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पोपयर्पिणी टीका ३२ महावीरस्यामिशिष्यवर्णनम्
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वयवर - भंड-भरियसारा जिणवर-वयणो दिह-मग्गेण अकुडिलेण सिद्धिमहापट्टणाभिहासमणवर - सत्थवाहा मुसुङ - सुभास - महानत तंदेन भाण्ड =राणीस्तुजातपगृत =थापित सागे= रनादिरूप पदार्था यैस्ते तथा, केन पथा प्रान्तन्तरन्ता गना- 'जिगोविदुमग्गे ग' जिननरनचनोपदिष्टमार्गण जिनपर वचनम्==नागमन्च्य ताप कथित-मार्ग यमपथ - तेन, 'अकुडिलेन' अकुटि'सिद्धिपट्टणाभिमु' मिद्रिपत्तनाभिमुया - सिद्विरेन पत्तन मुसा न्य मुसा । 'समगनरसत्यता' श्रमणार्थ नाह -श्रमण
- कापट्या
गनपुर
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प्रमाद का परियाग सय जवान मोक्ष गात करा का दृढ निश्चय, इन दोनों मूल्यास गृहीन-नात चरात गगातर भाण्डा का कमणीय वस्तुना का-कि जो निर्जरा, यतना, उपयोग, ज्ञान, दर्शन ए [चाग्नि] सपिशुद्र है, जिनम सार भरा हुआ है ऐसे मुनिजन इस माररूप महासमुद्र स पार होत ह । किम मार्ग पर चढ़ते हुए ये पार होते हे सो जताते है- (जिगवरयगोग्गेण ) जिनवर का जो वचन है-आगम है, उसके
हे - जाडा-टाढा
द्वारा उपदिष्ट जोयमरूप मार्ग है, उस पर चलकर ही ये मुनिजन इस साररूप समुद्र को पार करते हैं । यह मार्ग सा है उसके लिये सरकार (अफुडिलेण ) इस विशेषण से स्पष्ट करते ह - यह मार्ग कपटता आपा से रहित है, अर्थात्-सरल नहीं है । ऐसे मार्ग से प्रयाग करने वाले ये मुनिजन पुन कैस होते हैं यह अब यहा से स्पष्ट किया जाता है - (सिद्धिपट्टाभि इस प्रकार के मार्ग से पयाग करने वाल પ્રમાદના પરિત્યાગ તેમજ વ્યવનાય અર્થાત્ મેાક્ષ પ્રાપ્ત કરવાના દૃઢ નિશ્ચય, એ બન્ને મૂલ્ય (કિં મત) થી લીધેલ-વંચાતા લીધેલ ૧૨ વ્રત-મહાવ્રતરૂપ વાસ गोना-येथाती बीनेसी वस्तुमानाने निरा, यलना, उपयोग, ज्ञान, दर्शन તેમજ ચારિત્રથી વિશુદ્ધ છે જેમા મારુ ભરેલા છે એવા મુનિજન આ મ સારરૂપ મહાનમુદ્રથી પાર થઈ ય છે કયા માર્ગ પ ચાલતા તે પાર થાય છે ? તે बताये है- (जिणारवयणोवदिट्ठमगेण निपनु ने वचन छे-मागम छे-तेना ઢાગ ઉપદેરાએલ જે ઞયમરૂપ માર્ગ છે, તેના પર ચાલીને જ તે મુનિજને આમ મારૂપ સમુદ્રને પાર ડરે છે. આ માર્ગ કેવા ? તે માટે સૂત્રકાર ( अकुडिलेण) मा विशेषयी यष्ट उभा मार्ग उपटता माहि होपोथी રહિત છે અર્થાત્ બરળ છે, આર્ટિંગ નથી એવા માયી પ્રયાણ કરનારા એ મુનિજને વળી જેવા હોય છે તે બધુ અહીની સ્પષ્ટ કરવામા આવે છે (सिद्धिपट्टणाभिगुहा) से अजरना मार्गे प्रयाणु उरवावाजा भुनिन्नो भिद्धि३य