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पोयूपयर्षिणी-ठोका म २० कृणिरफना मिद्वाना महावीरस्य व स्तुति १३३ ठाणं संपत्ताणं, नमोत्थु णं समणस्त भगवओ महावीरस्स त्रापि- 'न म पुनगवर्तते न म पुनगवर्तते '-इति । इत्यम्-उक्तशिववादिविशेषणविशिष्टम् । 'मिद्रिगटनामवेय' मिद्विगतिनामधयम् , सिद्विगतिरिति नामधेय-नाम गम्य तत. मिद्रिगतिनामकम् 'ठाण म्यानम-स्यीयतेऽम्मिन इति स्थानलेकाग्रल गणम , ' सपत्ताग ' मम्प्राप्ता -ममाश्रितभ्य । ट्यदरधि-समुच्चयेन सर्वमिदापे या विशेषगोपादानपूर्वक नमकारवायमभिवाय सम्प्रति भगन्महावारोदेश्यक नमका मभि पत्ते-नमोत्यु ण' नमोऽस्तु पल-समणस्स भगवओ महावीरस्स' अमणाय भगवने-महावागय, अब अमणगदेनायमयों योदव्य --परकृतस्थान-निवासादग्गसम , पर्गपोपमध्यप्रकम्प पादगिग्मिम , तपस्तेजोमर नादनलसम , गम्भीरत्वाद्जान का अपतग्ग नहीं होने से मिद्विगति नामक स्थान को-लोक के अग्रभाग म स्थित मुक्ति थान को-प्राप्त हुए श्री मिद्रां को नमस्कार हो । यहा तक के इन विशेषगों से समन्न मिद्रों की अपेक्षा से नमस्कार का कथन किया गया है। अन भगवान महावार को उय कर क यहा से नमस्कार करने का कथन सूतकार करते है-( नमोत्थु ण समणस्स भगवओ महावीरस्स जादिगरस्स तित्थगरस्स जाव सपारिउकामम्स मम पम्मायरियस्स धम्मोवदेसगम्स ) श्रमण भगवान महावीर के लिये नमस्कार हो। श्रमण गन्द से मनकार ने प्रभु महावीर में इन विशेषताओं का कथन किया है, वे कहते है भगवान महावार मर्प की तरह परकृत स्थान में निवास करने के कारण सर्प-सदृश है। परीपह एव उपसगा के आने पर भी प्रभु अप्ररुप थे, अत वे गिरिसम हे । तप एव तेजके धारक होने से प्रभु अग्नि-जैसे प्रतापशाली है। गाभीर्य एच ज्ञानाटिकरूप સંસારમાં જીવને અવતવુ ન થાય એવા સિદ્ધિગતિ નામના સ્થાનને લોકનાં અગ્રભાગમાં રહેલા મુક્તિસ્થાનને પ્રાપ્ત થયેલ શ્રીસિદ્ધ પ્રભુને નમસ્કાર હો અહી સુધીના આ વિશેષણોથી સમસ્ત સિદ્ધોની અપેક્ષાએ નમારનું કથન કર્યું છે હવે ભગવાન મહાવીરને ઉદ્દેશીને અહી થી નમસ્કાર કરવાનુ કદન मत्र ४२-(नमोत्थु ण समणस्स भगवओ महावीरस्स आदिगरम तित्य गरम्म जान मपानिकामस्स मम धम्मायग्यिस्स धम्मोस्टेसगरस) भए लगवान् મહાવીરને નમસ્કાર હે શ્રમણ શબ્દથી સૂવારે પ્રભુ મહાવીરમાં આ વિશે પતાઓનું કથન કર્યું કે તેઓ કહે છે કે ભગવાન મહાવીર સર્પની પેઠે બીજાએ કરેલા નિવાસસ્થાનમાં રહેવાને કારણે સર્ષ જેવા છે “હું તેમજ ઉપસર્ગો આવતા પણ પ્રભુ પ્રજી જતા નહિં, માટે તે પર્વત