेयणितं कम्मं बंधइ, णो मोहणिज कम्मं बंधइ ॥ सू०५ ॥ द्विकारूप चरममोहनायमियुच्यते, तद्वेदयन् जीव, 'वेयणिज्जं कम्मं वधड ' वेदनीय कर्म चघ्नाति यतो हि अयोगिन एव वेदनीयकर्मणो बन्धाभाव, 'णो मोहणिज्ज कम्म इ' नो मोहनाय कर्म बनाति सूक्ष्ममपरायस्य मोहनीयायुकवर्जाना पण्णामेव प्रकृतीना बन्धकत्वादिति ॥ सू० ५ ॥ नामक चौदहवें गुणस्थान मे ही वेदनीय कर्म के बन्ध का अभाव है, (णो मोहणिज्ज कम्मं इ) इसलिये सूक्ष्ममपराय वाला जीव मोहनीय एव आयुकर्म को छोडकर शेष ज्ञानावरणीयादि छ प्रकृतियों का बन्धक होता है । भावार्थ---प्रश्न इस प्रकार है कि मोहनीय कर्म का वेदन करने वाला जीव मोहनीय कर्म का करता है कि वेदनीय कर्म का बन्ध करता है ? उत्तर - वेदनीय कर्म का भी वध करता है और मोहनीय कर्म का भी वध करता है, परन्तु अन्तिम मोहनीय-सूक्ष्मलोभ का क्षय करते समय (बारहवें गुणस्थान में) वेदनीय कर्म का तो बंध करता है परन्तु मोहनीय कर्म का बध नहीं करता । कारण कि मोहनीय कर्म का क्षय १० वे गुणस्थान मे ही हो जाता है, आगे सिर्फ ११ वेदनीय कर्म का बध होता है सो यह भी केवल तेरवे गुणस्थान तक ही जानना चाहिये, क्यों कि १४ वें गुणस्थान में वेदनीय कर्म के बध का अभाव है | मू५ ॥ કરનારા જીવ વેદનીય ફના ખધ કરે છે કેમકે અયાગી નામના ચૌદમા ગુણસ્થાનમા જ वेहनीय अर्मना अघनो अलाव छे ( णो मोहणिज्ज कम्म बधइ) मा भाटे सूक्ष्मस परायवाजा व मोहनीय तेभन आयु भने ાડીને બાકીની જ્ઞાનાવરણીય આદિ છ પ્રકૃતિના ખ ધક થાય છે ભાષા-પ્રશ્ન એવા પ્રકારના છે કે મેાહનીયકમનુ વેદન કરવાવાળા જીવ માહનીય કર્મના બધુ કરે છે કે વેદનીય કમના અધ કરે છે? ઉત્તર-વેદનીય છમનાય બધ કરે છે અને માહનીય કમ ને પણ અધ કરે છે. પરતુ અતિમ માહનીય સૂક્ષ્મઢેલના ક્ષય કરતી વખતે (ખરમા ગુણસ્થાનમા) વેદનીય કને તે અધ કરે જ છે, પરંતુ મેાહનીય કા બંધ કરતા નથી, કારણ કે મેહનીય ક્રમના ક્ષય ૧૦ મા ગુણુસ્થાનમા જ થઈ જાય છે. આગળ માત્ર ૧ વેદનીય કમના જ અધ થાય છે, અને તે પણ કેવળ તેરમા ગુણમ્યાન સુધી જ જાણવા જોઈએ, કેમકે ૧૪ મા ગુણચાનમા વેદનીય કર્મના બુધના અભાવ છે (સૂ ૫) Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोषयपिणी-टीया सू ८ अर्मयताना देयन्नापपाते देनुप्रदर्शनम ०९ देवेसिया, अत्थेगडया णो देवेसिया गोयमा जे इमे जीवा गामा-गर-णयर-णिगम-रायहाणि-खेड-कव्वड-मडंव -दोणमुह-पट्टणा-सम-संवाह सपिणवेसेमु अकामतण्हाए अकामकको देश म्यात , अयरको न दा स्यात !-- ( यद्यत यदेशो देवो भवति को न भवनानि फिनिमित्तकोऽय भैन । इति प्रा, भगानुत्तग्माह-'गोयमा जे दमे जीगा गामा-गर-गयर - गिगम-रायहाणि-खेड-कपट-मड-दोणमुद्द-पट्टणा-सममाह-मणिमर' गौतम । य इम जीया प्रामा-ऽऽकर-नगर-निगम-गजधाना-पेट-कर्मट--मटन्य-योगमुग्य--पटनाऽऽश्रम-नार-मनिवशेषु-ग्रागन्याग्यातम्पपु 'अामतण्डाए' अकामना गया-अकामाना=निर्जगधनभिपिणा मता तृष्णा तृट्-अकामतृष्णा तया, 'अ. 'म केगटेण भने । ' दयादि । प्रश-(भते । ) ह भटन (मे केणटेण प चह जत्थेगडयाटेवे सियाअत्येगइया टेरे णो मिया) आप ऐमा क्मि कारण से कहते है कि कितनक जीव देवलोक में उपन्न हो मकन है और किननक नहीं हो सकते है, । उत्तर--(गोयमा) गौतम । मुनो, (जे इम जी गामा-गर-णयर-णिगम-रायहाणि-खेड-कबड-मडंग-ढोणमुहपट्टणा-सम-सपाह-मणिमेस अफामतण्डाए अकामबहाए अकामरमचरेवामेणं भकाम-अण्डाणग-मीया-या-दस-मसग-सेय-जल्ल-मल्ल-पक-परितारेण अप्पतरो वा मुन्नतरी काल अप्पाण परिकिलसति, परिफिलेसित्ता ग कालमासे काल किया अण्णयरेमु पाणमतरेसृ देवीएस देवत्ताए उपपत्तागे माति) जो जीव प्रकोट्ट महित ग्राम म, मुरणादिक की ग्वानों म, कर_ 'से रेणदेण भते ! त्या प्रभ-(भते) Bad I (मे वेणद्रेण एवं उच्चद अत्थेगडया देरे मिया अत्यगइया ने जो मिया) माप ओम गु १२४८ ८ ४७१ पक्षामा Crपन्न ब ने साल नयी 4051? उत्तर-(गोयमा) भातम ! माला (जे मे जीना गामा-गर-गयर-णिगम-गयहाणि-घट कपटमटर-लोणमुह-पट्टणा-मम-मनाह-मणिसेमु अकामनण्हाग अकामहाग अकामभग्नामेण अकाम-अण्डाणग-मीया-यन नम-ममग-मेय जल-मत्ल पक-परिता पण अपतगे ना मुनतगे वा काल आपाण परिकिटमति, परिफिलमित्ता कालमामे काल किन्चा अण्णयरेसु वागमतमु देवलोम देवत्ताप अनागे माति) २७ट माता भाभभा, सुवर्षांनी ખાણમાં, વાગ્ના નગરમા, વ્યાપારીઓની વસ્તીવાળા નિગમમાં, રાજ Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - ५०८ भोपपातिकमंत्र चक्खाय- पावकम्मे इओ चुए पेच्च देवे सिया?, गोयमा । अत्थेगडया देवे सिया, अत्थेगइया णो देवे सिया ॥ सू०७॥ मुलम्-से केणटेणं भंते । एवं बुच्चड-अत्थेगइया भदन्त । 'असजए अविरए अ-पडिहय-पचाखाय-पाकम्मे ' अभयत अपिंगत अ-प्रतिहत-प्रया यात-पापक्रमाच्या यातपूर्व , 'डओ चुए' इत मर्यलोकात् , युतमृत , ' पेच देव सिया' प्रेय देव स्यात्-प्रेय-जन्मान्तरे देव -देवगतिसमापन्न स्यात किम् ? इति प्रश्ने भगवानुत्तर कथयति-'गोयमा अत्येगडया देवे सिया' गौतम' अस्येकको देव स्यात्-कश्चिदेव स्यात्, 'अत्थेगइया णो देवे सिया' अत्येकको नो देव स्यात्-कश्चिदेवगतिसमापनो न भवेत् ।। सू० ७ ॥ टीका~से केणद्वेण भते " इत्यादि । ' से केणटेण भते । 'एव बुचइअत्यंगइया देवे सियाअत्यंगल्या णो देवे सिया? 'तकेनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते ऽस्त्ये 'जीवे णं भते।' इत्यादि। (भंते)हे भदत (असजए अविरए अ-प्पडिहय-पचक्खाय-पावकम्मे जीवे) जो जीव असयमी है, अविरतिसपन्न है, पापकर्मों का जिसने निंदाद्वारा एव विनिवृत्तिद्वारा प्रत्याख्यान नहीं किया है ऐसा वह जीव, (इओ चए) इस मर्त्यलोक से मर कर (पेच) परलोक में जन्मान्तर मे (देवे सिया) क्या देवलोक में उत्पन्न हो सकता है ? उत्तर(गोयमा) हे गौतम । ( अत्यंगइया देवे सिया अत्यगइया णो देवे सिया ) कितनेक जीव देवलोक म उत्पन्न होते है और कितनेक जीव देवलोक में उत्पन्न नहीं भी होते है ।। सू ७॥ 'जीये ण भते' इत्यादि (भते) सात (असजाए अविरए अ-प्पडिहय-पच्चासाय-पावकम्मे जीवे) જે જીવ અભયમી છે, અવિરતિસ પન્ન છે, પાપકર્મોનુ જેણે નિદા દ્વારા तभर विनिवृत्ति वारा प्रत्याज्यान ४यु नथी सेवा त ७५ (इओ चुए) मा भत्संभाथी भरीने (पेन्च) ५२भा --मातरभा (देवे सिया) शुदेव बोभा पन्न य श छ ? (गोयमा) उत्तर-3 गौतम! (अत्थेगइया देवे मिया अत्थेगइया णो देवे सिया) मा वाम पन्न थाय छ અને કેટલાક જીવ દેવકમાં ઉત્પન્ન નથી પણ થતા (સૂ ૭) Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ पोयूपयर्षिणी-टीका र ८ असंयताना देवत्वेनोपपाते हेतुप्रदर्शनम् ५११ भुज्जतरो वा काल अप्पाणं परिकिलेसंति, परिकिलेसित्ता कालमासे कालं किचा अण्गयरेसु वाणमंतरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति, तहिं तेसिं गई, तहि तेसि ठिई, तेहिं तेसिं उववाए पण्णत्ते । तेसि णं भंते । देवाणं केवडयं काल ठिर्ड पण्णत्ता ?, गोयमा । दसवाससहस्साई ठिई __ भूयस्तर वा काल्मा मान परिक्शयन्ति-'अप्पतरो मुनतरो' इत्युभयन द्वितीयार्थे प्रथमा, 'परिकिले सित्ता' परिर 'कालमासे' कालमामेकालावसरे 'फाल किच्चा' काल कृत्वा 'अण्णयरेसु वाणमतरेसु देवलोएमु देवत्ताए उववत्तारो भाति' अन्यतमेषु व्यन्तरेषु देवलोकेषु देववेनोपपत्तारोभमन्ति-अन्यतमेपु-नहना मध्ये एकतरेषु देवलोकेषु उपपात प्राप्नुवन्ति, 'तहि तेसिं गई तहि तसि टिई तहि तेर्सि उपसाए पण्णत्ते' तत्र देवलाके तेपा गति , तर तेपा स्थिति , तर तेपामुपपात प्रनप्त । 'तेसिं ण भते' देवाण केनदय काल ठिई पण्णत्ता' तेषा सलु भदन्त दवाना कियन्त काल स्थिति प्रजमा 'गोयमा ' दसपाससहस्साई ठिई पण्णत्ता' हे गौतम । दशवर्षसहस्राणि स्थिति प्रज्ञप्ता-वांगा दशसहस्राणि स, चाह ये सर कट जीन अल्पकाल तक सह या बहुतकाल तक सह, परन्तु इन कप्टों से जो अपनी आत्मा को गित करते हे वे मरणकाल प्राप्त होने पर मर कर किसी एक व्यन्तरदेवों के देवलोक मे देवरूप से उपन्न होते है, (तहिं तेसि गई तहिं तेसि ठिई तहि तेसि उवनाए पण्णत्ते ) इसलिये वहीं पर उनकी गति, वहीं पर उनकी स्थिति और वहा पर उनका उपपात होता है । (तेसि ण भते । देवाण केवदय काल ठिई पण्णत्ता) हे भदत । वहा पर उन देवों की कितने काल तक की स्थिति होती है। (गोयमा! दसवाससहस्सा ठिई पण्णत्ता ) गौतम ' सुनो, वहा पर उनकी स्थिति दसहजार वर्ष की होती પરિતાપને સહન કરીને-ચાહે તે બધા કઈ જીવ થોડો વખત સહન કરે અથવા લાબા કાળ સુધી સહન કરે પરંતુ કણોથી જે પિતાના આત્માને કલેશિત કરે છે તે મરકાલ પ્રાપ્ત થતા મરીને કોઈ એક વ્યન્તર દેવોના पमा हे१३ हत्पन्न याय), (तहिं तेसि गई तहिं तेसि ठिई तहिं तेसिं उपवाए पण्णत्ते) माया त्या तेमनी गति, त्या तभनी स्थिति, मने त्या४ तभने। पात याय छ (तेसि ण भते । देवाण केवइय काल ठिई पण्णत्ता') ९ मत त्या ते देवानी से स्थिति डाय १ (गोयमा । दसपास Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० ঘঘানি छहाए अकाम-भचेर-बासेणं अकाम-अण्हाणग-सीया-यवदंस-मसग सेय-जल्ल-मल्ल-पंक- परितावेणं अप्पतरो वा कामछुहाए' अफामाधया-अकामाना=निगमनभित्रपिणा सता सुधा-अकामनुधा तया, 'अकाम-भवेर-वासेण' अकाम-नाल्चय-पासन-अकामाना-निर्जगधनपेगाना चर्ये वाम तेन, 'अफाम-अण्वाणग-सीया-या-दस-ममग-सेय-जल-मट-पर. परितावेण ' अकामा-ऽस्नानक-गीता-तप-दा-माक-ट-जल्ल-मल्ल--पह परिता. पेन-अफामाना=निर्जरायनपेक्षमाणाना यानि रनानाऽभावानि पदातानि तेपा परितापेनसन्तापन, 'अप्पतरो वा भुजतरी या काल अप्पाण परिफिलेसति' अपतर वा रहित नगर म, व्यापारियों की वस्तीगाले निगम मे, राजा की राजधानी में, धूल के कोट से युक्त खेडे मे, कुसित जन की वस्तीवाले कर्बट में, नजदीक २ ग्रामपाले मटन मे, जल और स्थल इन दोनों प्रकार के मार्ग वाले द्रोणमुरव (बदर) मे, सर्ववस्तु जहा मिलती हो ऐसे पाटण म, तापसौ के आश्रमों मे, पर्वत के नजदीक बाले मबार मे, एव गोपालों की प्रधान वस्तीवाले सनिवेडा मे, अकामनिर्जरासे मनविना परवश हो कर साने पीने की वस्तु न मिल सक्न के कारण क्षुधा-तृषा सहन करने से, अामब्रह्मचर्य से-इच्छा होने पर भी स्त्री आदि की अप्रामि से ब्रह्मचर्य पालन करने से, अकामलान से-इच्छा होने पर भी पानी न मिल सक्ने के कारण स्नान नहीं करने से, वस्त्रादिक न मिल सकने के कारण शीत-आतप जन्य दुख सहने से, दशमशक के द्वारा काट जाने का कष्ट सहन करने से, स्वेद, जल्ल, मल्ल एवं पफ आदि को शरीर से दूर नहा करने से, अर्थात् इन क द्वारा उत्पन्न परिताप के सहन करने યુક્ત રાજધાનીમાં, ધૂળના કેટવાળા ગામડામા, કુત્સિત જનોના નિવાસરૂપ કટમ, પાને પાને ગામવાળા મડબમા, જલ અને સ્થલ એ બન્ને પ્રકા રન માગવાળા દ્રોણમુખ (બદર)મા, સર્વ વરતુ જ્યા મળતી હોય એવા પાટણમા, તપસ્વીઓના આશ્રમમાં, પર્વતની પાસેના સાધમાં, તેમજ ગોવાળની મુખ્ય વસ્તીવાળા સન્નિવેશમા, અનામનિજેરાથી–મનવિના પરવશ થઈને-ખાવાપીવાની વસ્તુ મળી ન શકવાથી ભૂખતરને સહન કરીને, અકામબ્રચર્યચી-ઈછા હોવા છતા સ્ત્રી આદિની અપ્રાપ્તિથી બ્રહ્મચર્ય પાલન કરીને, અકામનાનથી-ઈચ્છા હોવા છતા પાણી ન મળી શકવાના કારણે સ્નાન નહિ કરીને, વસ્ત્રાદિક ન મળી શકવાના કારણે ઠંડી-ગરમીથી થતા દુ ખ સહન કરીને. દશમશકથી છરડાઈ જવાનું કષ્ટ સહન કરીને, વેદ, જલ, મતલ તેમજ ૫ ૪ આદિને શરીરથી ફર નહિ કરીને એટલે, આથી ઉત્પન્ન થતા Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयपपिणी टोका मु ९ अण्डयद्रकादीनामुपपातविपये गौतमप्रश्न १३ मूलम् से जे इमे गामा-गर-णयर-णिगम-रायहाणि-खेड-कबड-मडंव-ढोणमुह-पट्टणा-सम-संवाह-सपिणवेसेसुमणुया भवति,तंजहा-अंडवद्धगा णियलवद्धगाहडिव ___टीका-' से जे उमे' यादि । ' से जे उमे' अथ य उमे 'गामा-गरणयर-णिगम-रायहाणि-खेड-कबड-मडंव-दोणमुह-पट्टणा-सम-समाह -सपिणवेसेस मणुया भवति' प्रामा-ऽऽकर-नगर-निगम-राजधानी-खड-कर्बट-मडम्बद्रोगमुरव-पःणाऽऽ-श्रम-समाध-सन्निवेशेषु मनुजा भान्ति-प्रामादय प्राग व्यारयाता , तेषु य टमे मनुप्या भान्ति, 'तनहा' तद्यथा- 'अडुपद्धगा' अण्टुपदका -अण्डनि=अन्दुसे देव होते है वे हा जीन आराधक होकर नियम से, आगामी एक हा मनुष्य भव से अथवा परम्पग से मात आठ भर से मुक्ति का लाभ कग्नेगाले होते है, अन्य नहीं। परन्तु जो अामनिर्जग करके देवता होते है वे सभी निर्वा गानुकूल भवान्तर प्राम करे ही यह नियम नहीं है । सू० ८॥ से जे इमे गामागर' इत्यादि । (से जे इमे ) जो ये जीव (गामा-गर-णयर-णिगम-रायहाणि-खेडसंबड-मडर-दोणमुह-पट्टणा-सम-समाह-सण्णिवेसेमु मणुया भवति) ग्राम में, आकर म, नगर म, निगम में, गजधानी में, खेडे म, कर्वट मे, मडम्ब में, द्रोणमुख में, पट्टण में, आश्रम म, वाध में, ण्व सन्निवेश मे मानव की पर्याय से उत्पन्न होते है और पकिसी अपराश (अड़वद्धया) लोह एव काष्ठ के बधनों से हाथ पैरी को बाधकर તેમજ સમ્યગ્રારિપૂર્વક અનુષ્ઠાનથી દેવ થાય છે તેજ જીવ આરાધક થઈને નિયમથી આગામી એક જ મનુષ્યના ભવથી અથવા પર પરાથી સાતઆઠ ભવોથી મુક્તિનો લાભ મેળવનાર થાય છે પરંતુ જે અકામનિર્જરા કરીને દેવતા થાય છે તે નિર્વાણ-અનુકલ ભવાતર પ્રાપ્ત કરે જ એ નિયમ नथी (सू ८) 'से जे इमे गामागर-' त्या (से जे इमे) २ मा ७५ (गामा-गर-णयर-णिगम-रायहाणि-खेड-कब्बडमडन-दोणमुह-पट्टणा-सम-समाह-सण्णिवेसेसु मणुया भवति) गाभभा, मा४२मा, नगरमा, निगममा, पानीमा, आमा, भा, भसभा, श्रीभुममा, પાટણમા, આશ્રમમાં, સ બાધમા, તેમજ અનિવેશમાં માનવની પર્યાયમાં ઉત્પન્ન Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ ओपपातिकमरे पण्णत्ता । अस्थि ण भंते ! तेसिं देवाण इड्ढीड वा जुईड वा जसेड वा वलेइ वा वीरिएड वा पुरिसकार-परकमेड वा', हंता। अस्थि । ते णं भंते ? देवा परलोगस्स आराहगा १, णो इणहे समहे ॥ सू०८॥ यावत् तत्र तेपा स्थिति प्रनमा । 'अत्यि ण भते । तेसि देवाणा इड्ढीइ वा जुईइवा जसेइ वा बलेट वा चीरिएड वा पुरिसकारपरकमेड पा" अस्ति सल है भदन्त' तेपा देवानामृदिरिति था, धुतिरिति वा, या इति वा, वलमिति था, वीर्यमिनि वा, पुरुप कारपराक्रम इति वा, १, तेपा देवानामृद्धयादयो नियन्ते ननि प्रश्न , उत्तरमाह-'हता' अस्थि' हन्त ! अस्ति-तेपामृयादयो वर्तन्ते इति भाव । पुन -पृच्छति--तेणे भंते देवा परलोगरस आराहगा' ते खलु है भदन्त ! देवा परलोकस्याऽऽराधका परलोकसा धका सन्ति किम् ।, उत्तरमाह-'णो इणद्वे समो' नाऽयमर्थ समर्थ =मगत - इत्युत्तरम् , अयमभिप्राय -ये हि जीवा सम्यगदर्शनजानपूर्वकानुष्ठानेन देवा भान्ति, त एव नियमतयाऽऽन्तर्येग पारम्पर्येग वा निर्वागाकल भया तर प्राप्नुवन्ति तदन्ये तु भाज्या ॥ मू० ८॥ है। (अत्थि ण भते ! तेसिं देवाण इड्डीइ वा जुईइ वा जसेइ वा बलेइ वा वीरिएद वा पुरिसकारपरकमेइ वा) प्रभो । वहा उन देवों में परिवार आदि ऋद्धियों, शारीरिक काति, यश, बल, वीर्य और पुरपकार-पराक्रम ये सब बाते है या नहीं, (हता! अत्थि ) उत्तर-हा है। (ते ण भते ! देवा परलोगस्स आराहगा) हे भदत । वे देव परलोक के आराधक होते है क्या ? उत्तर-(णो ण समढे) यह अर्थ समर्थित नहीं हैं, क्योंकि जो जीव सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यकचारित्र-पूर्वक अनुष्ठान सहस्साइ ठिई पण्णत्ता) गौतम | साली, त्या तभनी स्थिति इस उतर १पनी हाय छ (अस्थि ण भते । तेमि देवाण इड्ढीइ या जुईइ वा जसेइ वा बले वा पीरिएइ वा पुरिसक्कारपरस्कमेइ वा) असो । त्यो त हेवामा परिवार माहि ઋદ્ધિઓ, શારીરિક કાતિ, યશ, બળ, વીર્ય અને પુણ્યકાર–પરાક્રમ આ બધુ आय 3 नडि ? (हता अस्थि) & छ (ते ण भते । देवा परलोगस्स आगगा), हे। asना साराच डोय छ ? (णो इणद्वे જો આ અર્થ સમર્થિત નથી, કેમકે જે જીવ સમ્યગ્દન સમ્યજ્ઞાન Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषषपिणी टोकास ९ अण्डुकादीनामुपपातविषये गौतमप्रश्न ५१३ मूलम् - से जे इमे गामा- गर - णयर - णिगम - रायहाणि - खेड - कब्बड - मडंव - दोणमुह - पट्टणा - सम-संवाह - सण्णिवेसेसु मणुया भवति, तजहा - अंडुवडगा णियलवद्धगा हडिव - टीका-' से जे इमे ' इत्यादि । ' से जे इमे ' अथ य इमे ' गामा-गरणयर - निगम - रायहाणि - खेड - कन्नड-मडव-द्रोणमुह-पट्टणा - सम-सवाह - सण्णिवेसेन मणुया भरति ' ग्रामा - SSकर - नगर-निगम - राजधानी-खट-कर्बट-मडम्ब -- द्रोगमुस - पट्टणाSS-श्रम-मना-सन्निवेशेषु मनुजा भवन्ति - ग्रामादय प्राग् व्याख्याता, तेषु य इमे मनुष्या भवन्ति, 'तजहा' तद्यथा - 'अडुद्भगा' अण्डुका - अण्डनि-अन्दुसे देव होते है वे हा जीप आराधक होकर नियम से, आगामी एक हा मनुष्य भव से अथना परम्परा से सात आठ भव से मुक्ति का लाभ करनेवाले होते है, अन्य नहीं । परन्तु जो अकामनिर्जरा करके देवता होते हैं सभा निर्वागानुकूल भवान्तर प्राप्त करे हो यह नियम नहा है || सू० ८ ॥ ' से जे इमे गामागर ' इत्यादि । से जे इमे ) जो ये जीन ( गामा-गर-गयर - निगम - रायहाणि-खेडकन्नड-मडर - दोणमुह-पट्टणा - सम-सवाह - सण्णिवेसे मणुया भवति ) ग्राम में, आकर मे, नगर मे, निगम मे, राजधानी मे, खेडे मे, कर्नट में, मडम्ब में, द्रोणमुख में, पट्टणम, आश्रम म, बाध में, एव सन्निवेश मे मानन की पर्याय से उत्पन्न होते है और (अडुबया ) लोह एव काष्ठ के बधनों हाथ पैरा को बाधकर किसी अप તેમજ સભ્યશ્ચારિત્રપૂર્વક અનુષ્ઠાનથી દેવ વાય છે તેજ જીવ આરાધક થઈને નિયમથી આગામી એક જ મનુષ્યના ભવથી અથવા પરપરાથી સાત આઠ ભવોથી મુક્તિના લાભ મેળવનાર થાય છે પરંતુ જે અકામનિર્જરા કરીને દેવતા થાય છે તે નિર્વાણુ-અનુકૂલ ભવાતર પ્રાપ્ત કરેજ એવા નિયમ नथी (सू ८) 'से जे इमे गामागर -' इत्याहि ( से जे इमे ) ने मालव ( गामा-गरणयर - निगम - रायहाणि - खेड - कब्बड - मडब - दोणमुह - पट्टणा - समसबाह-सण्णिवेसेसु मणुया भवति) गाभभा, गोडरमा, नगरभा, निगभभा, शन्धानीभा, भेडामा, उर्भरभा, भड सभा, द्रोणुभुभभा, પાટણમા, આશ્રમમા, સ ખાધમા, તેમજ સન્નિવેશમા માનવની પર્યાયમા ઉત્પન્ન Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ औपपातिकस गा चारगवडगा हत्थच्छिण्णगा पायच्छिण्णगा कण्णच्छिण्णगा नक्कच्छिपणगा ओहच्छिण्णगा जिन्भच्छिण्णगा सीसच्छिण्णगा मुहच्छिण्णगा मज्झच्छिण्णगा वइकच्छच्छिण्णगा हियउप्पाडियगा 1 कानि कामयानि लोहमयानि या हस्तयो पादयोर्ना बधनविशेषा तेषु बद्धका बा एव बद्धका, स्वार्थे, 'णिअलगा' निगडबद्धका - निगडा = लौहमया पादयोर्येधविशेषा 'वेडी' इति प्रसिद्धा तेषु बद्रका - निगडनद्वा इत्यर्थ, 'हडिबडगा' हडिबद्ध का - हडिवोटक, तर बज्रका 'चारगरदगा ' चारकनद्रका चारका कारागाराणि, ! तन बद्धका ' हत्थच्छिणगा' हस्तच्चिन्नका - हस्तौ हिन्नौ येषा ते तथा, 'पायच्छि } णगा ' पादच्छिन्नका ' उष्णच्छिष्णमा' कर्णच्छिन्नका, 'नऊन्उिण्णगा ' नासिका च्छिन्नका 'ओच्छिणगा' ओष्ठच्छिन्नका, 'जिन्भणिगा' जिह्नाच्छिन्नका, 'सीसचिणगा' गाच्छिन्नका 'मुहच्छिणगा' मुखच्छिन्नका 'मज्झच्छिण्णगा' मयच्छि न्नका, माय = उदरदेश, 'इकच्छच्छिण्णगा 'वैकक्षच्छिन्नका उत्तरासङ्गाऽऽकारेण नि 3 9 एक स्थान पर रोककर रख दिये जाते है, ( णिअलनद्धगा ) वेडी से जकड़ दिये जाते हे, (हडबडगा ) काष्ठ के खोड़े में पैर डलवाकर रोक दिये जाते है, (चारगवद्धगा ) जेलखाने मे बद कर दिये जाते है, ( इत्थच्छिण्णगा ) तथा उनके दोनों हाथ काट दिये जाते है, (पायच्छिण्णा) दोनों पैर छिन्नभिन्न कर दिये जाते है, ( कण्णच्छिण्णागा ) कान छेद दिये जाते है, (नक्कच्छिण्णगा ) नाक छेट दी जाती है, (ओट्ठच्छिण्णगा ) ओष्ठ' छेद दिये जाते है, (जिन्भणिगा ) जिह्वा छेद दी जाती है, (मीसच्छिण्णगा ) शिर छेद दिया जाता है, (मुहच्छिष्णगा ) मुख छेद दिया जाता है, (मज्झन्छिण्णगा ) थाय छे भने तेसो अध अपराधवश (अडुबद्धगा) सोढाना तेभन साउडाना धनाथी हाथ- पाने गाधीने थे स्थान पर रोट्ठी स्थाय छे, (णिअलबद्धगा) मेडीथी डी हेवाय छे, (हडिनद्धगा) साइडाना जोड़ा (उड) भाग नणाचीने रोडी रमाय छे (वाग्गनगा) नेसमानामा पुरी हेवाभा भावे छे, (हत्थच्छिण्णा) तथा तेभना भन्ने हाथ अभी नामवासा आवे छे, (पायच्छि गगा) जन्ने पण छिन्न लिन्न पुरी नामवामा आवे छे, (कण्णच्छिण्णगा) अन छेट्टी नामवामा आवे छे (नक्कन्छिन्गगा) ना४ छुट्टी नसाय छे, (ओडिण्णगा है| छेही नयाय है (जिन्भच्छिण्णा) छल छेडी नपाय छे (सीसरिउण्णगा) शिर हेही नयाय छे (मुहच्छिण्णा) भुम छेदी न्याय (मज्झच्छिण्णगा) Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषवर्षिणी-टोका र ९ अण्डुपन्द्रकादोनामुपपातविषये गीतमा ५१५ णयणुप्पाडियगा दसणुप्पाडियगा वसणुप्पाडियगागेवच्छिण्णगा तंडुलच्छिण्णगा कागणिमंसवावियगा ओलवियगा लंवियगा दारिता , 'हियउप्पाडियगा' दृढ़योपाटितका -उ पाटितदया इयर्थ, 'णयणुप्पाडियगा' नयनोपाटितका -उपाटितनयना =पृथकातनेत्रा , 'दसणुप्पाडियगा' दशनोपाटितका -उपाटितदशना =पृथकृतदन्ता , 'वसणुप्पाडियगा' वृषणोपाटितका -पृथकृताण्डकोशा , 'गेपन्छिण्णगा' ग्रीटिनका छिन्नग्रीवानदेया , 'तडुलन्छिण्णगा' तण्डुलच्छिन्नका -तण्ठपत कणगाना , 'कागणिमस स्वावियगा' कारुणीमासग्वादितका-काकणीमासानि देहो इत्तमासपण्डानि खान्तिानि येषा ते तथा, 'ओलवियगा' अपलम्बितका ग्ल्या बद्घा कूपाढौ पातिता , 'लवियगा' लम्बितका =तरुणाग्वादौ उद्ध्वा लम्बिता , 'पसियगा' घर्पितका = चन्दनवत् पापाणादौ पृष्टा , 'घोलिमध्यभाग-पेट का भाग छेद दिया जाता है, (वटकच्छन्छिण्णगा) बायें कन्धे से लेकर दाहिन कॉख के नीचे के भाग सहित मस्तक छेद दिया जाता है, (हियउप्पाडियगा) हृदय फाड दिया जाता है, ( पायणप्पाडियगा) दोनों आये फोह दी जाती है, (दसणपाडियगा) अडकोष निकाल दिये जाते है, (गेवच्छिण्णगा) गर्दन तोड-मगेड दी जाती है, (तडुलन्दिण्णगा) तन्दुल का तरह क्ण२ करके उनके शरीर के खड २ कर दिये जाते है, (कागणि-मस-चग्वावियगा) उनकी देह से मास काट २ कर कौओं को खिला दिया जाता है, (ओलवियगा ) रस्मी से बाधकर कुए में डाल दिये जाते हैं, (लवियगा) वृक्ष की भाग्मा आदि पर नारकर लटका दिये जाते है, (घंसियगा) चढन की तरह प थर आदि पर घिमे जाते है, (पोलियगा) भाण्ड में स्थित दही की मध्यमान-पेटन मास ही नमाय छे (वइकच्छच्छिण्णगा) सभी सधथी साधने भणी मासाना नीयना सा भडित मस्त छी नमाय छ (हियउप्पाडियगा) दृष्य 11 नमाय छ (णयणुप्पाडियगा) भन्ने मामा डी.वाय छे (दसणुप्पाडियगा) हात पानाय छ (वसणुप्पाडियगा) म १५ दी नमाय (गेवच्छिण्णगा) न तास-भीनमायछ (तडुलच्छिण्णगा) तन्दुલની પેઠે કણકણ કરીને તેના શરીરના કટકે-કટકા કરી નાખવામાં આવે છે (फागणि-मस-कमावियगा) तना माथी भास पी पीने ४५ने भषसवाय छ (ओलषियगा) हाथी माधानवामा नाभी हेपाय छ (लबियगा) आनी आजी माधान पामा भावे (पसियगा) यहननी ४ Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - mamme e - যামিনু घंसियगा घोलियगा फालियगा पीलियगा सूलाइयगा सूलभिपणगा खारवत्तिया वज्झवत्तिया सीहपुच्छियगा दवग्गिदड्ढगा पंकोसपणगा पंके खुत्तगा बलयमयगा वसट्टमयगा णियाणमयगा' घोनितका =माण्डस्थितदधेिवोऽध क्रमेणाऽऽपूर्णिता , 'फालियगा' स्फाटिता - शुष्ककावत्कुठारेण द्विधा कृता, 'पीलियगा' पीडितका -यन्त्रक्षिप्ते यष्टिवत् पीडिता, 'मूलाइयगा' शूलाचितका =शूले समारोपिता, 'सुभिण्णगा' शूलभिन्नका =शूलेन विदारिता , ‘ग्वारयत्तिया' क्षारवर्तिता ओर क्षिप्ता , ' वझवत्तिया वयवर्तिता = यध्यस्थाने पातिता , 'सीहपुच्छियगा' सिंहपुतिका =रिन्नजननेन्द्रियका , यद्वा--सिंहपुन्छे बवा समाकृष्टा 'टवग्गिदड्दगा' दावाग्निदग्धका --दावाग्मिनाचनामिना दग्धा , 'पोसण्णगा' पदाऽवसन्नका =सर्वथा पके निमग्ना , 'पके खुत्तगा' पङ्के निमन्ना = उत्तरीतुमसमर्था , 'वलयमयगा' बन्नन्मृतका सयमयोगाद भ्रष्टाना परीपहायसहनतया तरह ऊँचे नीचे करके मथ दिये जाते है, अथवा धुमाये जाते हैं, (फालियगा) शुष्ककाष्ठ की तरह दो टुकड़ों के रूप में कर दिये जाते है, (पीलियगा) कोल्ह में क्षिप्त इक्षु की तरह पोल दिये है, (सलाइयगा) शूली पर चढा दिये जाते है, (मूलाभिण्णगा) शूल से विदारित कर दिये जाते है, (खारवत्तिया) क्षार में पटक दिये जाते है, (पज्झवत्तिपा ) वध्यस्थान में रख दिये जाते है, (सीहपुच्छियगा) उनका लिङ्ग काट दिया जाता है, अथवा वे सिंह की पूंछ में वाँधकर घसीटे जाते हैं, (दवग्गिदड्दगा) दावाग्नि द्वारा दग्ध कर दिये जाते हैं, (पंकोसण्णगा) कीचड मे विलकुल धसा दिये जाते हैं, (पके खुत्तगा) कीचड में इस प्रकार खडे कर दिये जाते है कि जिससे फिर पत्थर 6५२ घसी नपामा २॥ छ (घोलियगा) वासभा राता डीनी પેઠે ઉચ-નીચે કરી મથન કરવામાં આવે છે, અથવા ઘુમાવવામા આવે છે (फालियगा) सुसासनी ४ मे १४ाना ३५मा ४ नापामा भाव छ (पीलियगा) मा नासामा २ाती डानी पे पीसी नाय छ (सूलाइयगा) २जी ३५२. यपी वाय छ (सूलाभिण्णगा) शूयथा शडी नाम वाभा के छ (खारवत्तिया) क्षारमा नामी पाय छे (वझवत्तिया) १५ स्थानमा २ाय छ (सोह्पुन्छियगा) लिपी नाय छ, अया-मिनी भडीमा धान घय छ (दवग्गिगा) पनि ARA मामी नसाय छ (पकोसण्णगा) हम नामी उपाय छे तेथी त्या भरी जय छ, (पने खुत्तगा) Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण टोकाख ९ अण्डवादीनामुपपातविषये गौतमप्रश्न ५१७ या अंतसमयगा गिरिपडियगा तरुपडियगा गिरिपक्खंटोमग्ण-बलभरण तद्वन्तो वन्तका, यहा - बुभुक्षादिना आता भूत्वा मृतास्ते वन्मृतका, 'सट्टमयगा वगार्नमतका इन्द्रियविषयनागता आर्ता मन्त गन्दादिवशवर्तिमृगा - ' ताइयर्थ, 'णियाणमयगा ' निदानमृतका - ऋद्धिभोगादिप्रार्थना निदान, तपूर्वक मग्ण निदानमरणम, तन्त इयर्थ ' अतोसमयगा ' अन्त गन्यमृतका - अन्त - डाव्या = अनुद्धृतभावाच्या अन्त स्थिनभहाडिगच्या वा मृता, 'गिरिपडियगा ' गिरि पतितका - गिरे = पर्वतात्पतिता, 'तरुपडियगा ' तस्पतितका = वृक्षा पतिता, 'मरुपडियगा' मस्पतितका मरो - निर्जले देगे पतिता, 'गिरिपक्खदोळगा ' गिरिपक्षान्दोलका –गिग्पिक्षे=पर्वतपार्श्वे आत्मानमान्टोलयन्ति ये ते तथा, गिरिपरिसरान्मरणायैव दत्तझम्पा वे वहा से पार नहीं आ सके, (बलयमयगा ) परीषह आदि को सहन करने में असमर्थ होन की वजह से गृहीत मयम से जो भ्रष्ट होना इसका नाम वलन्मरण है, अथवा दु ख़ित होकर जो मरना है उसका नाम भी वल्न्मग्ण है, इम मरण से जो युक्त हा वे बलन्मृतक है, ऐसे जो वल्न्मृतफ है, ( वसट्रुमयगा ) शन्दादिक के वशवर्ती मृग की तरह जो इन्द्रियों के विषयों में फँसकर दुरवस्था से प्राणा का त्याग करते है, (णियाणमयगा ) जो इन्द्रियभोगाढिका की चाहनारूप निदान से मरण करत है, (अंतोसमयगा ) हृदय म शन्य धारण कर जो मरण करते हैं, अथवा भल्लादिक शस्त्रों से विदारित होकर जो मरण करते हैं, (गिरिपडियगा ) व्हाट से गिरकर जो मरण करते हैं, (तरुपडियगा ) पेड से गिरकर जो मरग करते है, (मम्पडियगा जो मस्स्थल मे पट कर मर जाते हैं, (गिरिपक्वदोलगा ) पर्वत से जो झपापात कर के मर जाते है, (तरुपक्खंदोलगा ) वृक्षों से ગારામા એવી રીતે ઉભા કરી દેવાય છે કે જેથી પાછા તે ત્યાથી નીકળી શકે नहि (वल्यमयगा) परिपड माहिना भहन दरखामा अभभर्थ होवाथी सीधेसा નયમથી ભ્રષ્ટ ચવુ તેનુ નામ વરુન્મરણ છે આ મરણથી જે યુક્ત હાય અથવા દુખી થઈને જે મરણ થાય તેવા મરજીથી જે યુક્ત હોય તે વલનૃ } 3, (वसट्टमयगा) शब्द महिने वश यह भृगनी पेठेने ४ डियोना विषयमा भाई आपनो त्याग उरे छे, (णियाणमयना) કેંદ્રિયભાગ माहिडनी थाहना ३५ निधानथी भगग्य यामे छे, (अतोसल्ल्मयगा) हृध्यभा રાહ્ય ધારણ કરીને ( છરી મારીને ) જે મરણ પામે છે, અથવા लाला विगेरे शखोथी ? भर यामे छे, (गिरिपडियगा) || उपरथी घडीने ? भर यामे 3, (तरुपडियगा) आडेथी पडीने हे भगलु थामे छे, (मरुप डियगा) ने भरुम्यसभा यडीने भी लय हे, (गिरिपक्सोलगा) पर्वत उपरथी 6 • Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - ऑपपातिकको लगा तरुपक्खंदोलगा मरुपाखंदोलगा जलपवेसी (जलणपवे. सिगा) विसभक्खियगा सत्थोवाडियगा वेहाणसिया गेडपट्ठगा कतारमयगा दुभिक्खमयगा असंकिलिपरिणामा ते कालमासे मृताश्च तथाभिधीयन्ते, 'तरुपक्रवदोल्गा' तरपक्षान्दोलका तरपक्षाग्झम्पादानेन मृता 'मरुपक्खदोलगा' मरुपक्षान्दोलका -मरुपक्षे मरुभूमौ आत्मानमान्दोलयन्ति ये ते तथा, मरभूमौ मृता इत्यर्थ , 'जलपवेसी' जलप्रवेशिन -जले निम-ज्य मृता इत्यर्थ , ' जलणपवेसिगा' ज्वलनप्रवेशिका --भानौ मृता इत्यर्थ , 'विसभक्वियगा' विषभक्षितका - विपभक्षणेन मता इत्यर्थ , ' सत्योराडियगा' शस्रोत्पास्तिका -गण-क्षुरिकादिना विदारिता सन्तो मृता, 'वेहाणसिया' वैहायसिका --वृक्षशाखाटावुद्धित्याद् विहायसिआकाशे यन्मरण भवति तदेहायस, तदस्ति येषा ते वैहायसिका , 'गेद्धपढगा' गृघस्पृटका --गधे =पक्षिविशेषै स्पृष्टस्य विदारितस्य करिकरभरासभादिमृतम्लेवरस्याभ्यन्तरे गत्वा ये मृतास्ते गृध्रस्पृष्टका 'कतारमयगा' कान्तारमृतका अरण्ये मृता , 'दुभिक्खमयगा' दुर्भिक्षमृतका --दुर्भिक्षे मृता इत्यर्थ , 'अममिलिट्ठपरिणामा' अमक्लिष्टपरिणामा , झपापात कर के मर जाते हैं, (मरुपक्खदोलगा ) मरस्थल में मार्ग भूलकर जो उसी में मर जाते है, (जलपवेसी) जल में डूब कर जो मर जाते हे, (जलणपवेसिगा) अग्नि से जलकर जो मर जाते है, (विसभक्खियगा) विष खाकर जो मर जाते है, (सत्यो वाडियगा) शस्त्रों से आहत होकर जो मर जाते है, (वेहाणसिया) वृक्षा पर लटक कर जो मर जाते हैं, (गेद्धपद्रगा) गृद्धों द्वारा विदारित ऐसे फरि हाथी एव करम-ऊट आदि के कलेवर में प्रविष्ट होकर जो मरते हैं. (कतारमयगा) जो जगल में ही मर जात है, (दुभिक्खमयगा ) दुर्भिक्ष से पीडित होकर जो मौत के घाट उतर जाते है, (अस. अ पायात शने (हान) भरण पाम छ, (तरुपक्खदोलगा) वृक्ष ५२थी ॐ पायात ४शन रे भरण पामे छ, (मरुपक्खदोलगा) भरयसभा २स्तो मूदीने तेभार रे भरी य छ, (जलपवेसी) समा मीन भर पामे छ, (जलणपवे सिंगा) मनिया मजीन २ भरी छ, (विसभक्सियगा) 3२ माईन से भरा पामे छ, (सत्योवाडियगा) शीना धातथी २ भरी जय छ, (वेहासिया) वृक्षो ५२ टीन भर पामेछ, (गेद्धपगा) सीधेवा। विद्यारित હાથી તેમજ કરઉટ આદિના શરીરમાં પ્રવિણ થઈને જે મરણ પામે છે, (कतारमयगा) २४ गसमा भर पामेछ, (दुभिक्खमयगा) निक्षथी पाचन Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयपषिणी-टीका सु ९ अण्डयद्वकादीनामुपपातविषये गौतमप्रश्न ५५९ काल किच्चा अण्णयरेसु वाणमतरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति, तहि तेसिं गई तहिं तेसि ठिई, तहिं तेसिं उववाए पण्णत्ते।तेसिंणभंते देवाणं केवइयंकालं ठिई पण्णत्ता गोयमा मक्लिष्टपरिणामा महारौद्र यानाऽऽवेशन देव व न लभन्ते, अत अमक्लिष्टपरिणामा इति विशिष्य प्रदर्मिता , ते कालमासे काल कृपा, 'अण्णयरेसु वाणमतरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भाति ' अन्यतमेपु व्यन्तरेषु देवलोकेषु देव वेनोपपत्तारो भवन्ति, 'तहिं तेसिं गई ' तत्र तेपा गति , 'तहि तेसिं ठिई ' तर तेषा स्थिति , 'तहि तेसि उववाए पण्णत्ते' तत्र तेपामुपपात प्रजम । 'तेसिं ण भते ! देवाण केवइय काल ठिई पण्णत्ता' तेपा सल भदन्त । देवाना कियन्त काल स्थिति प्रनता , 'गोयमा । बार"किलिपरिणामा) और जिनके परिणाम मरिष्ट नहीं होते है, ऐसे जीव (अण्णयरेसु वाणमंतरेसु देवलोएमु देवत्ताए उवात्तारो भवति ) किसी एक व्यन्तर देव को पर्याय से उपन होते है । (तहिं तेमि गई, तहिं तेसि ठिई, तर्हि तेसि उववाए पण्णत्ते) वहीं पर उनको गति, वहीं पर उनका स्थिति एव वहीं पर उनका उपपात कहा गया है, (तसि ण भते ! देवाण केवडय काल ठिई पण्णता) हे भदत । वहा उन जीवों को (१) मक्लिष्टपरिणामों के मद्भाव में जीवों को देवगति का वध नहा होता है । ___ महा आर्तगैठध्यान के परिणाम सक्लिष्ट परिणाम है, अमक्लिष्ट परिणाम ही देवगति की प्राप्ति में कारण है, इस बात को प्रदर्शित करने के लिये "असफिलिट्ठपरिणाम" इस पद का प्रयाग किया है। २ भातने सेट छ, '(असकिलिट्रपरिणामा) अननु परिणाम-मत साटन थायमेव ७१ (अण्णयरेसु वाणमतरेसु देवलोग्सु देवत्ताए उववत्तारो भवति) 5 मे४ व्यत२ पक्षोभा व्यत२-हेपनी पर्यायथी उत्पन्न थाय छे (तहिं तेसि गई तहिं तेसिं ठिई तहिं तेसिं पाए पण्णत्ते) त्यातभनी गति, त्या तेमनी स्थिति, तभ० त्या तमना S५पात लवामा माथ्यो छ (तसिं णं भते । देवाण केव इय काल ठिई पण्णत्ता) मत। त्यात वोनी स्थिति सा नी मनाची (૧) સ કિલષ્ટ પરિણામના સદુભાવમાં જીવોને દેવગતિને બધ થત નથી મહા--આરૌદ્રધ્યાનન. પરિણામ સકિલષ્ટપરિણામ છે અસ કિલષ્ટ પરિણામ પણ દેવગતિની પ્રાપ્તિમાં કારણભૂત છે એ વાત પ્રદર્શિત કરવા "असकिलिट्ठपरिणाम" से पहनी प्रयोग ४यो छ Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -- - औपणातिात्रे वारसवाससहस्साइं ठिई पण्णत्ता । अस्थि णं भंते । तेसि देवाणं इड्ढीइ वा, जुईइ वा, जसेड बा, चलेड वा, वीरिएड वा, पुरिसकारपरकमेड वा, हंता! अत्थि। ते णं भंते। देवा परलोगस्स आराहगा, णो इणहे समहे ॥ सू०९॥ सवाससहस्साइ ठिई पण्णत्ता' गौतम ! द्वादशार्पसहस्राणि स्थिति प्रजमा । 'अस्थि ण भते ! तेसि देवाण इड्डीड वाजुईट पानसेड पापलेद वा वीरिएड वा पुरिसकार परकमेइ वा ?' अस्ति सलु भदन्त । तेपा देवानामृद्धिरिति वा सुतिरिति वा यश इति वा बलमिति वा वीर्यमिति वा पुरुपकारपगरुम इति वा । इति प्रश्न भगवानुत्तर वक्ति'हंता! अत्यि' हन्त ! अस्ति, 'ते ण मते ! देया परलोगस्स आराहगा?' ते खल भदन्त ! देवा परलोकस्याऽऽराधका मवन्ति किम् । • णो इणद्वे समझे' नाऽयमथे समर्थ ॥ सू० ९॥ स्थिति कितने काल की बतलाई गई है ।, (गोयमा ! वाग्मवाससहम्साइ ठिई पण्णता) गौतम । उन जीवों की वहा स्थिति बारह हजार वर्ष की बतलाई गई है। (अत्थि ण भते! तेसिं देवाणं इड्ढीइ वा जुईद वा जसेइ वा लेड वा वीरिएइ वा पुरिसकारपरकमेइ वा ) हे भदन । वहा उन देवों में ऋद्धि, द्युति, कीर्ति, बल, बीय एव पुरुषकारपराक्रम हे या नहा । (हता अत्यि)हा है। (ते ण भते देवा ! परलोगस्स आराहगा) हे भक्त ! वे देव परलोक के आराधक होते हे क्या । (णो दणढे सम8) हे गौतम । वे आराधक नहीं होते हैं। भावार्थ--जो जीव ग्राम आदि मे उत्पन्न होकर पूर्वोक्तरूप से प्रदर्शित विषम ? (गोयमा वारसबाससहस्साइ ठिई पण्णत्ता) गीतम! तलवानी त्या स्थिति मार 8M२ १२सनी मतावी छ (अस्थि ण भते । तेसिं देवाण इड्ढीइ वा जुईड वा जसेइ वा चलेइ वा वीरिण्इ वा पुरिसक्कार-परक्कमेइ वा) हे मत! त्या તે દેમ ઋદ્ધિ, ઘુતિ, કીતિ, બલ, વીર્ય, તેમજ પુરુષકાર–પરાક્રમ છે કે नति ? (हता अत्थि) & छ (ते ण भते । देवा परलोगरस आराहगा) महत या पाना मारा: य छे शु १ (जो इण समटूठे) गीतम! આરાધક નથી લેતા ભાષા–જે જીવ ગામ આદિમાં ઉત્પન્ન થઈને પૂર્વોક્ત રૂપે બતાવેલી Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AuA पीयूषषिणो-टोका स १० प्रकृतिभद्रकादीनामुपातयिपये गौतमान ५२१ मूलम्-से जे इमे गामागर जाव संनिवेसेसु मणुया भवति, तंजहा- पगइभदगा पगइउवसंता पगइ-पतणु-कोह-माण टीका-~~से जे इमे' इत्यादि । 'से जे इमे' अथ य इमे वक्ष्यमाणा 'गामागर जाव सनिवेसेमु मणुया भवंति' प्रामाफर यार-निवेशेषु मनुजा भवन्ति-प्रामे आकरे नगरे निगमे यारत् सन्निवेशे मनुष्या भवन्ति, तान् वर्णयति-'त जहा' तथा 'पगढमदगा' प्रकृतिमद्रका -प्रया स्वभावेन भद्रका परोपकारपरायणा , 'पगडउनसता' प्रकृत्युपशान्ता मोधोदयाऽमावादुपशान्तिमुपगता, 'पगइ-पतणु-कोह-माण-माया लोहा' प्रकृति-प्रतनु-क्रोध-मान-माया लोभासयपि कपायोदये प्रकृया प्रतनुक्रोपाठिभावा , 'मिउ-महव-सपण्णा' मृदु-मार्दव-सम्पना-मृदु यन्मार्दव तत् सम्पन्ना आमा , अयस्थिति को अकामनिर्जरा के बल से भोगते हैं वे जीव मरकर व्यन्तर पर्याय से उत्पन्न होते हैं । वहा पर उनकी स्थिति १२ हजार वर्ष की होती है, पति ऋद्धि त्पादि समस्त देवीचित गुणों से ये मपन्न रहते है। वे परलोक के आराधक नहीं होते है ।। सू ९॥ _ 'से जे इमे गामागर जाव' इत्यादि। (से जे इमे) जो जीव (गामागर जाव संनिवेसेसु) पूर्वोक्त प्राम, आकर से लेकर सनिवेश आदि स्थानों में (मणुया भवति) मनुष्य होते है और उनमें जो (पगइमदगा पगइउपसंता पगड-पतणु-कोह-माण-माया-लोहा) प्रकृति से भद्रक होते हैं, क्रोधादिक कपायों के उदय के अभाव से जिनक परिणाम शातियुक्त बने रहते है, स्वभाव से ही जिनकी क्रोध, मान, माया एच लोभ ये चार कपायें पतली रहा करती है, વિષમ સ્થિતિને અકામનિર્જરાના બલથી ભેગવે છે તે જીવ મરી જઈને વ્યતર–પર્યાયથી ઉત્પન્ન થાય છે ત્યાં તેમની સ્થિતિ ૧૨ બાર હજાર વર્ષની હોય છે તૃતિ, ઋદ્ધિ આદિ સમસ્ત દેવેચિત ગુણેથી તેઓ સંપન્ન રહે છે તેઓ પરલેકના આરાધક હેતા નથી (સ ૯) "से जे इमे गामागर जाव" त्यात (से जे इमे)२७ (गामागर-जाव-सनिवेसेस) पूर्व उस शाम, माथी सन सन्निवेश माहि स्थानमा (मणुया भवति) मनुष्य याय छ भने सभा २ (पगइमहगा पगइउवसता पगइ-पतणु-कोह-माण-माया-लोहा) પ્રકૃતિથી ભદ્રક હોય છે, ક્રોધ આદિક કષાયોના ઉદયના અભાવથી જેના ફલરૂપે શાતિયુત રહ્યા કરે છે, સ્વભાવથી જ જેના ફોધ, માન, માયા Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - ५१२ औपपातिक माया-लोहा मिउ-मदव-संपण्णां अल्लीणा विणीया अम्मापिउ-सुस्सूसगा अम्मापिईणं अणडकमणिजवयणा अप्पिच्छा अप्पारंभा अप्पपरिग्गहा अप्पेणं आरंभेणं अप्पेणं समारंभण थमहकारजयशीला इत्यर्थ , 'अल्लीणा' आलीना गुरुमानिय वर्तनगोला , विणीया' विनीता विनयवन्त , 'अम्मा-पिउ-मुम्मूसगा' अवा-पितृ-शुश्रूपका =मातापित्री सेवका , 'अम्मापिर्दण अणदकमणिज्जायणा' अम्बापितोरनतिक्रमणीयवचना =मातापित्रीनीतिवचनपरायणा , 'अप्पिच्छा' अपेच्छा =अन्पामिलापरन्त , 'अप्पारंभा' अन्पारम्भा • अप = स्वप , आरम्भ =पृथिव्यायुपमर्दनरूपो येपा नेऽपारम्भा, 'अप्पपरिग्गहा' अन्य पारग्रहा -अन्प परिमहो=धनधान्यादिरूपो येपा ते तथा, एतदेव वाक्यान्तरेणाऽऽह-'अप्पेण आरभेण अप्पेण समारंभेग अपनारम्भेग अल्पेन समारम्भेग-दहाऽरम्भ प्रागिनामुपघात , (मिउ-मद्दव-सपण्णा) मृदुमार्दव से जिनकी आत्मा अत्यत वासित होती है, अहकार का सर्वथा जिनमें अभाव रहा करता है, (अल्लीणा) गुरु की आज्ञानुसार जो अपना प्रकृति को सुचारु बनाये रहा करते है, (विणीया) जो प्रकृति से ही अत्यत विनात होते है, (अम्मा-पिउ-सुस्म्सगा) मातापिता के जो सेवा करते हैं, (अम्मा-पिईण अगइक्मणिजवयणा) मातापिता के वचनों के अनुसार जो चलते है, (अप्पिच्छा) जिनकी इच्छाएँ-आवश्यकताएँ बहुत थोडी होती है, (अप्पारंभा) आरभ जिनका अल्प होता है, (अप्पपरिग्गहा) धनधान्यादिरूप परिग्रह जिनका अल्प होता है, (अप्पेण आरभेण अप्पेण समारभेण अप्पेण आरंभसमारंभेण वित्ति कप्पेमाणा) एव जो अल्प आरभ से, अल्प समारम्भ से और अन्य आरम-समारभ से आजीविका चलाया करत तभी ale से यार उपाय नम २।। ४२ छ (मिउ-मद्दव-सपण्णा) भृक्षમાર્દવથી જેમને આત્મા અત્યત વાસિત (બકુલ) હોય છે, અહકારને मनामा सपथममाप २॥ ४२ छ (अल्लीणा) गुरुनी माश!-मनुसार २ चातानी प्रकृतिन सुहर मनाच्या ४२ छ, (विणीया) २ अतिथी । सत्यत विनीत खाय छ, (अम्मा-पिउ-सुस्सूसगा) भाता-पितानी २ सेवा ४२ छ, (अम्मापिईण अणइक्कमणिजवयणा) भातापिताना वयना मनुसार २ याब छ (ते), (अप्पिच्छा) नी छाम-माश्यातायाम या डाय छ. (अप्पारभा) मारना म५ हाय छ, (अप्पेण आरभेण अपेण समार भण अप्पेण आरभसमारभेण वित्ति कप्पेमाणा) तम २ ८५ मार लयी, Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषयषिणी-टीका स १० प्रकृतिभद्रकादीनामुपपातषिषय गौतमप्रश्न ५२३ अपेणं आरंभसमारंभेणं वित्तिं कप्पेमाणा वहई वासाडं आउय पालेति, पालित्ता कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु वाणमंतरेसु, तंचेव सव्वं, णवरं ठिई चउद्दसवाससहस्साई ॥ सू० १० ॥ समारम्भस्तु तेपा परितापकरणम् ' अप्पेण आरंभसमारभेण' अन्पेन आरम्भसमारम्भेणआरम्भव समारम्भश्चेति-आरम्भसमारम्भ तेन, अन्पेनारम्भेण अन्पेन समारम्भेण चेत्यर्य, "वित्तिं कप्पेमाणा' वृत्ति कल्पयन्त =जीविका कुर्वाणा , 'वहइ वासाई आउय पालेति' वहनि वर्षाणि आयूपि जीनितानि पालयन्ति, 'पालित्ता' पालयित्वा, 'कालमासे काल किचा' फाल्मासे काल कृवा 'अण्णयरेम वाणमतरेसु' अन्यतरेपु व्यन्तरेषु, अतोऽग्रे 'त चेव सव्वं' तदेव-पूर्ववदेव सर्व वर्णन ज्ञेयम् । 'णवर' नवरं विशेषस्तु-'ठिई चउदस-वास-सहस्साई' स्थितिश्चतुर्दशवर्षसहस्राणि-चतुर्दशपर्पसहस्राणि यावत् स्थिति प्रजमा ॥ सू० १०॥ है, ऐसे जीव (वहइ वासाइ आउय पालेंति) बहुत वर्षांतक जीवित रहा करते है, (पालित्ता कालमासे काल फिच्चा अण्णयरेसु वाणमतरेस देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवति) पश्चात् काल अवसर काल करके किसी एक व्यन्तरों के देवलोक में देवतारूप से उत्पन्न होते हैं। (त चेव सव्व) यहा पूर्ववर्णित प्रकार के अनुसार __ स्थिति आदि सब कुछ समझ लेना चाहिये। (चर) विशेषता सिर्फ इतनी ही है कि वहा पर उनकी स्थिति १२ हजार वर्ष की प्रतिपादित की गई है, और यहा पर उनकी (ठिई चउद्दसवाससहस्साइ)१४ हजार वर्ष की स्थिति जाननी चाहिये ॥ सू० १०॥ અપ સમાર ભથી અને અલ્પ આર ભ–સમાર ભથી પિતાની આજીવિકા ચલાવ્યા २ छे सवा ६०१ (बहह वासाइ आउय पालेंति) ध। वरसे। सुधी पता २।। ४२ छ (पालित्ता कालमासे काल फिच्चा अण्णयरेसु वाणमतरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भपति) ५७ ४८ सपसरे स ४शने 5 मेड व्यतराना ४मा ता३पे उत्पन्न थाय छे (तं चेव सव्व) मडी અગાઉ વર્ણન કરેલા પ્રકાર અનુસાર સ્થિતિ આદિ બધુ સમજી લેવું ये (णपर) विशेषता मात्र सेटली छे , त्या तभनी स्थिति १२ मार १२ १२सनी प्रतिपाहित ४रेसी , सने मही तमनी (चउद्दस-याससहस्माई) १४ यो २ १२सनी स्थिति सभामा नये, (सू० १०) Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकमरे माया-लोहा मिउ-महव-संपण्णा अल्टीणा विणीया अम्मापिउ-सुस्सूसगा अम्मापिईणं अणइकमाणिजवयणा अप्पिच्छा अप्पारंभा अप्पपरिग्गहा अप्पेणं आरंभेणं अप्पेणं समारंभेणं यमहकारजयशीला इत्यर्थ , 'अल्लीणा' आलीना -गुरुमाग्रिन्य वर्तनशाला , 'विणीया' विनीता =विनयवन्त , 'अम्मा-पिउ-मुरमूसगा' अन्ना-पिन-शुश्रूपका मातापित्रो सेपका , 'अम्मापिईण अणदकमणिनवयणा' अभ्यापितोरनतिक्रमणीयवचना मातापित्रोनांतिवचनपरायणा , 'अप्पिच्छा' अन्पैच्छा अन्पामिलापपन्त , 'अप्पारमा' अन्पारम्भा - अन्य =स्वाप , आरम्भ =पृथिव्याधुपमर्दनरूपो येपा तेऽपारम्भा, 'अप्पपरिग्गहा' अन्प पारग्रहा -अल्प परिग्रहो-धनधान्यादिरूपो येपा ते तथा, एतदच वाक्यान्तरेणाऽऽह-'अप्पेण आरभेण अप्पेण समारंभेग' अपनारम्भेग अन्पेन समारम्भेग-इहाऽरम्भ प्रागिनामुपघात , (मिउ-मद्दव-सपण्णा) मृदुमार्दव से जिनकी आत्मा अत्यत वासित होती है, अहकार का मर्वथा जिनमे अभाव रहा करता है, (अल्लीणा) गर की आज्ञानुसार जो अपनी प्रकृति को सुचारु बनाये रहा करते है, (विणीया) जो प्रकृति से ही अयत विनीत होते है, (अम्मा-पिउ-सुस्सुसगा) मातापिता के जो सेवा करते हैं, (अम्मा-पिईण अगइकमणिजत्रयणा) मातापिता के वचनों के अनुसार जो चलते है, (अप्पिच्छा) जिनकी इच्छाएँ-आवश्यकताएँ बहुत थोडी होती है, (अप्पारंभा) आरभ जिनका अल्प होता है, (अप्पपरिग्गहा) धनधान्यादिरूप परिग्रह जिनका अल्प होता है, (अप्पेण आरभेण अप्पेण समारभेण अप्पेण आरंभसमारंभेण वित्तिं कप्पेमाणा) एव जो अल्प आरभ से, अल्प ममारम्भ से और अल्प आरम-समारभ मे आजीविका चलाया करते तमा म ये प्यार पायो नम२४२ छ (मिउ-मद्दव-सपण्णा) ह. માર્દવથી જેમને આત્મા અત્યત વાસિત (પ્રફુલ) હેાય છે, અહકારને भनामा सवथा समाव २॥ ४२ छ (अल्लीणा) गुरुनी माज्ञा-मनुसार २ पोतानी प्रवृतिने सुर मनाया ४२ छ, (विणीया) २ प्रकृतिथी । सत्यत विनीत डाय छ, (अम्मा-पिउ-सुस्सूसगा) माता-पिताना.२ सेवा ४२ छ, (अम्मापिईण अणइक्कमणिज्जवयणा) भपिताना या मनुमा २ यास ), (अप्पिच्छा) न छामे-मावश्यता। मr 2ी डाय छ, (अप्पारभा) मारम ना भ६५ डाय छ, (अपेण आरभेग अप्पेण समार भेण अप्पेण आरभसमारभेण वित्तिं कप्पेमाणा) मा २ ५ मार मथी, Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषषिणी-टीका र ११ अन्त पुरिकादीनामुपपातयिपये गौतमप्रश्न ५५५ पियरक्खियाओ भायरक्खियाओ पडरक्खियाओ कुलघररविस्वयाओ ससुरकुलरक्खियाओ परुढ-णह-केस-कक्खरोमाओ ववगय-धूव-पुप्फ-गंध-मल्ला-लंकाराओ अण्हाणग-सेय-जल्ल-मल्लभ्रातृरक्षिता , 'पडरवियाओ' पतिरक्षिता , 'कुन पररश्वियाओं' कुलगृहरपिता -कुलगृहे-पितृगृह रक्षिता -पितृवयोद्भवै पालिता इत्यर्थ , 'समुरकुलरक्खियाओ' श्वशुरकुलरक्षिता , 'परूह-णह-केस-कामरोमाओं' प्ररूढ--नस-केग-कक्षरोमाण -प्ररूढानिमजातानि नखकेगकक्षरोमाणि यासा तास्तथा, 'परगय-व-पुप्फ-गर-मल्ला-लकाराओ' व्यपगत-धूप--पुष्प-गन्ध – मायाs -- लबाग -व्यपगता =यक्ता धूपपुष्पगन्धमान्यानामलबाग याभिस्तास्तथा, 'अण्हाणग-सेय-जल्ल-मल्ल-पर-परितावियाओ' अस्नानकहुई अपने शील की रक्षा करती रहती हैं, (भायरक्खियाओ) कितनीक अपने भाइयों से सुरक्षित रहा करती है, (पडरक्खियाओ) कितनीक अपने २ पतिद्वारा सुरक्षित रहा करती हैं, (कुलपररक्खियाओ) कितनीक कुलगृह में पिता के वजों द्वारा पाली-पोपी जाकर सुरक्षित रहा करती हैं, (समुर-कुल-रक्खियाओ) कितनीक ससुरपक्ष के लोगों द्वारा सुरक्षित की जाती है, (परूढ–णह-केस-करखरोमाओ) कितनीक ऐसी होती हैं कि जिनके का, कासरा के बाल एव नस बढे रहा करते हे, (ववगय धृव-पुष्फ-गर-मल्लालकाराओ) कितनीक एमी होती हैं जो धूप-खूगतार तैल आदि के लेने से तथा पुप्पो एव सुगधित पुष्पों की मालारूप अलकारों से सटा परित्यक्त रहा करती हैं, (अण्हाणगमेय-जल-मल्ल-पक-परितावियाओ) कितनीक ऐसी होती हैं जो स्नान नहीं करने से els पिताची सुरक्षित २ता पाताना सन २क्षा ४२ती डाय छ, (भायरक्सियाओ) पाताना सामाथी सुरक्षित २६॥ ४२ छ, (पइरक्सियाओ) 32ी पातपाताना पति र सुरक्षित रह्या ४२ छे, (कुलघररक्सियाओ) उसी सभा पिताना शसे वार पासन-पोषण सई सुरक्षित २॥ ४३ छ, (मसुरकुलरस्सियाओ) टसी सास पक्षना all द्वारा सुरक्षित ४२॥य छ, (परूढ-णह-केस-करसरोमाओ) 32मी की डाय छ हेरेना नम, श, तभर ४॥री (HI)नाण, qधत ता य छ, (वनगय-व-पुष्प-ध-मल्ला-लकाराओ) 32जी मेवी साय छ २५५સુગ ધિત તેલ આદિના લેપથી તથા પુષ્પ તેમજ સુગધિત પુષ્પોની માલારૂપ माथी सहा परित्यात २॥ ४२ छ, (अण्हाणग-सेय-जल्ल-मल्ल-पक Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओपणातकत्र - - मूलम्से जाओ इमाओ गामागर जाव संनिवेसेसु इत्थियाओ भवंति, तं जहा-अंतो अंतेउरियाओ गयपइयाओ मयपडयाओ वालविहवाओ छड्डियल्लियाओ माइरक्खियाओ टीका-'से जाओ इमाओ' इत्यादि । 'से जाओ इमाओं' अथ या इमाईश्य 'गामागर जाव सनिवेसेमु इत्यियाओ भवति' प्रामाऽऽकर यावत् मनिवेशेषु स्त्रियो भवन्ति, 'त जहा तद्यथा-'अतो अतेरियाओं' अन्तरन्त पुरिका अन्त पुरान्तर्वतिन्य, 'गयपइयाओ' गतपतिका ता =कापि प्रोपिता पतयो यासा तास्तथा, 'मयपइयाओ' मृतपतिका -मृता पतयो यासा तास्तथा, विधवा इत्यर्थ , 'वालविहवाओ' बालविधवा - वालाश्वाम् विधवा -आल्ये वैधन्य गता , 'छडियल्लियाओ छदिता =पयादिमि परित्यक्ता । 'मादरक्खियाओ' मातरक्षिता = अपररक्षकाभावाजनन्या रक्षिता , मातृकृतरक्षया शीलरक्षणकारिका इत्यर्थ , एवमग्रेऽपि बोध्यम् , 'पियरक्खियाओ पितरक्षिता , 'भायरक्खियाओ' 'से जाओ इमामो' इत्यादि। (से जाओ इमाओ) जो ये जीव (पामागर जाव सनिवेसेसु) ग्राम आकर आदि से लेकर सनिवेशतक के स्थानों में स्त्रीपर्याय से उत्पन्न होते है, जैसे कि उनमे कितनीक स्त्रिया तो (अतो अंतेउरियाओ) राजा के अत पुर की रानिया होती हैं, कितनीक (गयपइयाओ) प्रोपितभर्तका होती है, जिनके पति प्रवासी अर्थात् परदेश गये हों उनको प्रोषितभर्तका कहते है, कितनीक (मयपइयाओ) विधवा होती हैं, (बालविहवाओ) बालविधवा होती है, (छद्रियलियाओ) कितनीक पतिद्वारा परित्यक्त होती है, कितनीक (माइरखियाओ) मातृरक्षिता होती है, (पियरक्खियाओ) कितनीक पिता से सुरक्षित होती 'से जाओ इमाओ' या (से जाओ इमाओ)२ मा १ (गामागर जाव सनिवेसेसु) म આકર આદિથી લઈને સ નિવેશ સુધીના સ્થાનમાં સ્ત્રીપર્યાયથી ઉત્પન્ન थाय छ, भतेसामा Beeी सीमा तो (अतो अतेउरियाओ) शन। मत पुरनी सामान्य छ, रमी (गयपइयाओ) प्राषितमत। डाय छ, (જેના પતિ પ્રવાસી અર્થાત્ પરદેશ ગયા હોય તેમને પ્રેષિતભર્તૃકા કહે छ)ी (मयपइयाओ) विधा हाय छ, ही (बालविहवाओ) मास-विधवा डाय छ, (छडिल्लियाओ) 2ी पतिवारा परित्या डाय छ. Bela (भाइरक्सियाओ) भातृरक्षिता डाय , (पियरक्खियाओ) ८ Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ पोयपधषिणी-टीका स ११ अन्त पुरिकादीनामुपपातयिपये गौतमप्रश्न ५२७ रंभेणं अप्पेणं आरंभसमारंभेणं वित्तिं कप्पेमाणीओ अकामवंभचेवासेणं तामेव पइसेजं णाडकमंति। ताओणं इत्थियाओ एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणीओ बहूई वासाई, सेसं तं चेव, जाव चउट्टि वाससहस्साडं ठिई पण्णत्ता ॥सू० ११ ॥ समारम्भेग अन्पेन आरम्भममारम्भेग, वित्ति कापेमाणीओ' वृत्ति कन्पयत्य --वृत्ति जीविका कुर्नागा ,अामब्रह्मचर्यवासेन-अामाना=निर्जराधनपेक्षाणा ब्रह्मचर्येवासस्तेन 'तामेव पइसेन' तामेव पतिगया-पया सह सेविता गाया-पतिशग्या 'गाइक्कमति' नातिक्रामन्ति, परपुरुषपरिहारेण सर्वथा पनिवतधर्मपालिका इत्यर्थ , 'ताओ ण इत्थियाओ एयाख्वेण विहारेण विहरमाणीनो' ता खल बिय एतद्रूपेग रिहारेण विहन्त्य , 'वहूइ वासाइ आउय पालेंति' वहनिवगि आयुष्य पाल्यन्ति, पालयिवा, शेष तदेव यावत्-अत्र यावच्छन्देनेद दृश्यम् कालमासे काल कृत्याऽन्यतमेष व्यन्तरेपु देवलोकेषु देव वेनोपपात प्राप्ता भवन्ति, तत्र-देवलोके तासा अन्य समारभ से, और अन्प आरम्भ-समारभसे अपनी आजीविका चलाती है, (अकाम-वंभचेर-बासेणं तामेव पडसेज्न णाइक्कमति) और परवशता मे ब्रह्मचर्य का पालन करती हुई अपने पति की गय्या का उल्लघन नहीं करती हे-पातिव्रत्य धर्म के पालन में निरत रहा करती हैं, इस प्रकार जो स्त्रिया अपने जीवन को व्यतीत करती है, (ताओ ण इत्थियाओ एया. स्वेण विहारेण विहरमाणीओ बहुइ वासाइ आउय पालेंति) वे स्त्रिया इस प्रकार की अपनी नैतिक प्रवृत्ति से युक्त बनी रह कर बहुत वर्षों की आयु पालती है, (सेस त चेव) एव जर उनका मरने का अवसर आ जाता है तब वे उस अवसर मे मर कर अन्यतम व्य समारभेण अप्पेण आरभसमारभेण वित्तिं कापेमाणीओ)तमा म५ मा सथी, અ૫ ચમાર ભથી અને અ૮૫ આર ભગ્નમાર ભયી પિતાની આજીવિકા ચલાવે छे (अकामबंभचेरवासेण तामेव पइसेज्ज णाइक्कमति) भने ५२५शताथी બ્રહ્મચર્યનું પાલન કરતી થકી પિતાના પતિની શય્યાનુ ઉલઘન કરતી નથીપતિવ્રત્ય ધર્મના પાળનમાં નિરત રહ્યા કરે છે આ પ્રકારે જે સ્ત્રીએ પોતાના बनने व्यतीत २ छ (ताओ ण इत्थियाओ एयारूवेण विहारेण विहरमाणीओ यहूइ वासाइ आउय पालेंति) त सीमा । प्रा२नी पोतानी नति४ प्रवृत्ति ४२ती २हीने घए। परमोनी आयु लागवे (सेस त चे) तेभर त्यारे તેમના મરવાને અવસર આવે છે ત્યારે તે અવસરમા મને બીજા વ્યતાના Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ জীবনি पंक-परितावियाओ ववगय-खीर-दहिणवणीय-सप्पि-तेल्ल. गुल-लोण-मह-मज-मस-परिचत्त-कया-हाराओ अप्पिच्छाओ अप्पारंभाओ अप्पपरिग्गहाओ अप्पेणं आरंभेणं अपेणं समास्ट-जल्ल-मल्ल-पर-परितापिता अस्नानकेन स्नानाऽभावेन हनुना स्वेदजल्लमन्लपके. -स्वेद = प्रस्वेद , जल्ल =शुष्क प्रस्वेद , मल रजोमात्र कठिनीभूतम्, प, आदीभूत रज', ते परितापिता =क्लेगिता -भृता इत्यर्थ , परगय-सीर-दहि-णरणीय-सप्पि-तेल-गुललोण-महु-मज-मस-परिचत्त-कया-हाराओ' व्यापगत-क्षीर-दधि-नानीत-सपिस्तैल-गुड-लवण-मधु-मय-मास-परित्यक्त-कृताऽऽहारा -ज्यपगतानि क्षीरदरिनवनीतसपीपि यस्मात् स व्यपगतक्षीरदधिनवनीतसपि, तैलगुडलवणमधुमयमासै परित्यक्त , तत पदद्वयस्य कर्मधारय , क्षीरादिमासपर्यन्तरहित इत्यर्थ , तादृश कृत -सेपित आहारो यामिस्तास्तथा, 'अप्पिच्छाओ' अपेच्छा , 'अप्पारभाओ' अन्पारम्भा -अन्य आरम्भ -पृथित्र्याधुपमर्दनत्र्यापारी यासा तास्तथा, 'अप्पपरिग्गहाओ' अल्पपरिग्रहा -अन्पधनधान्यमाहा, 'अप्पेण आरभेण अप्पेण समारभेण अप्पेण आरंभसमारभेण' अन्पेनाऽऽरम्भेण अन्पेन पसीना से लथपथ रहा करती है, एव पशीना के शुष्क हो जाने से उस पर बैठी हुई धूलि, काले कठिन मैल के रूप में परिणमित होकर उनके शरीर को मलिन बनाये रहती है। (ववगय-खीर-दहि-गवणीय-सप्पि-तेल-गुल-लोण-मह-मज्ज-मस-परिचत्तकया-दाराओ) कितनीक ऐसी होती हैं कि जो दूध, दही, मक्खन, सर्पि-धुत, तैल, गुड, नमक, मधु, मद्य, एव मास से वर्जित आहार किया करती हैं, (अप्पिच्छाओ) और जिनकी इच्छाएँ स्वभावत अल्प हुआ करती है, (अप्पारभाओ अप्पपरिग्गहाओ अप्पेण आरंभेणं अप्पेण समारभेग अप्पेण आरभसमारभेण वित्ति कप्पेमाणीओ) घे अल्पआरभ से, परितावियाओ) उसी की हाय छ १२ स्नान ने ४२पाथी पसीनाथी લથપથ રહ્યા કરે છે, તેમજ પગને સુકાઈ જવાથી તેના પર ઉડીને પડેલી ધૂળ કાળા અને કઠણ મેલના રૂપે પરિણામ પામીને તેમના શરીરને મલિન मनाव्या ४२ छे (वय-खीर-दहि-णवणीय-सप्पि-तेल्ल-गुल-लोण-महुमज-मस-परिचत्त-कया-हाराओ) उसी पी हाय छे २ दूध, दही, भामरा, समि-धी, तेस, माण, भी, भय, मध, तमन भासथी पनित सार व्या ४२ छ, (अप्पिच्छाओ) भने भनी छायी पलायी ner २६॥ ४२ छ (अपारभाओ अपपरिग्गहाओ अप्पेण आरभेण अप्पेण Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयपपिणी-टी। स १६ दद्वितीयादि मनुष्योपपातविषये गौतमप्रश्न ५२९ गोयमा गोव्बडया गिहिधम्मा धम्मचितगा अविरुद्ध-विरुद्ध-वुड्ढपड्यागि दक च समम भोननं येया ते दक्रमममा , 'दगएक्कारसमा' ढकादगा -ओढनादीनि दगद्रव्यागि दकन्चैकादश पूरगाय भोग्ने येपा ते टकैकादया , 'गोयमा' गौतमा - वृपम पुरस्कृय तक्रीडा दधिवा येऽन याचन्त, तेन च जीवन निवाइयन्ति त इयर्थ । 'गोव्वडया' गोत्रनिका गोबतमस्ति येपा ते गोत्रनिका . ते हि गोषु प्रामानिर्गच्छन्तीपु निर्गच्छन्ति, चरन्तीषु चन्ति, पिपन्तीपु पिरन्ति, आयान्तीपु आयान्ति, गयानामु च शेग्ते, उक्तञ्च “गावीहिं सम निग्गमपवेससयणासणाड पफरेंति । भुजति जहा गावी तिरिक्खवास विहाविता ॥१॥" तथा सातवा पानी हो, (दगएकान्समा) दस द्रव्य दाल भात आदि अन्य हो, एव ११ वा पानी हो, (गोयमा) तथा जो बैल को आगे कर के जनता को उमकी क्रीडा दिम्बाकर उससे अन्न की याचना कर अपना जीवन निर्वाह करने वाले हो, (गोत्रतिका) 'प्रोत्रती हों, (गिहि (१) गोवती पुस्प, जब गानें गान से बाहर निकलती है तब अपने घर से बाहर निकलते है, जर वे चरती है तब वे भोजन करते हैं, जब वे पानी पीती हैं तन ही ये पानी पीते है । जब ये घर आती है तन येभी अपने घर आते है । और जब ये सोती हैं तब ये मी सो जाते हैं। "गावीहिं सम निग्गमपवेससयणासणाइ पकरेंति । भुजति जहा गावी तिरिक्सवाम विहाविता ॥१॥ (दगमत्तमा) छ द्रव्य (मन)-यामाहाण साहित्य तथा सातमु पारी य, (दगएकारसमा) ६श द्रव्य-हण लात माहिसन्न डाय तेभर ११ भु पाए। डाय, (गोयमा) तथा रे होने माग सापीन बोडीने तनी ४ीस દેખાડીને તેમની પાસેથી અન માગી પિતાનું જીવન નિર્વાહ કરવાવાળા हाय, (गोत्रतिका) गिनती हाय, (गिहिधम्मा) गृहस्थ धभने ४च्या २४ (૧) ગોત્રી પુરુષ, જ્યારે ગા ગામથી બહાર નીકળે છે ત્યારે પિતાના ઘેરથી બહાર નીકળે છે ત્યારે તેઓ ચરે છે ત્યારે તે ભજન કરે છે, ત્યારે તેઓ પાણી પીએ છે ત્યારે જ તે પાણી પીએ છે જ્યારે તેઓ ઘેર આવે છે ત્યારે તે પણ ઘેર આવે છે, અને જ્યારે તેઓ સુવે છે ત્યારે તે પણ સુઈ જાય છે " गावीहिं सम निमापवेमसयणासणाइ पकरेंति । भुजति जहा गावी तिरिक्सवास विहाविता" ॥१॥ Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - भोपपातिकको __ मूलम् से जे इमे गामागर जाव सन्निवेसेसु मणुया भवंति, तं जहा-दगविइया दगतडया दगसत्तमा दगएक्कारसमा गतिस्तासा स्थितिस्तासामुपपात प्रनम , तासा सलु हे भदन्त । देवच प्रामाना कियन्त काल स्थिति प्रजाप्ता । इति प्रश्न भगवानार-गायमा!' ह गौतम ! इति । 'चउसहि वाससहस्साइ ठिई पण्णता' चतु पष्टिं वर्षसहस्राणि स्थिति प्रजता ॥ सू० ११ ॥ टीका-'से जे इमे' इत्यादि । 'से जे इमे' अथ य इमे ईदृशा , 'गामागरजाव सन्निवेसेस मणुया भवति' प्रामाऽऽकर यावत् सन्निवेशेषु-प्रामाऽऽकर-नगर-निगमराजधानी-खेट-कर्वट-पट्टन-मडम्ब-द्रोणमुखा-ऽऽश्रम-मनाध-सनिवेशेषु प्राग्यारयात स्वरूपेषु मनुजा भवन्ति, 'त जहा' तद्यथा-'दगडिया' दकद्वितीया--ओदनापेक्षया दकम्उदक द्वितीय भोजने येषा ते दद्वितीया , 'दगतइया' दकतृतीया-ओदनमूपरूपद्रव्यद्वयाऽपेक्षया दकम्-उदक तृतीय येषा ते दफतृतीया, 'दगसत्तमा दकसप्तमा -ओदनादीन न्तरों के देवलोक मे देवता की पर्याय से उत्पन्न होती है। यहीं पर उनकी गति, वहीं पर उनकी स्थिति एव वहीं पर उनका उपपान होता है। हे भदन्त ! वहाँ पर उनकी स्थिति कितनी है ? हे गौतम । (चउसद्धि वाससहस्साई ठिई पण्णता) वहा उनकी स्थिति ६४ हजार वर्ष की है ॥ सू० ११॥ 'से जे इमे गामागर जाव' इत्यादि। (से जे इमे गामागर जाव सन्निवेमेसु मणुया भवति) ये जो इन ग्राम आकर आदि पूर्वोक्त स्थानों में इस प्रकार के मनुष्य होते है, (त जहा) जैसे कि (दगविइया) जिनके आहार में अन्न एव द्वितीय पानी ये दो ही द्रव्य हो, (दगतइया) अन्न-चावल, दाल एव तृतीय पानी ये तीन द्रव्य हों, (दगसत्तमा) छह द्रव्य अन्न-चावल-दाल आदि हाँ દેવલોકમાં દેવતાની પર્યાયથી ઉત્પન્ન થાય છે અહી જ તેમની ગતિ, અહી જ તેમની સ્થિતિ તેમજ અહી જ તેમનો ઉપપાત થાય છે હે ભદન્ત ત્યા तमनी स्थिति सी होय छ १७ गौतम! (चउसदि वाससहस्साइ ठिई पण्णता) त्या तभनी स्थिति ६४ व्यास १२ १२सनी छ (सू० ११) से जे इमे गामगर जाव' त्या (से जे इमे गामगर जाय सन्निवेसेसुमणुया भवंति) २-या या गाभ, मा४२ माह 6५२ ४९मा २थानामा 40 मरे भनुष्य थाय छ, (त जहा) : (विइया) रेना मारमा सन्न तेमाल भी पाए यमे द्रव्य--पहाथ डाय, (दगतइया) सन्न-यामा , तेमन श्रीतु पानी र द्रव्य खोय, Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूपयपिणी टीका सू १२ एकद्वितीयादिमनुष्योपपातविषये गौतमप्रश्न ५३१ फाणियं महं मज्ज मंसं. णो अण्णत्व एक्काए सरिसवविगईए, तेणं मणुया अप्पिच्छा, त चेव सव्वं, णवरं चउरासीई वाससहस्साई ठिई पण्णत्ता ॥ सू० १२ ॥ ता इमा नाग्मविनय प्रय॑न्त-'त जहा' तयथा-'वीर दहि णवणीय सप्पि तेल्ल फाणिय मह मज्ज मास' और दपि नवनीत मपि तेल फागिन मा मध मामम-तत्रनवनीत= मक्वन' इति प्रमिद्ध, फाणित-गुड , अन्यानि प्रमिदानि, आहेतुं न कपन्ते दृत्य वय । 'यो अण्णत्य एकाए सरिसरविगए' नो अन्यौकन्या मार्षपविकृते - मार्पपतैलरूपामेका विकृति वर्जयिका अन्या उक्ता विकृनयो न क पन्तेऽभ्यनहर्तुमिति शेप । 'ते ण मणुया अप्पिन्छा ते पल मनुजा अपेच्छा , 'सेम त चेव' शेष तदेव अवशिष्ट मा पूर्वपदेव बोध्यम । 'णवर' नपर=विशेषस्तु-'चउरासीड वासमहम्सार ठिई पण्णत्ता' चतुग्गीति वर्पमहस्राणि स्थिति प्रजाता-यन्तरेषु देववेनोपनाना तेपा तनावस्थान चतुग्गीतिपर्पसहस्राणि यावन ।। मृ० १२ ॥ गय) माने योग्य नहीं हैं। वे विकृतिया ये है-(वीर दहि णवणीय सपि तेल फाणिय म९ मन मास) सीर, दधि, नवनीत, सर्पि, तल, फाणित, मधु, मद्य, एव माम । गुट का नाम फाणित है । नवनीत नाम मक्यन का है । (णो अण्णत्य एकाग सरिसबविगर्दए) एक मम्मों के तैलम्प विकृति का परिहार नहा बतलाया गया है । नपरमम्प विकृति का परिहार फग्न वाले व्यक्ति मासा का तैल ग्या सकते है । (ते ण मणुया अप्पिन्छा, त चेव मन्च, णवर चउरामीह वाससहस्माइ ठिई पण्णत्ता) ये मनुष्य अपइच्छापराठे होते है। अपशिष्ट ममस्त पूर्व की तरह यहा जान लना चाहिये । विशेषता नयी ते वितियो । छ-(खीर दहिं णरणीय सपि तेल्ल फाणिय महु मन माम) क्षीर (64), डी, नवनीत, मपि-(धत), तेस, पित, મધ, મધ, તેમજ માય નામ કાણિત છે નવનીત એટલે भामधु (णो अण्णत्य एकाए मग्मिानिगईए) ४ सपना तेस३५ वि. તિના પરિહાર નથી બતાવ્યો નવસરૂપ વિકૃતિને પરિહાર કરવાવાળા માણસ भरमपनु त मा छे (ते ण मणुया अग्पिच्छा, त चेत्र मञ्च, परचउगमीड पाममहम्माइ ठिई पण्णत्ता) मा मनुष्य। भEY-Seatml य છે બાકીનું બધુ પૂર્વ તથા પ્રમાણે લેવું જોઈએ વિશેષમાં વિશેષતા Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पपातिक सावग-प्पभितयो, तेसिंण मणुयाणं णो कप्पंति इमाओ नव रसविगईओ आहारेतए, तं जहा - खीरं दहिं णवणीयं सप्पि तेलं छाया - गोभि सम निर्गमयनाशनादि प्रकुर्वन्ति । ५३० भुत यथा गावस्तिर्यग्वाम विभावयन्त ॥ १ ॥ इति । 'गिरिधम्मा' गृहिधर्मा - 'गृहस्थधर्म एव श्रेयस्कर - इति मया दानान्धर्माराधका 'धम्मचितमा' धर्मचिन्तका = धर्मशाखपाठका, 'अनिरुद्ध - विरुद्ध गुड्ढसावगतो' अनिरुद्र-निरुद्ध वृद्धश्रावक - प्रभृतय, अनिरुद्धा वैनयिका, उक्त---- "अविरुद्ध area, वाईण पराए भत्तीए । - प्पभि " जह वेसियायणसुओ, एव अन्ने वि नायव्वा ॥ १ ॥ विनयकरो, देवादाना परया भक्त्या । छाया अनि यथा वैश्यायनसुत, एवमन्येऽपि ज्ञातव्या ॥ १ ॥ इति । विरुद्धा = अभियानादिन, आत्माद्यनभ्युपगमेन बाह्याभ्यन्तरविरुद्धत्वात् वृद्धश्राबका =नाह्मगा, एते प्रभृतिरानिर्येषा ते तथा । 'तेसिं ण मणुयाग णो पति माओ नत्र रसईओ आहारेसए' तेथा सल मनुजाना नो कम्पन्ते इमानन रसविकृतीराहर्तुम्, धम्मा) गृहस्थ धर्म को श्रेयस्कर मानकर दानादिक धर्म के आराधक हो, (धम्मचिंतगा) धर्मशास्त्र के पाठक हॉ, (अनिरुद्ध-विरुद्ध बुड्ढसावग-पभितयो ) 'अविरुद्ध-चैनयिक हो, विरुद्ध - अक्रियावादी हो- आमादिक पदार्था के नहीं मानने से बाह्य एवं आभ्यन्तर क्रियाओं के निरोधा हो वृद्रश्रावक हा नाह्मण हो - इत्यादि। (तेसिंण मणुयाग नोकपति इमाओ नव रसविगईओ आहारेत्तए) इन समस्त जनों को ये नवरस विकृतिया ( नौ वि (१) अनिरुद्ध नियकरो देवाईण पराए भत्ताए । जह वेसियायणसुओ एवं अन्ने विनायव्वा ॥ १ ॥ सानीने हान सहिद धर्मना आराध होय, (धम्मचिंतगा ) धर्मशाखना चाह કરનારા होय, ( अविरुद्व - विरुद्ध - वुड्ढसावग - प्पभितयो ) अविरुद्ध-वैनયિક હાય વિરુદ્ધ-અક્રિયાવાદી હોય-આત્મા-આર્દિક પદાર્થોને ન માનવાથી ખાદ્ય તેમજ અભ્યન્તર ક્રિયાઓના વિરોધી હોય, વૃદ્ઘશ્રાવક હાય-બ્રાહ્મણ हाय-हत्याहि ( तेसिं णं मणुयाण णो कप्पति इमाओ नव रसविगईओ आहारेतए) या समस्त सोडीने से नवरसविभूतियों (नौ विगयो) जावा योग्य (१) अविरुद्धो विजयकरो देवाईण पराए भत्तीए । जह वेसियायणमुओ एवं अन्ने वि नायव्वा ॥ १ ॥ Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ___ पोषधषिणो टोका स १३ घानप्रस्थादीनामुपपातविषये गौतमप्रश्न ५३३ दक्षिणकूलगा उत्तरकूलगा संखधमगा कूलधमगा मिगलुद्धगा हत्थितावसा उद्दडगा दिसापोक्खिणो वक्तवासिणो विलवासियो एव ये क्षण तिष्ठन्ति ते, 'सपक्वालगा' प्रक्षालका -ये मृत्तिकादिधर्षणपूर्वकमङ्गानि प्रक्षालयन्ति ते सप्रक्षालका , 'दक्षिणकूलगा' रक्षिणमूलका -ये गङ्गाया पूर्वाभिमुग्रगमनशीलाया दक्षिणतट ण्व वसन्ति ते, 'उत्तरकलगा' उत्तरकृलका -उत्तरतट एव ये वसन्ति ते, 'सग्वधमगा' शवमायका याववादका -गह्व वादयित्वा ये भुजते ते इत्यर्थ , 'कलधमगा' कुलमायका -ये कृले स्थित्वा शन्द कृवा भुञ्जते ते, मियलुद्धगा' मृगलुन्धका -व्याधनन्मृगमामजीविन , ' हत्थितावसा' हस्तितापसा -ये हस्तिन मारयिता तेनैव बहुकाल भोजनतो यापयन्ति ते, 'उद्दडगा' उद्दण्डका -उत्-ऊर्च दण्डा येपा ते उदण्डका , दण्डमूर्च कृत्वा ये सञ्चरन्ति ते इत्यर्थ , 'दिसापोक्खिणो' दिशाप्रोक्षिण =उदकेन दिश प्रोदय ये फलपुप्पादि समुचिन्वन्ति ते, 'वकवासिणो' वल्कवासस -वल्कानि-नरवच एव वासासि येषा ते तथा, 'दिलवासिणो' निलवासिन = दुमका लगाकर स्नान करनेवाले, (निमज्नगा) पानी में कुछ देर तक डबकर स्नान करने वाले, (सपरखालगा) मिट्टी आदि से अग को घर्पण कर स्नान करने वाले, (दक्षिणकलगा) गगा के दक्षिण तट पर वसने वाले, (उत्तरकूलगा) गगा के उत्तर नट पर वसने वाले, (ससपमगा) शसों को बजाफर भोजन करने वाले, (कलधमगा) नदी के तट पर बैठ कर शन्द कर के भोजन करने वाले, (मियलुद्धगा) व्याधोकी तरह मृग के मास को साने वाले, (हत्थितावसा) हाथी को मारकर उसके मास का भोजन करने वाले, (उद्दडगा) टडे को ऊचा करके फिरने वाले, (दिसापोक्खिणो) दिशाओं को जल से सिंचन करने वाल, (वकमासिगो) वृक्षा को छाल को पहिरने वाले, (विलवासिणो) भूमिगृह मे निवास स्नान ४२१tणा, (निमज्जगा) पाशीमा थोडीवार सुधी डूमीने स्नान ४२वावाणा, (संपक्सालगा) माटी मा ५ सगने घसीने स्नान ४२वा वाणा, (दक्सिण. कलगा) गगान क्षिय तट ५२ १सवापाणा, (उत्तरकूलगा) गाना उत्तर तट पर बसवावाणा, (ससधमगा) शपडीने सन २वापा, (फूलधमगा) नाना तट 6५२ अमीन ०६ ४रता ४२ती (मासता मास) लोगन पावा, (मियलु द्वगा) शिशिनी पेठे भुगनु भास मावा, (हत्थितासा) हाथीने भागनतेना भानु भोपन २१ावा, (उद्दडगा) 3ाने आयो ४१ ५२पापा, (दिसापोक्सिणो) हिशामामा पाणी छावा वाणा, (वकनासिणो) वृक्षनी छाव पडेरवा पाणा, (लिमासिणो) भूभिडमा Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकको मूलम्---से जे इमे गंगाकूलगा वाणपत्था तावसा भवंति, तं जहा-होत्तिया पोत्तिया कोत्तिया जपणई सड्ढई थालई हुंवउद्या दंतुक्खलिया उम्मजगा संमज्जगा निमज्जगा सपक्खालगा टीका-~'से जे इमे' इत्यादि । 'से जे इमे' अब ये इमे 'गगाकूलगा' गङ्गा कूलका गङ्गातटाश्रिता 'पाणपत्या' वानप्रस्था =धानप्रस्थाश्रमवर्तिन 'तावसा भवति' तापसाभवन्ति त जहा' तद्यथा-'होत्तिया' होत्रिका =आग्निहोरिका , 'पोतिया' पोत्रिका - वस्त्रधारका , 'कोत्तिया' कौत्रिका =भूमिशायिन , 'अण्णई यज्ञकिना-यज्ञकारका , सड्ढई' श्राद्धकिन =श्राद्धकारका 'थालई' स्थालकिन =भोजनपात्रधारका ,'हुवउट्ठा' कुण्डिकाधारिणा ,'हुवउट्ठा' इति देशीय शब्द , 'दक्खिलिया' दन्तोद्धखलिका =फलभोजिन , 'उम्म जगा' उन्मजका -उन्मजनमानेण-जलोपरि तरणमारेण ये स्नान्ति ते, 'सम्मजगा' सम ज्जका उन्मजनस्यैवाइसकृत् करणेन ये स्नान्ति ते, 'निमज्जगा' निमन्जका -स्नानाथ निमग्ना सिर्फ यहा इतनी ही है कि ऐसे जीव जो व्यन्तर देवों मे उत्पन्न होते है उनकी वहा स्थिति चौरासी हजार वर्ष की बतलाई गई है ।। स १२॥ 'से जे इमे' इत्यादि (से जे इमे) जो ये (गंगाकलगा वणपत्था तावसा भवति) गगा के तट पर रहनेवाले वानप्रस्थ तापस है, जैसे (होत्तिया) आग्निहोत्रिक, (पोतिया) पोत्रिक वस्त्रधारक, (कोत्तिया) कौत्रिक-भूमिशायी भूमि पर सोने वाले, (जण्णई) यज्ञकारक (सड्ढई) श्राद्धकारक, (थालई) भोजनपानधारक, (हुवउट्ठा) मुण्डिकाधारी, (दतुक्खलिया) फलभोजी, (उम्मज्जगा) एक बार पानी में डुबकी लगाकर स्नान करने वाले, (सम्मजगा) बार बार માત્ર અહી એટલીજ છે કે જીવ જે વન્તર દેવોમાં ઉત્પન્ન થાય છે તેની ત્યા સ્થિતિ ચોર્યાસી હજાર વરસની બતાવવામાં આવી છે (સૂ ૧૨) 'से जे इमे' छत्याह (से जे इमे) २ मा (गगाकूलगा वाणपत्था तावसा भवति) गाना तट ५२ पसना। पानप्रस्थ तापस खाय छ, रेवा (होत्तिया) मानिहात्रि४, पोतिया) पत्रि-सधा२४, (कोत्तिया) ठौत्रि-भूभिशायी-भूमि ५२ सुवा पाणा, (जण्णई) य१२४, (सड्ढई) श्राद्धा२४, (थालई) मानपात्रधा२४, (हवउदा) अधिारी, (दतुस्सलिया) सला, (उम्मज्जगा) सवार पालीमा उमड़ी भारीन स्नान ४२११, (सम्मज्जगा) पारपार हुमठी मारीने Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषपिणी टीका सृ १३ वानप्रस्थादीनामुपपातविषये गौतम प्रश्न ५३५ परिसडिय - कंद-मूल-तय- पत्त - पुप्फ-फलाहारा जला- भिसेयकठिण - गायभूया आयावणाहि पंचग्गितावेहि इगालसोल्लियं कंडुसोल्लियं पिव अप्पाणं करेमाणा वहूडं वासाइं परियागं पाउणंति, पाउणित्ता कालमासे कालं किच्चा उक्कोसेण जोड़ भुञ्जते कन्दमूलपचामपि तथाविधानामेवोपयोग कुर्वते ते, ' जलाभिसेय - कठिण - गायभूया' जलाभिषेक - कठिन - गान-भूता जलाभिषेकेण कठिन यद् गात्र तत् प्राप्ता ये तथा, 'हिं' आतपनाभि - प्रग्वररनिकराऽऽसेवनाभि, ' पचग्गितावेहिं ' पञ्चाग्नितायै चतसृषु दिक्षु प्रज्वालितधतुर्भिरग्निभि उपरिभागे सूर्यकिरणपश्चमैर्ये तापास्तै, 'उगालसोल्लिय ' अङ्कारपत्यम् - प्राकृते-' पच्' धातो स्थाने 'सोल्ल' आदेगो भवति । अङ्गारैर्निर्धूम-बलदनलपिण्डैरिव पक्वम् ' कडुसोल्लिय ' कन्दुपक्वम् - कन्दु चणकादिभर्जनपान, तत्र पक्वम्, 'अप्पाण करेमाणा ' आमान शरीर कुर्वाणा, 'वहूई वासाइ परियाग पाउणति' बहनि वर्षाणि पर्याय = वानप्रस्थपर्याय पालयन्ति, पालयित्वा, गिरे हुए या किसी के द्वारा लाये गये कद, मूल, त्वक्, पत्र, पुष्प एव फलों का आहार करने वाले, (जलाभिसेय-कठिण - गाय भूया) जलाभिषेक करने से जिनका शरीर कठिन हो गया है ऐसे, (आयावणाहि पचग्गितावेहिं इगालसोल्लिय कडुसोल्लिय पित्र अप्पाण करेमाणा ) तथा आतापना - प्रखर सूर्य की किरणों के सेवन से, पचाग्नि के नाच बैठकर तापों के सहन करने से अगार मे पक्व हुए जैसे एव भाड में भृजे हुए जैसे अपने सरीर को करने वाले ये वानप्रस्थ तापस जन (बहूई बासाइ परियाग पाउणति) बहुत वर्ष पर्यन्त वानप्रस्थ तापस की पर्याय का पालन करते हुए ( कालमासे काल किच्चा) सावी आपेक्षा छ, भूल, छात्र, पत्र, पुष्य, तेभन्न जनो आहार खावाला, (जलाभिसेय - कढिण- गाय-भूया) सनो अलिषे ४२वाथी लेना शरीर उठणु थ गया होय सेवा, (आयावणाहिं पचग्गितावेहिं इगालसोल्लिय कडुसोल्लिय पिव अप्पाण करेमाणा) तथा આતાપના-પ્રખર સૂર્યના કિરણાના સેવનથી, પચા ગ્નિના વચ્ચે બેસીને તાપ સહન કરવાથી, અગારમા પકાવેલ હોય તેવા તેમજ હાડલામા ભૂજેલ જેવા પેાતાના શરીરને કરી નાખવાવાળા તે વાનप्रस्थ तापसन्न (तपभ्वी ) ( बहूइ वासाइ परियाग पाउणति) धथा परभो सुधी पानप्रन्थ तापसनी पर्यायनु चासन डरता ४२ता (कालमासे काल किच्चा) Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकमरे जलवासिणो रुक्खमूलिया अंधुभरिखणोवाउभक्खिणो सेवालभक्खिणोमूलाहारा कंदाहारा तयाहारा पत्ताहारापुप्फाहारावीयाहारा भूमिगृहयासिन , 'जलपासिणो' जलपासिन -ये जले प्रविष्टा व नियमति ते, 'रुखमूलिया' वृक्षमूलका--तरतले ये निवसति ते, 'अनुभक्विणो ' अम्बुभक्षिण = जलाहारकारिण , 'वाउभक्विणो' वायुभक्षिण =परनाहारा , 'सेवालभक्विणो' शैवालभक्षिण -शैवाल-जललता भक्षन्ति तच्छीला -जलोपरिस्थितरितवनस्पतिविशेपभोजिन इत्यर्थ , 'मूलाहारा' मूलाहारा -मूलानि आहन्ति तलीला 'दाहारा' काऽऽधारा = सूरणादिक दक्षिण , ' तयाहारा' वगाहारा =निम्बादिश्वभक्षिण , 'पत्ताहारा त्राsऽहारा =बिल्वादिपत्रभक्षिण , 'पुप्फाहारा' पुप्पाऽऽहारा =कुन्दशोभाञ्जनादिपुग गि, 'वीयाहारा' वीजाऽऽहारा -कूष्माण्डादिनीजभोजिन , 'परिसडिय-कढ-मूल-तयपत्त-पुष्फ-फला-हारा' परिशटित-कन्द-मूल-स्वर-पर-पुष्प-फला-ऽऽहारा - परिशटित केनचिदानीत स्वय पतित च परिगटितम् , तादृश कन्टमूल वरूपनपुप्पफलम् आहरन्ति तच्छीला -केन चित् आनीतानि तरुभ्य स्वय पतितानि वा पत्रपुप्पफलान्येव करने वाले, (जलवासिणो) जल में खडे रहने वाले, (रुक्खमूलिया) वृक्ष के नीचे निवास करने वाले, (अबुभक्खिणो) मान जल का आहार करने वाले, (वाउभक्खिणो) मात्र वायु का ही आहार करने वाले, (सेवालभक्खिणो) मान शैवालका ही आहार करने वाले, (मूलाहारा) मात्र मूल का ही आहार करने वाले, (कदाहारा) सूरणादिक कदों का आहार करने वाले, (तयाहारा) त्वक्-अलका आहार करने वाले, (पत्ताहारा) बिल्व आदि के पत्तों का आहार करने वाले, (पुप्फाहारा) पुष्पों का आहार करने वाले, (परिसडियकद-मूल-तय-पत्त-पुप्फ-फला-हारा) तोड कर या स्वय लाये हुए नहीं, किन्तु स्वय निवास ४२वावा, (जलपासिणो) सभा ला २९वापणा, (रुक्समूलिया) वृक्षनी नीय निवास ४२पापा, (अबुभक्सिणो) भात्र पाणीना माडार ४२. पापा, (वाउभक्सिणो) भात्र वायुनाश माहा२ ४२पापा, (सेवालभक्मिणो) । भात शैवाना माडार ७२पापा, (मूलाहारा) मात्र भूजन। 1 माहार ४२वावा, (कदाहारा) सू२ मा नो माडा२ ४२वावा, (तयहारा) व छासना माहा२ ४२वावाणा, पित्ताहारा) मासी माह पानी मा २ ४२वा am, (पुप्फाहारा) मुख्याने माहा२ ४२वापा, (सीयाहारा) मा माहिना पीनामाहार ४२१, (परिसडिय-कद-मूल-तय-पत्त-पुष्फ फलाहारा) तडीन અથવા પોતે લાવેલ ન હોય પરંતુ પોતાની મેળે પડી ગયેલા અ કોઈએ Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टोका १४ प्रयनित श्रमणोपपातविषये गौतमप्रश्न भवंति तं जहा- कंदप्पिया कुक्कुड़या मोहरिया गीयरsप्पिया नचणसीला, ते णं एएणं विहारेणं विहरमाणा बहूई वासाई सामण्णपरियायं पाउणंति, पाउणित्ता तस्स ठाणस्स अणासेमु पन्या समणा भवंति ' यावसन्निवेशेषु प्रत्रजिता श्रमणा भवन्ति, 'तं जहा ' तद्यथा - ' कंदप्पिया' कान्दर्पिका -हास्यकारका भाण्डादय, 4 कुक्कुदया ' कौकुचिका कुकुचेन=कुखितचेष्टया चरन्तीति कौकुचिका ये च भ्रू नयनवदनकरचरणाऽऽद्रिभिभण्डा इव तथा चेष्टन्ते यथा स्वयमहसन्त एव परान हासयन्ति ते । ' मोहरिया ' मौखरिका =वाचाला --नानाविधाऽसम्बद्वभाषिण इयर्थ । 'गीय-रह- पिया' गीतरति - प्रिया - गीतेन या रति कोडा सा प्रिया येषा ते तथा, 'नचणसीला ' नर्तनशीला 'ते एएण विहारेणं विरमाणा ' ते खलु एतेन विहारेण विहरन्त – उक्तमाचरणमाचरत, 'बहूइ वासाड सामण्णपरियायं पाउणति' बहूनि वर्षाणि श्रामण्यपर्याय = चारित्रपर्याय पालयन्ति, ' पाउणित्ता ' पालयिवा ' तस्स ठाणस्स , तस्य स्थानस्य = ५३७ समणा) प्रत्रजित श्रमण होते हैं, (त जहा) जैसे- (कदप्पिया कुक्कुडया मोहरिया गीयरइप्पिया) काढपिंक - हास्यकारक भाड आदि, कौकुचिक -, नयन, वदन, कर एव चरण आदिकों से कुसित चेष्टाएँ करके भाडों की तरह स्वय न हँसकर दूसरों को हँसाने वाले, गीतपूर्वक क्रीडा को अधिक पसंद करने वाले, (नच्चणसीला ) नृत्य करने के स्वभाव चाले, ये सब (एएण विहारेण विहरमाणा बहूड वासाइ सामण्णपरियाय पाउणति ) अपने २ पद के अनुसार उक्त आचरण को आचरण करते हुए बहुत वर्षोंतक श्रमणपर्याय को पालते हैं, (पाणित्ता तस्स ठाणस्स अणालोइय- अपडिक्कता कालमासे काल समणा) प्रति श्रभ थाय छे, (त जहा ) नेवा (कदप्पिया कुक्कुइया मोहरिया गीय- रइ-पिया) अहर्षि४ - हास्या२४ (लवाया) याहि, डीमुथि -, નયન, વદન, કર તેમજ પગ આદિ વડે કુત્સિત ચેષ્ટાએ કરી ભવૈયાની પેઠે स्वयं (चोले) न हसता मीलने इसाववावाजा, भौमरि-अने अहारना, अस - श्रद्ध असाथ श्वावाजा, गीतयुक्त डीडाने वधारे पसरवावाजा, (नच्चणसीला ) नृत्य ४रवाना स्वभाववाजा, या मधा ( एएण विहारेण विहरमाणा बहूई वासाइ सामण्णपरियाय पाउणति) पोत घोताना यह प्रभात सायरજુને આચરતા આચરતા ઘણા વરસા સુધી શ્રમણ-પર્યાયને પાળે ( पाउणिचा तस्स ठाणस्स अणालोइय - अपडिक्कता कालमासे काल किच्चा उस्कोसेण Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - ---- - - - - - - - औपपातिकवरे सिएसु देवेसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति । पलिओवम वाससहस्समभहियं ठिई। आराहगा १ णो इणहे समझे। सेसं तं चेव ॥ सू० १३॥ मूलम् से जे इमे जाव सन्निवेसेसु पव्वइया समणा 'कालमासे काल किचा' कालमासे काल कृत्या 'उकोसेण जोडसिएमु देवेमु देवत्ताए उववत्तारो भवति ' उत्क्रोशेन ज्योतिपिकेषु देवेषु देव वेनोपपत्तारो भान्ति, 'पलिओवम वाससयसहस्समन्भहिय ठिई' पन्यापम वर्षशतसहस्राभ्यधिक स्थिति -- वर्षशतसहस्राणि अभ्यधिकानि यन तत्-वर्षशतसहस्राभ्यधिकम् एकलक्षवर्षाधिक पन्योपम स्थिति प्रजप्तेति । शिष्य पृच्छति-एते ज्योतिपिका देवा 'आराहगा?' आराधका = परलोकस्याराधका भवन्ति किम् ?, उत्तरमाह-'णो इणढे समटे' नाऽयमर्थ समर्थ =मगत , परलोकस्याराधका न भवन्ति । अस्यार्थस्तु-अयोत्तरार्दैऽष्टमे सूत्रे व्याख्यात ॥ सू० १३ ॥ टीका-'से जे इमे' इत्यादि । ‘से जे इमे' अथ य इमे 'जाव सनिवेमरण के अवसर मे मृत्यु के वशवर्ता हो, (उक्कोसेण जोइसिएम देवेसु देवत्ताए उपवत्तारो भवति) उत्कृष्ट रूप से ज्योतिषी देवों मे देवरूप से उत्पन्न हो जाते हैं। (पलि ओवम बाससयसहस्समभहिय ठिई) वहा पर उनकी स्थिति १ लास वर्ष अधिक एक पन्यप्रमाण होती है । गौतम पूछते है-हे नाथ । (आराहगा) ये परलोक के आराधक होते है या नहीं ? उत्तर-(णो इणटे समझे) ये परलोक के आराधक नहीं होते है ।। सू १३ ॥ से जे इमे जाव' इत्यादि (से जे इमे) जो ये (जाव सनिवेसेसु) ग्राम नगर आदि स्थानों मे (पवइया ४ास अपसरे ४ ४शने (उक्कोसेण जोइसिएसु देवेसु देवत्ताए उववत्तारो भवति) ३५थी ज्योतिषी हेयोमा १३चे उत्पन्न य य छ (पलिओवम वाससयसहस्समभहिय ठिई) त्या तमनी स्थिति साम १२स ५२ ४ ५८यप्रभार डोय छे गौतम पूछे छ है है नाथ ! (आराहगा) तया ५२॥४॥ माराध लीय छनडि ? त२-(णो इणद्वे समढे) तम। पराउना मारा पर होता नथी (सू १३) "से जे इमे जाव" त्यादि (से जे इमे) २ (जाव सन्निवेसेसु) ॥ नामा स्थानमा (पव्वइया Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयुषवषिणी-टीका स १५ सांख्पादय परिग्राजकमेश मूलम्-से जे इमे जाव सन्निवेसेसु परिव्वायगा भवंति, तं जहा-संखा जोगी काविला भिउव्वा हंसा परमहंसा टीका-'से जे इमे' इत्यादि । ' से जे इमे' अथ य इमे ईदृशा 'जाव सनिवेसेस' यावत् सन्निवेशेषु, 'परिवायगा भवति ' परिवाजका मन्यासिनो भवन्ति, 'त जहा तपथा-'सखा जोगी काविला भिउच्चा हसा परमहसा बहुउदगा कुडिव्वया कण्डपरिचायगा' सारया योगिन कापिला भार्गवा हसा परमहसा बहूदका कुटीव्रता कृष्णपरिवाजका , तत्र साग्या सारयमतानुयायिन , योगिन -योगश्चित्तवृत्तिनिरोध सोऽत्येपा ते योगिन , कापिल शास्त्र सास्य द्विविधम्-सेश्वर निरीश्वर च। तत्र सेश्वर साख्यं भगवदवतार कपिल प्रणीतवान् , निरीश्वर सारय तु आन्यवतार कपिल इति साख्यशास्त्रानुयायिन' इति वाचस्पयाभिधानकोश । निरीश्वरसारयमतानुयायिन इति भाव । 'मिउन्या' 'से जे इमे जाव' इत्यादि । (से जे इमे) जो ये (जाव सन्निवेसेस) ग्राम आकर आदिसे लेकर सनिवेश तक के स्थानों में (परिवायगा) 'परिव्राजक रहते है, जैसे (सखा जोगी काविला भिजव्या हंसा परमहंसा) साल्य-साख्यमतानुयायी साधु, योगी-चित्तवृत्तिनिरोधरूप योग को पालन करने वाले साधु, कापिल--निरीश्वर साख्यमतानुयायी साधु, (१) सारय दो प्रकार के है-१ सेश्वरसारय, २ निरीश्वरसाख्य। सेश्वरसाख्यइश्वर को मानता है । निरीश्वर साख्य ईश्वर को नहीं मानता है । वाचस्पत्याभिधानकोष में ऐसा लिया है कि भगवदवतारस्वरूप कपिलने ईश्वरवादी साख्य को, एव आन्यवतारविशिष्ट उसी कपिलने निरीश्वरवादी सारय को रचा है। "से जे इमे जाव" Vत्यादि (से जे इमे) रेया (जाव सन्निवेसेसु) म २४२ EिR सपने सन्निव सुधीन थानामा (परिन्वायगा) परिमा४४ २ छ, । (ससा जोगी काविला भिउव्वा हसा परमहसा) साम्य-साज्यमतना मनुयायी साधु, યોગી-ચિત્તવૃત્તિનિરોધરૂપ રોગનું પાલન કરવાવાળા સાધુ, કપિલ-નિરી ३२ 'साम्यमत अनुयायी साधु, मासु पिन १२, (हंसा) से (૧) સાખ્ય બે પ્રકારના છે ૧ સેશ્વરસાખ્ય-૨ નિરીશ્વરસાખ્ય સેશ્વરસાખ્ય ઈશ્વરને માને છે નિરીશ્વરસાખ્ય ઈશ્વરને માનતા નથી. વાચસ્પત્યઅભિધાન કેષમાં એમ લખ્યું છે કે ભગવાનના અવતારસ્વરૂપ કપિલે ઈશ્વરવાદી સાખ્યો તેમજ અગ્નિ-અવતાર-વિશિષ્ટ તેજ કપિલે નિરીશ્વરવાદી સાખ્ય રચ્યું છે Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोपातिकमा लोइय-अपडिकता कालमासे कालं किच्चा उक्कोसेणं सोहम्मे कप्पे कंदप्पिएसु देवेसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति, तर्हि तेसिं गई, सेसं तं चेव, णवरं पलिओवमं वाससयसहस्समभहियं ठिई ॥सू० १४॥ उक्तस्य पापस्थानस्य, 'अणालोइयअपडिकता' अनालोचिताऽप्रतिकाता -अनालो चिताश्च ते अप्रतिकान्ता -गुरूणा समीपे अकृताऽऽलोचनका अतएव दोपादनिवृत्ता इत्यर्थे । 'कालमासे काल किचा' कालमासे काल कृत्या, 'उकोसेण सोहम्मे कप्पे कंदप्पिएसु देवेमु देवत्ताए उववत्तारो भवति' उफर्पण सौधर्मे कन्पे कान्दर्पिकेषुहास्यक्रीडाकारकेषु देवेषु देवत्वेनोपपत्तारो भवन्त, 'तहि तेसिं गई। तत्र तेषा गति 'सेस त चेव' शेप तदेव-पूर्वोक्तमेव बोप्यम् । 'पलिओवम वाससयसहस्समन्महिय ठिई' पल्योपम वर्षशतसहस्राऽभ्यधिक स्थिति -लक्षवर्षाधिक पन्योपम स्थिति ॥ सू० १४ ॥ किचा उक्कोसेण सोहम्मे कप्पे कदप्पिएम देवेसुदेवत्ताए उववत्तारो भवति) पालन करते हुए अत समय वे अपने उक्त पापस्थानों को गुरु के समीप आलोचना नहीं करके उनसे निवृत्त नहीं होते है, इसलिए जब वे काल-अवसर में काल करते है, तब अधिक से अधिक सौधर्मकल्प में जो हास्यक्रीडाफारक देव है उनमें देवरूप से उत्पन्न होते हैं। (तर्हि तेसिं गई सेसं त चेव) वहीं पर उनकी गति आदि बतलाई गई है। यहा पर और भी जो कुछ वक्तव्य है वह इसी आगमके उत्तरार्ध मे आठवें सूत्र की तरह समझ लेना चाहिये। (पलिओवम वाससयसहस्समभहिय ठिई) उस कल्प मे उनकी स्थिति उस पर्याय में १ लाख वर्ष अधिक १ पन्य की जाननी चाहिये ।। सू० १६॥ , ।। सोहम्मे कप्पे कदप्पिएसु देवेसु देवत्ताए उववत्तारो भवति) पासन ४२ता ४२ता અ ત સમયે તેઓ પોતાના ઉક્ત પાપસ્થાનોની ગુરૂની પાસે- આલોચના ને કરવાથી તેનાથી નિવૃત્ત થતા નથી તેથી જ્યારે તેઓ કાલ અવસરે કાલ કરે છે ત્યારે વધારેમાં વધારે સૌધર્મ ક૫માં જે હાસ્યક્રીડાકારક દેવ છે तभा ३ पन्न याय छ (तहि तेसिं गई सेस त चेव) त्यातभनी गति આદિ બતાવવામાં આવેલ છે અહી બીજુ પણ જે કોઈ વર્ણન છે તે આ આગમના ઉત્તરાઈને આઠમા સૂત્રની પેઠે સમજી લેવું જોઈએ (ઝિયમ वाससयसहस्समभहिय ठिई) से ४६५मा तमनी स्थिति पर्यायभा १ म વરસ ઉપરાત ૧ પલ્યની જાણવી જોઈએ (સૂ ૧૪) - - Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूष वर्षिणी-टीका स्रु १५ कर्णादीना शीलध्यादीना परिव्राजकानावर्णनम् ५४१ तत्थ खलु इमे अट्टखत्तियपरिव्वायया भवंति । तं जहा - सीलही ससिहारे नग्गई भग्गइति य ॥ विदेहे राया रामे वलेति य अट्टमे ॥ सू० १५ ॥ मूलम् - तेणं परिव्वायारिउवेय-यजुव्वेय - सामवेय परासरे । कण्हे दीवायणे चेत्र देवगुत्ते य नारए । कर्णश्र करकण्टच अम्चडश्च परागर । कृष्णो द्वैपायनचैव देवगुप्तच नारद । तेऽष्टौ प्राणपरित्राजका । ' तत्थ खलु इमे अट्ठ खत्तियपरिव्वायगा भवति ' तत्र खच्चिमेऽष्टौ क्षत्रियपरिवाजका भवन्ति, 'त जहा ' तद्यथा - ' सीलही ससिहारे नग्गई भग्गति य। विदेहे राया रामेबलेति य भट्टमे । ' गीली शशिधारो नग्नको भग्नक इति च । विदेहो राजा रामो बल इति च अष्टम । एते षोडश परिवाजका लोकतो ज्ञेया ॥ सृ० १५ ॥ टीका -' ते ण परिव्वाया' इत्यादि । ' ते ण परिव्वाया' ते खल्लु परित्रायगा भवति ) ण की जाति के परिवाजक होते हैं - ( त जहा ) सो जैसे ( कण्णे य करकडे य अवडे य परासरे । कण्हे दीवायणे चेव, देवगुत्ते य नारए ) १ कर्ण, २ करकड, ३ अक्ट, ४ पारासर, ५ कृष्ण, ६ द्वैपायन, ७ देवगुप्त एव नारद । (तत्थ खलु इमे अट्ट खत्तिय परिव्वायगा) तथा ये आठ क्षत्रिय जाति के परिव्राजक होते हैं, (त जहा ) सो जैसे- (सीलही ससिहारे य नग्गई भग्गई ति य। विदेहे राया रामे बलेति य अट्टमे ) शीलधी, शशिधार, नग्नक, भग्नक, विदेह, राजा राम और बल ॥ सू १५ ॥ 'तेण परिव्वाया रिउवेय' इत्यादि । ( तेण परिव्वाया) ये १६ साधु-परिव्राजक -आठ ग्राह्मण जाति के आठ क्षत्रिय ब्वायगा भवति) ब्राह्मणुनी लतिना परिमा थाय छे, (त जहा ) भ (कण्णे य करकडे य अघडे य परासरे । कण्हे दीवायणे चेव, देवगुत्ते य नारए) १ ४९, २ ४२५ ७, 3 अजड, ४ पारासर, हैपायन, ७ हेक्गुस, ते ८ नारह ( तत्थ सलु इमे अट्ठ सत्तियपरिव्वायगा भवति ) तथा मा क्षत्रियलतिना परित्रा होय घे (त जहा) नेभ े (सीलही ससिहारे नगई भग्गइति य | विदेहे राया रामे वलेति य अट्ठमे ) १ शीसधी, २ शशिधार, 3 नग्न, ४ लग्नड, विद्वे, राम, ७ राम तथा ८ म (सू १८) ¿ तेण परिव्वाया रिउवेय' इत्याहि ( नेण परिव्वाया) मा १९ साधु-परिवार आठ ब्राह्मण नति भने Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४० पातिकको बहुउदगा कुडिव्वया कण्हपरिव्वायगा। तत्थ खलु इमे अह माहणपरिव्वायगा भवंति, तं जहा-- कण्णे य करकंडे य, अंबडे य परासरे। कण्हे दीवायणे चेव, देवगुत्ते य नारए ॥ भार्गवा -भृगुर्लोकप्रसिद्ध फपिस्तद्वराजा भार्गवा । 'इंसा-हसा =पर्वतकुहरपथ्याऽऽ. श्रमाऽऽरामवासिनो भिक्षार्थ च ग्राम प्रविशन्ति । 'परमहसा' परमहसा, एतेषु नदीपुलिनसमागमप्रदेशेषु वसन्ति मरणसमये चीरकोपीनकुशाश्च व्यक्या प्राणान् परित्यजन्ति । 'बहुउदगा' बहूदका , इमे तु ग्राम एकरानिका, नगरे पञ्चरात्रिका प्राप्तभोगाश्च भुञ्जते इति । 'कुडिब्बया' कुटीव्रता =कुटीचरा , ते च कुट्या वर्तमाना व्यपगतक्रोधलोभमोहा अहवार वर्जयन्ति । 'कण्डपरिव्वायगा' कृष्णपरिबाजका -परिव्राजकविशेषा एव, नारायणभक्तिका इति केचित् । 'तत्थ खलु इमे अट्ठ माइणपरिवायगा भवति' तत्र खल्लु इमेऽष्टौ ब्राह्मणपरिवाजका भवन्ति । 'त जहा' तद्यथा--'कण्णे य करकडे य अबडे य भार्गव-भृगु ऋपि के चशज (शिष्य), हस-पर्वतकी गुफा, आश्रम, देवमन्दिर तथा बगीचा आदि में निवास करने वाले साधु, जो सिर्फ भिक्षा के लिये ही ग्राम में आते है, (परमहसा) नदी के तट पर नग्नरूप में रहने वाले साधु, जो मरण काल में चीर, कौपीन और कुशा को त्याग कर मरण करते हैं। (बहुउदगा) एक रात ग्राम में पाच राततक नगर में रहे तथा जो मिले सो खावें ऐसे बहूदक साधु, (कुडिब्बया) कुटीत-कुटीचर-क्रोध, लोभ एव मोह तथा अहकार से रहित होकर पर्णकुटी में रहने वाले, (कण्हपरिव्यायगा) नारायण के भक्त परिवाजक-अथवा कृष्ण के भक्त परिवाजक, (तत्य) इनमें (अट्ठ) आठ (इमे) ये (माहणપર્વતની ગુફ, આશ્રમ તથા બગીચ આદિમાં નિવાસ કરવાવાળા સાધુ, જે मात्र लक्ष भाटे ४ आभमा मा छ (परमहसा) नहीन de५२ नन રૂપમાં રહેનારા સાધુ, જે મરણકાલમાં ચીર, કૌપીન (લગેટી) અને કુશાને त्यागरी' भर पा छे (बहुउदगा) ४ रात गाभभा, पाय रात सुधी नारमा '२ तथा भणे ते माय वा पडू४ साधु, (कुडिब्बया) 3टीવ્રત કુટીચરોધ, લોભ તેમજ મેહ તથા “અહકારથી રહિત થઈને પર્ણ इटीमा पापा, (कण्हपरिवायगा) नारायशुना मत परिमा१४, अयपा ० मत परिका, (तत्य) मा (अट्ट) मा (इमे) 41 (माहणपरि Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषपिणी-टोका स १६ फर्णा शीलभ्या च वेदादिसफलशास्त्राभिज्ञत्वम् ५४३ सामयणे अण्णेसु य वहसु वंभपणएसु य सत्थेसु सुपरिणिट्टिया यावि होत्था ॥ सू०१६ ॥ __मूलम्-ते णं परिव्वायगा दाणधम्म च सोयधम्म 'अक्षरस्वरूपनिरूपक शास्त्र शिक्षा, तथाविधसमाचारप्ररूपक शास्त्रमेव कपस्तस्मिन् , 'वागरणे' ज्याफरणे गन्दगाने, 'उदे' छन्दसि वृत्तपोधके शास्त्रे, 'निरुत्ते' निरुक्ते= शब्दार्थनोधके, ‘जोडसामयणे' ज्योतिपामयने ज्योतिश्शास्त्रे, 'अण्णेसु य बहुसु वभण्णएस य सत्येम' अन्येषु च बहुपु गाह्मण्येषु च गानेपु-लाह्मणेभ्यो हितानि ब्राह्मण्यानि-वेढव्याख्यारूपाणि ब्राह्मणादीनि शास्त्राणि तेषु च बहुपु शास्त्रेषु, 'सुपरिणिट्ठिया यावि होत्था' सुपरिनिष्टिता =परिपक्वज्ञानाचापि भवन्ति ॥ सू० १६ ॥ टीका-ते ण परिव्याया' इत्यादि । 'ते ण परिवाया' ते खल परिवाजका , 'दाणधम्म च सोयधम्म च तित्याभिसेय च' दानधर्मं च शौचधर्मं च कप्पे वागरणे उदे निरुत्ते जोडसामयणे अण्णेसु य बहसु वभण्णएमु य सत्थेसु मुपरिणिट्ठिया यावि होत्था)तथा गणित के विषय मे, शिक्षा-अक्षर के स्वरूप को निरूपण करने वाले शास्त्र मे, कल्प मे, व्याकरण शास्त्र मे, उद शास्त्र मे, निरुक्त-शब्दार्थबोधक शास्त्र मे, एव ज्योतिप शास्त्र मे और भा अनेक बहुत से ब्राह्मणशास्त्रों मे ये परिपक्व ज्ञानशाली हाते है ।। सू १६॥ । 'तेण परिचायगा' इत्यादि । । (ते ण परियायगा) ये समस्त परिव्राजक (दाणधम्म च सोयधम्मं च) दानधर्म की, शौचधर्म का, (तित्थाभिसेय च) तीर्थाभिषेक की (आघवेमाणा) जनता मे तना२। डाय छ (ससाणे सिम्साकप्पे वागरणे छदे निरुत्ते जोइसामयणे अण्णेसु य बहसु बभण्णएसु य सत्येसु सुपरिणिट्रिया यावि होत्था) तथा गणितना विषયમા, શિક્ષા–અક્ષરના સ્વરૂપને નિરૂપણ કરવાવાળા શાસ્ત્રમા, ક૫મા, વ્યાકરણ શાસ્ત્રમાં, છેદ શાસ્ત્રમા, નિરુક્ત-શબ્દાર્થબોધક શાસ્ત્રમા, તેમજ જ્યોતિષ શાસ્ત્રમાં અને બીજા પણ અનેક બ્રાહ્મણ શાસ્ત્રોમાં તેઓ જ્ઞાનશાલી હોય છે (सू.१६) 'तेण परिव्वायगा' त्यादि (ते ण परिव्वायगा) मा समस्त परिमा (दाणधम्म च सोयधम्म च) नयर्मनी, शौयधनी, (तित्थाभिसेय च) तीर्थमलियन (आघवेमाणा) . Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकवाने अहव्वणवेय-इतिहासपंचमाणं निघंटछटाणं संगोवगाणं सरहस्साणं चउण्हं वेदाणं सारगा पारगा धारगा सडंगवी सहितंतविसारया, संखाणे सिक्खाकप्पे वागरणे छंदे निरुत्ते जोइपरिवाजका -प्राग्वर्णिता अष्टौ नाह्मणपग्निाजका , अष्टौ क्षत्रियपगिाजका , ते कीदृशा । अनाऽऽह-'रिउवेय--यजुव्वेय-सामनेय-अयणय-इतिहासपचमाण' ऋग्वेदयजुर्वेद-सामवेदाऽथर्ववेदेतिहासपञ्चमानाम्-ग्वेदादयश्च वारो वेदा , तथा इतिहास पञ्चमा येपा ते इतिहासपञ्चमा तेषाम् , 'निघटुग्याण' निघण्टुपठानाम्-निघण्टुर्नाम कोश पष्ठ =पटम्यापूरको येषा तेपा 'सगोवगाण' सागोपागानाम्-अङ्गरपाङ्ग सहितानाम्, 'सरहस्साण' सरहस्याना रहस्ययुक्तानाम् , 'चउण्डं चतुर्णाम्, 'वेदाण' वेदानाम्, 'सारगा' सारका =अध्यापनद्वारेण प्रवर्तका , अथवा स्मारका अन्येपा विस्मृतस्य स्मारणात् , 'पारगा' पारगा -मपूर्णवेदार्थजानपन्त , 'धारगा' धारका धारयितु क्षमा , 'सडगवी' पडङ्गपिद , 'सद्विततरिसारया पष्टितन्त्रविशारदा -पष्ठितन्त्र कपिलसिद्धान्त - तत्र विशारदा =पण्डिता , ' सखाणे' सरयाने गणितविषये 'सिक्खाकप्पे ' शिक्षाकल्पेजाति के (रिउवेय-यजुन्वेय-सामवेय-अहब्बणवेय-इतिहासपचमाण निघटुट्ठाण सगोवगाण सरहस्साण चउण्ह वेदाण) मग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, इतिहास,' निघटु इन उह शास्त्रों के तथा इन शास्त्रों के और भी जितने अग और उपाग हे उनके एव रहस्य सहित चार वेदों के (सारगा) पाठन द्वारा प्रचारक होते है, था दूसरों के लिये ' विस्मृत हुए इन के स्मारक होते है (पारगा) स्वय भी इन सब शास्त्रों के ज्ञाता होते है, (धारगा) इन सबकी धारणा वाले होते है। इसलिये ये (सडगवी) पडगवेदवित् कहे जाते है। ये (सद्रिततविसारया) पटिता-कपिलशास्त्र के भी वेत्ता होते है, (सखाणे सिक्खा मा क्षत्रिय तिना (रिउवेग्न-यजुवेय-सामवेय-अहव्वणवेय-इतिहास-पचमाण निघटुछट्ठाण सगोवगाण सरहस्साण चउण्ह वेदाण) ये, यो , भाभव, અથર્વવેદ, ઈતિહાસ, નિઘ ટુ આ છ શાસ્ત્રોના, તથા આ શાસ્ત્રોના બીજા 241 मने 6 छे तमना, २७स्यसहित या२ वहाना (सारगा)। પઠન દ્વારા પ્રચારક હોય છે, અથવા બીજાને વિસ્મરણ થયેલ હોય તો તેમને યાદ ४शनास य छ, (पारगा) पोते पण ते शास्त्री बना। राय छ, तथा तसा (धारगा) मा मधानी धारापासा डाय, तथा तसा (सडगवी) १९ वित ४९वाय छ तमो (सद्विततविमारया) परितत्र-पिताना पर Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - पौषक्षिणी टीका स १८ कर्णादि शोलभ्यादि परिवाजकानामा चारवर्णनम् ५४५.. मुलम्-तेसि णं परिवायगाणं णो-कप्पड़, अगडं-वा तलायं-वा/नई-त्रा वार्षि वा पुक्खरिणिं वा दीहियं वा गुंजालियं शुचय =शुदा 'मुडसमायारा' शुचिसमाचारा =सर्वथा शुद्धाचारा 'भवित्ता' भूवा 'अभिसेय-जल-पूय-पाणो' अभिषेक-जल-पूताऽऽरमान --अभिमन्त्रितजलै पूता = पवित्रा आत्मानो येपाते तथा, 'अविश्वेण सग्ग गमिस्सामो' अविघ्नेन स्वर्ग गमिष्याम - अस्माकं स्वर्गगमन-नियमस्ति-इत्यर्थ ॥ सू० १७ ॥ टीका-तेसिंणा परिचायगाण' इत्यादि । 'तेसि , परिचायगाणं' तेपा खल परिवाजकानाम्, 'जो कप्पइ अगडं वा तलायं वा नइ वा वार्षि वा पुक्खरिणिं वा दीडिय वा गुजालिय वा सर वा सागरं वा ओगाहित्तए नो कल्पतेऽवट वा, तडाग वा नदी वा वापों या पुष्करिणी वा दीर्घिका वा गुजालिका वा सरा . हम शुचि हैं और हमारा आचार-विचार भी शुचि है । इस तरह शुचि होकर, अभिमत्रित जल से सर्वथा आमा को पविन कर हम लोग विना किसी वित के स्वर्ग में जावेंगे हम लोगों , को स्वर्गप्रामि निधि है । मू १७ ॥ 'तेसि ण परिवायगाणं' इत्यादि । (तेसि ण परिवायगाण) इन परिवाजको को (णो कप्पड़) इतनी बातें कल्पित नहीं है-(अगड वा तलाय वा नह वा वार्वि वा पुक्खरिणिं वा दीहियं का गुजालिय वा सरं वा सागर वा ओगाहित्तए) कूए में प्रवेश करना, नालाब में प्रवेश करना, नदी में प्रवेश करना, चावडी में प्रवेश करना, पुष्करिणी में प्रवेश करना, दीर्घिका मे प्रवेश करना, गुजालिका में प्रवेश करना, सरोवर में प्रवेश करना, एव समुद्र में प्रवेश करना ।, પવિત્ર છે અને શુચિ છીએ, અને અમારા આચારવિચાર પણ શુચિ છે આવી રીતે શુચિ થઈને, અભિમત્રિત જલથી સર્વથા આત્માને પવિત્ર કરીને અમે કેાઈ જાતના વિદ્ધ વિના સ્વર્ગમાં જશુ-અમને સ્વર્ગની પ્રાપ્તિ, નિબધ છે (स.१७) । तेसिं गं परिवायगाण' त्याहि. तिसिंण परिव्वायगाण) २५ परिवानी (जो कप्पइ) मारी तो अक्षय नथा (अगडा वा तलाय-या नइ वा वाविं वा पुक्सरिणिं ना दीहिय वा गुजालिय वा सर वा सागर वा ओगाहित्तए) दूपामा प्रवेश ४२३, तापमा પ્રવેશ કરશે, તદીમાં પ્રવેશ કર, વાવમાં પ્રવેશ કરવો, પુષ્કરિણીમાં પ્રવેશ કર, દીધિંકામાં પ્રવેશ કરે, ગુ જાલિકામાં પ્રવેશ કરે, સરેવરમાં પ્રવેશ Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - च तिस्थाभिसेयं च आघवेमाणा पपणवेमाणा पल्वेमाणा विहरति । जं गं अम्हं किचि असुई भवइ तं गं उदएण य मट्टियाए य पक्वालियं सुई भवइ । एवं खल अम्हे चोक्खा चोक्खायारा सुई सुइसमायारा भवित्ता अमिसेयजलपूयप्पाणो अविग्घेणं सग्गं गमिस्सामो॥ सू० १७ ॥ तीर्थाभिषेकञ्च, 'आघवेमाणा' आयान्त कथयन्त , 'पण्णवेमाणा' प्रज्ञापयन्त = बोधयन्त , 'परूवेमाणा' प्ररूपयन्त =उपपत्तिमि स्वसिद्धान्त स्थापयन्तो विहरन्ति । 'जणं अम्ह किंचि अमुई भवइ यत् सन्चस्माक किञ्चिदशुचि भवति, 'तण उदएण य मट्टियाए य पक्वालिय मुई भवइतराल उदकेन च मृत्तिकया च प्रक्षालित शुचि भाति पवित्र भवति, 'एव खलु अम्हे' एव खलु वय, 'चोक्खा ' चोक्षा =कृतप्रमार्जना --विमलदेहनेपथ्या , 'चोक्खायारा' चोक्षाचारा-पविनाचारा , अतएव-'मुई' पुष्टि करते हुए (पण्णवेमाणा) जनता को ये सब बाते अच्छी तरह समझाते हुए (परूवे. माणा विहरति) जनता मे इनकी युक्तिपूर्वक प्ररूपणा करते हुए विचरते रहते हैं। (जण अम्ह किंचि असुई भाइ त ण उदएण य मट्टियाए य पक्वालिय सुई भवइ) वे कहते हैं-कि जो कुछ भी हम लोगों की दृष्टि मे अपवित्र ज्ञात होता है वह पानी से या मिट्टी से जब प्रक्षालित हो जाता है तब वह शुचि हो जाता है। (एव खलु अम्हे चोक्खा चोक्खायारा सुई सुइसमायारा भवित्ता अभिसेयजलप्रयप्पाणो अविग्घेण सग्ग गमिस्सामो) इस प्रकार हम लोग चोखे हैं और हमारा आचारविचार भी चोखा-पवित्र है । सनतामा पुष्टि (प्रन्यार) ४२॥ ५४१, (पण्णवेमाणा) निताने आ गधी वाता सारी रात सभाau &t, (परवेमाणा विहरति) तामा तमनी युति पूर्व ३५। ४२ता था पियरता २७ छ (ज ण अम्ह किंचि असुई भवइ त ण उदएण य मट्टियाए य पक्सालिय सुई भवइ) तया ४ छ ३२ ई પણ આપણી દષ્ટિમાં અપવિત્ર જણાય છે તે પાણીથી અથવા તે માટીથી જે धौवामा आवे तोते शुधि- पवित्र US नय छ (एव खल्लु अम्हे चोक्खा चोक्खा. यारा सुई सुइसमयारा भवित्ता अभिसेयजलपूयप्पाणो अविग्घेण सग गमिस्सामो) આ પ્રકારે આપણે ચેકખા છીએ, અને આપણા આચારવિચાર પણ ચોકખા Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ पीपवर्षिणी टीका स १७कर्णादि शीलभ्यादि परिव्राजकानामाचारवर्णनम् ५४७ तेसिं गं परिव्वायगाणं णो कप्पइ आसं वा हत्थिं वा उदं वा गोणि वा महिसं वा खरं वा दुरूहित्ता णं गमित्तए, णण्णत्थ बलाभिओगेणं । तेसिं णं परिवायगाणं णो कप्पइ नडपेच्छाइ वा जाव मागहपेच्छाइ वा पेच्छित्तए। तेसिंणं परिव्वायगाणंणो ब्राजकाना न कल्पते इत्यन्वय', 'तेसि ण परिचायगाणं नो कप्पइ आस वा हत्यि "वा उदं वा गोणि वा महिसं वाखरं वा दुरूहित्ताण गमित्तए णण्णत्य घलामिओगेण' तेषा खल परिवाजकाना न कल्पतेऽश्व वा हस्तिन वोष्ट्र वा गा वा महिप वा खर वाऽधिरुह्य खल गन्तुम्-नान्यत्र बलाऽभियोगात्-वलेन बलात्कारेण यं अभियोग =नियोजन-बलवत्पारन्त्र्यनियोग इत्यर्थ , तस्मात् , अन्यत्र तेपा परिवाजकाना गन्तु न कल्पते । 'तेसि णं, परि'ब्वायगाण णो कप्पइ नडपेच्छाइ वा जाव मागहपेच्छाइ वा पेच्छित्तए ' तेपा खल परिवाजकाना नो कल्पते नटप्रेक्षणमिति वा यावन्मागधप्रेक्षणमिति वा प्रेक्षितुम्डोली पर, अथवा झोल्लिका-यानविशेष पर, प्रवहण-पालकी पर, बग्घी पर, एव स्यन्दमानिका-तामजाम पर चढ़कर भी जाना साधुओं के लिए वर्जित है। (तेसिं ण परिव्वायगाणं णोकप्पइ 'आस वा हत्थि वा उवा, गोणि वा, महिस वा, खर वा दुरुहिताण गमित्तए) उन परिवाजको को घोडे पर, हाथी पर, ऊंट पर, बैल पर, भैसा पर, एव गधे पर चढ़ कर भी चलना वर्जित है, (गण्णत्व वलामिओगेण) बलाभियोग को छोड कर । यदि कोई हठ करके अर्थात् जबर्दस्ती से बैठावे तो दोष नहीं है । (तेसिं ण परिवायगाण णो कप्पइ नडपेच्छाइ वा जाव मागहपेच्छाइ वा पेच्छित्तए) उन परिवाजको को यह भी उचित नहीं है, अर्थात् उनके आचारके अनुसार यह भी उन्हे वर्जित है कि वे લઈને ઉપાડીને ચાલે છે એવી હેલી પર અથવા એલ્લિકા નામના યાનવિશેષ પર, પ્રહણ-પાલખી પર, બગી પર તેમજ સ્પન્દમાનિકા–તામજામ પર यदीने पर पु साधुसार भाट वनित छ (तसिं ण परिव्वायगाण णो कप्पड़ आस का हत्यिं वा उट्ट वा गोणिं वा महिसं वा खरं वा दुरूहित्ताण गमित्तए) તે-પરિવ્રાજકેને ઘોડા પર, હાથી પર, ઊંટ પર, બળદ પર, જે સા પર, તેમજ गधेडा ५२ २ढीन यास परित छ (णण्णत्य बढाभिओगेण) मसालियाग छोडीन, ४ ४शन मस्तीथी साडी तोष नथी (तसिं ण परिवायगाण णो कप्पद नरपेच्छाइ वा जाव मागहपेच्छाइ वा पेच्छित्तए) ते परिवाना Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - वा सरं वा सागरं वा ओगाहित्तए, णण्णस्य अबाणगमणेणं। णोकप्पइ सगडं वा जाव संदमाणियं वा दुरुहिताणं गतिर। वा सागर वाऽवगाहितुम्, तनावट =कूप , नापी चतुष्कोणजलाशयविशेष, पुषरिणी वर्तुलाकारजलाशय , दीर्घिका आयताकारजलाशय, गुमालिका-वकवलाशय , सरकृत्रिमपमयुक्तजलाशय , तेषु प्रवेष्टुं सन्यासिना न फन्पते, 'णण्णत्व अदालगमन' नान्यत्राध्वगमनात्-न इति यो निपेध सोऽध्वगमनादन्यत्र, मार्गे जलाशयप्रदेशो न निषिद इत्यर्थ । 'णो कप्पइ सगड वा जाव सदमाणिय वा दुरूहिता णं गणितए' नो फल्पते शकट वा यावत् स्यन्दमानिका पाऽधिरुख खलु गन्तुम्-शकटमधिरुह्य गन्तु न कल्पते इत्यन्वय , यावच्छन्दादिद बोध्यम्-रथ वा यान वा युग्यं वा गिल्लिं वा-पुरुषद्वयोरियास दोल्लिका वा 'मोल्लिका वा' यानविशेष वा प्रवहण वा शिबिकाम् वा इति, थिलिवा अब द्वयवाह्य यानविशेष वा, तथा-स्यन्दमानिका-शिबिकाविशेष वा, आरुह्य गन्तु तेषा परिचार कोने वाले जलाशय का नाम बावड़ी, गोल मुहवाले जलाशय का नाम पुष्करिणी, एवं विस्तृत आकारवाले जलाशय का नाम दीपिका है, जो जलाशय टेडा होता है उसका नाम गुजालिका है । इन सब में प्रवेश करना सन्यासियों के लिये निषिद्ध है ।हो (णण्णस्थ अदा गमणेण) मार्ग में चलते समय यदि कोई तालाब नदी आदि जलाशय बीच में पड़ जाय तो अगत्या उसमें होकर जाना निषिद्ध नहीं है । (णो कप्पइ सगड वा जाव संदमाणिय वा दुरूहित्ता गच्छित्तए) इसी तरह शफट बैलगाडी पर चढ़कर भी जाना निषिद्ध है यिहा 'यावत्' शब्द से-"रथ वा यान वा युग्य वा गिल्लि वा" इत्यादि पाठ गृहीत हुआ है। इसका मतलब इस प्रकार है-रथ पर, यान पर, घोडे पर, दो पुरुष जिसे लेकर चलते हैं ऐसी કર, તેમજ સમુદ્રમાં પ્રવેશ કરે ચારે કેરેથી ઘેરાયેલ જલાશય હાય !” તેનું નામ વાવ, ગેળ મુખવાળુ જલાશય હેય તે પુષ્કરિણી, તેમજ વિસ્તૃત આકારવાળા જલાશયને હાર્દિક કહે છે જે જલાશય વાકાચુ કા હોય છે તેનું ' નામ ગુ જાલિકા છે આ બધામાં પ્રવેશ કર એ સન્યાસીઓને માટે નિષિદ્ધ, छ । (णण्णत्थ अद्धाणगमणेण) भाभा यासती मते २४ तानी આદિ જલાશય વચમા આવી જાય તે અગત્યા તેમા થઈને જવું નિષિદ્ધ નથી दो कपइ सगड वा जाव सदमाणिय वा दुरूहित्ता गच्छित्तए) मापी रीत ! શકટ-અળદનુ ગાડ પર ચડીને પણ જવું નિષિદ્ધ છે અહી ચાહત wr " रथ वा यान वा युग्य वा गिल्लि वा" त्या 8 या એનો મતલબ એ છે કે-રથ પર, યાન પર, ઘોડા પર, બે માસ જેને Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवर्षिणी-टीका सू १८ अम्बडपरिव्राजकाचार वर्णनम् ०५४९ | कहाइ' वा 'जणवयकहाइ वा अणत्थदंडं करित्तए । तेसि णं परिवायगाणंणो कप्पर अयपायाणि वा तउयपायाणि वा तंब-पायाणि वा जसदपायाणि वा सीसगपायाणि वा रुप्पपायीणि वा सुवर्णपायाणि ध्वा अण्णयराणि वा बहुमुल्लाणि धारित्तए, कथा' इति वा 'चोरकथा' इति वा, 'जनपदकथा' इति वाऽनर्थदण्ड कर्तुम् स्यादीना कथा' कत्तु न कन्पन्ते, तथा - अनर्थदण्डमपि कर्तु न कल्पते । ' तेर्सि णं परिव्वायगाण कप अपायाणि वा तउयपायाणि वा तवपायाणि वा जसदपायाणि वा सीसगपायाणि वा रुष्पपायाणि वा सुवण्णपायाणि वा अण्णयराणि वा बहुमुल्लाणि परिसए "तेपा खलु परिमाजकाना नो कल्पन्ते - अय पात्राणि वा त्रपुकपात्राणि वा ताम्रमात्राणि या जय दपात्राणि वा सीसकपात्राणि वा रूप्यपात्राणि वा सुवर्णपात्राणि वा अन्यतराणि वा बहुमूल्यानि धारयितुम्, 'तत्र - अय पात्राणि लौहपात्राणि, त्रिपुकपात्राणि त्रप्वेव त्रक 'राँगा' इति ख्यात, तस्य पात्राणि, अन्यत् सर्वं सुगमम् । " गण्णत्थ अलाउपाएण वा 1 वा) चौरकथा एवं जनपदकथा, ( तेसिं ण परिव्वायगाण णो कप्पर) ये कथाएँ भी 'उन परिवाजको के लिये कल्पित नहीं है, कारण किंग्डन कथाओं के करने से ( अणत्थदड 'करित) अनर्थ का बंध होता है- ये कथाएँ अनर्थदड करानेवाली हैं। ( अयपायाणि वातउयपायाणि वातापायाणि ना जसदपायाणि वा सीसगपायाणि वा रुप्पपायाणिवा वण्णपायाणि वा अण्णयराणि वा बहुमुल्लाणि धारित्तए तेसिं परिव्वा गाण णो रुप्पट ) लोह के पात्र, त्रपु के पात्र, तावे के पात्र, जसद के पान, सीसे के पात्र, वादी के पान, सुवर्ण के पात्र तथा और भी धातु के बहुमूल्य पान उन साधुओं को यो पशु ते परित्राने भाटे उस्थित नथी, आरभु मिथाय ४२पाथी (अप्रत्थदड करित्तए) अनर्थ उनो अध थाय छे-मा अथासो | मनर्थ६ ४शववावाणी छे (अयपाग्राणि वा तउयपायाणि वा तयपायाणि वा जसदुपायाणि वा सीसगपायाणि वा । रुप्पपायाणि वा सुवण्णपायाणि वा C रोणि वा 'बहुमुल्लाणि धारित्तए 'तेसिं परिव्वायगाण णो कप्पर) सोढानु पत्रि त्रिभु-(सा)नु~यात्र, ताजानु पात्र, सतनु पात्र, सीसानु पात्र, न्यादीनु 'પત્ર, સુવર્ણનું પત્રિ, તથા બીજી ધાતુના અહુમૂલ્ય પાત્ર રાખવા એ સાધુ मनित्यताना आहार विहार भाटे उस्थित नथी (णण्णत्थ भलाउपाएण वा Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R ana - - - - __ कप्पइ हरियाणं लेखणया वा घणया वायंभणया या लूलगना वा उप्पाडणयावा करित्तएँ। तेसि परिटवायगा जो शायद इत्थिकहाइचा भत्तकहाहावादेसकहाइ वा रायकहर गयो मिटीदाना गतिवृत्योदियान नदितं तेषा परिमाजकाना न कल्पना शसि परिवायाण यो कप्पइ, हरियाण लेसणयाचा घणया वा धभणया बालूसणया वा-उपात्या वा,करित्तए-तेपा,खल परिवाजकाना नो कल्पते हरिताना वनस्पतीना पगता वा पता वा स्तम्भनता वा पणता बोत्पाटनता था, लेपणतादी सर्वत्र स्वार्थे तर, लेपणादिकमित्यर्थ । लेषण-स्पर्श , पानता घट्टन-सघर्पणम्, स्तम्भनता-स्तम्भन हस्तादिनाऽवरोध , शसापल्लवादीनां मोटनम्, ऊवीकरण च, दूपणता-टूपण हरतादिना पनकादे , समान, तेसि-परिवायगाणं- णो कापड इत्यिकहाइ वा-मत्तहाइ वा देससारका रायकहाइ, वा-चोरकहाइ बा जणवयकहाइवा अणत्यदड करिए । तेषा , परिवाजकाना नो कल्पते- स्वीकथा' इति वा, 'भक्तकथा' इति चा 'देशकथा' इति वा, राजनटों का एव मागध आदिकों का खेल-तमासा नहीं देखें और उनके गीत नृत्य आदि नहीं सुने । (हरियाण, लेसणया वा घट्टणया वा थभणया वा लूसणया वा उप्पाडणया वा करित्तए) हरितवनस्पति का स्पर्श करना, मर्पण करना, हस्तादिक द्वारा अवरोध करना, शाखा एव उनके पत्ते आदिकों को ऊंचा करना अथवा उन्हें मोडना, हस्त आदि के 'द्वारा पनक आदि का समार्जन करना, ये सब बातें म (तेसिं परिबांयगाणं णो कप्पइ) 'उन परिवाजको के लिये कल्पित नहीं है (इत्यिकहाइ वा भत्तफहाइ वा देसकहाइवा रायकहाइ'वा) स्त्रीकथा, भक्तकथा, देशकथा, राजकथा ( चोरकहाइ वा जणवयकहाइ આચાર અનુસાર એ પણ તેમને વર્જિત છે, કે તેઓ નાના તેમજ માગધ એક્ટિમાબેલસમાસા નહી, અને તેમના ગીત નૃત્યાદિસાએળે નહી (हरियाणालेसणया वा घट्टणया धा भणया वाग्लसणया वा उप्पाडणयो'का करितएं) લીલી ઇનતિને પશકર, રસ ઘર્ષણ કરવું, હાથેથી અવાઈ કર, શાખા તેમજજોતાક્યાદા આદિકેને ઉચા કરવા, અથવા મરડવા, હોશ આદિથી alata मालिनु सभा २, Aruी पातपातेसिं परिचायगाण जोक्रप्पइ) तपरिवार भाटे अमित)नथी (इत्थिकहाइ भित्तकहाइ वा देसकहाावा रायकहाइ वा) KAITRI BIRHI, E ANKI,(चोरकहा वाजणषयकहाइवा) न्यो२४या तमगा घ्या (तेसिं-पापरिन्नायगाण Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५१ पौषरिनी- टीका म १८ अम्यडपरिव्राजकाघार वर्णनम् ब्वायगाणं णो कप्पइ हारं वा अद्धहारं वा एगावलिं वा मुत्तावलिं वा कणगावलि रयणावलिं वा मुरवि वा कंठमुरविं वा पालंबं वा तिसरयं वा कडिसुत्तं वा दसमुदियाणंतगं वा कडयाणि वा नो कंपन्ते नानाविध-वर्ण-गग-रक्तानि वस्त्राणि धारयितुम् , 'णण्णत्य एगाए धाउरत्ताए' नायकस्मादातरक्तात-केवल गैरिकादिधातुरक्त कल्पते इत्यर्थ , । 'तेसिं ण परिचायगाण णो कप्पड हारं वा अद्भहार वा एगावलि वा मुत्तावलि वा कणगावलि वा रयणावलिं वा मुरविं वा फंठमुरवि वा पालव या तिसरय वा कडिमुत्त वा दसमुदियाणवगं वा कडयाणि वा तुडियाणि वा अगयाणि वा केउराणि वा कुंडलाणि वा मउडं वा चूलामणि वा पिणदित्तए' तेषा ग्वल परिव्राजकाना नो कपन्ते-हार वाऽहार वा, एकावलिं वा, मुक्तावली वा, कनकावली वा, रत्नावली वा, मुरविं-कर्ण पणविशेष वा, कण्ठमुरवि-कण्ठभूपणविशेष वा, पालम्ब या, जिसरक वा, कटिसून वा, दशमुद्रिकानन्तक वा, रुढोऽयं गन्दस्तेन-हस्ताङ्गुलीमुडिकादशकमि यर्थ , कटकानि वा, के रंगों मे रजित वस्त्र भी इन्हें धारण करना उचित नहीं पतलाया गया है। सिर्फ एक गरिक ग से रगा हुआ वस्त्र ही इन्हें धारण करना बतलाया है। (तेर्सि पा परिवायगाण णो कप्पड हार वा अद्धहारं वा एगावलि वा मुत्तावलिं वा कणगावलिं वा रयणावलि वा मुरवि मा कठमुरवि वा तिसरय वा कडिमुत्त वा दसमुदियाणतग चा कडयाणि वा तुडियाणि वा अगयाणि वा केऊराणि वा कुडलाणि वा मउडं वा चूडामणि वा पिणद्धित्तए, णण्णत्य एगेण तविएणं पवित्तएण) हार, अईहार, एकावलि, मुक्तावति, कनकावलि, रत्नावलि,' मुरवी, कण्ठमुरवी (ये कठ के आभ અનેક પ્રકારના ૨થી ૨ગાએલા વસ્ત્ર પણ તેઓએ ધારણ કરવા ઉચિત નથી માત્ર એક ગેરૂના ૨ગથી રંગાયેલ વસ્ત્ર જ તેમણે ધારણું કરવાનું मतान्यु छ (वेसिं ण परिवायगाण णो कापद हार वा अद्वहार वा एगावलिं वा मुत्तावलिं वा कणगावलि वा रयणावलिं वा मुरविं वा कठमुरवि वा पालन वा तिसरय वा फडिसुत्त वा दसमुहियाणतग वा कठयाणि वा तुडियाणि वा अगयाणि वा केऊराणि वा कुडलाणि वा मठह वा चुडामणि वा पिणद्वित्त, णण्णत्य एगेण तनिष्ण पविचण्ण) ७२, २, ४ापति, मुस्तापति, नअपलि, २लापति, અરવી, કઠમુરવી, (આ બધા કઠના આભરણે છે) પ્રાલ બ, ત્રણ સરને Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५० णण्णत्थ अलाउपाएण वा दारुपाएण वा महिषापारणाला तेसिं णं परिव्वायगाणं णो कप्पइ अयपंधणाणि जाव पाणि धारित्तए । तेसिणं परिवायगाणं णो कैप्पइ णाणाविहानरत्ताई वत्थाइंधारित्तए, णण्णत्थ एगाएधाउरताए।तेति गरि दारुपाएण या मट्टियापारण या' नाऽन्ययाऽलानुपापाद या वारुपात्रादा मृत्तिकापागा, । 'न'इति पूर्वोक्तो निषेध -तुम्बीपात्रात फाष्ठनिर्मितपात्रात् , मृत्तिकापात्राद्वाऽन्यत्र । तुम्पी-43गृतिफापामाणि तु मरयासिना कल्पन्ते इति भाव । तेसिंण परिमायगाणं को कपा अयबंधणाणि बाजार यहुमुल्लाणि धारितए 'तेपासष्ट परिमाजकानाम् भयोजनानि सौरभनयुक्तानि पात्राणि, यावच्छन्दात्-अपुताम्रादिबन्धनयुक्तानि पात्राणि, तथा मूल्यानि भयान्यपि बधनानि धारयितुः तेपा सन्यासिना न कल्पन्ते । 'तेसि ण परिणाव गाणं णो कप्पइ णाणाविर-वण्ण-राग रसाइ बस्थाइ धारितए' तेषा खलु परिमाकाना अपने माहार-विहार आदि के लिये रखना कल्पित नहीं है । (णण्णस्य अलाउपारण का मटियापारण पा.) तूपही, काष्ठनिर्मित फमण्डलु, अथवा मिट्टीका पान, ये ही उन्हें रहना कल्पता है। (अयधणाणि जार बहुमुल्लाणि धारित्तए तेसि ण परिवायगाणं गो फप्पइ) तथा-लोह के मधन से युक्त पात्र, प्रपु के बधन से युक्त ,पान, ताबे के वपन से युक्त पान, जसद के बधन से युक्त, पात्र, सीसे के बधन से युक्त , पात्र, चादी के बंधन से युक्त पान, सुवर्ण के बधन से युक्त पान तथा और भी बहुमूल्य बधन से युक्त पात्र इन साधुगो को फल्पित नहीं बतलाया गया है। (तेसिं ण परियायगाण णो कप्पा गाणा पिह-व-राग-रत्ताइ बस्थाईधारित्तए णण्णस्थ एगाए धाउरताए) अनेक प्रकार यामपाएण या मट्टियापारण पा) तूंडी, सानु। अनेदु ४भ - RAI भाटीनु पात्र गाणे २ ४ल्पित छ (अययधणाणि जाव बहुमुल्कानि धारितए तेसिं ण परिप्वायगाणं णो कप्पह) या ना मना त पात्र, ત્રના બધનથી યુક્ત પાત્ર, તાબાના બ ધનથી યુક્તપાત્ર, જસતના ધનથી त पात्र, सीसाना नयी युत, पान, शाहीना मयनयात , સુવર્ણના બ ધનથી યુક્તપાત્ર તથા બીજી પણ બહુમૂલ્ય (કીમતી) ધાતુના બાપનથી सात पात्र साधुआन भाट वियत पता नयी (तेमिण परिवायगाण जो कापर, पाणागिह-पप्पराग-रत्ताइ वत्माइ धारित्तए, णणत्म एगाए भाउरत्तार) Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषषिणो-टोका स १९ अम्बडपरिव्राजकाचारवर्णनम् परिवायगाणं णो कप्पड अगलुएण वा चंदणेण वा कुंकुमेण वा गायं अणुलिंपित्तए, णण्णत्थ एकाए गंगामट्टियाए । सू० १८॥ मृलम्-तेसि णं परिव्वायगाणं कप्पड़ मागहए पत्थए 'तेसिं ण परिवायगाण णो कप्पा-अगलुएण वा चदणेण वा कुकुमेण वा गाय अणुलिपित्तए गतेपा गल पग्निाजकाना नो कल्पतेऽगरणा वा चन्दनेन वा कुकुमेन वा गारमनुलेप्तुम्-सुगन्धितान्येण गानाऽनुलेपन सन्यासिना न क पते इत्यर्थ , 'गण्णत्य एकाए गगामट्टियाए 'नाऽन्यत्रैकस्या गगामृत्तिकाया -एका गङ्गामृत्तिका वर्जयित्वाऽय निषेध इत्यर्थ ॥ मू० १८॥ टीका-तेसिंण' इत्यादि । 'तेसिं ण' तेषा खल 'परिवायगाणं कप्पइ मागहए पत्थए जलस्स पडिग्गाहित्तए' परिवाजकाना कल्पते मागध प्रस्थ जल्स्य परिग्रहीतुम् , प्रस्य परिमाणविशेष , तथाहि-'दो असईओ पसई, दोहिं पसईहिं उनके लिये पहिरना अपर्जित है। (तेसिं ण परिवायगाण णो कप्पइ अगलुएण वा चदणेण वा कुकुमेण वा गाय अणुलिपित्तएं णण्णत्व एकाए गगामटियाए) तथा उन परिवाजकों के लिये अगुरु से, चंदन एवं कुकुम से शरीर पर लेप करना भी निषिद्ध है। सिर्फ यदि वे लेप करना चाहे तो एक मात्र गगा की मिट्टी का लेप कर सकते हैं ।। स १८॥ 'तेसिंण' इत्यादि । (तेसिं णं परिवायगाण) उन प्रत्येक परिवाजकों को अपने उपयोग में लाने __ के वास्ते (मागहए पत्थए जलस्स पडिग्गाहित्तए कप्पइ) केवल मगधदेश-प्रचलित प्रस्थप्रमाणमान जल लेना कल्पता है । प्रस्थ एक माप का नाम है। कहा भी है-दो चदणेण या कुकुमेण वा गाय अणुलिंपित्तए णण्णत्थ एक्काए गगामट्टियाए) तथा ते પરિવ્રાજકેને માટે અગુરુથી, ચદનથી તેમજ કકથી શરીર પર લેપ કરે પણ નિષિદ્ધ છે જે તે લેપ કરવા ચાહે તે એકમાત્ર ગગાની માટીને લેપ ४श श छ (सू १८) __ "तेसिं ण" त्यादि (तसिं णपरिवायगाण) ते प्रत्ये४ परिवाशी ताना पयोगमा देवा भाटे (मागहए पत्थए जलस्स पडिग्गाहित्तए कप्पइ) मगध देशमा प्रयલિત પ્રસ્થપ્રમાણુમાત્ર જલ લેવુ કપે છે “પ્રસ્થ” એક માપનું નામ છે Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५३ तुडियाणि वा अंगयाणि वा केऊराणि वा कुंडलाणि या मड वा चूलामणिवा पिणद्धित्तए,णण्णत्थ एगेणं तंविएणं पविवरण तेसिं णं परिवायगागं णो कप्पइगंथिमवेतिमपरिमसघाइयो। चउठिवहे मल्ले धारित्तए, णपणत्थ एगेणं कण्णपरेणं। तेसि णं त्रुटिफानि वा, अगदानि केयूरान् वा, कुण्डानि वा, 'मुकुट वा, चुडामणि वा पिनदुम्, हारादीनि तेपा परिवाजकाना : न कल्पन्ते परिघातुमित्यर्थः । 'णणत्याएगेगं तंविएवं पवित्तएण' नाऽन्यत्रैकस्मात्तानमयात्पवित्रकात्-ताम्रमयमङ्गलोयक पवित्रकनामक तु तेषा । परिधतुं कल्पत इति भाव । 'तेसिं परिचायगाण, णो कप्पड़ मथिम-वेटिम पूरिम-सघाइमे चउबिहे मल्ले धारित्तए' तेपा खलु परिवाजकाना नो कल्पन्ते प्रन्थिमवेष्टिम-परिम-समातिमानि चतुर्विधानि मान्यानि धारयितुम्-प्रन्थेन पन्थनेन निवृत्त निर्मित मालारूप प्रन्थिमम् ; वेष्टेन वेष्टनेन निर्वृत्त वेष्टिमम्, , पूरिम-पूरणेन - निर्वृत्तम्, सघातेन निर्वृत्त सङ्घातिमम् , एतानि चतुर्विधानि माल्यानि धारयितु न कल्पन्ते इत्यर्थ , गण्यस्थ एगेण कण्णपूरेण' नान्यत्रैकस्मात्कर्णपूरकात्-एक पुष्पमय कर्णपूर तेषा न निषिद्धमिति भाव । रण विशेष हैं), प्रालय, तीन लरका हार, कटिसूत्र, दशमुद्रिकाएँ, कटक, त्रुटिक-बाजूबध, अगद, केयूर, कुडल, मुकुट, चूडामणि, इनका पहिरना भी इन साधुओं को कल्पता नहाहै। एक ताबे की अंगूठी ही इन्हे हाथ की अगुली में धारण करना कल्पता है। ('तेसि ण परिवायगाण णो कप्पइ गथिम-वेढिम-पूरिम-सघाइमे चउबिहे मले धारित्तए, णण्णत्थ एगेण कण्णपूरेण ) इन परिवाजकों को गूथ 'कर बनाई गई, वेष्टित" कर बनाई गई, एवं परस्पर दो पलों को सयुक्त करके बनाई गई, ऐसी चार प्रकार की' मालाओं का पहिरना भी कल्पता नहीं है। एक पुष्पों का रचित कर्णफूल ही कान में ७२, ४टिसूत्र, श मुद्रिाय। (वास), ४८४, ४ि- माधम २, " ક ડલ, મુકુટ, ચૂડામણિ, એ પહેરવુ પણ આ સાધુઓને કલ્પતુ નથી એક तामान ही तो पायमाजीभाधारण ४२वी ४८पछि (तसिं ण परिवायगाण णो कप्पइ-गथिम-वेढिम-पूरिम-सघाइमे पबिहे। मल्ले धारितए । णण्णय एगेण कण्णपूरेण) मा परिमाने सुथाने मनावती, वेष्टित ४शन मना । વેલી. સ ચા ઉપર પૂરીને બનાવેલી તેમજ પરસ્પર બે યુનેને જોડીને બના “ તેથી એવી ચાર પ્રકારની માલાઓ પહેરવી કપતી નથી. સિફ પુષ્પોનું એક 1 भने ४६पनीय छ (तसिं ण परिग्यायगाण णो कप्पा अनलुएणमा Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८८ पीयूषपषिणो-टो। स १९ अम्बडपरिव्राजकाचारवर्णनम चेव णं अपरिपए, से वि य णं दिण्णे णा चेव णं अदिपणे, से वि य पिवित्तए, णो चेव णं हत्थ-पाय-चरु-चमस-पक्वालणटाए सिणाइत्तए वा। तेसिं णं परिव्वायगाणं कप्पड मागहए स्वच्छ कल्पते, नो चैव सल अबहुप्रसन्नम् , ' से रिय परिपूर णो चेाण अपरिपूए' नदपि च जल परिपूत प्रवेण गालित कल्पते, नो चैत्र खन्वपम्पृितम् , ‘से मि य ण दिण्णे णो चेत्रण अदिण्णे' तटपि च पल रत्त कपते, न चैत्र खच्चदत्तम्, ‘से वि यपिपित्तए पोचेवण हत्य-पाय-चरु-चमस-परखालणढाए सिणाटत्तए वा तदपि च पातु कल्पते नोचैर सलहरतपादचरचमसप्रक्षालनार्यम, तन-हस्ती पाटौ च प्रसिद्धौ।चर = अन्नपात्र, यस्मिन् भिक्षान स्थाप्यते । चमसो-दर्विका-परिवेपणपात्र 'चमचा' इति प्रसिद्धम् , है, अतिनिर्मल नहीं होन पर ग्राह्य नहीं हो सकता । (से वि य परिपए णो चेव ण अपरिपूए) अतिनिर्मल होने पर भी वन से छाना जाने पर ही कल्पित कहा गया है, अनग्ना पानी अपने उपयोग में लाने का निषेध है । (से नि य ण दिण्णे णो चेवण अदिण्णे) छना हुआ होने पर भी किसी दाता के द्वारा दिया गया ही ग्रहण करने के योग्य कहा है, विना दिया हुआ नहीं। (से वि य पिवित्तए णो चेव हत्य-पाय-चरुचमस-पकग्वालणद्राए) दिया गया भी जल का उपयोग केवल पीने के लिये ही करने की आजा है, हाथ-पैर, चरु-भाजन पान एप चमचा धोने के लिये उसका उपयोग पिहित नहीं है, अर्थात हाथ पैर आदि धोने के काम मे उसको नहीं ला सकते, (सिणारत्तए वा) अबहुप्पसण्णे) -२ डापा छत ५४Y सतिनि डाय तर ग्राह्य २४ श छ, गतिनिर्भण न य तो बाह य शतु नथी (से वि य परिपूए णो चे ण अपरिपूए) मतिनिर्भज डावा छत पर पथी कामे હોય તે જ કલ્પિત કહેલુ છે વગર ળાયેલું પાણી પિતાના ઉપયોગમાં पानु निषिद्ध छ (से वि य ण दिण्णे णो चेन ण अदिण्णे) गाणे हाय છતા પણ કોઈ દાતા દ્વારા અપાએલુ જ ગ્રહણ કરવા યોગ્ય કહેવામાં આવ્યું छ, पर सीधेयु नहि (से वि य पिपित्तए णो चेन हत्य-पाय-चन-चमस-पस्सालणटाए) माघेदुखाय तवा सन। उपयोग पर पीवा माटे ४ ४२વાની આજ્ઞા છે, હાથ–પગ, ચરૂ–જન પાત્ર, તેમજ ચમચા ધોવા માટે તેને ઉપયોગ કરે વિહિત નથી, અર્થાત્ હાથ પગ આદિ દેવાના કામમાં तन 6पयोगीजाय नडि (मिणाइत्तए वा) तमन तना हयाग नान Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसने - - जलस्स पडिग्गाहित्तए, से वि य वहमाणे णो चेव णं अवहमाणे, से वि य थिमिओदए णो चेव णं करमोदए, से वि य वहुप्पसण्णे, णो चेव णं अवहप्पसपणे, से वि य परिपूए णो सेइया होइ। चउसेइओ उ कुलो चउकुलओ पत्यो होइ ॥१॥ चउपत्यमाहय तह चत्तारि य आढया भवे दोणो।' गया-द्वे असती प्रसूति , सान्या प्रसूतिम्या सेतिका भवति । चतुप्सेतिकस्तु कुलवश्चतुष्कुलय प्रस्थो भवति ॥ १॥ चतुष्प्रस्थमाढक तथा चत्वारि आढकानि भवेद् द्रोण ॥ इति । मागधप्रस्थपरिमित जल सन्यासिना परिग्रहीतुं कल्पते इत्यर्थ । ' से वि य वहमाणे णो चेव ण हमाणे' तदपि च जल वहमाननद्यादिस्रोतोवर्ति व्याप्रियमाण वा परिग्रहीतु कन्पते, नो चैवाऽवहमानम्। 'से वि य थिमिओदए णो चेव ण कदमोदए ' तदपि च स्तिमितोदकं नो चैव सल कर्दमोदकम् , स्तिमितोदक-पकसम्पर्करहित कल्पते, यत्र तु कर्दमसम्पर्कोऽस्ति तनल न कल्पते-इत्यर्थे , से वि य बहुप्पसण्णे णो चेव णं अबहुप्पसण्णे' तदपि च जल बहुप्रसन्नम्:-अतिअसती की एक प्रसूति होती है। दो प्रसृति की एक सेतिका, चार सेतिफाओं का एक कुलव और चार कुलवों का एक प्रस्थ होता है। यह पहिले समय में काष्ठ का बनता था। चार प्रस्थों का एक आढक और चार आढका का एक द्रोण होता है। इनके लिये प्रस्थप्रमाण जल उपयोग मे लेने का विधान किया गया है (से वि य वहमाणे णो चेव ण अवहमाणे) वह भी वहती हुई नदी आदि का होना चाहिए, बिना बहता हुआ जल लेना उहें निपिद्ध है। (से वि थिमिओदए णो चेव ण कद्दमोदए ) वह भी यदि स्वच्छ हो तर ही ग्रहण करने योग्य कहा गया है, कर्दम से मिश्रित नहीं। (से वि य बहुप्पसण्णे णो चेव ण अबहुप्पसण्णे) स्वच्छ होने पर भी निर्मल हो तब ही ग्राह्य हो सकता કહ્યું પણ છે–એ અસતીની એક-પ્રસૂતિ થાય છે બે પ્રકૃતિની એક સેતિકા, ચાર સેતિકાઓને એક કુલવ અને ચાર કુલવને એક પ્રસ્થ થાય છે આ અગાઉના સમયમાં લાકડાને બનતે હો ચાર પ્રસ્થાને એક આઢક અને ચાર આઢને એક દ્રોણું થાય છે પ્રસ્વપ્રમાણુ જલના ઉપગનુ વિધાન रख (से वि य वहमाणे णो चेव ण अग्रहमाणे) om पडती नदी हिना , पिना पहेतु १६ देतेभने निषिद्ध छ (से वि य थिमिओदए णो चेत्र ण कद्दमोदर) ते ५९ ले २१२७ सय त अडए ४२१॥ सोय उडा छ, भयी मिश्रित नडि (से वि य बहुप्पसणे णो चेव गं Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयपपिणी-टोका स 20 अभ्यढपरिमाजकाना देवलोकस्थितिवर्णनम् ५५७ मूलम्-ते णं परिव्वायगा एयास्वेणं विहारेणं विहरमाणा यह वासाई परियाय पाउणंति, पाउणित्ता कालमासे कालं किच्चा उकोसेणं वंभलोए कप्पे देवत्ताए उववत्तारोभवति। टीका-'तेणं परिवायगा' इत्यादि । 'ते ण परिलायगा' ते सल पग्निानका 'एयास्वेणं विहारेण विहरमाणा' तद्रूपण-उतरूपेण विहारेण विहरत , 'चा वासाइ परियाय पाउणति' वहनि वर्षाणि पयाय पालयन्ति, 'पाउणित्ता कालमासे कालं रिचा' पालयि वा कालमासे काल कृया 'उकोसेण वमलोए कप्पे देवत्ताए उपवत्तारो भवति ' उनोगेन जसलोके पे देव वेनोपपत्तारो भवन्ति, 'तहि इस निमित्त प्राप्त किये गये जल को पान अथवा स्नान के काम में लाने का निषेध है । मू १९॥ ___.. 'ते ण परिवायगा' इत्यादि । . (ते णं परिव्वायगा) ये परिव्राजक (एयारवेण विहारेण विहरमाणा) इस प्रकार क विहार से विचरण करते हुए अर्थात् इस प्रकार की परिस्थिति में रहते हुए (पहइ पासाह परियाय पाउणति) अपने जीवन के बहुत वपों को इसी पर्याय का पालन करते २ जन व्यतीत करते है, तब (कालमामे काल किया) कालमास के उपस्थित होने पर मर कर वे (उकोसेण)ज्यादा से ज्यादा (वंभलाए कप्पे देवत्ताए उपवत्तारो भवति) ब्रह्मलोक नामक पचमरप में देवता की पर्याय से उत्पन्न हो जाते हैं। (तहि तेसिं गई तहि तेसि ठिड) वही पर उनको गति पर वहीं पर उनकी स्थिति शास्त्रों में वर्णित की ચલ જલને પીવા અથવા સ્નાન કરવાના કામમાં લેવાને નિષેધ છે (સૂ ૧૯) __" ते ण परिख्यायगा" त्या (ते ण पग्व्यिायगा) में रिमा (ज्याम्चेण निहारेण शिहरमाणा) मा પ્રકારના વિહારથી વિચરણ કરતા કરતા, અર્થાત્આ પ્રકારની પરિસ્થિતિમાં २४ता (बहइ वामाइ परियाय पाउणति) पाताना अपना घरी परमाने से पर्यायना पासना व्यतीत ४२ छ त्यारे (कालमासे काल किन्चा) मqभरे ४३ण हरीने तेमा (उक्कोसेण) वधारेभा पधारे (भलोए फापे देवत्ताए उप यत्तागे भवति) galas नामना पायमा ४६५मा देवतानी पर्यायथी Gaya गय छ, (तहिं तेमि गई तहि तेसिं ठिई) त्या तभनी गति तेभर त्या Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५६ औषपातिकस आढए जलस्स पडिग्गाहित्तए, से वि य वहमाणे णो चेव ण अवहमाणे, जाव णं अदिष्णे, सेविय हत्थपायचरुचमसपक्खालणट्टयाए, णो चेव णं पिचित्तए सिणाइत्तए वा ॥ सू० १९ ॥ एतेषा प्रक्षालनार्थं स्नातु वा न कन्पते इति । 'तेसि ण परिव्नायगाण कप्पड मागहए आइए जस्स पडिग्गाहित्तए ' तेषा खलु परिमाजकाना कल्पते मागधमाढकं जलस्य परिग्रहीतुम्, ' से वि य वहमाणे णो चेव णं अवहमाणे जात्र ण अदिण्णे ' तदपि च वहमान नो चैव खच्चवहमान यावरखलु अदत्तम् यावच्छब्दात्कर्दमरहित, स्वच्छ, वस्त्रगाल्ति च 1 कल्पते, अवहमानादिक तु न कन्पते इति बोध्यम् । ' से जिय हत्थ - पाय चरु - चमस - पक्खालणट्टयाए ' तदपि च हस्त-पाद- चरु - चमस - प्रक्षालनार्थम्, 'जो चेत्र ण पिवित्तर सिणाइत्तए वा' नो चैव खलु पातु स्नातु वा ॥ सू० १९ ॥ और न उसका उपयोग स्नान करने में ही किया जाता है। इसी प्रकार ( तेसिं ण परिवायगाण कप्पइ मागहए आढए जलरस पडिग्गाहित्तए से वि य वहमाणे णो वेव अत्रहमाणे जाव णं अदिण्णे, से विय हत्थ-पाय- चरु- चमस - पक्खालणयाए, णो चेवण पिचिए सिणाइत्तए वा ) इन साधुओं के लिये मगधदेशीय प्रस्थ प्रमाणमात्र जल ही हाथ, पैर, पात्र, चम्मच आदि धोने के लिये ग्राह्य बतलाया गया है। वह भी बहता हुआ ही होना चाहिये - स्थिर नहीं । उसमें भी वह अतिस्वच्छ, एव वस्त्र से छना हुआ तथा दाता के द्वारा दिया गया होना चाहिये, इससे भिन्न नहीं। ऐसा जल ही हस्त, पाद, चरु एव चमचा के धोने के काम में आ सकता है, अन्यथा नहीं । अत જલ જ वामा परी साय नहि मे प्रारे (तेसिं ण परिव्यायगाण कप्पइ भाग हुए आढए जलरस पडिग्गाहित्तए से न य वहमाणे णो चैव ण अग्रहमाणे जान अदि से वियहत्थ - पाय - चरु - चमस - पम्सालणटुयाए णो चैव ण पिवित्तए सिणाइत्तर वा ) मा साधुमोने भाटे भगधदेशीय अस्थप्रभाणु भात्र હાથ પગ પાત્ર ચમચા આદિ ાવાને માટે ગ્રાહ્ય બતાવવામા આવ્યુ છે તે પશુ વહેતુ હાય તે જ હાવુ જોઇએ, ન વહેતુ હોય તે નહિ તેમા પશુ તે અતિસ્વચ્છ તેમજ વસ્ત્રથી ગાળેલુ તથા દાતા દ્વારા અપાએલુ હોવુ ોઈએ, તેનાથી બીજી નહિં એવુ જલજ હાથ, પગ, ચરૂ તેમજ ચમચાને ધાવાના ફામમા આવી શકે છે, બીજી નહિ . આમ એ નિમિત્તે પ્રાપ્ત કરા Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषषिणी-टीका स २१ अम्बडपरिग्राजशिष्यषिधार पुरिमतालं णयर संपट्टिया विहाराए ॥ सू० २१ ॥ मूलम्-तए णं तेसिं परिवायगाणं तीसे अगामियाए छिण्णोवायाए दीहमडाए अडवीए कंचि देसंतरमणुपत्ताणं कूलेण' गगाया महानया उभयत कुन-उभयतटाम्याम , 'कपिपुरानो णयरामो पुरिमवाल णयर मद्विया विहाराए' काम्पियपुगगग युग्मिनालं नगर नास्थिता रिहाराय-विहर्तुम् ॥ मू० २१॥ टीका-'तए ण' दयादि । 'तए थे' तत सर तसि परिवायगाणं' तेपा परिव्राजकानाम् , 'तीसे अगामियाए ' तम्या अमामिझाया ग्रामसम्बन्धरहितायाप्रागारवर्तिया इत्यर्थ , 'छिन्नोवायाए' ग्निावपाताया जनागमनिर्गमरहिताया - निर्गनाया इत्यर्थ , 'दीमद्धाए' घडवाया दीर्घमागाया -प्रा तास्थिताया इत्यर्थ 'अडवीए' अटच्या =रनत्य 'कंचि देसतरमणुपत्ताण' किञ्चिदेशान्तग्मनुप्राप्तानाम= महाईए उभी कलेण) गगा नदी के दोनों तटों से होकर, (कपिटपुराओ गयराओं पुस्मितालणयर सपट्ठिया) कापिन्यपुर नगर से पुरिमताल नगर की ओर बिहार के लिये निस्ले ।। सू० २१ ॥ 'तए ण' इत्यादि। (तए ण) इसके बाद (तेमि परिवायगाणं) उन परिवाजका का (तीसे अंगामियाए अडवीए) जन कि वे चलते २ एक भयर अटवी में आ पहुँचे, जो ग्राम के मम्बध से सर्वथा रहित थी--ग्राम से बहुत दूर थी, (डिन्नोवायाए) इसलिये यहा पर मनुप्यो का सचार बिलकुल ही नहीं था, अथात् वह अटवी निर्जन थी, (टीहमद्धाप) रास्ते इसके बडे निकट थे, (कचि देसतरमणुप्पत्ताण) इसका थोडा सा ही भाग इन्होंने तय कर पाया ७५२ यधने (कपिल्लपुराओ जयराओ पुरिमताल्णयर सपद्विया) पिक्ष्यपुर નગરથી પરિમતાલ નગરની તરફ વિહાર માટે નીકળ્યા (સૂ ૨૧) "तए ण" त्यादि (तए ण) त्यार पछी (तसिं परिव्यायगाण) निद्रा, (तीसे अगामियाए अटीए) न्यारे यासता यासत लय म2वी (वन)मा मापी પહોચ્યા કે જે વન ગામના સબ ધરી સર્વચા રહિત હતુ–ગામથી બહુ દૂર *तु (छिनोवायाए) तथा मही मनुध्यान मया जिदादुरा र नाता गट ते पन निन तु (दीहमद्धाए) तेना २ता मा विट छता (कचि Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५८ औषपातिकसूत्र तहि तेसिं गई, तहि तेसि ठिई। दससागरोचमाई ठिई पण्णत्ता। सेस त चेव ।। सू० २०॥ । मूलम्-तेणं कालेणं तेणं समएणं अम्मडस्स परिव्यायगस्त सत्त अंतेवासिसयाई गिम्हकालसमयंसि जेट्ठामूलमासंमि गंगाए महानईए उभओकूलेणं कंपिल्लपुराओ जयराओ तेर्सि गई, तहि तेसि ठिई' तर तेपा गति , तर तेपा स्थिति । 'दस सागरोवमाड ठिई पण्णत्ता' दश सागरोपमानि स्थिति प्रज्ञाप्ता, सेस त चेत्र' शेष तदेव ॥ सू० २० ॥ टीका-तेणे कालेण तेण समएण' इत्यादि । तेण कालेण समएणं' तस्मिन् काले तस्मिन् समये 'अम्मडस्स परिवायगस्स सत्त अतेवासिसयाई' अम्बडस्य परिवाजकस्य समान्तेवासिगतानि सप्तशतमायका अन्तेवामिन-शिष्या । 'गिम्हकालसमयसि जेट्ठामूलमासमि' ग्रीष्मकालसमये ज्येष्ठामूलमासे-ज्येष्ठानक्षत्रे मूलनक्षत्रे वा पूर्णिमा यस्मिन् तस्मिन् , ज्येष्ठमासे इत्यर्थ । 'गगाए महाणईए उभओंगई है। इस स्थिति का प्रमाण (दस सागरोवमाइ) चहा १० दस सागर है, (सेस त चेव) यावत् ये आराधक नहीं होते है | सू० २०॥ 'तेणं कालेण तेण समएण' इत्यादि। . (तेण कालेण समएण) उम काल में एव उस समय में (अम्मडस्स परिवायगस्स) अम्बद नामक परिव्राजक (न्यासी) के (सत्त अतेवासिसयाइ) सात सौ शिष्य (गिम्हकालसमयसि) ग्राम काल के समय (जेद्रामलमासमि)ज्येष्ठ मास में (गगाए मनी स्थिति सोभा पन ४२सी छे २ स्थितिनु प्रभात (दस सागगेवमाइ) त्या १० ६म भानु छ (सेस त चेत्र) यावत तेमा राघ3 डता नथी (सू २०) " तेण कालेण तेण समएण" त्यात , (तेण कालेण तेण ममएण) ते मा भारत समयमा (अम्मडस्स परिवायगस्स) 243 नाभना परिवार (सन्यासी)ना (सत्त अतेवासिस. सथाइ) सातसे शिष्य (गिम्हकालसमयसि) श्रीभ जना समयमा (जेवामूलमा समि) २४ महिनामा (गगाए महाणईए उमओ कूलेण) मानहाना बन्ने तर Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पपिषिणी-टोका र २४ अम्बडपरिनाशक शिष्य विहार ५६१ मूलम्-एवं खल्लु देवाणुप्पिया! अम्हं इमीसे अगामियाए जाव अडवीए कंचि देसंतरमणुपत्ताणं से उदए जाव मीणे, तं सेयं खल देवाणप्पिया। अम्हं इमीसे अगामियाए टीका-~~ते परिमाजका परस्पर यदवादिपुस्तनिर्दिशति--' एवं खलु देवाणुप्पिया' इत्यादि । 'एर सलु देवाणुप्पिया व गलु हे देवानुप्रिया ! 'अम्हं उमाले अगामिाए जाय अडीए' अस्माकमाया अग्रामिकाया यावदटव्या , 'कचिदेसतरमणुपत्ताण में उदए जाप झीणे' किश्चिद्देशान्तरमनुप्राप्ताना तत् उदकं यावत् क्षीणम्, 'त लेय ग्वलु देवाणुप्पिया' तत्-नस्मात् श्रेय खलु हे देवानुप्रिया ? । 'अम्ह हमीस अगागियाए जार अडीए अस्गाकमस्याममामिझाया यावदटव्याम्, नहीं देखकर, (अण्णमण्ण महाति) परस्पर में एक दूसरे का आह्वान करने लगे, (सधा. वित्ता एवं पयासी) और आहान करके इस प्रकार बोले । सू० २३॥ एवं सलु देशपिया!' इत्यादि । __(एव ग्यलु देवाणुप्पिया!) हे देवानुप्रियो । यह बात बिलकुल ठीक है कि (मम्द इमीसे आगामियाए जाप अडपीए कंचिदेसतरमणुपत्ताण से उदए जाव झीणे) हम लोगों का, इस अग्रागिक अटवी मे कि अभी जिसे थोड़ी ही तय की है, वह अपने २ स्थान से लाया हुआ जल अप समास हो चुका है, (त सेय खलु देवाणुप्पिया! अम्ह इमीसे अगामियाए जार अडवीए उद्गदायारस्स सपओ समंता भग्गणगवेसणं करित्तए) ऐसी हालत में हमारे-तुम्हारे लिये यही एक कल्याणकारक मार्ग है कि हम इस अप्रामिक एवं निर्जन अटवी में सर्व प्रकार से चारों ओर किसी जलमासा साया, (सदायित्ता एव क्यासी) मन मादायी मा प्रारे ४१ साया (१० २३) "एव सलु देवाणुप्पिया । " इत्यादि (एव सलु देवाणुप्पिया 1) पानुप्रिया से बात मिaye As छ 3 (अम्ह इमीले अगामियाए जाव अडवीए कचि देसनरमणुपत्ताण से उदए जाय झीणे) २५ मा पनमा या २ यासीन माध्या छी, अने भी જરાક જ રેતાયા છીએ, ત્યાં તે પિતાના સ્થાનેથી લાવેલ પાણું સમાપ્ત 25 गयु (त सेय सलु देवाणुपिया । अम्ह इमीसे अगामियाए जाच अडवीए उदगदायारस्म मपओ समता मग्गणगवेसण करित्तए) की हालतमा समास Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भापपातिकको - से पुव्वग्गहिए उदए अणुपुव्वेणं परिभुंजमाणे झीणे ।। सू० २२॥ मूलम्-तए णं ते परिष्वायगा झीणोदगा समाणा तपहाए पारव्भमाणा २ उदगदायारमपस्समाणा अण्णमण्ण सद्दावेति, सदावित्ता एवं वयासी ॥ सू० २३ ॥ कचित् प्रदेशमागताना 'से' तत् 'पुबग्गहिए' पूर्वगृहीतम् 'उदए' उदकम् 'अणुव्पुवेण' आनुपूर्येग 'परिभुजमाणे' परिमुग्यमान 'झीणे' क्षीगक्षय प्राप्तम् ।। सू० २२॥ टीका-'तए ण ते परिवाया' इत्यादि । 'तए णं ते परिवाया' तत खल ते परिवाजका 'झीणोदगा समाणा' क्षीणोठका सन्त , 'तण्हाए' तणयापिपासया, 'पारम्भमाणा २' प्रारभ्यमाणा २=पीड्यमाना २-ज्याकुलीभवन्त , व्याकुलीभावेहे तुगर्भविशेषणमाह-'उदगदायारमपस्समाणा' उदक्दातारमपश्यन्त , तेषामदत्ताग्राहित्वादिति भाव , 'अण्णमण्णं सदाति' अन्योऽन्य शब्दयन्ति-परस्परमाहयन्ति, शब्दयित्वा आहूय 'एव वयासी' एवमवादिपु -एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण वदन्ति स्म ॥ सू० २३ ॥ था कि इतने में (से पुबग्गहिए उदए अणुपुन्वेण परिभुजमाणे झीणे) चलते समय अपने स्थान से लाया हुआ जल क्रमश पीते २ खतम हो गया ॥ सू० २२ ॥ 'तए ण से परिवाया' इत्यादि । (तए ण) इस के बाद (ते परिवाया झीगोदगा समाणा) वे परित्राजक कि जिनका पानी बिलकुल समाप्त हो चुका है, (तहाए पारब्भमाणा २) पुन तृषा से अत्यंत पोडित-व्याकुल होते हुए (उदगदायारमपस्समाणा) उस समय किसी पानी दाता का देसतरमणुपत्ताण) तेना थोडी ला तसा यात्या सरसामा (से पुव्वाहिए उदए अणुपुव्वेण परिभुजमाणे झीणे) यासती पते पोताना २थानथा લાવેલ જલ હળવે હળવે પીતા પીતા પૂરૂ થઈ ગયુ (સૂ ૨૨) "तए ण ते परिव्वाया" त्यादि । (तए ण) त्यार पछी त परियाया झीगोदगा समाणा) त परिवार भना पाणी मिस सभात यई यूट्या छे, (तण्हाए पारममाणा २) ते। तरसथी गई पीडित-व्यात यधने (उदगदायारमपरसमाणा) ते सभयेई पाना हाताने न नेपाथी (अण्णमण्ण सद्दावेंति) ५२२५२ मे मीनने Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषपिणी-टोका सू २५ अभ्यडपरियाज रुशिष्यविहार. ५६३ मलभमाणा दोचंपि अण्णमण्णं सहावेति, सद्दावित्ता एवं वयासी ॥ सू० २४ ॥ मूलम् - इह णं देवाणुप्पिया । उदगदातारो णत्थि, तं णो खलु कप्पड़ अम्ह अदिष्णं गिव्हित्तए, अदिष्णं साइअणमण सावेंति' द्वितीयमपि द्वितीयवारमपि अन्योऽन्य शब्दयन्ति, 'सद्दावित्ता ' शब्दयित्वा 'एव वयासी ' एवमवादिषु ॥ सू० २४ ॥ टीका--' इह ण देवाणुप्पिया !' इत्यादि । ' इह णं देवाणुप्पिया । इह सल हे देवानुप्रिया । ' उदगदातारो णत्थि ' उदकवतारो न सन्ति । 'त णो खलु atus अम्ह अदिष्ण गिण्डित्तए ' तत् तस्मात् नो सलु कन्पतेऽस्माकमदत्तम् उदक ग्रहीतुम्, 'अदिष्ण साइनित्तए ' अदत्तम् उदफ स्वादयितु पातुम्, 'त माण अम्हे इयाणि ' तन्मा खलु वयमिदानीम्, 'आवकालपि' आयतिकालमपि आगामिनि भी पानी का दाता नहीं मिला तब उन्होंने द्वितीयवार भी परस्पर में एक-दूसरे का आह्वान किया, और आह्नान करके इस प्रकार बोले | सू० २४ ॥ 'इह देवाणुप्पिया' इत्यादि । (as i देवाणुप्पिया ! उदगदायारो णत्थि ) हे देवानुप्रियों । प्रथम तो इस अटनी में एक भी उदकदातार नहीं है, (तं णो खलु कप्पड़ अम्द अदिण्णं गिन्दित्तए) दूसरे - हम लोगों को अदत्त जल ग्रहण करना उचित नहीं है, (अदिष्णं साइजित्तए) कारण कि अदत्त जल का पान करना हम लोगों की मर्यादा से सर्वथा विरुद्ध है । (त मा aasari पि अदिष्ण गिण्हामो अदिष्णं साइजामो माण દાતાર મળ્યા નહિ ત્યારે તેઓએ બીજી વાર પણ પરસ્પર એકબીજાને એલાવ્યા, ખેલાવીને આ પ્રકારે કહેવા લાગ્યા (સ્૦ ૨૪) 66 इह ण देवाणुपिया " इत्यादि ( इह ण देवाणुप्पिया ) हे देवानुप्रियो ! प्रथम तो सा सटवीमा शेय पाथीना हातार नथी, ( त णो सलु nous अम्ह अदिण्णं गिण्डित्तए) जीन्नु આપણુને અદત્ત श्रयु ४२५ उचित नथी ( अदिण्ण साइन्नित्तए) કારણુ કે અદત્ત જલને પીવુ તે આપણી મર્યાદાથી સથા વિરુદ્ધ છે ( त माण अम्हे इयाणि आवइकालपि अदिष्ण गिण्हामो अदिष्ण साइज्जामो मा Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६५ औपणातिकात्रे जाव अडवीए उदगदायारस्स सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करित्तए-त्ति कह अण्णमण्णस्स अंतिए एयम पडिसुणेति, पडिसुणित्ता तीसे अगामियाए जाव अडवीए उदगदायारस्स सव्वओ समंता मग्गणगवेपणं करेंति, करित्ता उदगदायार'उदगदायारस्स सबओ समता मग्गणगवेसण करित्तएत्ति कटु' उदकदातु सर्वत समन्तात् मार्गणगवेषण फर्तुम् इति कृत्वा, 'अण्णमण्णस्स अंतिए एयमट्ठ पडिमुणेति' अन्योऽन्यस्य अन्तिके एतमर्थ प्रतिशृण्वन्ति स्वीकुर्वन्ति, 'पडिमुणित्ता' प्रतिश्रुय 'तीसे अगामियाए जाव अडवीए उदगदायारस्स सव्वओ समता मग्गणगवेसणं करैति' तस्याम् अग्रामिकाया यावदटव्याम् उदकटातु सर्वत समन्ताद् मार्गणगवेषण कुर्वन्ति, 'करित्ता' कृत्वा, 'उदगदायारमलभमाणा' उदकदातारम् अलममाना , 'दोचपि दाता की मार्गगा एव गवेषणा करें, (त्ति कट अण्णमण्णस्स अतिए एयमदं पडिमुणति) इस प्रकारकी की गई सलाह सबने एकमत होकर मान ली। (पडिसुणित्ता तीसे अगामियाए जाव अडवीए उदगदायारस्स सव्वओ समता मग्गणगवेसण करेंति) पश्चात् उस सलाह के अनुसार वे सब उस अग्रामिक भटवी में सर्व प्रकार से चारों ओर पानी के देने वाले दाता की गवेषणा करने मे सलग्न हो गये । (करित्ता उदगदायारमलभमाणा दोचपि अण्णमण्ण सद्दावेंति सदावित्ता एवं वयासी) गवेषणा करते २ जब उन्हें कोई , તમારા માટે એ જ એક કલ્યાણકારક માર્ગ છે કે આપણે આ અગ્રામિક તેમજ નિર્જન વનમાં સર્વ પ્રકારથી ચારે કેરે કઈ જલના દાતારની માગણી तभा ५ ४शये (त्ति कट्ट अण्णमण्णस्स अतिए एयमट्ठ पडिसुणेति) मा ४२. ४२सी ससा पयामे मत ने भानी सीधी पछी (पडि सुणित्ता तीसे अगामियाए जाव अडवीए उदगदायारस्स सव्वओ समता मग्गण गवसण करेंति) ते सखाइने मनुसरीने ते मा त समाभित मटणी (वन)मा સર્વ પ્રકારથી ચારે કોર પાણી દેવાવાળા દાતારની શોધ કરવામાં સ લગ્ન या गया (करित्ता उद्गदायारमलभमाणा दोच्चपि अण्णमण्ण सद्दावेंति सदापिता एव वयासी) ध' ४२ता ४२ता पर तमने न्यारे आई पछु पापीना Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोपविणो-टीका स् १५ अम्नदपरिमाजय शिष्याणा सस्तारयग्रहणम् ६८० णियाओ य, करोडियाओ य, भिसियाओ य, कृष्णालए य, अंकुस य, केसरियाओ च, पवित्त य, गणेत्तियाओ य, छत्तए य, वाहणाओ य, पाउयाओ य, धाउरताओ य एगंते एडित्ता, गंगं महाणडं ओगाहित्ता. बालयासंथारए संथरिता, संलेहणा य' करोटिकाथ मृण्मयभाजन विशेषान 'भिसियाओ य' वृपिकाच= उपवेशनपट्टिका, " 'छष्णालए य' पण्णादिकानि च=निकाष्टिका, ' अंकुसए य ' अङ्कुशकाथ = आकपणिका - वृक्षपट्टयाचाणसाधनविशेषान् देवार्चने पत्रपुष्पफलाना मग्रहार्थमयुगका उपयुज्यन्ते, 'केमरियाओ य ' केशरिकाथ प्रमार्जनार्थानि वखराण्डानि, 'पविचए य ' पवित्रकाणि= ताम्रमयमुद्रिका, 'गणेत्तियाओ य ' हस्तधार्या स्वाक्षमाला, ' गणेत्तिया ' इति हस्ताक्षमा देवीयशब्द, 'उसए य' आणि च ' वाहणाओ य उपानहथ, 'पाउयाओ य ' पादुकाश्च = काष्ठपादुका, 'वाउरताजी य' धातुरक्ताच= गैरिकोपर जिता, शाटिका = न्यासि परिधानीयवस्त्राणि, एतानि सवाणि ' एगते एडिता ' एकान्ते व्यक्त्या, 'गग महागडं ओगाहिता' गङ्गामहानदीमवगाह्य गगाया मद्दानवामननीर्य - 'बालुवासवारए सरिता' वालुकामस्तारकान् मस्तीर्य, 'सलेहाइसियाण' म्ल्सना - , मिट्टी के बने हुए पापों को, कृषिकाओं बैठने के पाटियों को, तिपाइयों को, देवों का पूजा के लिये पत्र-पुष्पादिकों के गिराने के वास्ते मदा पास में रहनेवाली छोटी सी अगिका को, केशरिका को प्रमार्जन करने के काम मे आनेवाले वस्त्र के सड़ों को, तामे की मुद्रयों को, सुमरिनियों को, छत्रों को, जूतों को, काष्ठ की पादुकाओं को एवं गैरकधातु से रक्त पहिरन की धोतियों को एकान्त में छोड़कर महानदा गंगा को पारकर (पालुयामथारए सथरिता ) उसके तट पर बालुका का मारा और उस पर માળાઓને, તટેડાએ-માટીના અનેલા પાત્ર વિશેષેને, વૃષિકાએ બેસવાના પાટલાઓને, ત્રિપાઈઓને ઘેાડીને), દેવેને ધૃત્ત નિમિત્ત પત્ર, પુષ્પ આદિ રાખવા માટે સદા પાસે રહેવાવાળી નાની ઞરખી અ શિાને, કેશરિકાઓને-પ્રમાર્જન કવાના કામમાં આવવાવાળા વજ્રના ટકાએન, તાખાની भुहरियोने, भुभरिनियोने, छत्रोने, भेडाने, लाउडानी पाहुने, તેમજ ગેરૂ ર્ ગેલા પહેરવાના ધેતિયાઓને એક ઠેકાણે રાખી દઈ ને भडानही गगाने उतरीने ( बालुयासथारण सथरिता ) तेना तट पर रेतीना Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ जित्तए, तं मा णं अम्हे इयाणि आasकालं पि अदिष्णं गिण्हामो, अदिष्णं साइजामो, मा णं अम्हं तवलोवे भविस्सर । तं सेयं खलु अहं देवाणुप्पिया ! तिदंडं, कुंडियाओ य, कंचसमयेऽपि ‘अदिष्ण गिण्हामो ' असे गृहूणीम = अमुक न स्वीकुर्म, 'जविष्ण साइनामो ' अदत्त स्वादयाम =अदत्त जल मा स्वादयाम इत्यवय, ' मा णं अम्ह तवलोवे भविस्सर' मा खल अस्माक तपोलोपो भविष्यति, अदत्तस्याग्रहणेऽनास्वादने चास्माक तपोलोपो न भविष्यतीत्यर्थ । ' त सेय खलु अम्दं देवाशुप्पिया !" तत= तस्मात् श्रेय खलु अस्माक हे देवानुप्रिया ! 'तिदडय ' जिदण्डक 'कुडियाओ य ' कुण्डिकाश्वः = कमण्डलन्, 'कचणियाओ य' कावनिकाथ = रद्राक्षमालिका, 'करोडियाओ अम्द तवलोवे भविस्स) तथा हम सब लोगों का यह भी दृढ निश्चय है कि आगामी काल में भी हम सब विना दिया हुआ जल न ग्रहण करे और न उसे पिये, क्यों कि इस प्रकार के आचरण से हमारी तपस्या का लोप हो जायगा, अंत वह भी सुरक्षित रहे इस अभिप्राय मे हममें से किसी को भी अदत्त जल ग्रहण नहीं करना चाहिये और न उसे पीना ही चाहिये। ( त सेय खलु अम्ह देवाणुप्पिया' तिदड कुडियाओ य, कचणियाओ य करोडियाओ य, भिसियाओ य, छण्णालए य, अकुसए य, केसरिया य, पवि तर य, गणेत्तियाओ य, छत्तए य, वाहणाओ य, पाउयाओ य, धाउरत्नाओ य एगते एडिता गग महानइ ओगाहिता) इसलिये हे देवानुप्रियो । अब हम सब की भलाई इसी में है कि हम सब निदण्डों को, कमण्डलुओं को, स्वाक्ष की मालामा को, करोटिकाओं अह तलवे भविस्सइ) तथा व्यायो दृढनिश्चयी डीयो ने लविण्याणभा પણ દીધેલુ ન હેાય એવુ જલ ગ્રહણ કરવું નહિં અને પીવુ નહિ, કેમકે એ પ્રકારના આચરણથી આપણી તપમ્યાને લેપ થઈ જશે માટે તે સુરક્ષિત રહે એવા અભિપ્રાયથી આપણામાના કાઈ એ પણુ અદત્ત જલ श्रद्धा न ४२५ लेहा मते भी सुन ले ( त सेय सलु अम्ह देवाप्पिया ! तिदड, कुंडियाओ य, कचणियाओ य, करोडियाओ य, केसरियाओ य, पवित य, गणेत्तियाओ य, छत्तए य, वाहणाओ य, पाउयाओ या घाउरत्ताओ य एगते एडिता गग महानइ ओगाहित्ता ) थे भाटे हे देवानुप्रियो । हुवे આપણી ભૂલાય એમા જ છે કે આપણે ત્રિકાને, હમ લુંએને, રૂાક્ષની Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोषयषिणो-टीका सु २५ अभ्यद्धपरिमाजकशि याणा मस्तारयमरणम ६५५ णियाओ य, करोडियाओ य, भिसियाओ य, उपणालए य, अंकुसए य, केसरियाओ य, पवित्तए य, गणेत्तियाओ य, छत्तए य, वाहणाओ य, पाउयाओ य, धाउरत्ताओ य एगंते एडिता, गंगं महाणड ओगाहिता, वालुयासंथारए संथरिता, संलेहणाय' कोटिकाश्च मृण्मयगाजनपियोपान्, 'भिसियानी य' वृपिकाच-पवेगनपट्टिका , 'छष्णालए य' पणालिमानि च निकाष्टिका , 'अंकुसए य' अनुगकाध-आफपणिका -वृक्षपल्लमाधाकर्पगसाधनविशेषान्, देवार्चने पत्रपुष्पफलाना मग्रहार्थमधुमका उपयुज्यन्ते, 'केसरियाओ य' केगरिकाथ-प्रमार्जनानि वनखण्डानि, 'पवित्तए य' पचित्रकाणि ताम्रमयमुद्रिका , 'गणेत्तियाओ य ' हस्तधार्या रुद्राक्षमाला , 'गणेनिया' इनि हस्तधार्यरदाक्षमालायें देशीयगन्द्र , 'छत्तए य' गाणि च 'वाहणाओ य' उपानहा, 'पाउयाओ य' पादुफाश्च काष्ठपादुना , 'याउरत्तानो य' धातुरक्ताश्च गरिकोपरनिता , शाटिका सन्यासिपरिधानीयवस्त्राणि, पतानि सर्वाणि 'एगते एडित्ता' एकान्ते त्यक्त्वा, 'गग महाणां ओगाहित्ता' गङ्गामहानदीमवगाह्य-गगाया महानद्यामयनार्य-'वालयासथारए सथरित्ता' वालुकामस्तारकान् मस्तीर्य, 'सलेहणाझसियाणं मलेखनामिट्टी के बने हुए पात्रनिशेषों को, वृषिकाओं-बैठने के पार्टियों को, तिपाइयों को, देवों की पूजा के लिये पर-पुष्पादिकों के गिराने के वास्ते सदा पास में रहनेवाली छोटी सी अकुशिका को, केशरिका को-प्रमार्जन करने के काम मे आनेवाले वस्त्र के खटों को, तामे की मुदग्यिों को, सुमरिनियों को, छत्रों को, जूतों को, काष्ठ की पादुकाओं को एत्र गरिकधातु से रक्त पहिरने की धोतियों को एकान्त में छोडकर महानढा गगा को पारकर (पालुयासथारए सथरित्ता) उसके तट पर बालुका का मयारा विथो और उस पर માળાઓને, કોટિનાઓ-માટીના બનેલા પાત્ર વિશેને, વૃષિકાઓ-બેસવાના પાટલાઓને, ત્રિયાઈઓને ઘડીને), દેવેને પૂજા નિમિત્ત પત્ર, પુષ્પ આદિ રાખવા માટે સદા પાસે રહેવાવાળી નાની સરખી અંકુશિકાને, કેશરિકાઓનેપ્રમાર્જન કરવાના કામમાં આવવાવાળા વસ્ત્રના કટકાઓને, તાબાની મુદરિઓને, સુમરિનિઓને, છોને, જેડાને, લાકડાની પાદુકાઓને, તેમજ ગેરૂ ઉગેલા પહેરવાના ધેતિયાઓને એક ઠેકાણે રાખી દઈને भानही माने तरीन (बालुयासथारण सथरित्ता) तनात २ देताना Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ औपपातिकको जित्तए, तं मा णं अम्हे इयाणि आवइकालं पि अदिण्णं गिण्हामो, अदिण्णं साइजामो, मा णं अम्हं तवलोवे भविस्सइ। तं सेयं खल्ल अम्हं देवाणुप्पिया। तिदंडं, कुंडियाओ य, कंचसमयेऽपि 'अदिण्ण गिण्डामो' अदत गृहणीम =अदत्तमुद्रफ न स्वीकुर्म , 'अदिण्ण साइजामो' अदत्त स्वादयाम =अदत्तं जल मा स्वादयाम हुरयन्वय , 'मा णं अम्ह तवलोवे भविस्सइ' मा खलु अस्मारु तपोलोपो भविष्यति, अदत्तस्यामहणेऽनास्वादने चास्माक्र तपोलोपो न भविष्यतीत्यर्थ । 'त सेय खलु जम्हं देवाणुप्पिया!' तत्= तस्मात् श्रेय खलु अस्माक है देवानुप्रिया ! 'तिदडय' निदण्डक 'कुडियाओ य' कुण्डिकाचकमण्डलन् , 'कचणियाओ य' काञ्चनिकाच रद्राक्षमालिका , 'करोडियाओं अम्हं तवलोवे भविस्सइ) तथा हम सन लोगों का यह भी दृढ निश्चय है कि आगामी काल में भी हम सब विना दिया हुआ जल न ग्रहण करे और न उसे पियें, क्यों कि इस प्रकार के आचरण से हमारी तपस्या का लोप हो जायगा, अत वह भी सुरक्षित रहे इस अभिप्राय से हममें से किसी को भी अदत्त जल ग्रहण नहीं करना चाहिये और न उसे पीना ही चाहिये। (त सेय खलु अम्ह देवाणुप्पिया तिदड कुडियाओ य, कचणियाओ य, करोडियाओ य, भिसियाओ य, छण्णालए य, अकुमए य, केसरियाओ य, पवि तए य, गणेत्तियाओ य, छत्तए य, वाहणाओ य, पाउयाओ य, धाउरत्ताओ य, एगते एडित्ता गग महानइ ओगाहित्ता) इसलिये हे देवानुप्रियो ! अब हम सन की भलाई इसी में है कि हम सब निदण्डों को, कमण्डलुओं को, रद्राक्ष की मालाओं को, करोटिकाभोंण अम्ह तवलोवे भविस्सइ) तथा मापारी दृढनिश्चयी जाये 3 भविष्यमा પણ દીધેલુ ન હોય એવું જલ ગ્રહણ કરવું નહિ અને પીવું નહિ, કેમકે એ પ્રકારના આચરણથી આપણી તપસ્યાનો લોપ થઈ જશે માટે તે સુરક્ષિત રહે એવા અભિપ્રાયથી આપણુમાના કોઈએ પણ અદત્ત જલ अडए न ४२७ मध्ये मन त पा ५ न ये (त सेय सलु अम्ह देवाणुप्पिया! तिदड, कुडियाओ य, कचणियाओ य, करोडियाओ य, केसरियाओ य, पवित्तए य, गणेत्तियाओ य, छत्तए य, वाहणाओ य, पाउयाओ य: धाउरत्ताओ य एगते एडित्ता गग महानइ ओगाहित्ता) थे भाटे हवानुप्रिय।। 8३ આપણી ભલાઈ એમાં જ છે કે આપણે ત્રિદ છેને, મ ડલુઓને, રૂદ્રાક્ષની +- - Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोयूषषिणो-टोका स १५ अम्बडपरिग्राजकशिष्याणा सस्तारमणम् ५७ सथरित्ता वाल्यासंथारयं दुरूहिति, दुरूहित्ता पुरस्थाभिमुहा संपलियंकनिसण्णा करयल जाव कहु एवं वयासी ॥ सू० २५ ॥ मूलम्-नमोत्थुणंअरहंताणं जाव सपत्ताणं, नमोत्थुण अवतीर्य 'बालुयासथारए' बारकान्तारकान 'सबरति । “स्तृणन्ति, 'सथरित्ता' सस्तीर्य ‘पाल्यासथारय' वाटका- तारक 'दुरूहिति' दृरोहन्ति आरोहन्ति, 'दुरूहित्ता' दूम्य आन्य 'पुरथिमाभिमुहा' पोग्ल्याभिमुन्या पूर्वदिड्मुसा , "सपलियफनिसण्णा' स-पर्य निपण्या --मपर्य -पद्मासन तेन निषण्णा -पद्मासनेनोपरिष्टा , 'करयल नार रह एव क्यासी' करतल यावर वामस्नकेऽञ्जलिं भृत्वा एवमवदन् । सू० २० ॥ टीका-'नमोत्यु ण इयाति। नमोत्युण अरहताण जाव सपत्ताण नमोऽस्वर्हझ्यो यावत् सम्प्राप्तेभ्य , यापच्छन्दात्-आदिकरेभ्य , तीर्थकरेघ स्वय स्वुद्धेभ्य -दत्याहानि विशेषगानि पूर्वार्धगतविंशतिमायमूत्राद वो यानि । सिद्गनिनामधेय स्थान सम्प्राप्तभ्य । हित्ता वालुआसंथारए सथरति ) उस पार कर उन लोगोंन बालुकाका मयारा विगया, (सथरित्ता वालुयासधारय दुरूहिति) निराकर उसपर वे फिर चढ गये, (दुरुहिता) चढ़कर (पुरत्याभिमुहा सपलियफनिसण्णा करयल जार कट्ट एर क्यासी) पूर्व दिगा को ओर मुंह कर पर्यहासन से बैठ गये और दोनों हाथों को जोडकर मस्तक पर लगा इस प्रकार कहने लगे । सू० २५ ॥ 'मोत्थु णं अरिहंताणं जाव सप्ताणं' इत्यादि । (णमोत्यु णं अरिहताण जाव सपत्ताण)यारत् मुक्ति प्राप्त हुए श्री अर्हतप्रभु को नमस्कार हो। (समणम्स भगवओ महावीरस्स जाव सपाविउकामस्स नमोत्थु णं) यथाय ते महानदी भाभा प्रविधि थया (ओगाहित्ता वालुआसथारए सथरति) तेने पा२ ४शन तमा भादु (श्ती) 11 Aथा। पिछया (सथरित्ता घालुयासथारय दुखहिति) छापीने सेना ५२ तमाम (दुरूहित्ता) सीने (पुरत्याभिमुहा सपलियानिसण्णा करयल जाव कह एव पयासी) पूर्व दिशानी त२५ મેઢા રાખી પર્ય આસનથી બેસી ગયા અને બને હાથ જોડીને મસ્તક ઉપર રાખીને આ પ્રકારે કહેવા લાગ્યા (સૂ ર૫) 'मोत्थु ण अरिहताण जाय संपत्ताण' त्याहि (णमोत्थु ण अरिहताण जाध सपत्ताण) भुटितने प्रात ये1 श्री मत प्रभुने नभ२२ । (समणरस भगरओ महापौरस्स जान सपाविउकामरस नमो. Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - औपपातिक झूसियाण भत्तपाणपडियाइक्खियाणं पाओवगयाणं कालं अणवकैखमाणाणं विहरित्तएत्ति कह अण्णमण्णस्स अंतिए एयमहं पडिसुणेति, पडिसुणित्ता तिदंडए य जाव एगंते एडेंति, एडित्ता गंग महाणइं ओगाहेंति, ओगाहित्ता वालुआसंथारए संथरति, जुष्टानाम् -तपसा शरीरस्य कृशीकरण मलेविना तया जुष्टाना सेविताना-युक्तानाम्, 'मत्तपाण-पडियाइक्खियाग' भक्तपान-प्रत्यारयातानाम् ' 'पाओगयाण' पादपोपगतानाम्ग्निवृक्षवनिष्पन्दतयाऽवस्थितानाम् , 'कालं अणवसमाणाण विडरित्तए त्ति कटु' काल मानवकाक्षतामरणमनिच्छता विहर्तुमिति कृया, 'अण्णमण्णस्स अंतिए एयमह पडिसऐति' अन्योऽन्यस्याऽन्तिके एतमर्थ प्रतिशृण्वन्ति-स्वीकुर्वन्ति, 'पडिमुणित्ता' प्रतिश्रुत्य 'तिदडए य जाव एगते एडेंति' निदण्डकाश्च यावत् सोंपकरणानि एकान्ते त्यजन्ति, 'गग महाणइ ओगाति' गङ्गा महानदीमवगाहन्ते अवतरन्ति, 'ओगाहित्ता' अवगाह्य(भत्तपाणपडियाइक्खियाण ) भक्तपान का प्रत्यारयान कर (पाओवगयाण) छिनवृक्ष की तरह निश्चेष्ट होते हुए (काल अणवकरखमाणाण) मरण की इच्छा से रहित होकर (सलेहणायूसियाण विहरित्तए) सलेखनापूर्वक मरण को प्रेम के साथ सेवन करें। (त्तिकटु ) इस प्रकार विचारकर (अण्णमण्णस्स अतिए एयमह पडिसुणति) उन लोगोंने इस निर्धारित वात को स्वीकार कर लिया, (पडिसुणित्ता) स्वीकार करने के बाद (तिदडए य जाब एगते एडेंति ) फिर उन सबने अपने २ त्रिदड आदि उपकरणों को एकान्त में परित्यक्त कर दिया, (एडित्ता गंग महाणइ ओगाईति) परित्यक्त कर चुकने पर फिर वे सब के सब उस महानदी गगा में प्रविष्ट हुए, (ओगा स था। जिछापामे, मने तना पर (भत्तपाण-पडियाइक्पियाण) मानना प्रत्या भ्यान रीने (पाओगयाण) पापोपशमन सथा। शने (काल अणकसमाणाण) भरनी छायी रहित धन (सलेहणाझुसियाण विहरित्तए) सोमनापूर्व भ२५नु भया सेवन शो (त्ति कह) मा प्रधानो पियार ४१ (अण्णमण्णस्स अतिए ण्यमट्ठ पडिसुणेति) aatथे या निधी रेसी पातना वी॥२ ४री सीधे। (पडिसुणित्ता) स्वीकार या पछी (तिदडए य जाव एगते લઇ તે બધાએ પિતાપિતાના ત્રિદડ આદિ ઉપકરણોને એકાન્ત સ્થાનમા परित्यात शोधा. (एडित्ता गग महनई ओगाहेंति) छोडी या पछी a Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - पीयुषषषिणी-नीका म २६ अम्पडपरिमाजशिष्याणां संस्तार ग्रहणम् ५६९ जीवाए, शूलए परिग्गहे पञ्चखाए जावजीवाए, इयाणि अम्हे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए सव्य पाणाइवाय पञ्चक्खामोजावज्जीवाए, एवं जाव सव्वं परिग्गरं पञ्चक्खामो जावजीवाए, सव्वं कोहं माणं मायं लोह पेजं दोसं कलहं अभक्खाणं मृपावादोऽदत्ताऽऽदान प्रयाप्यात यावनीवम् , 'सव्वे मेहुणे पचक्खाए जावजीवाए सर्व मैथुन प्रश्याल्यात यावजीवम् , 'थूलए परिम्गहे पञ्चक्खाए जावनीवाए' स्थूल परिग्रह प्रयारयातो याचनीयम् । इयाणि अम्हे समणस्स भगरमओ महावीरस्स अतिए सय पाणाइसाय पञ्चरखामो जायज्जीवाए ' इदानी वय श्रमणस्य भगरतो महावीरस्याअन्तिके सर्व प्राणातिपात प्रत्यारयामो यावजीवम् , 'एर जाव सव्व परिग्गह पचरखामो जावज्जीवाए ' एव यावन् सर्व परिग्रह प्रयाख्यामो यावजीयम् , 'सब कोह माण माय लोह पेन दोस कलहं अभक्साण पेसुण्ण परपरिवाय अरइरइ मायामोसं समस्त मृपावाद का समस्त अदत्तादान का जीवनपर्यन्त परित्याग कर दिया है, समस्त मैथुन का यावजीवन परित्याग कर दिया है। स्थूल परिग्रह का भी यावजीवन परित्याग कर दिया है। (इयाणि अम्हे समणस्स भगवओ महावीरस्स अतिए सव्व पाणाइवाय पचक्खामो जारज्जीवाए ) अव इस समय हम सब लोग श्रमण भगवान् महावीर के समीप पुन समस्त प्राणातिपात का जीवनपर्यत प्रत्याख्यान करते है, ( एव जाव सब परिग्गह पञ्चवरखामो जावज्जीवाए) इसी तरह समस्त परिग्रह आदि का भी जीवनपर्यन्त प्रयाख्यान करते है, (सन्त्र कोह माण मायं लोहं पेॐ दोस कलह पच्चस्साए जावज्जीवाए) मेवी शेते समस्त भूषापान मने समस्त महता. દાનને જીવનપર્યન્ત પરિત્યાગ કરી દીધું છે, સમસ્ત મિથુનને જીવનપર્યત પરિત્યાગ કરી દીધું છે. સ્થૂલ પરિગ્રહને પણ યાવનજીવન પરિત્યાગ કરી हीधा छ (इयाणि अम्हे समणरस भगवओ महावीरस्स अतिए सव्व पाणाइवाय पच्चक्सामो जावजीवाए) हवे मा सभये अमे मधाय सो भए सगवान મહાવીરની પાસે વળી પાછા સમસ્ત પ્રાણાતિપાતનું જીવનપર્યન્ત પ્રત્યાખ્યાન शमे छीये (एव जाप सव्यं परिग्गह पच्चक्सामो जावज्जीचाए) मेवी । રીતે સમસ્ત પરિગ્રહ આદિનુ પણ જીવનપર્યન્ત પ્રત્યાખ્યાન કરીએ છીએ (सव्य कोह माण माय रोह पेज दोस कलह अभयाण पेसुण्ण परपरिवाय अरइ. Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औषपातिक समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव संपाविउकामस्स, नमोत्थुणं अम्मडस्स परिव्वायगस्स अम्हं धम्मायरियस्स धम्मोवदेसगस्स। पुब्बिं णं अम्हेहिं अम्मडस्स परिव्वायगस्स अंतिए थूलगपाणाइवाए पच्चक्खाए जावज्जीवाए, सव्वे मुसावाए अदिपणादाणे पच्चक्खाए जावज्जीवाए, सव्वे मेहुणे पच्चस्खाए जाव'नमोत्थु ण समणस्स भगवओ महावीरस्स जायसपाविउकामरस' नमोऽस्तुसल श्रमणाय भगवते महावाराय यावत् सम्प्राप्तुकामाय, 'नमोत्यु णं अम्मडस्स परिवायगस्स अम्ह धम्मायरियम्स धम्मोवदेसगस्स' नमोऽस्तु पन्चमटाय परिनाजकाय अस्माकं धर्माचार्याय धमोपदेशकाय। धर्माचार्यत्व प्रकटयति-'पुचि ण अन्हेहिं अम्मडम्स परिव्वायगस्स अतिए थूलगपाणासाए पञ्चक्रवाए जावज्जीवाए' पूर्व सन्चस्माभिरग्बडंस्य परिबाजकस्याऽन्तिके स्थूलप्राणातिपात प्रत्यारयातो यावज्जीनम्-जीवनपर्यन्त स्थूलप्राणातिपात विरमगमस्माभिरङ्गीकृतम्। 'मुसापाए अदिण्णादाणे पञ्चक्रवाए जावजीवाए' श्रमण भगवान् महावीर को जो मुक्ति प्राप्त करने के कामो है नमस्कार हो । (धम्मोवदेसगम्स धम्मायरिगस्स अम्ह परिवायगस्स अम्मडस्स नमोत्यु ण) धर्म के उपदेशक धर्माचार्य ऐसे हमारे गुरु अम्मद परिबानक को नमस्कार हो। (पुन्धि ण अम्हे हिँ अम्मडस्स परिवायगस्स अतिए यूलगपाणाइवाए जावज्जीवाए पञ्चक्खाए) पहिले हम लोगों ने अन्नड परिव्राजक के समीप स्थूलप्राणातिपातका यावजीव प्रत्याख्यान किया है। (सम्वे मुसावाए अदिण्णादाणे पञ्चक्रवाए जावनीवाए सन्वें मेहुणे पच्चस्साए जावजीवाए यूलपरिग्गहे. पञ्चपखाए जारज्जीवाए) इसी तरह त्थु ण) भ पान् महावीर भुति प्रात ४२वानी मनावाणा छ भने नभ२४१२ . (धम्मोवदेसगस्स धम्मायरियस्स अम्ह परिव्वायगरस अम्मडस्स नमोत्थु ण) धर्मना पश४ धाया मेवा अभा। गुरु मम पार माने नभ२४।२ ड (पुटियं ण अम्हेहिं अम्मडस्स परिव्वायगस्स अतिए थूलगपाणाइनाए जावज्जीगाए पन्चासाए) पहा अमे बाजथे सम्म परिवानी पासे न्यूस प्रातिपात या प्रत्याभ्यान ४यु छ, (सरे मुमापाए अदिण्णा दाणे पन्चासाए जावज्जीनाए, सव्चे मेहुणे पन्धला जावज्जीवाण, थूलपरिग्गहे Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषयरिणो टोया मृ २६ अपडपरिम्राजशकशि याणा मस्तारग्रहणम ५७१ सरीरं इदं कंतं पियं माण्णं मणाम पेज थेनं वेसासियं संमयं बहुमय अणुमयं भंडकरंडगसमाणं, माणं सीयं माणं उपहं माणं चोरा मा ण दंसा मा ण ममगा मा ण पाइयपित्तियसिभियसनिवाटय विविहा रोगायका परिसहोरसग्गा फुमनु' इद-पुरतो वर्तमान गरीरम् इष्ट-वल्लभम , कान्त= कमनायम , प्रिय-मना प्रेमाऽऽपदम , मनोज-सुन्दरम् , मनोऽम-मनसाऽम्यते प्राप्यते पुन पुन स्मरणतो यत्तन्मनोऽमम् , प्रेय सर्वपदावतिगयेन प्रियमिति प्रेय , अथवा कालातरनया प्रेयम , स्थै र्यरत-पिरम दयर्थ , नवामिकम-विश्वास प्रयोजनम्-अन्येति वैश्वासिकम्-प्राणिना परमगरमेव प्राचुर्येगा ऽविश्वासहेतु ,निजगरीरंतु प्रतीतियानमेव भवनि, ममततहतकाांगासम्मत मात,बहुमत-बहुशोबहना वाम ये मनम् इष्ट यत्त 'हुमतम् , अनुमत-गु12 सेविअनुसार माम् अनुमनाम्, अगएर भाटकरण्डकममान भाण्टानाम् भूयगाना परण्डसमान--भूपगमन्जूपातुल्यमुपादेयमियर्य , एताहगारार मा गीत-शैयस्पृशद, मापिवासा मा ण ाला मा ण चोरा मा ण दसा मा णं मसगा मा णं वाइयपित्तियमिभियसंनिवाइय विविहा रोगायका परीसहोवसग्गा फुसत) पहा पर सर्वत्र "मा" शब्द निषेध अर्थ मे, एव "ज" गन्द वाक्यालकार में प्रयुक्त हुआ समझना चाहिये । इष्ट-बल्लभ, कान्त-कमनीय, प्रिय-सदा प्रेमास्पद, मनोज-सुन्दर, मनोम-समस्त की अपेक्षा अयत प्रिय, स्थैर्य-स्थिरतायुक्त, पैश्वासिक-पर शरीर की अपेक्षा जीवों को अपना शरीर अनिय प्रीति का स्थान होता है इस अपेक्षा अतिगय प्रातिका पात्र, शारीरिक कायों के समत होने से ममत, बहुत करके अथवा वटुतो के मध्य मे इष्ट होने से बहुमत, अनुमत-विगुणता क दिसने पर भी प्रेम का स्थानभूत, जिस प्रकार भूषणों का करटक प्रिय समाण मा ण सीय मा ण उण्ट मा ण सुहा मा ण पिवासा मा ण वाला मा ण चोरा मा ण दमा मा ण मसगा मा ण पाइयपित्तियमिभियसनिपाइय निरिहा रोगायका परीसहोरसगा फुमत) मही यत्र 'मा' २०४ निधना ममा तेभर 'ण' શબ્દ વાયાલારમા વાપરે સમજે જોઈએ ઈઈ–વલભ, કાન્ત-કમનીચ, પ્રિય-સદા પ્રેમાસ્પદ, મનેણસુદ, મનમ-સમસ્તની અપેક્ષા અત્ય ત પ્રિય, યે–સ્થિરતાયુક્ત, વિશ્વાસિક-બીજાના શરીરની અપેક્ષાએ જીને પિતાના શરીર અતિશય પ્રીતિનું સ્થાન હોય છે–એ દષ્ટિએ અતિશય પ્રીતિને પાત્ર, શારીરિક કાર્યો માટે સમત હોવાથી સમત, ઘણું કરીને અથવા ઘણાએની વચમાં ઈતેથી બહુમત, અનુમત-વિગુણતા જેવા છતા પણ પ્રેમના સ્થાનભુત, જે પ્રકારે ઘરેણાનો કરડયે પ્રિય હોય છે તેવી રીતે પ્રિય હોવાને Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७० पेसुपणं परपरिवायं अरइरई मायामोसं मिच्छादसणसलं अकरणिजं जोगं पञ्चक्खामो जावजीयाए, सव्वं असणं पाणं खाइमं साइमं चउन्विहंपि आहारं पञ्चरखामो जावजीवाए, ज पि य इम मिच्छादसणसाल अमरणिज जोग पञ्चाखामो जावजीपाए ' सर्व क्रोध मान माया लोभ प्रिय द्वेष कलहम् अभ्यारयान पेशुन्य परपरिवादम् भरतिरता मायामृपा मिथ्यादशेनशन्यमरुग्णीय योग प्रत्यारयामो यारनामम्-अअयानि साणि पदानि प्राग् ब्यारयातानि । 'सवं असणं पाणं खाइम साइम चउबिपि आहार पञ्चस्यामो जावनीवाए' सर्वमशन पान साथ स्वाद्य चतुर्विधमपि आहार प्रत्यारयामो यावीवम् । 'अपि य इम सरीर इट्ट कत पिय मणुण्ण मणाम पेज भेज वेसासिय संमय बहुमय अणुमयं भडकरडगसमाण, माणसीय माण उण्हमाणे खुहा माणं पिवासा माणं वाला माण अब्भक्खाणं पेसुण्ण परपरिवाय अरइरद ) इसी तरह उन्हीं को साक्षीपूर्वक समस्त कोन का, समस्त मान का, समस्त माया का, समस्त लोभ का, समस्त प्रिय का, समस्त द्वेष का, कलह का, अभ्याख्यान का, पैशुन्य का, परपरिवाद का, अरति-रति का (मायामोस) मायामृषा का, (मिच्छादसणसल्ल) मिथ्यादर्शन शन्य का, (अकरणिज्ज जोग) एव अकरणीय योग का (पञ्चक्खामो जावजीवाए) यावनीर प्रत्याख्यान करते है। (सव्यं असण पाण खाइम साइम चउबिपि आहार पञ्चक्खामो जावज्जीवाए) समस्त, अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य इन चार प्रकार के आहारों का यावजीव प्रत्यारयान करते है। (ज पि य इम सरीरं इह न पिय मणुण्या मणाम पेनं थेज वेसासिय समयं वहुमय अणुमय भडकरंडगसमाण, मा णं सीय माण उग्ह मा ण खुहा माण ૪) એવી રીતે તેમની જ સાક્ષી પૂર્વક સમસ્ત કોધનું, સમસ્ત માન, સમસ્ત માયાનું, સમરત ભનુ, સમત પ્રિયનુ સમસ્ત દેષનુ, કલહનું भयाध्याननु (मनु), शुन्यनु, ५२परिवाहनु, मतिनु, तिनु, (मायामोस) भायाभूषानु, (मिच्छादसणसल्ल) भिथ्याश-शस्यनु, (अकरणिज्ज जोग) तभा म४२थीय योगनु (पचरसामो जायज्जीवाण) वनपर्यन्त प्रत्याध्यान शये छीमे (सव्व असण पाण साइम साइम चउब्धिपि आहार पच्चमसामो जावज्जीवाए) समस्त मशन, पान, माध, स्वाध वगेरे यार ४१२ना मालाशेनु यापन अत्याध्यान गये छीय (ज पि य इम सरीर इकत पिय मणाम मगुण्ण पेज थेन वेसासिय समय बहुमय अणुमय भडकग्डग Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ पोषयपिणी टीका सू २६ अभ्यरपरिमाजशिष्याणा सस्तारग्रहणम् ५७३ रामि-त्ति कहु सलेहणाझूसणाझुसिया भत्तपाणपडियाइक्खिया पाओवगया कालं अणवकंखमाणा विहरंति ॥ सू० २६ ॥ मुलम्~-तएणं ते परिवायगा वहुई भत्ताई अणसणाए छेदेति, छेदित्ता आलोइयपडिकता समाहिपत्ता कालमासे कालं आरोग्गीकरणे या जोषणा-प्राति तया जुष्टा हेविता , भत्तपाणपडियाटविया' प्रयाग्यातभक्तपाना , 'पाओवगया' पादपोपगता =वृक्षानिप्प दतया स्थिता , 'काल अणवाग्यमाणा' कालमनवकाक्षान्त , केचिद वेदनाविकन्ग मरणमिच्छन्ति तेपा निषेधार्थमेतद्वाक्यम् , पम्मृता विहरन्ति-अम्बटपग्विजगिष्या इति ॥ मृ० २६ ॥ टीका-'तए ण ते परिमायगा' इत्यादि । 'तए ण ते परिवायगा' तत खल ते परिमाजका -अम्बदशिया कृतकायोसा-पाड भत्ता अणसणाए उदेति' वहनि भक्तानि अनशनेन छिन्दन्ति, 'छेदित्ता' रित्या 'आलोठयपडिक्ता' आरोचितप्रतिकान्ता -गुर जनस्य समीपे कृताऽऽलोचना , प्रतिकान्ता -पापस्थानापश्चा - - - - - - - - सर के सर (भत्तपाणपडियाइविपया) भक्त एव पान का प्रयायान करके (पाओवगया) वृक्ष की तरह निश्रेष्ट होकर (काल अगवग्यमाणा विहरति) मरन की इच्छा नहीं करते हुए स्थित हो गये । सू० २६ ॥ 'तए ण ते परिवायगा' इत्यादि । (तए ण) इसके बाद (ते परिवायगा) उन समस्त पारबाजकोने (बहई भत्तार) चार्ग प्रकार के आहार का (अणसगाए) अनगन, द्वारा (छेडेति) छेद कर निया, (छेदित्ता) छेद करने के बाद (आलोइयपडिकता) अपने अतिचारों की पाननु प्रत्याज्यान गन (पाओगया) वृक्षनी हे निवस यान(काल उणकसमाणा विहरति) भवानी छ नही ४२ स्थित 25 गया (सू २) 'तए ण ते परिव्यायगा' इत्यादि (तए ण) त्या पछी (ते परिव्वायगा) तथा परिवार (पट्टा भत्ताइ) याश्य प्रा२ना माहारना (अणमणाए) मनशन द्वारा (छेटेंति) री दी। (छटित्ता) ४ीधा पछी (आलोइयपडियन्ता) पाताना मति यानी साना 2 की तमा तनाथी निवृत्त च्या (समाहिपत्ता) Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -- - ૯૭૨ গাঁথনিক্ষণ खुहा माणं पिवासा माणं वाला माणं चोरा माणं मसगा माण वाइयपित्तिासभियसंनिवाइय विविहा रोगायंका परिसहोवसग्गा फुसंतु-ति कह एयंपिणं चरमेहिं ऊसासणीसासेहि वोसिशब्दा निषेधार्थ , 'ण' गन्दा वाक्यालद्वारार्थ ,यरत गरीरकर्मकम्पनन करोतु एवमेवोगक्षुधा-पिपासा-व्याल-चौर दश-मयर यातिक पैत्तिक मिक-सानिपातिकादयो विविधा रोगातका परीपहा उपसर्गाश्चैतन्यशरीर न स्पृशन्तु । अत्र ज्याला सर्पा , रोगा -महान्याधय , आता-सयोघातिनो रोगा एच, परीपहा क्षुधादयो द्वाविंशति , उपसर्गा =दिज्यादय , अन्यत् सुगमम् । 'तिकड' इति कृया 'एय पिणं चरमेहि असासणीसासेहिं बोसिरामि निकटु एतदपि खलु चरमैरुवासनि श्वासैयुमजामि-एतदपि शरीर त्यजामि इति कृत्वा= इत्थ विचार्य 'सलेहणाशसणासिया' मलेखना-जूपणा-जुष्टा -सलखनाया कपायहोता है उसी प्रकार से प्रिय होने कारण भाण्टकण्डक के तुन्य (इम) इस मेरे (सरीर)शरीरको शीत स्पर्श न करे, उग स्पर्श न करे, क्षुधा स्पर्श न को, पिपासा स्पर्श न करे, व्याल-सर्प स्पर्श न करे, चोर उपद्रव न करे, दस-डास स्पर्श न करे, मशक-मच्छर स्पर्श न करे, वातसबधी, पित्तसवधी, कफमबंधी, सन्निपातम्बधी आदि विविध रोग-महाव्याधिया, आतक-सय • प्राणहर रोग, परीपह-सुधाआदि एव उपसर्ग-देवादिक कृत उपटव, कोई भी इस शरीर को स्पर्श न करे, (त्ताह) इस प्रकार की विचारधारा को (चरमेहि ऊसासणीसासेहि वोसिरामि) अब चरम उच्चासनि श्वास तक छोडते है। (तिरुट्ट) इस तरह करके (सले. हणाझूसणासिया) लेसना में-कपाय एव शरीर के कृश करने में प्रीति से युक्त वे ४१२0 ला3०२ ३३ना तुल्य (इम) मा भारी (सरी) शशरन २५ न કરે, ગરમી સ્પર્શ ન કરે, ભૂખ સ્પર્શ ન કરે, તરસ સ્પર્શ ન કરે, વ્હાલસર્ષ સ્પર્શ ન કરે, ચેર ઉપદ્રવ ન કરે, દશ-ડાસ સ્પર્શ ન કરે, મશક-- મછર પગ ન કરે, વાત બ ધી, પિત્તમ બ ધી, ફસલ બી, સન્નિપાતસબ ધી આદિ વિવિધ રેગ–મહાવ્યાધિઓ, આન –તીવપ્રાણહર રોગ, પરી પહ-શ્વધા આદિ તેમજ ઉપસર્ગ–દેવાદિત ઉપદ્રવ, એવું કાઈ પણ આ शरीरने २५श न ४२ (त्ति कट्ट) २१ ४२नी विचारधाराने (चरमेहिं ऊसासणीसासेहि वोसिरामि) ७३ २२ पासनिश्वास सुधी छोड़ छु (त्तिक?) सावी शत ४शन (सलेहणाझूसणाझूसिया) मनाम-४५य तेभर शरीरने १५ ४२पामा श्रीतिथी युत, ते मया (भत्तपाणपटियाइक्सिया) at भार Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पोषयषिणी-टोका स २८ अम्पडपरिग्राजक यिपये भगवदगौतमयो मयाद ५७५ क्खड एवं भासइ एवं पन्नवेड एवं परूवेइ । एवं खलु अम्मडे, परिवायए कपिल्लपुरे पयरे घरसए आहारमाहारेइ, घरसए सहि उवेड । से कहमेवं भंते । एवं ॥ सू० २८॥ मूलम्-गोयमा । जं णं से बहुजणे अपणमण्णस्स 'अण्णमण्णरस एवमाटकपड' अन्योन्यमेवमारयाति-हे भगवन् ! जनसमूह परस्परमि14 वक्ति, 'एर मासा' व भापते, 'एवं पनवेइ' एप प्रजापयति, 'एव परूवेइ' एव प्ररूपयति, 'एर खलु अंम्मटे परिवायए कपिल्लपुरेणयरे' एव सन्चम्बड परिबाजा काम्पिन्यपुरे नगरे, 'घरसए आहारमाहारेद' गृहगतादाहारमाहरति-मिक्षा गृहगाति, 'घरसए वसहि उवेइ' गृहगते वसतिमुपैति, 'से कहमेय भंते एर' तत् कथमेतद् भगवन् ! ज्वम्-इति भगवन्त प्रति शिष्यप्रश्न ॥ मू० २८॥ टीका--भगवानाह-'गोयमा!' इत्यादि । 'ज से बहुजणे अण्णमण्णजणे ण) बहुत से लोग ( अण्णमगरस) परस्पर जो (एकमाइखद ) इस प्रकार कहते है, (एव भासद) इस प्रकार भाषण करते है, (एव पनवेइ ) इस प्रकार अच्छी तरह ज्ञापित करते हैं, (एव परूवेट) इस प्रकार प्ररूपित करते है कि (एवं सलु अम्मडे परिवायए कपिल्लपुरे णयरे घरसए आहारमाहारेइ) ये अम्बटपरिमाजक कपिल्लपुर नगर में सौ घरा म आहार करते है, एव (घरसए वसहिं उचेइ) सौ घरों में निवास करते हैं, (से) सो (भते') हे भदत । (कहमेय ) यह बात कैसे है । | सू० २८॥ 'गोयमा! जंण से बहुजणे' इत्यादि । । प्रभु गौतम के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते है कि (गोयमा') है गोतम । (बहुजणे ण) ugl att (अण्णमण्णस्स) ५२२५२ २ (एवमाइक्खइ) 241 २ ४९ छ, (एर भासइ) 0 रे माप रे , (एव पन्नवेइ ) मा मारे मारी ते ज्ञापित ४३छ ( वे छे), (एय परूवेइ) मा प्रारे ५३पित १२ (पप गलु अम्मडे परिव्याया कपिल्लपुरे णयरे घरसा आहारमाहारेइ) २४२७ परिवार पिस२ नगरमा सो घरमा माछा२ ४२ छ तभा (घरसए वसहिं उबेइ) सो परीमा निवास ८२), (से) त ( भते । ) महन्त ! (कहमेय ) मा पात छे ? (सू २८) 'गोयमा । ज ण से बहुजणे' त्यादि प्रभु गौतमना भनी उत्तर भापत ४९ छ ( गोयमा!) Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओपपालिका - - - - - - - किचा बंभलए कप्पे देवताए उपवण्णा । तहि तेसि गई। दस मागरोवमाई ठिई पण्णता, परलोगस्स आराहगा, सेसं तं चेव ॥ सू० २७॥ मूलम्-वहजणे णं भते! अण्णमण्णस्स एवमाइ(परावृत्ता, 'समाहिपत्ता' समाधिप्रामा-उपगान्तहत्या, 'कालमासे काल किंचा' कालमासे काल कृया, 'चमलोए कप्पे देवत्ताए उपवण्णा' ब्रह्मलोके क पे देववेनोपपन्ना , देशपिरतिफल त्वेपा परलोकाऽऽगधक वमेव । परिमाजकक्रियाफा ब्रह्मलोकगमनम् । 'ताई तेति गाता तेपा गति , 'दस सागरोषमाइ ठिई पणता' दासागरोपमागि स्थिनि प्रजासर, 'परलोगस्स आराहगा' परलोकरागरसा सती यर्ग, 'ससे त चे' शेष तदेर । मू० २७॥ टीका-'बहुजणे ण भते !' इत्यादि । बहुजन जनसमूह खल हे महत। आलोचना की, पश्चात् वे उनसे परावृत्त हुए। फिर (समाहिपत्ता) समाधि प्राप्त कर (कालमासे काल रिचा भलोए कप्पे देवताए उपया) काल-अवसर में काल करके बालो कप मे देव की पर्याय से उपन्न हुए। (तहिं तेसिं गई, दससागरोत्रमाइ ठिई पमत्ता, परलोगस्स आराहगा, सेस तचे) वहीं पर उनकी गति प्ररूपित करन में आई है। स्थिति इनकी १० सागर प्रमाग हे । ये परलोक के नियम से आराधक कहे गये है। शेर पहिले की तरह समझना चाहिये ।। सू २७॥ 'बहुजणे ण भते । इत्यादि । पुन गौतमस्थामा ने भक्तिपूर्वक प्रभु से पूछा कि (भते) हे भगवन् ! (बहु - भने समाधि प्रास ४शन ( कालमासे काल किच्चा बमलोए कप्पे देवताए उपवण्णा) 14-मत्रभरे इस रीने प्रहार ८५मा पनी पायथी Surन यय (तहि तेगि गई, दससागरोगमाइ ठिई पण्णत्ता, परलोगरम आरा हगा, सेस त चेप) तेमनी गति ३पिन ४२वामा मापी छ तेमना રિતિ ૧૦ સાગર પ્રમાણ છે તેઓને નિશ્ચિતરૂપથી પરલોકના આધારક કહેવામાં આવ્યા છે બાકીનું અગાઉની પેઠે સમજી લેવું જોઈએ ( ૨૭) 'घजणे ण भते त्या पणी गौतम स्वाभीमे मतिY४ प्रभुने पूछयु (भते 1) मन Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवषिणो दोया ३० अम्ग्रहपरिवाजकविषये भगवद्गीतमय सयाद ५७७ मूलम् --- से केणणं भंते । एवं बुचड़ - अम्मडे परिव्यायr जाव सहि उवे ॥ सू० ३० ॥ मूलम् - गोयमा ! अम्मडस्स णं परिव्वायगस्स पगड़भयाए जाव विणीययाए छछद्वेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं टीका- पुनर्गोतम पृष्ठति- 'से केणद्वेण' इत्यादि । ' से केगण भंते । एवं बुच्चइ ' तत् केनार्थेन हे भदन्त । एवमुध्यते-' अम्म परिन्त्रायए जान सहि उवेइ ' अम्बड परिवाजको यावद् यसतिमुपेति, गृह्णतादभिक्षा करोति, गृहशते वसतिं स्वीकरोति, इति ॥ सू० ३० ॥ टीका - भगवानाह - 'गोयमा ।" इत्यादि । हे गौतम ' ' अम्मडस्स ण परिव्यास्स पगइभक्ष्याए ' अम्बस्य सल परिव्राजकस्य प्रकृतिभद्रतया-प्रकृते = स्वभावस्य महत्तया=सरलतया 'जार रिणीययाए ' यावद्विनीनतया - यावच्छन्दादिद दृश्यं -- प्रकृत्युपगततया प्रकृतितनुकोधमानमायालोभतया मृदुमार्दवसम्पन्नतयाऽऽलीनतया इति, ' से केणणं ' इत्यादि । (भते ) हे भदन्त । ( से केणद्वेणं एत्र बुच्चइ ) आप यह किस आशय से कहते हैं कि-(अम्मढे परिव्वायए जाव वसहि उवेइ ) अम्बड परिवाजक सौ घरों मे आहार करते हैं और सौ घरों में निवास करते हैं || सू ३० ॥ 'गोयमा ! अम्मडस्स ण ' इत्यादि । (गोमा ) हे गौतम ! यह अम्बड परिवाजक ( पगइमध्याए जाव विणीययाए) प्रकृति से भव है, अल्प क्रोध, मान, माया एव लोभ-कपायवाला है स्वभावत 'से केणद्वेण ' हत्याहि ४ (भते ! ) हे लइन् । ( से केणट्टेण एव बुच्चइ ) साथ मे क्या हेतुथी (अम्मडे परिव्यायए जाव सहि उवेइ ) अभ्ड परिवा४ सेो નિવાસ કરે છે? (સ્ ૩૦) ઘરમા આહાર કરે છે અને સૈા ઘરમા આ 'गोयमा । अम्मडस्स ण' इत्यादि ( गोयमा 1 ) हे गौतम अभ्याड परिमार (पगइमद्दयाए जाव निणीयया) प्रकृतियी लद्र है, सत्य होध, भान, भाया, तेभन बोल કપાયવાળા છે, સ્વભાવન મૃદ-માઈવ ગુણથી યુક્ત છે, તથા અત્યત વિનીત Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७६ - औपपातिकमा एवमाइक्खइ जाव एवं परूवेइ-एवं खलु अम्मडे परिव्वायए कंपिल्लपुरे जाव घरसए वसहि उवेइ । सच्चे णं एसमहे, अहंपि णं गोयमा। एवमाइक्वामि जाव एवं परूवेमि-एवं खलु अम्मडे परिवायए जाव वसहि उवेइ ।। सू० २९ ।। स्त एवमाइक्खइ' हे गौतम ! यसल स बहुजनोऽन्योऽन्यम् एवमारयाति, यावदेवं प्ररूपयति, 'एवं खलु अम्मढे परिवायए कपिल्लपुरे जार घरसए वसहि उवेड' एव खन्वबड परिवाजक काम्पिन्यपुरे यानद् गृहशते वसतिमुपैति-इति यत्वया पृच्छयते । 'सच्चेण एस. मट्टे' सत्य खन्वेपोऽर्थ ।' अपिण गोयमा! एवमाइक्खामि अहमपि खल गौतम एवमाग्व्यामि, 'जाव एव परूवेमि' यावदेव प्ररूपयामि अरूपगा करोमि, 'एव खल अम्मडे परिवायए जाय वसहि उवेइ ' एव खलु अम्बड परिबाजको यावद् वसतिमुपैतिगृहशताद् भिक्षा गृह्णाति, गृहशते वसतिं करोति, इति । सू० २९ ॥ (ज) जो (से) वे (बहुजणे) बहुत से लोग (अण्णमण्णस्स) परस्पर दूसरे से ( एवमाई खइ जाव परूवेद) इस प्रकार कहते हे यावत इस प्रकार प्ररूपित करते हैं कि ( एवं खलु अम्मडे परिवायए कपिल्लपुरे) ये अम्बड परिव्राजक कपिल्लपुर नगर में (जाव घरसए वसहि उवेइ ) सौ घरों में भिक्षा लेते है और सौ घरों में निवास करते हैं, सा (सच्चे णं एसमढे) यह बात बिलकुल ठीक है। (अहं पिण गोयमा एवमाइक्खामि) गौतम ! भै भी इसी तरह कहता हू (जाव एवं परूवेमि) यावत् इसी तरह प्ररूपित करता हू फि (एव खलु अम्मढे परिवायए जाव वसहि उवेइ) ये अम्बड पारव्राजक सौ घरों में आहार करते हैं और सौ घरों में निवास करते हैं । सू० २९॥ गौतम ! (ज) रे (से) तमो (बहुजणे ) । सोही (अण्णमण्णस्स) ५२२५२ ४ मीनन (एवमाइक्सइ जार परूवेइ) मा मारे ४७ छ यावत् या सरे ५३पित ४२ छ । (एव सलु अम्मडे परिव्वायए कपिल्लपुरे) त सम परिवा४४ पिसपुर नगरमा (जाव घरसए वसहिं उवेइ) से धरोथी लिक्ष वे छ भने सो घरोभा निवास ४रे छता (सच्चे ण एसमढे) मा वात मिसद ही छ । (अहपि ण गोयमा । एवमाइक्सामि) गौतम ५ मेरी रीत ४६७ (जाय एव परवेमि) यापत् वी शते प्र३चित ५३ छ (एव सलु अम्मडे परिव्याया जार वसहिं उवेइ) मे 83 परि રાજક તે ઘરમા આહાર કરે છે અને સે ઘરમાં નિવાસ કરે છે (જૂ ૨૯) Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -- पोयूपपिणी टोकास ३१ अम्बपरित्राजकविपये भगवद्गीतमयोः संघाद. ५७९ खओवसमेणं ईहाहामग्गणगवेसण करेमाणस्स वीरियलद्धी वेउव्वियलद्धी ओहिणाणलडी समुप्पण्णा ।तए णं से अम्मडे परिवायगेतीए वीरियलडीए वेउबियलडीए ओहीणाणलडीए ग्वनावसमेण' तटावरीयाना कर्मणा वीर्य क्रियान्यवपिज्ञानावरणीयाना क्षयोपशमेन, दा-वृहा-मग्गणनापेमणं करमाणम्स हा यह-माण गरेपण पुर्वत -तर-ईहामनिजानभेद नामजायादिविशेषरुपनारहितसामान्यज्ञानोत्तर विशेषनिवार्थ विचारणा इयर्थ , न्यूर -अपोह -सामान्यज्ञानोत्तरफाल विशेषनिश्चयाय विचारगाया प्रवृत्ताया तदनु गुणदोषविचार गाजनिती निश्चय । मार्गग-जीवादिपनार्थम्य यथावस्थितपम्पान्वेपगम् , गवेषण=3 मार्गगानन्तरमनुपलभ्यन्य जीपादिपदार्थस्य मर्मत परिभाषनम , पा समाहारस्तत् तथा, तत् हत अन्यडस्य परिमाजकन्ये यन्वय । 'वीरियलद्वी' वीर्यलन्धि , 'वेउनियलदी' पैनियलन्धि 'ओहिणाणल्द्धी समुप्पण्णा' अवधिज्ञानन्धिश्च समुन्पना । 'तए णं आवरण कर्मों के (खोपसमेण) क्षयोपशम से (ईहा-हा-मग्गणगवेमण करमाणम्म ) ईहा-नाम एव जायादिरूप कल्पना से रहित सामान्य ज्ञान के बाद विशेषम्प से निश्चय करने की चेष्टा-विचारधारा, व्यूह-सामान्य ज्ञान के बाद विशेष निश्चय के लिये विचारणा करने पर गुणढोप के विचार से होनेवाला निश्चय--अवायरूप ज्ञान, मार्गग-यथावस्थित जोपाटिक पदार्थ के स्वरूपका अन्वेषण, एव गवेषण-मार्गग के बाद अनुपलभ्य जीपादिक पदायों के सभी प्रकार से निर्णय करने की तरफ तपरतारूप गवेपण (करेमाणस्स) करने से (वीग्यिलद्धी वेउन्वियलद्धी ओहिणाणल्दी समुप्पण्या) वीर्यलन्धि, वझियलब्धि, तथा अधिगनलन्धि उत्पन्न हो गई । (तए ण से माप दीना (सओसमेण) क्षयोपशमया (ईहा-चूहा मग्गणगोसण करमाणस्स) घडा-नाम तमा ति महिनी ४८५नाथी રહિત સામાન્ય જ્ઞાન થયા પછી વિશેષરૂપથી નિશ્ચય કરવાની ચેષ્ટાવિચારધાગ, બૃહ-સામાન્યજ્ઞાન બાદ વિશેષ નિશ્ચય કવ્વા માટે વિચારણા ઠર્યા પછી ગુણદેવના વિચારથી થવાવાળા નિશ્ચય-અવાયરૂપ જ્ઞાન, માર્ગયથાવસ્થિત જીવ-આદિક પદાર્થના સ્વરૂપનું અન્વેષણ, તેમજ ગષણ-માર્ગ પછી અનુપલભ્ય જીવ આદિ પદાર્થોને સર્વ પ્રકારથી નિર્ણય કરવાની તરફ तस्पता३५ गवेषध (करमाणस्स) साथी (वीरियलद्धी वेनियलद्धी ओहिणाणलद्धी समुप्पण्णा) पीय सन्धि, वैडियसम्धि, तथा अपधिज्ञाननिध - - - Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- ५७८ औपणातिको उड्ढं वाहाओ पगिल्झिय २ सूराभिमुहस्सआयावणभूमीए आयावेमाणस्स सुभेणं परिणामेणं पसत्थेहिं अज्झवसाणेहिं पसत्याहिं लेसाहि विसुज्झमाणीहि अन्नया कयाई तदावरणिजाणं कम्माण विनयशीलतया, 'उहउद्रेण अनिक्खित्तणं तरोफम्मेण' पटपटेन अनिक्षिप्तेन तप -- कर्मणा-मुहुर्दिनद्वयाऽनशनरूपण अविश्रान्तेन तपोरूपेग कर्मणा, 'उड्ढ वाहाओ पगि झियर' ऊर्च बाहू प्रगृहय२-याह ऊर्य कृत्वा 'मूराभिमुहस्स आयावणभूमाए आयावेमाणस्स' सूर्याभिमुखस्याऽऽतापनाभूमावातापयत 'सुभेण परिणामेण' शुभन परिणामेन शुभ-रूपयाऽऽत्मपरिणत्या, 'पसत्यहिं अज्झवमाणेहि' प्रशस्तैरव्यवसान- ' उत्तममनोविशेपै, 'पसत्याहिं लेसाहिं पिमुज्झमाणीहि प्रशस्ताभिलेयाभिविशुध्यमानाभि 'अन्नया कयाइ' अन्यदा कदाचित् 'तदावरणिज्जाग कम्गग मृदुमार्दव गुण से युक्त है, तथा अत्यत मिनीत भी है। (अनिक्खित्तेण) तथा लगातार (छ? छट्टेण तवोकम्मेणं) छठ छठ-वेला-की तपस्या करनेवाला है। एव (उड्ड बाहामी पगिज्झिय२) बाहुओं को ऊपर उठा कर, (मुराभिमुहस्स) सूर्य के सन्मुख (आयावणभूमीए आयावेमाणस्स) आतापना के योग्य प्रदेश मे आतापना लेता है। अत (अम्मडस्स परिवायगस्स) इस अम्बड परिव्राजक को (सुभेण परिणामेण) शुभ परिणाम से शुभरूप आत्मा की परिणति से, ( पसत्येहि अज्झवसाणेहिं) प्रशस्त अध्यवसानों से-उत्तम विचारधाराओं से, (पसत्याहि लेस्साहिं विमुज्झमाणीहि ) प्रशस्त लेश्याओं की पिशुद्धि होने से, (अण्णया कयाइ) फिसी एक 'समय (तदावर णिज्जाण कम्माण) तदापरणीय कर्मो-वीर्य के, वैझियलब्धि के एव अनधि ज्ञान के पण छ (अनिक्सित्तेण) del गातार (छछद्रेण तोफम्मेण) ७४ ७४ सा-नी तपस्या ४२पापा छे तेभर (उड्न बाहाओ पगिझिय२) डायन जया ४शने (सूराभिमुहरस) सूर्यनी सन्भुम (आयाधणभूमीए आयावेमाणस्स) सातापनाने योग्य प्रदेशमा मातापना से छे माथी ( अम्मडस्स परिवायगरस) से सम्म परिमा४४ने (सुभेण परिणामेण) शुल परिणामथी, ३५ मात्मानी परिणतिथी, (पसत्थेहिं अज्झरमाणेहिं) प्रशस्त मध्यव सानायी-उत्तम विचारधारामाथी, (पसत्याहिं लेस्साहि विसुज्झमाणीहिं) प्रशस्त श्याना विशुद्धि पाथी (अण्णया कयाइ) से समय (तदावरणि जाण कम्माण) तापीय ४ी-वीर्य, वयि सने मवधिज्ञानना Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - पोयूपिणी टोका सू ३१ अम्बड परित्राजकविषये भगवदगीतमयो मघाद' ५७९ खओवसमेणं ईहाहामग्गणगवेसणं करेमाणस्स वीरियलद्धी वेउब्धियलडी ओहिणाणलही समुप्पण्णा । तए णं से अम्मडे परिवायगे तीएवीरियलडीए वेउब्धियलडीए ओहीणाणलडीए खोपसमेण तदापरणीयानाकर्मणा चायवैशियल याविज्ञानावरगीयाना क्षयोपशमेन, ईदा-हा-मग्गण-वेसण करेमाणस्म' हा यूह-मार्गण गपण कुर्चत -तत्र-ईहामनिज्ञानभेद नामजायादिपिरोपकल्पनामितमामान्यज्ञानोत्तर विगेपनिश्चयाय विचारणा इत्यर्थ , व्यूह -अपोट -मामान्यज्ञानोत्तरकाल विशेषनिश्चयाय विचारणाया प्रवृत्ताया तदनु गुणदोपविचार गाजनिनो निश्चय । मार्ग-जीशदिपायय यथावम्धितम्यम्पान्वेपगम् , गवेपण:__ मागगान तरमनुपलभ्यस्य जीपादिपदार्थस्य समेत पग्भिावनम, एपा ममाहारस्तत् तथा, तत् हर्मत अपडन्य परिमाजकत्ये यन्वय । 'वीरियलद्धी' वीर्यलन्धि , 'वेउन्चियलदी' चैकियलधि 'ओहिणाणल्द्धी समुप्पण्णा' अवविज्ञानलधिश्च समुत्पन्ना। 'तए णं आवरण कर्मों के (खओवसमेण) क्षयोपशम से (ईहा-हा-मग्गणगवेसण करेमाणस्स) ईहा-नाम एव जायादिरूप कल्पना से रहित सामान्य ज्ञान के बाद विशेपररूप से निश्चय करने की चेष्टा-विचारधारा, व्यह-सामान्य ज्ञान के बाद विशेष निश्चय के लिये विचारणा करने पर गुणदोप के विचार से होनेवाला निश्चय-अवायरूप मान, मार्गग-यथारस्थित जीनाटिक पदार्थ के स्वरूपका अन्वेपण, एव गरेपण-मार्गण के वाद अनुपलभ्य जीगानिक पदार्थों के सभी प्रकार से निर्णय करने की तरफ तपरताम्बप गवेपग (करेमाणस्स) करने से (पीरियलद्धी वेउनियलद्धी ओहिणाणलद्धी समु. प्पण्या ) वीर्यलपि, क्रियलन्धि, तथा अधिज्ञानलन्धि उत्पन्न हो गई । (तए ण से भाप ना ओरसमेण) क्षयोपशमया (ईहा-हा-मगणगरेसण करेमाणम्स) घडा-नाम तमा जति माहिनी ४८५नाथा હત સામાન્ય જ્ઞાન થયા પછી વિશેષરૂપથી નિશ્ચય કરવાની ચેષ્ટાવિચારધારા, બૃહ-સામાન્યજ્ઞાન બાદ વિશેષ નિશ્ચય કરવા માટે વિચારણા કર્યા પછી ગુણદોષના વિચારથી થવાવાળા નિશ્ચય–અવાયરૂપ જ્ઞાન, માગણયથાવસ્થિત જીવ-આદિક પદાર્થના સ્વરૂપનું અન્વેષણ તેમજ ગષણ-માર્ગ પછી અનુયલભ્ય જીવ આદિક પદાર્થોને સર્વ પ્રકારથી નિર્ણય કરવાની તરફ तपत13५ शवप (करमाणस्स) याथी (पीरियलद्वी वेउब्धियलद्धी ओहिणाणलद्धी समुप्पण्णा) पीय सधि, वैठियमधतथा अवधिज्ञानसन्धि - Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८० - समुप्पण्णाए जणविम्हावणहेडं कंपिछपुरे णयरे घरसए जाव वसहि उवेइ। से तेणटेण गोयमा! एवं वच्चइ-अम्मडे परिवायए कंपिल्लपुरे णयरे घरसए जाव वसहि उवेड ।। सू० ३१॥ से अम्मडे परित्यायगे' तत सलस अम्बड पग्निजक , 'तीए पीरियल द्वीए वेउब्धियलद्धोए ओहिणाणलद्धीए समुप्पण्णाए' तया वीर्यल या वैकियल च्याऽधिज्ञानल ध्याच समुत्पनया 'जणपिम्हावणहेउ' जनविस्मापनहेतो , 'कपिलपुरे णयरे घरसए जाव वसहिं उवेइ' काम्पियपुरे नगरे गृहशते यावद्वसतिमुपैति, ‘से तेणटेणं गोयमा । एव बुच्चइ' तत् तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते-'अम्मडे परिवायए कपिलपुरे णयरे घरसए जाव सहिं उवे' अम्बड परिबाजक फाम्पिल्यपुरे नगरे गृहाते यावदसति मुपैति ॥ सू० ३१ ॥ अम्मडे परिवायगे तीए पीरियलद्धीए वेउच्चियलद्धीए ओहिणाणलद्धीए समुप्पणाए) इसके बाद उत्पन्न हुई उन चीर्यलन्धि, वैक्रियलब्धि एव अवधिज्ञानलधि द्वारा यह (जणविम्हावणहेउ) मनुष्यों को आश्चर्यचकित करने के लिये (कपिल्लपुरे पयरे घरसए जाव वसहि उवेइ) कपिल्ल नगर में सौ घरों से भिक्षा करता है, एव उन्हीं मे विश्राम करता है। (से तेणटेणं गोयमा ! एव बुच्चइ ) इस आशय से, हे गौतम ! मैं ऐसा कहता हू (अम्मडे परिवायए कपिल्लपुरे णयरे घरसए जाव वसहि उवेइ) कि अम्बड परिव्राजक कपिल्लपुर नगर में सौ घरों में आहार करता है और सौ घरों में निवास करता है । स० ३१॥ - - त्पन्नं 25 (तए ण से अम्मडे परिवायगे तीए चीरियलद्धीए वेउब्वियलद्वीए ओहिणाणल्द्धीए समुप्पणाए) त्यार पछी पन थ्येही ते पायध, बेलिविस तेभर मधिज्ञानसा थे (जणपिम्हावणहेउ) मनुष्याने मायजित ४२वा माटे (कपिल्लपुरे णयरे घरसए जाव वसहि उवेइ) पिरसपुरनगरमा मी घरीथी मिक्षा ४२ छ तभ४ मा विश्राम ४२७, (से तेणटेण गोयमा । एन वुच्चइ) मा माशयथी 3 गौतम! ६ सेभ छ (अम्मडे परिव्वायए कपिल्लपुरे घरसए जाव वसहि उई) કે અખંડ પરિવ્રાજક કપિલપુર નગરમાં એ ઘરમાં આહાર કરે છે અને સે ઘરમાં નિવાસ કરે છે (સૂ૦ ૩૧). Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - __ पोपथगिणी-टोका सु ३२ अम्बडपरिवाजकरिषये भगवदगीतमयो मघाद ५८१ मृलम्पहणं भंते । अम्मडे परिवायए देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पच्चइत्तए । सू० ३२॥ मूलम्---णो इणटे समझे गोयमा । अम्मडे गं परि गौतम पृच्छति-'पहण भते' इत्यादि । 'मते !' हे मदत 'अम्मडे परिवायए देवाणुप्पियाण अतिए मुडे भरित्ता अगाराओ अणगारिय पन्नटत्तए' अम्बड परिवाजको देवानुप्रियाणामन्तिके मुण्ड =लुश्चितकेयो भूनाऽगारादनगारिता साधुत्व प्रजितु प्राप्तुं 'मभूण' प्रभु =समर्थ किम् ? 'ण' इति वाक्यालबारे ।। मू० ३२ ॥ टीका-भगनानाह--'यो रणद्वे समद्रे गोयमा?' इयाति । 'यो इगट्ठ समढे गोयमा नाऽयमय समयों गौतम । 'अम्मडे ण परिवायए समणोवासए' अम्बड खलु 'पह णं भते ' अम्मडे परिवायए' इत्यादि । (भंते) हे भदन्त ! ( अम्मढे परिवायए) यह अम्बद परिनाक ( देवाणुपियाण अंतिए) आप के पास (मुंढे भवित्ता) मुडित होकर (अगाराओ) आगार अवस्था से (अणगारिय) अनगार अवस्था को (पव्वात्तए) धारण करने के लिये (पढ़ ण) समर्थ है क्या ? ॥ मू० ३२॥ 'णो दणद्वे सम?' इत्यादि। प्रमु ने कहा-(गोयमा) हे गौतम ! (जो इणद्वे समदे) यह अर्थ समर्थ नहीं है। क्यों कि (उम्मडे ण परिवायए) यह अम्बड परित्राजक (समणोवासए) अमणोपासक 'पहृ ण भते । अम्मडे परिव्यायए' त्या (भते) ७ मन्त। (अम्मडे परिव्यायए) मा २५२५ 3 परिमार (देवाणुप्पियाण अतिर) सापनी पाने (मुडे भवित्ता) भुरित ने (अगाराओं) म॥२ सपश्याथी (अणगारिय) सना अपस्याने (पव्वइत्तए) घार पाने भाटे (पट्ट ण) समर्थ छ भ? (सू० ३२) "जो इण? समढे" त्या प्रभुये दधु (गोयमा) : गौतम (णो इणटे मम) मा अर्थ समय नयी, उभ (अम्मई ण परिवायए) २मा म परिमा४४ (समणो Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औरपातित्र सूत्रे व्यायए समणोवासए अभिगयजीवाऽजीवे जाव अप्पाणं भावेमाणे विहर, वरं ऊसियफलिहे अवंगुदुवारे चियत्तंते उरघरदारपवेसी एवं णं बुच्चइ ॥ सू० ३३ ॥ ५८२ परिवाजक श्रमणोपासक, 'अभिगयजीवाजीने' अभिगत जी राजीन =जीनाजातावज्ञ, & 'जाव' यावत्-अन यावच्छन्दादि ध्यम् - उपलब्धपुण्यपाप, are रनिर्जरा क्रियाधिकरण धमोक्षकुल इति, 'अप्पाण भावेमाणे ' आत्मान भावयन विहरतिविचरति । 'णवर '--अयमन विशेष 'ऊसियफलिहे ' उतिस्फटिक = स्फटिकरागिरिच निर्मल, 'अवगुदुवारे ' अपावृतद्वार' अवगु' इतिदेशीय शन्द, उद्घाटितकपाट द्वार -अतिधार्मिकतयाऽस्य प्रवेशकाले जनै कपाट उद्घाटयते इति भाव । ' चियत्ततेउरघरदारपवेसी ' त्यक्ताऽन्त पुरगृहद्वारप्रवेग - त्यक्त = प्रीया जनैर्दत्त अन्त पुरगृहद्वारेषु प्रवेशो यस्य स तथा अतिधार्मिकतया सर्वत्र प्रवेशेऽनाशङ्कनीय इति भाव । 4 एयण बुच ' एव खच्यते = एताछा सोऽम्बड उच्यते ॥ सू० ३३ ॥ होकर (अभिrantaratवे जाव अप्पाण भावेमाणे विहरइ ) जीव, अजान, पुण्य, पाप, आस्रव, स्वर, निर्जरा, वध एव मोक्ष इनका ज्ञाता होता हुआ अपनी आत्मा को भावित करता हुआ विचर रहा है। (णवर) परन्तु ( एवं पण बुच्चर) इतना भै अनस्य कहता है कि यह अम्बट परिवाजक (ऊसियफलिहे ) स्फटिकमणि की राशि के समान निर्मल, (अवगुदुवारे) जिसके लिये सभी के घरो का दरवाजा हर बरन खुला रहता है, ऐसा है, और (चियत्ततेउरघरदारपवेसी ) यह विश्वम्त होने के कारण राजाके अन्त - पुर मे भी वे - रोकटोक आता जाता है | सू० ३३ ॥ - चासए) श्रमणोपासने ( अभिगयजीवाजीवे जाव अप्पाण भावेमाणे विहरइ ) ७, अलन, पुण्य, पाय, शासन, सवर, निरा तेभर मध, भोक्ष એના જ્ઞાતા થઇને પેાતાના આત્માને સાવિત કરતા વિચરે છે (બ) પરન્તુ ( एन ण कुम्चाइ) भेटतु तो हु अवस्य उडु डे मा सभ्य परिवा (ऊसियफलिहे ) टिज्मलिनी राशि (ढगलानी)) पेठे निर्भस (अवगुदुवारे ) જેના માટે બધાના ઘરના દરવાજા હર વખત ખુલા રહે છે એવા છે, અને (चियत्ततेउरघरदारपवेसी ) मे विश्वासु होवाना अरोरानना અત પુરમા પણ કોઈ જાતની રફટાક વિના આવે જાય છે (સ્૦ ૩૩) Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - SM -शद : TET पाद: ५८३ मूल पग्निाचा शूलए पागाडआ पवार जावजी नाम पनि गरे राव जादजीबा ॥ ४॥ मूलन पन्निवायणो कापड का नाम निवागांत पन्नड पग्निागावमय लागणाटका पहाजीपाए जायम प नि गर्न गाम, सम्पन गवाद भ. arma नामविक 'मेहग' प EET मा गायावान गावीचन् । ३४॥ मा-माम बिगदि । 'मानहरू पनि __ न रिमा-गा। । नन्न बिमा ) बट पनिाडा ने यूआणावाए ब नलीवार ) माया का परित्याग किया है (गाव गल, लीगल गमग, न्यून नागन मा, पूल परिबह का भी गर्न गायिा है। पा) प म मंहगे पञ्चा बाप जावीवार) अन्य कैयन या नहीं किया है जिनु न तो उसने ममत्त प्रकार है। 1 न न्दिाग'गदि । माया ) म अन्य पनिान के लिये विहा कन्ने पवित्यादि (म ज्यिान) ५४ पन्निा (थुलपाणासार जय जारींग- ४ प्रानि ACTER पच्यिा डयो . 1 जान पाईनी - पापाना. अयू म-anal, स्यूब याचना पर यान पग्न्यिाशयो () F (न्य मेहुणे वल्या जाजीना) यी र नना पहिल्यास नयी ® पन्तु ना त न - पायी नपर्यन्त पग्न्यिा उर्या (५० 36) ' पविल याति (इस पब्लिागार) पर पति ने माट विहार - Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - - -- - औपपातिकसने अक्खसोयप्पमाणमपि जलंसयराहं उत्तरित्तए,णपणत्थअद्धाणगमणेगं । अम्मडस्सणं णो कप्पइ सगडं वा एवं तं चैवभाणियव्यंणपणत्थ एगाए गंगामहियाए । अम्मडस्सणं परिव्वायगस्स भायगस्स' अम्बडस्य सल परिवाजकस्य, 'यो कप्पड़ अब वसोयप्पमाणमेत्तपि जल सयराह उत्तरित्तए' अक्षस्रोत प्रमाणमात्रमपि-अक्षत्रोत मधू प्रवेशरन्धं तदेव प्रमाण तेन प्रमाणेन माना=परिमाणम् अवगाहनतो यस्य ततथा तत्, चक्रस्य छिद्रपर्यन्त जलमपि 'सयराइ' गीत, 'सयराइ' इतिदेशीयगन्द, 'उत्तरित्तए' उत्तरीतु नो कल्पते-तत्र प्रवेष्टु न कन्पते, तस्मान्यूनपरिमाण जलमुत्तरीतुं कल्पत इति भाव । 'णण्णत्य अद्धाणगमणेण' नाऽन्यताऽधगमनात्-अध्वगमनादन्यनाऽय निपेघ -अध्वगमने तु जलमुत्तरीतु कल्पते, 'अम्मडस्स ण णो कप्पइ सगड गा एवं त चेव भाणियब्ध जाव' अम्बडस्य खलु नो कपते शकट या एवं तदेव भणितव्य यात्, यावच्छन्देन 'सदमाणिय वा दुरूहित्ताण गच्छित्तए' इत्यारभ्य 'कुंकुमेण वा गाय अणुलिपित्तए' इति पर्यन्त पाठोऽस्यैवोत्तरार्धगताष्टादशसूत्रगतोऽनुसन्धेय इति । 'गण्णत्य एगाए गगामट्टियाए' समय मार्ग में (सयराह) अकस्मात् (अक्खसोयप्पमाणमेतपि) गाटी की धुरा प्रमाण जल आ जाय तो भी उसमें (उत्तरित्तए णो कप्पड) उतरना नहीं कल्पता है। (णण्णस्य अदाणगमणेणं) परतु विहार करते हुए अन्य रास्ता नहीं हो तो बात अलग ! (अम्मडम्स ण णो कप्पइ सगड वा एव तं चेर भाणियव्य जाव) इसी तरह इस अम्बड परिव्राजक को शकट आदि पर चढना भी कल्पता नहीं है। यहा 'यावत् ' शब्द से 'सदमाणिय वा दुरुहिता गमित्तए' यहा से लेकर 'कुकुमेण वा गाय अणुलि. पित्तए' यहा तक का पाठ इसी आगम के उत्तरार्ध के अठारहवे सूत्र से समझ लेना ४२ती मते भाभा (सयराह) सभात (अक्खसोयप्पमाणमेत्तपि) गाडी घोसशन प्रमाण २ ९ मापी य त प तेभा (उत्तरित्तए णो कप्पइ) २४५तुं नयी (णण्णात्य अद्धाणगमणेण) ५२तु विडार ४२त ४२ता भान २स्तो न डाय त पाd gी (अम्मडरस ण णो कप्पइ सगड वा एव त चेव भाणियव्य जाव) सेपी शेते ते सम परिमारने ८ (st) आहि ५२ २८ प ४८५ नथी मडी (यावत् ) श०४थी 'सदमाणिय दुरूहित्ता ण गन्छित्तए' महीथी सधन 'कुमेण वा गाय अणुलिंपित्तए' मी अधाना પાઠ આ આગમના ઉત્તરાર્ધના અઢારમા સૂત્રથી જાણી લેવો જોઈયે (roomત્ય - - - Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषपिणी-दोषास ३५ अभ्यास पिये भगौतमयो सवाद ५८५ , णो कप्पड़ आहाकम्मिए वा उद्देसिए वा मीसजाए इ वा अज्झोयरए इ वा पूइकम्मे इवा कीयगडे इ वा पामिच्चे इ वा अणिसिनान्यत्रैकस्या गङ्गामृत्तिकाया - एका गन्ना मृत्तिका कन्पते ग्रहीतुमित्यर्थ । 'अम्मडम्स णं परिव्वास्स णो कप्प आहाकम्मिए वा ' अम्बस्य खलु परिवाजकस्य को कपते - आधाकर्मिक–पट्कायोपमर्दनपूर्वक साध्वर्थकृतमशनादिक वा 'उद्देसिए वा ' औदेशिक= साधुमुदिश्य यत् कृत तद् वा न कन्पते, 'मीसजाए इ चा ' मिश्रजात - मिश्रण = गृहस्थसाध्वादिप्रणिधानलक्षणभावेन निप्पन्न = पाकारिभावमुपगतं मिश्रजातमन्नाद्येव तदपि न कल्पते, 'इवा' इति सर्वन वाक्यालङ्कारे, 'अज्जीयरवा ' अव्यवरतम् = साध्वर्थमधिकप्रक्षेपणेन निष्पादितम्, एतदप्यकल्पनीयम् ' पूइकम्मे इना' पूतिकर्म-आधाकर्माद्यविशुद्रटेशसपृक्तभक्तादि, तदपि न कन्पते, 'कीयगडे इवा' कीत कृतम् - कातकयण-साचाहिये । ( गण्णस्थ एगाए गगामट्टियाए) इसे सिर्फ एक गंगा की मिट्टी ही कल्पित है । (अम्मडस्स ण परिव्वायगस्स ) इस अम्बड परिव्राजक के लिये (जो ऊप्पड़ आहारुम्मिए ना उद्देसि वा मीसजाए इ वा अज्झोयरए इ वा पूइकम्मे इ वा कीगडे इ वा पामिचे इ वा अणिसिट्टे ड वा अहिढे इ वा ) पटुकायोपमर्दनपूर्वक साधु के निमित्त निष्पादित आधाकर्मिक एवं औदेशिक - साधु के उद्देश्य करके बनाया गया अशनादिक ग्रहण करना परिवर्जित है। तथा मिश्रजात-साधु एव गृहस्थ के उद्देश्य से तैयार किया गया अन्नादि का भी ग्रहण करना निषिद्ध है । इन पदों में "" "वा" ये दोनों वर्ण वाक्यालकार में प्रयुक्त हुए हैं। इसी तरह अन्यवरत खाधु के लिये अधिक मात्रा में बनाया गया आहार, पूतिकर्म-आधाकर्मिक आहार के भरा से मिश्रित एगाए गगामट्टियाए ) तेने भाटे मात्र से भगानी भाटीन डेस्थित मतावी थे ( अम्मडस्स ण परिव्वायगस्स ) मा ममड परिवाहने भाटे ( जो कप्पड़ आहाकम्मिए वा उद्देसिए वा मीसजाए इ वा अज्झोयरए इ चा पूइकम्मे इवा कोयगडेइ वा पामिच्चे इ वा अणिसिट्टे इ वा अभिहडे इ वा ) षट् (४) डाया उपमनपूर्व સાધુને નિમિત્ત નિષ્પાદિત આધાકર્મિક તેમજ ઔદ્દેશિક સાધુને ઉદ્દેશ્ય કરીને બનાવેલુ અશન આદિક ગ્રહણ કરવુ પરિર્જિત છે તથા મિશ્રજાત—સાધુ તેમજ ગૃહસ્થના ઉદ્દેશ્યથી તૈયાર કરેલા અન્ન-આદિકનુ ગ્રૠણ કરવું પણ નિષિદ્ધ છે આ પટ્ઠીમા છે અને ‘વા' એ અને વધુ વાચાલ કારમાં વપરાયેલા છે. તેવી જ રીતે અધ્યવરતસાધુને માટે અધિક માત્રામા બનાવેલા આહાર, પૂતિક્રમ-આધામિઁક આહારના અથથી મિશ્રિત આહાર, ક્રીતકૃત Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपणातिकमरे हेड वा अभिहडे इ वा ठइत्तए वा रडत्तए वा, कंसारभस इ वा दुभिक्खभत्ते इ वा गिलाणभत्ते इ वा वदलियाभत्ते इ वा पाहुणध्वादिनिमित्त तेन कृत-निष्पादितम्, तदपि न कन्प्यम। 'पामिजे इ वा' प्रामि यम्यदन्नवस्त्रादिक सापर्थमुलियानीयते तत् प्रामिण्यम् । 'अणिसिट्टेड वा' अनिसृष्टम्सर्व स्वामिमि साघवे दातु न निसृष्ट-नानुज्ञात यत् तदनिसृष्टम् , यदा द्विवाणा पुरु पाणा साधारणे आहारे एकोऽन्याननापृच्छय साधवे ददाति, तदा तदन्नमनिसृष्ट, तदपि न कन्पते । 'अमिहडे इना' अभ्याटनम्-साधु ममुखमानीतं न कल्पते । 'इत्तए वा' स्थापित-स्वनिमित्त स्थापित न कल्पते । 'रइत्तए वा' रचितम्-औदेशिकभेद , तव मोदकचूर्णादि पुनर्मोदकतया रचित, तदपि न कन्यम् । कतारभते इषा' कान्तारमक्तम्कान्तारम् अरण्यम्-तत्समुल्लधनार्थ नीयमान भक्तम् । यद्वा अरण्ये भिक्षुकाणा निहाय यत् मस्क्रियते तत् कान्तारभक्तम्-तदप्यकल्पनीयम् । 'दभिक्खभत्ते इ वा दुर्भिक्षभक्तमिति वा दुर्भिक्षे भिक्षुकाणा कृते यत् सस्क्रियते तदप्यकल्पनीयम् । 'गिलाणभत्ते इ वा ' ग्लानआहार, क्रीतकृत-मोल लाकर दिया गया आहार, प्रामित्य-उधार लेकर अथवा किसी दूसरे से झपट कर दिया हुआ आहार, अनिसृष्ट-जिस आहार के ऊपर अनेक का स्वामित्व है उन सभी को पूछे विना सिर्फ एक के द्वारा दिया गया आहार, अभ्याहृत-साधु के ममुख लाकर दिया गया आहार, स्थापित-साधु के निमित्त रखा हुआ आहार, रचित-मोदकचूर्ण आदि को फोडकर पुन मोदकरूप में बनाया गया आहार, कान्तारभक्त-अटवा को उल्लघन करने के लिये घर से लाया हुआ पाथेयस्वरूप आहार, अथरा जंगल मे भिक्षुकों के निर्वाह के लिये तैयार करवाया गया आहार, दुर्भिक्षभक्त दुर्भिक्ष के समय भिक्षुकों को देने के लिये बनवाया गया आहार, ग्लानभक्त-रोगा के लिये बनाया गया आहार, वार्दलिकाવેચને લઈને દીધેલ આહાર, ઝામિત્ય-ઉધાર લઈને અથવા કોઈ બીજા પાસેથી ટવી લઈને દીધેલો આહાર, અનિસણ–જે આહારના ઉપર અનેકનું સ્વામિત્વ હોય એવા બધાને પૂછયા વિના માત્ર એકના દ્વારા અપાયેલા આહાર, અભ્યાહત-સાધુની સામે લઈ આવીને આપેલો આહાર, સ્થાપિત– સાધના નિમિત્તે રાખી મુકેલે આહાર, રચિત લાડુને તેડીને ભૂકા કરી પછી તે ભૂકામાથી લાડુ-રૂપમા બનાવેલો આહાર, કાન્તારભક્ત-અટવીને ઉલ્લ ધન કરવા માટે વરથી લાવી રાખેલો પાથેયસ્વરૂપ આહાર, અથવા જગલમા ભિક્ષુકેના નિર્વાહ માટે તૈયાર કરાવેલ આહાર, દુર્ભિશભક્ત–દુકાળ સમયમાં ભિક્ષકોને દેવા માટે બનાવેલો આહાર, -બ્લાનભક્ત-ગીને માટે બનાવેલ Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषयषिणी-टीका स्व ३७ अपडपरियाजकविषये भगवद्गीतमयो सपाद ५८. गमत्त इ वा भोत्तए वा पाउत्तए वा अम्मडस्स णं परिव्वायगस्स णो कप्पड़ मूलभोयणे वा जाव वीयभोयणे वा भोत्तए वा पाइत्तए वा ॥ सू० ३५॥ भक्तम्-ग्लान सन् निजाऽऽरोग्याय यत्प्रदीयते तद्-ग्लानभक्तम् , 'वलियाभत्ते इ वा' वार्दलिकामक्तम्-पृष्टौ यद्दातु क्रियते एतन्प्यान्थ्यम् । 'पाहुणगभत्ते इ वा' प्राधुणकभक्तम्-प्राघुणक =कोऽपि कस्य चिद् गृहे समागत तम्य कृते यत् क्रियते तत् प्राघुणकभक्तम् , एतदप्याल्पनीयम् । तत्पूर्वोक्तम्-'भोत्तए वा पाइत्तए वा' भोक्तु वा पातु वा न क ल्पते इत्युक्तमेव । 'अम्मडम्स ण परिवायगम्स णो कप्पड़ मूलभोयणे राजार वीयभोयणे वा भोत्तए वा पाइत्तए वा' अम्घटस्य खल परिवाजकस्य न कल्पते मूलभोजन वा यावद् बीजभोजन वा भोक्तु वा पातु वा-मूलानि कमलादीना, यावच्छब्दा कन्दभोजन फलभोजन हरितभोजनमेतानि त्रीणि पदानि गृह्यन्ते, तन--कन्दा सूरणादय , फलानि आम्रफलादीनि, हरितानि मधुरतृणादीनि, बीजानिः शान्यादीनि, एतानि भोक्तु न कल्पन्ते, तथाआधाकर्मानिपानकानि पातु न कल्पन्ते इति ॥ सू ३५॥ भक्त-वृष्टि में देने के लिये बनाया गया आहार, प्रागुणकभक्त-पाहुनों के लिये राधा गया आहार, उस अम्बड परिव्राजक के लिये नहीं कल्पता है, और इसी प्रकार का पेय भी उसे नहीं कल्पता है । (अम्मडस्सा परिचायगम्स णो कप्पड़ मूलभोयणे वा जाव वीयमोयणे वा भोत्तए वा पाइत्तए वा) इसी प्रकार इस अम्बड परिवाजा के लिये कमलादिकों के मूल, सूरणादिक कन्द, आम्र आदि फल का भोजन एव अपक झाल्यादिक एव मधुर तृण आदि हरित सचित्त वस्तु का भोजन भी अफल्पित है ।। स ३५ ॥ આહાર, વાલિકાભક્ત-વૃષ્ટિમાં દેવા માટે બનાવેલો આહાર, પ્રાઘુણકભક્તપરોણાઓને માટે ૨ધાવવામાં આવેલ આહાર તે અખડ પરિવ્રાજકને માટે नयी पता, मने मापा र पेय ५५ तन नथी ४८५तु (अम्मटस्स ण परिव्वायगस्स णो कापइ मूलभोयणे वा जाव बीयभोयणे वा भोत्तए वा पाइत्तए वा) આ પ્રકારે એ અખડ પરિવ્રાજકને માટે કમળ આદિકના મૂળ, સૂરણ આદિક કદ, આમ આદિ ફળનું ભોજન તેમજ અપકવ શાલિ આદિક તેમજ મધુર તૃણ આદિ લીલી સચિત્ત વસ્તુનું ભેજન પણ અકપિત છે ( ૩૫) Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोपातिको मूलम्-अम्मडस्स णं परिव्वायगस्स चउबिहे अणहादंडे पच्चक्खाए जावजीवाए, तं जहा-अवज्झाणायरिए पमायायरिए हिंसप्पयाणे पावकम्मोवएसे ॥सू० ३६ ॥ टीका--'अम्मडस्स ण' इत्यादि। 'अम्मडस्स ण परियायगस्स ' अम्बडस्य खलु परिवाजकस्य 'वउ विहे अणट्ठादडे पच्चखाए जानीवाए ' चतुर्विध अनर्थदण्ड -अर्थ प्रयोजन गृहस्थस्य क्षेत्रवास्तुधनधान्य शरीरपरिपालनादिविषय- तदर्थ आरम्भो-भूतोपमदोऽर्थदण्ड । दण्डो निग्रहो यातना विनाश इनि पर्याया । अर्थेन प्रयोजनेन दण्डोऽर्थदण्ड , स चैवमृत उपमर्दनलक्षणो दण्ड क्षेत्रादिप्रयोजनमपेक्षमाणोऽर्थदण्ड उच्यते, तद्विपरीतोऽनर्थदण्ड प्रत्या रयातो यावन्नीयम् । अयमनर्थदण्ड स्विम्प ? इति बोधयितुमाह-'त जहा' तद्यथा--' अवज्झाणायरिए ' अपभ्यानाऽऽचरित -अपध्यानम् आर्तरौद्ररूप, तेनाचरित = भासेवितो योऽनर्थदण्ड स तथा । 'पमायायरिए प्रमादाssचरित -प्रमादेन मद्यविषय 'अम्मडस्स ण परिचायगस्म' इत्यादि । ( अम्मडम्स ण परिवायगस्स) इस अम्बड परिवाजक के (चउबिहे) चारों प्रकार के (अणदादडे) अनर्थ दडी को (जावजीवाए पञ्चक्खाए ) जागनपर्यन्त पोरत्याग है । वे चार अनर्थदड इस प्रकार है-(अवज्झाणायरिए पमायायरिए हिंसप्पयाणे पावकम्मोवएसे ) अप यानाचरित, प्रमादाचरित, हिंसाप्रदान, एव पापकर्मोपदेश । विना प्रयोजन जीवों का उपमर्दन जिन कार्यों के करने से होता है उसका नाम अनथेदंड है। आर्त्तरौद्ररूप ध्यान का नाम अप यान है। इस प्यानसे उद्भूत अथवा क्रियमाण दड का नाम अप यानाचरित अनर्थ दड है । मद्य, विषय, कषाय, निदा एव विकथारूप प्रमाद से "अम्मडस्म ण परिवायगाम" त्याह ( अम्मडस्स ण परिव्यायगस्स) सम्पर परिवाने (चविहे.) यारेय मारना (अणद्वादडे ) सन ६ आना (जानजीवाए पच्चक्साए) 01 पर्यन्त परित्याग छे थे यार सनर्थ ३ मा प्रभारना छ (अवज्याणायरिए पमायायरिए हिंसप्पयाणे पानकम्मोपएसे) मध्यानायरित, अमावायरित, लिया પ્રદાન-હિસાકારક શસ્ત્ર કેઈને દેવ, તેમજ પાપકર્મને ઉપદેશ વિના પ્રજત જીવન ઉપમન જે કાર્યો કરવાથી થાય તેનું નામ અનર્થદડ છે આ રૌદ્રરૂપ ધ્યાનનું નામ અપધ્યાન છે આ ધ્યાનથી ઉદ્દભવેલા અથવા થનારા દડનું નામ અપધ્યાનચરિત-અનર્થદંડ છે મા, વિષય, કવાય, નિદ્રા તેમજ Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयुपषिणी-टीका सु ३७ अभ्पडपरिवाजकधिपये मगधदगौतमयो सयाद ५८९ मूलम्-अम्मडस्स णं परिव्वायगस्स कप्पड मागहए अद्धाढए जलस्स परिग्गाहित्तए, से वि य वहमाणए णो चेव कपायनिद्राविकथालक्षणेन आचरित 'हिंसप्पयाणे' हिंसाप्रदानम्-हिंसाहेतुत्वादग्निविषशस्त्रादिक हिंसोच्यते, कारणे कार्योपचारात , तत्पदानमन्यस्मै क्रोनाभिभूताय अनभिभूताय वा । यदा-हिंस्रप्रदानमितिच्छाया-हिंस-हिंसाकारि मन्त्रादि, तप्रदान-परेपा समर्पणम्, अय तृतीयोऽनर्थदण्ड , 'पावकम्मोवामे' पापकमोपदेश -पातयति नरकादाविति पापम्, तप्रधान कर्म पापकर्म, तम्योपदेश , कृप्यादिमापद्यत्र्यापार प्रवर्तनम् , अय चतुर्थ ॥ मू० ३६ ॥ टीका-'अम्मडस्स' इयादि । 'अम्मडस्स ण परिचायगस्स कप्पड' अम्मडस्य ग्वछ परिवाजकस्य कल्पते 'मागहए अद्धाढए जलस्म परिरगारित्तए' मागरमधाहक जलस्य परिग्रहीतुम् , 'से वि य किये गये कार्य का नाम प्रमादाचरित अनर्थाट है। हिंसा के हतु होने से अग्नि, विष एव गख आदि, कारण में कार्य के उपचार से हिंसास्वरूप कहे गये हैं। इन हिंसा के कारणों को किसी कोपयुक्त व्यक्ति के लिये अथवा मोधरहित व्यक्ति के लिये देना सो हिंसाप्रदान नाम का अनर्थदइ है। आत्मा को जो नरक में डाल उसका नाम पाप है, इस पापप्रधान कर्म करने का उपदेश देना अथवा स्वयं भी कृप्यादि सापद्यरूप व्यापार में प्रवृत्ति करना सो पापोपदेश नामका अनर्थदड है ॥ ३६॥ 'अम्मडम्स ण परिवायगस्म' टत्यादि। (अम्मडस्स ण परिचायगस्स) इस अम्बड पग्निानक को (मागहए अदाढए ) मगधदेश प्रसिद्ध अर्ध-आढक-प्रमाण (जलस्स परिग्गाहित्तए कप्पइ ) जल વિડવારૂપ પ્રમાદથી આચરેલા-કરેલા કાર્યનું નામ પ્રમાદાચરિત-અનર્થદ ઠ છે હિંસાના હેતુ થાય તેવા અગ્નિ, વિષ તેમજ શસ્ત્ર આદિ, કારણમાં કાર્યો ઉપચાર થવાથી હિસાસ્વરૂપ કહેવાય છે આ હિમાના કારણેને કેઈ ક્રોધાયમાન વ્યક્તિને કે વિના ક્રોધવાળા વ્યક્તિને માટે આપવા તે હિનાપ્રદાન નામને અનર્વડ છે આત્માને જે નરકમાં નાખે તેનું નામ પાપ છે આ પાપપ્રધાન કર્મ કરવાને ઉપદેશ દે અથવા પોતે પણ કૃષિ આદિ સાવદ્યરૂપ વ્યાપારમાં પ્રવૃત્તિ કરવી તે પાપપદેશ નામને અનર્થદક છે (જૂ ૩૬) 'अम्मडम्स ण परिव्वायगस्स' इत्यादि (अम्मडस्स ण परिव्यायगस्स) मा सम परिका (मागहए अद्वादए) भगशिप्रसिद्ध असा प्रभा (जलस्स परिगाहित्तए कप्पइ) Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओपपातिकमरे ण अवहमाणए, एवं थिमिए पसन्ने जाव से वि य परिपूए णो चेव णं अपरिपूए, से वि य सावजे ति काउंणो चेव णं अणवने, से वि य जीवत्ति काउं णो चेव णं अजीवे, से वि वहमाणए णो चेवाण आहमाणए' तदपि च बहमान नो चैर ग्वल्लु अरहमानम् , 'एव थिमिए पसन्ने जाव' एव स्तिमित प्रसन्न यावत् ' से वि य परिपूर णो चेरण अपरिपूए' तदपि च परिप्त नो चैन खलु अपरिपूतम्, कस्मात् कारणात् परिप्त गृणा तीयत आह-' से विय सावने ति काउ' तदपि च मावमिति कृवा-इति । इद जल सावधमस्तीति जात्वा वस्त्रगालित कृवा ग्रहणाताति भान । णो चेवण अणवज' न चैव खल अनवद्यम्-न तु निरनयमिति कृत्या परिपूतं करोति । सायद्यमित्यपि कथ जातम् । इत्यत आह-' से वि यजीवति काउ-तदपि च जीवा इति कृत्वा, इह पुतरकादिजाना सन्तीति कृत्वेति भाव', 'णो, चेव ण अजीवे ति काउ' नो चैव ग्वल अजीव-जीनरहितम् इति कृत्या, “से वि य दिण्णे णो चेव ण अदिण्णे' तदपि च दत्त नो चैव खन्वदत्तम् , महण करना कन्पता है । (से वि य वहमाणए णो चेव ण अवहमाणए ) जितना भर्ष आढक-प्रमाण जल लेना इसे कल्पता है सो भी बहता हुआ ही कल्पता है, अबहता हुआ नहीं। ( एव थिमिए पसन्ने जाव से विय परिपए णो चेव णं अपरिपूए) वह भी कर्दम से रहित, स्वच्छ, प्रसन्न-निर्मल यावत् परिप्त-ठाना हुआ ही कल्पता है, इससे विपरीत नहीं। ( से वि य सापजेत्ति काउणो चेव ण अणवजे) सामा सारच समझ कर छाना हुआ ही कल्पता है, निरवच समझ कर नहीं । ( से वि य जीवत्ति काउ णो चेव ण अजीवे) सावध भी उसे वह जीवसहित समझ कर ही मानता है, अजीप समझकर' नहीं। (से वि य दिण्णे णो चेव ण अदिण्णे) ore सय ४२७ ४८ये छ (से वि य वहमाणए णो चेव ण अवहमाणए) જેટલુ અર્ધઆઢક પ્રમાણ જલ લેવું તેને કહે છે તે પણ વહેતું હોય ते पे छ, न पहेतु डाय ते नलि (एव थिमिए पसन्ने जाव से वि य परिपूए णो चेव ण अपरिपूए) ते पर उभा (य२३)थी २डित, प પ્રસન્ન-નિર્મળ યાવત્ પરિપત–ગાળેલુ જ કપે છે, તે વિનાનું નહિં (તેનાથી sae नथी ४६५g) (से वि य सावजेत्ति काउ णो चेव ण अणवज्जे) पर भाव समलने गाणे ४८ , निरषय समलन नडि (से वि य जीवत्ति काउ णो चेव ण अजीवे) सावध प त त सहित समलने भान छ, म ममलने नडि (से वि य दिण्णे णो क्षेत्र न अदिग्गे) ये मार डाय ते ॥ ४ छ हीधा परनु नलि (से नि Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीपपणी टीका ३७ अम्पडपरिजय विषये भगवद्गीतमयी साद ५९१ - य दिपणे णो चेव णं अदिपणे, से वि य हत्थ -पाय- चरुचमस - पखालणट्टयाए पिचित्तए वा णो चेव णं सिणाइत्तए । अम्मडस्स णं परिव्वायगस्स कप्पड मागहए य आढए जलस्स डिग्गाहिए, से वहमाणए जाव णो चैव णं अदिष्णे, , 'से वि य हत्य-पाय- चरु - चमस-पक्सालणट्टयाए पिचित्तए वा तदपि च हस्तपाद - चरु - चमस - प्रक्षालनार्थाय पातु वा, चर पानविशेष, ' णो चेव ण सिणाइत्तए ' नो चैन स्नातुम् | 'अम्मडस्स ण परिव्वायगस्स कप्पड' अम्बस्य स्खलु परित्राजकस्य कल्पते 'मागहए य आढए जळस्स पडिग्गाहित्तए' मागध चादक जलस्य प्रतिग्रहीतुम्, 'सेवि य वहमाणए जाव णोचेर ण अदिणे' तदपि माने यावत् नो चैव खल्वदत्तम्, ' से 'त्रिय सिणाइत्तए ' तदपि च नातुम्, 'णो चेव ण हत्य-पाय- चरु-चमस हादिया हुआ होता है, विना दिया हुआ नहीं। ( से वि य हत्थ-पाय-चरु- या पितिए वा ) दिया हुआ भी यह जल हस्त, पाद, चरु (पान विशेष) ए चमस के प्रदालन के लिये अथवा पीने के लिये हा कल्पता है, (णो सिणा उत्तए) स्नान के लिये नहीं । (अम्मडग्स पण परिव्वायगस्स कप्पर मागहए य आढए जरम पडिग्गाहित्तए) इस अम्पट परिवाजक को मगधदेशमबंधी आढकप्रमाण जल ग्रहण करना कल्पता है ( से वि य वहमाणए जाव णो चैत्र णं अदिण्णे ) वह भी बहता हुआ यावत् दिया हुआ है। कल्पता है, जिना दिया हुआ नहीं । (सेविय सिणा इत्तर णो णहत्य-पाय-चर-चमस- पक्खालणट्टयाए ) वह भी स्नान के लिये य इत्थ-पाय-रु-चमस-पासालणट्टयाए पिबित्तए वा ) हीधे होय ते पशु पाली, હાથ પગ, ચરુ, તેમજ અમસને ધેાવા માટે અથવા પીવા માટે જ ક૨ે છે (ચરુ, थभस मे पात्रविशेषना नाभो छे ) (णो सिणाइत्तर) स्नान भाटे नहि ( अम्मडस्स ण परिव्वायम्स कप्पइ मागहए य आढए जलस्स पडिग्गाहिए ) मा अजड़ परि बाउने भगधद्देश- समधी साद प्रभाशुभ ग्रह ४४येछे ( से विय हम जाव णो चेव ण अदिष्णे) ते यश हेतु होय ते येछे) ( यावत्) आये होय ते उदये छे ययेषु न होय तेषु नहि ( से वि य' सिणाइत्तए ना er of हत्य-पाय-रु- चमस - पकखालणट्टयाए ) ते अस्नाम भाटे ४ उत्ये ि Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - __ ५९२ औपपातिकमरे से वि य सिणाइत्तए, णो चेव णं हत्थ-पाय-चरू-चमस-पखालणट्टयाए पिवित्तए वा ।। सू० ३७॥ मूलम् ---अम्मडस्स णो कप्पइ-अण्णउत्थिया वा अपणउत्थियदेवयाणि वा अण्णउत्थियपरिग्गहियाणि वा चेइयाई पक्खालणट्ठयाए पिरित्तए वा' नो चैत्र सल हस्त-पाद-चर-चमस-प्रक्षालनाऽर्थ पातु वा, शेषपदव्याख्याऽस्यैागमस्योत्तरार्धे एकोनविंशतितमे मूने प्रदर्शिता, अत्र सूत्रे जलस्य परिमाणं प्रदर्शितमस्ति ॥ सू ३७ ॥ टीका-'अम्मडस्स णो कप्पइ ' इत्यादि। 'अम्मडस्स णो कप्पड' अम्बडस्य न कल्पते, अस्य 'नन्दितुम्' इत्यान्वय । कान् पन्दितु न कल्पते । अनाऽऽह-'अण्णउत्थिया वा' अन्ययूथिकान् वा अन्यत्-तीर्थकरमघापेक्षया भिन्न यद् यूथ-सघस्तदन्ययूय तदस्त्येषामित्यन्ययूथिका मास्यादिभिक्षव तान्, 'अण्णउत्थियदेण्याणि वा' अन्ययूथिकदैवतानि वा--अन्ययूथिकाना दैवतानि अन्ययूथिकदैवतानि-अर्हद्भिन्नान देवान वा, 'अण्णउत्थियपरिग्गहियाणि वा चेइयाई' ही कल्पता है, हाथ, पैर, चरु एव चमचा को धोने के लिये नहीं, और न पान क लिये ही। 'आढक' आदि का अर्थ इसी आगम के उत्तरार्ध में उन्नासने सूत्र का व्यारया में प्रदर्शित किया गया है ।। सू ३७॥ 'अम्मडस्स जो कप्पइ' इत्यादि। (अम्मडस्स) इस अम्बड को (अण्णउत्थिया) अन्ययूथिक-तार्थकरघ की अपेक्षा शाक्यादिक भिक्षुओं का मघ, एव (अण्णउत्थियदेवयाणि वा) अन्यमध द्वारा उपास्यरूप से समत अहंत-प्रभु सिवाय दूसरे देवता, (अण्णउत्थियपरिग्गहिया હાથ, પગ, ચરુ તેમજ ચમચા જોવા માટે નહિ અને પીવા માટે પણ નહિ 'आढक' माहिना मथ मे मागमन। तराईमा योगपीशमा सूत्रनी વ્યાખ્યામાં કરવામાં આવ્યા છે (ઋ. ૩૭) 'अम्मडस्स णो कप्पइ' त्यात (अम्मवस्स) से सम्म (अण्णउत्थिया) भी यूथवा-तीर्थ ४२स बनी अपेक्षा राय सिमाना स५, तेभर (अण्णउत्थियदेवयाणि वा) भीत स द्वारा 6पास्य३५यी समत मत प्रा सिपाय मी हे, (अण्णशियपरिमाहियाणि वा चेझ्याइ) तया भी यूयमा ली गये न साधु Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषषिणो-टीका स. ३८ अम्पडपरिग्राजकविषये भगवद्गीतमयो संपाद. ५९३ वंदित्तए वा णमंसित्तए वा जाव पज्जुवासित्तए वा, णपणस्थ अरिहंते वा अरिहंतचेइयाई वा ।। सू०३८॥ मूलम्--अम्मडे णं भंते । परिव्वायए कालमासे कालं अन्ययूयिकपरिगृहीतान् वा चैम्यान, आर्पवात सोपनिर्देश , चिति =ज्ञान, तर साधव = फुगला चित्या =अहंसाधव ,त एव चैया, प्रजादित्वात् स्वार्थेऽण् , तान् , अयमा पिण्डितोऽर्थ , र्यिका तरमाधून् वा तैथिकान्तरदेवान् या, यथारुयचित्तथिकान्तरममिलितान् जिनसाधून् वा 'बदित्तए चा' वन्दितु स्तोतु या, 'णमसित्तए वा' नमस्यितु-नमस्कर्तुं वा 'जाव पन्जुपासित्तए वा' यावत् पर्युपासितुम्-आराधयितु या, 'णण्णत्य अरिहते वा अरिहतचेट्याइ या' नान्यत्र अर्हतो वा अर्हचै यान् वा । अय निपेघोऽईद्विपये, अर्हत्याधुविपये वा न घटते, किन्तु ततोऽन्यवाऽय निषेध इति भाव । 'चैय' शब्दस्य विस्तृतोऽयं 'उपासमवयाग'-सूनस्यागारधर्ममजीवनीटीकाया भया प्रदर्शित स ततोऽअसेय ॥स ३८॥ टीका---गौतम पृच्छति-'अम्मडे | भते ! परिवायए' इत्यादि । "भते ' है भदन्त । 'अम्मढे णं परिवायए' अम्बट खल्ल परिनाजक णि वा चेइयाइ) तथा अन्य यूथ में सम्मिलित जैन साधु भी (वदित्तए वा णमंसितए ना जाब पज्जुवासित्तए वा) वदना करने, नमस्कार करने एव पर्युपासना करने के लिये (णो कप्पड़) क पते नहीं है। (णण्णस्थ अरिहत्ते वा अरिहतचेइयाइ वा) परंतु यदि नमस्कार आदि के लिये उसे कोई कल्पते हे तो वे एकमात्र अरिहत एव अरिहत के साधुजन ही कल्पते हैं। 'चैय' शब्द का विस्तृत अर्थ, जिज्ञासुओं को 'उपासकदमाग' की अगारधर्ममजीवनी टीका में देखना चाहिये। सू ३८॥ 'अम्मडे भते' इत्यादि । (मते) हे मदत (अम्मढे ण परिवायए) यह अम्बड परिताजक (कालमासे पशु (वदित्तए वा णमसित्तए वा जाय पज्जुगासित्तए वा) पनी ४२११, नभ-४२ ४२वा तेभर प्युपासना ४२११ माटे (णो कप्पइ) नयी ४८यता (णण्णत्थ अरिहते वा अरिहतचेइयाइ वा) ५२ नमा२ मादि योग्य ने કેઈ એને માટે હોય તો તે એકમાત્ર અરિહત તેમજ અરિહતના સાધુજન ४ छ 'चैत्य' शहने। विस्तृत अर्थ शिशाभुयारी 'उपासकदशाग 'नी અગારધર્મસછવની ટીકામ જેવો જોઈએ (સ ૩૮) "अम्मडे ण भते ।" त्या (भते) महन्त ! (अम्मडे ण परिल्यायण) मा भर परिभा (काल Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - भोपपातिकको किच्चा कहिं गच्छिहिति ? कहिं उववजिहिति? गोयमा ! अम्मडे णं परिव्वायए उच्चावएहि सील-बय-गुण-वेरमणपच्चक्खाण-पोसहो-ववासेहि अप्पाणं भावेमाणे बहई वासाई 'कालमासे कालं किचा कहिं गच्छिहिति ? कहि उववनिहिति ?' कालमासे काल कृत्या कुन गमिष्यति । कुत्रोपस्यते ? भगवानाह-'गोयमा! अम्मडे ण परिवायए' हे गौतम । अम्बड खलु परियाजक 'उच्चारएहिं उच्चावचै नानाविधै , 'सील-व्ययगुण-वेरमण-पचरखाण-पोसहोवासेहि' शील-त-गुग-विरमग-प्रयाख्यानपोपधोपवासे , शीलानि-"शील समाधौ” अस्माद् पञ्, नपुसकरवं लोकात् , शीलति-आत्मचिन्तनरूप समाधि प्रामोति एभिस्तानि गीलानि । तानि चचारि-सामायिक-देगावकाशिकपोपधा-तिथिनविभागारयानि, व्रतानि-पञ्चाणुवतानि, गुणा त्रीणि गुणवतानि, विरमण मिथ्यात्वान्निवर्तनम् , प्रत्याख्यान-पर्वदिनेषु त्याज्याना परित्याग, पोपधोपवास -पोष-पुष्टि धर्मस्य वृद्धिमिति यावद् धत्ते इति पोषध , पोषधशब्दो रूढया पर्वसु वर्तते, पर्वाणि चाष्टमी--चतुदेशी-पौर्णमास्यमावास्यातिथय , पूरणात् पर्वेत्युच्यते, पूरणत्व धर्मवृद्धिकारकत्वात् , पोषधे उपकाल किचा) काल अवसर मे काल करके (कहिं गच्छहिति) कहा जायगा ? (कहिं उवव जिहिति) कहा उत्पन्न होगा ? प्रभु ने कहा-(गोयमा) हे गौतम !(अम्मडे ण परिवायए उच्चावएहिं सील-व्यय-गुण-वेरमण-पञ्चक्रवाण-पोसहोववासेहि) यह अम्बड परित्राजक अनेक प्रकार के शोलपत-जिनके द्वारा आत्मा के चितन रूप समाधि जीव प्राप्त करता है उनका नाम शीलवत है, गुणवत, मिथ्यात्वक्रिमण, प्रत्याख्यान-पर्वदिनों में त्याग करने योग्य वस्तुओं का त्याग करना, पोपधोपवास-अष्टमी, चतुर्दशी, पौर्णमासी एव अमा वास्या ये तिथियाँ धर्म का पोपण करती है इसलिये ये पौषध है, इनमे चतुर्विध आहार का मासे काल किच्चा).४६ अक्सरे हद ४शन (कहिं गच्छिहिति) ४ गश (कहिं उववजिहिति) ४या उत्पन्न थशे ? प्रमुख उत्तरमा ४-(गोयमा) 8 गीतम! (अम्मडे ण परिवायए उच्चावएहिं सील-व्यय-गुण-वेरमण-पच्चक्खाणपासहोववासेहिं) मे गम परित्रा, मन प्रसारना शीसad (ना દ્વારા આત્માના ચિન્તનરૂપ સમાધિ જીવ પ્રાપ્ત કરે છે તેનું નામ શીલશ્રત છે), ગુણવ્રત, વેરમણ-મિથ્યાત્વવિરમણ, પ્રત્યાખ્યાન-પર્વના દિવસોમાં ત્યાગ કરવા યોગ્ય વસ્તુઓને ત્યાગ કરવો, પિષપવાસ–અષ્ટમી, ચતુર્દશી, પણુંમાસી તેમજ અમાવાસ્યા એ તિથિઓ ધર્મનું પોષણ કરે છે તે માટે Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूपवपिणी टीका सू ३९ अम्नदपरिमाजकविषये भगवद्गौतमयो सवाद ५९५ समणोवासगपरियायं पाउणहिति, पाणित्ता मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झुसित्ता, सहि भत्ताई अणसणाए छेदित्ता, वास = नियमनिशेष पोपधोपवास, स चतुर्निव आहारणगग्स कारख्यागतयचर्य सावयन्यापारपरियागभेदात् । एपा श्रीलादिपोपधोपवासान्तानामितरेतरयोगद्वन्द्वन्नैस्तथोक्तै 'अप्पाणं भारेमाणे बहूई वासाइ समोनासयपरियाय पाउणहिति' आमान भावयन् बहूनि वर्षाणि श्रमगोपासकपर्याय पालयियति, 'पाउणित्ता ' पालयिचा 'मासियाए सहणाए अप्पाण सित्ता' मासिस्या म्लेखनयाssमान जुपिया = सेविया, 'सट्ठि भाइ असणाए छेदत्ता' पष्टि भक्तानि अनशनेन हित्वा 'आलोइयपडिकते ' त्याग करना । इन सबका भेद इस प्रकार है, श्रीलत का भेद - सामायिक, देगावकाशिक, पौध और अतिथिनविभाग इस प्रकार से ४ हैं । गुणत्रत तीन है । पौषोपवास भी ४ प्रकार का है - आहार का त्याग, शारीरिक सत्कार का त्याग, ब्रह्मचर्य का पालन एव सावध व्यापार नहीं करना । इन सन नियमों-मतों से ( अप्पाण भाषेमाणे ) अपनी आमा को भावित करता हुआ (बहूइ वासाइ समणोवासगपरियाय पाउणहिति ) अनेक वर्षो तक श्रमणोपासक - श्रावक की पर्याय का पालन करेगा । ( पाउणित्ता मासियाए सलेहणाए अप्पार्ण सित्ता ) इस प्रकार श्रावक की पर्याय को पालन करके फिर वह १ मास को मलेखना से अपनी आमा को युक्त कर अर्थात् एक मास की मलेवना धारण कर ( सहि भत्ताइ अणसणाए छेदित्ता ) साठ भक्त का अनशन से छेदकर ( आलोयपडिकते) पापकर्मों की आलोचना-प्रतिक्रमण करके ( समाहिपत्ते) समानि એ પાષધ છે તેમા ઉપવાસ એટલે વમવું એ પેાધેાપવાસ કહેવાય છે એ બધાના ભેદ આ પ્રકારે છે, શીલવ્રતના ભેદ-સામાયિક, દેશાવકાશિક, પેધ, અને અતિથિઞવિભાગ, આ ચાર પ્રકારના છે. ગુણુવ્રત ત્રણ પ્રકારના છે પાષધાપવાસ ચાર ૪ પ્રકારના છે-આહારને! ત્યાગ, શાીકિ સત્કા ત્યાગ, બ્રહ્મચર્યનું પાલન તેમજ સાવદ્ય વ્યાપાર ન કરવા આ મા नियमो - त्रतोथी ( अप्पाण भावेमाणे ) पोताना आत्माने लावित उश्ता थ (बहइ वासाइ समणोपासगपरियाय पाउणहिति) भने वो सुधी श्रमशो पास-श्रावनी पर्यायनु पादान कुशे ( पाउणित्ता मासियाए सलेहणाए अप्पाण झूसित्ता) या अारे श्रावनी पर्यायनु यासन जीने छ भेड भागनी भोजना धारषु नरीने (सट्ठि भत्ताइ अणसणाए छेडित्ता ) साह लडतनु मनुशनथी छेहन नगीने (आलोइयपडिकते) पाप भनी Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओपपातिकको आलोइयपडिकते समाहिपत्ते कालमासे कालं किया बंभलोप कप्पे देवत्ताए उववनिहिति। तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं दस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। तत्थ णं अम्मडस्स वि देवस्स दस सागरोवमाई ठिई । सू०३९ ।। मूलम्--से णं भंते ! अम्मडे देवे ताओ देवलोगाओ आलोचितप्रतिक्रान्त प्रतिनिवृत्त , 'समाहिपत्ते समातिप्राप्त , 'कालमासे काल किचा' कालमासे काल कृत्या 'भलोए कप्पे देवत्ताए उपरनिहिति' ब्रह्मलोके कल्पे देवना पस्यते, 'तत्थ ण अत्येगइयाण देवाण दस सागरोपमाई ठिई पण्णत्ता' तत्र खल्नु मस्ति एकेपा केपाचिद् देवाना दश सागरोपमानि स्थिति प्रजमा । 'तत्य ण अम्मडस्स वि देवस्स दस सागरोवमाइ ठिई' तर खल्लु अम्मडस्याऽपि देवस्य दश सागरोपमानि स्थिति ॥ सू० ३९ ॥ टीका---गौतम पृच्छति-'सेण मते ?' इत्यादि। "से ण भते ! अम्मडे देवे' स खलु भदन्त ! अम्बडो देव , 'ताओ देवको प्राप्त करेगा। पश्चात् (कालमासे काल किचा) काल अवसर में काल कर के (वमलोए कप्पे देवत्ताए उक्वन्जिहिति) ब्रह्मलोक नामक पाचवे देवलोक मे उपन होगा। (तत्थ णं अत्येगइयाण देवाण दससागरोवमाइ ठिई पण्णता) वहा कितनक देवों की स्थिति १० सागर की है। (तत्थ णं) वहा पर (अम्मडस्स वि देवस्स दस सागरोबमाइ ठिई ) इस अम्बड देव की भी दश सागर प्रमाण स्थिति होगी ॥ ३९॥ से ण भते अम्मडे देवे' इत्यादि । गौतम पूछते है-(भते) हे भदत ! ( से अम्मडे देवे) वह अम्बड देव (ताओ मायना तथा प्रतिभा प्रशन (समाहिपत्ते) समाधिन आस ४२शे पछी (कालमासे फाल किच्चा) स-ससरे ४ गत (यमलोए कप्पे देवत्ताए उववाजिहिति) हा नाना पायमा मा पन यशे (तत्थ ण अत्थेगझ्याण देवाण दससागरोचमाइ लिई पण्णता) यस वोनी स्थिति १२ १० सागरनी छ, (तत्थ ण) त्या (अम्मडस्स वि देवस्स दससागरोवमाइ %) આ અબડદેવની પણ દસ સાગર પ્રમાણ સ્થિતિ થશે (સૂ૦ ૩૯) 'से ण भते । अम्मडे देवे' त्यादि गीतम पूछे-(भते) HEd! (से ण अम्मडे देवे) सम्म Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - पीयूषर्षिणी-टीका सु ४० अमडारिवाजकथिपये भगवद्गीतमयो सपाद ५९७ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता कहि गच्छिहिइ, कहि उववजिहि ॥ सू० ४०॥ मूलम्---गोयमा। महाविदेहे वासे जाइं कुलाई लोगाओ' तस्मादेवलोकात् 'आउपरवएण' आयु क्षयेण-देवसम्बन यायु कर्मदलिकनिर्जरणेन, 'भवकावएण' भवक्षयेणदेवभयहेतुगयारिकर्मनिर्जरणेन, 'ठिडक्सण्ण स्थिति क्षयेणब्रह्मलोके दशसागरोपमस्थितिक्षयेग 'अणतरं' अनन्तर चय-गरीर 'चइत्ता' त्यक्त्वा, 'कहिं गच्छिहिइ कुत्र गमिष्यति, 'कहिं उपवनहित कुत्रोप स्यते ॥ स ४० ॥ टीका-गौतमेन पृष्ट सन् भगनानाह-'गोयमा!' इत्यादि। 'गोयमा!' हे गौतम ! 'महाविटेहे गामे जाइ कुलाइ भाति' महाविदेहे वर्षे यानि कुलानि भवन्ति सन्ति, कानि तानि ? इत्याह-'अड्ढाइ आयानि समृद्धानि, देवलोगाओ) उस देवलोक से (आउखएणं भवरखएण ठिडस्खएण) आयु के क्षय-देवमाधी आयुकर्म के टलिकों को निर्जरा से, भर के क्षय-देवभव के हेतु गयादिक कर्म की निर्जरा से तथा स्थिति के क्षय-ब्रह्मलोक मधी १० सागर की स्थिति के समाप्त होने से (चय चइत्ता) देवपर्याय से ग्यवकर (अणतर) इसके बाद (कहिं गच्छिदिइ कहिं उववन्निहिड) कहा जायगा। कहा उत्पन्न होगा ॥ सू ४०॥ 'गोयमा! महानिदेहे पामे' इत्यादि। गौतमस्वामीने पूर्वोक्त प्रकार से जब प्रभु से पूछा तब उन्होंने कहा-(गोयमा) हे गौतम ! ( महारिटेहे वासे ) महाविदेह क्षेत्र मे (जाइ) जितने ( अडढाई दित्ताइ वित्ताइ) आढ्य-समृद्ध दीप्त--उज्ज्वल तथा प्रगसित, एव पित्त--प्रसिद्ध, (कुलाइ भवति) (ताओ देवलोगाओ) से alsी (आउम्पएण भवस्सएणं ठिइक्सण्ण) આયુને ક્ષય--દેવસ બંધી આયુકમંદલિની નિર્જરથી, ભવનો લય–દેવભવના હેતુ ગતિ આદિકમની નિર્જાથી તથા સ્થિતિને ક્ષય-બ્રહ્મલોક समधी ४२ सारनी स्थिति समास पाथी (चय चइत्ता) पर्यायथी युत थईने (अणतर) त्या२ ५७ी (कहि गलिहिइ कहिं उपजिहिइ १) 410? ४या उत्पन्न 22 ? (सू० ४०)। "गोयमा ' महाविदेहे वासे" त्यादि गौतमे ५२ ४ह्या ४ारे न्यारे असुने ५७यु त्या तमामे ४-(गोयमा) उ गौतम! (महाविदेहे वामे) मडाविड क्षेत्रमा (जाइ) रेसा (अड्ढाइ दित्ताइ वित्ताइ) माढय-समृद्ध, हीH-Sarvan तथा प्रश भित, तभक वित्तप्रसिद्ध, (कुलाइ भवति) गो. (वित्थिण्ण-विउल-भवण-सयणा-सण-जाण Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८९८ ओपपातिकer 2 भवंति अड्ढाई दित्ताई वित्ताडं वित्थिष्ण - विउल-भवण-सयणा - सण - जाण - वाहणाईं बहुधण- जायरुव-रययाई आओग-पओग-संपउत्ताइं विच्छड्डिय-पउर-भत्तपाणाई बहु-दासी'द्वित्ताइ' दीमानि = उबलानि प्रशमितानि, 'पिचाई' वितानि=प्रसिद्धानि 'वित्थिष्णविउ-भरण- सणा-सण जाण वाढणाई' निस्तीर्ण-निपुल- भवन- डायना - Ssसन यान-चाहनानि-निस्तीर्णानि = विस्तृतानि विपुलानि = विशालानि भवनानि शयनादीनि च येषु कुलेषु तानि तथा, 'बहुधण - जायरूप - रययाड' बहुधन - जातरूप - रजतानि - बहनि धनानि जातरूपाणि=मुवर्णानि रजतानि च येषु तानि तथा, 'बहु-दासी दास गो-महिसगवेलग-प्पभूयाइ ' बहु-दासी दास गो-महिप-गवेल - प्रभूतानि - बहुव्यो दास्य मयो दासा, गाव = धृषभा धेनवश्व, महिपा = महिपा मरिष्यथ, गवेलका = मेषा तै प्रभूतानि = सहितानि, 'आओग --पओग - सपउत्ताई' आयोग-प्रयोग-सम्प्रयुक्तानि - विविधदानाकुल हैं। जो कि (वित्रिण- विउल-भरण-सयणा - सण ~ जाण - वाहणाट) विस्तृत एव विपुल भवनों के अधिपति है । जिनके पास अनेक प्रकार के शयन, आसन एव यानचाहनाद्रिक है। (पहुधनजायरूपरययाइ) जो बहुत अधिक धन के स्वामी हैं। सोने एव चादीकी जिनके पास कमी नहीं है। (आओग-पओग-सपउत्ताइ) आदान-प्रदान अर्थात् लाभ के लिये लेन-देन का काम करते हैं, ( विच्छड्डिय-पउर - भत्त - पागाई ) याचक आदि जनों के लिये जो प्रचुरमात्रा में भक्तपान आदि देते हैं, ( बहु-दासी - दास-गोमहिस-गवेग-प्पभूयार ) जिनकी सेवामे रातदिन अनेक दासी एव दास उपस्थित रहा करते है, जिनकी गोशालाए अनेक वैलोसे, गायों से, महपियों से, महिपां से, एव मेपों से, सदा भरपूर रहा करती हैं, (पहुजणस्स अपरिभूयाइ) और जो किसी के द्वारा भी पराभव वाहणाइ) ने विशाण तेभन वियुज लवनाना अधिपति छे, लेमनी चासे ने अजरना शयन, आसन, तेभन यान - वाहन आदि छे, ( बहु-धनजायरूप - रययाइ) ने पहुन धनना स्वाभी छे, सुवार्थ तेभन शाही नेभनी पाने थोडी नथी, (आओग-पओग-मपउत्ताइ ) महान- अहान अर्थात् सालने भाटे सेणुहेलुनु श्रभ ठरे छे, (निच्छनिय - पउर - भत्त - पाणाई) या महि बनाने भाई के अचुर मात्रामा लक्ष्त पान खाहि खाये छे, ( बहु-दासीदास - गो-महिस - गवेलग - पभूयाइ) लेनी सेवाभा शतहिवस भने हासी દાસ ઉપસ્થિત રહ્યા કરે છે જેમની ગૌશાળાઓ અનેક ખેલાથી, ગાયાથી ले भोथी, पाडायोथी, तेभन घेटाथी सहा लरपूर रहह्या ४रे छे, ( बहुजणस्स Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पीयूषयषिणी-टीका स ४१ अभ्यडपग्विाजविषये भगवदगीतमयो सघाद ५९९ दास-गो-महिस-गवेलगप्पभूयाई बहुजणस्त अपरिभूयाइ तहप्पगारेसु कुलेसु पुमत्ताए पञ्चायाहिइ ॥ सू. ४१ ॥ मूलमू--तए णं तस्स दारगस्स गन्भत्थस्स समाणस्स अम्मापिईणं धम्मे ढढा पडण्णा भविस्सइ ॥ सू ४२॥ दान-कर्मोपयुक्तानि, 'पिछडिय-पउर-भत्तपाणाड ' पिछर्दित-प्रचुर-भक्तपानानिविच्छर्दितानि-दत्तानि प्रचुराणि भक्तानि पानानि-पेयानि यै दुस्तानि तया, 'बहुजणस्स अपरिभूयाइ ' बहुजनस्याऽपरिभृतानि, कैरप्यपराजितानात्यर्थ । 'तहप्पगारेमु' तथाप्रकारे-तादृशेषु कुलेषु, 'पुमत्ताए' पुस्तया-पुस्पतया, 'पञ्चायाहिद' प्रत्यायास्यति-उपस्थत इत्यर्थ ।। सू ४१॥ टीका-'तए ण' इत्यादि ।'तए ग' तत खलु-तत्पश्चात् 'तस्स दारगस्स' तस्य दारकस्य वालस्य 'गम्भत्थरस चेव' गर्भस्यस्यैव गर्भाऽऽगतस्यैव सत पुण्यशालितया तप्रभावात् 'अम्मापिईण धम्मे' मातापित्रोधर्मे 'दढा पदण्णा' दृढा प्रतिज्ञा 'भविस्सइ' भविष्यति-धर्माराधनाय दृढनिश्चयो भविष्यती यर्थ ।। सू ४२ ॥ नहा पा सकते हैं, (तहप्पगारेर कुलेसु पुमत्ताए पञ्चायाहिद) ऐसे विशिष्ट कुलो मे से किसा एक कुल मे यह अम्बड परिवाजक पुस्परूप से उत्पन्न होगा ।। सू० ४१ ॥ 'तए णं तस्स दारगस्स' इत्यादि। (तए ण) इसके पश्चात् (तस्स दारगस्स) उस लडक के (गव्भत्यस्स समाणस्स) गर्भ में आते ही पुण्य के प्रभाव से (अम्मापिईण) मातापिता को (धम्मे दढा पदण्णा भविस्सइ) धर्म में दृढ आस्था उत्पन्न होगी ।। सू० ४२ ॥ अपरिभूयाइ) मन था पy १२५ पामता नयी (तहपगारेसु कुलेसु पुमत्ताए पच्चायाहिइ) सेवा विशिष्ट मामाथी से शुभा मे અમ્બાડ પરિવાજ પુરુષરૂપથી ઉત્પન્ન થશે (સૂ ૪૧) 'तए णं तस्स दारगरस' इत्यादि (तए ण) त्यार पछी (तस्स दारगस) ते राना (गभत्थस्स समाणस्स ) मा मातtar पुश्यना प्रभाव पडे (अम्मापिईण) माता-पितानी (धम्मे दहा पइण्णा भविस्सइ) धर्ममा १८ स्या Gurन थशे (सू ४२) Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिक मूलम् --से णं तत्थ णवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अट्टमाण इंदियाणं बीइकंनाणं सुकुमालपाणिपाए जाव ससिसोमाकारे कंते पियदंसणे सुरूवे दारए पयाहिए ॥ सू. ४३ ॥ मूलम् -- तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो पढमे टीका- ' से ण तत्य' इत्यादि । 'सेण तत्य' स खलु तत्र ' णवण्हे मासाण ' नवसु मासेषु, अत्र सप्तम्यर्थे पड़ी, एवमग्रेऽपि, 'वहुपडिपुण्णाण' बहुप्रतिपूर्णेषु = सर्वथा व्यतीतेषु, 'अद्धदुमाणं ' अर्धाष्टमेषु - सार्थसप्तमु 'राइन्दियाणं' रात्रिन्दिवेषु 'वीइकताण' व्यतिक्रान्तेषु यतीतेषु 'जात्र ससिसोमाकारे ' यावत् शशिसौम्याकार = चन्द्रवसुन्दर, ‘कते' का'त = कमनीय, 'पियदसणे' प्रियदर्शन, 'सुरूवे ' सुरूप, 'दारए' दारक = पुत्र ' पर्यााहिए ' प्रजनिष्यते = उत्पत्स्यते ॥ सू ४३ ॥ टीका -- 'तए ण' इत्यादि । ६०० 'तर ण तस्स दारगस्स अम्मापियरो पढमे दिवसे ' तत खलु तस्य दारकस्य अम्बापितरौ प्रथमे दिवसे 'ठिइवडिय' स्थितिपतित=कुलमर्यादाप्राप्त-पुत्रजन्मोत्सव 'सेण तत्थ वह मासाण' इत्यादि । (तत्थ) गर्भ मे (णवण्ह मासाणं बहुपडिपुण्णाण अद्धमाण राईदियाण वीरक्कताण) नौ महीने साढे सात दिनरात बीतने पर (सुकुमालपाणिपाए जात्र ससिसोमा कारे कते पियदसणे सुरूवे दारए पयाहिर) यह सुकुमार पाणिपादवाला यावत् चद्रमा के समान सौम्य आकारवाला, कात, प्रियदर्शन एव सुन्दररूप से विशिष्ट ऐसा पुत्र उत्पन्न होगा ॥ सु ४३ ॥ 'तए ण तस्स दारगस्स' इत्यादि । (ar ण) इसके बाद ( तस्स दारगस्स) इस बालक के ( अम्मापियरो) माता'सेर्ण तत्थ णवण्ह मासास ' इत्याहि ( तत्थ ) गलभा ( णनह मासाण बहुपडिपुण्णाण अद्धद्रुमाण राहूदियाण वीइताण ) नव भहिना भने साडा सात दिनरात पीत्या पछी ( सुकुमाल - पाणि- पाए जाव ससिसोमाकारे कते पियदसणे सुरूवे दारए पयाहिइ ) એ સુકુમાર હાથપગવાળા, યાંવત્ ચંદ્રમા જેવા સૌમ્ય આકારવાળા, કાત, પ્રિયદર્શન, તેમજ સુદર રૂપથી વિશિષ્ટ એવા પુત્ર ઉત્પન્ન થશે (સૂ ૪૩) 'तए ण तस्स दारगरस' इत्याहि (तए ण) त्यार पछी ( तस्स दारगस्स) या मासउने। (अम्माप्पियरे ) भाता Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषपपिणी-टीवार ४ सम्पनियामक टिपये भगदगौतमयो संपाद ६०१ दिवसे डिवडियं काहिति. विडयदिवसे चंदसूरदंसणियं काहिति, छठे दिवसे जागरियं काहिति, एक्कारसमे दिवसे वीइते णिव्वत्ते असुइ-आय-कम्मकरणे संपत्ते वारसाहे दिवसे अम्मापियरो इमं एयारूवं गोणं गुणणिप्फण्णं णामधेनं काहिति'काहिति' करिष्यत 'वियदिवसे' द्वितायदिवसे 'चंदमूरदसणिय' चन्द्रसूर्यदर्शनिकानामक पुत्रनन्मोत्सवविशेष करिप्यत , 'नटे दिवसे' पळे दिवसे 'जागरिय' जाग रिका गनिजागरिका-पुतजन्मोसवरूपा फरिप्यत 'एकारसमे दिवसे' एकादशे दिवसे 'बीडरते' व्यतिक्रान्ते व्यतीते, 'णिब्बते' निवृत्ते= व्यताते ‘असुइनायकम्मकरणे' अशुचिजातकर्मकरणे-अशुचीनाम्-अगोचवता जातकर्मणो जातकर्ममस्कारस्य यत करणविधान तम्मिन् , निवृत्ते मताति पूर्वेगान्चय 'सपत्ते वारसाहे दिवसे' सम्प्राप्ते द्वादशाहे दिवसे दादशाहरूपे दिन समागते ठन्यर्थ , अम्मापियरो इमं एयाख्व गोणं गुणणिप्फपण नामवेज्ज काहिति' अम्बापितरो इद-वक्ष्यमागम् तद्रूप वक्ष्यमाणस्वरूप गौण पिता (पढमे दिवमे) प्रथम दिवस में (ठिऽवडिय) अपनी स्थिति के अनुसार पुत्र-जन्म के उत्सर को (काहिति) मनावेंगे। (विश्यदिवमे चटपरदसणिय काहिति) द्वितीय दिवसमें पुत्रजन्म के उसव के अवसर पर मनाये जाने वाले 'चदमूर्यदर्शनिका' नाम के उत्सव को करेंगे। (उद्धे दिचमे जागरिय काहिति) उठवे दिन जागरण करेंगे (एकारसमे दिवसे वीडक्कते णिन्चत्ते असुटजायसम्मकरणे सपत्ते वारसाहे दिवसे) ग्यारहवें दिवस जननाशौच समाम होने पर फिर बारहवें दिवस के लगने पर ( अम्मापियरो) इसके मातापिता (इम एयाख्व गोण गुणणिप्फण्णा णामवेज साहिति) दमका गुणमयधयुक्त एव सार्थक यिता (पढमे दिवसे) परदा हिपये (ठिइवडिय) पातानी स्थिति अनुसार पुत्रान्मनो (काहिति) मनायथे, (विइयनिवमे चदसूरदसणिय काहिति) બીજે દિવસે પુત્ર જન્મના ઉત્સવ અવસરે મનાવવામાં આવતે “ચ દ્રસૂર્યशनि।' थे नाम सप २थे, (उद्वे दिवसे जागरिय काहिति) ७४ पिसे MARY ४ (कारममे दिवसे पीइन्ते णिवत्ते असुइजायकम्मकरणे सपसे बारसाहे दिवसे) अभीयारमे पिसे ममशीय (सूत४) समास २६ गया पछी मारमा ५ यता (अम्मापियरो) तेना भातापिता (इम एयारूव गोण गुणणिप्फण्ण णामवेज काहिति) तना गुमने अनुरक्षाने Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ औपचातिक जम्हा णं अम्हं इमंसि दारगंसि गव्भत्यंसि चेत्र समाणसि धम्मे दढपणा, तं होउ णं अम्हं दारए दढपडणे णामेणं । तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो णामधेज करेहिंतिदढपइणति ॥ सू. ४४ ॥ मूलम् -- तं दढपइण्णं दारगं अम्मापियरो साइरेगह गुणसम्बन्धयुक्त, गुणनिष्पन्न- गुणै = धर्मनिपयकदादर्यादिगुणैर्निध्पन्न = सिद्ध नामधेय करिष्यत । 6 जम्हा ण अम् मंसि दारगंसि गमत्यसि चैव समाणसि ' यस्मात्स्वच्चावयोरस्मिन् दारके गर्भस्थ एव सति ‘धम्मे' धर्मे= धर्माराधन 'दढपइण्णा' दृढप्रतिज्ञा ढढनिश्रयो जात, 'त होउ ण अम्ह दरिए दढपणे णामेण तद् भवतु खच्वावयोर्दारको दृढप्रतिज्ञो नाम्ना–तस्मादस्य बालकस्य ' दृढप्रतिज्ञ' इति नामास्तु - इत्यर्य । ' तर ण तस्स दारगस्स अम्मापियरो णामवेज्ज करेर्हिति दढपइण्णेत्ति ' तत खलु अम्बापितरौ तस्य दारकस्य नामधेय करिष्यतो दृढप्रतिज्ञ इति ॥ मू ४४ ॥ " टीका'त दडपण' इत्यादि । 'त दढपण' त दृढप्रतिज्ञ=दृढप्रतिनामक नामकरणमस्कार करेंगे। वह इस बात को विचार कर इसका नाम रखेंगे कि ( जम्हाण अम्ह इमसि दारगसि गन्भत्यसि चैव समाणसि धम्मे दढण्णा, त होउ णं म्हं दारए दढपणे नामण ) हमारा यह बालक जब गर्भ मे आया था तब से ही हम लोगों की प्रतिज्ञा-आस्था धर्म मे दृढ हुइ, अत हमारे इस बालक का नाम दृढप्रतिज्ञ हो । ( तप ण तस्स दारगस्स अम्मापियरो णामधेज्ज करेहिंति दढपइण्णत्ति ) उस समय उस बालक के मातापिता उसका नाम दृढप्रतिज्ञ रखेगे ॥ सू ४४ ॥ સાર્થક નામકરણૢસ કાર કરશે તેઓ એ વાતને વિચાર કરીને તેનુ નામ राजशे (जम्हा ण अम्ह इमसि दारगसि गन्मत्थसि चेव समाणसि धम्मे दृढपइण्णा त होउ ण अम्ह दारए दढपइण्णे नामेण सभा समाज क्यारे ગર્ભ મા આવ્યા હતા ત્યારથીજ અમારા લેાકેાની પ્રતિજ્ઞા-આસ્થા ધર્માંસા દૃઢ था, तेथी अभारा या आजउनु नाम दृढप्रतिज्ञ रहे। (तए ण तस्स दारगस्स अम्माfपयरो णामवेज्ज करेहिंति दढपइण्णत्ति) ते समये ते मागड़ना भाताપિતા તેનુ નામ દેઢતિજ્ઞ રાખશે (સ્ ૪૪) Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोवृषवर्षिणी टीका सु ४५ अभ्यडपरिग्राजकषिपये भगवद्गीतमयो सयाद ६०३ वासजायगं जाणित्ता सोभणंसि तिहिकरणदिवसणक्खत्तमुहत्तंसि कलायरियस्स उवेणहिति ॥ सू ४५॥ । मूलम्-तए णं से कलायरिए तं दडपडणं दारगं लेहाइयाओ 'दारय' दारफ-कुमारम , 'अम्मापियरो' अभ्यापितरौ 'माइरेगढ़वासनायग' सातिरेकाटपर्पजातक-किंचिदधिकाटवपाणि जातानि यस्य स तथा त, किंचिदधिकाष्टवर्पवयस्कमियर्थ , 'माणित्ता' जावा 'सोभणमि'गोभने--शुभकारके 'तिहिकरणदिवसनक्रवत्तमुहुत्तसि' तिथिकरणदिवस नक्षत्रमुहर्ते 'कलायरिस्म' कलाचार्यस्य 'उवणेहिति' उपनेप्यत --द्वासप्तनि फलाजानप्राप्तये कागिसकस्य समीप नेप्यत इत्यर्थ ॥ मू० ४५ ॥ टीका-'तए ण' इत्यादि । तए ण से कलायरिए' नत म्बलु स कलाचार्य 'न दडपडण्ण' तं दृढप्रतिज दृढप्रतिजनामक 'दारग' दारक 'लेहाइयाओ' लेखादिका , 'त ददपडण्या दारग' इत्यादि। (त दढपडण्ण दारग) पश्चात् उस दृढप्रतिज्ञ नामक बालक को (अम्मा पियरो) उसके माता-पिता (साइरेगट्ठवासजायग जाणित्ता) जन आठ वर्ष से कुछ अधिक वय का जानेंगे तब वे उमे (सोभणसि तिहि-करण-दिवस-णक्वत्त-मुहुचमि कलायरियस्स उवणेहिति ) शुभ तिथि, शुभ करण, शुभ नक्षत्र एव शुभ मुहर्त में कलाचार्य के पास ७२ कलाओं का ज्ञान प्राप्त कराने के निमित्त ले जावेगे। सू ४५ ॥ 'तए ण से कलायरिए' इत्यादि । (तए ण) इसके बाद (से कलायरिए) वह कलाचार्य (त दढपइण्ण 'त दढपइण्ण दारग' त्यादि (त दृढपण्ण दारग) त्या२ पछी ते प्रतिज्ञ नामना माने (अम्मापियरो) तना माता-पिता (साइरेग-वास-जायग जाणित्ता) क्यारे २५8 ५२सयी ४६७ पधारे उभरने लगे त्यारे तेमा तेन (सोभणमि तिहि-करणदिवस-णस्यत्त-मुहत्तसि कलायरियस्स उवणेहिति) शुमतिथि, शुस २४, शुभ દિવસ, શુભ નક્ષત્ર, તેમજ શુભ મુહૂર્તમાં કલાચાર્યની પાસે ૭૨ કળાઓનું જ્ઞાન પ્રાપ્ત કરાવવા નિમિત્તે લઈ જશે (સ. ૫) 'तए ण से कलायरिए' इत्यादि (तए ण) त्या ५०ी (से कलायगिए) ते सायाय (त दडपडण्ण दारग) Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपातिकको गणियप्पहाणाओ सउणस्यपज्जवसाणाओ वावत्तरिकलाओ सुत , ओ य अत्थओ य करणओ य सेहाविहिति सिक्वाविहिति, त जहा लेहं १, गणियं २, रुवं ३, णटं ४, गीयं ५, वाइयं ६, सर'गणियप्पहाणाओ' गणितप्रधाना , 'सउणरुयपजवसाणाओ' शकुनरतपर्यवसाना ,'बार तरिकलाओ' दासप्ततिकला , 'मुत्तओ य' सूरत मनस्यपदपाठनात् , 'अस्थओं य' अर्थत पदार्थबोधनात् , 'करणोय करणत =अयोगत -कलाव्यापार प्रदर्शनात् , 'सहावित हिति' साधयिपयतिभापयिष्यति, 'सिक्रवावहिति' शिक्षयिष्यति अभ्याम कारयिष्यति । ता कला नामत प्रदर्शयति- 'त जहा' तद्यथा-'ले लेख-लेम्वन लेख - अक्षरबिन्यासस्तद्विषयकलाविज्ञान लेम्ब एवोभ्यते तम् , 'गणिय' गणित-मा यान मकालता घनेकमेदम् २, 'रूब' रूप लेप्यशिलासुवर्णमणिवसचित्रादिपु रूपनिमाणम् ३, 'ण' नाटयसाभिनयनिरभिनयपूर्वक नर्तनम् ४, 'गीय' गीत गान्धर्वकलाज्ञानविज्ञानम् ५, 'वाइय' वाप-वीणापटहादिवादनकलाजानम् ६, 'सरगय' स्वरगतम्गीतमूलभूताना पड्जरूपमाददारग) उस दृढप्रतिज्ञ कुमार को (लेडाइयाओ गणियप्पहाणाओ) लिम्बने आदि का, गणित की, तथा पक्षी के शब्द आदि जानने की (बावत्तरिफलाओ) ७२ कलाओं में (मुत्तो य) सूत्ररूप से (अत्यो य) एव अर्थरूप से तथा (करणी यो प्रयोगरूप से (सेहाविहिति) प्राप्त करायेगा, (सिक्वाविहिति) अभ्यास करायेगा। (त जहा) बहत्तर कलामो के नाम ये हैं- (१ लेह ) लेस लिखने की, (२ गणिय) गणित की,(३ रूप) रूप की अर्थात् लेप्य, शिला, सुवर्ण, मणि, वस्त्र एव चित्र इत्यादिकों में रूपनिर्माण करने की, (४ जह) नृत्य की-साभिनय एर निरभिनयपूर्वक नाचने की, (५ गीय) गाने की, (६ पाइय) वीणा एव पटह-ढोल आदि बाजे बजाने की, (७ सरगय) ते प्रति अभारने (लेहाइयाओ गणियप्पहाणाओ) मन माहिनी, गणतनी तथा पक्षीना श४ मा पानी (बावत्सरिकलाओ) ७२ जाम (सुत्तओ य) सूत्र३५थी (अत्थओ य) तेभर मथ ३५थी, तथा (करणओ य) प्रयोग ३५थी (सेहाविहिति) पास ४२२५री, (सिक्सारिहिति) मल्यास ४शपरी (त महा म तेर मायाना नाम मा प्रभाव छ-१ (लेह) मा समपानी, २. (गणिय) गलितनी, . (रूव) ३५नी अथान य, शिक्षा, सुपण, भय, १४ मा ચિત્ર ઈત્યાદિમા રૂપ નિર્માણ કરવાની, ૪ (દ) નૃત્યની–સાભિનય તેમજ नलिनय--पू' नावानी, ५ (गीय) सापानी, (वाइय) a तमा परदास मा पानि वानी, ७ (सरगय) स्पशनी-जीतना भूगभूत Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोषवषिणो-टोका र १६ अम्ग्रहपरिवाजविषये भगवद्गीतमयो संपाद ६०५ गयं ७, पुक्खरगयं ८. समतालं ९, जूयं १०. जणवायं ११, पासगं १२. अहावयं १३, पोरेकव्वं १४. दगमट्टियं १५, अण्णविहिं १३, पाणविहिं १७, आभरणविहिं १८, सयणविहिं १९, अजं २०, स्वगणा परिमानम ७, 'पोफमरगय' पुष्कग्गत-मृदङ्गविषयकं विज्ञानम , वाद्यान्तर्गनवेऽपि मदगादे पृथककथन परमगीतामापोरनार्थम् ८, 'ममताल' समताल-गीतादिमानकाल रताल म सम =न्यूनापिकमानारहितो जायते यस्मात् तत् ममतालविज्ञानम् ९, 'जूयं' त-'जुगार' इति भाषायाम १०, 'जणवाय' जनवान-जनेषु वादप्रतिवादकरणस्यम् ११, 'पासय' पाग-धतोपकरणविशेष, 'पागा' इति भापायाम १२, 'अट्ठावय' अष्टापद-चूतविशेषग्वेल्नम १३, 'पोरेकन्च' पुर काव्य-पुरत पुगत काव्य-काव्यम्पपाणानि सारणं याप्रकरित्यमित्यर्थ १४, 'दगमट्टिय' रकमत्तिकाम् उत्कयुक्तमृत्तिकाप्रयोगविधि दकमत्तिका-कुम्भकाररिपेयर्थ , ताम् १५, 'अन्नविहि. अन्नविधिम अन्ननिष्पादनविज्ञानम् । 'अन्नविहि' इत्यत्र समायामोक्तस्य 'मधुमिथ' इत्यस्य समावेग १६, पाणविहि पानविषयविज्ञानम् १७, 'भामरणविहि आभग्णविधिम-भूपगनिमाणधारणविज्ञानम् । म्वरा की गति के मूलभूत पज-मपभ आदि स्वर्ग का, (८ पुपरवरगय) मृद्रग बजाने की (९ समताल) समताल की-तान के अनुसार नाल नजान का, (१० जयं) जुआ खेलन की, (११ जणवाय) लोका क साथ प्रतिवाट कग्न का, (१२ पामग) पासा फेंकने की, (१३ अट्ठावय) अष्टापद-चौपड खेलने का, (१४ पोरेकचा आशुकवि होन की, (१५ दगमदिय) मिट्टी से अनेक प्रकार क वर्तन बनाने की, (१६ अण्णविहि) धान्य आदि को वो कर अन्नादिक उत्पन्न करन की-भोजन बनाने का, समयायाग में उक्त 'मपुसित्यमधुसिस्य का इसामे समावेश किया गया है (१७ पाणविहिं) पेयपदार्थ की पिपि जानन ५४०-५म माति १२रानी, ८ (पुस्मरगय) भूट पाउपानी, (ममनाल) समतासनी-तानने अनुमा२ तास पानी, १० (ज्य) नुसार २भवानी, ११ (जणपाय) बाजानी माये प्रतिमाह ७२वानी, १२ (पासग) पामा पानी, १३ (अट्ठारय) माप-यापार २भवानी, १४ (पोरेकन्य) मावि थवानी, १५ (दगमट्टिय) भाटीमाथा भने २॥ म मनापानी, १९ (अण्णविहि) घान्य माहिने पापीन अन्न माहिने 641 २१नी-मासन मना पानी, सभपायागमा 61 'मधुमित्थ' भसियने। समावेश डी ४ ४२पामा माये। छ, १७ (पाणनिहिं) पीवाना पहायनी विपि पानी, १८ Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०६ औपातिकas पहेलियं २९, मागहियं २२, गाहं २३, गीइयं २४, सिलोयं २५, ३ 1 'आभरण त्रिि इयन समनाया जाता - राजपक्षीय जम्बुद्वीपप्रज्ञमिवर्णितस्य 'वत्थरिहिं' इत्यस्य, तथा ज्ञाता - राजप्रश्रीय- जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिरुवितस्य 'विलेवणविहिं' इत्यस्य च समावेश १८, 'सयणविहिं' शयननिधिार यापर्यादिनिविज्ञानम् १९, 'अज्ज' आर्या=मानान्दोरूपा, मात्रा मेनन उन्दोनिमाणनिज्ञानम् २०, ' पहेलिय प्रहेलिका = गूढाशय गद्यपद्यमय रचनाम् २१. ' मागहिय' मागधिका=मगधदेशीयभाषाकपित्वम् २२, ‘गाह' गाथा = मस्कृतेतग्भापानिनद्रामार्यामेव, कलिङ्गादिदेशभाषानिबद्ध कचित्यविज्ञान ना २३, 'गीइय' गीतिका = पूर्वार्धसदृशोत्तरार्धलक्षणरूपाम् २४, 'सिलोय' श्लोकम्=अनुष्टुबादिलक्षणम् २५ हिरण्णजुत्ति' हिरण्ययुक्तिरजतनिर्माणकी, (१८आभरणनिर्हि) आभरण आदि को बनाने व उन्हें यथास्थान धारण करने की, समवायाङ्ग ज्ञाता, राजप्रश्नीय और जम्बूद्रीपप्रज्ञप्ति में उक्त 'वत्थविहिं' वस्त्रविधि का, ज्ञाता, राजप्रश्नीय तथा जम्बूद्वीप में उक्त 'विलेवण निर्हि' निलेपननिधि का समावेश यहीं पर हो जाता है, (१९ सयणविहिं) राया आदि बनाने का, (२० अज्ज) आर्याउन्द-मात्रिक छंदों को रचने की, (२१ पहेलिय) प्रहेलिका की, अथात् गूढ आगमनाला गद्यपद्यमयी रचना करने को (२२ मागहिय) मागधिकाकी अर्थात् मगध देशकी भाषा मे कविता रचने की, (२३ गाह) मस्कत से भिन्न भाषा में मात्रिक छन्दो में कविता रचने की, अथवा कलिंग आदि देशों की भाषा में निबद्ध कविता के विज्ञान की, ( २४ गीइय) पूर्वार्ध के सदृश उत्तरार्ध लक्षणरूप गीतिका उन्द मे काव्य रचन का, (२५ सिलोय) अनुष्टुप् आदि छन्दों में श्लोकों को रचने की. (२६ हिरण्णजुति) चाँद बनाने का विधि की (२७ सुत्र (आभरणविहिं) मालश्शु महि मनाववानी, सभवायाग, જ્ઞાતા, રાજપ્રનીય अने यूद्वीप प्रज्ञसिभा उत ' वत्थविहिं ' वस्त्रविधिना, मने ज्ञाता, शुभપ્રશ્નીય અને સમવાયાગમા ઉક્ત 'विलेवणविहिं' विद्वेधनविधिना સમાવેશ અહીં જ કરવામા આવ્યેા છે १५ ( सयण विहिं ) शय्या આદિ मनाववानी, २० ( अज्ज ) आर्या छ६ - भात्रि- छ हो रथवानी, २१ (पहेलिय) अडेसिानी अर्थात् गूढ આશયવાળી ગદ્યપદ્યમયી રચના खानी, २२ ( भागहिय) भागधी अर्थात् भगध देशनी लाषाभा अविता રચવાની, ર૩ (૪) સસ્કૃતથી જુદી ભાષામા માત્રિક છે દેમા કવિતા રચ વાની, અથવા લિગ દે દેશની ભાષામા રચિત કવિતાના વિજ્ઞાનની, २४ (गीइय) पूर्वार्धना प्रेम उत्तरार्धंसक्षय ३५ जीति छहमा जम्य रथवानी, २५ ( सिलोय) अनुष्टुप माहि छ हामी खेो रथवानी, २६ (हिर " Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषधषिणी-टीका सु ४६ अभ्याडपरिग्राजक विषये भगवदगीतमयो सयाद ६०७ हिरण्णजुत्ति २६, सुवण्णजुत्ति २७, गंधजुत्ति २८, चुण्णजुत्ति २९, तरुणीपडिकम्म ३० इथिलक्खणं ३१, पुरिसलक्खणं ३२ हयलक्खणं ३३, गयलक्खणं ३४ गोणलक्खण ३५, कुकडलक्षण विधिम् २६, 'मुचन्नजुत्ति' मुवर्णयुक्ति-युवर्णनिर्माणोपायम् २७, गंधजुत्ति' गन्धयुक्तिगधद्रव्यनिर्माणविधिम् २८, 'चुन्नति' चूर्णयुक्ति वशीकरणान्तर्धानाथ तत्तचितडव्याण्येकत्रीकन्य तपिष्टीकरणविधिम २५, 'तरुणीपडिझम्म' तरणापरिकर्म-युवतीरूपगाभापरिवर्धनविधिम् ३०, “उत्थिलकावण' बोलक्षगम्=पमिनाहस्तिन्यात्युिपतीना लक्षणम् ३१, 'पुरिसलरखण' पुरुपल तणम उत्तमम यमारिपुरपाणा लक्षगविज्ञानम् ३२, 'हयलायण' यलमण-ताप्रापालिकटारिल मणविज्ञानम्, 'हयलक्षण' इयत्र समसायागोक्तस्य 'आमसिकरव' इत्यस्य समावेश ३३ 'गयलावण' गजलमाहस्तिशुभाशुभलक्षणपिनानम् , 'गयलावण' इत्यत्र समायालोक्तस्य 'हत्थिसिकग्व' इत्यस्य समावेश ३४, 'गोणलक्रवण गालक्षण- साम्नानिकला अतिम्ला मूपिरुनयनाश्र न शुभदा गाव' ट्यादिविज्ञानम् ३५, 'कुकुडलवण' कुक्कुटलक्षणम् , 'कुक्कुडलक्षण अजुत्ति) मुवर्णनिर्माण करने की विधि की, (२८ गंधजुत्ति) गधद्रव्य को बनान की विधि की, (२९ चुन्नत्ति ) शाकरण आदि चूर्ण को बनाने वाली औषधिया को एकत्रित कर उनकी पिटा करने की विधि की (३० तरुणीपडिकम्म) युवती के रूप की शोभा बढाने का विधि का (३१ इथिलक्रवण) पानी, हस्तिना आदि युवतियों को जानने के लक्षणो का, (३२ पुरिसलवण) पुस्पा को पहिचानन के लक्षणों की, (३३ हयलकवणं) अश्वों क लक्षणों को जानन की तथा उनको चलाने का (३४ गयलकवण) हाथी के लक्षणों को जानन की, यहाँ पर समायाग में उक्त 'हत्थिसिक्ख ' हस्तिशिक्षा कला का समावेश हुआ है (३५ गोणलकावण) गाय के लक्षणों को जानने की, (३६ कुक्कुडलक्षण) कुक्कुटण्णजुत्ति) याही मनापानी विधिनी, २७ (सुवन्नजुत्ति) सुपा निभाय ४२वानी विधिनी, २८ (गधजुत्ति) अपद्रव्य मनापानी विधिनी, २८ (चुन्नजुत्ति) વશીકરણ આદિ ચૂર્ણ બનાવવાની ઔષધીઓને એકઠી કરી તેને પીસવા (पाटी नाव)नी विधिनी, ३० (तमणीपडिकम्म) युवताना ३पनी सीमा वापानी विधिनी, ३१ (इथिलक्सण) पशिनी, स्तिनी मा युवतीमा ने बतायवान वक्षनी, ३२ (पुरिसलक्षण) पुरुषाने तशुपाना क्षयानी, ३3 (हयलम्पण) घोसना सक्षणे वानी तथा भने यसापानी, ३४ (गयलक्यण) हाथीना सक्ष पानी, सही समवायासमा ४d 'इत्थि Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०८ भापति ३६, चकलक्खणं ३७, छत्तलम्वणं ३८, चम्मलक्खणं ३९, दंडलक्खणं ४०, असिलक्खणं ४१, मणिलपवणं ४२, कागणिलपखण ४३, वत्थुविज्ज ४४, खंधारमाणं १५, नगरमाणं ४६, चार इत्यत्र समवायानोक्तम्य 'मिढयलाग्यण' इयस्य समाने , उपम्यगढी मचारेण सादृश्यात् ३६, 'चकलाखण' चक्रलक्षण-चकरनगुणदोपविज्ञानम् ३७, 'उत्तलक्खण' उनल क्षण-उत्रस्य शुभाशुभविज्ञानम् ३८, 'चम्मलपवण' चर्मलक्षण, चर्म-ढाल इति प्रसिद्ध तस्य शुभाशुभलक्षणज्ञानम् ३९, 'दडलकरण' दण्टलक्षणम् दण्डस्य शुभाशुभलक्षणविज्ञानम् ४०, 'असिलवग्वणं' असिलक्षणम्-'मलीशतार्ध उत्तम खड्ग' इत्यादिविज्ञानम् ४१, 'मणिलखणं' मणिलक्षण रत्नपरीक्षाविज्ञानम् ४२, 'फागणिलक्खण' काकालक्षणम्-चक्रवर्तिनो रनविशेष काकणी, तस्या विषापहरणमानोन्मानादियोगप्रवर्तकत्वादिजार नम् ४३, 'वत्युविज ' वास्तुविद्याम्-वसति अस्मिन्निति वास्तु-गृहादिक तस्य विधा: वास्तुशास्त्रप्रसिद्ध गृहभूमिगतदापगुणविज्ञानम्, 'वत्युविज' इत्यत्र समवायाङ्गक्तिया 'वत्थुमाण' 'वत्युनिवास' इत्यनयो समावेश ४४, 'खधारमाण' मुर्गे के लक्षणों को जानने का, समवायाङ्ग में उक्त 'मिंढयलक्खणं' (मॅढेका लक्षण) का समावेश यहीं हो जाता है । (३७ चक्लक्खणं) चक्ररन के गुणदोष जानने की, (३८ छत्तलक्खण) छत्र के शुभाशुभ जानने की, (चम्मलक्खण) ढाल के खोटे-खरे लक्षणा को जानने की, (४० दडलक्खण) दड के अच्छे-बुरे लक्षणों को जानने की, (४१ असिलेक्खण) तलवार के लक्षणों की, (४२ मणिलक्षणं) मणिलक्षण जानने की-रत्नका परीक्षा करते की, (४३ कागणीलक्खण) चक्रवर्ती के काकणी रत्न को जानने की, (४४ वत्थुविज्ज) वास्तु (घर) शास्त्र की, समवायाङ्ग में उक्त 'वन्थुमाण' वास्तुमान आर 'वत्थुनिवेश' वास्तुनिवेश इन दोनों का यही समावेश होता है, (४५ रखधारमाण) शत्रु का सिक्ख' स्तिशिक्षा ४पामा समावेश या छ ३५ (गोणलक्खण) गायना क्षA ongaiनी, 36 (कुक्कुडलक्सण) ४४-४न सक्षणे। पाना, सभवायासमा त “मिंढयलक्खण' (घानु सक्षयनी समावेश ही थाय छ ३७ (चफलक्पण) २४२त्नना शुशुहोष पानी, ३८ (छत्तलक्खण) छत्रता शुम मशुम नपानी, 36 (चम्मलक्सण) दासना मोटा तथा म सक्षला नपानी, ४० (दडलक्सण) ६ उन सारा-नरसा सक्ष! पानी, ४१ (असिलक्खण) त२पारना ससपनी, ४२ (मणिलक्षण) भलिना सक्षणी Mg पानी, ४३ (कागणीलक्खण) २४ताना sel Rल पानी, ४४ (वत्थुविज) Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषपिणी-टीका सू ४६ अण्डपरिप्राजाधिपये भगवद्गीतमयो सपाट ६०९ ४७, पडिचारं ४८, वूहं १९, पडिवूह ५०, चकवूह ५१ गरुलवूह स्कन्धावारमान-मनु विजेतु कठा फियपरिमित सैन्य निवडानीयमिति प्रमाणविज्ञानम् । 'संधारमाण' इत्यत्र समनायाझोक्तस्य 'खवावारणिस' दयस्य ममावेश 'नगरमाण' नगरमानम्-अस्मिन् प्रदेशे कीदृशमायामदैयोपलक्षित नगर निर्मापणीय, येन विजयशाली भवेयम्, कस्य वर्णस्य कस्मिन् स्थाने निया श्रेष्ठ इति विज्ञानम्, 'नगरमाण' दयन समवायाझोक्तस्य 'नगरणिवेस' इत्यस्य समाग ४६, 'चार' चार-योतिधारविनानम्। 'चार' दत्यन समनायागोक्ताना 'चढलखण' सरचरिय, राहुचरिय, गहचरिय' दयेतेपा चतुर्णी समावेश ४७, 'पडिचार' प्रतिचार प्रतिवर्तितचारम्-इप्टानिष्टफलजनकगान्तिकमादिक्रियाविशेषविज्ञानम, 'पडिचार' इत्यत्र 'सोभागकरं, दोभागकर, विज्ञागये, मंतगयं, रहस्सगय, सभासचार' इत्येतेपा समवायाहोक्ताना पण्या समावेश ४८, 'ई' व्यूह -शकटयाकृतिसैन्यरचनम् ४९, 'पडिजीतने के लिये कितनी सेना होनी चाहिये इस प्रकार सेना के परिमाण को जानने की, यहाँ पर समनायाग में उक्त 'संथागारणिवेसं ' स्कन्यावारनिवेश का समावेश होता है। (४६ नगरमाण) इस प्रदेश में कितना लया कितना चौडा नगर बसाना चाहिये जिससे मैं विजयशाली हो सकू तथा किस वर्ण को किस स्थान में बसाना श्रेष्ठ होगा इन सब बातों के विज्ञान की, समायाह्न में उक्त ‘नगरनिवेस' नगरनिवेश का अतर्भाव यहीं पर हो जाता है। (१७ चार) ज्योतिश्चा की, समवायाग मे कथित (चदलकरपण) चद्रमा के लक्षण, (मुरचरियं राहुचरिय गहचरिय) सूर्य की चाल, राहु की चाल एवं ग्रहों की-चाल, इन सनों का समा-- वेश 'चार' में समझना चाहिए । (४९ पडिचार) इष्टानिष्टफलजनक गान्तिकर्म आदि क्रियाविशेषों के विज्ञान की, यहाँ समनायाग कथित “सोभागकर दोभागकर विजागय मतपातु (३२) शासनी, समवायामा Ext "वत्थुमाण वत्थुनिवेस" वास्तुभान तेभर वास्तुनिशन समावेश मडी थाय छे ४५ (सधारमाण) शत्रुने જીતવા માટે કેટલી બેન દેવી જોઈએ, એ રીતે સેનાના પરિમાણને (ગણતરી) पानी, समपायाभा Erd 'सधागारनिवेम' थापा२निवेशन गडी ५२ समावेश थाय छे, ४ (नगरमाण) मा प्रदेशमा वड सामु मन छ પહોળું નગર વસાવવું જોઈએ કે જેથી હુ વિજયશાળી થઈ શકુ તથા ક્યા વણું (ાત) ને ત્યા સ્થાનમાં વસાવવું શ્રેષ્ઠ થશે એ બધી વાતના विज्ञाननी, समवायागमा 61 'नगरनिवेस' ना२निशाना समावेश मही या छ ७ (चार) यातिनी, समवायागमा उद Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१० भोरगतिको ५२,सगडवूह ५३, जुद्धं ५४, निजुद्धं ५५, जुद्धाइजुद्धं ५६, मुट्टि चूह ' प्रतिव्यूहम्-व्यूहप्रतिपक्षिभूत ब्यूह-सैन्यरचनाविशेषम् ५०, 'चकवड' चक्रव्यूहम्स सैन्यस्य चक्राकाररचनाविशेपम् ५१, 'गल्यह' गरुडन्यूह-गरुटारतिसेनानिवपरिज्ञानम् ५२, 'सगडयूह' शकटव्यूह-कटयतिसन्यरचनम् ५३, 'जुद्ध' युद् ममामम् , 'जुद्ध' इत्यन ज्ञाता-ममवायागोतस्य 'अद्विजुद्ध' इयस्य, तथा-समनायाङ्गोतस्य 'दडजुद्ध' इत्यस्य, तथा जम्बूद्वीपप्रजन्तिकथितस्य 'दिद्विजुद्ध' इत्यभ्य, तथा राजप्राय सूत्रोक्तस्य 'असिजुद्ध' इत्यस्य च समावेश ५४, 'निजुद्ध' नियुद्ध मल्लयुद्धम् ५५, 'जुद्धाइजुद्ध' युद्धातियुद्रम् खड्गादिप्रक्षेपपूर्वक महायुद्रम् ५६, 'मुहिजुद्ध' मुष्टियुद्रम्, योधयो परस्पर मुष्ट्या हननम् ५७, 'याहुजुद्ध' याहुयुदम् ५८, 'लयाजुद्धं ' लतायुद्ध गय रहस्सगय सभासचार" इस पाठ का समावेश हुआ है । (४९ वूह) शकट आदि के आकार में सैन्य स्थापित करने की, (५० पडिवूह) व्यूह के प्रतिपक्षी व्यूह को रचना करने की, (५१ चकवूह) चक्रव्यूह की सैन्य को चकाकर रचने की, (५२ गालब्बूह) गरुडव्यूह की-गरुड़ की आकृति के समान सैन्य को रचने की, (५३ सगडवूह) कट की आकृति के समान सैन्य को रचने की, (५४जुद्ध) सग्राम करने की, यहाँ पर जाता, समवायाग मे कथित (अद्विजुद्धं) अस्थियुद् का, (दडजुद्ध) दंडयुद्ध का, तथा जबूद्वीपः प्रज्ञप्ति में प्रतिपादित (दिद्विजुद्ध) दृष्टियुद्ध का और राजप्रश्नीयसूत्र में बताया गया (असिजुद्ध) तलवार से युद्ध करने का समावेश हुआ है, (५५ निजुई) मल्लयुद्ध की, (५६ जुद्धाइजुद्ध) खड्गादिप्रक्षेपपूर्वक महायुद्ध करने की, (५७ मुद्विजुद्ध) मुष्टियुद्ध करने की, (५८ बाहुजुद्ध) बाहु से युद्ध करने की, (५९ लयाजुद्ध) लतायुद्ध की, जिस प्रकार लता 'चदलसण' माना aaj "सूरचरिय राहचरियं गहचरिय' सूर्यनी न्यास, राईनी यास तेभर अहानी न्यास में अधाना समावेश 'चार' मा सभनया नये ४८ (पडिचार) ४४-मनिट ३० ति माह जिया. विशेषना विज्ञाननी, मही सभवाय सभा उस “सोभागकर, दोभागकर, विजागय, मतगयं, रहस्सगय, सभासपार" मा पनि समावेश यो छ, ૪૯ (જૂ) સકટ ગાડી આદિના આકારમાં સૈન્ય સ્થાપિત કરવાની, ५० (पडिवृह) व्यूडना प्रतिपक्षी न्यूडनी श्यना ४२वानी, ५१ (चक्बूह) A8न्यूनी-सैन्यने ५४४२ स्थपानी, ५२ (गरुलाही न्यूडनी-नी કાતિના જેવી રિન્યરચના કરવાની, પ૩ (9) શકટની આકૃતિ ના समान भैन्य स्थपानी, ५४ (जुद्ध) सयाम ४२०गनी, मडी 'ज्ञाता मने समवायाग' भी डेस (अद्विजुद्ध) अस्थियुद्धना, (दडजुद्ध) ६ उयुद्धन तथा जबुद्वीप Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- | শীঘূর্থিী -হা ৪ ৫ ঘৱাৰিয়ালযিযয সমযৗনমযীঃ ২ जुद्धं ५७. वाहुजुद्धं ५८, लयाजुद्धं ५९, ईसत्थं ६०.छरुप्पवायं ६१, धणुव्वेयं ६२, हिरपणपागं ६३, सुवण्णपागं ६४, सुत्तखेडं ६५, यथा लता वृक्षमागेटन्ती आमूलमागिरो वृक्षमावेष्टयति, तथा यत्र योध प्रतियोगशरीर गाढ निपाट्य मृमो पातयति तन्नायुद्धम् ५९, 'सत्य' इपुगास्त्र-नागवाणादिदिव्यानसूचक आवम्, 'सत्य' इति प्राकृतौन्या उपुयायम् ६०,'छप्पवाय' सुरप्रपातम्, नुर ='क्षरा' इति प्रमिद उदनगरपिशेष , तस्य प्रपात -पातनम् ६१, 'धणुव्वेय' धनुर्वेद-धनुशास्त्रम् ६२, 'हिरण्यपाग' हिरण्यपाक रजतसिद्धि ६३, 'मुवण्णपाग' सुवर्णपानः कनकसिदिम्, 'मुवण्णपाग' इपासमायागराजप्रश्नीयसूत्रोक्तयो 'मणिपागधातुपागं' इत्यनयो समावेश ६४, 'मुत्तखेड' नग्येल-मूरमीडाम् ६५, 'वट्टखेड' वृत्तलम् ६६, एतकलाद्वय लोकतो बोध्यम्। 'वखेड' या 'चम्मखेड' चर्मखेलम्-टयन्य ममनायागोक्तस्य समावेश । वृक्ष पर चढ कर नीचे से ऊपर तक वृक्ष को लपेट लेती है उसी प्रकार योधा जिस युद्ध म प्रतियोगा के शरीर को अयन्त पीडित कर जमीन पर पटक देते हैं और उसके ऊपर चढ़ बैठते हैं वह लतायुद्ध है उसकी, (६० ईसत्य) इपुशास्त्र की, 'सत्य' यहा पर प्राकृतगरी से इपुगात्र ममझना चाहिये । नागनाण आदि दिव्य अस्त्र आदि का सूचक जो भास्त्र हे उसका नाम दपुशास्त्र है उस की, (६१ छुरप्पवाय) छुरा से युद्ध करने की, (६२ घणुव्बेय) धनुर्वेद की, (६३ हिरण्णपाग) रजतसिद्धि की, (६४ मुवण्णपाग) सुवर्णसिद्धि की, गजप्रश्नीय एव समवायाग में कथित मगिपाक और धातुपाक का समावेश यहीं करना चाहिये । (६५ मुत्तखेड) सूत्र-डोरा से सेल्ने की, (६६वट्टखेडं) वर्त-रस्सी पर सेलने की, यहाँ पर समायागोक्त-(चम्मखेड) चमडा से ग्मेलना-इसका भी समावेश प्रज्ञप्ति । अहियान ठरेस (दिट्रिज) युद्धनी मने 'राजप्रश्नीय' सूत्रमा सतावत (असिजुद्व) तसारथी युद्ध ४२वानी समावेश थयेा छ ५५ (निजुद्ध) भयुद्धनी, ५ (जुद्धाइजुद्ध) मा माहि प्रक्षेपपूर्व [धा भारीने] महायुद्ध पानी, ५७ (मुद्विजुद्ध) मुष्टियुद्ध ४२वानी, ५८ (वाहुजुद्ध) माथी युद्ध ४२पानी, ५८ (लयाजुद्ध) सतायुद्धनी,२शत [स] वृक्ष ५२ यडीने नीयथा 6 सुधा વૃક્ષને લપેટી લે છે તેવી જ રીતે ધા જે યુદ્ધમાં મામેના ચોધાના શરીરને ગાઢરૂપથી પીડા કરી જમીન ઉપર પાડી દે છે અને તેના ઉપર ચડી બેસે છે તે લતાયુદ્ધ छ, तेनी, १० (ईमत्य) धुशासनी, 'ईस थ' मा प्राकृत शवायी धुशा मम લેવું જોઈએ નાગબાણ આદિ દિવ્ય અસ્ત્ર આદિનુ સૂચક જે શાસ્ત્ર છે તેનું નામ धुशास तेनी, १(उपाय) छराथी युद्ध पानी, २ (धगुम्वेय) धनुनी , १३ (हिरण्णपाग) २४तमिद्धिनी, १४ (सुवण्णपाग) सुपसिद्धिनी, 'राजप्रत्रीय' Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१२ ৗবানি चट्टखेडं ६६, णालियाखेड ६७, पत्तच्छेज ६८,कडच्छेज ६९,सजीबं ७०, निजीवं ७१, सउणरुय ७२-मिति वायत्तरिकलाओ सेहावित्ता सिम्खावेत्ता अम्मापिईणं उवणेहिति ॥ सू०४६॥ 'नालियाखेड' नालिकाखेलग-यूतपिशपम्-मादिष्टदायाद विपरीतपागक्रनिपतन मिति नालिकाया यर पागा पात्यते । यद्यपि ते एवास्य समावेशो भवितुमर्हति तथापि नालिकाखेलप्राधान्यज्ञापनार्थ भेदेन ग्रहणम् ६७, 'पत्तरेने पाच्छेद्यम् =अष्टोत्तरशतपत्राणा मध्ये विवक्षितमख्याकपत्रच्छेदने हस्तलाघनम् ६०, 'कडच्डेन' कडच्छेद्यम्-कट (चटाश वत् क्रमान्छेय वस्तु यत्र विज्ञाने तत्तथा तत् ६९, 'सन्नी' सजीव-सजीवकरण-मृतधाचा दोना सहजस्वरूपापादनम् ७०, 'निजीव' निर्जीव-निजीकरणम्-हेमादिधातुमारण पारद मारण वा ७१, 'सउणण्य' शकुनरुतम् , अन शकुनपद रुतपद चोपलक्षणम् , तेन सर्वशकुनमग्रह , गतिचेष्टादिगवलोकनादिपरिग्रहश्च ७२, 'इति यावत्तरिकलाओ' इति द्वासात तिकला -द्वासप्ततिपुस्पकला 'सेहावित्ता सिक्खावेत्ता' सेधयित्वा शिक्षयित्वा च 'अम्मा पिईणं उवणेहिति' मातापित्रोरुपनेष्यति समर्पयिष्यति ॥ स ४६॥ हुआ है । (६७ नालियाखेड) यूतविशेष खेलने की-नालिका में पाशे डालकर जुआ खेलने की, (६८ पत्तच्छेन्ज) पर छेदन करने की, १०८ पत्रों में से विवक्षित पत्र का छेदन करने मे हाथ की कुशलता की, (६९ कडच्छेज्ज) कट की अर्थात् चटाई की तरह क्रम २ से छेदन करने की, (७० सज्जीव) मारी हुई धातुओं को पुन प्रकृतिस्थ करने का (७१ निजीन) निर्जीर करने की हेमादिक धातुओं को मारने की, अथवा पारे को मारत की, (७२ सऊणरुय) पक्षियों के गन्द पहिचानने की उनकी गति, चेष्टा एव अवलोकन आदि जानने की कला, (इति वावत्तरिकलाओ सेहावित्ता सिवावेत्ता अम्मापिइण तभर 'समवायाग मा ४स भथियार मन धातुपा समावेश गडी 3२३॥ नये १५ (सुत्तखेड) सूत्र-द्वाराथी २भवानी,RE (वट्टखेड) पहा२१ ५२ २. पानी, मी अभवायागमा ४९स (चम्मखेड) याभाथी सवुमेना पर सभावेश ४य छ १७ (नालियासेड) चतविशेष २भपानी-sिt पास नाभीन भा२ २भवानी, ६८ (पत्तन्छेज्ज) पत्र वानी, १०८ पत्रोमाथी विवक्षित पत्र ४५पामा हाथनी अशणता नी, ६६ (कडच्छेज)४टनी-मर्थात यानी यह भभथी छन ४२वानी,७० (सज्जीय) भारी धातुमान शनप्रतिस्थ ४२वाती, ७१ (निन्जीव)नि ४२वानी-भ माहियातुमान भारपानी, मथवा पाराने भारवानी ७२ (सउणरुय) पक्षियोन श६ सभापानी, तेमनी गति, येष्टा तेमा भानमा पानी ४11 (इति वायत्तरिकलाओ सेहावितों सिक्खाविता Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी- टीका सू ४७ अम्पड परियाजकविषये भगवद्गीतमयी सवाद ६१३ मूलम् ---तए णं तस्स देढपइण्णस्स दारगस्स अम्मापियरो तं कलायरियं विउलेणं असण- पाण- खाइम - साइमेणं व्रत्थ-गंध-मल्ला-लंकारेण य सक्कारेहिंति सम्माणेहिंति, सक्का टीका-' तए ण' इत्यादि । ' तर १ तम्स दडपण्णम्स दारगस्स अम्मापय त कलायरियं ' तत खलु तस्य दृढप्रनिजस्य दारकस्य अम्यापितरौ त कटाचा 'लेणं असण- पाण- खाइम - साइमेण ' विपुलेनाऽनपानखावस्था धेन वत्य-गय-मल्ला-लंकारेण य सकारेहिति सम्माणेहिंति ' वागन्धमाच्यालङ्कारेण च सत्कारयिष्यत सम्मानयिष्यत - सुगमानि पदानि वाक्यानि च । ' सकारिता सम्मापित्ता' सकृत्य समान्य ' विउलं जीवियारिह पीदाण दलइस्सति' निपुल जीवि उवदिति ) ये ७२ फलायें पुरुषकी हैं, इन कलाओं की शिक्षा कराचार्य उसे देगा, पथात् वह उसे उसके मातापिता के पास लाकर सौंप देगा || सू ४६ ॥ ' 'तए णं तस्स ' इत्यादि । (तएण ) इसके बाद ( तस्स दढपइण्णस्स दारणस्स ) उस दृढ प्रतिज्ञकुमार के ( अम्मापियरो) मातापिता ( त कलायरिय) उस कलाचार्य का ( विउ लेणं बसण - पाण- खाइम - साइमेण वत्थ-गंध-मल्ला-लकारेण य सकारेहिंति ) विपुल, अगन, पान, खादिम, स्वादिम, वस्त्र, गध, एव माला तथा अलकारों के प्रदान से खूब सत्कार करेंगे | ( सम्माणेहिंति ) खूब सन्मान करेंगे | ( सकारिता सम्माणित्ता ) सत्कार एव सन्मान करके पश्चात् वे उसे (विउल जीवियारिह पीइराण दलइस्सति ) - अम्मापण उवणेहिति) मा ७२ जाओ पुरुषनी छे मे हमायोनी इसाचार्य तेने શિક્ષા આપશે. પછી તે તેને તેના માતાપિતાની પાસે લાવીને આપી દેશે (સ્૦ ૪૬) 6 तए ण तस्स इत्यादि (तए णं) त्यार पछी (तस्स दढपइण्णस्स दारगस्स ) ते हृढप्रतिज्ञ उभारना ( अम्मापियरो ) भातापिता (त कलायरिय) ते ४सायार्थना (विउलेण असण-पाणखाइम - साइमेण वत्थ- गध-मल्ला-लकारेण य सक्कारेहिति) विधुत अशन, पान, માહિમ, સ્વાદેમ, વા, ગષ તેમજ માલા તથા અલકારે આપીને ખૂબ सत्}{२ ४२शे, (सम्माणेहिति) भूभ सन्मान ४२शे (सक्कारिता सम्माणित्ता) सत्कार तेभन सन्मान हरीने ही तेथे तेने (विल जीवियारिहं पीइदाण Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रित्ता सम्माणित्ता विउलं जीवियारिहं पीइटाणं दलासंति, दल इत्ता पडिविसनेहिति ॥ सू०१७ ॥ - - ।। मूलम्--तए णं से दढपइण्णे दारए बोवत्सरिकलापडिए नवंगसुत्तपडिवोहिए अहारसदेसभासाविसारण गीयरई काऽऽहं प्रीतिदान दात्यत , 'दलइत्ता' दया 'पडिविसजेहिति । प्रतिविम जेयिष्यत ॥ सू० ४७॥ ।। , ' टीमा--'तए णं' इत्यादि । 'तए ण से दढपटपणे दारए ' 'तत 'सलु स दृढप्रतिजो दारक 'वारतरिकलापंडिए' द्वासप्ततिकलापण्डित 'नवगमृत्तपाडवोहिए' नगाङ्गसुप्तप्रतियोधित नामानि दे श्रोने, वे नेत्रे, वे घ्राणे, एका च जिहा, स्वर्गकी, मनश्चैमिति, तानि सुप्तानीव सुप्तानि-याच्यादव्यक्तचेतनानि ,तानि प्रतियोषितानि यौवनन व्यक्तचेतनावन्ति कृतानि यस्य स तथा । 'गीयरई गीतरति गानप्रियः, गधन-पट्टविपुल रूप में जीविका के योग्य प्रीतिदान देंगे, (दलइत्ता पंडिविसजेहिति) आर देकर उसे विसर्जित कर देंगे । स ४७ ) 77 (1 ) 'तए से दीपडण्णे दार त्यादि । (तए ण) इस के बाद (से) वह (दढपडण्णे) दृढप्रतिज (दारए) कुमार (बावत्तरिकलापडिए) बहत्तर कलाओं मे पडिन (नवगसुत्तपडिबोहिए) एव सुप्त नवागों-२ कान, २ क्षेत्र, २ नासिका के छिद्र, १ "जिह्वा, १ स्पर्गन इन्द्रिय और मन के प्रतिबोध-जागृति से युक्त यौवनावस्था सपन्न होकर, (अद्वारसदेसभासाविसारए) १८ देशों की भाषा का ज्ञाता होगा, (गीयरई गधन्त्रणमुकुसले ) यह -कुमार. गीत में दलासति) विधु- ३५ विधाने 'यय प्रीतिsiन पिश (दलइत्ता पडिवि सज्जेहिंति) भने मापाने तमनु नि हेरे (सू ४७)r r 'तए णं से दढपइण्णे दारए त्या ' .} 1 " ' (तए ण) त्यारे पछी (से) 'ते' (दढपइण्णे) प्रतिज्ञ (दारए) उभार (वायचरिकलापडिए) मोजतेर ४ायामा पठित (नवगसुत्तपडिगोहिए) तेमा સપ્ત નવ અ ગ-ર કાન, ૨ નેત્ર, ૨ નાસિકાના છિદ્ર, ૨ જીભ ૧ પશન ઈદ્રિય અને મનના પ્રતિબધ–જાતિથી યુક્ત-યૌવનાવસ્થા સંપન્ન थन (अद्वारसदेसमासाविसारए) १८ थोनी सापानी stan 20 (गीयम् Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषधषिणो टोका सु ४८ अम्पडपरिव्राजकविषये भगवद्गीतमयो सयाद ६१५ गंधव्वणकुसले हयजोही गयजोही रहजोही वाहुजोही वाहुपमदी वियालचारी साहसिए अलं भोगसमत्थे यावि भविस्सइ ॥ सू०४८॥ ... मूलम्--तए णं दढपइण्ण दारगं अम्मापियरो वावकुसले' गान्धर्व-नाट्यकुशल गान्धर्वे गीतविधाया नाटये नाट्यशास्त्रे च कुशल =निपुण , 'अट्ठारस-देसभापा-पिसारए' अष्टादश-देश-भाषा--विशारद , 'हयजोही' हयजोपी-हयेन-अश्वेन युध्यते तच्छीलो हययोधी, एव 'गयजोही रहजोही वाहुजोही' गजयोधी रथयोधी वाहयोगी-ज्ञातव्य 'बाहुप्पमद्दी' बाहुप्रमर्दी-बाहुभ्या प्रमृनाति तच्छीगे बाहुप्रमदा, 'वियालंचारी' विकालचारी-निर्भयत्वाहिकाले राबावपि चरति तच्छालो निकालचारी, अत एव 'साहसिए' साहसिक =अतिशूर , 'अल भोगसमत्ये' अलम्भोगसमर्थ अलम् अयर्थ भोगानुभवसमर्थ 'यावि भविस्सद चापि भविष्यति ।। सू० ४८॥ . टीका-'तए ण' इत्यादि । 'तए ण ददपदण्ण दारय' तत खलु दृढअनुराग वाला तथा गान्धर्वविद्या मे और नृत्यकला मे कुशल होगा। (इयजोही गयजोही रहजोही पाहुजोही) यह अश्वयोधी, गजयोधी, रथयोधी और बाहुयोधी होगा। (बाहुप्पमही वियालचारी साहसिए) यह बाहुप्रमदी होगा और अति शूर होगा, इस लिये इसे विकाल रात्रि मे भी आने-जाने में कोई भय नहीं होगा। (अलं भोगसमत्थे यांवि भविस्सइ) तथा यह भोगसमर्थ भी होगा । सू ४८ ।। 'तए ण दढपडणं दारग' इत्यादि। (तए ण) चाद मे (दढपदण्ण दारग) इस अपने दृढप्रतिज्ञ बालक को गधव्य-गट्ट-कुसले) को अभार गीतमा, राधव विधामा मने नृत्यमा पुश थशे (हयजोही गयजोही रहजोही पाहुजोही) से मश्वसाधी, सन्याधी, २५याची, मने पायाधी थशे (बाहुप्पमदी वियालचारही साहसिए) એ બહુપ્રમદી થશે અને અતિ શૂરવીર થશે આ માટે તેને વિકાળ રાત્રિમાં ५५ मावा-पामा ततना भय थरी नहि (अल भोगसमत्थे यावि भवि स्सइ) 0 21 सेगसमर्थ ५४ यशे (सू ४८) 'तए ण दढपइण्ण दारग' इत्यादि (ता ण) त्या२ ५०ी (ढपइण्ण दारग) मा पोताना प्रतिज्ञाने Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१६ औरपालिक तरिकलापंडियं जाव अलं भोगसमत्थं वियाणिता विउलेहि अण्णभोगेहिं पाणभोगेहिं वत्थभोगेहिं सयणभोगेहि उवणिमंतेहिति ॥ सू० ४९ ॥ मूलम् - तए णं से दढपणे दारए तेहिं विउलेहि अण्ण 12 प्रतिज्ञ दारकम् 'अम्मापियरो' मातापितरौ 'वावत्तरिकलापडियं' द्वासप्ततिकलापण्डित ' जाव' यावत् - अन - यावच्छन्दाद्-अष्टादशदेशभापाविशारद गीतरति गान्धर्वनाटयकुशल हययोधिनम् -- इत्यादानि विशेषणानि द्वितीयैकवचनान्तानि ज्ञेयानि । 'अल भोगसमस्य ' अल भोगसमर्थम्—–अलम्=अत्यर्थं भोगानुभवसमर्थ ' वियाणित्ता' विज्ञाय 'विउलेहि अण्णभोगेहिं ' विपुलैरन्नभोगे ' पानभोगेहिं' पानभोगे 'लेणभोगेहिं' लवनभोगे. - चित्रशालायायासनवनवाभोगे 'पत्थभोगेहिं ' वलभोगे, 'सगणभोगेहिं' शयनभोगे ' उवणिमंतेहिंति ' उपनिमन्त्रयिष्यत = भोगान् भुङ्क्ष्व - इति कथयिष्यत ॥ सू० ४९ ॥ टीका- 'तए णं' इत्यादि । 'तए ण से दढपइण्णे दारए' तत्र स्खल ( अम्मापियरो ) मातापिता ( वाबत्तरिकलापडिय जाव अलभोगसमस्थ ) ७२ कलाओं में पारगत तथा नवयौवनशाली एव भोग भोगने में समर्थ जानकर उसे ( विउलेहिं) विपुल (अष्णभोगेहिं) अन्न के भोगों से, (पाणभोगेहिं ) पान करने योग्य द्रव्यों के भोगों से, ( लेणभोगेहिं) विविध चित्रों से सुशोभित प्रासाद के भोगों से, ( वत्थभोगेहिं ) सुन्दर २ वस्त्रों को इच्छानुसार पहरने रूप भोगों से एव (सयणभोगेहिं) शय्या आदि के भोगों से ( उवणिमतेर्हिति ) ' आमंत्रित करेंगे, अर्थात 'भोगों को भोगो' ऐसा उससे कहेंगे ॥ सू ४९ ॥ 1 1 ( अम्मापियारो) भातापिता (बावत्तरिकलापडिय जाव अल भोगसमत्थ) ७२४આમા પાર ગત અને નવયૌવનાળી તેમજ ભેગ ભાગવવામા સમથ જાણીને तेने (विउलेहिं) पियुस ( अण्णभोगेहिं) अन्नना लोगोथी (पाणभोगेहिं ) थान - वाने योग्य द्रव्यना लोगोथी (लेणभोगेहिं) विविध चित्रोथी सुशोलित आसाई (भडेस)ना लोगोथी ( वत्यभोगेहिं) सुहर सुदर पत्रोने रिछानुसार परवा ३५ लोगोथी तेभ४ (सयण भोगेहिं ) शय्या महिना लोगोथी ( उवणिभतेहिंठि) આમત્રિત કરશે, અર્થાત્ ‘ભાગાને ભગવા’ એમ તેને કહેશે (સૂ) Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषषपिणी टीका सु ५० अम्पड परिवाजकविषये भगवद्गीतमयो संवाद ६१७भोगेहिं जाव सयणभोगेहिं णो सजिहिति, णोरज्जिहिति, जो गिज्झि-' हिति, णो मुज्झिहिति, णो अज्झोववजिहिति ॥ सू० ५० ॥ मूलम् - से जहाणामए उप्पले इ वा पउमे इ वा कुसु सोदारक 'तेहिं विउलेहिं अण्णभोगेदिं जाव सयणभोगेहिं' तैर्विपुलेग्न्नभोगेययनभोगे - अत्र यावच्चापानलयनभोगैरिति ग्राह्यम् ' णो सज्जिहिति ' नो सद्दश्यति न सद्ग= सम्बन्ध करिष्यति, 'णो रजिडिति' नो रद्दयति न राग-प्रेम भोगसम्बन्धहेतु करिष्यति, 'णो गिज्झिहिति ' नो गर्दिध्यते= नो गृद्धिभाव करिष्यति, 'णो मुज्झिहिति' नो मोहिष्यति = मोहन करिष्यति 'णो अज्योववज्जिहिति ' नो अभ्युपपस्यते= न तदेकाग्रमना भविष्यति ॥ सू० ५० ॥ टीका-' से जहाणामए' इत्यादि । ' से जहाणामए , अथ यथा नाम 'तए ण से दढपइण्णे' इत्यादि । (तएण ) माता-पिता के इन वचनों को सुनने के बाद ( से दढपणे दारए) वह प्रतिज कुमार ( तेहि विलेहिं अण्णभोगेहिं जात्र सयणभोगेहिं णो सज्जिहित) उन अन्न आदि निपुल भोगों में विलकुल ही आसक्तचित्त नहा होगा । ( णो रज्जिहिति) अनुरक्त नहीं होगा । ( णो गिज्झिहिति ) उनमें गृद्ध नही होगा, (णो मुज्झिहित ) मूर्च्छित नहीं होगा, और (णोअज्झोववज्जिहिति ) न उनमे सर्वथा एकाग्रमन ही होगा ॥ सु ५० ॥ ' से जहाणामए ' इत्यादि । इस सूत्र में "इ वा " ये शब्द वाक्यालकार मे प्रयुक्त हुए हैं। ( से जहाणा 'तर ण से दढपइण्णे' छत्याहि (लए णं) भातापिताना शेषा वयन सालज्या पूछी, (से दढपइण्णे दारए) ते दृढप्रतिज्ञ कुमार (तेहिं विलेहिं अण्णभोगेहिं जाव सयणभोगेहिं णो सज्जिहिति) અન્ન આદિ વિપુલ ભાગેામા બિલકુલ જ મનની આસક્તિ રાખશે નહિ, ( णो रजिहिति) अनुररात थशे नहि, (जो निज्झिहिति) तेभा शृद्ध यशे नहि, ( णो मुज्झिहिति ) भूर्च्छित थशे नहि अने तेभा ( णोअज्झोववज्जिहिति ) સર્વથા એકાગ્રમન પણ થશે નહિ (સુ ૫૦) 'से जहाणामए' इत्याहि या सूत्रभा “इ वा" मे शुद्ध वायास अर३ये वपराये छे. (से जहा Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Re औपचा मेइ वा नलिणे इ वा सुभगे इ वा सुगंधे इ वा पोंडरीए इ वा महापोंडरीए इ वा सयसपत्ते इवा सहस्सपत्ते इ वा सय सहस्सपसे इ वा पंके जाए जले संबुड्ढे णोवलिप्पड़ पंकरएणं, णोवलिप्पड़ 'उप्पले इ वा' उपल-रक्तकमलम्, 'झा' इति वाक्यालङ्कारे 'पउमे इवा' पद्मम्-कमलमेव, 'कुसुमे इवा' कुसुमम्, 'नलिणे इ पा' नलिनम्, 'सुभगे वा' सुभग- कमलविशेष 'सुगधे इवा' सुगन्धम् = सन्ध्याविकासिकमलनिशेष, 'पोंडरीए इ वा' पुण्डरीक = श्वेतकमलम्, 'महापौडरीए इवा' महापुण्डरीक = विशाल चेतकमलम्, 'सयपत्ते इ वा शतपत्रम् = कमलम्, 'सहस्सपत्ते इ वा' सहस्रपनम्, 'सयसहस्सपत्ते इ वा ' शतसहस्रपत्रम्, एतानि सर्वाणि कमलजातीयान्येव । एतप्रयेकम् -'पके जाये' पछे जातम् कर्दमे समुत्पन्न 'जले सबुड्ढे' जले सवृद्धम्, 'गोवलिप्पड़ पकरएण' नोपलिप्यते पक्करजसा-पक कर्दम स एव रजो रेणुतुल्यत्वात् तेन नोपलिप्यते = उपलिप्त न भवतीयर्थ । 'गोवलिप्पड़ जल 1 · ६। 1 1 मए) जैसे (उप्पले इ वा ) रक्त कमल, (पउमे इ वा ) पद्मकमल (कुसुमे इ वा ) कुसुम - पुष्प, ( नलिइ वा ) नलिन - कमलविशेष, (सुभगे इ वा ) सुभग कमल, (सुगधे इ वा ) सुगधर्कमल - सन्ध्याकालविकासी सौगन्धिक कमल, ( पौडरीए इ-वा ), 1 पुण्डरीक- श्वेतकमल, (महापडरीए इ वा ) महापुडरीक - विशाल श्वेतकमल, ( सयपते इ वा ) शतपत्र कमल, (सहस्तपत्ते इ वा ) सहस्रपत्र, कमल, ( सय सहम्सपत्ते इ वा ) लक्षपत्र कमल, ये सब कमल की जातिया है । (पके जाए ) ये कीचड उत्पन्न होते हैं, (जले सबुड्ढे) तथा जल मे बढते है, तो भी ( णोवलिप्पर पकरएण गोवलिप्यइ जलरएण) पक की रज से वे लिम नहा होते है और न जल की रेंज से बिन्दुओं से लिप्त णामए) ने भ} (उप्पले इवा) २४त उभ, (पउमे इवा) पद्म उभा, (कुसुमे इ वा) सुभ-पुष्प, (नलिणे इ वा) नविन - उभणविशेष, (सुभगे इवा) सुलग उभण, (सुगधे इवा) सुगंध उभज- सध्या विास याने तेषु सुधुवाणु इभ, ( पोंडरीए इ वा ) पुरी४- श्वेत उभण, (महापोंडरीए इ वा) भडापु उरीड - विशाणश्वेत उभ (सयपत्ते इ वा ) शतपत्र भण, (सहरसपत्ते इ वा) भयत्र भ (सयसहरसपत्ते इ वा) अक्षयत्र उभण, मे जधी भजनी लतियो छे (पके जाए) ते श्रीयउभा उत्पन्न थाय छे, (जले सबुड्ढे) तथा सभा व छे, ते यु (नोपलिप्पर पंकरण व णालिप्पर जलरएण) डीयउनी २४थी तेथे। विस्त थता नथी, तेभर कसना टीपाथी से सिग्न थता नथी, (एवामेव से दढप ' Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - पोयूपयपिणी टीका र ५१ अम्पडपरिमाजकविषये भगवद्गीतमयो संवाद ६१९ जलरएणं, एवामेव दढपडण्णेवि दारए कामेहिं जाए भोगेहिं संवुड्ढे णोवलिप्पिहिति कामरएण,णोवलिप्पिहिति भोगरएणं, णोवलिप्पिहिति मित्तणाइणियगसयणसंबंधिपरिजणेणं ॥ सू० ५१ ।। मूलम्-~-से णं तहारूवाणं थेराणं अंतिए केवलं रएण' नोपलिप्यते जलरजसा 'एयामेव दढपइण्णेवि दारए' एवमेव दढप्रतिज्ञोऽपि दारक , 'कामेहिं जाए भोगेहिं सवुड्डे' कामै तो भोगै मद्ध 'गोवलिपिहिति' नोपलेप्स्यते, 'कामरएण' कामरजसा--काम शन्दो रूप च, स एव रज कामरजस्तेन, 'णोपलिप्पिहिति' नोपलेप्स्यते 'भोगरएणं' भोगरजसा-भोग-गधो ग्स स्पर्शश्च, स एव रजो भोगरजस्तेन, 'गोवलिप्पिहिति मित्त-णाद-णियग-सयण-सपधि-परिजणेण' नोपलेप्स्यते मित्र-ज्ञाति-निजक-स्वजन-सम्बन्धि परिजनेन-मित्राणि-सुहृद , ज्ञातय =सजातीया , निजका भ्रातुप्पुत्रादय , स्वजना =मातुलाढय , सम्बन्धिन =श्वशुरादय , परिजना =भृत्या दय , एतैर्न लिमो भविष्यति ।। सू ५१ ॥ होते हैं, (एवामेव से दढपटण्णे वि दारए) इस तरह वह दृढप्रतिज्ञ कुमार भी (कामेहि) कामों से-काम सेवन से (जाए) उत्पन्न होगा, (भोगेहिं संयुड्ढे) भोगों से वृद्धिंगत होगा, तो भी वह (कामरण ) काम रजसे (णोवलिपिडिति ) उपलिस नहीं होगा, (भोगरएण गोवलिप्पिहिति ) भोगरज से उपलिप्त नहीं होगा। गध, रस, स्पर्श इन गुणों का नाम भोग है। शब्द तथा रूप का नाम काम है। भोगरज एव कामरज इनमें रूपकालकार है। (णोवलिपिहिति मित्त-गाइ-णियग-सयण-सवधिपरिजणेणं) इसी तरह वह मित्र-सुहृद् , ज्ञाति-सजातीय, निजक-भतीजा आदि, स्वजन-मामा आदि, मधी- श्वशुर आदि एव परिजन-भृत्य आदि परिकरों के साथ भी मोह को प्राप्त नहीं होगा ।। मू ५१॥ इप्पो वि दारण) तेवी-। शत त हदप्रति उभार ५ (कामेहि) डामाथी-जाम सेवनथी (जाए) उत्पन्न थरी, (भोगेहि सचुड्डे) लोगोथी वृद्धि गत थी, तो पाए त (कामरएण) ४१०२०४थी (णोवलिपिहिति) पसिस नहि (भोगरएण णोपलिप्पिहिति) लास२०४थी पलित थशे नडि १५, २स, २५० गुणानु નામ જોગ છે શબ્દ તથા રૂપનું નામ કામ છે ભેગરજ તેમજ કામરેજ सभा ३५४-24 २ छ (गोवलिपिहिति मित्त-णाइ-णियग-सयण-सबधि-परिजणेण) मापी शत मित्र-सुहहजाति-सन्ततीय, नि१४-भ्रातृपुत्र (निस) આદિ, સ્વજન-મામા આદિ, સબ પી–શ્વશુર આદિ તેમજ પરિજન–નાકર આદિ પરિક–પરિવારે સાથે પણ મહેને પ્રાપ્ત કરશે નહિ (સ. ૫૧) Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिक ६२० वोहिं बुज्झिहिति, बुज्झित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइहिति ॥ सू० ५२ ॥ मूलम् - से णं भविस्सइ अणगारे भगवंते ईरियासमिए जाव गुत्तवंभयारी ॥ सू० ५३ ॥ टीका 'से णं' इयादि । 'से णं' स दृढप्रतिज्ञ सद्ध 'तहारूवाण' तथारू पाणा=सम्यग्ज्ञानादिसम्पन्नानां ‘येराण' स्वनिराणाम्, 'अतिए' अन्तिके समीपे 'केवल घोहिं' केथला बोधि=विशुद्धं सम्यग्दर्शन 'बुज्झिहिति' भोत्स्यते = प्रास्यति, अनुभविष्यतीत्यर्थ, 'बुज्झित्ता' बुदद्भ्वा 'अगाराओ' अगारात् गृहात गृह परित्यज्ये यर्थ, 'अणगा रियं' अनगारिता साधुत्व 'पन्नइहिति' प्रनजिष्यति = प्राप्स्यति ॥ सू ५२ ॥ टीका 'सेणं' इत्यादि । 'से ण' स खलु दृढप्रतिजो दारक 'भविस्सर अणगारे ' अनगारो भविष्यतीयन्वय स कांगो भविष्यतीत्याह 'भगवते' भगवान् = अतिशयधारी, 'ईरियासमिए' ईर्यासमित = गमनक्रियाया यतनायुक्त, 'जाव' यावत् - यावच्छब्दात् भाषासमित एपणा समित, इत्यादि पञ्चसमितियुक्त, 'गुत्तबंभयारी' गुमब्रहाचारी = गुप्तह्मचर्यवान् ॥ } } ५३ ॥ - 'से ण तहाख्वाण' इत्यादि । ( से ण) वह दृढप्रतिज्ञ कुमार नियम से (तहारूत्राण येराण) तथारूप-सम्यग्ज्ञान आदि गुणों से युक्त स्थविरों के ( अतिए) पास ( केवलं वोहिं ) केवल बोधि कोविशुद्ध सम्यग्दर्शन को (बुज्झिहिति) प्राप्त करेगा - उसका अनुभव करेगा, ( बुज्झित्ता अगाराओ अणगारियं पव्त्ररहित ) अनुभव करने के बाद फिर वह अगार - अवस्था से विरक्त हो कर साधु अवस्था को प्राप्त करने वाला होगा ।। सू ५२ ।। T 'से ण भविस्सर' इत्यादि । ( सेण ) वह दृढप्रतिज्ञ कुमार ( अणगारे भगवते ) अनगार भगवत से ण तहारूनाण' धत्याहि (सेज) ते प्रतिज्ञ उभार नियमथी (तहरूवाण थेराणं) तथा३य सभ्यगुज्ञान आदि गुणोथी युक्त स्थविशेनी (अतिए) पासे (केवलं बोहिं) मे ठेवण विशुद्ध सभ्यग्रहशनने ( बुज्झिहिति) आस रशे-तेना अनुभव ४२, ( बुज्झित्ता अगाराओ अनगारिय पव्नइहिति) अनुभव पुरी सीधा पछी ते सार - અવસ્થાથી વિરક્ત થઇને સાધુ-અવસ્થાને પ્રાપ્ત કરવાવાળા થશે (સૂ ૫૨) 'से ण भविस्सर' त्याहि (से ण) ते दृढप्रतिज्ञ कुमार (अणगारे भगवते ) अनगार लगवन्त (भषि Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषमर्षिणी टीका सु. ५४ अम्ड परिव्राजक विषये भगवद् गौतमयोः सवाद. ६२१ मूलम् -- तस्स णं भगवंतस्स एएणं विहारेणं विहरमाणस्स अणते अणुत्तरे णिव्वाघाए निरावरणे कसिणे पाडपुणे केवलवरणाणदंसणे समुप्पजिहिति ॥ सू० ५४ ॥ t टीका--' तस्स पण ' इत्यादि । ' तस्स णं भगवंतस्स ' तस्य' सलु भगवतो प्रतिज्ञस्याsनगारस्य, 'एएण विहारेण विहरमाणस्स ' एतेन विहारेण विहरत - 'अणते ' अनन्तम्=अनन्तार्थविषयम्, 'अणुत्तरे' अनुत्तर = सर्वोत्तमम्, 'णिच्चाघाए ' निर्व्याघात ==याघाताद्वहिर्भूतम् - अप्रतिहतमित्यर्थ, 'निरावरणं' क्षायिकत्वादावरणरहितम्, 'कसिणे' कृत्स्नं=सकलार्थमाहकम्, 'पडिपुण्णे' प्रतिपूर्ण सफलस्वकीयागयुक्तम्, 'केवलचरणाणदंसणे' केवल परज्ञानदर्शनम् -- केवलम् = असहायम् अतएव वरं श्रेष्ठ ज्ञान (भविस्सर) होगा, अर्थात् उत्कृष्ट मुनिराज बनेगा, वह ( इरियासमिए जान गुत्तवभारी ) ईर्यासमिति आदि पाच समितियों और तीन गुमियों का आराधक एव यावत् गुप्तनाचारी होगा || सू० ५३ ॥ " 'तस्स णं भगवतस्स ' इत्यादि । ( तस्स ण भगवंतस्स ) उन अतिशय प्रभावविशिष्ट दृढप्रतिज्ञ मुनि को (एएण विहारेण विहारमाuta ) इस प्रकार के बिहार से विचरते हुए (अणंते) अनन्त पदार्थों के युगपत् जानने के साधक होने से अनन्त, (अणुत्तरे ) सर्वोत्कृष्ट, (णिव्वाघाए ) निर्व्याघात, ( णिरावरणे) आवरणरहित, ( कसिणे) ज्ञान के पूर्ण विकास से सकलार्थग्राहक, (पडिपुणे ) तथा अपने समस्त अविभागी अर्गो में से किसी स्सइ) थशे, अर्थात् त्यृष्ट भुनिशन जनशे, ते ( इरियासमिए जाव गुत्तभयारी ) ધૈર્યાસમિતિ આદિ પાચ સમિતિએ અને ત્રણ ગુપ્તિએને આરાધક તેમજ शुभप्रायारी यगे (सू. 43 ) 'तम्स ण भगवतस्स' इत्याहि ( तस्म पण भगवतस्स ) ते अतिशय प्रभाव - विशिष्ट दृढप्रतिज्ञ भुनिने (एएणं विहारेण विहरमाणस्स) से प्रारना विहारथी वियरता (अणते) मनत पहायेने भेठी साथै भलुवामा साध होवाथी मनत, (अणुत्तरे) सर्वोत्कृष्ट, (णिव्वाघाएं) निर्व्याघात, (णिरावरणे) यावरसुरडित, (कसिणे ) ज्ञानना वि सभी सडक अर्थाने ललुवा वाजा, (पडिपुण्णे) तथा पोताना समस्त अविलागी शोभाथी होय अशी हीन नहि भेषा (केवलवरणाणदसणे) Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દરર ...” मूलम्-तए णे दहपइण्णे केवली पढ़ई वासाई केवलिपरियागं पाउणिहिति, पाउणित्ता मासियाए सलेहणार अप्पाणं झुसित्ता, सहि भत्ताई अणसणाए छेदित्ता, जस्सहाए कीरइ नग्गभावे मुंडभावे अपहाणए अदंतवणए केसलाए च दर्शनं चेति ज्ञानदर्शन, 'तत्र ज्ञान विशेषाऽवोधरूपम्, दर्शन सामान्यावबोधरूप 'समुपजिहिति' समुत्पत्स्यते-उदेष्यनि ।। सू०.५४ ॥ टीका-'तएण' इत्यादि । 'तए ण से दढपइण्णे केवली ' नत खलु स दृढप्रतिज्ञ केरली 'वहइ वासांइ केलिपरियाय' वहूनि वर्षाणि केवलिपयोय 'पाउणिहिति' पालयिष्यति, 'पाउणिता' पालयिचा, 'मासियाए सलेहमाए अप्पाण झूसित्ता' मासिक्या मैलेखनयाऽऽमान जूपिवा-सेविका सहि भत्ताइं अगसमाए छेइत्ता' पष्टिं भक्तानि अनशनेन जित्वा ' जस्सद्वाए' यस्यार्थाय-यन्निमित्त 'कोरइ' भी अश से हीन नहीं ऐसे (केवलवरणाणदसणे) इन्द्रियों की सहायता आदि से रहित होने के कारण केवल-असहाय उत्तम ज्ञान एव उत्तमदर्शन उत्पन्न होगे ॥सू० ५४॥ 'तए ण से दहपइण्णे केवली' इत्यादि। . . (तएण) इस के बाद (से दढपदण्णे केवली) वे दृढप्रतिज्ञ केवली भगवान् (बहुइ वासाई) बहुत वर्षों तक (केवलिपरियाग) केवलिपर्याय का (पाउणिहिति) पालन करेंगे, (पाउणिता) पालन करके (मासियाए सलेहगाए अप्पाणं झूसित्ता) एक मास की सलेखना से आत्मा को झोसकर (सदि भत्ताइ अणसणाए छेदिता) एवं साठ भक्तों का अनशन से छेदकर (जम्सद्वाए) जिसके निमित्त (नग्गभावे) नग्न ઈતિઓની સહાયતા આદિથી રહિત હોવાને કારણે કેવળ-અસહાય એવા ઉત્તમ જ્ઞાન તેમજ દર્શન ઉત્પન્ન થશે (સૂ પક) 'तए १ से ढपइण्णे केवली' इत्यादि । (तए ण) पार पछी (से दढपइण्णे केली) तहतिज्ञ उसी 4 पान (बहइ वासाइ) घ १२से सुधी किवलिपरियागं) अपसीपर्यायनु (पाउ. विहिति) पाबन ४0, (पाउणिता) पासन शने (मासियाए सलेणाए अप्पाण झसित्ता) २४ भासनी सोमनाथी सामान सेवान, (सदि भत्ताइ अणसणाए छदिवा) तेभन सा सस्तोने मनशनयी ६नशने (जस्सदाए) नानिमित्त Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पीयूषवर्षिणी-टोकास ५५ अभ्यसपरिग्राजपविषये भगवद्गीतमयो सयाद ६२३ चंभचेरवासे अच्छत्तगं अणोवाहणगं भूमिसेज्जा फलहसेज्जा कट्टसेजा परघरपवेसो लडावलद्धं, परेहि हीलणाओ खिसणाओ क्रियते, 'नग्गभावे' नग्नभाव 'मुडभावे ' मुण्डभोव , ' अण्डाणए ' अस्नानम् स्नानवर्जनम् , 'अदववणए' अढन्तधावनम् दन्तपावनवर्जनम्, 'केसलोए' केशलोच केगाना लञ्चनम् , 'बंभचेरवामे' ब्रह्मचर्यवास ब्रह्मचर्यपालन, 'अच्छत्तगं' अच्छत्रकम् स्त्रधारणचर्जनम्, 'अगोवाहणग' अनुपान क-पादनाणराहित्य, अश्वगिनिकादिवाहनराहित्य च, 'भूमिसेजा' भूमिगम्या, 'फलहसेना' फलकगल्या, 'कट्ठसेन्जा' काष्टगया, 'परघरपवेसो ' परगृहप्रवेश --भिक्षापर्थमि यच्याहार्यमियर्थ , 'लद्धावलद्ध' लधापलब्धम्सकारादिना लय लाभ -प्राप्ति , अपलब्धम्-अपमानेन प्राति क्रियते इति पूर्वेण सम्बन्ध । तथा-'परेहि होलणाओ' परेपा हेलना = अवज्ञा --परकृता जन्मकर्मममोद्घाटना, यथाभाव, (मुडमावे) मुण्टमाव, (अण्हाणए) नान का परित्याग (अदंतवणए) दाँतो के प्रक्षालन करने का परित्याग, (केसलोए) केगों का लोच करना, (मवेवासे) ब्रह्मचर्य का पालन, (अच्उत्तग) र धारण नहीं करना, (अणोवाइणग) विना जूतों के चलना, अश्व पर, शिनिका पर, वाहन पर नहीं बैठना, (भूमिसेज्जा) भूमि पर गयन करना, (फलहसेना) काष्ठ के पाटिये पर सोना, (कट्ठसेज्जा) साधारण काष्ठपर सोना, (परपरपवेसो) दूसरों के घर मिक्षावृत्ति के लिये जाना, (लद्धालद्ध) मान और अपमान-पूर्वक प्राप्त भिक्षा मे समभाव रखना, ये सन (कीरड) किये जाते हैं, और जिसके निमित्त (परेहिं हीरणाओ) परकृत अवज्ञाओं को-जैसे 'अरे । तू जारजात (दोगला) । । है' इस प्रकार के अनादर वचनों का, (खिसणाओ) लोगों के द्वारा खिजाने का-लोको (नग्गभावे) नालाप, (मंडभावे) मुलाप, (अण्हाणए) नाननी परित्याग (अदतवणए) हातानु प्रक्षासन वान। परित्याग, (कसलोए) शानु दुगन' - ४२, (मिचेरखासे) मायर्यनु पालन ४२७, (अच्छत्तग) छत्र धारण नखु, (अणोवाहणग) ५ पयर्या पिन याद, अश्व५२, शिभि५२ (पावभी ५२), पाईन ५२ । मेस, (भूमिसेज्जा) भूभि५२ शयन ४७, (फलहसेज्जा) खाना पाटिया ५२ सुवु, (कद्वसेज्जा) साधारण सा४१ ५२ सुषु, (परधरपवेसो) जीतने ३२ लिक्षावृत्ति भाटे ४, (लद्धावलद्ध) भानमपभानमा सभाप रामा, साधु (कीरइ) ४२पामा माछ, भने रेना निभित्ते (परेहिं हीलणाओ ) यो रेसी भवनामा २वी । 'मरे । तु॥२-11 2' मा ना मनाइरना क्यना, (सिंसणाओ) aision Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोरगति ६४ - निंदणाओं गरहणाओ तालणाओ तज्जणाओ परिमवणामो पध्वहणाओ उच्चावया गामकंटगा वावीसं परिसहोवसन्गा आहे. 'जारजातोऽसि' इत्यादिरूपा इत्यर्थः । 'खिसणाभो बिसा -लोकसमक्ष मोद्घाटनम्, 'निंदणाओ' निन्दना मनसा जुगुप्सा, 'गरहणामो' गर्हणा -समझे क्रियमाणा जुगुप्सा, 'तालणाओ' ताडना -चपेटादिदानानि, 'तजणाओ' तना अमुल्याद, प्रदर्शनपूर्वक कटुवचनकथनानि, 'परिभवणाओ' परिभावनास्तिरस्कारा , 'पबहणाओ' प्रव्यथना -पीडोत्पादना, 'उच्चारया' उद्यायचा अनेकविधा , 'गामक्टगा' प्रामकण्टका, पाम =समूह ,स चेद्रियाणामिह प्रकरणवशाद गृह्यते, इन्द्रियाणा प्रतिकूला शब्दादय इत्यर्थ, 'वावीस परीसहोवसग्गा' द्वाविंशति परीपहोपसर्गा 'अहियासिज्जति' अधिसहिष्यन्ते, 'तमहमारादित्ता' तमर्थमाराव्य-आमकन्याणरूप तमचे साधयित्वा 'चरिमेहि उस्सासणिस्सासेहिं ' चरमैरुच्छ्वासनि श्वासै सिमिहिति' , सेत्स्यतिके समक्ष अपने ममी के उद्घाटनों का, (णिदणाओ) अपने प्रति लोगों के मानसिक घृणाओं का, (गरहणाओ) लोगों द्वारा प्रत्यक्षरूप से की गयी घृगाओं का, (तालणाओ) थप्पड़ आदि की ताडना का, (तजणाओ) अगुली-निर्देश-पूर्वक कहे हुए कटु वचनों का, (परिभवणाओ) तिरस्कारों का, (पव्वहणाओ) पीडाजनक परिस्थितियों फा, (उच्चावया) अनेक प्रकार के, (गामकटगा) इन्द्रियों के प्रतिकूल गन्दादिकों का, (वावीस परीसहोवसग्गा) बाईस प्रकार के परीपहों का, एव परकृत उपसर्गों का (अहियासिज्जति) सहन किया जाता है, (तममाराहिता) वे दृढप्रतिज्ञ केवली भग । वान् उस आत्मकल्याण रूप अर्थ को आराधित करके (चरिमेहिं उस्सासणिस्सासेहि) દ્વારા થતી ખીજવણીનુ-લે કે સમક્ષ-પિતાની માર્મિક વાતને પ્રકાશ थाय तेनु , (गिंदणाओ) पाताना प्रति aantी भानसि धृामानु, (गरहणाओ) astथी प्रत्यक्ष रायसी यामानु, (तालणाओ) ५५४-माहियो भार भावानु, (तजणाओ) माजी सीधीन ४ ४४ क्यना (परिभवणाओ) ति२९४ारार्नु, (पव्वहणाओ) पीन परिस्थितिमानु, ( उच्चावया) सने आमा (गामकटगा) द्रियाने प्रति शमानु, तथा (बावीस परीसहोवसग्गा) मावीस मारना पशषसानु तेभर मीन रेस। समानु (अहियासिज्जति) सन ४२२५ छ (तमद्रमाराहिता) प्रतिपक्षी alपान मात्भया३५ मथन माराधित ४शन (परमेहि उस्सास-णिस्सासेहि) मन्तिम पास-निवासायी (सिजिहिति) कृतकृत्य 25 नये Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पोपषिणी-टोका र ५५ अम्ग्रहपरिमाजकविपये भगवद्गीतमयो संपाद ६२५ यासिजति, तमट्टमाराहित्ता चरिमेहिं उस्सासणिस्सासेहि सिज्झिहिति, बुझिहिति, मुञ्चिहिति, परिणिवाहिति, सबटुक्खाणमंतं करेहिति ॥ सू०५४ ॥ मूलम्-से जे इमे गामा-गर-जाव-सणिवेसेसु पव्वइया समणा भवंति, तं जहा-आयरियपडिणीया उवज्झायकृतत्यो 'भविष्यति, 'युज्झिहिति' भोस्यते-समस्तानथान केवलज्ञानेन नास्यनि, 'मुचिहिति' मोत्यते-सस्टममांग, 'परिणिवाहिति' परिनिर्मास्यतिकर्मकृतसन्तापाऽभावेन गीतलीभविष्यति, 'सबदुक्खाणमत करेहिति' सर्वदु सानाम् शारीरमानसाना सफल दु खानामन्त करिष्यतीति ।। सू० ५५ ॥ टीका-'से जे इमे' इत्यादि । "से जे इमे' अब य इमे 'गामा-गर-- जाव-सण्णिवेसेम्' प्रामाऽऽकर-यावत्-सन्निवेशेषु, 'पन्चइया समणा भवति' प्राजिता श्रमणा भवन्ति, ते कोदशा सन्तीयत्राऽऽइ-'तजहा' तद्यथा-'आयरियपडियाया' आचार्यप्रयनीका आचार्यविरोधिन , 'उवज्झायपडिगीया' उपाध्यायप्रयनीका, अन्तिम उच्चासनि श्वासों से (सिन्झिहिति) कृतकृत्य हो जायेगे, (झिहिति) समस्त चराचर पदार्थों को केवलज्ञानरूपी आलोक-प्रकाग से जान जायेंगे, (मुचिहिति) समस्त फर्मागों से छूट जायेंगे, (परिणिवाहिति) कर्मकृत सन्ताप के अभाव से गीतलीभूत हो जायेंगे,( सन्चदुक्खाणमत करेहिति) समस्त शारीरिक, मानसिक दुखों का अन्त कर देंगे ।। सू ५५॥ 'से जे इमे' इत्यादि। __ (से जे इमे) वे जो (गामा-गर-जाव सनिवेसेस ) ग्राम, आकर से लेकर सनिवेश तक के स्थानों में (पन्नडया समणा) प्रत्रजित साधु होते है, जैसे-(आयरियपडिणीया) आचार्य के प्रत्यनीफ-विरोधी, (उवझायपडिणीया) उपाध्याय के विरोधी, (मुच्चिहिति) मभन माना साथी टी से, (परिणिव्याहिति) यी थता सताना मलारथी शीतशीभूत २७, (सव्वदुस्साणमत करेहिति) સમસ્ત શારીરિક, માનસિક દુઓને અન્ત કરી દેશે (જૂ પપ) 'से जे इमे' त्या (से जे इमे) तेयारे (गामा-गर-जाव-सन्निपेसेसु) गाभ मा४२ साहिथी सईने मन्निवेश सुधाना स्थानाभा (पव्वइया समणा) प्रम fra साधु य छे, नेवा (आयरियपटिणीया) मायायना प्रत्यना४-विशधी, Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२६ पडिणीया कुलपडिणीया गणपडिणीया आयरियउवज्झायाणं अयसकारगा अवण्णकारगा अकित्तिकारगा बहूहि असम्भावु व्भावणाहिं मिच्छत्ताभिणिवेसेहि य अप्पाणं च परं च तदुभयं च बुग्गामाणा चुप्पाएमाणा विहरिता बहूडं वासाई सामण्ण औपातिकत्रे 3 ' कुलपडिगीया' कुलप्रत्यनीका 'गणपडिणीया' गगनथनीस 'आयरियउबज्झायाणं अयसकारगा ' आचार्योपान्यायानामयशस्कारका, ' अण्णकारगा' अवर्णफारका = निन्दका 'अकित्तिकारगा ' अकीर्तिकारका, "" यहूहि असम्भावुभावणाि मिच्छत्ताभिणिवेसेहि य' बहीभिरसद्भावोद्भावनाभि मिथ्यात्वाभिनिवेशैश्च - असद्भावानाम्== अविद्यमानार्थानाम् असद्भावना = आरोपगास्ताभि तथा च- मिथ्याचाभिनिवेशैश्च = आशांतनाजनितैर्मिथ्याय्यमहै, 'अध्याण च परं च तदुभय च युग्गाहेमाणा' आत्मानं च परश्च तदुभयश्च व्युद्ग्राहयन्त = आशातनारूपे पापे नियोजयन्त, 'चुप्पाएमाणा' व्युत्पा दयन्त =आगातनारूप पापमुपार्जयन्त, 'विहरित्ता' विय, ' बहूइ वासाइ सामण्ण 1 1 1 (कुलपडिणीया) कुल के प्रत्यनीक, (गणपडिणीया) गण के प्रत्यनीक, (आयरिय-उवज्झायाण अयसकारगा अवण्णकारगा) आचार्य एव उपाध्यायों के अयशस्कारक, तथा अवर्णवादकारक- निंदाकरने वाले, (अकित्तिकारगा) अकीर्तिकारक, (बहूहिं असम्भावुभावणाहिं मिच्छत्ताभिणिवेसेहि य) अनेक असद्भावों की उद्भावना - दोषों के अभाव में भी दोषों को उनमें प्रकट करने से, मिध्यात्व के अभिनिवेशों - आशातनाजनित मिध्याग्रहों-से (अप्पाण पर च तदुभय च बुग्गामाणा बुप्पाएमाणा) अपने आपको एव दूसरों को तथा साथ में दोनों को आशातनारूप पाप में नियोजित करते हुए, स्वय भाशातना रूप ( उवज्झायपडिणीया ) उपाध्यायना विरोधी, (कुलपडिणीया) हुसना विरोधी, ( गणपडिणीया ) गणुना विरोधी, (आयरियउवज्झायाण अयसकारणा अवण्णकारगा) આચાય તેમજ ઉપાધ્યાયના અયશકારક, અવર્ણવાદકારક-નિદા કરવાવાળા, (अकित्तिकारगा) अडीर्तिः, तेथे (बहूहिं असव्भावुब्भावनाहिं मिच्छत्ताभि णिवेसेहि य) भने असहलायोनी उद्भावनाथी-घोषो न होय तेभा पशु होषो પ્રકટ કરવાથી, મિથ્યાત્વના અભિનિવેશોથી-આશાતનાજનિત મિથ્યા-આગ્ર हे!थी, (अप्पाण च पर च तदुभय च बुग्गाहेमाणा बुप्पाएमाणा) पोते पोताने तेभक બીજાને તથા બન્નેને સાથે જ આશાતનારૂપ પાપમા નિયેજિત કરતા કરતા, Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणी-टीका सू ५५ आचार्यादिप्रत्यनीय साधु वर्णनम् ६२७ परियागं पाउणति, पाउणित्ता तस्स ठाणस्स अणालोइय- अप्पडिकंता कालमासे कालं किया उक्कोसेणं लंतए कप्पे देवकिव्विसिसु देवकिव्विसियत्ताए उववत्तारो भवति, तहिं तेसिं गई, ! परिया पाउति पाउणित्ता' बहूनि वर्षानि श्रामण्यपर्याय पालयन्ति, पालयित्वा 'तस्स ठाणस्स' तस्य स्थानस्य तस्य प्रत्यनीकादिजातस्य पापस्थानस्य, 'अणालोइय-अप्पडिफ्ता' अनालोचिताऽप्रनिकान्ता = गुरुसमीप आलोचनाया प्रतिकमणस्य चाकरणेन दोपादनित्ता सन्त कालमासे काल का ', काल्मासे काल कृत्वा 'उक्कोसेणं तए कप्पे देवकिपिसिएस ' उकर्षेण लान्तके कपेलातकनामके पष्ठे देवलोके देवकिन्निपिकेषु देवव्निसियत्ताए उववत्तारो भवति ' देवकिच्चिपिकतया उत्पत्तारो ( पाप का उपार्जन करते हुए (विहरिता वहाँ वासा) इस भूमडल पर विचरण करते रहते है, और इतन्तत उसका प्रचार करते २ ही अनेक वर्षों तक उस साधुपर्याय को पालते है, वे (तस्स ठाणम्स अगालोग्य- अप्पडिकता) उन पापस्थानों की आलोचना नहीं कर के, उन पापस्थानों का प्रतिकमण नहीं करके (कालमासे काल किच्चा) काल असर में काल कर (उकोसेर्ण) उत्कृष्ट (तए कप्पे देवकिव्विसिएस देवकिव्विसियत्ताए उववत्तारो भवंति लान्तक नामके छठवें देवलोक में फिलिपिक देवों में किच्चिपिक जाति के देव होते हैं । इनको जो पर्याय मिलती है वह विशिष्ट श्रामण्यजन्य है, अर्थात् चालतप के प्रभाव से प्राप्त होती है, परंतु चहा फिलिपिक देवों में जो जन्म होता है यह तो आचार्यादिक की प्रीता के फल से होता है । जिस प्रकार लोक में चांडाल आदि हुआ करते हैं उसी +4 (विहरिता व वासाइ ) भालूभ उण उपर वियरशु ४२ता रहे छे, रमने આમ-તેમ તેને પ્રચાર કરતા નતા જ અનેક વરસે સુધી તે સાધુર્યાં अनुपालन रे थे, तेथे (तस्स ठाणरस अणालोइय-जप्पडिवता) ते पापસ્થાનેાની લેાચના નકશ્તા, તે પાપાનનું પ્રતિક્રમÁ ન કરતા (flsमासे काल किच्चा) अस अवसरे सीने (उम्कोसेण) उष्ट (लतए कप्पे देवकिच्चिसि देवकिन्निमित्ताए उत्तारो भवति) सान्त नामना छुट्टी देवલેાકમા કિબિયિ, દેવેમા બિટિપિક જાતિના દેવ થાય છે. તેમને જે દેવપર્યાય મળે છે, તે વિશિષ્ટ શ્રમણ ધર્મ પાળવાથી જ મળે છે, અર્થાત્ માલતપના પ્રમાવી પ્રાપ્ત થાય છે, પરંતુ ત્યા જે િિષિક દેવામા જન્મ થાય છે એ તે આચાય આદિકની પ્રત્યેનીકતાના ફળથી ચાય છે Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દ૨૮ ओपपातिकबरे तेरस सागरोवमाई ठिई, अणाराहगा, सेसं तं चेव ।। सु०५६॥ . .मूलम्-से जे इमे सपिण-पंचिदिय-तिरिक्तजोणिया पज्जत्तया भवंति, तं जहा-जलयरा थलयरा खहयरा, भवन्ति उपयन्ते, एतेषा विशिष्टश्रामण्यजन्य देव न, प्रयनीकनाजन्य किन्चिपिकच, तेन ते देवेषु चाण्डालतुन्या भर्वात । 'तहि तेसिं गई । तर तेपा गतिः, 'तेरस सागरोबमाइ ठिई' त्रयोदश सागरोपमाणि स्थिति । 'अणाराहगा' अनाराधका भवति । 'सेस त चेव' शेप तदेव ।। सू० ५६ ॥ टीका--'से जे इमे' इत्यादि । ' से जे उमे' अथ य इमे 'सण्णि-पचिदिय-तिरिक्खजोणिया पजत्तया भांति' सनि-पञ्चेन्द्रिय-तिर्यग्योनिका पयसा भवन्ति, के ले ? इत्याह-'त जहानद्यथा-'जलयरा थलयरा वहयरा' जलचरा स्थलचरा सेचरा 'तेसिं णं अत्येगइयाणं सुभेणं परिणामेण पसत्येहि अन्य प्रकार देवों में किल्विपिक जाति के देव होते हैं । (तहि तेसि गई) वहीं पर उनकी गति होती है। वहा ( तेरस सागरोवमाइ ठिई) १३ सागर को उनकी स्थिति होती है। (अणाराहगा सेस त चेत्र) ये जीव अनाराधक होते हैं। इस विषयमें अवशिष्ट पूर्ववत् समझना चाहिये ॥ सू ५६ ॥ 'जे इमे' इत्यादि । जे इमे सण्णि-पचिंदिय-तिरिक्ख-जोणिया) जो ये सजि-पचेद्रिय-तिर्यञ्चयोनि के पर्यात जीव हैं, (त जहा) जैसे--(जलयरा थलयरा खयरा) जलचर, स्थलचर और खेचर। (तेर्सि ण अत्थेगइयाण सुभेणं परिणामेण पसत्येहिं अज्झवसाणेहि ) જેવી રીતે લોકમાં ચાડાલ આદિ હોય છે તેવી જ રીતે મા કિતિદષિક जतिना व डाय छ (तहिं तेसिं गई) त्या तभनी गति खाय छे त्या (तेरस सागरोचमाइ ठिई) १३ 'सागरनी तमनी स्थिति य छ (अणाराहगा सेस त चेव) या विषयमा माडीनु मधु म16 प्रमाणे सभा જોઈએ એ જીવ અનારાધક હોય છે (સૂ પદ) से जे इमे' इत्याहि से जे इमे सण्णि-पचिंदिय-तिरिक्स-जोणिया) २. सजी-५येन्द्रिय, तिर्य-योनिना पर्याप्त है, (त जहा) वा (जलयरा थलयरा खह मोरयर, स्थायर भने मेयर (नसिं ण अत्यगइयाण सुभेणं परिणामेण Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - पीयूषयपिणी-टीका स ५७जलधरादियिपये भगवदगौतमयो मवाद तेसिं णं अत्यंगडयाणं सुभेणं परिणामेणं पसरथेहिं अज्झवसाणेहि लेस्साहि विसुज्झमाणीहि तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहा-चूह-मग्गण-गवेसणं करेमाणाणं सण्णि--पुव्वजाई- सरणे समुप्पज्जइ ।। सू० ५७॥ मूलम्-तए णं समुप्पण्णजाइसरणा समाणा सयमेव - पसाणेहि लेम्साहि विमुज्झमाणीहि ' तेपा खल अस्ति एकेपा शुमेन परिणामेन प्रशस्तैर ध्यवसानैर्लेश्याभिर्विशुन्यमानाभि , सदावरणिजाण कम्माण खोपसमेण' तदावरणीयाना कर्मणा क्षयोपशमेन, अतएव 'ईहा-वृह-मग्गण-गवेसण करेमाणाणं' ईहा-व्यूह-मार्गण-गवेषण कुर्वताम् , एपा पढाना व्यारया अवोत्तरार्धे एकत्रिंशत्तममूने गता। 'सण्णिपुन्चनाईसरणे' सनिपूर्वजातिस्मरण-पूर्वसजिमवस्मरण, 'समुप्पजड' समुत्पद्यते ॥ सू० ५७॥ टीका-~'तए ण' इत्यादि । 'तए "समुप्पण्णनाइसरणा समाणा' ___ उनमें कितने जोर, शुभ परिणामों से, प्रशस्त अध्यवसायों से, (विमुज्झमा गोहि लेस्साहि) विशुद्ध लेश्याओं-लेश्या की विशुद्धि से, तथा-(तयावरणिजाण कम्माण खओवसमेण) तदावरगोय-भानावरणीय एव वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से (ईहा-वृहमग्गण-गवेसण करेमाणाण) ईहा, न्यूह, मार्गण एवं गवेपण करते हैं, करते करते, (सणि-पुष-जाई-सरणे समुप्पज्जइ) मज्ञिच अवस्था के पूर्वभवों की स्मृति-नालिस्मरण ज्ञान-पाते हैं । (दहा) आदि पदों को व्याख्या यहीं उत्तरार्ध के एकतीसवें सूत्र में देखें ॥ सू ५७॥ पसत्यहिं अज्झरसाणेहि) तमासा छान ४२ शुक्ष परियामाथी, प्रशस्त सयपसायोथी (विमुज्झमाणीहिं लेस्साहि) विशुद्ध देश्यामा-श्यामानी पवित्र ताथी, तथा (तयावरणिजाण कम्माण सओवसमेण) तारणीय-शानाणीय) तेभर वीर्यान्सराय भंना क्षयोपशमथी, (ईहा-वृह-मगण-गवेसणं करेमाणाण) Usi, न्यूड, भाग तम गवेषा ४२ता ४२ता (सणिपुव्वजाईसरणे। समुप्पजइ) सशिप मथाना पूर्व भवानी भूति-निरभरभुज्ञान-Beat थाय छे 'ईहा' मालि पानी अर्थ १ सूत्रना उत्तराभा सत्रीशभ! सूत्रमा गुमा (स ५७) Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपातिक पंचाणुव्वयाई पडिवजंति, पडिवजित्ता वहहिं सीलव्वय-गुणवेरमण - पच्च खाण - पोसहो- वासेहिं अप्पाणं भावेमामा बहूई वासाई आउय पालेंति, पालित्ता भत्तं पञ्चक्खति, बहूई भत्ताई ६३० तत खलु समुत्पन्नजातिस्मरणा सन्त 'सयमेन' स्वयमेव, 'पंचाणुव्वयाइ' पाण मतानि ' पडिवजंति ' प्रतिपद्यन्त = स्वीकुर्वन्ति, 'पडिनजित्ता' प्रतिपय 'सीलव्ययगुण- विरमण - पञ्चक्रवाण -पोसहोवनासेहिं' शीलनत-गुण-निरमण - प्रत्यास्थान - पोप - घोपवासै ; ' अप्पाण भावेमाणा' आमान भावयन्त, 'बहूई बोसाई' बहूनि वर्षाणि 'आयु' आयुकं 'पार्लेति' पालयन्ति, 'पालित्ता' पालयिचो 'भत्त' भक्त 'पचक्खति' प्रत्याख्यान्ति, 'वह भत्ताइ ' बहनि भक्कानि 'अणसगाए' अनशनेन 'छेदेति' , 'तर ण समुप्पण्णजाइसरणा' इत्यादि । A (तर ण ) तब (समुप्पण्णजाइसरणा समाणा ) जातिस्मरणज्ञानयुक्त वे जीव, उस ज्ञान के प्रभाव से (सयमेव) स्वय ही ( पचाणुव्त्रयाइ) पाच अणुत्रतों को स्वीकार कर लेते है । (पडिवजित्ता बहूहिं सीलव्वय-गुण- वेरमण पञ्चकखाण-पोस हो-बवासेहिं ) - स्वीकार कर गोलवतों से, गुणनतो से, हिंसादिक पापों के " स्याग से, प्रत्याख्यानों से एव पोषघोपवासों से (अप्पाणं भावेमाणा) अपनी आत्मा को भाविन करते हुए (बहूइ वासा) T अनेक वर्षों तक (आउय पार्लेति) आयुष पालते हैं, (पालित्ता) आयुष पालकर वे (भत् पञ्चक्खति) भक्तप्रव्याख्यान करते है । (बहूइ भत्ताइ अगसणाए छेदेति) अनशन से अनेक भक्तों का छेदन करते हैं, (छेदित्ता आलोयपडिक्ता समाहिपत्ता' कालमासे' ' तए ण समुप्पण्णजाइसरणा' इत्याद्दि तिए ण) त्यारे (समुप्पण्णजाइमरणा समाणा) लति-स्मरणु-ज्ञानयुक्त ते लव से ज्ञानना' अलाव वडे (सयमेव) पोते ०४ ( पचाणुव्वयाइ) पाथ आवताना स्वी४२ ४री से छे (पंडिनजित्ता बहूहिं सीलव्वय-गुण- वेरमण - qeazz-qad-aarèfő) edisiz spa, allasdien, gede, fér माहिङ थायोना त्यागथी, अत्याच्यानाथा "तेभन भौषवोपवासोथी' (अप्पाण भावे - ' माणा) पोताना आत्मानेाभावित / ४२ता ४श्ता (बहइ वासाइ) भने रसो सुधी - (आउय पालेंति) आयुष्य पाणे छे, (पालिता ) आयुष्य भोजीने तेथे (भत्त पच्चक्सति ) लस्तप्रत्याख्यान ४ रे छे, (हइ भत्ताइ अणसणात छेदेति) अनशनथी ने लडती छेन पुरे छे, (छेदित्ता आलोहयपडिक्कता समाहि- ' Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पीयूषषषिणी-टीका स.५८ ललधरादिविषये भगवदगीतमयो सपाद ६३१ अणसणाए छेदेति,छेदित्ता आलोडयपडिकंता समाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा उकोसेणं सहस्सारे कप्पे देवत्ताए उवत्तारो भवंति, तहिं तेसिं गई, अहारस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता, परलोयस्स आराहगा, सेसं तं चेव ।। सू० ५८॥ मूलम्से जे इमे गामागर जाव संनिवेसेसु आजीछिन्दन्ति, 'दित्ता' ठिचा 'आलोटयपडिफ्ता' आलोचितप्रतिक्रान्ता , 'समाहिपत्ता' समाधिप्रामा , 'कालमासे काल रिचा' कालमामे-कालावमर काल कृवा, 'उक्कोसेण' उत्कर्षेण 'सहस्सारे कप्प' महनार कल्प-सहस्राग्नामके अष्टमै देवलोक 'देवत्ताए' देव वेन 'उववत्तारो भाति ' उपपत्तागे भान्ति उपयते, 'वहिं तेसिं गई' तर तेषा गति , 'अट्ठारस सागरोवमाठिई पण्णत्ता' अष्टाददा सागरोपमागि स्थिति प्रनमा, 'परलोगस्म आराहगा' परलोभ्यागधका , 'सेसं त चेव' शेष तदेव ।। मू० ५८॥ टीका-'मे जे उमे' हयादि । 'से जे इमे' अथ य इमे 'गामा-गरकाल फिचा) ठेदन कर वे अपने पापों की आलोचना करते है, प्रतिक्रमण करते है, समाधि को ग्राम होते हैं । तथा काल असमर काल कर के (उक्कोसेण सहस्सारे कप्पे देवताए उववत्तारो भवति) उष्ट आठ देवलोक महनार कप म देवरूप से उपन्न होते है। (तहिं तेसिं गई) वहीं पर उनकी गति कही गयी है। (अट्ठारस सागरोवमाइ ठिई पण्णता) इस आठों देवलोक म १८ सागर को स्थिति है । (परलोगस्स आराहगा, सेस त चेत्र) ये परलोक के आराधक होते है । अवशिष्ट पूर्वत समझना चाहिये ॥ मू. ५८ ॥ पत्ता कालमासे कालं किच्चा) छेदन शने तसा पाते उरे। पापानी माताચના કરે છે, પ્રતિક્રમણ કરે છે, માધને પ્રાપ્ત થાય છે, તથા કાલ અવસરે ४६ ४ीन (उस्कोसेण सहस्सारे कप्पे देवत्ताए उरवत्तारो भवति) Bष्ट मामा सखार Raभा ११३५थी उत्पन्न थाय छ (तहिं तेसिं गई) त्या तेमनी गति मतापामा सानी छ (अद्वारम सागरोनमाइ ठिई पण्णत्ता) मा 8भा पदमा १८ सापनी स्थिति छ (परलोगम्स आराहगा, सेस त चेव) એઓ પરલોકના આરાધક હોય છે બાકીનું બધું પૂર્વપ્રમાણે સમજી લેવું ऽ (सू ५८) Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३२ औपचारिक विया भवंति, त जहा - दुघरंतरिया तिघरंतरिया सत्तघरंतरिया उप्पलवेंटिया घरसमुदाणिया विज्जुयंतरिया उहियासमणा, ते जाव - सनिवेसे ' ग्रामाss - फर याव' संनिवेशेषु 'आजीविया भवति' आजीविका गोशालक मताऽनुवर्तिनो भवति । ते फिस्वरूपा । अत्राऽऽह - ' तं जड़ा' तबथा'दुघरंतरिया ' द्विगृहाऽन्तरिका - एकस्मिन् गृहे भिक्षा गृहीत्वा अभिग्रहविशेषेण गृहद्वय मतिक्रम्य पुनर्भिक्षा गृह्णन्ति, न निरतर न एकान्तर या मिक्षा गृह्णन्तीति भाव, ' तिघरतरिया ' त्रिगृहान्तरिका श्रीन् गृहानतिक्रम्य भिक्षा गृणन्तीति त्रिगृहान्तरिका, एव ' सत्तघरंतरिया ' सप्तगृहान्तरिका - समगृहान् परित्यज्य भिक्षा गृहूणन्तीति, 'उप्पलवेंटिया' उत्पलवृत्तिका - उत्पलनृन्तानि नियमविशेषात् माहातया भैक्षत्वेन येषा ते उत्पलवृतिका, 'घरसमुदाणिया गृहसमुदानिका गृहसमुदानम् अनेकगृहे मिक्षा येषा ते गृहसमुदानिका 'विज्जुयतरिया ' विद्युदन्तरिका विद्यणसम्पातेऽन्तर = मिक्षाग्रहणस्यावरोधो येषा ते विद्युदन्तरिका, विद्युति दीप्यमानाया भिक्षार्थं नाटन्तीति भाव, 'उहियासमणा' उष्ट्रिकाश्रमणा - उष्ट्रिका = मृत्तिकामयो भाजनविशेष तत्र प्रविष्टा ये श्राम्यन्ति तपस्यन्ति त - , ? 'से जे इमे' इत्यादि । (से जे इमे) ये जो (गामा - गर - जात्र - सनिवेसेसु) ग्राम भाकर आदि स्थानों से लेकर सनिवेश तक मे (आजीविया) गोशालक के मतानुयायी (भवति) होते हैं, (त जडा) जैसे- (दुधरतरिया) दो घर के अन्तर से जो भिक्षा लेते हैं, (तिघरतरिया) तीन घर के अन्तर से जो मिक्षा लेते है, (सत्तघरतरिया) सात घरों के अन्तर से जो भिक्षा' लेते है, (उप्पलवेंटिया) कमल के नालों की जो भिक्षा करते है, (घरसमुदाणिया) बहुत घरों से जो भिक्षा लेते हैं, (विज्जुयतरिया) बिजली चमकने पर जो भिक्षा नहीं लेते हैं, (उहिया समगा ) मिट्टी के किसी नडे वर्तन - नींद आदि मे प्रविष्ट हो कर जो तपश्चर्या कर 'से जे इमे' इत्याहि (से जे इमे) तेथे थे (गामा नगर- जाव- सनिवेसेसु) गाभ या५२ माहि स्थानाथी साने स निवेश सुधीभा (आजीविया) गोशासना भतानुयायी (भवति) होय छे, (तजहा) नेवा (दुधरतरिया) में धरने अतर राजी ने लिक्षा से छे, (तिघरत रिया) त्र धरने अतर राभी ने लिक्षा बे छे (सत्त घरतरिया) सात घराना अतरथी ने लिक्षा से छे (उप्पलवेंटिया) उभजना नाजनी ने लिक्षा ४२ छे, (घरसामुदाणिया ) धा धरोथी ने लिक्षा से छे, (विज्जुयतरिया) विभजी व्यभ} त्यारे ने लिक्षा बेता नथी, (उट्टियासमणा) भाटीना = 11 Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयृपर्षिणी-टीका स्र ५९ आजीविक विषये भगवद्गीतमयां स्थाद ६३३ एारुणं विहारेणं विहरमाणा बहूई वासाइं परियायं पाउणित्ता कालमासे कालं किच्चा उक्कोसेणं अच्चुए कप्पे देवत्ताए उववत्तारो भवति । तर्हि तेसि गई, बावीसं सागरोत्रमा टिई, अणाराहगा, सेसं तं चैव || सू० ५९ ॥ , , उष्ट्रिकाश्रमणा ते णं एयारूपेण विहारेण विहरमाणा' ते सह एतद्रूपेण निहारेण रिहन्त, 'हू वासाई परियाय पाउणित्ता' बहूनि वर्षाणि पर्याय पालयिवा, 'कालमासे are far काम का कृत्या, 'उकोसेण अच्चुए कप्पे देवताए उववतारो भांति ' उर्पेण अच्युते कल्पे देवयेनोपत्तारो भवन्ति, ' तर्हि तेसिं गई ' नपा गति, 'बावीस सागरमा ठिई 'हागिति सागरोपमानि स्थिति | 'अणाराहगा' अनाराधका 'सेस तं चेत्र ' शेष तदेव | सू० ५९ ॥ 1 है, इस प्रकार जो अभिग्रह वाले है, (ते एयारूपेण विहारेण विरमाणा बहूई साह परियाय पाउण माने काल किया उनोसेग अन्चुए कप्पे देवत्ताए उवचारो भवति) ये सन इस प्रकार विहार करते हुए बहुत वर्षों तक इस पर्याय को पालकर काल अवसर में काल करके उत्कृष्ट चारहवें देवलोक अव्युत कल्प मे देव की पर्याय से उपन्न होते है । (तर्हि तेसिं गई) वहीं पर उनकी गति होती है । (सावीस सागरोवमाई ठिई) २२ सागर की इनकी स्थिति चहा होती है । (अणाराहगा) ये सन अनाराधक होते है । (सेसं तं चैव) अपशिष्ट पूर्ववत् समझना चाहिये ॥ सू ५९ ॥ કોઈ મેટા વાસણ કોઠી આદિમા પ્રવિષ્ટ થઇને જે તપશ્ચર્યા કરે છે, આ પ્રકાरना मलिथडवाजा ने थे, (ते ण एयारूपेण विहारेण विहरमाणा बहइ वासाइ परियाय पाउणत्ता काल्मासे कालं किच्चा उक्कोसेण अच्चुए कप्पे देवत्ताए उववतारो भगति) या गधा था अारे विहार ग्लाडरता धा वरसो सुधी C આ પર્યાયને પાળીને ઢાલ અવસરે કાલ કરીને ઉત્કૃષ્ટ ખામાં અચ્યુત કલ્પમા हेवनी पर्यायी उत्पन्न थाय छे (तर्हि तेसिं गई) त्या तेभनी गति थाय छे, (arate raders fठई) गावीश सागरनी तेमनी स्थिति त्या होय छे (अणाराहगा ) मा गधा अनाराध होय हे (सेस त चेन) गाडीनु मधु पूर्व प्रभा भडयो (सृ पक्ष) Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३४ औपचातिको ___ मूलम्-सेजे इमे गामागर जाव सणिवेसेसुपवइया समणा भवंति, तं जहा-अत्तुक्कासिया परपरिवाइया भूइकम्मिया भुजो भुज्जो कोउयकारगा, ते णं एयास्वेणं विहारेणं विहर टीका--' से जे इमे' इत्यादि । ' से जे ईमे गामागर जाव सणिवेसे पन्वइया समणा भाति' अथ य इमे प्रामाऽऽकर यावसन्निवेशेषु प्रजिता श्रमणा भवति । तद्भदान दयितुमाह-' त जहा' तयथा 'अत्तुशासिया' आत्मोकर्षिका - आत्मन उन्कर्ष =श्रेष्टव सोऽस्त्येषामित्यात्मोन्कर्पिका आत्मगौरयदर्शका , 'परपरिवाइया' परपरिवादिका परेपा परिवादो=निन्दाऽस्ति येषा ते परपरिवादिका -परनिन्दका इत्यथ । 'भूइमम्मिया' भूतिकर्मिका -भूतिकर्म-चरिताना वाधाप्रशमनार्य भस्मदानं तदस्ति येषा, ते 'भूतिकर्मिका , 'भुजो भुज्जो कोउयकारगा' भूयोभूय कौतुककारका -भूयोभूय - पुन पुन कौतुक-परेषा सौभाग्यादिनिमित्त स्नपनादि तकतर , यद्वा-कुतूहलकारका । 'ते ण एयारवेणं विहारेण विहरमाणा' ते खन्येतद्रूपेण विहारेण विहरन्त 'बहूई ‘से जे इमे गामागर' इत्यादि। (से जे इमे) जो ये (गामागर-जाव सनिवेसेसु) ग्राम आकर आदि से लेकर सनिवेश तक के स्थानों मे प्राजित सयमी श्रमण है, जैसे-(अत्तुकासिया) अपनी आत्मा के गौरव को दिखाने वाले, (परपरिवाइया) स्वमत को अच्छा समझकर दूसरों को निंदा करने वाले, (भूइकम्मिया) भूतिकर्म करने वाले-ज्वरित व्यक्तियों की बाधा को शमन करने के लिये भस्म को देने वाले, (भुज्जो २ कोउयकारगा) पुन पुन अनेक प्रकार के कौतुक करने वाले, (ते ण एयारवेण विहारेण विहरमाणा ) वे सब इस प्रकार के आचार में रहते हुए (बहूई वासाइ सामग्णपरियाग पाउणति) बहुत वर्षों तक श्राम से जे इमे गामागर' त्या (से में 'इमे) मा २मा (गामा-भार-जाव-सनिवेसेस) जाम' मा४२' આદિથી લઈને સનિશ સુધીના સ્થાનમાં પ્રવ્રજિત સયમી શ્રમણ છે, જેવા ॐ(अत्तुस्कासिया) पाताना मात्मान गौरवने मापापणी, (परपरिवाइया) पोताना भतने सारे। समलने गीती नि ४२पापा, (भइकम्मिया)' भूतिકર્મ કરવાવાળા-જવરથી પીડાતા માણસેના દુ ખ શમન કરવા માટે ભરમ मापावाणा, (भुजो भुनो कोउयकारगा) पा२१२ मने अन तु:४२वा पास ( ण एयारूपेण विहारेण विहरमाणा) तसा था मापा ४२ना Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पीयूषवर्षिणी-टीका र ६० आत्मोत्कर्षिकादिविपये भगवद्गीतमयो सबाद. ६३५ माणा वहई वासाई सामण्णपरियागं पाउणंति, पाउणित्ता तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिकंता कालमासे कालं किच्चा उक्कोसेणं अच्चुए कप्पे आमिओगिएसु देवेसु देवत्ताए उववत्तारो भवति, तर्हि तेसिं गई, वावीसं सागरोवमाई ठिई, परलोगस्स अणाराहगा, सेसं तं चेव ॥ सू०६०॥ वासाइ सामण्णपरियागं पाउणति' बहूनि वणि श्रामण्यपर्याय पाल्यन्ति पाउणित्ता' पालयित्वा 'तरस ठाणस्स अणालोइयपडिकता ' तस्य स्थानस्य अनालोचितप्रतिक्रान्ता 'कालमासे काल किया' कालमासे कालं कृत्वा 'उकोसेण अन्चुए कप्पे आमिओगिएम देवेस देवत्ताए उपरत्तारो भाति ' उत्कर्पणाच्युते कल्पे आभियोगिकेपु-अभियोगे-आजाकर्मणि नियुक्ता अभियोगिकारतेपु-आनाकारिपु देवेषु देवत्वेनोपपत्तारो भान्ति, एतेपा देव व चारित्राराधकवेन, आभियोगिकत्व चामोत्कादिरयापनात्, 'तहि तेसिं गई' तत्र तेपा गति , 'वावीस सागरोक्माड ठिई। द्वाविंशति सागरोपमानि स्थिति , 'परलोगस्स अणाराहगा' परलोफस्याऽनाराधका 'सेस तं चेव' शेप तदेव ।। सू० ६०॥ ण्यपर्याय को पालते है, (पाउणित्ता) पालकर (तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्ता) उन पापस्थानों की आलोचना एर अतिक्रमण किये पिना (कालमासे काल किचा) काल अरसर मे कालकर (उकोमेण अन्चुए कप्पे आभिओगिएम देवेमु देवत्ताए उववत्तारो भवति) अधिक से अधिक अच्युतदेवलोक के आभियोगिक देवों मे-जो इन्द्र आदि के आज्ञाकारी होते है, उत्पन्न हो होते हैं, । चारित्र की आराधना करने वाले होने से ये देवपर्याय तो पालते हे, परतु आत्मो कप आदि रयापन करने के कारण इन्हे आभियोगिक मायामा डीन (पहर वासाइ सामण्णपरियाग पाउणति) ut पर सुधी श्राभएय-पर्यायने पाणे 2, (पाउणित्ता) पाणीने (तस्स ठाणस्म अणालोइयपटिक्कता) ते पापन्थानानी मातायना तेभा प्रतिभा उर्या ११२ (कालमासे काल किच्चा) असभा वा ४रीने (उस्कोसेण अच्चुए कप्पे आभिओगिएसु देवेसु देवत्ताए उपयत्तारो भाति) वधारेभा पधारे अश्युत वासना मालिये। ગિક દેમા, જે ઈન્ટ આદિના આજ્ઞાકારી હોય છે, ઉત્પન્ન થાય છે ચારિત્રની આરાધના કરવાવાળા હોવાથી તેઓ દેવપર્યાય તે પામે છે, પરંતુ આત્મત્કર્ષ Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३४ - - - - - औपपातिकसने । मूलम्-से जे इमे गामागर जाव सणिवेसेसु पठवडया समणा भवंति, तं जहा-अनुक्कासिया परपरिवाइया भइकम्मिया भुजो भुजो कोउयकारगा, ते णं एयारवेणं विहारेणं विहर टीका-'से जे इमे' इत्यादि ।' से जे ईमे गामागर जाव सष्णिवेसेस पच्चइया समणा भाति' अथ य इमे प्रामाऽऽकर याव सन्निपेशेषु प्रनजिता श्रमगा भवति । तद्भदान् दर्शयितुमाह-' त जहा' तथा 'अत्तुकासिया' भाभो कषिका-' आत्मन उकर्प श्रेष्टव सोऽस्स्येपामियामोकपिका-आमगौरवदर्शका, 'परपरिवाइया' परपरिवादिका -परेपा परिवादो-निन्दाऽस्ति येपा ते परपरिवादिका -परनिन्दका इयथ । 'भूइमम्मिया' भूतिकमिका -भूतिकर्म-ज्वरिताना बाधाप्रशमनार्य भस्मदानं तदस्ति येषा, ते 'भूतिकर्मिका , 'भुजो भुज्जो कोउयकारगा' भूयोभूय कौतुककारका-भूयोभूय , पुन पुन कौतुक-परेपा सौभाग्यादिनिमित्त स्नपनादि तत्कर्तार , यदा-कुतूहलकारका । 'ते ण एयारवेण विहारेणं विहरमाणा' ते खल्वेतद्रूपेण विहारेण रिहरन्त 'बहूई 'से जे इमे गामागर' इत्यादि। .(से जे इमे) जो ये (गामागर-जाप सनिवेसेसु) गाम आकर आदि से लेकर सनिवेश तक के स्थानों में प्रवजित सयमी श्रमण हैं, जैसे-(अत्तुकासिया) अपनी आत्मा के गौरव को दिखाने वाले, (परपरिवाइया) स्वमत को अच्छा समझकर दूसरों को निंदा करने वाले, (भूइरुम्मिया) भूतिकर्म करने वाले-ज्वरित व्यक्तियों की बाधा को शमन - करने के लिये भस्म को देने वाले, (भुज्जो २ कोउयकारगा) पुन पुन अनेक प्रकार कौतुक करने वाले, (ते ण एयारवेण विहारेण विहरमाणा) वे सब इस प्रकार के आचार में रहते हुए (वहूई वासाइ सामग्णपरियाग पाउणति) बहुत वर्षा तक श्राम 'सेजे इमे गामागर' त्याह - 1 (से में इमे) मा २॥ (गामा-पार-जाव-सनिवेसेस) में मा४२' આદિથી લઈને નિવેશ સુધીના સ્થાનમાં પ્રવ્રજિત સયંમી શ્રમણ છે, જેવી अत्तकासिया) पाताना सामान भीरपने भावापाणी, (परपरिवाइया) घोताना 'भतने सारे। समलने माननीन ४२पापा, (भइकम्मिया) भूति કર્મ કરવાવાળા-જવરથી પીડાતા માણના દુ ખ શમન કરવા માટે ભરમ सापवावाणा, (भुजो भुनो कोउयकारगा) पा२पार सने आरना तु४ ४२१॥ वा, (ते ण एयारूवेण विहारेण विहरमाणा) तो सधा मापा प्रामा Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूवपिणी-टीपासू ६१ निदर विपये भगवद्गीतमयो सवाद ६३७ ३, सामुच्छेडया ४, दोकिरिया ५, तेरासिया ६, अवद्धिया ७, इत्येवनादिनो बहुरता -जमालमतानुयायिन १, जीपएसिया' जीवप्रदेशिका -एक एवं चरमप्रदेशो जीव इत्यभ्युपगमाजीवप्रदेशो विद्यते येपा ते तथा, एकेनाऽपि प्रदेशेन न्यूनो जीवो न भवनि, अतो येनैकेन प्रदेशेन पूर्ण मन् जीवो भवति, स एवैक प्रदेशो जीनो भवतीत्येवविधवादिन तिप्यगुप्ताचार्यमतानुयायिन २, 'अन्यत्तिया' अव्यक्तिका अव्यक्त समस्तमिद जगत् , सावादिविपये श्रमणोऽय देवो वाऽयम् इयादिविनिक्तप्रतिमासोदयाऽभावात् , ततथाऽन्यक्तम् अस्फुट वस्तु-ति मतमस्ति येपा तेऽयक्तिका , अथवा अविद्यमाना सावादिव्यक्तिरेपामित्यन्यक्तिका, आपाढाचार्यशिप्यमताऽन्ततिन ३, 'सामुच्छेइया' सामुच्छेदिका -प्रतिक्षण नारकादिभानाना समुच्छेद-आय चदन्तीति सामुच्छेदिका -क्षणक्षयिभावप्ररूपका अश्वमित्रमतानुयायिन ४, 'दोकिरिया' द्वैक्रिया-द्वेकिये गीतवेदनोष्णवेदनादिहै, एक समय में नहीं। ये जमालिमत के अनुयायी होते हे १ । जीवप्रदेशिक का ऐसा कहना है कि जीव एक चरमप्रदेशस्वरूप ही है । जीव यदि एक भी प्रदेश से न्यून हो तो वह जीव-जा प्रास नहीं कर सकता, अत जिस एक प्रदेश से परिपूर्ण होकर वह जीव कहलाता है वह उस एकप्रदेशस्वरूप ही है। ये तिष्यगुप्त आचार्य के मतानुयायी होते है २ । अव्यक्तिक का यह कहना है कि यह समस्त जगत साधु आदि के विषय में सर्वया अन्यक्त है, क्यों कि ये देव है, ये श्रमण है-इस प्रकार का भिन्न २प्रतिभास नहीं होता है। इसलिए वास्तविक क्या है यह सब अयक्त-अस्फुट है। अथवा ये अयक्तिक जन किसी को भी साधुल्यक्ति नहीं मानते हैं । ये आपाढाचार्य के शिष्यों के मत के अन्तर्वर्ती माने जाते हैं ३ । सामुच्छेदिक-मतवादी प्रत्येक पदार्थ को क्षणविनश्वर मानते हैं। ये अश्वमित्र के मत के अनुयायी हैं ४ । द्वैक्रिय-मतवादी की ऐसी मान्यता है कि एक ही समय में समयमा नडि सामालिभतना मनुयायी डाय छ (०) जीवप्रदेशिक भनु એવું કહેવુ છે કે જીવ એક ચરમ--...દેશ-સ્વરૂપ જ છે જીવ જે એક પ્રદેશથી ધૂન (મ) હોય તો તે જીવનજ્ઞા પ્રાપ્ત કરી શકે નહિ આથી જે એક પ્રદેશથી પરિપૂર્ણ હોય તે જીવ કહેવાય છે, તે એક પ્રદેશ સ્વરૂપ જ છે આ तिष्यशुत मायना मतानुयायी डाय छ (३) अव्यक्तिक-मनु म કહેવું છે કે આ સમસ્ત જગત સાધુ નાદિના વિષયમાં સર્વથા અવ્યક્ત છે, કેમકે તેઓ દેવ છે, આ શમણ છે, આ પ્રકારનો જુદો જુદો પ્રતિભાસ હેતે નથી એથી વાસ્તવિક શું છે એ ખધુ અવ્યક્ત—અલ્ફટ છે અથવા અ અવ્યક્તિક અને કેઈને પણ સાધુ વ્યક્તિ માનતા નથી આ અષાઢાચાयना शिष्याना मतना मतपत्ती भनाय छे. (४) सामुच्छेदिक-मा प्रत्य પદાર્થને ક્ષણભર માને છે, તેઓ અધામના મતના અનુયાયી છે. Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकत A मूलम् - से जे इमे गामागर जाव सष्णिवेसेसु णिहगा भवति, तं जहा - बहुरया १, जीवपएसिया २, अव्वत्तिया टीका-' से जे इसे ' हयानि । ' से जे इमे गामागर जात्र सष्णिवे - सेस' अथ य इमे ग्रामाकर यावत्-मनिनेशेषु 'णिण्डगा' निद्ध्वा - निदुवते = अपलपन्ति = अन्यथा प्ररूपयतीति निहूनवा मिथ्याभिनिवेशाजिनोकार्थस्यापलापका इत्यर्थ, यथा जमाल्यादय, ते कतिविधा भवति' इयाकाङ्क्षाया दर्शयनि-'त जहा ' तथा 'बहुरया' बहुरता - नहुषु समयेषु रता = आसक्ता - बहुभिरेव समयै कार्य सम्पद्यते, नैकेन समयेन ६३६ जाति के देवों मे जन्म धारण करना पडता है । (तर्हि तेसिं गई ) यहीं पर इनकी गति एव (बावीस सागरो माइ ठिई) स्थिति २२ सागर की कही गई है । (परलोगस्स अणाराहगा ) ये परलोक के अनाराधक कहे गये हैं । (सेस त चेत्र ) अवशिष्ट पूर्ववत् समझना चाहिये ॥ सृ ६० ॥ 'से जे इमे गामागर' इत्यादि । (से जे इमे ) जो ये (गामागर - जाव-सण्णिवेसेसु) ग्राम आकर आदि स्थानों से लेकर सनिवेश तक कथित स्थानों में रहने वाले (पिण्डगा भवंति) जमालि आदि निहवमिथ्यात्व के अभिनेवेश से जिनोक्त अर्थ के अपलापक होते हैं, जैसे- (बहुरया जीवपएसिया अव्वत्तिया सामुच्छेश्या दोकिरिया तेरासिया अवद्धिया इच्छेते सत्तपत्र यणणिण्दगा) बहुरत- बहुरतों का ऐसा सिद्धान्त है कि कार्य अनेक समयों में ही होता અહિ ખ્યાપન કરવાના કારણે તેમને આભિયાગિક જાતિના દેવામા જન્મ ધારણ ४२वा थडे छे (तर्हि तेसि गई) त्या तेभनी गति, तेन्ट (बावीस सागरोवमाई ठिई) स्थिति २२ सागरनी उडेसी छे (परलोगस्स अणाराहगा) तेओ। परखेाउना अनाराध उवाय (सेस त चेव) गाडीनु मधु पूर्व प्रमाणे समन्वु लेडो (सू यह) ' जे इमे गामागर ' छत्याहि (जे इमे) तेथे! हे ने (गामागर जाव सण्णिवेसेसु) गाम, भा४२ साहि स्थानाथी सधनेस निवेश सुधीना ऐसा स्थानामा रहेवावाजा (जिन्हगा भवति ) જમાલિ જેવા નિહ્નવ-મિથ્યાત્વના અભિનિવેશથી જિન ભગવાને કહેલા अर्थना अथसाथ४ होय है, नेवा है- (बहुरया जीनपएसिया अव्यत्तिया सामुच्छेइया दोकिरिया नेरासिया अवद्धिया इच्चेते सत्त पत्रयणणिण्गा) (१) बहुरत મહુરતાના એવા સિદ્ધાંત કે કાર્યં અનેક સમયેામા જ થાય છે એક Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका स. ६० निहय पिपये भगवद्गीतमयोःसवाद दिट्टी वहहिं असम्भावुभावणाहिं मिच्छताभिणिवेसेहि य अ प्पाणं च परं च तदुभयं च चुग्गाहेमाणा वुप्पाएमाणा विहरिता वहई वासाइं सामण्णपरियागं पाउणंति, पाउणित्ता कालमासे इत्यगह-'मिच्छादिही मिध्यादृष्टय --मिथ्या विपरीता दृष्टि =मत येपाते तथा, एते सप निषका 'यहि । बहुभि 'असभाचुन्भावणाहि' असद्भावोद्भावनामिक असद्भावानाम् अविद्यमानाथानाम् उदापना =३ प्रेक्षणानि-आरोपणानि, तामि, 'मिच्छताभिणिवेसेहि य' मिध्यावामिनिमश्च-मिय्यायोदये. अभिनिवेशा स्वतस्थापनाऽऽग्रहास्तै 'अप्पाणं च परं च तदुभय च ' आत्मानश्च परञ्च तदुभयच 'बुग्गाहेमाणा". व्युग्राहयन्त -स्थमते स्थापयन्त , 'उपाएमाणा' व्युपादयन्त =जिनवचननिरुद्रप्ररूपणाजनितपापमुपार्जयत, 'विहरिता' पिटय, 'बह पासाइ बहूनि वणि 'सामण्णपरियाग' श्रामण्यपर्याय 'पाउगति ' पालयन्ति, ' पाउणित्ता' पालयित्वा कालमासे. है । (मिच्छादिट्ठी) ये सानो ही निद्रव मिथ्यादृष्टि है। (बहर्हि असम्भावुभावणाहि, मिच्छत्ताभिनिवेसेहि य पप्पाण च परं च तदुभय च बुग्गाहेमाणा बुपाएमाणा) ये अनेक प्रकार के असदायों की उद्भावनाआ से-अविद्यमान पदार्थों की कल्पनाओं से, तथा मिथ्यात्मादिक में अभिनियों से-अपने मत को स्थापन करन रूप आग्रहों से अपनी आत्मा को, दूसरों को तथा स्व-पर इन दोनों को अपने मत में स्थापित करते हुए एवं जिनमत के. विरुद्ध प्ररूपणा करने से उपन पाप का उपार्जन करते हुए (विदरित्ता) विचरते हैं । इस લિગ-જેહરણ આદિ સાધુના ચિની અપેક્ષાએ તેઓમાં સમાનતા છે (मिन्गादिट्ठी) में सातय निइन भियाट छ (बहूहि असम्भावुभावणाहिं मिच्छत्ताभिनिवेसेहि य अप्पाण च पर च तदुभय च बुग्गाहेमाणा वुप्पाएमाणा) તેઓ અનેક પ્રકારના અસદભાવની ઉભાવનાથી-અવિવમાન પદાર્થોની કપ નાઓ-કરવાથી તથા મિથ્યાત્વ આદિમા અભિનિવેશથી-પિતાના મતનુ સ્થાપન કરવા રૂપી આગ્રહોથી, પિતાના આત્માને, બીજાઓને તથા પોતાના ઉપરાત આ બન્નેને પિતાના મતમાં સ્થાપિત કરતા તેમ જ જિનમતનીविरुद्ध प्र३५ ४२पाथी उत्पन्न या पापनु पान २ता (विहरिता) विथरे । छ - प्रकारे ते (बहइ वासाइ सामण्णपरियाय पाउणति) माने परसे। सुधी આવાજ પ્રકારના આચાર-વિચારમાં તન્મય બનીને શામફ્યુપર્યાયનું પાલન Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - औरणालियो इच्छेते सत्त पवयणणिण्हगा केवलं चरियालिंगसमाणा मिच्छास्वरूपे एकस्मिन् समये जीवोऽनुमति दयेव यति ये ते वैकिया =क्रियाद्वयानुभव प्ररूपिणो गााचार्यमतानुयायिा ५, 'तेरासियागशिका -श्रीन रागीन्-जीवाड जीव-नोजीररूपान् बदन्ति ये ते गमिका -गशिप्रयाग्यापका इयर्थ-रोहगुमाचार्यमतानु सारिण ६, 'भरद्धिया' अद्धिका -जीर कर्मणा बद्दो न भवति, किंतु कञ्चुकवस्पृष्टा भवति-इत्येव वदन्ति ये तेऽद्धिका , गोष्टामाहिलमतावलग्निन ७, उपलक्षण चैतद्वान्तसम्यक्त्वानामन्येपामपि । ' उच्चते सत्त परयणणिण्डगा' इत्येते सम प्रव० चननिहवा -प्रवचन-जिनागम निहनुमते अपल्पन्ति, अन्यथा तदेकदेशस्य चाऽभ्युपगमात् ते प्रवचननिद्रवा , केवल-चरियालिंगसमाणा' चर्यालिगसमाना -चत्रेयाभिक्षाटनादिक्रियया लिङ्गेन रजोहरणाढिना च समाना =साधुतुन्या , ते पुन कीया। एक जीन दो विरद्ध क्रियाओं का भी अनुभव करता है। शीतवेदना एवं उष्णवेदना ये दा परस्पर में एक समय में विरुद्ध हैं । इहे जीव एक समय मे भोगता है । ये गगाचार्य के मत के अनुयायी होते हैं ५। त्रैराशिक मतवालेका एसा कहना है कि जीवों को तीन रागिया है(१) जीव, (२) अजीव एव (३) नोजीव। ये रोहगुप्त के मत के अनुयायी है ६ । अबद्धिक लोग ऐसी प्ररूपणा करते हैं कि जीव और कर्म का वध नहीं होता है। सिर्फ जीव के साथ कर्म कचुक की तरह स्पृष्ट रहा करते हैं । ये गोष्ठमाहिल के मत को मानने वाले होते है। यह उपलक्षणस्वरूप है, इससे सम्यक्त्वरहित क्रिया करने वालों का भी ग्रहण हुआ है। इस प्रकार ये सात प्रवचन-जिनागम के निहत है। (केवल चरियालिंगममाणा) मात्रा चया भिक्षा याचना आदि क्रिया तथा लिङ्ग-रजोहरणादि साधु के चिह्नों की अपेक्षा इनमे समानता ' () द्वैक्रिय-मेमनी मेवी मान्यता छ । २४०० समयमा २४ मे विरुद्ध लियामाना ४२ शीतवेदना-तभर उष्णवेदना २ मे ५२२५२मा એક સમયમાં વિરુદ્ધ છે તેમને જીવ એક સમયમાં ભેગવે છે તેઓ ગગાयायनी भतना गनुयायी हाय छ (8) त्रैगशिक-तमा मेम छ 3 छवानी 3 राशियी छ, (१) ७१ (२) म तभर (3) नाला तसा गुस्तन भतना अनुयायी छ (६) अगद्विक-तमा सम प्र३५। ४२ छे કે જીવ અને મને બધ થતું નથી માત્ર જીવની સાથે કર્મ ક ચુકની પેઠે પૃષ્ટ રહેલા ચાટી રહેલા–લાગી રહેલા) છે આ ગાષ્ઠમહિલના મતને માનવી વાળા હોય છે. આ ઉપલક્ષણસ્વરૂપ છે, માટે મુખ્યત્વરહિત ક્રિયા કરવા વાળનું પણ ગ્રહણ થાય છે આ પ્રકારે આ સાત પ્રવચન-જિનાગમના નિવ छ किवल चरियालिंगसमाणा) भात्र यया-लिक्षा यायना माहि लिया तथा Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषषिणी-टीका सु ६२ अल्पारम्भादिमनुष्यधिपये भगवद्गीतमयो सवाद ६४१ भवंति, तं जहा-अप्पारंभा अप्पपरिग्गहा धम्मिया धम्माणुया धम्मिटा धम्मक्खाई धम्मप्पलोई धम्मपलज्जणा धम्मसमुदायारा 'तं जहा' तद्यथा-'अप्पारभा' अन्पारम्भा -अप आरम्भ =कृप्यादिना पृथिव्यादिजीवोपमदों येपा से तथा, 'अप्पपरिग्गहा' अल्पपरिग्रहा अन्य -परिग्रह =धनधान्यादिस्वीकाररूपो येषा ते तथा, 'धम्मिया' धार्मिका -धर्मेण प्राणातिपातादिविरमणरूपेण चरति ये ते धार्मिका , 'धम्माणुया' धर्मानुगा -धर्ममनुगच्छन्ति ये ते धर्माऽनुगा', कुत इत्थम् । अत्राऽऽ-'धम्मिट्ठा' धर्मेष्टा --धर्म एवष्टो वल्लभो येपा ते धर्मष्टा । अथवाधर्मिष्ठा धोऽस्ति येषा ते धर्मिणः, त एवातिशययुक्ता धर्मिष्ठा । 'धम्मक्खाई। धर्मख्यातय -धर्मात् रयाति -प्रसिद्धिर्येपा ते धर्मख्यातय । अथवा धर्माऽऽख्यायिन --धर्ममार यान्ति भत्र्येभ्य प्रतिपादयन्तीति धर्मापयायिन । 'धम्मप्पलोई' धर्मप्रलोकिन । धम्मिया धम्माणुया) अल्प आरभी-ओ पृथिव्यादिक जीवों के उपमर्दन वाले कृप्यादिक रूप आरम को अल्प करते है वे, अल्पपरिग्रही अथात् जिनके धनधान्यादिक के स्वीकाररूप ममस्वभाव अन्प होता है वे, धार्मिक-प्राणातिपातादिक चिरमणरूप धर्म से जो युक्त होते हैं वे, तथा--धर्मानुग- धर्मपद्धति के अनुसार जो चलते है वे, (धम्मिटा धम्मक्वाई धम्मप्पलोई धम्मपलनणा धम्मसमुदायारा) धर्मेष्ट-धर्म ही जिन्हें प्रिय है ये, अथवा धर्मिष्ठ-धर्म के अतिशय से जो युक्त हैं वे, धर्मख्याति धर्म से जिनकी ग्याति हुई हे वे, अथवा-धर्मख्यायीभव्यजनों के लिये जो श्रुतचारित्ररूप धर्म का कथन करने वाले होते है वे, धर्ममलोकी धर्म को जो उपादेयरूप से मानले है वे, धर्मप्राञ्जन-धर्म के सेवन करने मे जो अधिक गाभ, मा४२ सभा सन्निशामा मनुष्य २ छे, (त जहा) २५ (अप्पारभा अप्पपरिग्गहा धम्मिया धम्माणुया) म८५ २मार ली-२ पृथिवी मालिवाने દુખ દેવાવાળા કૃષિ આદિક રૂપ આર ભને અ૫ (ઓછા) કરે છે તેઓ, અલપ પરિગ્રહી-જેના ધન ધાન્ય આદિકના સ્વીકાર રૂપ મમત્વભાવ અલ્પ હોય છે તેઓ, ધાર્મિક-પ્રાણાતિપાતઆદિકના વિરમણરૂપ ધર્મથી જે યુક્ત હોય છે તેઓ, તથા ધમનુગ-ધમંપદ્ધતિને અનુસરીને જે ચાલે છે તેઓ, (धम्मिट्ठा धम्मक्साई, धम्मप्पलोई, धम्मपलजणा धम्मसमुदायारा) घट-भ જ જેમને ઈષ્ટ-પ્રિય છે તેઓ, અથવા ધર્મિષ્ઠ—ધર્મના અતિશયથી જેઓ યુક્ત છે તેઓ, ધર્મખ્યાતિ-ધર્મથી જેઓની ખ્યાતિ (પ્રસિદ્ધિ) થઈ છે તેઓ, અથવા ધમખ્યાથી–ભવ્ય જનેને માટે જે કુતચારિત્ર રૂપ ધર્મનું કથન કરવાવાળા હે છે તેઓ, ધર્મપ્રલોકી-ધર્મને જે ઉપાદેયરૂપથી માને છે તેઓ, ધર્મ Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० गौरपालिका __ कालं किच्चा उकोसेणं उवरिमेसु गेवेजेस देवत्ताए उववतारो भवंति । तहिं तेसिं गई, एकतीसं सागरोवमाई ठिई, परलोगस्स अणाराहगा, सेसं तं चेव ॥ सु० ६१ ॥ ... मूलम् से जे इमे गामागार जाव सपिणवेसेसु मणुया कालं.किचा' कालमासे कालं मृत्या 'उकोमेण' उकग 'उपरिमेमु गेवेन्जेमु उपरितनेषु प्रैवेयकेषु 'देवत्ताए उववत्तारो भाति ' देवमेनोपपत्तारो भवन्ति । 'तहि तेसिं गई' तत्र तेषा गति , 'एकतीस सागरोवमाइ ठिई एकत्रिंशसागरोपमानि स्थिति , परलोगस्स अणाराहगा' परलोकस्याऽनाराधका , 'सेस त चेर' शेष तदेव ।। सू० ६१ ॥ 1 1 टीका-से जे इमे' इत्यादि । ' से जे इमे ' अथ य इमे 'गामा-गरजाव-सण्णिवेसेम्' ग्रामाऽऽ-कर--यावत्सन्निवेशेषु 'मणुया भवति' मनुजा भवन्ति, इस प्रकार ये (वहुई वासाई सामण्णपरियाय पाउणति) अनेक वर्षों तक इसी' प्रकार के आचार-विचारों मे तन्मय बने हुए श्रामण्यपर्याय का पालन करते रहते हैं । (पाउपिता कालमासे काल किचा उकोसेण उमरिमेमु गेवेज्जेसु देवत्ताए 'उववत्तारो भवंति) पालकर काल अवसर काल करके अधिक से अधिक उपरिम अवेयकों मे देव की पर्याय से उत्पन्न होते है । (तहि तेसिं गई, एकतीस सागरोवमाइ ठिई, परलोगस्स अाहारगा, सेस तं चेव) वहीं पर उनकी गति एव ३१ सागर प्रमाण स्थिति होती है। ये परलोक के अनाराधक कहे गये है । अपशिष्ट सब पूर्ववत् समझना चाहिये ।। सू ६१॥ - 'से जे इमे' इत्यादि । .(से जे इमे) जो ये (गामा-गर-जाव-सण्णिवेसेसु मणुया भवति) ग्राम आकर यावत् सन्निवेशों मे मनुष्य रहते है, (त जहा) जैसे-(अप्पारमा अप्पपरिग्गहा ध्या ४२ छ (पाउणित्ता कालमासे काल किच्चा उक्कोसेण उपरिमेसु गेवेजेस देवत्ताए उवयत्तारो भवति) पाणी२ ४८ मसरे ४ ४शन वारेमा थारे 6परिभ अवेयछमा पनी पर्यायथा उत्पन्न थाय छ (तहि तेसिं गई एक्कतीस सागरोवमाइ ठिई परलोगस्स अणाहारगा सेस त चेत्र) त्या तमनी गति, तभा ૩૧ સાગર પ્રમ ણ સ્થિતિ હોય છે તેઓ પરલોકના અનારાધક કહેવાય છે બાકીનું બધુ પૂર્વ પ્રમાણે સમજવું જોઈએ (જૂ ૬) से जे इमे' त्यादि (से जे इमे) तमा २ (गामागर जाव सण्णिवेसेसु मणुया भवति) Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषपिणी टीका र ६२ अल्पारम्भादिमनुष्य विपये भगवद्गीतमयो मयाद.६४३ माणाओ मायाओ लोहाओ पेज्जाओ दोसाओ कलहाओ,अभक्खाणाओ पेसुण्णाओ परपरिवायाओ अरहरईओ मायामोसाओ मिच्छादसणसल्लाओ पडिविरया जावजीवाए, एगचाओ अपडिविरया, एगच्चाओ आरंभसमारंभाओ पडिविरया जावजीवाए, याव परिग्रहात् , यावरन्देन-मृपावानाऽद्वत्तादान-मैथुनानि वोद्धव्यानि । 'एगचाओ' एकस्मात् स्थूलात् 'कोदायो' क्रोधात् , 'माणाओ' मानात् , 'मायाओ' मायाया , 'लोहानी' लोमात्, 'पेज्जायो' प्रेयस , 'दोसाए ' द्वेपात् 'कलहाओ' कलहात् 'अभक्खागाओ' अभ्याख्यानात् पैशुन्यात, ‘एरपरिवायाओ' परपरिवादात् 'अरइरईओ' अरतिरतिभ्याम् 'मिन्छादसणसल्लाओ' मिथ्यादर्शनगन्यात् 'पडिविरया' प्रतिविरता = भावतो चिरता 'जावजीचाए' यानजीव-जीवनपर्यन्तम्, ‘एगचाओ अपडिविरया' एकस्मात्-सूक्ष्मात् अप्रतिविरता 'एगचाओ आरंभसमारंभाओ पडिविरया जावनीवाएं एगचाओ अपडिविरया' एकम्मादारम्भसमारम्भा प्रतिपिरता यावजीवमेकरमादप्रति पडिग्गहाओ) तथा इसी तरह स्थूल मृपावाद, स्थूल अदत्तादान, स्थूल मैथुन एवं स्थूल परिग्रह से विरक्त रहते है ये, (एगचाओ कोहाओ माणाओ मायाओ लोहाओ पेज्जाओ दोसाओ कलहाओ अम्भसाणाओ पेसुण्णाओ परपरिवायाओ अरदरईओ मायामोसाओ मिन्छादसणसहाओ पडिग्रियाजावजीवाए ) इसी प्रकार स्थूल क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेप, कलह, अभ्याग्यान, पैशुन्य, परपरिवाद, अरति, रति, मायामृपा, एवं मिथ्यादर्शनशन्य से जीवनपर्यन्त प्रतिविरत रहा करते हैं, (एगचाओ अपडिविरया) फिन्तु सूदम क्रोधादिको से प्रतिविरत नहीं रहते है, (एगचाओ आरभसमारभाओ पडि पडिग्गहाओ) तथा सवा ४ शते स्थूल भृपापा६, २थूस मतदान, स्यूल भैथुन, तेभ०४ २५ो परियडया वि२४॥ २ छ तेसा, (एगचाओ कोहाओ माणाओ मायाओ लोहाओ पेज्जाओ दोसाओ कलहाओ अन्भस्त्राणाओ पेसुण्णाओ परपरिवायाओ अरइरईओ मायामोसाओ मिच्छादसणसल्लाओ पडिविरया जावज्जीयाए) रे २यूद्ध औष, मान, माया, होम, २, ५, 8, मस्याध्यान, शुन्य, ५२परिवा६, अति, २ति, भायाभूषा, तभान भित्र्याइनशक्ष्यथा वनपर्यन्त प्रतिविरत रह्या ४३ छ, (एगच्चाओ अपडिविरया) परंतु सूक्ष्म छोध माहितीथी प्रतिविरत रहेता नथी. (एगाचाओ आरस Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬૨ भौपचातिक 1 धम्मेणं चैव वित्ति कप्पेमाणा सुसीला सुव्त्रया सुप्पडियाणंदा साहूहि एगचाओ पाणाड़वायाओ पडिविरया जावजीवाए, एगः चाओ अपडिविरया, एवं जाव पडिग्गहाओ, एगच्चाओ कोहांओ 'धम्मपलजणा' धर्मप्ररञ्जना - धर्मे प्रस्यति = आसनन्ति परायणा मनति ये ते धर्म प्ररञ्जना | धम्मसमुदायारा' धर्मसमुदाचारा धर्म समुदाचार = सदाचारो येषा ते धर्मसमुदाचारा ।' धम्मेण चैव नित्ति कप्पेमाणा' धर्मणैव वृत्तिं कन्पयन्त धार्मिकजीविकया निर्वहन्त, 'मुसीला' मुगीला योगनाचाखत 'मुन्वया' सुनता = शोभनत्रतवन्त ' सुप्पडियाणदा' सुप्रत्यानन्दा - मुटु प्रत्यानन्द = चित्ताऽऽहदो येषा ते तथा, ' साहूहि' साधुभ्य = साधुसमीपात्- साध्वत्तिके प्रत्यारयाय ' एगचाओ' एकस्मात् = स्थूलरूपात् न तु सर्वस्मात् ' पाणावायाओ' प्राणातिपातात् परप्राणव्यपरोपणत, 'पडिविरया ' प्रतिविरता =निवृत्ता, ‘जावज्जीवाए ' यावज्जीव-जीवनपर्यन्तमित्यर्थ, 'एगचाओ अपडिविरया ' एकस्मात् = यूक्ष्मरूपात् अप्रतिविरता = अनिवृत्ता । " एव जावपरिग्गहाओ ' एवं अनुराग सपन्न होते है वे, धर्मसमुदाचार-धर्म ही जिनका उत्तम आचार हैं वे, (धम्मेण चेव वित्तं कप्पेमाणा ) तथा जो धर्म से ही अपनी जीविका चलाते हैं वे, (सुसीला सुव्वया सुप्पडियाणदा) शोभन आचार जिनका है वे, सुव्रत- निरतिचार व्रतो के जो पालन करने वाले हैं वें, सुप्रत्यानन्द - जिनका चित्त सदा अच्छी तरह से आनदसपन्न रहा करता है वे, तथा जो ( साहू हिं एगचाओ) साधु के समीप प्रत्याख्यान लेकर केवल एक (पाणा इवायाओ) स्थूल प्राणातिपातरूप से (जावज्जीवाए पडिविरया) जीवनपर्यन्त प्रतिविरत - निवृत्त रहते हैं, ( एगच्चा अपडिविरया) परतु सूक्ष्मरूप प्राणातिपात से विरक्त नहीं रहते है वे, (एव जाव પ્રરજન-ધર્મીનુ સેવન કરવામા જે અધિક અનુરાગસ પન્ન હાય છે તે, धर्भसभुद्दायार-धर्मन मनो उत्तम सायार छे तेथेो, (धम्मेण चेव विति कप्पेमाणा) तथा ने धर्म थी ४ पोतानु भवन थसावे छे तेथेो, ( सुसीला सुव्वया सुप्पडियाणदा ) शोलन आधार लेना छे तेयो, सुव्रत- निरतियार તેનુ જેએ પાલન કરવાવાળા છે તે, સુપ્રત્યાન ઃ—જેમનુ ચિત્ત હુંમેશા सारी रीते यान इस पन्न रह्या अरे छे तेथे, तथा नेगो (साहूह एगच्चाओ) * साधुनी पासे प्रत्याभ्यान सहने ठेवस ४ (पाणाइवायाओ) स्थूसप्राणातिपात३य पाथी (जावज्जीवाए पडिविरया) वनपर्यन्त प्रतिविश्त - निवृत्त रहे छे, (एगच्चाओ अपडिविरया) ५२तु सूक्ष्म प्रतिघातथी विरस्त रहेता नथी तेथे, (एव जाब Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __पीयूषवर्षिणी-टोफासु ६२ अल्पारम्भादिमनुष्यविषये भगवद्गीतमयो संघाद ६४५ वंधा-परिकिलेसाओ पडिविरया जावंजीवाए, एंगच्चाओ अपडिविरया, एगच्चाओ पहाण-मद्दण-वण्णग-विलेवण-सद्द-फरिसरस-रूव-गंध-मल्ला-लंकीराओ पडिविरयाजावज्जीवाए, एगच्चाओ -वध-बन्ध-परिक्लेशात् तत्र कुट्टनम् छेदनम्, पिट्टन-वसादेरिव मुद्गरादिना हननम्, तर्जनम्=-जास्यसि रे नाल्म ! ' एतद्रूप भर्त्सन, ताडन-चपेटादिना हननम् , वध = प्राणव्यपरोपण, बन्ध =रज्जुपाशादिना बन्धनम्, परिक्लेगो बाधोत्पादन तेषा समाहार' तस्मात् 'पडिविरया' प्रतिविरता = निवृत्ता 'जायजीवाए' यावजीवम् , 'एगचाओ अपडिविरया' एकस्मात् अप्रतिविरता = अनिवृत्ता । 'एगचाओ पहाण-मद्दण-वण्णग-विलेवण-सह-फरिस-रस--स्व-गध - मल्ला-लकाराओ पडिविरया जावज्जीवाए ' एकस्मात् स्नान-मर्दन-वर्णक-विलेपन-गब्द-स्पर्श-रस कोट्टण-पिट्टण-तज्जण-तालण-वह-वध-परिकिलेसाओ पडिविरया जावजीवाए) कोई २ ऐसे है जो कुन-छेदन, पिट्टन-पीटना-वस्त्रादिक का जिस प्रकार मुद्गरादिक से कूटना होता है उसी प्रकार मुद्गर-मूसल आदि से पीटना-कूटना, तर्जन-खोटे वचनों द्वारा भर्त्सना करना, ताडन-चपेटा थप्पड-आदि मारना, वध-प्रागव्यपरोपण करना, बन्ध-रज्जुपाश आदि से किसी को बाधना, एव परिक्लेश-किसी को बाधा आदि उत्पन्न करमा, इन सब कार्यों से यावजीवन प्रतिपिरत है, ( एगचाओ अपडिविरया) कोई २ ऐसे है जो इन क्रियाओं से प्रतिविरत नहीं है । ( एगचाओ पहाण-मद्दण-वण्णग-विले-- वण-सह-फरिस-रस-रूव-गंध-मल्ला-लकाराओ पडिविरया जावज्जीवाओ) जावजावाए) छपा ३२ टन-छन, पिन--12-वाहिन પ્રકારે મુદગર આદિથી કૂટે છે તે પ્રકારે મુદ્દગર (ક) મૂસલ (સાબેલા) આદિથી પીટવા-કૂટવા, તર્જન-ખોટા ખરાબ વચને દ્વારા ભત્સના કરવી, તાડન-તમાચા ४ २५ २मा भारषु, १-प्राणुव्यपरी५ ४२७ (भारी नाम), मधદેરડાના પાશ આદિથી કોઈને બાધવું, તેમજ પરિકલેશ-કેઈને બાધા (૯ ખ) माहि पलाया मामा आयोथी नपर्यन्त प्रतिविरत छ (एगच्चाओ अपडिविरया) सेवा छ २ २ लियामाथी प्रतिविरत नथी (एगच्चाओ पहाण-मद्दण्ण-चण्णग-विलेवण-सद्द-फरिस-रस-रूव-ध-मल्ला-लकाराओ. Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ भोपातिक एगच्चाओ अपडिविरया, एगञ्चाओ करणकारावणाओ पडिविरया । जावजीवाए, एगच्चाओ अपडिविरया, एगच्चाओ पयणपयावणाओ पडिविरया जावजीवाए, एगच्चाओ पयणपयावणाओं अपडिविरया, एगच्चाओ कोहण-पिट्टण-तज्जण-तालण-वह विरता 'एगचाओ करणकारापणाभी' एकरमाकरणकारणात् स्वयमनुष्टान - करण, प्रेरणया परहस्तात्कारणम् , तयो समाहार , तस्मात् 'पडिपिरया' प्रतिविरता, 'जा ज्जीवाए ' यावजीवम्, 'एगचामो अपडिपिरया' फरमादप्रतिविरता =राज्ञामाजादिमि फारणे । 'एगचाओ पयणपयारणाओ पडिपिरया जारनीवार' एकरमापचनपाचनात्-पचन स्वहस्तापाककरण, पाचनः परहारेण, तस्मात्प्रतिविरता यावनीव, एगचामा पयणपयावणाभो अपडिविरया' एकस्मात् पचनपाचनादप्रतिविरता 'एगचाओ कोट्टणपिट्टण-तज्जण-तालण-वह-बध-परिफिलेसाओ' एकस्मारकुट्टन-पिट्टन-तर्जन-ताडन विरया जावज्जीवाए) ऐसे ही वे स्थूल आरभ-समारंभ से ही जीवनपर्यंत विरक्त रहत हैं, सूक्ष्म आरभसमारभ से नहीं। (एगचाओ करणकारावणाश्रो पडिविरमा) कोई ऐसे है जो केवल स्वयं करने से एव दूसरों से कराने से जीवनपर्यन्त विरत रहते हैं। (एगचाओ अपडिविरया) कोई ऐसे है जो राजाकी आजा-आदि के कारण इनसे प्रतिविरत नहीं हैं, (एगचाओ पयण-पयावणाओ पडिविरया जावजीवाए) कोई २ ऐसे हैं जो पचन-पाचन क्रिया से जीवन पर्यंत विरत है। (एगचाजो पयणपयारणाओ अपाडविरया) कोई २ ऐसे हैं जो इन पचन-पाचनादि कियाओं से विरत नहीं है । (एगचाओं समारभाओ पडिविरया जावजीवाए) तम ती स्थूल मारल-सभार लथा પણુ જીવનપર્યન્ત વિરક્ત રહે છે, સૂક્ષમ આરભ-સમાર ભથી વિરક્ત નથી हता (एगचाओ करणफारायणाभो पडिविरया) मेवा छ । ४२वा४साथी पनपत विरताय छ (एगच्चाओ अपडिविरमा) सेवा छ ? रानी माज्ञा माहिना ४ारणे तेनाथी प्रतिविरत हातानथी, (एगचाओ पयणपयावणाओ पडिविरया जावजीनाए) छ २पयन-पायन जियाथी नयंत विरत छ (एगच्चाओ पयणपयारणाओ अपडिविरया) अर्थ કિઈ એવા છે કે જે આ પચન-પાચન આદિ ક્રિયાઓથી વિરત નથી (एगच्चाओ कोट्टण-पिट्टण-तजण-तालण-व-ध-परिकिलेसाओ पडिविरया Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका स ६३ अस्पारम्भादिमनुष्यविषये भगवद्गीतमयो संपाद ६४७ मूलम्-तं जहा-समणोवासगा भवंति, अभिगयजीवाजीवा उवलद्धपुण्णपावा आसव-संवर-निजर-किरियाअहिगरण-बंध-मोक्ख-कुसला असहेजा देवा-सुर-नाग टीका-ये पूर्व सामान्येन कथितास्त एव विशेषेण कथ्यन्ते-'तं जहा तद्यथा-ते मनुजा, 'समणोवासगा भवति' श्रमणोपासका साधुसेवका-श्रावका भवन्ति, ते कीदृशा सन्ति । अत्राऽऽह- 'अभिगयजीवाजीवा' अभिगतजीवाजीवा --अभिगता - यथावस्थितस्वरूपेग जाता जीया अजीवाच यैस्ते तथा, जीवाजीवतत्त्वज्ञानवन्त इत्यर्थ , 'उक्लद्धपुण्णपावा' उपलब्धपुण्यपापा-उपलब्धे यथावस्थितस्वरूपेण विज्ञाते पुण्यपापे यस्ते तथा, तत्त्वतो विज्ञातपुण्यपापस्वरूपा इत्यर्थ , “आसव-संबर-निजर-फिरियाअहिंगरण-वध-मोक्ख-कुसला' आत्रव--सवर-निर्जरा--क्रिया-धिकरण--बन्ध-मोक्ष-, कुशला--तत्रासव -आस्रवति-प्रविशति अष्टविध कर्मसलिल येन आत्मसरसि स आनव - जीवनपर्यंत प्रतिविरत हैं, तथा फितनक ऐसे है जो (एगचामो अपडिविरया) इनसे प्रतिविरत नहीं हैं। सू०६२॥ 'जहा समणोवासगा' इत्यादि । (त जहा) इसी प्रकार (समणोवासगा भवति) अन्य श्रमगोपासक होते हैं, जो कि (अभिगयजीवाजीवा) जीव और अजीव के यथार्थ स्वरूप के ज्ञाता होते है, (उवलद्धपुण्णपावा) पुण्य एव पाप का यथावस्थित स्वरूप जिन्होंने अच्छी तरह जाने + लिया है, (आसव-सवर--निज्जर-किरिया-अहिंगरण-बंध-मोक्ख-कुसला) मानव, समर, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण, बध, मोक्ष इनमे हेय कौन २ हे और उपादेय कौन २ है इस प्रकार हेय और उपादेय के ज्ञान से जिनका भाव परिपक्व हो चुका है। प्रतिविरत छ, तथा रक्षा मेवा छ २ (एगच्चाओ अपडिविरया) तेनाथी प्रतिपिरत नथी. (सू १२) 'त जहा समणोवासगा' त्यादि (त जहा) से शते (समणोवासगा भवति)२ भोपासाय छ, (अभिगयजीवाजीवा) २७१ भने मना यथार्थ २५३पना ज्ञाता राय छ, (उवलद्धपुण्णपावा) पुष्य तभ०४ पापनु यथास्थित स्व३५ मा सारी रीत सभा सीधसु छ, (आसव-सवर-निजर-किरिया-अहिंगरण-बध-मोक्स-कुसला) આસવ, સવર, નિશ, ક્રિયા, અધિકરણ, બધ, મેક્ષ, તેમાં હેય maan Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४६ अपेडिविया, जे यावण्णे तहप्पगारा सावज्जजोगोपहिया कम्मता परपाण परियावणकरा कजंति तओ वि एंगबाज पंडिविरया जावजीवाए, एगचाओ अपडिविरया ॥ सू० ६२ ॥ रूप-गन्ध--मान्याऽ-लाराय्प्रतिविरता यावत्रोपम्, 'एगचाओ अपडिबिरया ' एक इमादप्रतिविरता –तत्र वर्णक =अङ्गराग, अन्यत् स्पष्टम् । तथा-'जे यात्रणे सहवणारा ' ग्रे यावन्तस्तथाप्रकारा 'सावज्जजोगोर दिया' सावद्ययोगोपधिका साधनयोगा सावधनो गयुक्ताश्च ते औषधिका मायाप्रयोजनार्थेति तथा, 'पर- पाण-परियात्रणकरा' परप्राणपरिंतापनकरा 'कम्मंता' कर्मान्ता = कृप्यादिव्यापाराशा 'कजंति' क्रियन्ते, 'जो दि एगचाओ पडिविरया' ततोऽपि एकस्मात् प्रतिनिरता प्रतिनिवृत्ता, 'एगचाओ अपठि विरया' एकस्मात् अप्रतिविरता = अनिवृत्ता' सन्ति ॥ सू० ६२ ॥ कोई २ ऐसे हैं जो जीवनपर्यन्त स्नान से, मर्दन से, विलेपन से, शब्द, रूप, मंघ, रस, स्पर्श इन इन्द्रियों के भोगों से, माला एवं अलकार आदि से निवृत्त हैं । ( एगबाओ अपडिविरया) कोई २ ऐसे भी हैं जो इनसे बिलकुल ही प्रतिविरत नहीं हैं। (जे यात्रणे तहप्पगारा सावज्जजोगोवहिया कम्मता परपाणपरियावणकरा कज्जति ) इसी प्रकार के और भी जितने सावद्ययोगोपधिक अर्थात् - सावधयोगयुक्त और मायाकषायजन्य तथा—दूसरों के प्राणों को परिताप पहुँचाने वाले जो कृष्यादि व्यापार हैं, (तओ त्रि) उनसे भी कितनेक ऐसे मनुष्य हैं जो ( एगञ्चाओ पडिविरया जावज्जीवए) एकान्त पडिविरया जावज्जीवाओ ) अ अ सेवा होय हे ट्ठे मे भवनपर्यंत स्नानथी, भई नथी,' म गरागर्थी, विज्ञेयनथी, शह-स्पर्श-३५ - अध-रस मे द्वियोना लोगोथी भने भाजा तेभन असार महिथी निवृत्त है ( एगच्चाओ अपडिविरया ) अर्ध अर्ध सेवा छे हैं ने तेनाथी जिसस ४ अतिविरत होता नथी (जे यावण्णे तहप्पगारा सावज्जजोगोवहिया कम्मता परपाणपरियावणकरा कज्जति ) भेन अारे मील पशु नेटसा सावद्ययोगीषधि એટલે સાવધયેાગયુક્ત અને માયાકષાયજનિત તથા ખીજા જીવાના પ્રાણને परिताप पहायाउनार ने हृषि न्याहि व्यापार छे, ( तओषि ) तेनाथी पष्ठ मील हैटसा मेवा भनुष्य छे े ? ( एगन्चाओ पडिविरया जावज्जीवाए ) वनपर्यन्त Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका ६२ अल्प रम्भादिमनुष्य विषये भगवद्गौतमयो सपाद ६४९ सकलकर्मक्षये सति जीनस्य कर्ममयोगापादितस्परहितस्य साद्यपर्यवसानम् अन्यावाधमव स्थानम उक्त च नीसम्म निगमो मुक्सो जीवस्स मुद्धरूपस्स | साइणपज्नवसाण अव्वानाह अवस्थाण ॥ १ ॥ छाया - निःशेषकर्मनिगमो मोक्षो जीवस्य शुद्धरूपस्य । साद्यपर्यवसानम् अत्र्यानाधम् अवस्थानम् ॥ इति ॥ तेषा द्वन्द्व, तत्र कुशला, आस्रवादीनां हेयोपादेयतास्वरूपज्ञानिन इत्यर्थ, 'असहेज्जा 1 असाहाय्या - अविद्यमान साहाय्य - देवादिसाहाय्य स्वस्यैव धर्मजनितसामर्थ्यातिगयात येषा ते तथा, यहा - स्वयं कृत कर्म स्वयमेव भोक्तव्यमिति ज्ञात्वा मनोदौर्यल्याभावात् परसाहाय्यानपेक्षा इत्यर्थ । 'देवा - सुर-नाग- जक्ख- रक्खस- किंनरकिंपुरिस - गरुल-गधव्त्र - महोरगाउएहिं देवगणेहिं ' देवा - सुर-नाग - यक्ष-राक्षस - अयन्त-आत्यन्तिक-क्षय का नाम मोक्ष है । समस्त कमी के क्षय होने पर उनके सयोग से आपादित मृर्तित्व का शीन ही पर्यवसान जीन में हो जाता है, इससे अमूर्तिवरूप स्वभाव का प्राचुर्य होने से उसका अन्यावाधरूप से अनस्थान हो जाता है। कहा भी हैसमस्त कमाँ का निगम ही मोक्ष है और वही जीव का शुद्ध स्वरूप है, इस स्वरूप के प्राप्त होते ही जान का अवस्थान अत्र्याबाधरूप से आत्मा में हो जाता है । जो " असाहाय्या " हैं अर्थात् धर्मजनित सामर्थ्य के अतिशय से देवादिकों की सहायता की सप्न में भी इच्छा नहा रखते हैं, अथवा अपने द्वारा कृत शुभाशुभ कर्म आत्मा स्वय ही भोग करता है दूसरों की सहायता इसमे कार्यकारी नहीं हो सकती - इस प्रकार की मानसिक दृढता के कारण जो दूसरों का सहायता की थोडी सी भी पर्वाह नहीं करते है । (देवा-सुर-नाग - जक्ख સમસ્ત કર્મોના ક્ષય થવાથી તેમના મયાગથી આપાદિત મૂર્તિત્વનુ તરત જ પવસાન જીવમા થઈ જાય છે તેથી અમૃતિસ્વરૂપ પેાતાના સ્વભાવનુ પ્રાચ્ થવાથી તેનુ અવ્યાખાધરૂપથી અવસ્થાન થઈ જાય છે કહ્યુ પણ છે સમસ્ત કર્મોનુ વિગમ એજ મેક્ષ છે, અને એજ જીવનુ શુદ્ધ સ્વરૂપ છે. આ સ્વરૂપને પ્રાપ્ત થતા જ જીવનુ અવસ્થાન આવ્યાબાધ રૂપથી આત્મામાં થઈ लय छे 'असाहाय्या' छे अर्थात् धर्भथी उत्पन्न थता भाभर्थ्यांना अतिशयथी દેવ ાદિકાની સહાયતાની સ્વપ્નમા પણ ઈચ્છા રાખતા નથી અથવા પોતાના દ્વારા કરાયેલા જીભ અશુભ કર્યું આત્મા પાતે જ ભાગવે છે, ખીજાની સહાન યતા એમા કામ આવી શકતી નથી આ પ્રકારની માનસિક દૃઢતાના કારણે ने श्रीननी सहायतानी भरा पशु परवाह दरता नथी ( देवा-सुर-नागजक्स-एक्सस - किंनर- किंपुरिस-रुल-व्य-महोरगाइएहिं देवगणेहिं निग्गथाओ Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओप मिथ्याचानिरतिप्रमादरुपाययोगरूप, सरः-मनियत स्थिते आतवकर्म येन परिणामेन स सवर, समितिगुमिप्रभृतिभिरा गमरसि आगन कर्म गलिलाना स्थगनमित्यर्थ, निजरानिर्जरण = कर्मणा जीनप्रदेशेभ्य परिघटन - विवरण, सा न देशत कर्मक्षयरूपा, किया = कायिस्यादिका, अधिकरणम्- अधिक्रियत नरकगनियोग्यता प्राप्यते आमाऽनेने यधिकरणम्द्रव्यतो गन्त्री यन्त्रादि, भावत क्रोधादिकम् बध - जीवस्य कर्मपुदगलसम्बन्ध, मोक्षजिस प्रकार नौका मे छिद्रों द्वारा जल का प्रवेश होता रहता है इसी प्रकार इस आत्मारूप सरोवर में जिसके द्वारा अष्टविध कर्मरूप जल का भागमन होता है उसका नाम आव है । मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कपाय ण्व योग के भेद से यह आस्तव अनेक प्रकार का है। उिदों के बंद करने से जिस प्रकार नौका में पानी का आना रुक जाता है उसी प्रकार जिन परिणामों से आते हुए कर्म रुक जाते हैं उन परिणामों का नाम सवर है। गुप्ति, समिति एव परीषह आदि के भेद से यह स्वर अनेक प्रकार का बतलाया गया है। जीवप्रदेश से कर्मों के एकदेश का नाम होना इसका नाम निर्जरा है। काय आदि सबधी व्यापारी का नाम क्रिया है । नरकगति में जाने की योग्यता जीव जिसके द्वारा प्राप्त करता है वह अधिकरण है । द्रव्य और भाव के मेद से यह दो प्रकार का है। यहा पर भाव अधिकरण का कथन है, अत वह कोधादिक कषायरूप जानना चाहिये । जीव का एव कर्मपुद्गलो का परस्पर में एकक्षेनावारूप सब का नाम बध है । ' समस्त कर्मों के S va શું છે અને ઉપાદેય શું છે આવી રીતે હેય અને ઉપાદેયના જ્ઞાનથી જેના ભાવ પરિપક્વ થઇ ગયા હોય છે જેવી રીતે નૌકામા છિદ્રો દ્વારા જળને પ્રવેશ થયા કરે છે. તેવી જ રીતે આ આત્મારૂપ સરાવરમા જેના દ્વારા આઠ પ્રકારના કરૂપી જલનુ આગમન થાય છે તેનુ નામ આસવ છે મિથ્યાદર્શન, અવિરતિ, પ્રમાઢ, કષાય તેમજ યાગના ભેદથી આ આસવ અનેક પ્રકારના થાય છે. છિદ્રોને બંધ કરવાથી જેવી રીતે નૌકામાં પાણીનુ આવવું શકાઈ જાય છે તેવી જ રીતે જે પરિણામેથી આવનારા કર્મ શોર્ટ જાય એવા પરિણામેનુ નામ સ વર છે ગુપ્તિ, સમિતિ તેમજ પરીષહ આદિના ભેદથી આ સ વર અનેક પ્રકારના ખતાવવામા આવ્યા છે. જીવ-પ્રદેશથી કર્મોના એક દેશ નષ્ટ થાય તેનુ નામ નિશ છે કાય આદિ સખ ધી વ્યાપારાનુ નામ ક્રિયા છે. નરકગતિમા જવાની ચૈાગ્યતા જીવ જેના દ્વારા પ્રાપ્ત કરે છે. તે અધિકરણ છે દ્રવ્ય તથા ભાવના ભેદ્યથી તે એ પ્રકારના છે અહી ભાવ અધિકરણનુ કથન છે તેથી તે કૈધ આર્દિક કષાયરૂપ જાણવુ જોઈએ જીવને તેમજ કેમ પુદ્ગલાના પરસ્પરમા એકક્ષેત્રાવગાડુંરૂપ સ ધ છે, તેનુ નામ અધ છે. સમસ્ત કર્મોના અત્યતત્યતિક ક્ષયનુ નામ માક્ષ - Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषषिणी-टीका सु.६३अल्पारम्पादिमनुध्यविषये भगवद्गीतमयो सवाद.६५१ पुच्छियहाअभिगयठा विणिच्छियहा अहि-मिज-पेमा-गुरागरत्ता,अयमाउसो। निग्गंथे पावयणे अटे, अयं परमर्दो, सेसं अणहे, ऊसियफलिहा अवंगुयद्वारा चियत्-तेउर-घरप्पवेसा वहहि यहा' पृष्टार्था - सदिग्पार्थस्य प्रकरणात, 'अभिगयट्ठा' अभिगतार्या -पृष्टार्थस्याभिगमात् 'विणिन्छियहा' विनिश्चितार्था -पदार्थाना विनिश्चयात्, 'अहि-मिज-पेमागुराग-रता' अस्थिमजाप्रेमानुरागरक्ता अस्यौनि हट्टी' इति प्रमिद्धानि, मन्ना-अरमा मध्यगतो धातुविशेष , तामु अस्थिमजामु प्रवचनस्य प्रेमानुरागेण प्रेमरूपेणानुरागेण रक्ता ये ते तथा, ते श्रावका पुत्रादीन् ममोध्य वदन्ति 'अयमाउसो' इत्यादि । इदं हे आयुष्मन् । 'निगये पात्रयणे' नैर्ग्रन्थ प्रचनम् , 'अढे' अर्थ =मोक्षस्य कारणम्, अतएव 'अय परम?' इद परमार्थ मारभूत , 'सेसे अणडे' शेपमनर्यम्-शेप-नैर्म यप्रवचनभिन्न कुप्रवचन धनवान्यपुरकलादिक च अनर्थव्यर्थम्, 'ऊसियफलिहा' उच्छ्रितस्फटिका -उच्छितम्-उनत स्फटिक म्फटिकमिन चित्त येषा ते तथा, स्फटिकवनिर्मलहृदया इत्यर्थ , हैं, पृष्टार्थ है, अभिगतार्थ हैं, (विणिच्छियट्ठा) विनिश्चितार्थ है, (अहि-मिज-पेमा-गुरागरत्ता) प्रवचन के प्रति अनुराग जिनकी ना-ना में भरा हुआ है । ऐसे ये श्रावक जन वातालाप के प्रणाम अपने २ पुरादिका को अथवा अन्यजनों को इस प्रकार कह कर समझाते-बुझाते है-(अयमाउसो ! निग्गये पावयणे अटे अय परमट्टे सेसे अणडे) हे आयुष्मन् । यह निम्रन्थ प्रवचन ही मोक्ष का कारण है इसलिए यही परमार्थभूत है। इससे भिन्न जो कुप्रवचन है-मिथ्यादृष्टिया द्वारा उपदिष्ट प्रवचन है यह, तथा धन, धान्य, पुत्र एव कलादि, अनर्थ के कारण है । इन व्यक्तियों का (असियफलिहा) हृदय स्फटिक જેમની અસ દિધ શ્રદ્ધા છે, જે લબ્ધાર્થ છે, ગૃહીતાર્થ છે, પૃષ્ટાથે છે, અભિ मता छ, (विणिच्छियदा) विनिचिनार्थ छ, (अद्वि-मिंज-पेमा-गुराग-रत्ता) જેની નસેનસમાં પ્રવચન પ્રતિ અનુરાગ ભરેલો હોય છે એવા એ શ્રાવક જન વાર્તાલાપના પ્રસંગમાં પિતા પોતાના પુત્રાદિકને અથવા બીજા લોકોને मा परे डीन समावे-मुआय-(अयमाउसो। निगथे पारयणे अटे, अय परमटे, सेसे अगटे) आयुष्मन् । मानिन्य अवयन भाक्षनु છે માટે એજ પરમાર્થભૂત છે તેનાથી બીજા જે કાઈ પ્રવચન છે તે મિથ્યાદષ્ટિએ દ્વારા ઉપદેશાયેલા પ્રવચન છે, તે, તવા ધન, ધાન્ય પુત્ર તેમજ કલત્ર माति, अनर्थना २ छे मा व्यतिमानाय (ऊसियफलिहा ) २४ Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५० ओपपातिलो जक्ख-रक्खस-किन्नर-किंपुरिस-गरुल-गंधव-महोरगाइपहि देवगणेहिं निग्गंथाओ पावयणाओ अणइकमणिजा, निग्गये पावयणे णिस्तंकिया णिखिया निवितिगिच्छा लहहा गहियहा किंनर-किंपुरुप-गरुड-गधर्व-महोरगादिक -ता देया मालिका अमुरा असुरकुमारी , नागा -नागकुमारा , अमुग नागा इमे उभये गनपतय , यक्षा राक्षसा किनारा किंपुरुपा -एते चवारो व्यन्तरविशेषा , गरुडा - गरुडध्यना - सुपर्णकुमारा' भवनपात विशेषा, गर्वा महोरगाध व्यन्तरविरोपा , तप्रमृतिभि देवाण 'निगंयाओ पाव: यणाओ' नम्र-थात् प्रवचनात् 'अणइफामणिना' अनतिक्रमणीया =अचालनीया - निम्रन्थप्रवचनात् तान् चालयितु देवादयोऽप्यसमा इति भाव । 'निग्गंथे पावयण' नैर्मन्थे प्रवचने 'निस्सक्रिया' नि शहिता -शहारहिता, 'निखिया' निष्काङ्क्षिता = परमतानगिलापिण, 'निचितिगिच्छा' निर्विचिकित्सा - फल प्रनि संदेहवजिता । 'लद्धद्वा' लब्धार्था -अर्थश्रवणात् , 'गहियद्रा' गृहीतार्था - अर्थानधारणात्, 'पुच्छिरक्खस-किनर-किंपुरिस-गरुल-गधन्य-महोरगाइएहि देवगणेहिं निग्गयाओ पावणयाओ अणइकमणिज्जा) देव, असुरकुमार, नागकुमार, यक्ष, राक्षस, किनर, किंपुरुष गरुड, सुपर्णकुमार, गर्व एव महोरग इत्यादिक देवगणों द्वारा भी जो निम्रन्थ प्रवचन से एक बाल भी विचलित नहीं किये जा सकते है, (निग्गथे पावयणे णिस्सकिया णिक खिया णिचितिगिच्छा लट्ठा गहियट्ठा पुच्छियट्ठा अभिगयट्ठा) निम्रन्थप्रवचन में जिनकी श्रद्धा नि शकित है, निष्काक्षित है-परमत की ओर जिनके हृदय में जाने की अथवा उसे सराहने आदि की थोड़ी सी भी अभिलापा नहीं है, निर्विचिकित्सागुण से जा भरपूर है, फल के प्रति जिनकी श्रद्धा सदेह से सर्वथा रिक्त है, जो लब्धार्थ है, गृहीतार्थ पावणयाओ अणइग्रामणिजा) , मसुरशुभार, नागभार, यक्ष, राक्षस, કિનર, કિ પુરુષ, ગરુડ, સુપણકુમાર, ગ ઘ તેમજ મહારગ ઇત્યાદિક દેવગણે દ્વારા પણ જે નિર્ચ ઘ પ્રવચન વડે એક વાળ જેટલા પણ વિચલિત ४री शत नथी, (निग्गथे पायवणे णिस्तकिया, णिस्करिया णिव्वितिगिच्छा लद्दा गहियद्रा पुन्छियदा अभिगयदा) निन्य अवयनमा भनी श्रद्धा नि શકિત છે, કાક્ષા વગરના છે–પરમતની તરફ જવાની જેમના હદયમા અભિદ્વાષા જરા પણ નથી, અથવા પરમતની પ્રશ સા આદિ કરવાની કિચિત પણ અભિલાષા નથી, નિવિચિકિત્સા-ગુણથી છે ભરપૂર છે ફળના તરફ Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! पीयूषवर्षिणी-टीका सु. ६३ अल्पारम्भादिमनुष्यविषये भगवदगौतमयो सवाद ६५१ पुच्छियट्ठा अभिगयट्टा विणिच्छिया अहि- मिंज - पेमा - णुरागरत्ता, अयमाउसो ! निग्गंथे पावयणे अट्ठे, अयं परमट्टे, सेसं अणहे, ऊसियफलिहा अवगुयदुवारा चियत्तं - तेउर-घरप्पवेसा वहूहि , यहा ' पृष्टार्था - सदिग्धार्थस्य प्रश्नकरणात् 'अभिगयट्ठा' अभिगतार्था - पृष्टार्थस्याभिगमात् 'विणिन्डिया' विनिधिताया पदार्थाना विनिधयात्, 'अहि-मिज - पेमा -- राग-रत्ता ' अस्थिमज्जा प्रेमानुरागरक्ता अस्थीनि- 'हड्डी' इति प्रसिद्धानि, मज्जा - अस्मा मध्यगतो धातुविशेष, तासु अस्थिमजासु प्रवचनस्य प्रेमानुरागेण प्रेमरूपेणानुरागेण रक्ता ये ते तथा, ते श्रावका पुनादीन् मनोध्य वदन्ति 'अयमाउसो' इत्यादि । इदं हे आयुष्मन् । 'निगये पात्रयणे ' नैर्व्रन्थ प्रचनम्, 'अहे' अर्थ =मोक्षस्य कारणम्, अतएव 'अय परमट्ठे' इद परमार्थ =मारभूत, 'सेसे अणडे ' शेपमनर्थम् - शेप नै चप्रवचनभिन्न कुप्रवचन धनवान्यपुनकलनाविकच अनर्थ = व्यर्थम् 'ऊसियफलिहा ' उच्छ्रितस्फटिका - उच्छ्रि तम् = उन्नत स्फटिक = स्फटिकमिव चित्त येषा ते तथा, स्फटिक निर्मलहृदया इत्यर्थ, हैं, पृष्टार्थ है, अभिगतार्थ है, (विणिच्छियद्वा) विनिधितार्थ हैं, (अट्टि - मिंज - पेमा णुरागरत्ता) प्रवचन के प्रति अनुराग जिनकी नग-ना में भरा हुआ है । ऐसे ये श्रावक जन वार्तालाप के प्रगम अपने २ पुनादिकों को अथवा अन्यजनों को इस प्रकार कह कर समझाते - बुझाते हे - ( अयमाउसो ! निग्गथे पावयणे अट्टे अय परमट्ठे सेसे अण्डे ) ह आयुमत् | यह निर्णय प्रवचन ही मोक्ष का कारण है इसलिए यही परमार्थभूत है । इससे भिन्न जो कुप्रपचन है- मिध्यादृष्टिया द्वारा उपदिष्ट प्रवचन है वह तथा धन, धाय, पुत्र एव फलनादि, अनर्थ के कारण हे। इन व्यक्तियों का (ऊसियफलिहा ) हृदय स्फटिक wh भनी यस हि श्रद्धा छे, ने सम्धार्य छे, गृहीतार्थ छे, पृष्टार्थ छे, अলिगतार्थ छे, (निणिच्छियट्टा ) विनिश्चितार्थ छे, ( अट्ठि - मिंज पेमा पुराग-रत्ता ) જેની નસેનસમા પ્રવચન પ્રતિ અનુગગ ભરેલ હાય છે એવા એ શ્રાવક જન વાર્તાલાપના પ્રસંગમા શ્વેતપેાતાના પુત્રાદિકને અથવા ખા લેાકાને अरे महीने समभवे मुआवे छे (अयमाउसो । निग्गथे पावयणे अट्टे, अय परमट्ठे, सेसे अणट्टे) हे आयुष्मन् ! या निर्थन्य प्रवथन न भोक्षनु भश्शु ૐ માટે એજ પરમાથ ભૂત છે તેનાથી બીજા જે કાઈ પ્રવચન છેતે મિથ્યાદૃષ્ટિએ દ્વારા ઉપદેશાયેલા પ્રવચન છે, તે, તથા ધન, ધાન્ય, પુત્ર તેમજ કક્ષેત્ર महि, अनर्थना भर हे या व्यक्तिसोना (हृदय ( ऊसियफलिहा ) ३टिङ Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - औपपातिकवणे सील-व्वय-गुण-वेरमण-पचरखाण-पोसहो-बवासेहिं चउहसहमुद्दिपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहं सम्म अणुपालेत्ता 'अपगुयदुवारा' अपावृतद्वारा =दानार्थमथिग उदघाटितटारा इयर्थ , 'अवगुय' इति देशीय शब्द , 'चियत्ततेउरघरप्परेसा' त्यक्तान्त पुरगृहप्रवेशा-रयात मीया प्रदत्त , अन्त पुरे वा गृहे या प्रवेशो येपा ते तथा, अतिधार्मिकतया सर्वानागानीया इयर्थ । ते कथभूता विहरन्ती याह-चउद्दस-द्वमु-विद्व-पुण्णमासिणीसु' चतुर्दश्यएम्युद्दिष्टापोणेमासीपु 'यहहिं' बहुभि , 'सील-व्यय-गुण-रमण-पचरसाण-पोसहो-ववासहि' शील-व्रत-गुण-विरमण-प्रत्यारयान-पोषध-पवास -अस्य व्यारयाऽयोत्तगर्थे त्रिषष्टितमे सूत्रेऽवलोकनीया। चतुर्दश्यष्टम्युदिष्टापौर्णमासीपु-इह-'उहिप्टा' इत्यनेन अमावास्या गृह्यते । मणि के समान निर्मल रहा करता है । (अपगुयदुवारा) इनके घर के दरवाजे सदा दानके लिये खुले रहा करते हैं, (चियत्त-तेउर-घर-पवेसा) राजा क अत पुर में भी इनकी आने-जाने की कोई भी रोक-टोक नहीं होती है । (पहूर्हि सील-व्यय-गुण-वेरमणपञ्चक्रवाण-पोसहोववासेहिं चउद्दसमुदिट्ठपुण्णमासिणीमु) 'शील' गन्द से सामा यिक, देशावकाशिक, पोपध, अतिथिपविभाग ये चार लिये जाते है। 'व्रत' से पाच अणुव्रत,गुण से तीन गुणवत लिये जाते हैं। विरमण-मिथ्याव से निवृत्त होना, प्रत्यारयान-पवेदिनी में निषिद्धवस्तुका त्याग फरना । पोषधोपनास-(पोप धत्ते) इस व्युत्पत्ति से धर्म की वृद्धि का जो करता है वह पोषध कहलाता है, अर्थात् चतुर्दशी, अमावास्या, अष्टमी, पूर्णिमा, ये पोषण कहलाते है, इन पर्वदिनों मे आहार, शरीरसत्कार, अग्रह्मचर्य, और सावधव्यापार इन चारा भणिना २१ निभा रहा ४२, (अवगुयदुवारा) तमना घरना ४२पास सहा हान भाटे धारा ४२ छ (चियत्ततेउरघरप्पवेसा) रानना मतપુરમા પણ તેમને આવવા-જવાની કોઈ પણ જાતની રોક-ટેક થતી નથી, (बहूहिं सील-व्वय-गुण-वेरमण-पच्चम्साण-पोसहोववासेहिं चउद्दसमुद्दिद्वपुण्णमासिणीसु) शास' श०४थी सामायित, देशापशि, पोषध, गतिथिस वि ભાગ, એ ચાર સમજવાના છે “વત’થી પાચ અણુવ્રત, “ગુણથી ત્રણ ગુણવ્રત લેવાના છે, વિરમણ-મિથ્યાત્વથી નિવૃત્ત થવું, પ્રત્યાખ્યાન-પર્વના દિવसोमा निषिद्ध स्तुना त्या वो कोषधोपपास-(पोप धत्ते) मा व्युत्पत्तिथी ધર્મની વૃદ્ધિને જે કરે છે તે પિષધ કહેવાય છે, અર્થાત્ ચતુર્દશી, અમાવાસ્યા, અષ્ટમી, પૂર્ણિમા, એ પિષધ કહેવાય છેઆ દિવસે મા-પર્વ દિવસમાં આહાર, શરીરસત્કાર, અબ્રહાચર્ય અને સાવઘવ્યાપાર એ ચારેયને ત્યાગ Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषयपिणी टीका स ६३ अल्पारम्भादिमनुष्य विषये भगवद्गीतमयो संघाद ६५३ समणे निग्गंथे फासुएसणिजेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं वत्थ-पडिग्गह-कंवल-पायपुंछणेणंओसहभेसज्जेणं पाडिहारिएण य पीढ-फलग-सेज्जा-संथारएणं पडिलाभेमाणा विहरंति, विहचतुर्दम्यादिपु तिथिपु 'पडिपुण्ण ' प्रतिपूर्ण 'पोसह ' पोपध, 'सम्म' सम्यक् 'अणुपालेत्ता' अनुपाल्य 'समणे निग्गथे' अमणान निम्रन्थान् 'फासुएसणिज्जेण' प्रासुकैपणीयेन, 'असण-पाण-खाइम-साटमेण ' अशन-पान-वाद्य-स्वायेन, 'वत्यपडिग्गह-कवल-पायपुंछणेण' वखपतद्ग्रहकम्बलपादपोछनेन, तर पतद्ग्रह =पात्र, पादप्रोन्छन-रजोहरणम्, 'ओसहभेसनेण' औषधभैपज्येन 'पाडिहारिएण य पीढफलग-सेज्जा-सथारएण' प्रातिहारिकेण च पीठफलकगायानस्तारकेग-तत्र पीठम् आसन, फलकम् अवष्टम्भनफलक, शय्या वसति , यद्वा वृहत्मस्तारक,, रस्तारक -लघुतर , एपा समाहारद्वन्द्व , ततस्तेन, 'पडिलामेमाणा' प्रतिगम्भयन्त =ददत , 'विहरति' का त्याग करना पोषधोपचास है, इस तरह बारह प्रकार के श्रावक धर्म को (सम्म अणुपालेत्ता) अच्छी तरह पालन करते है । (समणे-निग्गथे) श्रमणनिर्ग्रन्थों को (फासुएसणिज्जेण असण-पाण-खाइम-साइमेण) प्रासुक-एपणीय अगन, पान, खाद्य तथा स्वाद्य ऐसे चारों प्रकार के आहारों से (वत्थ-परिग्गह-कवल-पायपुछणेण ओसहभेसज्जेण) एव वस्त्र, पान, कम्बल, रजोहरण, औषध, (पाडिहारिएण य पीढफलगसेज्जासथारएण पडिलामेमाणा विहरति) एव प्रातिहारिक (पडिहारा) पीठ (वाजोट) फलक (पाट) अग्या (वसति) और सस्तारक आदि से, मुनियों को प्रतिलाभित करते हुए विचरते है, अर्थात् उन्हें इन पूर्वोक्त वस्तुओं को आवश्यकतानुसार प्रदान करते है, (विहरित्ता भत्त ४२व तपोधायपास । शत मा२ प्रधान श्राप भने ( सम्म अणुपालेत्ता) सारी शत पासन ४२ छ (समणे निग्गथे) श्रम नियोने (फासुएसणिज्जेण असण-पाण-साइण-साइमेण) प्रासुर-मेषयीय मशन, पान, मा तथा स्वाध रोका थारेय ना माहारथी, (वत्थ-परिग्गह-कवल-पायपुछणेण ओसहभेसज्जेण) तभ०४ १२स, पात्र, ४५स, २२२७, औषध, सपा, (पाडिहारिएण य पीठ-फलग-सेज्जा-सथारएण पडिलाभेमाणा विहरति) तभी પ્રાતિહારિડ (પડિહારા) પીઠ (બાજોઠ) ફલક-પાટ, શય્યા (વસતિ) અને સસ્તા રક આદિથી મુનિને પ્રતિલાભિત કરતા વિચરે છે, અર્થાત્ તેઓ આ ઉપર ४७मी तुमाने माश्यता प्रभारी प्रदान ४रेछे (विहरित्ता भत्त पच्चक्सति Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५२ औपपातिक , 1 सील - व्य-गुण- वेरमण - पञ्चकखाण-पोसहो- ववासेहिं चउदसमुद्दिपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहं सम्मं अणुपालेत्ता 'अदुवारा ' अपावृतद्वारा दानार्थमयिभ्य उदघाटितद्वारा इत्यर्थ, 'अवगुय' इति देशीय शब्द ' चियत्ततेउरघरप्परेसा' व्यक्तान्त पुग्गृहप्रवेशा व्यक्त मी या प्रदत्त, अन्त पुरे या गृद्दे या प्रवेशो येषा ते तथा, अतिधार्मिकतया सर्वानानीया हय । ते कथभूता विहरन्ती याह- ' चउदसमुद्दिट्ट - पुण्णमासिणीस' चतुर्दश्यष्टम्युदिष्टापौर्णमासीपु 'वहूहिं' बहुभि 'सील-व्यय-गुण- वेरमण- पचनखाण-पोसहो-बवासेहि' शील - व्रत - गुण - विरमण - प्रत्यात्यान पोपधे-पवासे - अस्य व्यात्यानेोत्तरार्धे त्रिषष्टितमे सूनेऽवलोकनीया । चतुर्दश्यष्टम्युटिटा पौर्णमासी पु-इह - 'उहिष्टा' इत्यनेन अमावास्या गृह्यते । मणि के समान निर्मल रहा करता है । (अदुवारा उनके घर के दरवाजे सदा दानके लिये खुले रद्दा करते हैं, (चियत - तेउर - घर - पवेसा) राजा के अत पुर में भी इनको आने-जाने को कोई भी रोक-टोक नहीं होती है । (बहूहिं सील-व्य-गुण- वेरमणपञ्चकखाण - पोसहोचवासेहिं चउदसमुदिद्वपुण्णमासिणीसु) 'शील' शन्द से सामायिक, देशावकाशिक, पोषध, अतिथिमविभाग ये चार लिये जाते है । 'व्रत' से पाच अणुव्रत, गुण से तीन गुणवत लिये जाते है। विरमण-भिध्याय से निवृत्त होना, प्रत्याख्यान - पर्वदिनों में निषिद्धवस्तुका त्याग करना । पोपधोपनास - ( पोप धत्ते ) इस व्युत्पत्ति से धर्म की वृद्धि को जो करता है वह पोषध कहलाता है, अर्थात् चतुर्दशी, अमावास्या, अष्टमी, पूर्णिमा, ये पोषथ कहलाते है, इन पर्वदिनों में आहार, गरीरसत्कार, अमहाचर्य, और सावयव्यापार इन चारों भविना नेवा निर्माण रह्या उरे छे, ( अवगुयदुद्वारा) तेभना धरना हरवाल सहा द्वान भाटे धाडस रह्या उरे छे ( चियत्तंतेवरघरप्पवेसा) शब्नना अत - પુરમા પણ તેમને આવવા-જવાની કોઈ પણ જાતની શકટ થતી નથી, (बहहिं सील-व्यय-गुण- वेरमण-पच्चरसाण -पोसहोवयासेहिं चचदसमुद्दिट्टपुण्णमासिणीसु) 'शीस' शब्दथी सामायिक, देशावमशिष्ठ, पोषध, अतिथिस वि ભાગ, એ ચાર સમજવાના છે ‘વ્રત’થી પાચ અણુવ્રત, ‘ગુણ'થી ત્રણ ગુણव्रत सेवाना छे, विश्भणु-मिथ्यात्वथी निवृत्त यवु, प्रत्याच्यान पर्वना द्विषसोभा निषिद्ध वस्तुनो त्याग स्व घोषधोपवास- ( पोप धत्ते) या व्युत्पत्तिथी ધર્મની વૃદ્ધિને જે કરે છે તે પાષધ કહેવાય છે, અર્થાત્ ચતુર્દશી, અમા વાસ્યા, અષ્ટમી, પૂર્ણિમા, એ પાષધ કહેવાય છે. આ દિવસેામા—પ દિવસેામા આહાર, શરીરસત્કાર, અબ્રહ્મચર્ય અને સાવદ્યવ્યાપાર એ ચાયના ત્યાગ --- Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषषिणी-टीका स ६४ अनारम्भादिमनुष्ययिपयेभगवद्गीतमयो.संघाद ६.५ मूलम्-से जे इमे गामागर जाव सण्णिवेसेसु मणुया भवंति, तं जहा-अणारंभा अपरिगहा धम्मिया जाव कप्पेमाणा टीका---' से जे इमे' इत्यादि । 'से जे इमे गमागर जाव सण्णिवेसेसु' अथ य इमे प्रामाऽऽकर यावत् सन्निवेशेषु 'मणुया भवंति ' मनुजा भवन्ति, 'तं जहा' तयथा-'अणारंभा अपरिगहा धम्मिया जाव कप्पेमाणा' अनारम्मा अपरिग्रहा धार्मिका यावत् कल्पयन्त , अत्र-यावच्छन्देन 'धम्माणुया, धम्मिट्ठा, धम्मक्खाई,धम्मप्पलोई, धम्मपलज्जणा, धम्मसमुदायारा, पम्मेणं चेत्र वित्ति' धर्मानुगा धर्मिष्ठा धर्मात्यायिनो धर्मप्रलोकिनो धर्मप्ररखना धर्मसमुदाचारा धर्मणैव वृत्तिम्-इति पाठो में उत्कृष्ट वाईस सागरोपम स्थिति कही गयी है । भवशिष्ट पहले के समान समझना चाहिये ।। सू. ६३ ॥ 'से जे इमे' इत्यादि। (से जे इमे) जो ये (गामागर जाव सणिवेसेसु) ग्राम आकर आदि निवास स्थानों से लेकर सन्निवेश तक के निवासस्थानों में (मणुया भवति) मनुष्य निवास करते हैं और उनमें जो कई एक मनुष्य (साह) साधु होते है वे (अणारंभा) आरभ से रहित होते है, (अपरिग्गहा) परिग्रहवर्जित होते है, (धम्मिया) धार्मिक होते हैं, (जाव धम्मे व वित्ति कप्पेमाणा) एव निदोंप मिक्षा से अपनी सयमयात्रा का निर्वाह करते है। यहाँ 'जाव' शब्द से "धम्माणुया, धम्मिटा, धम्मक्खाई, धम्मपलोई, धम्मपलजणा, धम्मसमुदायारा, धम्मेण चेव वित्ति" इस पाठ का ग्रहण हुआ है। इसको બાવીસ સાગરેપમ સ્થિતિ કહેવાય છે બાકી બધુ પહેલા પ્રમાણે સમજવું प . (सू १) ‘से जे इमे' त्यादि (से जे इमे) तशा (गामागर जाव सण्णिवेसेसु) ४२ माहि निवासस्थानायी बधन सन्निवेश सुधाना निवासस्थानाभा (मणुया भवति) મનુષ્ય નિવાસ કરે છે અને તેમાં જે કેટલાએક મનુષ્ય (g) સાધુ હોય छ तेसो (अणारमा) मारलथी २डित डोय छे, (अप्पपरिग्गहा) परिश्रपति अस्य , (धम्मिया) पाभि य छ (जाय धम्मेणेच वित्ति कापेमाणा) तेभा निहाए-लिसापड पातानी भयभयात्राना निs ४२ छ मला 'जाव' शथी "धम्माणुया, धम्मिदा, धम्मक्साई, धम्मपलोई, धम्मपलजणा, धम्मसमुदायारा, धम्मेण चेव वित्ति' मा पाइने ५ ४२पामा माल्यो छ मानी व्याध्या Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५४ रित्ता भत्तं पञ्चखंति, ते पहुई भत्ताई अणसणाए छेदंति, छेदित्ता आलोइयपडिकता समाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा उकोसेणं अचुए कप्पे देवत्ताए उववत्तारो भवंति, तर्हि तेसिं गई, वावीसं सागरोवमाई ठिई, आराहगा, सेसं तहेव ॥सू०६३ ॥ विहरन्नि, 'विहरिता' विहत्य 'मत्त पचक्खति' भक्त प्रत्यारयान्ति परित्यजन्ति, 'अणसणाए छेदेति' अनशनया छिन्दन्ति, 'छेइत्ता' ठित्वा 'आलोइयपडिकता' आलोचितप्रतिकान्ता , 'समाहिपत्ता' समाधिप्राप्ता, 'कालमासे' कालमासे 'काल किचा' काल कृत्या 'उकोसेण अच्चुए कप्पे' उत्कर्पतोऽच्युते कन्पे ' देवत्ताए उबवत्तारो भवति । देवत्वेन उपपत्तारो भान्ति। 'तहि तेसिं गई' तत्र तेषा गति , 'वावीस सागरोत्रमाइ ठिई। द्वाविंशति सागरोपमानि स्थिति , 'आराहगा' आराधका । 'सेस तहेव' शेष तथैव ।। सू० ६३ ॥ पञ्चक्खंति) पश्चात् अन्तिम समय में भक्तप्रत्याख्यान करते है, (ते बाई भत्ताइ अणसणाए छेदेति) वे अनेक भक्तों का अनशन द्वारा छेदन करते है, (छेदित्ता आलोइयपडिकता सामाहिपत्ता कालमासे काल फिचा) छेदन कर अपने पापस्थानों की आलोचना एव प्रतिक्रमण करके वे समाधिसहित काल अवसर में काल कर (उकोसेण अच्चुए कप्पे देवत्ताए उववत्तारो भवंति) जघन्य पहले देवलोक उत्कृष्ट बारहो देवलोक अच्युतकल्प में देवपर्याय से उत्पन्न होते हैं । (तहिं तेसि गई, बावीसं सागरोवाइ ठिई, आरहगा, सेस तहेव) प्रथम देवलोक मे इनको उत्कृष्ट दो सागरोपम और ब रहवें देवलेक भ गत सभये सxt-प्रत्याज्यान ४२ छ (ते बहूई भत्ताइ अणसणाए छेदेति) तमा सने सातोनु मनशन द्वारा छन ४२ छ (छेदित्ता आलोइयपडिक्कता समाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा) छेहन ४शन पाताना पायानानी આલોચના તેમજ પ્રતિક્રમણ કરીને તેઓ સમાધિ-સહિત કાલ અવસરમા કાલ शन (उक्कोसेण अच्चुए कप्पे देवत्ताए उबवत्तारो भवति) अन्य पर . લોક, ઉત્કૃષ્ટ બારમા દેવલોક અચુત ક૫મા દેવપર્યાયથી ઉત્પન્ન થાય છે न देसि गई, बावीस सागरोवमाइ ठिई, आराहगा, सेस तहेव) प्रयम દેવલોકમાં તેમની ઉત્કૃષ્ટ બે સાગરોપમ અને બારમા દેવલોકમા ઉત્કૃષ્ટ Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषविणी टोकास व अनारम्भादिमनुग्य विषये भगवद्गतिमयो सवाद ६०७ पडिविरया, सव्वाओ आरंभसमारंभाओ पडिविरया, सव्वाओं करणकारावणाओ पडिविरया, सव्वाओ पयणपयावणाओ पडिविरया, सव्वाओ कोहण - पिट्टण-तजण - तालण-वह-बंधकिलेसाओ पडिविरया, सव्वाओ पहाण - म्हणवण्णग- विलेवण-सह-फरिस - रस- रू-गंध-महा-लकाराओ पडिविरया, M , भसमारभाजी पडिविरया सर्वस्मादारम्भममारम्भा प्रतिनिरता 'सव्वानी करणकारावणाओं पडिविरया' सर्वस्मा कर मकारणा प्रतिविरता, 'सव्वानो पयणपयाणवाओ पंडिविरया' सर्वस्मात्पचनपाचनाप्रतिबिरता 'सव्वाओ कुट्टण-पिट्टण-तज्मणताल -वह-व-परिकिलेसाओ पडिविरया सर्वस्मा कुन पिन सर्जन -ताडनवध--बन्ध - परिक्लेशा प्रतिनिरता, 'सव्वाओं ण्हाण - मद्दण-वण्णग- विलेवण-सहफरिस - रस-रूव-गध-मल्ला-लंकारानी पडिरिया' सर्वस्मान स्नान-मर्दन-वर्णकपिनन्द-स्पर्श-रस-रूपान्य-मान्या-लद्दारान्प्रतिपिरता, तथा 'जे यावण्णे ' आरभममारभ से प्रतिविरत होते है, (सव्वाओ करणकारावणाओ पडिविरया) समस्त करण एव करावणमे--करने-कराने से विरक्त होते है, (सव्वाओ पयणापयावणाओ पडिरिया) सर्व प्रकार की पचन एवं पाचन क्रिया से प्रतिविरत होते ह, (सन्चाओ कोणपिट्टण - वज्जण ताण-वह-व-परिकिलेसाओ पडिविरया) समस्त प्रकार के कुण, पण, तर्जन, साटन, वय, वन, परिक्लेश से रिक्त होते हैं, (सव्वाजो व्हाण-मद्दणवण्णग- विलेपण-सह-फरिस - रग-रूप-महा-लकाराज पडिविस्या) सपूर्ण स्नान, मर्दन, वर्णक, निलेपन, शन्द, रूप, गन, रस, स्पर्श, मान्य एवं अल्फारों से रहित २लथी प्रतिविरक्त होय छे (सच्चाओ करणारावणाओ पतिविरया) समस्त तेभर दशवखुशी-ख-दुगववाथी विरन होय हे (सव्नाओ पयणपयाबणाओं पडिविया) सर्वज्ञरनी पथन तेभर पायन दियाथी विरडत होय छे (सव्वाजो कोट्टण-पिट्टण-तज्जण-तालण-वह-बध- परिकिलेमाओ पडिविरया ) भभन्त प्रधारना छुट्णु, पिडालु, नमन, वाइन, वध, अध, परिन्देशथी विरडत होय छे ( मन्त्राओ व्हाण - मरण-रण-विलेपण-सह-परिस-कम-रूप-गध-मल्ला-लफाराओ पडरिया) भवान, मन है, विलेपन, शब्द, स्पर्श, रस, Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - - - - - - • औषणतिको सुसीला सुव्वया सुपडियाणंदा साहू सव्याओ पाणाइवायाओ पडिविरया जाय सव्वाओ परिगहाओ पडिविरया, सब्बाओ कोहाओ माणाओ मायाओ लोहाओ जाब मिच्छादसणसल्लाओ अनुसन्धेय । सपा व्यारयाऽनय द्विपरितमे सूने गता | नबर-धर्मणेव वृत्ति कल्पयन्त -निरवधभिक्षया ग्यमयागारूपा वृत्ति निर्वहन्त इत्ययों चोप्य । शेषपदानामपि व्यारया तस्मिन्नेव सूने वृत्ताऽस्माभि । 'मुसीला मुल्यया' मुशीला सुनता 'मुपरियाणदा' सुप्रत्यानन्दा-मुटु प्रत्यानन्दचित्ताहादो येषा ते तया, आनाविचयधमन्यानानन्दयुक्ता 'साह' साघर , 'सचाओ पाणाइवायाओ पडिविरया जाव सचाओ परिम्गहाओं पडिविरया' सर्वस्मात् प्राणातिपाता प्रतिविरता यावसर्वस्मात् परिग्रहात्प्रतिविरता, 'सबाओ कोहाभो माणाो लोभाभी जार मिच्छादसणसल्लाओ पडिविरया' सर्वस्मात् क्रोधान्मानान्मायाया लोभान यावन्मिध्यादर्शनशम्या प्रतिविरता , 'सचाओ आरव्याख्या इसी उत्तरार्ध के बासठने (६२) सूत्र में की जा चुकी है । (मुसीला) ये सुशील तथा (मुन्वया) निर्दोष रीति से व्रतो की आराधना करने वाले होते हैं । (सुपडियाणदा) आज्ञानिचयनामक धर्मध्यान के ध्याने से इनका चित्त सदा महादयुक्त बना रहता है। ये सब (सयाओ पाणाइवायाओ पडिविरया) सर्व प्रकार के प्राणातिपात से विरक्त रहते है, (जाव सबाओ परिग्गहाओ पडिविरया) यावत् समस्त परिग्रह से विरक्त रहा करते हैं, (सबाओ कोहाओ) समस्त प्रकार के क्रोध से. (माणाओ) मान से, (मायाओ) माया से, (लोहाओ) लोभ से, (जाय मिच्छादसणसल्लाओ) यावत् मिथ्यादर्शन शन्य से, (पडिचिरया) विरक्त रहा करते है, (सन्चाओ आरभमसमारभाओ पडिविरया) समस्त मा मासमना उत्तरार्थना मास8 (६२)मा सूत्रमा ४२वाम मावी (सुसीला) सुशील या (सुव्यया) निर्दोष रीतिथी प्रतानी माराधना ४२पापा' डाय छ (सुपडियाणदा) माजाविययनामना' धर्मध्यान ध्यावपाथी तमना वित्त सहा माना मनसा २९ छे ते अधा (सव्याओ ' पाणाइवायाओ पडिविरया) सर्व रना प्रायोनियतिथी पि२४ २२ छ (जाव सब्याओ परिगहाओ पडिविरया) तभा समस्त परियडथी वि२४ २ह्या ४२ छ (सव्वाओ कोहाओ) समस्त मारना डीपथी, (माणाओ) भानथी, (मायाओ) "भायाथी, (लोहाओ) बालथी,' (जाव मिच्छादसणसल्लाओ) तभ४ भिथ्याशन शहयथा (पडिचिरया) वि२४॥ २६॥ ४२ छ. (सव्याओ आरम-समारभाओ पडिविरया) समस्त मालममा Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ moon पीयूषयषिणो टोका म ६४ अनारम्भादिमनुष्य विषये भगवद्गीतमयो सयाद ६५७ पडिविरया, सव्वाओ आरंभसमारंभाओं पडिविरया, सव्वाओं करणकारावणाओ पडिविरया, सव्वाओ पयणपयावणाओ पडिविरया,-- सव्वाओ कोट्टण-पिट्टण-तज्जण-तालण-बह-बंधकिलेसाओ पडिविरया, सव्वाओ पहाण-मद्दण-वष्णग-विलेवण-सद-फरिस-रस-रुव-गंध-मल्ला-लंकाराओ पडिविरया, भसमारभाओ पडिपिरया' सर्वरमादारम्भसमारम्भा प्रतिपिरता 'सबाओ करणकारावणाभो पडिरिया' सर्वस्मा करगकारणा:प्रतिपिता, 'सब्याओ पयणपयाणवाओ पदिविरया' सर्वस्मापचनपाचना प्रतिनिरता, 'सन्यानो कुटण-पिट्टण-तज्जण-- तालण-बह-वध-परिफिलेसाओ पडिपिरया' सर्वग्मात्कुट्टन-पिट्टन-तर्जन-ताइनवध-बन्ध-परिक्लेगा प्रतिपिरता , 'सवाओ ण्हाण-मद्दण-वण्णाग-रिलेवण-सद्दफरिस-रस-स्त्र गध-मल्ला-लकाराओ पडिग्रिया' सर्वस्मात् न्नान-मर्दन--वर्णकविउपन-गन्द-स्पर्श-रस-रूप-गन्ध-मात्याs-लहारा प्रतिविरता, तथा 'जे यावणे आरभममारम से प्रतिनिरत होते हे, (सबाओ करणकारायणाओ पडिविरया) समस्त करण एर करावणसे-करने-कराने से विरक्त होते हैं, (सयाओ पयणापयारणाओ पडिविरया) सर्व प्रकार की पचन एव पाचन क्रिया से प्रतिविरत होते है, (सव्वाओ कोहणपिट्टण-तज्मण-तालण-यह-वर-परिफिलेसाओ पडिविरया) समस्त प्रकार के कुट्टण, पिण, तर्जन ताडन, यध, बध, परिक्लेश से विरक्त होते है, (सयाओ पहाण-मणवण्णग-विलेषण-सह-फरिस-रस-स्व-गध-मल्ला-लंकाराओ पडिविरया) सपूर्ण स्नान, मर्दन, वर्णक, पिलेपन, गन्द, रूप, गप, रस, स्पर्श, माल्य एव अलकारों से रहित २सयी प्रतिक्षित खाय छ (सव्वाओ करणकागवणाओ पडिचिरया) समस्त ४२६ तमा सी -४२११-७२।५पायी वित होय छ (सव्याओ पयणपया वणाओं पडिविण्या) सारनी पयन मन पायन जियायी वित हाय छ (मच्याओ कोट्टण-पिट्टण-तज्जण-नालण-यह-वध-परिफिलेसाओ पडिविरया) સમરત પ્રકાશ્તા કુટ્ટણ, પિટ્ટણ, નજન, તાડન, વધ, બ ધ, પરિકલેશથી વિરકત હોય छ ( समाओ हाण-मदण- वग-विलेषण-सह-फरिस-रस-रूप-ध-मल्ला-लफाराओ पडिविग्या) स पूर्ण स्नान, मन, वर्ष, विवेपन, २०, २५, २स, Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • अपपातिकतने सुसीला सुव्वया सुपडियाणंदा साहू सव्याओ पाणाइवायाओ पडिविरया जाव सबाओ परिग्गहाओ पडिविरया, 'सव्वाओ कोहाओ माणाओ मायाओ लोहाओ जाव मिच्छादंसर्णसल्लाओ ऽनुसन्धेय । सर्वेमा व्यारयाऽत्रैव द्विपष्टितमे सूत्रे गता । नवर-धर्मेणैव वृत्ति कल्पयन्त -निरवद्यभिक्षया ग्यमयागारूपा वृत्ति निर्वहन्त इयों बोम्य । गेषपदानामपि व्यारया तस्मिन्नेव सूने कृताऽस्माभि । 'मुसीला मुन्वया' सुशीला सुनता 'मुपरियाणदा' सुप्रत्यानन्दा-मुष्टु प्रयानन्दश्चित्ताहादो येषा ते तथा, आजापिचयधर्मध्यानानन्दयुक्ता 'साह ' साधप , 'सन्चाओ पाणाइवायाओ पडिविरया जाव सयाओ परिगहाओं पडिविरया' सर्वस्मात् प्राणातिपाता प्रतिपिरता यावसर्वस्मात् परिमहात्प्रतिविरता , 'सव्याओ कोहाओ माणाओ लोभाओ जार मिच्छादसणसल्लाओ पडिविरया' सर्वस्मात् झोधान्मानान्मायाया लोभाद् यावन्मिध्यादर्शनशम्यात्पतिविरता., ' सवाओ आर. व्याख्या इसी उत्तरार्ध के वासठवे (६२) सूत्र में की जा चुकी है । (सुसीला) ये सुशील तथा (मुवया) निर्दोप रीति से व्रतों की आराधना करने वाले होते हैं । (सुपडियाणदा) आज्ञापिचयनामक धर्मध्यान के ध्याने से इनका चित्त सदा अह्रादयुक्त बना रहता है। ये सब (सन्चाओ पाणाइवायाओ पडिविरया) सर्व प्रकार के प्राणातिपात से विरक्त रहते है,, (जाव सवाओ परिग्गहाओ पडिविरया) यावत् समस्त परिग्रह से विरक्त रहा करते हैं, (सव्वाओ कोहाओ) समस्त प्रकार के क्रोध से, (माणाओ) मान से, (मायाओ) माया से, (लोहाओ) लोम से, (जाव मिच्छादसणसल्लाओ) यावत् मिथ्यादर्शन शन्य से, (पडिविरया) विरक्त रहा करते है, (सन्चाओ भारभमसमारभाओ पडिविरया) समस्त मा मागभना त्तराधना मास (१२)मा सूत्रमा ४२वामा मापीछे (सुसीला) सुशीस नया (सुव्वया) निर्दोष शतिथी प्रतानी आराधना पापा' खोय छ (सपडियाणदा) माज्ञावियय नामना मध्यानध्यामाथी तमना यित सहा मान ही मनेता २९ छ त मया (सव्वाओ पाणाइयायाओ पडिविरया) सर्व आरना प्रायानिपातथी वि२४त २ छ (जाव सव्वाओ परिगहाओ पडिविरया) भन्न समस्त परियडथी पि२४॥ २॥ ४२ छ' (सव्वाओ कोहाओ) समस्त नाथी , (माणाओ) भानथी, (मायाओ) भायाथी, (लोहाओ) लथी,' (जाब मिच्छादसणसल्लाओ) मर मिथ्यानि शयथी (पडिबिरया) वि२५त हारेछ (सव्वाओ आरम-समारभाओ पडिविरया) समस्त मा२ मममा Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषषिणी टोमा म ६४ अनारम्भादिमनुष्य विषये भगवद्गीतमयो मयाद ६५७ पडिविरया, सव्वाओ आरंभसमारभाओ पडिविरया, सव्वाओं करणकारावणाओ पडिविरया, सव्वाओ पयणपयावणाओ पडिविरया, सव्वाओ कोहण-पिट्टण-तज्जण-तालण-वह-बंधकिलेसाओ पडिविरया, सव्याओ पहाण-मद्दण-वण्णग-विलेवण-सह-फरिस-रस-रुव-गंध-मल्ला-लंकाराओ पडिविरया, भसमारभाभो पडिपिरया' सर्वस्मादारम्भसमारम्भा प्रतिपिरता 'सव्याभो करणकारावणामो पडिविरया' सर्वस्मारकरगकारणाप्रनिचिन्ता , 'सबाओ पयणपयाणवाओ पडिविरया' सर्वम्मा पचनपाचना प्रतिबिन्ता, 'सब्याभो कुटण-पिट्टण-तज्जणतालण-वह-वध-परिकिलेसाओ पडिपिरया' सनस्मा कुट्टन-पिट्टन-तर्जन-ताडन-- वध-बन्ध-परिवंडेगा प्रतिनिरता , 'सबाओ ण्हाण महणवण्णग-विलेषण-सहफरिस-रम-रुव-गप-मल्ला-रकाराओ पटिरिरया' सर्वस्मात् स्नान-मर्दन--वर्णक--- निलेपन-गन्द-स्पर्श-रस-रूपान्ध- माल्याs-लदारानिविरता , तथा 'जे यावण्णे आग्भसमारम से प्रतिनिरत होते हैं, (सबाओ करणकारावणाओ पडिविरया) समस्त करण ण्व करावगसे करन--कराने से विरक्त होते है, (सन्याओ पयणापयावणाओ पडिविरया) सर्व प्रकार की पचन एव पाचन क्रिया से प्रतिविरत होत है, (सव्वाओ कोहण. पिट्टण-तज्जण-तालण-पह-र-परिफिलेसाओ पडिपिरया) समस्त प्रकार के कुट्टण, पिट्टण, तर्जन, तादन, वर, वध, परिमलेग से विरक्त होते हे, (सव्याओ पहाण-मदणवण्णग-विलेपण-सद-फरिस-रस-रूप-गर-मल्ला-लकाराओ पडिविरया) सपूर्ण स्नान, मर्दन, वर्णक, विलेपन, शन्द, रूप, गप, रस, स्पर्श, माल्य एव अलकारों से रहित २सथी प्रतिदिन होय(सव्वाओ करणकारावणाओ पडिविरया) समस्त ४२१ तभार ४१४थी-४२१५-ॐवामी विरत डाय छ (सव्याओ पयणपयावणानो पडिविरया) मारनी पयन मार पायन लियाथी त हाय छ (मव्याजो कोहण-पिट्टण-तज्जण-तालण-यह-वध-परिकिलेसाओ पडिविरया) સમસ્તપ્રકારના કુદણ, પિટ્ટણ, તર્જન, તાડન, વધ, બ ધ, પરિલેશથી વિરકત હોય छ (सव्याओ ण्हाण-मदण-अण्णग-विलवण-सद-फरिस-रस-रूप-गध-मल्ला-लफाराओ पडिग्रिया) स पूनान, मन, प, पिलेपन, २०, २५, २स, Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ओपातिकको सुसीला सुव्वया सुपडियाणंदा साह सव्वाओ पाणाडवायाओ पडिविरया जाव सव्वाओ परिगहाओ पडिविरया, 'सव्वाओ कोहाओ माणाओ मायाओ लोहाओ जाव मिच्छादंसणसल्लाओ ऽनुसन्धेय । सर्वपा व्यारयाऽव द्विपष्टितमे सूत्रे गता । नवर-धर्मेणच वृत्तिं कल्पयन्त -निरवचभिक्षया ग्यमयागारूपा वृत्ति निहत इत्ययों योग्य । शेषपदानामपि व्यारया तस्मिन्नेव सूने वृत्ताऽस्माभि । 'मुसीला मुख्यया मुशीला मुनता 'मुपटियाणदा' सुप्रत्यानन्दा -मुटु प्रत्यानन्दश्चित्ताहादो येपा ते तथा, आनापिचयधर्मध्यानानन्दयुक्ता 'साहू ' साधर , 'सव्वाओ पाणाइवायाओ पडिविरया जाव सव्वाओ परिम्गहाओ पडिविरया' सर्वस्मात् प्राणातिपाताप्रतिविरता यावसर्वस्मात् परिग्रहात्प्रतिविरता, 'सन्चाओ कोहाओ माणाओ लोभाओ जार मिच्छादसणसल्लाओ पडिविरया' सर्वस्मात् क्रोधान्मानान्मायाया लोभाद् यावन्मिध्यादर्शनशम्यात्प्रतिविरता., 'सव्याओ आरव्यारया इसी उत्तरार्ध के वासठ (६२) सूत्र में की जा चुकी है । (मुसीला) ये सुशाल तथा (मुव्वया) निदोप रीति से व्रतों की आराधना करने, वाले होते हैं । (सुपडियाणदा) आज्ञाविचयनामक धर्मध्यान के घ्याने से इनका चित्त सदा अहादयुक्त बना रहता है। ये सब (सन्याओ पाणाइवायाओ पडिविरया) सर्व प्रकार के प्राणातिपात से विरक्त रहते हैं, (जाव सव्वाओ परिग्गहाओ पडिविरया) यावत् समस्त परिग्रह से विरक्त रहा करते है, (सव्वाओ कोहाओ) समस्त प्रकार के क्रोध से, (माणाओ) मान से, (मायाओ) माया से, (लोहाओ) लोभ से, (जार मिच्छादसणसल्लाओ) यावत् मिथ्यादर्शन शन्य से, (पडिविरया) विरक्त रहा करते है, (सन्चाओ आरभमसमारभाओ पडिविरया) समस्त मा मासमना उत्तरार्थना मास (१२)भा सूत्रमा उपाभा मावी छ (सुसीला) सुशील नया (सुव्वया) निहा५ शतिथी प्रतानी माराधना ४२वावा' डाय छ (सुपडियाणदा) माज्ञापियय नामना धर्मध्यान ध्यावाथी तभना वित्त सहा मानही मनेसा २ छ ते मया (सव्याओ पाणाइवायाओ पडिविरया) सर्व प्रारना प्रातिपातथी पि२४ २७ छ (जाव सव्याओ परिगहाओ पडिविरया) तभा समस्त परिअडथी पि२४ २४ा ४२ छ (सव्वाओ कोहाओ) समस्त मारना अधथी, (माणाओ) भानथी, (मायाओ) भायाथी, (लोहाओ) बालथी,' (जाव मिच्छादसणसल्लाओ) तेभ०४ मिथ्याशन शयथी (पडिचिरया) वि२t रहा। १२ 9. (सव्वाओ आरभ-समारभाओ पडिविरया) समस्त मालसभा Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी ६०-६६र्यासमित्य दियुक्तसाधुषिपयेभगवद्गीतमय सयाद ६५९ मूलम् -- तेसि णं भगवंताणं एएणं विहारेणं विहरमागाणं अत्थेगइयाणं अनंते जाव केवलवरनाणदंसणे समुप्पज्जइ । ते बहूई वासाई के लिपरियागं पाउणंति, पाउणित्ता भत्तं पच्चमिता मनागमनादिषु समितिता ' मासासमिया' भापासमिता सन्त, यावच्छाद् गुतिंगुप्ता इतिहस्यम्, 'इणमेन' इदमेव ' णिग्गथ पाउयण ' नैर्ग्रन्थ प्रवचनं 'पुरओकाउ ' पुरस्कृत्य = प्रधानीनृत्य 'विहरति विहरन्ति ।। सू० ६५ ॥ टीका--' तेसि ण ' इत्यादि । ' तेसि णं भगवताण' तेषा खलु भगवताम्-अनगारभगवताम् 'एएणं' एतेन पूर्वोक्तेन 'विहारेण विहरमाणाणं ' विहारेण विहरताम् ' अत्येगइयाण' अस्त्येकेपाम्, 'अणते' अनन्तम् = अन्तरहित 'जाव' यावत् 'केवलवरणाणदसणे 'केवल्वरज्ञानदर्शन 'समुप्पज्जइ ' समुत्पद्यते =अचिरेण प्रादुर्भवति । 'ते बहूई वासाई' ते अनगारा भगवन्तो वहनि चपाणि 'केवलिपरियार्य ' केवलिपर्याय समिति आदि समितिया को तथा तीन गुमियों को पालन करते हैं । एवं इन समस्त कियास्वरूप जो निर्ब्रन्थप्रवचन हे उसके अनुसार ही अपनी समस्त प्रवृत्ति चलाते है | सू ६५ ॥ 'तेसि ण भगवताण ' इत्यादि । ( तेसिं णं भगवताण ter विहारेण विहरमाणाण ) इस प्रकार के इन अनार भगवन्तों में जो निर्ग्रन्थ प्रवचन को आगे करके विचरते हैं, (अल्येगइयाणं) उन में से कितनेक अनगार भगवता को (अणते जाव केवलवरनाणदंसणे समुप्पज्जइ) अनत केवलज्ञान एव अनत केवलदर्शन उपन्न होता है । ( ते चहुइ वासाई केवलिपरियाग पाउणति ) वे इसी पर्याय में बहुत वर्षों तक इस पृथ्वीमंडल को पावन करते हैं, ભાષાસમિતિ આદિ સમિતિઓનુ તથા ત્રણ મિનુ પાલન કરે છે તેમજ સમસ્ત ક્રિયાસ્વરૂપ જે નિગ્રન્થ પ્રવચન છે તેને અનુસરીને જ પેાતાની સમસ્ત પ્રવૃત્તિએ ચલાવે છે (સૂ) ૬૫ ' तेसिं भगवताण धत्याहि ( तेर्सि ण भगवता ror विहारेण विहरमाणाण ) | प्रारना था मनगर भगवानोभा ने निर्णय अवयनने मुख्य नेपियरे छे, (अत्थे - गइयाण) तेभाथी डेंटलाई अनगार लगवानाने (अणते जाय केवल-वर-नाणदसणे समुज्नई) मन ठेवणज्ञान तेभर मन ठेवणदर्शन उत्यन्न थाय छे, व बहु वासाइ लिपरियाग पाउणति) तेथे पर्यायभा घा Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जे यावपणे तहप्पगारा सावज्जजोगोवहिया कम्मंता परपाणपरियावणकरा कनंति तओ वि पडिविरया जावज्जीवाए ॥ सू०६४ ॥ __ मूलम् से जहानामए अणगारा भवंति-ईरियासमिया भासासमिया जाव इणमेव निग्गंथं पावयणं पुरा काउं विहरंति ॥ सू०६५॥ वहप्पगारा' ये यावन्तस्तथाप्रकारा , ' सारजजोगीवहिया ' सावययोगोपधिका -सावपयोगा =सावघयोगयुक्ताच ते औपधिका मायाप्रयोजनाश्चेति तथा, 'परपाणपरियावणकरा' परप्राणपरितापनकरा , 'कम्मता' कागा व्यापारागा 'कज्जति' क्रियन्ते तो वि पडिविरया जावजीवाए ' ततोऽपि प्रतिविरता यावजीवम् ।। सू ६४॥ टीका–से जहानामए' इत्यादि। ' से जहानामए अणगारा भवंति ' अथ यथानाम केचित् अनगारा भवन्ति, कीदृशास्तेऽनगारा । इत्याह 'ईरियासमिया' ईयास होते है, (जे यावण्णे तहप्पगारा सावज्जजोगोरहिया कम्मता परपाणपरियावणकरा कज्जति तओ वि पडिविरया जावज्जीवाए) तथा इसी प्रकार के और भी जो सावधयोगवाले मायाकपायजनित कार्य हैं कि जिनमें प्राणियों के प्राणों को परिताप जन्य कष्ट भोगना पडता है उन सब से ये प्रतिविरत होते हैं | सू ६४ ॥ ‘से जहानामए' इत्यादि । (से जहानामए अणगारा भवति) ये जो अनगार होते है, वे( ईरियासमिया भासासमिया जाव इणमेव निग्गथ पावयण पुरओ काउ विहरंति) ईर्यासमिति, भाषा ३५, गथ, भाला तेमा म शिथी रहित डाय छ (जे यावण्णे तहप्पगारा सावज्जजोगोपहिया कम्मता पर-पाण-परियावण-करा कज्जति तओ वि पडिविरया जावज्जीवाए) तथा से माना जी पy२ सावधयवाभायापायनित કાર્ય છે કે જેમાં પ્રાણિયેના પ્રાણેને પરિતાપજનિત કષ્ટ ભોગવવા પડે છે, તેવા બધા કાર્યોથી તેઓ વિરકત હોય છે (સૂ ૬૪) 'से जहानामए' त्या (से जहानामए अणगारा भवति) मारे मन गार डाय छे, तेया (ईरियासमिया भासासमिया जाव इणमेव निग्गथ पावयण पुरओ काउ विहरति) ध्यासमिति, Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युधषिणी-टी स ६ईसिमित्यादियुक्तमाधुर्विषयेभगवद्गीतमयो.मयाद ६६१ पाउर्णित्ता आवाहे उप्पण्णे वा अणुप्पपणे वा भत्तं पञ्चक्खंति । ते वहुई भत्ताई अणसणाए छेदेति, छेदित्ता जस्सहाए कीरइ नग्गभावे जाव तमहमाराहिता चरमेहि ऊसासणीसासेहि प्रादुर्भवति, ते बहद वासाद' तेऽनगारा भगवतो वहनि वर्षागि 'छउमत्यपरियाय पाउणति उदास्यपर्याय पालयन्ति-उमस्थावस्था पालयन्ति, 'पाउणित्ता' पालयिया 'आगहे ' आवाधाया रोगादियाधायाम 'उप्पण्णे वा अणुप्पण्णे वा' उत्प. नाया वा अनुपनाया या सया भत्त पचरखति' भक्तं प्रत्यारयान्ति, 'ते बहूई भत्ताइ अगसणाए उति' ते वहनि भक्तानि अनशनया छिन्दन्ति, 'छेदित्ता' डिवा 'जस्सद्वाए ' यस्मै अर्थाय 'कीरद नग्गभावे' क्रियते नग्नभाव -अकिञ्चन्य क्रियते, 'जार तमट्ठमाराहिता' यावत् तमर्थमाराध्य, ' चरमेहिं ऊसासणीसासेहिं ' चरमैरु मासनि श्वासै ‘अणत ' अनन्तम् अन्तरहितम्, 'अणुत्तर' अनुत्तरम् उत्कृष्टम् , लभ शीघ्र नहीं होता है, (ने वहइ वामाइ छउमत्यपरियाग पाउणित्ता) वे अनगार भगवान् उमस्य पर्याय को ही बहुत वर्षों तक पालते रहते है, (पाउणित्ता) और उस पर्याय के पालन करते २ भी यदि (आगाहे उप्पण्णे वा अणुप्पण्णे वा) किसी प्रकार की चाहे उन्हे रोगादिक बाधा उत्पन्न हो, चाहे न भी हो तो भी व, (भत्त पञ्चरखति) भक्तप्रत्यारल्यान करते है । (ते वहई भत्ताइ अगसणाए डैति) व अनेक भक्तो का अनगन द्वारा ठेदन करते है, (छेदित्ता जस्सद्राए कीरइ नग्गमावेजाव तमहमाराहिता) छेदन करके उन्होंने निम की प्रामि के लिये नानभाव धारण किया था, उस प्रयोजन की सिद्धि प्राप्त कर (चरमेहिं ऊसासणीसासेहि अणत अणुत्तर णिव्यापाय निरावरण कसिण पडिपुण्णं शनी Alt areी भगत नथी, (ते वह पासाइ छउमत्थपरियाग पाडपनि ) ते मनार लगवान छान्यपर्यायनु ४ घना परमी सुधा पालन इने छ, (पाउणित्ता) भने पर्यायतु पासन उता २ पन्ने (आगाहे उप्पण्णे वा अणुप्पणे वा) 30 जानी मानी stunt याय है या न पाणु थाय तो पर तेसो (भत्त पच्चासति) मतप्रत्याध्यान रेछे (ते बहूइ भत्ताइ अणसणाए छति) तेसो भने मतानु अनशन बाम छन रे (छेदिता जस्सद्वाए कीरइ नम्गभावे जाव तमट्ठमाराहिता) છેદન કરીને તેઓએ જેની પ્રાપ્તિ માટે નગ્નભાવ ધારણ કર્યો હતો તે પ્રય सनी सिद्धि प्रास न ( चरमेहिं उसासणीसासेहि अणत अणुत्तर णिव्या Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ६६० औपातिपय खंति, पञ्चरिखता वहुई भत्ताई अणसणाए छेदंति, छेदित्ता जस्सहाए कीरड नग्गभावे जाव अतं करंति ॥मू०६६॥ मूलम्-जेसि पि य णं एगइयाणं णो केवलवरनाणदंसणे समुप्पज्जइ ते वह वासाई छउमत्थपरियागं पाउणति, 'पाउणति' पालयन्ति, 'पाउणित्ता' पालयिचा, 'भत्त पच्चक्सति' भक्त प्रया रयान्ति, ‘भत्त पञ्चकिपत्ता' भक्त प्रयारलाय 'महा' बनि 'भत्ताइ अणसणाए' भक्तानि अनशनया 'छेदति' छिन्दन्ति, 'दित्ता' छिया 'जस्सद्वाए । यस्मै अोय 'कीरह' क्रियते 'नग्गभावो' नग्नभान आफिचय क्रियते इत्वनय , 'जाव अत' यावत्-सर्वदु सनामन्त 'करति' कुर्वन्ति ॥ सू० ६६॥ 'जेसि पि य ण ' इत्यादि । 'जेसि पि य श एगइयाण जो केवलवरनाणदसणे समुपज्जइ' येषामपि च सलु एकेपा नो केवलपरजानदर्शन समुत्पद्यते (पाउणित्ता भत्त पञ्चक्रवति) इस पर्याय को प्राप्त कर वे भक्त का प्रत्याख्यान कर देते है । (पञ्चक्खित्ता बहूद भत्ताइ अणसणाए छेदति) प्रत्याख्यान करके अनेक भक्तों का अनशन द्वारा छेदन कर देते है। (छेदित्ता जस्सहाए कीरइ नग्गभावे जाव अत करेंति) छेदन करके जिस प्रयोजन के लिये नग्नभाव उन्होंने धारण किया था वे उस प्रयोजन को प्राप्त करते हैं, अर्थात् समस्त दुखों का अत करते है ॥ सू ६६ ॥ । जेसि पि य ण' इत्यादि । (जेसिं पि य ण) इन साधुआं म से भी (एगइयाण) जिन किन्हीं साधु मुनिराजों को (णो केवलवरनाणदसणे समुप्पजड) निर्मल केवलज्ञान एव केवल दर्शन का १२। सुधी २॥ पृथ्वीम ने पावन ४२ छ (पाउणित्ता भत्त पन्चरसति)। मा पर्यायन प्रास ४शन मतप्रत्याश्यान ४१ छ (पन्चमिसत्ता बहृइ भत्ताइ अणसणाए छेदति) प्रत्याध्यान गने मने मतानु अनशन बारा छहन ३२ छ (छेदित्ता जस्सट्टाए कीरइ नगभावे जान अत करेंति) छन કરીને જે પ્રજા માટે નનભાવ તેમણે ધારણ કરેલો હતો તે પ્રજનને પ્રાપ્ત કરે છે, અર્થાત્ સમસ્ત દુ નો અ ત વરે છે (સૂ ૬૬) जेसि पि य ण' त्याह (लेसि पि य ण) मा माधुयोमाथी ५९ (एगइयाण) २६ माधु मुनि रन (णो केवलपरनाणदसणे समुप्पज्जड) निशान तेम Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोषिणी-टीका सूर्यासमितादि विषये मगधद गौतमयोः सयाद ६६३ कालमासे कालं किच्चा, उक्कोसेणं सव्वहसिद्धे महाविमाणे देवताए उत्तारो भवति, तर्हि तेसि गई, तेत्तीस सागरोत्रमाई टिई, आराहगा, सेसं तं चैव ॥ सू० ६८ ॥ मनुत्रनवभाविनी वा अचानुर्ये व काचा 'पुणे' पुन, अत्र पुना यता, 'एंगे' केतु 'भरवारी मक्कार सनमसेविन, 'भयंतारी' इयवारा पुत्रकामेमे' पूर्वपूर्व काठमा ari faar mein का कृत्वा - 'टकको मन्त्रमिद्धे महात्रिमाणे' सर्वार्थसिद्धे महाविमाने 'देवताए' देववेन 'उच्चारी भवेति' उपपठारी मवन्ति =उपयन्ते, 'हि तसि गई वेची सागरीमाई तिन तेषा गति, afraternatio स्थिति | 'बाराहा aarकाका 'तं॥ ६८॥ हैं कि जिसे aerat म नहीं होता है तो ऐसे वे अनार भगवान् (एगचा) कमवावतारी होते है। वे (भरवारी) स्यम की आगमना २ ही (पुव्यम्मात्रमेण ) पूर्वक्रमे के अवशिष्ट होने के काग (वामा कार्ड किया) का सर में काल कर (ग) से (मसिंह महाविमाणे daare casure raft) सवसि नामके माविमान में देवपाय से उपन हो व्य है । (तहिं नेमि गर्ट, दिई तेचीमं मागबमार ) वहीं पर गति और स्थिति होती है। इनकी स्थिति वहाँ पर तेतीस सागर प्रभाग है । ( बारादगा मेमंत्र देव) ये नियम से परलोक के आवक होते हैं। अवशिष्ट पूर्ववत्र समझना चाहिये ॥ मु ६८ ॥ 1 લગવાન હોય કે ફે મને તેજ બવમા ફેવળજ્ઞાન તેમજ કંવદર્શનને લાલ મળતા નથી તે એવા તે અનગાર ભગવાન (ન્ના) એટલવાવતારી होय तेथे (नारी) नयभनी भागवनी ४२ / ( पुन्यकम्मानसेसेन) पूर्वदर्भना भाही हेवाना (कामासेका किल्ला) -- अरे (कोण) are वटे (सह महानिमा देवचार - વાસ્તુ અધિ) સર્વા સિદ્ધ નામના મહાવિમાનમા દેવપયાથી ઉત્પન્ન થય ત્યા તેમની ગતિ અને સ્થિતિ હોય કે તેમની ત્યા સ્થિતિ તેત્રીય સામ प्रभाष छे (आरागा समं वचैव तेथे नियमधी पदीला आग सोय छे, भाटी अनु सग प्रभास से (८) Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६२ औपति - अणंतं अणुत्तरं निवाघायं निरावरणं कसिणं पडिपुण्णं केवलवरनाणदंसणं उप्पादेंति, तओ पच्छा सिज्झिहिति जाव अंतं करेहिति ।। सू० ६७॥ मूलम्---एगच्चा पुण एगे भयंतारो पुवकम्मावसेसेणं 'निवाधाय ' निर्व्याघात सूक्ष्मव्यवहितविप्रकृष्टविषयेषु अप्रतिहत, 'निरावरणं निरावरण-कर्मावरणरहित 'कसिण' कृत्स्न सफल, 'पडिपुण्णं ' प्रतिपूर्ण-मपूर्ण, 'केवलवरनाणदसण' केलपरज्ञानदर्शनम् 'उप्पादेति' उत्पादयन्ति, 'तओ पच्छा सिभिल हिति' तत पश्चात् सेत्स्यन्ति, 'जाव अत' यावत् अन्त-सर्वदु खानामन्त 'करेहिंति' करिष्यन्ति ॥ सू० ६७॥ 'एगचा' इत्यादि । 'पगचा' एकाऽचा -एका असाधारणगुणवात् अद्वितीयाकेवलबरनाणदसण उप्पादेति) चरम उच्छ्वास-नि श्वासों में अन्तरहित, अनुपम, निाधान--सूक्ष्म, व्यवहित एव विप्रकृष्ट विषय को हस्तामलकवत् जानने के लिये समर्थ, निरावरण-कमावरणरहित, कृत्स्न-सफल, एवं प्रतिपूर्ण-सपूर्ण केवलजान एव केवलदर्शन की उत्पत्ति से विशिष्ट हो जाते है । (तओ पच्छा सिज्झिहिति जाव अतं करेहिति) इसके पवाद वे सिद्ध हो जाते हैं और उस अवस्था में उनके समस्त दुखों का एव उनके कारणभूत कर्मों का सर्वथा अभार हो जाता है । सू० ६७ ॥ 'एगचा पुण' इयादि। इन अनगार भगवन्तों के बीच (एगे) कितनेक ऐसे भी अनगार भगवान होते - - - - - घाय निरागरण कसिण पडिपुण्ण केलवरनाणदसणं उप्पादेति) यम छ्वासનિ શ્વાસોમા અતરહિત, અનુપમ, નિર્વ્યાઘાત–સૂક્ષમ, વ્યવહિત તેમજ વિપ્ર કૃષ્ટ વિષયને હસ્તામલકવત્ જાણવા માટે સમર્થ, નિરાવરણ-કર્માવરણરહિત, કસ્મ-સકળ, તેમજ પરિપૂર્ણ—સ પૂર્ણ કે વળજ્ઞાન તેમજ કેવળદનની ઉત્પત્તિથી विशिट 25 य छ (तओ पच्छा सिज्झिहिति जाव अत करेहिति) त्यार પછી તેઓ સિદ્ધ થઈ જાય છે, અને તે અવસ્થામાં તેમના સમસ્ત દુખે તેમજ તેમના કારણભૂત કર્મોનો સર્વથા અભાવ થઈ જાય છે (જૂ ૬૭) 'एगच्चा पुण' इत्यादि આ અનુગાર ભગવત્તાની વચમાં (m) કેટલાક એવા પણ અનુગાર Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - पीयूषषिणी टोका र ६९ सामविरतादिविषये भगवद्गीतमयो संवाद.६६५ मायालोहा अणुपुब्वेणं अट्ठकम्मपयडीओ खवेत्ता उप्पिं लोयगपडटाणा भवंति ॥ सू०६९॥ मूलम्-अणगारे णं भंते! भावियप्पा केवलिसम'णिककोहा' निको कोधानिष्क्रान्ता , 'सीणगोहा' क्षीगकोधा-कोर क्षीणो येया ते क्षीगक्रोधा -मोहनीयकर्म गा याकरणात् क्षीणकोपमोहनीयकर्माण , एएमाणमायालोहा' एव मानमायालोमा एव क्षीणमानमायालोमा , 'अणुपुब्वेण आनुपा कमशो यथानम्, 'अट्ठसम्मपयडीओ' अष्टकर्मप्रती 'खवेत्ता' क्षपयिवा 'उपि लोयग्गपइट्ठाणा' उपरि लोकामप्रतिष्ठाना -लोकापावस्थिता 'भवति' भवति ॥ सू ६९ ॥ टीका---'अणगारेणं भते' इत्यादि । 'भणगारे ण भते !' अनगार सल हे भदन्त ! 'भावियप्पा' भावितामाः कृताऽऽ मसाक्षा कार , 'केवलिसमुग्धाएण' केलिकोहा एवं माणमायालोहा ) जिनका क्रोध नष्ट हो गया है, अत एय जो निक्रोध है, मोहनीय कर्म नष्ट हो जाने के कारण कोथ जिनकी आमा से क्षीण हो चुका है, इसी तरह से मान, माया एव लोम भी जिनकी आमा से सर्वथा नष्ट हो चुके हैं, वे (अणुपुज्वेण अटु कम्मपयडीओ खवेत्ता उपि लोयग्गपइटाणा भवति) कम २ से पूर्वबद्ध अष्टकर्मों की प्रकृति को सर्वथा नष्ट कर नियमसे लोक के अग्रभागमे निवास करनेवाले होते हैं, अर्थात् मोक्षको प्राप्त करते हैं । सू ६९ ॥ 'अणगारे ण भते !' इत्यादि। (भते) हे भगवन् । (भावियप्पा अणगारे ण) भावितात्मा अनगार (साधु) (केवलिसमुग्याएण) केवलिसमुद्घात द्वारा (समोहणित्ता) आत्मप्रदेशों को शरीर से ગયેલો છે, તેથી જે કોધરહિત છે, મેહનીય કર્મ નષ્ટ થઈ જવાના કારફથી ઝોધ જેમના આત્મામાથી ક્ષીણ થઈ ગયેલ છે, તેવી જ રીતે માન, માયા તેમજ લોભ પણ જેમના આત્મામાથી સર્વથા નષ્ટ થઈ ગયેલા છે, તેઓ (अणुपुञ्चेण अट्ट कम्मपयडीओ मवेत्ता उपि लोयगाइदाणा भवति) मनुमधी પૂર્વબદ્ધ આઠ કર્મોની પ્રકૃતિને સર્વથા નષ્ટ કરીને નિયમથી લેકના ઉપરના ભાગમાં નિવાસ કરવાવાળી થાય છે, અર્થાત્ મેષને પ્રાપ્ત કરે છે (સૂ ૬) 'अणगारे ॥ भते!' त्याहि (भते 1) मापन (भावियप्पा अणगारे ण) मावितात्मा सनगार (साधु) (विलिसमुग्याएण) पक्षिसभुधात २६ ( समोहणिचा) माम Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દ8 औपपातिकमा मूलम्-से जे इमे गमागर जाव सण्णिवेसेसुमणुया भवंति, तं जहा-सव्वकामविरया सव्वरागविरया सव्यसंगातीता सव्वसिणेहाइकंता अकोहा निकोहा खीणकोहा एवं माण टीका-'से जे इमे' इ यादि । 'से जे इमे गामागर जार सण्णिवेसेस मणुया भवति' अथ य इमे प्रामाऽऽकर यावत् मनिवेशपु मनुजा भवन्ति, 'त जहा' तथथा 'सनकामविरया' सर्वकामपिरता - सर्वकामेभ्य =ममत्तगन्दानिपिपयेभ्यो विरता = निवृत्ता, शन्दादिविपयेपु वा विरता-विगतौ मुस्या, 'सचरागविरया' सनरागविरतासर्वरागात्-समस्ताद् विषयाभिमुखहेतुभूताऽऽमपरिणामविशेषात् निवृत्ता, 'सबसगातोता' सर्वसङ्गाऽनीता -सर्वसङ्गात् मातापिनादिसम्बन्धादतीता विनिर्गता -सर्वसहरहिता इत्यर्थ , 'समसिणेहादकता' सर्वस्नहातिकान्ता स्नेहरहिता , 'अक्कोहा' अनोग। 'से जे इमे' इत्यादि। । (से जे इमे गामागर जाव सण्णिवेसेसु ) ये जो ग्राम । आकर आदि से लेकर सन्निवेश तक के निवासस्थानों मे (मणुया भाति) मनुष्य रहते है, (त जहा) जैसे (सन्यकामविरया सनरागविरया सबसगातीता सव्वसिणेहादकता) जो समल शब्दादिक विषयों से निवृत्त है, अथवा शब्दादिक विपयों मे जिहे उत्सुकता नहीं है, समस्त विषयों की ओर झुकाने वाले आ माके रागरूप परिणाम से जो निवृत्त है, मातापिता आदि समस्त सबधिजनों से अथवा समस्तप्रकार के परिग्रह से जो 'दूर हो चुके हैं, जिन्हों ने सम्पूर्णप्रकार का स्नेहभाव परिवर्जित कर दिया है । (अकोहा शिकोहा खीण 'से जे इमे' त्यहि (से जे इमे) मा २ (गामागर जाव सण्णिवेसेसु) गाम मा४२ MEथ ने सन्निवेश सुधाना निवासस्थानामा (मणुया भवति) मनुष्य २ छ, (त जहा ) २१ -( सव्वकामविरया सव्वरागविरया सव्वमगातीतो सध्यसिणेहाइक्कता) को समस्त Availes विषयोथी निवृत्त छ, मथवा શાદિક વિષયમા જેમને ઉત્સુકતા નથી હોતી, સમસ્ત વિષયોની તરફ બે ચવાવાળા આત્માના રાગરૂપ પરિણામથી જેઓ નિવૃત્ત છે, માતાપિતા આદિ વમસ્ત સ બ ધી નથી અથવા સમસ્ત પ્રકારના પરિગ્રહોથી જેઓ દૂર થઈ ડાયેલા છે, જેઓએ સંપૂર્ણ પ્રકારના નેહભાવને પરિવર્જિત કરી દીધેલ છે, मोदी णिक्कोहा वीणक्कोहा एन माणमायालोहा ) भने। 8ोध नष्ट थ Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूपी-टीका ७१ केयलिसमुदघातविषये भगवद्गीतमयो सपाद ६६७ मूलम् - से नूणं भंते । केवलकप्पे लोए तेहिं निजरापोग्गलेहि फुडे ? हंता । फुडे ॥ सू० ७१ ॥ मूलम् — छउमत्थे णं भंते! मणुस्से तेसिं णिजरापोगलाणं किंचि वण्णं वण्णं, गंधेणं गंध, रसेणं रसं, फासेणं टीका- ' से नूण भते " इत्यादि । 'से नूण भते !' अथ नून हे भदन्त । 'केवल लोए' केवलकल्पो लोक, 'तेहिं' तै 'निज्नरापोग्गलेहि ' निर्जरापुद्गलै निर्जरा प्रजाना पुद्गा निर्जरापुद्गना - जीवेन अकर्मनामापादिता कर्मपुद्गलास्तै 'फुडे' स्पृष्ट व्याप्त किम् ' इति प्रश्न | उत्तरमाह 'हंता । फुडे' हन्त | स्पृष्ट || सू ७१ ॥ 1 टीका-'aser r भते " इत्यादि । 'छउमत्ये पण भते !" छद्मस्य सल भद्रन्त !'=ह भद्रन्त | उद्मस्य सह मनुष्य उद्मस्य इह निरतिशयज्ञानयुक्तो ज्ञेय, यतस्टद्मस्योपनिष्टाविज्ञानयुक्तो निर्जरापुहलान् जाना येव। 'तेसि णिज्जरापोग्गलाणं ' तेपा निर्जरापुहलाना 'किंचि' किचिद् 'वण्णेण' वर्णेन वर्णतया यथावस्थितस्वरूपेण 'वण्ण' वर्ण 'से नूण भते !' इत्यादि । ( से नृण भंते ! ) ह मदत | क्या अश्या ( तेहि निज्जरापोग्गलेहिं ) उनके निर्जराप्रधान पुrat द्वारा (केरलकप्पे लोए) यह समस्त लोग (फुडे ) स्पृष्ट होता है ' (हता ! फुढे ) हाँ ! स्पृष्ट होता है ॥ ॥ सू ७१ ॥ 'छउमत्ये ण' इत्यादि । ( उउमत्येण भते ' मणुस्से ) ६ भदन्त । निशिष्टज्ञानी उद्मस्थ मनुष्य ( तेर्सि णिज्जरापोग्गलाण ) उन निर्जराप्रधान पुहला को ( किंचि) किंचित् ( वण्णेण वण्ण से नूण भते ।' धत्याहि ( से नूण भते । ) हे लढत ! शु गवरयतया ( तेहि निज्जरापोग्गलेहिं ) तेभना નિરાપ્રધાન પુગલે દ્વારા ( केवलकप्पे लोए ) ( फुडे ) स्पर्श थाय छे ? ( हता ! फुडे ) हा थाय छे આગમન લેને (सु ७१ ) 6 उमत्थे ण' इत्यादि ( उमये पण भंते । मणुस्से ) हे लहत ! विशिष्टज्ञानी छद्मस्थ मनुष्य ( तस णिज्जरापोग्गलाण ) ते निराप्रधान पुगोसोने ( किंचि ) हित्ि ( वण्णेण चण्ण गंवेण गध रसेण रस फासेण फास जाणइ पासइ) पशुथी Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - --- - - - - - সীমি ग्याएणं समोहणित्ता केवलकप्पं लोयं फुसित्ताणं चिट्टी, हता! चिट्टइ ॥ सू० ७०॥ समुद्घातेन, तर प्रथम समुद्घातस्मरूपमुच्यते-यथारवभानस्थितानामाग्मप्रदेगाना समुदघातनसमन्तादुरातन-स्वभावादन्यभावेन परिणमन समुद्घात , सच समविध -वेदनासमुद्घात' १, फपायसमुद्घात २,मरणसमुद्धात ३, चैनियसमुद्घात ४, तैजससमुद्घात ५, आहारक समुद्घात ६, केवलिसमुद्घातध ७ । एषु समसु समुदातेपु चरम केलिसमुद्घात । तन को नाम केवलिसमुद्धात उच्यते-यस्यान्तर्मुहूर्तकाले परमपद भावि, तस्मिन् केनलिनि भव समुद्घात केलिसमुद्धातस्तेन, 'समोइणिता' समवहाय आत्मप्रदेशान् प्रसार्य 'केरलकप्प' केवलकप-मपूर्ण 'लोय' लोक 'फासिता ण' स्पृष्ट्वा सल 'चिदुइ तिष्ठति किम् । उत्तरमाह--'हता' इत्यादि । 'हन्त' इतिपद कोमलाऽऽमन्त्रणपूर्वकस्वीकारार्थकम्, 'चिट्ठइ' तिष्ठति ॥ सू ७०॥ बाहर निकालकर (केवलकप्प लोय) क्या समस्त लोकका (फसित्ता) स्पर्श करके (चिट्ठद) ठहरते है ? उत्तर-(हता! चिट्ठइ) हा! ठहरते है। यथास्वभान से स्थित आत्मप्रदेशों का अय भाव मे परिणमन करना उसका नामासमुद्धात है। समुद्धात ७ प्रकार का है-वेदनासमुद्धात १, कपायस मुद्घात २ मरणसमुद्धात ३, वैक्रियसमुद्घात ४, तैजससमुद्घात ५, आहारकसमुद्घात ६, केवलिसमुद्धात ७ । इनमे अन्तिम समुद्घात केवलिसमुद्धात है। जिसको अन्तर्मुहूर्त काल में निर्वाण पदकी प्रामि होती है ऐसे केवली भगवान का दण्ड, कपाट, मन्थान और लोकपूरण क्रिया द्वारा आत्मप्रदेशों का मूल शरीर को न छोडकर शरीर से बाहर फैलना इसका नाम केवलिसमुद्घात है॥ सू ७० ॥ प्रशाने शरीरथी महा२ ४ादीन (केवलकप्प लोय) शु समस्त ने (फुसित्ता) स्पर्श शने (चिदइ) २ छ ? (हता। चिइ) ! २२ છે, યથાસ્વભાવમાં રહેલા આત્મપ્રદેશને અન્યભાવમાં ફેરવી નાખવું તેનું નામ સમુદઘાત છે સમુદઘાત ૭ પ્રકારના છે-૧ વેદના સમુદઘાત, ૨ કપાયસમુઠ્ઠધાત, ૩ મરણસમુદઘાત, ક વૈક્રિયમમુદ્દઘાત, ૫ તૈજસસમુદઘાત, ૬ આહારકસમુદ્દઘાત, ૭ કેવલિસમુદઘાત તેમાં છેલ્લે સમુદઘાત કેવલિસમુદઘાત છે જેને અન્તર્મુહૂર્ત કાળમાં નિર્વાણપદની પ્રાપ્તિ થાય છે એવા કેવલી ભગવાનના દડ, કપાટ, મળ્યાન, અને લોકપૂરણ ક્રિયાદ્વારા આત્મા પશિનો. મૂળ શરીરને નહિ છેડતા શરીરથી બહાર ફેલાવે થે તેનું નામ पतिसमुधात छे (२ ७०) Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ meena पीयूषयषिणी-टीका सु. ७४ पंधलिसमुद्घातविषये भगवदगीतमयो सयाद ६६९ ___ मूलम्----गोयमा। अयं णं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीवसमुद्दाणं सबभंतराए सव्वखुडाए वहे तेल्हापूय-संठाण-संठिए टीका-~~भगवानाह-'गोयमा' यानि । 'गोयमा । अय ण जंजुद्दीवे दी है गौतम ! अय गल जम्बूद्वीपो द्वीप 'सवदीयममुद्राण सव्यन्भतराए' सर्पद्वीपममुदाणा सर्वाभ्यन्तरक सद्वीपसमुद्रमध्यवती, 'सचमुहाए' मर्यक्षुद्धक सर्वद्वीपममुद्रापेक्षया ला, 'यटे' वृत्त गोलाकार , मो कर घनवृत्तोऽपि भवेत तद्अयच्छेदार्थ प्रतरस्त्ततामाह'तेल्लापूय--मठाण-सठिए' तेाऽप-मस्थान-मस्थित -- तैलमिनि घृतस्योपल सगम , तेन तैलादिपकाऽप्पाऽऽकारमम्गित , 'ब' वृत्त , 'रहचवाल-संठाण-सठिए ' रथचक्रवालजाता है कि (उउमत्ये ण मणुस्से तेसि पिनरापोग्गलाण णो किंचि वण्णेणं वण्ण जाव जाणइ पासइ) उपस्थ मनु"य, उन केरली भगवान् के उन निर्जराप्रधान पुगला के वर्ण गा रस स्पा को न जान सकता है । न दय सस्ता है । ॥ म ७३ ॥ 'गोयमा । अयण' दयादि। (गोयमा!) हे गौतम! (अयण जंबुद्दीवे दीवे) यह जमूद्वीप नामका द्वीप (सनदीवसमुदाणं) समस्त द्वीप और समुद्रों का (सबभतराए) सर्वप्रकार से मध्यउता है। अत यह (मयसुहाग) सन से छोटा है । (४) यह पलय के ममान वृत्ताकार-गोल है। (तेहा-पूय-सठाग-सठिए ) तेन्लपका पुआ के आकार जैसा गोल है। (बट्टे रहचवाल--संठाण-सठिए) रथके पहिये जैमा गोल है। (हे पुपरपर४।२४थी भरपाय छ ८ (उउमत्य ण मणुस्से तेमि णिज्जरापोग्गलाण णो किंचि यण्णेण वण्ण जार जाणड पासइ) मनुष्य ते उसी समपानना તે નિર્જરાપ્રધાન પુદગલના વર્ણ, ગધ, રસ, સ્પરને નથી જાણી શકતા કે नदी भी त? (सू. ७३) 'गोयमा । अय ग' त्याfa (गोयमा ।) गौतम । (अय ण जहीरे दीवे ) दीय नाभन द्वीप (सव्वदीपसमुद्दाण) समस्त दी। अने ममुद्रोनी (सव्यन्भतराण) माथी मध्यवती 3 साथी ते (मव्ययुहाग) धायी नाना छ (पट्टे) ते ५सयना (41) वृत्ताst२ ३ (तेल्लापूर-मठाण सठिग) पुसाना २२ २३॥ (बट्टे रहचानमाल-सठाण-सठिप) २4ना ५ छ (पट्टे पुस्खरकणिया-मठाण-सठिा) भनी दवियोगेछ (पडिपुण्ण-चन--सठाण-मठिग) या २१ Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६८ औषपातिकसूत्रे - फासं जाणइ पासइ ? गोयमा! णो इणहे समहे ॥ सू० ७२ ॥ ___ मूलम्-से केणटेणं भंते । एवं चुचइ-छउमत्थे णं मणुस्से तेसिं णिज्जरापोग्गलाणं णो किंचि वपणेणं वणं जाव जाणइ पासइ ॥ सू० ७३ ॥ कालादिरूप, 'गधेन गध' गन्धेन गन्धम्, 'रसेन रस' रसेन रसम्, 'फासेण फास' स्पर्शेन स्पर्श 'जाणइ' जानाति विशेषत , 'पासई पत्यति सामान्यत किम् , उत्तरमाह'गोयमा' हे गौतम ! 'णो इणटे समटे' नायमर्थ समर्थ =सगत , कर्मपुद्गलाना साऽतिगयज्ञानगम्यत्वात् । अत्र उमस्थगन्देनातिशयज्ञानरहितस्य विरक्षितत्वादिति भाव । एव गन्धादयोऽपि ज्ञेया ॥ सू० ७२ ॥ टीका-'से केणद्वेण भते " इत्यादि ! 'से केणद्वेण भते ! अब केनाऽर्थेन भदन्त ! 'एव बुचई' ण्वमुच्यते-'उउमत्ये ण मणुस्से' उद्मस्थ खल मनुष्य 'तेसि णिज्जरापुग्गलाण' तेपा निर्जरापुद्गलाना 'णो किंचि वण्णेणं चण्ण जाव जाणइ पासई' नो किञ्चिद्वर्णेन वर्ण यारजानाति पश्यति ॥ सू० ७३ ॥ गण गध रसेण रस फासेण फास जाणइ पासइ) वर्ण से वर्ण को, गध से गंध को, रस से रस को और स्पर्श से स्पर्श को जानता है देखता है ? उत्तर--(गोयमा') हे गौतम ! (णो दणद्वे समझे) यह अर्थ सिद्धान्त से समर्थित नहीं है। अर्थात् छमस्थ केवली भगवान् के निर्जराप्रधान पुद्गलों के रूप, रस, गध, और स्पर्श को किंचिन्मात्र भी नहीं जान सकता है, न देख सकता है ।। मू ७२ ।।। _ 'से केणटेण भते! ' इत्यादि । (भते । ) हे भदत । (से) यह बात (केणद्वेण एव वुच्चइ ) किस-कारण ऐसी कही વણને, ગધથી ગધને, રનથી રસને અને સ્પર્શ થી સ્પર્શને જાણે છે? ? त्तर-(गोयमा !) गौतम (णो इणदे समटे) मा अर्थ સિદ્ધાતથી સમર્થન પામેલ નથી, અર્થાત્ છસ્થ પુરુષ કેવલી ભગવાનના નિરાપ્રધાન પુદગલના રૂપ, રસ, ગ ધ તથા સ્પર્શને કિચિત માત્ર પણ જાણી શકતા નથી, તેમ જોઈ શકતા પણ નથી (સૂ ૭૨) 'से केणट्रेण भते ।' त्याह (भते ।) महन्त ! (से) मा पात (केणटुंण एव बुन्चइ) 0 Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - पीयूषयपिणी-टीका स ७५ पंथालिसमुदधातयिषय भगवद्गीतमयो सपाद ६७१ ___ मूलम्-देवे णं महड्डिए महजुइए महव्वले महाजसे महासोरखे महाणभावे सविलेवणं गंधसमुग्गयं गिण्हइ, गिण्हित्ता तं अवदालेइ, अवदालित्ता जाव इणामेवत्ति कटु केवल टीका---'देवे ण' इत्यादि । 'टेघे ण' देव गल 'महडिए' महर्दिक = विपुलैश्वर्ययुक्त , 'महज्जुए' महाद्युतिक -महातेजरया, 'महब्बले महाजसे' महावलो महायशा 'महासोक्खे' महासौग्य - महासुरया, 'महाणुमाचे महानुभाव , 'सविलेवण' सग्लिपन 'गंधममुग्गय गन्धसमुद्गक गन्धमपुटक 'गिण्हइ' गृह्णाति, 'गिण्डित्ता' गृही वा त-गत्यसमुद्गकम् 'अबदालेई' अवदालयति-उद्घाटयति, 'अवदालित्ता' अवदाल्य: उदघाट्य, 'जाव इणामेवत्ति कट्ट' यावत् इदमेवमिति कृया, दह यावच्छन्द्र परिमाणा कस्लादित्यस्य सापेक्ष , टट-गमनम्, एवम् = ठोटिकात्रय यावना कालेन भवति तावकाविष्कभवाला है । इसकी परिधि तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्ताईस योजन तीन कोग एकसौ अट्ठाईस धनुप साडे तेरह अगुल से कुछ अधिक है। उससे यह परियष्टित है ।। सू ७४ !! 'देवे ण महिए' इत्यादि। (महडिए) महासद्धि का धारी (महब्बले ) महाबलिष्ठ (महाजसे ) अतिशय यशस्वी (महासोक्खे ) अयन्तसौर यवाले (महाणुभावे ) व अयत प्रभावशाली ऐसा कोई (देवे ण) देव (सविलेषण गंग्समुग्गय) विलेपनसहित एक गध के समुद्गक (पेटी) को (गिण्हर) लेवे, (गिण्हिता) और लेकर उसे (अवदालेइ) वहीं पर खोले, (अत्रदालित्ता) खोलकर (जाव इणामेवत्ति कुटु केवलकप्प जवुद्दीव दीव) પિળો છે તેને પરિઘ ત્રણ લાખ બળ હજાર બસે સત્તાવીશ યોજન ત્રણ દેશ એક અઠ્ઠાવીસ ધનુષ અને સાડા તેર આગળથી જરા વધારે છે તે એટલા ઘેગવામાં છે ( છ૪). 'देवे ण महडिए' त्यादि ( महड्डिए) भादिना धारी (महळ्यले ) भापदिष्ठ (महाजसे ) मतिय यशची ( महासोस्खे) मयत सौम्य ( महाणुभावे ) तमा सत्यत ती सेवा (देवे ण) हे (सरिलेषण गवममुग्गय ) विवेपन माहित थे. सभु (सुमद्रव्यनी घेरा) ने (गिण्हइ) सीमे, (गिण्हित्ता) अनसनतेने (अवदालेइ) त्या SEL3, (अवदालित्ता) GA (जाव इणामेवत्ति कह केवलकप्प जबुद्दीव दीव ) ते समस्त पूदी Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७० alourfosex वट्टे रहचक्कबाल - संठाण - संठिए वट्टे पुक्खर - कण्णिया - संदाणसंठिए वहे पडिपुण्ण--चंद - संठाणमंदिए एक जोयणसयसहस्सं आयामविवश्वभेणं तिण्णि जोयणसयसहस्साइं सोलस सहस्साई दोणि य सत्तावीसे जोयणसए तिणि य कोसे अट्टावीस च धणुस तेरस य अगुलाई अहंगुलियं च किचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते ॥ सू० ७४ ॥ नप्रमाण, १ सस्थान -मस्थित - चकना=मण्डल, गण्डवधर्मयोगाच रथचकमपि रथचक्रवाल, तसस्थानेन सस्थित –रथचक्राऽऽकार स्थित इत्यर्थ 'हे' वृत्त 'पुत्रखर- कण्णिया सठाण सठिए बड़े' पुष्करकर्णिका- स्थान- सम्थित पद्मनाजको सदृशाकारयुक्त, 'एक्कं जोयणसयसहस्स आयामविवभेण' एक योजनशतसहस्रम् आयामनिष्कम्भेगदैर्घ्यपरिणाहाभ्यामेकल योज'वट्टे' वृत्त 'पडिपुण्ण-चद-सठाण मटिए' प्रतिपूर्ण चन्द्र-सस्थान -सस्थित, 'तिष्णि जोयणसहसा ' त्रीणि योजनगतमहस्राणि त्राणि लक्षाणि योजनानि, 'सोलस सहस्साह' पोडा महस्राणि, 'दीणि य सतारीसे जोयणसए' दे च सप्तर्विशे योजनशते= समविंशत्यधिके द्वे शते योजनानि 'तिष्णि य कोसे' नाथ कोशान 'अट्ठावीस च धणुसय' अष्टाविं=अष्टाविंग यधिकशतधनूषि, 'दस य अगुलाइ' त्रयोदश चाहूलानि 'अगुलिय च' अद्राङ्गुलिna 'किंचि विशेषाहिए' किञ्चिद्विशेषाऽधिक ' परिक्खेवेण ' परिक्षेपण परिधिना 'पण्णत्ते प्रज्ञप्तम् || सू० ७४ कण्णिया-मठाण-मठिए ) कमलकी कर्णिका के जैसा गोल है । ( बट्टे पडिपुण्णचद-सठाण - सठिए ) पूर्णचद्रमंडल के जैसा गोल है । ( एक जोयणसयसहस्स आयामसभेण तिथि जोयणसयसहस्साइ सोलससहस्साइ दोणि य सत्तावीसे जोयणसए तिष्णिय कोसे अट्ठावीस च धणुसय तेरम य अगुलाइ अद्वगुलिय च किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेण पण्णत्ते ) यह जबूद्वीप एक गाव योजनका आयाम एन वो गोण छे ( एक्क जोयण सयसहस्स आयामवित्समेण तिण्णि जोयण साइ सोल्सहस्सा दोण्णि य सत्तावीसे जोयणसए तिष्णि य कोसे अट्ठावीस च धणुमय तेरस य अगुलाइ अद्वगुलिय च किंचिनिसेसाहिए परिम्सेवेण पण्णत्ते) २४ द्वीप १ साथ योनना शायाम तेभर विष्ठ लवाणी दाणे Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषयपिणी टीका ७२ वलिसमुदघातविषये भगवद्गीतमयो सवाद ६७१ मूलम् -- देवे णं महड़िए महजुड़ए महव्वले महाजसे महासोक्खे महाणुभावे सविलेवणं गधसमुग्गयं गिण्हइ, गिण्हित्ता तं अवदाइ, अवदालित्ता जाव इणामेवत्ति कट्टु केवल टीका- 'देवे ण' इयादि । 'देवे ण' देव खलु 'महड्डिए' महर्द्धिक : विपुलैश्वर्ययुक्त, 'महज्जुडए' महाधुतिक = महातेजस्या, 'महत्वले महाजसे' महावलो महाया 'महासोक्खे' महासौग्य महासुखी, 'महाणुभावे' महानुभाव, 'सविलेवण' ''पुटक 'गिण्ड' गृह्णाति, 'गिण्डित्ता' गृहीना त= गन्धसमुद्गकम् 'अवदालेड' अदास्यति उद्घाटयति, 'अवदालित्ता' अरवाल्य= उद्घाटय, 'जाव णामेवति कट्टु यावत् इदमेनमिति कृवा, इह यावच्छन्द परिमाणाकस्ता दित्यस्य सापेक्ष, इद गमनम् एवम् = डोटिकान्य यावता कालेन भवति तावकाविभवा हैं | इसकी परिधि तीन लाख सोलह हजार दो मौ सत्ताईस योजन तीन कोण एफसी अहार्दम धनुप साडे तेरह अगुल से कुछ अधिक है। उससे यह परिवेष्टित है ।। सू ७४ ॥ 'देवे णं महट्टिए ' इत्यादि । ; 1 (महड्डिए) महारुद्र का धारी (महदवले ) महाबलिष्ठ ( महाज से ) अतिशय reat (महासोखे) अयन्तसीत्यवाले ( महाणुभावे ) एवं अयत प्रभावशाली ऐसा कोई (देवेण ) देव (सविलेवण गंधसमुग्गय ) विलेपनसहित एक गघ के समुद्रक (पेटी) को (गिण्हर) लेवे, ( गिव्हित्ता ) और लेकर उसे ( अवढालेद ) वहीं पर खोले, (अवदालिता ) सोलकर ( जाव णामेवत्ति कट्टु केवलकप्प जवुद्दीव दीव ) પાળે છે તેને રિઘ ત્રણ લાખ સેાળ હજાર ખના સત્તાવીશ ચેાજન ત્રણ કાશ એકને અઠ્ઠાવીસ ધનુષ અને સાડા તેર આગળથી જરા વધારે છે તે એટલા ઘેરાવામાં છે (સુ ૪) • ઈત્યાદિ " देवे ( महड्डिए) महाऋद्धिना धारी ( महन्त्रले ) भहाणसिष्ठ ( महाजसे ) अतिशय यशस्वी ( महासोक्खे) अत्यत सौच्यवाणा ( महाणुभावे ) तेभन अत्यत प्रभावशाली सेवा अर्ध ( देवे ण) व (सविलेयण गवसमुग्गय ) विशेयन सहित भेट अघसमुह ( सुगधद्रव्यनी पेटी) ने ( गिन्हइ ) सीओ (गिण्डिता ) मने बर्धने तेने ( अपढाइ ) त्यान्न उधाडे, ( अवदालित्ता ) उघाडीने (जाव इणामेवत्ति कट्टु केवलरूप्प जबुद्दीव दीव ) ते समस्त ०४ जूही Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R - স্পীথঙ্কিমু कप्पं जबुद्दीवं दीवं तिहिं अच्छराणिवापहि तिसत्तखुत्तो अणुपरियहित्ता णं हव्यमागच्छेजा ॥ सू०७५ ॥ मूलम्-से पूर्ण भंते से केवलकप्पे जंबुद्दीवे टीवे तेहिं घाणपोग्गलेहि फुडे ? हंता! फुडे ॥ सू० ७६ ॥ लिकम्-सत्वरमित्यर्थ , इति कृया, 'केवलकप्प' केरलकप-सपूर्ण, 'जबुद्दी। जम्बूद्वीप 'दी' द्वाप तिहि त्रिभि 'अन्राणिवाएहि अच्छगशदो देशीय लोटिकाचक, छोटिकाभिरित्यर्थ , तिसत्तखुत्तो' त्रिसप्तरत्व एकविंशतिवारान् 'अणुपरियहित्ताण अनुपर्यव्यपरिभ्रम्य खल 'इन्चमागउजा' गीतमागच्छेत् । छोटिकात्रयकालसमकाले एव सपूर्ण जम्बूद्वीपमेकविंशतिगारान् परिभ्रम्य शारमागच्छदित्यर्थ ।। सू०७५ ॥ टीका-गौतम पृच्छति-से गुण भते !' इत्यादि । ' से घृण भंते " अथ नून हे भदन्त ! ' से केवलकप्पे नबुद्दीवे दीवे ' स केवलकपे जम्बूद्वीप द्वीपे 'तेहिं ते, 'घाणपोग्गलेहिं ' प्राणपुद्गलै गन्धपुद्गलै पुढे ' स्पृष्ट किम् , ' मगवानाह-'हता फुडे' हन्त ! स्पृष्ट ।। सू ७३ ॥ उस समस्त जबूद्वीप की (तिहिं अच्छराणिवाएहिं) तीन चुटकी बजाने में जितना समय लगे उतने समय में (तिसत्तखुत्तो) तीनगुणित सात-इक्कीस बार (अणुपरियट्टित्ता) प्रदक्षिणा देकर (हन्धमागच्छेज्जा) वहीं पर शीघ्र आजावे ।। सु ७५ ॥ ‘से पूर्ण भते ।" इत्यादि। गौतम पूछते है-(से पूर्ण भते ! से केवलकप्पे जवुद्दीवे दीवे ) हे भदन्त । वह समस्त जपूद्वीप (तेहिं घाणपोग्गलेहि फुडे ?) क्या उन समस्त सुगधित पुद्गलों से स्पृष्ट हो जाता है ? उत्तर-(हवा! फुडे) हा हो जाता है । सू ७६ ॥ पनी (तिहिं अच्छराणिवाएहिं ) २५टी भावामा र समय समे तदा समयमा (तिसत्तखुत्तो) पीसा२ (अशुपरियहिता) प्रदक्षिणा धन (हव्वमागच्छेना) त्या पाछ। सही मावी जय (सू ७५) से गुण भते । छत्यादि गौतम छे छे-(से गूण भते । से केवलकप्पे अबुद्दीवे दीवे). MErd! A समस्त पूदी५ (तेहिं पाणपोग्गलेहि फुडे) शुत समस्त भुपित भुभवाथी २४ ५४ लय छ ? उत्तर-(हता । फुडे) 31, यई जय छे (सू ७६) Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोयूपयपिणो-टीका र ७७ पलिममुद्घातविषये भगवगीतमयो म्याद १७३ मूलम्-छउमत्थे णं भंते ! मणुस्से तेसि घाणपोग्गलाणं किंचि वपणेणं वणं जाव जाणइ पासइ ? गोयमा ! णो इणद्वे समझे ॥ सू० ७७ ॥ मूलम्-से तेणढणं गोयमा। एवं वुचइ-छउमत्थे टीका--पुनीतम पृच्छति-'छउमत्ये ण' इत्यादि । ‘भते।' भदन्त । 'उउमत्ये ण मणुस्से' छप्रस्थ खलु मनुष्य , 'तेसिं घाणपोगलाण' तेपा पागपुद्गलाना "किंचि वण्णेण पण जाव जाणइ पासइ' फिश्चिवर्णेन वर्ण यावजानाति पश्यनि किम् ? भगानाह--'गोयमा । णो इगते समटे गौतम ! नाऽयमर्थ समर्थ ।। म् ७७ ॥ टीका-'से तेगडेग' इत्यादि । ' से तेगद्रेण गोयमा! एव बुचट' अय 'उउमत्येण भते ! मणुस्से' यादि । पुन गौतम ने पूछा-(उरमत्ये ण भंते मणुस्से ) हे भदन्त । क्या उदास्थ मनुष्य, (तेसिं घाणपुग्गलाणं) उन सुगधित पुग़लों को (किंचि वग्गेण वण्ण जार) वर्ण से यावत् गध स्पर्शादि से थोडा भी (जागड पासड) जान सकता है । देख सकता है। प्रभु ने कहा कि (गोयमा! ) हे गौतम । (जो इपाढे समढे) यह अर्थ समर्थ नहीं है ।। सू ७७ ॥ 'से तेणद्वेण' इत्यादि। (से तेगटेण गोयमा ! एवं वुड) हे गौतम । छमस्थ उन निर्जरापुटलों को गपादिगुणों द्वारा थोड़ा भी नहीं जान सकता है-यह जो बात कही गई है सो इसलिये 'उउमत्ये ण भते । मणुस्से' इत्यादि पजी गीतमे ५७यु-(छउमत्येण भते मगुस्से) H शु ७५५ मनुष्य, (तेसिं पाणपोग्गलाण) ते सुगधित पुगवाने पथी तभ०४ १५ २५० माहिया १४२ ५९ (जाणइ पासइ) | श छ ? छ? प्रभु ४ा (गोयमा ! ) हे गीतम' (जो इणद्वे समष्ट्रे) र २मर्थ समर्थ नथी (सू ७७) 'से तेणवण' त्या (से तेणटेण गोयमा । एव दुचइ) तम। छन्थ, निशપુદ્ગલેને ગધ આદિ-ગુણો દ્વારા જરા પણ જાણી શકતું નથી એમ જે Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ओपपातिकमरे णं मणुस्से तेसिं निजरापोग्गलाणं णो किंचि वण्णेणं वणं जाव जाणइ पासइ ।। सू० ७८।। मूलम्-एए सुहमा णं ते पोग्गला पण्णत्ता, समणातेनाऽर्थेन हे गौतम ! ण्वमुच्यते-'छउमत्थे ण मणुस्से छपस्थ ग्वल मनुष्य 'तेसि गिजरापोग्गलाण' तेपा निर्जरापुदगलाना 'न किंचि गणेण' न किंचिद् वर्णेन 'वण्ण' वर्ग 'जार जाणट पासई' यानजानाति पश्यति । तस्य आयस्य सातिशयनानाभावास यथावस्थितस्वरूपेण वर्गादिक न जानाती यर्थ ॥ स ७८ ॥ टीका-'एए सुरमा' इत्यादि । 'एए' एते वर्गादयस्तया 'सहुमा' सूदमा सन्ति यत् तान् यथारस्थितस्वरूपेग उारयो न जानाति, तथा 'ते पोग्गला' ते पुद्गला -निर्जरापुद्गला अतिसूक्ष्मा 'पण्णत्ता' प्रजमा । 'समणाउसो' हे श्रमण ! है आयुष्मन् ! अथवा-श्रमणशासाचायु माथेति समासस्तस्यामन्त्रण हे श्रमणायुप्मन् ! हे गौतम ! कही गई है कि (उउमत्ये ण मणुस्से) उस उमस्थ के सातिशय ज्ञान का अभाव है, अत वह यथावस्थित रूप से (तेसि गिजरापोग्गलाण) उन शिर्जरित पुद्गलों के (णो किंचि वण्णेण वण जाव जागइ पासद) वणादिक को थोडा भी नहीं जान सकता है, न देख सकता है ।। सू ७८ ॥ 'एए सुहुमा ' इत्यादि। (एए सुहमा णं ते पोग्गला पण्णत्ता) उन निर्जरापुद्गलों को छमस्थ यथावस्थित रूपसे इस कारण से भी नहा जान सकता है कि उन पुद्गलों के वर्गादिक गुण सूक्ष्म है, अत (समकाउसो । सबलीय पि य ण ते फुसित्ता ण चिति) हे आयुपात ४ी छते थे. भाटे ४बी (छउमत्थे ण मणुम्से) ते छस्थ ने सातिशय ज्ञाननी मला ती ते यथापयित३५थी (तेसि णिजरापागलाण) त नि रित गान (णो किंचि वण्णेण व जान जाणइ पासइ) વર્ણ આદિકને જરા પણ જાણી શકતો નથી, જોઈ પણ શકતો નથી (જૂ ૭૮) 'एए मुहुमा ण' इत्यादि (ए सुहमा ण ते पोग्गला पण्णत्ता) त निIYEnाने छमश्य યથાવસ્થિતરૂપથી એ કારણથી પણ જાણી શકતો નથી કે તે પુદ્ગલેના વર્ણ साहिल शु भूम छ तेथी (समणासो। सव्वलोय पि य फुसित्ता ण चिति) मायुष्मन् भए ! पीएमय 14 आ४ि गुथे। वारा Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूपयर्षिणी-टोका सू ७९ केयलिसमुद्घातविषये भगवद्गीतमयो सपाय ६७५ उसो । सव्वलोयं पि य णं ते फुसित्ता णं चिति ।। सू० ७९ ।। मूलम्-~-कम्हा णं भंते । केवली समोहणंति ? कम्हाणं केवली समुग्घायं गच्छति ? गोयमा । केवलीण चत्तारि कम्मंसा यथाऽतिसूदमत्वाद् गन्यपुगलान्न जानायेर निर्मरापुहलानपीति दृष्टा तप्रदर्शनम् । 'सबलोय पियण' सर्वलोकमपि च मल ते निर्नगपुद्गग 'फुसित्ता ' स्पृट्ना पल्लू "चिट्ठति' निष्टन्ति ।। मू ७९ ॥ टीकापौनम पृच्छति-'म्हा या भंते ! दयादि । 'कन्दा ण भते । कस्मात्पछु भदन्त =हभदन्त ! कम्मान यल 'केवली' केरलिन 'समोहणति' समुद्रन्ति कस्मै प्रयोजनाय केरलिन समुद्घात कुर्वन्तो यर्थ , उक्तमर्थ-पुन सुमनोधार्थमाट-'कम्हाण केली' कस्मात् सल केवलिन , 'समुपाय' समुदधातमः-आमप्रदेशप्रसारकता गच्छन्ति प्राप्नुवत्ति, भगनानुत्तरमाह-'गोगमा " गौतम । 'केवलीण चत्तारि कम्मसा' केरलिना चत्वार प्मन् अमण ! जिस प्रकार उमस्थ गधादिक गुणा द्वारा अयत सूक्ष्म रूप से परिणत गप पुदलों को ययावस्थित रूपसे नहीं जान सकता है उसी प्रकार वह अत्यत सम्मलप से परिणत होने के कारण उन निर्जगपुद्गला को भी गधानिक गुणद्वारा न जान सकता है, न देग सकता है। इस दृष्टान्त से यह बात स्फुट हो जाती है ।। ७९ ॥ ___ 'कम्हा पा भते !' इत्यादि । __ गौतम ने पुन प्रश्न किया-(भते!) ह भदन्त । (कम्हाण) किस कारण से (केवली) केवली भगवान् (समोहणति) ममुद्घात करते है। अर्थात् केरलिया को समुद्घात किस प्रयोजन के लिये करना पड़ता है। उत्तर-(गोयमा) हे गोतम । (केरलीण चत्तारि कम्मसा अपरिवरसीणा भाति) केवलियों के चार कर्म अवशिष्ट रहते અત્યત મરૂપમાં પરિણામ પામેલા ગધપુદગલેને યથાવસ્થિતરૂપથી જાણી શકતા નથી, તેવી જ રીતે અત્યત ભૂકંમરૂપમાં પરિણામ પામેલા હેવાને કારણે તે નિરાયુગલેને પણ બધ આદિ ગુણ દ્વારા જાણી શકતા નથી, તેમ જોઈ શકતા નથી આ દૃષ્ટાતથી એ વાત સ્પષ્ટ થઈ જાય છે ( ૭૯) 'कम्हा ण भते । केयली समोहणति' इत्यादि गौतम जी पाछी प्रश्न - (भते!) महन्त (कम्हाण) ४॥ थी (केवली) पक्षी मवान् (ममोहणति) भभुवात ४२ छ, अर्थातBहासाने समुधात उया प्रयासनने भाटे ८२व ५ छ ? उत्तर-(गोयमा) हे गौतम (केवलीण चत्तारि कम्मसा अपलिम्सीणा भाति ) जीमान र Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७६ औपपातिकवारे - अपलिक्खीणा भवंति, तंजहा-(१) वेयणिज्ज (२) आउयं ३ णाम गोत्तं सव्ववहुए से वेयणिजे कम्मे भवइ, सव्वत्थोवे से आउए कम्मे भवइ। विसमं समं करेइ बंधणेहिं ठिईहि य, विसमसमकरणयाए बंधणेहिं ठिईहि य। एवं खलु केवली समोहणति, एवं खल्लु केवली समुग्घायं गच्छति ।। सू० ८०॥ कर्माशा 'अपलिखीणा' अपरिक्षीणा अवशिष्टा 'भवंति' भवन्ति सन्ति, 'त जहा' तद्यथा--'वेयगिज्ज' वेदनीयम्, 'आउय' आयु , 'णाम' नाम, 'गोतं' गोत्रम्, 'सबरहुए से वेयणिज्जे कम्मे भवइ' सर्वनहुल तद् वेदनीय कर्म भवति, 'सन्वत्थोवे से आउए कम्मे भवइ' सर्वस्तोक तद् आयु कर्म भाति, 'विसमं सम करेइ वधणेहि ठिईहिय' विषम सम करोति बन्धन -प्रदेशन्धानुभागधापाश्रित्येति भाव, स्थितिभिश्चस्थितिनन्धविशेषैश्च, ‘विसमसमकरणयाए बधणेहि ठिईहि य एवं खलु केवली समोहणंति' अव पढ़योजना--एव सल पिपमसमकग्णाय-विषमर्मगा ममीकरणार्थ बधनै स्थितिभिश्च केपलिन 'समोहणति' समुनन्ति-समुद्घात कुर्वन्ति एवं खलु केरली समुग्धाय गच्छति' एव खल केनलिन समुद्घात गच्छन्ति ।। सू ८०॥ है, (त जहा) वे ये है-( वेयणिज्ज आउय णाम गोत्त) वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र । (सन्चपहुए से वेयणिज्ने कम्मे भवद ) केरली में सबसे अधिक स्थितिवाला उस समय वेदनाय कर्म रहता है। (सम्पत्थोवे से आउए कम्मे भवइ) तथा सबसे स्तोक आयुकर्म रहता है । (विसम सम करेइ बधणेहिं ठिईहि य विसमसमकरणयाए बधणेहि ठिहि य ) इस विषमता को सम करने के लिये अर्थात् आयुफर्म की स्थिति के समान वेदनायादिक कर्मों की स्थिति करने के लिये केली भगनान् समुद्धात करते है। अन्य मी २ छ, ( त जहा) मा छे (वेयणिज्ज आउय णाम गोत) वहनीय , मायु, नाम मन गान (सव्यवहुए से वेयणिज्जे कम्मे भवइ) पिजीमा सपथी पधारे स्थितिमा समय वहनीय ४ २ छ (सव्व. त्योवे से आजा कम्मे भवइ) तथा सर्वथी स्तो मायुभ २९ छ (विसम सम करेइ यधणेहि ठिईहि य, सिमसमकरणयाए वधणेहिं ठिईहि य) २ વિષમતાને સમ કરવા માટે અર્થાત આયુકર્મની સ્થિતિ બરાબર વેદનીય Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोgrafort टीका ख ८१ त्रिसमुद्घातविषये भगवद्गौतमयो. सवाद ६७७ मूलम् -- सव्वे विणं भंते । केवली समुग्धायं गच्छति ? णो इट्ठे समहे । अकित्ताणं समुग्धायं, अणंता केवली जिणा । जरामरणविप्पमुक्का, सिद्धिं वरगई गया || सू० ८१ ॥ टीका- गौतम पृच्छति - 'सव्वे विण' इत्यादि । 'सच्चे विभते !' सर्वेऽपि खलु भद्रन्त =ह भद्रन्त । सर्वेऽपि सल 'केवली' केवलिन 'समुग्धाय' समुद्घान 'गच्छति' छन्ति किम् ' भगवानाह 'णो इणवे समट्टे' नाऽयमर्थ समर्थ । " अकित्ता ण समुग्धाय, अणता केवली जिणा । जरामरणविवमुका, सिद्धि पर गया ॥ १ ॥ " फर्मों का स्थिति, अनुभाग एव प्रदेशवध, समुद्रात करने से आयुकर्म के स्थितिबघ, अनुभागनथ एच प्रदशवध के बराबर हो जाते है। ( एवं खलु केवली समोहणंति, एव सलु केवली समुग्याय गच्छति ) इस प्रकार केवलियों के समुद्रात करने का यह प्रयोजन है । इस प्रकार व केवली ममुद्वात करते हे | सू ८० ॥ 'सव्वेणि भत्ते ! इत्यादि । प्रश्न- (भते । ) हे भदन्त । क्या ( सव्वे विणं केवली ) समस्त केवली भगवान् (समुग्धाय गच्छति ) समुहात करते है । ( णो इणद्वे समट्टे) हे अर्थ समर्थित नहीं है, अर्थात्[ समस्त केवला भगवान् समुद्धात करें ऐसा गौतम ! यह कोई नियम આદિક કર્મોની િિત કરવા માટે કેવલી ભગવાન સમૃઘાત કરે છે ખીન્ત મેના સ્થિતિખ ધ, અનુભાગમધ તેમજ પ્રદેશ ધ, સમુદ્ઘાત કરવાથી આયુકર્યુંના વિત્તિખ ધ, અનુભાગખ ધ તેમજ પ્રદેશ ધના ખરાખર થઈ જાય છે ( एव सलु केवली मोहति एव स केवली समुग्धाय गच्छति ) या अमरे ડેવલીએને મસુધાત કરવાનુ આ પ્રત્યેાજન છે. આ પ્રારે તે કેવલી સમુ દ્ઘાત કરે છે (સૂ ૮૦ ) ' सव्वे विण भते । केवली ' त्यिाहि अश्न--(भंते 1 ) हे लहन्त । शु ( सव्वेवि ण केवली ) वधा ठेवली भगवान् (समुग्धाय गच्छति ) समुहद्धात रे छे ? ( जो इण्डे समट्टे ) हे ગૌતમ! આ અથ મર્માત નથી, અર્થાત્ મમસ્ત કેવલી ભગવાન ઋમુદ્દાત Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७६ औपपातिक अपलिक्खीणा भवंति, तंजहा-(१) वेयणिज्ज (२) आउयं ३ णाम गोत्तं सव्यवहए से वेयणिजे कम्मे भवइ, सव्वत्थोवे से आउए कम्मे भवइ। विसमं समं करेइ बंधणेहि ठिईहि य, विसमसमकरणयाए बंधणेहि ठिईहि य । एवं खलु केवली समोहणति, एवं खलु केवली समुग्घायं गच्छति । सू० ८०॥ कर्माशा 'अपलिक्खीणा' अपरिक्षीणा =अवशिष्टा 'भवति' भवन्ति-सन्ति, 'त जहा' तद्यथा-'वेयशिज' वेदनीयम, 'आउय' आयु , 'णाम' नाम, 'गोत्त' गोत्रम्, 'सबाहुए से वेयणिज्जे कम्मे भवइ' सर्वबहुल तद् वेदनीय कर्म भवति, 'सबत्योवे से आउए कम्पे भवइ' सर्वस्तोक तद् आयु कर्म भवति, 'विसमं सम करेइ वधणेहि ठिईहिय' विषम सम करोति वन्धन -प्रदेशन्धानुभागनन्यायाश्रित्येति भाव , स्थितिभिश्चस्थितिबन्धविशेषैश्च, ‘विसमसमकरणयाए वधणेहिं ठिईहि य एव खलु केली समोहमति' अत्रैव पदयोगना-एव सलु पिपमसमफरणाय-विषमर्मगा समीकरणार्थ बन्धनै स्थितिभिश्च केलिन 'समोहणति' समुनन्ति-समुद्धात कुर्वन्ति ' एवं खलु केवली समुग्याय गन्छति' एव खल केवलिन समुद्घात गच्छन्ति ।। मू ८० ॥ है, (त जहा) वे ये है-( वेयणिज्ज आउय णाम गोत्त) वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र । (सव्यवहए से वेयणिज्जे सम्ने भवद) केवली में सबसे अधिक स्थितिवाला उस समय वेदनाय कर्म रहता है। (सपत्थोवे से आउए कम्मे भवइ) तथा सबसे स्तोक आयुकर्म रहता है। (विसम सम करेइ वधणेहि ठिईहि य विसमसमकरणयाए वधणेहि ठिईलिय) इस विषमता को सम करने के लिये अर्थात् आयुफर्म की स्थिति के समान वेदनायादिक कर्मों की स्थिति करने के लिये केवली भगान् समुद्रात करते है। अन्य उभ माथी २७ , (त जहा) त म छे (वेयणिज्ज आउय णाम गोत्त) वहनीय , मायु, नाम सने जात्र (सबबहुए से वेयणिज्जे कम्मे भवइ) उपजीमा सर्वथी पधारे स्थितिपाते समय वहनीय भ२ छ (सव्वत्थोवे से आउए कम्मे भवइ) तथा सर्वथी र मायुभ २ छ (विसम सम करेइ यधणेहिं ठिईहि य, विसमसमकरणयाए बधणेहिं ठिईहि य) या વિષમતાને સમ કરવા માટે અર્થાત આયુકર્મની સ્થિતિ બરાબર વેદનીય Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Non - me पीयूपवपिणी-टीका स ८२ कंपलिसमुदघातधिपये मगधगौतमयो सपाद ६७९ मूलम् केवलिसमुग्घाएणंभंते कइसमइए पपणते? गोयमा । अहसमइए पण्णत्ते; तं जहा-पढमे समए दंडं करेइ. माण यत् मोक्ष प्रयामनोऽभिमुखीकरण तत्, तच उदयावरिकाया कर्मपुद्गलप्रक्षेपन्यापाररूप उदीरणाविशेष । केवलिसमुद्घात कुर्वन् केवली प्रथममेवाऽऽवर्जीकरण करोति । भगवानाह-'गोयमा" है गौतम । 'असखेनसमइए अंतोमुहुत्तिए पगते' अमायेयसमयिकम् मान्तीहर्तिक प्रजमम् ॥ मू० ८२॥ टीका-गौतम पृच्छति-'केवलिसमुग्धाए ण' इत्यादि । 'केवलिसमुग्धाए जभते केवलिसमुद्धात खलु भदन्त ! हे भदन्त । केवलिसमुद्धात 'कइसमइए पण्णत्ते' कतिसमयिक प्रजम १, भगवानाह-'गोयमा' हे गौतम 'असमइए पणते ' अष्टसमयिक प्रज्ञा । अतर्मुहूर्तभाविपरमपदे केवलिनि य समुद्घातो भवति स केवलिसमुद्घात , स चाटसु समयेपु भवती यर्थ । तदेवाह-'तजहा' तयथा 'पहमे समए अभिमुख किया जाता है उसका नाम आवर्जीकरण है। यह केवलिसमुद्घात के पहिले होता है। उदयावलिका मे कर्मपुल का प्रक्षेप करने-रूप व्यापार का यह नामान्तर है ।। मू ८२ ॥ 'केवलिसमुग्याए णं भते !' इयादि । प्रश्न-(भते!) है भगवन् । (केवलिसमुग्याए णं कइसमइए पण्णत्ते) केवलिसमुद्घात कितना समय का कहा गया है ? उत्तर-(गोयमा) हे गौतम ! (अट्ठसमइए पण्णत्ते) इसका काल ८ समय का कहा गया है। अन्तर्मुहूर्त में परमपद का लाभ जिनको होने वाला है एसे केवलियो द्वारा जो समुद्घात किया जाता है उसका नाम केवलिसमुद्घात है। इसका काल ८ समय का है। (तजहा) वह समुद्घात इस प्रकार से होता है-(पढमे समए दड करेइ) प्रथम समय मे केली के જીવ મેક્ષની સામે કરવામાં આવે છે તેનું નામ આવજકરણ છે તે કેવલિસમુદઘાતની પહેલા થાય છે ઉદયાવલિકામાં કર્મ પુદગલેને પ્રક્ષેપ કરવા રૂપ વ્યાપારનુ આ માતર છે (સૂ) ૮૨ 'केवलिसमुग्माए ण भते।' इत्यादि प्र--(भंते !)लापान ! (कैनलिसमुग्धाए | कइसमइए पण्णते) पतिम यातना सा समय दा छ ? उत्तर-( गोयमा ।) , गौतम ! (अट्ठसमइए पण्णत्ते) तेन ॥ ८ समयनासो छ म तभा परमपहना લાભ જેમને થવાનું હોય છે એવા કેવળીઓ દ્વારા જે સમુદુધાત કરવામાં आवे छे तेनु नाम सिमभुधात le ८ सभयना छ ( तजहा) ----- - Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७८ - - - मोपपातिक मूलम् कइसमए णं भंते! आउज्जीकरणे पपणते ? गोयमा । असंखेजसमइए अंतोमुहत्तिए पण्णत्ते ॥ सू०८२॥ ___ अकृत्वा सलु समुद्घातम्, अनन्ता केन्निो जिना । जरामरग विषमुना , सिद्धि बरगतिं गता ॥ १॥ अयमाव -पण्मासायुषि अशिष्ट सति येपा केरल ज्ञानमुत्पन्न ते नियमत समुद्घात कुर्वन्ति, अन्ये तु समुद्घात कुर्वन्ति न या कुन्तीति ।। सू० ८१ ॥ टीका-गौतम पृच्छति-'कइसमए ण' इत्यादि। 'कइसमए ण भते । कतिसमय खल भदन्त । 'आउज्जीकरणे पण्णते' आरजीकरण प्रजमम् । आवर्यतेऽभिमुखक्रियते मोकोऽनेनेति-आवर्जस्तस्य करणविरक्षाया विप्रत्यय । केलिसमुद्घातात् पूर्व क्रियनहीं है। क्यों कि (समुग्धाय अफित्ता) समुद्घात को नहीं भी करके (अणता केवली) अनत केरली (जिगा) जिन (जरामरणविप्पमुका) जन्म, जरा एव मरण से रहित होकर (वरगइ) सिद्धिस्वरूप सर्वोत्कृष्ट गति को प्राप्त हुए है। भावार्थ-जिनकी आयु ६ मास की वाकी बची है और अब उहे केवलज्ञान प्राप्त हुआ है तो ऐसी स्थिति में वे नियम से केवलिसमुद्घात करते है। बाकी के लिये ऐसा कोई नियम नहीं है कि समुद्घात करे हो।।।सू ८१॥ 'कइसमए ण भते ।" इत्यादि। प्रश्न-(भते ) हे भदत । (कइसमए ण आउजीकरणे पगत्ते ) मोक्षप्राप्ति का आवर्जीकरण कितने समय का होता है। उत्तर-(असखेजसमए अंतोमुहुः लिए पण्णत्ते) अमख्यात समय का अतर्मुहूर्त कहा है। जिसके द्वारा जीव मोक्ष के उरे मेवा नियम नथी, उभ (समुग्धाय अक्त्तिा ) समुधात न ५ शेने (अणता केवली) मनतवसा (जिणा) नि (जरामरणविप्पमुक्का) भ, ०२ तमः भ२९थी हित 4 ( वरगइ) सिद्धिस्व३५ सवष्टि ગતિને પ્રાપ્ત થયા છે ભાવાર્થ-જેમની આયુ છ માસ બાકી રહે છે અને હવે તેમને કેવળજ્ઞાન પ્રાપ્ત થયું છે, તે એવી સ્થિતિમાં તેઓ નિયમથી કેવલિસમુઘાત કરે છે. બાકીને માટે એ કેઈ નિયમ નથી કે સમુદ્દઘાત ४२. ४. (सू ८१) 'कइसमए भते । त्याह ---(भते ।) Mara! (कइसमए ण आउज्जीकरणे पण्णत्ते ) मोक्ष प्राप्ति मा१०२९ समयमा थाय छ त्तर-(असोज्जसमए अतोमहत्तिए पण्णत्ते) समस्या समयनु मतभुत क्षु ना वास Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूक्षवर्षिणी-टीका स. ८३ केयलिसमुद्घातयिपये भगवद्गीतमयो, सयाद ६८१ समए लायं पूरेद, पंचमे समए लोयं पडिसाहरइ, छठे समये मंथं पडिसाहरइ, सत्तमे समए कवाडं पडिसाहरइ, अहमे समए दंडं पडिसाहरइ, पच्छा सरीरस्थे भवइ ॥ सू० ८३ ।। मूलम्---से णं भंते! तहा समुग्घायं गए कि मणजोगं धातेन प्रसारितान् आत्मप्रदेशान् सहरति, तदाह-'पचमे समये' इत्यादि । 'पचमे समए लोयं पडिसाहरइ' पञ्चमै समये लोक प्रतिम्हरति-चतुर्मि समयैर्जगपूरण कृवा पञ्चमे समये आमप्रदेशान् अन्तरालावस्थितान् उपसहरति । 'छटे समए मथ पडिसाहरइ' पष्ठे समये मन्थान प्रतिसहरति । 'सत्तमे समए कवाड पडिसाहरइ' सप्तमे समये कपाट प्रतिसहरति । 'अट्ठमे समए दड पडिसाहरइ' अष्टमे समये दण्ड प्रतिसहरति । 'तो पग सरीरत्ये भवइ' तत पश्चात् शरीरस्थो भवति ।। सू ८३ ।। टीका-'से ण भते !' इयादि । ' से ण भते !' अथ खलु भदन्त ! 'तहा ४ चार समय लगते है। सो ये सर्वप्रथम (पचमे समए लोयं पडिसाहरइ) पचम समय में अन्तराल मे स्थित उन आमप्रदेशों को उपसद्धत करते है। (छटे समए मथ पडिसाहरह) छठे समय में मथाकाररूप से स्थित उन आत्मप्रदेशों को सकोचते है। (सत्तमे समए कवाड पडिसाहरई) ७ वे समय मे कपाटाकारता को और (अट्ठमे समए दड पडिसाहरइ) आठवें समय मे दढाकारता को सकुचित करते है। (तओ पग सरीरत्ये भवइ) उसके बाद आमस्य हो जाते है ।। सू० ८३ ॥ “से ण भते।' इत्यादि। (से णं भंते ! तहा समुग्धाय गए कि मणजोग जजद) हे भदत ! इस साथी पहा ( पचमे समए लोय पडिसाहरइ ) पायम समयमा, म तरासमा २ ते सामप्रशानी उपसार ४३ छ (छट्टै समए मथ पडिसाइरह) છઠ્ઠ સમયમાં મથાકારરૂપથી સ્થિત (રહેલા) તે આત્મપ્રદેશને સકેચે छ (सप्तमे समए कवाड पडिसाहरइ) सातभा समयमा पासतान, मन (भट्टमे समए दह पडिसाहरइ) भी समयमा हाताने समुन्धित ४३ के (तओ पच्छा सरीरस्थे भवइ) त्यारपछी मात्भस्य थ य छ (सू ८३) 'से ण भने ।" त्यादि (से णं भते । तहा समुग्धाय गए किं मणजोग जुजइ?) : महन्त ! Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८० ओपपातिकमा विईए समए कवाडं करेइ, तइए समए मंथं करेइ, चउत्थे दडं करेड' प्रथमे समये दण्ड करोति-प्रथमे समय ऊर्ध्वाधोलोकान्त यावत्प्रसारितैरा स्मप्रदेशैर्दण्डाकारता पुरते । 'पिए समए कबाड करेइ द्विताये ममये कपाट करोतिद्वितीये समये पूर्वपधिमयोर्दिशोविस्तृतरामप्रदेौरव कपाटाकारता पुरते । 'तइए समए मथ करेइ ' तृतीये समये मन्थान करोनि-तृतीये समये दक्षिणोत्तरयार्दिशोरप्या मप्रदेश कपाटाकारविस्तृतैर्मन्थानाकारता शुरुते । 'चउत्पे समए लोय पूरेड' चतुर्थे समये लोकं पूरयति-चतुर्थे समये तदन्तरालपणेन सर्वलोकस्य पूरण उरुते । एव समुद्धात कुवन् केवली चतुर्भि समयैर्विश्वव्यापी भवति । एव केवली स्वात्मप्रदेशाना विस्तारणेन कर्मलेशान् समीकृत्य विपरीतकमेण समुआत्मप्रदेश दण्डाकार होते है, अर्थात् प्रथम समय में उर्वलोक एव अधोलोक के अन्त तक प्रसारित होकर आत्मप्रदेश दडाकारता को धारण करते है। (विईए समए कवाड करेड) द्वितीय समय में वे ही आत्मप्रदेश पूर्व और पश्चिम दिशा में विस्तृत होकर कपाटाकारता को धारण करते है। (तइए समए मथ करेइ) तृतीय समय मे दक्षिण और उत्तरदिशा में विस्तृत होकर मन्थान के आकार हो जाते हैं। (चउत्थे समए लोय करेइ) चतुर्थ समय में इनके अन्तराल की पूर्ति करते हुए वे समस्त लोक को पूरण कर देते है, अर्थात् समस्त लोक मे फैल जाते है। इसका नाम लोकपूरणसमुद्घात है। इस प्रकार आत्मप्रदेशों को फैलाने-रूप समुद्घात करते हुए वे केवली ४ चार समयों में विश्वव्यापी बन जाते है, पश्चात प्रसारित उन आत्मप्रदेशों को मुकुचित करते है। इस क्रिया में भी उहे ते सभुधात मारे थाय छ, (पढमे समए दद करेइ) प्रथम समयमा કેવળના આત્મપ્રદેશ દડાકાર હોય છે, અર્થાત પ્રથમ સમયમા ઉદ્ઘલક તેમજ અલાકના અંત સુધી ફેલાઈ જઈને આત્મપ્રદેશ દ ડાકોર ताने धारण ४२ छ (बिईए समए कवाड करेइ) मीन समयमा ते मामપ્રદેશ પૂર્વ અને પશ્ચિમ દિશામાં વિસ્તાર પામીને કપાટના આકારને ધારણું ४रे छ (तइए समए मथ करेइ) श्री समयमा दक्षिण तथा उत्तर हिशामा विस्तार पाभीने भन्थानना मार धारण ४२ छ (चरथे समए लोय पूरेड) ચોથા સમયમાં તેના આ તરાલની પૂર્તિ કરતા કરતા તે સમસ્ત લેકને પૂરણ કરી દીએ છે, અર્થાત્ સમસ્ત લેકમાં ફેલાઈ જાય છે આનું નામ લોકપૂણસમદુલાત છે આ પ્રકારે આમપ્રદેશના ફેલાવા રૂપ મુદ્દઘાત કરતા કરતા તે કેવલી જ સમયમાં વિશ્વવ્યાપી બની જાય છે, પછી પ્રસારેલા તે આત્મકરશને સ કશિત કરે છે આ ક્રિયામાં પણ તેને ૪ સમય લાગે છે માટે તે Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यूपपणी टीका, स० ८४ मतविषये भगवद्गीतमय सयाद ६८३ कायजोगं जुंजइ ?, ओरालियमिस्ससरीरकायजोगं जुंजइ ?, वेव्वियसरीरकायजोगं जंजइ', वेउव्वियमिस्ससरीरकायजोगं ?, जुंजइ ?, आहारगसरीरकायजोगं जुंजइ ?, आहारगमिस्ससरीरकायजोगं जुजइ ?, कम्मसरीरकायजोगं जुजइ ? । गोयमा । 'ओरालियमिस्ससरीरकायजोग जंजइ ?' औदारिकमिश्रशरीरकाययोग युङ्क्ते .' वेउच्चियसरीरकायजोग जुजइ' वैकियशरीरकाययोग युङ्क्ते ', ' वेउन्नियमिस्ससरीरकायजोग, जुजइ ?' वैकियमिश्रगरीरकाययोग युटुङ्क्ते ' ' आहारगसरीरकायजोग जंजर ?' आहार शरीरकाययोग युक्ते ''आहारगमिस्ससरीरकायजोग जज' आहारक मिथशरीरकाययोग युङ्क्ते' 'कम्मसरीरकायजोग जजइ' कार्मगशरीरकाययोग युङ्क्ते १, भगवानाह - 'गोयमा !' गौतम ' 'ओरालियसरीरकायजोग जजइ' भौदारिकfueritainaयोगको काममे लाते है ? अथवा ( ओरा लियमिस्ससरीर कायजोग जुजर) औदारिकमिश्रशरीरकाययोग को काम मे लाते है' (वेउव्वयसरीरकायजोग जुजइ ? उन्नियमिस्ससरीरकायजोग जुजइ ? जाहारगसरीरकायजोग जुजइ ? आहारगमिस्ससरीरकायजोग जुजड ? कम्ममरीरकायजोग जुजइ ?) या वेकिथिकशरीरकाययोगरूपी काययोग को काम में लाते है ' या वैकियिकमिश्रशरीर को काम म लाते है ' अथवा आहारकशरीररूपी काययोग को काम मे लाते हे', या आहारकमिश्रशरीरकाययोग को काम में काते हैं', या कार्मणशरीरकाययोग को काम मे लाते हे । भगवान कहते है- (गोयमा !) हे गौतम । (ओरालियस रकायजोग जुजः ओरालियमिस्ससरीरकायजोग जुजइ) शु मोहारि शरीरश्यी अययोगने अभभा सीमे छे ?, अथवा ( ओरालियमिस्ससरीरकायलोग जुजइ १ ) मोहाशिभिश्रशरीराययोजने जभभा दी है ? ( बेव्वियसरीरकायजोग जुजइ ? वैउव्वियमिस्समरीरकायजोग जुजइ ? आहा सरीरकायजोग जुजइ ? आहारगमिस्समरीरकायजोग जुजइ ? कम्मसरीरकायजोग जुजइ ? ) अथवा वेडियशरीर३यी जययोगने नभभा सावे छे ? अथवा વૈક્રિયમિશ્રશરીરકાયયેાગને કામમા લાવે છે? અથવા આહાકશરીરૂપી કાયચેગને કામમાં લાવે છે ? અથવા આહારમિશ્રશ૨ી૨ાયયાગને કામમા લાવે છે ? स्मथवा अर्भीयशरीरमाययोजने भभा बाचे छे ? लगवान हे छे - ( गोयमा ! ) हे गौतम । (ओरालियसरीरकायजोगं जुजइ ओरालियमिस्सकायजोग जुजइ ) ठेवसी Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओषपातिकको जंजइ ?, वयजोगं जुजइ ?, कायजोगं जुजइ ?। गोयमा । णो मणजोगं जंजइ, णो वयजोगं जुंजइ, कायजोगं जुंजइ ॥ सू०८४॥ मूलम्-कायजोगं जंजमाणे किं ओरालियसरीरसमुग्यायं गए' तथा समुद्घात गत केली ‘कि मणजोग जुजइ ?' किं मनोयोग युनक्ति । 'वयजोग जुजइ" वाग्योग युनक्ति किम् । 'कायजोग जुजइ' काययोग युनक्ति किम् ।, भगवानाह-'गोयमा!' हे गौतम ! 'णो मणजोग जुजइ' नो मनोयोग युनक्ति, 'णो वयजोग जुजइ' नो वाग्योग युनक्ति, 'कायजोग जुजई' काययोग युनक्ति ।। सू ८४ ॥ टीका-गौतम पृच्छति-कायजोग' इत्यादि । 'कायजोग जुजमाणे कि ओरालियसरीरकायजोग जुजड" काययोग युञ्जान फिमौदारिकगरीरकाययोग युक्ते । प्रकार समुद्घात अवस्था में रहनेवाला वह आत्मा कितने योगों को प्रयुक्त करता है , क्या मनोयोग को प्रयुक्त करता है ? (वयजोग जुजइ ) क्या वचनयोग को प्रयुक्त करता है ? (कायजोग जुजद ) क्या काययोग को प्रयुक्त करता है । भगवान् ने कहा (गोयमा !) हे गौतम । (णो मणजोगं जुजद, णो वयजोग जुजइ, कायजोग जुजइ) वह न मनोयोग को प्रयुक्त करता है और न वचनयोग को प्रयुक्त करता है, किन्तु एक कायजोग को ही प्रयुक्त करता है ।। सू० ८४ ॥ 'कायजोग जुजमाणे' इत्यादि। गौतम ने पुन प्रमु से पूछा कि हे प्रभु। (कायजोग जुंजमाणे) केवली काययोग को योजित करते हुए (किं ओरालियसरीरकायजोग जुजइ.) क्या औदा આ પ્રકારે સમુદઘાત અવસ્થામાં રહેવાવાળા તે આત્મા કેટલા ગેને પ્રયુક્ત ४२ छ ? शुभनायोगने प्रयुत ४२ छ ? (वयजोग जुजइ) शु क्यनयोगने प्रयुत ४२ छ ? { कायजोग जुजइ)शु ाययोगने प्रयुत ४रे छ। सगवाने उधु-(गोयमा । ) गौतम! (णो मणजोग जुजइ, णो वयजोग जुजइ, कायजोग जुजइ) ते नथी मनायोगने प्रयुत ४२, तथा नथी वयनગને પ્રયુકત કરતા પરંતુ એક કાયયોગને જ પ્રયુક્ત કરે છે (જૂ ૪) 'कायजोग जुजमाणे' छत्याहि गीत qणी पाछु प्रभुने पूछ्यु हे प्रभु! ( कायजोग जुजमाणे) वली ययोगनयोजित ४२ता ४२ता (किं ओराल्यिसरीरकायजोग जुजइ') Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषयपिणी टीका, १० ८५ कालिममुदयातविषये भगवद्गीतमयो सयाद ६८३ कायजोगं जुजइ, ओरालियसिस्ससरीरकायजोगं जुंजइ ?, वेउब्वियसरीरकायजोगं जंजइ ?, उब्वियमिस्ससरीरकायजोगं झुंजइ ?, आहारगसरीरकायजोगं जुजइ ?, आहारगमिस्सस रीरकायजोगं जुजइ ?, कम्मसरीरकायजोगं जंजइ । गोयमा। 'ओरालियमिस्ससरीरकायनोग जनइ ? ' औटारिकमिघ्रशरीफाययोग युक्ते ? 'उब्धियसरीरकायनांग जुजड वेक्रियशरीरकाययोग युक्ते , 'वेउन्चियमिस्ससरीरकायजोग, जुजइ ?' क्रियमिश्रगरीरकाययोग युक्ते । “जाहारगसरीरकायनोगं जंजा" आहारकशरीरकाययोग युक्ते । 'आहारगमिस्ससरीरकायजोग जुजई' आहारकमिश्रशरीरकाययोग युट्क्ते : 'कम्मसरीरकायजोग जुनड' कार्मगशरीरकाययोग युक्त र, भगवानाह-'गोयमा" गौतम । 'थोरालियसरीरकायजोग जजई औदारिकरिकशरीररूपी काययोग को कामम लाते है । अथवा (ओरालियमिस्ससरीरकायजोग जुजइ) औदारिकमिश्रशरीरकाययोग को काम म लाते हैं। (बेउब्धियसरीरसायनोगं जुंनइ ? वेउनियमिस्ससरीरकायजोग जुजइ? आहारगसरीरकायजोग जुजद ? आहारगमिस्ससरीरकायजोग जुजड ? कम्ममरीरकायजोग जुनद १) या वैझियिकशरीरफाययोगरूपी काययोग को काम में लाते हैं - या वैक्रियिकमिश्रारीर को काम में लाते हैं अथवा आहारकशरीररूपी काययोग को काम मलाते हैं ।, या आहारकमिश्ररीरकाययोग को काम में राते हैं ।, या कार्मणशरीरकाययोग को काम में लाते है ।। भगवान कहते है-(गोयमा!) हे गौतम (ओरालियसरीरकायजोग जुजट ओरालियमिस्ससरीरकायजोगं जुजइ) शु मौ२ि४२६१२३५ ४४ययोगने आममा सामे छ ?, भया (ओरालियमिस्ससरीरकायलोग जुजइ १ ) मोहारिशभित्रयाययोगने ममा लाय? (उव्वियसरीरकायजोगं जुजइ? उध्वियमिस्ससरीरकारजोग जुजइ ? आहागसरीरकायलोग जुजइ ? आहारगमिस्ससरीरकायजोग जुजइ ? कम्मसरीरमायजोग जुजइ) अथवा वैठियशरी२३पी अययागने ममा साकेछ ? सरका ક્રિયમિશ્રશરીરકાયયોગને કામમાં લાવે છે? અથવા આહારકશરીરરૂપી કાયયોગને કામમાં લાવે છે ? અથવા આહારકમિશગીરકાયયોગને કામમાં લાવે છે? मया मधुशरीरययोगने क्षममा सा छ ? मकान ४-(गोयमा!) गौतम । (ओरालियसरीरकायजोग जुजइ ओरालियमिस्सकायनोग जुजइ) क्षी Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकबरे ओरालियसरीरकायजोगं जंजइ, ओरालियमिस्ससरीरकायजोग । पि जुजइ, णो वेउब्वियसरीरकायजोगं जुजइ, णो वेउन्वि यमिस्ससरीरकायजोगां जुजइ, णो आहारगमिस्ससरीरकायजोगं झुंजइ, कम्मसरीरकायजोगपि जुजइ। पढमहमेसु समएसु शरीरकाययोग युङ्क्ते, 'ओरालियमिस्ससरीरकायजोगं जंजइ, औदारिकमिश्रशरीर-- काययोगमपि युक्ते, 'णो वेउब्वियसरीरकायजोग जजइ' 'नो वैकियशरीरकाययोग युडक्ते, 'जो उचियमिस्ससरीरकायजोग मुंजइ' नो क्रियमिश्रशरीरकाययोग युक्ते, 'णो आहारगसरीरकायजोग जुजइ 'नो आहारकशरीरकाययोगयुक्ते, 'गो आगरगामस्ससरीरकायजोग जुजइ' नो आहारकमिश्रशरीरकाययोग युङ्क्ते, 'कम्मसरीरकायमोग जुजद' कार्मणशरीरकाययोगमपि युक्ते । पहममेसु समएसओरालियसरीरकायमा गपि जुजई'प्रथमाऽष्टमयो समययोरौदारिकशरीरकाययो गमपि युक्ते, 'विइयछट्ठसलमेर केवली भगवान् औदारिकशरीरकाययोग को काम में लाते है, तथा औदारिकमिश्रशरीरकाययोग को भी काम मे लाते है । (जो वेडब्बियसरीरकायजोगं जुजड, णो वेउन्धियमिस्ससरीरकायजोग जुजद, णो आहारगसरीरकायजोग जुजइ, णो आहारगमिस्ससरीरकाजोग जुजद, कम्मसरीरकायजोगपि जुजइ) वैक्रियशरीरकाययोग, वैक्रियमिश्रशरीरकाययोग, आहारकशरीरकाययोग, आहारकमिश्रशरीरकाययोग इनको काम में नहीं लाते । परन्तु कार्मणशरीरकाययोग को वे काम मे लाते है । (पढमहमेसु समएसु ओरालियसरीरकाय. भोग जुजइ विइयछद्रुसत्तमेसु समएसु ओरालियमिस्ससरीरकायनोग जुनइ, तपयचउत्थपचमेहि कम्मसरीरकायजोग जुजइ ) प्रथम और आठवें समय मे तो ભગવાન ઔદારિ શરીરકાયયોગને કામમાં લાવે છે તથા ઔદારિકમિશ્રશરીરયयोगने पशु भिमा साछ (पो वेबियसरीरकायजोग जुजइ, णो वेउब्धि यमिस्ससरीरकायजोग जुजइ, णो आहारगसरीरकायजोग जुजइ, णो आहारगमिस्ससरीरकायजोग जुमइ, कम्मसरीरकायजोगपि जुजइ) वैठियशरी२४ाययोजन, ક્રિયમિશ્રશરીરકાયયેગને, આહારકશરીરડાયયોગને, આહારકમિશ્રશરીરકાય ગિને કામમાં લાવતા નથી, પરંતુ કામણશરીરકાયાગને તેઓ કામમાં લાવે છે ( पदमदमेसु समएसु ओरालियसरीरकायजोग जुजड़, विइयछटुसत्तमेसु समासु ओरालियमिस्ससरीरकायजोग जुजइ, तइयच उत्थपघमेहिं कम्मसरीरकायजोग जुजइ) Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ freefunt टीका ८५ पेलिसमुदघातविषये भगवद्गीतमयो सयाद ६८५ ओरालियसरीरकायजोगं जुंजइ, बिडयछट्टसत्तमेसु समएसु ओरालियमिस्ससरीरकायजोगं जुंजड, तइयवउत्थपंचमेहिं कम्म - सरीरकायजोगं जुंजइ ॥ सू० ८५ ॥ मूलम् से णं ते! तहा समुग्धायगए सिज्झइ ओरियमिस्ससरीरकायजोगं कुंजर' द्वितीयपसप्तमेषु समयेषु औदारिकमिश्रशरीर-काययोग युद्दक्ते, मिश्रव चार फार्मणेनैव सहौहारिकस्यावस्थानात् । ' तयचउत्थषचमेि कम्मसरीरकायशोग जुजड' तृतीयचतुर्थपञ्चमेषु समयेषु कार्मणशरीरकाययोग युङ्क्ते ॥ ८५ ॥ टीका- 'से णं भते इत्यादि । 'से ण भंते 'तहा समुग्धायगए' स खलु भदन्त ' narendraपी काययोग को वे काम म लाते है, दूसरे, छठे एव सातवे समय में औदारि मिश्रशरीरकाययोग को काम में लाते है, एव तीसरे, चौथे एव पचम समय में कार्मशरीररूपी काययोग को काम में लाते है । भावार्थ- काययोग ७ प्रकार का है। उनमें औदारिकगरीरकाययोग, औदारिक मिश्रशरार काययोग एव कार्मणशरीरकाययोग ये ३ तीन योग केवली के होते हैं । बाकी के ४ काययोग केवली के नहीं होते है । प्रथम और आठवें समय में औदारिकगरीरकाययोग होता है, द्वितीय, उठवें और सातवे समय में औदारिकमिश्रशरीरकाययोग होता है और तीसरे, चौथे एव पाचवे समय में उनके समुद्रात अवस्था मे कार्म गगरीररूपी काययोग होता है | सू० ८५ ॥ પ્રથમ તથા આઠમા સમયમા તે ઔદારિશરીરરૂપી કાયયેાગને તે કામમા લાવે છે. બીજા, છઠ્ઠા તેમજ સાતમા સમયમા ઔદારિકમિશ્નશીરકાયયેગને કામમા લાવે છે, તેમજ ત્રીજા, ચોથા અને પાચમા સમયમાં કાણુશરીરરૂપી કાયયેાગને કામમાં લાવે છે ભાવા ----ાયયાગ ૭ પ્રકારના છે, તેમા ઔદારિશરીર૰ાયયાગ, ઔદ્યારિક મિશ્રશરીરકાયયેાગ, તેમજ કાર્મ શરીરકાયયાગ, આ ત્રણ યાગ કેવલીના હાય છે બાકીના ૪ કાયસેગ કેવલીના હોતા નથી પ્રથમ અને આઠમા સમયમા ઔદારિકાયસેગ હોય છે બીજા, છઠ્ઠા અને સાતમા સમયમાં ઔદાકિમિશ્રશીકાયયેાગ હોય છે, અને ત્રીજા, ચેાથા તેમજ પાંચમા સમયમા તેમની સમુદ્ઘાત-અવસ્થામાં કાણુશરીરરૂપી કાયયેાગ હોય છે . ( સ ૮૫) Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुज्झइ मुच्चइ परिणिव्बाइ सव्वदुक्खाणं अंतं करेइ ? जो इण समहे । से णं तओ पडिणियत्तइ, पडिणियत्तित्ता इहमागच्छइ, तओ पच्छा मणजोगपि जुंजइ, वयजोगपि जुंजइ, कायजोगपि जुंजइ ॥ सू० ८६ ॥" तथा समुद्घातगत -हे भदन्त ! स सलु तथा समुद्घातगत कृतसमुद्घात केवली 'सिजाइ पुजार मुच्चर परिणिन्याइ सम्बदुक्खाणमत करेइ ? सिध्यति, बुभ्यते, मुच्यते, परिनिवाति, सर्वदु खानामन्त करोति किम् १, भगवानाह-'णो इणद्वे समडे' नाऽयमर्थ समर्थ ! “से ' स खल 'तो' तत समुद्घातात् 'पडिणियत्तई' प्रतिनिवर्तते, 'पडिणियत्तित्ता' प्रतिनि वर्त्य 'इहमागन्छइ' इहाऽऽगच्छति-शरीरस्थो भवति । तमो पन्छा' तत पश्चात्, 'मणजोगपि जुनई' मनोयोगमपि युक्ते, 'वयजोगपि जुजई' वाग्योगमपि युक्ते 'कायजोगं पि जुजई' काययोगमपि युक्ते ॥ सू० ८६ ॥ _ 'से ण भते ! इत्यादि। (भते) हे भदत (से ण तहा समुग्यायगए) समुद्घात अवस्था में केवली भगवान् (सिज्झइ घुज्झइ मुच्चइ परिणिधाइ) सिद्ध, बुद्ध, मुक्त एव परिनिर्वाण हो (सबदुक्खाण अत करेइ) क्या समस्त दुखो का अत करते है। प्रमु ने उत्तर दिया कि (गोयमा) हे गौतम ! (णो इणद्वे समडे) यह अर्थ समर्थित नहीं है। (से ण तओं पडिणियत्तइ, पडिणियचित्ता इहमागच्छद, आगच्छित्ता तो पन्छा मणजोग पि जुंजइ, वयजोग पि जुजइ, कायजोग पि जुजइ) किन्तु जब वे समुद्घात कर चुकते हैं 'से ण भवेत्यादि (भते ।) मत (से ण समुग्यायगए) समुदधात अवस्थामा FReी मगवान् (सिज्झइ, बुज्झइ, मुच्चइ, परिणिन्वाइ) सिद्ध, मुद्ध, मुत तभ०४ परिनिवाए धन (सव्वदुक्साण अंत करेइ) शु समस्त माना मत ४२ छ १ प्रभुये उत्तर माध्यो (गोयमा ! ) गौतम (णो इणट्टे समढे) मा म समर्थित नथा (से ण तओ पडिणियत्तइ, पडिणि यत्तिता इहमागच्छइ, आगच्छित्ता तओ पच्छा मणजोग पि जुजइ, वयजोगपि जुजइ, कायजोग पि जुजइ) ५२तु न्यारे समुहधात श युहेछ अर्थात् त કિયાથી નિવૃત્ત થઈ જાય છે અને પૂર્વ પ્રમાણે શરીરમાં સ્થિત થઈ જાય છે ત્યારે Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - पीयूषवषिणी-टीका र ८६ फेयलिसमुद्घातथिपये भगयगौतमयो संपाद ६८७ मूलम्--मणजोगं जुजमाणे किं सच्चमणजोगं जुजइ ? मोसमणजोगं जुजइ ?, सच्चामोसमणजागं झुंजइ ?, असञ्चामा टीका-गौतम पृष्ठति-"मणजोग" इयादि । 'मणजोग जुजमाणे किं सचमणजोग जुंजड' मनोयोग युनान किं स यमनोयोग युक्त ? 'मोसमणजोगजुजइ?? मृपामनोयोग युक्ते । 'सचामोसमणजोग जुजई सयमपामनोयोग युक्ते किम् , भगवाअर्थात् उस क्रिया से निवृत्त हो चुकते है और पूर्ववत् शरीर में स्थित हो जाते हैं तब मनोयोग को भी प्रयुक्त करते हैं, वचनयोग को भी प्रयुक्त करते है तथा काययोग को भी प्रयुक्त करते है । समुदधात-अवस्था में मरण नहीं होता । अत मुक्ति की प्रामि उस समय नहीं होती । सू० ८६ ॥ 'मणजोग जुजमाणे इत्यादि । प्रश्न- हे भदन आपने जो अभी यह बात कही है कि समुद्घात से निवृत्त होने पर केवली भगवान् मनोयोग को प्रयुक्त करते है सो इस विषय में यह पूछता है कि वे भगवान् (मणलोग जुजमाणे) मनोयोग को प्रयुक्त करते हुए चार मनोयोगों में से कौन से मनोयोग को प्रयुक्त करते हैं (किं सचमणजोग जुजइ, मोसमणजोग जुजा, सचामोसमणजोग जुजइ, असचामोसमणजोग जुजइ?)सयमनोयोग को प्रयुक्त करते हैं, या असत्यमनोयोग को प्रयुक्त करते हैं, अथवा मिश्रमनोयोग को प्रयुक्त करते हैं, असत्यमृपामनोयोग को प्रयुक्त करते हैं ? अर्थात् व्यवहारमनोयोग को प्रयुक्त करते हैं । (गोयमा !) हे गौतम ! (सच्चમગને પણ પ્રયુક્ત કરે છે, વચનગને પણ પ્રયુક્ત કરે છે તથા કાયયેગને પણ પ્રયુક્ત કરે છે સમુદઘાત અવસ્થામાં મરણ થતુ નથી તેથી મુક્તિની પ્રાપ્તિ તે સમયે થતી નથી (સૂ ૮૬). 'मणजोग जुजमाणे ' त्या પ્રશ્ન–-હેમદન ! આપે જે હમણા એ વાત કહી છે, કે સમુદ્દઘાતથી નિવૃત્ત થતા કેવલી ભગવાન મને યોગને પ્રયુક્ત કરે છે માટે એ વિષયમાં એ પણ છુ ते पान (मणजोग जुजमाणे) भनायागने प्रयुत ४२ यार मनायगभायी ४या भनायाने ४१४२ छ? (कि सच्चमणजोग जुजइ १ मोसमणजोग जुजह सघामोसमणजोग जुजइ ? असच्चामोसमणजोग जुजइ १) सत्य મને યોગને પ્રયુકત કરે છે? અથવા અસત્યમાગને પ્રયુક્ત કરે છે અથવા મિશ્રમને વેગને પ્રયુક્ત કરે છે કે અસત્યસૃષિામનગને પ્રયુકત કરે છે मात् पहारमनायाने प्रयुत ४३ ७१ 612--(गोयमा !) है Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬૮ averfree समणजोगं जुंजइ ? गोयमा । सच्चमणजोगं जुंजइ, णो मोसमणजोगं जुंजइ, जो सच्चामोसमणजोगं जुंजइ, असच्चामोसमणजोगं पि जुंजइ ॥ सू० ८७ ॥ मूलम् -- वयजोगं जुंजमाणे किं सच्चवइजोगं जुंजइ १ नाह - 'गोयमा । सचमणजोग जुजइ' गौतम सत्यमनोयोग युक्ते, 'णो मोसमणजोग जुंज' नो मृषामनोयोग युके 'गो सचामोसमणजोग जुजई' नो संयमृषामनोयोग युङ्क्ते, 'असचामोसमणजोगपि जुजइ' असत्याऽमृपामनोयोगमपि युङ्क्ते ॥ सू० ८७ ॥ टीका--गौतम पृच्छति-'त्रयजोग' इत्यादि । 'वयजोग जुंजमाणे किं सचचइजोग जुजइ' वाग्योग युनान किं सत्यवाग्योग युङ्क्ते ' 'मोसवइजोग जुजइ' मृषावा मणजोग जुजइ) वे केवली सत्यमनोयोग को प्रयुक्त करते हैं, (णो मोसमणजोग जुजइ णो सच्चामोसमणजोग जुजइ, असच्चामोसमणजोगं जुजर) अस यमनोयोग एव मिश्रमनोयोग को प्रयुक्त नहीं करते है, किन्तु असत्यामृपामनोयोग को प्रयुक्त करते हैं, अर्थात् व्यवहार मनोयोग को प्रयुक्त करते है । सत्यमनोयोग एव व्यवहारमनोयोग को वे केवली प्रयुक्त करते है, अन्य दो को नहीं || सू० ८७ ॥ 'बजोग जजमाणे' इत्यादि । प्रश्न -- हे भगवन् ! वे केवली जो ( वयजोग जुजमाणे किं) वचनयोग को प्रयुक्त करते है सेा क्या (सच्चत्रइजोग जुजइ, मोसवइजोग जुजइ, सचामोसवइजोग जुजर, असन्चामोसवइनोग जुजइ) सत्यवचन योग को प्रयुक्त करते है, या असत्यवचन गौतम ! ( सच्चमणजोग जुजइ ) ते ठेवणी सत्यमनायोगाने प्रयुक्त रे ( णो मोसमणजोग जुजद्द, जो सच्चामोसमणजोग जुजइ, असच्चामोसमणजोग जुजइ) असत्यभनोयोग तेभन मिश्रमनोयोगने प्रयुक्त उश्ता नथी, परंतु અસત્યામૃષામનાયેાગને પ્રયુકત કરે છે અર્થાત્ વ્યવહારમનેયાગને પ્રયુકત કરે છે. સત્યમને યાગ તેમજ વ્યવહારમનાચેાગને તે કૈવલી પ્રયુક્ત કરે છે મૌજા એને નહિ (સૂ ૮૭) ' बबजोग जुनमाणे ' छत्याहि अन-डे लगवन् ! ते ठेवली हे ? (वयजोग जुजमाणे) पथनयोगने प्रयुक्त ४रे छे, ते शु ( सच्चवइजोग जुजद्द, मोसवइजोग जुंजइ, सच्चामो Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पीयूषयपिणी-टोका ८८ फेयलिसमुद्घातविषये भगवद्गीतमयो मयाद ६८९ मोसवइजोगं जुजइ १ सञ्चामोसवइजोगं जुजइ ? असचामोसवइजोगं जुजइ ? सच्चवडजोगं गँजड, णो मोसबइजोगं मुंजइ, णो सच्चामोसवइजोगं जुंजइ,असच्चामोसवडजोगं पि जुंजइ॥सू०८८॥ ___ मृलम्-~- कायजोगं जुजमाणे आगच्छेज वा चिट्टेन ग्योगयुङ्क्ते 'सच्चामोसबइजोग जुजई' सत्यमृपावाग्योग युक्ते "असच्चामोसवइजोग जुज' अस याऽमृपाराग्योग युङ्क्ते किम् । भगवानाह-'गोयमा सचडजोग मुंजड ?' गौतम ! सयवाग्योग युक्ते, 'यो मोसवइजोग जुंजई नो मृपावाग्योग युक्ते, णो सच्चामोसवइजोग जुजट'नो सत्यमृपाचाग्योग युक्ते, असञ्चामोसवइजोगं पि जुजइ' असयाऽमृषावाग्योगमपि युक्ते ॥ सू० ८८ ॥ टीका-'कायजोग' इत्यादि । 'कायजोग जुजमाणे आगच्छेज वा चिट्ठज्ज वा' काययोग युञ्जान आगच्छति वा तिष्ठति वा, 'गिसीएज वा निपीदति-उपविशति या, योग को प्रयुक्त करते हैं, अथवा मिश्रवचनयोग को प्रयुक्त करते है, या असल्यामृपावचनयोग को प्रयुक्त करते है ? उत्तर-(गोयमा) है गौतम । (सच्चाइजोग जुजइ) वे केली स यवचनयोग को प्रयुक्त करते है, (गो मोसवइजोग जुजइ णो सच्चामोसवडजोग जुजइ) असत्यवचनयोग को एव मिश्रवचनयोग को प्रयुक्त नहीं करते है । (असचामोसवहजोगपि जुजइ) परन्तु असत्यामृपावचनयोग को प्रयुक्त करते है। चार वचनयोगों मे से केवली के सत्यवचनयोग एव असत्यामृपावचनयोग दो ही वचनयोग होते है, बाक के दो नहीं ।। सू० ८८ ॥ सबइजोग जुजइ, असचामोसवइजोग जुजइ) सत्यपयनयोगने प्रयुत ४२ छ, અથવા અસત્યવચનયોગને પ્રયુકત કરે છે, અથવા મિશ્રવચનગને પ્રયુકત કરે छ, अथवा सत्याभूषापयनयोगने प्रयुत ४२ छ ? उत्तर-~-( गोयमा !) उ गौतम । (सन्चवइजोग जुजइ) ते पक्षी सत्यपयनयाने प्रयुक्त ४२ छ (णो मोसवइजोग जुजइ णो सन्चामोसवइजोग जुजइ ) सत्यपयनयोगने तमा भिपयनयाने प्रयुत ४२ता नथी, ( अमच्चामोसवइजोगपि जुजइ) परन्तु એ ત્યામૃષાવચનગને પ્રયુક્ત કરે છે. ચાર વચનોમાથી કેવલીના સત્યવચનગ તેમજ અસત્યામૃષાવચનયોગ બે જ માત્ર વચનગ હોય છે माडी नडि (सू ६८) Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९० औपपातिक सूत्रे वा णिसीएज वा तुयहेज्ज वा उल्लंघेन वा पहुंचेज वा उक्खेषणं वा पक्वणं वा तिरियक्खेवणं वा करेजा, पाडिहारियं वा, पीढफलगसेज्जासंथारगं पञ्चप्पिणेजा || सू० ८९ ॥ 'तुयहेज्न वा' त्वग्वर्तयति = शयन करोति वा 'उल्लवेज्ज ना' उहह्वयति गर्तादिक वा, 'पलघेज्ज वा' प्रोहयति था, उक्खेवणं ना' उत्क्षेपणम् = ऊर्ध्वगमन वा, 'पवखेवणं वा' प्रक्षे पण = नीचैर्गमन वा, 'तिरियक्रखेवण ना' तिर्यक्क्षेपण= तिर्यग्गमन वा 'करेज्जा' करोति, 'पाsिहारिय वा पीढ - फलग - सेज्जा-सधारग पञ्चप्पिणेजा' प्रतिहार्य या पीठफलकशय्यासस्तारक प्रत्यर्पयति ॥ सू० ८९ ॥ - 'कायजोग जुजमाणे' इत्यादि । हे गौतम (कायजोग जुजमाणे आगच्छेज्ज वा चिद्वेज्ज वा णिसीएज्ज वा तुयहेज्ज वा उल्लघेज्ज वा पल्लवेज्न वा) इस काययोग को प्रयुक्त करते हुए वे आते हैं, जाते हैं, ठहरते है, उठते है, बैठते हैं, सोते है, करवट बदलते है, उल्लघन करते हैं, प्रल्घन करते हैं, (उक्खेवणं वा पक्खेवण वा तिरियक्खेवण वा करेज्जा) उत्क्षेपण करते है, प्रक्षेपण - हाथपैर को ऊपर-नीचे करते है, तिरछे गमन करते है, (पाडिहारिय वा पीढफलगसेजासारग पञ्चपिज्जा ) काम निकल जाने के बाद प्रातिहार्य पीठ, फलक, शय्या, एव सथारे को पीछे देते है | सू० ८९ ॥ " कायजोग जुजमाणे " त्यिाहि હે ભદન્ત ! કાયસેગ પ્રયુક્ત ફરતા કેવળી ભગવાન્ શુ શુ કામ કરે ४१ ड्डे गौतम ! ( ( कायजोग जुजमाणे आगच्छेज्ज वा चिट्टेज्ज वा णिसीएज्ज वा तुयट्टेन्ज वा उल्लघेज्ज वा पल्लघेज्ज वा ) मे अययोजने प्रयुक्त उश्ता तेमा आवे छे, लय छे, रोय छे, छे, जैसे छे, सुपे छे, उरवट पहले छे, उधन रे छे, अस धन हरे छे (उक्खेवण वा पक्खेवण वा तिरियक्रखेवण वा करेज्जा ) उत्क्षेप उरे छे, प्रक्षेपणु-हाथपत्र ( था-नीया रे छे, तिरछा ( आडु -अवगु ) जभन उरे छे, ( पाडिहारिय वा पीढ-फलग - सेज्जा-सथारग पच्चपिणेज्जा ) अभ थ गया पछी प्रातिहार्य ४ थी, इस४, शय्या, तेभन સથારાને પાછા મુકી દે છે ( સૂ ૮૯) Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषयषिणी-टीका स ९० येयलिममुद्घातविषये भगवद्गीतमयो' सयाद ६९१ मूलम्-~-से णं भंते! तहा सजोगी सिझड़ जाव अंतं करेइ ? णो इणडे समहे ॥ सू० ९० ॥ मूलम्- से णं पुवामेव सपिणस्स पंचिंदियस्स पज टीकापौतम पृष्ठनि-'से ण भंते " हयादि । 'से णं भते 'तहासजोगी' स खल भदन्त । तथा सयोगी 'सिज्मइ सि यति किम् 'जाव' यावत् 'सबदुक्खाणमतं करेई सर्वदु खानामन्त करोनि किम् ? । भगानाह-'यो इणढे सम?' नाऽयमर्थ समर्थ ॥ सू० ९० ॥ टीका--'से णं पुन्चामेव' इत्यादि । 'मे ण' स केवली खल 'पुवामेत्र पूर्वमेव योगनिरोरावस्थाया आदावेच 'संण्णिस्स पचिदियम्स' सजिन पञ्चेन्द्रियस्य, अत्र पञ्चेन्द्रियस्येति विशेषण मजिस्वरूपप्रदर्शनार्थ, पञ्चेन्द्रियस्यैव मनिवात् , 'पजत्तगस्स' पयाप्तकस्यमन पर्याप्या पर्यापस्येत्यय , अन्यपर्यापस्य मनसोऽभावात् । स च मध्यमादिमनोयोगोऽपि 'सेज भते !' इत्यादि। (भते ! ) हे भदन । (मे वहा सजोगी) वे केला ऐसी सयोगी अवस्था में रहते हुए (सिज्झइ जाव अत करेड) सिद्ध, बुद्ध, मुक्त एव परिनिर्माण हो समस्त दुखों का अन्त करते हैं क्या ? उत्तर-ह गौतम ! (णो इणद्वे समढे) यह अर्थ समर्थित नहीं है । अर्थात सयोगिकेवली कर्मों का अन्त नहीं करते ! ॥ सू० ९० ।। ___ 'से ण पुन्बामेव' इत्यादि। (से ण) ये सयोगी काली भगवान् (पुन्नामेव) पहिले (सपियस पचिदियस्स पजत्तगस्स) मजी पचेन्द्रिय पर्यातक के (जहण्णजोगस्स हेढा) जघन्यमनोयोग से भी नीचे 'से ण भते ।' त्या (भते । ) & Mrt ! (से तहा सजोगी) ते पसी मेवी सी -244 स्थामा रहेता (मिज्झइ जार अत करेइ) सिद्ध, शुद्ध, भुत, तेभ परिनिपाय / भन्तपने भुमत ४२ छ ? उत्तर- गौतम। (णो इणद्वे सम8) मा अर्थ समर्थित नथी, मर्यात सय वटी भाना मत ४स्ता नथी (सू. ८०) “से ण पुवामेव " त्यात (से ण) ते सयाजी उपटी मसान् (पुवामेव) पक्षा (सण्णिस्स पचिंदियस्स पज्जत्तगस्स) सही पयेन्द्रिय पर्यातजना (जहणजोगरस हेढा) Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९० औषपातिकको वा णिसीएज वा तुयटेज वा उहंधेज वा पल्लंधेज वा उक्खेवणं वा पक्खेवणं वा तिरियक्खेवणं वा करेजा, पाडिहारियं वा, पीढफलगसेज्जासंथारगं पञ्चप्पिणेज्जा ॥ सू० ८९ ॥ 'तुयटेज वा त्वग्वर्तयति-शयन करोति वा 'उल्लवेज या उलस्यति-गादिकं वा, 'पल्लघेज ग' प्रोल्लधयति वा, उरखेवण ।' उक्षेपणम् ऊर्वगमन वा, 'पक्खेवण वा' प्रक्षे पण-नीर्गमन वा, 'तिरियक्खेवण वा' तिर्यरक्षेपण-तिर्यग्गमन वा 'करेजा' करोति, 'पाडिहारिय वा पीढ-फलग-सेज्जा-सथारग पञ्चप्पिणेना' प्रतिहार्य वा पीठफलकशय्यासस्तारक प्रत्यपेयति ॥ सू० ८९ ।। - 'कायजोग जुजमाणे इत्यादि । हे गौतम (कायजोग जुजमाणे आगच्छेज वा चिटेज वा णिसीएज वा तुयहेज वा उल्लघेज वा पल्लघेज वा) इस काययोग को प्रयुक्त करते हुए वे आने हैं, जाते है, ठहरते है, उठते है, बैठते है, सोते है, करवट बदलते हैं, उल्लघन करते है, प्रल्धन करते हैं, (उक्खेवणं वा पक्खेवण वा तिरियक्खेवण वा करेजा) उत्क्षेपण करते है, प्रक्षेपण-हाथपैर को ऊपर-नीचे करते हैं, तिरछे गमन करते है, (पाडिहारिय वा पीढफलगसेन्जासथारग पञ्चप्पिणेज्जा) काम निकल जाने के बाद प्रातिहार्यक पीठ, फलक, शय्या, एवं सथारे को पीछे देते है । सू० ८९ ॥ "कायजोग जुजमाणे" त्यात હે ભદન્ત! કાગ પ્રયુક્ત કરતા કેવળી ભગવાન્ શુ શુ કામ કરે छ? गौतम! (( कायजोग जुजमाणे आगच्छेज्ज वा चिटेज वा णिसीएज्ज वा तुयटेज्ज वा उल्लघेज्ज वा पल्लज्ज वा) में ययोगने प्रयुत ४२ता ते। भाव छ, नय छ, ४ाय छ, छ, मेसे छ, सुवे छे, ४२१ट मह छ, Gधन ४२ छ, प्रसाधन ४२ छ ( उक्खेवण वा पक्खेवण वा तिरियखेवण वा करेज्जा ) प ४२ छे, प्रक्षेप-६५५५ या-नया ४रे छ, तिरछ। (ई-मणु ) गमन करे छे, (पाडिहारिय वा पीढ-फलग सेज्जा-सथारग पच्चप्पिणेज्जा) भ ई गया पछी प्रातिलाय ४ थी8, शय्या, तमा સ થારાને પાછા મુકી દે છે ( ૮૯) Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषषपिणी टीका स ९० पेयलममुपाविषये भगवद्गोतमयो मयाद ६९१ मूलम् - से णं भंते । तहा सजोगी सिज्झइ जाव अंत करे ? णो इणट्टे समट्टे ॥ सू० ९० ॥ मूलम् - से णं पुव्वामेव सपिणस्स पंचिंदियस्स पज टीका- गौतम पृच्छति' से ण भंते " इयादि । 'से ण भते । तहा सजोगी' सस मदत ! तथा सयोगी 'सिज्झइ' सिग्यति किम् 'जाव' यावत् 'सव्चदुक्खाणमतं करेड' सर्वदु खानामन्त करोति किम् । भगवानाह - 'णो इणट्टे समट्टे' नाऽयमर्थ समर्थ ॥ सू० ९० ॥ टीका--' से ण पुव्वामेव' इत्यादि । 'से ण' स केवली खलु 'पुव्वामेव' पूर्वमेव = afratern arts 'सणिस्स पंचिदियस्स' सजिन पञ्चेन्द्रियस्य, अत्र पञ्चेन्द्रि यस्येति विशेषण मज्ञिस्वरूपप्रदर्शनार्थ, पञ्चेन्द्रियस्यैव सनिवात्, 'पज्जत्तगस्स' पर्याप्तकस्य मन पर्याच्या पयामस्येत्यर्थ', अन्यपर्यामस्य मनसोऽभावात् । स च मध्यमादिमनोयोगोऽपि 'से ण भत्ते !' इत्यादि । (भते 1 ) हे भदत ' ( से तहा सजोगी) वे केली ऐसी सयोगी अवस्था में रहते हुए (सिज्झइ जान अत करेइ) सिद्ध, बुद्ध, मुक्त एव परिनिर्वाण हो समस्त दुखों का अन्त करते हैं क्या ? उत्तर-ह गौतम ! (जो इणट्टे समट्ठे ) यह अर्थ समर्थित नहीं है । अधात् सयोगिकेवली कर्मों का अन्त नहीं करते ' ॥ मू० ९० ॥ 'से ण पुवामेव' इत्यादि । (सेज) ये सयोगी कवली भगवान (पुन्त्रामेव ) पहिले (सण्णिस्स पचिदियस्स स) मी पचेन्द्रिय पर्यानिक के (जहण्णजोगस्स हेट्टा ) जघन्यमनोयोग से भी नीचे ' से ण भते ।' त्याहि (भते 1 ) हे लहन्त ! ( मे तहा सजोगी ) ते ठेवसी मेषी सयोगी-मव स्थामा रहेता (सिज्झs are ad करेs ) सिद्ध, शुद्ध, मुक्त, तेभन परिनि વૌણુ થઇ સમસ્ત હું ખને શુ અત કરે છે ? ઉત્તર-~~~šગૌતમ! (ૌ इट्टे समट्ठे ) मा अर्थ समर्थित नथी, अर्थात् सयोगी ठेवली भनि। मत ४श्ता नथी ( सू 60 ) " से ण पुव्वामेव " छत्याहि ( से ण ) ते सयोगी डेक्सी लगवान् (पुव्वामेव ) थडेला ( सण्णिस्स पचिदियस्स पज्जत्तगस्त ) सज्ञी येन्द्रिय पर्याप्तठना ( जहण्णजोगग्म देहा) Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९४ জীবনি हस्सपंचस्वरुच्चारणखाए असंखेजसमइयं अंतोमुहत्तियं सेलेसि पडिचजइ, पुबरइयगुणसेढीयं च णं कम्मं तीसे सेलेसिमडाए अयोगच प्रामोति, 'अयोगतं पाउणिवा'" अयोग प्राप्य, 'इसिंहस्सपंचक्रवरचारणदाए' ईपद्धत्वपञ्चाक्षरोचारणादायाम-ईपत्-अन्पानि, यानि एस्चानि पञ्चाक्षराणि तेपा यदुचारण तस्य याऽद्धा-काल. सा तथा तस्याम्, इन्दमुभारण न त न विलम्बित किन्तु मध्यममेव गृह्यते, 'असखेज्जसमइय' मारयेयसमयिकाम, 'अतीमुहुत्तिय आन्तहिर्तिकी 'सेलेसि' शैलेगी-शैलानामी शैलेशो मेरु, तम्येव या स्थिरता साम्याध वस्था सा शैलेशी ताम् , अथवा-जीलेश सर्वमपररूपचारित्रवान् , तस्येयमवरया योगनिरोधरूपा शैलेगी ता, शैलेश्यवस्थाया केली वेदनीयादिकर्मचतुष्टय क्षपयति, तत्प्रकारमाह'पुन्चरइय' इत्यादि । 'पुन्चरइयगुणसेढीय च णं कम्म' पूर्वरनितगुणश्रेगिकं च कमे, पूर्व-शैलस्यवस्थाया प्राग रचिना 'गुणश्रेणी यस्य तत्तथा, का नाम गुणश्रेणी । उच्यतेणइ)अयोगि-अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं, (पाउणित्ता ईसि-हस्स-पचक्खर-चारण, द्धाए असखेजसमइय अंतोमुहुत्तिय) अयोगी अवस्था को प्राम हो जाने के बाद हरवं पाच अक्षर के उच्चारण काल-प्रमाण समय में, अर्थात् अनरयात 'समय के अतर्मुहूर्त जैसे काल म (सेलेसि पडिवज्जइ) वे शैलेशी अवस्था को प्राप्त करते हैं, अथवा 'सर्व कर्मों के म्वरूप चारित्र वाले की अवस्था को-योगनिरोधरूप अवस्था को प्राप्त करते है । इस शैलेशी--अवस्था में केवली किस प्रकार से वेदनीय आदि चार अंघानिया 'कर्मों को क्षय करते है, दम बात को प्रगट करते हुए सूत्रकार कहते है कि (पुन्चरइयगुणसेढीय च ण सम्म तीसे सेलेसिमद्धार असखेजाहिं 'गुणसेढीहि अणते कम्मसे खवयते) शैलेशी अवस्था के पहिले जिन कर्मों की गुणश्रेणी रची जाय वे गुणश्रेगिक कर्म है । गुणछ (पाउणित्ता ईसिंहस्सपचस्वरुच्चारणद्धाए असखेजसमइय अतोमुहुत्तिय) અગી-અવસ્થાને પ્રાપ્ત થઈ ગયા પછી હસ્ત્રાપાચ અક્ષરના ઉચ્ચારણકાલપ્રમાણુ સમયમા, અર્થાત અસ ખ્યાત સમયનો અતિમુહૂત જેવા કલમ (सेलेसिं पडिवज्जइ) तो शैदेशी भस्थान प्रा ४२ छ, अथवा । सर्व કમેના સ વરરૂપ ચારિત્રવાળાની અવસ્થાને-ગનિરોધરૂપ અવસ્થાને પ્રાપ્ત કરે છે આ શૈલેશી અવસ્થામાં કેવલી કેવા પ્રકારથી વેદનીય આદિ ચાર અઘાતિયા કને ક્ષય કરે છે? એ વાતને પ્રકટ કરતા સૂત્રકાર કહે पुल्चरइयगुणसेढीय च ण कम्मं तीसे सेलेसिमद्धाए असखेग्नाहिं गुणसेढीहि अपते कम्मसे सवयते) 2ी सस्थानी साने मानी शुश्रेए। २थी Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूपवर्षिणी-टीका ९२ पेलि सिद्धिगतिप्राप्तिमनिरूपणम् ६९५ तथैव को यत् केवलिनो वेदनीयादिक चतुर्विध कर्म कालान्तरवेद्य स्थित वर्तते, तस्य गीनतरक्षपकमेण प्रतिसमय पूर्वपूर्वापेक्षया उत्तरोत्तरमन्यातगुणवृद्धच्या गुणीकृत्य स्वन्प, यहु, बहुतर, बहुत्तमम्-इति श्रेणीरूपेण स्थितिखण्ड रचयति । इदमत्र स्पष्टीकरणम् - गुणश्रेणीरचनाया प्रथमसमये कर्मदलिक स्वल्प गृह्यते द्वितीयसमये पूर्वा पेक्षया अमन्यातगुणित दल्कि गृह्यते, तृतीयसमये ततोऽप्यसख्यातगुणित कर्मदलिक गृयते, एवमुत्तगेत्तरमसरयातगुणया कर्मढलिक रचयति । एवं कर्मदलिकरचन तावहाय, यावदन्तर्मुहर्त चम्मसमयम् । तच्चान्तर्मुहुर्तमपूर्वकरणानिवृत्तिकरणकालाभ्या स्तोकाभ्यधिक वदितव्यम् । अय कर्मपुद्गलाना रचनाविशेयो " गुणश्रेणी "त्युच्यते । 'तीसे + श्रेणी किसे कहते है ' इस बात को प्रकट किया जाता है - कालान्तर में वेदन करन योग्य जो वेदनीयादिक चार कर्म अभी अपशिष्ट है उन्हे भीतर क्षपण करने के निमित्त उनके दलिया को क्रम से प्रतिममय पूर्व पूर्व को अपेक्षा उत्तरोत्तर असल्यात गुणवृद्धि से गुणित कर स्वप, हु, हुतर एव बहुतम इस श्रणीरूप में विभाजित करते हुए स्थिति का सउन करना सो गुणश्रेणी है । मन इसका यह है कि गुणश्रेणीरचना के प्रथम समय मे कर्मलिक स्वप ग्रहण किये जाते है, द्वितीय समय में पूर्व का अपेक्षा अमरयातगुणित दलिक ग्रहण किये जाते है, तृतीय समय में इससे भी अस्यातगुणे कर्मवलिये ग्रहण किये जाते है । इस प्रकार उत्तरोत्तर अपरयातगुणित कर्मदलिया का वहान ग्रहण किया जाता है कि जबतक अन्तर्मुहूर्तका अन्तिमसमय पूर्ण नहीं हो जाता । अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण के काल से यह अन्तर्मुहूर्त कुछ अधिक समझना चाहिये । इस प्रकार कर्मपुद्ग ચકાય તે ગુણિકકમ છે શુશ્રેણી કેને કહેવાય એ વાત પ્રગટ કરાય છેકાલાન્તરમા વેદન કરવા યોગ્ય જે વેદનીય આદિક ચાર ક હનુ આકી છે તેમને જલદી ખપાવવા-ક્ષપણુ કરવા-નિમિત્ત તેમના લિએ મા ધીમેધીમે ક્રમપૂર્વક પ્રતિસમય પૂર્વ પૂર્વની અપેક્ષા ઉત્તરૈયત્તર અસ ખ્યાત ગુણવૃદ્ધિથી ણિત કરીને સ્વલ્પ, બહુ, અહુતર તેમજ અદ્ભુતમ આમ શ્રેણીરૂપમા વિભા જિત કતા કરતા સ્થિતિનું ખંડન કરવુ અને ગુણશ્રેણી કહે છે એની મતલબ એ છે કે ગુણશ્રેણીરચનાના પ્રથમ સમયમાં કલિક ૫ ચહેણુ કરવામા આવે છે, ખીજા સમયમાં પ્રથમની અપેક્ષા ાસ ખ્યાતણિત દૃલિક ગ્રહણ કરવામા આવે છે. ત્રીજા સમયમાં તેનાથી પણુ અસ ખ્યાતગુણાક દલિક ગ્રહણ કરાય છે. આ પ્રકારે ઉત્તરાત્ત અસ ખ્યાતગુણિત કલિએને ત્યા સુધી ગ્રહણ કરવામા આવે છે કે જ્યાસુધી અન્તમ હૂતના અતિમ સમય પૂરા થઈ ન જાય અપૂર્વકરણુ અને નિવૃત્તિકરણના કાળથી આ અન્તર્યું હતું કઈ અધિક સમજવુ. જોઈએ આ પ્રકારે કર્મ પુદ્ગલેની પ્ચનાની Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ tafa हस्तपंचक्खरुच्चारणद्धाए असंखेजसमइयं अंतोमुहत्तियं सेलेसि पडिवज्जइ, पुव्वरइयगुणसेढीयं च णं कम्मं तीसे सेलेसिमद्धाए अयोगच प्राप्नोति, ' अयोगत्तं ' पाउणित्ता' अयोगव' प्राप्य, 'ईसिंहस्सपंचक्रवरुचारणद्धाए ' ईषद्भस्यपत्र्याऽक्षरोचारणाऽद्रायाम्-ईपत्-अन्यानि यानि दूस्वानि पञ्चानराणि तेषा यदुच्धारण तस्य याsद्रा = काल सा तथा तस्याम्, इदमुधारणं न द्रुत न विलम्बित किन्तु मध्यममेव गृल्यते, ' असखेज्जसमइय' अमरयेयसमयिकाम्, 'अतोमुहुत्तिय ' आन्तमहर्तिको 'सेलेसि 'शैलेगी-शैलानामीग शैलेशो मेर, तम्येव या स्थिरता = साम्याय चस्था सा शैलेशी ताम्, अथवा - गीलेश = सर्वमंनररूपचारिग्वान्, तस्येयमनस्था योगनिरोधरूपा शैलेशीता, डोलेश्यवस्थाया केपली वेदनीयादिकर्मचतुष्टय क्षपयति, तत्प्रकारमाह ' पुच्चरइय' इत्यादि । 'पुब्वरइयगुणसेढीयं च यण कम्प' पूर्वरचितंगुणश्रेणिक च कर्म, पूर्व== शैलेश्यवस्थाया प्राग् रचिता गुणश्रेणी यस्य तत्तथा, का नाम गुणश्रेणी उच्यते 1 " 4 ६९४ 3 " 1 इ) अयोग - अवस्था को प्राप्त हो जाते है, ( पाउणित्ता ईसि-इस्स-पचक्खर - चारणद्धा असज्ज समय अतोमुहुत्तिय ) अयोगी - अवस्था को प्राप्त हो जाने के बाद ' ह्रस्व पाच अक्षर के उच्चारण काल-प्रमाण समय में, अर्थात् 'अन्यात समय' के अतर्मुहर्त जैसे काल मे (सेलेसिं पडिवज्जइ) वे शैलेशी - अवस्था को प्राप्त करते हैं, अथवा सर्व कर्मों के म्वररूप चारित्र वाले की अवस्था को - योगनिरोधरूप अवस्था' को प्राप्त करते है । इस शैलेशा-अवस्था में केवली किस प्रकार से वेदनीय ' आदि चार अघातिया कर्मों को क्षय करते है, इस बात को प्रगट करते हुए सूत्रकार कहते है कि (पुनरर्यगुणसेढीय चण कम्म तीसे सेलेसिमद्धाए असखेज्जाहिं गुणसैदी हि अणते कम्मसे खवयं ते) शैलेशी-अवस्था के पहिले जिन कर्मों की गुणश्रेणी रची जायँ '' गुणश्रेणि कर्म हैं। गुण ܐ છે ( पाउणित्ता ईसिंहस्सपचक्त्ररुच्चारणद्वाए असखेज्जसमइय अंतोमुहुत्तिय ) અચેાગી--અવસ્થાને પ્રાપ્ત થઇ ગયા પછી હસ્વ/પા અક્ષરના ઉચ્ચારણકાલ– પ્રમાણુ સમયમા, અર્થાત્ અસ ખ્યાત સમયના અતર્મુહૂત જેવા કાલમા ( सेलेसि पडिवज्जइ ) तेथे शैवेशी व्यवस्थाने आत कुरे । छे, अथवा भर्व 1 3 કાના સ વરરૂપ ચારિત્રવાળાની ; અવસ્થાને—યે નિરોધરૂપ અવસ્થાને પ્રાપ્ત કરે છે. આ શૈલેશી અવસ્થામા કેવલી કેવા પ્રકારથી વેદનીય ક્રિ ચાર અઘાતિયા કર્મોનો ક્ષય કરે છે? એ વાતને પ્રકટ કરતા સૂત્રકાર કહે छे (पुव्वरइयगुण सेदीय व ण कम्मं तीसे सेलेसिमद्धाए असखेज्जाहिं गुणसेढीहिं अणते कम्मसे खवयते ) शैबेशी व्यवस्थानी (थडेसा के भनी सुश्रेणी रथी Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ trafoot-east a ९२ वैयलिन सिद्धिगतिप्राप्तियमनिरूपणम् ६९७ यतेकम्माई सव्वाहिं विप्पजहणाहिं विप्पजहs, विप्पजहित्ता उज्जुसेढी पडिवण्णे अफुसमाणगई उड्ढ एकसमएण अविग्गहे गंता सागारोवउत्ते सिज्झइ ॥ सू० ९२ ॥ युगपत् क्षपयतीति । 'खवित्ता' क्षपयित्वा 'ओरालियतेयकम्माई ' औहारिकतैजसकर्माणि ' सन्नाहिं ' सर्वाभि = अशेपाभि, 'विप्पजहणार्हि' निप्रहाणिभि - निशेषेण= प्रकर्षतो हानय यागास्ताभि, अत्र व्यक्त्यपेक्षया बहुवचनम्, 'विप्पजहइ' विप्रजहाति = सर्वथा परिशाटयति, 'विप्पजहित्ता' विप्राय = परित्यज्य, 'उज्जुसेढीपडिवण्णे' रुजुश्रेणिप्रतिपत्र - ऋजु = अवका, श्रेणि = आकाशप्रदेशपक्तिस्तामाश्रित 'अफुसमाणगई' अस्पृशद्गति -अस्पृशन्ती मिद्र्यन्तरालप्रदेशान् गतिर्यस्य स तथा, 'एक्कसमपूर्ण' एकसमयेन, अन्तरालप्रदेशस्पर्शने हि नैकेन समयेन सिद्धि स्यात्, इप्यते तु तत्रैक एव समय, य एव चायुष्कादिकर्मणा क्षयसमय स एव निर्वागसमय । अतोऽन्तराले समयान्तरस्यासद्भावादन्तरालप्रदेशानाममस्पर्शन भवति । भानोsय सूक्ष्माsर्थ केवलिगम्य । ' अविगाहेण ' अहि-वक एव हि समयान्तर लगति प्रदेद्यान्तर च स्पृशति । 'उड्हं ' ऊर्जे 'गता' गवा ' सागारोवउत्ते ' साकारोपयुक्त ज्ञानोपयोगवान्, 'सिज्झइ ' सिद्धयति-सिद्धो भवति ॥ सू० ९२ ॥ गाहिं विप्पass ) क्षपण करने के बाद औदारिक, तैजस एव कार्मण इन शरीरों को विष्टिरूप से समस्त हानियों द्वारा सर्वथा छोड़ देते है । (विप्पजहित्ता उज्जुसेढीपडिवण्णे अफुसमाणगई ऊड्ढ एक्समएण अविग्गहेण गता सागारोवउत्ते सिज्झ ) छोडने के बाद रुजु अवक आकाशक प्रदेशकी पक्तिस्वरूप श्रेणीको आश्रित करते हुए, अर्थात् श्रेणी अनुसार सिद्धिके अन्तराल के प्रदेशों को नहीं स्पर्शते व केवली भगवान् एक समय में विग्रहरहित गति से सीधी गति से होकर सिद्धगति में विराजमान हो जाते हैं । यहा उनका उपयोग साकार होता है, अर्थात् ज्ञानोपयोग से वे निशिष्ट रहते हैं । કર્યા પછી ઔદ્યારિક, વૈજસ તેમજ કાણુ એ શીશને વિશિષ્ટરૂપથી भज्ज हानियों द्वारा सर्वथा छोडी हीये हे (निप्पजहित्ता उज्जुसेठी पडिनपणे अममा गई उड्ढ एक्कसमएण अविगहेण गता सागारोनउत्ते मिझइ ) છેડી દીધા પછી જીવક આકાશના પ્રદેશેાની પક્તિસ્વરૂપ શ્રેણીને આશ્રિત કરતા, અર્થાત્ શ્રેણીને અનુસાર સિદ્ધિના અંતરાલપ્રદેશોને સ્પર્શ ન કરતા તે ટેવલી ભગવાન એક સમયમા વિગ્રહરહિત ગતિથી-સીધી ગતિથી થઇને સિદ્ધિગતિમા વિરાજમાન થઇ જાય છે. અહીં તેમના ઉપયાગ્ન સાકાર હાથ Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९६ neurfisex असंखेज्जाहिं गुणसेढीहिं अणंते कम्मंसे खवयंते वेयणिज्जाउयजामगोए इच्चेते चत्तारि कम्मंसे जुगवं खवेइ, खवित्ता ओरालि 1 सेलेरािमद्धाए ' तस्या डौलेश्यद्रायाम् " क्षपयन् "-इति पदमध्याहृत्य योजना करणीया, 'असखेनाहिं गुणसेढीहिं' असत्येयाभिगुणश्रेणिभि 'अणते कम्मंसे खत्रयते ' अनन्तान् कर्माशान् क्षपयन्, ' वेयणिज्जाउयणामगोए ' वेदनीयायुर्नामगोत्राणि, 'इच्चे ते चत्तारि कम्मंसे ' इत्येताथतुर. कर्माशान् 'जुगव खवेइ ' युगपत् क्षपयति । अयमंत्र समुदायार्थ - एव पूर्व गुणश्रेणीं कृत्वा निशुद्धपरिणामवशादसत्यात समयवत्थामान्तमौहूर्तिक्या शैलेश्यवस्थाया कर्म क्षपयन् केवली स्वरचिताभिरसख्यातगुणश्रेणीमि शीक्तरक्षपणक्रियाया साधनमूताभिरनन्तपुद्गलरूपत्वादन तान् कर्माशान् क्षपयन् २ वेदनीयादिकाश्चतुर कमशान् लोकी रचना की विशेषताका नाम गुणश्रेणी है। इस प्रकार के केवली भगवान् प्रथम-रचित गुणश्रेणिककर्मको उस शैलेशी के काल में नष्ट करते हुए असख्यात गुणश्रेणियों द्वारा अनन कर्मागका क्षय कर देते है । ( वेयणिज्जा - उय-गाम- गोए इचेते चत्तारि कम्मसे जुनखवेइ ) वेदनीय, आयु, नाम एव गोत्र इन चार कर्मशोको एक साथ क्षय करते है । मतलब इसका यह है - इस प्रकार गुणश्रेणी करके विशुद्ध हुए परिणामों के वश से अख्यातसमयप्रमाण अन्तर्मुहूर्त कालकी इस शैलेशी अवस्था में वे केवली प्रभु, कर्मको क्षपित करते हुए, कर्मों की शीघ्रतर क्षपण क्रिया में साधनभूत असख्यात गुणश्रेणियों द्वारा अनन्तपुद्गलस्वरूप कर्माशोंका क्षय करते २ वेदनीयादिक चार अघातिया कर्माशोंका एक ही साथ क्षय कर देते हैं । (खवेत्ता उरालिय- तेय कम्माइ सव्वाहिं विप्पजह વિશેષતાનુ નામ શુશ્રેણી છે. આવી રીતે તે કેવલી ભગવાન પ્રથમ રચેલ ગુણુણિત કમને તે શૈલેશીના કાળમા નષ્ટ કરતા કરતા અસખ્યાત ગુણુश्रेणियों द्वारा मनत उर्मना अशोनो क्षय हरी हे छे ( वेयणिजाउयणामगोए इन्ते चत्तारि कम्मसे जुगव सवेइ ) बेहनीय, खायु, नाम तेम गोत्र थे ચાર કર્માશોને એક સાથે ક્ષય કરે છે. એની મતલખ એ છે કે આ પ્રકારે ગુણશ્રેણી કરીને વિશુદ્ધ થયેલા પિરણામને વશ થઈ અસખ્યાત-સમય-પ્રમાણ અન્તર્મુહૂત ઢાળની આ શૈલેશી અવસ્થામા તે કેવી પ્રભુ કમને ક્ષપિત કરતા કરતા કર્મીની બહુજ ઉતાવળી ક્રિયામાં સાધનભૂત અસ ખ્યાત ગુણુભ્રં ણી દ્વારા અન તપુદ્ગલસ્વરૂપ કર્મોથોના ક્ષય કરતા કરતા વેદનીય આદિક ચાર (૪) અધાતિયા કર્મોશોના એકસાથે જ ક્ષય કરી નાખે છે ( सवेत्ता उरालिय-तैय-कम्माई सव्वाहिं विप्पजहणाहिं " M } ક્ષપણ Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Pawan MA m पीयूषयषिणी-टोकास ९२ फेवलिन सिद्धिगतिप्राप्तिक्रमनिरूपणम् ६९७ यतेयकम्माई सव्वाहि विप्पजहणाहिं विप्पजहइ, विप्पजहिता उज्जुसेढीपडिवणे अफुसमाणगई उड्ढं एकसमएणं अविग्गहेण गंता सागारोवउत्ते सिज्झइ ॥ स० ९२ ॥ युगपत् क्षपयतीति । सविता 'क्षपयित्वा 'ओरालियतेयकम्माई। औदारिकतैजसकर्माणि सचाहिं । सर्वाभि अशेषामि , 'विप्पजहणाहिं विप्रहाणिभि --विशेषेण अकर्पतो हानय म्यागास्ताभि , अत्र व्यक्त्यपेक्षया बहुवचनम , विपजहइ विप्रजहाति सर्वथा परिशाटयति, 'विपनहिता' विग्रहायपरियज्य, 'उज्जुसेढीपडिवण्णे उजुश्रेणिप्रतिपन्न -ऋजु = अवका, श्रेगि आकागप्रदेशपक्तिस्तामाश्रित 'अफुसमाणगई अस्पृशद्गति -अस्पृशन्ती सिद्धयन्तरालप्रदेशान् गतिर्यस्य स तथा, 'एक्कसमएण' एकसमयेन, अन्तरालप्रदेशस्पर्शने हि नैकेन समयेन सिद्धि स्यात्, इप्यते तु तत्रैक एव समय , य एव चायुष्कादिकर्मणा क्षयसमय स एव निर्वागसमय । अतोऽन्तराले समयान्तरस्यासद्भावादन्तरालप्रदेशानामसम्पर्शन भवति । भावतोऽय सूदमोऽर्थ केवलिगम्य । 'अविग्गहेण ' अधिग्रहण अपकेगा एव हि समयान्तर लगति प्रदेशान्तर च स्पृशति । 'उड्द' ऊ गंता' गवा 'सागारोवउत्ते' साकारोपयुक्त ज्ञानोपयोगवान्, 'मिअइ' सिद्वयति सिद्धो भवति ।। सू० ९२ ॥ णाहि विपनहइ ) भपण करने के बाद औदारिक, तैजस एव कार्मण इन शरीरोको विशिष्टरूप से समन्त हानियों द्वारा सर्वथा छोड़ देते है। (विप्पजहिता उज्जुसेठीपडिवण्णे अफुसमाणगई अड्ढ एकसमएण अविग्गहेण गता सागारोवउत्ते सियड ) छोड़ने के बाद मजु-अवरु आफागके प्रदेशोकी पंक्तिस्वरूप श्रेणीको आश्रित करते हुए, अर्थात् श्रेणी के अनुसार सिद्धिके अन्तराल के प्रदेशाको नहीं म्पर्शते वे केवली भगवान एक समय में विग्रहरहित गति से-सीधी गति से होकर सिद्धगति में विराजमान हो जाते है। यहा उनका उपयोग साकार होता है, अर्थात् ज्ञानोपयोग से वे विशिष्ट रहते है। કર્યા પછી ઔદારિક, તૈજસ તેમજ કાર્મણ એ શરીને વિશિષ્ટરૂપથી सण सानिया द्वारा सर्वथा छोडी वीमे छे. (विप्पजहित्ता उन्जुसेढीपडिवण्णे अफुसमाणगई उड्ढ एकसमरण अविग्गहेण गता सागारोवउत्ते सिम्झइ) છોડી દીધા પછી આજુ-અવકે આકાશના પ્રદેશની પક્તિસ્વરૂપ શ્રેણીને આશ્રિત કા, અર્થાત શ્રેણીને અનુસાર સિદ્ધિના તરાલ પ્રદેશોને સ્પર્શ ન કરતા તે કેવલી ભગવાન એક સમયમાં વિગ્રહહિત ગતિથી-મીઠી ગતિથી થઈને સિદ્ધિગતિમાં વિરાજમાન થઈ જાય છે. અહીં તેમને ઉપયોગ સાકાર હોય Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिक मूलम् - ते णं तत्थ सिद्धा हवंति, साइया अपज्जवसिया > " ! टीका भनोत्तराने एकोनसप्ततितमे सूने यद्रवोचत् 'से जे उमे गामागरजाव सचिवेसे मया हवति सन्नकामनिया' इत्यारभ्य 'अनुकम्पयडीओ खबइत्ता उप्पि लोयग्गभावार्थ, इस उपाय से योगों का निरोध करते समय प्रथम मनोयोगका निरोज करते है, फिर बचनयोगका और फिर बाद में काययोगका । योग के निरोध हो जाने से वे अयोगी - अवस्थाको प्राप्त कर हूस्व अकारादि के, अर्थात् अ, इ, उ, ऋ, लृ इन पाच अक्षरों के उच्चारण करने में जितना काल लगता है उतने काल तक उस अयोगी अवस्था में रहते हुए शैलेगी- अवस्थाको प्राप्त करने के पश्चात् असख्यातगुणश्रेणी से अनत कर्मागोका क्षय कर देते हैं । फिर वेदनाय, आयु, नाम एव गोत्र इन चार अघातिया कर्मोंको युगपत् विनष्ट कर वे भगवान्, औदारिक, तैजस एव कार्मण शरीरको क्षपित करते है । इस प्रकार कर्मों और शरीरों से सर्वथा रहित बने हुए वे प्रभु आकाशकी प्रदेशपक्ति के अनुसार १ समय प्रमाणवाली अविग्रहगति से गमन कर सिद्धिगति में जाकर विराजमान हो जाते हैं । यहा वे साकार - उपयोगविशिष्ट रहा करते है || सू ९२ ॥ ६९८ 'तेण तत्थ' इत्यादि । इसी आगम के उत्तरार्धका ६९ वाँ सून जो (से जे इमे गामागर जाव सन्निवेજ્ઞાનાપયાગથી તેઓ વિશિષ્ટ રહે છે I ભાવા—આ ઉપાયથી ચોગાના નિરાય કરતી વખતે પ્રથમ મનાયાગને તે કેવલી નિરોધ કરે છે. પછી, વચનયાગના અને ત્યાર પછી કાયચેાગના નિરોધ થઈ ગયા પછી તે યાગી—અવસ્થા પ્રાપ્ત કરીને स्वसार माहिनु, अर्थात्-अ, इ, उ, ऋ, ऌ आ पाये अक्षरानु उभ्यारण કરવામા જેટલા ડાળ લાગે એટલા કાલ સુધી તેઓ તે અયાગી-અવસ્થામા રહેતા શૈલેશી-અવસ્થાને પ્રાપ્ત કરીને પછી અસખ્યાત ગુણુશ્રેણીથી અનત कर्मा शोनों क्षय दूरी हे हो पछी बेहनीय, आयु, नाम भन्न गोत्र-यो- यार--- અઘાતિયા કર્મોને યુગપત્ નાશ કરીને તે ભગવાન્ ઔદારિક, તેજસ તેમજ કામણુ શરીરને ક્ષપિત કરે છે. આ પ્રકારે કાં અને શરીરાથી સવ થા રહિત અનેલા તે પ્રભુ આકાશની પ્રદેશપકિત અનુસાર ૧ સમયપ્રમાણવાળી અવિગ્રહગતિથી ગમન કરીને સિદ્ધિગતિમા જઇ વિરાજમાન થઈજાય છે અહીં તેએ साभार-उपयोग-विशिष्टा रह्या ४रे छे, ( सू ८) -- f ' ते ण तत्थ' इत्यादि " > , मे ४ भागभना उत्तरार्धनु योगसित्तेरभु सूत्र ने (से जे इमे गामागर जाब י Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ am e rooneymoonamAAR पीयूपपिणी टीशा, सू. ५३ मिद्धस्थरूपयर्णनम् असरीरा जीवघणा देसणनाणोवउत्ता निहियट्टा निरयणा पइट्ठाणा हाति' ति, तर ते लोकामप्रनिष्टाना सन्त कोठगा भवन्तीति जिनासायामाह'ते ण' इत्यादि । ' ते ण' ते-पूर्वनिर्दिष्टा मनुष्या सल 'तत्य ' तत्र लोकाग्रे प्रतिष्ठान प्रामा सन्त , 'सिद्धा स्वति मिद्धा भान्ति । ते कोदया भवन्ती याह-'साइया' मादिका = आदिसहिता , ' अपनवसिया ' अपर्ययसिता अन्तरहिता ---अनागिन इत्यर्थ 'असरीरा' अगरीरा = पञ्चविधशरीररहिता , अन्ये वदन्ति--सगरीरोऽपि सिद्धो भवतीति तन्मतनिराकरणार्थसेस मणुया हवति सव्वकामविरया) यहाँ से लेकर (अट्ठ कम्मपगडीओ खबइत्ता उप्पि लोयग्गपडट्ठाणा हवति) यहाँ तक है। इस सूत्र में यह जो कहा गया है कि वे सिद्ध भगवान लोक के अप्रभाग में प्रतिष्टित हो जाते है, उमी विषय में अब इस मून द्वारा यह बताया जाना है कि वे मिद भगवान लोक के अप्रभाग म रहते हुए कैसे होते है। वह इस प्रकार है-(ते पण तत्व सिद्धा हवंति) वे पूर्वनिर्दिष्ट मनुष्य, लोक के अग्रभाग में प्रतिटित होते हुए मिद्ध कहे जाते है, वे (साइयाअपज्जवसिया) सादि और पर्यवसानरहित होते हैं, अथात्-वहा से फिर उहे ससार में पीछे जन्म धारण नहीं करना पड़ता है, एतदर्थ उन्हें अपर्यवसित कहा है । अनादिकाल से लगे हुए कमी का क्षय करके वे सिद्ध हुए है, अन इस अपेक्षा वे सादि कहे गये है। (असरीरा) औदारिक आदि पाच शरीरों से वे सर्वथा रहित होते है। कितनेक एसा कहते है कि मशरीर भी प्राणी सिद्ध होता है, उनके इम मिदान्त को दूर करते हुए भगवान ने सिद्धो का (असरीरा) यह विशेषण दिया है। मन्निवेसेमु मणुया हाति सम्वकामविरया) मली थी सन(अट्ठ कम्मपगडीओ सवइत्ता उप्पि लोयगपइद्धाणा हवति) मी सुधाछ २मा सूत्रमाको मायामा ६०यु छ કે તે સિદ્ધ ભગવતે લોકના અગ્રભાગમાં પ્રતિષ્ઠિત થઈ જાય છે, તે જ વિષયમાં આ સૂત્ર દ્વારા એમ બતાવવામાં આવે છે કે તેઓ સિદ્ધ ભગવતે લેકના भयनाममा रहेता देवा थाय मारे -( ते ण तत्थ सिद्वा हवति) તેઓ પૂર્વે બતાવેલા મનુષ્ય, લેકના અગ્રભાગમાં પ્રતિષ્ઠિત થઈ જતા સિદ્ધ ४ाय 2 तेगा (साइया अपज्जवसिया) साहिन्मने मत (भ-मरा)રહિત થાય છે ત્યાંથી પાછા તેઓને સંસારમાં જન્મ ધારણ કરે પડતે નથી, તે અર્થમાં તેમને અપર્યાવલિત કહેવામાં આવે છે અનાદિકાળથી લાગેલા કને ક્ષય કરીને તેઓ સિદ્ધ થયા છે, આથી એ અપેક્ષાએ તેમને सा४ि छ (असरीरा) Rोहानिस माहि पाय शरीराथी तेमा सपथा હિત થાય છે કેટલાક એમ કહે છે કે ચશરીર પણ પ્રાણી સિદ્ધ હોય છે, माता सिद्धांतने १२ ८२ पाने, मिन 'असरीरा' विशे. Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०० औपपातिकमरे नीरया णिम्मला वितिमिरा विसुद्धा सासयमणागयद्धं काल चिट्ठति ॥ ९३॥ मिद विशेषगम्, 'जीवघणा' जीनघना --जीवाच ते धना जीपयना -अन्तररहितत्वेन जीवप्रदेशमया , योगनिरोधकाले ध्रपूरणेन निमागोनावगाहनाया सद्भायादित्यर्थ , 'दंसणनाणोवउत्ता' दर्शनज्ञानोपयुक्ता-दर्शनम् अनाकार, जान=साकार, तयोरुपयुक्ता , ' निहियट्ठा' निष्ठिताया =कृतकृत्या -समामसर्वप्रयोजना इत्यर्थ । 'निरेयणा' निरेजना =निश्चला -स्थिरा इत्यर्थ , नीरया' नीरजस =बध्यमानार्मरहिता इत्यर्थ , यद्वा-नीरया इतिछाया, रयो, वेगस्त दहिता =निरहेगा -निरौत्सुक्या इत्यर्थ । 'णिम्मला' निर्मला पूर्वनकर्म- निमुक्ता , 'वितिमिरा' वितिमिरा-विगताजाना , 'पिसुद्धा' विशुद्धा =कर्मविशुद्धप्रकर्षमुपगता , इससे भगवान का यह अभिप्राय प्रगट होता है कि शरीरसहित जीव कभी भी मुक्त नहीं होता है। (जीवघणा) अन्तररहित होने से वे भगवान जीवप्रदेशमय रहते हैं । अत के शरीर की अवगाहना से उनकी सिद्-अपस्था में अवगाहना कुछ कम रहती है। योगनिरोधकाल मे शरीर के छेदों के पूरण हो जाने से त्रिभाग-ऊन उनकी अवगाहना बतलाई गई है। (दसणणाणोवउत्ता) दर्शन एव ज्ञान से वे उपयुक्त रहा करते है। अनाकार ज्ञान का नाम दर्शन एव साकार ज्ञान का नाम ज्ञान कहा गया है । (निट्ठियट्ठा) समस्त मनोरथ सिद्ध हो जाने से एव कुछ भी कार्य करने के लिये बाकी नहीं रहने से वे भगवान् कृतकृत्य कहे जाते है । तथा (निरेयणा) ये निश्चल, (नीरया) बध्यमान कर्मों से रहित, अथवा निस्द्वेग, (णिम्मला) निर्मल-पूर्ववद्धकमी से निर्मुक्त, (वितिमिरा) अज्ञानरूप तिमिर से अतीत, પણ આપ્યું છે આથી ભગવાનને આ અભિપ્રાય પ્રગટ થાય છે કે શરીરसडित व ४६ ११ भुत था नथी (जीवघणा) मत२२डित डोपाथी તે ભગવાન જીવપ્રદેશમય રહે છે અને શરીરની અવગાહનાથી તેમની સિદ્ધ-અવસ્થામાં અવગાહના જરા ઓછી રહે છે જેગ-નિરાધ કાળમાં શરીરના છેદના પૂરણ થઈ જવાથી વિભાગન્યૂન તેમની અવગાહના બતાવેલી છે (दसणणाणोवउत्ता) नि तेभन ज्ञानथी तसा उपयुत रहा ४२छ मनाहारज्ञाननु नामशिनतम सा२ ज्ञाननु नाम शानदायछ (निद्रिया) समस्त मनोरथ સિદ્ધ થઈ જવાથી તેમજ કાઈ પણ કાર્ય કરવાનું બાકી ન રહેવાથી તે ભગવાન કૃતअन्य उपाय तथा (निरयणा) तमो निश्चल, (नीरया) मध्यभान ४ाथी शक्षित,मथवा निरुदेग, (णिम्मला) निज-भूमि माथी निभुत, (वितिमिरा) मज्ञान३५ तिभिर-१५४ाथी मतीत, (विसुद्धा) मीना विनाशथा यती Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Re पोपवर्षिणी-टीका; सू. ९३, ९४ सिद्धानां सापपर्यवसितत्यादिवर्णनम् ७०१ मूलम्से केणटेणंभंते एवं वुच्चड-ते णं तत्थ सिद्धा भवंति सादीया अपजवसिया जाव चिट्टति ? गोयमा से जहा णामए वीयाणं अग्गिदड्ढाणं पुणरवि अंकुरुप्पत्तीण भवइ, 'सासयमणागयद्ध काल चिहति ' शाश्वतम् अनागताद्ध काल भविष्य काल 'चिति' तिष्ठन्ति ।। मू० ९३ ॥ टीका---गौतम पृच्छनि-' से केणद्वेण भते । टत्यादि । ' मंते " हे भदन्त । 'सेकेणटेण' अब केनाऽर्थेन केन कारणेन 'एव पुचः' एवमुच्यते तेण तत्य सिद्धा भवति' ते खल तत्र सिद्धा भवन्ति, 'सादीया साटिका 'अपनवसिया' अपर्यवसिता 'जाव चिति' यावत तिष्ठन्ति ?, भगवानाह-गायमा" हे गौतम' से जहा णामए ' तद् यथा नाम 'वीयाण अग्गिदइहाण ' बोजानामग्निदग्धाना 'पुणरचि' पुनरपि अकुरप्पत्ती ण भवड' अरोत्पत्तिर्न भवति, “एवामेव सिद्धाण कम्मवीए (विमुद्धा) कमां के निनाय से उद्भूत आमनिशुद्धि से युक्त हो कर (सासयमणागयद्ध काल चिंति) भविध्याकाल में गाम्यतरूप से सिद्धावस्था से मपन्न रहा करते हैं । अर्थात्-सिद्ध भगगन सादि-अनन रहा करते है, एवं शुद्ध आत्मगुगों के पूर्ण विकास से वे सिद्ध अवस्था म अननमालनक विगजित रहने है।मु० ९३ ॥ 'से केपट्ठणे ' इयादि। पन-(भने ') हे भवन (मे केणटेण एव बुचट) व मानि अपर्यवमिन होते हैं " यह आप किस कारण से रहते है ? उत्तर-(गोयमा ) हे गौतम ' सुनो (से जहाणामए बीयाण अग्गिड्ढाण पुणरवि अकुरुप्पत्तीण भवद ) जिम प्रकार अग्नि - मात्मविशुद्धिया युत धन (सासयमणागयद्ध कार चिति)मविष्य१७मी १d૩૫વી સિદ્ધાવવાથી યુકત રહ્યા કરે છે અર્થાત-સિદ્ધ ભગવાન કાદિ અનત રહ્યા કરે છે, તેમજ શુદ્ધ આત્મગુના પૂર્ણ વિકાસથી તેઓ સિદ્ધ અવસ્થામાં અનતકાળ સુધી વિરાજમાન રહે છે (મૂ ૯૩) से वेणतण' इत्यादि प्रश-(भते ।) त(से रणद्वेण एवं वुच्चइ) "तमी माह अपयवसित होय " भन्मापशु ४२धी को छ ? उत्तर-(गोयमा) हे गौतम! मामी (से जहाणामए वीयाण अग्गिड्ढाण पुणरवि अरुप्पत्तीण भवइ) के प्रकारे मनिया प्रणेता भीमा गत शु२ 641 ४२वानी Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०२ - ___०२ - औपातिकमरे एवामेव सिद्धाणं कम्मवीए दड्ढे पुणरवि जम्मुप्पत्ती न भवड, से तेणट्टेण गोयमा ! एवं बुच्चइ-ते णं तत्थ सिद्धा भवंति सादीया अपज्जवसिया जाव चिट्ठति ॥ सू० ९२ ॥...... मूलम्--जीवा णं भंते सिज्झमाणा कयरंमि संघयणे दड्डे' एवमेव सिद्धाना कर्मचीने दग्धे सति 'पुणरवि' पुनरपि 'जम्मुप्पनी न भवइ ' जन्मोत्पत्तिर्न भवति-जन्मन प्रादुर्भावो न भवति, ‘से तेगद्वेण' तत्तेनाऽर्थन, 'गोयमा ' हे गौतम । 'एवं वुचइ एवमुच्यते-ते णं सिद्धा भाति साढीया अपज्जवसिया' ते मल सिद्धा भवन्ति सादिका अपर्यवसिता 'जाव चिद्वंति' यावत्तिष्ठन्ति ॥सू० ९४॥ टीका--गौतम पृच्छति-'जीवा ण भते " इत्यादि । 'भते!! हे भदन्त । 'जीवाण' जीवा खल 'सिज्झमाणा' सिद्धयन्त 'यमि' कतरस्मिनः पदसु सहननेषु कस्मिन् 'सघयणे' सहनने 'सिज्झति' सिध्यन्ति । भगवानाह-'गोयमा' से दग्ध बीजों में पुन अकुर को उपन्न करनेकी शक्ति नहीं रहती है, (एवामेर सिद्धाण कम्मवीए दड्ढे पुणरवि जम्मुप्पत्तीण भवइ ) ,उसी तरह सिद्ध भगवान् के भी कर्मरूपी ससारका बीज नष्ट हो जाने पर पुन जन्मकी उत्पत्ति नहीं होती है । (से तेणद्वेण गोयमा ! एव बुचड) इसलिये हे गौतम । ऐसा कहा है कि. (ते ण सिद्धा भवति सादीया अपजवसिया) वे सिद्ध सादि अपर्यवसित होते है। सू ९४ ।। ‘जीवा ण भते ! " इत्यादि। , प्रश्न-(भते । ) है भदत । (जीवाण सिज्झमाणा) जीन सिद्ध होते हुए (फयरमि सघयणे सिज्झति) रह सहननों में से कौन से सहनन मे सिद्ध होते है ? सहित २ली नथी, (एषामेव सिद्धाण कम्मवीए दड्ढे पुणरवि जम्मुप्पत्ती ण भवइ) तवीर रीते सिद्ध सपानने ५९ मा ससारना after ru थ वाथी रीने भनी मत्पत्ति यती नथी. (से तेणढेण गोयमा । एव चुच्चई) भेटवा माटे गौतम । म छ.(ते सिद्धाः भवति सादिया अपज्जवसिया) ते सिद्धी साहि-अ सित हाय'छ (स ६४) ( जीवा -णा भते । सिममाणा' त्यादि । , प्रश्न-(भते!) 8 पन्त ! (जीवा ग सिझमाणा)' थर्ड कियरमि सघयणे सिज्मति ?) छ संहननामाथी ४या सहननमा सिद्ध Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पीयूपयपिणी टी २०९५,९६ सिध्यमानानां संहननसंस्थानवर्णनम् ७०३ सिझंति?गोयमा। वइरोसभणारायसंघयणे सिझंति ॥सू० ९५॥ मूलम्-जीवाणं भंते सिझमाणा कयरंमि संठाणे सिझंति १ गोयमा । छण्हं संठाणाणं अण्णयरे संठाणे सिज्झंति ॥ ९६ ॥ हे गौतम 'यहरोसभणारायसंघयणे' वर्षभनाराचसहनने 'सिझति सिद्धयन्ति ॥मू० ९५|| टीका---गौतम पृच्छति- 'नीयाण मते !' इत्यादि । ' भने!' ह भदन्त - हे भगवन् “जीवा पं सिझमाणा कयरम्मि सठाणे सिज्झति ?' जीवा खल सिध्यन्त कतरस्मिन् सस्थाने सिध्यति ? भगवानाह-'गोयमा' हे गौतम । 'उण्ड सठाणाण अण्गयरे सठाणे मिज्झति' पणा मस्थानानामन्यतरस्मिन् कस्मिश्चिदेकम्मिन् सस्थाने मिष्यन्ति ।। सू० ९६ ॥ उत्तर-(गोयमा!) हे गौतम (वडरोसभणारायसघयणे सिझति) वझपभनाराचसहनन से वे सिद्ध होते है । वजनापभनाराचसहननवाला जीव ही मुक्ति को पाता है ।सू ९५|| 'जीवा ण भते " इत्यादि। प्रश्न--(भते !) हे भटत ! (जीवा ण सिज्झमाणा) जो जीव सिद्ध होते है वे (कयरसि सठाणे सिज्झति) कौन से संस्थान से सिद्ध होते है ? उत्तर--(गोयमा!) है गौतम (छह सठाणाण अग्णयरे सठाणे सिझति) छह सस्थाना में से किसी भी एक सस्थान से जीन सिद्विगतिका लाभकर सकते है ।। सू ९६॥ थाय छ ? उत्तर--(गोयमा !) गौतम! (वहरोसभणारायसघयणे सिझति) વજનાષભનારાંચમહનનથી તેઓ સિદ્ધ થાય છે વાઋષભનાગચ-સહન નવાળા 4 भुजितने मेवे छ (सू ६५) , 'जीवा ण भते ।। त्यादि । 48-(भते ! ) त ! (जीवा ण सिझमाणा) २-७३। मिद्ध याय तमा ( कयरमि सठाणे सिझति ?) या संस्थानयी सिद्ध थाय १ इत्तर-- (गोयमा। छह सिझणाण अण्णसरे सठाणे , सिज्झति) गीतमा छ સસ્થાનેમાથી કોઈ પણ એક અસરથાનથી જીવ સિદ્ધિગતિને લાભ કરી शछे (९८६) Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०४ ओपपातिकसने ___ मूलम्-जीवा गंभते ! सिज्झमाणा कयरम्मि उच्चत्ते सिझंति , गोयमा ! जहणणेणं सत्तरयणीए, उक्कोसेणं पंचधणुसइए सिझंति ॥सू० ९७॥ टीका-गौतम पृच्छति-'जीवा णभंते।" इत्यादि । भते। हे भदन्त ! 'जीवाण सिज्झमाणा कयरम्मि उच्चत्ते सिझति" जीवा खलु सिन्यन्त कतरस्मिन कियति उच्चत्वेऽनगाहनेन सिध्यन्ति । भगवानाह-गोयमा!' हे गौतम । 'जहण्णेण' जघन्येन 'सत्तरयणीए' सप्तरनिके=समहरनपरिमिते 'उकोसेणं' उत्कर्षे ग 'पचधणुसइए' पञ्चधनु-- शतिके-पञ्चशतधनु परिमिते उच्चत्वे, 'सिझति' सिध्यन्ति । चतुर्हस्तपरिमागविशेषो धनुरि त्युच्यते । इद जघन्य तीर्थंकरापेक्षया कथितम् । अतो द्विहस्तप्रमाणेन कूर्मीपुत्रेण न विरोध । ॥ सू० ९७॥ 'जीवा ण भते" इत्यादि। प्रश्न-(जीवा ण भते ! सिज्झमाणा कयरम्मि उच्चत्ते सिझति') हे मदत । जो जीन सिद्ध होते है वे कितनी अवगाहना से सिद्ध होते हैं ? उत्तर-( गोयमा जहण्णेण सत्तरयणीए उक्कोसेण पचवणुसइए सिज्झति ) है गौतम । कम से कम ७ हाथ प्रमाणवाली अगाहना से और उत्कृष्ट से ५०० धनुषकी अवगाहना से सिद्ध होते है। ४ हाथका एक घनुष होता है । जघन्य, कान तार्थकर की अपेक्षा से जानना चाहिये । अत दो हाथको अवगाहना वाले कूर्मीपुत्र से इसमे कोई विरोध नहा आता है ।मू. ९७॥ . 'जीवा ण भते । प्रत्याहि । प्रश्न-(जीवा ण भते । सिज्झमाणा कयरम्मि उच्चत्ते सिज्झति ?) 3 ભદત! જે જીવ સિદ્ધ થાય છે તે કેટલી અવગાહનાથી સિદ્ધ થાય છે? उत्तर-(गोयमा । जहण्णेण सत्तरयणीए उक्कोसेण पचवणुसइए सिज्झति) હે ગૌતમ ! ઓછામાં ઓછી ૭ હાથ-પ્રમાણવાળી અવગાહનાથી અને ઉત્કૃષ્ટથી (વધારેમાં વધારે) ૫૦૦ ધનુષની અવગાહનાથી સિદ્ધ થાય છે ૪ હથિતું એક ધનુષ થાય છે જઘન્ય કથન તીર્થકરની અપેક્ષાએ જાણવું જોઈએ આથી બે હાથની અવગાહનાવાળા કૂમપુત્રથી આમા કેઈ વિરોધ આવતે नथी. (२.८७) જ Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यूपपिणी-टीका ९९७,९८,सिद्धानामुनस्यायुपोधिपये भगवद्गीतमयो मघाद ७२५ मूलम्--जीवा ण भंते सिझमाणा कयरम्मि आउए सिझंति ? गोयमा ! जहण्णेणं साइरेगट्टवासाउए, उक्कोसेणं पुवकोडियाउए सिझंति ॥ सू० ९८॥ टीका---गौतम पृच्छति-'जीवाणं भते ॥ इत्यादि । ‘भते " हे भदन्त ! 'जीवाण सिज्झमाणा कयरम्मि आउए सिझंति " जीरा सल सिध्यन्त रुतरस्मिन् आयुषि मिध्यन्ति । भगगनाह-'गोयमा" ह गौतम । 'जहण्णेण साइरेगट्ठवासाउए' जमन्येन सातिरकाऽऽष्टवर्षाऽयुपि, 'उक्कोसेण' उ कर्पण 'पुत्रकोडियाउए' पूर्वकोट्यायुपि सज्झति' सिध्यन्ति । पूर्व इति चतुरगातिलक्षाणा चतुरगीतिलर्गुणने कृते या सरयोपलभ्यते तावत्मायकवर्षपरिमित काल उच्यते ॥ सू० ९८ ॥ 'जीवाण भते' इत्यादि। प्रश्न--(जीवा ण भते ! सिझमाणा कयरम्मि आउए सिज्मति' ) हे भदत ! जो जीव मिद्ध होते हैं वे कितनी आयुवाले सिद्ध होते हैं ? अर्थात् फितनी आयुतक के जीव सिद्धिगतिका लाभ कर सकते हैं। उत्तर-(गोयमा जहण्णेणं साइरेगट्टवासाउए उस्फोसेण पुन्चकोडियाउए सिझति) कम से कम आठ वर्ष से कुछ अधिक आयु वाले जीव सिद्ध हो सकते है और ज्यादा से ज्यादा एक पूर्वकोटि आयुवाले जीर सिद्ध हो सकते हैं। ८४००००० चौरासी लास चर्पका पूर्वाङ्ग होता है और ८४००००० चौरासी लाख पूर्वागका एक पूर्व होता है ।। सू ९८ ॥ "जीवा भते ॥ एत्याहि. प्रश्न--(जीचा ण भते । सिज्झमाणा कयरम्मि आउए सिज्झति १) ભદત ! જે જીવ સિદ્ધ થાય છે તે કેટલી આયુષ્યવાળા સિદ્ધ થાય છે? અર્થાત કેટલી આયુષ્ય સુધીના જીવ સિદ્ધિગતિનો લાભ કરી શકે છે? उत्तर--(गोयमा । जहणेण साइरेगढवासाउए उस्कोसेण पुचकोडियाउए सिल्झति) माछामा छ। ८ १२सथी या पधारे मायु (भर) વાળા જીવ સિદ્ધ થઈ શકે છે, અને વધારેમાં વધારે ૧ પૂર્વાટી આયુબવાળા જીવ સિદ્ધ થઈ શકે છે ૮૪૦૦૦૦૦ ચોર્યાસી લાખ વર્ષનું એક પૂર્વગ થાય છે, અને ૮૪૦૦૦૦૦ ચોર્યાસી લાખ પૂર્વ ગનું એક પૂર્વ याय छे (सू ६८) Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Go४ अपपातिकसत्रे मूलम् - जीवा णंभंते । सिज्झमाणा कयरम्मि उच्चते सिज्झति १ गोयमा ! जहण्णेणं सत्तरयणीए, सत्तरयणीए, उक्कोसेणं पंचणुसइए सिज्झति ॥सू० ९७॥ टीका- गौतम पृच्छति - ' जीवा णभंते ' इयादि । 'भते ! 'हे भदन्त ! ' जीवाण सिज्झमाणा कयरम्मि उच्चत्ते सिज्यंति " जीनग यलु सिध्यन्त कतरस्मिन् = कियति उच्चत्वेऽगाहनेन सिध्यन्ति भगवानाह - 'गोयमा !' हे गौतम ' 'जहणणेणं' जय येन 'सत्तरयणीए' सप्तरनिके= समहस्तपरिमिते 'उकोसेणं' उत्कर्षेण 'पचधणुसइए' पशधनु - शतिके= पञ्चशतधनु परिमिते उच्चले, 'सिज्झति' सिध्यन्ति । चतुर्हस्तपरिमाण निशेषो धनुरि त्युव्यते । इद जघन्य तीर्थंकरापेक्षया कथितम् । अतो द्विहस्तप्रमाणेन कूर्मीपुत्रेण न विरोध | ॥ सू० ९७ ॥ 'जीवा ण भते !' इत्यादि । प्रश्न -- ( जीवा ण भते ! सिज्झमाणा कयरम्मि उच्चते सिज्झति 2 ) हे भदत | जो जीन सिद्ध होते हैं वे कितनी अवगाहना से मित्र होते हैं ? उत्तर- ( गोयमा ! जणेण सत्तरयणी उक्कोसेण पचधणुसइए सिज्झति ) हे गौतम । कम से कम ७ हाथ प्रमाणवाली अनगाहना से और उत्कृष्ट से ५०० धनुषकी अनगाहना से सिद्ध होते है । ४ हाथका एक धनुष होता है । जघन्य कथन तार्थंकर की अपेक्षा से जानना चाहिये । अत दो हाथकी अवगाहना वाले कुर्मीपुत्र से इसमे कोई विरोध नहीं आता है ।। मू. ९७॥ 'जीवा ण भते । इत्याहि प्रश्न -- ( जीवा ण भते । सिज्झमाणा कयरम्मि ' उच्चत्ते सिज्झति ? ) ભદત ! જે જીવ સિદ્ધ થાય છે તે કેટલી અવગાહનાથી સિદ્ધ થાય છે? उत्तर- ( गोयमा । जहण्जेण सत्तरयणीए उक्कोसेण पचधणुसइए सिज्झति ) હે ગૌતમ ! ઓછામા ઓછી છ હાથ-પ્રમાણવાળી અવગાહનાથી અને ઉત્કૃષ્ટથી ( વધારેમા વધારે ) ૫૦૦ ધનુષની અવગાહનાથી સિદ્ધ થાય છે ૪ હાથનુ એક ધનુષ થાય છે જાન્ય કથન તીથ કરની અપેક્ષાએ જાણવુ જોઈ એ આથી એ હાથની અવગાહનાવાળા ફૂમી પુત્રથી આમા કાઈ વિરાધ આવતે नथी. (सू. ८७) I f · i Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पीयूषयषिणी-टीका स १०२ सिद्धानाविधासस्थानविषयेभगवद्गीतमयो सबाट ७०९ भृमिभागाओ उड्ढं चंदिमसूरियग्गहगणणखत्तताराभवणा ओ वहइ जोयणाडं, वहुई जोयणसयाई, बहुई जोयणसहस्साई, यहूई जोयणसयसहस्साई, बहूओ जायणकाडीओ, वहुआ जोयणकाडाकाडीओ उड्ढतरं उप्पडत्ता साहम्मी-साण-सणंकुमारअस्या रनप्रभाया पृथिव्या 'बहुसमरमणिज्जानो भूमिभागायो' बहुममग्मीयाद् भूमिभागात 'उड्ढ' ऊर्य 'चदिम-मरिय-गहगण-गक्खत्त ताराभवणाओं चन्द्र-सूर्यग्रहगण-नक्षत्र-ताराभवनात् 'वहइ जोयणाई' बनि योजनानि, 'वहद जायणसया' वहान योजनगतानि, 'वहां जायणसहस्साई बहूनि योननसहस्रागि, 'वहइ जायणसयसहस्साट' यहनि योजनगतसहस्राणि, 'बहओ जोयणकांडीओ' वहन्यो योननकोट्य 'यहओ जायणकोडीकोडीओ' वहयो योजनकोटिकोट्य 'उड्दतर उप्पडत्ता' अन्तरमुत्पय सोहम्मी-साण-सणकुमार-माहिद-भ-लतग-महामुक सहस्सारजाणय-पाणय-भारण-अक्षुए सौर-मान-सनकुमार-माहन्दब्रह्मान्तक-महाशुकके (बहुसमरणिजाओ भूमिमागाओ) बहुसमरमणीय भूमिभाग से (उड्ढ) ऊँच-ऊपर (चंदिम-मुरिय-गगहगण--णखत्त-ताराभवणाओ) चद्रमा, मूर्य, ग्रह, नक्षत्र एव ताराओं के भवनों से (बहड जोयणाइ बहई जोयणसयाइ वह जोयणसहस्साह वहूई जोयणसयसहस्साह वही जोयणकोडीओ वही जोयणकोडीकोडीओ) बहुत योजन, बहुत सैकडो योजना बहुत हजारों योजन, बहुत लामोंयोजन, बहुत करोडोंयोजन एव अनेक कोटामोटी योनन (उड्ढतरं उप्पइत्ता) ऊपर जाने पर (सोहम्मी-साण-सणकुमार-माहिदवभ-लतग-महामुक्-सहम्सार-आगय-पाणय-आरण अच्चुए तिणि य अट्ठारे गेविज रयणापहाण पुटवीए) 241 २लाला पृथिवीना (बटुसमरमणि-जाओ भूमिभागाओ) मभरभय मुभिमाथी ( उदढ़) 62-6५२ (चदिममूरियग्गहगणणसत्तताराभवणाओ) यद्रमा, सूर्य, भ, नक्षत्र भर तारामाना सपनाथी (यहइ जोयणसयाइ यहइ जोयणसहस्साइ बहूइ जोयणसयसहस्साइ बहूओ जोयणकोडीओ बहुओ जोयणकोडीकोडीओ) या सापा 2101, ul 31 યોજન, હજારે એજન, ઘણા લાખો યોજન, ઘણા કડે યોજન તેમજ भने टाढाटी योरन (उडढतर उप्पइत्ता) 8२ rat (सोहम्मी-साण-- मणकुमार-माहिद-बम-रतग-महामुक्क-सहस्सार-आणय-पाणय-आरण- अच्चुए Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०८ औपपातिकमत्रे __ मूलम्-से कहिं खाइ णं भंते । सिद्धा परिखसंति ।। गोयमा! इमीसे रयणप्पहाए पुढवीए बहसमरमणिज्जाओ भदन्त । 'सीपभाराए' ईप प्राग्भाराया -ईपत अन्य प्राग्भारो महत्व यस्या सा तथा तस्या -सिद्धगिलाया 'पुढवीए' पृथिव्या 'अहे' अध 'सिद्धा परिवसंति " सिद्धा परिवसन्नि फिम् ?, भगवानाह-'णो इणद्वे समढे नाऽयमर्थ समर्थ ।। सू० १०१ ।। टीका---'से कहि' इत्यादि । गौतम पृच्छति-से कहिं खाइ पा भते ! सिद्धा परिवसति?' अथ कस्मिन् पुन खल भदन्त ! सिद्धा परिवसन्ति ? 'साई' इतिदेशीय शब्द पुनरर्थवाचक । भगवानाह-'गोयमा!" हे गौतम । 'इमीसे रयणप्पहाए पुढवीए' 'अत्यि ण भते !" इत्यादि । प्रश्न-(भते!) हे भदत ! (अत्यि ण ईसीपम्भाराए पुढवीए अहे सिद्धा परिवसति?) क्या सिद्ध भगवान ईपत्प्राग्भारा-सिद्धशिला के नीचे रहते हैं ? उत्तर-हे गौतम! (पो इणद्वे सम?) यह अर्थ समर्थ नहीं है ।। सू० १०१ ॥ 'से कर्हि खाइ णं' इत्यादि। गौतम ने पुन प्रभु से पूछा-(भंते!) हे भदत ! (से कहिं खाइ णं सिद्धा परिवसति) सिद्ध लोग इन पूर्वोक्त स्थानों में नहीं रहते तो फिर वे कहाँ रहते है ? तब प्रभु ने कहा-(गोयमा!) हे गौतम । (इमीसे रयणप्पहाए पुढवीए) इस त्नप्रभापृथिवी १-'खाइ' यह देशीय शब्द है, यह 'पुन' शब्द के अर्थ का द्योतक है। 'ण' गन्द वाक्यालकार में प्रयुक्त हुआ है। 'अत्थि ण भते ।। त्याह प्रश्न--(भते । ) सत! (अस्थि ण ईसीपभाराए पुढवीए अहे सिद्धा परिवसति) शु सिद्ध मावान पत्प्रामारा-सिद्धशिक्षानी नीये २७ छ ? उत्तर- गीतम! (णो इणठे समठे) ! म समर्थ नथी (सू० १०१) 'से कहिं साइ त्यादि गौतमे शन प्रभुन ५ यु-(भते ।) लहत ! (से कहिं खाइ ण सिद्धा परिवसति) सिद्ध a४ मा पूर्वरित स्थानमा नथी २ त ५छी तमा च्या २३ ? त्यारे प्रभुमे घु-(गोयमा !) गौतम! ( इमीसे १-साइ' से शशी शहछे, माद 'पुन' शन मथना सूय४ छ 'ण' श६ वाध्यातरभा छ Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जा कामराज्य लभित है। वि PAT.स १०२,सिद्धानानियासस्थानविपये भगवद्गीतमयो सयाद ७११ पिन कसाई आयामविक्खंभेणं, एगा जोयणकाडी वायालोकायसहस्साइं तीसं च सहस्साइं दाण्णि य अउणापण्णे जायणे कद किंचिविसेसाहिए परिरएणं ॥ सू० १०२ ॥ मूलम्-ईसीपभाराए णं पुढवीए बहुमज्झदेसभाए जायणाई' द्वादश योजनानि जवाहाए' अगाधया अन्तरेण-दरेण ततोऽप्युपरीत्यर्थ , 'एत्य णं' अब खलु 'ईसीयभाराणाम' ईयप्राग्भारा-सिद्धगिला नाम 'पुढवी पण्णत्ता' पृथिवी प्रज्ञता, 'पणयालीसं जायणसयसहस्साई आयामविक्रवभेण पञ्चचत्वारिंशत् याजनगतसहस्रागि आयामविकम्भेण-आयामेन विकम्मेण च, 'एगा जोयणकोडी' एका योजनकोटि 'यायालीसं च' द्वाचवारिंगच 'सयसहस्साई' शतसहस्राणि 'तीस च सहस्सार त्रिंशच महलागि, 'दोग्णि य अउणापपणे जायणसए द्वे चैकोनपञ्चाशे योजनगते, 'किंचि विसेसाहिए' मिचिद्विशेषाधिक परिरयेण परिरयेण परिधिना ।। सू० १०२ ॥ टीका---'ईसीपभाराए' इत्यादि । 'ईसीपभाराए णं पुढवीए' ईषप्रागभाराया खलु पृथिव्या 'बहुमज्झदेसभाए अट्ठजोयणिए खेत्ते अट्ठ जायणाइ वाहलेण' भाग से (दुवालस जोयणाइ अमाहाए ) बारह योजन दूर जाने पर, अर्थात् इन पाच अनुत्तर विमानों के शिखरों के अग्रभाग से १२ योजन ऊपर (एत्य ण ईसीपमारा णाम पुढवी पण्णता) ईपप्राम्भारा पृथिवा अर्थात् सिद्ध शिला है। (पणयालीस जोयणसयमहस्साइ आयामविक्खभेण, एगा जोयणकोटी वायालीस च सयसहस्साइ तीस च सास्साह दोणि य अउणापण्णे जोयणसए किंचि विसेसाहिए पडिरएण) यह पैतालीम लाग्य योजनको लयी-चौडी और एक करोड बयालीस लाख, तीन हजार, दो सौ उचास योजन से कुछ अधिक परिविवाली है ।। सू १०२॥ अर्थात से पाय मनुत्तविमानाना मलायी १२ यौन २ ( एत्थ ण ईसीपभारा णाम पुढवी पण्णता) ध्यत्मामा२१ पृथिवी-मर्थात सिद्धशिता छे (पणयालीम च जोयणसयसहम्माई आयामयिम्सभेपा, एगा जोयणकोडी बायालीस च सयसहम्माइ, तीस च सहस्साइ, दोण्णि र अणापण्गे जोयणसए किंचि विसेसाहिए पडिरएण) मा पास्तावीस साम योननी साथी-पडाको અને એક કરોડ બેતાલીસ લાખ ત્રીસ હજાર બસે ઓગણપચાસ એજનથી જરા વધારે પરિધિવાળી છે (સૂ૦ ૧૦૨). Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१० স্লীবধানিক माहिद-बंभ-लंतग-महालुक्क-सहस्सार-आणय-पाणय-आरण -अञ्चुए तिण्णि य अटारे गेविजविमाणावाससए वीईवडत्ता विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजिय-सव्वदृसिद्धस्स य महाविमाणस्स सबउवरिल्लाओ थूभियग्गाओ दुवालसजायणाडं अवाहाए एत्थ णं ईसीप-भारा णाम पुढवी पण्णत्ता, पणयालीसं जो सहसाग-ऽऽनत-प्राणताऽऽ-रणाऽच्युतानि, 'तिणि यअद्वारे गेविनरिमाणाराससए' प्राणि च अष्टाढग अवेयविमानावासगतानि-श्यकतिमानावासानाम अष्टादशाधिकगतम्य 'पीदेव:त्ता' व्यनिरय= यती य-उल्लड्ध्य, तर-प्रथमतिकस्य एकादयापिकगन (१११), द्वितीय त्रिकस्य समोत्तरशत (१०७), तृतीयरिकस्य शत (१००) अवेय कपिमानानासान् व्यति कन्येत्यर्थ । 'विजय-वेजयत-जयत-अपराजिय-सबसिद्धम्स य महाविमाणस्स' विजय-वैजयन्त--जयन्ताऽ-पराजित-सर्वार्थसिद्धस्य च महानिमानस्य 'साउवरिल्लाओ' सर्वोपरितनात्, 'थूभियग्गाओ' स्तूपिकापात-शिखरामभागात् 'दुवालस विमाणावाससए) सौधर्म, ईशान, सन कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, लान्तक, महाशुक्र, सहसार, आनत, प्राणत, आरण, अच्युत ये १२ देवलोक, एव प्रथमत्रिक के १११, दूसरे त्रिकके १०७, एव तीसरे त्रिकके १०० इस प्रकार तीनमो अठारह गैवेयफ विमानों को (बीईवइत्ता) पार करने के बाद जो (विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजिय-सक्वट्ठसिद्धम्स य महाविमाणस्स सन्त्रउवरिल्लाओ भियग्गाओ) विजय, वैजयन्त, जयत, अपराजित एवं सार्थसिद्ध ये पाच अनुत्तर विमान आते है, इन महाविमानों के शिखर के अप तिणि य अदारे गेविजविमाणावाससए) भौधभ, शान, सनमार, भाडेन्द्र, प्रहा, दात, भला, ससार, मानत, भात, मा२९, मत्युत આ ૧૨ દેવલોક, તેમજ પ્રથમ ત્રિકના ૧૧૧, બીજ ત્રિકના ૧૦૭, તેમજ त्री विना १००, रीतेसो सतार (3१८) अवय विमानाने (पीईचइत्ता) पार ४या पछी २ (विजय-वेजयत-जयत-अपराजिय-सव्वदृसिद्धरस य महाविमाणस्म सव्ववरिल्लाओ थूभियग्गाओ) विय, यन्त, यत, मस्ति , તેમજ સર્વાર્થસિદ્ધ એ પાચ અનુત્તર વિમાન આવે છે, એ મહાવિમાનના शिमन RARIAथी (दुवालसजोयणाइ अनाहाए) १२ या २ orat Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छा राज्यपाल हान (का.स १०२, सिद्धानानिवासस्थानविषये भगवद्गीतमयो सवाद ७११ आपाग इस बात से मैं जो बाम कल भित्र है। वि यस दता है वे कुल साई आयामविखंभेणं, एगा जोयणकाडी बाया लीयसहस्साई तीसं च सहस्साइं दोण्णि य अउणापपणे जायर किंचित्रिसे साहिए परिरएणं ॥ सू० १०२ ॥ गा अम मूलम् — ईसीपव्भाराए णं पुढवीए बहुमज्झदेसभाए जोयणा' हा योजनानि 'अवाहाए' अबाधया=अन्तरेण-दूरेण ततोऽप्युपरोत्यर्थ, 'एत्थ णं' अन खलु 'ईसीपभारा णाम' ईपप्रारभारा- सिद्धगिया नाम 'पुढवी पण्णत्ता' पृथिवी प्रज्ञता, 'पणयालीस जायणसयसहस्साई आयामविक्खभेण पञ्चचचारिंगत् याजनगतसहस्राणि आयामवि'कम्भेण -- आयामेन विष्कम्भेण च, 'एगा जोयणकोडी' एका योजनकोटि 'बायालीस च' द्वाचचारिंशच 'सयसहस्साइ' शतसहस्राणि 'वीस च सहस्ताई' त्रिंशच सहसाणि, 'दोणिय अडणापणे जायणसए' द्वे चैकोनपञ्चाशे योजनगते, 'किंचि विसेसाहिए' किञ्चिद्विपानि परिरयेण' परिरयेग-परिधिना ॥ सु० १०२ ॥ टीका- 'ईसीपन्भाराए' इत्यादि । 'ईसीपन्भाराए णं पुढवीए' ईप्रागभाराया स पृथिव्या 'बहुमज्झदेसभाए अद्वजेोयणिए खेत्ते अट्ठ जोयणार नाहले ' भाग से ( दुबालस जोयणार अवाहाए ) बारह योजन दूर जाने पर, अर्थात् इन पाच अनुत्तर विमानोंके शिखरों के अग्रभाग से १२ योजन ऊपर ( एत्थ ण ईसीपव्भारा णाम पुढची पण्णत्ता ) ईपप्राग्भारा पृथिवी अर्थात् सिद्धगिला है । (पणयालीस जोयणसयसहस्सा आयामविभेण, एगा जोयणकोडी वायालीस च सयसहस्सार तीस च : सहस्सा दोणिय अउणापणे जोयणसए किंचि विसेसाहिए पडिरएण) यह पैंतालीस लास योजनको लनी-चौडी और एक करोड बयालीस लाख, तीन हजार, दो सौ उचाट योजन से कुछ अधिक परिनिवाली है ॥ सु १०२ ॥ अर्थात मे पाथ अनुत्तरविभानाना मलागथी १२ योजन ५२ ( एत्थ ण Euryaभारा णाम पुढaी पण्णत्ता ) पित्यालाश पृथिवी - अर्थात् सिद्धशिक्षा छे ( पणयालीस च जोयणसयसहम्साई आयामविक्रमेण, एगा जोयणकोडी चायालीस च सहस्सार, तीस च सहस्साह, दोणि य अणापणे जोयणस fife विसेसाहिए पडिरएण) मा पीस्तावीस साम योननी साणी- थडोजो અને એક કરોડ બેતાલીસ લાખ ત્રીસ હન્તર ખગેશ એગણપચાસ યેાજનથી જરા વધારે પર્શિધવાળો ( सू० १०२ ) Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ७१२ ओपपातिकमरे अट्ठजोयणिए खेत्ते अह जायणाई वाहटेणं, तयाणतरं च णं मायाए२ परिहायमाणी २ सव्वेसु चरिमपेरंतेसु मच्छियपत्ताओ तणुयतरा अंगुलस्स • असंखेजइभागं वाहल्लेणं पण्णत्ता ॥ सू० १०३ ॥ । बहुमध्यदेशभागेऽष्टयोजनिक क्षेत्रम् अष्ट योजनानि बाहन्येन, 'तयाणवर च ण' तदन तरच खलु 'मायाए'२ मात्रया २ 'परिहायमागी'२ परिहीयमाना२ सम्वेमुचरिमपेरतेमु' सर्वेषु चरमप्रान्तेषु 'मच्छियपत्ताओ तणुयतरा' मक्षिकापक्षात्तनुकतरा 'अंगुलस्स असखेजइभाग' अड्गुलस्याऽख्येयभाग 'वाहल्लेणं' वाहन्येन 'पण्णत्ता' प्रजमा । सू० १०३ ॥ 'इसीपभाराए ण पुढवीए' इत्यादि । इस (इसीपभाराए ण पुढवीए) ईपप्रागभारा पृथिवीका अर्थात् सिद्धशिलाका (बहुमज्झदेसभाए अट्ठजोइणिए खेत्ते) जो बहुमयदेशभागस्थित आठ योजनका क्षेत्र है, उसका (अट्ठजोयणाइ वाहलेण) आठ योजन बाहल्य है, अर्थात् सिद्धशिला बीच मे आठ योजन जाडी है । (तयाणतर च ण मायाए २ परिहायमाणी २) उस मध्यभाग से क्रमश कम होती हुई यह (सव्वेमु चरिमपेरंतेस) सभी चरम प्रदेशों मे (मच्छियपत्ताओ तणु यतरा) मक्खी के पास से भी अधिक पतली है, (अगुलस्स असखेज्जइभाग वाहल्लेण पण्णत्ता) अत यह बारीकी मे अगुल के असख्यातवें भाग जाननी चाहिये ।। सू १०३ ॥ 'ईसीपन्भाराए ण पुढवीए' त्यादि मा (ईसीपब्भाराए ण पुढवीए) पत्प्राभारा पृथिवीना, अर्थात सिद्धशिखाना (बहुमझदेसभाए अट्ठजोयणिए खेत्ते) महु-मध्य-मागमा छु रे 413 यान प्रभावामु क्षेत्र छ, तेना (अदुजोयणाइ बाहल्लेण) मायनमाडल्य छ, अर्थात् सिद्धशिक्षा वयभामा योनी छ (तयाणतर ध ण मायाए २ परिहायमाणी २) मध्यभागथी उभश धीमे-धीमे माडी थता था RAI, (सव्वेसु चरिमपेरतेसु) मा यम प्रशामा (मच्छिय पत्ताओ तणुयतरा) भाभीनी पामयी ५ पधारे पातमी छे ( अगुलस्स असखेजइभाग वाहल्लेण पण्णत्ता) साम ते मारीमा मामीन अस भ्याતમા ભાગની જાણવી જોઈએ (સૂ૦ ૧૦૩) Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीपषिणी-टीका, र १०३, १०४ ईषत्माग्भाराया बादश नामानि १३ मूलम्-ईसीपभाराए णं पुढवीए दुवालस णामधेज्जा पण्णत्ता, तं जहा-ईसीइ वा ईसीपभाराइ वा तणूड वा तणुतणूइ वा सिद्धीइ वा सिद्धालएइ वा मुत्तीइ वा मुत्तालएइ वालोयग्गेइ वा लायग्गभिगाइ वा लोयग्गपडिबुझणाइ वा सव्व-पाण-भूय-जीव-सत्त-सुहावहाइ वा ॥ सू० १०४ ॥ टीका-ईसीपभाराए' इत्यादि ! 'इसीपभाराए ण पुढवीए दुवालस णामधेज्जा पण्णत्ता' ईपप्राग्भाराया सल पृथिव्या द्वादश नामधेयानि प्रजमानि, 'तजहा' तद्यथा-'ईसीड वा' ईपत् इति वा१, 'ईसीप-भाराइ वाईपत्प्राग्भारा इति वार, 'तण्ड वा' तनुरिति वा३, 'तणुतणूइ वा तनुतनुरिति चा४,'सिद्धीइवा' सिद्धिरिति वा५, 'सिद्धालए वा' सिद्धालय इति वा ६, 'मुत्तीइ वा मुक्तिरिति वा ७, 'मुत्तालएइ वा' मुक्तालय इति वा ८, 'लोयग्गेइ वा लोकाममिति वा ९, 'लोयग्गधूभिगाइ वा' लोकाग्रस्तूपिकेनि वा १०, 'लोयगपडिबुझणाइ वा लोकामप्रतिबोधनेति वा ११, 'सन्च-पाण-भूय-जीव -सत्त-सुहावहाइ वा सर्व-प्राण-भूत--जीव-सत्व-सुखावहति वा १२ ॥ सू०१०४॥ 'ईसीपभाराए ण पुढवीए' इत्यादि । (ईसीपभाराए ण पुढवीए दुवालस णामधेजा भवति) ईपप्रागभारा पृथिवी के १२ नाम हैं, (तं जहा) जैसे-१-(ईसीड वा) ईत् , २-(ईसीपभाराइ वा) ईषप्राग्भारा, ३-(तणूइ वा) तनु, ४-(तणुतण इवा) तनुतनु, ५-(सिद्धी ड वा) सिद्वि, ६-(सिद्धालए इवा) सिद्धालय, ७-(मुत्तीइवा) मुक्ति, ८-(मुत्तालए इवा) मुक्तालय, ९-(लोयग्गे इवा) लोकान, १०-(लोयग्गधूभिगाइ पा) लोकाग्रस्तृपिका, ११-(लोयग्गपडिबुझणा 'ईसीपभाराए ण पुढवीए' त्या (ईसीपभाराए ण पुढवी दुवालस णामधेज्जा पण्णत्ता) मा ध्यत्मा अास पृथिवीना १२ नाभी छे, (त जहा ) म १-(ईसी इवा) ऽपत्, २(ईसीपन्भारा इवा) ध्यत्माRA, 3-(तणू इवा) तनु, ४-(तणुतणू इ वा) तनुतनु, ५-(सिद्धी इवा) मिद्धि-(सिद्धाला इवा) सिद्धालय,७-(मुत्ती इवा) मुजित, ८(मुत्तालए इवा) भुताय, ८-(लोयग्गे इ वा) सण, १०-(लोयग्गथूभिगा इवा) a dपि४, ११-(लोयग्गपडिबुझणा इवा) प्रतिमायना, १२-(सव्व-पाण Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ औषतिको मूलम्-ईसीपभारा णं पुढवी सेया संखतल-विमलसोल्लिय-मुणाल-दगरय-तुसार-गोक्खीर-हार-वण्णा उत्ताणय -छत्त-संठाण-संठिया सव्वजुणसुव्वण्णयमई अच्छा सहा __टीका-ईसीपब्भारा' इत्यादि । 'ईसीपभारा ण पुढवी' ईषप्राग्भारा खलु पृथिवी 'सेया' श्वेता 'सखतल-विमल-सोल्लिय-मुणाल-दगरय-तुसार-गोक्खीर -हार-वण्णा' शहतल-विमल-शौन्य मृणाल-दकरज-स्तुपार-गोक्षीर-हार-वर्णा-तत्र-गतल= शवस्याधस्तनो भाग , विमल=निर्मल गौन्य-श्वेतकुसुमविशेष , मृणाल कमलस्य कन्द, तुपार =हिम-'बर्फः' इति प्रसिद्धम्, हार -मुक्ताहार , गदादिहारान्ताना वर्ण इव वर्णो यस्या सा तथा, 'उत्ताणय-उत्त-सठाण-सठिया' उत्तानकच्छर-मस्थान-सस्थिता--उत्तानकम्ऊर्वमुख-विस्फारित यत् उन तस्य मस्थानमिव सस्थान तेन सस्थिता-युक्ता, 'सबज्जुणइवा) लोकमप्रतियोधना, १२-(सन्न-पाण-भूय-जीव-सत्त-सुहावहा इ वा) सर्वप्राणभूतजीवसत्वसुखावहा॥ सू० १४ ।। 'ईसीपभारा ण पुढवी' इत्यादि । (ईसीपब्भारा ण पुढवी) यह ईपप्राम्भारा नामकी पृथिनी (सेया) सफेद है। इसकी उज्ज्वलता (सखतल-विमल सोल्लिय मुणाल दगरय-तुपार -गोक्खीर-हार-वण्णा) शव के तलभागके समान, शुभ्रपुष्पके समान, मृणालके समान, कमलके समान, पानीको बिन्दुओं के समान, बर्फ के समान, दुग्ध के समान, एव मुक्ताहार के समान है। ये सब चीजें जिस प्रकार शुभ्र होती है उसी प्रकार यह भी शुभ्र है। (उत्ताणय-उत्त-सठाणसठिया) गिर पर ताने हुए छत्र के समान इसका आकार है । (सव्वज्जुण-सुवण्णयमई -भूय-जीव-सत्त-सुहावहाइवा) सर्व-प्राण-भूत-०१-सरप-सुभाह। (स० १०४) 'ईसीपमारा ण पुढवी' प्रत्याहि (ईसीपन्भारा ण पुढवी) मा पत्याला पृथिवी (सेया) स३४ छ तेनी Gorrquai ( ससतल-विमल-सोल्लिय-मुणाल-दगरय-तुसार-मोक्खीरहार-वण्णा)श मना तोयाना मागवी Garmqण, शुक्र पुरुष समान, भजना મૃણાલ જેવી, પાણીના બિ દુઓના જેવી, બરફના જેવી, દૂધના જેવી, તેમજ મતીના હાર જેવી ઉજજવળ છે આ બધી ચીજો જેવી શુજ (घोजी) हाय छे तेवी रीते मा पर शुक्र छ ( उत्ताणय-छत्त-सठाण संठिया) शिर ९५२ साढता छत्र समान तना मा छे (सव्वज्जुण Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१५ ma पीयूषयषिणो दो स १०५, पत्माग्माराया स्त्ररूपयर्णनम् लण्हा घट्ठा महा णीरया णिम्मला णिप्पंका णिकंकडच्छाया समरीचिया सुप्पभा पासादीया दरिणिजा अभिरुवा पडिरूवा ॥ सू० १०५॥ मुवष्णयमई' सर्वार्जुनसुवर्णकमयी-सर्वेण सर्वावयवावच्छेदेन अर्जुनसुवर्णकमयी श्वेतकाञ्चनमयी, तथा-'अच्छा' अच्छा आकाशस्फटिकवत् , 'सण्हा' श्लदणा-शुमपरमाणुस्कन्धरचिततया ग्लक्ष्णा मूलमतन्तुनिर्मितरसवत् भूक्ष्मा, 'लहा' ग्लणा-घुण्टितवस्त्रवन्ममृणा, 'लट्ठा' लप्टा सुन्दराकृतिका, 'घट्ठा' घृष्टाधृष्टेव-स्वरगाणया शोधितपाषाणवत्, 'महा' मृष्टा-मुष्टेव-कोमलगाणया शोधितपाषाणवत्, 'जीरया' नीरजा , 'हिम्मला' निर्मला, गणप्पका' निप्पदा कर्दमरहिता 'णिककडन्छाया' निकटच्छाया आवरणरहिता 'समरीचिया' समरीचिका-क्रिग्णसमूहयुक्ता, 'मुप्पभा' सुप्रभागोमासम्पन्ना, 'पासाईया' प्रासादीया-प्रसाद प्रमोद स एव प्रासाद , स प्रयोजन यस्या सा तथा, 'दरिसणिज्जा' दर्शनीया-दर्शनाय हिता, ता पश्यच्चक्षुर्न श्राम्यतीयर्थ, 'अभिरुवा' अभिरूपाअच्छा सहालण्हाघट्ठामटठा जीरया णि मला णिप्पका णिककडच्छाया समरीचिया सुप्पभा पासादीया, दरिसणिज्जा अभिरुवा पडिस्त्रा) तथा यह सपूर्ण श्वेतकाचनमय है, आकाश एव स्फटिक के समान स्वच्छ है, शुद्धपरमाणुस्कन्धों से रचित होन के कारण सूक्ष्मतन्तुओं से निर्मित वस्त्र के समान सूक्ष्म है, घुटे हुए वस्त्र के समान चिकनी है, घृष्ट है-नवर शाण से घिसे हुए पत्थर के जैसी है, मृष्ट है, अर्थात्-कोमलाण से घिसे हुए पत्थर के समान चिकनी है। नीरज-निर्मल है। कर्दमरहित है। आवरणरहित है। किरणों के समुदाय से सुरम्य है। शोभासे संपन्न है। प्रमोद प्रदान करने वाली है । दर्शनीय है। सुरण्णयमई अच्छा सहा लण्हा घटा मटा णीरया णिम्मला णिपंका णिकंकडच्छाया समरीचिया सुप्पभा पासाठीया दरिसणिज्जा अभिरुवा पडिस्वा) तथा એ સપૂર્ણ વેત વાચનમય છે, આકાશ તેમજ ટિકના સમાન સ્વછ છે શુદ્ધ પરમાણુ થી નિમિત હોવાને કારણે સૂકમત તુઓથી નિર્મિત વસ્ત્ર સમાન સૂક્ષમ છે, ઘટિત–માડ વિગેરેથી ઘસાયેલા વરની માફક ચીકણી છે, ઘટે છે–ખરશાણથી ઘસાયેલા પથરના જેવી છે, મુષ્ટ છે–અર્થાત કેમળશાણથી ઘસેલા પત્થરના જેવી ચીકણી છે, નીરજ-નિર્મળ છે, કેમ (6) थी २डित, शीलसपन्न छ, प्रभा (मान) मा५५पाणी છે, દર્શનીય છે, એને જેવાવાળાના નેત્ર એને જોતા જોતા ધરાતાજ નથી, એ weremorren Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - --- - - औपपातिकमरे मुलम्----ईसीपभराए णं पुढवीए सेयाए जोयणमि लोगंते । तस्स जोयणस्स जे से उवरिल्हे गाउए, तस्स णं गाउयस्स जे से उवरिल्ले छभागे, तत्थ णं सिद्धा भगवंतो सादिया कमनीया, 'पडिख्या' प्रतिरूपा-दर्शने प्रतिक्षण नव नवमिव प्रतिभासमान रूप यस्या सा तथा ॥ सू० १०५॥ टीका-'ईसीपमाराए' इत्यादि । 'ईसीपन्भराए ण' ईपप्रारभाराया सिद्धशिलाया खल 'पुढवीए सेयाए' पृथिव्या श्वेताया 'जोयणंमि लोगते' योजने लोकान्त = योजनपरिमित क्षेत्रमुपरि गत्या लोकातो वर्तते । अत्र योजनम्-उत्सेधाजलयोजन ग्राह्यम्, तदीयस्यैव हि क्रोशषड्भागस्य सत्रिभागनयस्त्रिंशदधिरुधनु शतनयीप्रमाणत्वादिति । 'तस्स जोयणस्स' तस्य योजनस्य, 'जे से' य स 'उपरिल्ले' उपरितन 'गाउए' देशीयोऽय शब्द क्रोगार्थे, स च द्विसहस्रधनु प्रमाण क्षेत्रम् , उक्त च-" चउहत्य पुण धनुह दुनि सहस्साड गाउय तेर्सि" ॥ इति । 'तस्स ण' तस्य सह 'गाउयस्स' क्रोगस्य, 'जे से उबरिले' य स उपरितन 'छम्भाए' पड्भाग =पष्ठो भाग , 'तस्थण सिद्धाभगवतो इसे देखने वालों के नेत्र इसे देखते २ थकते नहीं है। यह बड़ी ही कमनीय है । इसे ज्यों ज्यों देखा जाता है त्यो २ यह नवीन२ जैसी प्रतीत होती है ॥ सू० १०५ ॥ 'ईसीपब्भाराए ण पुढचीए' इत्यादि। इस (ईसीपन्भाराए ण पुढवीए सेयाए)शुभ्र ईप प्राग्भारा पृथिवी से (जोयणमि) ऊपर १ योजन मे (लोगते) लोक का अत है । (तस्स जोयणस्स जे से उवरिल्ले गाउए, तस्स ण गाउयस्स जे से उबरिले छन्भागे, तत्थ ण सिद्धा भगवतो सादिया अपज्जवसिया) उस योजनपरिमित लोक के अत में ३३३ धनुष और ३२ अगुल जितनी जगह रही है, उसमें अथात् उस योजन के ऊपर के कोस के छठवें भाग में सिद्ध भगवान् બહુ જ કમનીય છે, તેને જેમ જેમ લેવાય તેમ તેમ તે નવીન નવીન જેવી પ્રતીત થાય છે (સૂ૦ ૧૦૫) 'ईसीपब्भाराए ण पुढवीए' इत्यादि 21 (ईसीपभाराए ण पुढवीए सेयाए) शुद्ध पालारा पृथिवीधी (जोयणमि) 6५२ १ यानभा (लोगते) सनी मत छ (तस्स जोयणरस जे से उचरिल्ले गाउए, तस्स ण गाउयरस जे से उवरिल्ले छ-भागे, तत्य ण सिद्धा भगवतो मादिया अपजवसिया चिठति) ते येनपरिमित ना આતમા ૩૩૩ ધનુષ અને ૩૨ આગળ જેટલી જગા રહી છે, તેમાં અર્થાત્ Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोगवषिणी टीशस १०६ सिद्धस्वरूपवर्णनम् ७१७ अपज्जवसिया अणेगजाइ-जरा-मरण-जोणि-वेयणं संसारकलंकलीभाव-पुणभव-गन्भवास-वसही-पवंचं अइक्कंता सासयमणागयद्धं चिट्ठति ॥ सू० १०६ ॥ मूलम् कहिं पडिहया सिद्धा १, कहिं सिद्धा पडिट्टिया । कहि बोदि चइत्ता णं, कत्थ गंतूण सिझड ?॥ सू० १०७॥ सादिया अपज्जवसिया' तत्र स्खलु सिदाभगन्त सादिका अपर्यवसिता 'अणेग-आइजरा-मरण-जोणि-वेयण' अनेक-जाति-जरा-मरण-योनि-वेदनम्-अनेकजातिजरामरणप्रधानयोनिपु वेदना यत्र म तथा त, 'ससार-कलंफलीमाव-पुणभव-गम्भवासबसही-पवचं मसार--कलइलीभाव-पुनर्भन-गर्भवास-यसति-प्रपञ्च --मसारे कलइलीभावेन अममनस वेन ये पुनर्भया =पौन पुन्येन उपाठा , गर्भवासरसतय गर्भाश्रयनिवासाच तासा य प्रपञ्चो बिस्तर स तथा तम् 'अडकता' अतिकान्ता=निस्तीर्णा , 'सासय' शाश्वतम् 'अगागयद्धं' अनागतादा-भविष्यकाल 'चिद्वति तिष्टन्ति ।। सू० १०६ ॥ टीका-'कहिं पडिहया' इति । गौतम पृच्छति-'कहिं पडिहया सिद्धा' क्व प्रतिहता सिद्धा=सिद्धा कुत्र प्रतिरुद्धा, तथा 'कर्हि सिद्धा पडिट्टिया' क्व सिद्धा प्रतिसादि-अपशुपसित स्थिति में विराजमान हैं। (अणेग-जाइ-जरा-मरण-जोणि-वेयण संमार-कलालीमार-पुणब्भव-नाभवास-चमही-पवचमडकता)ये सिद्ध भगवान् अनेक जानि, जरा एक मरण की वेदना से, तथा असमजसपूर्ण जो बार बार जन्म लेना, गर्भ में वास करना आदि दस है उनमे युक्त सासारिक प्रपचों से रहित होकर (सासयमणागयद्ध चिट्ठति) सदा शाश्चतिकरूप से वहाँ पर विराजते रहते हे ।। सू० १०६ ।। તે એજનની ઉપરના કોમના છઠ્ઠા ભાગમાં સિદ્ધ ભગવાન સાદિ-અયવચિત स्थितिमा विमान (अणेग-जाइ-जरा-मरण-जोणि-वेयण ससार-कलंकलीभाव-पुणभर-भवास-चमही-पवधमइक्कता) से मिद्ध समान भने જન્મ, જરા તેમજ મરણની વેદનાથી તથા અસંમજસપૂર્ણ જે વારવાર જન્મ લે, ગર્ભમાં વાસ કર–આદિ દુ ખ છે તેનાથી યુક્ત સામારિક પ્રપોથી २हित २ (मामयमणागयद्ध चिट्ठति ) सह ति४३५यी माल विस ru P छ (सू० १०१) Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ মাথমিক मुलम्-ईसीपभराए णं पुढवीए सेयाए जोयणमि लोगंते । तस्स जोयणस्स जे से उवरिल्ले गाउए, तस्स णं गाउयस्स जे से उवरिल्ले छब्भागे, तत्थ पंसिद्धा भगवंतो सादिया कमनीया, 'पडिरूया' प्रतिरूपा-दर्शने प्रतिक्षण नव नवमिव प्रतिभासमान रूप यस्या सा तथा ॥ सू० १०५ ॥ टीका-'ईसीपन्भाराए' इत्यादि । 'ईसीपम्भराए णं' ईपत्प्राग्भाराया सिद्धशिलाया खल 'पुढवीए सेयाए' पृथिव्या श्वेताया 'जोयणमि लोगते' योजने लोकान्त = योजनपरिमित क्षेत्रमुपरि गत्वा लोकान्तो वर्त्तते । अत्र योजनम्-उत्सेधागुलयोजन ग्राह्यम्, तदीयस्यैव हि क्रोशषड्भागस्य सनिभागमयस्त्रिंशदधिकधनु शतायीप्रमाणत्वादिति । 'तस्स जोयणस्स' तस्य योजनस्य, 'जे से' य स 'उवरिले' उपरितन 'गाउए' देशीयोऽय शब्द क्रोशाथै, स च द्विसहस्रधनु प्रमाण क्षेत्रम् , उक्त च-" चउहत्य पुण धनुह दुनि सहस्साइ गाउय तेर्सि" ॥ इति । 'तस्स ण' तस्य सल 'गाउयस्स' क्रोगस्य, 'जे से उवरिल्ले' य स उपरितन 'छन्माए' पड्माग-पठो भाग , 'तत्यण सिद्धाभगवतो इसे देखने वालों के नेत्र इसे देखते २ यकते नहीं है। यह बडी ही कमनीय है। इसे ज्यों न्यों देसा जाता है त्यो २ यह नवीनर जैसी प्रतीत होती है ।। मू० १०५॥ 'ईसीपब्भाराए ण पुढवीए' इत्यादि । इस (ईसीपभाराए ण पुढवीए सेयाए)शुभ्र ईप'प्राग्भारा पृथिवी से (जोयणमि) ऊपर १ योजन मे (लोगते) लोक का अत है । (तस्स जोयणस्स जे से उवरिले गाउए, तस्स ण गाउयस्स जे से उवरिले छ-भागे, तत्थ ण सिद्धा भगवतो सादिया अपजवसिया) उस योजनपरिमित लोक के अत में ३३३ धनुष और ३२ अगुल जितनी जगह रही है, उसमे अर्थात उस योजन के ऊपर के कोस के छठवे भाग में सिद्ध भगवान् બહુ જ કમનીય છે, તેને જેમ જેમ જેવાય તેમ તેમ તે નવીન નવીન જેવી પ્રતીત થાય છે (સૂ૦ ૧૦૫). 'ईसीपम्भाराए ण पुढवीए'त्यादि मा (ईसीपभाराए ण मुढवीए सेयाए ) शुभ्र धपामा पृथिवीथी (जोयणमि) 6५२ १ मा (लोगते) नो मत छ (तस्स जोयणस्स जे से उरिल्ले गाउए, तस्स ण गाउयस्म जे से उवरिल्ले उम्भागे, तत्थ ण मिता भगवतो सादिया अपजवसिया चिट्ठति) योजनपरिमित all આતમા ૩૩૩ ધનુષ અને ૩૨ આગળ જેટલી જગા રહી છે, તેમાં અર્થાત્, Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवणी टीका, ख १०६ सिस्वरूपवर्णनम् ७१७ अपज्जवसिया अणेगजाइ - जरा - मरण - जोणि-वेयणं संसारकलंकलीभाव - पुणभव-गव्भवास- वसही - पर्वचं सासयमणागयद्धं चिति ॥ सू० १०६ ॥ अइक्कंता मूलम् - कहिं पहिया सिद्धा ?, कहिं सिद्धा पडिट्टिया ? कहिं बोदि इत्ता णं, कत्थ गंतूण सिज्झइ ? ॥ सू० १०७ ॥ सादिया अपज्जवसिया' तन सल सिहा भगवन्त सादिका अपर्यवसिता 'अणेग-जाइजरा-मरण - जोणि-वेयणं' अनेक-जाति--जरा-मरण - योनि - वेदनम् - अनेकजातिजरामरणप्रधानयोनिषु वेदना यत्र स तथा त, 'संसार- कलकली भाव - पुणग्भव- गन्भवासबसही - पवच मसार -- कलहली भाव- पुनर्भव- गर्भवास- वसति-प्रपञ्चं - ससारे कलकलीभावेन ==असमञ्जसत्वेन ये पुनर्भना = पौन पुन्येन उत्पादा, गर्भवासवसतय गर्भाश्रयनिवासाथ तासा प्रपञ्चोविस्तर स तथा तम् 'अइक्कता' भतिकान्ता निस्तीर्णा, 'सास' mar 'antra' अनागताद्वा भविष्यत्काल 'चिट्ठति' तिष्ठन्ति || सू० १०६ ॥ य 'टीका 'कहिं पहिया' इति । गौतम पृच्छति 'कहिं पडिहया सिद्धा' क्व प्रतिहता सिद्धा = मिद्धा कुत्र प्रतिरद्रा, तथा 'कहिं सिद्धा पडिडिया' क्व सिद्धा प्रति सादि --- अपर्यवसित स्थिति मे विराजमान है। (अणेग-जाइ - जरा - मरण - जोणि- वेयणं ससार- कलकली भाव- पुणग्भव-गग्भवास-बसही पर्वचमकता) ये सिद्ध भगवान् अनेक जाति, जरा एव मरण की वेदना से, तथा असमजसपूर्ण जो बार बार जन्म लेना, गर्भ में वास करना आदि दुस है उनमे युक्त सासारिक प्रपचों से रहित होकर (सासयमणागयद्ध चिट्ठति ) सागाश्वतिकरूप से यहाँ पर विराजने रहते हे || सू० १०६ ॥ તે ચેાજનની ઉપરના કાસના છઠ્ઠા ભાગમાં સિદ્ધ ભગવાન સાદિ-પર્યવસિત स्थितिमा विरानभान छे (अणेग-जाइ-जरा-मरण - जोणि--वेयण ससार- कलक लीभाव - पुणभव-गव्भवाम-मही- पवघमइक्कता) से सिद्ध भगवान भने જન્મ, જરા તેમજ મરણની વેદનાથી તથા અસમજસપૂર્ણ જે વાર વાર જન્મ લેવા, ગર્ભમા વાસ કરવા આદિ દુખ છે તેનાથી યુકત માસારિક પ્રય ચેાથી रहित थने (मासयमणागयद्ध चिट्ठति ) सहा शाश्वतिष्ठ३पथी त्या विश જતા રહે છે (સ્૦ ૧૦૬) Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - ७१८ औपपातिकसने मूलम्----अलोगे पडिहया सिद्धा, लोयग्गे य पडिटिया। इह बोंदि चइत्ता णं, तत्थ गंतूण सिज्झइ ॥ सू०१०८॥ प्ठिता व्यवस्थिता । तथा--'कहिं बौदि चहत्ता ण व शरीर त्याचा सल 'कस्थ गतूण क्व गत्वा 'सिन्झई सिध्यन्ति । 'वोदी' इति शरीरार्थको देशीशन्द ! 'सिजाई' इत्यत्रार्पवाद बहुत्वे एक वम् ।। सू० १०७ ।। टीका-~~-'अलोगे इत्यादि । 'अलोगे' अलोके अलोकामाशास्तिकाये सिद्धा' सिद्रा 'पडिहया' प्रतिहता अतिरद्धाः, तथा 'लोयग्गे य' लोकामे पञ्चास्तिकायलक्षणलोकशिरोभागे च 'पडिद्विया' प्रतिष्टिता अपुनरावृत्तिरूपेण व्यवस्थिता , तथा 'इड' इह 'कर्हि पडिहया सिद्धा' इत्यादि । गौतम पूछते हे कि ह भदत ! ( कहि पडिडया सिद्धा) सिद्ध भगवान किस स्थान पर अटके है ।, (कहिं सिद्धा पडिट्ठिया) वे कहा प्रतिष्ठित है ।, (कहिं बौदि चहत्ता ण) इस शरीर को छोडकर (कत्य गतूण सिज्झइ) वे कहा जा कर सिद्ध होते है ? ।। सू १०७ ॥ 'अलोगे पडिहया' इत्यादि। उत्तर----हे गौतम । (अलोगे पडिहया सिद्धा लोयग्गे य पडिहिया) सिद्ध भगवान् लोक के अग्रभाग में रहते है, इसलिये वे अलोक में जाने से अटके हुए हैं। लोक के अग्रभाग में उनकी स्थिति है । (इह वोदि चात्ताणं) इम मनुष्यलोक में वे शरीर का 'कहिं पडिहया मिद्धा' 'त्यादि. गौतम पूछे है सन्त। (कहिं पडिहया सिद्धा) सिख सापान ध्या स्थाने मट छ १, (कहि सिद्धा पडिट्रिया) तसा ४प्रतिष्ठित छ १, ( कहिं चोदि चइता ण, कत्थ गतूण सिज्झइ) मा शरीरने छीन તેઓ કયા જઈને સિદ્ધ થાય છે? (૧ ૦ ૧૦૭) 'अलोगे पडिहया' या उत्तर- गौतम (अलोगे पटिहया सिद्धा) सिद्ध मान ! सभामा २ तेथी तो माथी 423 खाय छ (लोयग्गे म पडिटिया) asan Ranमा मनी स्थिति छ (इह बोर्टि चइता ण) सा मनुष्यमा तसा शरीरमा परित्याग २ (तत्य गतूण : ... Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ utrafiणी टीका, शास्त्रोपसंहारं मूलम् - जं संठाणं भवं, चयंतस्स चरिमसमयंमि I आसीय पएसघणं, तं संठाणं तहिं तस्स ॥ सू० १०९ ॥ मूलम् - दीहं वा हस्तं वा, जं चरिमभवे हवेज संठाणं । तत्तो तिभागहीणं, सिद्धाणो गाहणा भणिया । सू० ११० ॥ मनुष्यक्षेत्रे 'बोदि' शरीर 'चडत्ता णं' व्यक्या सलु 'तत्थ' तत्रोका 'गतूण' गवा 'सिज्झइ' सिध्यन्ति ॥ सू १०८ ॥ ७१९ टीका- 'ज सठाण' इयादि । 'भ' भवसार 'चयतस्स' त्यजत सिद्धस्य 'चरिमसमयमि' चरमसमये = मोक्षगमनसमये 'इह तु वह तुमनुप्यक्षेत्रे तु 'जं सठाणं' यत् सस्थानम् 'आसीय' आसीत्, 'त सठाण' तत् संस्थान 'तस्स' तस्य सिद्धस्य 'नहि' तत्र सिद्धक्षेत्रे 'पएसघण' प्रदेशघन तृतीयभागेन रन्ध्रपूरणाद् भवति ।। सू १०९ ॥ टीका' दीह वा' इयादि । 'दीहं वा' दीर्घव गतमान वा 'हस्स वा ' परित्याग करके (तत्थ गतूण सिज्झइ) सिद्धस्थान में जाकर सिद्ध होते हे ॥ स् १०८ ॥ 'ज सठाण' इत्यादि । (ra area) मसार का परियाग करते हुए सिद्ध का ( चरिमसमयमि ) मोक्षगमन समय में (इह तु ) इस मनुयक्षेत्र मे (जं सठाण) जो सस्थान था, (तम्स) उस सिद्धका (त संठाण) वह संस्थान ( तर्हि ) उस सिद्ध क्षेत्र में (पएसघण) कान, चक्षु आदि इन्द्रियों के रिक्त स्थान भर जाने के कारण प्रदेशघनरूप होता है || सू १०९ ॥ 'दी वा हस वा' इत्यादि । ( दीह वा ) चाहे सम्थान दीर्घ-2 ६-५०० धनुप का हो, (हस्म वा) चाहे ह्रस्व- २हाथ સિદ્ધ સ્થાનમાં જઈને તેએ સિદ્ધ થાય છે (સૂ ૧૦૮) 'ज सठाण' धत्याहि (भव चयतस्स ) ससारनी परित्याग डरती वणते सिद्धनु ( चरिमसमयसि ) भोक्षगमन समयभा ( इह तु) मा मनुष्य-क्षेत्रमा ( ज मठाण ) ? सभ्यान तु, (तस्स) ते सिनु (त सठाण) ते सस्थान ( तहिं) से भिद्धक्षेत्रमा (पएस) अन, साम आहि इंद्रियांना रिक्त स्थानी परिपूर्ण थवाने अश् પ્રદેશધનરૂપ થાય છે (સ ૧૦૯) 'ate a tear' fत्याहि ( दीह वा) आहे सस्थान दीर्घ (सामु) - ५०० धनुषनु होय, (हस्सं वा) Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिक मूलम् - तिणि सया तेत्तीसा, धणुत्तिभागो य होइ वोद्धव्वो । एसा खलु सिद्धाणं, उक्को सोगाहणा भणिया ॥ सू० १११ ॥ ७१० हूस्व हस्तद्वयमान वा, या शब्दान्मध्यमं चापि माय 'ज चरिमभवे सठाणं हवेज' यचरमभवे सस्थान भवेत् ' तत्तो तत =तस्मात्, 'तिभागहीण' विभागहीन = विभागेन-तृतीयभागेन रन्ध्रपूरणात् विभागहीन यथा स्यात्तथा 'सिद्धाणोगाहणा' सिद्धानामवगाहना 'भणिया' भणिता = कथिता जिनैरिति शेष ॥ सू ११० ॥ टीका- 'तिणि' इत्यादि । 'विष्णि सया तेत्तीसा' त्रीणि शतानि त्रयत्रिशब्दपि, तथा 'धणुत्तिभागो य' धनुखि भागश्च धनुप = एकम्य धनुपविभाग =तृतीयो भाग - द्वात्रिंशदङ्गुलानि तेन त्रयत्रिंशदधिकशतत्रय- ३३३ धनृषि द्वार्निंगदद्गुलानि चेयर्थ, अय सिद्धानामुत्कर्षतोऽवगाहनाप्रमाणो 'गोद्धव्यो' बोद्धव्यो जातत्र्यो भवति । अमुमेवार्थमाह- 'एसा खल सिद्धाण उक्कोसोगाहणा भणिया' एषा खलु सिद्धानाम् उत्कर्षाऽवगाहना भणितेति । इयमवगाहना पञ्चधनुश्शतप्रमाणशरीराणा भरतीति बोध्यम् ॥ सू० १११ ॥ का हो, अथवा मध्य - अवगाहना के विकल्पों वाला हो, (ज चरिमभवे हवेज्ज संठाण) अन्तिम भव-समय में जैसी अवगाहनावाला शरीर होगा, (तत्तो विभागहीण सिद्वाणोगाहणा भणिया) उससे तृतीय भाग-हीन अवगाहना सिद्धों की सिद्धिगति में होती है ॥ ११० ॥ 'तिष्णि सया तेत्तीसा' इत्यादि । (तिणि सया तेत्तीसा) तीन सौ तैंतीस धनुप, तथा ( धणुत्तिभागो य होइ atrait) एक धनुष का तीसरा भाग, अर्थात् ३२ अगुल, (एसा खलु सिद्धाण उक्कोसोगाहणा भणिया ) इतनी उत्कृष्ट अवगाहना सिद्ध भगवान् की जानना चाहिये । यह अवगाहना, जिनका शरीर ५०० धनुष का होता है उनकी अपेक्षा कही गई है ।। सू. १११ ॥ ચાહે હ્રસ્વ-ટુકુર હાથનુ હોય, અથવા મધ્ય અવગાહનાના વિકલ્પોવાળુ हाथ, (ज चरिमभवे हवेज्ज सठाण) अंतिम लव-समयमा नेवी अवगाहना वाणु शरीर हशे ( तत्तो विभागहीण सिद्धाणोगाहणा भणिया ) तेनाथी श्रीक्त ભાગની આછી અવગાહના સિદ્ધોની સિદ્ધિગતિમા હેાય છે (સ ૧૧૦) 'तिणिसया तेतीसा' इत्याहि (तिष्णि सया तेत्तीसा) घुसे। तेन्रीस धनुष, तथा (वणुत्तिभागो य होइ बोद्धव्वो) ४ धनुषने। त्रीले लागू, अर्थात् ३२ भागण, (एसा मल सिद्धाण Gratineer भणिया) भेटसी सूष्ट अवशाना सिद्ध भगवाननी लखुनी Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२१ mmume - mmmmmmmmmmmmmmmms पीयपपिणी-टीका शास्त्रोपमदार मूलम्-चत्तारि य रयणीओ,रयणितिभागूणिया य बोद्धव्या। एसा खलु सिद्धाणं, मझिमओगाहगा भणिया।। सू० ११२॥ मूलम्-एक्का च होइ रयणी, साहीया अंगुलाइ अट्ट भवे । एसा खलु सिद्धाणं,जहण्णओगाहणाभणिया। सू०११३ ॥ टीका-'चत्तारि' इत्यादि । 'चत्तारि य रयणीओ' चतन्नश्च रनय , 'रयणिविभागणिया य' रनिविभागोनिका च सिद्धाना मध्यमाऽवगाहना 'योद्धन्वा बोदव्या । अमुमेवार्थमाह- 'एसा ग्वलु सिद्धाण मज्झिमओगाहणा भणिया' या सलु मिदाना मध्यमाऽवगाहना भणिता । पोदशाङ्गुलारिकचतुईलममाणा सिद्धाना मध्यमारगाहन यर्थ । इय सप्तहस्तप्रमाणटारीरधारिणा सिद्धानाम् ।। सू० ११२ ।। टीका-'एका' इयादि । सिद्धाना जघन्याऽवगाहनायाम् 'एक्का च होड 'चत्तरि य रयणीओ इयादि। (चत्तारि य रयणीओ) चार हाथ और (रयणितिभागृणियाय बोद्धन्वा) एक हाथ का तीसरा भाग, अर्थात् १६ अगुल की मध्यम अवगाहना होता है । (एसा खल सिद्धाण मज्झिमओगाहणा भणिया) सिद्धा को यह मध्यम अपगाहना ७ हाय शरीरवालों की अपेक्षा से जाननी चाहिये ।। मू ११२॥ 'एका च होड रयणो' इत्यादि। (एक्का च होड रयणी माहीया अगुलाइ अट्टमवे) कुछ अधिक एक हाथ, આ અવગાહના, જેનુ શરીર ૫૦૦ ધનુષનું હોય છે તેની અપેક્ષાએ કહેલી छ (सू १११) 'चत्तारि य रयणीओ' त्यादि (चत्तारि य रयणीओ) या डाय सने (रयणितिभायूणिया य बोद्धम्या) ૧ હાથને ત્રીજો ભાગ, અર્થાત્ આગળની મધ્યમ અવગાહના હોય છે (एसा मलु सिद्धाण मन्झिम-ओगाणा भणिया) मिनी मा मध्यम माना ૭ હાવ શરીરવાળાની અપેક્ષાથી જાણવી જોઈએ (સૂ૦ ૧૧૨) 'एक्का च होइ रयणी' त्या (एक्का च होइ रयणी साही या अगुलाइ अदु भवे ) खायया या Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ હર औपपातिकम रयणी साहीया' एका च भवति रनि सारिका । कियता प्रमाणेवाधिका भवतीत्याह'अगुलाई' इत्यादि । 'अगुलाइ अट्ट भवे' अड्गुलानि अष्ट भवति । अटालाधिकैकहस्तप्रमाणा सिद्धाना जघन्यानगाहना भक्ती यर्थ । मुमेवार्थमाह- 'एसा सलु सिद्धाण जहण्णओगाहणा भणिया' एपा यह सिद्धारा जयन्यावगाहना भणितेति । इय द्विहस्तप्रमाणगरीराणाम् । इय त्रिविधाऽप्यवगाहना शरारार्धमानमाश्रिय गृहाते, अन्ययोपविष्टाना सिध्यता मान सामपि भवेत् । नन्वेवमूर्तमानाङ्गीकारे नाभिकु लकरस्य भार्याया मरुदेव्या कथ सिद्धिस्थानप्रापि, नाभिकुलकरो हि पञ्चविंशत्यधिकपश्चगतधनु प्रमाण आसीत्, तद्भार्याऽपि मस्देनी त प्रमाणैव तथाचोक्तम्- "संघयण सठाण उच्चत चेत्र कुलगरेहिं सम " इति । अतस्तद्रवगाहना उत्कृष्टावगाहनातोऽधिकतरा १, अर्थात् एक हाथ८ अगुल, (एसा खलु सिद्धाण जहणणओगाहणा भणिया) यह जघन्य अनगाहना सिद्ध भगवान् की जननी चाहिये । यह अवगाहना २ हाथ की अवगाहना वाले जीवों की अपेक्षा कही गई समझना चाहिये । यह तानो प्रकार की अपगाहना शरीर की ऊँचाई की अपेक्षा कही गई है । बैठकर सिद्ध होने वालों का मान तो विसदृग भी होना चाहिये । प्रश्न- इस तरह ऊर्धमान को आश्रित करन पर नाभिकुलकर की भार्या मरुदेव। को मिद्धिस्थान की प्राप्ति कैसे हो सकती है, क्यों कि नाभिकुलकर ५२५ धनुष प्रमाण अवगाहनावाले थे तो उनकी धर्मपत्नी भी उतना ही अवगाहनावाली होग। । क्यों कि ऐसा कहा है कि महनन और संस्थान कुलकरों की महिलाओं का कुलकर के समान होता है । इसलिये उनकी अवगाहना उत्कृष्ट अवगाहना से अधिक्तर हो जाती है । उत्तर--प्रश्न ठोक है परंतु इसका समाधान इस प्रकार है, यद्यपि कुलकर जैसी उच्चता उनकी पत्नियों में વધારે, અર્થાત્ એક હાથ ૮ मागण, ( एसा सलु सिद्वाण जहण्णओगाहणा भणिया ) सिद्ध लगवाननी मा बधन्य अवगाहुना लागुवी मा अवगाहना ૨ હાથની અવગાહનાવાળા જીવાની અપેક્ષાએ કહેલી છે એમ સમજવુ એ ત્રણેય પ્રકારની અવગાહના શરીરની ઉચાઈની અપેક્ષાએ કહેલી નહિ તેા બેસીને સિદ્ધ થવાવાળાએનુ માન (પ્રમાણ) વિસદેશ (નુજ્જુ ) પણ હોવુ જોઈએ પ્રશ્ન—આ રીતે ઉવ (ઉચા) માનને આશ્રિત કરવા નાભિકુલકરના ધર્મપત્ની મરુદેવીને સિદ્ધિસ્થાનની પ્રાપ્તિ કેવી રીતે થઈ શકે ?, કેમ કે નાભિકુલકર ૫૨૫ ધનુષ્યપ્રમાણ અવગાહનાવાળા હતા તેા, તેમના ધર્મપત્ની પણ એટલી જ અવગાહનાવાળી હશે. કેમકે એમ કહ્યુ છે કે કુલકરની મહિલા એવુ સહનન અને સસ્થાન કુલરોના સમાન હોય છે આથી તેમની અવગાહના, ઉત્કૃષ્ટ અવગાહનાથી વધારે થઈ જાય છે. ઉત્તર--પ્રશ્ન ઠીક છે, પરંતુ તેનુ સમખાન આ પ્રકારે છે, જેને કુલકરજેવી ઉચ્ચતા તેમની પત્ની Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूपपिणी टीका, शाम्रोपमहार ७२३ मूलम्-ओगाहणाए सिद्धा,भवतिभागेण होति परिहीणा। संठाणमणित्थस्थ, जरामरणविप्पमुक्काणं । सू० ११४ ॥ जत्थ य एगो सिद्धो, तत्थ अणता भवक्खयविमुक्का। अप्रोच्यने-यद्यपि कुलकरतुन्यमुञ्चत्त्व तपनानामिन्युक्त, तथापि पश्चातधनुमानता तस्या वाक्येन गरीरमकोचात् मनातेति नास्ति विरोध ॥ सू० ११३ ॥ टीका--'ओगाहणाए' इत्यादि । ओगाहणाए अवगाहनया मानगाहनया सिद्धा' सिद्धा, ‘भवत्तिभागेण' भवतिभागन-भवस्य-चरमभनगरीरस्य चरमशरीरसम्बन्धिन्या अवगाहनाया , निभागेन-तृतीयभागेन 'परिहीणा' परिहीना 'होति' भवन्ति । तेपा 'जरामरणविष्पमुक्काण जरामरणविप्रमुक्ताना सिद्धानाम् 'अणिस्थत्यं' अनित्थस्यम्-अमुना प्रकारणेती यम्, तत्र तिष्ठतीति-इत्यस्थम्, न इत्यस्यम्-अनित्यस्थम्-न केनचित्परिमण्डलादिलोकिकमस्थानन स्थित 'सठाण' मस्थान भवति ॥ स० ११४॥ टीका-तत्र सिद्धक्षेत्र सिद्धा देशभेदेन उतै कस्मिन् दशे तिष्ठन्तीत्यागहायामाह-'जत्य' इति । 'जत्य य' या च यत्रैव देशे, 'एगो सिद्धों एक सिद्धस्तिष्ठति, होती है तो भी उनमे ५०० धनुप-प्रमाणता उनके वृद्ध अवस्था में शरीर के सकोच से घटित हो जाती है । अन कोई विरोध नहा है ।।म ११३॥ 'ओगाहणाए सिद्धा' इत्यादि। (ओगाहणाए सिद्धा भवतिभागेण होति परीहीणा) सिद्ध अपने अतिमआरार-समधी अवगाहना के तृतीय भाग से हीन अवगाहनावाले होते है । (सठाणमणित्यत्य जरामरणविप्पमुक्काण) उनका आकार किसी परिमटल आदि लौकिक आकार से स्थित नहीं है, वे जन्म, जग एक मरण से सदा के लिये रहित हो जाते है ।। सू ११४॥ એમ હોય છે તે પણ તેઓમાં ૫૦૦ ધનુષપ્રમાણુતા તેમની વૃદ્ધાવસ્થામાં શરીરના એ કેચાવાથી ઘટીને થઈ જાય છે તેથી કઈ વિરોધ નથી (સૂ) ૧૧૩) 'ओगाहणाए सिद्धा' त्याह (ोगाहणाए सिद्वा भवत्तिभागेण होति परिहीणा) सिद्ध पोतानी २५१ગાહનાથી અનિમશરીર બધી અવગાહનાના ત્રીજા ભાગથી ઓછા થાય छ (सठाणमणित्यत्य जरामरणविप्पमुक्काण ) तमना २४२ ३६ परिभ उa આદિ લૌકિક આકાથી સ્થિત નથી તેઓ જન્મ, જરા તેમજ મરથી સદાયને માટે રહિત થઈ જાય છે(સૂ) ૧૧૪) Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કરછ औपातिकयो ___ अण्णोण्णसमोगाढा, घुट्टा सव्वे य लोगंते ॥ सू० १५१ ॥ मूलम्-फुसइ अणते सिद्धे, सव्वपएसेहि णियमसा सिद्धो। 'तत्य' तन देशे 'अणता' अन ता-अप्रियमानोऽन्तो येपा तेऽनन्ता , 'भवक्खयविमुक्का' भक्षयविमुक्ता -भगक्षये सनि प्रिमुक्ता , अनेन स्वेच्छयाऽरतरणशक्तिमसिद्धव्यवच्छेदमाह। 'अण्णोण्णसमोगाढा' अन्योऽन्यसमवगाढा' परपरस्पर सम्यक् अवगाढा -धर्मास्तिकायादिवत् ममिलिता , 'सव्ये य' सर्व च लोगते' लोकाते =लोकाप्रभागे अलोकेन 'पुट्ठा' स्पृष्पा लग्ना , प्रतिरुद्धत्वात् , तर धर्मास्तिकायाभागदिति । अत एव-'लोकाग्रे च प्रतिष्ठिता' इत्युक्तम् ।। सू० ११५ ।। टीका-'सह' इत्यादि । 'सिद्धे' सिद्ध -एक सिद्ध 'णियमसा' नियमन 'जत्य य एगो सिद्धो' इत्यादि । (जत्य य एगो सिद्धो) जिस सिद्धक्षेत्र में एक सिद्ध भगवान विराजते है, (तत्थ अणता) उसी सिद्धक्षेत्र में अनत सिद्ध विराजमान रहते है। (भवक्खयविमुक्का) उनके भाका क्षय सर्वथा हो चुका है। (अण्णोण्णसमोगाढा पुद्रा) जिस प्रकार एक ही स्थान पर धर्मादिक द्रव्य परम्पर अपगाढरूप में स्थित होकर रहते है उसी प्रकार ये सिद्ध आत्मा भी एक ही स्थान पर परस्पर मे अवगाढरूप से रहते है। फिर भी अपने २ चैतन्यस्वरूप का परित्याग नहीं करते है। (सव्वे य लोगते) धमास्तिकायका अभाव होने से ये लोक के अग्रभाग मे स्पृष्ट रहते है । स ११५॥ 'फुसइ अणते सिद्धे' इत्यादि । (फुसइ अणते सिद्ध सन्चपएसेहि णियमसा सिद्धो) एक मिद्ध 'जत्थ य एगो सिद्धो' त्यादि (जस्थ य एगो सिद्धो) २ सित्रमा ४ सिद्ध लगवान मिरे छ, (तत्य अणता) ४ सिद्धक्षेत्रमा सनत सिद्ध विमान हाय छ (भरक्सयविमुक्का) तमना सपना सय सवा ४ यूडया छ ( अण्णोण्ण समोगाढा पुट्ठा) डा. मे २थान पर धादि द्रव्य ५२२५२ ગાઢરૂપમાં સ્થિત થઈ રહે છે તેજ પ્રકારે તે સિદ્ધ આત્મા પણ એક જ સ્થાન પર પરસ્પરમાં અવગાહરૂપથી રહે છે છતા પણ પોતપોતાના ચિતન્યસ્વરૂપને પરિત્યાગ કરતા નથી ધર્માસ્તિકાયને અભાવ હોવાથી તેઓ લેકના અગ્ર सासमा पृर (all) २६ छ (सू ११५) 'पुसइ अणते सिद्धे' त्याहि (सइ अणते सिद्ध सव्वपएसेहि णियमसा सिद्धो) मे सि लगवान Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गोयुपर्यापणो-टोका शाखोपमहार ते विअसंखेजगुणा, देसपएसेहि जे पुट्टा ॥सू०॥ ११६ ॥ 'सयपएसेटिं' सर्वप्रदेश आमनोऽभर यातप्रदेश, 'अणते सिद्धे' अनन्तान् सिद्धान् 'फुसड' स्पृशति । तथा 'ते वि' तेऽपि ते सर्ने सिद्धा अपि 'असखेज्जगुणा' असायगुणा वर्तन्ते, 'जे' सिद्वा 'टेसपएमेहि देशप्रदेश -देो अमर यातदेशै प्रदेश असरयातप्रदेशैश्च 'पुढा' स्पृष्टा । नेपा मर्वेषा मिझाना प्रयेक स्पस्वव्यतिरिक्तसिद्धैरसरयातदेशप्रदेशादि ममिलि वेन गुणित यमनीरत्य "असा येयगुणा" इत्युक्तम् । अय भाव --सर्वामप्रदेशैस्तावदनन्ता सिद्धा स्पृष्टा , कसिद्धाऽवगाहनायामनन्तानामवगाढत्वात् । नथैकैफदेशेनाऽप्यनन्ता , एवमेकैकप्रदेशेनाप्यनन्ता ! तर देशो-यादिप्रदेशसमुदाय , प्रदेअस्तु-निर्विभागोऽश इति । एकसिद्धश्चाऽमस्येयदेशप्रदेशामक , ततश्च मूलाऽनन्तकेsसरयेयैर्देशाऽनन्तकैरसंग्येयैरव च प्रदेशाऽनन्तकैर्गुणिते यावती सव्या भवेत् सा केपलिगभ्यैवेति ।। स ११६ ॥ भगवान् नियम से आत्मा के अमख्यातप्रदेशों द्वारा अनत मिदों का स्पर्श करते है और (ते वि असखेजगुणा) वे मब सिद्ध असल्यातप्रदेशों से स्थित है। (देसपएसेहि जे पुढा) देश से एव प्रदेशों से भी वे सिद्ध असत्यातगुणित है। मतलब इसका यह है कि समस्त आत्मप्रदेगों से वे अनत मिद्ध स्पृष्ट है । एक सिद्ध की आत्मा में अनत सिद्धो को अवगाहना होने से, तथा एक एक देश से, एव प्रदेश से वे सिद्ध अनत है ।यादिक प्रदेश के समुदाय का नाम देश, एव आभागी अश का नाम प्रदेश है । एक एक सिद्ध असरयात देश और प्रदेशात्मक है। इसलिये मूल अनत को अमख्यात एव अनत देश और प्रदेशों से गुणा करने पर कितनी रागि होगी यह बात सिर्फ केवली भगवान् द्वारा ही जानी जा सकती है ।। स ११६ ॥ નિયમથી આત્માના અસ ખ્યાત પ્રદેશો દ્વારા અને તે સિદ્ધોને સ્પર્શ કરે છે, भने (ते नि असम्वेनगुणा) मा भिक्षु मम यात प्रशाथी सस्थित छ (देसपएसेहि जे पुदा) शथी तभ४ प्रशाथी पण सिद्धी अध्यात ગણે છે એની મતલબ એવી છે કે સમસ્ત આત્મપ્રદેશથી તે અને તે સિદ્ધો સ્પર્ધાયેલા છે એક સિદ્ધના આત્મામાં અને તે સિદ્ધોની અવગાહના હોવાથી, તથા એક એક દેશથી, તેમજ પ્રદેશથી તે સિદ્ધો અનત છે દ્વિઆદિક પ્રદેશના સમુદાયનું નામ દેશ, તેમજ અવિભાગી અશનું નામ પ્રદેશ છે એક એક સિદ્ધ અને ખ્યાત દેશ અને પ્રદેરણાત્મક છે તે માટે મૃત અનતને અસખ્યાત તેમજ અનત દેશ તવા પ્રદેશથી ગુણાકાર કરવાથી ડિટેલ રાશિ (જ) થશે તે વાત તો માત્ર કેવળી ભગવાન દ્વારા જાણી शायो (सू० ११६) Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२६ आपपातिकमत्रे मूलम्---असरीरा जीवघणा, उवउत्ता दंसणे य णाणे य। सागारमणागारं, लक्खणमेयं तु सिन्हाणं । सू० ११७ ॥ मुटम् केवलणाणुवउत्ता, जाणंति सवभावगुणभावे । पासंति सव्वओ खल, केवलदिट्टीहि णताहि ॥ सू० ११८॥ टीका'असरीरा' इत्यादि। अगरीरा जीवधना उपयुक्ता दर्शने च जाने च । साकारमनाकार रक्षणमेतत्तु सिद्धानाम् ॥ एतेषा पदाना व्यारयाऽस्यैनागमस्य उत्तरार्दै त्रिसप्ततितमसध्याके मने पूर्वमुक्ता ॥ सू ११७ ॥ टीका-यदुक्तम्-'उवउत्ता दसणे य णाणे य इति, तर ज्ञानदर्शनयो सर्वविपयतामुपदर्शयन्नाह-'केवलणाणुरउत्ता' इत्यादि । 'केरलणाणु उत्ता' केरल 'असरीरा जीवरणा' इत्यादि। (अमरीरा जीवघणा उपउत्ता दसणे य णाणे य) सिद्धो का लक्षणनिर्देश इस सूत्र में कहा गया है । औदारिक आदि शरीर से रहित एव धनरूप आमप्रदेशवाले व सिद्ध भगवान् केवलजान एव केवलदर्शन से सदा उपयुक्त है। (सागारमणागार) केवल जान की अपेक्षा वे साकार उपयोग से युक्त है, एच केवल दर्शन की अपेक्षा निराकारस्वरूप दर्शन से युक्त हैं। (लक्खणमेय तु सिद्धाण) यही सिद्धों का लक्षण है। स ११७ ।। 'केवलणाणुउत्ता' इत्यादि। (केवलाणाणुवउत्ता जाणति सम्वभावगुणभावे) केवलज्ञानरूप उपयोग से युक्त वे सिद्ध भगवान् समस्त वस्तुओं के अनतगुण, एव उनकी अनतपर्यायों को युगपत् जानते 'असरीरा जीवघणा' त्याहि (असरीरा जीवघणा उवउत्ता टसणे य णाणे य) सिद्धाना क्षयना निश આ સૂત્રમાં કહેવામાં આવ્યો છે ઔદારિક આદિ શરીરથી રહિત તેમજ ઘનરૂપ આત્મપ્રદેશવાળા તે સિદ્ધ ભગવાન કેવળજ્ઞાન તેમજ કેવળદર્શનથી सह! उपयु४ छ ( सागारमणागार) शाननी अपेक्षा तेरा सार ઉપયોગથી યુક્ત છે, તેમજ કેવળદનની અપેક્ષાએ નિરાકાર સ્વરૂપ દર્શનથી यात (लपसणमेय तु सिद्वाण ) मा सिद्धाना सक्ष! छे (१ ११७) 'केवलणाणुवउत्ता' त्या ( केवलणाणुवउत्ता जाणति सव्वभावगुणभावे) शान३५ उपयोगी Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पीयूपषिणी-टीका शाखोपमहार मूलम्-~ण वि अस्थि माणुसाणं,तंसोक्खंणवि य सव्वदेवाणं। जंसिद्धाणं सोक्खं,अव्वावाहं उवगयाणं ॥सू०११९ ॥ ज्ञानोपयुक्ता सन्तस्ते सिद्धा 'सन्चभावगुणभावे' सर्वभारगुणभावान् समस्तवस्तुगुगपर्यायान 'जाणति' जानन्ति, तत्र-गुणा-सवर्तिन , पर्यागस्तु-क्रमवर्तिन इति । तथा पताही अनन्ताभि 'केवलदिद्वीहि करलदृष्टिमि , अनन्तै कालबर्गनेरियर्थ , 'सबी ' सर्वत सनभानान् ग्वाल-निश्रयेन 'पासति' पश्यन्ति ॥ मू० ११७ ॥ टीका--सिद्वाना मुग्यवर्णयति-जवि दयादि । 'अन्यावाह' अन्याआधसकल दुखार्जित मोजस्थानम् 'उवगयाण' उपगताना-प्रामाना, 'सिद्धाणं' सिद्धानाम 'ज यत 'मोश' मौन्यम 'जत्यि' अस्ति, 'त' तत् 'साम्य' सौरय 'ण विमाणुसाण' नाप मनुष्याणामस्ति, 'ण वि य सचदेवाण' नापि च सर्वदेवानाम् ।। सू० ११९ ॥ है। (पासति सभी ग्वलु केवलदिट्ठीहि णताहि) अनतकेवलदृष्टिस्वरूप अनतदर्शन से युक्त वे सिद्ध भगवान् , युगपत् समस्त भावो को उनकी गुणपर्याया सहित टखते है । वस्तु में _त्रिकाल उसके साथ रहन वाले गुण होते है । एव कमवर्ती पर्याय होती है ।। म ११७ ॥ 'वि अत्यि' इत्यादि । (ज सिद्धाण सोय अबानाह उवगयाण) सकल दुम्यो स वर्जिन एसे मोक्षस्थान म प्राम हुए मिद्धा को जो सुस है, (ण वि अत्थिमाणुसाण त सोक्त्रंण वि य सचदेवाण) वह मुग्य बलोक्य म न तो मनुष्य को है, और न सर्व देवों को है ॥ सू ११९ ॥ યુક્ત તે સિદ્ધ ભગવાન સમસ્ત વસ્તુઓના અનતગુણ, તેમજ તેમની અનત पर्यायाने अडीमाये तो छ (पासति सचओ सलु केवलन्ट्रिीहि णताहि) અાત કેવળદષ્ટિસ્વરૂપ અને તદર્શનથી યુક્ત તે સિદ્ધ ભગવાન એકીસાથે સમસ્ત ભાવોને તેમની ગુણ--પર્યા–સહિત જુએ છે વસ્તુમાં ત્રિકાળ તેની સાથે રહેવાવાળા ગુણ હોય છે, તેમજ કમવતી પર્યાય હોય છે ( ૧૧૮) 'रि अस्थि' त्या (ज सिद्धाण मोक्स अव्वाचाह गयाण) माथी पति मेवा भाक्ष यान प्रास रेसा मिद्धोने रे सुम छ, रण वि अस्थि माणुसाण त सोर ण वि य सव्वदेवाण) ते सुमन सोमाय नथी अ मनुष्यने કે નથી સર્વ દેને હેતુ (સૂ ૧૧૯). Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिक मूलम् -- जं देवाणं सोक्खं, सव्वद्धापिंडियं अनंतगुणं । णय पावइ मुत्तिसुहं णंतेहिं वग्गवग्गेहिं ॥ सू० १२० ॥ ७२८ टीका - कस्मादेव सुन भरतीयत आह-'ज देवाण' इयादि । 'ज' यद् 'देवाण' देवानाम् = अनुत्तरसुरान्ताना 'सोक्ख' सौत्यकालिकसुर, तद्यन 'सन्द्धापिंडिय' सर्वाद्वापिण्डितम् - सर्वाया अतीतानागतवर्तमानकालेन पिण्डितम् = गुणित, तथा 'अनंतगुण' अनन्तगुणमिति, तदेव प्रमाण किase कल्पनया एकैकाssकाशप्रदेशे स्थाप्यते, इत्येव सकललो काकाशानन्तप्रदेशपूरणेनाऽनन्त भरति, एवभूत दवस 'णय पान मुनिसुह' न च प्राप्नोति मुक्तिमुस=नै मुक्तिमुखसमानता लभते, अनन्ताऽनन्तचात् सिद्धसुखस्य । किंविध देवसुखमित्याह - 'णतेहिं वग्गग्गेटिं' अनन्तैर्वर्ग 'ज देवाण सोक्ख' इत्यादि । ( ज देवाण सोक्ख सव्वद्धापिंडिय अणतगुण ) जो सर्व देवों का त्रैकालिक सुस है उसे अनन्तगुणा किया जाय तो भी वह ( ण य पावइ मुत्तिमुह णतेहिं वग्गवग्गेर्हि) सिद्ध भगवान् के एक क्षणोद्भव सुख की बराबरी नहीं कर सकता है । इसे यों समझना चाहिये कि सर्वदेवों का त्रैकालिक सुख एक २ आकाश के प्रदेश पर स्थापित करते २ आकाश के अनत प्रदेश उस सुख से जब भर जाये तन उन समस्त- प्रदेशस्थ सुखों का परस्पर में गुणा करो | इस प्रकार वह देवसुख अनतगुणित हो जाता है । यह अनतगुणित सुख भी सिद्धों के एक क्षण में होनेवाले सुख की समता नहीं कर सकता । कारण कि उनका सुख अनंतानत है । देवों का सुख अनतवर्गों से वर्गित बतलाया गया है । व 'ज देवाण सोक्स' इत्याहि (जे देवाण मोक्स मव्वद्धापिंडिय अणतगुण) ने सर्व हेवानु न! अजनु सुभ छे तेने शान तगलु उवाभा भावे तो पशु ते, ( ण य पावइ मुत्तिसुह तेहिं वावग्गेहिं ) सिद्ध लगवानना थोड क्षाराथी उत्पन्न थता सुमनी ખરાખરી કરી શકતુ નથી આથી એમ સમજવુ જાઈએ કે સવ દવાનુ ત્રણ કાળનુ સુખ એક એક આકાશના પ્રદેશ ઉપર સ્થાપિત કરી એ રીતે સ્થાપિત કરતા કરતા આકાશના અનત પ્રદેશ તે સુખથી જ્યારે ભરાઇ જાય ત્યારે તે સમસ્ત પ્રદેશમા રહેલા સુખાના પરસ્પરમાં ગુણાકાર કરે એ પ્રકારે તે દેવસુખ અન તગણા થઇ જાય છે સ્મા અન તગણા સુખ પણ સિદ્ધોના એકક્ષણમા થવાવાળા સુખની ખરાખરી કરી શકતા નથી કારણ કે તેમના સુખ અનતાનત છે દેવાના સુખ અનત વર્ગોથી ગિત ખતાવ્યા Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूपपिणो-टीका शास्त्रोपसंहार ७२९ मूलम्-सिद्धस्स सुहो रासी, सव्वापिंडिओजड हवेजा। सोऽणंतवग्गभइओ, सव्वागासे ण माएजा ॥ सू० १२१ ॥ वर्ग =अनन्तैरपि वर्गव , तत्र तद्गुणो वर्गों, यथा द्वयार्वर्गश्चवार , तस्यापि वगा वर्गवगा, यथा घोडश, एवमनन्तगो बर्गितमपी यर्थ । म १२० ॥ टीका-'सिद्धस्स' इयादि । 'सिद्धम्म' सिद्स्य 'मूहो' सुरव =मुस् सम्बन्धी 'रामी' रागि समूह , स च-'सबद्धापिडिओ' सद्विापिण्डित -सवादाभि = सर्वकालसमयै पिण्टितो गुणितो 'जड हवेना' यति भवेत् , 'सो' स पुन 'अणतबग्गभडओ' अनन्तवर्गभक्त =अनन्तगर्षिभागीकृत , 'सव्वागामे' साssका लोकालोकन्छपे 'ण माएजा' न मायात्-न स्थातु शुक्नुयात् । अय भाव -दह फिल निरुपम सुख गृह्यते, ततश्च यत आरभ्य लोक मुखगन्दप्रवृत्ति , तदवधीय एकैकगुणवृद्धितारतम्येन तावत् तत् सुख के वर्ग करने का नाम वर्गवर्ग है। जिस प्रकार दो का वर्ग ४, और चार का वर्ग १६ होता है। १६ वर्गवर्ग है । म् १२० ॥ 'सिद्धम्स मुहो रासी' इयादि । (सिद्धस्स मुद्दो रासी मन्बद्वापिडियो जद हवेना)सिद भगवान के मुख को जो राशि है वह सर्वकाल के समया से यदि गुणित की जाय, और (सोऽणववग्गभइओ) उस उपन महारागि में अनन्त वर्गों मे भाग दिया जाय, तो भी ( सन्चागासे ण माएना) वह सिदों के मुखो की विभक्त सुरवगशि समस्त आकाश मे नहीं समा सकती है। मतल्न इसका यह है कि लोक मे जो मुस-सन्ट से कहा जाता है उस सुग्न में एकएक गुण की क्रमिक वृद्धि से जब वह सुख अनन्तगुण वृद्धि पाकर अपनी अन्तिम अवधि છે વગેરે વગે કરે તેનું નામ વર્ગવગ છે જે પ્રકારે ૨ નો વર્ગ ૪, અને ચારને વર્ગ ૧૬ થાય છે ૧૬ વર્ગ–વગે છે (જૂ ૧૨૦) 'सिद्धम्स सुहो रासी' त्यादि (सिद्धस्स हो रासी सम्बद्वापिंडिओ जइ हवेजा) भिख मानना સુખની જે રાશિ છે તેને સર્વકાળના સમયથી જે ગુણવામાં આવે અને ( सोऽणतवामइओ)तनाथी सत्पन्न ययेसी त महाशिने मन त पाथी मी हवामा आवे तो पर (सव्वागासे ण माएज्जा) सिद्धीना सुभानी ભાગલબ્ધ સુખશિ સમસ્ત આકાશમાં સમાઈ શકતી નથી અને અભિપ્રાય એ છે કે લેકમાં જે સુખ-શબ્દથી કહેવાય (સમાય) છે તે સુખમાં એક એક ગુણની ક્રમિક વૃદ્ધિથી ત્યારે તે સુખ અનન્તગુણ વૃદ્ધિ Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३० সাঘসিদ্ধ मूलम्---जह णाम कोइ मिच्छो,नगरगुणे बहुविहे वियाणते। नचएइ परिकहेउं, उवमाए तर्हि असंतीए॥सू०१२२॥ विगि यत्त यापदनन्तगुणवृद्धचा चरमावधि प्राप्त भवति । ततश्च तदत्यन्तनिरुपममौ मुक्यवृत्तिविरहित प्रशान्तमहोदधितुन्य चरमाहादस्वरूपम् । तस्माचरमाहादात् पूर्व प्रथमाचानन्तरमपा तरालयत्तिनो ये तातरम्येनाहादविगेपास्ते साकायप्रदेशराशेप भूयासो भान्ती यत किलोक्तम्-'सबागासे ण माएजा' इति, अन्यथा प्रतिनियतदेगावस्थिति कथ तेषामिति मूयोऽभिदधतीति ॥ सू १२१ ॥ टीका-'जह णाम' इत्यादि । 'जाणाम' ययानाम=यथादृष्टान्तम्-टातमनुसृय कथयामी यर्थ , 'कोड मिन्छो' कश्चिन्म्लेच्छो 'गहुविहे' बहुविधान 'नगरगुणे नगरगुगान् 'बियाणते' विजानपि 'परिकहेउ' परिकथयितु-वर्णयितु 'न चएई' नामोते, कथ न गानोति र इ याह -'उमाए' इत्यादि । ' उवमाए तर्हि को प्राप्त होता है, तब वह अयन्त अनुपम, उकण्ठा की वृत्ति से रहित, और प्रशान्त समुद्र के समान गम्भीर चरमसुसम्रूप हो जाता है । उस चरम मुख से पहले और प्रथम सुग्व के बाद के जो मध्यवर्ती तरतमता से युक्त सुसविशेष है, वे सभी सर्वाकायप्रदेशों से भी अधिक है। इसीलिये कहा गया है- 'सव्यागासे ण माएज्जा' अर्थात् सिद्धों का अनन्तवर्ग--विभक्त भा सुग्व, समस्त आकाश मे नहा समा पाता है ॥ म् १२१ ॥ 'जह णाम कोइ मिच्छो' इत्यादि । दृष्टान्त देकर इसी विषय को स्पष्ट करते हे-(जह णाम कोइ मिन्छो नगरगुणे बहुविहे विषाणते) जैसे कोई म्लेच्छ बहुत प्रकार के नगरगुणों को जानता हुआ भी (न પામીને પિતાની અતિમ અવધિને પ્રાપ્ત થાય છે, ત્યારે તે અત્યન્ત અનુપમ, ઉત્કંઠાની વૃત્તિથી રહિત અને પ્રશાન્ત સમુદ્ર સમાન ગ ભીર ચરમસુખરૂપ થાય છે તે ચરમ સુખથી પૂર્વ અને પ્રથમ સુખની પછી મધ્યવતી, તારતમ્યથી યુકત જે સુખવિશેષ છે, તે સુખ સઘળા આકાશ પ્રદેશની અપેક્ષાએ પણ અધિક छे से माटे पामा साथ्यु छ , 'सव्वागासे ण माण्ज्जा' सेट સિદ્ધોના અનતવર્ગવિભક્ત સુખ પણ સઘળા આકાશ પ્રદેશમાં સમાઈ શકતુ નહિ (સૂ ૧૨૧) 'जह णाम कोइ मिच्छो' त्या ead धने से वि५५ २५०४ ४३ छ (जह णाम कोइ मिच्छो नगरगुणे बहुविहे वियाणते ) रेभ २७ मारना नामुलाने Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - AAAAA AAA ধীঘষাঘা-শঙ্কা হালয়া असतीए' उपमाया माश्यन्य तन बने अमत्वात् अमद्भागादिति । एवमा कथानकम्कश्चिन्नग्पतिर्दधाऽश्वाबद्ध मन पपनसेवनार्य वन जगाम, तर चाश्वस्य दजानिक वन परिवान्तो वनऽवादातीर्थ । तत्रैकन बनवासिना मेन्टेन भूपनि म कृन । ततोऽमो नृपतिस्त म्लेच्छ निजगजपानीमानाय विशिष्टभोगभृतिभाजन कृतवान् । एकदाऽमो म्लेच्छ प्रावृषि प्रामाया मनोहर मेघवनि ध्रुवा वन गन्तुमुत्कण्ठिनोऽभवत् । राजा मम्मानपूर्वक विनित सनसौ वन य चएइ परिकहेउ) उसका वर्णन पन में नहीं कर सकता है, क्योकि (उपमाए तर्हि असतीए) उपमा का वहा अभाव है। यहाँ इस प्रकारको एक कथा है। कोई एक राजा वायु सेवन के लिये घोडे पर सवार हुआ। वह घोडा महादुर्दान्त या। इसलिये चलते २ उसे यह भय लग रहा था कि कहा यह मुझे पटक न दे, अत उसे रोकने २ वह थक गया और किसी जगल में जाकर वह उससे नीचे उतर पडा । इतने में एक भील ने उसे देखा और सहसा पास आकर उसने के हुए गजा की सेना-गुश्रूषा से थकावट दर की। गजा बडा खुश हुआ, और उसे अपन साथ लेकर वह अपनी गजभानी को वापिस लौट आया। यहा राजा ने राजमी ठाटपाट के अनुसार उस सूर आनन्द से रखा । साने-पान के लिये उसे एसे २ भोज्य पदार्थ दिये मि जो उसन अपन जावन म कमा देखे तक भा नहीं थे। रहते २ जर कुछ समय “यतीत हो गया तर बधाकाल के आन पर उसे अपने स्थान पर जान को उकठा जगा । cagdi थडे पर (न य चण्ड परिकहेउ) तेनु पनि वनमा रीत नथी, भ. ( उपमा तहिं असतीए ) ५भान त्या मला અહી આ પ્રકારની એક વાર્તા છે કોઈ એક રાત વાયુવન (ફરવા માટે ઘડા ઉપર સવાર થઈને મહેલમાંથી બહાર નીકળે જે પોડા ઉપર તે સવાર થયા હતા તે મહા દુર્દાન્ત (મુરલીથી વશ થાય તે) હતું તેથી ચાલતા ચાલતા તેને એ ભય લાગતું હતું. કે કયાક આ મને પાડી તો નહિ દે, આથી તેને રિડતા રડતા તે થાકી ગયો, અને કઈ જ ગલમાં જઈને તેના ઉપરથી તે નીચે ઉતર્યો એટલામાં એક ભીલે તેને જે અને તરત જ પાસે આવીને તેણે થાકેલા રાજાની સેવા–શુશ્રવ કરી થાક ઉતાર્યો રાજા બહુ ખુશી થશે અને તેને પિતાની સાથે લઈને તે પોતાની રાજધાનીએ પાછા આવ્યું ત્યાં રાજાએ પિતાના રાજસી ઠાઠમાઠપૂર્વક તેને ખુબ આનંદથી રાખ્યો ખાવા-પીવાને માટે તેને એવા એવા તે ભેજ્ય પદાર્થ આપ્યો કે જે તેણે તેની જીદગીમાં દીએ જોયા પણ નહોતા આમ રહેતા રહેતા કેટલાક સમય વીતી ગયે અને વરસાદને સમય આવ્યો ત્યારે તેને પિતાના સ્થાન પર જવાની ઉ૦ ઠા Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३२ औपपातिकमा मूलम्--इय सिद्धाणं सोक्ख, अणोवम णस्थितस्स ओवम्म। स्ववासस्थानमागत । अयं स्वपग्विारस्तं पृ उति स्म-हे तात ! कीदृशम् तद् भूपनगरम् । इति । स म्लेच्छस्तस्य भूपनगरस्य सर्लान् बहुविधान् नगरगुगान् विजानन्नपि तान् वक्तु कृनोयमोऽपि तत्र बने नगरसाढस्यस्याभावाद वर्णयितु नागानोदिति ।। सू० १२२ ॥ टीका-'इय' इयादि । इय' इति एवम्-अनेन प्रमाण सिद्धाण' सिद्धाना 'सोक्ख' सौरयम्, 'अणोवम' अनुपम वर्तते, कुत । यतस्तस्य 'ओवम्म णस्थि' औपम्य राजा को जब यह ज्ञात हुआ तन उसने उसको सूब आदर-सत्कार के साथ विदा किया । चलते २ यह अपने घर पर आ गया। सन कुटुम्बी जन इससे मिलने को आने लगे। लोगों ने पूछा, कहो भाई । राजा के निकट कैसे रहे , राजा का वह नगर कैसा है । भील ने जो कि उस राजा के नगर की सन प्रकार की श्री से परिचित हो चुका था, राजधानी का वर्णन करने का उयम तो किया, परन्तु वह अपने उन भील-भाइयों के समक्ष यथावत् उसका वर्णन नहीं कर सका। कारण कि उस वन में नगर के वर्णन से मिलनेवाली उपमेय वस्तुओं का अभाव था। इस दृष्टान्त का भाव इस प्रकार समझना चाहिये कि वह भील नगर में अनुभवित आनन्दका अपने अन्य भाइयों के समक्ष उम जगल में उस प्रकार की वस्तु के अभाव से वर्णन नहीं कर सका । उस सुख की कुछ भी उपमा नहीं बता सका || म १२२ ॥ જાગૃત થઈ જ્યારે આ વાત રાજાના જાણવામાં આવી ત્યારે તેણે તેને ખૂબ આદર-સત્કારની સાથે વિદાયગિરી આપી ચાલતા ચાલતા તે પિતાને ઘેર પહો બધા કુટુંબી માણસે તેને મળવાને આવવા લાગ્યા લોકોએ પૂછયું કે, કહો ભાઈરાજાની પાસે તમે કેવી રીતે રહ્યા હતા, રાજાનું તે નગર કેવું છે ? ભીલ જો કે તે રાજાના નગરની બધી જાતની શ્રી વૈભવ શોભા) થી પરિચિત થઈ ગયો હતો, અને રાજધાનીનું વર્ણન કરવાને તેણે ઉદ્યમ (પ્રયત્ન) તે કર્યો, પર તુ તે પોતાના ભીલ ભાઈઓની સમક્ષ યથાવત (જોઈએ તેવુ ) તેનું વર્ણન કરી શકે નહિ, કારણ કે તે વનમા નગરના વર્ણન સાથે મેળખાય જેવી ઉપમા આપવા ચોગ્ય વસ્તુઓને અભાવ હતો આ દાત ભાવ એવી રીતે સમજવું જોઈએ કે તે ભીલ જે પ્રકારે અનુભવેલ આન દને પોતાના બીજા ભાઈ એની સમલ વર્ણન કરવા જતા પણ તે જગ લમા એવા પ્રકારની વસ્તુઓના અભાવથી પોતે ભગવેલા આનદને અનુભવ કરાવી શકે નહિ તે સુખની કોઈ પણ ઉપમા બતાવી શકશે નહિ, (सू १२२) Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषयपिणो-टीका शाम्रोपसहार ७३३ किंचि विसेसेणेत्तो,ओवम्ममिणं सुणह वोच्छं। सू० १२३ ॥ मूलम्-जह सबकामगुणियं, पुरिसो भोत्तूण भोयणं कोई। तण्हाइहाविमुक्को, अच्छेज जहा अमियतित्तो॥ सू० १२४ ॥ नास्ति, तथापि नालाना गोगार्थमाह-किंचि' उयादि । 'किंचि विमेमेण' किनिद्रिशेषेण 'एत्तो' इत मत पग्म् 'ओवम्म' औपम्यम्-उपमानम् 'इण' इट वक्ष्यमाण 'सृणह' शृणुत, 'चोर' वक्ये-अह कथयिष्यामीयर्थ ।। स १२३ ॥ टीका--'जह' इत्यादि । 'जह' यथा 'कोई पुरिसो' कोऽपि पुस्प , 'सबकामगुणिय' सर्वकामगुणित-माभिलपणीयग्मादिमपन्न, 'भोयण' भाजनम अनादिकम्, 'भोत्तूण' मुक् वा, 'तण्डाहाविमुको तृष्णाक्षुपाविमुक्त =पिपासावुमुक्षारहित 'अमि 'य सिद्धाण सोकव' दयादि । (व्य सिद्धाणं सोश्व ) इसी प्रकार सिद्धों का मुस यधपि (जगोवम) अनुपम है, अन (णत्यि तस्स ओवम्म ) उमको किसा मी मामारिक पदार्थ के साथ उपमा नहीं दी जा सकता है, तो भी (किंचि विसेमेणेता औवम्ममिण मुणह बान्छ ) बालजीवा को बोपन करने के लिये कुछ विशेपरीति से सिद्धा क दम मुम्ब को उपमा देकर समझाया जाता है । म १२३ ॥ 'जह मन्चकामगुणियं' दयादि । (जह सबकामणिय पुरिसो भोत्तूण भोयणं कोई ) कोई पुस्प पाचा टन्द्रिया को तृप्त करनाडे काम-मट, प, और भोग-गर,ग्म, स्पर्दा आदि विषयों को ययेराति से भोगकर ( तण्डाहाविमुक्को) पिपामा एव बुभुक्षा स रहित (अमियतित्तो 'डर सिद्धाण मोक्ख' ल्यादि (इय सिद्धाण मोक्ख) २ डा मिद्धोनु सुप ले (अगोवम ) मनुपम , तथा (णयि तस्स ओनम्म) तेनी ५ ६ पy सारिस पहाना सुमनी माथे मापी जाती नया तो पर (किंचि विसेसणेत्तो ओगम्ममिण मुणह बोन्छ) पासवाने साधन ३२वा माटे ४६६ विशेष રીતથી સિદ્ધોના આ સુખની ઉપમા દઈને સમજાવવામાં આવે છે (૧૨૩) 'जह सध्यामगुणिय' त्या (जह मन्चकामगुणिय पुरिसो भोत्तृण भोयण कोई) भ y५ પાચેય ઈઓને તૃપ્ત કરવા વાળા કામ-શદ, ૩૫, અને ભગગધ, રસ, સ્પર્શ m Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - - - ७३४ ओगपातिकम् मूलम्--इय सव्वकालतित्ता, अउलं निव्वाणमुवगया सिद्धा। सासयमव्वाबाह, चिटंति सुही सुहं पत्ता ।। सू० ॥ १२५ मूलम् --सिद्धत्ति य वुद्धत्ति य, पारगयत्ति य परंपरगयत्ति। यतित्तो' अमृततृमो 'जहा गया दव, 'अन्दाज' आसीन-निन ॥ सू १२४ ॥ टीका-'इय' इयाति । 'दय' इति व 'सत्यकालतित्ता' सर्वकालतमा - अपुनरावृत्तिस्थान प्रामत्वात् , 'नियाण' निर्वाण मोक्षम 'उपगया' उपगता 'सिद्धा सिद्धा, 'अउल' अतुलम् अनुपमम् 'सासय' शाश्वत साकातिकम्, अन्वाया अन्यायाध-पर्वदु खनियर्जित 'मुह' मुग्य 'पत्ता'मामा , अत 'सही चिति' सुमिनस्तिष्ठन्ति, ननु 'सुख प्रामा' इत्युक्ते 'सुग्रिन' इनि किमर्थम् ।, मनोच्यते-केचि मन्यन्ते दु साभावमान मुक्तिरिति, तन्मतनिराकरणाथ मोक्षस्य वास्तविकमुग्वस्वरूपताप्रतिबोधनायं च 'सुस प्रामा सुम्विनस्तिष्ठन्ती'व्युक्तम् ॥ मृ १२५ ॥ टीका-साम्प्रत वस्तुत मिद्धपर्यायान्तान् प्रतिबोधयन्नाह-'सिद्धत्ति' इत्यादि। - - जहा) अमृतपान से तृप्त के समान (अन्छेज) रहता है ।। सू १२४ ॥ 'इय सबकालतित्ता' इत्यादि । (इय सबकालतित्ता) अपुनरावृत्तिस्वरूप मुक्तिस्थान को प्राप्त होने के कारण सर्वकाल तृप्त हुए (निव्वाणमुवगया सिद्धा) वे सिद्ध भगवान् , शारारिक एच मानसिक दुग्गो से सर्वधा रहित होकर (अउल अव्वापाह चिट्ठति सुही सुह पत्ता) अनुपम, शाश्वत एव अभ्याबाध सुख को भोगते हुए उस मुक्तिस्थान मे सदाकाल-अनन्तकाल तक सुखा ही सुखी रहते है ॥ सू १२५ ॥ माह विषयाने यथे-७३पे लापान ( तहाछहाविमुक्को) पिपासा तभा - सुभुक्षा (सूम-तरस ) थी राहत (अमियतितो जहा) मभृतपानी तृसनी म ( अच्छेज ) २९ (सू १२४) , 'इय सयकालतित्ता' छत्यादि ( इय सबकालतित्ता ) सनरावृत्ति२१३५ भुक्षितस्थान प्राप्त यानी औरणे सांस तृप्त थये। (निब्वाणमुवगया सिद्धा) ते सि लगवान शारीरिक र मानसिकमाथी सक्था रहित धने (अउल अव्वाचाह चिदति सुही सुह पत्ता) मर्नुपम, शाश्वत तम४ सयामा भुमने लापता તે મૂર્તિ સ્થાનમાં સદાકાલ–અન તકાલ સુધી સુખી રહે છે (જૂ ૧૨૫). Page #848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषयषिणो-टोका, शास्त्रोपमहार' m उमुक्कम्मकवया,अजरा अमरा असंगा य ॥सू० १२६ ॥ मूलम्-णिच्छिण्णसव्वदुक्खा, जाइजरामरणपंधणविमुक्का। 'सिद्धत्ति य सिदा इति च-तेपा नाम, कृतकृत्यचात्, 'युद्धत्ति य' बुद्धा इति च-केवलजानेन रिश्वाचनोधात् , 'पारगयत्ति य' पाग्गता इति च-भवसागरपारगमनात , 'परपरगयत्ति य' परपरगता =मिथ्याचादिचतुर्दशगुणम्यानकाना मनुष्यादिसुगतीना च पारपर्येण भवसिन्धुपार प्रामा इति, 'उम्मुकम्मरुवया उन्मुक्तकमकवचा कर्मफवचवर्जिता 'अजरा' अजरा-वयसोऽभावात् , 'अमरा' अमरा --आयुपोऽभावात् , 'असगा य' असद्गाध सकल क्लेगरहित वात् ।। मू १२६ ॥ टीका--'णिच्छिण्ण' इत्यादि । 'णिन्छिष्णसन्चदुरग्वा' निस्तीर्णसर्वद सा-- 'मिद्धत्ति य युद्धत्ति य' दयादि । (सिद्धत्ति य) कृतकृय होन से वे सिद्ध कह जाते है । (युद्धनि य) केवल ज्ञान से सफल लोकालोक के जाना होने से वे बुद्ध कहे जाते है। (पारगयत्ति य) भवरूप समुद्र से पारगत हो जाने के कारण वे पारगत कहे जाते है। (परपरगयत्ति य) मिथ्यात्र-आदि चौदह गुणस्थानको और मनुष्य-~-आदि मुगतियों की परम्परा से भवसिन्यु को पार करने के कारण वे परपरगत कह जाते है । ( उम्मुकम्मरया अजरा अमरा असगा य) कर्मरूप कवच से वर्जित होने के कारण, एव आयु कर्म का सर्वथा प्रक्षय हो जाने के कारण वे अमर कहे जाते हैं। तथा सफललेगा से रहित होन के कारण वे अमग कह जाते है । ये सिद्ध, बुद्ध, आदि सर गन्द, पर्यायवाची शब्द है ।। स १२६ ।। 'सिद्धत्ति य बुद्धत्ति य' त्याह (मिद्धत्ति य) कृतकृत्य डोपाथी तभने सिद्धपामा मावे छ (बुद्धत्ति य) કેવળજ્ઞાનથી સનલ લેકાલકના જ્ઞાતા હોવાના કારણે બુદ્ધ કહેવામાં मा छ (पारगयत्ति य) सप३५ समुद्रवी पारशत य MATrt sो तेमने पात हवामी मानेछ (परपरगयत्ति य) भिश्याव- यो गुस्थान। અને મનુષ્ય આદિ સુગતિઓની પરંપરાથી ભવતિ ધુને પાર કવ્વાને કારણે ५२५२त उपाय छे ( उम्मुक्ककम्मकवया अजरा अमरा असगा य) में કવચથી વર્જિત હોવાના કારણે તેમજ આયુઝર્મને સર્વ ક્ષય થઈ ને કારણે તેઓને અમર કહેવામાં આવે છે, તથા સકલલિશ રહિત દિન કારણે અસગ કહેવામાં આવે છેઆ સિદ્ધ દિ બધા એક પિય વાચી શબ્દ છે (સ ૧૨૬) 1RCa Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकत्र ७३६ अव्वावाहं सुक्खं, अणुहोंती सासयं सिद्धा । सू० १२७॥ मूलम् - अतुलसुखसागरगया, अव्वावाहं अणोवमं पत्ता । सव्वमणागयम, चिति सुही सुहं पत्ता ॥ सू० १२८ ॥ || ओवाइय समत्त || ? निस्तीर्णानि सर्वदु मानि यैस्ते तथा शारीरमानससकलदु सान्यतिक्रान्ता पुन जाउजरामरणवंधण विमुक्का ' जातिजरामरणनन्धननिमुक्ता जन्मवाक्यमृत्युकर्म च धनरहिता 'सिद्धा' सिद्धा 'अन्वानाह' अत्र्यानाधल्याघातवर्जित 'सासयं' शाश्वत = सार्वकालिक 'सोक्ख' सौम्यम् 'अणुहोती' अनुभवन्ति ॥ सू १२७ ॥ टीका- 'अतुलमुख' - इत्यादि । 'अतुलमुग्वसागरगया' अतुलमुनसागरगता अतुल =अनुपमो य मुखसागर = सुखसमुद्रस्त गता =प्राप्ता, पुन 'अव्त्रावाह' अत्र्या 'णिच्छिण्णसन्चदुक्खा' इत्यादि । (सिद्धा) ये सिद्ध भगवान् ( णिच्छिष्णसव्वदुक्रवा) समस्त दुखों के अतिक्रमण, तथा (जाइजरामरणवधण निमुक्का) जन्म, जरा एव मरण के बन्धनों से निर्मुक्त हो जा के कारण, (सासय अन्वावाह सुक्ख अणुहौती ) शाश्वत एवं अन्याबाध सुख का अनन्त काल तक अनुभव करते रहते है || सू १२७ ॥ - 'अतुलमुखसागरगया' इत्यादि । ( अतुल सुखसागरगया) अनुपम सुख सागर मे मग्न वे सिद्ध भगवान्, 'णिच्छिण्णसव्वदुक्खा' इत्यादि (सिद्धा ) मे सिद्ध भगवान ( णिच्छिण्णसव्वदुक्खा ) सघका डु जोना अतिभथु, तथा ( जाइजरामरणबधणविमुक्का ) जन्म, ४रा तेमन भराशुना अघनाथी निर्भुत थ भवाना अरणे ( सासय अव्वाबाह सुक्ख अणुहोंती ) શાશ્વત તેમજ અવ્યાખાધ સુખને અનત્ત કાલ સુધી અનુભવ કરતા રહે છે ( સ ૧૨૭) 'अतुलसुखसागरगया' छत्याहि ( अतुलसुखसागरगया ) अनुपम सुमना सागरमा भग्न ते सिद्ध लगपान्, ( अव्वाबाह अणोवम पत्ता ) ते आस रेसा भुतिस्थानमा ( सम्बमणा L Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूपपणी-टीका, शाखोपमहार ७३७ 5 वाव=याघातनर्जितम् 'जणीवम्' अनुपमम्=साहय्यवर्जिन सिद्धिस्थान 'पत्ता प्राप्ता =अधिष्टिता मित्रा, 'मुह पत्ता' सुख प्रामा=मुखमधिगता अतएन 'मुही' सुम्चिन सन्त सव्वमणागमद्र' मनाना सर्व भविष्यत्काल 'चिह्नति' निष्टन्तीति ॥ सू १२८ ॥ || औपपातिक समाप्तम् ॥ ॥ इति श्राश्विनियत -जगद्दल्लभ- प्रसिद्धवाचक- पञ्चभापाकलितललितकला-पालापक -- प्रनिशुद्धगयपयनै कमन्यनिर्मापक - वादिमानमर्दक - श्राशाहूउपत्ति कोल्हापुरराजप्रदत्त - 'जैनगाखाचार्य' - पत्रभूषित--कोल्हापुरराजगुरुपालनहाचारि - जैनाचार्य - जैन मंदिवाकर पूज्य श्रीघासीलालप्रतिचिरचिता औपपातिक-सूत्रस्थ पीयुपवर्षिण्यारया व्याख्या सम्पूर्णा ॥ (अववाह अणोत्रम पत्ता) प्राम हुए उस मुक्ति स्थान में (सन्नमणागयमदं चिति सुही मुह पत्ता ) अनन्तकाल तक सदा सुखी ही रहते हैं । ॥ सू १२८ ॥ ॥ इति औपपातिकसूत्र का हिन्दी अनुवाद सम्पूर्ण ॥ tena चिट्ठति सुही सुद्द पत्ता ) अन तक्षण सुधी सुखी रहे छे ( सू १२८ ) ઈતિ ઔપપાતિક સૂત્રને ગુજરાતી અનુવાદ સંપૂર્ણ Page #851 --------------------------------------------------------------------------  Page #852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ બજાજ દાનવીરોની નામાવલી ( શ્રી અખિલ ભારત શ્વેતામ્બર સ્થાનકવાસી ન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ. * ગરેડીયા કુવા રેડ-ગ્રીન લેજ પાસે, રા જ કે ટ શરૂઆત તા. ૧૮-૧૦-૪૪ થી તા ૧૦-૧૨-૧૮ સુધીમાં દાખલ થયેલ મેમ્બરનાં મુબારક નામે ગામવાર કકાવારી લિસ્ટ - (રૂા. ૨૫૦ થી ઓછી રકમ ભરનારનું નામ આ યાદીમાં સામેલ કરેલ નથી.) Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આદ્ય મુરબ્બીશ્રીઓ-૫ . (ઓછામાં ઓછી રૂ ૫૦૦૦ ની રકમ આપનાર) ન બરે નામ " ' દ ગામ રૂપિયા ૧ શેઠ શાન્તીલાલ મંગળદાસભાઈ જાણીતા ભીલમાલીક અમદા' ૧૦૦૦૦ ૨ શેઠ હરખચંદ કાલીદાસભાઈ વારીયા હા શેઠ લાલચદભાઈ - જેચ દભાઈ, નગીનભાઈ, વૃજલાલભાઈ તથા વલ્લભદાસભાઈ ભાણાવડ ર૦૦૦ ૩ કોઠારી જેચ દભાઈ અજરામરહા. હરગોવિદભાઈ જેચંદભાઈ રાજકોટ પરપ૧ શેઠ ધારશીભાઈ જીવનભાઈ - , " શેલારે ૫૦૦૧ ૫ રવ પિતાશ્રી છગનલાલ શામળદાસના સમરણાર્થે હ ભોગીલાલ છગનલાલભાઈ ભાવસાર - અમદાવાદ ૨૫૧ | મુરબ્બીશ્રીઓ-૨૧ (ઓછામાં ઓછી રૂા ૧૦૦૦ ની રકમ આપનાર) ૧ વકીલ જીવરાજભાઈ વર્ધમાન કોઠારી હ કહાનદાસભાઈ તથા વેણીલાલભાઈ 3 ' - જેતપુર ૩૦૧ ૨ દેશી પ્રભુદાસ મૂળજીભાઈ રાજકોટ ૩૬૦૪ ૩ મહેતા ગુલાબચંદ પાનાચંદ < : રાજકેટ ૩૨૮લાના ૪ હેતા માણેકલાલ અમુલંખરાય ઘાટકોપર ૩રપ૦ ૫ સ ઘવી પીતામ્બરદાસ ગુલાબચંદ જામનગર ૩૧૦૧ ૬ શેઠ શામજીભાઈ વેલજીભાઈ વીરાણી રાજકેટ ૨૫૦૦ ૭ નામદાર ઠાકોર સાહેબ લખધીરસિંહજી બહાદુર મોરબી ૨૦૦૦ ૮ શેઠ હેરચદ કુવરજી હા શેઠ ન્યાલચ દ હેરચદ સિદ્ધપુર ૨૦૦ ૯ શાહ છગનલાલ હેમચદ વસા - . હા મોહનલાલભાઈ તથા મેતીલાલભાઈ સુબઈ ૨૦ ૧૦ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ મોરબી ૧૯૯૩ ૧૧ મહેતા સમચદ તુલસીદાસ તથા તેમના ધર્મપત્ની અ સૌ મણીગૌરી મગનલાલ રતલામ ૧૫૦૦ ૧૨ હેતા પિપટલાલ માવજીભાઈ જામજોધપુર ૧૩૧ ૧૩ દેશી કપુરચદ અમરશી હા દલપતરામભાઈ જામજોધપુર ૧૦૨ ૧૪ બગડીઆ જગજીવનદાસ રતનશી -. !! . દા દામનગરે ૧૦૨ ૧૫ શેઠ આત્મારામ માણેકલાલ , , , , અમદાવાદ ૧૦૧ ( ૧૬ શેઠ માણેકલાલ ભાણજીભાઈ પિરબ દર ૧૦૦૧ શ્રીમાન ચ દ્રસિંહજી સાહેબ મહેતા (રેવે મેનેજર) કલકત્તા ૧૦૧ ૧૮ રહેતા મચ દ નેણુમીભાઈ (કરાચીવાળા ) મોરબી ૧૦૧ Page #854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૯ શાહ હરીલાલ અનેાચ દભાઇ ૨૦ ફાટારી છબીલદાસ હરખચ દ્રભાઈ ૨૧ કાઠારી ૨ગીલદાસ હરખચદભાઈ -→ ', . ૩ સહાયક મેમ્બરી-૪૯ (એછામા એછી રૂા ૫૦૦ ની રકમ આપનાર) શાહ ૨ગજીભાઈ માહનલાલ મેાદી ફેશવલાલ હરીચ લાઈ ૩ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈનસ ઘ હા શેઠ ઝુ ઝભાઇ વેલસીભાઈ વઢવાણ શહેર ૪ શેઠ નરાન્તમદાસ આઘડભાઇ ૧૯ સ્વ પિત્તાશ્રી નદાજીના સ્મરણાર્થે ખભાત ૧૦૦૧ મુખઇ ૧૦૦૦ શિષાર ૧૦૦૦ હા વેણીચ દશાન્તીલાલ (જજીઆવાળા) 70 શ્રી સ્થાનકવાસી જૈનસઘ હા શેઠ ઠાકરશી કરસનજી ૨૧ શેઠે તારાચ દ પુખરાજજી ૨૨ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈનસ ઘ અમદાવાદ ૭૫૧ સાબરમતી ૫ શેઠે રતનશી હરજીભાઇ હા ગેારધનદાસભાઈ જામજોધપુર ૫૫૫ ७ ૬ ખાટવીયા ગીરધર પરમાનદ હા અમીચ દભાઇ ખાખીજાળીઆ ૧૨૭ મારીવાળા સઘવી દેવચંદ નેણશીભાઈ તથા તેમના ધર્મપત્નિ સૌ મણીબાઇ તરફથી હું મુલચ ૪ દેવચ દ (કરાચીવાલા) મલાડ ૫૧૧ ૮ વારા મણીલાલ પોપટલાલ અમદાવાદ ૫૦૨ ૯ ગૈાસલીયા હરીલાલ લાલચટ્ટ તથા ચ પાબેન ગૈાસલીયા અમદાવાદ ૫૨ ૧૦ શાહ પ્રેમચ ૬ માણેક્ચ ૬ તથા આ સૌ સમરતબેન રાજસીતાપુર અમદાવાદ ૫૦૨ ૧૧ શેઠ ઇશ્વરલાલ પુરુષાત્તમદાસ અમદાવાદ ૫૦૧ ૧૨. શેઠ ચદુલાલ છગનલાલ ૧૩ શાહ શાન્તીલાલ માણેકલાલ ૧૪ શેઠ શીવલાલ ડમરભાઈ (કરાચીવાલા) કામદાર તારાચ ૬ પાપટલાલ ધેારાજીવાળા અમદાવાદ ૧૦૧ અમદાવાદ ૫૦૧ ૫૦૧ લી ખડી રાજકાટ ૫૦૧ ૧૫ ૧૬ હેતા માહનલાલ કપુરચંદ રાજકાટ ૫૦′ રાજકોટ ૫૦૦ ૧૭ શેઠ ગાવિંદજીભાઈ પોપટભાઈ ૧૮.શેઠ રામજી શામજી વીરાણી રાજકાઢ ૫૦૧ ૧૫૦ શેઠ- શેષમલજી જીવરાજજી ૧૨૫ શેઠ અનરાજજી લાલચદજી ૧૨૫ કડચ’દજી રૂપચ દજી ૭૫૦ ૭૫૦ શીવ ७०० મેઘનગર ૧૦૧ થાનગઢ ૫૦૦ ૫૦૦ ૫૦૦ ઔર ગાબાદ ઔર શાખાદ Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૫૧ ૨૯ સ થવી જીવણલાલ છગનલાલ થી જેન) • • ૨૫ ૩૦ શાહ શાતિલાલ મોહનલાલ ધ્રાગધ્રાવાળા ૨૫૨ ૩૧ અ સૌ બેન રતનબાઈ નાદેચા હા ધુલજીભાઈ ચ પાલાલજી ૩ર શાહ હરિલાલ જેઠાલાલ ભાડલાવાલા ૨૫૧ ૩૩ શ્રી સરસપુર દરીયાપુરી આઠ ટી સ્થા જૈન ઉપાશ્રય હા ભાવસાર ભોગીલાલ છગનલાલ ૨૫૧ ૩૪ શેઠ પુખરાજજી સમતીરામજી સાદડીવાળા ૩૫ સ્વ પિતાશ્રી જવાહરલાલજી તથા પૂજ્ય ચાચાજી હજારીમલજી બરડીયાના સ્મરણાર્થે હા મૂળ દજી જવાહરલાલ ૨૫૧ ૩૬ સ્વ. ભાવસાર બબાભાઈ (ભગળદાસ) પાનાચકના મરણાર્થે હા તેમના ધર્મપત્નિ પુરીબેન ૫૧ ૩૭ રવ પિતાશ્રી રવજીભાઈ તથા સ્વ માતુશ્રી મૂળીબાઈના સ્મરણાર્થે હા કકલભાઈ કોઠારી ૩૦૧ ૩૮ ભાવસાર કેશવલાલભાઈ મગનલાલભાઈ ! ૨૫૧ ૩૯ શાહ કેશવલાલ નાનચંદ જાખડાવાળા હા પાર્વતીબેન ' . ૨૫૧ ૪૦ શાહ જીતેન્દ્રકુમાર વાડીલાલ માણેકચંદ રાજસીતાપુરવાળા (સાબરમતી) ૨૫૧ ૪૧ શ્રી સ્થા ન સ ઘ (સાબરમતી) ' કર શ્રી બીપિનચક તથા ઉમાકાત ચુનીલાલ ગોપાણી (રાણપુરવાળા) ૩૦૧ ૪૩ ભાવસાર છોટાલાલભાઈ છગનલાલભાઈ ૪૪ ભાવસાર શકરાભાઈ છગનલાલભાઈ ૪૫ અ સૌ જીવીબેન રતીલાલ હા ભાવસાર રતીલાલ હરગોવિંદદાસ રપ૧ ૪૬ સ ઘવી બાલુભાઈ કમળશી તથા તેમના ધર્મપત્નિઓ. આ સૌ ચ પાબેન તથા વસતબેન તરફથી ક૭ અ સૌ વિદ્યાબેન વનેચ દ દેશાઈ હા ભૂપેન્દ્રકુમાર વનેચદ દેશાઈ- ૨૫૧ ૪૮ સ્વ પારેખ નાનચંદ ગતિ દજી મોરબીવાળાના સમરણાર્થે. હા રતીલાલ નાનચદ પારેખ ૩૦૧ ૪૯ શાહ નટવરલાલ ગોકળદાસ ૨૫૧ ૫૦ શાહ શામળભાઈ અમરશીભાઈ ૫૧ શાહ ત્રીવનદાસ મગનલાલના સમરણાર્થે -- - - તેમના ધર્મપત્નિ શીવકુવરબેન તરફથી હા રતીલાલ ત્રીવનદાસ ૪૦૨ પર સૌ કકબેન (ભાવસાર ભેગીલાલભાઈ છગનલાલભાઈને ધમપત્નિ) ૩૯ 3* " - '' ૫૦ Page #856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૫૧ ૨૫૧ પ૩ અ. સી. સવિતાબેન જયંતીલાલ ભોગીલાલના ધર્મપત્નિ) ૨૫૧ ૫૪ આ સૌ શતાબેન (દીનુભાઈ ભોગીલાલના ધર્મપત્નિ) ૨૨૧ પપ અ. સૌ સુન દાબેન (રમણભાઈ ભોગીલાલના ધર્મપત્નિ) - ૫૬ શેઠ હીરાજી રૂગનાથજીના સ્મરણાર્થે હા, વાગમલજી રૂગનાથજી ૩૦૧ fપ૭ શેઠ મણીલાલ બાઘાભાઈ ૨૫૧ * * ૫૮ પટવા સુમેરમલજી અનેપચ દજી જોધપુરવાળા ૩૦૧ - ૫૯ - માણેકલાલ વનમાળીદાસ શાહના સ્મરણાર્થે ( હા રમણલાલ માણેકલાલ ૨૫૧ ૬. સ્વ શાહ ધનરાજજી ખેમરાજજીના સ્મરણાર્થે હા કનૈયાલાલજી ધનરાજ ૩૦૧ ૬૧ શ્રી સારગપુર દ આ કે સ્થા. જૈન સંઘ હા શાહ રમણલાલ ભગુભાઈ ર૫૧ ૬૨ દેશી હરજીવનદાસ જીવરાજ તથા લમ બાઈ લહેરચદના મરણાર્થે હા દેશી મનહરલાલ કરસનદાસ મુળીવાળા ૬૩ શાહ પૂનમચ દ ફતેહચદ , ૨૫૧ 1 ૬૪ શ્રી ચતુરભાઈ ના દલાલ ')"૬૫ શ્રીયુત અમૃતલાલ ઈશ્વરલાલ ૨૫૧ ૬૬ શાહ જાદવજી મેહનલાલ તથા શાહ ચીમનલાલ અમુલખભાઈ ૫૧ ૬૭ અ, સૌ. લાભુબેન મગનલાલ હ શાહ અમૃતલાલ ધનજીભાઈ વઢવાણ શહેરવાળા ૩૦૧ ૬૮ અ સૌ બહેન કાન્તાબેન ગોરધનદાસ ૬૯ દોશી ફુલચંદ સુખલાલભાઈ બેટાદવાળાના મરણાર્થે હ, દેશી છબીલદાસ ફુલચ દભાઈ રપ૧ ૭૦ લાલાજી રામકુમાર જૈન ૭૧ શેઠ છોટાલાલ ગુમાનચદ પાલનપુરવાળા ૭૨ શાહ ધીરજલાલ મોતીલાલ ૨૫૧ , 92 મ ઘવી સૂર્યકાત ચુનીલાલના સ્મરણાર્થે હસ ઘવી જીવણલાલ ચુનીલાલ ૫૧ ૭૪ ભાવસાર મેહનલાલ અમુલખરાય ૨૫૧ ૭૫ શાહ ફુલચ દ મુલચ દુભાઈ હ હસમુખભાઈ કુલચ દભાઈ ૨૫૧ ૭૬ લલુભાઈ મગનભાઈ ચૂડાવાલાના સમરણાર્થે હ જમરતલાલ લલ્લુભાઈ ૩૦૧ ૭૭ શ્રીમાન મીઠીલાલજી જવાહરલાલજી બરડીયા અટવરવાળા ૨૫૧ ૭૮ મહેતા મુળચ દ મગનલાલ ૫૧ ૭૯ વૈદ્ય નરસીદાસ સાકરચદના ધર્મપત્નિ રેવાબાઈના સ્મરણાર્થે હું હરીલાલભાઇ ૨૫૧ Page #857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૫ ૨૫૧ ૩૦૧ અમરેલી ૧ મારતર હકમીચદ દીપચંદ શેઠ અમલનેર ૧ શાહ નાગદાસ વાઘજીભાઈ ૨ શ્રી સ્થા જિનસ ઘ હા શાહ ગાઠાલાલ ભીખાલાલ ૨પ૧ આણંદ ૧ શેઠ રમણીકલાલ એ કપાસી હ. મનસુખલાલભાઈ ૨૫૧ આસનસેલ ૧ બાવીસી મણીલાલ ચત્રભુજના સ્મરણાર્થે તેમના ધર્મપત્નિ મણીબાઈ તરફથી હા. રસિકલાલ, અનિલકાત, વિનોદરાય ૨૫૧ આટકોટ ૧ શાહ ચુનીલાલ નારણુજી ૩૦૧ ઉદયપુર ૧ શ્રીયુત સાહેબેલાલજી મહેતા ૨ શેઠ મોતીલાલજી રણજીતલાલજી હી ગડ ! ૩ શેઠ મગનલાલજી બાગચા , ૨૫૧ ૪ આ સૌ બહેન ચ દ્રાવતી તે શ્રીમાન બહેતલાલજી નાહરના . ધર્મપત્નિ હા શેઠ રણજીતલાલ હીંગડા ! r ૨૫૧ ૫ સ્વ શેઠ કાળલાલજી લોઢાના સ્મરણાર્થે હા શેઠ દોલતસિંહજી લેતા ૨૫૧ ૬ રવ શેઠ પ્રતાપમલજી સાખલાના સ્મરણાર્થે ! હા પ્રાણલાલ હીરાલાલ સાખલા ' ૨૫૧ ૭ પૂજ્ય પિતાશ્રી મોતીલાલજી મહેતાના મરણાર્થે ” હા રણજીતલાલજી મોતીલાલજી મહેતા ૨૫૧ '૮ શેઠ છગનલાલ બાગચા + ૨૫૧ ૯ શેઠ ભીમરાજ થાવરચદ બાફણા ૨૫૧ ઉમરગાંવરેડ ૧ શાહ મેહનલાલ પોપટલાલ પાનેલીવાળા ૨૫૧ ઉપલેટા ૧. શેઠ જેઠાલાલ ગોરધનદાસ ૨ સ્વ બેન સતકબેન કચરા હા એગમચ દભાઈ, છોટાલાલભાઈ તથા અમૃતલાલભાઈ વાલજી (કલ્યાણવાળા) ૮૨૫૧ ? ક ૨૫૧ ૨૫૧ Page #858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩ શેઠ ખુશાલચંદ કાનજીભાઈ હા. શેઠ પ્રતાપભાઈ ૪ સ ઘાણી મૂળશ કર હરજીવનભાઈના સ્મરણાર્થે હા તેમના પુત્ર જય તીલાલભાઈ તથા રમણીકલાલ ૫ દોશી વિઠ્ઠલજી હરખચ દ (આગળના રૂા ૧૫૧ મળીને) એડન કેમ્પ ૧ શાહ ગોકળદાસ શામજી ઉદાણી ૨ શાહ જગમોહનદાસ પરસોતમદાસ ૨પ૧ ૧ ૨૫૧ કલકત્તા ૨૫૧ ૨પ૧ ૧ શ્રી કલકત્તા જૈન શ્વે સ્થા (ગુજરાતી) સ ઘ હા શાહ જયસુખલાલ પ્રભુલાલ કલેલ ૧ શેઠ મોહનલાલ જેઠાભાઈના સ્મરણાર્થે હા.શેઠ આત્મારામ મોહનલાલ ર૫૧ ૨ ડે મયાચદ મગનલાલ શેઠ હા ડો રતનચદ મયાદ ૨૫૧ ૩ સ્વ નાથાલાલ ઉમેદચદના સ્મરણાર્થે હા શાહ રતીલાલ નાથાલાલ ૨૫૧ ૪ શાહ મણીલાલ તલકચંદના સ્મરણાર્થે હા મારતીયા ચ દુલાલ મણીલાલ ૨૫૧ ૫ સ્વર્ગસ્થ શ્રીયુત વાડીલાલ પરશોત્તમદાસના સ્મરણાર્થે હા ઘેલાભાઈ તથા આત્મારામભાઈ ૬ શેઠ નાગરદાસ કેશવલાલ ૨૫૧ ૭ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ હ શેઠ આત્મારામભાઈ મોહનલાલભાઈ ૨૫૧ ર૫૧ ૨૫૧ ૧ શ્રી સ્થા દરીયાપુરી જૈન સંઘહા ભાવસાર દામોદરદાસભાઈ ઈશ્વરભાઈ ધરપ૧ કાનપુર ૧ શાહ રમણીકલાલ પ્રેમચ દભાઈ (આગળના રૂ ૧૫૦ મળીને ૨ શાહ હરકીશનદાસ ફૂલચ દભાઈ ર૫૧ કુદણ –(આટકેટ) ૧ દેશી રતીલાલ ટેકરશીભાઈ કેલકી ૧ પટેલ ગોવિદલાલ ભગવાનજી ૨ પટેલ ખીમજી જેઠાભાઈ વાઘાણી તેમના સ્વ સુપુત્ર રામજીભાઈના સ્મરણા) ૩૦૨ ખાખીજાળીયા ૧ બાટવીયા ગુલાબચદ લીલાધર (આગળના રૂા ૧૫૧ મળીને) ૨૫૧ ખીચન ૧ શેઠ કિશનલાલ પૃથ્વીરાજ ૩૦૦ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૫ર Page #859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૫e ૨૫૧ ૨૫ ૨૫૧ ૨૫ ૨૫ ૩૫ ૨૫૧ ૩૦૧ ૩૦૧ ર૫૧ ડાંડાઈ ૧ થી સ્થા. જૈન સંઘ હ. શેઠ ચપાલાલજી મારે સા (વાયાધાળા) ૧ શ્રી ઢસાગામ શ્રી સ્થા જેન ગ ઘ હ એક સદગૃહસ્થ તરફથી થાનગઢ ૧ શાહ ઠાકરશીભાઈ કરશનજી ૨ શેઠ જેઠાલાલ ત્રીભવનદાસ ૩ શાહ ધારશીભાઈ પાશવીરભાઈ હા મુખલાલભાઈ દહાણુ રોડ (થાણું) ૧ શાહ હરજીવનદાસ ઓઘડ ખધાર (કરાચીવાળા) દિલહી : ૧ લાલા પૂર્ણચ દજી જેન (સેન્ટ્રલ બે કવાળા) ૨ શ્રીયુત મહેતાબચદ રેન ૩ લાલાજી મીઠ્ઠનલાલજી જૈન એન્ડ સન્સ ૪ લાલાજી ગુલશનરાયજી જેન એન્ડ સન્સ ૫ આ સૌ સજજનબેન ઈદરમલજી પારેખ ધાર (મધ્યપ્રાત) ૧ શેઠ સાગરમલજી પનાલાલજી ધાગધ્રા ૧ શ્રી સ્થા જન મોટા સ ધ હા શેઠ મ ગળજીભાઈ જીવરાજ ૨ સધવી નરસીદાસ વખતચ દા ૩ ઠકકર નારણદાસ હોવી દદાસ ૪ કોઠારી કપૂરચ દ મ ગળજી ધોરાજી ૧ મહેતા પ્રભુદાસ મૂળજીભાઈ ૨ પિતાશ્રી ભગવાનજી ઠચરાભાઈના સ્મરણાર્થે હા પટેલ દલીચ દ ભગવાનજી ૩ અ સૌ બચીબેન બાબુભાઇ ૪ ધી નવ સૌરાષ્ટ્ર ઓઈલ મીલ મા લીમીટેડ, ૪ સ્વ રાયચ દ પાનાચંદ શાહના સ્મરણાર્થે હા ચીમનલાલ રાયચ6. ૬ ગાધી પિપટલાલ જેચ * ૭ દેશાઈ છગનલાલ ડાહ્યાભાઈ લાઠવાળાના ધર્મપત્નિ દિવાળીબેન તરફથી હા કુમારી હસુમતી ૨૫૧ - ૨૫૧ ૩૦૧ ૨૫૧ ૨૫૧ • ૩૫૧ ૩૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૦૧ ૨૫૦ ૨૫૧ Page #860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ધ ધુકા ૧ ભાવસાર ખેડીદાસ ગણેશભાઈ ૨ શેઠ પોપટલાલ ધારશી ૩ ૩ ગુલાબચદભાઈના સ્મરણાર્થે હા પોપટલાલ નાનચદ ૪ વસાણી ચત્રભુજ વાઘજીભાઈ ન દુરબાર ૧ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ હા શેઠ પ્રેમદ ભગવાનલાલ પાસણા ૧ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ ૨૫૬ ૨૫૧ ૨૫૧ ૫૧ ૨૫૦ ૨૫૨ પાલણપુર ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૦૧ ૨૫૧ ૧ લમીબેન હા હેતા હરીલાલ પીતામ્બરદાસ ૨ શ્રી કાગછ રસ્થાનકવાસી જૈન પુસ્તકાલય ૩ મહેતા મણીલાલ ભાઈચ દભાઈ ૪ મહેતા સુરજમલ ભાઈચંદભાઈ પાલેજ ૧ સ્વ મનસુખલાલ મોહનલાલ સ ધવીના સ્મરણાર્થે હા ભાઈ ધીરજલાલ મનસુખલાલ ૧ શેઠ ઉત્તમચ દ0 કેવળચ દજી કા પ્રાંતિજ ૧ શ્રી પ્રાતિજ રથા જેનસ ઘ હ શ્રીયુત અ બાલાલ મહાસુખગમ - બરવાળા (ઘેલાશા) ૧ વ મેહનલાલ નરસીદાસના સ્મરણાર્થે હા તેમના ધર્મપત્નિ સુરજબેન મોરારજી બગસરા (ભાયાણી) ૧ શેઠ પોપટલાલ રાઘવજી રાયડીવાળા હા. શેઠ માનસ પ્રેમચંદ બેરાજા (કચ્છ) ૧ શેઠ ગાગજી કેશવજી (જ્ઞાનભંડાર માટે) એગલેર ૧ બાટવીયા વનેચદ અમીચ દ મહાવીર ટેક્ષટાઈલ સ્ટાર તરફથી ભાઈ ચકકાતના લગ્નની ખુશાલીમાં બોટાદ ૧ સ્વ વસાણી હરગોવિંદદાસ છગનલાલના સ્મરણાર્થે છે. તેમના ધર્મપત્નિ છબલબેન બાંકાનેર ૧ શેઠ ભેરૂદાનજી શેઠીયા ૨૫૧ ૨૫૧ ૨પ૧ ૨પર ૨૫૧ ૨૫૪ Page #861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૪ ૨૫૧ ૨૫૧ ઉપર ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ - બેડેલી ૧ શાહ પ્રવિણચંદ્ર નરસીદાસ (સાણ દવાળા) ૨ શાહ ગીરધરલાલ સાકરચંદ ભાણવડ ૧ શેઠ જેચંદબાઈ માણેકચર ૨ સ ઘવી માણેકચંદ માધવજી ૩ શેઠ લાલજીભાઈ માણેકચંદ (લાલપુરવાળા) ૪ શેઠ રામજી જીણાભાઈ ૫ શેઠ પદમશી ભીમજી ફરીઆ ૬ ફેફરી આ ગાંડાલાલ કાનજીભાઈ હા સૌ શાતાબેન વસનજી ૭ વકીલ મણીલાલ એ ગારભાઈ પૂનાતર ભીલવાડા ૧ શ્રી શાતિ જૈન પુસ્તકાલય હ ચાદમલજી મામલજી સ ઘવી ૨ શેઠ ભીમરાજ મીશ્રીલાલજી ભેદાચ (કચ્છ) ૧ જ્ઞાન મદિરના સેક્રેટરી શાહ કુવરજી જીવરાજ ભાવનગર ૧ નવ કુંવરજી બાવાભાઈના સ્મરણાર્થે હ શાહ લહેરચદ કુવરજી પ્રજાસ ૧ શેઠ મેઘરાજજી દેવીચદજી મનેર (થાણા) ૧ શાહ શેરમલજી દેવીચ દજી જસવંતગઢવાળા હદ પૂનમચ ઇસ્ટ શેરમલજી બોલ્યા માનકુવા (કચ્છ) ૧ સ્વ મહેતા કુવરજી નાથાલાલના સ્મરણાર્થે હું તેમના ધર્મપનિ કુંવરબાઈ હરખચ દ (માનકુવા સ્થાનકવાસી જૈનસ ઘ માટે) મુબઈ તથા પરાઓ ૧ શેઠ છગનલાલ નાનજીભાઈ ૨ શાહ હરજીવન કેશવજી ૩ ઘેલાણે પ્રભુલાલ ત્રિીકમજીભાઈ બારીવલી, ૪ શેઠું છોટુભાઈ હરગોવિંદદાસ કટોરીવાલા ૨૫૧ ૩૦૧ ૨૫૧ ૨૫૩ ૨૫૧ ૨૫૧ ૧ રપ૧ ૨૫૨ છે Page #862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૫૧ ૫ શ્રી વર્ધમાન સ્થા જેન આ ઘ હા કેશરીમલજી અને પચદજી ગુગળીયા (મલાડ) દ શેઠ ડુંગરશી હ શરાજ વીસરીયા ૨૧ છ શાહ રમણીકલાલ કાળીદાસ તથા આ સૌ કાન્તાબેન રમણીકલાલ ર૩૧ ૮ શાહ હિંમતલાલ હરજીવનદાસ ૫૧ ૯ શાહ રતનબી મોણશીની કપની ૧૦ શાહ શીવજી માણેક (કરછ બેગલવાળા) ૨૫૧ ૧૧ વેરા પાનાચ દ સ ઘજીના સ્મરણાર્થે હા ત્ર બકલાલ પીનાચ દ એન્ડ બ્રધર્સ ૨૫ સવ ૫ પિતાશ્રી વીરચંદ જેમી ગભાઈ લખતથ્વાળાના સ્મરણાર્થે હા કેશવલાલ વીરચ દ શેઠ ૧૩ શા કુવરજી હમરાજ ૨૫ સ્વ માતુશ્રી માણેકબેનના સ્મરણાર્થે હા શેઠ વલભદામ નાનજી (પરબ દરવાળા) ૫ એક સગ્ગહસ્થ હા શેઠ સુદરલાલ માણેકચંદ રપ૧ ૧૬ સૌ પાનબાઈ હા શેઠ પદમશી નરસિંહભાઈ (મલાડ). ૨૫ ૧૭ શ્રીયુત અમૃતલાલ વર્ધમાન બાપોદરાવાળા હી વલીદ અમૃતલાલ ૧૮ વ શાહ નાગરી સેજપાળ ગુદાળાવાળાના સ્મરણાર્થે હા રામજી નાગશી (મલાડ) ૧૯ શાહ રામજી કરશનજી થાનગઢવાળા ૨૫૩ ૨૦ શાહ નગીનદાસ કલ્યાણજી વેરાવળવાળા ૨૫૧ ૨૫ શીવલાલ ગુલાબચંદ શેઠ મેવાવાળા ૨પ૧ સ્વ જટાશકર દેવજી દોશીના સ્મરણાર્થે હા રણછોડદાસ (બાબુલાલ) જટાશંકર દોશી ૨૩ સ્વ ગડા વાળી ત્રીવન બરસવાળા સ્મરણાર્થે હા જગજીવન વણારશી ગોડા (મલાડ) ૨૫ ૨૪ સ્વ ત્રીભોવનદાસ વ્રજપાળ વિી છીયાવાળાના સ્મરણાર્થે હા હરગોવિંદદાસ ત્રીભોવનદાસ અજમેરા ૨૫૧ ૨૫ રવ કાનજી મૂળજીના સ્મરણાર્થે તથા માતુશ્રી દિવાળીબાઈને ૧૬ ઉપવાસના પારણા પ્રસગે હા જય તીલાલ કાનજી કાળાવડવાળા(મલાડ) ર૫૧ ૨૬ શેઠ ખુશાલભાઈ એ ગારભાઈ ૨૫૦ ર૭ શાહ પ્રેમજી માલશી ગંગર (મલાડી ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૦૧ Page #863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૫૧ ૭૬ શેઠ મનુભાઈ માણેકચંદ હ ઝાટડીયા નરભેરામ મોરારજી (વાટકે પર) ૨૫૧ ૭૭ ખેતાણી મણીલાલ કેશવજી (વડીયાળ) ઘાટ પર ૨૫૧ ૭૮ સ્વ કસ્તુરચદ અમરશીના સ્મરણાર્થે હ તેમના ધર્મપત્નિ | ઝવેરબેન મગનલાલની વતી–જય તીલાલ કસ્તુરચદ મઠારીયા (સુડાવાળા) ૨૫ ૭૯ વ પૂજ્ય માતુશ્રી જકલબાઈના મરણાર્થે હા દેશાઈ વ્રજલાલ કાળીદાસ (મલાડ) ૨૫ ૮૦ શાહ નટવરલાલ દીપચદ તરફથી તેમના ધર્મપત્નિ અ સૌ સુશીલાબેનના વધીતપની ખુશાલીમાં ૮૧ શેઠ રસીકલાલ પ્રભાશકર મેરબવાળા તરફથી તેમના માતુશ્રી મણીબેનના સ્મરણાર્થે ૩૦૧ ૮૨ કેટીચા જયતીલાલ રણછોડદાસ સૌભાગ્યચ દ જુનાગઢવાળા ૨૫૧ ૮૩ મોદી અભેચ દ સુરચદ રાજકોટવાળા હા ડોસાલાલ અભેચ દ ૨૫૧ ૮૪૬ શાહ રાયશી કચરાભાઈના સ્મરણાર્થે તેમના ધર્મપત્નિ નેણબાઈ વતી હ શાહ જેઠાલાલ રાયશી ૨૫૧ ૮૫ શ્રીયુત જે સી વેરા ૮૬ શ્રી વર્ધમાન સ્થા જૈન શ્રાવક સઘ હ સ ઘવી ચીમનલાલ અમરચદ(દાદર) ૨૫૧ ૮૭ સ્વ આશારામ ગીરધરલાલના સમરણાર્થે હ શાતિલાલ - આશારામની વતી જસવંતલાલ આશારામ લખતરવાળા માડવી (કચ્છ) * ૧ શ્રી રહ્યા છે કેટી જૈન સંઘ હા મહેતા ચુનીલાલ વેલજી . ર૭૭ માંડવા (ાળાજકશન) ૧" માડવા સ્થા જન સઘ હ અ સૌ કચનગૌરી રતિલાલ ' ગેસલીયા ગઢડાવાળા ૨૫૧ મેસાણું ૧ શાહ પદમશી સુરચદના સ્મરણાર્થે હા શીવલાલ પદમશી વીરમગામવાળા રપ૧ - મેમ્બાસા ૧ શાહ દેવરાજ પથરાજ ૨૫૦ ૨ શ્રીયુત નાથાલાલ ડી મહેતા , ( ૨૫૦ ૨૫૧ - ૨૫૧ વર્ષ શઠ બારમલજી સૂરજમલજી બેન્ક Page #864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૫૧ ૩૦૧ ૨૫૦ ૨૫ ૨૫૧ ૨૫૪ ૨પ ૨૫૧ ૨૫૧ રાણપુર (ઝાલાવાડ) ૧ શ્રીમતિ માતુશ્રી અમરતબાઈના સ્મરણાર્થે હા. ડો. નરોત્તમદાસ ચુનીલાલ કાપડીયા રાણાવાસ (મારવાડ), ૧ શેઠ જવાનમલજી નેમીચંદજી હા બાબુ રીપબચ દશ રાજકોટ ૧ ધી વાડીલાલ ડાઈગ એન્ડ પ્રિન્ટીંગ વર્કસ ૨ શેઠ રતીલાલ ન્યાલચંદ ૩ બાબુ પરશુરામ છગનલાલ શેઠ (ઉદેપુરવાળા) ૪ શેઠ મનુભાઈ મુળચદ (એજીનીઅર સાહેબ) ૫ શેક શાન્તીલાલ પ્રેમચદ તેમના ધર્મપત્નિના વરસીતપ પ્રસંગે ૬ ઉદાણી ન્યાલચંદ હાકેમચ દ વકીલ ૭ શેઠ પ્રજારોમ વિઠ્ઠલજી ટિ બહેન મથુંબાળા નૌત્તમલાલ જસાણી (વરસીતપની ખુશાલી) ૯ મેદી મૌભાગ્યચા મોતીચદ ૧૦ બદાણી ભીમજી વેલજી તરફથી તેમના ધર્મપત્નિ અ સૌ સમરતબેનના વરગીતપની ખુશાલી ૧૧ દેશી મોતીચ દ ધારશીભાઈ (રીટાયર્ડ એજીનીઅર સાહેબ). ૧ર કામદાર ચ દુલાલ જીવરાજ ૧૩. હેમાણી ઘેલુભાઈ સચદ ૧૪ પ્રભુલાલ ન્યાલચદ દફતરી ૧૫ સ્વ મહેતા દેવચંદ પુરૂત્તમદાસના સ્મરણાર્થે તેમના ધર્મપત્નિ હેમકુવરબાઈ તરફથી હા ત્ય તીલાલ દેવચંદ મહેતા રાજાજીકાકરડા (ભીલવાડા) ૧ શ્રીમાન જેગવરમલજી ધર્મચદઝ ડુગરવાલ [ મુનીશ્રી માગીલાલજીના ઉપદેશથી રાયચુર ૧ સ્વ માતુશ્રી મોઘીબાઈના સ્મરણાર્થે હ શાહ શીવલાલ ગુલાબચદ વઢવાણુવાળા રંગુન ૧ કામદાર ગોરધનદાસ મગનલાલના ધર્મપત્નિ અ સૌ કમળાબેન રાપર (કચ્છ) ૧ પુજ્ય વાલજીભાઈ ન્યાલચંદ ૨૫૧ ૨૫૪ ૨૫૦ ૨પ૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ Page #865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૫૧ ૧૦ પારેખ મણીલાલ ટોકરશી લાતીવાળા તરફથી મટીએનના સમરણાર્થે) ૨૫૧ ૧૧ શાહ નારણુદાસ નાનજીભાઈના સુપુત્ર વાડીલાલભાઈને ધર્મપત્નિ અ સો. નારગીબેનના વરસીપત નિમીત્ત હા શાન્તીભાઈ ૨૫૧ ૧૨ સ્વ છબીલદાસ ગોકળદાસના સમરણાર્થે તેમના ધર્મપત્નિ કમળાબેન તરફથી હા મજુલાકુમારી ૨૫૧ ૧૩ શ્રી સ્થા જૈન શ્રાવિકા સઘ હા પ્રમુખ અ સૌ ૨ભાબેન વાડીલાલ પ૧ ૧૪ વ ત્રીભોવનદાસ દેવચ દ તથા સ્વ અ સૌ ચ ચળબેનના મરણાર્થે હા ડે હિમતલાલ સુખલાલ ૫૧ ૧૫ શાહ મૂળચંદ કાનજીભાઈ તરફથી હા નાગરદાસ ઓઘડભાઈ, ૨૫ ૧૬ શેઠ મેહનલાલ પીતાંબરદાસ હા ભાઈ કેશવલાલ તથા મનસુખભાઈ ૨૫૧ ૧૭ શ્રીમતી હીરાબેન નથુભાઈને વરસીતપ નિમિતે હા નથુભાઈ નાનચંદ શાહ , ૩૦૧ ૧૮ સ્વ મણીયાર પરસેતમદાસ સુંદરજીના સ્મરણાર્થે હા શેઠ સાકરચદ પરસોતમદાસ ૨૫૧ ૧૯ શેઠ મણીલાલ શીવલાલ વેરાવલ ૧ શાહ કેશવલાલ જેચદભાઈ ૨ શાહ ખીમચદ સૌભાગ્યચદ વસનજી ૩ સ્વ. શેઠ મદનજી જેચંદભાઈ માગરોળવાળાના સ્મરણાર્થે તેમના ધર્મપત્નિ લાડકુવરબાઈ તરફથી હા ધીરજલાલ મદનજી ! સરખેજ ૧ સ્વ પિતાશ્રી શાહ ફકીરચદ પુજાભાઈના સ્મરણાર્થે હા શાહ રમણલાલ ફકીરચંદ ૨૫૧ સતારા ૧ સ્વ. મદનલાલજી કુદનમલજી ઠારીના સ્મરણાર્થે હા તેમના ધર્મપતિન રાજકુવરબાઈ મદનલાલજી ૨૫૧ સાદડી ૧ શેઠ દેવરાજજી જીતમલજી પૂનમીયા ૨૫૧ સાલબની (બ ગાળ). ૧ દેશી ચુનીલાલ કુલચદ મોરબીવાળા ૨૫૦ સાણદ ૧ શાહ રાચદ છગનલાલ હ શાહ ચીમનલાલ હીરાચંદ ૩૦૧ ૨ અ સ ચ પાબેન હો દેશી છવરાજ લાલચ દ ૨૫૧ ૩ પટેલ મહાસુખલાલ ડોસાભાઈ ૨૫૧ ૪ શાહ સાકરચદ કાનજીભાઈ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ * રપ૧ Page #866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ♦ ૨૩ ૫ પુરીબેન ચીમનલાલ કલ્યાણુજી સંધવી લીમડીવાળાના સ્મરણાથે હા વાડીલાલ માહનાન કાઠારી ૬ પારેખ નેમચંદ મેાતીચંદ મુળીવાળાના સ્મરણાર્થે }}}હા પારેખ ભીખાલાલ નેમચન્દ ૨૫૧ ૭ સ ઘવી નારણદાસ ધરમશીના સ્મરણાર્થે હા. ભાઇ જય તિલાલ નારણદાસ ૨૫૧ સુરત ૧ શ્રી સ્થા. જૈન ગ્ઘ હા શાહ છેટુભાઈ અભેચ ૨ શ્રીયુત કલ્યાણચંદ માણેકચંદ હડાલાવાળા સુવઇ ( કચ્છ ) ૧ સાવળા શામજી હીરજી તરફથી સદાન દીજૈન મુનિશ્રી દેાટાલાલ મહારાજના ઉપદેશથી સુવર્ણ સ્થા જૈન સ ધ જ્ઞાનભ ડારને ભેટ સુરેન્દ્રનગર ૧ શેઠ ચાપશીભાઇ સુખલાલ ૨ ભાવસાર ચુનીલાલ પ્રેમચંદ ૩ સ્વ. કેશવલાલ મૂળજીભાઈના ધર્મપત્નિ અમૃતભાઈના સ્મરણાર્થે શાહ કેશવલાલ ( થાનગઢવાળા) હા ૪ શાહ ન્યાલચંદ હરખચંદ ૫ શાહ વાડીલાલ હરખચ≠ મજેલી (પંચમહાલ) ૧ શાહ લુણાજી ગુલાબચંદ ૨ શ્રી સ્થા. જૈન મધ હા શેઠ પ્રેમચ દ દલીચ દ હાટીનામાળીયા ૧ શેઠ ગેાપાલજી મીઠાભાઈ હારીજ ૧ અમુલખભાઈ મુળજી હા પ્રકાશચંદ અમુલખ ૨ સ્વ. મેન ચંદ્રકાન્તાના સ્મરણાર્થે હા અમુલખ મુળજીભાઈ હુમલી ૧ હીરાચંદ વનેચંદજી કટારીઆ તા.૧૦-૧૨-૫૮ સુધી મેમ્બરાની સખ્યા ૫ આધ સુખીશ્રીએ ૨૧ મુરબ્બીશ્રીએ રાજકેટ તા ૧૦-૧૨-૧૮ કુલ મેમ્બરા ૫૫૬ ૪૯ સહાયક ૪૧૨ લાઇફ મેમ્બરા ૬૯ બીજા ક્લાસના મેમ્બરા મેમ્બરશ . સાકરચંદ ભાઈચંદ શેઠે મત્રિ ૩૦૧ ૩૦૧ ૨૫૧ 1112 ૨૫૦ 1 ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ Page #867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રી અખિલ ભારત શ્વેતામ્બર સ્થાનકવાસી જૈન શાઔાર સમિતિની અગત્યની અપીલ સ્થાનકવાસી જૈન ભાઈઓ અને બહેને - - સ્થાનકવાસી મમાજને એ અવલ બન છે તેમા પહેલુ મુનિવગ અને ખીજી શાઅશ્રવણુ છે. જ્યા જ્યા મુનિમહારાન્તની ગેરહાજરી હોય છે (અને ભવિષ્યમાં રહેવાની છે) તેવળે આ થાઓ સ્થાનકવાસી કામને ટકાવી રાખવા મેટામાં મેટું સાધન છે • ઓછામા ઓછો રૂા. ૫૦૦] આપી આદ્ય સુરખીપદ આપ દ્વિપાવી શકે। છે આછામાં ઓછા રૂા ૧૦૦૦] આપી સુરખીયદ મેળવી શકે છે ઓછામા આછા રૂા. ૫૦૦૩ આપી સહાયક મેમ્બર અની શકે છે અને ઓછામા ઓછા રૂા. ૨૫૦નુ આપી લાઈફ્ મેમ્બર તરીકે દરેક ભાઈ 7 મેન દાખલ થઈ શકે છે, '' ઉપુરના દરેક મેમ્બરને ૩૨ સા તથા તેના તમામ ભાગે મળી લગભગ ૭૦ ગ્રંથા જેની કિંમત લગભગ ૮૦૦ ઉપર થાય છે તે ભેટ તરીકે મળી શકે છે. અને દરેક શાસ્ત્રમા તેમનુ નામ પ્રસિદ્ધ કરવામા આવે છે * - ભાષા દરેક શાસ્ત્ર ૪ ભાષામાં તૈયાર થાય છે. એટલે દરેક પાનામા ૪ જોવામા આવશે. ઉપરમા અમાર્ગધી, તેની નીચે સસ્કૃત છાયા–ટીકા ‘ ત્યારે ખાદ હીન્દી રાષ્ટ્રભાષા અને છેવટે ગુજરાતીમા અનુવાદ જોવામા આવશે ' '' શ્રમણ વર્ગ, શ્રાવક વર્ગને દરેક પ્રદેશમા વસતા સમાજના દરેક અગને એકસરખી રીતે ઉપયેગી થાય તેવી રીતે ખ્યાલ- કરીને શાસ્રની રચના કર વામા આવે છે (2 બહાર દેશાવરમા વસતા આપણા ભાઈ આને તેમજ ગામડામાં વસતા શ્રાવકાને તેમજ ફુરસદે વાચન કરનાર વ્હેનો તેમજ વિદ્યાર્થી આને એક સરખુ ઉપયાગી થઈ શકે તેવુ સાહિત્ય બીજી કોઈ જગ્યાએ મળી શકે તેમ નથી * : JO ** # - ( ; Page #868 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - - - - - - 1. શ્રી અખિલ ભારત તામ્બર સ્થાનકવાસી જૈન શાહાર સમિતિની . ' અગત્યની અપીલ સ્થાનકવાસી જૈન ભાઈઓ અને બહેને - સ્થાનકવાસી સમાજને બે અવલ બને છે તેમાં પહેલુ મુનિવર્ગ અને બીજુ શાઅશ્રવણ છે જ્યા જ્યા મુનિમહારાજેની ગેરહાજરી હોય છે અને ભવિષ્યમાં રહેવાની છે તે સ્થળે આ શાસ્ત્રી સ્થાનકવાસી કેમને ટકાવી રાખવા મેટામાં મોટું સાધન છે ઓછામાં ઓછો રૂ 5000 આપી આ મુરબ્બીપદ આપ દિપાવી શકે છે ઓછામાં ઓછા રૂ 100) આપી મુરબીપદ મેળવી શકે છે - ઓછામાં ઓછા રૂા 50 આપ સહાયક મેમ્બર બની શકે છે.” અને ઓછામાં ઓછા રૂા 250 આપી લાઈફ મેમ્બર તરીકે દરેક ભાઈ બેન દાખલ થઈ શકે છે, ઉપરના દરેક મેમ્બરને 32 સુ તથા તેના તમામ ભાગે મળી લગભગ 70 છે જેની કિંમત લગભગ 800 ઉપર થાય છે તે ભેટ તરીકે મળી શકે છે અને દરેક શાસ્ત્રમાં તેમનું નામ પ્રસિદ્ધ કરવામાં આવે છે, દરેક શાસ્ત્ર 4 ભાષામા તયાર થાય છે એટલે દરેક પાનામા 4 ભાષા જેવામાં આવશે ઉપરમાં અર્ધમાગધી, તેની નીચે સ કૃત છાયા–ટીકા * ત્યાર બાદ હીન્દી રાષ્ટ્રભાષા અને છેવટે ગુજરાતીમાં અનુવાદ જેવામાં આવશે શ્રમણ વર્ગ, શ્રાવક વર્ગને દરેક પ્રદેશમાં વસતા સમાજના દરેક અંગને એક સરખી રીતે ઉપયોગી થાય તેવી રીતે ખ્યાલ કરીને શાસ્ત્રની રચના કરવામાં આવે છે જે - { } * * * બહાર દેશાવરમાં વસતા આપણા ભાઈઓને તેમજ ગામડામાં વસતા શ્રાવકેને તેમજ ફુરસદે વાચન કરનાર પ્લેને તેમજ વિદ્યાર્થીઓને એક સરખું ઉપયોગી થઈ શકે તેવું સાહિત્ય બીજી કોઈ જગ્યાએ મળી શકે તેમ નથી