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औपपातिकवणे
बुब्बुयसमाणं कुसग्ग-जल-विंद-चंचलं जीवियं च णाऊण, अद्धवमिणं रयमिव पडग्गलग्गं संविधुणित्ताणं, चइता हिरण्णं, चिच्चा सुवणं, चिच्चा धणं, एवं धणं वलं वाहणं कोसं कोहानम्-यथा जले वुवुढा प्रादुर्भवन्ति झटित्येव नश्यन्ति च तद्वत् आशुपिनागि, तथा 'कुसग्ग-जलन्दुि -चचल' कुशाग्र-जलबिन्दु-चश्चल-कुशाऽग्रे-दर्भपनाप्रभागे यो जलबिन्दु तद्वच्चञ्चल-झटिति पतनशील, 'जीरिय' जापित-मनुष्यजीवनम् , 'णाऊण-जात्वा-अवगत्य, 'अपमिण' अध्रुयमिदम्-इट विषयसौरयधनादिसञ्चयाऽऽदिकम् , अध्रुवम् अनियतरूप, 'पडग्गळग्ग' पटानलग्न, 'रयमिर-रज इव-धूलिकणमिव 'सपिधुणित्ताण' सविधूय-सम्यक्-विशेषरूपेग, पृथक्कृत्य, तथा 'चइत्ता' त्यक्त्या, 'हिरण्ण ' हिरण्य-रूप्यम्, 'चिच्चा सुवण्ण' त्यत्क्या सुवर्णम्, 'चिच्चा धण' त्यक्त्वा धनम् , 'एव' एवम्-अनेन प्रकारेण 'धण्ण'-धान्य-ठाल्यादिसञ्चयम् , वल-चतुर्विध सैन्यम् , 'वाहण' वाहन-रयादिकम् , 'कोस' कोशम्-स्वर्णरजतादिगृहम् , ' कोट्ठागार' कोष्ठागार धान्यराशिगृहम्' 'रज्ज'-राज्य-राजाधिकृतदेशम् ऐसा जानकर (अद्धवमिण रयमिव पडग्गलग्ग सविधुणित्ताण) तथा ये विषयसुख एव धन आदि का सचय सब के सब अध्रुव-अनित्यस्वरूप है, ऐसा विचार कर, उन्होंने पटके अग्रभाग में लगी हुई धूलि के समान उन्हे भावत मन से सर्वथा दूर कर दिया। और ये द्रव्यत बाह्यरूप से भी (चदत्ता हिरण, चिच्चा सुवण्ण, चिच्चा धण एव धण्ण बल वाहण कोस कोट्ठागार रज्ज रह पुर अतेउर चिच्चा, विउल-धण-कणग-रयण-मणि-मोत्तिय-सख-सिलप्पवाल-रत्तरयणमाइय सत-सार-सावतेज विच्छड्डइत्ता विगोवइत्ता, दाण च दाइयाण परिभायइत्ता, मुडा भरित्ता,अगाराओ अणगारिय पव्वइया) हिरण्य-चान्दी का परित्याग कर, सुवर्ण का परित्याग कर,सोनाचान्दी से अतिरिक्त धन का परित्याग कर, इसी तरह धान्य का, लग्ग सविधुणित्ताण ) तथा या विषयसुमतमा घन माहिना सव्यय तमामेતમામ અધવ-અનિત્યસ્વરૂપ છે, એમ વિચારીને તેઓએ વસ્ત્રના છેડા ઉપર લાગેલ ધૂળની જેમ તેમને ભાવપૂર્વક મનમાથી તદન ત્યાગ કર્યો अन तसा द्रव्यथा माध३थे पर (चइत्ता हिरण्ण, चिचा सुपण्ण, चिच्चा वणं, एव धण्ण वल वाहण कोस कोट्ठागार रज्ज र? पुर अतेउर चिच्चा, विउल-धण कणग-रयण-मणि-मोत्तिय-सस-सिलप्पवाल-रत्तरयण-माइय सत-सार-सावतेज्ज विच्छइइत्ता विगोरइत्ता, दाण च दाइयाण परिभायइत्ता, मुडा भवित्ता, अगाराओ अणगारिय पव्वइया) हि२९य याहीना परित्याग ४रीने,सुपए नी परित्याशन,