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ओपपातिकमरे ण अवहमाणए, एवं थिमिए पसन्ने जाव से वि य परिपूए णो चेव णं अपरिपूए, से वि य सावजे ति काउंणो चेव णं अणवने, से वि य जीवत्ति काउं णो चेव णं अजीवे, से वि वहमाणए णो चेवाण आहमाणए' तदपि च बहमान नो चैर ग्वल्लु अरहमानम् , 'एव थिमिए पसन्ने जाव' एव स्तिमित प्रसन्न यावत् ' से वि य परिपूर णो चेरण अपरिपूए' तदपि च परिप्त नो चैन खलु अपरिपूतम्, कस्मात् कारणात् परिप्त गृणा तीयत आह-' से विय सावने ति काउ' तदपि च मावमिति कृवा-इति । इद जल सावधमस्तीति जात्वा वस्त्रगालित कृवा ग्रहणाताति भान । णो चेवण अणवज' न चैव खल अनवद्यम्-न तु निरनयमिति कृत्या परिपूतं करोति । सायद्यमित्यपि कथ जातम् । इत्यत आह-' से वि यजीवति काउ-तदपि च जीवा इति कृत्वा, इह पुतरकादिजाना सन्तीति कृत्वेति भाव', 'णो, चेव ण अजीवे ति काउ' नो चैव ग्वल अजीव-जीनरहितम् इति कृत्या, “से वि य दिण्णे णो चेव ण अदिण्णे' तदपि च दत्त नो चैव खन्वदत्तम् , महण करना कन्पता है । (से वि य वहमाणए णो चेव ण अवहमाणए ) जितना भर्ष आढक-प्रमाण जल लेना इसे कल्पता है सो भी बहता हुआ ही कल्पता है, अबहता हुआ नहीं। ( एव थिमिए पसन्ने जाव से विय परिपए णो चेव णं अपरिपूए) वह भी कर्दम से रहित, स्वच्छ, प्रसन्न-निर्मल यावत् परिप्त-ठाना हुआ ही कल्पता है, इससे विपरीत नहीं। ( से वि य सापजेत्ति काउणो चेव ण अणवजे) सामा सारच समझ कर छाना हुआ ही कल्पता है, निरवच समझ कर नहीं । ( से वि य जीवत्ति काउ णो चेव ण अजीवे) सावध भी उसे वह जीवसहित समझ कर ही मानता है, अजीप समझकर' नहीं। (से वि य दिण्णे णो चेव ण अदिण्णे) ore सय ४२७ ४८ये छ (से वि य वहमाणए णो चेव ण अवहमाणए) જેટલુ અર્ધઆઢક પ્રમાણ જલ લેવું તેને કહે છે તે પણ વહેતું હોય ते पे छ, न पहेतु डाय ते नलि (एव थिमिए पसन्ने जाव से वि य परिपूए णो चेव ण अपरिपूए) ते पर उभा (य२३)थी २डित, प પ્રસન્ન-નિર્મળ યાવત્ પરિપત–ગાળેલુ જ કપે છે, તે વિનાનું નહિં (તેનાથી sae नथी ४६५g) (से वि य सावजेत्ति काउ णो चेव ण अणवज्जे) पर भाव समलने गाणे ४८ , निरषय समलन नडि (से वि य जीवत्ति काउ णो चेव ण अजीवे) सावध प त त सहित समलने भान छ, म ममलने नडि (से वि य दिण्णे णो क्षेत्र न अदिग्गे)
ये मार डाय ते ॥ ४ छ हीधा परनु नलि (से नि