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________________ पीयूषयषिणी-टीका स ३० रमपरित्यागतपोवर्णनम ૨૨ मूलम्-से कि नरसपरिच्चाए? रसपरिच्चाएअणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा १ निविडाए, २ पणीयरसपरिचाए, ३आयविलिए, टीका-'से कि तं' इयादि-से कि त रसपरिचाए ' अथ कोऽमौ रसपरित्याग ', 'रसपरिचाए' ग्मपरियाग 'अणेगविहे पण्णत्ते' अनेकविध प्रजम , 'त जहा' तथथा तनकारपन्च चयम्-'निविडए' निर्विकृति : -निर्गता घृतादिरूपा विकृतियरमात म निषिकृतिक १, ‘पणीयरसपरिचाए' प्रगीतग्मपरित्याग -प्रणीतरस प्रचुरत्वात् पदवृतबिन्दुसन्दोहोऽपूपादि , तस्य परित्याग २, 'आयविलिए' आचामाम्लम्निकृतिरहितानामात्नभर्जितचगकाठीना क्षान्नानामचित्त उदक अभिप्यैकामनस्थेन समृद्धोजनमाचामाम्ल नाम तप उच्यते । तथा चोक्तम् 'से कि त रसपरिचाए " दयादि । (से किंत रसपरिच्चाए ?) ग्मपरित्याग तप किसे कहते है । वह कितने प्रकार का है । इस प्रकार शिष्य प्रग्न करता है। उत्तर-(रसपरिच्चाए) रसपरित्याग तप (अणेगविहे पण्णत्ते) अनेक प्रकारका कहा गया है । वह इस प्रकार से हे-(निधिहए) निर्विकृतिक-जिस आहार से घृतादिक विकृति निर्गत हो चुकी हो ऐसे आहारका ग्रहण करना सो निर्विकृतिक है । अर्थात्-गिय नहा लना (१) । (पणीयरसपरिचाए) प्रणातग्सपरित्याग-अपूप अथात् मालपुआ आदि सरस आहार का परित्याग करना (२)। (आयविलिए) आचामाम्ल-विगयरहित ओढन, मुंजे हुए चने आदि रूक्ष अन्नको अचित्त पानी में डालकर एफस्थान पर बैठ एक बार ही खाना सो आचामाम्ल तप है । 'से कि त रसपरिचाए ?' Vत्यादि (से कि त रसपरिच्चाए) ये मही रमपरित्याग त५ अनेछ-ते 3281 रन छ ? २मा प्रकारे शिष्य प्रश्न २ छ उत्त२ (रसपरिचाए) २सपरित्याग त५ (आणेगविहे पण्णत्ते) मने प्रारना उपाय ते मा प्रारे छ-(निम्विइए) निविकृति-2 मारमाथी घी पोरेनी विकृति नीजी गई डाय એ આહાર લે તે નિર્વિકતિક છે અર્થાત્ વિગય (ઘી-દૂધ વગેરે) नडि (१) (पणीयरसपरिच्चाए) प्रतिरसपरित्याग--4५५ पर्थात् भासमा माहि स२स मारने परित्या ४२व। (२) (आयविलिए) मायामामाવિગયરહિત ભાત, ભુ જેલ ચણે આદિ લુખ અન્ન અચિત પાણીમાં નાખી
SR No.009334
Book TitleAuppatiksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages868
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size26 MB
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