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पीयूषधिणी-टीका सु ५६ भगवतो धर्मदेशना मुचंति परिणिव्वायंति सव्वदुक्खाणमंतं करेंति। एगचा पुण मार्ग , यत एव सद्गुणगुम्फित नैन्य प्रवचनम , अतण्च 'ट्ठिया जीवा सिझति' इह स्थिता जीरा सिध्यन्ति-इह-नैन्थप्रवचने स्थिता =गतदाराधका जीवा मिध्यन्ति= सिद्धिपद प्राप्नुवन्ति, अणिमादिसिद्धि वा 'बुमति' वुभ्यन्ते- कालज्ञानप्राप्न्या नि शेपविशेष जानन्ति, 'मुञ्चति' मुन्यन्ते भवोपमाहिगा कर्मणा निरगनष्टत्वात् , 'परिणि
वायति' परिनिन्ति-कर्मजन्यसकलसन्तापरिरहात्, वक्तव्यसार वक्ति- सन्नदुस्वाणमंत करेंति' सर्वदु खानामन्त कुन्ति-सपा गारीरिकमानसिकाना न खानाम् अन्त-नाश कुर्वन्ति ।
'एगचा पुण एगे भयतारो' एकार्चा पुनरेके भदन्ता - एकैव _ अर्चा: मविप्यन्ती मनुष्यतनुर्येपा ते एकार्चा सन्त , पुनके-केचिद् मढन्ता नैन्यप्रव
से युक्त है । इसीलिये (दहद्विया जीवा सिझति) जो जीन दसकी आराधना म अपने जीवन का उत्सर्ग कर देते है वे नियमत सिद्धिपद के प्रापक होने हे, (अणिमादिसिद्धिं वा) अथवा इस लोक में अणिमाद्रि सिद्धि के धारक होते है। (बुज्झति) केवलज्ञान की प्राप्ति से सभी वस्तुओं को जानते है । (मुचति) भवोपग्राहिकर्मी का सम्पूर्णरूप से नाश होने के कारण वे मुक्त हो जाते है। (परिणिवायति ) कर्मजन्य समस्त ताप के विरह से वे शीतलीभूत हो जाते है। (सबदुक्खाणमत करेंति) गारारिक एव मानसिक समस्त दु सों का वे ही अन्त करनेवाले होते है। (एगचा पुण एगे भयंतारो) इस निग्रन्थ प्रवचन की आराधना करनेवाले भव्य जीव वर्तमान शरीर के छूट जाने के बाद मात्र एक बार मनुष्य गरीर धारण करते है, अथात् वे एकावनारी होते हैं। वे भव्य जीर इस गरीर के छुटने पर (पुवरम्मायसेसेण) पूर्वकर्मों के बॉकी छ तेथी र (इहटिया जीवा सिझति) 2 सानी सपनामा पोताना જીવનને ઉત્સગ કરી દે છે તેઓ નિયમત -નિશ્ચયથી–સિદ્ધિપદને પ્રાપ્ત થાય छ, (अणिमादिसिद्धि वा) ॥ ४मा मणिमाहि-सिद्धिन पामे छ (बुझंति) BAnननी प्रास्तथी मधी तुम तो छ (मुन्चति) सोपवाडि भनि। स पृष्यं ३ नाश यवाना वारशे तेसो भुत 25 गयछ (परिणिन्यायति) उभજન્ય નમસ્ત મ તાપના વિરહથી ત્યાગથી તેઓ તિલીભૂત બની જાય છે (सव्वदुक्खाणमत करेति) शारीरि४ तेभर माननिमन्त माना तेथे। मत ४२वापामा डाय छ (एगच्चा पुण एगे भयतारो) मा निन्य अपयननी २tધના કરવાવાળા ભવ્ય જીવ વર્તમાન શરીર હટી જવા બાદ માત્ર એકવાર મનુષ્ય શરીરને ધારણ કરે છે અર્થાત્ તેઓ એકાવતારી થાય છે તે ભવ્ય