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औपपातिकत्रे
वरंग-मंगलं- किय-चलणे विसिहरुवे हुयवह- निद्धूम-जलिय - तडितडिय तरुण-रवि-किरण - सरिस - तेए अणासवे अममे अकिंचणे
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नगर-पुर, मकर = जलचरजीविशेष, सागर = समुद्र, चक-प्रसिद्धम्, एतान्येव अङ्कालक्षणानि, तथा वराङ्गाथ==शुभसूचकस्वस्तिकादिलक्षणानि, मङ्गल शुभलक्षणविशेषथ, तैरलङ्कृतौ मुशोभितौ चरणो यस्य स तथा नगनगरमकरादिचिह्न – स्वस्तिका - दिचिह्न मङ्गलचिहरूप-शुभलक्षणसुशोभितचरणयुगवानिति भाव । 'विसिगुरूचे' विशिरूप-अतिसुन्दर, 'हुयत्रह- निद्धम- जळिय तडितडिय तरुण-रवि-किरण-सरिस तेए' हुतवह निर्धूम - ज्वलित - तडितडि तरुग - रवि-किरण सदृग तेजस्क, हुतवहनिद्भूमज्वलितस्य=अग्नेर्निर्धूमज्वालाया, तडितडित - धारावाहिकतया पुन पुनर्विद्योतितविद्युत तथा तरुण रविकिरणाना --सदृश= समान तेज -दीप्तिर्यस्य स तथा, अणासवे > अनासव -- अविद्यमाना आस्रवा यस्य स तथा, कर्मागमरहित इत्यर्थ, 'अममे' अमम ममत्वरहित 'अकिंचणे' अश्विन -नास्ति
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सागर-समुद्र और चक्र इनके शुभ चिह्नों से, स्वस्तिकादि शुभ चिह्नों से तथा मङ्गल नामक शुभ चिनसे सुशोभित प्रभुके दोनों चरण थे । (विसिट्टरूपे) प्रभुका रूप विशिष्ट - असाधारण अर्थात् अनुपम था । (हुयत्रय - पिडूम- जलिय - तडितडिय तरुण-रवि-किरण सरिस - तेए) निर्धूम अग्नि के समान, बार बार चमकली हुई बिजला के समान तथा मध्याहृनकालिक रविकिरणों के समान प्रभुका तेज था । (अणासवे) नवीन कर्मोंके आस्रवसे प्रभु सर्वथा रहित थे । ( अममे ) प्रभुके किसी भी पर पदार्थमे ममत्व नहीं था । (अचिणे) प्रभु अकिंचन-परिग्रहरहित थे । (छिन्नसोए) भगवानन अपनी भवपरम्पराको नष्ट कर दिया था ।
એના જીભ ચિહ્નોથી-સ્તિદિ શુભચિહ્નોથી, તથા મ ગળનામક ચિહ્નથી सुशोलित प्रभुना भन्ने यर हुता (विसिटुरूचे) प्रभुनु ३५ विशिष्ट असाधा २ अर्थात् अनुपम तु ( हुयवह णिडूम जलिय तडि तडिय नरुण रवि - किरण- सरिस तेए) घुभाडा वगरना अग्निना वु, वारपार गणती विनહીના જેવુ તથા મધ્યાહ્ન કાળના સૂર્યના કિરણે! જેવુ પ્રભુતુ તેજ હતુ (अणासवे) नवीन दर्भाना यासवथी अलु सर्वथा रहित हुना ( अममे ) असुन अप पर यहार्थमा भभत्व नहोतु (अकिंचणे) अलु अभिव्य-परि शुद्ध वगरना उता ( जिन्नसोए ) लगवाने पोताना लवपर परानो नाथ वरी
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