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________________ प्राक्कथन यह मानव सामाजिक प्राणी है। समाज की सुव्यवस्था ही मानवजाति की उन्नति का मूल मन्त्र है। समाजकी सुव्यवस्था मानवजीवन की नैतिकता के अपर सुव्यवस्थित है । नैतिकता को अनुप्राणित करने वाला धर्म है। धर्मानुरूप नैतिकता ही मानव के ऐहिक और आमुष्मिक शुभ-दायिनी होती है। धर्म से ही मानव ऐहिक और पारलौकिक शुभ फलका अधिकारी होता है । इसी धर्मानुप्राणित नैतिकता के ऊपर मानवसमाजरूपी भित्ति सुव्यवस्थित है। परन्तु कालक्रम से उस में दुर्वलता आने लगती है। मानवसमाजरूपी भित्ति लर-खराने लगती है, 'अब गिरी-तब गिरी' जैसी दशा उपस्थित हो जाती है। ऐसी स्थिति में कोई एक महाप्राण महामानव का प्रादुर्भाव होता है, जो समाजमें धर्मानुरूप नैतिकता को सजग कर मानवको दुर्गति के गर्तमें पड़ने से बचाता है। हम जब आज से अढाई हजार वर्ष पूर्वकाल की ओर दृष्टि देते हैं तो उस समय की सामाजिक परिस्थिति बिलकुल अस्तव्यस्त दिखायी देती है । उस समय धर्मानुप्राणित नैतिकता विलुप्त सी होती जा रही थी। जिस के फलस्वरूप छोटी २ गुटबन्दी, नरसंहार, पशुहत्यायें -आदि की जड़ बलवती होती जा रही थी। ऐसे समय में महाप्राण महामानव भगवान् महावीर स्वामी का प्रादुर्भाव हुआ । भगवान् महावीर स्वामी ने मानवसमाज को सुव्यवस्थित करने के लिये आजीवन दुष्कर तपश्चरण किया, समाज को सुव्यवस्थित करने के लिये उन्होंने नियम बनाये, लोगोंमें धर्मानुरूप नैतिकता की वृद्धि के लिये आर्यावर्त में विहरण कर धर्मोपदेश दिया, 'जीवमात्र को सुख-शान्ति मिले' ऐसा सर्वोत्तम धर्मका प्रचार किया। । उनका धर्मोपदेश केवल मानव के लिये ही हितकारक नहीं, अपि तु जीवमात्र के लिये हितकारक था । उनका धर्मोपदेश त्रस-स्थावर जीवों में भ्रातृत्व-भावना का संचार करता था। उसी धर्मोपदेश की प्रतिध्वनि आज भी हमे सुनायी देती है खामेमि सचजीवे, सव्वे जीवा खमंतु मे। मित्ती मे सव्वभूएसु, वे मज्झ न केणई ॥ मैं सभी जीवों से क्षमा चाहता हूँ, सभी जीव मुझे क्षमा करें। मेरा सभी जीवों के साथ मैत्रीभाव है, किसी के भी साथ वैरभाव नहीं।
SR No.009334
Book TitleAuppatiksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages868
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size26 MB
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