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पीयूषवर्षिणी-टीका स ६३ अस्पारम्भादिमनुष्यविषये भगवद्गीतमयो संपाद ६४७
मूलम्-तं जहा-समणोवासगा भवंति, अभिगयजीवाजीवा उवलद्धपुण्णपावा आसव-संवर-निजर-किरियाअहिगरण-बंध-मोक्ख-कुसला असहेजा देवा-सुर-नाग
टीका-ये पूर्व सामान्येन कथितास्त एव विशेषेण कथ्यन्ते-'तं जहा तद्यथा-ते मनुजा, 'समणोवासगा भवति' श्रमणोपासका साधुसेवका-श्रावका भवन्ति, ते कीदृशा सन्ति । अत्राऽऽह- 'अभिगयजीवाजीवा' अभिगतजीवाजीवा --अभिगता - यथावस्थितस्वरूपेग जाता जीया अजीवाच यैस्ते तथा, जीवाजीवतत्त्वज्ञानवन्त इत्यर्थ , 'उक्लद्धपुण्णपावा' उपलब्धपुण्यपापा-उपलब्धे यथावस्थितस्वरूपेण विज्ञाते पुण्यपापे यस्ते तथा, तत्त्वतो विज्ञातपुण्यपापस्वरूपा इत्यर्थ , “आसव-संबर-निजर-फिरियाअहिंगरण-वध-मोक्ख-कुसला' आत्रव--सवर-निर्जरा--क्रिया-धिकरण--बन्ध-मोक्ष-, कुशला--तत्रासव -आस्रवति-प्रविशति अष्टविध कर्मसलिल येन आत्मसरसि स आनव - जीवनपर्यंत प्रतिविरत हैं, तथा फितनक ऐसे है जो (एगचामो अपडिविरया) इनसे प्रतिविरत नहीं हैं। सू०६२॥
'जहा समणोवासगा' इत्यादि ।
(त जहा) इसी प्रकार (समणोवासगा भवति) अन्य श्रमगोपासक होते हैं, जो कि (अभिगयजीवाजीवा) जीव और अजीव के यथार्थ स्वरूप के ज्ञाता होते है,
(उवलद्धपुण्णपावा) पुण्य एव पाप का यथावस्थित स्वरूप जिन्होंने अच्छी तरह जाने + लिया है, (आसव-सवर--निज्जर-किरिया-अहिंगरण-बंध-मोक्ख-कुसला)
मानव, समर, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण, बध, मोक्ष इनमे हेय कौन २ हे और उपादेय कौन २ है इस प्रकार हेय और उपादेय के ज्ञान से जिनका भाव परिपक्व हो चुका है। प्रतिविरत छ, तथा रक्षा मेवा छ २ (एगच्चाओ अपडिविरया) तेनाथी प्रतिपिरत नथी. (सू १२)
'त जहा समणोवासगा' त्यादि
(त जहा) से शते (समणोवासगा भवति)२ भोपासाय छ, (अभिगयजीवाजीवा) २७१ भने मना यथार्थ २५३पना ज्ञाता राय छ, (उवलद्धपुण्णपावा) पुष्य तभ०४ पापनु यथास्थित स्व३५ मा सारी रीत सभा सीधसु छ, (आसव-सवर-निजर-किरिया-अहिंगरण-बध-मोक्स-कुसला) આસવ, સવર, નિશ, ક્રિયા, અધિકરણ, બધ, મેક્ષ, તેમાં હેય
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