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औपपातिक
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स्थित
अप्पsिहय-वर-नाण- दंसण-धरे वियदृच्छउमे जिणे जावए तिष्णे धर्मेण - न्यायेन वरः श्रेष्ठ इतरतीयिंकाsपेक्षयेति धर्मपरः, धर्मा पुण्य-यम- न्याय स्वभानाssचारसोमपा, इत्यमर, स चासौ चातुरन्तचक्रवर्ती च । या चातुरन्त च तचक चातुरन्तचक्र, वरश्च तच्चातुरन्तचक वरचातुरन्तचक धर्मों परचातुरन्तचकमिन धर्मरचातुरन्तचक्र, तेन वर्तितु वर्तयितु वा गोल यस्य स तथा । 'दीवो' द्वीप - मसारसमुद्रे निमज्जता द्वीपच्यत्वात् । 'ताण' त्राण कर्मकदर्थिताना भग्याना रक्षणसमर्थ । अत एव तेपा ' सरणगई ' गरणगति – आश्रयस्थानम् । ' पड्डा' प्रतिष्ठा - कालजयेऽप्यविनाशिवेन अप्प डिहय-बर- नाण- दसग - परे ' अप्रतिहत रज्ञानदर्शनधर-प्रतिहत जिसका अर्थ " धर्मही वरचातुरन्तचक है " ऐसा होता है । अन्य सौगतादिक धर्म धर्मवरचातुरन्तचक नहीं है, क्योकि उनमे तात्त्विकता का अभाव है । इसका भी कारण एक यही है कि वे यथावस्थित अर्थका यथार्थ प्रतिपादन नहीं करते है । इस धर्मवरचातुरन्तचकके अनुसार जिसके वर्तन करनेका स्वभाव है वह धर्मपरचातुरन्तचक्रवर्ती है, अत एव भगवान् धर्मारचातुरन्तचक्रवर्ता है | भगवान् ससार समुद्रमे इननेवाले प्राणियों के द्वीपतुल्य है, इसलिये वे स्वय ( दीवो) द्वीप है । ( ताण ) कर्मों से कति भयोंके प्रभु रक्षक है इसलिये त्राता कहे गये है, और इसी कारण वे ( स गई ) भव्योंके लिये गरणस्वरूप है । ( पट्टा ) प्रभु स्वय प्रतिष्टास्वरूप इसलिये है कि तीनों कालो म भी उनका कभी भी विनाश नही होता है । ( अप्प - डिहय - बर - नाग - दसणधरे ) प्रभुका अनतज्ञान एव अनत दर्शन अप्रतिहत- निराનિષ્પન્ન થાય છે. જેનેા અધમ જ વચાતુરન્તાક’ છે એવેશ થાય છે બીન્ત સૌગત આદિ, ધર્માંધ વરચાતુન્તચક્ર નથી, કેમકે તેમા તાત્ત્વિ તાને અભાવ છે તેનુ પણ કારણ એક તે એ છે કે તેએ યથાવસ્થિત અને યથાર્થ (અરાખર) પ્રતિપાદન કરતા નથી આ ધર્મવ ચાતુરન્તચક્રને અનુસરીને જેના વર્તન કરવાના સ્વભાવ છે તે ધર્મવરચાતુરન્તચક્રવર્તી છે એટલે જ ભગવાન ધર્મવરચાતુરન્તચક્રવત્તી છે ભગવાન ઞ સાર સમુદ્રમા डूमवावाजा प्राणियोना द्वीप नेवा छे तेथी तेथे पोते ( दीनो) द्वीप है ( ताण ) भोथी हर्थित लभ्योना प्रभु २४ हे ते भाटे तेसो त्राता रहे वाय छे, अने ते जरथुथी तेथे (सरणगई ) लव्याने भाटे शरशुम्भ्व३४ छे ( पट्टा ) अलु पोते प्रतिष्ठा-स्व भेटला भाटे छेत्र अजमा पशु तेभनो ही विनाश यतो नथी (अव्पडिय - वर नाण-दमण - वरे ) प्रभुनु
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