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पीयूपपणी-टीका, शाखोपमहार
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वाव=याघातनर्जितम् 'जणीवम्' अनुपमम्=साहय्यवर्जिन सिद्धिस्थान 'पत्ता प्राप्ता =अधिष्टिता मित्रा, 'मुह पत्ता' सुख प्रामा=मुखमधिगता अतएन 'मुही' सुम्चिन सन्त सव्वमणागमद्र' मनाना सर्व भविष्यत्काल 'चिह्नति' निष्टन्तीति ॥ सू १२८ ॥ || औपपातिक समाप्तम् ॥
॥ इति श्राश्विनियत -जगद्दल्लभ- प्रसिद्धवाचक- पञ्चभापाकलितललितकला-पालापक -- प्रनिशुद्धगयपयनै कमन्यनिर्मापक - वादिमानमर्दक - श्राशाहूउपत्ति कोल्हापुरराजप्रदत्त - 'जैनगाखाचार्य' - पत्रभूषित--कोल्हापुरराजगुरुपालनहाचारि - जैनाचार्य - जैन मंदिवाकर पूज्य श्रीघासीलालप्रतिचिरचिता औपपातिक-सूत्रस्थ पीयुपवर्षिण्यारया व्याख्या सम्पूर्णा ॥
(अववाह अणोत्रम पत्ता) प्राम हुए उस मुक्ति स्थान में (सन्नमणागयमदं चिति सुही मुह पत्ता ) अनन्तकाल तक सदा सुखी ही रहते हैं । ॥ सू १२८ ॥
॥ इति औपपातिकसूत्र का हिन्दी अनुवाद सम्पूर्ण ॥
tena चिट्ठति सुही सुद्द पत्ता ) अन तक्षण सुधी सुखी रहे छे ( सू १२८ ) ઈતિ ઔપપાતિક સૂત્રને ગુજરાતી અનુવાદ સંપૂર્ણ