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ओगपातिकम् मूलम्--इय सव्वकालतित्ता, अउलं निव्वाणमुवगया सिद्धा। सासयमव्वाबाह, चिटंति सुही सुहं पत्ता ।। सू० ॥ १२५ मूलम् --सिद्धत्ति य वुद्धत्ति य, पारगयत्ति य परंपरगयत्ति। यतित्तो' अमृततृमो 'जहा गया दव, 'अन्दाज' आसीन-निन ॥ सू १२४ ॥
टीका-'इय' इयाति । 'दय' इति व 'सत्यकालतित्ता' सर्वकालतमा - अपुनरावृत्तिस्थान प्रामत्वात् , 'नियाण' निर्वाण मोक्षम 'उपगया' उपगता 'सिद्धा सिद्धा, 'अउल' अतुलम् अनुपमम् 'सासय' शाश्वत साकातिकम्, अन्वाया अन्यायाध-पर्वदु खनियर्जित 'मुह' मुग्य 'पत्ता'मामा , अत 'सही चिति' सुमिनस्तिष्ठन्ति, ननु 'सुख प्रामा' इत्युक्ते 'सुग्रिन' इनि किमर्थम् ।, मनोच्यते-केचि मन्यन्ते दु साभावमान मुक्तिरिति, तन्मतनिराकरणाथ मोक्षस्य वास्तविकमुग्वस्वरूपताप्रतिबोधनायं च 'सुस प्रामा सुम्विनस्तिष्ठन्ती'व्युक्तम् ॥ मृ १२५ ॥
टीका-साम्प्रत वस्तुत मिद्धपर्यायान्तान् प्रतिबोधयन्नाह-'सिद्धत्ति' इत्यादि।
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जहा) अमृतपान से तृप्त के समान (अन्छेज) रहता है ।। सू १२४ ॥
'इय सबकालतित्ता' इत्यादि ।
(इय सबकालतित्ता) अपुनरावृत्तिस्वरूप मुक्तिस्थान को प्राप्त होने के कारण सर्वकाल तृप्त हुए (निव्वाणमुवगया सिद्धा) वे सिद्ध भगवान् , शारारिक एच मानसिक दुग्गो से सर्वधा रहित होकर (अउल अव्वापाह चिट्ठति सुही सुह पत्ता) अनुपम, शाश्वत एव अभ्याबाध सुख को भोगते हुए उस मुक्तिस्थान मे सदाकाल-अनन्तकाल तक सुखा ही सुखी रहते है ॥ सू १२५ ॥
माह विषयाने यथे-७३पे लापान ( तहाछहाविमुक्को) पिपासा तभा - सुभुक्षा (सूम-तरस ) थी राहत (अमियतितो जहा) मभृतपानी तृसनी
म ( अच्छेज ) २९ (सू १२४) ,
'इय सयकालतित्ता' छत्यादि
( इय सबकालतित्ता ) सनरावृत्ति२१३५ भुक्षितस्थान प्राप्त यानी औरणे सांस तृप्त थये। (निब्वाणमुवगया सिद्धा) ते सि लगवान शारीरिक र मानसिकमाथी सक्था रहित धने (अउल अव्वाचाह चिदति सुही सुह पत्ता) मर्नुपम, शाश्वत तम४ सयामा भुमने लापता તે મૂર્તિ સ્થાનમાં સદાકાલ–અન તકાલ સુધી સુખી રહે છે (જૂ ૧૨૫).