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पोयूषषिणी-टीका स ६४ अनारम्भादिमनुष्ययिपयेभगवद्गीतमयो.संघाद ६.५
मूलम्-से जे इमे गामागर जाव सण्णिवेसेसु मणुया भवंति, तं जहा-अणारंभा अपरिगहा धम्मिया जाव कप्पेमाणा
टीका---' से जे इमे' इत्यादि । 'से जे इमे गमागर जाव सण्णिवेसेसु' अथ य इमे प्रामाऽऽकर यावत् सन्निवेशेषु 'मणुया भवंति ' मनुजा भवन्ति, 'तं जहा' तयथा-'अणारंभा अपरिगहा धम्मिया जाव कप्पेमाणा' अनारम्मा अपरिग्रहा धार्मिका यावत् कल्पयन्त , अत्र-यावच्छन्देन 'धम्माणुया, धम्मिट्ठा, धम्मक्खाई,धम्मप्पलोई, धम्मपलज्जणा, धम्मसमुदायारा, पम्मेणं चेत्र वित्ति' धर्मानुगा धर्मिष्ठा धर्मात्यायिनो धर्मप्रलोकिनो धर्मप्ररखना धर्मसमुदाचारा धर्मणैव वृत्तिम्-इति पाठो में उत्कृष्ट वाईस सागरोपम स्थिति कही गयी है । भवशिष्ट पहले के समान समझना चाहिये ।। सू. ६३ ॥
'से जे इमे' इत्यादि।
(से जे इमे) जो ये (गामागर जाव सणिवेसेसु) ग्राम आकर आदि निवास स्थानों से लेकर सन्निवेश तक के निवासस्थानों में (मणुया भवति) मनुष्य निवास करते हैं और उनमें जो कई एक मनुष्य (साह) साधु होते है वे (अणारंभा) आरभ से रहित होते है, (अपरिग्गहा) परिग्रहवर्जित होते है, (धम्मिया) धार्मिक होते हैं, (जाव धम्मे
व वित्ति कप्पेमाणा) एव निदोंप मिक्षा से अपनी सयमयात्रा का निर्वाह करते है। यहाँ 'जाव' शब्द से "धम्माणुया, धम्मिटा, धम्मक्खाई, धम्मपलोई, धम्मपलजणा, धम्मसमुदायारा, धम्मेण चेव वित्ति" इस पाठ का ग्रहण हुआ है। इसको બાવીસ સાગરેપમ સ્થિતિ કહેવાય છે બાકી બધુ પહેલા પ્રમાણે સમજવું प . (सू १)
‘से जे इमे' त्यादि
(से जे इमे) तशा (गामागर जाव सण्णिवेसेसु) ४२ माहि निवासस्थानायी बधन सन्निवेश सुधाना निवासस्थानाभा (मणुया भवति) મનુષ્ય નિવાસ કરે છે અને તેમાં જે કેટલાએક મનુષ્ય (g) સાધુ હોય छ तेसो (अणारमा) मारलथी २डित डोय छे, (अप्पपरिग्गहा) परिश्रपति अस्य , (धम्मिया) पाभि य छ (जाय धम्मेणेच वित्ति कापेमाणा) तेभा निहाए-लिसापड पातानी भयभयात्राना निs ४२ छ मला 'जाव' शथी "धम्माणुया, धम्मिदा, धम्मक्साई, धम्मपलोई, धम्मपलजणा, धम्मसमुदायारा, धम्मेण चेव वित्ति' मा पाइने ५ ४२पामा माल्यो छ मानी व्याध्या