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पीयूषयपिणी-टीका स ५७जलधरादियिपये भगवदगौतमयो मवाद तेसिं णं अत्यंगडयाणं सुभेणं परिणामेणं पसरथेहिं अज्झवसाणेहि लेस्साहि विसुज्झमाणीहि तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहा-चूह-मग्गण-गवेसणं करेमाणाणं सण्णि--पुव्वजाई- सरणे समुप्पज्जइ ।। सू० ५७॥
मूलम्-तए णं समुप्पण्णजाइसरणा समाणा सयमेव - पसाणेहि लेम्साहि विमुज्झमाणीहि ' तेपा खल अस्ति एकेपा शुमेन परिणामेन प्रशस्तैर
ध्यवसानैर्लेश्याभिर्विशुन्यमानाभि , सदावरणिजाण कम्माण खोपसमेण' तदावरणीयाना कर्मणा क्षयोपशमेन, अतएव 'ईहा-वृह-मग्गण-गवेसण करेमाणाणं' ईहा-व्यूह-मार्गण-गवेषण कुर्वताम् , एपा पढाना व्यारया अवोत्तरार्धे एकत्रिंशत्तममूने गता। 'सण्णिपुन्चनाईसरणे' सनिपूर्वजातिस्मरण-पूर्वसजिमवस्मरण, 'समुप्पजड' समुत्पद्यते ॥ सू० ५७॥
टीका-~'तए ण' इत्यादि । 'तए "समुप्पण्णनाइसरणा समाणा' ___ उनमें कितने जोर, शुभ परिणामों से, प्रशस्त अध्यवसायों से, (विमुज्झमा
गोहि लेस्साहि) विशुद्ध लेश्याओं-लेश्या की विशुद्धि से, तथा-(तयावरणिजाण कम्माण खओवसमेण) तदावरगोय-भानावरणीय एव वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से (ईहा-वृहमग्गण-गवेसण करेमाणाण) ईहा, न्यूह, मार्गण एवं गवेपण करते हैं, करते करते, (सणि-पुष-जाई-सरणे समुप्पज्जइ) मज्ञिच अवस्था के पूर्वभवों की स्मृति-नालिस्मरण ज्ञान-पाते हैं । (दहा) आदि पदों को व्याख्या यहीं उत्तरार्ध के एकतीसवें सूत्र में देखें ॥ सू ५७॥ पसत्यहिं अज्झरसाणेहि) तमासा छान ४२ शुक्ष परियामाथी, प्रशस्त सयपसायोथी (विमुज्झमाणीहिं लेस्साहि) विशुद्ध देश्यामा-श्यामानी पवित्र ताथी, तथा (तयावरणिजाण कम्माण सओवसमेण) तारणीय-शानाणीय) तेभर वीर्यान्सराय भंना क्षयोपशमथी, (ईहा-वृह-मगण-गवेसणं करेमाणाण) Usi, न्यूड, भाग तम गवेषा ४२ता ४२ता (सणिपुव्वजाईसरणे। समुप्पजइ) सशिप मथाना पूर्व भवानी भूति-निरभरभुज्ञान-Beat थाय छे 'ईहा' मालि पानी अर्थ १ सूत्रना उत्तराभा सत्रीशभ! सूत्रमा गुमा (स ५७)