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औपनिवतो चारुवण्णा लज्जा-तवस्सी-जिइंदिया साही अणियाणा अप्पासुया जीगदिपदार्थाना यथावस्थितस्वरूपकथन सय तप्रधाना, 'सोयप्पडागा' शौचप्रधाना - शौचम्-अन्त करणशुद्विरूपम् , त प्रधाना । यमप्यत्र चरणकरणग्रहणेऽप्यारादिक गृहोत भवति, तथापि आर्जवादीना पृथकथन प्रधानताल्यापनार्थम्-हत्यनगन्तव्यम् । 'चारुवण्णा' चारुवर्णा -वर्णकान्ति , कीर्ति , मतिश्च चार्वणों येपा ते, गौरवर्णयुक्ता, अथवा उत्तमकीर्तिमन्त , प्रशस्तमतियुक्ता था, 'लना-तव-स्मी जिइदिया' लजातप --श्री-जिते. न्द्रिया-लनयाध्ययमविराधनाया दयसकोचरूपया तप प्रिया तपस्तेजसा जितानि इन्द्रियाणि यैस्ते तथा, यधपि जितेन्द्रिया इति प्रागुप्त, तथाप्यत्र लजातप श्रीविगेषित वान पुनरुक्तिदोष । 'सोही' शोधय -शोधियोगात् शोधिरूपा --शुदा अकलपडदया उन्यथे, जोयादि पदार्थोके यथावस्थित स्वरूपकथनको सय कहते हैं, उससे वे प्रधान थे। (सोयप्पहाणा) अन्त करणकी शुद्धिको शौच कहते है, उसमें वे प्रधान थे। (भारुवण्णा) वर्णशब्दका प्रयोग कान्ति, कीर्ति एव मनिमे होता है । इस अपेक्षासे ये सब गौरवर्ण विशिष्ट थे, अथवा उत्तमकीर्तिमपन्न थे, या उत्तमबुद्धि-आत्मकल्याणमे आगर अधिकाधिकरूपसे प्रेरणा करनेवाली बुद्धिसे युक्त थे । (लज्जा-तब-सी-जिडदिया) लज्जा-सयमविराधनामें सकोच, एव तप श्री के प्रभावसे इन्होंने इन्द्रियोंको जीत लिया था। यद्यपि “जिइंदिया" इस पद-द्वारा उनमें जितेन्द्रियता प्रकट कर दी गई है, फिर भी यहा पर जो पुन जितेन्द्रियता वर्णित हुई है, यह रजा एवं तपके प्रभार से उनमें जितेन्द्रियता थी यह विशेषरूपसे कथित हुआ है, अत इस कथनमे पुन યથાવસ્થિત સ્વરૂપનું કથન સત્ય કહેવાય, તેમા તેઓ પ્રધાન હતા જોર पहाणा) 46:२०नी शुद्धिने शीय ४३ छ, तमा तसा प्रधान। उता (चारवण्णा) शहना प्रयास ति, त तमा भतिभा थाय® આ અપેક્ષાએ તેઓ બધા ગૌરવર્ણવિશિષ્ટ હતા, અથવા ઉત્તમ કીતિસન્ન હતા, અથવા ઉત્તમબુદ્ધિ-આત્મ કલ્યાણમાં આગળ આગળ વધારેમાં पधारे ३५था र ४२पाली भुद्धिवाणा ता (लजा-तवस्सी-जिईदिया) લજજાઃ યમવિરાધનામા સ કેચ તેમ જ તપશ્રીના પ્રભાવથી તેઓએ धान्याने ती दीधी ती ने “ जिइदिया" से पहथी तमनाभा नितદ્રિયપણ પ્રકટ કરી દીધેલ છે, છતા પણ અહી જે ફરીને જિતે દિયતાનું વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે તે લજજા તેમજ તપના પ્રભાવથી તેમનામા જિતેદ્રિયપણું હતું તેનું વિશેષરૂપથી કથન કર્યું છે માટે આ કથનમાં પન