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________________ રૂહર ओपातिकमरे ' मृलम्-तएणं से हथिवाउए बलवाउयस्स एयम सोचा आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेड, पडिसुणित्ता छेयायरिय-उबएस-मड-कप्पणा-विकप्पेहि मुणिउणेहिं उज्जल-णेवत्थ टीका-'तए ण से' दयानि । 'तप ण' तत बग्याताजाऽनन्तर खलु ‘से हस्थियाउए' म हस्तिव्यापूत -महामान , 'बलपाउयस्स एयम सोचा बलव्याप्तस्य एतमर्थ-मुमजितगजाऽऽनयनादिरूप वचन श्रुवा, 'आणाए विणएण वयण पडिमुणेड' आजाया विनयेन पचन प्रतिशृगोति-विनयपूर्वकमाजावचन-सेनापतिनिर्देशमङ्गीकरोति, 'पडिसृणित्ता' प्रतिश्रुय । छेयायरिय-उवएस-मड-कप्पणाविकप्पेहि ठेकाऽऽचार्यो-पदेश-मति-फापना-विक -छेकाचार्यस्य-पटुतरशिपशिक्षकस्योपदेशाजाता या मति =बुद्धि तया या कल्पना सजना-हस्तिना शृङ्गारसमारचना, ता विविधप्रकारेण कल्पयति ये ते तथा ते सुशिक्षकोपदेशल धबुद्ध्या विशिष्ट शिल्पकल्पनाकारकैरित्यर्थ , अता 'मुणिउणेहि ' मुनिपुणे -गजादिशृङ्गाररचनाकुटालै 'उज्जलचतुरगिणा सेना को भी मुसन्नित करो । (सण्णाहेत्ता ) सन्नद्र करके (एयमाणत्तिय पञ्चपिणाहि) बाद में इस मेरी आजा के यथावत् पालन करने की हमें पीछे ग्ववर दो।म् ४१॥ 'तए ण से हथिवाउए' इत्यादि । (नए ण) सेनापति के आदेश देने के बाद (से हत्थिवाउए) वह हाथियों का अधिकारी (बलबाउयस्स) सेनापति के (एयम) इस बातको (सोचा) सुनकर (आणाए वयण) आजा के वचन को (विणएण) विनयपूर्वक (पडिमणेह) स्वीकार किया । (पडिसुणित्ता) स्वीकार कर उसने (छेयायरिय-उवएस मइ-कप्पणा विकप्पेहि) छेकाचायेविशिष्टनिपुणशिल्पशिक्षक के उपदेशा से उद्भूत वुदि द्वारा विविध प्रकारका रचना से हाथिपन्चप्पिणाहि) ५७ मा भारी माज्ञाने यथावत् पाणी तनी भने पाछी ખબર આપ (સ્ ૪૧). 'तए ण से हस्थियाउए' त्याह (तए ण) सेनापति माहेश या पछी (से हथिवाउए) ते हाथीमाना अपिताश (बल्वाउयस्स) मेनातिनी (एयमट्ट) मे वातन (सोचा) सामगीन (आणाए वयण) माज्ञान क्यनने (विणएण) विनयपू (पडिमुणेइ) स्वी२ यो.. (पडिसणित्ता) स्वी४२ ६शने तेथे (छेयायरिय-उवएम-मइ-कापणा विक E) છેકાચાર્યવિશિષ્ટ નિપુણ શિલ્પા શિક્ષકના ઉપદેશથી ઉદ્ભવેલી બુદ્ધિ
SR No.009334
Book TitleAuppatiksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages868
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size26 MB
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