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________________ 5 भगवान् महावीर स्वामी ने जो उपदेश दिया वह भगवान् महावीर स्वामी और गौतम गणधर के संवादरूप में संगृहीत हुआ । इस संग्रहको 'आगम ' नाम से कहा जाता है । स्थानकवासी - मान्यता - अनुसार इस समय यत्तीस आगम उपलब्ध हैं, ११ अङ्ग, १२ उपान, ४ मूल, ४ छेद और १ आवश्यक । यह प्रस्तुत आगम उपान है और यह आचाराग का उपाङ्ग है । क्यों किआचाराङ्ग के प्रथम अध्ययन के प्रथम उद्देशक में कहा गया है-' एवमेगेसिं णो णायं भव-अत्थि मे आया ओववाइए, नत्थि मे आया ओववाइए, के अहं आसी ?, के वा इओ चुए इह पेच्चा भविस्सामि !' अर्थात्-कितनेक जीवों को यह ज्ञात नहीं होता है कि मेरी आत्मा औपपातिक है, या मेरी आत्मा औपपातिक नहीं है, मैं पूर्व मे कौन था ?, और फिर यहाँ से च्युत होकर क्या होऊँगा ? | वहाँ पर जो आत्माको औपपातिक कहा है, उसीका यहाँ पर विशद - रूप में प्रतिपादन किया गया है । इसीलिये इस आगमका नाम 'औपपातिक' रखा गया है । 'उपपात' शब्दका का अर्थ - देवजन्म, नारकजन्म और सिद्धिगमन है । ' उपपात' को लेकर बनाया गया सूत्र 'औपपातिक' कहलाता है । इस सूत्र में 'जीवोंका किन कर्मों के करने से नरक में जन्म होता है, किन कर्मों से देवलोक में जन्म होता है, और किस प्रकार कर्मक्षय करने से सिद्धिगति प्राप्त होती है । ' - इसका विस्तारपूर्वक प्रतिपादन होने से 'औपपातिक' यह नाम सार्थक है । इस औपपातिक सूत्रका प्रारम्भ - भाग वर्णनात्मक है । इस में नगर, चैत्य, वनषण्ड, राजा, रानी, साधु, देव, देवी, समवसरण, धर्मकथा - आदिका वर्णन बहुत सुन्दर ढंग से किया गया है । इसके अध्ययन से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि तात्कालिक भारत का सब से अधिक शक्तिशाली राजा कूणिक का भगवान महावीर स्वामीके प्रति कैसा अनन्य भक्तिभाव था । तभी तो उन्होंने अपने राज्यसंचाल विभाग में एक सा विभाग खोला था, जिसका अधिकारी और उसके हाथ के नीचे काम करने वाले अन्य हजारों कार्यकर भगवान के विहार का समाचार राजा के पास सर्वदा पहुँचाते रहते थे । राजा की ओर से उन्हें पूरी जीविका का प्रबन्ध था, और समय समय पर राजा पूर्ण रूप से पारितोषिक प्रदान कर उनका सत्कार भी करता था । जनसमुदायका भी भगवान के प्रति अनन्य भाव था, तभी तो भगवान के आगमनका समाचार पाते ही जनसमुदाय उनके दर्शन के लिये उमड़ पडता था । आबालवृद्ध स्त्रीपुरुष भगवान के दर्शन - निमित्त उद्यान में पहुँचते थे । भगवान उन्हे धर्मोपदेश देते थे, उसका प्रभाव यह पडता कि कितनेक सर्वविरति और कितनेक देशविरति होते थे, और कितनेक सुलभवोधि हो जाते थे । भगवान के बताये हुए उपदेशानुसार अपने जीवन को परिवर्त्तित
SR No.009334
Book TitleAuppatiksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages868
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size26 MB
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