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ओपपातिकमरे णं मणुस्से तेसिं निजरापोग्गलाणं णो किंचि वण्णेणं वणं जाव जाणइ पासइ ।। सू० ७८।।
मूलम्-एए सुहमा णं ते पोग्गला पण्णत्ता, समणातेनाऽर्थेन हे गौतम ! ण्वमुच्यते-'छउमत्थे ण मणुस्से छपस्थ ग्वल मनुष्य 'तेसि गिजरापोग्गलाण' तेपा निर्जरापुदगलाना 'न किंचि गणेण' न किंचिद् वर्णेन 'वण्ण' वर्ग 'जार जाणट पासई' यानजानाति पश्यति । तस्य आयस्य सातिशयनानाभावास यथावस्थितस्वरूपेण वर्गादिक न जानाती यर्थ ॥ स ७८ ॥
टीका-'एए सुरमा' इत्यादि । 'एए' एते वर्गादयस्तया 'सहुमा' सूदमा सन्ति यत् तान् यथारस्थितस्वरूपेग उारयो न जानाति, तथा 'ते पोग्गला' ते पुद्गला -निर्जरापुद्गला अतिसूक्ष्मा 'पण्णत्ता' प्रजमा । 'समणाउसो' हे श्रमण ! है आयुष्मन् ! अथवा-श्रमणशासाचायु माथेति समासस्तस्यामन्त्रण हे श्रमणायुप्मन् ! हे गौतम ! कही गई है कि (उउमत्ये ण मणुस्से) उस उमस्थ के सातिशय ज्ञान का अभाव है, अत वह यथावस्थित रूप से (तेसि गिजरापोग्गलाण) उन शिर्जरित पुद्गलों के (णो किंचि वण्णेण वण जाव जागइ पासद) वणादिक को थोडा भी नहीं जान सकता है, न देख सकता है ।। सू ७८ ॥
'एए सुहुमा ' इत्यादि।
(एए सुहमा णं ते पोग्गला पण्णत्ता) उन निर्जरापुद्गलों को छमस्थ यथावस्थित रूपसे इस कारण से भी नहा जान सकता है कि उन पुद्गलों के वर्गादिक गुण सूक्ष्म है, अत (समकाउसो । सबलीय पि य ण ते फुसित्ता ण चिति) हे आयुपात ४ी छते थे. भाटे ४बी (छउमत्थे ण मणुम्से) ते छस्थ ने सातिशय ज्ञाननी मला ती ते यथापयित३५थी (तेसि णिजरापागलाण) त नि रित गान (णो किंचि वण्णेण व जान जाणइ पासइ) વર્ણ આદિકને જરા પણ જાણી શકતો નથી, જોઈ પણ શકતો નથી (જૂ ૭૮)
'एए मुहुमा ण' इत्यादि
(ए सुहमा ण ते पोग्गला पण्णत्ता) त निIYEnाने छमश्य યથાવસ્થિતરૂપથી એ કારણથી પણ જાણી શકતો નથી કે તે પુદ્ગલેના વર્ણ
साहिल शु भूम छ तेथी (समणासो। सव्वलोय पि य फुसित्ता ण चिति) मायुष्मन् भए ! पीएमय 14 आ४ि गुथे। वारा