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________________ - - __ पोयपर्याषणो-टोका सू ५६ भगवतो धर्मदेशना एवं खलु चउहि ठाणेहि जीवा रइयत्ताए कम्मं पकरेंति, भद्ररूपा , 'ठिकल्लाणा' स्थितिकन्यागा =अनेकपन्योपममागरोपमरूपचिरस्थितिका 'आगमेसिभटा आगमिप्यता -आगमिप्यत् आगामिकालभावि भद्र-कल्याण-निर्वाणरूप येपा ते तया, 'जाव पडिरूवा' यावत्प्रतिरूपा अतिरमणीयाऽऽकारा , यावच्छन्द्वात्'प्रामादीया दर्शनाया अमिरूपा' इति बोध्यम् । पुनरपि 'तमाइक्रखइ' तटाचष्टेत प्रवचन कथयति--' एव खलु चाहिं ठाणेहिं जीवाणेरइयत्ताए कम्म परेंति' एव खल चतुर्मि स्थान वा नैयिकताया कर्माणि प्रकुर्वन्ति, तत्र नैयिकताया =नारफित्वस्य, सागरोपम तक देवलोक में इनकी स्थिति होने के कारण ये देव स्थितिकल्याण कहे गये है। इनम से आकर ही तो मनुष्यपर्याय लेकर जीव निवांग-मुक्ति का लाभ करते हैं, अत वे (आगमेसिभदा) आगमिष्यन्द्र कहे गये हैं ।(जाव पडिरुवा) यहाँ पर 'यावत्' शब्द से "मासाठीयाः, दर्शनीयाः, अभिरूपाः" इन पदो का भी मार हुआ है । 'मासादीया इदे देगने से मन प्रसन्न हो जाता है। अत एप ये 'दर्शनीया:' दर्शनीय हैं। 'अभिरूपाः' इनके रूप की सुन्दरता प्रतिक्षण नवीन नवीन भाव से बढती रहती हो मे ये माइम होते हैं, इसलिये ये अभिरूप हैं। 'प्रतिरूपाः' इनके रूप को तुलना नहा हो सकती है, क्यों कि इनका रूप असाधारण होता है, अर्थात् ये अनुपम सुन्दर होते है। अब हम प्रवचन का क्या फल है ? इसको कहते हैं (एर गलु चउहि ठाणेहि जीवा रइयत्ताए सम्म परेंति ) यह जीव __चार कारगों द्वारा नरक में ले जानेवाले कर्मों को करते है, अब इस बात को प्रभु प्रकट (ठिकाणा) मने पल्यापम सागसपम सुधा ४मा भनी स्थिति હેવાના કારણે તે દેવે સ્થિતિ કલ્યાણ કહેવાય છે તેમાથી આવીને જ મનુध्यपर्याय पास निष-मुनि सास ४२ छ, भाटे तशी (आगमेमिभद्दा) मागमिष्यमाद्र ४उवाय छे (जार पडिरूमा) सही यात् vथा 'प्रामादीया, दर्शनीया , अभिरूपा' से पहानी ५y सड यथे। छ "प्रासानीया "-अमन त मन प्रसन्न य नय छ २मा भाटे १ तमा 'दर्शनीया' शनीय छ 'अभिरूपा' समना ३५नी सुरता प्रतिक्षा नवीन નવીન ભાવથી વધતી જતી હોય તેમ તેઓ જણાય છે, તે માટે તેઓ અભિ३५ प्रतिरूपा' भनी ३पनी तुलना न थ , भो तभनु ३५ અસાધારણ હોય છે, અર્થાત તેઓ અનુપમ સુંદર હોય છે. હવે આ પ્રવ ચનનું શુ ફલ છે ? તે કહે છે (एव सलु चहि ठाणेहिं जीवा गैरइयत्ताए फम्मं पफरेंति) मा छ यार
SR No.009334
Book TitleAuppatiksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages868
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size26 MB
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